Friday, 31 January 2014

स्त्री मन को झकझोर देने वाली कहानियां

 [शन्नो अग्रवाल कोई पेशेवर आलोचक नहीं हैं । बल्कि एक दुर्लभ पाठिका हैं । कोई आलोचकीय चश्मा या किसी आलोचकीय शब्दावली, शिल्प और व्यंजना या किसी आलोचकीय पाठ से बहुत दूर उन की निश्छल टिप्पणियां पाठक और लेखक के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाती हैं । शन्नो जी इस या उस खेमे से जुडी हुई भी नहीं हैं । यू के में रहती हैं, गृहिणी हैं और सरोकारनामा पर यह और ऐसी बाक़ी रचनाएं पढ़ कर अपनी भावुक और बेबाक टिप्पणियां अविकल भाव से लिख भेजती हैं । ]
 
शन्नो अग्रवाल

प्रेम शब्द से सारी दुनिया परिचित है l यह एक ऐसी अनुभूति है जिस के बिना इंसान को सारा जीवन निरर्थक लगने लगता है l इस अनुभति के विभिन्न रूप लोगों के जीवन में देखने को मिलते हैं l प्रेम कहीं पूजा है, कहीं तपस्या है l प्रेम के बिना जीवन मरुथल है l इस के बिना इंसान को जीवन की राहें बहुत लंबी लगने लगती हैं l समय-समय पर इसके बारे में कहानियाँ भी लिखी गयी हैं l प्रेम राधा और मीरा ने कृष्ण से किया l प्रेम के उदाहरण लैला-मजनू, शीरीं-फरहाद भी हैं l प्रेम के नाम पर लोगों की गर्दनें भी कट गयी हैं l कई बार प्रेम लोगों के मरने के बाद भी अमर रहता है l उन की गाथायें गाई जाती हैं l शाहजहाँ का प्रेम मुमताज के लिए ताजमहल के रूप में देखने को मिलता है l स्त्री-पुरुष के संबंधों में प्रेम के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं l अपनी सात प्रेम कहानियों में प्रसिद्ध लेखक दयानंद पांडेय जी ने स्त्री-पुरुष के समकालीन प्रेम संबंधों का विवरण अपनी सरल, सहज सुंदर भाषा-शैली में जिस तरह किया है उसे पढ़ कर पाठक का मन आंदोलित हो उठता है l मन स्त्री-पुरुष के रिश्तों के बारे में गंभीरता से सोचने पर मजबूर हो उठता है l ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने प्रेम के तमाम पहलुओं पर गहन चिंतन करते हुये इन कहानियों को लिखा है l प्रेम के विभिन्न रंगों में लिपटी इन कहानियों को पाठक तक पहुँचाने की जिम्मेवारी को आपने बखूबी निभाया है l पढ़ कर मन कह उठता है 'काटा प्रेम-कीट ने जिस को, रास न आए फिर कुछ उस को l'



मैत्रेयी की मुश्किलें:

दयानंद जी की पहली कहानी की प्रेमिका मैत्रेयी लोगों पर हावी हो जाने के बारे में बदनाम है l लोग उस से दूर भागते रहते है l तकदीर की मारी ‘भड़भूजे के भाड़’ जैसी मैत्रेयी का अतीत अवसाद से भरा है l पहले के दो विवाह असफल होने के बाद नागेंद्र नाम के प्रेमी से अपने खोए हुए सुख को प्राप्त करना चाहती है l स्वभाव में एक तरफ उदारता की देवी और दूसरी तरफ बच्चों की तरह जिद पर अड़ने की आदत l नागेंद्र से वह बुरी तरह प्रेमासक्त है और एक पत्नी की तरह उस से मान-मनौवल की उम्मीद रखती है l प्रेमी को डर है समाज का पर उसे नहीं l शादी-शुदा प्रेमी मैत्रेयी के चक्कर में है l मैत्रेयी तो मन से उसे चाहती है पर नागेंद्र का प्रेम एक भँवरे की तरह है l और उस का मन मौका पाते ही अन्य स्त्रियों के लिए भी डावांडोल होता रहता है l ‘ब्यूटी एंड द बीस्ट’ वाली सिचुएशन है l नागेंद्र के शब्दों में‘ मर्द हूँ और लंपट किस्म का मर्द हूँ l विवाहित होने के वावजूद अगर उस के साथ हमबिस्तरी कर सकता हूँ तो बाकी और औरतों से भी राखी नहीं बंधवाई है l’ लेकिन ये सब जानने के बाद भी मैत्रेयी, जो आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं है, उन औरतों की तरह असहाय महसूस करती है जो समाज में एक पति के बिना नहीं रह सकतीं l और इसी लिए वह नागेंद्र को अपने सम्मोहन के जाल में फंसा कर अक्सर शादी का जिक्र करती रहती है l उसे उस की पत्नी व बच्चों की कोई परवाह नहीं l वह भी ऐसी स्त्रियों की तरह है जो प्रेमी की पहली पत्नी के संग भी जिंदगी शेयर करने को तैयार हो जाती हैं l ऐसी औरतें बिना पुरुष के समाज में अपने को असुरक्षित समझती हैं l मैत्रेयी का कहना है ‘दरअसल मुझे लगता है कि बिना बाप की बेटी और पति के औरत की समाज में, परिवार में बड़ी दुर्दशा होती है l' शायद ये कहते हुये वह भूल जाती है कि कभी उसका भी अजय नाम का पति था जो उस की सुरक्षा नहीं कर पाया बल्कि अपने घर वालों के संग मिल कर दहेज को ले कर मैत्रेयी की दुर्गति कर डाली थी l फिर भी अजय उस का पहला प्यार था और मैत्रेयी को उसे भुलाना मुश्किल है l इस समाज में अकेले जीवन व्यतीत करने की वजाय वो जानते हुए भी नागेंद्र जैसे लंपट किस्म के इंसान तक से शादी करने को तैयार रहती है l और भावनात्मक व आर्थिक सुरक्षा की खोज में अपने से काफी बड़ी उम्र तक के पुरुष से शादी कर लेती है l कई बार मैरिज फेल होने पर या कम उम्र में बाप का साया सर से उठ जाने पर औरत के जीवन में जो असुरक्षा की भावना निहित हो जाती है उसे अपनी उम्र से काफी बड़े व्यक्ति से शादी करके पूरी करना चाहती है l ऐसे पतियों को अंग्रेजी में ‘शुगर डैडी’ कहते हैं l दयानंद जी ने इस प्रेम कहानी में बड़ी कुशलता से इन सब पहलुओं का शब्दांकन किया है l

