Saturday, 28 September 2019

रामदेव शुक्ल से गोरखनाथ के बारे में सुनना

आचार्य रामदेव शुक्ल को सुनना सर्वदा एक अनुभव होता है। उन को सुने की अनगूंज मन में ऐसे बस जाती है कि फिर मन से , जीवन से जाती नहीं। हिंदी में इतनी तैयारी के साथ , इतनी सरलता और इतनी सतर्कता के साथ बहुत कम लोगों को सुना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को सुना है , अज्ञेय और नामवर सिंह को सुना है , अशोक वाजपेयी या फिर रामदेव शुक्ल को। तमाम लोगों की तरह रामदेव जी कभी भी इस डाल से उस डाल पर नहीं कूदते। अपने विषय पर पूरी तरह केंद्रित रहते हैं। भूल कर भी कभी सूत भर भी इधर-उधर नहीं होते। रामदेव जी आज उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ में हिंदी साहित्य पर नाथपंथ का प्रभाव विषय पर बोले। नाथ पंथ के बहाने गोरख पर भी खूब बोले। बताया कि शिव आदियोगी थे , कृष्ण योगेश्वर और गोरख महायोगी थे। गोरख के लिखे पद और उन के जीवन की चर्चा भी विस्तार से की। बताया कि गोरख और गोरक्ष एक ही हैं , अलग नहीं । ध्वनि और उच्चारण के अर्थ में बस अलग हैं। गोरख ने कैसे पाखंड और कुरीतियों को तार-तार किया। न सिर्फ उत्तर भारत बल्कि समूचे भारत में वह घूमे और अलख जगाया। गुजरात का अपना एक अनुभव जोड़ते हुए बताया कि वहां लोग गोरख को गोबरनाथ के रूप में भी जानते हैं।

किस्सा यह है कि गोरख के गुरु गुजरात के एक गांव से गुज़र रहे थे। एक नि:संतान स्त्री ने अपनी दुर्दशा बताई और कहा कि मुझे एक बेटा चाहिए। तो उस संन्यासी ने अपने झोले में से भभूत निकाल कर देते हुए कहा , इसे खा लो ! कोई बारह साल बाद वह संन्यासी उस गांव से लौट रहा था। तो उस औरत से पूछा , तुम्हारा बेटा कहां है , बुलाओ उसे। औरत ने कहा , मेरे बेटा कहां है ? तो संन्यासी ने पूछा कि वह भभूत क्या खाई नहीं ? औरत बोली , नहीं। तो संन्यासी ने पूछा , क्या किया ? औरत ने बताया कि उसे यहीं एक घूरे पर फेंक दिया था। संन्यासी ने घूरे के पास जा कर पुकारा और बारह साल का एक लड़का उस घूरे के गोबर से निकल आया। संन्यासी उसे ले कर चला गया। यही लड़का गोरखनाथ हुआ। जिसे गुजरात में लोग आज भी गोबरनाथ कहते हैं। जाने इस किस्से में कितनी सचाई है । पर गोरखनाथ ने बाद में योग की विधियां तो खोजी ही , तमाम अंध विश्वास और कुरीतियों से भी वह लड़े। रामदेव जी ने गोरख के अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच यम पर भी बात की। कबीर , जायसी , नानक आदि पर गोरख और नाथ पंथ के प्रभाव पर बात की। और इतना डूब कर बात की कि सुनने वाले भी उन की बातों में डूब गए। गोरख के कई पद और शाबर पर भी रामदेव जी बोले।

रामदेव जी ने सूफियों पर भी विस्तार से बात की। बुद्ध पर भी बात की।अप्प दीपो भव की चर्चा की। गोरख के मूल से इसे जोड़ा। बताया कि इस्लाम से भी बहुत पहले सूफी भारत आए थे। सूफियों के कठिन जीवन की चर्चा की। कि कैसे खेत से फसल कट जाने के बाद खेत में गिरे एक-एक दाना बटोर कर भोजन करते थे। भेड़ , बकरियों के रोएं काटों में से निकाल कर अपने लिए कपड़ा तैयार करते थे। कितनी साधना करते थे। गोरखनाथ की साधना को भी इसी तरह रेखांकित किया। कृष्ण द्वारा सूर्य को भी योग सिखाने के प्रसंग का संदर्भ दिया।

अनुज प्रताप सिंह , राधेश्याम दूबे , प्रदीप कुमार राव , योगेंद्र प्रताप सिंह ने भी इस विषय पर विस्तार से बात की। गोरखनाथ किस जाति के थे , इस पर भी बात आ गई। फिर हुआ कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोरख को ब्राह्मण बताया है। फिर बात आई कि गोरख ने कैसे तो दलितों को भी बराबरी में बिठाया। देश भर में गोरख के सामाजिक सुधारों की भी चर्चा हुई। तमिलनाडु , कर्नाटक , पूर्वोत्तर तक में उन के काम और लिखे की चर्चा हुई। युग प्रवर्तक महायोगी गोरखनाथ पर त्रिदिवसीय गोष्ठी का आज आख़िरी दिन था। सो हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष सदानंद गुप्त ने समारोप वक्तव्य भी दिया। सदानंद गुप्त द्वारा परोसे गए तीन दिन की इस संगोष्ठी के विवरण सुन कर और आज विभिन्न विद्वानों द्वारा गोरखनाथ पर विशद चर्चा सुन कर बहुत पछताया कि बाकी दो दिन भी मैं क्यों नहीं गया। लोगों को गोरख पर सुनने। लेकिन सदानंद गुप्त ने बताया है कि अगले वर्ष फिर इस से बड़ा आयोजन महायोगी गोरखनाथ पर किया जाएगा। यह जान कर अच्छा लगा। इस लिए भी कि गोरख को जानना , खुद को जानना होता है ।

Wednesday, 25 September 2019

हे गांधी इन अज्ञानियों को क्षमा करना !

महात्मा गांधी और टैगोर 

महात्मा गांधी और नेता जी सुभाष चंद्र बोस , पटेल 
जो लोग नहीं जानते वह लोग अब से जान लें कि गांधी को महात्मा की उपाधि रवींद्रनाथ टैगोर ने दिया था। जब कि गांधी को राष्ट्रपिता नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था। और समूचे देश ने एक स्वर में तब इसे स्वीकार कर लिया था। यह देश को आज़ादी मिलने से पहले की बात है।

सोचिए कि गांधी ने ही चंपारण में सत्याग्रह कर अंगरेज सरकार की आंख में अंगुली डाल कर उन की सत्ता का काजल निकाल लिया था। अंगरेज जज कहता ही रहा कि माफ़ी मांग लीजिए और जाइए। गांधी ने कहा , किसी सूरत माफ़ी नहीं मांगता। लाचार जज ने कहा , फिर भी आप को रिहा किया जाता है। दमनकारी ब्रिटिश सत्ता के लिए यह आसान नहीं था। यह पहली बार था। अंगरेजी वस्त्रों की होली जला कर गांधी ने उन की संस्कृति को जला दिया था। असहयोग आंदोलन कर अंगरेजों की सत्ता में भूचाल ला दिया था। गोरखपुर में एक चौरीचौरा कांड हो गया। अराजक भीड़ ने थाना बंद कर पुलिस वालों को जिंदा जला दिया। इस एक हिंसक घटना से विचलित हो कर गांधी ने पूरे देश से असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। नेहरु , पटेल सब के सब समझाते रहे थे। कि एक घटना के कारण आंदोलन वापस लेना ठीक नहीं रहेगा। पूरा देश आगे बढ़ चुका है। पर गांधी ने साफ़ कह दिया कि हमें ईंट का जवाब पत्थर से दे कर यह आंदोलन नहीं चाहिए , तो नहीं चाहिए। दांडी यात्रा कर , नमक क़ानून तोड़ते हुए , नमक बना कर अंगरेजों के क़ानून को तार-तार कर दिया था गांधी ने। और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया था। 1947 में अंगरेज भारत छोड़ कर गए भी।

दुनिया भर से कोई एक नाम बता दे कोई कि जिस ने उपवास कर के भयानक दंगा रोक दिया हो। गांधी ने रोका था , नोआखली दंगा। सिर्फ़ उपवास के बल पर। तब जब कि प्रशासन हार गया था। ऐसे जाने कितने किस्से , कितने काम , कितनी तपस्या गांधी के जीवन में हैं जिन की लोग कल्पना नहीं कर सकते। जब सब कुछ से हार जाते हैं लोग तो गांधी के सत्य के प्रयोग पर उतर आते हैं। चरित्र हत्या पर उतर आते हैं। कि वह तो नंगी औरतों के साथ सोते थे। हां , सोते थे। दरवाज़ा खोल कर सोते थे। अय्यास और बलात्कारी दरवाज़ा खोल कर नहीं सोते। उस में ब्रिटिशर्स , जर्मन , भारतीय आदि तमाम स्त्रियां थीं। अपनी खुशी से सोती थीं। प्रतिस्पर्धा थी उन में कि कौन सोएगा। आप क्या कहेंगे , गांधी ने खुद इस बाबत बहुत लिखा है और खुद छापा है अपने हरिजन में। जब बहुत हुआ तो अपने निजी सचिव महादेव तक से गांधी ने कहा कि जाओ मेरा भंडाफोड़ कर दो। आप को क्या लगता है कि अगर उन के कट्टर दुश्मन अंगरेजों को इस बाबत एक भी छेद मिलता तो वह गांधी को जीने देते। उन की चरित्र हत्या से बाज आते भला ? और जनता छोड़ती उन्हें। गाना गाती , दे दी आज़ादी हमें बिना खड्ग , बिना ढाल / साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल ! अरे अंगरेज बाद में , जनता पहले ही उन्हें भून कर खा जाती। जानिए कि यह सारे विवरण गांधी ने खुद लिखे हैं , स्वीकार किए हैं। चिट्ठियों में लेखों में। तब आप जान पाए। किसी स्टिंग आपरेशन से नहीं। गांधी को समग्र में पढ़ना हो तो प्रकाशन विभाग , भारत सरकार ने सौ भाग में गांधी समग्र प्रकाशित किया है। हिंदी और अंगरेजी दोनों में। पढ़ डालिए। लेकिन लोग पढ़ेंगे नहीं , सिर्फ़ गाली देंगे।

लेकिन जिन अंगरेजों को गांधी ने भारत से खदेड़ दिया उन अंगरेजों ने गांधी को कभी गाली नहीं दी। उलटे ब्रिटिश संसद के सामने , सम्मान में गांधी की स्टैचू लगा रखी है। ब्रिटिशर्स ही थे रिचर्ड एटनबरो जिस ने गांधी पर शानदार फिल्म बनाई है। ब्रिटिशर्स ही थे बेन किंग्सले जिन्हों ने गांधी की भूमिका में प्राण फूंक दिए। भारत में हिंदी , अंगरेजी या किसी और भी भारतीय भाषा में गांधी जैसी कोई एक कालजयी फिल्म नहीं है। उस के आस-पास भी नहीं। गांधी के अवदान को ब्रिटिशर्स अब भी भूल नहीं पाते। दुनिया उन के सत्य , अहिंसा और सत्याग्रह के आगे शीश झुकाती है। लेकिन अफ़सोस कि भारत में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो गांधी को बिलकुल नहीं जानते। गांधी को सिर्फ़ गालियां देना जानते है। गांधी की चरित्र हत्या करना जानते हैं। अफ़सोस कि यह लोग अपने को भारतीय कहते हैं। हे गांधी , इन अज्ञानियों और नफ़रत से भरे लोगों को माफ़ करना ! यह आप को नहीं जानते। यह मनुष्यता , अहिंसा , सत्य और सत्याग्रह नहीं जानते। देश के लिए आप का संघर्ष नहीं जानते। नहीं जानते यह मूर्ख कि मूल्यों की रक्षा के लिए , मनुष्यता और सत्य के लिए आप ने जान दे दी। जैसे सोने का हिरन दिखा कर रावण सीता का हरण कर ले गया , वैसे ही आप के पांव छू कर गोडसे गोली मार कर आप की हत्या कर गया ! आप ने हे राम ! कहा और विदा हो गए। यह वही लोग हैं जिन्हों ने कभी राम को भी नहीं छोड़ा था। हे राम , हे गांधी इन अज्ञानियों को क्षमा करना !

