Sunday, 30 September 2012

सब के दृग-जल से पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का पीतांबर भींग रहा था

दयानंद पांडेय 

एक हिंदी सेवी की याद में कल की मेरी शाम जैसी बीती, वैसी कभी नहीं बीती। लखनऊ के खुर्शेदबाग में कल भैय्या जी यानी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी को उन्हीं के नाम से बने प्रेक्षागृह में याद किया गया। हिंदी की अस्मिता का जो गान उन्हों ने गाया है, उस को याद किया गया। उन की ११९वीं जयंती पर। हिंदी वांग्मय निधि द्वारा आयोजित भक्ति संगीत से। कोई दिखावा नहीं, कोई औपचारिकता भी नहीं। मतलब प्रचार आदि के टोटकों से कोसों दूर। पर हाल और बाहर लान भी खचाखच भरा था। पर कोई एक प्रेस फ़ोटोग्राफ़र या संवाददाता भी नहीं। किसी अखबार में कोई खबर भी नहीं थी। न कल, न आज। किसी चैनल की तो खैर बात ही क्या। ज़्यादातर लखनऊ के लेखकों में भी लोग लापता थे। पंडित श्रीनारयण चतुर्वेदी खुद भी तमाशा अदि से हमेशा दूर रहने वालों में थे। शायद उन्हीं की इच्छा का मन रखने के लिए उन के परिवारीजन प्रेस आदि के तमाशे आदि से इस कार्यक्रम को दूर रखते हैं।

शैल चतुर्वेदी जी से बात चली तो वह कहने लगे कि हम ने तो प्रेस विज्ञप्ति भी कहीं नहीं भेजी। तो भी जिस हिंदी के लिए भैय्या जी ने क्या-क्या नहीं किया उन की याद में कम से कम हिंदी के अखबार वाले अपने मन ही से सही एक छोटी सी खबर भी नहीं चिपका सकते थे? वैसे भी आज-कल मीडिया जिस तरह साहित्यिक या सांस्कृतिक कार्यक्रमों की कवरेज करती है, भगवान बचाए। पता चला कि विमोचन या कुछ और ऐसा ही बहुत पहले हो गया था पर कुछ फ़ोटोग्राफ़र तब नहीं आ पाए थे, अब आए हैं तो एक शाट फिर से हो जाए! और हद्द यह कि लोग दे भी देते हैं। गोया कार्यक्रम न हो नौटंकी हो। किसी फ़िल्म की शूटिंग हो। कि एक रिटेक फिर से हो जाए। इतना ही नहीं आयोजक और वक्ता भी अपने संबोधन में मीडिया के लोगों को संबोधित करना नहीं भूलते। और मीडिया के लोग? एक विज्ञप्ति भर की बाट जोहते रहते हैं कुत्ते की मानिंद। कि मिले तो भाग लें। या फिर आयोजक लोग ब्रीफ़ कर दें तो नोट कर लें। और दूसरे दिन अखबार में कहां और कैसे यह सब छपेगा और यह छपना भी कार्यक्रम को कितना सम्मानित करेगा, कितना अपमानित, यह भी कोई नहीं जनता। अजब घालमेल है। मेरा तो मानना है कि ऐसे कार्यक्रमों में मीडिया और राजनीति के लोगों से अब दूर ही रहना चाहिए। एक बात और। कहा जा सकता है कि जब किसी मीडियाजन को बुलाया ही नहीं गया तो कोई कैसे आता भला? क्या यह कोई सरकारी कार्यक्रम था की किसी का शादी विवाह? मैं ने देखा है कि कई ऐसी शादियों तक में या तमाम राजनीतिक कार्यक्रमों या फ़िल्मी कार्यक्रमों में, और भी कई ऐरे-गैरे कार्यक्रम में भी जाने के लिए पत्रकार कैसे तो नाक रगड़ते हैं। बिना बुलाए पहुंचते भी है, दांत चियारते हुए। लेकिन लेखकों आदि के कार्यक्रमों में वह दामाद की तरह बुलाए जाने की प्रतीक्षा करते हैं। लखनऊ में तो हालत यह है कि भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर के भी परिवारीजन अगर आयोजन न करें और अखबारों में उसे छपवाने का यत्न न करें तो लोग भूल जाएं। यशपाल को लोग भूल ही जाते हैं। इस लिए कि उन के बेटे और बेटी में आपस में पटती नहीं है। और कि शायद अब लोग लखनऊ में रहते भी नहीं नियमित। तो यशपाल पर आयोजन नहीं होते लखनऊ में। यशपाल की जन्म-शती चुप-चाप निकल गई। इसी तरह मजाज लखनऊ की जन्म-शती भी अहिस्ता से गुज़र गई। पर किसी को पता नहीं चला। इसी तरह श्रीनारायण चतुर्वेदी की भी जन्म-शती चुपके से गुज़र गई। पर अखबार वालों और लेखकों की इन की सुधि कभी नहीं आई।

बहरहाल चतुर्वेदी जी की जयंती तो २८ सितंबर को थी पर उन की याद में आयोजन २९ सितंबर को किया गया। अब आज लोग भले भूल गए हों श्रीनारायण चतुर्वेदी और उन की हिंदी की जय को। पर हिंदी के लिए वह बार-बार जूझते रहे। अंगरेजों से भी। पंडित मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन और श्रीनारायण चतुर्वेदी का हिंदी का लिए योगदान अविस्मरणीय है। बहुत कम लोग अब जानते हैं कि अदालतों मे पहले हिंदी नहीं थी। इस के लिए मदन मोहन मालवीय ने लंबी अदालती लडा़ई लडी़ फिर कहीं जा कर अदालतों में ब्रिटिश पीरियड में ही हिंदी लागू हुई थी। और काम-काज हिंदी में होने लगा। मदन मोहन मालवीय के पौत्र तो बाद में उच्च न्यायल में न्यायमूर्ति बने। उन्हों ने हमेशा हिंदी में ही आदेश लिखवाए। वैसे ही पहले पाठ्यक्रमों में पहले हिंदी अनिवार्य विषय नहीं थी। कक्षा ३ पढाई अंगरेजी माध्यम से होती थी। मैट्रिक में हिंदी एक वैकल्पिक विषय थी। इस के आगे फिर हिंदी पढा़ई भी नहीं जाती थी। तो शिक्षा विभाग में आने पर उन्हों ने पाठ्यक्रम तैयार करवाया और पाठ्यक्रमों में हिंदी को अनिवार्य विषय करवाया। स्कूलों में हिंदी में अंत्याक्षरी और स्कूलों में कवि सम्मेलन भी श्रीनारायण चतुर्वेदी की देन हैं। यह सब उन्हों ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के निमित्त किया। कहते हैं कि१९३५-३६ में गोरखपुर में उन के द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन तो ३ दिन तक चला। जिस के हर सत्र में एक रस की ही कविताएं पढी़ गईं। चतुर्वेदी जी इंगलैंड से पढ़ कर आए ज़रुर थे पर भारतेंदु जी के लिखे- ;निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल/ बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिया को शूल।' का मर्म भी जानते थे। माध्यमिक परीक्षाओं में देवनागरी के अंकों का प्रयोग भी शुरु करवाया। एक समय गवर्नर हैलट के सलाहकार रहे शेरिफ़ ने प्रौढ़ शिक्षा के लिए रोमन लिपि अपनाने का आदेश दिया जिसे चतुर्वेदी जी ने मानने से इंकार कर दिया। ऐसे ही जब-जब हिंदी पर कोई आंच आई उन्हों ने बढ़ कर उसे रोक लिया। चाहे वह ब्रिटिश राज रहा हो या, आज का राज। राजनीतिक कारणों से जब उर्दू को हिंदी पर थोपने का काम हुआ तो वह खुल कर पूरी ताकत से खड़े हो गए। विरोध में हिंदी संस्थान का भारत-भारती पुरस्कार तक ठुकरा दिया। वह दूरदर्शन में भी उप-महानिदेशक रहे और वहां भी हिंदी की सेवा में लगे रहे। बरसों-बरस सरस्वती जैसी पत्रिका के संपादक रहे। दरअसल वह कृतित्व के लिए कम और व्यक्तित्व के लिए ज़्यादा जाने गए। उन की छिटपुट रचनाओं खास-कर हिंदी प्रसंग की कुछ कविताओं और लेखों को छोड़ दें तो उन का व्यक्तित्व उन के कृतित्व पर हमेशा भारी रहा है। वह हमेशा हिंदी के प्रचारक ही बने रहे। साहित्य सेवा से ज़्यादा उन्हों ने हिंदी सेवा की और कई बार हदें लांघ कर, हदें तोड़ कर वह जय हिंदी करते रहे। पंडित विद्यानिवास मिश्र कहते थे कि ‘हम उन के हैं’ यह भाव हमें हिंदी के भाव से भरता है। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी खुद भी कहते थे ‘हम पल्लव हैं। किंतु न हम हीन हैं, न दीन और दयनीय। बिना हमारे वंदनवार असंभव है...।’ तो यह सिर्फ़ वह अपने लिए ही नहीं, हिंदी की अस्मिता के लिए भी कहते थे। पुरुषोत्तम दास टंडन के वह इलाहाबाद में सिर्फ़ पड़ोसी ही नहीं थे। उन के सहयात्री भी थे। जीवन भर वह हिंदी का परचम ही फहराते रहे।

लेकिन भैय्या जी को इतने साल बाद भी खूब मन से याद करने के लिए सो काल्ड मीडिया और तमाम लेखक लोग भले न रहे हों उस शाम पर उन के परिवारीजन और उन के इष्ट-मित्र बहुत थे। लेखकों में प्रसिद्ध इतिहासकार योगेश प्रवीन न सिर्फ़ उपस्थित थे बल्कि दो उम्दा भजन भी उन्हों ने बाकायदा हारमोनियम बजा कर गाईं। एक मीरा की लिखी भजन, ' जागो वंशी वारे ललना, जागो मेरे प्यारे !' और दूसरी अपनी लिखी हुई भजन, 'सागर के मेघों से नीला अंबर भींग रहा है/ मेरे दृग-जल से प्रभु का पीतांबर भींग रहा है/ अश्रुधार से कोई तेरे चरण पखार रहा है/ गोवर्धन छाया है फिर भी गिरिधर भींग रहा है।' योगेश प्रवीन की लिखी और गाई यह भजन है तो श्रीकृष्ण को संबोधित पर यहां यह भजन मानो पंडित श्रीनारायन चतुर्वेदी पर ही साकार हो गई थी। क्यों कि सभी के सभी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की ही याद में भींग रहे थे। सब के दृग-जल से पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का पीतांबर भींग रहा था। अदभुत था यह। योगेश प्रवीन कोई पेशेवर गायक नहीं हैं पर वह खूब झूम कर गा रहे थे। उन के इस रुप से मैं पहली बार परिचित हो रहा था। यहां जितने भी लोगों ने भजन गाई कोई पेशेवर गायक नहीं था। प्रारंभ अदित्य नाथ चतुर्वेदी ने सरस्वती वंदना से किया संस्कृत में सस्वर। फिर इस का हिंदी रुपांतरण भी प्रस्तुत किया सस्वर। चतुर्वेदी जी के बेटे अशोक चतुर्वेदी जो पूर्व एयर मार्शल हैं। और रिटायर होने के बाद भातखंडे से बाकायदा गायन सीखा है, ने दो भजन सुनाई। उन के दूसरे बेटे डाक्टर आशुतो्ष चतुर्वेदी जो सर्जन हैं, ने समापन भजन गाई। पर प्रशासनिक अधिकारी अनीता श्रीवास्तव और आकाशवाणी की पैक्स रश्मि चौधरी ने भी बहुत सुंदर भजन प्रस्तुत किए। विजय अग्निहोत्री ने पारंपरिक भजन गाए। तो इलियास ने सूर और तुलसी के पद सुनाए।

चतुर्वेदी जी के पोते अरविंद चतुर्वेदी एस टी एफ़ में डिप्टी एस पी हैं। उन्हों ने भी अपने बेटे हेमंग चतुर्वेदी के साथ चतुर्वेदी जी की एक कविता का सस्वर पाठ किया। भाषा संस्थान के पूर्व अध्यक्ष गोपाल चतुर्वेदी भी उपस्थित थे। उन्हों ने चतुर्वेदी जी के चित्र पर माल्यार्पण किया, बजरंशरण तिवारी को उत्तरीय ओढा़ कर सम्मानित किया। और साहित्य संगम पत्रिका का विमोचन किया। चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व पर शैलेंद्र कपूर ने वक्तव्य पढ़ा। और कहा कि चतुर्वेदी जी द्वारा लिखे गए संपादकीय पर भी एक किताब होनी चाहिए। उन के और काम पर भी बाकायदा शोध होना चाहिए। सब कुछ इतना सरस और इतना अपनत्व भरा था कि मन निहाल हो गया। वैसे तो पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी की सांस-सांस में बसे हैं पर कल की शाम ने उस सांस में सुबास भर दिया। एक टटकापन टांक दिया मन पर। यह टटकापन मन में हमेशा बसा रहे और हिंदी की जय होती रहे, हर समय, हर बरस ऐसे ही सब के दृग-जल से पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का पीतांबर भींगता रहे। बस और क्या चाहिए भला?

