Sunday, 24 February 2019

लेकिन आप अपने यहां काम करने वाले स्वच्छता कर्मी का चरण पखारते हुए एक फ़ोटो नहीं डाल सकते


एक प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का तीर्थराज प्रयाग के संगम में आज डुबकी मार कर स्नान , पूजा , अर्चना और आरती के बाद कुंभ के स्वच्छता कर्मियों का पांव परात में पखार, कर पूरी श्रद्धा से लोटे से जल गिरा कर पूरी विनम्रता , तन्मयता और श्रद्धा भाव से धोना, और फिर कपड़े से पोंछना । उन्हें शाल ओढ़ा कर सम्मानित करना । शबरी के बेर की मिठास याद आ गई। महात्मा गांधी की याद आ गई। जिन का कोई जोड़ नहीं है । फिर भी अपने पूर्वाग्रहवश आप इसे चुनावी नौटंकी मान लेना चाहते हैं , वोट की ज़रूरत मान लेना चाहते हैं , राजनीति देख लेना चाहते हैं , मोदी भक्ति करार देना चाहते हैं , पाखंड बता देना चाहते हैं तो यह आप का अपना विवेक है । इस पर मुझे कुछ नहीं कहना । लेकिन कभी अपने घर या दफ्तर के किसी स्वच्छकार , किसी ड्राइवर , किसी काम वाली बाई , किसी माली , किसी प्लंबर , किसी बिजली वाले , किसी बढ़ई , किसी मिस्त्री या किसी अन्य सहयोगी के पांव , इसी तरह परात में पखार कर , इसी तन्मयता और विनम्रता से धो कर , कपड़े से पोंछ कर अपना टेस्ट दो-चार बार या एक बार ही सही , ज़रूर कर लीजिएगा। शायद बात कुछ समझ में आए। अपने अहंकार , अपने दर्प , अपने सामान्य और विनम्र होने का टेस्ट भी शायद हो जाएगा । ख़ुद अपनी हैसियत का भी पता चल जाएगा। दलितों के यहां भोजन के तमाम लोगों के अनगिन दृश्य हैं , हमारे सामने । लेकिन स्वछ्कारों का एक प्रधान मंत्री द्वारा पांव पखारने का ऐसा दुर्लभ संगम , ऐसा अभिनव दृश्य तो पहली ही बार । सोचिए कि ज़्यादातर लोग संगम नहा कर पाप धो कर पुण्य कमाने जाते हैं। लेकिन कुंभ में अस्पृश्य समझे जाने वाले स्वच्छकारों को कर्मयोगी बताते हुए उन का पांव भी एक प्रधान मंत्री धो सकता है , यह पुण्य भी कमाया जा सकता है , ऐसा पहली बार जाना और देखा है ।

जिन भी लोगों को लगता है कि नरेंद्र मोदी ने प्रयागराज कुंभ में संगम स्नान के बाद परात में पखार कर स्वछ्कारों के पांव चुनाव और वोट के मद्देनज़र धोए हैं , उन सभी बीमार लोगों का यहां स्वागत है। उन से सादर निवेदन है कि मोदी की ऐसी तैसी करते हुए एक दो फ़ोटो या वीडियो अपने घर का बाथरूम साफ़ करने वाले स्वच्छकार या घर के सामने सफाई करने वाले स्वच्छकार , काम वाली बाई , ड्राइवर आदि का ऐसे ही पांव धोते हुए अपनी वीडियो या फ़ोटो यहां शेयर करें । या फिर यह हुआं-हुआं की नौटंकी बंद करें।

राहुल गांधी कभी कहते थे कि लोग लड़की छेड़ने के लिए मंदिर जाते हैं । फिर देखा गया कि राहुल गांधी जनेऊ पहन कर मंदिर-मंदिर जाने लगे। धुआंधार । अब फिर उन्हें एक नई ज़िम्मेदारी मिल गई है । घूम-घूम कर स्वच्छकारों का पांव धोने की। मुझे लगता है कि जनेऊधारी राहुल गांधी स्वच्छकारों का पांव धोने का रिकार्ड ज़रूर गिनीज बुक में अपने नाम दर्ज करवा कर नरेंद्र मोदी को पछाड़ देंगे ।

जैसे पाकिस्तानी चैनल के एंकर भारत से टमाटर भेजना बंद करने पर चीख़-चीख़ कर बता रहे हैं कि भारत को मालूम नहीं है कि पाकिस्तान ऐटम बम वाला देश है । ठीक वैसे ही भारत में नरेंद्र मोदी द्वारा स्वच्छता कर्मियों के पांव पखारने पर नरेंद्र मोदी से नफरत करने वाले बता रहे हैं कि आप को मालूम नहीं है कि मोदी यह सारी नौटंकी चुनाव को देखते हुए वोट के लिए कर रहा है । अरे जनाबे आली कौन नहीं जानता कि मोदी राजनीति में चुनाव ही जीतने के लिए आया है , पूजा-पाठ करने नहीं । ठीक वैसे ही जैसे जब कोई राहुल गांधी जनेऊ पहन कर पूजा-पाठ करता है तो पूजा-पाठ नहीं कर रहा होता है , चुनाव के मद्दे नज़र वोट पर ही गिद्ध दृष्टि रहती है उस की , पूजा-पाठ पर नहीं । यहां तो शहीदों के प्रति हर किसी की सदभावना भी अब चुनाव की भेंट चढ़ गई है ।

लेकिन मैं फिर दुहराना चाहता हूं कि कोई अपने घर या घर के सामने सफाई करने वाले अस्पृश्य स्वच्छकार का पांव पखार कर एक फ़ोटो तो यहां फेसबुक पर पोस्ट करने का हौसला तो दिखाए। पर जानता हूं कि भिखारी को भीख देने की फोटो तो लोग छाती फुला कर खिंचवा कर पोस्ट कर सकते हैं , मोदी से नफ़रत में भस्म हो कर जद्द बद्द तो बक सकते हैं , सैकड़ो सवाल उठा सकते हैं , आरोप दर आरोप लगा सकते हैं , पर अपने यहां दैनंदिन काम करने वाले स्वच्छता कर्मी का चरण पखारते हुए एक फ़ोटो सोशल मीडिया पर नहीं डाल सकते । क्यों कि तमाम दरियादिली के बावजूद आप उसे अस्पृश्य मानते हैं ।

बहुत कम लोग जानते हैं कि नरेंद्र मोदी एक समय दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में बहुत दिनों तक , बल्कि कुछ साल , बीसियों बाथरूम रोज-ब-रोज धोते रहे हैं । तब वह भाजपा के संगठन मंत्री होते थे । उन दिनों नरेंद्र मोदी और गोविंदाचार्य में प्रतिद्वंद्विता रहती थी कि कौन ज़्यादा बाथरूम धोता है। गोविंदाचार्य भी तब संगठन मंत्री हुआ करते थे । दोनों ही पार्टी कार्यालय में रहते थे । दोनों ही सुबह लोगों के उठने के पहले तेज़ाब ले कर बाथरूम रगड़-रगड़ कर धोने में लग जाते थे । इस लिए नरेंद्र मोदी स्वच्छता कर्मी की वेदना भी जानते हैं । यह वही वेदना है जो स्वच्छता कर्मियों का भक्ति-भाव से चरण पखारने में उन्हें संलग्न कर देती हैं । जिसे आप अपनी नफ़रत और निंदा में डूब कर चुनावी तराजू में तौल देते हैं । यह आप की महिमा है , पर वह नरेंद्र मोदी की संवेदना है । लेकिन आप तो टमाटर न मिलने पर पाकिस्तानी चैनलों की तरह यह बताने को अभिशप्त हैं कि हमारे पास ऐटम बम है ।

