Monday, 28 December 2015

नीले आकाश में तुम्हारे साथ उड़ जाने को दिल करता है


फ़ोटो : निखिलेश त्रिवेदी


ग़ज़ल

का गुइयां का करें अब पंछी हो जाने को दिल करता है 
नीले आकाश में तुम्हारे साथ उड़ जाने को दिल करता है

यह हरी दूब , यह फूल , फूल की ख़ुशबू साथ ले चलेंगे
प्रेम के अनंत आकाश में घरौदा बनाने को दिल करता है

नदी बेचैन है सागर से मिलने को बहुत बेचैन मैं भी हूं
तुम्हारे प्रेम के समंदर में डूब जाने को  दिल करता है

दूध जैसे उबलता है उफन कर गिरता है ठीक वैसे ही
मचल कर तुम्हारी बांह में घिर जाने को दिल करता है 

पूर्णमासी की रात है मचलती हुई काशी की गंगा है
इस चांदनी में तुम्हारे साथ नहाने को दिल करता है

शीत में डूबी हुई है सुबह , सांझ कोहरे के धुंध में
तुम्हारी देह के कोहरे में खो जाने को दिल करता है
 
ड्राइंग रूम भी कोई बैठने मिलने की जगह है भला
गांव वाले घर के ओसारे में बैठने को दिल करता है


[ 29  दिसंबर , 2015 ]


अम्मा तुम्हारी गोद में दौड़ कर छुप जाने को जी करता है


पेंटिंग : डाक्टर लाल रत्नाकर

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

बचपन गुहराता बहुत  है बच्चा हो जाने को जी करता है
अम्मा तुम्हारी गोद में दौड़ कर छुप जाने को जी करता है 

बेईमान जालसाज दलाल  कुटिल लोगों से घबरा गया हूं 
अम्मा तुम्हारा आंचल ओढ़  कर सो जाने को जी करता है 

ख़बर रोज छपती है अख़बार में बच्ची से बलात्कार की 
अब तो  हर बेटी के हाथ बंदूक दे देने को जी करता है

देश लूटने वालों के साथ अदालत पुलिस सब धोखा है
इन सब को चौराहे पर गोली मार देने को जी करता है 

भारत में सब से बड़ा धोखा है संसद और सुप्रीम कोर्ट 
इन दोनों को आंख मूंद कर दफना देने को जी करता है 

[ 28 दिसंबर , 2015 ]

माल रोड पर झूमती शिमला की रातें हैं


फ़ोटो : निखिलेश त्रिवेदी


ग़ज़ल

तुम्हारी याद है मदिरा में भीगी हुई रातें हैं
माल रोड पर झूमती शिमला की  रातें हैं

तुम्हारा ज़िक्र है , तुम्हारा चित्र है मन में बसा
ह्विस्की के नशे में तुम्हारे बाल ही लहराते हैं

तुम्हारा भरा-पुरा गाल है , गाल पर चुंबन  है
शिमला के टेढ़े मेढ़े रास्ते हैं शहद सी बातें हैं

एक गड्ढा है तुम्हारे गाल में , गड्ढे के नीचे तिल
जैसे किसी ऊंचे पहाड़ पर चढ़ाई की बातें हैं

खजुराहो की मूर्तियां तुम्हारे आगे बेकार हैं
तुम्हारे साथ गुज़री जो अनगिन नशीली रातें हैं

खजुराहो याद आता है वैसे ही तो रिश्ते नाते हैं
हमारे तुम्हारे बीच उस मधुबन की सौगातें हैं

याद आ रही हो तुम सिनेमा के रील की तरह
और याद में भीगी पिछली तमाम मुलाक़ातें हैं

अभी एक लड़की गुज़री रही है बगल से
किसी हिरणी की तरह उस की कुलांचें हैं

चीड़ों पर चांदनी ठहरी हुई है एक अरसे से
निर्मल वर्मा का शहर है उन की ही बातें हैं
 
एक सागर भी है शिमला में लहराता हुआ
मस्ती में डूबी बातें और उस की मुलाक़ातें हैं

शराब में डूबी हुई झूमती एक मस्त महफ़िल है
गुफ़्तगू में भूली हुई एक बालम चिरई की बातें हैं

लाल टीन की छत पर बतियाती दो चिड़िया बैठी हैं
बेटियों की तरह आकाश में उड़ जाने की बातें हैं

मुहब्बत अय्यासी नहीं भक्ति का एक पाठ होती है
लोग क्या जानें यह तो मुरली बजइया की बातें हैं

इश्क पाक़ीज़ा बना देता है जीना सिखा  देता है
मीरा का भजन है अमीर खुसरो कबीर की बातें हैं

वह घुल गई है मेरी ज़िंदगी में ऐसे जैसे बताशा
बहुत गझिन बहुत हसीन यादों की बारातें हैं

बातें ख़त्म कहां होती हैं जब बिछड़े हुए मिल जाएं
लखनऊ की भूलभुलैया इमाम बाड़ा की बातें हैं

नदी है , नदी की धार है , नाव में हम तुम
दिलकश चांदनी में नहाई काशी की रातें है

रात गुज़री है तुम्हारे सपनों और ख़यालों में
सुबह के चमकते सूरज सा हम भी इतराते हैं

तुम से मिलने की चाहत और छटपटाहट
जैसे मन में रजनीगंधा के खिल जाने की बातें हैं

[ 28 दिसंबर , 2015 ]

Sunday, 27 December 2015

देवदास लोग रोया नहीं करते सब के सामने


पेंटिंग : डाक्टर लाल रत्नाकर


 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

इस लिए मैं चुप रहता हूं सर्वदा सब के सामने
देवदास लोग रोया नहीं करते सब के सामने

नयन में नीर सब के होता है दिखाता कोई नहीं
छुपाता हर कोई पर घाव होता है सब के सामने

टूट जाते हैं , मिट जाते हैं, मर जाते हैं  बड़े-बड़े सूरमा 
प्रेम की नुकीली नागफनी जब डसती है सब के सामने

हंसना सब को आता नहीं मुश्किल बहुत है चोट खा कर
मस्त बहारों का आशिक बन कर घूमना सब के सामने

ज़िंदगी का जहर सब को सूट करता नहीं वह तो मैं हूं
बात-बेबात ठहाका लगाता  रहता हूं सब के सामने

नौकरी बांधती है बैल की तरह खूंटे से पर मैं हाज़िर हूं
आवारा बादल की तरह घूमता हुआ सब के सामने

नागफनी की मुश्किल किस के जीवन में उगती नहीं
गुलाब खिलता है कांटों के बीच रह कर सब के सामने

रोता मैं भी हूं अकेले में जब-तब अपने घाव सहलाते हुए
अभिनेता नहीं हूं पलकें भीग भी जाती हैं सब के सामने

सफलता बांध लेती है बेजमीरी के गमले में बोनसाई बना कर
बड़े-बड़ों को देखा है कुत्तों की तरह पट्टा बांधे सब के सामने

कभी झुकता नहीं  बेचा नहीं जमीर किसी सुविधा की तलब में
असफल हूं तो क्या हुआ सीना तान कर  खड़ा हूं सब के सामने

जुबां अना जमीर सब सही सलामत है बेचा नहीं कभी कहीं
मेरी ज़िंदगी खुली किताब है हाजिर है सर्वदा सब के सामने

मुहब्बत में जहांपनाह होना आसान नहीं होता यारो
ताजमहल बना कर रोते हैं शाहजहां सब के सामने


[ 27 दिसंबर , 2015 ]

Saturday, 26 December 2015

मैं आऊंगा चोटों के निशान पहने कभी



मित्र पंकज सिंह नहीं रहे , इस ख़बर पर बिलकुल यकीन नहीं हो रहा। कुछ खबरें ऐसी होती हैं जो धक से लग जाती हैं कि अरे ! यह ऐसी ही ख़बर है । बहुत सारी यादें हैं । फ़िल्मकार प्रकाश झा और उन के साथ गुज़री कुछ न भुला पाने वाली साझी यादें हैं । दिल्ली में जब रहता था , तब की मुलाक़ातें हैं । लखनऊ की मुलाक़ातें हैं । मदिरा में भीगी हुई रातें हैं । फ़ेसबुक की बातें हैं । भाषा और शब्दों के प्रति अतिशय सतर्क रहने और सचेत करने वाले पंकज सिंह कामा और पूर्ण विराम तक की संवेदना को समझते थे , बहुत शालीनता से समझाते भी थे । लेकिन अभी कुछ भी कह पाने का दिल नहीं हो रहा। मुझ से कुल दस साल ही बड़े थे । यह भी कोई जाने की उम्र थी भला ? मैं आऊंगा चोटों के निशान पहने कभी लिखने वाले भी जानते हैं कि जाने के बाद कोई नहीं लौटता। सर्वदा कविता के सुखद आनंद में जीने वाले पंकज सिंह को उन की ही कविता में विनम्र श्रद्धांजलि !




