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Thursday, 24 June 2021
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Monday, 21 June 2021
यह राजा होना भी ग़ज़ब है !
दयानंद पांडेय
यह राजा होना भी ग़ज़ब है। और राजा का चमचा या पैरोकार होना तो और भी ग़ज़ब है। ख़ैर , कोई अपने राज का राजा है , कोई अपने दिल का राजा है , कोई क़लम का तो कोई मनबढ़ई और गाली-गलौज का राजा। पड़रौना के राजा बनने का किस्सा जब भी कभी लिख कर याद करता हूं तो एक ख़ास पॉकेट के लोग हर बार डट कर मेरी ख़बर लेते हैं। कुछ लिख कर , कुछ गरिया कर , कुछ शालीन प्रतिवाद के साथ उपस्थित होते हैं। तो कुछ अपशब्दों , असंसदीय शब्दों के साथ। अभी किन्हीं पवन सिंह जी का फ़ोन आया। कई बार आया। कुछ लिख रहा था तुरंत नहीं उठा पाया। पैरा पूरा हो गया तो पवन सिंह जी का फ़ोन उठा लिया। वह फुल जोश में थे। होश खोए हुए थे। मैं ने उन से कहा थोड़ा अपनी बात का टोन ठीक कर लीजिए , तभी बात करना मुमकिन हो सकता है। लेकिन वह पूरी तरह गोली मार देने के भाव में थे। बस गाली नहीं दे रहे थे। बाक़ी सब। मैं ने उन से कहा , बिंदुवार सवाल पूछिए , हर बिंदु का जवाब दूंगा। लेकिन वह कहने लगे , यह पोस्ट हटा लीजिए नहीं आप को सबक़ सिखाया जाएगा। मैं ने उन से कहा , बहुत ग़लत लग रहा हो तो आप मुक़दमा कर दीजिए। लेकिन उन की जुबान से बंदूक़ और बम-बम गई नहीं। अमूमन ऐसी बातचीत में भी मैं संयम बनाए रखता हूं। लेकिन पवन सिंह की बात इतनी अभद्र और विषाक्त थी कि मेरे मुंह से निकल गया , जो उखाड़ना हो उखाड़ लीजिए। और फ़ोन काट दिया। उन का फ़ोन फिर आया , कहने लगे लखनऊ में आ कर देख लूंगा। धरना दिया जाएगा। आप का सब कुछ उखाड़ लिया जाएगा। आदि-इत्यादि। मैं ने फिर फ़ोन काट दिया। थोड़ी देर बाद उन्हें फ़ोन कर बता दिया कि अब फ़ोन मत कीजिएगा।
संयोग से फिर फ़ोन अभी तक नहीं आया है। यह अच्छी बात है।
अब आप को ऐसे तमाम राजाओं के बारे में बता दूं जो कभी कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह पाए जाते थे। अब लोकतंत्र है फिर भी वह अपने को राजा कहलाने में भगवान की तरह महसूस करते हैं। कांग्रेस में ऐसे राजा बहुत हैं। जैसे कि दिग्गी राजा। दिग्गी राजा मतलब मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह। सचाई यह है कि दिग्विजय सिंह किसी राज परिवार से नहीं है। अलबत्ता कभी सिंधिया परिवार की राजमाता विजया राजे सिंधिया के कर्मचारी थे। मध्य प्रदेश के ही एक दूसरे पूर्व मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह भी अपने को राजा बताते नहीं थकते थे। तब जब कि उन के पिता बड़े जमींदार थे और अंगरेजों के अधिकृत मुखबिर रहे थे। फिर ऐसे राजा तो हमारे एक गोरखपुर में ही कई सारे हैं। राजा बढ़यापार , राजा उनवल , राजा मलांव जैसे कई राजा हैं। इन सब की तो अब माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं रही। छोटा-मोटा व्यवसाय कर रहे हैं। होटल आदि चला रहे हैं। मिडिल क्लास ज़िंदगी जी रहे हैं। किसी तरह ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। एक कार भी नहीं है अब ऐसे कई राजाओं के पास। मोटर साइकिल है तो पेट्रोल भरवाने का पैसा नहीं है। लेकिन भाजपा में तो राज परिवार की एक विजयाराजे सिंधिया ही थीं जो पहले कांग्रेसी ही थीं। अब उन के पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया भी वाया कांग्रेस भाजपा में हैं , बीते साल से। लेकिन कांग्रेस में नटवर सिंह , जम्मू के राजा कर्ण सिंह से लगायत पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह तक कई लोग राजपरिवार से रहे हैं और हैं।
एक समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे रोमेश भंडारी भी रॉयल फेमिली से थे। चूंकि राजा और व्यवसाई सर्वदा सत्ता के साथ रहते रहने के आदी हैं , सो ऐसा हुआ। जब मुग़ल आए तो यह राजा लोग उन के साथ हो गए। जब ब्रिटिशर्स आए तो यह राजा लोग ब्रिटिशर्स के साथ हो गए। आप पढ़िए कभी सावरकर के लिखे लेखों को। ब्रिटिशर्स के साथ हिंदू राजाओं के गठजोड़ पर सावरकर ने बहुत ज़बरदस्त ढंग से लिखा है। बल्कि नागपुर की रानी सतारा ने ब्रिटिशर्स से बाक़ायदा संधि की तो सावरकर ने लिखा कि इन हिंदू राजाओं को कीड़े पड़ें। सिंधिया , रानी लक्ष्मी बाई के ख़िलाफ़ अंगरेजों का साथ देने के लिए कुख्यात हैं ही। बल्कि उन दिनों तो सावरकर मुस्लिम राजाओं की तारीफ़ में कसीदे लिख रहे थे। क्यों कि कई सारे मुस्लिम राजा भले अपना राज वापस पाने के लिए ही सही ब्रितानिया हुक़ूमत से पूरी ताक़त के साथ लड़ रहे थे। जब कि हिंदू राजा ब्रिटिशर्स से हाथ मिला कर देश के साथ गद्दारी कर रहे थे। फिर सावरकर के साथ यह था कि जो अंगरेजों का दुश्मन , वह उन का दोस्त। तो यह मुस्लिम राजा लोग सावरकर के दोस्त थे तब। सावरकर इन मुस्लिम राजाओं के प्रशंसक।
बाद में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो यह हिंदू राजा , मुस्लिम राजा सभी कांग्रेस के साथ हो गए। ख़ास कर हिंदू राजाओं ने ही कांग्रेस में सावरकर के ख़िलाफ़ डट कर माहौल बनवाया। ऐसा पेण्ट किया कि सावरकर तो हिंदुत्ववादी । टू नेशन थियरी का जनक। मुस्लिम विरोधी। और तो और अंगरेजों का पिट्ठू था सावरकर। यह रजवाड़ों का कमाल था। यह ठीक है कि सावरकर ने जेल से छूटने के लिए अंगरेजों से माफ़ी मांगी थी। पर सावरकर के अलावा कोई एक दूसरा नाम भी कोई बताए न जिसे अंगरेजों ने दो बार काला पानी के आजीवन कारवास की सज़ा भी दी हो। दो बार आजीवन कारावास यानि जेल में ही मर जाना। अच्छा तब के समय का कोई एक आदमी बताइए जिस ने नाखून से जेल की दीवारों पर अंगरेजों के खिलाफ किताबें लिखी हों। और उसे लोगों को याद करवा कर जेल से बाहर भेजा हो। और उन लोगों ने जेल से बाहर आ कर उन किताबों को याद के आधार पर लिख कर सावरकर के नाम से किताबें छपवाई हों। कोई एक दूसरा नहीं मिलेगा। बाद में सावरकर के साथियों ने ही उन्हें समझाया कि माफ़ी मांग कर बाहर निकल कर काम करने में भलाई है। बजाय इस के कि जेल में तड़प-तड़प कर मर जाएं। बाहर निकल कर समाज में छुआछूत के खिलाफ जो काम सावरकर ने किया वह अदभुत है। गांधी ने सावरकर के इस काम को और आगे बढ़ाया।
एक प्रसंग है कि गांधी लंदन में हैं। भारत आ कर राजनीतिक काम करना चाहते हैं। इस बारे में गांधी अपने राजनीतिक गुरु गोखले को चिट्ठी लिखते हैं। गोखले उस समय फ्रांस में अपना इलाज करवा रहे हैं। गोखले भी राजा हैं। पर अंगरेजों के ख़िलाफ़ हैं। ख़ैर , वह गांधी को चिट्ठी लिख कर बताते हैं कि मैं लंदन आने वाला हूं। बिना मुझ से मिले भारत मत जाना। दुर्भाग्य से तभी विश्वयुद्ध छिड़ जाता है। फ़्रांस से लंदन का रास्ता बंद हो जाता है। पर लंदन से भारत का रास्ता खुला हुआ है। लेकिन गांधी भारत नहीं आते। लंदन में गोखले की प्रतीक्षा करते हैं। यह प्रतीक्षा 6 महीने की हो जाती है। दूसरा कोई होता गांधी की जगह तो 6 महीने इंतज़ार नहीं करता गोखले का। भारत आ गया होता। पर जब विश्वयुद्ध खत्म होता है। फ़्रांस से लंदन का रास्ता खुलता है तो गोखले लंदन आते हैं। गोखले से गांधी मिलते हैं। गोखले गांधी को बहुत सी बातें बताते हैं। पर साथ ही कहते हैं कि भारत में इस समय एक त्रिमूर्ति है। बिना इस त्रिमूर्ति से मिले कुछ मत करना। जो भी करना , इन तीनों से पूछ कर ही। इन की सलाह से ही। यह त्रिमूर्ति है रवींद्रनाथ टैगोर , सावरकर और मुंशी राम की। मुंशी राम बाद में स्वामी श्रद्धानंद के नाम से जाने गए। जिन की हत्या दिल्ली के चांदनी चौक में उन के घर में घुस कर अब्दुल राशीद ने कर दी थी। यह एक अलग कहानी है , घिनौने सेक्यूलरिज्म की।
खैर , गांधी आते हैं भारत में। तीनों से मिलते हैं। इन तीनों की राय से ही काम शुरू करते हैं। इस तरह सावरकर गांधी के मेंटर बनते हैं। लेकिन हिंदू रजवाड़े कांग्रेस में घुस कर सावरकर को सांप्रदायिक , हिंदुत्ववादी घोषित करवा देते हैं। इतना कि लोग जिन्ना को नहीं , सावरकर को गाली देने में व्यस्त हो जाते हैं। जिन्ना नहीं , सावरकर से घृणा सिखाने में लग जाते हैं। यह लंबी कथा है। इस पर फिर कभी। बस संकेत में इतना ही समझ लीजिए कि कर्ण सिंह के पिता राजा हरी सिंह अगर समय रहते कश्मीर का विलय भारत में करने पर रज़ामंद हो गए होते तो पकिस्तान के पास पी ओ के नहीं होता। चीन के पास अक्साई चीन भी नहीं। भारत के पास होता। वह तो जब रातो-रात जान पर बन आई तो हरि सिंह ने कश्मीर का विलय भारत में किया। फिर दूसरी ग़लती नेहरू ने किया , संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मामले को रख कर। खैर।
