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रामदरश मिश्र |
हिंदी की फ़ासिस्ट और तानाशाह आलोचना ने जाने कितने रामदरश मिश्र मारे हैं । लेकिन रचना और रचनाकार नहीं मरते हैं । मर जाती है फ़ासिस्ट आलोचना । मर जाते हैं फ़ासिस्ट लेखक । बच जाते हैं रामदरश मिश्र । रचा ही बचा रह जाता है । रामदरश मिश्र ने यह ख़ूब साबित किया है । बार-बार किया है । इसी लिए रामदरश मिश्र को आज साहित्य अकादमी मिलने पर मैं गर्व और हर्ष से भर गया हूं। इस लिए भी कि वह हिंदी के तो हैं ही , हमारे गोरखपुर के हैं । हमारे गांव के पास ही उन का गांव है डुमरी। पैतीस साल से अधिक समय से उन के स्नेह का भागीदार हूं। गोरखपुर के दूसरे लेखक हैं रामदरश मिश्र जिन्हें साहित्य अकादमी सम्मान मिला है । इस के पहले रघुपति सहाय फिराक़ को यह सम्मान मिला था । फिराक़ गोरखपुरी का गांव भी मेरे गांव के पास है । फिराक़ साहब तो अपने गांव आना-जाना एक समय छोड़ बैठे थे पर रामदरश जी , अब भी अपने गांव आते-जाते रहते हैं । उन की आत्मकथा में , उन की रचनाओं में उन का गांव और जवार सर्वदा उपस्थित मिलता रहता है । साहित्य अकादमी सम्मान भले उन को आज देर से मिला है पर डुमरी गांव भी यह ख़बर सुन कर ज़रूर झूम गया होगा । हालां कि अब साहित्य अकादमी के वह मुहताज नहीं रह गए थे तो भी सम्मान , सम्मान होता है । इस लिए भी मन सुरूर से भर जाता है । उन का ही एक शेर है , जो आज की तारीख़ में उन पर बहुत मौजू है :
जहां आप पहुंचे छलांगें लगा कर
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे
मेरी
जानकारी में रामदरश मिश्र पहले ऐसे लेखक हैं जिन को बानबे वर्ष की उम्र
में साहित्य अकादमी मिला है । इतनी उम्र तक तो लोग जीवित भी नहीं रहते ।
बहुत कम लोगों को यह उम्र नसीब होती है । लेकिन उन की उम्र की तरह उन की
उपेक्षा का जाल भी बहुत बड़ा है । विपुल और समृद्ध रचना संसार के बावजूद
इतनी लंबी उपेक्षा भी एक यातना है । लेकिन रामदरश मिश्र ने अपनी जुबान पर
कभी यह दर्द नहीं रखा । यातना की यह दास्तां नहीं कही । किसी भी से । न मौखिक , न
लिख कर । अपनी आत्मकथा में भी नहीं । लगभग सभी विधाओं में उन्हों ने लिखा
है । और श्रेष्ठ लिखा है । नामवर सिंह और रामदरश मिश्र बनारस हिंदू
विश्विद्यालय में सहपाठी भी रहे हैं और सहकर्मी भी । साथ-साथ पढ़े और पढ़ाया।
दोनों ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य हैं । लेकिन नामवर सिंह ने भी
कभी रामदरश मिश्र के नाम पर सांस नहीं ली । और जब नामवर ने सांस नहीं ली
तो बाक़ी लोग भी कैसे और क्यों लेते ? कहा न कि हिंदी की फ़ासिस्ट आलोचना ने जाने
कितने रामदरश मिश्र मारे हैं । इतनी कि अब हिंदी आलोचना ही मर मर गई है ।
आलोचना नाम की संस्था ही समाप्त हो गई है । रैकेटियर लेखकों और रैकेटियर आलोचकों की खेमेबाज़ी ने रचना और रचनाकार का ही नहीं , हिंदी साहित्य का भी बहुत नुकसान किया है । पाठकों को दीमक की तरह खा लिया है । अपनी सनक , ज़िद और तानाशाही में लेखक-पाठक संबंध समाप्त कर दिया है । अब तो आलम यह है कि ख़ुद ही लिखते हैं , ख़ुद ही पढ़ते हैं । इस दुखद मंज़र पर मृणाल पांडे ने लिखा ही है ; ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ लेकिन रामदरश मिश्र इस ज़मीन को तोड़ते हैं । तोड़ते ही रहते हैं । जैसे उन का रचना संसार समृद्ध है , पाठक परिवार भी उन का उतना ही समृद्ध और पुष्ट है ।
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रामदरश मिश्र |
जानना यह भी दिलचस्प होगा कि 2010-2011 में ही रामदरश मिश्र को साहित्य अकादमी मिलना था । लेकिन अशोक वाजपेयी की मनमानी ने उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी दे दिया । तब जब कि किसी कहानी पर साहित्य अकादमी देने की परंपरा नहीं रही है । मोहनदास कहानी है , जो हंस में लंबी कहानी रूप में छपी हुई है । लेकिन लामबंदी के तहत बड़े फांट में उपन्यास कह कर मोहनदास छाप कर उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी दिया गया । तब जब कि आधार-पत्र में उदय प्रकाश का या मोहन दास का कोई ज़िक्र नहीं था । अनैतिकता और लंठई की यह पराकाष्ठा है । पर ज्यूरी में उपस्थित अशोक वाजपेयी ने आधार पत्र को किनारे कर दिया । उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित कर दिया । चित्रा मुदगल ने समर्थन कर दिया । मैनेजर पांडेय की असहमति को अशोक वाजपेयी और चित्रा मुदगल ने सुना भी नहीं । मैनेजर पांडेय रामदरश मिश्र का नाम लेते रह गए । तो अब की बार की ज्यूरी में साहित्य अकादमी ने विवादित और बवाली लोगों से दूरी बना कर रखी । अब की हिंदी की ज्यूरी में मुंबई से राम जी तिवारी , मुज़फ्फरपुर से महेंद्र