गेरू से बनाओगी तुम फिर
इस साल भी
घर की किसी दीवार पर ढेर-ढेर फूल
और लिखोगी मेरा नाम
चिन्ता करोगी
कि कहाँ तक जाएंगी शुभकामनाएँ
हज़ारों वर्गमीलों के जंगल में
कहाँ-कहाँ भटक रहा होऊंगा मैं
एक ख़ानाबदोश शब्द-सा गूँजता हुआ
शब्द-सा गूँजता हुआ
सारी पृथ्वी जिसका घर है
चिन्ता करोगी
कब तक तुम्हारे पास लौट पाऊंगा मैं 

भाटे के जल-सा तुम्हारे बरामदे पर
मैं महसूस करता हूँ
तुलसी चबूतरे पर जलाए तुम्हारे दिये
अपनी आँखों में
जिनमें डालते हैं अनेक-अनेक शहर
अनेक-अनेक बार धूल
थामे-थामे सूरज का हाथ
थामे हुए धूप का हाथ
पशम की तरह मुलायम उजालों से भरा हुआ

मैं आऊंगा चोटों के निशान पहने कभी

Friday, 25 December 2015

अम्मा ने बुढ़ौती में पिता से खुल कर बग़ावत कर दी है

पेंटिंग : डाक्टर लाल रत्नाकर

ग़ज़ल 

अब और वह सह नहीं  सकती  यह मुनादी कर दी है
अम्मा ने बुढ़ौती में पिता से खुल कर बग़ावत कर दी है

चंद्रमुखी थी , सूरजमुखी हुई उपेक्षा की आग में जल कर
अब ज्वालामुखी बन कर  पिता की हालत ख़राब कर दी है

जैसे दबी-दबी स्प्रिंग कोई मौक़ा मिलते ही बहुत ऊंचा उछल जाए
सहमी सकुचाई अम्मा ने अचानक उछल कर वही ऊंची कूद कर दी है
 
पिता एकदम से ख़ामोश हैं अम्मा का भाषण मुसलसल जारी है
इस तेजाबी भाषण ने घर की बाऊंड्री में बारूदी हवा भर दी है

घर बचे या जल कर भस्म हो जाए परवाह नहीं किसी बात की उस को
यह वही अम्मा है जिस ने इस घर के लिए अपनी ज़िंदगी होम कर दी है

अब वह सिर्फ़ घर नहीं , बच्चे नहीं ,अपनी अस्मिता भी मांगती है
पिता जो कभी सोच सकते नहीं थे वह मांग उस ने आगे कर दी है

पुरुष सत्ता जैसे झुक गई है स्त्री की इस आग और अंदाज़ के आगे
जो झुकती नहीं थी कभी उस ने चुप रहने की विसात आगे कर दी है

पिता की तानाशाही उम्र भर चुपचाप भुगती कभी कुछ नहीं बोली
अब बोली है तो जैसे अन्याय के उस सूर्य की ही फ़ज़ीहत कर दी है

बच्चे ख़ामोश हैं , हैरान भी , न्यूट्रल भी माता पिता की इस इगो वार में
जवानी में जो करना था बुढ़ौती में अम्मा ने वह झंझट खुले आम कर दी है

अम्मा रोज भजन गाती थी तो घर खुशबू से भर जाता था , हम लोग महकते थे
घर में कर्फ्यू है , कोहरा है , इमरजेंसी से हालात ने सब की ऐसी-तैसी कर दी है

गंगा में जैसे बाढ़ आई हो , बांध और बैराज तोड़ कर शहर में घुस आई हो
अम्मा ऐसे ही कहर बन कर टूटी है पिता पर और जीना मुहाल कर दी है 

हवा गुम है इस परवाज के आगे , चांद गुमसुम है , सूरज सनका हुआ सा 
सीता वनवास से लौट आई है जैसे और राम की शेखी  खंडित कर दी है

 [ 26  दिसंबर , 2015  ]

इस कविता का मराठी अनुवाद 


🍁अम्मा ने म्हातारपणी पित्याशी
बंडखोरी केली🍁

आता अजून ती साहू शकत नाही ही तिने घोषणा केली आहे
अम्मा ने म्हातारपणी पित्याशी खुलेआम बंडखोरी केली आहे...

चंद्रमुखी होती झाली सूर्यमुखी उपेक्षेच्या अग्नित पोळली
आता ज्वालामुखी बनून तिने पित्याची हालत खराब केली...

जशी दाब,दाबलेली स्प्रिंग संधि मिळताच ऊंच ,ऊंच उसळली
सहमत,संकोची अम्मा ने अचानक तशीच ऊंची आहे गाठली...

पिता एकदम च मौन तरअम्माचे
भाषण निरंतर जारी आहे
ह्या आम्लारी भाष्या ने घराच्या बाउंडरीत हवा बारूदी भरली
आहे...

घर वाचेल की जळून भस्म होईल कश्याची तिला पर्वा नाही
ही तिच अम्मा आहे जिने ह्या घरासाठी सर्वस्वाचा होम केला आहे...

आता ती फक्त घर नाही ,मुले नाही
मागते ती स्वतः ची अस्मिता
पिता जे कधी विचार ही करू शकले नाही
अशी मागणी पुढे करतेय ती आता....

पुरुषी सत्ता जशी झुकली आहे स्त्री च्या आगीत आणि ज्वलंत संघर्षात
जी झुकत नव्हती कधी च तिने मौनाची चादर पसरली आहे...

पित्याची तानाशाही जीवनभर मुक्याने साहिली ना कधी वदली
आता बोलली तर अशी की त्या
अन्यायी सूर्याची दुर्दशाच केली...

मुले अबोल, हैराण ,झाले न्यूट्रल
माता,पित्या चा वॉर ईगो चा झाला
तारुण्यात जो करायचा,म्हातारपणी
अम्माने तो झगडा खुलेआम केला..

अम्मा रोज भजन गायची तेव्हा घर सुरभित होत होते आम्ही ही व्हायचो परिमलित
घरात कर्फ्यू , धुके दाटले, आणिबाणीजन्य स्थिति ने केली सगळ्यांची ऐशी तैशी ..

गंगेला जसा पूर आल्यावर, धरण, बंधारे तोडून पाणी शहरात शिरले
अम्मा ने असेच कहर बनून
पित्याचे जीवन मुश्किल केले ...

हवा ही लोपली ह्या पक्षिणीपुढे,
चंद्रमा स्तब्ध आहे अन भडकलेला मार्तण्ड

सीता वनवासातून परतली जशी अन केला श्रीरामाच्या गर्वाचा खंडन खंड.....

अनुवाद : प्रिया जलतारे 

Thursday, 24 December 2015

तुम्हारी मुहब्बत का जहांपनाह होना चाहता हूं

 
पेंटिंग : राजा रवि वर्मा

  ग़ज़ल 

मजनू नहीं , रांझा नहीं , शाहजहां  होना चाहता हूं 
तुम्हारी मुहब्बत का जहांपनाह होना चाहता हूं 

पहाड़ों में बर्फ़ गिरती है , मचलते रोज हैं बादल 
तुम्हारे प्यार के जंगल में गजराज होना चाहता हूं

प्यार की काशी में पूछते फिरते हैं बादल तुम्हारा ही पता 
उसी काशी में बरखा  की  पहली बौछार होना चाहता हूं 

धरती , वृक्ष , चांद , यह आकाश के जगमग सितारे
मैं तुम्हारे प्रेम से जगमग नदी की धार होना चाहता हूं

नदी की हर मचलती धार में मिलती धड़कन तुम्हारी 
इस धार में बसे वृंदावन का वंदनवार होना चाहता हूं 

पसंदीदा ठंड का मौसम है , रजाई है , आग है , तुम भी
इसी लिए अब सर्दियों की मीठी धूप होना चाहता हूं

हमारे खेत के मेड़ पर बिछी है तेरे क़दमों की हर आहट
प्यार के फागुन में खिल कर कचनार होना चाहता हूं

आते-जाते ही राह बनती है  मन की कच्ची मिट्टी पर 
इस महकती मिट्टी की पुकार हर बार होना चाहता हूं

प्रेम का आकाश और धरती हर इच्छा से बड़ी है  
प्यार के चांदनी की प्रथम मनुहार होना चाहता हूं

लोग देख लेंगे , क्या कहेंगे , तोड़ दो यह सारी वर्जनाएं
प्यार की अजान और नमाज सरे राह पढ़ना  चाहता हूं 

दीवारों में चुना जाऊं या किसी किले में कैद हो जाऊं
तुम्हारी पाकीज़ा  रूह की झंकार  होना चाहता हूं

तुम्हारे हुस्न की दीवानगी मार ही डालेगी किसी रोज 
तुम्हारी खूबसूरत  मांग का चटक सिंदूर होना चाहता हूं

[ 24  दिसंबर , 2015  ]

इस ग़ज़ल का मराठी अनुवाद 


💘तुझ्या प्रेमाचा राजाधिराज व्हावे म्हणतो!💝

मजनू नाही,रांझा नाही, सम्राट व्हावे म्हणतो
तुझ्या प्रेमाचा मी राजाधिराज व्हावे म्हणतो.....

पर्वतांवर हिमपात होतो,रोज आतुरतात मेघ
तुझ्या इश्काच्या वनतला गजराज व्हावे म्हणतो.....

प्रीतिच्या काशी मधे तुझा पत्ता शोधत आहेत मेघ
त्या काशी पार्जन्याचा वर्षाव व्हावे म्हणतो.....

धरती,वृक्ष ,चंद्र ह्या आकाशातील झगमगते तारे
तुझ्या प्रीतिच्या झगमग सरीतेची धार व्हावे म्हणतो.....

नदीच्या उसळत्या लाटेत मिळते तुझी हृदय गति
हया धारेत वसलेल्या वृन्दावनाचे तोरण व्हावे म्हणतो...

पसंतीचा शीत ऋतु,दुलई, आग आहे तू ही
म्हणून च थंडीचे कोवळे ऊन व्हावे म्हणतो....

आमच्या शेताच्या हद्दीत पसरली तुझा पावलांची चाहुल 
प्रीतिच्या फाल्गुनात बहरलेला कांचन व्हावे म्हणतो....

येण्या जाण्याने वाट बनते मनाच्या कच्या मातीवर
ह्या सुगंधित माती ची हाक दर वेळेस व्हावे म्हणतो...

प्रेमाचे आकाश आणि धरती प्रत्येक इच्छेपेक्षा मोठे
प्रीत चांदणी ची पहिली प्रार्थना  व्हावे म्हणतो.....