अभी तो कुकुरमुत्ता टाइप राजाओं की बात करते हैं। एक बात जान लीजिए कि जो भी कोई कहे कि हम अलाने राजा , फलाने राजा। तो उस राजा से इतना भर पूछ लीजिए कि दिल्ली में आप का कौन सा हाऊस है ? हुआ यह कि अंगरेजों ने जब नई दिल्ली बसाई तो बड़ी बुद्धि से बसाई। वह जो कहते हैं न कि , न हर्र लगे , न फिटकरी और रंग चोखा। तो उस समय देश में जितने भी राजा थे , अंगरेजों ने सभी से कहा कि आप आइए दिल्ली। दिल्ली में आप को जितनी भी जगह चाहिए , हम देते हैं। आप अपना महल बनाइए। तो देखिए न हैदराबाद हाऊस , बड़ौदा हाऊस , सिंधिया हाऊस जैसे तमाम बड़े-बड़े महल हैं। जो रजवाड़ों और नवाबों ने अंगरेजों की मिजाजपुर्शी में बनवाए। और इन रजवाड़ों के खर्च पर शानदार नई दिल्ली बस गई। अंगरेजों ने बस प्लानिंग की। बाद के समय में जब कांग्रेस सरकार आई तो तब के गृह मंत्री सरदार पटेल ने सभी रजवाड़ों से देश का खजाना भरने की अपील की। कहते हैं राजा दरभंगा ने सर्वाधिक 5 टन सोना तब भारत सरकार को दान दिया था। कभी पूछिएगा न राजा पड़रौना जैसों या उन की पैरोकारी में मरे जा रहे लोगों से कि तब इन्हों ने कितना टन सोना भारत सरकार को दान दिया था। या फिर दिल्ली में उन का कौन सा हाऊस है। फिर वंशावली क्या है। हक़ीक़त सामने आ जाएगी। या फिर उस राजा या राज परिवार से एक समय सरकार दिया जाने वाला प्रिवीपर्स मिलने का विवरण ही पूछ लीजिए। प्रिवीपर्स मिलने का विवरण भी अगर नहीं है तो समझ लीजिए कि वह राजा बेटा तो है लेकिन राजा नहीं है। किसी सूरत नहीं है।
इतना ही नहीं , आप कभी जाइए बनारस। तमाम राजाओं के महल गंगा किनारे मिलेंगे। लखनऊ आइए कभी। राजा साहब बलरामपुर की तमाम निशानियां हैं। बलरामपुर अस्पताल से लगायत जाने क्या-क्या। राजा साहब महमूदाबाद पकिस्तान चले गए। फिर लौटे। उन की भी तमाम संपत्तियां लखनऊ में यत्र-तत्र हैं। शत्रु संपत्ति के रूप में ही सही। कपूरथला के नाम पर भी निशानियां हैं। हर बड़े शहर में रजवाड़ों की निशानियां मिलती हैं। कहानियां मिलती हैं। लोक में भी तमाम किस्से हैं। अब कि जैसे राजा पड़रौना के राजा बनने का क़िस्सा भी कभी कहीं मैं ने पढ़ा नहीं है। गोरखपुर में ही विभिन्न लोगों से सुना है। एक बार एक यात्रा में कवि , आलोचक , संपादक , गोरखपुर विश्विद्यालय में हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर रहे और साहित्य अकादमी , दिल्ली के अध्यक्ष रहे , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने भी इस कथा को बहुत रस ले कर सुनाया। तिवारी जी उसी क्षेत्र के रहने वाले भी हैं। तो यह कथा अगर लोक में है तो अकारण नहीं है। लोगों को जानना चाहिए कि राजा पड़रौना का ही राजतिलक पैर के अंगूठे से नहीं हुआ है। विवरण मिलते हैं कि छत्रपति शिवा जी का भी राजतिलक एक ब्राह्मण ने अपने पैर के अंगूठे से किया था। तो यह राजा पड़रौना का क़िस्सा किसी व्यक्ति को , किसी जाति या किसी समुदाय को अपमानित करने की गरज से नहीं लिखा गया है। अनायास ही लिखा गया है। कृपया कोई इसे दिल पर न ले।
फिर तमाम राजाओं की वंशावली है। सरकारी रिकार्ड में दर्ज है। गजेटियर में दर्ज है। बहुतों की नहीं है। कहीं कुछ भी दर्ज नहीं है। दान या बख्शीस में दी गई जमींदारी और राजपाट से न कोई राजा बनता है , न जमींदार। वैसे तो शेरशाह सूरी अफ़ग़ान था। उस के पुरखे बिहार के सासाराम में बहुत बड़े जमींदार थे। शेरशाह सूरी का असल नाम फ़रीद ख़ान है। पिता से बग़ावत कर दूसरे बड़े जमींदारों की नौकरियां करने लगा। कभी एक जमींदार के साथ शिकार में पैदल ही शेर को मार दिया तो फ़रीद ख़ान से शेर ख़ान बन गया। जमींदारों की नौकरियां करते-करते हुमायूं का सेनापति बन गया किसी सूबे का। बाद में हुमायूं को ही मार कर ईरान भगा दिया। और ख़ुद शासक बन गया। 7 साल हिंदुस्तान पर हुकूमत की। बारूदखाने का एक्सपर्ट था पर अपने ही बारूदखाने में मारा गया। फिर अब राजतंत्र नहीं , लोकतंत्र है। तो काहे के राजा , काहे का रजवाड़ा। बाक़ी अपने दिल और अपनी क़लम के राजा तो हम भी हैं। लेकिन किसी गजेटियर में हम नहीं मिलेंगे। न किसी और सरकारी रिकार्ड में। दिल्ली , बनारस , लखनऊ आदि में कोई हाऊस या महल आदि-इत्यादि या बेहिसाब संपत्तियां भी नहीं हैं हमारी। लेकिन हम राजा हैं , तो राजा हैं। आप मत मानिए। हम ने चंदन लगा कर अपना राज तिलक ख़ुद कर लिया है। क्या कर लेंगे आप ! अपनी क़लम के राजा हैं हम। अपनी किताबों में , अपने लिखे में हम ज़रूर मिलेंगे। खोजना हो तो खंजन नयन बन कर खोज लीजिए। नहीं नयन मूंद कर निद्रा में निमग्न हो जाइए। हम डिस्टर्ब नहीं करेंगे।
Thursday, 17 June 2021
मुरलीधारी बदल कर वेश आ रहे हैं , गाने पर मुझे घनघोर आपत्ति है
दयानंद पांडेय
आप मुसलमानों और यादवों के नेता तो हो सकते हैं पर किसी के आराध्य कैसे हो सकते हैं भला। आप राम या कृष्ण के भक्त तो हो सकते हैं। कोई हर्ज नहीं है। यह आप का ही नहीं , हर किसी का अधिकार है। कोई भी हो सकता है। किसी भी धर्म , किसी भी देश का हो सकता है। नो प्रॉब्लम। पर आप कहें कि आप राम बन कर आ रहे हैं , आप कृष्ण बन कर आ रहे हैं। तो यह बहुत ही अश्लील बात है , बहुत ही आपत्तिजनक बात है। किसी को हो , न हो मुझे इस पर गंभीर आपत्ति है। राम और कृष्ण हमारे आराध्य हैं। फिर वोटों की टुच्चई के लिए आप हमारे आराध्य भला कैसे हो सकते हैं। ऐसे किसी भी दावे या गाने पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। हाईकोर्ट , सुप्रीमकोर्ट , चुनाव आयोग को तुरंत इस का स्वत: संज्ञान ले कर इस गाने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
टोटी यादव ऊर्फ अखिलेश यादव ने अपने लिए एक गाना बनवाया है , मुरलीधारी बदल कर वेश आ रहे हैं ! गज़ब है , मुरलीधारी बनने का मुंगेरी लाल का यह हसीन सपना भी। कहां माखन चोर , कहां टोटी चोर ! वह गांव में एक कहावत कही जाती है न कि कहां मूंछ के बाल कहां .... की याद आ गई है। एक समय मथुरा में जयगुरुदेव की संपत्ति पर कब्जा करने के लिए माफ़िया रामवृक्ष यादव को मरवा कर , चाचा शिवपाल यादव को ठिकाने लगाने वाले , औरंगज़ेब की तरह पिता की पीठ में छुरा घोंपने वाले टोटी यादव अब मुरलीधारी बन कर , हमरे बलमा बेईमान हमें पटियाने आए हैं , गाने की याद भी दिला दे रहे हैं। मुरलीधर तो द्रौपदी की लाज बचाने के लिए जाने जाते हैं पर यह टोटी यादव तो बलात्कारी गायत्री प्रजापति को बचाने के लिए जाने जाते हैं। भू माफ़िया , चार सौ बीस आज़म खान जो जयाप्रदा की चड्ढी का रंग बताने के लिए कुख्यात हैं के संरक्षण के लिए जाने जाते हैं। घनघोर यादववाद के लिए जाने जाते हैं। गुंडा राज के लिए जाने जाते हैं।
भ्रष्टाचार और यादववाद के परम पालनहार टोटी यादव पहले पप्पू गांधी के खूनी और भ्रष्टाचारी पंजे से साइकिल चलवा कर पराजित हुए तो हाथी पर बैठ कर साइकिल चलाने में सत्ता भी गंवा बैठे। उत्तर प्रदेश को किसी का संग पसंद नहीं आया। तो मुस्लिम वोट के लिए मुसलामानों के मल का टोकरा सिर पर रखने वाले टोटी यादव अब मुरलीधर को ठगने के लिए स्वांग भर रहे हैं। भूल गए हैं टोटी यादव कि राम और कृष्ण दोनों एक ही हैं। भजन ही है , जग में सुंदर हैं दो नाम / चाहे कृष्ण कहो चाहे राम ! बस त्रेता और द्वापर युग का फ़र्क है। दोनों ही भारतीय वांग्मय में राक्षसों का अंत करने के लिए अवतार माने जाते हैं। विष्णु के अवतार हैं दोनों। पर यहां तो टोटी यादव मुख़्तार अंसारी , अतीक़ अहमद जैसे अनन्य राक्षसों के पालनकर्ता के रूप में कुख्यात हैं। गोया कंस और रावण के संरक्षक। गुंडा राज , भ्रष्टाचार और यादव राज के लिए जाने जाने वाले टोटी यादव अगर राम मंदिर के लिए अयोध्या में पत्थर का आना रोक सकते हैं। येन-केन-प्रकारेण , राम मंदिर का मुसलसल विरोध कर सकते हैं , अनेक साधू-संतों की निरपराध पिटाई करवा सकते हैं। तो मुरलीधारी कैसे हो सकते हैं। तमाम विसंगतियों , अनीतियों और कुनीतियों के बावजूद आप मुरलीधारी के भक्त तो हो सकते हैं। पर मुरलीधारी कैसे हो सकते हैं।
आप मुसलमानों और यादवों के नेता तो हो सकते हैं पर किसी के आराध्य कैसे हो सकते हैं भला। वेश बदल कर ही सही मुरलीधारी कैसे हो सकते हैं। राधा और मीरा से बड़ा भक्त तो अभी तक कोई हुआ नहीं दुनिया में कृष्ण का। उन्हों ने भी कभी खुद को मुरलीधारी कहने की धृष्टता नहीं की। आप की इतनी हिम्मत कैसे हो गई भला। सूरदास और रसखान जैसे अनेक कवियों ने भी कृष्ण की कल्पना में किसी और को कभी नहीं देखा। तब जब कि जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे कवि की अवधारणा है। लोहिया अपने एक निबंध राम , कृष्ण और शिव में लिखते हैं , राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। जिस की सारी सोच , सारा सपना टोटी , टाइल , यादव , मुस्लिम और सत्ता तक ही सीमित हो , वह पूर्णता के किस महान स्वप्न में मुरलीधारी बनने की कुटिलता पर उतर आया है , सहज ही सोचा जा सकता है। मुरलीधारी का वेश बना कर चुनावी नौटंकी में उतरने वाले इस पाखंडी और भ्रष्ट टोटी यादव का पुरज़ोर विरोध बहुत ज़रूरी है। टोटी यादव क्या हम किसी भी को ,किसी भी वेश में मुरलीधारी स्वीकार करने को किसी सूरत तैयार नहीं हैं।
Monday, 14 June 2021
क्या ऐसे भी राम नाम सत्य होता है , छोटकी फूआ !