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Friday, 21 September 2012

बबूल के समुद्र की चुभन, साक्षी, पुष्कर और ख्वाज़ा की दरगाह उर्फ़ पधारो म्हारो देश !

साक्षी के कार्यक्रम में बोलते हुए दयानंद पांडेय
बहुत सुनता था यह गाना, ' पधारो म्हारो देश !' तो गया अब की राजस्थान भी। बुलावे पर ही। उदयपुर की शकुंतला सरुपरिया की सलाह पर भीलवाड़ा के अमिताभ जोशी ने बुलाया था। शकुंतला जी मेरे ब्लाग सरोकारनामा की दीवानी हैं। और वहीं मुझे पढ़ती रहती हैं। पढ़-पढ़ कर अपने तनिमा अखबार में छापती रहती हैं मेरी नई-पुरानी टिप्पणियां आदि। और फ़ेसबुक पर बताती रहती हैं। शकुंतला जी की सलाह पर एक बार बीती मई में अजमेर में भी एक सम्मेलन में बुलाया गया था। मैं ने रिज़र्वेशन भी करवा लिया था आने-जाने का। मन में था कि उन का सम्मेलन भी अटेंड कर लूंगा और अजमेर के पुष्कर में सरोवर और ब्रह्मा जी के दर्शन कर ख्वाज़ा साहब की दरगाह पर मत्था भी टेक आऊंगा। पर अचानक जाना मु्ल्तवी करना पड़ा। वो कहते हैं न कि जब तक ख्वाज़ा साहब का बुलावा न आ जाए कोई जा नहीं पाता। शायद इसी लिए तब नहीं जा पाया। पर लगता है कि अब की ख्वाज़ा साहब ने बुला लिया। तो भले जयपुर होते हुए भीलवाड़ा गया और बीच में अजमेर भी पडा़। पर जाते वक्त अजमेर से गुज़र गया। ट्रेन से उतरा नहीं। क्यों कि दूसरे दिन भीलवाडा़ में अमिताभ जोशी द्वारा आयोजित कार्यक्रम था। उन की साक्षी का विमोचन था। साक्षी पत्रिका है कि किताब? वह यह खुद भी तय नहीं कर पा रहे थे। वह कभी किताब बोलते थे कभी पत्रिका। हालां कि पुस्तकाकार रुप में वह पत्रिका ही थी। क्यों कि उस में विज्ञापन भी भरपेट था।

भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और
उन के सहयोगियों के साथ  बातचीत करते दयानंद पांडेय
खैर जब उतरा भीलवाडा़ स्टेशन पर तो एक युवा लड़के ने मुझे रिसीव किया। मैं अभी इधर-उधर देख ही रहा था कि वह लड़का मेरे पास भागा-भागा आया और पूछा कि, 'आप पांडेय जी हैं?' तो मैं चौंक पड़ा। बोला कि, 'हां। पर क्यों?' वह लड़का बोला, 'मैं आप को लेने आया हूं। अमिताभ जी ने भेजा है।' कह कर उस ने मेरी अटैची उठा ली। कार जब गंतव्य की तरफ चल पड़ी तो मैं ने उस नौजवान से कौतूहलवश पूछा कि, ' मुझे कैसे पहचान लिया?' तो वह बोला, 'गूगल पर आप की फ़ोटो देखी थी।' उस ने जैसे जोड़ा, 'सरोकारनामा पर है ना आप की फ़ोटो।'

'ओह अच्छा हां।' मैं ने कहा और पूछा कि, ' तुम सरोकारनामा पढ़ते हो?' तो वह बोला, 'हां।' मैं चक्कर में पड़ गया। फिर उस ने बताया कि अमिताभ जी ने इस के बारे में बताया था। और मुझ से कह कर उन्हों ने ही गूगल पर सर्च करवाया था। मैं समझ गया कि यह आयोजक की मुझे जानने की एक औपचारिकता भर है। सरोकारनामा पढ़ने-पढाने से उस का कोई वास्ता या रिश्ता नहीं है। वैसे भी वह लड़का जिस का नाम मयंक पारिख है, उदयपुर में टैक्सटाइल की पढा़ई कर रहा है, साहित्य या पढ़ने जैसी और चीज़ों से उस का बहुत नाता-रिश्ता है नहीं। है तो बस इतना ही कि मंगलेश डबराल की तरह ही उस का अटक-अटक कर बोलना। बस! खैर, भीलवाडा़ शहर के एक बाइपास पर बने अग्रवाल धर्मशाला में ले जा कर उस लड़के ने मुझे ठहरा दिया। और बताया कि कल का कार्यक्रम भी इसी जगह होगा। धर्मशाला नई बनी हुई थी। सो साफ-सुथरी थी। होटल के कमरों जितनी ही सुविधाओं से चाक चौबंद। ए. सी. वगैरह सब। बस कहने भर को ही धर्मशाला थी। पर किसी पांच सितारा होटल से भी ज़्यादा खुला-खुला और रौनकदार। बस कारपेट नहीं थी और वेटर भी नहीं थे। बाकी सब। अभी नहा धो कर बैठे ही थे कि भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर मय दल-बल के आ गए। एक बुके लिए हुए। बडी़ आत्मीयता से मिले। प्रदीप भटनागर ठेंठ इलाहाबादी हैं। मैं जब लखनऊ में स्वतंत्र भारत में था तब प्रदीप जी स्वतंत्र भारत में इलाहाबाद के संवाददाता थे। इलाहाबाद में अमिताभ बच्चन का चुनाव कवर करने के उत्साह से लबालब वह मुझे पहली बार लखनऊ में ही मिले थे। प्रदीप जी उन थोडे़ से रिपोर्टरों में तब शुमार थे जो लिखने-पढने में दिलचस्पी रखते थे। और इसी लिए स्वतंत्र भारत के तब के संपादक वीरेंद्र सिंह उन्हें बहुत प्यार करते थे। और उन की रिपोर्टें उछाल कर छापते थे। वीरेंद्र सिंह जी मुझे भी बहुत प्यार करते थे बल्कि दिल्ली से स्वतंत्र भारत, लखनऊ मुझे वह ही ले भी आए थे। तो यह एक एका भी था मुझ में और प्रदीप भटनागर में। जो इलाहाबाद और लखनऊ की दूरी को मिटा देता था। यह १९८५ की बात है। बाद में वीरेंद्र सिंह जी स्वतंत्र भारत से गए तो धीरे-धीरे हम लोग भी विदा हुए। मैं तो स्वतंत्र भारत से अगस्त, १९९१ में विदा हुआ। लखनऊ में ही नवभारत टाइम्स चला गया। प्रदीप जी बाद में स्वतंत्र भारत से विदा हुए। तब जब स्वतंत्र भारत अपनी गरिमा, अपने पंख और अपनी मर्यादा बिसार तार-तार हो गया। मैं ने हालां कि लखनऊ नहीं छोड़ा। तमाम मुश्किलों, विपरीत स्थितियों और नौकरी में अपमान जीते-भुगतते भी लखनऊ में पडा़ हुआ हूं। अब तो रोज-रोज ही नौकरी करना सीखने की बात हो चली है। तो भी ओ अपने उस्ताद कह गए हैं न कि कौन जाए दिल्ली की गलियां छोड़ कर। तो यहां भी वही हो गया है कि कौन जाए लखनऊ की गलियां छोड़ कर ! सो पडा़ हुआ हूं लखनऊ में। हूं गोरखपुर का पर लखनऊ की गलियों ने मोह रखा है। जाने नहीं देतीं कभी, कहीं ये गलियां। बीच में एक बार थोड़े दिनों के लिए दिल्ली वापस गया भी पर लखनऊ की गलियों ने फिर पुकार लिया। वापस आ गया। पर प्रदीप जी ने रोजी रोटी के फेर में इलाहाबाद छोड़ दिया। जैसे कि तमाम मित्रों ने अपने-अपने शहर छोड़ दिए। और बैतलवा फिर डाल पर गुहराते हुए अपने शहर आते-जाते रहते हैं। घर-परिवार के फेर में। प्रदीप जी भी शहर दर शहर बदलते हुए अभी डेढ़ महीने पहले अलवर से भीलवाड़ा पहुंचे हैं। वह जब अलवर में थे तब भी बुलाते रहते थे कि आइए कभी घूम जाइए। पर प्रदीप जी के बार-बार इसरार पर भी नहीं जा पाया अलवर। अब की जब भीलवाडा़ जाने की बात हुई तो एक दिन शाम को प्रदीप जी का फ़ोन आया कि क्या आप भीलवाड़ा आ रहे हैं? मैं ने ज़रा हिचकते हुए बताया कि आ तो रहा हूं, पर आप को कैसे पता चला? तो वह बोले कि एक विज्ञप्ति आई है, उसी में बताया गया है कि आप मुख्य वक्ता हैं।

भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और
उन के सहयोगियों के साथ  बातचीत करते दयानंद पांडेय
खैर जब प्रदीप जी मिलने आए तो तमाम बातें हुईं। नई-पुरानी। व्यक्तिगत भी और राजनीतिक, सामाजिक भी। बात ही बात में कब उन के एक सहयोगी नरेंद्र जाट बातचीत को नोट कर इंटरव्यू लिख बैठे, पता ही नहीं चला। दूसरे दिन भास्कर अखबार में वह इंटरव्यू देख कर पता चला। खैर थोडी़ देर में अमिताभ जोशी भी आ गए। और बात खत्म हो गई। प्रदीप जी अपने साथियों के साथ चले गए। यह वादा ले कर कि कल की शाम भास्कर दफ़्तर में उन के सहयोगियों के साथ बिताऊं। खाना खाने के लिए अमिताभ जोशी अपने घर ले गए। बीच-बीच में वह अपनी तमाम योजनाएं बताते रहे। दूसरे दिन साक्षी का विमोचन हुआ। स्त्री विमर्श पर मुझे विषय प्रवर्तन करना था। मैं भाषण लिख कर ले गया था। पर वहां माहौल व्याख्यान, विमर्श या सेमिनार का न हो कर व्यक्तिगत-पारिवारिक कार्यक्रम का हो गया। माइक सिस्टम भी साथ नहीं दे रहा था। एक हैंडसेट माइक था। जो जब-तब आवाज़ पकड़ता-छोड़ता रहता था। बीच-बीच में स्वागत और औपचारिकताएं होती रहीं। ऐसे गोया कोई मुहल्ला स्तर की रामलीला हो। जिस भी किसी के हाथ में माइक आ जाए अपने को ज़माने में लग जाए। कार्यक्रम का औपचारिक संचालन उदयपुर से आई शकुंतला सरुपरिया जी कर रही थीं। पर बीच-बीच में अजमेर से आईं वर्तिका जी भी आ जाती थीं, संचालन के लिए। अमिताभ जोशी भी जब-तब कूद पड़ते थे। जयपुर से आई कोई एक ज्योति जोशी थीं, जब-तब संचालन कर रही शकुंतला जी को दर्शक दीर्घा से ही बोल-बोल कर निर्देश देती रही थीं कि यह नहीं यह करिए। ऐसे करिए, वैसे करिए। अजीब हौच-पौच था। कोई भी वक्ता विषय पर बोलने को उत्सुक नहीं था। न ही किसी की तैयारी दिखी। इसी बीच शकुंतला जी ने बिटिया पर एक गीत सस्वर पढा। मन में मिठास घुल गई। इस पर एक सज्जन इतना बह गए कि बाकायदा फ़िल्मी गाना गाने लगे। और लोगों ने उस पर खूब तालियां भी बजाईं। सिर्फ़ एक नूर ज़हीर ही विषय पर बोलीं। वह भी संक्षिप्त। ज़्यादा बोलने की गुंजाइश ही नहीं थी। नूर ज़हीर अब रहती हैं गज़ियाबाद कि दिल्ली में। पर लखनऊ की ही हैं। उर्दू के मशहूर लेखक सज़्ज़ाद ज़हीर की बिटिया हैं। जिन को हम लोग अब भी बन्ने मियां और बन्ने भाई कह कर याद करते हैं। इस पूरे कार्यक्रम में नूर ज़हीर और शकुंतला सरुपरिया जी से मिलना ही सार्थक रहा बाकी तो सब बदमगजी ही रहा।

भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और
उन के सहयोगियों के साथ  बातचीत करते दयानंद पांडेय
साक्षी जिस का कि विमोचन मैं ने भी किया सब के साथ। पर अब उस का क्षोभ भी है। एक नज़र में देखने पर लगता है कि अमिताभ जोशी ने बडा़ क्रांतिकारी काम किया है। कि तमाम-तमाम काम करती हुई सामाजिक सरोकार से जुड़ी कोई ३५ महिलाओं की तमाम फ़ोटो सहित उन की उपलब्धियों का बखान साक्षी के पृष्ठों पर वर्णित है। उन में दो आई.ए.एस. और एक पी.सी.एस. स्त्रियां भी हैं। डाक्टर, कारोबारी और तमाम ऐसी ही औरतें हैं जो साक्षी के पृष्ठों पर सामाजिक काम के मद्देनज़र अवतरित हैं। मैं यह देख कर पहली नज़र में बहुत खुश हुआ। और अपने आधे-अधूरे भाषण में अमिताभ जोशी को बधाई देते हुए कहा भी कि इस काम को वह राजस्थान से बाहर भी ले जाएं। पर बाद में जब साक्षी के आखिरी पृष्ठों की तरफ़ नज़र गई तो देखा कि जिन महिलाओं का गुण-गान साक्षी के पृष्ठों पर है, उन्हीं के विज्ञापनों से भी लदी फनी है साक्षी। खेल साफ समझ में आ गया। कि पेड न्यूज़ का यह एक्सटेंशन है। अफ़सर और कारोबारी महिलाएं, डाक्टर आदि इस आयोजन में आई भी नहीं थीं। वैसे भी इस साक्षी की छपाई, कागज़, फ़ोटो आदि जितना दिव्य है, प्रूफ़ और भाषा की गलतियां भी उतनी ही दिव्य हैं। वाक्य विन्यास, ले-आऊट आदि भी पानी मांगते हैं। मैं ने इस तरफ़ अमिताभ जोशी जो इस साक्षी के लेखक और प्रधान संपादक भी हैं का जब ध्यान दिलाया तो उन्हों ने बताया कि चूंकि सारा काम उन्हों ने अकेले-दम पर किया है तो कुछ गलतियां रह गई होंगी। फिर वह बताने लगे कि आप के उत्तर प्रदेश के राज्यपाल जोशी जी हमारे भीलवाडा़ के ही हैं। और जब उन्हें पता चला कि मैं जनसत्ता, दिल्ली में भी रहा हूं तो वह बताने लगे कि हरिशंकर व्यास भी यहीं भीलवाड़ा के हैं। फिर वह उन की पुरानी विपन्नता के दिन भी बताने लग गए। लेकिन वह साक्षी की कमियों के बाबत कुछ सुनना नहीं चाहते थे। और कि उन को लग रहा था कि उन्हों ने हल्दी घाटी बस चुटकी बजाते ही जीत ली है। इसी रौ में वह पत्रकारिता का स्कूल भी खोलने की बात करने लगे। ऐसे ही वहां पहुंचने के पहले जब उन्हों ने फ़ोन पर मुझे भीलवाडा़ आने का निमंत्रण दिया तो फ़ोन पर ही उन के बारे में कुछ पूछना चाहा तो वह बोले कि बस जान लीजिए मैं खुद अपने आप में एक संस्था हूं। मुझे खटका तभी लगा। और जाना मुल्तवी करने की सोची। पर उदयपुर से शकुंतला सरुपरिया जी का इसरार जब ज़्यादा हो गया कि पधारो म्हारो देस ! का तो जाना ही पडा़। गया। तो भी ज़रा भी अंदेशा होता कि मामला घुमा कर ही सही नाक पकड़ने का है, खुल्लम-खुल्ला पेड न्यूज़ के एक्सटेंशन का है तो नहीं गया होता। मेरा ख्याल है कि नूर ज़हीर भी शकुंतला जी के इसरार पर ही वहां आई रही होंगी। नहीं वहां तो ज़रुरत जुमलेबाज़ों, फ़तवेबाज़ो और गलेबाज़ों की ही थी। ऐसे कार्यक्रमों में होती ही है। तिस पर अमिताभ जोशी की आत्म-मुग्धता तो और परेशान करने वाली थी। ठीक वैसे ही जैसे जयपुर से भीलवाडा़ के रास्ते दो तिहाई से अधिक ज़मीन पर मीलों-मील बबूल का विस्तार चुभता है और परेशान करता है। ऐसे गोया बबूल की खेती हो। बबूल का समुद्र हो। बताइए कि इतनी सारी ज़मीन बेकार पड़ी है पर हमारे उद्योगपति सिंगूर और नंदीग्राम जाते हैं उपजाऊ खेती में उद्योग लगाने। किसानों से उन की मां छीनने। क्यों नहीं आते राजस्थान उद्योग लगाने?

बहरहाल अमिताभ जोशी जैसे लोग यहां पेड न्यूज़ का उद्योग लगा बैठे हैं। पता चला कि यह साक्षी उन का दूसरा उपक्रम है। इस के पहले भी वह यह काम कर चुके हैं नारायणी नाम की पत्रिका निकाल कर। बतौर लेखक, अन्वेषक और प्रधान संपादक बन कर कई स्वनाम-धन्य स्त्रियों को नारायणी के पृष्ठों पर अवतरित कर के।

कार्यक्रम के बाद शाम ६ बजे ही आमंत्रित लोगों का भोजन भी शुरु हो गया। पर मैं चला गया भास्कर दफ़्तर। प्रदीप भटनागर के सहयोगियों के साथ बैठ कर कोई दो घंटे विभिन्न मसलों पर बात हुई। प्रदीप भटनागर भी साथ थे। उन की केबिन में ही बात हुई। नवीन जोशी, जसराज ओझा, नरेंद्र जाट, ज्ञान प्रकाश, प्रदीप व्यास, भूपेंद्र सिंह, पवन, और तेज़ नारायन जैसे युवा साथियों के साथ। चिंता वहां के साथियों में भी यही थी कि पत्रकारिता के बिगड़ते स्वरुप को कैसे बचाया जाए? मैं ने उन्हें दो टूक बताया कि किसी भी अखबार में चाहे कितने भी समझौते क्यों न हों, सामाजिक सरोकार से जुड़े रह कर ही पत्रकारिता को साफ-सुथरा रख कर बचाया जा सकता है। सामाजिक सरोकार से जुड़े़ मसलों पर मालिकों, मैनेजमेंट, सत्ता या अफ़सरों आदि का कभी कोई दबाव आदि भी नहीं होता। समाज में इस की स्वीकार्यता भी होती है। अखबार और पत्रकारिता की विश्वसनीयता और साख भी बनती है। और फिर जब समाज बदलेगा तो राजनीति आदि भी बदलेगी ही, सिस्टम भी बदलेगा ही। भ्रष्टाचार, पेड न्यूज़, प्रभाष जोशी, अन्ना, रामदेव, एफ़.डी.आई., मंहगाई आदि पर भी बात हुई। भास्कर के साथियों से यह बतियाना सुखद लगा। अखबार छोड़ने की गहमागहमी थी, नहीं हम लोग और बैठते। कुछ साथियों ने दूसरे दिन भी बैठने की बात की। पर मुझे दूसरे दिन सुबह ही निकलना था अजमेर के लिए। इस लिए उन से क्षमा मांग ली।

दूसरे दिन नाश्ता कर के अजमेर के लिए चला।

पुष्कर में मनमोहक सरोवर पर
रास्ते में फिर वही बबूल के समुद्र और वही चुभन पीछा करते रहे, मिलते रहे। दिन के कोई ११-३० बजे अजमेर पहुंचा। स्टेशन पर आटो और रिक्शा वालों ने वही अफ़रा-तफ़री दिखाई जो सभी शहरों में टूरिस्टों के साथ वह दिखाते हैं। होटल ले जाने की उन्हें बडी़ जल्दी होती है। किराए से ज़्यादा उन्हें होटल से मिलने वा्ले कमीशन की परवाह होती है। प्रदीप जी ने यहां भास्कर के संपादक जय रमेश अग्रवाल से बात कर ली थी। अग्रवाल जी ने रिपोर्टर निर्मल जी से कह कर डाक बंगला में एक कमरा दिलवा दिया। जैसे डाक बंगले होते हैं, वैसा ही था यह भी। अव्यवस्था और बदमगजी के शिकार। कदम-कदम पर लापरवाही। शिकायत करने पर चौकीदार और बाबू ने तज़वीज़ दी की फिर तो मैं सर्किट हाऊस ही चला जाऊं। वहां साफ-सफाई भी है और सारी सहूलियत भी। खैर एक्सीयन से फ़ोन पर कह कर साफ-सुथरा ए.सी. कमरा किसी तरह मिल गया। सामान रख कर, एक रेस्टोरेंट में खाना खा कर मैं पुष्कर के लिए निकल पडा़। अजमेर से थोडी़ देर का सफ़र है पुष्कर। बिलकुल सुहाना सफ़र। पहाड़ियों को चीरती हुई बस ने अपनी ऊंचाई से पूरे अजमेर शहर को दिखाना शुरु कर दिया। आना सरोवर की सुंदरता और निखर गई। बस ने जल्दी ही पुष्कर पहुंचा दिया।