आप गरियाते रहिए महात्मा गांधी को। खोजते रहिए उन में छेद पर छेद। पूरी तरह असहमत रहिए महात्मा गांधी से। कोई बात नहीं। यह आप का अधिकार है , आप का विवेक है और आप की समझ। इस लिए भी कि गांधी कोई देवता नहीं थे। मनुष्य थे। फिर हमारे यहां तो देवताओं को भी गरियाने की परंपरा है। गांधी कोई पैगंबर नहीं हैं कि आप उन को भला-बुरा नहीं कह सकते। कह देंगे तो तूफ़ान मच जाएगा। गांधी मनुष्य हैं। और जैसे भी हैं , मुझे पसंद हैं। आप कीजिए उन की निंदा। भरपेट कीजिए। लेकिन मैं महात्मा गांधी का गायक हूं। प्रशंसक हूं। अनन्य गायक। अनन्य प्रशंसक। उन की तमाम खूबियों और खामियों के साथ गाता हूं उन्हें । आप मुझे भी गरिया लीजिए। गरिया ही रहे हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता। सच यह है कि जो एक बार गांधी को ठीक से जान लेगा , वह गांधी को गाएगा। गाता ही रहेगा। मैं उन्हीं असंख्य लोगों में से एक हूं। राष्ट्र कवि सोहनलाल द्विवेदी की इस कविता को मन करे तो आप भी पढ़िए और गाइए। ऐसी कविता लिखना और ऐसी कविता पढ़ना भी सौभाग्य होता है।

चल पड़े जिधर दो डग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर ;
गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर,

जिसके शिर पर निज हाथ धरा
उसके शिर- रक्षक कोटि हाथ
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गए उसी पर कोटि माथ ;

हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु
हे कोटि रूप, हे कोटि नाम !
तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटि मूर्ति, तुमको प्रणाम !

युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खीचते काल पर अमिट रेख ;

तुम बोल उठे युग बोल उठा
तुम मौन रहे, जग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना ;

युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक
युग संचालक, हे युगाधार !
युग-निर्माता, युग-मूर्ति तुम्हें
युग युग तक युग का नमस्कार !

दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम काल-चक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक !

हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र ?
इस राजतंत्र के खण्डहर में
उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र !



आप गरियाते रहिए नरेंद्र मोदी को , करते रहिए नफ़रत और कुढ़ते रहिए


आप गरियाते रहिए नरेंद्र मोदी को। करते रहिए नफ़रत और कुढ़ते रहिए। आज उस ने 50 हज़ार भारतीयों के बीच दुनिया की महाशक्ति अमरीका में ही , अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप को बच्चों की तरह सामने बैठा कर हिंदी में अपना भाषण सुना दिया। और ट्रंप लगातार ताली बजाते रहे। भाकपा महासचिव और मूर्ख डी राजा भले कहता फिरे कि हिंदी , हिंदुत्व की भाषा है। पर मोदी ने आज फिर साबित किया कि हिंदी , वैश्विक भाषा है , विश्व बंधुत्व की भाषा है। भारत में कुछ अराजक अकसर कहते रहते हैं कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन इसी सभा में ट्रंप ने साफ़ बता दिया कि इस्लामिक आतंकवाद से भारत और अमरीका साथ-साथ लड़ेंगे। बिना नाम लिए मोदी ने पाकिस्तान और शांति दूत इमरान खान का बैंड बजा दिया। कश्मीर से 370 हटाने की बात को भी खूब ललकार कर मोदी ने रखा। भारतीय मूल के हर क्षेत्र के अमरीकी यहां उपस्थित थे। व्यापारिक और रक्षा संबंधों की बात भी दोनों ने की। अमरीका में आज का दिन नरेंद्र मोदी के बहाने भारत के गौरव का दिन रहा। नरेंद्र मोदी का खूब बड़ा वाला सैल्यूट ! महाशक्ति के साथ कंधे से कंधा मिला कर , बराबरी के साथ खड़े होने पर सैल्यूट !

आप करते रहिए तीन-तिकड़म और कुढ़ कर , खीझ कर बताते रहिए कि ट्रंप ने मोदी का इस्तेमाल किया है अपने चुनाव खातिर। सच यह है कि मोदी ने ट्रंप को मित्रवत भारत के पक्ष में कर लिया है। मित्रवत ही नहीं , कूटनीतिक रूप से ही। यह पहली बार ही हुआ है कि महाशक्ति ट्रंप ने पब्लिकली कहा कि अगर मोदी बुलाएंगे तो भारत ज़रूर आऊंगा। और देखिए कि मोदी ने बिना समय गंवाए , फौरन ट्रंप को सपरिवार निमंत्रण दे दिया। दोनों ने एक दूसरे की तारीफ की। ट्रंप ने मोदी को टफ डील वाला बताया तो मोदी ने ट्रंप को आर्ट आफ डील के लिए याद किया। अभी दो तीन दिन में भारत के पक्ष में कुछ और चौकाने वाले फैसले आने वाले हैं। सचमुच यह नई हिस्ट्री और नई केमिस्ट्री है। सचमुच जैसा कि इस कार्यक्रम हाऊडी मोदी को परिभाषित करते हुए नरेंद्र मोदी ने कई सारी भारतीय भाषाओँ में जो एक बात बार-बार कही , वह ठीक ही कही कि , भारत में सभी कुछ अच्छा है !

अलग बात है मुट्ठी भर दिलजले इस टिप्पणी को पढ़ कर मुझ से भी कुढ़ कर जल भुन जाएंगे। मुझे फिर गरियाएंगे। बताएंगे कि पत्रकार और साहित्यकार को सत्ता के ख़िलाफ़ रहना चाहिए। गुड है । ऐसे लोगों की बीमारी और मनोवृत्ति पर गोरख पांडेय की एक कविता याद आती है :

राजा ने कहा रात है
रानी ने कहा रात है
मंत्री ने कहा रात है
सब ने कहा रात है

यह सुबह-सुबह की बात है !

क्षमा कीजिए , मुझे सुबह को रात कहने की कला नहीं आती। इस कला से , इस बीमारी से मैं मुक्त हूं। मुझे मुक्त रहने दीजिए।

तो कूटनीति गिव एंड टेक से ही होती है , इस बात को नहीं जानते हैं तो अब से जान लीजिए। एक दूसरे की पीठ खुजा कर ही होती है। एक दूसरे को गरिया कर नहीं। एक दूसरे का अहित कर के नहीं। स्वार्थ ही एक दूसरे को एक करता है । नि:स्वार्थ कुछ नहीं होता । कहीं भी , कभी भी । किसी भी के साथ । फिर यह तो कूटनीति है । सो अपने आग्रह और बीमारी से छुट्टी ले लेने में नुकसान नहीं है। ठीक ?

जो लोग कभी कहते थे कि अमरीका , भारत के चुनाव में दखल दे रहा है। आज वही लोग कह रहे हैं कि भारत , अमरीका के चुनाव में दखल दे रहा है। बहुत कंफ्यूजन है कि यह लोग आखिर कहना क्या चाह रहे हैं ? अंगरेजी मुझे भी बहुत अच्छी नहीं आती। लेकिन नरेंद्र मोदी ने कल अंगरेजी में कहा था कि अमरीका में बीते चुनाव में ट्रंप ने भारत की तर्ज पर कहा था कि अब की बार ट्रंप सरकार ! बस कांग्रेस के आनंद शर्मा और कामरेड सीताराम येचुरी ने यही पकड़ लिया कि मोदी अमरीका के चुनाव में दखल दे रहे। ट्रंप का प्रचार कर रहे हैं। वेरी गुड है ! बात को पकड़ने भी ठीक से नहीं आता , तो बाक़ी क्या पकड़ेंगे ? वेरी बैड है !

वैसे तो अमरीका के ह्यूस्टन में 50 हज़ार लोग टिकट खरीद कर नरेंद्र मोदी का भाषण सुनने आए थे। हां , अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने टिकट नहीं खरीदा था। सो भारत के दस्तूर के मुताबिक उन को कुछ दिए जाने को ले कर एक लतीफ़ा भी मैदान में आ गया है। हद से अधिक मोदी से नफ़रत करने वाले मित्रों को बहुत पसंद आएगा। इसी गरज से इस लतीफे को यहां परोस रहा हूं।

हाउडी मोदी सभा संपन्न होने के बाद आयोजकों ने ट्रंप को दस डालर का लिफाफा और पूरी, सब्जी ,आचार का एक पैकेट दिया गया। तो ट्रंप ने पूछा, ' ये क्या है ? ' तो आयोजक बोला , ' भारत में सभा सुनने वालों को सभा समाप्त होने का बाद इसे देते हैं।' तो ट्रंप को गुस्सा आ गया। और नाराज हो कर कहा , ' इडियट , पव्वा कौन देगा फिर ? तेरा बाप ! '

कल रात एक मित्र ने फ़ोन किया और पूछा कि , ' भाई साहब और क्या हो रहा है ?' मैं ने बताया कि , ' फ़िलहाल तो टी वी चल रहा है ।' वह बिदके और बोले , ' वही मोदी , मोदी चल रहा होगा ! ' मैं ने हामी भरी और उन्हें बताया कि , ' लेकिन आज तो आप का पसंदीदा एन डी टी वी भी यही कर रहा है। ' वह बुरी तरह भड़के। एन डी टी को भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए बोले , ' बंद कर दिया है इसे भी ! ' फिर एक गाली दी और बोले , ' आप सुनिए इस कमीने को !' फिर मोदी की मां-बहन भी न्यौती। मैं ने उन्हें बताया कि अभी मोदी का भाषण नहीं चल रहा , मोदी का इंतज़ार हो रहा है। फिर कहा कि , ' बाक़ी तो सब ठीक है। लेकिन आप लखनऊ में रहते हैं। सो गाली-गलौज न कीजिए। करते भी हैं तो कम से कम गाली देना तो शऊर से सीख लीजिए। ' वह थोड़ा दबे और उधर से धीरे से बोले , ' 4 पेग हो गई है भाई साहब , माफ़ कीजिएगा । लेकिन गाली , गलौज में कैसा शऊर ? '