लोक बघतील, काय म्हणतील सोड हे नकार सारे
प्रेमाची अजान आणि नमाज रस्ता भर वाचेन म्हणतो...

भिंतीत चिणून जाऊ की किल्ल्यात कैद होऊ
तुझ्या पावन आत्म्याचा झंकार व्हावे म्हणतो.....

वेड तुझ्या लावण्याचे ,जीव घेईल एक दिवस 
तुझ्या सुंदर भांगातील चटकदार कुंकु व्हावे म्हणतो......


अनुवाद : प्रिया जलतारे 

Monday, 21 December 2015

यह अहले लखनऊ है कुल्लू मनाली की बर्फ़ नहीं जो गुड़ के साथ खाना है

चारबाग़ / फ़ोटो :अंशुल कुमार


ग़ज़ल 

बिरयानी की तरह सरकारी बजट खाना और पान की तरह चबाना है 
यह अहले लखनऊ है कुल्लू मनाली की बर्फ़ नहीं जो गुड़ के साथ खाना है 

सियासत होती है यहां इबादत की तरह बिल्डरों की तिजोरी खातिर 
क्या कर लेंगे आप बिल्डरों और ठेकेदारों का आख़िर लखनऊ से याराना है

लखनऊ नशा है काम करने वालों का , कमीशन पिता जी को नियमित देते हैं
एक साल में सड़क बनेगी दो बार , दस बार टाइल उखाड़ कर फिर से लगाना है

अरबों का बजट पी गए  पुल बनाने में , सिर्फ़ नदी नहीं थी बस योजनाएं थीं  
हर तरफ ट्रैफ़िक जाम का समंदर है और चींटी की तरह लाइन से जाना है

चारबाग़ , कैसर बाग़ ,  सिकंदर बाग़ , बनारसी बाग़ अब सब नाम के हैं 
बागों का शहर था कभी यह अब पत्थर के पार्क हैं ठेकेदारों का ज़माना है
 
इमामबाड़ा यहां का हुस्न  , भूलभुलैया का जादू जागीर , चौक इस की शान 
वह अमृतलाल नागर का ज़माना था , यह लंठों , धन्ना सेठों का ज़माना है 
 
गोमती कभी नदी थी , नफ़ीस लखनऊ की नज़ाकत का दिलकश अफ़साना थी 
कमर में नगीना बन कर झूलती थी , अब कूड़ा कचरा भरा उस का दरमियाना है 

बड़ा इमाम बाड़ा


[ 21 दिसंबर , 2015  ]



Saturday, 19 December 2015

तुम नहीं , वह नहीं , हम सब से बड़े हैं

पेंटिंग : डाक्टर लाल रत्नाकर
 
ग़ज़ल 
सब सब का रास्ता रोके खड़े हैं
तुम नहीं , वह नहीं , हम सब से बड़े हैं

भ्रष्ट कहो , बेशर्म कहो , अराजक कहो 
जो भी कहो , कहते रहो हम चिकने घड़े हैं

सड़क हो , संसद हो , या हो विधान सभा 
हम तो हर फटे में टांग डाले ही खड़े हैं

नैतिकता , सिद्धांत आदि हर किसी की ऐसी तैसी
हम तो हर ऐसी खोपड़ी पर खूंटा गाड़े खड़े हैं

एक दिन आया था सूरज भी रौशनी की आस में 
तुम क्या जानो कि हम कितने बड़े रणबांकुरे हैं

अब तो इंटरनेट पर भी सारी कहानी अपनी है 
चैनल , अख़बार सब हमारी अगुवानी में खड़े हैं

वह देखो हाथ जोड़े खड़े हैं समय के सारे सूर्य
सब की छाती पर पांव रखे , मूंग दलते हम खड़े हैं

[ 19 दिसंबर , 2015  ]

मस्त काशी के मरते जाने का शोक गीत मोहल्ला अस्सी

दयानंद पांडेय 


काशी का अस्सी , काशीनामा और अब मोहल्ला अस्सी । एक ही रचना के तीन पाठ । लेकिन सब से सजीला और गर्वीला पाठ है मोहल्ला अस्सी । मूल रचना कोसों पीछे रह गई है । यह तीसरा पाठ बहुत आगे निकल गया है । सेल्यूलाइड के परदे पर किसी कथा को कैसे कविता में रूपांतरित किया जा सकता है यह चंद्रप्रकाश द्विवेदी से सीखा और जाना सकता है । उन्हों ने कभी धारावाहिक चाणक्य में यह किया था , कभी अमृता प्रीतम के पिंजर में और अब मोहल्ला अस्सी में किया है । काशीनाथ सिंह की कथा चंद्रप्रकाश द्विवेदी की इस कविता के मार्फ़त  बाज़ार  , ज़रूरत और आस्था का ऐसा कोलाज रचती है , बाज़ार पर ऐसा कहर बन कर टूटती है कि सब कुछ चकनाचूर हो जाता है । पर बहुत धीरे से । ऐसे जैसे मन टूटता है । ऐसे जैसे कोई दर्पण टूटता है । ऐसे जैसे किसी टूटे हुए शीशे की किरिच मांस में धंस कर टीस रही हो , रिस रही हो किसी फोड़े की तरह और फोड़ा बह कर फूट जाना चाहता हो । पर फूट नहीं पा रहा । मोहल्ला अस्सी की आंच , ताप और तड़प यही है । कशिश और कहन यही है ।

पूरी फ़िल्म जैसे एक नाव है , नदी में चलती हुई नाव । तरह-तरह के घाटों और पड़ाव से गुज़रती हुई । सनी देओल की फ़िल्मोग्राफ़ी में मोहल्ला अस्सी बेमिसाल फ़िल्म है । सनी देओल का अभिनय जैसे एक अनकहे दुःख का दर्पण है । काशी का अस्सी में पांडेय कौन कुमति तोहिं लागी ! वाली कथा ही महत्वपूर्ण है । यही उस की आत्मा है । इसी लिए काशीनामा के मंचन में उषा गांगुली ने इसी कथा पर ख़ास फ़ोकस किया । पांडेय परिवार की विपन्नता , दैनंदिन ज़रुरतों को पूरा न कर पाने की विवशता , संस्कृत जैसी भाषा का तिल-तिल कर मरना , पंडा जैसे पुश्तैनी पेशे का दिन-ब-दिन अनुपयोगी होते जाना और इस से उपजी हताशा और बेरोजगारी का जो महाकाव्य उषा गांगुली ने रंगमंच पर उपस्थित किया है  , रंगमंचीय सीमाओं के बावजूद आंखें बार-बार नम हो जाती हैं । गुस्सा , खीझ और तनाव का जो रूपक उपस्थित होता है , उषा गांगुली के रंगमंच पर वह दुर्लभ है । चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने मोहल्ला अस्सी में इस गुस्सा, खीझ , तनाव और और इस की यातना का फलक और बड़ा कर दिया है ।  पंडागीरी के व्यवसाय पर आए संकट के बादल के बावजूद सिद्धांत , नैतिकता और पांडित्य पर अडिग धर्मनाथ पांडेय के निरंतर टूटते जाने का महाकाव्य इस सरलता से रचते और बांचते हैं चंद्रप्रकाश द्विवेदी कि फ़िल्म मील का पत्थर बन जाती है । और फिर छोटी-छोटी दैनंदिन ज़रूरतों के आगे कैसे सारा सिद्धांत , पांडित्य और हठ क्रमशः धराशायी  होता जाता है , आदमी टूट कर चूर-चूर हो जाता है , ज़रुरत और बाज़ार  ही भगवान बन जाता है । शिव की नगरी काशी के पंडितों के घर से ही कैसे भगवान शिव बाहर हो जाते हैं । धर्म संसद की ऐसी-तैसी करते हुए समारोह पूर्वक बाहर होते जाते हैं शंकर जी , मोहल्ला अस्सी में यह देखना त्रासद हो जाता है । दिल बैठ जाता है । रोज-रोज की भूख , बच्चों के स्कूल की मामूली फीस भी कैसे एक ईमानदार आदमी को तोड़ कर समझौता परस्त बना देती है । धर्म , मूल्य और सिद्धांत सब तार-तार हो जाते हैं । मोहल्ला अस्सी इस यातना के तार को , इस तार में बहते करंट को बहुत आहिस्ता-आहिस्ता छूती है । इतनी आहिस्ता से कि काशी के अस्तित्व और उस की गंगा में आग लग जाती है । जो बुझाए नहीं बुझती । धर्म की नगरी काशी कैसे तो ड्रग और ऐयाशी की नगरी में तब्दील होती जाती है । धर्म नगरी की प्राण वायु पंडा लोगों के घर इस की धुरी बन रहे हैं । यह बाज़ार की यातना है । ज़रुरतों की लाश पर खड़ी इस यातना के घाट कई-कई हैं ।