प्रयाग के कुंभ में नरेंद्र मोदी द्वारा इस घटना को अस्पृश्यता की नज़र से देखेंगे तो पाएंगे कि यह बड़ी घटना है । याद यह भी रखा जाना चाहिए कि यह गांधी युग नहीं , अहंकार युग है । इस अहंकार युग में ऐसी घटना मेरी राय में बड़ी घटना है । रही बात सिर पर मैला ढोने की तो मुगल काल से चली आ रही इस कलंकी परंपरा का बहुत कुछ हल निकल आया है । नाम मात्र का ही रह गया है , यह कलंक । दिनों दिन बढ़ते शौचालय इस के गवाह हैं। तमाम असहमतियों के बावजूद आप यह तो स्वीकार करेंगे ही कि इस प्रधान मंत्री के कार्यकाल में रिकार्ड शौचालय बने हैं। गांव-गांव बने हैं।

स्वच्छता कर्मियों के जीवन स्तर में बदलाव आया है। उन के भीतर स्वाभिमान जगा है , ऐसा मैं देख पा रहा हूं । इस बात का अंदाज़ा आप इस एक बात से लगा सकते हैं कि जब स्वच्च्ताकर्मियों के लिए वांट निकलती है तो पढ़े-लिखे ब्राह्मण सहित तमाम सवर्ण भी इस काम के लिए संविदा पर भी अप्लाई करने लगे हैं । नाले में घुस कर सफाई करते हुए टेस्ट देते हैं ।स्वच्छकार इस बात का खुला विरोध करते हैं । बेरोजगारी का दंश भी है इस में ।

आप को बताऊं कि जिस कालोनी में मैं रहता हूं , आस-पास बहुत से सरकारी अफ़सर रहते हैं। जिन में कुछ दलित अफ़सर भी हैं। तमाम अफसरों सहित , इन दलित अफसरों के यहां भी कुछ कर्मचारी उन के घर पर चौबीसों घंटे ड्यूटी करते हैं लेकिन यह कर्मचारी उन का कोई भी बाथरूम नहीं शेयर कर सकते , कभी भी । क्यों कि वह नौकर हैं । अब चौबीसों घंटे तैनात रहने वाले यह नौकर नित्य क्रिया के लिए कहां जाते हैं , इन अफसरों को इस से कोई मतलब नहीं । ऐसे में एक प्रधान मंत्री अगर अस्पृश्य कहे जाने वाले स्वच्छता कर्मियों का चरण पखारता है तो इसे सकारात्मक ढंग से देखा जाना चाहिए। चुनावी नौटंकी के तहत भी हुई हो यह घटना , तब भी।

Sunday, 17 February 2019

आज ज़रूरत है इस इस्लामी और जेहादी हिंसा का जवाब सेना ही दे , कश्मीर सेना के हवाले हो

जगह-जगह कुछ लोग ऐसा नैरेटिव पेश कर रहे हैं कि कश्मीर में जो भी कुछ हो रहा है , वह नरेंद्र मोदी सरकार की ज़्यादतियों का नतीज़ा है । गरज यह कि कश्मीर मसला इन्हीं साढ़े चार साल की उपज है । बात कीजिए कश्मीर की , यह लोग नरेंद्र मोदी सरकार पर ठीकरा फोड़ने लगते हैं । सी आर पी एफ़ के जवानों की हत्या को जस्टीफाई करते हुए , खुशी मनाने लगते हैं । बिरयानी पार्टी मनाने लगते हैं। मानता तो मैं भी हूं कि नरेंद्र मोदी सरकार कश्मीर मसले पर पूरी तरह नाकाम रही है और समस्या का समाधान करने के लिए साढ़े चार साल महबूबा के साथ आइस-पाईस खेलती रही है । 

लेकिन कश्मीर समस्या अगर किसी ने पैदा की है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ इस्लामिक जेहाद की मानसिकता और कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति ने । पाकिस्तान हमारी इसी कमजोरी का निरंतर लाभ लेता रहा है , आगे भी लेता रहेगा । इस्लाम अगर कश्मीर के बीच न आता और कि विभिन्न सरकारें मुस्लिम समाज के दंगाई तत्वों से न डरतीं , सेक्यूलर फोर्सेज के ब्लैकमेल के आगे न झुकतीं तो कश्मीर ही नहीं पूरे देश में आतंकवाद का नामोनिशान नहीं होता। मुस्लिम तुष्टिकरण की जगह , सेक्यूलर फोर्सेज की ब्लैकमेलिंग से मुक्त हो कर अमरीका , फ़्रांस , चीन , इजरायल आदि देशों की तरह इन देशद्रोही ताकतों से सिर्फ और सिर्फ गोली से पूरी निर्ममता से निपटना चाहिए । तय मानिए कि दो घंटे में देश आतंकवाद से मुक्त हो जाएगा। कैंसर और एड्स जैसी बीमारियों के साथ जितनी रियायत करेंगे , वह आप को उतना ही परेशान करेंगे । 

लेकिन क्या कीजिएगा जिस देश में एक फ़िल्मी डायलाग , हाऊ इज द जोश ! बोलना भी भाजपाई होना हो जाता है। भारत माता की जय बोलना , वंदे मातरम बोलना , सांप्रदायिक होना हो जाता है , उस देश में कभी कुछ नहीं हो सकता । मैं फिर से कहना चाहता हूं कि कश्मीर समस्या का हल बातचीत से नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ गोली से निकलता है । गवर्नर वगैरह हटा कर सिर्फ़ सेना के हवाले कश्मीर को कर दीजिए , दो दिन में सब कुछ दुरुस्त हो जाएगा । इस्लामिक जेहाद की हिंसा क़ानून और राजनीतिक संवाद से नहीं सुलझने वाली। यही उन की ताकत है । जिस दिन देश इन से इन की यह ताकत छीन लेगा , कश्मीर समस्या और आतंकवाद उसी दिन खत्म समझिए। सिर्फ और सिर्फ सेना ही इन का माकूल और मुकम्मल इलाज है । 

आज की तारीख़ में अहिंसा के रास्ते आप हिंसा से नहीं निपट सकते । यह गांधी युग नहीं है कि उपवास कर , अहिंसा से नोआखली जैसा भयानक दंगा रोका जा सकता हो । आज ज़रूरत है इस इस्लामी और जेहादी हिंसा का जवाब सेना ही दे। खुल कर दे । इस लिए भी कि भारतीय सेना अभी जाति और धर्म में नहीं , देश प्रेम में जीती और मरती है । हमारे सुरक्षा बल भी । देश प्रेम का तकाज़ा है कि कश्मीर अब पूरी तरह सेना के हवाले हो। कश्मीर ही क्यों , देश में जहां कहीं भी ऐसी कोई भी ताकत सिर उठाए , उसे पूरी सख्ती से फौजी बूटों और गोलियों से कुचलने की दरकार है। नो पुलिस , नो कोर्ट , नो सुनवाई । मौके पर फ़ाइनल कार्रवाई । जैसा कि कभी पंजाब में पुलिस अफ़सर के पी एस गिल ने किया था और पूरी तरह सफल रहे थे। कश्मीर और देश में फैले सभी जेहादियों के साथ पूरी निर्ममता से इसी एक सुलूक की ज़रूरत है। 

फौजी बूटों की आवाज़ सुनते ही दो दिन में यह लोग जेहाद , अलगाववाद और बहत्तर हूरों का ख्वाब भूल कर देश प्रेम सीख जाएंगे। सारी अकड़ फुर्र हो जाएगी । जैसे खालिस्तानियों की हो गई। इंदिरा गांधी जैसा यह कड़ा फैसला लेना काश कि नरेंद्र मोदी भी आज सीख जाते। इंदिरा गांधी ने तो जब ज़रूरत पड़ी थी , अमृतसर के स्वर्ण  मंदिर में सेना भेज कर कड़ी सैनिक कार्रवाई भी की थी। कश्मीर सहित देश की उन सभी मस्जिदों , मजारों और मदरसों में , जो जेहादी पैदा कर रही हैं , नमाज की आड़ में हिंसा का पाठ पढ़ा रही हैं , वहां पुलिस नहीं , सीधे सेना भेजनी चाहिए । नो कोर्ट , नो सुनवाई , मौके पर फाइनल करवाई । निदा फाजली लिख ही गए हैं :