मैं ने उन्हें ग़ालिब का एक किस्सा सुनाया। आप भी सुनिए।

ग़ालिब से भी उन के समकालीन लोग बहुत ईर्ष्या करते थे। जलते-भुनते बहुत थे। तब फ़ोन , सोशल मीडिया आदि तो था नहीं। सब कुछ आमने-सामने या खतो-किताबत के भरोसे ही था। अब ग़ालिब को सामने से गाली देने की जुर्रत नहीं थी किसी की तो खत लिख कर गाली-गलौज करते थे। एक दिन वह अपने एक दोस्त के साथ बैठे थे। बहुत से खत आए हुए थे। ज़्यादातर में गालियां थीं। ग़ालिब ने एक खत खोला और अपने दोस्त से कहने लगे कि , ' इन लोगों को गालियां देने का भी शऊर नहीं है। अब मेरी उम्र देखिए और फिर अम्मी की उम्र देखिए। और यह आदमी मुझे मां-बहन की गालियां लिख रहा है। देनी ही थी तो बेटी की गाली देता। बूढ़ी मां-बहन की गाली से उसे क्या मिलेगा ? '

जनाब समझ गए और ' सारी , वेरी सारी ! ' कह कर बोले , ' मेरी तो पूरी उतार दी आप ने ! ' और फोन बंद कर दिया।

कुतर्क की कमीज का कलफ उतर गया है। रक्तचाप बढ़ गया है। मधुमेह पहले ही से था। अब सांस भी फूलने लगी है। दिन को रात , रात को दिन कहने की बीमारी लग गई है। दिल , गुर्दा , यकृत आदि-इत्यादि आह , आह की राह पर हैं। आवाज़ भी हकला कर रह गई है। पुरवा हवा जब बहती है , पुराने सुख , दुःख देने लगते हैं। चिकित्सक ने हाथ खड़े कर दिए हैं। सोशल मीडिया की गली में थोड़ा खांस-खखार कर दवाओं का आदान-प्रदान कर लेते हैं। जिस ने असाध्य बीमारियों की रेल पर बिठा दिया है , उसे गरिया लेते हैं तो थोड़ा सुकून मिलता है। फिर अचानक गरियाते-गरियाते रोने लगते हैं। लेकिन आदत है कि जाती नहीं। रियाज़ ख़ैराबादी की ग़ज़ल याद आती है :

दर्द हो तो दवा करे कोई
मौत ही हो तो क्या करे कोई

बंद होता है अब दर-ए-तौबा
दर-ए-मयख़ाना वा करे कोई

क़ब्र में आ के नींद आई है
न उठाए ख़ुदा करे कोई

हश्र के दिन की रात हो कि न हो
अपना वादा वफ़ा करे कोई

न सताए किसी को कोई ‘रियाज़’
न सितम का गिला करे कोई

बेशक दुनिया में नरेंद्र मोदी का कद बहुत बड़ा हो गया है इस समय। लेकिन इतना भी बड़ा नहीं हो गया है कि उन्हें फादर आफ इंडिया कह दिया जाए। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का नरेंद्र मोदी को फादर आफ इंडिया कहना कुछ नहीं , बहुत ज़्यादा हो गया है। हमारे पास पहले ही से एक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हैं। भले इस बिंदु पर भी कुछ लोगों की असहमति सर्वदा से रही है , रहेगी भी। फिर भी राष्ट्रपिता का दर्जा महात्मा गांधी को ही प्राप्त है। माता एक , पिता दस-बारह की तरह इसे हास्यास्पद बनाने की ज़रूरत नहीं है। मोदी कितने भी बड़े डिप्लोमेटिक हों गए हों , सिकंदर हो गए हों , विश्व विजेता हो गए हों लेकिन महात्मा गांधी का नाखून भी नहीं छू सकते। नरेंद्र मोदी खुद भी महात्मा गांधी का दिन-रात गुण-गान करते रहते हैं। नरेंद्र मोदी को खुद आगे बढ़ कर इस फादर आफ इंडिया होने का प्रतिकार कर देना चाहिए। महात्मा गांधी ही हमारे राष्ट्रपिता हैं , वह ही रहेंगे। कोई और नहीं।

सूर्य कुमार पांडेय को बाल साहित्य भारती


कविता कैसी भी लिखनी हो अगर सीखनी हो तो सूर्य कुमार पांडेय से मिलिए। किसी भी छंद में , किसी भी रस में , किसी भी विषय पर आप सूर्य कुमार पांडेय से कविता , कभी भी लिखवा सकते हैं। सीख सकते हैं। कविता जैसे उन की नस-नस में बहती है , गंगा , यमुना , सरस्वती की तरह और वह कविता में। बहुत कठिन है व्यंग्य लिखना , अच्छा व्यंग्य लिखना। लेकिन सूर्य कुमार पांडेय पद्य और गद्य दोनों ही में समान अधिकार से लिखते हैं। और इतना सशक्त लिखते हैं कि बड़े-बड़े दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। हास्य लिखते हैं तो उन्हें पढ़ और सुन कर हंसी का झरना फूट पड़ता है। मुझे याद है कि जब मैं एक फीचर एजेंसी राष्ट्रीय समाचार फीचर्स नेटवर्क में संपादक था तो देश भर के अख़बारों के लिए रोज ही चार लेखों का एक बुलेटिन जारी होता था। तय हुआ कि रोज एक राजनीतिक व्यंग्य में सनी चार , छ लाइन की कविता भी परोसी जाए। इस काम के लिए मुझे जो पहला नाम सूझा वह सूर्य कुमार पांडेय का ही था। उन से जब इस बाबत बात की तो वह बिना किसी नखरे और हिचक के सहर्ष तैयार हो गए। न सिर्फ़ तैयार हो गए बल्कि रोज लिखने भी लगे।

चुटकी नाम से रोज एक छंद वह लिखते। देखते ही देखते सूर्य कुमार पांडेय की चुटकी उस फीचर एजेंसी में खूब चटक हो गई। अख़बार कोई लेख भले ड्राप कर देते थे पर सूर्य कुमार पांडेय की चुटकी ज़रूर छापते थे। लंबे समय तक पांडेय जी ने चुटकी लिखी। इस के पहले वह स्वतंत्र भारत में वह कांव-कांव भी लिखते रहे थे। अभी भी कई दैनिक अख़बारों में उन का साप्ताहिक व्यंग्य नियमित छपता है। टी वी चैनलों से लगायत कवि सम्मेलनों में वह निरंतर सक्रिय हैं। न सिर्फ़ सक्रिय हैं बल्कि मंच पर होने के बावजूद कभी अपनी कविता को बाजारू या स्तरहीन नहीं होने दिया है। लतीफा नहीं होने दिया है। जब मैं अपना उपन्यास बांसगांव की मुनमुन लिख रहा था तब लिखते-लिखते अचानक एक चनाजोर गरम बेचने का दृश्य उपस्थित हो गया। मुनमुन की बहादुरी की शान में चनाजोर गरम बिकना था । बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मुझे आज भी छंद लिखने नहीं आता , तब भी नहीं आता था। और गाने के लिए छंद से बेहतर कुछ नहीं होता। वह भी जनता के बीच गाने के लिए। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करूं ? कलम अनायास थम गई। लाख कोशिश करूं , लिखा ही न जाए। फिर सहसा सूर्य कुमार पांडेय की याद आई। फोन किया उन्हें और अपनी मुश्किल बताते हुए मदद मांगी। उन्हों ने पात्र और स्थितियों की डिटेल पूछी। मैं ने विस्तार से बता दिया। दूसरे ही दिन मुनमुन के नाम से चनाजोर गरम उपन्यास में बिकने लगा। इस गीत ने मुनमुन के चरित्र को और सशक्त बना दिया। उपन्यास चल निकला। आप भी पढ़िए वह चनाजोर गरम वाला गीत जिसे सूर्य कुमार पांडेय ने मुनमुन खातिर लिखा :

मेरा चना बना है चुनमुन
इस को खाती बांसगांव की मुनमुन
सहती एक न अत्याचार
चनाजोर गरम!

मेरा चना बड़ा बलशाली
मुनमुन एक रोज़ जब खा ली
खोंस के पल्लू निकल के आई
गुंडे भागे छोड़ बांसगांव बाजा़र
चनाजोर गरम!

मेरा चना बड़ा चितचोर
इस का दूर शहर तक शोर
इस के जलवे चारो ओर
इस ने सब को दिया सुधार
बहे मुनमुन की बयार
चनाजोर गरम!

मेरा चना सभी पर भारी
मुनमुन खाती हाली-हाली
इस को खाती जो भी नारी
पति के सिर पर करे सवारी
जाने सारा गांव जवार
चना जोर गरम!

जब पढ़ता था तब कविताएं लिखता था। जगह-जगह बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में मेरी कविताएं छपती थीं। एक बार मन हुआ कि पराग में भी छपा जाए। पराग में कविताएं भेजीं। कन्हैयालाल नंदन ने वह कविता वापस करते हुए लिखा था कि बच्चों के लिए हमेशा छंदबद्ध कविताएं ही लिखनी चाहिए। फिर बाद में पराग में मेरी कहानियां तो छपीं। लेकिन कविताएं नहीं। लिखी ही नहीं। लेकिन अपने सूर्य कुमार पांडेय ने व्यंग्य से ज़्यादा बच्चों के लिए कविताएं लिखी हैं। सोहनलाल द्विवेदी सूर्य कुमार पांडेय की बाल कविताओं के घनघोर प्रशंसक थे। पांडेय जी ने युवा अवस्था में उन के साथ मंच भी शेयर किया है। सूर्य कुमार पांडेय के खाते में बच्चों के लिए एक से एक नटखट , एक से एक मासूम कविताएं हैं । बचपन की ओस में भीगी हुई। निर्दोष और सुकोमल। व्यंग्य लिखना जितना कठिन होता है , बच्चों के लिए लिखना उस से भी ज़्यादा कठिन। बाल हठ और बाल मनोविज्ञान को जानना दोनों ही किसी लेखक के लिए आसान नहीं। सब के मन को जानना , मापना और समझना भी कठिन ही होता है लेकिन बच्चों के मन को समझना , उसे लिखना और फिर बच्चों के दिल में बस जाना तो जादूगरी ही होती है। अपने सूर्य कुमार पांडेय बच्चों के मन को जानने और उन के दिल में बस जाने का जादू जानते हैं। सूर्य कुमार पांडेय की इसी जादूगरी को सम्मान देते हुए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने उन्हें बाल साहित्य भारती से सम्मानित करने की घोषणा की है। बाल साहित्य सम्मान से सम्मानित होने के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सूर्य कुमार पांडेय जी , कोटिश: बधाई ! आप ऐसे ही लिखते रहें और बच्चों से ले कर बड़ों तक को हंसाते , गुदगुदाते खूब सक्रिय और स्वस्थ रहें। बहुत-बहुत बधाई ! आप मित्र लोग भी सूर्य कुमार पांडेय को उन के मोबाइल नंबर 9452756000 पर बधाई दे सकते हैं।