संस्कृत पढ़ाने वाले आचार्य कैसे तो संस्कृत पढ़ाने की आड़ में अपने घर किराये पर उठा कर पेट की आग शांत करने को अभिशप्त हो गए हैं । विदेशी किरायेदार औरत की सुविधा के मद्दे नज़र घर में स्थित शिव मंदिर को कैसे तो अटैच्ड बाथरुम के रुप में तब्दील करने में टूट-टूट जाते हैं धर्मनाथ पांडेय। कि उन के इस टूटने की पराकाष्ठा शिव लिंग के टूटने में उपस्थित होती है । अद्भुत रूपक है यह । ऐसा मेटाफर हिंदी कथा , हिंदी रंगमंच और हिंदी फ़िल्मों में दुर्लभ है । मेरी जानकारी में तो यह पहली बार है । यह शिवलिंग का टूटना , व्यक्ति का टूटना , काशी नगरी का भी टूटना है । काशी नगरी के अस्तित्व का टूटना है । इस टूटने को ही चंद्रप्रकाश द्विवेदी मोहल्ला अस्सी में कविता की तरह बांचते हैं । कालिदास की कविता की तरह । उपमा , रूपक और लक्षणा , व्यंजना के सभी रंग ले कर । शिव लिंग टूट चुका है । धर्मनाथ पांडेय बहुत क्षोभ और दुःख में डूब कर पत्नी के साथ जा कर गंगा की बीच धारा में यह शिवलिंग प्रवाहित कर चुके हैं । अन्य पंडित, पंडे भी अपने-अपने घरों से शिव जी को निर्वासित कर चुके हैं । पर धर्मनाथ के भीतर लगातार कुछ दरकता रहता है , टूटता और बिखरता रहता है । एक दिन वह अचानक हंसते हुए , दौड़ते हुए बच्चों की तरह ललकते हुए घर में दाखिल होते हैं , अंगोछे में कुछ छुपाये हुए । पत्नी को देखते ही उत्साह से भर जाते हैं । आंगन में खड़े हो कर बाल सुलभ मुस्कान के  साथ वह अंगोछे में छुपी चीज़ पत्नी को ऐसे दिखाते हैं , जैसे जग जीत कर लौटे हों । अंगोछे में छुपे हुए नए शिवलिंग को  पत्नी को दिखाते हुए उन की आंख भर आती है । पत्नी की भी । यह हर्ष के आंसू हैं । जीवन में शिव की वापसी के हर्ष में डूबे इन आंसुओं में आस्था और उम्मीद के  कई-कई सूरज  हैं । धर्मनाथ बेटी से कहते हैं , अब तुम कंप्यूटर पढ़ोगी । पत्नी कहती है , कंप्यूटर भी पढ़ेगी और संस्कृत भी पढ़ेगी । सनी  देओल का संवेदना में डूबा यह अभिनय उन की फ़िल्मोग्राफ़ी का सब से चटक और अविरल रंग उपस्थित करता है । उन का यह अभिनय किसी कविता की तरह कहीं बहुत गहरे मथ देता है । अपने अभिनय में मन रंग देता है । समूची फिल्म को कविता बना देता  है । वेद की ऋचाएं गूंजने लगती हैं । यह रस और यह रंग काशी का अस्सी में अनुपस्थित है पर मोहल्ला अस्सी में पूरी तरह व्यवस्थित है । कह सकता हूं कि कथा इस पार है,  तो पटकथा उस पार है । यह बहुत बार फिल्मों में होता है । मोहल्ला अस्सी में भी हुआ है । बारंबार हुआ है ।

अमूमन साहित्यिक रचनाओं पर बनी फ़िल्मों की ऐसी-तैसी ही होती है । मेरी जानकारी में बहुत कम हिंदी फ़िल्में हैं जो किसी प्रसिद्ध साहित्यिक कथा पर बनी हैं और कथा से बहुत सुंदर , बहुत प्रभावशाली , बहुत बेहतर बनी हैं । जैसे शरत की देवदास पर बनी विमल राय की फ़िल्म , फ़णीश्ववरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफ़ाम पर तीसरी कसम , भगवती चरण वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर बनी फ़िल्म , आर के नरायन की कथा पर विजय आनंद निर्देशित गाईड ,  प्रेमचंद की शतरंज के खिलाड़ी पर सत्यजित राय की फ़िल्म , अमृता प्रीतम की कथा पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी की पिंजर और अब काशी का अस्सी पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी की ही मोहल्ला अस्सी ।  

बनारस की पृष्ठभूमि पर बहुतेरी फ़िल्में बनी हैं । पर बनारस का ज़िक्र , दो चार दृश्य , गंगा का किनारा और फूहड़ भोजपुरी के अलावा कुछ नहीं होता । पर मेरी जानकारी में मोहल्ला अस्सी पहली फ़िल्म है जो पूरी तरह बनारस में शूट है । इंडोर का बहुत कम इस्तेमाल है । बनारस के घाटों को , बनारस के जन-जीवन को , गलियों और गालियों को  जिस तरह चंद्रप्रकाश द्विवेदी के कैमरे ने कैद किया है वह अनूठी और इकलौती फ़िल्म है । हाल ही आई रांझड़ा फ़िल्म में भी बनारस के लोकेशन दीखते हैं । पर लोकेशन ही । वैसे ही जैसे दिलीप कुमार वाली संघर्ष में भी काशी की ही कथा है , पर फ़िल्मी है पूरी कथा । तमाम भोजपुरी फ़िल्में भी बनारस के बयान में लथपथ हैं पर बनारस को अगर किसी ने पहली बार ठीक से जिया है तो वह मोहल्ला अस्सी ने ही । बनारस का दुःख-सुख , बनारस का ठाट , बनारस की वह चुहुल , बनारसी हेकड़ी बनारसी मस्ती , लापरवाही , और बनारसी बंजारापन को जिस तरह , जिस अंदाज़ और जिस सलीके से चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने परोसा है , वह कलेजा काढ़ लेता है । बना रस की तरह ।

बिस्मिल्ला ही बनारस के घाट की सुबह,  छन्नूलाल मिश्र के गायन में गूंज कर होता है । बिलकुल सुबहे-बनारस के अंदाज़ में घुल-मिल कर । और फ़िल्में बनारस कैंट स्टेशन दिखाती हैं , पर यहां काशी स्टेशन है और रवि किशन जैसे अभिनेता का लंपट और शातिर अंदाज़ में डूबा लाजवाब अभिनय है । फ़िल्म के हीरो भले सनी देओल हों , पर अभिनय , अंदाज़ और कथा का सारा मज़ा और मौज लूटते तो रवि किशन ही हैं। आंख मटकाते और मिचकाते उन के अभिनय का बनारसी ठाट देखते ही बनता है । सही मायने में फ़िल्म की सारी स्पीड रवि किशन के ही हाथ और साथ है । लुच्चा , लंपट , कपटी , लोभी और चालू गाईड का बेपरवाह अंदाज़ उन का नदी की तेज़ धार की तरह बहता मिलता है । हिंदी से एम ए तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण हो कर भी बेरोजगारी में डूबने का दंश कैसे किसी युवा को चालबाज़ गाईड बना कर तोड़ता रहता है , यह आह भी उन के अभिनय में अपनी पूरी दाहकता के साथ उपस्थित है । सौरभ शुक्ला भी बने पंडा ही हैं पर उन के अभिनय का ताप बनारस को बना रस के भाव में उपस्थित रखती है । पंडा के काम की मंदी और घर को किराये पर चढ़ाने की बेचैनी , शिव जी के मंदिर को घर से बाहर करने की यातना उन के अभिनय की आंच में पूरे बनारसी ठाट के साथ बांचने को मिलती है । धर्मनाथ पांडेय की पत्नी की भूमिका में साक्षी तंवर खांटी बनारसी पंडिताइन के रुप में उपस्थित हैं । कम में भी , तंगी में भी , विपन्नता के सारे पाठ के बावजूद घर को सम्मान से चलाने की जद्दोजहद का जो चटक रंग और ठाट अपने अभिनय में साक्षी तंवर उपस्थित करती हैं , वह फ़िल्म की ताक़त बन जाती है । 

सब्जी की दुकान पर हैं पंडिताइन। साथ में एक मल्लाह की पत्नी भी है । दोनों पड़ोसिन हैं , सहेली भी । दोनों ही सब्जी ख़रीद रही हैं । मल्लाह की पत्नी भिंडी  को भी लेडी फिंगर बोल कर ख़रीद रही है । मंहगे टमाटर समेत सारी अच्छी सब्जियां वह ख़रीदती है । पर पंडिताइन सिर्फ़ लौकी ख़रीद कर ही अपने को चुप कर लेती हैं । फ़र्क यह है कि मल्लाह की पत्नी के घर विदेशी किरायेदार है । इन के घर नहीं । एक दिन मल्लाह की पत्नी आती है चहकती हुई पंडिताइन के घर । बड़ा सा हार पहने । पंडिताइन देख कर भी नोटिस नहीं लेतीं । पर वह बड़े नखरे और नाज़ के साथ कह कर दिखाती है । तो भी पंडिताइन के भाव में लोभ या चिढ़ नहीं होती । पर उसी शाम टीन एज बेटी जब कंप्यूटर  फीस जमा करने का ज़िक्र करती है तो पंडिताइन टूट जाती हैं । पंडित धर्मनाथ पांडेय भी लाचार हो जाते हैं । इसी लाचारी और यातना में डूब कर उस से कहते हैं , तुम संस्कृत पढ़ो , कंप्यूटर नहीं । इसी बीच छोटा बेटा आता है यह पूछते हुए कि पड़ोस के घर जा कर टी वी देख आएं ?