ब्रह्मा-गायत्री मंदिर पर
पुष्कर ने पुश-पाश की तरह बांध लिया। जैसे किसी बागीचे के सुंदर फूल आप को बांध लें। पहाड़ियों से घिरे सरोवर की सुंदरता और सफाई ने मन मोह लिया। विदेशी जोड़ों को देख कर अपने बनारस की याद आ गई। पंडों की कपट भरी बातों ने, उन की पैसा खींचने की अदा ने वृंदावन और विंध्याचल की याद दिला दी। हालां कि सीज़न न होने के चलते बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी तो भी पंडा लोगों ने कोई कोर-कसर छोडी़ नहीं। पूजन की दक्षिणा के बाद ज़बरिया रसीद कटवाने की बात भी आई। हां यह बदलाव भी ज़रुर था कि जींस पहने भी कुछ पंडा लोग मिले। नहाने की तैयारी से मैं गया भी नहीं था सो आचमन कर के ब्रह्मा जी के मंदिर दर्शन के लिए चल पडा़। सड़क पर छुट्टा गाय और सांड़, जगह-जगह गोबर और सजी धजी दुकानें किसी गांव के से मेले का भान करा रही थीं। पर यह कोई गांव तो नहीं था। पुष्कर था। ज़्यादातर कपडों की दुकानें। और झोले आदि की। राजस्थानी महक कम, चीनी महक ज़्यादा। मतलब चीनी स्टाइल के कपडे़ ज़्यादा। क्या जेंट्स, क्या लेडीज़ सभी कपड़ों पर चीनी तलवार लटकी हुई थी। हां, वैसे यहां राजस्थानी पगड़ी, राजस्थानी तलवार और ढाल भी कुछ जगह बिकती देखी। मंदिर और धार्मिक स्थल पर तलवार और ढाल की भला क्या ज़रुरत? पर सोच कर ही चुप रह गया। किस से और भला क्या पूछता? वैसे भी सीज़न न होने के कारण दुकानों पर गहमागहमी की जगह सन्नाटा सा था। एक नींद सी तारी थी भरी दोपहर में पूरे पुष्कर में। बनारस में काशी विश्वनाथ मंदिर सा नज़ारा यहां भी था मंदिर के बाहर का। कि अगर जूता-चप्पल, मोबाइल आदि सुरक्षित रखना है तो प्रसाद और फूल संबंधित दुकान से लेना अनिवार्य है। प्रसाद दस रुपए से लगायत पचास रुपए तक के थे। खैर विश्वनाथ मंदिर की तरह न तो यहां भारी भीड़ थी न अफरा-तफरी। न ही पुलिस की ज़्यादतियां, बेवकूफियां और न बूटों की तानाशाही। आराम से दर्शन हुए। मंदिर की तमाम सीढ़ियों पर तमाम नाम दर्ज़ थे। उन नामों को कुचलते हुए सीढ़ियों पर से गुज़रना तकलीफ़देह था। इन सीढ़ियों के पत्थरों पर अपना या अपने परिजनों का नाम लिखवाने वालों ने क्या कभी यह भी सोचा होगा कि उन के नामों पर लोगों के अनगिनत पैर पड़ेंगे? या कि ताजमहल फ़िल्म के लिए साहिर के लिखे गीत की याद रही होगी कि पांव छू लेने दो, फूलों को इनायत हो्गी/ हम को डर है कि ये तौहीने मोहब्बत होगी। क्या पता? खैर, ज़्यादातर श्रद्धालु हर जगह की तरह यहां भी निम्न वर्ग के ही लोग थे। कुछ मध्यम वर्ग के भी। पर पूरी श्रद्धा में नत। मंदिर परिसर में फ़ोटो खींचने पर एक सुरक्षाकर्मी आया और बडे़ प्यार से बोला, 'आप का कैमरा जमा करवा लिया जाएगा। फ़ोटो मत खींचिए।' कैमरा हम ने अपनी ज़ेब में रख लिया। फिर बाहर आ कर फ़ोटो खिंची।

पुष्कर के एक और मंदिर पर
मंदिर परिसर से बाहर आते समय सीढ़ियों से सटी एक दुकान के लोग अपनी दुकान में आने का विनयवत निमंत्रण दे रहे थे। इस दुकान में किसिम-किसिम की मूर्तियां थीं। छोटी-बड़ी सभी आकार की। विभिन्न धातुओं की। राजस्थानी कला से जुड़ी और तमाम चीज़ें। कपड़े, जयपुरिया रजाई आदि। पर इतने मंहगे कि बस पूछिए मत। तीन हज़ार से शुरु पचास हज़ार, लाख तक की मूर्तियां। छोटी-बड़ी। हर तरह की। खैर आगे बढे़। कहा जाता है कि पूरी दुनिया में ब्रह्मा और गायत्री का यही इकलौता मंदिर है। खैर यहां भगवान नरसिंह का भी मंदिर है खूब ऊंचा। पर जाने क्यों यहां लोग बहुत नहीं जाते। मैं जब गया इस मंदिर में तो जाते-आते अकेला ही रहा। पुष्कर की समूची सड़क लगभग बाज़ार है। सड़क भी बड़ी है और बाज़ार भी। बनारस की तरह तमाम घाट भी हैं यहां। वृद्ध लोग सीढ़ियां चढ़ते उतरते थक जाते हैं। यही हाल बाज़ार का भी है। समूचा बाज़ार घूमना वृद्धों के वश का है नहीं। और तीर्थ, मंदिर ज़्यादातर वृद्धों और स्त्रियों से ही गुलज़ार रहते हैं। उन की मिज़ाज़पुर्सी में ही युवा उन के साथ होते हैं। सो वृद्ध लोग बाज़ार के बाहर वाले रास्ते से आटो से आते-जाते हैं, जिन की सामर्थ्य होती है। यहां मैं ने देखा कि फूलों की खेती भी अच्छी है। एक दुकान पर देखा कि एक व्यक्ति अपने साथ की स्त्रियों के साथ साड़ियां खरीदने में लगा था। वह ठेंठ गंवई राजस्थानी ही था। मोल-तोल कर ढाई-ढाई सौ की कुछ साड़ियां खरीदने के बाद वह दुकानदार से पक्की रसीद मांगने लगा। तो दुकानदार ने उसे समझाया कि रसीद लोगो तो पैसा बढ़ जाएगा। टैक्स लग जाएगा। तो वह खरीददार बोला कि मैं जानता हूं कि टैक्स एक साथ जहां से सामान आता है, वहीं लग जाता है। तो दुकानदार भी एक घाघ था। बोला कि टैक्स तो लग जाता है पर वैट और सर्विस टैक्स यहीं लगता है। बोलो दोगे? दूं रसीद? वह बिना रसीद के चला गया। ज़ाहिर है कि साड़ियों में शिकायत की गुंज़ाइश थी और वह आदमी लोकल लग रहा था, वापस आ सकता था शिकायत ले कर। बाहरी तो था नहीं कि वापस नहीं आ सकता था। सो रसीद होती तो विवाद बढ़ सकता था। सो उस ने रसीद नहीं दी। आखिर ढाई सौ में चमकीली साड़ी निकलेगी भी कैसी? आसानी से जाना जा सकता है। बनारस की तरह यहां भी दुकानदारों द्वारा विदेशी जोड़ों को भरमाने की कवायद बदस्तूर दिखी। यहां एक हलवाई की दुकान पर रबड़ी का मालपुआ देशी घी में लिखा देख मुह में पानी आ गया। पर उस का सब कुछ खुला-खुला देख कर हिम्मत नहीं हुई। बीमार पड़ने का खतरा था। मन को काबू करना पड़ा।

शाम हो चली थी। एक और मंदिर दिखा। यहां भी भीड़ मिली। यहां भगवान जी को घुमाया जा रहा था। बाकायदा पुजारी लोग पालकी में ले कर घुमा रहे थे। आरती का दिया भी घूम रहा था। चढ़ावा लेने के लिए। आरती ली, फ़ोटो खिंची और चल दिए। बस स्टैंड के ठीक पहले एक जगह एक स्त्री घास बेचती मिली। वहीं कुछ गाय झुंड में घास खा रही थी। वह स्त्री आते-जाते लोगों से गुहार लगाती रहती थी कि गाय को घास खिलाते जाइए। पांच रुपए में, दस रुपए में। कुछ लोग उस स्त्री की सुन लेते थे, कुछ नहीं। इसी तरह पुष्कर झील के किनारे भी एक जगह गऊ घाट भी दिखा था। वहां शायद गऊ दान होता हो। मैं देखते हुए ही चला आया था। गया नहीं। वापसी के लिए बस स्टैंड पर आ गया। एक बस सवारियों से भर चुकी थी। दूसरी के इंतज़ार में बैठ गया। थोड़ी देर में दूसरी बस भी आ गई। और तुरंत भर गई। पर अभी चली भी नहीं थी कि पता चला कि पंक्चर हो गई। हार कर उस पहली ही बस में आना पड़ा।

जब अजमेर शहर करीब आ गया तो कंडक्टर से मैं ने कहा कि, ' दरगाह जाना है सो वहां जाने के लिए जो करीब का स्टापेज़ हो बता दीजिएगा उतरने के लिए।' उस ने बता दिया कि, 'आगरा गेट पर उतर जाइएगा।' मैं ने कहा कि, 'यह भी आप को बताना पड़ेगा कि आगरा गेट कहां है?' कंडक्टर शरीफ़ आदमी था। उस ने हामी भर दी। पर मेरी सीट के पीछे बैठे एक दो लोग मेरी पड़ताल में लग गए। यह कहते हुए कि, 'आ रहे हो पुष्कर से और जा रहे हो दरगाह?' उन्हों ने नाम पूछा। और बोले, 'पंडत हो कर भी दरगाह?' मैं ने कहा कि, 'हां।' फिर, 'कहां से आए हो?' पूछा। मैं ने बताया कि, 'लखनऊ से। ' तो वह बोले, 'तब तो तुम्हें जाना ही है। यह तुम्हारा दोष नहीं लखनऊ का है। पर क्यों पुष्कर का सारा पुण्य दरगाह में जा कर भस्म कर देना चाहते हो?' इस के बाद वह और उस का एक साथी नान स्टाप फ़ुल वाल्यूम में जितना और जैसा भी ऊल-जलूल बक सकते थे बकते रहे। पहले तो मैं ने टाला। पर जब ज़्यादा हो गया तो मैं कुछ प्रतिवाद करने के लिए मुंह खोल ही रहा था कि बगल में बैठे व्यक्ति ने मेरा हाथ पकड़ कर दबाया और कुछ न बोलने का संकेत किया। मुझे भी लगा कि प्रतिवाद में बात बढ़ सकती है सो चुप लगा गया। बस में उस व्यक्ति की बात के समर्थन में कुछ और लोग भी बोलने लगे। अंट-शंट। आपत्तिजनक। खैर तभी आना सरोवर के पास से बस गुज़री तो मुझे गौहाटी में ब्रह्मपुत्र की याद आ गई। पर बात को बदलने की गरज़ से मैं ने उस लगातार बोलते जा रहे आदमी से पूछा कि, 'यह आना सरोवर है ना !'

'हां है तो।' वह ज़रा रुका और बोला, 'नहाओगे क्या?' वह ज़रा देर रुका और बोला, 'अरे शहर का सारा लीवर-सीवर यहीं गिरता है।' फिर वह एक श्मशान घाट की प्रशंसा में लग गया और कहने लगा कि कुछ मांगने जाना ही है तो वहां जाओ। कोई निराश नहीं लौटता। आदि-आदि। और वह फिर मुझे समझाने में लग गया कि, 'पंडत पुष्कर का पुण्य दरगाह में जा कर मत नष्ट करो ।' कि तभी कंडक्टर ने बताया कि, 'आगरा गेट आने वाला है, गेट पर चले जाइए।'