उठ-उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया।

Thursday, 14 February 2019

सर्जिकल स्ट्राइक की ज़रूरत पाकिस्तान में नहीं , भारत में है

कश्मीर अब एक समस्या नहीं , एड्स और कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी के रूप में हमारे सामने उपस्थित है। इस का इलाज आसान नहीं हैं। जो लोग कश्मीर समस्या का हल बातचीत से करने की बात करते हैं , उन को दरकिनार कर कड़ी और बड़ी सैनिक कार्रवाई करनी चाहिए । कश्मीर में उपस्थित हुर्रियत जैसे संगठनों के तमाम अलगाववादी नेताओं सहित महबूबा , फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं को बिना किसी रियायत के जेल में ठूंस देना चाहिए । बहुत हो गई कड़ी निंदा और बदला लेने की बात । कुछ दिन के लिए संविधान और मानवाधिकार मुल्तवी कर देश में ही सर्जिकल स्ट्राइक की ज़रूरत है , पाकिस्तान में नहीं। ख़ास कर कश्मीर डिविजन में। प्रतिपक्ष को चिल्लाने दीजिए। बल्कि इस मुद्दे पर जो चिल्लाए उसे फौजी बूटों के तले कुचल देने की ज़रूरत है । ज़रूरत अपने ही विभीषण को मार देने की है ।

इतना ही नहीं , भारत को चीन से सबक ले कर चीन के रास्ते पर चलते हुए पूरे कश्मीर डिविजन के लोगों को चुन-चुन कर कश्मीर से बाहर कर इन्हें सुधार कैम्प में डाल कर , सारे मानवाधिकार स्थगित कर उन के साथ सख्ती से पेश आ कर हिंदुस्तानियत से उन्हें परिचित करवाया जाना चाहिए। क्यों कि उन के दिल में बसी पाकिस्तान परस्ती , हिंसा और जेहाद की भावना इतनी आसानी से नहीं जाने वाली। ज़िक्र ज़रूरी है कि चीन ने सैकड़ों उइगर मुस्लिमों को जबरन धर्म परिवर्तन कर चीनी सरकार के आधीन आने के लिए ट्रांसफर्मेशन के नाम पर ट्रेनिंग दी जा रही है। चीन में करीब ढाई करोड़ उइगर मुस्लिम रहते हैं और इन में से तीस लाख से अधिक नज़रबंद कर इन ट्रेनिंग कैम्प में रखे गए हैं ।

उइगर मुस्लिमों के बदलाव के लिए सरकार ने जगह-जगह पर ट्रेनिंग कैंप लगाए हैं और इन कैंपों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पश्चिमी चीन के विशाल बिल्डिंग के बाहर लाल बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में चीनी भाषा सीखने, कानून की पढ़ाई करने और जॉब प्रशिक्षण के लिए तैयार होने के निर्देश हैं। स्थानीय पुलिस जबरन मुस्लिमों को पकड़ कर ट्रेनिंग कैंप में छोड़ती है। इन लोगों से कहा गया है कि पुरानी जिंदगी और मान्यताओं को पूरी तरह से भूल जाएं । यह ट्रेनिंग कैंप ऐसी जगह है जहां अतिवादी विचारों को खत्म किया जाने पर अमल किया जाता है । यह कैंप ऐसी जगह है जहां जबरन अपनी उइगर पहचान को खत्म करना होता है। ऐसा माओ के शासनकाल के बाद विचार परिवर्तन और चीन की सरकार के प्रति वफादारी के लिए इतना व्यापक अभियान पहली बार हो रहा है।

बता दें कि चीन के इन कैंप में रोज घंटों लंबी क्लास होती हैं, इसमें उइगर मुस्लिम को जबरन पकड़ कर लाया जाता है और उन से अपने विचार को भुला कर चीनी विचारधारा अपनाने को कहा जाता है। क्लास में मुस्लिमों को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन में गीत गाना, चीन की राजनीतिक विचारधार पर भाषण दिए जाते हैं। यहां तक की चीन में अब उइगर मुस्लिमों की छोटी से छोटी गलती भी माफी के काबिल नहीं है। चीन में उइगर मुस्लिमों को अपने ही समुदाय के खिलाफ आलोचनात्मक लेख लिखने के लिए मजबूर किया जाता है। इन क्लास से निकले लोगों ने बताया है कि कार्यक्रम का उद्देश्य है किसी भी तरह से इस्लाम के लिए विश्वास को खत्म किया जा सके।

इतना ही नहीं , चीन में दाढ़ी रखना , बुरका पहनना , मुस्लिम टोपी पहनना , सार्वजनिक जगह पर नमाज पढ़ना आदि पूरी तरह प्रतिबंधित है । मजार , मस्जिद , कब्रिस्तान पूरी तरह खत्म कर दिए हैं । शव दफनाने पर पूरी तरह प्रतिबंध है । अपने खर्च पर शव को जलाना बाध्यकारी बना दिया गया है ।

समय आ गया है कि भारत में भी कश्मीर और कश्मीर के बाहर के ऐसे लोगों को चिन्हित कर , चाहे वह जिस भी जाति या धर्म , राजनीतिक पार्टी या विचारधारा के हों । हर किसी के साथ एक सुलूक होना चाहिए । देश की कीमत पर किसी के साथ कोई रियायत नहीं होनी चाहिए । कुछ लोग कहते हैं , पाकिस्तान दोषी है । गलत कहते हैं। पाकिस्तान नहीं , हमारे देश के भीतर पल रहे आस्तीन के सांप दोषी हैं। ज़रूरत आस्तीन के इन सांप को ताकत भर कुचल कर खत्म कर देने की है। बहुत हो गया शहीदों की शहादत को सलाम कर पाकिस्तान को कोसने का काम। पाकिस्तान अपनी नापाक हसरतों में तभी कामयाब होता है जब हमारे देश के हरामी , कमीने और गद्दार लोग देश के साथ घात करते हैं । भारत तेरे टुकड़े होंगे , इंशा अल्ला , इंशा अल्ला का नारा लगाने वाले कन्हैया और खालिद जैसों की पुरज़ोर पैरवी करते हैं । ऐसे लोगों से भी सख्ती से , पूरी निर्ममता से निपटने की ज़रूरत है । 

एक परदेसी कामरेड ने आज अभी की अपनी फेसबुक पर एक पोस्ट में लिखा है :

राफेल में फंसी गर्दन निकालने के लिए पचास जवानों की ज़रूरत पड़ती है , तो आम चुनाव से निकालने के लिए कितनों की ज़रूरत पड़ेगी।

फिर इस पोस्ट पर कुछ भारतीय कामरेड लोग लहालोट भी हैं ।

और लोग हैं कि पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक की रट लगाए बैठे हैं । असल में सर्जिकल स्ट्राइक की ज़रूरत पाकिस्तान में नहीं , भारत में है ।

पुलवामा के सभी शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि। भगवान उन के परिजनों को उन से बिछड़ने को सहने की शक्ति दे ।


Wednesday, 13 February 2019

आख़िर यह क्या था , मुझे लगता है अब मुलायम सिंह यादव भी यह नहीं बता सकते


संसद में 16 वीं लोकसभा के आज सदन के आख़िरी दिन नरेंद्र मोदी का भाषण भावभीना था , मर्यादित , तथ्यात्मक और तार्किक था। बिना नाम लिए राहुल गांधी को बार-बार निशाना बनाया । सोनिया गांधी बैठी खिसियाती रहीं । लेकिन मोदी के इस बढ़िया भाषण के बावजूद आज लोकसभा में नंबर और सुर्खियां ले गए मुलायम सिंह यादव । मुलायम सिंह यादव ने सोनिया गांधी के बगल में खड़े हो कर कहा कि मैं चाहता हूं , मेरी कामना है कि इस सदन के सभी सदस्य दुबारा भी जीत कर आएं । हाथ जोड़ कर नरेंद्र मोदी को संबोधित करते हुए कहा कि हम सब लोग तो इतना बहुमत कभी ला नहीं सकते तो मैं चाहता हूं कि प्रधान मंत्री जी , आप फिर बनें प्रधान मंत्री । इस के पहले मुलायम मोदीमय होते हुए बोले कि आप सब को साथ ले कर चले , सब का काम किया । सब से मिलजुल कर सब का काम किया है । मैं ने जब भी कोई काम कहा , आप ने तुरंत आदेश किया । नरेंद्र मोदी ने हाथ जोड़ कर मुलायम की यह बात सुनी और फिर अपने भाषण में मुलायम के आशीर्वाद का ज़िक्र भी किया ।

तो यह क्या था ?