दूसरी सुबह , धर्मनाथ संस्कृत पढ़ाने की नौकरी खोजने निकल पड़ते हैं । कई जगह जाते हैं । कहीं काम नहीं मिलता । क्या तो अब संस्कृत पढ़ने वाले लोग ही नहीं हैं , वेद पढ़ने वाले लोग ही नहीं हैं , पढ़ाएंगे किसे ? कोई सत्यनारायण की कथा बांचने की सलाह देता है , कोई कुछ तो कोई कुछ । एक धर्मशाला में नौकरी की बात होती है । घर आ कर पंडिताइन से विवश हो कर कहते हैं बताओ , संस्कृत पढ़ाने की जगह , वेद पढ़ाने की जगह अब दरी और कुर्सी गिनवाऊं , रखवाऊं ? कैसे करुंगा यह काम ? चीखने-चिल्लाने और ढाई किलो के हाथ जैसे संवाद अदायगी की पहचान वाले सनी देओल को इस भावनात्मक और संवेदनात्मक अभिनय में टूट-टूट कर जीते और झुकते देखना , तिल-तिल कर मरते देखना , उन के अभिनय के इस नए शेड से , इस नए और औचक अभिनय में देखना दंग कर देता है । तब तो और जब वह एक दृश्य में रात के अंधेरे में रवि किशन को बुला कर उस से मिलते हैं । वह पालागी करते हुए मिलता भी है । वह मिलते हैं और कुछ बोल नहीं पाते , मारे संकोच और लाज के । आंख झुका कर कर खड़े हो जाते हैं । वह टूट गए हैं , घर खर्च ठीक से न चला पाने के कारण , बेटी के कंप्यूटर फीस के न भर पाने के कारण , गुज़ारे के लिए कोई क़ायदे का काम न मिल पाने के कारण । चुप-चुप धरती देखते और पैर से धरती खोदते खड़े हैं । रवि किशन समझ जाता है उन की पीड़ा और उन की ज़रूरत । पूछता है धीरे से ही , किरायेदार चाहिए ? जैसे हज़ार जूते पड़ गए हों धर्मनाथ पांडेय पर । लेकिन वह फीकी मुस्कान फेंकते हुए , सिर और आंख झुकाए हामी में सिर हिला देते हैं । वह कहता है , हो जाएगा ! अपराधबोध में गड़े वह घर लौट आते हैं । बेटी को पास बुलाते हैं । बड़े दुलार और प्यार से कहते हैं , तुम कंप्यूटर पढ़ो ।

अब संस्कृत पढ़ाने की आड़ में किसी विदेशी औरत को एक कोठरी किराये पर देने की यातना कथा शुरू होती है । कैसे एक धर्मनिष्ठ परिवार जो लहसुन-प्याज भी नहीं खाता , थोड़े से पैसों की ज़रूरत खातिर एक विदेशी औरत का दास बन जाता है । चाकर बन जाता है । संस्कृत का एक आचार्य , प्रकांड पंडित एक किरायेदार औरत की सुख-सुविधा , उस की चाय , उस के नहाने , उस के भोजन आदि की व्यवस्था करने की चाकरी बजाने में प्राण-प्रण से न्यौछावर हो जाता है । संस्कृत जैसी विराट भाषा कैसे बाज़ार के आगे टूट कर बिखर-बिखर जाती है । ध्वस्त हो जाती है । अपनी विरासत , अपना मूल्य सब कुछ खोते एक धार्मिक शहर , एक भाषा , एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की दारुण गाथा बन जाती है यह फिल्म । साक्षी तंवर और सनी देओल के अभिनय की आंच में पगी यह फ़िल्म मस्त काशी  के मरते जाने का शोक गीत बन जाती है । चंद्रप्रकाश द्विवेदी के कैमरे से रची इस कविता में एक शहर , एक परिवार का संताप और संत्रास ही नहीं है , बाजार की खामोश मार का दुर्निवार समय भी दर्ज करती जाती है ।


विनय तिवारी की बनाई और विजय अरोड़ा की शानदार फ़ोटोग्राफ़ी वाली मोहल्ला अस्सी में राम जन्म भूमि आंदोलन का ताप भी है , मंडल आयोग के विरोध की तिलमिलाहट भी । गवाह बनती है पप्पू के चाय की दुकान । पप्पू के चाय की दुकान ही काशी का अस्सी का केंद्रीय प्रस्थान बिंदु है । यही प्राण वायु है । मोहल्ला अस्सी में भी चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसे केंद्र में रखा है । दुनिया भर की सारी हलचल पप्पू की चाय की दुकान में गूंजती है । इस चाय की दुकान के लंबे-लंबे विमर्श को फ़िल्म में सहेजना मुश्किल काम था । वैचारिक द्वंद्व को , चाय की दुकान के विमर्श को किसी फ़िल्म में , फ़िल्म की ताक़त बनाना आसान नहीं था । पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसे संभव बनाया है । काशी का अस्सी का चूंकि केंद्रीय प्रस्थान बिंदु यही है और काशीनाथ सिंह ने इसे लिखा भी है पूरे प्राण-प्रण से तो बात बन गई है । वामपंथी वकील की भूमिका में राजेंद्र गुप्त , विहिप कार्यकर्ता के रूप में मुकेश तिवारी और गया सिंह की भूमिका में मिथिलेश चतुर्वेदी के अभिनय ने इन दृश्यों को प्राणवान बना दिया है । यहां वामपंथी और विश्व हिंदू परिषद के लोग , न्यूट्रल लोग सब एक साथ बैठते हैं । सांप्रदायिकता और सेक्यूलरिज़्म की अंतहीन बहस करते , लड़ते-झगड़ते , भांग खाते , चाय पीते , दुनिया भर की चिंता करते , एक दूसरे की ऐसी-तैसी करने में मगन रहते हैं । एक दूसरे का सुख-दुःख साझा करते हुए । विदेशी औरतों के सेक्स प्रसंग भी दिलचस्प हैं । सेक्स के लिए भी वह किस तरह नाई , मल्लाह आदि जातियों के लोगों को ही चुन कर अपना दास बनाती हैं , एक पत्नी के होते हुए भी वीजा के लिए उन से दूसरा विवाह रचाती हैं यह विवरण भी बिन कहे उपस्थित होता रहता है । उन की बेरोजगारी , बेरोजगारी भत्ता के बहाने बनारस में सस्ते में गुज़र करने की यातना भी एक तथ्य बन कर फ़िल्म में पैबंद की तरह हाजिर है । अधकचरा आध्यात्म भी किस तरह बिकाऊ होता है , कैसे एक नगर की संस्कृति , उस की पहचान को नष्ट करता है , इस की चुगली भी खाती रहती है , मोहल्ला अस्सी । काशी का अस्सी में तो किसिम-किसिम की गालियों की बरसात है पर उषा गांगुली के नाटक काशीनामा में गालियां नहीं हैं । लेकिन वहीं मोहल्ला अस्सी में भोसड़ी वाले की बहार है । पप्पू की दुकान में तो है ही भोसड़ी वाले , पंडों और औरतों की जुबान पर भी बात-बेबात है । इस एक कमजोरी से बच सकते थे , चंद्रप्रकाश द्विवेदी । आख़िर प्रदर्शनकारी कलाओं की एक सीमा होती है । लेखन में तो सब चल जाता है , फ़िल्म में नहीं । बस यहीं मार खा गया है मोहल्ला अस्सी । विरोध और रिलीज पर रोक की यातना में एक क्लासिक और खूबसूरत फ़िल्म डूब गई है ।

Friday, 18 December 2015

यह ज़्यादातर लोग लेकिन चुप हैं


पेंटिंग : डाक्टर लाल रत्नाकर

कुछ लोग
विरोध कर रहे हैं
कुछ लोग
समर्थन कर रहे हैं

लेकिन एक आदमी है
जो बिजनेस कर रहा है
विरोध और समर्थन
दोनों ही बेच रहा है

ज़्यादातर लोग
यह सब देख रहे हैं
यह ज़्यादातर लोग
लेकिन चुप हैं

हरदम चुप रहते हैं
और सहते रहते हैं
सहते रहते हैं
और डरते रहते हैं


[ 18  दिसंबर , 2015  ]

Thursday, 17 December 2015

जहां आप पहुंचे छलांगें लगा कर वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे


रामदरश मिश्र

हिंदी की फ़ासिस्ट और तानाशाह आलोचना ने जाने कितने रामदरश मिश्र मारे हैं ।  लेकिन रचना और रचनाकार नहीं मरते हैं । मर जाती है फ़ासिस्ट आलोचना । मर जाते हैं फ़ासिस्ट लेखक ।  बच जाते हैं रामदरश मिश्र । रचा ही बचा रह जाता है । रामदरश मिश्र ने यह ख़ूब साबित किया है । बार-बार किया है । इसी लिए रामदरश मिश्र को आज साहित्य अकादमी मिलने पर मैं गर्व और हर्ष से भर गया हूं। इस लिए भी कि वह हिंदी के तो हैं ही , हमारे गोरखपुर के हैं । हमारे गांव के पास ही उन का गांव है डुमरी। पैतीस साल से अधिक समय से उन के स्नेह का भागीदार हूं। गोरखपुर के दूसरे लेखक हैं रामदरश मिश्र जिन्हें साहित्य अकादमी सम्मान मिला है । इस के पहले रघुपति सहाय फिराक़ को यह सम्मान मिला था । फिराक़ गोरखपुरी का गांव भी मेरे गांव के पास है । फिराक़ साहब तो अपने गांव आना-जाना एक समय छोड़ बैठे थे पर रामदरश जी , अब भी अपने गांव आते-जाते रहते हैं । उन की आत्मकथा में , उन की  रचनाओं में उन का गांव और जवार सर्वदा उपस्थित मिलता रहता है । साहित्य अकादमी सम्मान भले उन को आज देर से मिला है पर डुमरी गांव भी यह ख़बर सुन कर ज़रूर झूम गया होगा । हालां कि अब साहित्य अकादमी के वह मुहताज नहीं रह गए थे तो भी सम्मान , सम्मान होता है । इस लिए भी मन सुरूर से भर जाता है । उन का ही एक शेर है , जो आज की तारीख़ में उन पर बहुत मौजू है :