दयानंद पांडेय
हज़ार दुःख हों पर सब को फलांगती हुई , घर में हरदम किसी चिड़िया की तरह चहकने-फुदकने वाली , बात-बेबात बच्चों की तरह खिलखिलाने वाली , सर्वदा खुश रहने वाली , घर की कैसी भी महफ़िल हो हरदम उसे गुलज़ार करने वाली हमारी छोटकी फूआ आज नहीं रहीं। उन के बिना हमारे घर का कोई काम नहीं होता था। सुख हो , दुःख हो , छोटकी फूआ हरदम हाजिर। गोरखपुर का गांव हो या लखनऊ। फूआ हर जगह होती थीं। सब से आगे। ऐसे जैसे सूर्य। ठीक उस फ़िल्मी गाने की तरह कि , आगे-आगे हम चलें यारों की बारातों में। सचमुच वह यारों की यार थीं। यारबास थीं। सब की सहेली। उम्र की बैरियर आड़े नहीं आई कभी उन के आगे। बच्चा हो , बूढा हो , जवान हो , सब के दिल की बातें सुनतीं। बीते 25 बरस से रक्षा बंधन उन के घर पर ही बीतता था। फूआ थीं , पर राखी बांधती थीं। बहन की कमी पूरी करती थीं। हम सभी पांचो भाई सपरिवार उन के यहां इकट्ठे होते थे। परिवार के इतने सारे लोगों को एक साथ देख कर उन की कालोनी के लोग फूआ से रश्क करते थे।
गोमती नगर के विराम खंड - 5 में उन का घर कालोनी की स्त्रियों से हमेशा आबाद रहता था। पूरी कालोनी की वह चहेती थीं। हर कोई उन के पास आता रहता था। किसी न किसी काम से। नहीं कुछ तो बतकुच्चन ही सही। किसी शाम को जब भी जाऊं , उन की विधान सभा सजी रहती थी। इसी लिए आज पूरी कालोनी उन्हें विदा करने के लिए उपस्थित थी। स्त्री-पुरुष , बच्चे सभी हाथ बांधे उपस्थित थे। जिन को वह नित्य प्रति कौरा खिलाती थीं , वह कुत्ते भी।
फूआ तो हमारी सात रहीं। जिन में दो को तो हम ने देखा भी नहीं कभी। बाक़ी पांच को देखा। सभी फूआ का स्नेह और आशीर्वाद मुझे खूब मिला है। लेकिन छोटकी फूआ , हम से 12 बरस ही बड़ी थीं। सो दोस्त भी थीं और हमारे हर सुख-दुःख में बराबर की साझेदार थीं। आशीर्वाद बहुत लोग देते हैं पर जब छोटकी फूआ आशीर्वाद देती थीं तो जैसे दुनिया का सारा सुख उठा कर दे देती थीं। उन का रोम-रोम खिल उठता था। जैसे भीतर होता था , उन के वैसे ही बाहर। बचपन में उन के साथ खूब खेलने की यादें हैं। खेत में चना का साग खोंटने , बथुआ का साग खोंटने , मटर की छीमी तोड़ने , ऊंख तोड़ने और चूभने की यादें हैं। खेत में ही कंडे की आग में भुट्टा भून कर खाने की यादें हैं। कितना मन से तो वह कहतरी से सोंधी-सोंधी साढ़ी और खुरचुनी खुरुच-खुरुच कर खिलाती थीं।
नवनीत में लिपटी तरह-तरह की यादें हैं। छोटकी फूआ की यादों और बातों की बाजा बजाती एक पूरी बारात है। एक पूरी नदी है। मन में सर्वदा बहती हुई। बहती रहेगी। औपचारिक रूप से बहुत कम पढ़ी-लिखी थीं छोटकी फुआ। शायद प्राइमरी भी पास नहीं थीं। पर पढ़ने की शौक़ीन बहुत थीं। इंटर में था तब प्रेमचंद का उपन्यास निर्मला पढ़ते हुए उन्हें देखा। उन से ही ले कर मैं ने निर्मला पढ़ी थी। कथा या उपन्यास पढ़ना उन का शौक था एक समय। अभी के दिनों में भी सारा अखबार रोज पढ़ती थीं। हम से भले कोई ख़बर या लेख छूट जाए , फूआ से नहीं छूटता था। संपादकीय , लेख , फ़िल्म , खेल आध्यात्म आदि सब कुछ पढ़ डालती थीं। जब कुछ ख़ास लगता उन्हें तो चहकते हुए चर्चा भी करतीं। रस ले-ले कर। स्वांग करने में , बतकही में भी उन का कोई जवाब नहीं था घर में। वह जहां बैठतीं , बच्चे बड़े सब उन्हें घेर लेते। उन्हें सुनने लगते।
ममत्व और आत्मीयता का सागर थीं हमारी छोटकी फूआ। अपनापन उन के रोएं-रोएं में बसता था। ख़ूब खिलाना-पिलाना स्वभाव। सिंचाई विभाग की नौकरी में इंजिनियर रहने के कारण फूफा जी का ट्रांसफ़र होता रहता था। सो गोंडा , बलरामपुर , सुलतानपुर , आजमगढ़ आदि होते हुए 25 बरस से लखनऊ में रह रही थीं छोटकी फूआ। अभी जब पिछली बार गया तो वह मानीं नहीं , छड़ी ले कर किचेन में पहुंच गईं। मना करता रहा पर वह एक हाथ में छड़ी , दूसरे हाथ में खाने की चीज़ें ले कर उपस्थित हो गईं। इधर कुछ महीनों से बीमार चल रही थीं। कोरोना काल के कारण हम सब का आना-जाना भी बहुत ही कम हो गया था । फूफा जी ने अकेलेदम जितनी सेवा की फूआ की , महीनों की , शायद ही कोई पति कर पाएगा। आज भी सुबह वह फुआ को नहला-धुला कर नाश्ता करवा ही रहे थे कि नाश्ता करते-करते ही वह विदा हो गईं। आज दिन के तब ग्यारह बज चुके थे। अब फिर रात के ग्यारह बज गए हैं। इन बारह घंटों में ही क्या से क्या हो गया। कल ही सोचा था कि कल छोटकी फूआ से मिलने जाऊंगा। पर क्या पता था कि जाऊंगा तो सही पर मिलने नहीं , विदा करने जाऊंगा। अंतिम विदा !
जैसे आंगन के बीच में तुलसी होती है न , हमारी छोटकी फूआ ऐसी ही थीं। लोग तुलसी को घेरे ही रहते हैं। पूजते ही रहते हैं। घी के दिये जलाते रहते हैं , हर शाम। ऐसी ही तुलसी थीं हमारी छोटकी फूआ। उन का नाम भी यथा नाम तथा गुण ही था। तुलसी दूबे। प्रणाम करता हूं। बारंबार प्रणाम करता हूं। ससुराल में भी छोटकी फूआ का बड़ा मान था। फूफा जी तो अतुलनीय प्रेम करते थे उन से लेकिन उन के देवर लोग भी उन्हें मां की तरह ही मान देते रहे हैं। देवर लोगों के बच्चे भी उन्हें बड़ी मम्मी ही कहते हैं और पूरे मान के साथ। उन के सास-ससुर भी बेटी की तरह मानते थे। मैं शायद नौवीं में पढता था तब। पहली बार छोटकी फूआ के गांव गया था। उन का संयुक्त परिवार था गांव में। तीन सास , तीन ससुर। कई सारे देवर , देवरानी , जेठ , जेठानी भी। खूब सारे बच्चे। पर छोटकी फूआ की तारीफ़ में सब के सब। उन के एक बड़े ससुर जाने किस बात पर कहने लगे कि सभी बहुओं की आवाज़ कभी न कभी सुन चुका हूं पर मजाल है कि बैदौली वाली दुलहिन की आवाज़ भी कभी सुन पाया होऊं , इतने सालों में। बैदौली वाली मतलब हमारी छोटकी फूआ। उन दिनों गांव में लोग बहू के गांव के नाम से पुकारते थे। बैदौली हमारे गांव का नाम है। छोटकी फूआ के गांव में लोग मेरा परिचय बैदौली वाली के भतीजे के रुप में देते थे। और बैदौली वाली का नाम आते ही मेरा मान तुरंत बढ़ जाता था।
काल्हीपार नाम के उस पूरे गांव में बैदौली वाली का नाम इतनी इज्जत से लिया जाना बहुत गदगद कर गया था। तब टीनएज था अब एक उम्र हो गई है पर सचमुच इस बैदौली वाली ने हमारे परिवार और गांव का मान कभी भी मुश्किल में नहीं आने दिया। तमाम विपत्तियां ओढ़ लीं लेकिन बैदौली की आन और मान पर कभी कोई सवाल नहीं उठने दिया मरते दम तक। शालीनता , विनम्रता और संस्कार का अदभुत संगम थीं हमारी छोटकी फूआ। उन के ममत्व के सागर ने अपने-पराए सभी को अपने स्नेह और सम्मान की डोर में सर्वदा बांधे रहा। सूर्य बन कर वह सब के जीवन में प्रकाश परोसती रहीं। हमारी अम्मा की भी अभिन्न सखी थीं वह। छोटकी भौजी कहती ज़रूर थीं वह हमारी अम्मा को पर ननद बन कर नहीं , सखी बन कर ही रहीं सर्वदा अम्मा के साथ। अम्मा के साथ का वह उन का अनुराग ही था कि वह हम सभी भाइयों को अपने ममत्व के आंचल में सर्वदा बांधे रहती थीं। छोटकी फूआ के मन में कभी भी किसी के लिए कोई कटुता नहीं देखी। हर किसी के लिए सर्वदा स्नेह और सम्मान ही उन के पास रहा।
सोचता हूं , अब हमारा रक्षा बंधन वैसे कब मनेगा , जैसे फूआ के रहने पर उन के आशीर्वाद के साथ मनता था। हमारे घर की हंसी और खुशी छोटकी फूआ के बिना कैसे खनकेगी। किसी बताशे की तरह , किसी मिसरी की तरह हमारे मन में उन की याद तो सर्वदा घुलती रहेगी मन की अलगनी पर टंगी रहेगी। यादों की नदी बहती रहेगी। पर चिड़िया की तरह चहकने-फुदकने वाली , बात-बेबात बच्चों की तरह खिलखिलाने वाली , सर्वदा खुश रहने वाली हमारी छोटकी फूआ अब हमारे बीच नहीं होंगी। घर की कैसी भी महफ़िल हो हरदम उसे गुलज़ार करने वाली हमारी छोटकी फूआ हमारी किसी महफ़िल में अब नहीं होंगी। राम नाम सत्य जाने कितनी बार बोलना हुआ है , जीवन में। पर आज यह पहली बार ही हुआ छोटकी फूआ का शव कंधे पर लिए राम नाम सत्य बोलते हुए ही मैं रोने लगा। रोता रहा और राम नाम सत्य बोलता रहा। फिर बोलते-बोलते , रोते-रोते हुए आवाज़ रुंध गई। अचानक चुप हो गया। क्या ऐसे भी राम नाम सत्य होता है , छोटकी फूआ ! हंसते-हंसाते भी कोई रुलाता है भला !