नवनीत मिश्र को साहित्य भूषण


जब हम विद्यार्थी थे , हम उन्हीं की तरह बनना चाहते थे। उन्हीं की तरह बोलना और लिखना चाहते थे। तब के दिनों वह गोरखपुर में स्टार हुआ करते थे । लखनऊ से गए थे लेकिन आकाशवाणी , गोरखपुर की समृद्ध आवाज़ हुआ करते थे। एकदम नवनीत हुआ करते थे । एक समय हमारे लिखे रेडियो नाटकों में वह नायक बन कर उपस्थित हुए। फिर भी हम उन की तरह न बन पाए , न उन की तरह लिख पाए। पर उन का स्नेह खूब पाया है। कोई चार दशक से अधिक समय से वह मुझे अपने स्नेह की अविरल डोर में बांधे हुए हैं। जी हां , हमारे अग्रज और मुझे ख़ूब स्नेह करने वाले , अदभुत कथा शिल्पी , अपनी कहानियों में बार-बार रुला देने वाले , पुरकश आवाज़ और अंदाज़ के धनी , सरलमना , आदरणीय नवनीत मिश्र जी को उत्तर प्रदेश , हिंदी संस्थान का प्रतिष्ठित सम्मान साहित्य भूषण सम्मान देने की आज घोषणा हुई है। सच तो यह है कि साहित्य भूषण भी आज सम्मानित हुआ है। नवनीत जी , आप को बहुत आदर पूर्वक भरपूर बधाई ! हार्दिक बधाई ! आप ऐसे ही श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण रचते रहें। आप मित्र भी नवनीत जी को इस नंबर पर उन्हें अपनी बधाई दे सकते हैं। नवनीत जी का मोबाईल नंबर है : 9450000094

Tuesday, 17 September 2019

धूर्तों के धूर्त , कमीनों के कमीने , दुश्मन के महादुश्मन , इवेंट और रणनीति के मास्टर नरेंद्र मोदी

अपनी मां के साथ भोजन पर नरेंद्र मोदी 

अच्छा तो आज पता चला है कुछ मतिमंद और जहरीले विद्वानों को कि नरेंद्र मोदी इवेंट के मास्टर हैं। ग़ज़ब ! अब से जान लीजिए कि नरेंद्र मोदी सिर्फ इवेंट के ही नहीं , रणनीति के भी मास्टर हैं। धूर्तों के धूर्त , कमीनों के कमीने , दोस्त के दोस्त और दुश्मन के महादुश्मन। असंभव को संभव करने वाले।  दुनिया इस का लोहा मानती है। यकीन न हो तो तीन तलाक़ , 370 जैसे कुछ असंभव कृत्य याद कर लीजिए। बिना धूर्तई और कमीनापन के यह मुमकिन नहीं था। बहुत सीधे और सरल थे अटल बिहारी वाजपेयी। महिला आयोग की सदस्य सईदा सईदेन हमीद ने जब तीन तलाक़ खत्म करने के लिए वायस आफ वायसलेस रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी और अटल जी उसे संसद में पेश करने की सोच ही रहे थे कि जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी ने धमकी दे दी कि अगर यह रिपोर्ट , संसद में पेश हुई , लागू हुई तो देश में आग लगा दी जाएगी। 

अटल जी डर गए , बुखारी की इस ब्लैकमेलिंग में। वह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी। कश्मीर की आग को भी वह कश्मीरियत , जम्हूरियत और इंसानियत से बुझाना चाहते थे। नहीं बुझा पाए। इस लिए कि यह दोनों काम तिहरा तलाक़ और 370 दोनों ही कमीनेपन और धूर्तता के औजार से ही निपटाए जा सकते थे। सरलता , विनम्रता और सादगी से नहीं। सठे साठ्यम समाचरेत की तकनीक की ज़रूरत थी । मोदी ने इसी औज़ार और तकनीक का तागा लिया और इन की ही सुई में धागा डाल कर इन्हें सिल दिया। अब यह बाप-बाप कर रहे हैं और इन से भी ज़्यादा इन के अब्बा और शांति दूत इमरान खान। महबूबा कहती रही , ताल ठोंक कर , पूरी गुंडई से कि कश्मीर में कोई तिरंगा उठाने के लिए भी नहीं मिलेगा। और अब कैमरे पर अपनी शकल दिखाने के लिए भी तरस रही है। ऐसे कानून में जय हिंद हो गई है जिस में दो साल तक कोई सुनवाई ही नहीं है।

यह नोटबंदी और जी एस टी का पहाड़ा नहीं है। कमीनों और धूर्तों के साथ इसी कला का सर्वोत्कृष्ट नमूना है । आप ट्रम्प के मुद्दे पर संसद में मध्यस्थता पर बयान मांगते रहे और वाया राज्यसभा , लोकसभा ला कर 370 को हलाल कर दिया गया। आप राजनीति कर रहे हैं कि प्याऊ चला रहे हैं ? पहले यह तय कर लीजिए। किसी दो कौड़ी के बाबू को ख़रीद कर राफेल फ़ाइल की फोटो कापी करवा कर हिंदू अख़बार में छपवा कर या सी बी आई चीफ़ को बरगला कर वायर के मार्फ़त राजनीति में सनसनी पैदा करने का टोना-टोटका मोदी युग में दीपावली का पटाखा बन चुका है। अमित शाह और मोदी पर हत्या और नरसंहार के फर्जी मामले साबित नहीं हो सके लेकिन आर्थिक अपराध तो चिदंबरम , सोनिया , राहुल और रावर्ट वाड्रा पर साबित हो जाएंगे तब क्या करेंगे। क्यों कि हत्या में गवाह चाहिए और यहां साक्ष्य। गवाह इधर-उधर हो सकते हैं लेकिन आर्थिक अपराध के साक्ष्य नहीं। अटल जी तो एक वोट से सरकार गंवा देने वाले महामना थे। मोदी नहीं।

तब जब कि इस के पहले नरसिंहा राव अल्पमत की सरकार पांच साल चलाने की तजवीज दे गए थे। आप ने उसी महामना अटल की लकीर पर चलने वाली भाजपा समझ लिया मोदी की भाजपा को भी। यही गलती आप ने कर दी और आप के अब्बा इमरान खान ने भी। अभी पी ओ के जैसे कुछ इवेंट भी बस आने ही वाले हैं। ज़रा सब्र कीजिए। जन्म-दिन के इवेंट पर इतना स्यापा गुड बात नहीं है। अभी चचा जाकिर नाइक की आमद बस होने ही वाली है । नीरव मोदी और विजय माल्या के आमद की उल्टी गिनती गिननी शुरू कीजिए। तब तक नर्मदा के तीर पर बैठ कर इवेंट , इवेंट की आइस पाइस खेलिए। काले धन की बैंड बज रही है। अभी कुछ और बारात निकलनी हैं। कुछ और इवेंट प्रतीक्षा में हैं। आप चंद्रयान - 2 और प्रज्ञान की विफलता का , इसरो चीफ के रोने का जश्न मनाइए तब तक। आर्थिक मंदी , जी डी पी का तराना भी है ही आप के पास। गो कि सेक्यूलरिज्म का भुरता बन चुका फिर भी अभी राम मंदिर मसले पर सुप्रीम कोर्ट को कम्यूनल बताने का अवसर बस आप के हाथ आने ही वाला है। तनिक धीरज धरिए। अभी बहुत से गेम , बहुत से इवेंट , बहुत सी धूर्तई , बहुत सारा कमीनापन सामने आने वाला है। बतर्ज लोहा ही लोहा को काटता है। बताइए न कि अपने चिदंबरम पहले ई डी और सी बी आई की कस्टडी से बचने के लिए अग्रिम ज़मानत लेते रहने के अभ्यस्त हो गए थे । अब वही चिदंबरम तिहाड़ में बैठे गुहार लगा रहे हैं कि मुझे ई डी की कस्टडी में दे दीजिए। यह संभव कैसे बना ? अरे वही कमीनापन और वही धूर्तई !

मंदिर निर्माण बिना पिछड़ी और दलित जाति की मदद के भाजपा कभी नहीं कर सकती

कल्याण सिंह 

कल्याण सिंह भाजपा में पिछड़ी जाति की राजनीति के लिए ही सर्वदा उपस्थित किए गए। किसी पूजा-पाठ के लिए नहीं। सुनियोजित ढंग से। इस तरह कि इस बात को तब कल्याण सिंह भी नहीं समझ सके थे। भाजपा को तब राम मंदिर के लिए पिछड़ों की ज़रूरत थी। बिना पिछड़ी जाति के राम मंदिर आंदोलन को सफलता नहीं मिल सकती थी। न ही , विवादित बाबरी ढांचा बिना पिछड़ी जातियों के भाजपा ध्वस्त करवा सकती थी। कल्याण सिंह इसी कार्य और इसी रणनीति के तहत मुख्य मंत्री बनाए गए थे। विनय कटियार , नरेंद्र मोदी , उमा भारती , गोविंदाचार्य आदि बहुतेरे पिछड़े नेता अग्रिम पंक्ति के लिए इसी गरज से उपस्थित और सक्रिय किए गए थे। सवर्णों के बूते भाजपा अपने इस मकसद को किसी सूरत प्राप्त नहीं कर सकती थी। क्यों कि सवर्णों के पास न तो भीड़ है , न तोड़-फोड़ की वह स्किल और हुनर। आप इसे मेहनत का रंग भी दे सकते हैं। फिर उत्तर प्रदेश में भाजपा की राजनीति में कल्याण सिंह के जातीय आधार का मुकाबला न तो तब राजनाथ सिंह कर सकते थे , न कलराज मिश्र , न लालजी टंडन। राज्यपाल की पारी खत्म करने के बाद अब इस समय भी कल्याण सिंह का चेहरा इसी लिए आगे किया गया है। तब बाबरी ढांचा ध्वस्त करना मकसद था , अब राम मंदिर निर्माण का मकसद सामने है।

इस लिए भी कि यह मंदिर निर्माण बिना पिछड़ी और दलित जाति की मदद के भाजपा कभी नहीं कर सकती। सवर्णों के वश का यह है भी नहीं। भाजपा जानती है कि कब किस का कहां और कैसे बेहतर उपयोग किया जा सकता है। याद कीजिए कि एक समय था जब कल्याण सिंह का कद इतना बढ़ गया था कि अटल , आडवाणी के बाद तीसरे नंबर पर कल्याण सिंह का नाम लिया जाता था। लेकिन कुछ तो कल्याण सिंह में अचानक आए अहंकार और बहुत कुछ राजनाथ सिंह की शकुनी बुद्धि ने कल्याण सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी से सीधे, सीध लड़वा दिया। कल्याण सिंह परास्त हो गए और भाजपा ध्वस्त हो गई उत्तर प्रदेश में। वह तो नरेंद्र मोदी की आंधी में 2014 के लोकसभा चुनाव में अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में भाजपा को धो-पोंछ कर फिर से खड़ा किया। न सिर्फ़ खड़ा किया भाजपा को बल्कि मुलायम , मायावती की बंदर-बांट से उत्तर प्रदेश को बाहर निकाला।