जहां आप पहुंचे छलांगें  लगा कर 
वहां मैं भी पहुंचा  मगर धीरे-धीरे

मेरी जानकारी में रामदरश मिश्र पहले ऐसे लेखक हैं जिन को बानबे वर्ष की उम्र में साहित्य अकादमी मिला है । इतनी उम्र तक तो लोग जीवित भी नहीं रहते । बहुत कम लोगों को यह उम्र नसीब होती है । लेकिन उन की उम्र की तरह उन की उपेक्षा का जाल भी बहुत बड़ा है । विपुल और समृद्ध रचना संसार के बावजूद इतनी लंबी उपेक्षा भी एक यातना है । लेकिन रामदरश मिश्र ने अपनी जुबान पर कभी यह दर्द नहीं रखा । यातना की यह दास्तां नहीं कही । किसी भी से । न मौखिक , न लिख कर । अपनी आत्मकथा में भी नहीं ।  लगभग सभी विधाओं में उन्हों ने लिखा है । और श्रेष्ठ लिखा है । नामवर सिंह और रामदरश मिश्र बनारस हिंदू विश्विद्यालय में सहपाठी भी रहे हैं और सहकर्मी भी । साथ-साथ पढ़े और पढ़ाया। दोनों ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य हैं । लेकिन नामवर सिंह ने भी कभी रामदरश मिश्र के नाम पर सांस नहीं ली । और जब नामवर ने सांस नहीं ली तो बाक़ी लोग भी कैसे और क्यों लेते ? कहा न कि हिंदी की फ़ासिस्ट आलोचना ने जाने कितने रामदरश मिश्र मारे हैं । इतनी कि अब हिंदी आलोचना ही मर मर गई है । आलोचना नाम की संस्था ही समाप्त हो गई है । रैकेटियर लेखकों और रैकेटियर आलोचकों की खेमेबाज़ी ने रचना और रचनाकार का ही नहीं , हिंदी साहित्य का भी बहुत नुकसान किया है । पाठकों को दीमक की तरह खा लिया है । अपनी सनक , ज़िद और तानाशाही में लेखक-पाठक संबंध समाप्त कर दिया है । अब तो आलम यह है कि ख़ुद ही लिखते हैं , ख़ुद ही पढ़ते हैं । इस दुखद मंज़र पर मृणाल पांडे ने लिखा ही है ; ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ लेकिन रामदरश मिश्र इस ज़मीन को तोड़ते हैं । तोड़ते ही रहते हैं । जैसे उन का रचना संसार समृद्ध है , पाठक परिवार भी उन का उतना ही समृद्ध और पुष्ट है । 

 
रामदरश मिश्र

जानना यह भी दिलचस्प होगा कि 2010-2011 में ही रामदरश मिश्र को साहित्य अकादमी मिलना था । लेकिन अशोक वाजपेयी की मनमानी ने उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी दे दिया । तब जब कि किसी कहानी पर साहित्य अकादमी देने की परंपरा  नहीं रही है । मोहनदास कहानी है , जो हंस में लंबी  कहानी रूप में छपी हुई है । लेकिन लामबंदी के तहत बड़े फांट  में उपन्यास  कह कर मोहनदास छाप कर उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी दिया गया । तब जब कि आधार-पत्र में उदय प्रकाश का या मोहन दास का कोई ज़िक्र नहीं था । अनैतिकता और लंठई की यह पराकाष्ठा है । पर ज्यूरी में उपस्थित अशोक वाजपेयी ने आधार पत्र को किनारे कर दिया । उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित कर दिया । चित्रा मुदगल  ने समर्थन कर दिया । मैनेजर पांडेय की असहमति को अशोक वाजपेयी और चित्रा मुदगल ने सुना भी नहीं । मैनेजर पांडेय रामदरश मिश्र का नाम लेते रह गए । तो अब की बार की ज्यूरी में साहित्य अकादमी ने विवादित और बवाली  लोगों से दूरी बना कर रखी । अब की हिंदी की ज्यूरी में मुंबई से राम जी तिवारी , मुज़फ्फरपुर से महेंद्र मधुकर , और चंडीगढ़ से माधव कौशिक थे । रामदरश मिश्र को बहुतायत लोग कथा के लिए जानते हैं । पर रामदरश मिश्र को अब की बार साहित्य अकादमी मिली है कविता के लिए । ऐसा पहले भी हो चुका है साहित्य अकादमी के साथ । और कई बार । जैसे कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को लोग जानते तो हैं आलोचना के लिए पर उन्हें साहित्य अकादमी मिला उपन्यास के लिए । वह भी वाण भट्ट की आत्म कथा के लिए नहीं अनामदास का पोथा के लिए । और तो और नामवर को साहित्य अकादमी मिलने के दो साल बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को साहित्य अकादमी मिला । नामवर शिष्य है आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के , यह बताने की भी ज़रूरत है क्या ? हां  , नामवर को आलोचना के लिए ही मिला था साहित्य अकादमी । साहित्य अकादमी के विवाद और भी बहुतेरे हैं । फिर भी बहुत कुछ शेष है साहित्य अकादमी में अभी भी । इस लिए भी कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष अभी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं । संत स्वभाव और विवादों से दूर रहने वाले तिवारी जी हैं तो बहुत कुछ बचा है , साहित्य अकादमी में । बावजूद तमाम विवाद और अपनी तमाम सुनामी के । बचा ही रहेगा । रामदरश जी की ही एक कविता में कहूं : 

यहीं कहीं रात के पिछले पहर में
पिता के दर्दीले कंठ से फूटता था लोक रस से भीगा गीत
वह गली-गली भटकता हुआ पूरे गाँव को भिगो देता था
यहीं कहीं रुनझुन-रुनझुन गति से चलती हुई भाभी अपने
नन्हे देवर को छेड़ती थीं
और उनकी हँसी आँगन में बहने लगती थी
स्वच्छ हवा की तरह
यहीं कहीं एक कमरा था
जिसमें जाड़ों में पुवाल बिछा होता था
यहीं गुदड़ी के नीचे दुबकी मेरी आँखों में
कितने महकते हुए सपने जन्में थे
और अंकित हो गए थे दीवारों पर, छत पर, यहाँ वहाँ

बावला मन उदास हो गया
मैंने देखा-
एक ताख में
रामचरित मानस की पोथी-अभी भी रखी हुई थी
मैं खुश होकर चिल्लाया-
ओ बावले मन
उदास मत हो
देख
यह पोथी बची है
तो अभी बहुत कुछ बचा हुआ है !

बचा हुआ तो है । बहुत कुछ बचा हुआ है । फासिस्टों का वह खिसियाया हुआ आरोप भी आना अभी बचा हुआ है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी चूंकि ब्राह्मण हैं , गोरखपुर के हैं , इस लिए गोरखपुर के एक ब्राह्मण को साहित्य अकादमी दे दिया । ख़ास कर वह रैकेटियर लेखक , वह फ़ासिस्ट आलोचक जो तमाम क्रांतिकारिता के बावजूद , तमाम असहिष्णुता के बावजूद साहित्य अकादमी का यह अमृत पीने को बेकरार थे । फ़िलहाल तो रामदरश मिश्र की यह ग़ज़ल यहां बांचिए और रामदरश मिश्र को बधाई ज़रूर दीजिए । वह दिल्ली के उत्तम नगर के वाणी विहार में रहते हैं । उन का नंबर है  09211387210 

फ़िलहाल तो रामदरश मिश्र की यह पूरी ग़ज़ल पढ़िए । जो आज के दिन बहुत मौजू है :


बनाया है मैं ने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।

किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे।

जहां आप पहुंचे छलांगें  लगा कर 
वहां मैं भी पहुंचा  मगर धीरे-धीरे।

पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,
उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।

न हँस कर न रो कर किसी में उडे़ला,
पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।

गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।

ज़मीं खेत की साथ ले कर चला था,
उगा उस में कोई शहर धीरे-धीरे।

मिला क्या न मुझ को ए दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।


रामदरश मिश्र की प्रमुख रचनाएं

उपन्यास : पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, बीच का समय, सूखता हुआ तालाब, अपने लोग, रात का सफर, आकाश की छत, आदिम राग, बिना दरवाजे का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह, बीस बरस, परिवार

कहानी संग्रह : खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, वसंत का एक दिन, अपने लिए, आज का दिन भी,  फिर कब आएँगे?, एक कहानी लगातार, विदूषक, दिन के साथ, विरासत 

कविता संग्रह : पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ, पक गई है धूप, कंधे पर सूरज, जुलूस कहाँ जा रहा है, रामदरश मिश्र की प्रतिनिधि कविताएँ, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में भीगते बच्चे

गजल संग्रह : हँसी ओठ पर आँखें नम हैं, बाजार को निकलते हैं लोग, तू ही बता ऐ जिंदगी 

संस्मरण : स्मृतियों के छंद, अपने अपने रास्ते, एक दुनिया अपनी और चुनी हुई रचनाएँ, बूँद-बूँद नदी, दर्द की हँसी, नदी बहती है, कच्चे रास्तों का सफर

निबंध : कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख

आत्मकथा : सहचर है समय, फुरसत के दिन

रामदरश मिश्र अपनी पत्नी और बेटी के साथ
 

जैसे गांव से शहर आ कर अम्मा मुझे विभोर कर देती है

 
पेंटिंग : वासुदेव एस गायतोंडे



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

होती है मुहब्बत तो दिल को चकोर कर देती है
जैसे गांव से शहर आ कर अम्मा मुझे विभोर कर देती है

घर में बच्चा किलकारियां मारता है तो खिलती है चांदनी
इतना खिलती है कि  सारा आंगन अंजोर कर देती है

लोग हैं , पैसा है , अस्पताल है , डाक्टर हैं , और दवा भी  
बीमारी कैसी भी हो मां की दुआ उसे कमज़ोर कर देती है 

दरिया है , समंदर है कि धरती है , देखता नहीं कोई बादल 
बरसता है तो भींगता है जंगल भी , चिड़िया शोर कर देती है 

घर सब कुछ से भरा हो , तिजोरी भी हो लबालब  लेकिन 
नीयत ठीक न हो तो अच्छे-अच्छों को चोर कर देती है 