ध्यान रहे कि भाजपाइयों की राय में मुल्ला मुलायम सिंह यादव , मुलायम मुल्ला हैं । तो उस मुल्ला मुलायम ने अपनी यह कामना सी बी आई के डर से की , लालू यादव का हश्र देखते हुए । या औरंगज़ेब सरीखे पुत्र अखिलेश यादव द्वारा अपनी पीठ में छुरा घोंपने , या मायावती से अखिलेश के समझौते का मलाल धोया । या कांग्रेस को ध्वस्त करने का , गैर कांग्रेसवाद का लोहिया का सपना मोदी द्वारा पूरा किए जाने की खुशी मुलायम के भीतर खिलखिला रही थी । या यह पहलवानी का कोई दांव था , खीझ थी , या कुछ और था। क्या था आख़िर यह। मुझे लगता है अब मुलायम सिंह यादव भी यह नहीं बता सकते । वैसे भी बीते साढ़े तीन दशक में इतना गदगद हो कर बोलते हुए मैं ने मुलायम सिंह यादव को कम ही देखा है । राज कपूर की एक महत्वपूर्ण फिल्म प्रेम रोग में संतोष आनंद का लिखा एक गीत याद आ गया है :

न तो अपना तुझ को बना सके 
न ही दूर तुझ से जा सके
कहीं कुछ न कुछ तो ज़ुरूर था 
न तुझे पता न मुझे पता
ये प्यार था या कुछ और था
न तुझे पता न मुझे पता
ये निगाहों का ही क़ुसूर था 
न तेरी ख़ता न मेरी ख़ता
ये प्यार था या कुछ और था

लोकलेखा समिति की ही वह रिपोर्ट थी जिस को ले कर विश्वनाथ प्रताप सिंह तब बोफोर्स को मुद्दा बना कर जनता के बीच कूद पड़े थे । राजीव गांधी और उन की कांग्रेस की ईंट से ईंट बजा दी थी । राजीव गांधी सरकार का पतन हो गया था । तब के लोकलेखा समिति के टी एन चतुर्वेदी तब कांग्रेस विरोधियों के लिए देवता बन गए थे । चतुर्वेदी जी भी जोश में आ कर कन्नौज से चुनाव लड़े थे और मुलायम सिंह यादव ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि उन की ज़मानत जब्त हो गई । बाद के समय में अटल जी के प्रयास से वह राज्य सभा सदस्य बने । कुछ समय बाद मंत्री बनाने के बजाय अटल जी ने उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल बना दिया। टी एन चतुर्वेदी कन्नौज के रहने वाले ज़रूर थे पर राजस्थान कैडर के आई ए एस अफसर थे । बेहद ईमानदार छवि वाले टी एन चतुर्वेदी कांग्रेसी मुख्य मंत्री सुखाड़िया के दस बरस तक सचिव रहे थे । राजीव गांधी के प्रधान मंत्री रहते समय केंद्रीय गृह सचिव भी रहे थे और लोंगोवाल समझौते के वह नायक बने थे।

आज आलम यह है कि राफेल पर लोकलेखा समिति की रिपोर्ट पेश करने वाले राजीव महर्षि का नाम भी बहुत से लोग नहीं जानते। कपिल सिब्बल ने एक झूठा आरोप भी लगाया है कि राफेल डील के समय राजीव महर्षि वित्त सचिव थे , वह यह रिपोर्ट पेश कैसे कर सकते हैं ? अरुण जेटली ने कपिल सिब्बल के इस झूठ का पर्दाफाश करते हुए कहा कि तब वह वित्त सचिव नहीं थे । जेटली ने इस बाबत बहुत से डिटेल दिए । कपिल सिब्बल अब चुप हैं ।

सुप्रीम कोर्ट , चुनाव आयोग , सी ए जी आदि सभी संस्थाओं और चौकीदार को चोर बता कर दलदल में निरंतर धंसते रहने के बजाय , राफेल की घिनौनी राजनीति से छुट्टी ले कर प्रतिपक्ष को कोई और मुद्दा खोजना चाहिए। एक तो राफेल में कोई घोटाला नहीं है । दूसरे , राफेल का मुद्दा , एक खास पाकेट को छोड़ कर आम जनता के बीच सर्जिकल स्ट्राइक की तरह अस्मिता का विषय बन चुका है । जनता से कटे प्रतिपक्ष को इस बात को समझना बहुत ज़रूरी है । 

Sunday, 10 February 2019

कथा विराट की विराटता


सुधाकर अदीब के कथारस में भींगे कथा विराट की कथा में इतनी सारी कथाएं हैं कि इसे पढ़ कर मन इनसाइक्लोपीडिया , इनसाइक्लोपीडिया होने लगता है। विलायत पलट एक कैरियरिस्ट वल्लभ भाई पटेल जो शानोशौकत से रहता है , क्लब की जिंदगी जीता हुआ , सिगार पीता हुआ , ब्रिज खेलता हुआ अहमदाबाद की कोर्ट में शानदार प्रैक्टिस करता हुआ अंगरेज जजों से लड़ते-लड़ते कब एक खेड़े की लड़ाई लड़ता हुआ किसानों की लड़ाई लड़ने लगा , पता ही नहीं चलता। किसानों की लड़ाई लड़ते-लड़ते गांधी के साथ जुड़ कर स्वतंत्रता संग्राम का योद्धा बन जाता है। गांधी का विश्वसनीय साथी बन जाता है। वह गांधी जिस की कभी वह बहुत नोटिस नहीं लेता था। गांधी अहमदाबाद क्लब में आते हैं , ब्रिज खेलते पटेल की मेज़ के पास से गुज़र जाते हैं और पटेल उन की नोटिस नहीं लेते। उन के सम्मान में खड़े नहीं होते । गांधी की सभा में भी नहीं जाते। बाद के दिनों में पटेल अपने एक दोस्त के साथ गांधी के आश्रम भी जाते हैं पर गांधी के लिए बहुत सम्मान नहीं जगा पाते अपने मन में। अनमनस्क रहते हैं तो क्या पटेल के प्रधान मंत्री न बन पाने का यह प्रस्थान बिंदु था। यही बीज बन गया गांधी के मन में और कि गुजराती होने के बावजूद , विश्वस्त होने के बावजूद गांधी एक भी वोट न पाने वाले नेहरू को प्रधान मंत्री बनाना क़ुबूल करते हैं ? सर्वाधिक 12 वोट पाने के बावजूद वह पटेल की बलि ले लेते हैं। सुधाकर अदीब के कथा विराट का यह निष्कर्ष भले न हो पर इस बात के पर्याप्त बीज वह ज़रूर कथा विराट में छोड़ गए हैं। 