मैं आगरा गेट पर उतर गया।

अजमेर में ख्वाज़ा साहब की दरगाह पर
चला पैदल ही दरगाह की ओर। लोगों से रास्ता पूछते हुए। पहले दिल्ली गेट और फिर थोडी़ देर में दरगाह की मुख्य सड़क पर आ गया। एक मौलाना से पूछ भर लिया। कि, 'क्या यही दरगाह है?'
'जी जनाब !' कह कर वह भी शुरु हो गए। नान स्टाप। वहा की बदइंतज़ामी पर, सड़कों में जगह-जगह गड्ढे दिखाते हुए। गंदगी दिखाते हुए। कहने लगे कि, 'लूट मचा रखी है !'
'किस ने?' मैं ने पूछा।
'अफ़सरान ने !' वह बोले, 'कलक्टर से लगायत सब के सब। नहीं कितना पैसा गवर्नमेंट देती है, बाहर से फ़ंड आता है, पर सब लूट कर खा जाते हैं यह सब ! आप जाइए पुष्कर ! फिर देखिए कि वहां क्या चमाचम सड़कें है। क्या इंतजामात हैं, सफाई है। पर यहां तो अंधेरगर्दी है लूट है।' मौलाना जैसे फटे पड़ रहे थे। उन की शिकायतों का कोई अंत नहीं था।
थोडी देर बाद मैं ने बात बदलने के लिहाज़ से कहा कि, 'यहां सवारी नहीं आती?'
'बादशाह अकबर यहां पैदल आए थे !' वह बड़े नाज़ से बोले, 'चलिए पैदल ! हर्ज़ क्या है?' और वह फिर शुरु हो गए। जल्दी ही हम दरगाह के मुख्य दरवाज़े पर आ गए। यहां भी काशी में विश्वनाथ मंदिर की तरह और पुष्कर में ब्रह्मा-गायत्री मंदिर की तरह जूते-चप्पल रखने के लिए फूल, प्रसाद, चढ़ाने के लिए चद्दर आदि लेना अनिवार्य था। लेकिन चढ़ाने के लिए चद्दर, अगरबत्ती और प्रसाद मैं पहले ही ले चुका था। अब यहां सिर्फ़ फूल लेना बाकी था। खैर मुख्य दरवाज़े के बगल में जूता-चप्पल जमा करने की एक जगह थी। पांच रुपए जोड़ा की दर से। मैं ने वहीं जमा किया। अंदर भी जा कर सब सामान मिल रहे थे। तो मैं ने फिर एक टोकरी फूल लिया। और चला मत्था टेकने ख्वाज़ा साहब की दर पर। पर भीतर जाते ही गुमान यहां भी टूटा। पंडे यहां भी थे, खादिम के रुप में। रसीद कटवाने के लिए फ़रेब और दादागिरी यहां भी थी। पैसे चढ़ाने की पुकार यहां भी थी और लाज़िम तौर पर। चिल्ला-चिल्ला कर। एक खादिम तो बाकायदा चिल्लाते हुए कह रहे थे गल्ले का पैसा यहां जमा करो। और हाथ से चादर, फूल सब झपट कर खुद पीछे की तरफ़ फेंक देते थे। और लोगों को भेड़-बकरी की मानिंद हांक देते थे कि, 'उधर चलो !' ज़बरदस्ती। हमारे लखनऊ में खम्मन पीर बाबा की मज़ार पर तो ऐसा कुछ भी नहीं होता। भीड़ वहां भी खूब होती है। खैर यहां मैं ने ऐतराज़ किया और कहा भी उन से कि, ' पुलिस वालों जैसा सुलूक तो मत करिए।' और ज़रा तेज़ आवाज़ में ऐतराज़ दर्ज़ करवाया। तो वह थोडे़ नरम पड़े। और जब मैं ने कहा कि, 'देखिए उस तरफ़ तो लोग खुद फूल और चादर चढ़ा रहे हैं। और यहां आप ने हम जैसों को खुद फूल और चादर चढ़ाने नहीं दिया।' तो वह हिकारत से बोले, 'ध्यान से देखो, वह भी खादिम लोग ही हैं।' कह कर वह फिर भेंड़-बकरी की तरह सब को हांकने में लग गए। भीड़ हालां कि ज़्यादा नहीं थी आफ़ सीज़न के चलते। पर कम भी नहीं थी। कोई आधा घंटा से ज़्यादा लग गया दो कदम की दूरी चल कर मत्था टेकने में। वी. आई.पी. ट्रीटमेंट होता है हर जगह । हर मंदिर, हर दरगाह में। यहां भी था। उसी दिन पूर्व मंत्री और भाजपा नेता शाहनवाज़ भी चादर चढ़ाने गए थे। और भी बहुतों की फ़ोटो देखी थी मैं ने वहां चादर चढा़ते हुए। पर हमारी चादर और फूल चढाई नहीं गई बस पीछे फेंक दी गई खादिम के द्वारा। और सब की ही तरह। पर मत्था टेकने और सिर झुकाने का सुख मिला, सवाब मिला, इसी से संतोष किया। बाहर आ कर फ़ोटो भी खिंची। फ़ोटो खींचने पर किसी को ऐतराज़ भी नहीं हुआ। बस एक आदमी ने सलाह दी और ज़रा डपट कर दी कि पीठ ख्वाज़ा साहब की तरफ़ कर के खडे़ हो कर फ़ोटो मत खिंचवाइए। यह खादिम नहीं, हमारी तरह श्रद्धालु थे। तो भी मुझे हंसी आई और वह शेर याद आ गया कि:
जाहिद शराब पीने दे मस्ज़िद में बैठ कर
या वो जगह बता जहां खुदा न हो !

पूरे परिसर में खूब रोशनी और चहल-पहल है। लोग-बाग भी खूब हैं। औरत-मर्द, बूढे-बच्चे सभी। श्रद्धा में नत और तर-बतर। कोई नमाज़ पढ़ता, कोई आराम करता और परिवारीजनों से बतियाता हुआ। हाथ पैर धोता सुस्ताता हुआरास्ते में एक रेस्टोरेंट में खाना खा कर लौट रहा हूं बरास्ता दिल्ली गेट, आगरा गेट डाकबंगला। आ कर सो जाता हूं। सवाब और सुख से भरा-भरा। सुबह ११ बजे लखनऊ वापसी की ट्रेन है। गरीब-नवाज़ है। कूपे में अजमेर से अकेला हूं। अजमेर छूट रहा है। जयपुर से बाटनी के प्रोफ़ेसर स्वर्णकार श्रीमती स्वर्णकार के साथ आ गए हैं हैं। इधर-उधर की बातचीत है। बबूल की चुभन की उन से बात करता हूं। वह कहते हैं कि हां बहुत सारा डेज़र्ट है तो। बात जयपुर के गुलाबीपन की होती है। बात ही बात में वह बताते हैं कि राजस्थान के बाकी हिस्से तो कंगाल हैं। खास कर मेवाड़ वगैरह। लड़-भिंड़ कर खजाना खाली कर दिया। वह जैसे तंज़ पर आ जाते हैं और कहते हैं कि पर जयपुर के राजा लोग लड़ने-भिड़ने में कभी यकीन नहीं किए। चाहे जय सिंह रहे हों या मान सिंह। मुगल पीरियड रहा हो या ब्रिटिश पीरियड। सो खज़ाना हमेशा भरा रहा। वह हंसते हैं। उन के बच्चे सेटिल्ड हो गए हैं और वह हरिद्वार जा रहे हैं। शाम को हरकी पैड़ी पर आरती का आनंद लेने की योजना बना रहे हैं। राजस्थान छूट रहा है धीरे-धीरे। हरियाणा आ रहा है। हरियाणा छूट रहा है। दिल्ली आ रहा है। प्रोफ़ेसर स्वर्णकार को दिल्ली में ट्रेन बदलनी है। वह उतर जाते हैं। एक जैन साहब आ जाते हैं। व्यापारी हैं। खाना हम दोनों खा रहे हैं। वह घर का लाया खाना खा रहे हैं। बता रहे हैं कि बाहर का खाना नहीं खाते वह। लहसुन प्याज वाली दिक्कत है। अमरीका तक में वह महीने भर रहे पर बचा गए। देशी घी वाला खाना है, बताना नहीं भूलते वह। अब दिल्ली छूट रही है। जाते वक्त ट्रेन आगरा के रास्ते राजस्थान ले गई थी, भरतपुर, बांदीकुई वगैरह होती हुई जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा। अब की राजस्थान छूटा अलवर होते हुए, हरियाणा, दिल्ली के रास्ते। सोते हुए। गए थे जागते हुए। भरतपुर में तब नींद टूटी थी। अब की वापसी में शाहजहांपुर में टूटी है। कुछ परिवार हैं जो अजमेर से लौटे हैं सबाब ले कर। उतरते वक्त खामोशी के बजाय हलचल मचाते हुए उतर रहे हैं। भोर के पौने तीन बजे हैं। लोग उतर रहे हैं। सोए हुए बच्चों और सामान को हाथ में लिए हुए। सवाब का सुकुन चेहरे पर है ज़रुर पर बोल रहे हैं कि अपना मुल्क ही अपना मुल्क होता है। अपने मुल्क की बात ही कुछ और है। तो क्या अजमेर उन का दूसरा मुल्क था? क्या रघुवीर सहाय इसी लिए, इसी तलाश और तनाव में लिख गए हैं दिल्ली मेरा परदेस ! याद आता है कि साक्षी के कार्यक्रम में रोमिला ने स्त्रियों के संदर्भ में एक वाकया सुनाया था। कि एक कुम्हार घड़ा बना रहा था। घडा़ बनाते-बनाते वह किन्हीं खयालों में खो गया। कि तभी मिट्टी बोली कुम्हार-कुम्हार यह क्या कर रहे हो? घड़े की जगह मुझे सुराही क्यों बना रहे हो? कुम्हार ने कहा कि माफ़ करना मेरा विचार बदल गया। मिट्टी तकलीफ़ से भर कर बोली तुम्हारा तो सिर्फ़ विचार बदला, पर मेरी तो दुनिया बदल गई।

तो यहां अजमेर से शाहजहांपुर की यात्रा में इन लोगों का मुल्क बदल गया। अपने मुल्क आने की खुशी में वह लोग भूल गए कि हमारे जैसे लोगों की नींद भी टूट गई है। बशीर बद्र याद आ गए हैं :
वही ताज है, वही तख़्त है, वही ज़हर है, वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है, ये वही बुतों का निज़ाम है

वापस जा कर सोने की कोशिश करता हूं। सोने में ट्रेन कहीं लखनऊ से आगे न निकल जाए, यह सोच कर सो नहीं पाता हूं। पर कब सो गया पता नहीं चला। आगे की यात्रा करने वाले लोग आ गए हैं। नींद उन के आने से टूट गई है। सुबह हो गई है। लखनऊ आ गया है। गरीब-नवाज़ छूट रही है। आमीन !

Thursday, 20 September 2012

कई बार यूं ही देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है

ओह ! मेरे पसंदीदा अभिनेता रहे हैं दिनेश ठाकुर जी !

रजनीगंधा में उन पर फ़िल्माया गया वह गीत भी मेरा पसंदीदा गीत है। कई बार यूं ही देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है, मन तोड़ने लगता है अनजानी प्यास के पीछे, अनजानी आस के पीछे.., मन दौड़ने लगता है.... इस गीत में बेपरवाही से उन का सिगरेट पीना, और विद्या सिनहा का हाथ छूने की बेपरवाह कोशिश... पर वह उन का हाथ तो क्या टैक्सी की सीट पर पसरा पल्लू भी नहीं छू पाते, मन भागता रहता है। जब-जब लगता है कि वह अब हाथ छूने में सफल हो रहे हैं तभी-तभी विद्या सिनहा अचानक हाथ उठा लेती हैं, अनायास ही। कई-कई बार ऐसा होता है। चलती टैक्सी में एक हाथ से सिगरेट पीते और दूसरे हाथ से हवा से रह-रह लहराते विद्या सिनहा के आंचल और हाथ को बार-बार छूने की उन की कोशिश का वह अछूता और अनूठा अभिनय अभी भी संकोच की उस इबारत को मन से उतरने नहीं देता। पहले प्यार की आकुलता आदमी को कैसे तो भला जीवन भर आग के हवाले किए रहती है। कि आदमी एक स्पर्श भर की प्यास लिए आजीवन उस की आग में तिल-तिल कर जलता रहता है। मुकेश के गाए इस गाने में दिनेश ठाकुर ने इसी आग को जिया था। पूरे संकोच और पूरी शिद्दत के साथ। जो भुलाए नहीं भूलती। मन्नू भंडारी की कहानी यही सच है पर बनी बासु चटर्जी निर्देशित इस फ़िल्म के नायक भले अमोल पालेकर थे पर याद तो दिनेश ठाकुर, विद्या सिनहा और यह गाना ही रहा। उन के सिगरेट पीने का वह अंदाज़ जैसे मन में कई-कई तनाव के तार बो देता था। यह सत्तर का दशक था। सत्तर के दशक का आखिर ! सिगरेट, मुकेश का गाया वह गाना और दिनेश ठाकुर का वह बेतकल्लुफ़ अंदाज़ ! उन की वह मासूम अदा हमें भी तब भिगो देती और सिगरेट के धुएं में हम भी अपनी जानी-अनजानी आग और अपनी जानी-अनजानी प्यास के पीछे भागने से लगते। मन की सीमा टूटने सी लगती। बार-बार टूटती।