बर्फ़ में फँसी मछली:

इस दूसरी प्रेम कहानी को पढ़ना शुरू करते ही आइडिया होने लगता है कि ये कहानी एक लव मैनियेक के बारे में है l इस के प्रेमी को प्रेम का असली अर्थ ही नहीं पता l उसे हर लड़की से प्यार हो जाता है l शुरू में कभी उसे भी 'लव एट फर्स्ट साइट' हुआ था लेकिन उस लड़की की शादी कहीं और हो जाने से धीरे-धीरे इन का लव हवा हो जाता है l बाद में खुद की शादी करने के बाद भी फुटकर प्यार के किस्से चलते रहते हैं l कुछ लोगों के लिए प्यार एक मृगतृष्णा के समान है, उस के पीछे भागते ही रहते हैं l पता नहीं किन-किन लोगों के बीच अजीब परिस्थितियों में फँस कर भी उन की प्रेमासक्ति नहीं खत्म होती l इस कहानी में भी एक ऐसा ही लव मैनियेक है जो प्यार के पीछे लगातार भागता रहता है l इसे हर स्त्री से प्यार हो जाता है या होता रहता है l प्रेम ना हुआ जैसे एक रोग हो गया l 'तू नहीं तो और सही’ वाली सोच के इस इंसान को प्यार का गूढ़ अर्थ ही नहीं पता l जिस तरह फूड से हद का लगाव रखने वालों को फूड मैनियेक कहा जाता है, उन का मन तरह-तरह के खाने ढूंढ कर खाने को मन करता है और रोज उसी चक्कर में रहते हैं उसी तरह इस कहानी में प्रेम के रसास्वादन से मन ना भरने वाले एक इंसान का ज़िक्र है l और ऐसे लोगों को लव मैनियेक कहना ही सही होगा l इन लोगों के लिए प्रेम शब्द एक आइसक्रीम या पान तमाखू की तरह है l हर बार जायका लेने के बाद फिर दूसरे फ्लेवर का खाना चाहते हैं l ऐसे इंसान आजीवन प्रेम के पीछे भागते रहते हैं l एक इंसान से प्रेम कर के चैन से नहीं रहना चाहते l दयानंद जी ये कहानी लिखते हुए इस लव मैनियेक के जीवन में कितने और पहलू जोड़ते रहे हैं l जिन में इंटरनेट से जुड़ी प्रेम की दुनिया भी है जिस से तमाम लोग दूर रहना चाहते हैं l केवल ऐसे लोग ही इन साइटों को यूज करते हैं जिन की मानसिकता विकृत हो या जो कैजुएल प्रेम या इस तरह के संबंधों के चक्कर में हों l प्रेम-संबंधों में कहानी का पात्र धीरे-धीरे अन्य देशों की स्त्रियों से जुड़ कर भी अपनी प्रेम-पिपासा नहीं बुझा पाता l एक रशियन लड़की रीमा जो 'बर्फ़ में फंसी मछली' की तरह है इस से बुरी तरह प्यार करने लगती है l वो जानती है कि रशियन आदमी केवल शरीर के भूखे होते हैं वो सच्चा आत्मिक प्यार करना नहीं जानते l लेकिन वो बेचारी ये नहीं जानती कि ये लव मैनियेक भी उसे उस तरह का प्यार नहीं दे सकता जिसे वह चाहती है l प्रेम-पत्रों के जरिये प्रेम कायम रहता है पर मिलने के पहले ही रीमा की मौत हो जाती है l और अंत में अपने ही कर्मों से बिछे जाल में ये लव मैनियेक भी मछली बन कर फँस जाता है l प्रेम के नाम पर पत्नी के हाथों जो दुर्गति होती है वो अलग l 'ना खुदा ही मिला ना बिसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे' l ऐसे लोग अपनी मानसिकता से मजबूर होते हैं l इस तरह के प्रेम को एक मानसिक रोग कहना ही उचित होगा जिस का इलाज होना चाहिए वरना यदि कोई शादी-शुदा है तो देर-अबेर उस के घरेलू जीवन पर असर पड़ता है l दयानंद जी ने इस कहानी में एक पात्र के माध्यम से प्रेम का ऐसा अस्थिर रूप प्रदर्शित किया है जिस में एक लव मैनियेक अपनी सोच से लाचार है l और ऐसा प्रेम घर-परिवार को उजाड़ देता है l सीख देती हुई इस कहानी का समापन आपने बड़ी खूबी से किया गया है l

फ़ोन पर फ्लर्ट:

फ़ोन पर फ्लर्ट में ऐसे प्रेम संबंध की गंध है जहाँ दयानंद जी की लेखनी ने उन शादी-शुदा औरतों व पुरुषों के प्रेम को उघाड़ा है जो चोरी-छुपे घरवालों की आँखों में धूल झोंक कर किसी से प्रेम-संबंध बना कर आनंद लेते हैं l इस तीसरी कहानी में प्रार्थना नाम की औरत अपने बच्चे की पढ़ाई और अच्छी जिंदगी जीने के सपने बुनती है और शायद किसी अधेड़ उम्र के प्रेमी को अपने शरीर और अदाओं से लुभा कर अपने जाल में फंसाए हुए है l लेकिन वो खुद भी मेहनत कर के पैसे कमाने का जुगाड़ सोचती है l उस के प्रेम संबंध की सब बातें एक दिन किसी से रांग नंबर डायल हो जाने पर वार्तालाप के जरिए पता लगती हैं l प्रार्थना उस व्यक्ति की आवाज़ को अपने प्रेमी की आवाज़ समझ कर इतराते हुए बेबाक उस से काफी देर तक बातें करती रहती है l ये पुरुष भी धोखा दे कर मजा लेने में कम नहीं होते l पीयूष मौके का फायदा उठा कर प्रार्थना को अपनी असलियत न बता कर फोन पर ही बातों में फंसा कर उस के बारे में तमाम कुछ जान लेता है l लेकिन वास्तव में ऐसे पुरुष मिलने से डरते हैं कि उन की पोल खुल जाएगी l प्रार्थना को पीयूष की सचाई का पता लगने पर उससे बेरुखाई व नाराजी हो जाती है कि उस दिन फोन पर फ्लर्ट करने वाला उसका प्रेमी नहीं बल्कि पीयूष था l जाहिर है कि दयानंद जी ने ऐसे प्रेम-संबंधों के बारे में बताने की कोशिश की है जिन में औरत केवल एक प्रेमी को ही चाहती है या कहिए कि वफादार होती है l हर किसी को वो मन से नहीं चाह पाती l उस ने फोन पर फ्लर्ट धोखे में किसी को अपना प्रेमी समझते हुए किया था l

एक जीनियस की विवादास्पद मौत:

इस चौथी कहानी में जीनियस, स्मार्ट और खुद्दार विष्णु जी अच्छी नौकरी और इज्ज़त सब को एन्जॉय करते हुए लोगों में धाक जमाए हैं कि उन के मीठे शांत समुंदर जैसे जीवन में बिंदु नाम की एक नमकीन लहर आ जाती है l इस दुनिया में जलने वालों की कमी नहीं l आफिस के लोगों ने बिंदु और विष्णु जी के बारे में तिल का ताड़ बना कर उन के प्रेम के झूठे चर्चों का ऐसा तूफ़ान उठाया कि एक दिन विष्णु जी अपनी अच्छी-खासी नौकरी से ही हाथ धो बैठे l और बीवी बच्चों को लखनऊ में ही छोड़ अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर दूर दिल्ली में जा कर उन्हें छोटी-मोंटी कंसल्टेंसी कर के गुजारे के लिए काम चलाना पड़ा l लेकिन बिंदु तो स्त्री है और पुरुषों का खेला कब रुका है l उस पर अब उस के नए बास ने हावी होना शुरू कर दिया l एक औरत अपनी इज्ज़त या तो खोए या दाग लगने के पहले कोई और रास्ता टटोले l सो मजबूरन बिंदु ने भी नौकरी पर लात मार कर दिल्ली का ही रास्ता पकड़ा l जहाँ वो विष्णु जी की शरण में आईं l ‘आसमान से गिरे तो खजूर में अटके’ वाली बात हुई l यहाँ भी धक्के खाने पड़े l कुछ औरतें पुरुषों का सहारा लेते हुए छली जाती हैं धीरे-धीरे l और कभी औरत भी मजबूरी में किसी का सहारा पा कर उस का इस्तेमाल करती है और भूल जाती है कि उस पुरुष की जिंदगी में पहले से ही बीवी के रूप में एक औरत है l और वो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उस औरत व उस के परिवार को चोट पहुँचा रही है l बिंदु जी अब बिंदु नहीं रहीं बल्कि विष्णु जी की ज़िंदगी पे इस कदर छा गयीं कि पत्नी व उन में कोई फरक ही नहीं रहा l जिस पत्नी के लिए उन्हों ने अपने घर वालों को छोड़ दिया था किसी दिन अब उस प्रेम को भूल कर बिंदु से उन का लगाव हो गया l और बिंदु एक दिन इतनी स्मार्ट हो गयीं कि उन का प्रेम-वेम सब एक तरफ रह गया l विष्णु जी की पत्नी व बच्चों का कोई ख्याल किए बिना वे उन का सब पैसा गड़प कर गईं साथ में उन को भी खा गईं l मतलब ये कि खुद्दार विष्णु जी अपनी जान से ही हाथ धो बैठे l इसे औरत का प्रेम नहीं बल्कि किसी को प्रेम के झूठे अहसास में रखना कहते हैं l एक पुरुष को अपने जाल में फंसा कर उस का इस्तेमाल कर के अपना उल्लू सीधा करना कहते हैं l लेकिन औरत की मजबूरी का फायदा उठाने में कभी पुरुष भी पीछे नहीं रहते l बिंदु का प्रेम विष्णु जी के प्रति एक छलावा है जिस में वह अपना स्वार्थ ढूँढती है l वो केवल अपनी आर्थिक व भावनात्मक सुरक्षा के बारे में सोचती है l पैसे की तंगी या फिर परिस्थितियों से मजबूर औरतों की मानसिकता कितनी बदल जाती है कि वो अपने स्वार्थ में अंधी हो कर परवाह नहीं करतीं कि उन के प्रेमी पहले से ही शादी-शुदा हैं l इस तरह की बातें दयानंद जी की इस कहानी के प्रेम-संबंध से साफ विदित होती हैं जिन्हें पढ़ते हुए मन कभी आक्रोश व कभी संवेदनशीलता से भर उठता है l

प्रतिनायक मैं:

ये पाँचवीं कहानी इकतरफा प्रेम की कहानी है जिस में प्रेमी की प्रेमिका को कुछ पता नहीं कि उसे शादी के पहले कोई और लड़का चाहता था l कुछ लोग मन ही मन में किसी को प्यार करते रहते हैं और बताने की हिम्मत नहीं कर पाते l और एक दिन वो जिस से प्यार करते हैं उस की शादी भी हो जाती है l प्यार भी अजीब जगहों व परिस्थितियों में होते हुए सुना है व प्यार करने की कोई खास उम्र भी होना जरूरी नहीं l कभी स्कूल-कालेज के दिनों में पढ़ते हुए तो कभी जान-पहचान के बच्चों में भी एक दूसरे के लिए प्रेम के बीज कब पनपने लगें इस के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता l इस कहानी में भी धनंजय बचपन से ही किसी जान-पहचान वालों की बेटी शिप्रा को वह पहली बार देखने पर ही चाहने लगा था यानि ‘लव एट फर्स्ट साइट’ l शिप्रा को देखते ही उस पर रीझ गया l पर संकोच या शर्म जो भी कहो उस के कारण वो उस लड़की को बता ना सका और फिर एक दिन शिप्रा की शादी भी हो गई l 'कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे’ वाली बात हो गई l खैर, समय बीतता गया पर धनंजय शिप्रा को भूल न सका l वो शिप्रा की याद मन में दफनाए उस की पूजा करता रहा l कई बार देखा-सुना गया है कि ऐसे लोग फिर किसी और से शादी न कर के कुंवारे रहना ही पसंद करते हैं l तो यहाँ धनंजय की भी यही हालत हुई l इतना गहरा आत्मिक प्यार कि शिप्रा की शादी हो जाने के बाद भी वो मन में बसी रही l कल्पना में ही उस से शिकवे-शिकायत करता रहा l कुछ साल बाद एक दिन शिप्रा से मुलाक़ात के दौरान मौका मिलते ही अकेले में इतने सालों से मन का अनकहा गुबार निकाल लिया l शिल्पा लड़की होने के नाते झिझक रही थी l लेकिन ‘अब पछताए का होत जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत’, अब तो बहुत देर हो चुकी थी l शिप्रा ने अपनी तरफ से कुछ कबूल नहीं किया l लेकिन कोई उस से इतना प्यार करता है कि उस के लिए शादी भी ना की इस के अहसास से उस की आँखें भीग जाती हैं l ऐसे केस में अगले जन्म में मिलने के वादे के अलावा और कुछ नहीं सूझता और प्रेमिका के दिए हुए रुमाल को ही प्रेमी सीने से लगाये रहता है l दयानंद जी ने इस कहानी के प्रेम संबंध में समाज की वो झलक दिखाई है जिस में एक पुरुष अपनी प्रेमिका की पावन यादों में ही जीवन व्यतीत कर देता है l कोई उस पर लांछन नहीं लगाता ना ही किसी की उँगली या भौहें उस पर उस तरह उठती हैं जिस तरह एक अकेली स्त्री के साथ होता है l 

सुंदर भ्रम:


दो प्रेमियों की कहानियों में अक्सर ही प्रेमी या प्रेमिका के पिता की मृत्यु होने पर या तो वह अपने जीवन की तरफ से उदासीन हो जाते हैं या किसी लक्ष्य को ले कर उस में अपने को गुम कर देते हैं l जैसे कि इस में अनु के साथ हुआ l घर में केवल बेटियाँ हैं तो अनु परिवार का पेट भरने के लिए आगे की पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने लगती है l ऐसा करते हुए वह जीवन की तरफ से उदासीन हो जाती है l उस का प्रेमी देव अपनी प्रेमिका का यहाँ-वहाँ पीछा करते हुए आहें भरा करता है l उस की मन ही मन में पूजा करते हुए उस के आने-जाने की जगहों पर चक्कर काट कर अपनी टांगें घिसा करता है l कभी-कभी प्यार के जुनून में चिट्ठियाँ लिख कर उन की ढेरी लगाता रहता है l ऐसे प्रेमी मजमून दिल में लिए या कागज के टुकड़ों पर लिख कर ही रह जाते हैं l कागज का वो टुकड़ा प्रेमिकाओं के हाथ में सही समय पर नहीं पहुँच पाता l प्रेमी उन्हें पोस्ट करने से हिचकिचाते हैं l कभी इत्तफाक से मौका आया बात करने का तो या तो हकलाने लगते हैं या नर्वस होते हुए मन में जो कुछ रिहर्स किया होता है वो सब कहना या पूछना ही भूल जाते हैं l और भी हादसे होते रहते हैं l अगर प्रेमिका को संदेह हो जाता है कि कोई उस का पीछा करता है तो डर से या घबरा कर उस लड़के से कन्नी काटने लगती है l और प्रेमिकायें कभी अचानक सीन से गायब हो जाती हैं तो प्रेमी चिंता के मारे घुलता रहता है l हर समय घुट-घुट कर जीता है लेकिन बेशर्मी से हर बात की खोज खबर रखता है किंतु डरता भी रहता है कि कहीं मन की बात कह देने से जूते न पड़ें या उसे जेल की हवा न खानी पड़े l और अगर कभी ऐसा हुआ कि प्रेमिका के दीदार ना हो पाए और उस का पता-ठिकाना ना मिल पाए तो प्रेमी घबरा जाता है कि कहीं उस की प्रेमिका की शादी ना हो गई हो l प्रेम-ग्रस्त इंसान क्या-क्या फितूर की बातें नहीं सोचता l यही सब इस कहानी के नायक देव के साथ होता रहा l एक ऐसा प्रेमी जो मन में ही बातें सोच कर छटपटाता रहता है लेकिन अपनी प्रेमिका से कुछ कह नहीं पाता l उसे अपनी प्रेमिका के आगे कोई भी अन्य लड़की सुंदर नहीं लगती l और उस दीवानेपन में कुछ बदकिस्मत प्रेमी मानसिक संतुलन खो बैठते हैं जैसा कि इस कहानी में भी हुआ l सालों से प्रेम-अग्नि में जलता हुआ वह अपनी हर किस्म की भावनाओं को चिट्ठियों में प्रकट करता रहा l कुछ लोग किसी से प्रेम करते हुये जीवन भर ऐसे ही घुटते रहते हैं l अतीत की यादों के नशे में ही धुत रहते हैं l ये नहीं कि ‘जो बीत गया सो बीत गया, अब आगे की सुधि ले l’ देव कल्पना में ही अनु से इश्क लड़ाते हुए अपनी प्रेम-पीड़ित भावनाओं को चिट्ठियों में लिख कर ढेर लगाता रहा किंतु उन्हें पोस्ट करने की हिम्मत ना कर पाया l जिंदगी के कई साल बीत जाने पर ही वो उन चिट्ठियों को अनु को पोस्ट करने की हिम्मत कर पाता है l दयानंद जी ने अपने निपुण लेखन से प्रेम की अधीरता व पीर दोनों को ही इस कहानी में दर्शाया है l