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Saturday, 12 June 2021
कार्टून बनाने के लिए चार्ली हेब्दो जैसा साहस चाहिए होता है , नौकरी चली गई का विलाप या गान से यह साहस नहीं आता
दयानंद पांडेय
पुण्य प्रसून वाजपेयी आज तक की नौकरी से निकाले गए थे रामदेव के कारण। लेकिन एजेंडा मीडिया ने बताया कि नरेंद्र मोदी ने निकलवा दिया। सब को मालूम है कि रामदेव आज की तारीख में सब से बड़े विज्ञापनदाता हैं। रामदेव से एक असुविधाजनक पूछ लिया था , पुण्य प्रसून ने । पुण्य प्रसून सहारा से क्यों निकाले गए थे , यह भी तो कोई पूछे। पर नहीं पूछता। चलिए , हम बताए देते हैं कि लालू यादव के कारण निकाले गए थे। पर यह कोई नहीं पूछता। लेकिन रामदेव का भारतीय मीडिया पर विज्ञापन का ख़ूब रौब है। इतना कि एजेंडा मीडिया का एक बड़ा स्तंभ एन डी टी वी भी कभी कोई खबर रामदेव के खिलाफ फ़िलहाल नहीं चला सकता। न इस के स्वयंभू एंकर रवीश कुमार एन डी टी वी पर या अपने ब्लॉग या किसी मीडियम पर रामदेव के खिलाफ एक शब्द लिख या बोल सकते हैं। रामदेव के विज्ञापनजाल का ही कमाल है कि फिर किसी मीडिया हाऊस ने पुण्य प्रसून वाजपेयी को नौकरी नहीं दी। तब जब कि वह बेस्ट एंकर हैं। जब तक यह रामदेव का विज्ञापनजाल है पुण्य प्रसून को कभी कहीं नौकरी नहीं मिलेगी। अभी रामदेव का विज्ञापनजाल टूट जाए , पुण्य प्रसून वाजपेयी को कल नौकरी मिल जाएगी।
इन दिनों कार्टूनिस्ट मंजुल बहुत चर्चा में हैं। कहा जा रहा है कि मंजुल को मोदी ने निकलवा दिया। यह भी नाखून कटवा कर शहीद बनने की कसरत है। अरे , मंजुल मुकेश अंबानी की नौकरी में थे। और यह एजेंडाधारी लोग बहुत साफ़ कहते हैं कि मोदी भी अंबानी की ही नौकरी में है। पेशबंदी में अंबानी की बीवी नीता अंबानी के आगे हाथ जोड़े झुके नरेंद्र मोदी की एक फ़ोटो शाप वाली फ़ोटो भी पेश करते हैं। इस फ़ोटो को एक आई ए एस अफ़सर ने भी अभी पोस्ट किया था। जिसे उस ने जाने क्यों बाद में मिटा दिया।
एजेंडा में पगलाए यह लोग मंजुल को निकाले जाने वाली चिट्ठी क्यों नहीं सोशल मीडिया में जारी कर देते भला। ताकि साबित तो हो सके कि आखिर मोदी ने क्यों निकलवाया। कुछ तो बर्खास्तगी में कारण बताया गया होगा। आखिर मुंबई में अघाड़ी सरकार है जो मोदी से नहीं डरती। उस के पास कुछ क़ानून वानून होगा। अंबानी के खिलाफ कार्रवाई करे कि क्यों गलत ढंग से निकाल दिया। कुछ मदद करे मंजुल की। कहीं ऐसा तो नहीं कि मंजुल का कांट्रैक्ट खत्म हो गया हो। और इसे निकालना बताया जा रहा हो। क्यों कि आज कल मीडिया की नौकरी कांट्रैक्ट पर ही चल रही है। और यह कांट्रैक्ट कभी भी खत्म किया जा सकता है , कांट्रैक्ट में यह भी साफ़ लिखा रहता है। सब जानते हैं। पर इस बिंदु पर अभी सभी चुप हैं। अच्छा विनोद दुआ की नौकरी प्रणव रॉय ने क्यों ले ली थी अचानक। कभी चर्चा हुई क्या ? क्या नरेंद्र मोदी ने ली थी ? विनोद दुआ की नौकरी , वायर से क्यों गई ? अच्छा एम जे अकबर का मी टू , मी टू था और विनोद दुआ का मी टू गीता का ज्ञान था ? वेरी गुड। तहलका वाला तरुण तेजपाल खुद बलात्कार में अपने को दोषी मान कर उस लड़की से लिखित माफ़ी मांग चुका था। सोशल मीडिया पर भी माफ़ी मांगी थी तरुण तेजपाल ने। फिर भी अदालत ने बरी कर दिया। कैसे भला। इस पर कोई चर्चा क्यों नहीं हुई। इस लिए कि तरुण तेजपाल और विनोद दुआ इन एजेंडा प्रिय लोगों के भगवान हैं। इस लिए नो चर्चा। जैसे मोहम्मद साहब हों। कि चर्चा की इन पर तो कत्ल कर दिए जाएंगे। सो सब के सब चुप।
अच्छा ऐसा तो है नहीं कि मंजुल कोई आज अचानक ही मोदी के खिलाफ कार्टून बनाने लगे हों। मुझे मालूम है कि मंजुल तमाम एजेंडाधारियों की तरह पैदायशी मोदी विरोधी हैं। मोदी वार्ड के सीरियस मरीज हैं। बहुत समय से वह मोदी के खिलाफ जहर उगलने वालों में शुमार हैं। वह लोग जो मोदी का विरोध नहीं करते अपितु मोदी को शत्रु समझते हैं। हद से अधिक नफ़रत करते हैं मोदी से। इन लोगों का वश चले तो मोदी को सीधे गोली मार दें। तो अभी तक ऐसा क्यों था कि मोदी मंजुल को बर्दाश्त कर रहे थे और अब नौकरी से निकलवा दिया। इतना कि टेलीग्राफ जैसे अख़बार को हेडलाइन बनानी पड़ी। अच्छा मंजुल इकलौते तो हैं नहीं कि सिर्फ़ वही मोदी के खिलाफ कार्टून बना रहे हैं। बल्कि मैं तो मानता हूं कि इरफ़ान कहीं ज़्यादा मोदी पर कार्टून बनाते हैं। हां , इरफ़ान लेकिन कार्टून बनाते हैं , कैम्पेन नहीं चलाते। ऐसे और भी कई काटूनिस्ट , व्यंग्यकार और लेखक कवि हैं जो मोदी पर नित नया प्रहार करते रहते हैं। हमारे लखनऊ में सूर्य कुमार पांडेय हैं। पांडेय जी मोदी और योगी के खिलाफ अकसर एक से एक धारदार व्यंग्य लिखते रहते हैं। आए दिन लिखते रहते हैं। अख़बारों में भी छपता रहता है। सोशल मीडिया पर भी। तो मोदी इन सब की नोटिस क्यों नहीं लेते ? आप सुनिए कभी कवि सम्मेलनी कवि संपत सरल को। हंसते-हंसाते जो सीधा प्रहार करते हैं , इतना मारक प्रहार करते हैं मोदी पर संपत सरल और हर कविता में करते हैं कि पूछिए मत। यू ट्यूब पर मोदी विरोधी जितना संपत सरल को सुनते हैं , शायद किसी को नहीं। जो मार मोदी पर संपत सरल करते हैं , रवीश कुमार , संपत सरल का नाखून भी नहीं छू पाते। संपत सरल की भी मोदी विरोध में सारी कविताएं यू ट्यूब पर ही हैं। क्या मोदी या मोदी के लोगों ने संपत सरल पर कभी हमला बोला या यू ट्यूब से शिकायत की क्या कि यह कविताएं हटा दो। राहत इंदौरी मोदी के खिलाफ क्या-क्या जहरीली और नफ़रती बातें करते रहते थे। मुनव्वर राना अब भी करते रहते हैं। अवार्ड वापसी गैंग के कितने लोगों के ख़िलाफ़ मोदी ने कोई कार्रवाई करवाई। करवा तो सकता ही है। मोदी आख़िर आप की राय में तानाशाह भी है और ताक़तवर भी। फ़ासिस्ट आदि भी। हिटलर से आगे की चीज़।
बहरहाल , इस पूरे प्रसंग में सब से बुरी बात यह हुई है कि मंजुल के कार्टून को शंकर या लक्ष्मण के बराबर खड़ा कर दिया गया है। कभी ठहर कर शंकर या लक्ष्मण के कार्टून देखिए। देख कर मन में गुदगुदी भी होती है , गुस्सा भी आता है। शालीनता भी दिखती है और शऊर भी। शंकर या लक्ष्मण जैसे कार्टूनिस्ट व्यवस्था विरोध में कार्टून बनाते थे। एजेंडाधारी नहीं थे। नेहरू से नफ़रत नहीं करते थे। नेहरू उन के शत्रु नहीं थे। मंजुल जैसे लोगों के पास सच कहिए कार्टून हैं ही नहीं। एजेंडा है। कैंपेन है। नफ़रत है। आप कभी काक के कार्टून देखिए। काक अपने स्केच में बिना कैप्शन के भी क्या से क्या कह देते हैं। मन मुदित हो जाता है , काक के कार्टून देख कर। तो क्या काक व्यवस्था विरोध के कार्टून नहीं बनाते ? अरे कार्टून होते ही हैं व्यवस्था विरोध के लिए। सुधीर तैलंग के कार्टून देखिए। तेल नहीं लगाते सुधीर तैलंग भी। परखच्चे उड़ा देते थे। इरफ़ान के कार्टून तो अर्जुन के तीर की तरह काम करते हैं। राम के वाण की तरह रावण की नाभि में मारते हैं। काम तमाम हो जाता है। इरफ़ान भी मोदी के समर्थक नहीं हैं , विरोधी ही हैं। पर इरफ़ान के कार्टून शत्रुता में सने हुए नहीं हैं। एजेंडा के रक्त में सने हुए नहीं हैं। लेकिन मंजुल के कमोवेश सारे कार्टून एजेंडा और शत्रुता के रक्त में सने हुए , बहुत बीमार हैं।