रजनीगंधा के बाद वह फिर दिखे घर में रेखा और विनोद मेहरा के साथ। सामूहिक बलात्कार की शिकार रेखा के इलाज के लिए एक संवेदनशील डाक्टर के रुप में। फिर रेखा, ओम पुरी और नवीन निश्चल के साथ आस्था में। जितनी कम फ़िल्में उन के पास हैं, उतने ही कम दृष्य भी उन के पास फ़िल्म में होते थे। पर सीमित और संक्षिप्त भूमिका में भी वह प्राण फूंक देते थे। थिएटर उन का फ़र्स्ट लव था। इसी लिए वह फ़िल्में कम करते थे।' थिएटर में ‘जिन लाहौर नही वेख्या’ से वह चर्चा के शिखर पर आ गए थे। हो सकता है कि उन को बहुत कम लोग जानते हों पर हमारे जैसे थोड़े से जो लोग उन्हें जानते है, दिल से जानते हैं। अभी जब उन के निधन की खबर मिली तो दिल धक से रह गया।

कई बार यूं ही देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है का तनाव जीते हुए ही हम जवान हुए थे। आज अधेड़ होने पर भी यह गाना जब कभी सुनने को मिल जाता है तब भी सचमुच मन फिर से अनजानी प्यास और अनजानी आस के पीछे दौड़ने लगता है और एक तनाव-तंबू मन में पसर जाता है। उन को हमारी भावपूर्ण श्रद्धांजलि !

Friday, 7 September 2012

अरविंद कुमार की जीवन यात्रा देख कर मन में न सिर्फ़ रोमांच उपजता है बल्कि आदर भी

दयानंद पांडेय 

: बाल श्रमिक से शब्‍दाचार्य तक की यात्रा : हम नींव के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते। सचमुच अरविंद कुमार नाम की धूम हिंदी जगत में उस तरह नहीं है जिस तरह होनी चाहिए। लेकिन काम उन्होंने कई बड़े-बड़े किए हैं। हिंदी जगत के लोगों को उन का कृतज्ञ होना चाहिए। दरअसल अरविंद कुमार ने हिंदी थिसारस की रचना कर हिंदी को जो मान दिलाया है, विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं के समकक्ष ला कर खड़ा किया है, वह न सिर्फ़ अद्भुत है बल्कि स्तुत्य भी है।

अरविंद कुमार अपनी पत्‍नी कुसुम कुमार के साथ
कमलेश्वर उन्हें शब्दाचार्य कहते थे। हिंदी अकादमी, दिल्ली ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान के लिए वर्ष 2010-2011 की हिंदी अकादमी शलाका सम्मान से सम्मानित करने का जो निर्णय आज लिया है, वास्तव में यह बहुत पहले ले लिया जाना चाहिए था। अरविंद कुमार ने 81 वर्ष की उम्र के इस पड़ाव पर भी खामोशी अख्तियार नहीं की है। वह लगातार काम पर काम किए जा रहे हैं। नया काम उनका अरविंद लैक्सिकन है। आजकल हर कोई कंप्यूटर पर काम कर रहा है। किसी के पास न तो इतना समय है न धैर्य कि कोश या थिसारस के भारी भरकम पोथों के पन्ने पलटे। आज चाहिए कुछ ऐसा जो कंप्यूटर पर हो या इंटरनेट पर। अभी तक उनकी सहायता के लिए कंप्यूटर पर कोई हैंडी और तात्कालिक भाषाई उपकरण या टूल नहीं था। अरविंद कुमार ने यह दुविधा भी दूर कर दी है। अरविंद लैक्सिकन दे कर। यह ई-कोश हर किसी का समय बचाने के काम आएगा।

अरविंद लैक्सिकन पर 6 लाख से ज्यादा अंगरेज़ी और हिंदी अभिव्यक्तियां हैं। माउस से क्लिक कीजिए - पूरा रत्नभंडार खुल जाएगा। किसी भी एक शब्द के लिए अरविंद लैक्सिकन इंग्लिश और हिंदी पर्याय, सपर्याय और विपर्याय देता है, साथ ही देता है परिभाषा, उदाहरण, संबद्ध और विपरीतार्थी कोटियों के लिंक। उदाहरण के लिए सुंदर शब्द के इंग्लिश में 200 और हिंदी में 500 से ज्यादा पर्याय हैं। किसी एकल इंग्लिश ई-कोश के पास भी इतना विशाल डाटाबेस नहीं है। लेकिन अरविंद लैक्सिकन का सॉफ्टवेयर बड़ी आसानी से शब्द कोश, थिसारस और मिनी ऐनसाइक्लोपीडिया बन जाता है। इसका पूरा डाटाबेस अंतर्सांस्कृतिक है, अनेक सभ्यताओं के सामान्य ज्ञान की रचना करता है। शब्दों की खोज इंग्लिश, हिंदी और रोमन हिंदी के माध्यम से की जा सकती है। रोमन लिपि उन सब को हिंदी सुलभ करा देती है जो देवनागरी नहीं पढ़ सकते या टाइप नहीं कर सकते।

अरविंद लैक्सिकन को माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के साथ-साथ ओपन ऑफ़िस में पिरोया गया है। इसका मतलब है कि आप इनमें से किसी भी एप्लीकेशन में अपने डॉक्यूमेंट पर काम कर सकते हैं। सुखद यह है कि दिल्ली सरकार के सचिवालय ने अरविंद लैक्सिकन को पूरी तरह उपयोग में ले लिया है। अरविंद कहते हैं कि शब्द मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है, प्रगति के साधन और ज्ञान-विज्ञान के भंडार हैं, शब्दों की शक्ति अनंत है। वह संस्कृत के महान व्याकरणिक महर्षि पतंजलि को कोट करते हैं, 'सही तरह समझे और इस्तेमाल किए गए शब्द इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं।' वह मार्क ट्वेन को भी कोट करते हैं, 'सही शब्द और लगभग सही शब्द में वही अंतर है जो बिजली की चकाचौंध और जुगनू की टिमटिमाहट में होता है।' वह बताते हैं, 'यह जो सही शब्द है और इस सही शब्द की ही हमें अकसर तलाश रहती है।'

दरअसल इसके लिए भाषाई उपकरण बनाने का काम भारत में हजारों साल पहले ही शुरू हो गया था। जब प्रजापति कश्यप ने वैदिक शब्दों का संकलन 'निघंटु' बनाया और बाद में महर्षि यास्क ने संसार का सब से पहला ऐनसाइक्यलोपीडिक कोश 'निरुक्त' बनाया। इसे पराकाष्ठा पर पहुंचाया छठी-सातवीं शताब्दी में अमर सिंह ने 'अमर कोश' के द्वारा। और 1996 में जब समांतर कोश नाम से हिंदी थिसारस नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया तो हिंदी में बहुतेरे लोगों की आंखें फैल गईं। क्यों कि हिंदी में बहुत सारे लोग थिसारस के कंसेप्ट से ही वाकिफ़ नहीं थे। और अरविंद कुमार चर्चा में आ गए थे। वह फिर चर्चा में आए हिंदी-अंगरेज़ी थिसारस तथा अंगरेज़ी-हिंदी थिसारस और भारत के लिए बिलकुल अपना अंगरेज़ी थिसारस के लिए। इसे पेंग्विन ने छापा था। अब वह फिर चर्चा में हैं अरविंद लैक्सिन तथा हिंदी अकादमी शलाका सम्मान से सम्मानित हो कर।

उम्र के 81वें वसंत में अरविंद कुमार इन दिनों कभी अपने बेटे डॉक्टर सुमीत के साथ पांडिचेरी में रहते हैं तो कभी गाज़ियाबाद में। इन दिनों वह गाज़ियाबाद में हैं। अरविंद कुमार को कड़ी मेहनत करते देखना हैरतअंगेज ही है। सुबह 5 बजे वह कंप्यूटर पर बैठ जाते हैं। बीच में नाश्ता, खाना और दोपहर में थोड़ी देर आराम के अलावा वह रात तक कंप्यूटर पर जमे रहते हैं। उम्र के इस मोड़ पर इतनी कड़ी मेहनत लगभग दुश्वार है। लेकिन अरविंद कुमार पत्नी कुसुम कुमार के साथ यह काम कर रहे हैं। समांतर कोश पर तो वह पिछले 35-36 सालों से लगे हुए थे। अरविंद हमेशा कुछ श्रेष्ठ करने की फ़िराक़ में रहते हैं।

एक समय टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप से प्रकाशित फ़िल्म पत्रिका माधुरी के न सिर्फ़ वह संस्थापक संपादक बने, उसे श्रेष्ठ फ़िल्मी पत्रिका भी बनाया। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप से ही प्रकाशित अंगरेज़ी फ़िल्म पत्रिका फ़िल्म फेयर से कहीं ज़्यादा पूछ तब माधुरी की हुआ करती थी। माया नगरी मुंबई में तब शैलेंद्र और गुलज़ार जैसे गीतकार, किशोर साहू जैसे अभिनेताओं से उन की दोस्ती थी और राज कपूर सरीखे निर्माता-निर्देशकों के दरवाजे़ उन के लिए हमेशा खुले रहते थे। कमलेश्वर खुद मानते थे कि उन का फ़िल्मी दुनिया से परिचय अरविंद कुमार ने कराया। और वह मशहूर पटकथा लेखक हुए। ढेरों फ़िल्में लिखीं। बहुत कम लोग जानते हैं कि अमिताभ बच्चन को फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार के लिए अरविंद कुमार ने ही नामित किया था। न सिर्फ़ इतना बल्कि ख्वाज़ा अहमद अब्बास की फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के लिए स्क्रीन टेस्ट में अरविंद कुमार ने ही अमिताभ बच्चन को चुना था।

तो ऐसी माया नगरी और ग्लैमर की ऊभ-चूभ में डूबे अरविंद कुमार ने हिंदी थिसारस तैयार करने के लिए 1978 में 16 साल की माधुरी की संपादकी की नौकरी छोड़ दी। मुंबई छोड़ दी। चले आए दिल्ली। लेकिन जल्दी ही आर्थिक तंगी ने मजबूर किया और खुशवंत सिंह की सलाह पर अंतरराष्ट्रीय पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संस्थापक संपादक हुए। जब सर्वोत्तम निकलती थी तब अंगरेज़ी के रीडर्स डाइजेस्ट से ज़्यादा धूम उस की थी। लेकिन थिसारस के काम में फिर बाधा आ गई। अंततः सर्वोत्तम छोड़ दिया। अब आर्थिक तंगी की भी दिक्कत नहीं थी। डॉक्टर बेटा सुमीत अपने पांव पर खड़ा था और बेटी मीता लाल दिल्ली के इरविन कॉलेज में पढ़ाने लगी थी।

अरविंद कुमार कहते हैं कि थिसारस हमारे कंधे पर बैताल की तरह सवार था, पूरा तो इसे करना ही था। बाधाएं बहुत आईं। एक बार दिल्ली के मॉडल टाउन में बाढ़ आई। पानी घर में घुस आया। थिसारस के लिए संग्रहित शब्दों के कार्डों को टांड़ पर रख कर बचाया गया। बाद में बेटे सुमीत ने अरविंद कुमार के लिए न सिर्फ़ कंप्यूटर ख़रीदा बल्कि एक कंप्यूटर ऑपरेटर भी नौकरी पर रख दिया। डाटा इंट्री के लिए। थिसारस का काम निकल पड़ा। काम फ़ाइनल होने को ही था कि ठीक छपने के पहले कंप्यूटर की हार्ड डिस्क ख़राब हो गई। लेकिन गनीमत कि डाटा बेस फ्लापी में कॉपी कर लिए गए थे। मेहनत बच गई। और अब न सिर्फ़ थिसारस के रूप में समांतर कोश बल्कि शब्द कोश और थिसारस दोनों ही के रूप में अरविंद सहज समांतर कोश भी हमारे सामने आ गया। हिंदी-अंगरेज़ी थिसारस भी आ गया।