वक्रता:

इस कहानी के प्रेमी को कालेज के दिनों से ही प्रेम रोग लग गया था l वो एक ही लड़की से प्रेम करता है l कभी-कभी परिस्थितियाँ विपरीत होने पर एक खास प्रेमिका ना मिल पाने पर कुछ लोग विद्रोही बन कर और लड़कियों से भी प्यार का स्वांग रचाने लगते हैं और उन का जीवन नष्ट कर देते हैं l  ऐसा ही इस कहानी के नायक परितोष उर्फ ‘अवनींद्र’ ने किया  'शुरू में तो तुम्हारे प्रतिशोध में कुछ कन्याओं से खेला l उन्हें जी भर कर उलीचा l उलीच-उलीच तबाह करता रहा l कुछ समय बाद पाया कि वह तुम्हारी बिरादर कन्यायें तबाह हुई हों, या ना हुई हों, मैं ज़रूर तबाह हो गया l’ परितोष व पश्यंति दोनों ही अपनी दुनिया में एक दूसरे के लिए प्यार के सदाबहार मंजर में डूबे रहे l परिस्थितियों के बहाव में शादी अन्यत्र हो जाने पर भी एक दूसरे को भूल नहीं पाए l रसिक परितोष की रग-रग में पश्यंति  इतनी समाई थी कि सपने में भी उस का नाम मुँह से निकल जाता था l यहाँ तक कि उन दोनों ने अपने बच्चों को भी एक दूसरे का नाम दे डाला l प्रेमी की बेटी पश्यंति  और प्रेमिका का बेटा परितोष हो गया l प्रेमिका ने तो अपने बेटे को अपने प्रेमी के डीलडौल में ढालना चाहा और काफी सफल भी हुई उस में l दोनों के लाइफ पार्टनर के गुज़र जाने के बाद उन का रास्ता साफ हो जाता है किंतु एक दूसरे का अता-पता ना मालूम होने से अपनी-अपनी दुनिया में रहते हुए यादों में ही हिलगे रहते हैं l पर एक दिन किस्मत से वह अपने बच्चों की प्रेम कहानी में उलझ कर अजीब परिस्थितियों में फिर मिलते हैं l पर उन के बच्चे नहीं जानते कि उन के माँ-बाप आपस में कभी प्रेमी रहे थे l और इत्तफाक से एक दिन उन के माँ-बाप जब पार्क में मिलते हैं तो प्रेमिका इतनी मोटी हो चुकी होती है कि प्रेमी परितोष उसे पहचान नहीं पाता l किंतु असली प्रेम में मोटापा से कुछ फर्क नहीं पड़ता l मिलते ही वही प्रेमियों वाले गिले-शिकवे चालू हो जाते हैं l जैसे यहाँ पश्यंति  का शिकायत भरा लहजा 'मैं ठूँठ दीवार बन कर भरभराती गई l कोई नहीं आया मुझे संभालने l तुम भी जाने किस दुनिया में भटक रहे थे l वैसे तुम से मैं ने कोई उम्मीद भी न की थी l’ अकेलापन झेलते हुए और उम्र के इस पड़ाव में जैसा होता है पश्यंति  का भी आत्मविश्वास मजबूत होने की वजाय भरभरा कर ढह रहा था l जिसे उस ने अपनी बातों में जाहिर करने में संकोच नहीं किया l जहाँ सच्चा प्यार होता है वहाँ किसी और से शादी हो जाने पर भी दोनों एक दूसरे को भूल नहीं पाते ये कहानी उस का उदाहरण है l अब दोनों प्रेमी अपने बच्चों के प्रेम के आगे मजबूर हैं किंतु एक तो चाहता है कि बच्चों की शादी हो किंतु दूसरा इसे जीवन में फ़िल्मी किस्म का मोड़ समझ कर उन बच्चों की शादी को राजी नहीं होना चाहता l किंतु प्रेमिका परितोष की माँ की इच्छा का उल्लेख करके खोये हुये संबंध को आगे बढ़ाना चाहती है l जो धागा अब तक छोटा था उसे अब एक नए रिश्ते में बांध कर संजोना चाहती है l वो दोनों तो जीवन साथी नहीं बन सके किंतु अब आपस में प्यार करने वाले इन दोनों बच्चों को वो दर्द ना सहना पड़े जिस से वो खुद गुजर चुके हैं l पश्यंति  का कहना है ’हमारे साथ जो हुआ सो हुआ, अब इन के साथ तो ऐसा वैसा कुछ ना होने दो प्लीज.....!’ इस कहानी में परितोष की पत्नी पर तरस आता है कि अपना फर्ज निभाते हुए एक दिन वह इस दुनिया से ही चली गई l और उस का पति परितोष पति परमेश्वर बन कर भी मन से उसे नहीं चाह सका बल्कि अपनी प्रेमिका की यादों में ही आजीवन डूबा रहा l एक औरत जो ऐसे इंसान की पत्नी होती है उस के अभागे जीवन की बिडम्बना इस कहानी में अप्रत्यक्ष रूप से जाहिर होती है l