बहरहाल बात इतनी बिगड़ चुकी है कि अब उत्तर प्रदेश में पिछड़ी और दलित जाति की राजनीति बिना जहर उगले , नफरत की बात किए , मुमकिन नहीं। जहर उगलने की , नफरत बुझे तीरों से सवर्णों को अपमानित करने की नीति ही पिछड़ी जाति की , दलित राजनीति की अब नई राजनीतिक आधारशिला है। बिना इस व्याकरण के पिछड़ी और दलित राजनीति का एक वाक्य नहीं लिखा जा सकता अब। कम से कम उत्तर प्रदेश की राजनीति में। बल्कि देश में भी पिछड़ी और दलित राजनीति का यही राजमार्ग है। कल्याण सिंह इस राजमार्ग के पुराने योद्धा हैं। कोई अचरज की बात नहीं। याद कीजिए कि अभी बीते साल ही बतौर राज्यपाल , राजस्थान लखनऊ की एक सभा में कल्याण सिंह कह गए थे कि जो भी कोई पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ बोले , कोई भी हो उसे तुरंत थप्पड़ मार दो ! जाहिर है संवैधानिक कुर्सी पर बैठे किसी राज्यपाल की यह भाषा नहीं थी। राज्यपाल की मर्यादा ताक पर रख कर यह एक पिछड़ी जाति के नेता की जहर बुझी भाषा थी। भाजपा को इस अमर्यादित भाषा पर न तब ऐतराज था , न अब है। कल्याण सिंह भाजपा के लिए अब भी एक संभावना हैं। भाजपा के पिछड़ी जाति के आधार को और मज़बूत करने की संभावना। यह बात सर्वदा याद रखिए कि भारत में जाति एक कड़वी हक़ीकत है। सत्ता भोगने के लिए कामयाब औज़ार। और अफ़सोस कि इस मर्ज की अब कोई दवा नहीं है। कोई काट नहीं है। भूल जाइए कबीर के उस कहे या लिखे को :

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

भारतीय राजनीति और आरक्षण के खेल में जाति के इस मामले में कबीर अब पूरी तरह अप्रासंगिक हैं ।

Saturday, 14 September 2019

भाषा एक दूसरे से मिल कर बड़ी बनती है , सभी भाषाओँ को आपस में मिलते रहना चाहिए

हम तो जानते और मानते थे कि हिंदी हमारी मां है , भारत की राज भाषा है। लेकिन हिंदी दिवस पर माकपा महासचिव डी राजा ने एक नया ज्ञान दिया है कि हिंदी हिंदुत्व की भाषा है। उधर हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी ने भी यही जहर उगला है। ओवैसी ने कहा है कि भारत हिंदी , हिंदू और हिंदुत्व से बड़ा है। यह सब तो कुछ वैसे ही है जैसे अंगरेजी , अंगरेजों की भाषा है। उर्दू , मुसलामानों की भाषा है। संस्कृत पंडितों की भाषा है। इन जहरीलों को अब कौन बताए कि भाषा कोई भी हो , मनुष्यता की भाषा होती है। संस्कृत , हिंदी हो , अंगरेजी , उर्दू , फ़ारसी , अरबी , रूसी , फ्रेंच या कोई भी भाषा हो , सभी भाषाएं मनुष्यता की भाषाएं है। सभी भाषाएं आपस में बहने हैं , दुश्मन नहीं। पर यह भी है कि जैसे अंगरेजी दुनिया भर में संपर्क की सब से बड़ी भाषा है , ठीक वैसे ही भारत में हिंदी संपर्क की सब से बड़ी भाषा है। तुलसी दास की रामायण पूरी दुनिया में पढ़ी और गाई जाती है। लता मंगेशकर का गाना पूरी दुनिया में सुना जाता है।

बीती जुलाई में तमिलनाडु के शहर कोयम्बटूर गया था , वहां भी हिंदी बोलने वाले लोग मिले। शहर में हिंदी में लिखे बोर्ड भी मिले। ख़ास कर बैंकों के नाम। एयरपोर्ट पर तो बोर्डिंग वाली लड़की मेरी पत्नी को बड़ी आत्मीयता और आदर से मां कहती मिली। मंदिरों में हिंदी के भजन सुनने को मिले। मेरी बेटी का विवाह केरल में हुआ है। वहां हाई स्कूल तक हिंदी अनिवार्य विषय है। मेरी बेटी की चचिया सास इंडियन एयर लाइंस में हिंदी अधिकारी हैं। मेरे दामाद डाक्टर सवित प्रभु बैंक समेत हर कहीं हिंदी में ही दस्तखत करते हैं। मेरे पितामह और पड़ पितामह ब्राह्मण होते हुए भी उर्दू और फ़ारसी के अध्यापक थे। हेड मास्टर रहे। महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश के लोगों ने मेरे हिंदी उपन्यासों पर रिसर्च किए हैं। अभी भी कर रहे हैं। पंजाबी , मराठी , उर्दू और अंगरेजी में मेरी कविताओं और कहानियों के अनुवाद लोगों ने अपनी पसंद और दिलचस्पी से किए हैं। मराठी की प्रिया जलतारे जी [ Priya Jaltare ] तो जब-तब मेरी रचनाओं , कविता , कहानी , ग़ज़ल के मराठी में अनुवाद करती ही रहती हैं ।

मुंबई में भी लोगों को बेलाग हिंदी बोलते देखा है । नार्थ ईस्ट के गौहाटी , शिलांग , चेरापूंजी , दार्जिलिंग , गैंगटोक आदि कई शहरों में गया हूं , हर जगह हिंदी बोलने , समझने वाले लोग मिले हैं। कोलकाता में भी। श्रीलंका के कई शहरों में गया हूं। होटल समेत और भी जगहों पर लोग हिंदी बोलते , हिंदी फिल्मों के गाने गाते हुए लोग मिले। तमाम राष्ट्राध्यक्षों को नमस्ते ही सही , हिंदी बोलते देखा है। लेकिन भारत ही एक ऐसी जगह है जहां लोग हिंदी के नाम पर नफ़रत फैलाते हैं। महात्मा गांधी गुजराती थे लेकिन उन्हों ने हिंदी की ताकत को न सिर्फ़ समझा बल्कि आज़ादी की लड़ाई का प्रमुख स्वर हिंदी ही को बनाया। अंगरेजी वाले ब्रिटिशर्स को हिंदी बोल कर भगाया। गुजराती नरेंद्र मोदी भी दुनिया भर में अपने भाषण हिंदी में ही देते हैं। उन की हिंदी में ही दुनिया भर के लोग उन के मुरीद होते हैं। अभी जल्दी ही अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चुटकी लेते हुए कहा भी कि नरेंद्र मोदी अंगरेजी अच्छी जानते हैं पर बोलते हिंदी में ही हैं। प्रधान मंत्री रहे नरसिंहा राव तेलुगु भाषी थे पर हिंदी में भाषण झूम कर देते थे।

जयललिता भले हिंदी विरोधी राजनीति करती थीं पर हिंदी फ़िल्मों की हिरोइन भी थीं। धर्मेंद्र उन के हीरो हुआ करते थे। जयललिता हिंदी अच्छी बोलती भी थीं। वैजयंती माला , वहीदा रहमान , हेमा मालिनी , रेखा , श्रीदेवी , विद्या बालन आदि तमाम हीरोइनें तमिल वाली ही हैं। बंगाली , मराठी , पंजाबी और तमिल लोगों का हिंदी फिल्मों में जो अवदान है वह अद्भुत है। निर्देशन , गीत , संगीत , अभिनय आदि हर कहीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर विदेश मंत्री जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दे कर हिंदी की वैश्विक पताका फहराई थी तो पूरा देश झूम गया था। सुषमा स्वराज ने बतौर विदेश मंत्री , संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी द्वारा बोए हिंदी के बीज को वृक्ष के रूप में पोषित किया। यह अच्छा ही लगा कि आज एक और गुजराती अमित शाह ने हिंदी के पक्ष में बहुत ताकतवर और बढ़िया भाषण दिया है। अमित शाह के आज के भाषण से उम्मीद जगी है कि हिंदी जल्दी ही राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी। शायद इसी लिए डी राजा समेत ओवैसी समेत कुछ लोग बौखला कर हिंदी को हिंदुत्व की भाषा बताने लग गए हैं। इन की बौखलाहट बताती है कि हिंदी भाषा का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। जय हिंदी , जय भारत !

जैसे नदियां , नदियों से मिलती हैं तो बड़ी बनती हैं , भाषा भी ऐसे ही एक दूसरे से मिल कर बड़ी बनती है । सभी भाषाओँ को आपस में मिलते रहना चाहिए। संस्कृत , अरबी , हिंदी , उर्दू , फ़ारसी , अंगरेजी , तमिल , तेलगू , कन्नड़ , मराठी , बंगाली , रूसी , जापानी आदि-इत्यादि का विवाद बेमानी है। अंगरेजी ने साइंस की ज्यादातर बातें फ्रेंच से उठा लीं , रोमन में लिख कर उसे अंगरेजी का बना लिया। तो अंगरेजी इस से समृद्ध हुई और फ्रेंच भी विपन्न नहीं हुई। भाषा वही जीवित रहती है जो नदी की तरह निरंतर बहती हुई हर किसी से मिलती-जुलती रहती है। अब देखिए गंगा हर नदी से मिलती हुई चलती है और विशाल से विशालतर हुई जाती है। हिंदी ने भी इधर उड़ान इसी लिए भरी है कि अब वह सब से मिलने लगी है। भाषाई विवाद और छुआछूत भाषा ही को नहीं मनुष्यता को भी नष्ट करती है। भाषा और साहित्य मनुष्यता की सेतु है , इसे सेतु ही रहने दीजिए।

कुछ लोगों को हिंदी वर्तनी पर ऐतराज है। बुरी आदत के चलते यह तोहमत भारत सरकार पर लगा रहे हैं । इन लोगों को जान लेना चाहिए कि यह हिन्दी को हिंदी किसी भारत सरकार ने नहीं , आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने किया है । बिंदी वाली हिंदी उन्हीं की देन है। मैं ने 1981 में आचार्य किशोरी दास वाजपेयी की यह किताब पढ़ी थी। न सिर्फ़ पढ़ी थी बल्कि आज भी उस वर्तनी को फालो करता हूं। तब सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में नौकरी करता था। भाषाविद अरविंद कुमार संपादक थे। उन्हों ने इसे पढ़ना और गुनना सिखाया। बाद में 1983 में जनसत्ता में गया तो जनसत्ता के संपादक प्रभाष जी ने भी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की इसी वर्तनी को फालो किया। यही वर्तनी वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही है। भवानी प्रसाद मिश्र कहते भी थे कि जैसा तू बोलता है , वैसा ही लिख। यह भी जान लीजिए कि कोई भी भाषा रोजगार और बाज़ार बनाते हैं , विद्वान नहीं। आज हिंदी अगर टिकी हुई है तो यह हिंदी के बाज़ार की ताकत है। नहीं रोजगार तो अब अंगरेजी में ही है।