कथा विराट पर मैं अपनी बात कहते हुए 
इसी लिए मैं कहता हूं कि सुधाकर अदीब एक तपस्वी रचनाकार हैं। सुधाकर अदीब जैसा तपस्वी और संत  लेखक हमारे समकालीन लेखकों में मुझे कोई दूसरा नहीं दीखता। सुधाकर अदीब वस्तुत: अमृतलाल नागर की परंपरा के लेखक हैं। कुछ लिखने के पहले इतना अध्ययन , इतना शोध , इतनी यात्राएं , इतना चिंतन-मनन एक तपस्वी के लिए ही संभव है , किसी सामान्य लेखक के वश का तो यह नहीं है। हर कथा लेखक ग्वाला होता है । मतलब दूध में कुछ पानी मिलाता ही मिलाता है । अब तो कुछ दूधिए केमिकल वगैरह भी मिलाने लगे हैं । कथा लेखक भी इस से अछूते नहीं हैं। तो सामान्य कथा में , प्रेम कथा में , सामाजिक , राजनीतिक या पारिवारिक कथा में भी यह मिलावट आम है। कहते ही हैं कि कहीं का ईंट , कहीं का रोड़ा , भानुमति ने कुनबा जोड़ा । तो जैसे ईंट के साथ बालू , सीमेंट , सरिया आदि मिला कर घर बनता है तो बहुत कुछ मिला कर ही कथा का घर भी बनता है । लेकिन अगर कथा ऐतिहासिक है , पौराणिक है , जीवनीपरक है तो उस में आप मिलावट की बहुत छूट नहीं ले पाते। तथ्य और विवरण सब के सामने होते हैं। तो बहुत छूट नहीं ले सकता लेखक। कल्पना कम मेहनत और तथ्य पर आप को एकाग्रचित होना पड़ता है । एक अनुशासन है , समय , काल और परिस्थितियों का जो लेखक को नदी के बांध की तरह बांधता चलता है । यह बंधना और बंध कर लिखना आसान नहीं होता। वह भी यायावर और गायक सुधाकर अदीब के लिए यह बंधना कितना कठिन होता होगा , यह मैं समझ सकता हूं। कहानी , उपन्यास का सहयात्री मैं भी हूं , सो जानता हूं कि एक फ्रेम में बंध कर , काल , पात्र , परिस्थितियों में बंध कर लिखना कितनी बड़ी तपस्या है । फिर सुधाकर अदीब तो निरंतर इसी कार्य में संलग्न दीखते हैं ।


लक्ष्मण की कथा के बहाने राम कथा का अमृतपान करवाते हैं वह रामकथा को जिस तरह सुधाकर अदीब मम अरण्य में बांचते हैं , ऐसे जैसे हम कोई कथा नहीं पढ़ रहे हों , सिनेमा देख रहे हों। तब जब कि राम कथा , लक्ष्मण की मुश्किलें हम अनगिन बार पढ़ और सुन चुके हैं , तब भी लगता है जैसे मम अरण्य में कुछ नए ढंग से बांच रहे हों। मम अरण्य का नशा अभी टूटा भी नहीं था कि सुधाकर अदीब शाने तारीख़ ले कर उपस्थित हो गए। भारत को पहला इंफ्रास्ट्रक्चर देने वाले अफगानी शासक शेरशाह सूरी की ज़िंदगी का रोजनामचा  , उस का संघर्ष , उस की सफलता और शान की जो रफ्तार परोसी है सुधाकर अदीब ने वह अदभुत है। शाने तारीख की शान और रफ्तार अभी जारी ही थी कि यह लीजिए मीरा दीवानी को गाते हुए रंग राची ले कर सुधाकर अदीब हाजिर हो गए। विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे संत और मार्क्सवादी आलोचक रंग राची को देसी घी के लड्डू बताने लगे। रंग राची की दीवानगी और उस का जादू अभी उतरा भी नहीं था कि सरदार पटेल की कथा को बांचते हुए कथा विराट की कथा ले कर सुधाकर अदीब अब उपस्थित हैं। मतलब छह साल में चार कालजयी उपन्यास कोई तपस्वी लेखक ही लिख सकता है। इसी लिए कृपया मुझे फिर से कहने की अनुमति दीजिए कि सुधाकर अदीब एक तपस्वी लेखक हैं। 


कथा विराट पर बोलते लेखक सुधाकर अदीब 
कथा विराट की विराटता वैसी ही है जैसे महाभारत की कथा। पूरा उपन्यास सरदार पटेल और उन की बेटी मणिबेन की बातचीत में समाया हुआ है। लेखक जैसे महाभारत के संजय की तरह पूरी कथा बांचता मिलता है। ब्रिटिश जुल्म और स्वतंत्रता संग्राम के तमाम किस्से विराट कथा के पन्नों में बड़ी तरतीब से परोसे गए हैं। मंच और नेपथ्य की तमाम कथाएं अपनी पूरी त्वरा के साथ। पटेल हैं तो गांधी , मदन मोहन मालवीय राजेंद्र प्रसाद नेहरू , जयप्रकाश नारायण  , आचार्य कृपलानी , नेता जी सुभाष चंद्र बोस , मौलाना आज़ाद , मोहम्मद अली जिन्ना , माउंटबेटन , लेडी माउंटबेटन आदि सभी चरित्र अपनी-अपनी क्षमताओं , अपने-अपने स्वभाव , भाव-भंगिमा के साथ , अपने तेवर और ताव में उपस्थित हैं। घात-प्रतिघात , साज़िशें , सुलह-सफाई और विचारधारा की जंग। मतलब पूरा मयकदा है। और इस मयकदे में कोई किसी से कम नहीं है। ऐसा नहीं कि उपन्यास अगर सरदार पटेल को केंद्र में रख कर लिखा गया है तो बाक़ी चरित्र फिलर बन जाएं या बौने बना कर पेश किए जाएं। सुधाकर अदीब ने बड़ी कुशलता से अपने नायक के नायकत्व को सुरक्षित रखते हुए बाक़ी नायकों को भी उसी लय और उसी रिदम में बने रहने दिया है , जिस में उन्हें होना चाहिए। गरज यह कि केंद्रीय चरित्र सरदार पटेल को देवता नहीं बनने दिया है। उन की क्षमताएं , उन की ताकत , उन का स्वाभिमान और अपनी बात पर सर्वदा अडिग रहने वाले पटेल की राजनीतिक कुशलता , त्याग और बड़प्पन कथा विराट में पूरी तरह उभर कर सामने आती हैं पर गांधी आदि को दबा कर नहीं। कई मुद्दों पर गांधी से  उन की असहमति , उन की टकराहट , मतभेद आदि भी खुल कर दिखाई देती है। नेहरू से उन की अनबन और नेहरू द्वारा उन को निरंतर साइड लाइन किए जाने की साज़िश यहां तक कि इस के लिए लेडी माउंटबेटन का इस्तेमाल भी साफ दीखता है। एक बार तो लेडी माउंटबेटन मणिबेन से पटेल को गवर्नर जनरल बनने  का प्रस्ताव रखती हैं तो सतर्क मणिबेन उन से कहती हैं कि लेकिन यह प्रस्ताव तो सी राजगोपालाचारी को दिया जा चुका है। तो लेडी माऊंटबेटन सकपका कर निकल लेती हैं। गांधी को भी नेहरु , जयप्रकाश नारायण और मौलाना आज़ाद पटेल के खिलाफ भड़काते रहते हैं। नेहरू एक समय पटेल को हटा कर जयप्रकाश नारायण को गृह मंत्री बनाने की रणनीति पर भी काम करते हैं लेकिन सफल नहीं हो पाते। यहां तक कि पटेल का निधन हो गया है , मुंबई में उन की अंत्येष्टि होनी है। राजेंद्र प्रसाद भी वहां जाना चाहते हैं। लेकिन नेहरू उन्हें समझाते  हैं कि राष्ट्रपति को एक मंत्री की अंत्येष्टि में नहीं जाना चाहिए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद और नेहरू एक ही जहाज से पटेल की अंत्येष्टि में जाते हैं। और राजेंद्र प्रसाद वहां रो पड़ते हैं। सुबकते हुए राजेंद्र प्रसाद को रोने के लिए नेहरू उन्हें अपना कंधा देते हैं। पटेल और राजेंद्र प्रसाद का साथ चंपारण आंदोलन से था। गुजरात के किसान आंदोलन में भी राजेंद्र प्रसाद और पटेल ने कंधे से कंधा मिला कर काम किया था। संयोग ही था कि नेहरू की राजेंद्र प्रसाद से भी नहीं बनती थी , न ही जयप्रकाश नारायण से। लेकिन पटेल के खिलाफ इन लोगों का इस्तेमाल नेहरू ज़रूर करते रहे। अरुणा आसफ अली भी पटेल के खिलाफ नेहरू की टूल बनी रहीं। बल्कि पूरी कम्यूनिस्ट लॉबी , समाजवादी लॉबी का इस्तेमाल भी नेहरू पटेल के खिलाफ करते मिलते हैं। पटेल को हिंदूवादी और मुस्लिम विरोधी साबित करने में नेहरू तमाम सारे यत्न करते मिलते हैं। तब जब कि सर्वाधिक 12 वोट मिलने के बावजूद पटेल ने गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए नेहरू का नाम प्रधान मंत्री पद के लिए प्रस्तावित कर दिया था। विराट कथा में नेहरू के  यह सारे घात-प्रतिघात , जोड़-तोड़ बिना किसी भेदभाव और रंजिश के पूरी सहजता के साथ सुधाकर अदीब ने परोसा है। और कि बिना लाऊड हुए। ऐसे जैसे किसी नदी में कल-कल जल बहे। 