मंजुल की बात उन का स्केच नहीं कह पाता। कैप्शन कहता है। बड़ा-बड़ा कैप्शन। वह भी बहुत लाऊड हो कर। कार्टून और फ़ोटो के कैप्शन अगर बहुत लाऊड हो कर कुछ कहते हैं तो कार्टूनिस्ट और फोटोग्राफर की मंशा पर सवाल तो खड़ा होता ही है। उस की कमज़ोरी भी दिखती है। यह उस की रचनात्मकता का ह्रास है। याद कीजिए रघु राय की फोटो। तमाम फोटो। पांच फोटुओं का यहां ज़िक्र करता हूं। एक फ़ोटो है : सेनाध्यक्ष रिटायर हो रहे हैं। परेड की अंतिम सलामी ले रहे हैं। सभी अखबारों में फ़ोटो छपती है पहले पेज पर। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस में छपी रघु राय की फ़ोटो पर सब की नज़र टिक जाती है। सेनाध्यक्ष सलामी ले रहे हैं और आंख से आंसू भी बह रहे हैं। यह रघु राय के कैमरे ने ही क्यों देखा। बाक़ी कैमरे क्यों नहीं देख पाए। इस लिए कि वह सब रूटीन फोटो खींच रहे थे। रघु राय लेकिन फ़ोटो खींच रहे थे। एक दूसरी फ़ोटो है पुलिस लाठियां ले कर जयप्रकाश नारायण पर टूट पड़ी है। जयप्रकाश नारायण अपने बचाव में सड़क पर गिर गए हैं। लेकिन पुलिस की लाठियां फिर भी चल रही हैं तो इन लाठियों को रोकने के लिए नाना जी देशमुख जयप्रकाश नारायण के ऊपर हाथ और पैर टेक कर लगभग छाता बन कर उन पर लेट गए हैं। ऐसे कि उन पर , उन का बोझ भी न पड़े। फिर सारी लाठियां नाना जी देशमुख के सीने पर हैं। तीसरी फ़ोटो है : दिल्ली की जामा मस्जिद में ईद की नमाज हो रही है। हज़ारों की भीड़ सजदे में है। पर दो तीन नन्हे बच्चे नए कपड़े पहने मस्जिद की दीवार पर खेल रहे हैं। चौथी फ़ोटो है ; इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति बी बी गिरी खड़े-खड़े बात कर रहे हैं। राष्ट्रपति बी बी गिरी , प्रधान मंत्री इंदिरा के इतने प्रभाव में हैं कि अपनी गांधी टोपी उतार कर दोनों हाथ पीछे ले जा कर खड़े हो गए हैं। टोपी जैसे उन के हिप को संभाल रही हो। और पांचवी फ़ोटो ; 1977 का चुनाव खत्म हो चुका है। मोरार जी देसाई की जनता पार्टी की सरकार बन चुकी है। एक स्वछ्कार सड़क पर झाड़ू लगा रहा है। इंदिरा गांधी का पोस्टर झाड़ू पर है। इंदिरा गांधी , कूड़ेदान में जा रही हैं।
इन फ़ोटुओं को कैप्शन की कोई ज़रूरत है क्या ? ऐसे ही कार्टून को भी किसी कैप्शन की बहुत ज़रूरत नहीं होती। फ़ोटो और कैप्शन अपने आप बोलते हैं। देखिए काक का एक कार्टून याद आ गया है। मेनका गांधी ने तब की प्रधान मंत्री और अपनी सास इंदिरा गांधी से बग़ावत कर संजय गांधी मंच बनाया था। एक उपचुनाव में लखनऊ के मलिहाबाद विधानसभा से मेनका की पार्टी ने कांग्रेस को हरा दिया था। काक ने बस यह किया था कि मेनका को आम चूसते हुए इंदिरा गांधी को ठेंगा दिखा दिया था। फिर काक की लाइनिंग के कहने ही क्या। एक-एक बिंदु बोलता है। ऐसे जैसे देह का रोया-रोया बोले। कार्टून इसे कहते हैं। विष उगलने को कार्टून नहीं , एजेंडा कहते हैं। मंजुल बरसों से कार्टून नहीं बना रहे , विष-वमन कर रहे हैं। एजेंडा चला रहे हैं। बीमारी की हद तक। ऐसी मुट्ठी भर लोगों की टोली उन की वाह-वाह करती रहती है। लोग गमले में बोनसाई उगाते रहते हैं।
फिर जिस तरह यह बात कही जा रही है कि मोदी ने मंजुल को नौकरी से निकलवा दिया , सुन कर ही हंसी आती है। अरे मोदी के पास मंजुल जैसों को जानने का समय भी है भला कि उन की नौकरी खा जाएं। मुझे नहीं लगता कि मंजुल का कोई कार्टून भी देखा होगा मोदी ने। इतना अवकाश नहीं होता मोदी जैसे लोगों के पास और उन के आकाश में । अरे , अगर सोशल मीडिया न होता तो मंजुल जैसों को कोई जानता भी नहीं। न मंजुल के कार्टून को । मैं फिर दुहरा रहा हूं कि मंजुल की बर्खास्तगी वाली चिट्ठी भी सोशल मीडिया पर आनी चाहिए। लेकिन जानता हूं कि कोई नहीं डालेगा उसे सोशल मीडिया पर। मंजुल भी नहीं। क्यों कि चिट्ठी आने पर चिमनी से सारा धुआं निकल जाएगा। नौकरी अलग चीज़ है। सोशल मीडिया अलग चीज़। सोशल मीडिया पर मैक्सिमम बकैती होती है। नौकरी में नहीं। अरे , आप इतने ही बड़े क्रांतिकारी थे तो अंबानी की नौकरी आखिर कर भी कैसे रहे थे भला। सहारा की भी कर ही चुके थे। अंबानी , मोदी का आदमी या कह लीजिए कि मोदी अंबानी का आदमी। और मोदी आप का शत्रु। मोदी से आप को नफ़रत। फिर उस के खेत में आप मज़दूरी कर ही क्यों रहे थे। यह भी तो बता दीजिए। यह तो कुछ-कुछ वैसे ही हुआ कि आप टाटा ,अंबानी , अडानी , बिरला आदि-इत्यादि का पृष्ठ भाग धोएं , उन की चाकरी करें या आप के बच्चे चाकरी करें फिर आप यह भी कहें कि आप कम्युनिस्ट भी हैं। कांख भी छुपी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे। यह तो कोई बात नहीं हुई। सब जानते हैं कि ऐसी खुशफहमियों या गलतफहमियों या ख़बरों का कभी कोई प्रधान मंत्री या उस का कार्यालय खंडन आदि नहीं करता तो आप हवा में गैस के गुब्बारे चाहे जितने उड़ा लें , उड़ाते रहिए।
फिर भी ग़नीमत है और शुक्र मनाइए कि आप कांग्रेस राज में नहीं हैं। मुलायम , लालू , मायावती या अखिलेश राज में नहीं हैं। जितने मन उतने गुब्बारे उड़ा लीजिए। नहीं इन लोगों के राज में होते तो शायद आप की नौकरी ! अरे आप भी ढूंढें नहीं मिलते। अनेक क़िस्से हैं। रामनाथ गोयनका जैसों ने बड़ी क़ीमत चुकाई है इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के शासनकाल में। तब उन का साथ देने के लिए सोशल मीडिया भी नहीं था। हिंदू अख़बार ने भी बोफोर्स घोटाले के समय में क्या-क्या नहीं सहा। कितने पत्रकारों के शव परिवारीजनों को नहीं मिले। मायावती और मुलायम राज में कितने पत्रकार मार डाले गए , ज़िंदा जला दिए गए , बेघर हो गए। उन के परिवारीजन की सिसकियां अभी भी थमी नहीं हैं। और नौकरी ? अभी भी मुलायम और मायावती के ख़िलाफ़ लखनऊ के अखबारों में कोई खबर नहीं छपतीं। दर्जनों पत्रकारों की नौकरी जाती हुई हम लोग देखते रहते हैं। हल्ला बोल अलग हो जाता है।
खुश रहिए कि मोदी राज है कि आप निरंतर आग मूतते हुए भी अपने मूतने को सेलीब्रेट कर रहे हैं और आप का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। दो दिन से नेहरू , नेहरू भी बहुत सुन रहा हूं। अरे , वह नेहरू ही हैं जो और देशों की तरह भारत के संविधान में प्रेस को चौथा खंभा नहीं बना पाए। पूंजीपतियों का खंभा बना दिया। सारा प्रेस , सारी अभिव्यक्ति की आज़ादी पूंजीपतियों की तिजोरी को सौंप दी। नतीज़तन मीडिया काले धन की गोद में बैठ गया है। यह एन डी टी वी , यह प्रणव रॉय की कंपनी में किस-किस का पैसा लगा है , मालूम भी है। पोंटी चड्ढा से लगायत तमाम बिल्डरों का। फेरा , हवाला आदि के कितने मुकदमे हैं प्रणव रॉय पर पता कर लीजिए। किसी एक मामले में भी किसी कोर्ट ने क्लीन चिट नहीं दी है। सारी फाइलें दबवा रखी हैं। यह वायर , यह क्विंट , यह कारवां इंदिरा गांधी होतीं तो कहां होते , क्या यह भी बताने की चीज़ है ? कोलकाता का यह टेलीग्राफ ममता बनर्जी का भोंपू है। अरे मीडिया का आलम तो यह है कि अरविंद केजरीवाल और रामदेव जैसे लोगों के विज्ञापन पा कर चौबीसों घंटे उन के पांव पखारता रहता है। सारे रणबांकुरे वहां नयन मूंद लेते हैं। लेकिन इतने ख़राब स्केच वाले कार्टूनिस्ट मंजुल के लिए ऐसा बिगुल बजा देते हैं गोया , बहुत बड़ा बम ब्लास्ट हो गया हो।