दयानंद जी ने हर प्रेम कहानी को एक नए खाके में ढाल कर प्रस्तुत किया है l आप की कहानियाँ 'मैत्रेयी का मुश्किलें', ‘फोन पर फ्लर्ट’ व ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ में काफी समानता है जहाँ प्रेमिकाएं अपने प्रेमी की पत्नी व बच्चों के प्रति हृदय हीन हैं l इन सभी कहानियों को आप ने स्त्री और पुरुष दोनों के मानसिक गठन पर ध्यान देते हुए लिखा है l स्त्री अपने संबंध में मजबूती चाहती है चाहें वो पत्नी हो या प्रेमिका, लेकिन पुरुष की प्रवृत्ति एक भँवरे की तरह है जो केवल फूल की सुंदरता के रसपान के बारे में सोचता है l पढ़ते हुए जिज्ञासु मन कहानी के पात्रों में ऐसा उलझ जाता है कि इन प्रेम संबंधों की समस्याएं पाठक से आंतरिक सवाल और जबाब करने लगती हैं l जैसे कि: क्या वास्तव में मैत्रेयी जैसी प्रेमिका की नागेंद्र जैसे प्रेमी से शादी हो सकती है? क्या वाकई समाज इस की इजाजत दे सकेगा? मैत्रेयी, बिंदु और प्रार्थना जैसी औरतें जिस भावनात्मक सुरक्षा की खोज में हैं क्या उन के प्रेमी लोग उन्हें आजीवन दे सकेंगे? क्या मैत्रेयी शादी के बाद एक ‘लंपट’ इंसान के साथ खुश रह सकेगी? और फिर शादी उस के या किसी और के साथ हो भी गई तो बाद में उस के पति का कायर साबित होना व पति की पहली पत्नी व अन्य लोगों का उसपर तमाम तरह से दोषारोपण करना आदि को सहते-सहते जिंदगी और भी भयानक हो जाए, तब क्या होगा? जब वह समाज में इज्जत पाने की बात करती है तो उस पर सवाल उठता है कि क्या इस तरह के प्रेमी से शादी कर के वो समाज की निगाहों में सम्मान पा सकती है? मन कहता है बिलकुल नहीं l क्यों कि तब समाज पीठ पीछे कहेगा कि इस अमुक स्त्री ने किसी का घर उजाड़ कर अपना घर बसाया है l कई बार प्रेम की भूल-भुलैया में पड़ कर प्रेमी लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं l सच्चे प्यार का अर्थ ना समझते हुए कुछ लोग शारीरिक आकर्षण के पीछे भागते हैं l ऐसे प्रेम-संबंधों और शादियों से पुरुष की पहली बीवी व बच्चों के जीवन उजड़ जाते हैं l शादी करते हुए पत्नी को नहीं पता होता कि कब पति जीवन भर के लिए किए वादों को भूल जाए l और प्रेमिकाएं नहीं जानतीं कि कब प्रेमी बदल जाए, कब भँवरा रसपान कर के उड़ जाए l मैत्रेयी के शब्दों में ‘बातों-बातों में ताजमहल बनवाने वाले बहुतेरे मिलते हैं पर साथ निभाने वाले मर्द शायद इस समाज में नहीं हैं l’ और 'बर्फ़ में फँसी मछली' के लव मैनियेक पर मन सवाल करने लगता है कि उस के जैसे लोग शादी क्यों करते हैं व औरतें क्यों ऐसे लोगों से प्रेम करने लगती हैं? अंतर्मन बिचलित होता है पर प्रेम-सागर में न जाने कितने प्रेमी डूबे हैं और न जाने कितने डूबते रहेंगे l प्रेम इंसान को देश, समाज, जाति, धर्म आदि सभी बंधनों को तोड़ कर अपने पाश में जकड़ लेता है l और दयानंद जी ने अपनी सातों प्रेम कहानियों में बड़ी कुशलता से इस तरह के सभी प्रेम-संबंधों के विभिन्न रूप दिखाए हैं l स्त्री-पुरुष के कानूनी व गैरकानूनी संबंधों का शब्दों में अच्छा चित्रण किया है जहाँ जिंदगी कभी रोती है, कभी मुस्काती है l ऐसे प्रेम-संबंधों से परिवार व समाज पर क्या प्रतिक्रिया होती है ये इन सभी सातों कहानियों से साफ जाहिर होता है l एक बार पढ़ना शुरू करो तो कहानी का अगला मोड़ क्या होगा इस की जिज्ञासा अंत तक बाँधे रहती है l तमाम तरह की प्रेमानुभुतियों से युक्त ये कहानियाँ कभी पाठक को सतर्क करती हैं, कभी नसीहत देती हैं l प्रेम के अस्थिर रूप से विरक्ति व इसका गूढ़ अर्थ समझने को बाध्य करती हैं l जिस शादी को सात जन्मों का बंधन कहते हैं उस पर सोचते हुए एक स्त्री के मन को ये कहानियाँ झकझोर देती हैं l प्रेम के नाजुक धागों के बारे में सोच कर मन कहना चाहता है:

'घर-आँगन रचे प्रेम-रंगोली

प्रेम के रंग में बरसे होली

पावन प्यार की उठे सुगंध

ना मन टूटें और ना संबंध l'   