अब पहले अ पर ए की मात्रा लगा कर एक लिखा जाता था। गांधी की पुरानी किताबें उठा कर देखिए। कुछ और ही वर्तनी है। गुजराती से मिलती-जुलती। भारतेंदु की , प्रेमचंद की पुरानी किताबें पलटिए वर्तनी की लीला ही कुछ और है। सौभाग्य से मैं ने तुलसी दास के श्री रामचरित मानस की पांडुलिपि भी देखी है। श्री रामचरित मानस के बहुत पुराने संस्करण भी। वर्तनी में बहुत भारी बदलाव है। वर्तनी कोई भी उपयोग कीजिए , बस एकरूपता बनी रहनी चाहिए। अब यह नहीं कि एक ही पैरे में सम्बन्ध भी लिखें और संबंध भी । आए भी और आये भी। गयी भी और गई भी। सभी सही हैं , कोई ग़लत नहीं। लेकिन कोशिश क्या पूरी बाध्यता होनी चाहिए कि जो भी लिखिए , एक ही लिखिए। एकरूपता बनी रहे। यह और ऐसी बातों का विस्तार बहुत है। भाषा विज्ञान विषय और भाषाविद का काम बहुत कठिन और श्रम साध्य है। लफ्फाजी नहीं है। पाणिनि होना , किशोरी प्रसाद वाजपेयी होना , भोलानाथ तिवारी होना , रौजेट होना , अरविंद कुमार [ Arvind Kumar ] होना , बरसों की तपस्या , मेहनत और साधना का सुफल होता है। व्याकरणाचार्य होना एक युग की तरह जीना होता है। वर्तनी और भाषा सिर्फ़ विद्वानों की कृपा पर ही नहीं है। छापाखानों का भी बहुत योगदान है। उन की सुविधा ने , कठिनाई ने भी बहुत से शब्द बदले हैं। चांद भले अब सपना न हो , पर चंद्र बिंदु अब कुछ समय में सपना हो जाएगा। हुआ यह कि हैंड कंपोजिंग के समय यह चंद्र बिंदु वाला चिन्ह का फांट छपाई में एक सीमा के बाद कमज़ोर होने के कारण टूट जाता था। तो कुछ पन्नों में चंद्र बिंदु होता था , कुछ में नहीं। तो रसाघात होता था। अंततः धीरे-धीरे इस से छुट्टी ली जाने लगी। बहस यहां तक हुई कि हंस और हंसने का फर्क भी कुछ होता है ? पर छापाखाने की दुविधा कहिए या सुविधा में यह बहस गुम होती गई। यही हाल , आधा न , आधा म के साथ भी होता रहा तो इन से भी छुट्टी ले ली गई। ऐसे और भी तमाम शब्द हैं । जब कंप्यूटर आया तो और बदलाव हुए। यूनीकोड आया तो और हुए। अभी और भी बहुत होंगे। तकनीक बदलेगी , बाज़ार और मन के भाव बदलेंगे तो भाषा , शब्द और वर्तनी भी ठहर कर नहीं रह सकेंगे। यह सब भी बदलते रहेंगे। भाषा नदी है , मोड़ पर मोड़ लेती रहेगी। कभी करवट , कभी बल खा कर , कभी सीधी , उतान बहेगी। बहने दीजिए। रोकिए मत। वीरेंद्र मिश्र लिख गए हैं , नदी का अंग कटेगा तो नदी रोएगी। भाषा और नदी कोई भी हो उसे रोने नहीं दीजिए , खिलखिलाने दीजिए ।

हम हिंदी की जय जयकार करने वाले कुछ थोड़े से बचे रह गए लोगों में से हैं । हिंदी हमारी अस्मिता है । हमारा गुरुर , हमारा मान है । यह भी सच है कि सब कुछ के बावजूद आज की तारीख में हिंदी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है । पर एक निर्मम सच यह भी है कि आज की तारीख में हिंदी की जय जयकार वही लोग करते हैं जो अंगरेजी से विपन्न हैं । हम भी उन्हीं कुछ विपन्न लोगों में से हैं । जो लोग थोड़ी बहुत भी अंगरेजी जानते हैं , वह हिंदी को गुलामों की भाषा मानते हैं । अंगरेजी ? अरे मैं देखता हूं कि मुट्ठी भर उर्दू जानने वाले लोग भी हिंदी को गुलामों की ही भाषा न सिर्फ़ मानते हैं बल्कि बड़ी हिकारत से देखते हैं हिंदी को । बंगला , मराठी , गुजराती , तमिल , तेलगू आदि जानने वालों को भी इन उर्दू वालों की मानसिकता में शुमार कर सकते हैं । नई पीढ़ी तो अब फ़िल्में भी हालीवुड की देखती है , बालीवुड वाली हिंदी फ़िल्में नहीं । पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी के लिए हिंदी अब दादी-दादा , नानी-नाना वाली भाषा है । वह हिंदी की गिनती भी नहीं जानती । सो जो दयनीय हालत कभी भोजपुरी , अवधी की थी , आज वही दयनीयता और दरिद्रता हिंदी की है । तो जानते हैं क्यों ? हिंदी को हम ने कभी तकनीकी भाषा के रुप में विकसित नहीं किया । विज्ञान , अर्थ , कानून , व्यापार कहीं भी हिंदी नहीं है । तो जो भाषा विज्ञान और तकनीक नहीं जानती , उसे अंतत: बोली जाने वाली भाषा बन कर ही रह जाना है , मर जाना है । दूसरे हिंदी साहित्य छापने वाले प्रकाशकों ने हिंदी को रिश्वत दे कर सरकारी ख़रीद की गुलाम बना कर मार दिया है । लेखक-पाठक का रिश्ता भी समाप्त कर दिया है । साहित्यकार खुद ही लिखता है , खुद ही पढ़ता है । हम हिंदी की लाख जय जयकार करते रहें , पितृपक्ष में हिंदी दिवस मनाते रहें , सरकारी स्तर पर , प्रशासनिक स्तर पर हिंदी अब सचमुच वेंटीलेटर पर है , बोलने वाली भाषा बन कर । दशकों पहले हरिशंकर परसाई ने लिखा था , हिंदी दिवस के दिन , हिंदी बोलने वाले , हिंदी बोलने वालों से कहते हैं कि हिंदी में बोलना चाहिए। आज भी यही सच है ! बस गनीमत यही है कि हिंदी का एक बड़ा बाज़ार है , इस बाज़ार में हिंदी का बड़ा रुतबा है। इस लिए हिंदी एक बड़ी नदी बन कर उछलती और मचलती हुई दुनिया से मिलने निकल पड़ी है । इसे दुनिया  
से मिलने दीजिए। विभिन्न भाषाओँ से मिलते हुए , नदी की तरह बहने दीजिए । विशाल से विशालतर बनने दीजिए। इस लिए भी कि हिंदी अब दुनिया की सब से बड़ी भाषा बनने की डगर पर चल पड़ी है।   

Saturday, 7 September 2019

चाहे कितना भी बड़ा वैज्ञानिक हो , वह भी टूटता है और रोता भी है


सुप्रसिद्ध उपन्यासकार अमृतलाल नागर से एक बार मैं ने विद्यार्थी भाव से पूछा था कि क्या साहित्यकार भी टूटता है ? तब विद्यार्थी था भी। नागर जी पान कूंचते हुए सहज भाव से बोले थे , ' साहित्यकार भी आदमी है , टूटता भी होगा। इस में पूछने की क्या बात है ? ' एक बार सुबह-सुबह गोर्की ताल्स्तॉय के पास पहुंचे। ताल्स्तॉय उस समय एक शीशी से कार्क निकालने में व्यस्त थे। कार्क था कि निकल ही नहीं रहा था । बहुत कोशिशों के बाद आखिर कार्क निकला लेकिन साथ ही शीशी भी टूट गई। गोर्की से रहा नहीं गया। बोले , ' ओह , शीशी टूट गई।' यह सुनते ही ताल्स्तॉय , गोर्की पर बुरी तरह भड़क गए। बोले , ' भाग जाओ , यहां से ! अब तुम्हें चाय भी नहीं पिलाऊंगा। ' ताल्स्तॉय गोर्की से आहत हो कर बोले , ' तुम्हें शीशी का टूटना तो दिख रहा है , मेरा टूटना नहीं दिख रहा ? ' इसरो चीफ़ के सीवन का रोना देख कर यह दोनों बातें सहसा याद आ गईं। नागर जी का कहा बरबस याद आ गया । पता लग गया कि एक वैज्ञानिक भी आदमी ही होता है। चाहे कितना भी बड़ा वैज्ञानिक हो , वह भी टूटता है और रोता भी है। भूल जाता है कि सब के सामने नहीं रोना चाहिए। जैसे कि कभी यह सुनने और पढ़ने को मिलता था कि नेहरु सब के सामने नहीं रोया करते। सब कुछ भूल-भाल कर एक छोटी सी असफलता पर इसरो चीफ़ के सीवन टूट गए और टूट कर रो पड़े।

संयोग से रोने के लिए उन्हें प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का मज़बूत कंधा मिला। बस क्या था ! एक से एक सूरमा , एक से एक मवाद हुसेन , मवाद मिश्र , मवाद सिंह लोग अपनी-अपनी काठ की तलवार ले कर कूद पड़े। अपनी बीमारी , मुंह और कलम का बवासीर ले कर मवाद फ़ैलाने लगे। इसरो चीफ़ के सीवन के रोने , मोदी के कंधे की तफ़सील में सान कर इजहारे कुढ़न की इबारत बांचने लगे। यह वही मुट्ठी भर लोग हैं जो उरी के बाद सर्जिकल स्ट्राइक , पुलवामा के बाद बालाकोट में एयर स्ट्राइक के सुबूत मांगने में अपना खून जलाते-जलाते खुद जलने लगे। के सीवन और इसरो की मेहनत का मजाक उड़ाने वाले यह लोग कोढ़ हैं इस समाज और देश पर। वैज्ञानिक कोशिशें , परचून की दुकान या कोई माल नहीं होतीं कि आप पैसा और झोला ले कर जा कर सामान लेते आएं। वैज्ञानिक कोशिशें कामयाब भी होती हैं और नाकाम भी। नाकामी पर इस तरह बीमारी के साथ उपस्थित होने से बचा भी जा सकता है। चुप रहना भी एक कला होती है। यह समय इसरो के वैज्ञानिकों के साथ , देश के साथ खड़े रहने का है , उन का मजाक उड़ाने का नहीं। लेकिन यह मवाद और बवासीर ब्रिगेड देश की हर सफलता में भी छेद खोज लेने की कुत्ता कोशिश में कूद पड़ती है। फिर निरंतर मुंह की खा कर नया छेद खोजने में मसरूफ हो जाने में महारत भी रखती है। यह पढ़े-लिखे कबीलाई लोग हैं।

Tuesday, 3 September 2019

सुषमा जी यहां हैं !