गरमी हो , बरसात हो ,या कि हो घनघोर सरदी भी
प्यार की तलब हर हाल तुम को मेरी ओर कर देती है 
 
तुम से ऊब कर , खीझ कर मैं लाख बिदकूं और भागूं भी
तुम्हारे मन की निश्छलता और हंसी तेरी ओर कर देती है 

तुम्हारे कपोल , अधर और आंखें , अनमोल है तुम्हारी बिंदी
प्यार की यह सारी अदा ही सर्वदा दिल मांगे मोर कर देती है 

तुम्हारी चितवन , तुम्हारा नाज़ , तुम्हारे नखरे बरसते हैं ऐसे
हर किसी के खेत को ख़ुश जैसे घटा घनघोर कर देती है 

सर्दी की धूप सेकने आंगन में जब बैठता है पूरा का पूरा घर मेरा 
तुम्हारी याद और यादों की बारिश ज़िंदगी को सराबोर कर देती है 

तुम्हारी चर्चा , तुम्हारा ज़िक्र , तुम्हारी वह फूल सी बातें
जो काम किसी मीठी तान में बांसुरी की पोर कर देती है

लोग खाते हैं बहुत कसमें लेकिन यह दुनिया भी बड़ी जालिम 
होती है कोई बात ज़िंदगी में जो दुनिया भर में शोर कर देती है

  सुख और दुःख के तार हैं बहुत छोटे कोई कुछ कर नहीं सकता 
और जो कोई कर नहीं पाता वह आंख  की भीगी कोर कर देती है

[ 17 दिसंबर , 2015  ]

Tuesday, 15 December 2015

मेरे कथा संसार के विलक्षण पाठक जनार्दन यादव


मेरे साथ जनार्दन यादव

जनार्दन यादव से मिलिए ।  मेरी रचनाओं के अनन्य पाठक । अनूठे अध्येता । मेरे कथा संसार के विलक्षण पाठक । लोक कवि अब गाते नहीं पढ़ कर यह मेरे दीवाने हुए । इतना कि मुझे भी अपना दीवाना बना लिया । जनार्दन यादव बी एस  एफ़  में सब इंस्पेक्टर रहे हैं । इसी वर्ष वी आर एस  लिया है । देश की विभिन्न सरहदों पर तैनात हो कर देश की उत्कृष्ट सेवा की है जनार्दन यादव ने । लेकिन जितने कर्मठ वह बार्डर पर रहे हैं , उतने ही संवेदनशील वह साहित्य के पाठक  भी हैं । उन दिनों भड़ास 4 मीडिया पर लोक कवि अब गाते नहीं धारावाहिक चल रहा था । जनार्दन यादव अपनी कठिन ड्यूटी में से भी उसे नियमित पढ़ रहे थे । मुझ से कोई परिचय नहीं था , कोई बात नहीं थी । लेकिन अपनी टिप्पणी वह दर्ज करते रहे , किसी उत्साही पाठक की तरह । एक दिन अचानक फ़ोन आया और बिलकुल हड़बड़ाए हुए बोले , ' मैं जनार्दन यादव बोल रहा हूं । आप को पढ़ रहा हूं । आप का उपन्यास पढ़ रहा हूं । ' फिर भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे वह बड़ी देर तक । फिर जब-तब फ़ोन आते रहे जनार्दन यादव के । कभी-कभी एक ही दिन में तीन बार , चार बार । हरदम हड़बड़ी में बोलते । अपनी भावना से परिचित करवाते । फ़ोन रख देते । वह एक किस्त पूरी करते और चार बार फ़ोन करते । अलग-अलग जिज्ञासा होती । चाव और चुनाव होता प्रश्न दर प्रश्न होते । पर उन की ललक ख़त्म नहीं होती । एकाधिक बार वह एक ही प्रश्न पर लटक जाते । मैं अब बोर हो जाता । लेकिन जनार्दन यादव की ललक ख़त्म नहीं होती । अतिशय विनम्रता के भाव में उन के फ़ोन अब नियमित हो गए । लोक कवि अब गाते नहीं को जैसे आकंठ जी रहे थे वह उन दिनों । यह बात बताते हुए वह अघाते नहीं थे । 

बाद के दिनों में जनार्दन यादव ने एक-एक कर मेरी सारी कथा रचनाएं पढ़ डालीं । प्रिंट निकाल-निकाल कर । हर रचना के बीच में उन की प्रश्नाकुलता आ खड़ी होती बरास्ता फ़ोन । सवाल भी आसान नहीं , उलझाने वाले । पूछते भी ऐसे जैसे मैं उन का कोई क़र्ज़ खाए हुए होऊं । जैसे किसी चरित्र का ज़िक्र करते हुए वह कहते कि,   ' यह आदमी तो बड़ा कमीना है , इस को तो आप को मार देना चाहिए था । ' या फिर , ' अच्छा सर , आप ने तो बड़ा मज़ा लिया होगा !'  या , ' यह तो बहुत ग़लत हो गया सर उस के साथ !' यह और ऐसी तमाम प्रतिक्रियाओं और सवालों से मुझे जब-तब लाद देते जनार्दन यादव । एकाध बार मैं उन के ऐसे बेवकूफी भरे सवालों से आजिज आ कर बिगड़ा भी । पर जनार्दन यादव तो फिर जनार्दन यादव । तिस पर उन की भावुकता भरी विनम्रता । मुझे मोह लिया जनार्दन यादव ने । फ़ोन पर बतियाते-बतियाते जल्दी ही वह लखनऊ आ गए मुझ से मिलने । अद्भुत भावुकता और अतिशय विनम्रता में लिपटे जनार्दन यादव । प्रचुर ऊर्जा से भरपूर । अतिशय सरल और सहृदय । अंग-अंग से कृतज्ञता ज्ञापित करते जनार्दन यादव । अकसर मिलने आ जाते हैं वह लखनऊ । फ़ोन पर प्रणाम से शुरू होती उन की बात हरदम प्रणाम पर ही ख़त्म होती है । उन्हें प्रांजल हिंदी बोलते हुए, सुनना भी एक अनुभव है । बातचीत में भी वह सादर शब्द बड़ी भाव प्रवणता से करते हैं । तो कई बार सुमित्रा नंदन पंत की कविता याद आ जाती है । बरबस । बी एस एफ़ में भी वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी दिलचस्पी लेते रहे हैं । ख़ास कर अखिल भारतीय वाद-विवाद प्रतियोगिता में । वह अकसर चहक कर फ़ोन पर बताते रहते कि , ' सर आज आप के कारण , मैं प्रथम आ गया । ' मैं चकित हो कर पूछता , ' वह कैसे ?' जनार्दन यादव का जवाब होता , ' आप को पढ़-पढ़ कर । आप के फला लेख की लाईनें रट ली थीं न !' कह कर वह हंसने लगते । भोजपुरी में कहते  , ' आप जवन धारा प्रवाह लिखी ले न , वोहीं से न चोरा लेईं ले ना ! एकदम परछाईं नियर । और रट के बोलि देई ले !' कह कर वह हंसने लगते । 


जनार्दन यादव
मेरे कथा साहित्य के वैसे तो दुनिया भर में अनगिन पाठक हैं । पर जनार्दन यादव तो अपने क़िस्म के इकलौते हैं । बहुत दावे के साथ कह रहा हूं कि ऐसा पाठक मित्र तो न भूतो , न भवष्यति ! जनार्दन यादव जैसा भक्त वत्सल पाठक मिलना मेरा सौभाग्य है । आप बात मेरी किसी कहानी , किसी उपन्यास की उन से कर लीजिए । वह एक-एक दृश्य , एक-एक पात्र , एक-एक संवाद पर अक्षरश: बात करेंगे । एक बार मैं भूल सकता हूं , लेकिन जनार्दन यादव नहीं । वह मुझे ही याद दिला देंगे । कहेंगे , 'नहीं सर , ऐसे नहीं , वह प्रसंग इस तरह है । ' या फिर , ' यह फला पात्र का संवाद है , फला उपन्यास में ।'  एक नहीं , अनेक बार जनार्दन यादव की इस याददाश्त , इस जुड़ाव और इस संपृक्तता से मैं चकित हुआ हूं । बहुत से लोग बैठे हैं , किसिम-किसिम के , महफ़िल जमी हुई है , कोई बात चल रही है , लोग रस-रंजन में हैं । वहां भी किसी प्रसंग पर जनार्दन यादव अचानक मेरी किसी कथा रचना से , कोई वाकया उठा कर रख देंगे , कि वहां भी तो ऐसे ही हुआ है सर ! '

मैं हतप्रभ एकटक उन्हें देखता रहता हूं । 

जनार्दन यादव बलिया  के रहने वाले हैं ,अब दिल्ली में रहते हैं । बेटी उन की एम बी बी एस कर रही है । वह अकसर कहते रहे हैं कि दिल्ली आइए तो बताइए ज़रूर । मेरे घर आइए ज़रूर । दिल्ली जाना वैसे भी बहुत कम होता है । तिस पर व्यस्तता में हर बार चूक होती रही । उन का उलाहना आता रहा । लेकिन बीते बरस साहित्य अकादमी के साठ साल पूरे होने पर कहानी पाठ कार्यक्रम की सूचना उन्हें दी । जनार्दन यादव साहित्य अकादमी पहुंच आए । जब तक रहा साये की तरह मंडराते रहे । फ़ोटो-सोटो खींचते रहे ।  अपनी भावुकता से हमें भावुक करते रहे । अपने आदर भाव से हमे भाव संपन्न करते रहे । होटल भी आए । उन की वह लहक आज तक मन में चहक बन कर उपस्थित है । ऐसे जैसे एक पांव पर खड़े मेरी सेवा में कोई तपस्या कर रहे हों । पर पूरी चहक और महक के साथ । लखनऊ भी आते हैं वह तो इस चहक को और-और चटक बना कर लौटते हैं । मैं तो मानता हूं और पूरे मन से मानता हूं , पूरी श्रद्धा से मानता हूं कि पूर्व जन्म में ज़रूर कोई पुण्य किया था जो जनार्दन यादव जैसा निश्छल , भावुक , विनम्र और सजग पाठक मित्र मेरे जीवन में उपस्थित है । मेरे अनुपम प्रिय की तरह । 