दयानंद जी के लिए लेखन उन के ही शब्दों में एक 'प्रतिबद्धता' है जिस में सामाजिक समस्यायों की झलक के साथ अनेकों बार इंसान के मन की पीड़ा की चीत्कार उठती रहती है l जीवन-समाज का विपुल अनुभव आप के लेखन को निखारता है l तमाम उपन्यासों, कहानियों और कविताओं के रचयिता वरिष्ठ साहित्यकार दयानंद जी को इन कहानियों के लेखन पर हार्दिक बधाई व शुभकामनायें l आप साहित्य के आकाश पर इसी तरह निरंतर अपने लेखन से ऊँची उड़ान भरते रहें l लेखनी से आप का सरोकार हमेशा बना रहे ऐसी मेरी कामना है।
[ जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित सात प्रेम कहानियां की भूमिका]  

-शन्नो अग्रवाल
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Tuesday, 28 January 2014

सिनेमा-सिनेमा

[सिनेमा से संबंधित आलेख और इंटरव्यू]
 

-अब की पुस्तक मेले में मेरी तीन नई किताबें -

१-ग्यारह पारिवारिक कहानियां
[कहानी-संग्रह]
२-सात प्रेम कहानियां
[कहानी-संग्रह]
३-सिनेमा-सिनेमा
[सिनेमा से संबंधित लेखों और इंटरव्यू का संग्रह]
यह सभी किताबें जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं।
दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली के स्टाल पर
आप को यह किताबें मिल सकती हैं।

सिनेमा के सच और समाज के सच जैसे एक दारुण सच बन गए हैं। लगता ऐसे है जैसे सिनेमा न हो तो जीवन न हो। जीवन का एक विकट सच यह भी है कि हमारे भारतीय समाज में, दुनिया में हिंदी अगर आज तमाम दुश्वारियों के बावजूद सर उठा कर खड़ी है तो उस में हिंदी सिनेमा का बहुत बड़ा योगदान है। सोचिए कि अगर हिंदी सिनेमा हिंदीमय और बाज़ार न हो तो हिंदी कौन बोलेगा? कौन सुनेगा? रोजगार से हिंदी गायब है, अदालतों से, विधाई कार्यों से, ज्ञान-विज्ञान से और तमाम हलकों में हिंदी का नामलेवा कोई नहीं है। ऐसे में हिंदी सिनेमा और उस का संगीत हिंदी की अप्रतिम ताकत है। गरज यह है कि सिनेमाई सरोकार हमारे जीवन की धड़कन बन चले हैं। खाना, ओढ़ना, पहनना, रहना, जीना यानी जीवन के सारे रंग, रस और रोमांच जैसे सिनेमाई सरोकारों ने ज़ब्त कर लिए हैं। अमिताभ बच्चन बताते हैं कि उन के बाबू जी हरिवंश राय बच्चन कहते थे कि हिंदी फ़िल्में पोयटिक जस्टिस देती हैं। कहीं सच भी लगता है। क्यों कि सेल्यूलाइड के परदे पर अन्याय की सारी इबारतों को मिटा कर नायक सत्यमेव जयते एक बार लिख तो देता ही है। जीवन में यह संभव हो, न हो लेकिन सिनेमा में सब कुछ संभव है। इस किताब में सिनेमा के कुछ नायकों, नायिकाओं का बड़े मन से ज़िक्र किया गया है। उन के काम को ले कर चर्चा की गई है। उन की अदा, उन के अभिनय में सराबोर कुछ लेख यहां अपने पूरे ताप में उपस्थित हैं। तो कुछ लेखों में सिनेमाई सरोकार, उन की प्रवृत्तियां और उन के लाग लपेट का व्यौरा है। जैसे सिनेमा हमारे जीवन की धड़कन है, फैंटेसी होते हुए भी हमारे जीवन का एक सच है, सच होते हुए भी हमारे जीवन का मनोरंजन है, मनोरंजन होते हुए भी हमारे जीवन का रंग और रस है। ठीक वैसे ही इस किताब में उपस्थित तमाम लेखों में सिनेमा का सच, सिनेमा का जीवन, सिनेमा का रस और उस का सौंदर्य, उस का संघर्ष बार-बार रेखांकित हुआ है। जैसे समाज में सब कुछ अस्त-व्यस्त और पस्त है वैसे ही सिनेमा और सिनेमाई व्याकरण भी अब अस्त-व्यस्त और पस्त है। कभी बनती थी दो आंखें बारह हाथ, मदर इंडिया या मुगले आज़म, लेकिन अब दबंग, गैग्स आफ़ वासेपुर, डेढ इश्किया और जय हो जैसी हिंसा और सेक्स से सराबोर फ़िल्में हैं। कभी बनती थीं उमराव जान और लोग उस की गज़लें गुनगुनाते थे पर अब तो फ़िल्में जैसे हिंसा और सेक्स की चाश्नी में लथपथ हैं, सराबोर हैं। गीत-संगीत जैसे नदी के इस पार, उस पार बन गए हैं। गुलज़ार, श्याम बेनेगल, शेखर कपूर, मुज़फ़्फ़र अली, गोविंद निहलानी, केतन मेहता, एन. चंद्रा, भीमसेन, सागर सरहदी, सुधीर मिश्रा जैसे निर्देशक अब जाने कहां बह-बिला गए हैं। अब तो कुछ और ही है। संजीव कुमार, सुचित्रा सेन, नूतन जैसे लोगों की अदायगी की याद अब बस याद ही रह गई है। सब कुछ करिश्माई सिनेमा, हिंसा और क्रूर गीत-संगीत में डूब गया है। मुज़फ़्फ़र अली ने डेढ़ दशक पहले ही मुझ से एक इंटरव्यू में कहा था कि हम व्यावसायिकता की मार में खो गए हैं। और अब तो परिदृश्य बहुत बदल चुका है। समाज और सिनेमा दोनों का। ऐसे में जब हमारा सिनेमा 100 साल का हो गया है तो इस किताब के मायने बढ जाते हैं। सिनेमा की बात हो और बोलना-बतियाना न हो यह भला कैसे संभव है? तो कई सारे इंटर्व्यू भी हैं इस किताब में। इस में गायक भी हैं, संगीतकार भी और अभिनय की दुनिया के सरताज भी। जिन से आप मुसलसल रूबरू हो सकते हैं। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर है, 'आंख अपना मज़ा चाहे है, दिल अपना मज़ा चाहे है।' तो इस किताब के मायने इस अर्थ में भी भरपूर हैं। यानी आलेख भी और इंटरव्यू भी।