अरविंद न सिर्फ़ श्रेष्ठ रचते हैं बल्कि विविध भी रचते हैं। विभिन्न देवी-देवताओं के नामों वाली किताब शब्देश्वरी की चर्चा अगर यहां न करें तो ग़लत होगा। गीता का सहज संस्कृत पाठ और सहज अनुवाद भी सहज गीता नाम से अरविंद कुमार ने किया और छपा। शेक्सपियर के जूलियस सीजर का भारतीय काव्य रूपांतरण विक्रम सैंधव नाम से किया। जिसे इब्राहिम अल्काज़ी जैसे निर्देशक ने निर्देशित किया। गरज यह कि अरविंद कुमार निरंतर विविध और श्रेष्ठ रचते रहे हैं। एक समय जब उन्होंने सीता निष्कासन कविता लिखी थी तो पूरे देश में आग लग गई थी। सरिता पत्रिका जिस में यह कविता छपी थी देश भर में जलाई गई। भारी विरोध हुआ। सरिता के संपादक विश्वनाथ और अरविंद कुमार दसियों दिन तक सरिता दफ़्तर से बाहर नहीं निकले। क्यों कि दंगाई बाहर तेजाब लिए खड़े थे। सीता निष्कासन को ले कर मुकदमे भी हुए और आंदोलन भी। लेकिन अरविंद कुमार ने अपने लिखे पर माफी नहीं मांगी। न अदालत से, न समाज से। क्यों कि उन्होंने कुछ ग़लत नहीं लिखा था। एक पुरुष अपनी पत्नी पर कितना संदेह कर सकता है, सीता निष्कासन में राम का सीता के प्रति वही संदेह वर्णित था। तो इस में ग़लत क्या था? फिर इस के सूत्र बाल्मीकी रामायण में पहले से मौजूद थे।

अरविंद कुमार जितना जटिल काम अपने हाथ में लेते हैं, निजी जीवन में वह उतने ही सरल, उतने ही सहज और उतने ही व्यावहारिक हैं। तो शायद इस लिए भी कि उन का जीवन इतना संघर्षशील रहा है कि कल्पना करना भी मुश्किल होता है कि कैसे यह आदमी इस मुकाम पर पहुंचा। कमलेश्वर अरविंद कुमार को शब्दाचार्य ज़रूर कह गए हैं। और लोग सुन चुके हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि अमरीका सहित लगभग आधी दुनिया घूम चुके यह अरविंद कुमार जो आज शब्दाचार्य हैं, एक समय बाल श्रमिक भी रहे हैं। हैरत में डालती है उन की यह यात्रा कि जिस दिल्ली प्रेस की पत्रिका सरिता में छपी सीता निष्कासन कविता से वह चर्चा के शिखर पर आए उसी दिल्ली प्रेस में वह बाल श्रमिक रहे।

वह जब बताते हैं कि लेबर इंस्पेक्टर जांच करने आते थे तो पिछले दरवाज़े से अन्य बाल मज़दूरों के साथ उन्हें कैसे बाहर कर दिया जाता था तो उन की यह यातना समझी जा सकती है। अरविंद उन लोगों को कभी नहीं समझ पाते जो मानवता की रक्षा की ख़ातिर बाल श्रमिकों पर पाबंदी लगाना चाहते हैं। वह पूछते हैं कि अगर बच्चे काम नहीं करेंगे तो वे और उन के घर वाले खाएंगे क्या?वह कहते हैं कि बाल श्रम की समस्या का निदान बच्चों को काम करने से रोकने में नहीं है, बल्कि उन के मां बाप को इतना समर्थ बनाने में है कि वे उन से काम कराने के लिए विवश न हों। तो भी वह बाल मजदूरी करते हुए पढ़ाई भी करते रहे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अंगरेज़ी में एम. ए. किया। और इसी दिल्ली प्रेस में डिस्ट्रीब्यूटर, कंपोजिटर, प्रूफ रीडर, उप संपादक, मुख्य उप संपादक और फिर सहायक संपादक तक की यात्रा अरविंद कुमार ने पूरी की। और कैरवां जैसी अंगरेज़ी पत्रिका भी निकाली। सरिता, मुक्ता, चंपक तो वह देखते ही थे। सचमुच अरविंद कुमार की जीवन यात्रा देख कर मन में न सिर्फ़ रोमांच उपजता है बल्कि आदर भी। तिस पर उन की सरलता, निश्छलता और बच्चों सी अबोधता उन की विद्वता में समुंदर सा इज़ाफा भरती है। यह एक विरल संयोग ही है कि अरविंद उसी मेरठ में जन्मे हैं जहां खड़ी बोली यानी हिंदी जन्मी। अरविंद कुमार से सम्‍पर्क मोबाइल नम्‍बर 09716116106 या मेल आईडी samantarkosh@gmail.com के जरिए किया जा सकता ह

धृतराष्ट्र, मगध और अन्ना

आप को याद होगा कि पांडवों ने कौरवों से आखिर में सिर्फ़ पांच गांव मांगे थे जो उन्हें नहीं मिले थे। उलटे लाक्षागृह और अग्यातवास वगैरह के पैकेज के बाद युद्ध क्या भीषण युद्ध उन्हें लड़ना पडा था। अपनों से ही अपनों के खिलाफ़ युद्ध लड़ना कितना संघातिक तनाव लिए होता है, हम सब यह जानते हैं।

तो क्या अब हम एक अघोषित युद्ध की ओर बढ रहे हैं? आखिर अन्ना और उन की टीम जो कह रही है, जनता उस को सुन रही है, गुन रही है। दस दिन से दिन रात एक किए हुई है और अपनी सरकार समय की दीवार पर लिखी इबारत को क्यों नहीं पढ पा रही है, इसे जानना कोई मुश्किल काम नहीं है। लोग अन्ना नाम की टोपी पहने घूमने लगे हैं। अभी एक दिन एक लतीफ़ा चला कि आज सुबह मनमोहन सिंह भी एक टोपी लगाए घूमते पाए गए। इस टोपी पर लिखा था मैं अंधा हूं। तो एक सच यह भी है कि मनमोहन सिंह नाम का यह प्रधानमंत्री इन दिनों धृतराष्ट्र में तब्दील है। नहीं, जो मनमोहन सिंह एक समय अमरीका से परमाणु समझौते खातिर वाम मोर्चे का समर्थन खो कर अपनी सरकार को दांव पर लगाने की हद तक चला गया था, वही मनमोहन सिंह अब लोकपाल पर सर्वदलीय समर्थन की टोपी लगा कर देश की जनता के साथ छ्ल की बिसात बिछा कर संसदीय मर्यादाओं की दुहाई देता घूम रहा है तो ज़रा नहीं पूरा अफ़सोस होता है।

अन्ना ने जब लोकपाल पर अप्रैल में जंतर मंतर पर अनशन किया था तब तो इसी मनमोहन सरकार ने संवेदनशीलता का परिचय देते हुए रातोरात अध्यादेश जारी कर दिया था। पर बाद के दिनों में यही सरकार शकुनि चाल के फंदे में लगातार अनेक लाक्षागृह निर्माण करने में युद्ध स्तर पर लग गई। कपिल सिब्बल, सुबोधकांत टाइप के अश्वमेधी अश्व भी छोड़े। और लोकपाल की बैठकों के बीच में ही अन्ना टीम अपने को छला हुआ महसूस करने लगी। इस छल को कांग्रेस ने छुपाया भी नहीं। असल में इस बीच एक और बिसात बिछ गई। यह बिसात भाजपा की थी। इस चाल में बहुत आहिस्ता से भाजपा ने कांग्रेस को महसूस करवाया कि सिविल सोसायटी को अगर इसी तरह सिर पर बिठाया गया तो संसद और संसदीय गरिमा और उस की शक्ति का, उस के विशेषाधिकार और उस की सर्वोच्चता का क्या होगा?

कांग्रेस इस फंदे में बहुत आसानी से आ गई। ठीक वैसे ही जैसे बहेलिए के जाल में कोई कबूतर या कोई चिड़िया आ जाय। यहां भाजपा ने जाल के नीचे संसद की अस्मिता का दाना डाल रखा था। कांग्रेस को यह दाना मुफ़ीद लगा। जाल नहीं देख पाई। और फिर धीरे-धीरे इस संसदीय अस्मिता के दाने की आस में देश की सभी राजनीतिक पार्टियां फंसती गईं। भाजपा का काम हो गया था। कांग्रेस अब जनता के सीधे निशाने पर थी। कांग्रेस को अपने छले जाने और भाजपा के जाल का एहसास तो हुआ पर अब तक बहुत देर हो चुकी थी।

अचानक रंगमंच पर महत्वोन्माद की बीमारी के मारे योग के मल्टीनेशनल व्यापारी रामदेव ने एंट्री ले ली। उन को लगा कि जैसे वह योग के नाम पर अपने अनुयायियों की आंख में धूल झोंक कर अपना व्यवसाय दिन दूना रात चौगुना कर गए हैं वैसे ही वह देश की बहुसंख्य जनता को भी फांस लेंगे। रामलीला मैदान में उन्हों ने अपनी दुकान सजा ली। रामलीला मैदान को जैसे शापिंग माल में कनवर्ट कर बैठे वह। मनमोहन सरकार इसी फ़िराक में थी। पहले रामदेव की पतंग को वह शिखर तक ले गई फिर लंबी ढील दी और अंतत: उन की ओर से बालकृष्ण की लिखी चिट्ठी सार्वजनिक कर उन की मिट्टी पलीद कर दी। बताया कि रामदेव भाजपा और आर.एस.एस. के इशारे पर काम कर रहे हैं। और आधी रात बिजली काट कर रामदेव की रही सही कसर भी निकाल दी।

रामदेव की पतंग काटने की बजाय उन के हाथ से चर्खी ही छीन ली। उन को औरतों की सलवार कमीज पहन कर भागना पडा। जिस को नहीं करना था उस ने भी कांग्रेस की थू-थू की। लेकिन कांग्रेस और उस के टामियों को लगा कि उन्हों ने न सिर्फ़ मैदान मार लिया बल्कि आने वाले दिनों में संभावित आंदोलनों का मंसूबा बांधने वालों के लिए एक बडी लक्ष्मण रेखा भी खींच दी है कि कोई अब हिम्मत भी नहीं कर पाएगा। चाहे पेट्रोल के दाम बढें या दूध के, जनता भी चूं नहीं करेगी। तो जब अन्ना ने १६ अगस्त से अनशन पर जाने की हुंकार भरी तो कांग्रेस को लगा कि वह फ़ूंक मार कर चींटी की तरह उन्हें भी उडा देगी।

कोशिश यही की भी। पहले के दिनों में राजा जब लडाई लडते थे तो जब देखते थे कि वह हार जाएंगे या मारे जाएंगे तो अपने आगे एक गाय खडी कर लेते थे। उन की रक्षा हो जाती थी। गो हत्या के डर से अगला उस पर वार नहीं करता था। तो इन दिनों जब कांग्रेस या सो काल्ड सेक्यूलर ताकतों को जब कोई बचाव नहीं मिलता तो वह भाजपा और आरएसएस नाम की एक गाय सामने रख देते हैं कि अरे इस के पीछे तो भाजपा है, आर.एस.एस है।जैसे कभी हर गलती को छुपाने के लिए सी.आई.ए. का जाप करती थीं। सो बहुत सारे लोग इसी भाजपा, आर.एस.एस. परहेज में उस प्रकरण से अपने को अलग कर लेते हैं।