यह ठीक है कि किसी की नौकरी ले लेना उसे फांसी देना ही होता है। मंजुल की भी नौकरी जाना दुखद है। मंजुल का भी परिवार है। बच्चे हैं। गुज़ारा चलना नौकरी में भी मुश्किल होता है। बिना नौकरी के बहुत ही मुश्किल। पर क्या मंजुल इकलौते हैं कि उन की नौकरी गई है। वह भी मोदी ने ले ली। यह तो कुछ-कुछ वैसे ही है जैसे राहुल गांधी जैसे लोग कोविड को मोवीड कहते हैं। यह ठीक है कि 14 मई , 2014 के बाद बहुत सी कविताएं , लेख , कहानियां लिखे गए , कार्टून बनाए गए , मोदी विरोध में नहीं , मोदी से शत्रुता में। मोदी से नफ़रत में। आगे अभी और लिखे जाएंगे। लिखने में हर्ज भी नहीं है। 2024 के बाद भी लिखे जाएंगे। लेकिन नफ़रत और शत्रुता के गान में जनादेश का निरंतर अपमान भी ज़रूरी तो नहीं। जनादेश का सम्मान भी एक तत्व है। अनिवार्य तत्व। नेहरू याद आते हैं। लोहिया नेहरू के खिलाफ फूलपुर , इलाहाबाद से हर बार चुनाव लड़ते थे। हार-हार जाते थे। नेहरू ने एक दिन लोहिया से कहा , मैं आप को संसद में देखना चाहता हूं। और यह तभी संभव है जब आप मेरे खिलाफ चुनाव लड़ना छोड़ कर कहीं और से चुनाव लड़ें। फिर आप जीत कर संसद में आएं और संसद में मेरी धज्जियां उड़ा दें। अच्छा लगेगा। लोहिया ने नेहरू की बात मान ली। फूलपुर की बजाय अगला चुनाव लोहिया ने कन्नौज से लड़ा और जीत कर संसद पहुंचे। सचमुच संसद में लोहिया ने नेहरू की धज्जियां उड़ानी शुरू कर दीं।
तो मोदी विरोधियों को भी जनता के बीच जा कर काम करना चाहिए। मोदी के खिलाफ सोशल मीडिया पर हवाई फायर झोंकने , नफरत के तीर चलाने और कुत्तों की तरह कांग्रेस का कौरा खा कर भौंकने के बजाय सकारात्मक काम करना चाहिए। फंडिंग की हड्डी मोदी के शत्रुओं को बीमार बना रही है। बहुत बीमार। कैंसर , कोरोना और एड्स से भी खतरनाक बीमारी है यह। फंडिंग ने कंडीशंड बना दिया है लेखकों , पत्रकारों , कवियों और कार्टूनिस्टों को। इतना कि वह सिर्फ़ मोदी जानते हैं। देश और जनादेश नहीं। मोदी को मारने के बजाय खुद को मार रहे हैं। मोदी के पतन के इंतज़ार की मृगतृष्णा में मरते हुए यह लोग वैसे ही हैं जैसे कोई शराबी। पहले आदमी शराब पीता है। धीरे-धीरे वह इस का आदी हो जाता है। शराब , आदमी को पीने लगती है। जान यह भी लेना चाहिए कि बिल्ली सिर्फ़ खंभा नोच सकती है , बाघ से नहीं लड़ सकती। मंजुल जैसे मुट्ठी भर लोगों को यह मुगालता जितनी जल्दी हो तोड़ लेना चाहिए। जान लेना चाहिए कि मोदी जैसे लोगों से लड़ने के लिए अंबानी जैसे लोगों की नौकरी में रह कर किसी सूरत नहीं लड़ा जा सकता। अंबानी की नौकरी कर आप मोदी को मज़बूत कर रहे होते हैं। अब यह तो भला कैसे हो सकता है कि अंबानी के नौकर बन कर मोदी से लड़ेंगे। किस दुनिया में रहते हैं। फिर आप कार्टूनिस्ट हैं। कार्टून में सपना हो सकता है ज़रूर पर कार्टून सपने में नहीं बनते। कार्टून बनाने के लिए चार्ली हेब्दो जैसा साहस चाहिए होता है। नौकरी चली गई का विलाप या गान से यह साहस नहीं आता। पर जानता हूं चार्ली हेब्दो का नाम लेना भी आप जैसों के लिए कुफ्र है। मोदी-मोदी का विलाप लेकिन ज़न्नत देता है। क्यों कि यहां ख़तरा नहीं है। अमर हो जाने का एक ऐंद्रिक स्वप्नजाल है। फ़ैशन है। खुद ही हवा खारिज कर खुद ही हंसने का फैशन। मोदी विरोध यही तो है आखिर। ऐसे ही हवा में विरोध का पतंग और गुब्बारा उड़ाने का मौसम। उड़ाते रहिए और मुदित होते रहिए।
मैं नहीं पूछना चाहता कि ममता , केजरीवाल , राहुल , उद्धव ठाकरे , मुलायम , अखिलेश , ममता आदि-इत्यादि की उलटबासियों को ले कर भी मंजुल जैसे कार्टूनिस्ट या कवि , लेखक , पत्रकार कभी कुछ सोच या कर पाते हैं क्या। फिर यह जुलाब की पुड़िया तो सब के ही पास होती है कि लेखक , पत्रकार , कवि , कार्टूनिस्ट को सत्ता के खिलाफ ही होना चाहिए। तो केरल में एक मुख्य मंत्री ने अपने दामाद को मंत्री बना दिया है। है कोई कविता या कार्टून ? चुनाव जीतते ही ममता का टूटा पैर ठीक हो जाता है। पंजाब , राजस्थान की विचित्र स्थितियां हैं। महाराष्ट्र में और। इन विद्रूपताओं पर कितनी कविता , कार्टून और लेख हैं भला। कोई बता सके तो बताए भी। पुडुचेरी में तत्कालीन मुख्य मंत्री ने जिस तरह राहुल गांधी की आंख में धूल झोंका या भरी सभा में लड़की के साथ पुश अप किया राहुल ने , इन सब पर किसी मंजुल ने कोई कार्टून बनाया क्या ? किसी कवि ने कविता , किसी पत्रकार ने लेख आदि लिखा क्या ? इतना सन्नाटा इसी लिए न कि यह सारे लोग और विषय एजेंडे में फिट नहीं होते। चार्ली हेब्दो जैसा साहस किसी एक एजेंडाधारी में क्यों नहीं है ? होगा भी कभी ? कृपया मुझे कहने दीजिए , कभी नहीं।
Saturday, 5 June 2021
जाग मछेंदर , गोरख आया !
दयानंद पांडेय
इस समय देश में तीन मुख्य मंत्री अपने ही भीतरघातियों के निशाने पर हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ , मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान और पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह। इन में दो तो अपनी-अपनी कुर्सी बचाने में लगे हैं। लेकिन एक अकेले योगी आदित्यनाथ ही हैं जो इन भीतरघातियों को जूते की नोक पर रखे हुए हैं। न किसी की मान मनौव्वल , न किसी के सामने पेशी वगैरह का अपमानजनक कृत्य। वन डे मैच खेलने वाले योगी हार-जीत और कुचक्र के फेर में नहीं पड़ते। योगी को अपने काम पर इतना भरोसा है , अपनी निर्भीकता पर इतना भरोसा है कि यहां-वहां उठक-बैठक करने में यक़ीन नहीं करते। गोरखपुर में गोरखनाथ मंदिर में यह सब उन्हों ने सीखा है। लोग जानते ही हैं कि योगी आदित्यनाथ गुरु गोरखनाथ के नाथ संप्रदाय से आते हैं। वह गोरख जो अपने गुरु मछेंद्रनाथ को भी उन के विचलन पर अवसर आने पर चेताते हुए कहते हैं , जाग मछेंदर , गोरख आया ! योगी अपनी राजनीति में भी यही सूत्र अपनाते हैं। काम बोलता है नारा बीते विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव के लिए किसी स्लोगन लेखक ने ज़रूर लिखा था। पर अखिलेश यादव का काम इतना बोल गया कि अब वह टोटी यादव , टाइल यादव के नाम से जाने जाते हैं। अपने भ्रष्टाचार के कारणों से , पिता की पीठ में छुरा घोंपने वाले पुत्र के रूप में याद किए जाते हैं। पिता मुलायम , अखिलेश को प्यार से भले टीपू बुलाते रहे हों , बचपन में पर अखिलेश ने साबित किया कि वह टीपू नहीं , औरंगज़ेब हैं।
काम बोलता है का वह स्लोगन अगर सचमुच चस्पा होता है तो अब वह योगी आदित्यनाथ पर होता है। क़ानून व्यवस्था के मोर्चे पर जिस तरह अतीक़ अहमद , मुख्तार अंसारी , विजय मिश्रा , विकास दुबे , धनंजय सिंह आदि के अरबों के साम्राज्य पर जिस ध्वस्तीकरण का बुलडोजर चलाया है , वह आसान नहीं है। इतना कि किसी अदालत , किसी आंदोलन ने कहीं सांस नहीं ली। आज़म खान जैसे बड़बोलों की , भू-माफ़िया की बोलती बंद हो गई है। जहरीली ज़ुबान को लकवा मार गया है। 25 करोड़ वाले उत्तर प्रदेश को विकास की रफ़्तार योगी ने बिना किसी घपले , बिना किसी भ्रष्टाचार के दे दी है। कोरोना के दूसरी लहर में शुरुआती दिनों में सिस्टम ज़रूर चरमरा गया , मशीनरी महामारी के आगे ध्वस्त हो गई। पर जल्दी ही योगी ने सब कुछ पटरी पर लाने में देरी नहीं की। तब जब कि वह इस बार ख़ुद ही कोरोना पॉजिटिव हो गए थे। कोरोना की पहली लहर में योगी के पिता का निधन हो गया था पर पितृशोक को सीने में दबा कर वह पीड़ितों की सेवा में लगे रहे थे। इस दूसरी लहर में भी खुद कोरोना पॉजिटिव होने के बावजूद योगी क्वारंटीन हो कर ही काम संभालते रहे। ठीक होते ही ज़िले-ज़िले , घूम-घूम कर जिस तरह कोरोना को क़ाबू करने के लिए सरकारी मशीनरी को सक्रिय किया है योगी ने , नि:संदेह अविरल है। देश में किसी एक मुख्य मंत्री ने भी इतना दौरा कोरोना काल में नहीं किया। बल्कि सोचा भी नहीं। गंगा किनारे लाशों को दफनाना , गंगा में शव के बहने को ले कर भी उन के दुश्मनों ने उन्हें ख़ूब घेरा। पर एक तो गंगा किनारे शव दफनाने की पुरानी परंपरा है की बात पुरोहितों और अन्य लोगों ने बताई दूसरे , बलरामपुर जैसी जगहों पर शव नदी में पुल से बहाते हुए कांग्रेसी ही धरे गए। उन के खिलाफ एफ आई आर दर्ज हुई। तीसरे , हर महामारी में गंगा में शव देखे गए हैं। निराला ने कुल्ली भाट में लिखा कि जब उन्होने डलमऊ में गंगा किनारे खड़े हो कर नज़र दौड़ाई तो जहां-जहां तक गंगा जी में नज़र गई सिर्फ लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं । निराला जी की पत्नी सहित उनके परिवार के ग्यारह लोग उस महामारी में मारे गये थे ।