बी एस एफ़ के महानिदेशक देवेंद्र कुमार पाठक द्वारा सम्मान प्राप्त करते हुए  जनार्दन यादव


इस लिंक को भी पढ़ें :


1 . अगर निरुपमा पांडेय की चले तो वह मुझे लेखक नहीं , लेखक का कारखाना बना दें


Monday, 14 December 2015

इस सर्द रात में तुम्हारी आग


पेंटिंग : डाक्टर लाल रत्नाकर

थोड़ी लकड़ी , थोड़ी आग
बैठ कर तुम्हारे साथ 
ली गई कुछ सांस 
तुम्हारी बांह में ली गई उच्छवास
इस चांदनी रात में और क्या चाहिए 

यह मन नहीं , एक धरती है 
तुम मेरे मन में पसर जाओ 
जैसे पसरती है धरती पर चांदनी 
जैसे पसरता है कोहरा किसी झील पर 
फैलती है ख़ुशबू किसी मधुबन में आधी रात

यह रात नहीं है , रात का रंग है 
तुम्हारे कंधे और गरदन के बीच रगड़ खाती 
मेरी नासिका में फैल रही सुगंध है 
यह तुम्हारा खिल-खिल मन और मौन है 
तुम्हारी चूड़ियों की तरह खिलखिलाता हुआ 

समय का कैमरा दर्ज कर ले
इस चांदनी की ख़ुशबू को 
इस चांदनी रात में तुम्हें देखने को 
इस चांदनी रात में तुम्हें चीन्ह कर 
याद की गठरी में बांध ले 

चांदनी मचल ले ज़रा तुम्हारे रूप जाल में 
तुम्हारे घने बाल में , रुको मेरी बांह में 
इस सर्द रात में तुम्हारी आग 
बहुत ज़रूरी है जीने के लिए 
तब तक रुको 

[ 14 दिसंबर , 2015 ]

इस कविता का मराठी अनुवाद 

अनुवाद : प्रिया जलतारे 


***ह्या थंडगार रात्री तुझी आग ***

थोडी लाकडे ,थोडी आग
बसून तुझ्या सवे
घेतले काही श्वास
तुझ्या बाहूत घेतले गेलेले उच्छवास
ह्या चांदणरात्री अजून कोणती आस

हे मन नाही ,एक धरती आहे
तू माझ्या मनात पसरून जा
जसे पसरते धरती वर चांदणे
जसे पसरते धुके कुठल्या तळ्यावर
पसरतो सुगंध जसा मधुबनात अर्ध्या रात्री

ही रात्र नाही, रात्रीचा रंग आहे
तुझ्या खांद्यावर मानेलगत घुसळणार्या
माझ्या नासिकेत पसरणारा तुझा सुगंध आहे
हे तुझे उत्फुल्ल मन आहे मौन
तुझ्या किणकिणणार्या बांगड्यांसारखे प्रफुल्लीत

समय रूपी कॅमेर्याने टिपून घ्यावा
ह्या चांदण्यांचा परीमल
ह्या चांदण्या रात्री तुला पाहून
ह्या चांदण्या रात्री चिन्हांकीत करुन
आठवांचे गाठोडे घ्यावे बांधून

चांदण्या गुंतून राहू दे तुझ्या रूप जालात
तुझ्या दाट कुंतलात, थांब ना जरा बाहूत माझ्या
ह्या थंडगार रात्री तुझ्यातील आग
खूप आवश्यक आहे जगण्यासाठी

तोवर तू थांब


जैसे चांदनी में बहती है कोई नदी


पेंटिंग : डाक्टर लाल रत्नाकर

जैसे गिरती है धरती पर ओस
तुम मेरी गोद में गिरो
जैसे अंधेरे में दिखती है कोई रोशनी
तुम मेरी आंख में दिखो
किसी कौतुहल की तरह

जैसे चांदनी में बहती है कोई नदी
चलती है उस में नांव
जलता है कोई दीप
नदी के किसी द्वीप पर
किसी नाविक के उम्मीद की तरह

ऐसे ही मेरे मन में बहो 
चलो नाव की तरह मंथर-मंथर
और जलो दीप बन
किसी उम्मीद की तरह
मैं नदी का वही नाविक हूं

मुझे राह दो प्यार की
दुलार की वह सांझ दो
मनुहार का वह मान भी
जो देती है धरती
सूर्य की पहली किरन को

मैं मिट्टी हूं , मुझे गढ़ो
किसी मूर्तिकार की तरह
अपने प्यार के पानी में सान कर
किसी कुम्हार की तरह
मुझे रुंधो

तरसो नहीं , बरसो
मुझे प्यार के पानी से भरो
किसी तालाब की तरह
सिंघाड़े की लतर की तरह
फैल जाओ मेरे सर्वस्व पर

[ 14 दिसंबर , २०१५ ]

 

Friday, 11 December 2015

अगर निरुपमा पांडेय की चले तो वह मुझे लेखक नहीं , लेखक का कारखाना बना दें


निरुपमा पांडेय

यह निरुपमा पांडेय हैं । मेरी रचनाओं की अनुपम पाठक । ख़ास कर मेरी कविताओं की अनन्य पाठक । कह सकता हूं अधीर पाठक । खोज-खोज कर मेरी रचनाएं पढ़ती हैं । मेरे ब्लाग सरोकारनामा पर उपस्थित एक-एक लाईन पढ़ चुकी हैं । निरुपमा पांडेय अब गृहिणी हैं । कभी कामकाजी भी थीं । भरा-पुरा परिवार है । प्यारे-प्यारे दो बच्चों की मां हैं । अपनी रिश्ते की एक जेठानी अनीता उपाध्याय को भी मेरी रचनाओं से जोड़ दिया है। देवरानी -जेठानी दोनों पढ़ती रहती हैं । निरुपमा पांडेय कई बार मेरे पात्रों से इस कदर जुड़ जाती हैं कि मत पूछिए । और तो और उन पात्रों में मेरी परछाईं भी खोजने लगती हैं । और उन पात्रों से सहानुभूति दिखाने लगती हैं । जैसे कि जब उन्हों ने वे जो हारे हुए पढ़ा तो दुःख में डूब गईं। आनंद की यातना में डूब गईं । उन को यह भी लगने लगा कि आनंद कोई और नहीं मैं ही हूं। अकसर वह पात्रों के बारे में तर्क-वितर्क करने लगती हैं । बहुत बार वह मेरी बात से असहमत भी होती रहती हैं । साफ लिख देती हैं कि मैं आप की इस बात से सहमत नहीं हूं। तो मैं कभी उन्हें सहमत करने की कोशिश भी नहीं करता । हर पाठक की अपनी राय होती है । अपनी सहमति-असहमति होती है । यह उस का अपना अधिकार है । उसे रहने देना चाहिए । 


अपने पति गिरिजेश पांडेय के साथ निरुपमा
बांसगांव की मुनमुन पढ़ कर देवरानी जेठानी दोनों ही गदगद थीं । लेकिन अनीता जी सवाल-जवाब नहीं करतीं । जैसे गूंगे का गुड़ हो , उसी तरह चुप-चुप , मुसकुरा-मुसकुरा कर ही प्रतिक्रिया देती हैं । यह सूचना देती हुई कि मैं ने आप की सारी रचनाएं पढ़ी हैं । लेकिन निरुपमा जी के साथ ऐसा नहीं है । वह पढ़ती हैं और अपने तर्क-वितर्क के साथ , तमाम खट्टे-मीठे प्रश्नों के साथ उपस्थित मिलती हैं । कई बार तो ऐसे पेश आती हैं गोया वह कोई अध्यापिका हों और मैं उन का विद्यार्थी । बस जाने क्यों मेरी कविताओं से उन को कोई शिकायत अभी तक नहीं हुई है । हां एक मुश्किल बात यह है कि अगर निरुपमा पांडेय की चले तो वह मुझे लेखक नहीं , लेखक का कारखाना बना दें । उन की जैसे ज़िद हो जाती है कि मुझे रोज लिखना चाहिए और ख़ूब सारा लिखना चाहिए ।  ताकि वह पढ़ती रहें । मैं उन से विनय पूर्वक कहता रहता हूं कि ऐसा मुमकिन नहीं है । लिखना इतना आसान नहीं होता । रोज-रोज तो हरगिज नहीं । मज़दूरी या क्लर्की नहीं है । नौकरी नहीं है यह रोज-रोज की । तो वह बच्चों की तरह मान भी जाती हैं । लेकिन बहुत जल्दी ही फिर इस ख़ूब सारा लिखने की धुन पर उतर आती हैं । इन दिनों उन की यह नाराजगी उफान पर है । किसी पाठक की तरह नहीं । किसी अध्यापक की तरह । किसी गार्जियन की तरह । क्यों कि मैं इन दिनों कुछ ख़ास लिख नहीं रहा हूं। मैं मानता हूं कि पाठक भी गार्जियन और अध्यापक ही होते हैं । 

लेकिन क्या ऐसे भी पाठक होते हैं कहीं ? फ़िलहाल तो हैं । यह निरुपमा पाठक हैं । वैसे तो अनगिन पाठक हैं मेरे । पर कुछ अनूठे पाठक होते हैं हर लेखक के जीवन में । मेरे भी जीवन में हैं । कुछ और पाठकों से जल्दी ही मिलाऊंगा ।