दयानंद पांडेय 

सुषमा स्वराज 


थीं तो वह सुषमा ही। लेकिन मैं उन्हें लेडी आयरन की तरह याद करना चाहता हूं। ममत्व से भरी एक मां की तरह याद करना चाहता हूं। एक जनप्रिय विदेश मंत्री की तरह याद करते रहना चाहता हूं। सुषमा शर्मा से सुषमा स्वराज हुईं सुषमा का जीवन अपनी बेटी बांसुरी के नाम की तरह ही सुरीला है। बहुत ही सुरीला। हरि प्रसाद चौरसिया के बांसुरी वादन से भी ज़्यादा सुरीला। शिव कुमार शर्मा के संतूर से भी ज़्यादा मीठा और बिस्मिल्ला खान की शहनाई से भी ज़्यादा गमक और ज़ाकिर हुसैन के तबले से भी ज़्यादा ठसक वाला। एक से एक गुणी , एक से एक डिप्लोमेटिक , एक से एक चतुर और निष्णात विदेश मंत्री हुए हैं भारत में। लेकिन सुषमा स्वराज सा लोकप्रिय और जनप्रिय एक नहीं हुआ। सुषमा के गुरु अटल बिहारी वाजपेयी भी नहीं। जनता से इतना कनेक्ट कोई विदेश मंत्री नहीं हुआ। विदेश मंत्री के नाते जो लकीर सुषमा स्वराज ने खींची है उसे मिटा पाना नामुमकिन है। इस से बड़ी लकीर खींच पाना किसी के वश का है भी नहीं। कभी नेता प्रतिपक्ष होते हुए संसद में अपने एक धारदार भाषण में लगभग ललकार कर कहा था कि हां , मैं सांप्रदायिक हूं। क्यों कि हम 370 हटाना चाहते हैं। क्यों कि हम समान नागरिक संहिता की बात करते हैं। इसी तरह के तमाम अकाट्य तर्क जो भाजपा के एजेंडे में हैं , जिन्हें हिंदुत्ववादी राजनीति के खांचे में सो काल्ड सेक्यूलर लोग डाल देते हैं।  सुषमा स्वराज ने इन सभी पर निरंतर तंज करते हुए कहा था उस भाषण में किसी संपुट की तरह कि हां , मैं सांप्रदायिक हूं ! पूरी संसद स्तब्ध थी। लेकिन बतौर मंत्री ख़ास कर विदेश मंत्री रहते सुषमा स्वराज ने हिंदू , मुसलमान नहीं देखा।  सेक्यूलर , कम्यूनल नहीं देखा। देखा तो सिर्फ मनुष्यता देखी। भारत देश देखा। जैसे वह कभी भी , कहीं से भी चुनाव लड़ सकती थीं , जीत और हार सकती थीं वैसे ही कभी भी किसी भी की मदद कर खुश हो सकती थीं। 

कभी हरियाणा राज्य में मंत्री रहीं , दिल्ली की मुख्य मंत्री रहीं , केंद्र में सूचना प्रसारण मंत्री रहीं , संचार मंत्री रहीं , नेता प्रतिपक्ष और बतौर पार्टी प्रवक्ता भी सुषमा स्वराज को हम बहुत याद करते हैं। याद करते हैं उन की सुगमता , सौजन्यता , संवेदना और सक्रियता के लिए। लेकिन बतौर विदेश मंत्री न सिर्फ़ देश और नरेंद्र मोदी सरकार की संकटमोचक बनीं बल्कि देश , विदेश की जनता की भी संकटमोचक बनीं। हम कैसे भुला सकते हैं जब फरवरी , 2015 में जब सुषमा जी ने ईरान के बसरा में बंधक बनाए गए 168 भारतीयों की मदद की और उन्हें छुड़ाया। 2015 में ही बर्लिन में फंसे एक भारतीय व्यक्ति का पासपोर्ट और पैसे कहीं गायब हो गए । सुषमा स्वराज ने उसे फौरन मदद की। भारतीय दूतावास से उस के पासपोर्ट और टिकट का बंदोबस्त करवाया। उन्हों ने दुबई में रहने वाले पाकिस्तानी नागरिक तौकीर अली की जिस तरह मदद की वह सुषमा जी को कैसे भूल सकता है भला ? तौकीर ने अपने बेटे के इलाज के लिए भारत सरकार से अनुरोध किया था।  12 घंटे के भीतर ही उसे मदद मिल गई थी।

2016 में जोधपुर के रहने वाले नरेश तेवाणी और पाकिस्तान में कराची की प्रिया बच्चाणी की शादी तय हुई थी। लेकिन पाकिस्तान स्थित  भारतीय दूतावास ने दुल्हन के परिवार और रिश्तेदारों को वीजा जारी करने से मना कर दिया। शादी खटाई में पड़ गई। नरेश ने थक हार कर ट्विटर पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मदद मांगी। . सुषमा जी ने न सिर्फ़ नरेश को भरोसा दिया बल्कि भारत का वीजा भी दिलवाया।  एक यमनी महिला की शादी एक भारतीय से हुई थी। महिला ने अपनी 8 महीने की बच्ची की तस्वीर ट्वीट करते हुए विवादित क्षेत्र से निकालने की गुहार लगाई थी। सुषमा स्वराज ने उसे सकुशल निकाला भी वहां से। यह भी 2015 की बात है। 2016 में अपने भाई को बचाने के लिए दोहा हवाई अड्डे पर फंसे एक व्यक्ति की मदद भी सुषमा जी ने की। 

2017 में दिल की बीमारी से ग्रसित पाकिस्तान की एक लड़की शिरीन शिराज़ को ओपन हार्ट सर्जरी के लिए एक साल का मेडिकल वीजा देना भी सुषमा जी के खाते में है।  इसके अलावा साल 2017 में ही सुषमा जी ने दो अन्य पाकिस्तानी नागरिकों को भारत में सर्जरी के लिए मेडिकल वीजा उपलब्ध करवाया था। ठीक वैसे ही जैसे कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने ग़ज़ल गायक मेंहदी हसन को भारत बुला कर उन का इलाज करवाया था। रात के दो बजे भी कोई सुषमा स्वराज को ट्विटर पर पुकार सकता था। फोन पर गुहरा सकता था। और वह पुकार सुन कर फौरन आप की मदद भी कर देती थीं। कुछ लोग उन्हें तंज में ट्विटर मंत्री भी कहा करते थे। तो कुछ लोगों का दावा था कि अगर आप मंगल ग्रह पर फंस गए हैं तो भारतीय दूतावास वहां भी मदद करने मे सक्षम है। यही कारण था कि ट्विटर पर युवाओं की एक बड़ी संख्या ने सुषमा स्वराज को फॉलो किया था। मूक बधिर गीता जो बचपन में गलती से पाकिस्तान पहुंच गई थी , उसे बेटी की तरह कैसे तो सुषमा जी भारत ले आई थीं। और वह आते ही कैसे तो लपक कर सुषमा जी के सीने में समा गई थी। इसी तरह दो नाबालिग पाकिस्तानी हिंदू लड़कियों को जबरन इस्लाम अपनाने पर मजबूर किया जा रहा था और मुस्लिम पुरुषों से उन की शादी करवाई जा रही थी। 26 मार्च, 2019 की यह बात है। सुषमा स्वराज के दबाव के चलते  इमरान खान की सरकार को झुकना पड़ा। और कि कथित तौर पर अगवा की गई इन लड़कियों को इन के घर भेजा गया। इन को सुरक्षा भी दी गई।


यह और ऐसे बहुतरे किस्से हैं सुषमा स्वराज के। बतौर विदेश मंत्री वह नरेंद्र मोदी सरकार की सब से बड़ी ताकत थीं। और उन की ताकत थे पूर्व सेनाध्यक्ष रहे वी के सिंह और पत्रकार एम  जे अकबर। दोनों दो ध्रुव। पर जिस खूबी से बिना किसी विवाद के सुषमा जी ने इन दोनों के साथ विदेश मंत्रालय संभाला , वह अदभुत था। अदभुत ही था जब बीते चुनाव में खुद चुनाव मैदान से भले बाहर थीं पर अपने सहयोगी वी के सिंह के चुनाव प्रचार में गाज़ियाबाद गईं और वहां की जनता से आह्वान किया कि मेरे संकटमोचक को आप लोग ज़रूर वोट दीजिए और विजयी बनाइए। राजनीति में ऐसा कितने लोग कह और कर पाते हैं। सुषमा स्वराज जो विदेशों में फंसे लोगों का  सर्वदा संकटमोचक बनती थीं , कितनी सहजता से अपने सहयोगी को अपना संकटमोचक बता रही थीं और हाथ जोड़ कर बता रही थीं। यह आसान नहीं था। कुटिल राजनेताओं के बीच अपनी सहजता को आप बचा पाएं यह शायद ही सहज होता है। लेकिन सुषमा स्वराज ने अपनी सहजता सर्वदा बचा कर ही रखी थी। बहुत कम लोग अब यह याद कर पाते हैं कि भारतीय टेलीफोन में प्राइवेट सेक्टर की शुरुआत बतौर संचार मंत्री सुषमा स्वराज ने ही की थी। इंदौर से। दिल्ली के तमाम विकास कार्य के लिए हम शीला दीक्षित को याद करते हैं। लेकिन इन में से कुछ काम सुषमा स्वराज के खाते में भी हैं। सीखने , समझने और सुनने का शऊर किसी को सीखना हो तो सुषमा स्वराज से सीखे। तमाम महिला राजनीतिज्ञ हुई हैं लेकिन मार्गरेट थ्रैचर , इंदिरा गांधी को आयरन लेडी कहा गया है। कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि सुषमा स्वराज भी आयरन लेडी थीं।


एक समय था जब मैं भाजपा में अटल जी के बाद सुषमा स्वराज में ही भाजपा और देश का भविष्य देखता था। भावी प्रधान मंत्री के रुप में देखता था। मेरी पसंदीदा नेता थीं सुषमा जी। उन के जैसी विदुषी , मृदुभाषी और ओजस्वी नेता अब कोई और नहीं। किडनी ट्रांसप्लांट की मुश्किल से गुज़र रहीं , सुषमा जी दिल का दौरा पड़ने से जब विदा हुईं तो सहसा यह ख़बर सुन कर विश्वास ही नहीं हुआ। सुप्रीमकोर्ट में इमरजेंसी के समय जार्ज फर्नांडीज का डाइनामाईट केस लड़ने वाली सुषमा जी हरियाणा की सब से कम उम्र की विधायक और मंत्री बनी थीं। समाजवादी से भाजपाई बनी सुषमा जी , अटल जी और आडवाणी जी दोनों की प्रिय थीं। दिल्ली की मुख्य मंत्री थीं , केंद्रीय मंत्री भी थीं पर बतौर विदेश मंत्री उन की पाली अदभुत थी। उन के साथ की बहुतेरी यादें हैं। लेकिन एक बात कभी नहीं भूलती। 1996 की बात है । उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी राज्यपाल थे। केंद्र के इशारे पर भंडारी ने कल्याण सिंह को मुख्य मंत्री बनने से रोकने के लिए तमाम बैरियर लगा रखे थे । उन्हीं दिनों लालकृष्ण आडवाणी के साथ सुषमा स्वराज लखनऊ आई थीं। प्रमोद महाजन भी आए थे। आडवाणी जी और प्रमोद महाजन का इंटरव्यू कर चुका था। सुषमा जी का बाकी था । तय हुआ कि कल्याण सिंह के घर पर वह मिलेंगी। निश्चित समय पर पहुंचा कल्याण सिंह के घर। कल्याण सिंह से भी बात हुई। अचानक लान में खड़े-खड़े सामने खड़े कल्याण सिंह से ही ज़रा जोर से पूछ बैठा , सुषमा जी कहां हैं ? कल्याण सिंह कुछ कहते उस के पहले ही , सुषमा जी चहकती हुई बोलीं , ' सुषमा जी यहां हैं ! '