मधुकर , और चंडीगढ़ से माधव कौशिक थे । रामदरश मिश्र को बहुतायत लोग कथा के लिए जानते हैं । पर रामदरश मिश्र को अब की बार साहित्य अकादमी मिली है कविता के लिए । ऐसा पहले भी हो चुका है साहित्य अकादमी के साथ । और कई बार । जैसे कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को लोग जानते तो हैं आलोचना के लिए पर उन्हें साहित्य अकादमी मिला उपन्यास के लिए । वह भी वाण भट्ट की आत्म कथा के लिए नहीं अनामदास का पोथा के लिए । और तो और नामवर को साहित्य अकादमी मिलने के दो साल बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को साहित्य अकादमी मिला । नामवर शिष्य है आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के , यह बताने की भी ज़रूरत है क्या ? हां , नामवर को आलोचना के लिए ही मिला था साहित्य अकादमी । साहित्य अकादमी के विवाद और भी बहुतेरे हैं । फिर भी बहुत कुछ शेष है साहित्य अकादमी में अभी भी । इस लिए भी कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष अभी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं । संत स्वभाव और विवादों से दूर रहने वाले तिवारी जी हैं तो बहुत कुछ बचा है , साहित्य अकादमी में । बावजूद तमाम विवाद और अपनी तमाम सुनामी के । बचा ही रहेगा । रामदरश जी की ही एक कविता में कहूं :
यहीं कहीं रात के पिछले पहर में
पिता के दर्दीले कंठ से फूटता था लोक रस से भीगा गीत
वह गली-गली भटकता हुआ पूरे गाँव को भिगो देता था
यहीं कहीं रुनझुन-रुनझुन गति से चलती हुई भाभी अपने
नन्हे देवर को छेड़ती थीं
और उनकी हँसी आँगन में बहने लगती थी
स्वच्छ हवा की तरह
यहीं कहीं एक कमरा था
जिसमें जाड़ों में पुवाल बिछा होता था
यहीं गुदड़ी के नीचे दुबकी मेरी आँखों में
कितने महकते हुए सपने जन्में थे
और अंकित हो गए थे दीवारों पर, छत पर, यहाँ वहाँ
बावला मन उदास हो गया
मैंने देखा-
एक ताख में
रामचरित मानस की पोथी-अभी भी रखी हुई थी
मैं खुश होकर चिल्लाया-
ओ बावले मन
उदास मत हो
देख
यह पोथी बची है
तो अभी बहुत कुछ बचा हुआ है !
बचा हुआ तो है । बहुत कुछ बचा हुआ है । फासिस्टों का वह खिसियाया हुआ आरोप भी आना अभी बचा हुआ है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी चूंकि ब्राह्मण हैं , गोरखपुर के हैं , इस लिए गोरखपुर के एक ब्राह्मण को साहित्य अकादमी दे दिया । ख़ास कर वह रैकेटियर लेखक , वह फ़ासिस्ट आलोचक जो तमाम क्रांतिकारिता के बावजूद , तमाम असहिष्णुता के बावजूद साहित्य अकादमी का यह अमृत पीने को बेकरार थे । फ़िलहाल तो रामदरश मिश्र की यह ग़ज़ल यहां बांचिए और रामदरश मिश्र को बधाई ज़रूर दीजिए । वह दिल्ली के उत्तम नगर के वाणी विहार में रहते हैं । उन का नंबर है 09211387210
फ़िलहाल तो रामदरश मिश्र की यह पूरी ग़ज़ल पढ़िए । जो आज के दिन बहुत मौजू है :
बनाया है मैं ने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे।
जहां आप पहुंचे छलांगें लगा कर
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे।
पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,
उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।
न हँस कर न रो कर किसी में उडे़ला,
पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।
गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।
ज़मीं खेत की साथ ले कर चला था,
उगा उस में कोई शहर धीरे-धीरे।
मिला क्या न मुझ को ए दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।
रामदरश मिश्र की प्रमुख रचनाएं
उपन्यास : पानी
के प्राचीर, जल टूटता हुआ, बीच का समय, सूखता हुआ तालाब, अपने लोग, रात का
सफर, आकाश की छत, आदिम राग, बिना दरवाजे का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह,
बीस बरस, परिवार
कहानी संग्रह : खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, वसंत
का एक दिन, अपने लिए, आज का दिन भी, फिर कब आएँगे?, एक कहानी लगातार,
विदूषक, दिन के साथ, विरासत
कविता संग्रह : पथ के गीत, बैरंग-बेनाम
चिट्ठियाँ, पक गई है धूप, कंधे पर सूरज, जुलूस कहाँ जा रहा है, रामदरश
मिश्र की प्रतिनिधि कविताएँ, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में
भीगते बच्चे
गजल संग्रह : हँसी ओठ पर आँखें नम हैं, बाजार को निकलते हैं लोग, तू ही बता ऐ जिंदगी
संस्मरण : स्मृतियों के छंद, अपने अपने रास्ते, एक
दुनिया अपनी और चुनी हुई रचनाएँ, बूँद-बूँद नदी, दर्द की हँसी, नदी बहती
है, कच्चे रास्तों का सफर
निबंध : कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख
आत्मकथा : सहचर है समय, फुरसत के दिन
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रामदरश मिश्र अपनी पत्नी और बेटी के साथ |