कांग्रेस या सो काल्ड सेक्यूलर लोगों का आधा काम यों ही आसान हो जाता है। रामदेव और अन्ना हजारे के साथ भी कांग्रेस ने यही नुस्खा आजमाया। रामदेव तो दुकानदार थे पिट कर चले गए। उन को पहले कोई यह बताने वाला नहीं था कि दुकानदारी और आंदोलन दोनों दो चीज़ें हैं। पर वृंदा करात वाले मामले में वह कुछ चैनलों और मीडिया को पेड न्यूज की हवा में अरेंज कर मैनेज कर 'हीरो' बन गए थे तो उन का दिमाग खराब हो गया था, महत्वाकांक्षाएं पेंग मारने लगी थीं। लेकिन झूला उलट गया। होश ठिकाने आ गए हैं अब उन के। और जो अब वह कभी-कभी इधर-उधर बंदरों की तरह उछल-कूद करते दिख जाते हैं तो सिर्फ़ इस लिए कि मह्त्वोन्माद की बीमारी का उन के अभी ठीक से इलाज होना बाकी है अभी। और यह औषधि उन्हें कोई आयुर्वेदाचार्य ही देगा यह भी तय है। एलोपैथी के वश के वह हैं नहीं।

खैर कांग्रेस और उस के टामियों ने तमाम भूलों में एक बड़ी भूल यह की कि अन्ना को भी उन्होंने रामदेव का बगलगीर मान लिया। और टूट पड़े सारा राशन-पानी ले कर। नहा-धो कर। अन्ना की चिट्ठी का जवाब भी जो कहते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर की तर्ज़ में राजनीतिक भाषा और संसदीय मर्यादा से पैदल प्रवक्ता मनीष तिवारी से दिलवाया। बिल्कुल बैशाखनंदनी व्याख्या में 'तुम अन्ना हजारे!' की शब्दावली में। गोया अन्ना, अन्ना नहीं दाउद के हमराह हों! अब की बार पहला तारा यहीं टूटा। हाय गजब कहीं तारा टूटा के अंदाज़ में। दूसरे दिन सरकार ने धृतराष्ट्र के अंदाज में अन्ना को गिरफ़्तार कर लिया।

और फिर आए कैम्ब्रिज, आक्सफ़ोर्ड के पढे लिखे चिदंबरम, कपिल सिब्बल और अंबिका सोनी जैसे लोग। सरलता का जटिल मुखौटा लगाए। फिर यह वकील टाइप नेता मंत्री लोग जैसे कचहरी के दांव-पेंच में मुकदमे निपटाते, उलझाते हैं, उसी दांव-पेंच को अन्ना के साथ भी आज़माने लगे। पर अन्ना ठहरे मजे हुए सत्याग्रही।उन के आगे इन वकीलों की दांव पेंच खैर क्या चलती? तो भी वह चलाते तो रहे ही। क्या तो जो भी कुछ हुआ, किया दिल्ली पुलिस ने और कि वही जाने। कहां हैं अन्ना? सवाल का जवाब भी गृहमंत्री ने इस अंदाज़ में दिया गोया वह गृहमंत्री नहीं कोई मामूली प्रवक्ता हो। और बताया कि यह भी उन्हें नहीं मालूम। कपिल सिब्बल ने फिर आर. एस.एस. और भाजपा की टेर लगाई।

पर जब शाम तक तक लोग तिहाड पहुंचने लगे तो देश की जनता समझ गई। यह बात चिल्ला चिल्ला कर एक ही खबर दिन रात दिखाने वाले चैनल समझ गए पर सरकार नहीं समझी।पर दूसरे दिन जब बाकायदा तिहाड ही धरनास्थल हो गया तो हफ़्ते भर का रिमांड भूल सरकार ने रिहा कर दिया अन्ना को। अब अन्ना ने सरकार को गिरफ़्तार किया। ऐसा खबरिया चैनलों ने चिल्ला चिल्ला कर कहा भी। अन्ना ने कहा कि बिना शर्त रिहा होंगे। और फिर ्सरकार को घुटने टिकवाते हुए जेल से बाहर निकले। भरी बरसात मे बरास्ता गांधी समाधि रामलीला मैदान। अपनी दौड से सब को चकित करते हुए। अब देश की जनता थी और अन्ना थे। रामलीला मैदान ही नहीं देश भर में मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना और वंदे मातरम की गूंज में नहाया हुआ।

अब शुरू हुआ देश के बुद्धिजीवियों का खोखलापन। अरुंधती राय से लगायत अरुणा राय तक खम ठोंक कर अन्ना का मजाक उडाती हुई खडी हो गईं। और यह देखिए सारे दलित चिंतक एक सुर में गाने लगे कि यह तो अपर कास्ट का आंदोलन है। और कि संविधान विरोधी भी। बैकवर्ड चिंतकों ने भी राग में राग मिलाया और बताया कि इस आंदोलन में तो वही वर्ग शामिल है जो आरक्षण के विरोध में झाडू लगा रहा था, पालिस लगा रहा था। यह भी संविधान विरोधी की तान बताने लगे। [तो क्या यह दलित और पिछड़े इस अन्ना की आंधी से इस कदर डर गए हैं कि उन को लगने लगा है कि आरक्षण की जो मलाई वह काट रहे हैं संविधान में वर्णित मियाद बीत जाने के बाद भी राजनीतिक तुष्टीकरण की आंच में, एक्स्टेंशन दर एक्स्टेंशन पा कर, कभी उस पर भी हल्ला बोल सकती है यह अन्ना की जनता? सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सरकार से इस पर जवाब मांगा भी है।]

खैर, सरकार अपने मनमोहनी राग में धृतराष्ट्र की राह चलती भैंस की तरह पगुराती रही। भाजपा ने तरकश से तीर निकाले जो दोमुहे थे। वह अन्ना आंदोलन का खुल कर समर्थन करती हुई जन लोकपाल से असहमति का दूध भी धीमी आंच पर गरमाती रही। कि चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी।कांग्रेस ने अन्ना को बढते जनसमर्थन को देखते हुए एक दिन राग दरबारी गाना छोड़ कर राग अन्ना गाने का रियाज़ किया। भाजपा ने उसे फिर से संसदीय परंपरा और और संसद की सर्वोच्चता की अफ़ीम सुंघाई।

सरकार फिर रुआब और संसद की सर्वोच्चता के नशे में झूम गई है। और सारी राजनीतिक पार्टियां अब एक ही राग में न्यस्त होकर यह साबित करने में लग गई हैं गोया अन्ना देश के लिए खास कर संसद के लिए, संसदीय जनतंत्र के लिए भारी बोझ बन गए हैं। सभी कमोबेश यह साबित करने में लग गए हैं कि अन्ना तो बहुत अच्छे आदमी हैं पर उन की मांगें और जनलोकपाल की उन की जिद देश को डुबो देगी। अन्ना उन्हें लुटेरा बताते हुए काला अंगरेज बता रहे हैं। वह तो कह रहे हैं कि प्रशंसा में भी धोखा होता है। पर सरकार है कि उन्हें गिव एंड टेक का रुल समझाते हुए ऐसे पेश आ रही हो गोया सरकार एंपलायर हो और अन्ना उस के कर्मचारी। कि आओ इतना नहीं, इतना परसेंट बोनस ले लो और छुट्टी करो। याद कीजिए ऐसे ही दबावों, समझौतों और प्रलोभनों में पिसते-पिसते देश से ट्रेड यूनियनों का कोई नामलेवा नहीं रह गया। यही हाल जनांदोलनों का भी हुआ है। अब ज़माने बाद कोई जनान्दोलन आंख खोल कर हमारे सामने उपस्थित है तो इसे अपर कास्ट और संविधान विरोधी या संसदीय सर्वोच्चता से जोड़ कर इसे कुंद नहीं कीजिए। समय की दीवार पर लिखी इबारत को पढिए। कि यह सिर्फ़ अन्ना की ज़िद नहीं है, महंगाई और भ्रष्टाचार की चक्की में पिसती जनता की चीत्कार है। यह हुंकार में बदले और आंदोलन हिंसा की तरफ मुड़े उस से पहले जनता की रिरियाहट भरी पुकार को सुनना ज़रूरी है, बेहद ज़रूरी। नहीं तो समूचा देश कहीं नक्सलवाणी या दंतेवाला में तब्दील हुआ तो उसे संभालना बहुत कठिन हो जाएगा। सारी संसदीय सर्वोच्चता बंगाल की खाड़ी में गोताखोरों के ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी। बिला जाएगी।

संसद को संसद ही रहने दीजिए। जनता के माथे पर उसे बोझ बना कर बाप मत बनिए। उस पर आग मत मूतिए। रही बात भाजपा की तो उस को देख कर कभी जानी लीवर द्वारा सुनाया एक लतीफ़ा याद आता है। कि एक सज्जन थे जो अपने पड़ोसी रामलाल को सबक सिखाना चाहते थे। इस के लिए उन्हों ने अपने एक मित्र से संपर्क साधा और कहा कि कोई ऐसी औरत बताओ जिस को एड्स हो। उस के साथ मैं सोना चाहता हूं। मित्र ने कहा कि इस से तो तुम्हें भी एड्स हो जाएगा। जनाब बोले यही तो मैं चाहता हूं। मित्र ने पूछा ऐसा क्यों भाई? जनाब बोले कि मुझे अपने पड़ोसी रामलाल को सबक सिखाना है।

मित्र ने पूछा कि इस तरह रामलाल को कैसे सबक सिखाओगे भला? जनाब बोले- देखो इस औरत के साथ मैं सो जाऊंगा तो मुझे एड्स हो जाएगा। फिर मैं अपनी बीवी के साथ सोऊंगा तो बीवी को एड्स हो जाएगा। मेरी बीवी मेरे बड़े भाई के साथ सोएगी तो बड़े भाई को एड्स हो जाएगा। फिर बड़ा भाई से भाभी को होगा और भाभी मेरे पिता जी के साथ सोएगी तो पिता जी को एड्स हो जाएगा। फिर मेरी मां को भी एड्स हो जाएगा। और जब पड़ोसी रामलाल मेरी मां के साथ सोएगा तो उस को भी एड्स हो जाएगा। तब उस को सबक मिलेगा कि मेरी मां के साथ सोने का क्या मतलब होता है!

तो अपनी यह भाजपा भी सत्ता में आने के लिए कांग्रेस को सबक सिखाना चाहती है हर हाल में। देश की कीमत पर भी। चाहे संसद मटियामेट हो जाए पर उस की सर्वोच्चता कायम रहनी चाहिए। भले काजू बादाम के दाम दाल बिके, पेट्रोल के दाम हर दो महीने बढते रहें, दूध के दाम और तमाम चीज़ों के दाम आसमान छुएं। इस सब से उसे कोई सरोकार नहीं। भले विपक्ष का काम अन्ना हजारे जैसे लोग करें इस से भी उसे कोई सरोकार नहीं। उसे तो बस कांग्रेस को सबक सिखाना है। रही बात कांग्रेस की तो उन के पास तो एक प्रधानमंत्री है ही, मैं अंधा हूं, की टोपी लगा कर घूमने वाला! जो देश की जनता को आलू प्याज भी नहीं समझता है। उसे बस देश के उद्योगपतियों और बेइमानों की तरक्की और जीडीपी की भाषा समझ में आती है।

श्रीकांत वर्मा की एक कविता मगध की याद आती है। उन्हों ने लिखा है कि, 'मगध में विचारों की बहुत कमी है।' सचमुच हमारा समूचा देश अब मगध में तब्दील है! यह देश का विचारहीन मगध में तब्दील होना बहुत खतरनाक है। और जब जनता की आवाज़ चुनी ही सरकार और चुने हुए लोग ही न सुनें तो फिर मुक्तिबोध जैसे कवि लिखने लगते हैं: 'कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई !' क्या यही देखना अब बाकी है?