वह अचानक आ कर मेरे बगल में खड़ी हो गई थीं। मैं सकुचा गया। लेकिन सुषमा जी ने मुझे शर्मिंदा होने नहीं दिया , आगे चलती हुई अपनी खनकती आवाज़ में बोलीं , आइए हम लोग भीतर बैठ जाते हैं। अब जब चली गई हैं तो लगता है जैसी सचमुच वह अभी फिर से बोल देंगी कि , ' सुषमा जी यहां हैं ! ' संसद में कई बार उन को बोलते सुन कर मंत्रमुग्ध हो जाता था। खास कर बीते दिनों संस्कृत पर दिया गया उन का व्याख्यान खूब वायरल हुआ था। ऐसा तार्किक और तथ्यात्मक भाषण तो न भूतो , न भविष्यति ! तीज-त्यौहार में खूब चटक सिंदूर और मेहदी लगा कर उन का बन-ठन कर झूला झूलना , उन का नाचना आदि बहुत याद आएगा। सोचिए कि वह अस्पताल में थीं और 370 पर ट्विट कर बधाई देना नहीं भूलीं प्रधान मंत्री को। संसद में उन के जैसी ओजस्वी वक्ता , उन के जैसा भाषण देने वाली दूसरी स्त्री मैं ने नहीं देखी। आगे भी क्या देखूंगा। दिखने , मिलने में वह राजनीतिज्ञ लगती ही नहीं थीं । एकदम पारिवारिक महिला थीं। क्या-क्या कहूं , क्या-क्या न कहूं ।  सुषमा जी भारतीय संस्कृति की संवाहक ,विदुषी, वाकपटु और सम्मोहित व्यक्तित्व वाली राजनेता थीं। विदेश मंत्री के रूप में उन का संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान को बुरी तरह से फटकार वाली हिंदी में दिया गया भाषण याद है।ऐसा लगता है कि वे केवल कश्मीर में अनुच्छेद 370 के समापन को सुनने के लिए ही जीवित रहीं। उन के जाने से जनभाषा की संसंदीय सुषमा समाप्त हो गई ! वैयक्तिक आभा का एक युग जी कर हमारे समय की शीर्षतम विदुषी, अटल जी के बाद की सर्वाधिक संतुलित व सम्मोहक संसदीय वक्ता सुषमा स्वराज को किस-किस तरह से याद करुं , समझ नहीं आता। पर सुषमा जी , बस इतना जानिए कि आप हरदम बहुत याद आएगी। भगवान आप की आत्मा को शांति दे । विनम्र श्रद्धांजलि !

[ पाखी , सितंबर , 2019 अंक में प्रकाशित ]














Sunday, 1 September 2019

जुबां अना जमीर सब सही सलामत है बेचा नहीं कभी कहीं

1970 में फ़िराक गोरखपुरी को ज्ञानपीठ मिला तो लोगों ने उन से पूछा कि आप अब इतने सारे पैसे का क्या करेंगे । इस के दो साल पहले इलाहाबाद में ही रहने वाले सुमित्रानंदन पंत को 1968 में ज्ञानपीठ मिल चुका था । ज्ञानपीठ से मिले पैसों से उन्हों ने एक कार ख़रीद ली थी । जिस को फ़िराक साहब मोटर कहते थे । तो लोगों ने पंत जी की कार का हवाला देते हुए फ़िराक से पूछा , इन पैसों का आप क्या करेंगे ? फ़िराक ने शराब की ओर इंगित करते हुए हंस कर कहा कि इस मद में कुछ बकाया कर्जा था , वह चुका दिया है और जो पैसा बच गया उस की भी ख़रीद कर घर में भर दिया है । पैसा बचा ही कहां कि कुछ और सोचें । ऐसे ही एक समय अमृतलाल नागर को लगातार दो लखटकिया पुरस्कार मिले । एक उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का एक लाख का भारत भारती दूसरे , बिहार सरकार का भी एक लाख का पुरस्कार । मैं ने नागर जी से एक दिन बातचीत में कहा कि चलिए , अब कुछ तो आर्थिक कष्ट पर विजय मिली । आप के पास अब पैसा ही पैसा है । नागर जी हंसते हुए बोले , कहां पैसे ही पैसे ? नातिनों की शादी करनी है । जहां भी जाते हैं लोग मुंह बा देते हैं और कहते हैं , आप के पास तो पैसा बहुत है ।

ऐसे ही जब श्रीलाल शुक्ल को भारत भारती मिला तो उन्हें बधाई दी तो वह ख़ुश हुए । इस बीच उन्हीं दिनों , उन को भी दो-तीन पुरस्कार मिले थे । सो वह प्रसन्न बहुत थे । श्रीलाल जी को नागर जी की तरह कोई आर्थिक कष्ट भी नहीं थे । आई ए एस से रिटायर हुए थे । ठीक-ठाक पेंशन भी मिलती थी । तो वह बोले , जितना पैसा इन पुरस्कारों से मिल गया है , अब तक कभी इतना पैसा रायल्टी से नहीं मिला । अलग बात है कि जब श्रीलाल जी को ज्ञानपीठ मिला तब तक वह अचेतन अवस्था में जा चुके थे । न उस पैसे का वह कुछ कर पाए , न वह कुछ जान पाए कि क्या मिला , क्या नहीं मिला । इसी लिए मेरा मानना है कि लेखकों या किसी भी को कोई पुरस्कार या सम्मान उस की रचनात्मक सक्रियता के दौरान ही दे दिया जाना चाहिए । उस के मृत्यु शैया पर जाने की प्रतीक्षा से बचना चाहिए । सोचिए कि रामदरश मिश्र को साहित्य अकादमी 90 साल की उम्र में मिला । बस संयोग ही है कि अभी भी वह पूरी तरह स्वस्थ हैं । बहरहाल अभी जब मुझे भी एक लखटकिया पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई तो फ़ेसबुक पर एक महिला मित्र ने मौज लेते हुए कमेंट लिखा कि इतने सारे पैसे का आप क्या करेंगे ? मैं ने भी उन को मौज में बता दिया कि सोच रहा हूं कि अंबानी का सारा साम्राज्य ख़रीद लूं । बात यहीं नहीं रुकी । एक दूसरे मित्र ने अपने कमेंट में प्रश्न किया कि बाक़ी बचे पैसों का क्या करेंगे ? मैं ने उन्हें बताया कि बाक़ी बचा पैसा आप को सौंप देंगे । इतना ही नहीं इलाहाबाद से हमारी एक बहन आरती मोहन की राखी देर से सही आज मिली तो मैं ने उन्हें सूचना दी । आरती का पलट कर संदेश आया कि , भैया , बहुत सही समय से आप को राखी मिली है , दो लाख रुपए जो मिले हैं , फौरन ले कर आ जाइए । हे-हे ! अब कौन बताए आरती को कि अभी ऐलान हुआ है । खैर यह तो जीवन की आपाधापी है ।

सच यही है कि दो लाख , पांच लाख , ग्यारह लाख के मिलने वाले पुरस्कार से जिंदगी के आर्थिक मोर्चे पर आप कुछ नहीं कर सकते । दो-तीन महीने का रूटीन खर्च भी नहीं चल सकता एक आदमी का । बहुत कर सकते हैं तो बस नैनो कार खरीद सकते हैं । जो अब बनना बंद हो चुकी है । आप कार नहीं खरीद सकते हैं , एक कमरे का घर भी नहीं खरीद सकते हैं इन पैसों से । अब तो अच्छा टी वी या लैपटाप भी लाख-डेढ़ लाख का मिल रहा है । जब कि बुकर , मैग्सेसे या नोबेल पाने वाले लोग अपना जीवन मौज से काट सकते हैं । दूसरों का भी संभाल सकते हैं । तो भारत में इस बूंद भर पैसे का क्या हासिल भला । खैर , मध्यवर्गीय पत्नी की तरह हमारी पत्नी भी इस बूंद भर मिलने वाले पैसे को ले कर बहुत पजेसिव थीं कल तो छोटी बेटी ने एक बात कह कर उन की आंख खोल दी । बताया कि क्या मम्मी , यह दो लाख तो मेरी दो महीने की सेलरी से भी कम है । यह पैसा मिलते-मिलते हो सकता है कि मेरी एक महीने की सेलरी से भी कम हो जाए । पत्नी चुप हो गईं । तो जिस दो , चार , पांच लाख के पुरस्कार पाने के लिए तमाम लेखक क्या-क्या नहीं कर गुज़रते। इस पुरस्कार और पैसे का जीवन में कुछ बहुत अर्थ नहीं है सिवाय आत्म-मुग्धता और आत्म श्लाघा के । हां , लेकिन यह एक तत्व ज़रूर महत्वपूर्ण है कि एक संतोष मिलता है कि जैसे भी हो , दिखावटी ही सही , हमारे लिखे को इस निर्मम समाज में एक स्वीकृति मिली । हालां कि यह संतोष भी क्षणिक ही होता है । पानी का बुलबुला बन कर तब और फूटता है , जब लेखकों के बीच तत्कालीन सरकारों से इन पुरस्कारों को जोड़ कर आपसी थुक्का-फज़ीहत शुरू हो जाती है । यह भूल-भाल कर कि सरकार चाहे जो हो , जिस की भी हो , जनता की चुनी हुई होती है । फिर यह पैसा किसी के बाप का नहीं , हमारे आप के जमा किए टैक्स का पैसा होता है । यानी हमारा ही पैसा । फिर भी लोगों की नज़र में बशीर बद्र का एक शेर मौजू हो जाता है :

वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही खुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निजाम है ।

बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आंच ना तुझपे आयेगी
ये जुबां किसी ने खरीद ली ये कलम किसी का गुलाम है ।

लेकिन यहां मैं अपने लिए , अपने ही तीन शेर याद करना चाहता हूं :

सफलता बांध लेती है बेजमीरी के गमले में बोनसाई बना कर
बड़े-बड़ों को देखा है कुत्तों की तरह पट्टा बांधे सब के सामने

कभी झुकता नहीं बेचा नहीं जमीर किसी सुविधा की तलब में
असफल हूं तो क्या हुआ सीना तान कर खड़ा हूं सब के सामने

जुबां अना जमीर सब सही सलामत है बेचा नहीं कभी कहीं
मेरी ज़िंदगी खुली किताब है हाजिर है सर्वदा सब के सामने