कथा विराट पर संबोधित करते आर विक्रम सिंह 
तमाम सारे भाषण , चिट्ठियां और दृश्य सुधाकर अदीब ने विराट कथा में किसी जुलाहे की तरह बुना है और परोसा है , गोया कबीर की तरह झीनी-झीनी चदरिया बुन रहे हों। मणिबेन के साथ पटेल की बातचीत का तानाबाना कुछ इस तरह पेश करते हैं सुधाकर अदीब गोया कोई सिनेमा दिखा रहे हैं। उन के इस सिनेमा में फ्लैशबैक भी बहुत है और कब चुपके से आ जाता है , यह फ्लैशबैक पता ही नहीं चलता। सुशीला नैय्यर मणिबेन की दोस्त हैं और उन की आपसी बातचीत से भी तात्कालिक राजनीति की गंध मिलती है। कस्तूरबा गांधी और गांधी के ज़िद्दी होने के किस्से भी हैं कथा विराट में। कथा विराट में प्रेमचंद और उन के उपन्यास प्रेमाश्रम तथा रंगभूमि की भी चर्चा होती है। अंग्रेजों के जुल्म के बहाने। लखनऊ भी आता है कथा विराट में जब 1936 में कांग्रेस का सम्मेलन होता है। खिलाफत आंदोलन का भी ज़िक्र करते हैं सुधाकर अदीब और बताते हैं बंटवारे की बुनियाद की तफ़सील भी। मुस्लिम लीग से पटेल की अनबन की भी इबारतें बिखरी पड़ी हैं कथा विराट में। उन पर तलवार का जवाब तलवार से देने का आरोप भी लगता है। सुधाकर अदीब गांधी को 7 जनवरी , 1947 की लिखी लंबी चिट्ठी भी परोसते हैं इस बाबत। जिस में पटेल आहत हो कर लिखते हैं :

' ये सभी आरोप आप के कान में अवश्य मृदुला साराभाई द्वारा आप के कान में डाले गए होंगे , क्यों कि उन्हों ने मेरे ऊपर अपशब्दों की बौछार करने को अपना मन-बहलाव बना लिया है। वे यह जी मतलाने वाला प्रचार कर रही हैं कि मैं जवाहर से छुटकारा पाना चाहता हूं और एक नई पार्टी बनाना चाहता हूं। उन्हों ने बहुत सी जगहों पर इस ढंग से बातें की हैं। वे ऐसे किसी विचार को मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं , जो जवाहरलाल के विचार से भिन्न हों। '

जिन्ना और माउंटबेटन के नित्य प्रति छल कपट के बीच पिसते लाचार गांधी की कथा को भी सुधाकर अदीब ने विराट कथा में गूंथा है। लाचार गांधी तो जिन्ना को देश सौंप देने की बात भी माऊंटबेटन से कर बैठते हैं। फिर दूसरे ही क्षण उन से अपना वीटो पावर लगाने को भी कह देते हैं।  सुधाकर अदीब लिखते हैं :

' माउंटबेटन हतप्रभ थे। एक तरफ तो यह बूढ़ा व्यक्ति हम से भारत से चले जाने को कह रहा है और दूसरी तरफ जिन्ना को देश की बागडोर थमा देने को कह रहा है। ऊपर से मुझ से वायसराय की वीटो-पावर के इस्तेमाल की बात कर रहा है। आखिर ये चाहता क्या है ? '

नेहरू और पटेल में बंटवारे को ले कर जद्दोजहद होती है। जिन्ना का अड़ियल रवैया नेहरू की सत्ता पिपासा में दोनों ही जीत जाते हैं। पटेल भी नेहरू को साफ़ बता देते हैं कि , अब विभाजन टालने का कोई औचित्य नहीं है। मुस्लिम लीग के मंत्रियों को विध्वंसक बताते हुए बता देते हैं कि ये लोग मुसलमानों को निरंतर भड़का कर देश में आग लगवाएंगे। एक जगह सुधाकर अदीब लिखते हैं :

' सरदार पटेल उठे। सिर पकड़े बैठे नेहरू जी को देख कर उन्हें तरस आया। एक बड़े भाई की तरह वे उठ कर नेहरू के पास गए। उन के कंधे पर अपना हाथ रखा। पंडित नेहरू रो पड़े। '

बंटवारे के बाद की त्रासदी को भी कथा विराट में बड़ी बेकली से बांचा गया है। रियासतों और राज्यों को भारत में विलीन करने के विवरण भी विराट कथा में विस्तार से उपस्थित हैं। सुधाकर अदीब ने विवरण देते हुए लिखा है कि भारत के संघ में तदनुसार 565 में से 555 रियासतों को विलीन होना था। अंत में एक ही दुखता दांत बचा हैदराबाद की रियासत। निजाम हैदराबाद की लुकाछुपी और संघर्ष के भी कई विवरण कथा विराट में उपस्थित हैं। नेहरू के तमाम विरोध के बावजूद सैन्य अभियान चला कर हैदराबाद के निजाम को 17 सितंबर , 1948 को फतह करने में पटेल ने कामयाबी हासिल की। रियासतों को भारत में मिलाने के क्रम में जयपुर में पटेल का भाषण अविस्मरणीय है। तमाम मोर्चों पर लड़ते हुए , एक नया भारत गढ़ते हुए सरदार पटेल 15 दिसंबर , 1950 को 75 बरस की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से दुनिया छोड़ गए। चीन धोखा देगा , इस बाबत भी लिख कर  नेहरू को आगाह कर गए थे पटेल लेकिन नेहरू पटेल की बात मानते कहां  थे भला 

बड़ी बात यह भी है कि सुधाकर अदीब ने विराट कथा को जाति , धर्म , क्षेत्रीयता और सांप्रदायिक पचड़ों में पड़ने से अनायास बचा लिया है। इस के लिए उन्हें कोई बहुत कोशिश नहीं करनी पड़ी है तो इस लिए भी कि सरदार पटेल के जीवन में उन की राजनीति में इन सब चीज़ों के लिए कोई जगह नहीं थी। अलग बात है आज की राजनीति  में पटेल जातिवादी खाने में बंट चुके हैं। 