महामारी में कोई कुछ नहीं कर सकता। योगी ही नहीं पूरी दुनिया यकबयक सिहर गई थी। फिर भी 25 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश और दो करोड़ की आबादी वाले दिल्ली की ही तुलना कर लीजिए। स्थिति साफ़ हो जाएगी। फिर सिर्फ कोरोना ही नहीं , तमाम विकास कार्य और , क़ानून व्यवस्था का जायजा ले लीजिए। संगठित अपराध का तुलनात्मक अध्ययन कर लीजिए। योगी राज में सब कुछ पानी की तरह साफ़ है।
यह ठीक है कि पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को सर्वदा बांस करने वाले सिद्धू जैसे लोग योगी के पास उत्तर प्रदेश में कोई एक बांस नहीं है। उलटे राजनाथ सिंह , केशव मौर्य , सुनील बंसल आदि-इत्यादि जैसी समूची बंसवाड़ी ही है। जो सिद्धू की तरह बड़बोला हो कर दिखती ही नहीं पर भीतर-भीतर घाव बहुत करती है। तिस पर कांग्रेस में जैसे भाई-बहन ने तय कर रखा है कि प्रियंका योगी को माठा करेंगी। राहुल मोदी को माठा करेंगे। तीसरे कांग्रेस का आई टी सेल। आज योगी आदित्यनाथ का जन्म-दिन है। कांग्रेस के आई टी सेल के कारिंदों ने दिन भर का ट्वीटर छान कर बताया है कि राजनाथ सिंह , नितिन गडकरी आदि ने तो योगी को जन्म-दिन की बधाई दे दी है पर मोदी या अमित शाह जैसे लोगों ने नहीं दी है। इन श्वान टाइप लोगों को कौन बताए कि सारी बातें ट्वीटर पर ही नहीं बघारी जातीं। अच्छा जो बधाई नहीं भी दी तो ? अच्छा , बीते सभी विधान सभा चुनावों में योगी को हर प्रदेश में प्रचार के लिए कांग्रेसी श्वान भेजते हैं। कि इन की राय से योगी भेजे जाते हैं। मोदी , अमित शाह की सहमति के बिना भेजे जाते हैं। कोई और मुख्य मंत्री भी जाता है क्या इस तरह सभी प्रदेशों में। किसी भी पार्टी का। तो क्या मुफ़्त में ?
एक और बात इन दिनों चलाई गई है कि योगी से संघ भी नाराज है और कि योगी संघ से नहीं , हिंदू महासभा से हैं। इन गर्दभ लोगों से पूछा ही जाना चाहिए कि क्या योगी ने चुनाव हिंदू महासभा से लड़ा या कमल चुनाव चिन्ह पर ? विधान परिषद में वह किस पार्टी के सदस्य हैं। इन बिघ्न-संतोषी लोगों को कौन बताए कि योगी आदित्यनाथ इन सभी बाधाओं को कब का पार कर चुके हैं। यह लोग भूल गए हैं कि देश में मोदी के बाद अगर लोगों की नज़र , जनता की नज़र किसी पर जाती है तो योगी पर ही जाती है। मजाक में या तंज में ही सही बहुत साफ़ कहा जाता है कि अभी तो तुम चाय वाले से इतना परेशान हो। जब गाय वाला आ जाएगा तब क्या करोगे ? ज़िक्र ज़रूरी है कि योगी गो-सेवक हैं।
एक नाम अरविंद शर्मा का भी लिया जाता है जब-तब। यह-वह कई सारी बातें। शकुनि जैसी चालें। यह लोग योगी को तो नहीं ही जानते , शायद अरविंद शर्मा को भी नहीं जानते। कभी मिले भी नहीं होंगे। अरविंद शर्मा की विनम्रता , प्रशासकीय क्षमता और राजनीतिक सूझ-बूझ को भी नहीं जानते। लोग यह भी नहीं जानते कि मोदी और योगी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन सिक्का एक ही है और मकसद भी एक ही है। वह मोदी हैं , यह योगी हैं। वह योगी जिन की सगी बहन आज भी एक मंदिर में फूल बेचती है। भाई सिपाही है। एक पैसे की भी पारिवारिक समृद्धि किसी ने नहीं देखी योगी की। कितने मुख्य मंत्री हैं जो अपना महंत धर्म निभाते हुए राजधर्म निभाते हैं। भ्रष्टाचार संबंधी एक पैसे का कोई आरोप अगर विपक्ष नहीं लगा पाया तो आखिर क्यों ? उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के एक मुख्य मंत्री थे श्रीपति मिश्र। श्रीपति मिश्र के लिए एक स्लोगन चलता था : नो वर्क , नो कंप्लेंड। लेकिन योगी ने अनेक वर्क किए हैं। कंप्लेंड भी लाइए न। लाए हैं लोग तो सी ए ए के नाम पर दंगा। जिस में दंगाइयों का पोस्टर चौराहे पर योगी ने लगा दिया। रिकवरी की कार्रवाई शुरू कर दी। कोई आंदोलन फिर हुआ क्या इस फेर में ? हाथरस का लाक्षागृह बनाया गया। क्या हुआ ? क्या न्याय नहीं हुआ ? ऐसे ही तमाम मिथ्या आरोप आए और गए। ऐसे जैसे ओमप्रकाश राजभर गए।
जनता के बीच जाएं योगी के लिए लाक्षागृह रचने वाले लोग। उन्हें अपनी हैसियत मालूम हो जाएगी। भाजपा के भीतर भी योगी के खिलाफ घात करने वालों को जान लेना चाहिए। राजनाथ सिंह , केशव मौर्य , सुनील बंसल टाइप बंसवाड़ी लोगों को भी जान लेना चाहिए कि एक समय ऐसे ही शकुनि चाल चल कर राजनाथ सिंह ने कल्याण सिंह को मुख्य मंत्री पद से विदा किया था , खुद मुख्य मंत्री बनने के लिए। राजनाथ सिंह , रामप्रकाश गुप्ता को डमी मुख्य मंत्री बनवाने के बाद खुद मुख्य मंत्री तो बन गए पर उत्तर प्रदेश से फिर भाजपा विदा हो गई। सालों साल के लिए विदा हो गई। उस समय भी अटल , आडवाणी के बाद तीसरे नंबर पर कल्याण सिंह का ही नाम लिया जाता था , जैसे आज मोदी के बाद योगी का नाम लिया जाता है। पर राजनाथ सिंह की शकुनि चाल में कल्याण सिंह के साथ ही चुनावी राजनीति से भाजपा को वनवास मिल गया था। वह तो 2014 के लोकसभा चुनाव में अमित शाह की चाणक्य बुद्धि से उत्तर प्रदेश में भाजपा फिर से जवान हो गई। सत्तावान हो गई।
योगी ने भाजपा की इस जवानी को और निखार दिया है। डंके की चोट पर निखार दिया है। कल्याण सिंह दबाव में जीते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुशासन में जीते थे। राजनाथ सिंह की शकुनि चाल में फंस गए कल्याण सिंह। अटल बिहारी वाजपेयी की इच्छा और रामप्रकाश गुप्ता की सरलता और सादगी के दबाव में सरेंडर कर गए कल्याण सिंह। लेकिन योगी आदित्यनाथ ? योगी आदित्यनाथ इस इतिहास को कभी नहीं दुहराएंगे। योगी तो जाग मछेंदर , गोरख आया ! के अनुयायी हैं। लोगों को अगर नहीं याद है तो याद कर लें। याद कर लें कि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के लिए मनोज सिन्हा का तय नाम रद्द करवा कर योगी आदित्यनाथ मुख्य मंत्री बने थे। तो क्या मुफ़्त में ? गोरखपुर में भोजपुरी में इसे कहते हैं , का सेतीं में ? सेतीं में यानी मुफ़्त में ? योगी ने अभी तक कुछ भी सेतीं में नहीं पाया है। आगे भी नहीं पाएंगे। बड़ी-बड़ी बंसवाड़ी उजाड़ना जानते हैं वह। चुपचाप। आज योगी का जन्म-दिन भी है। योगी आदित्यनाथ जी , जाग मछेंदर गोरख आया को याद करते हुए , आप की निडरता , आप की ईमानदारी और आप की पारदर्शिता को याद करते हुए आप को 49 वें जन्म-दिन की शुभकामनाएं देता हूं। बधाई दे रहा हूं , स्वीकार कीजिए !