सरदार पटेल भाग्यशाली थे कि उन के पास एक विदुषी बेटी मणिबेन थी जो उन के संघर्ष में कंधे से कंधा मिला कर खड़ी थी , सहयोग और सेवा के लिए सर्वदा उपस्थित। पर सरदार पटेल  इस मामले में भी भाग्यशाली हैं कि उन के पास सिर्फ मणिबेन जैसी साहसी बेटी ही नहीं एक तपस्वी और साधक लेखक सुधाकर अदीब भी है। जिस सुधाकर अदीब ने कथा विराट में सरदार पटेल की अनन्य कथा लिख कर उन की लौह कथा को इस तरह जीवंत कर दिया है कि यह कथा सोने की कथा बन गई है। इतनी कि विराट कथा की तमाम कथाएं आने वाले दिनों में दंत कथा बन कर दिग दिगंत में झूमेंगी। विचरेंगी जानी-पहचानी कथा को रोमांचक और दिलचस्प अंदाज़ में 536 पृष्ठों में लिखना आसान नहीं है। सरदार पटेल का जीवन इतना विराट और अनुभव इतना विस्तृत है , स्वतंत्रता संग्राम इतना विस्तार लिए है कि इसे पांच लाख पन्नों में भी लिखा जाए तो कम है । लेकिन बिना कुछ छोड़े , सब कुछ समेटते हुए 536 पृष्ठ में कथा विराट को लिखना भी एक साधना ही है।

मैं तो चाहता हूं कि अपने अगले उपन्यास का विषय सुधाकर अदीब अपने वतन कश्मीर को बनाएं। अपने कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की व्यथा पर लिखने के लिए जिस शोध , अध्ययन , मेहनत और भावनात्मकता की लौ की ज़रूरत है , उसे मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ सुधाकर अदीब में ही देखता हूं , किसी और में नहीं।  

 [ 9 फ़रवरी , 2019 को लखनऊ पुस्तक मेले में बतौर मुख्य अतिथि , कथा विराट की चर्चा में दिया गया मेरा भाषण  ]




समीक्ष्य पुस्तक :

कथा विराट

लेखक

सुधाकर अदीब

प्रकाशक
लोकभारती प्रकाशन
पहली मंजिल , दरबारी बिल्डिंग , महात्मा गांधी मार्ग , इलाहाबाद – 211001
मूल्य – 450 रुपए

पृष्ठ – 536


Tuesday, 5 February 2019

ममता बनर्जी ने पाया कम , खोया ज़्यादा है


सी बी आई विवाद में ममता बनर्जी ने पाया कम , खोया ज़्यादा है । अभी तक जो बात ढंकी-छुपी थी अब वह जग जाहिर हो गई है । वह यह कि कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को सी बी आई द्वारा पूछताछ से बचाने के धुन में ममता ने बता दिया है कि वह शारदा चिट फंड घोटाले के घोटालेबाजों के साथ खुल्लमखुल्ला खड़ी हैं । चालीस हज़ार करोड़ के इस घोटाले में जिन लाखों गरीबों का पैसा लुटा है , वह गरीब और उन के परिजन क्या अब भी ममता को वोट देंगे ? दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने तुम्हारी भी जय-जय , हमारी भी जय-जय की राह चलते हुए ,  राजीव कुमार को गिरफ्तार करने के बजाय , राजीव कुमार को सी बी आई के सामने पेश होने का आदेश दे कर ममता बनर्जी को पानी पिला दिया है । अब राजीव कुमार शिलांग में सी बी आई के दफ्तर में पेश होंगे जहां उन के बचाव के लिए न तो बंगाल पुलिस होगी , न टी एम सी के गुंडे । अब ममता बनर्जी खुद साथ चली जाएं तो बात और है । ममता बनर्जी ने राजनीतिक  माइलेज लेने के चक्कर में अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है । वह भले आज अपनी नैतिक जीत का दावा कर रही हैं पर उन के इस अराजक धरने में पहुंचा भी कौन ? एक नैतिक तेजस्वी यादव , दूसरी नैतिक कनु मोझी। बाकी नैतिक लोगों की प्रतीक्षा में अभी भी धरना जारी रखे थीं । अब चंद्रबाबू नायडू पहुंचे हैं और उन का धरना खत्म करवा दिया है । और कि अब यह लड़ाई लड़ने के लिए ममता बनर्जी दिल्ली भी जाएंगी। गुड है । दिलचस्प यह कि बंगाल प्रदेश कांग्रेस की शिकायत पर ही सुप्रीम कोर्ट ने इस बाबत सी बी आई जांच के आदेश दिए। बंगाल प्रदेश कांग्रेस आज भी इस बाबत ममता के खिलाफ खड़ी है पर राहुल ने मोदी मीनिया के चक्कर में मौखिक समर्थन दे रखा है ममता को। इस अंतरविरोध के भी क्या कहने ! 

सवाल है कि जिस तरह एक भ्रष्ट और अराजक पुलिस अफसर राजीव कुमार को बचाने के लिए सारा प्रोटोकाल तोड़ कर उस के घर पहुंच कर धरना पालिटिक्स कर देश की राजनीति  को ममता बनर्जी आखिर क्या संदेश दिया है , समझना कठिन नहीं है । प्रधान मंत्री बनने की तमन्ना बुरी नहीं है , लेकिन इस तमन्ना के लिए देश की राजनीति को इस तरह अराजक दौर में झोंकना बहुत तकलीफदेह है । ममता बनर्जी ने वामपंथियों की गुंडई को खत्म कर , पराजित कर गुंडई का एक नया किला खड़ा कर ममता अपनी अराजकता में , लोकतंत्र का गला घोंट बैठी हैं , यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है । 

इस पूरी उठापटक में सी बी आई की साख को जो क्षति पहुंची है , सो तो पहुंची ही है पर सब से बड़ी क्षति कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार की हुई है । ममता के राजनीतिक टूल बने राजीव कुमार भूल गए हैं कि वह एक आई पी एस अफ़सर हैं , किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता नहीं । वह अपनी सेवा नियमावली को लात मार कर अपना एक पांव जेल में डाल चुके हैं । राजीव कुमार भूल गए हैं कि अयोध्या मामले में भाजपा के टूल बने फैज़ाबाद के तत्कालीन डी एम और एस एस पी भी सेवा से बर्खास्त कर जेल भेज दिए गए थे । तब के एस एस पी डी बी राय बाद में भाजपा के सांसद भी हुए पर कुछ समय बाद एक किताब भी लिखी और उस में लालकृष्ण आडवाणी की कटु निंदा करते हुए लिखा कि वह उन्हें कभी माफ़ नहीं कर सकते । मुझे लगता है राजीव कुमार का भी जल्दी ही मोहभंग होगा और वह भी ममता बनर्जी के खिलाफ जल्दी ही कुछ बोलना , लिखना शुरू करेंगे । गृह मंत्रालय ने धरना में शामिल होने पर नोटिस दी ही है । बस एक प्रशासनिक चोट खा लेने दीजिए , तब देखिए। शारदा चिट फंड का क्या पता कई सारे राज भी वह खोलने के लिए उपस्थित हो जाएं । कुल मिला कर ममता बनर्जी और राजीव कुमार ने बहुत कुछ खोया है । और इस से भी ज्यादा देश और देश की राजनीति ने बहुत कुछ खोया है। देश के संघीय ढांचे को जबर्दस्त आघात है यह प्रकरण ।

Sunday, 3 February 2019

संविधान सचमुच अब खतरे में है , ममता बनर्जी के इस रुख से


जैसे कश्मीर में आतंकियों को बचाने के लिए पत्थरबाज सेना पर पत्थरबाजी करने लगते हैं , ठीक वैसे ही पश्चिम बंगाल में एक भ्रष्ट पुलिस अफसर को सी बी आई से बचाने के लिए ममता बनर्जी जिस तरह सारा प्रोटोकाल तोड़ कर पुलिस कमिश्नर के घर पहुंच गईं और फिर अपनी कैबिनेट के साथ धरना पर बैठ गई हैं । तो पत्थरबाजों और ममता बनर्जी में क्या फर्क है भला । यह तो जो है सो है ही , भारतीय गणतंत्र और लोकतंत्र पर बड़ा हमला किया है ममता बनर्जी ने । संविधान सचमुच अब खतरे में है , ममता बनर्जी के इस रुख से । क्यों कि सी बी आई जो भी जांच कर रही है , सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर कर रही है , नरेंद्र मोदी सरकार के आदेश पर नहीं । अगर पश्चिम बंगाल पुलिस सी बी आई अफ़सरों को कैद कर सकती है , डिस्टर्ब कर सकती है , हाथापाई कर सकती है , सी बी आई आफिस को घेर सकती है , तो अगर सी बी आई सेना मांग ले सुप्रीम कोर्ट से तब क्या करेंगी ममता बनर्जी ? सी आर पी एफ़ तो खैर अब आ भी गई है मौके पर । याद कीजिए चारा घोटाले में सी बी ने जब लालू यादव को पहली बार गिरफ्तार किया तो सेना की ब्रिगेड बुला कर किया था । क्यों कि लालू भी इसी तरह आक्रामक रुख अपनाए हुए थे । लेकिन सेना देखते ही लालू और लालू के गुंडों की जमात ठंडी पड़ गई थी ।