योगी जी , आप को याद ही होगा कि गुरु गोरखनाथ कहते हैं; मरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा/तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरख मरि दीठा। तो गुरु गोरखनाथ तो मरना सिखाते हैं। अहंकार को मारने की, द्वैत को मारने की बात करते हैं। उन की सारी साधना ही समय को मार कर शाश्वतता पाने की है, शाश्वत हो जाने की है, इसी लिए वह अब भी शाश्वत हैं। कबीर, नानक, मीरा यह सभी गोरख की शाखाएं हैं। इन के बीज गुरु गोरखनाथ ही हैं। गुरु गोरखनाथ अहंकार को मारने की बात करते हैं। वह कहते हैं आप जितने अकड़ेंगे, छोटे होते जाएंगे। अकड़ना अहंकार को मज़बूत करता है। वह तो कहते हैं कि आप जितने गलेंगे, उतने बड़े हो जाएंगे, जितना पिघलेंगे उतने बड़े हो जाएंगे। अगर बिलकुल पिघल कर वाष्पी भूत हो जाएंगे तो सारा आकाश आप का है। गुरु गोरख सिखाते हैं कि आप का होना, परमात्मा का होना एक ही है। गुरु गोरख के इस पद को भी याद करते हुए आप को 49 वें जन्म-दिन की बधाई दे रहा हूं।
Thursday, 3 June 2021
यह नशीली नहीं , विष-कन्या की आंखें हैं
इन नशीली आंखों को देखिए। यह नशीली नहीं , विष-कन्या की आंखें हैं। यह तथ्य बारंबार साबित किया है , इन आंखों ने। आगे भी करेंगी। बीते हफ़्ते इन्हें विष-कन्या कह दिया तो इन आंखों को इतना बुरा लग गया कि अपने पूरे गैंग के साथ टूट पड़ीं। न सिर्फ़ टूट पड़ीं बल्कि पूरे गैंग के साथ फ़ेसबुक को रिपोर्ट कर के वह पोस्ट हटवा दी और मुझे हफ़्ते भर के लिए फ़ेसबुक पर निर्वासन दिलवा दिया। फ़ेसबुक का सिस्टम भी हमारी न्यायपालिका की तरह अंधा है। आंख पर काली पट्टी बांधे हुए। न तथ्य देखता है , न तर्क। अगर सौ-पचास लोगों ने भेड़ बन कर रिपोर्ट कर दी तो फ़ेसबुक बस यही जानता है। गुण-दोष नहीं जानता। हो सकता है , यह विष-कन्या फिर अपनी भेड़ों को लगा दे कि रिपोर्ट करो। फिर यह पोस्ट भी फ़ेसबुक हटा दे। फिर मुझे निर्वासन दे दे फ़ेसबुक। पर मुझे इस की परवाह नहीं है। बिलकुल नहीं है। नि:संदेह फ़ेसबुक एक बहुत बड़ा , सक्षम और सार्थक प्लेटफार्म है अपनी बात कहने का। पर बात कहने का माध्यम सिर्फ़ एक फ़ेसबुक ही तो नहीं है। बात कहीं भी किसी भी प्लेटफार्म से कही जा सकती है।
खैर , जैसे कि पिछली पोस्ट जो इस विष-कन्या ने हटवाई , तो इस पोस्ट को मैं ने अपने ब्लॉग सरोकारनामा पर तुरंत लगा दिया। जिसे बहुत सी और वेबसाइटों ने भी अपने यहां लगाया। फिर वही पोस्ट तमाम मित्रों और लोगों ने इसी फ़ेसबुक पर अपनी-अपनी वाल पर लगाया। ट्यूटर , वाट्सअप आदि पर भी। स्पष्ट है कि इन पोस्टों की शिकायत इस विष-कन्या ने नहीं करवाई तो फ़ेसबुक को कोई आपत्ति नहीं हुई और वही तथ्य शब्दशः जगह-जगह पोस्ट होते रहे। जैसे अभियान बन गई यह पोस्ट। फिर यह विष-कन्या किस-किस पोस्ट पर अपनी भेड़ों को लगाती भला।
दिलचस्प यह कि एन जी ओ के विष में सनी , बिहार की रहने वाली , तंजानिया में रहना बताने वाली यह विष-कन्या ख़ुद को लेखिका भी बताती है। अरे , अगर लेखिका हो तो तथ्य और तर्क के साथ बात करने का अभ्यास करो। चार सौ बीसों की तरह फ़ेसबुक पर रिपोर्ट करने की फ़ासिस्ट हरकत क्यों ? लेकिन आदत , अभ्यास और फ़ितरत ही अगर चार सौ बीसी और निगेटिव रहने की हो तो कोई कुछ कर भी क्या सकता है ? एन जी ओ चलाने का फ्राड पैसा कमाने में भले सफलता दे देता हो पर तथ्य और तर्क से बात करने का कौशल तो नहीं ही सिखा पाता। अच्छा फिर अगर तथ्य और तर्क न हो तो चुप रह जाना भी एक कला होती है। लेकिन एन जी ओ चला कर हराम की कमाई का दंभ , अहंकार और अतिवादिता सारा विवेक छीन लेती है। कोई करे भी तो क्या करे। लोक कल्याण का कार्य भी फ्राड लगने लगता है।
महाभारत में एक कथा आती है। भीष्म पितामह शर शैया पर लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। एक दिन भीष्म पितामह श्रीकृष्ण से कहते हैं कि मुझ से मिलने लगभग हर कोई आता है। लेकिन एक द्रौपदी ही है जो कभी नहीं आई। कभी उस को भी ले आओ। एक दिन श्रीकृष्ण द्रौपदी को ले कर पहुंचे। द्रौपदी से भी अपनी व्यथा बताई भीष्म पितामह ने कि तुम अभी तक कभी क्यों नहीं आई। द्रौपदी ने भीष्म पितामह से कहा कि आप तो बहुत नीतिवान व्यक्ति माने जाते हैं। पर जब भरी सभा में दुर्योधन ने दुशासन से मेरा चीर हरण करवाया तो आप की नीति कहां चली गई थी। मेरा चीर हरण होता रहा और आप सिर झुकाए सही , बैठे रहे गुरु द्रोणाचार्य के साथ। क्यों नहीं कुछ बोले। अपनी कोई नीति क्यों नहीं बताई , जैसा कि अकसर बताते रहते हैं। यह सुन कर भीष्म पितामह कुछ क्षण चुप रहे। फिर बोले , असल में आदमी जैसा भोजन करता है , वैसा ही सोचता है। उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खा रहा था तो उसी की तरह सोच भी रहा था। भटक गया था , पुत्री ! मुझे क्षमा करना। तो यह एन जी ओ धारिणी नशीली आंखें भी जब बेईमानी का अन्न ग्रहण करती हैं तो उसी तरह हर बात सोचती हैं। छल-कपट में सनी इन आंखों को अपनी ही तरह हर आदमी इन्हें फ्राड लगने लगता है। तिस पर वैचारिक गुलामी का हठ सारा विवेक भी छीन लेता है।
आप मित्रों को याद होगा कि इसी फ़ेसबुक पर गोरखपुर की 4 साल की बच्ची शिवा के लीवर ट्रांसप्लांट खातिर मैं ने आर्थिक मदद की अपील की थी। लेकिन इसी विष-कन्या ने पोस्ट लिखने के कोई एक घंटे बाद ही इस पोस्ट और शिवा की बीमारी को फ्राड घोषित कर दिया। फ़िशी बता दिया। बहुत से लोगों से मदद की पोस्ट मिटवा दी थी। तमाम लोगों ने जब घेर लिया तो दो-तीन दिन बाद माफ़ी मांग कर सधुआइन बन गई। लेकिन पहले राउंड में जो क्षति पहुंचानी थी , इस विष-कन्या ने बुरी तरह पहुंचा दी थी। बहुत से लोग मदद से बिदक कर दूर हो गए। मैं सवालों के घेरे में आ गया। लेकिन अपनी उज्जवल और ईमानदार छवि के कारण लोगों के सवालों के घेरे से मैं तुरंत मुक्त हो गया। फिर तो लोगों ने शिवा को साझी बेटी बना कर अपील और मदद का जन-अभियान चला दिया। इतना कि पांच-छ दिन में कोई 16 लाख रुपए शिवा के पिता सत्येंद्र के खाते में लीवर ट्रांसप्लांट खातिर इकट्ठा हो गया। उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी इस पोस्ट का स्वत: संज्ञान ले कर दस लाख रुपए की मदद की। इस मदद में योगी के मीडिया सलाहकार शलभमणि त्रिपाठी ने भी अदभुत भूमिका निभाई। ख़ैर , आप सभी मित्रों के सहयोग और आशीर्वाद से शिवा का लीवर ट्रांसप्लांट सफलता पूर्वक संपन्न हो गया है। शिवा के पिता सत्येंद्र ने लीवर डोनेट किया था। सत्येंद्र भी अस्पताल से अब दो दिन पहले डिस्चार्ज हो चुके हैं। शिवा अभी अस्पताल में है। इलाज जारी है। आज डाक्टरों ने बताया कि शिवा का टांका टूट गया है। इंफेक्शन का खतरा था। फिर से उसे आपरेशन थिएटर ले जाया गया। टांका लगवा कर अब फिर से वह आई सी यू शिफ्ट हो गई है।
इस बीच तमाम मित्रों ने जब कोई मेरी पोस्ट हफ़्ते भर से नहीं देखी तो मेसेज बॉक्स में संदेश भेज-भेज कर और फिर फ़ोन कर-कर पूछना शुरू किया कि कोई पोस्ट क्यों नहीं लिख रहे। शिवा का हाल क्यों नहीं बता रहे। ज़्यादातर लोग शिवा का हालचाल जानने के लिए उत्सुक थे। उतावले थे। सब का जवाब देते-देते जीवन असहज हो गया। अब उन्हें क्या बताता , किस-किस से बताता कि विष-कन्या ने आख़िर अपना काम दुहरा दिया है। विष-कन्या तो विष-कन्या ठहरी। बारंबार अपना काम करेगी। संन्यासी और बिच्छू वाला किस्सा याद आता है। लीजिए आप भी सुनिए :
एक सुबह एक संन्यासी नदी में नहा रहा था। पानी में एक बिच्छू डूबता मिला। संन्यासी ने उसे बचाने की गरज से निकाला और पानी के बाहर फेंक दिया। लेकिन बिच्छू ने जाते-जाते संन्यासी के हाथ में डंक मार दिया। अचानक बिच्छू फिर फिसल कर पानी में आ गिरा। संन्यासी ने फिर उसे पानी से निकाला। बिच्छू ने फिर डंक मारा। ऐसा जब तीन-चार बार हो गया तो नदी किनारे खड़े एक व्यक्ति ने संन्यासी से पूछा कि हर बार बिच्छू आप को डंक मार रहा है फिर भी आप उसे लगातार बचा रहे हैं। ऐसा क्यों ? संन्यासी ने जवाब दिया कि मैं अपना काम कर रहा हूं , बिच्छू अपना काम कर रहा है। सब का अपना-अपना स्वभाव है।
बहुत मुमकिन है यह पोस्ट भी हट जाए और मुझे फ़ेसबुक से फिर से निर्वासन मिल जाए। पर आप मित्र लोग घबराइए नहीं। बिलकुल नहीं घबराएं। अपने ब्लॉग पर यह पोस्ट पहले ही डाल कर फिर इसे फ़ेसबुक पर पोस्ट कर रहा हूं। सरोकारनामा पर पढ़िएगा। बीती पोस्ट का लिंक भी नीचे कमेंट बॉक्स में दिए दे रहा हूं। शिवा बिलकुल ठीक है। आप सभी की बेटी है वह। आप सभी की शुभकामनाएं और आशीर्वाद शिवा के साथ है। इस लिए भी कि बेटियां साझी होती हैं।