ममता बनर्जी का यह आक्रामक रुख बताता है कि सी बी आई को कोलकाता में सेना की मदद ले लेनी चाहिए । इस पूरे घटनाक्रम से यह भी साबित होता है कि शारदा चिट फंड घोटाले की आंच ममता और उन के कैबिनेट के साथियों तक पहुंच रही है । 2013 के इस घोटाले की जांच के आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया हुआ है । ममता बनर्जी ने खैर जो भी किया है , भारतीय गणतंत्र और लोकतंत्र पर बड़ा हमला किया है । संविधान सचमुच अब खतरे में है , ममता बनर्जी के इस रुख से । इस के दुष्परिणाम बहुत बुरे मिलने हैं । फ़िलहाल कोलकाता स्थित सभी केंद्रीय दफ्तरों पर सी आर पी एफ़ तैनात कर दी गई है। सी बी आई अफसरों को हालां कि अब ममता की पुलिस ने रिहा कर दिया है । खबरों में यह भी कहा गया है कि सी बी आई इस मामले को कल सुप्रीम कोर्ट भी जा सकती है । कहा यह भी जा रहा है कोलकाता पुलिस कमिश्नर चिट फंड घोटाले के तमाम सुबूत खत्म करने में लगे हैं । वैसे लालू और अखिलेश ने ट्विट कर ममता का साथ देने की बात कही है। जब कि सी बी आई ने आधी रात सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की बात कह रही है ।

Friday, 1 February 2019

फ़िलहाल चुनाव की बिसात पर जाति , धर्म और बजट तीनों में ही विपक्ष पर बहुत भारी हैं मोदी


प्रतिपक्ष की राय है कि यह चुनावी बजट है । गुड बात है । लेकिन कोई बताए भी कि कोई बजट चुनाव विरोधी भी होता है क्या ? मतदाताओं के हिसाब से बजट सिर्फ़ और सिर्फ़ आंकड़ों की , वायदों की लफ्फाजी होती है । कुछ और नहीं । बजट सिर्फ और सिर्फ कारपोरेट जगत , शेयर मार्केट , व्यवसाय , उद्योग आदि को लाभ देने , दिलाने के लिए होता है । सरकारी काम-काज के लिए होता है । फिर इस बजट को ले कर मीडिया पर कुछ टुकड़खोर बुद्धिजीवी , इस पक्ष के हों या उस पक्ष के फर्जी टाइप चर्चा , कुचर्चा करने के लिए होता है । पूरी तरह प्रायोजित । जब कि मध्यवर्गीय लोग वोट डालने जाएं या न जाएं पर हर बजट में इनकम टैक्स की टुकड़खोरी के लिए कुत्तों की तरह मुंह बाए रहते हैं । किसान , मज़दूर , गरीब के लिए कुछ झुनझुने भी रहते हैं बजट में । जिस की जमीनी सचाई कभी दिखी नहीं आज तक । चाहे किसी भी सरकार का बजट हो। ऐसे-ऐसे नेता बजट पर आग उगलते या तारीफ़ करते हैं , जो बजट की स्पेलिंग या इस की अवधारणा भी नहीं जानते । सत्ता पक्ष का जवाब सर्वदा विकासोन्मुखी , गरीब , किसान , मजदूर आदि की हिमायत वाला होता है । जब कि प्रतिपक्ष किसान विरोधी , मजदूर विरोधी , देश को गर्त में डालने वाला बता देता है । हर बजट का जैसे यह स्थाई भाव है । वैसे विपक्ष सर्वदा ही बजट के खिलाफ सिर्फ़ और सिर्फ़ आग उगलता रहा है लेकिन इस बार तो वह भारी हताशा में डूबा दिख रहा है । गोया इस एक अंतरिम बजट से उन का क्या छिन गया है । लोकसभा में बजट भाषण के दौरान भी यही हाल दिख रहा था और अब बाहर भी ।

खैर , अब तो तमाम नामी अर्थशास्त्री भी पार्टी की तरह बोलते हैं । कौन सच बोल रहा है , कौन झूठ , और कि किस पक्ष का कुत्ता बन कर बोल रहा है , यह भी साफ़ दिखाई देता है । इस कुत्तागिरी में पत्रकारों की स्थिति अर्थशास्त्रियों से भी ज़्यादा दयनीय है। साफ़ और संतुलित बोलने वाला अब कोई एक नहीं है । वैसे भी बजट और सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट की भाषा अंगरेजी की होती है । सामान्य आदमी के लिए यह बजट भाषण एक बड़ी सी भूलभुलैया है , जिस में वह अपनी राह , अपनी आंख कभी नहीं देख पाता । जो दिखाया , बताया जाता है , वही देखता , जानता है । याद आता है कि एक बार जब यशवंत सिनहा वित्त मंत्री थे तो ऐन बजट भाषण में उन्हें टोकते हुए लालू यादव ने कहा , भाषण हिंदी में पढ़िए । तो यशवंत सिनहा ने तंज करते हुए लालू को कितना अपमानित किया था और लालू अपनी बेशर्म हंसी में फिस्स कर के , दांत चियार कर रह गए थे । पेट्रोल डीजल अब बजट की पाकेट से बाहर है ही । तो इस पर बात अब होती नहीं ।

वैसे भी यह अंतरिम बजट है । पर सच यह है कि अच्छे बजट या बुरे बजट से , विकास आदि का चुनाव पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। भारत में अभी तक का राजनीतिक इतिहास यही है फ़िलहाल । बजट और विकास आदि के नाम पर आप लाख कलेजा निकाल कर रख दें अपने मतदाता के चरणों में , मतदाता को यह सब कभी नहीं भाता । जातियों का जंगल , धर्म का दंगल इस सब पर भारी पड़ जाता है । कभी-कभार भ्रष्टाचार और मंहगाई भी मतदाताओं को अपनी आंच पर पिघलाती है जैसे कभी राजीव गांधी बोफोर्स में बह गए , जैसे कि मनमोहन सिंह टू जी , कोयला और जीजा जी में बह गए । लेकिन यह कभी कभार का अपवाद है । 

इस बार का चुनाव जाति और धर्म के मुद्दे पर ही विपक्ष लड़ना चाहता है । अब तक की विपक्ष की सारी सक्रियता इसी मोर्चे पर है । अलग बात है , विपक्ष यह भूल गया है कि धर्म और जाति दोनों मामले में मोदी मास्टर हैं । विपक्ष इस मामले में मोदी के पासंग बराबर भी नहीं ठहरता । विपक्ष ने इस बार चुनाव की चाल ही गलत चल दी है। फ़िलहाल मोदी चुनाव की बिसात पर जाति , धर्म और बजट तीनों में ही विपक्ष पर बहुत भारी हैं । विपक्ष सिर्फ चूहों की जमात बन कर रह गया है , जो आए दिन गठबंधन की बैठकें , सभाएं कर-कर मोदी के गले में घंटी बांधने की कवायद में व्यस्त , न्यस्त और त्रस्त है । विपक्ष की नियति अब पत्ता बन कर गठबंधन के चूल्हे में दहक कर बुझ जाना ही रह गया है । वह आग , जिस की राख भी बाद में नहीं मिलती ।