Sunday, 26 January 2014

सात प्रेम कहानियां

 [कहानी-संग्रह]




-अब की पुस्तक मेले में मेरी तीन नई किताबें-

१-ग्यारह पारिवारिक कहानियां
[कहानी-संग्रह]
२-सात प्रेम कहानियां
[कहानी-संग्रह]
३-सिनेमा-सिनेमा
[सिनेमा से संबंधित लेखों और इंटरव्यू का संग्रह]
यह सभी किताबें जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं।
दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली के स्टाल पर
आप को यह किताबें मिल सकती हैं।


अकथ कहानी प्रेम की। तो कबीर यह भी कह गए हैं कि ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ! कबीर के जीवन में दरअसल प्रेम बहुत था। जिस को अद्वितीय प्रेम कह सकते हैं। उन की जिंदगी का ही एक वाकया है। कबीर का विवाह हुआ। पहली रात जब कबीर मिले पत्नी से तो पूछा कि क्या तुम किसी से प्रेम करती हो? पत्नी भी उन की ही तरह सहज और सरल थीं। दिल की साफ। सो बता दिया कि हां। कबीर ने पूछा कि कौन है वह। तो बताया पत्नी ने कि मायके में पड़ोस का एक लड़का है। कबीर बोले फिर चलो तुरंत तुम्हें मैं उस के पास ले चलता हूं और उसे सौंप देता हूं। पत्नी बोलीं, तुम्हारी मां नाराज हो जाएंगी। तो कबीर बोले, नहीं होंगी। और जो होंगी भी तो मैं उन्हें समझा लूंगा। पत्नी बोलीं, लेकिन बाहर तो बहुत बारिश हो रही है। भींज जाएंगे। कबीर ने कहा होने दो बारिश। भींज लेंगे। पत्नी बोलीं, बारिश बंद हो जाने दो, सुबह चले चलेंगे। कबीर बोले नहीं फिर तो लोग कहेंगे कि रात बिता कर आई है। सो अभी चलो ! पत्नी बोलीं, और अगर उस लड़के ने नहीं स्वीकार किया मुझे तो? कबीर बोले तो क्या हुआ, मैं तो हूं न ! तुम्हें वापस लौटा लाऊंगा। पत्नी बोलीं, अरे, इतना परेम तो वह लड़का भी मुझे नहीं करता। और कहा कि मुझे कहीं नहीं जाना, तुम्हारे साथ ही रहना है। कबीर और उन की पत्नी जैसा यह निश्छल प्रेम अब बिसरता जा रहा है। यह अकथ कहानी अब विलुप्त होती दिखती है। आई लव यू का उद्वेग अब प्यार का नित नया व्याकरण, नित नया बिरवा रचता मिलता है। प्यार बिखरता जाता है। प्यार की यह नदी अब उस निश्छल वेग को अपने आगोश में कम ही लेती है। क्यों कि प्यार भी अब शर्तों और सुविधाओं पर निसार होने लगा है। गणित उस का गड़बड़ा गया है। प्यार की केमेस्ट्री में देह की फिजिक्स अब हिलोरें मारती है और उस पर हावी हो जाती है। लेकिन बावजूद इस सब के प्यार का प्याला पीने वाले फिर भी कम नहीं हैं, असंख्य हैं, सर्वदा रहेंगे। क्यों  कि प्यार तो अमिट है। प्यार की इन्हीं अमिट कथाओं को इस संग्रह में संग्रहित कुछ कहानियां बांच रही हैं। इन कहानियों की तासीर और व्यौरे अलग-अलग हैं जरूर लेकिन आंच और प्याला एक ही है। वह है प्यार। मैत्रेयी की मुश्किलें कहानी का ताप और उस की तपिश उसे हिंदी की अनन्य कहानी बना देती है। बर्फ में फंसी मछली की आकुलता प्रेम के हाइटेक होने का एक नया बिरवा रचती है। एक जीनियस की विवादास्पद मौत में प्रेम का एक नया रस और आस्वाद है जो अवैध संबंधों की आग में दहकता और भस्म होता मिलता है। फोन पर फ़्लर्ट आज के जीवन और प्रेम का दूसरा सच है। प्रेम कैसे देह की फितरत में तब्दील हुआ जाता है, इन कहानियों का एक प्रस्थान बिंदु यह भी है। मैत्रेयी की मुश्किलें, बर्फ़ में फंसी मछली, एक जीनियस की विवादास्पद मौत और फ़ोन पर फ़्लर्ट कहानियां अगर एडल्ट प्रेम में नहाई कहानियां हैं तो सुंदर भ्रम, वक्रता और प्रतिनायक मैं जैसी कहानियां टीनएज प्रेम के पाग में पगलाई, अकुलाई और अफनाई कहानियां है। इन कहानियों की मांस-मज्जा में प्रेम ऐसे लिपटा मिलता है जैसे किसी लान में कोई गोल-मटोल अकेला खरगोश। जैसे कोई फुदकती गौरैया, जैसे कोई फुदकती गिलहरी। जीवन में परेम का यह अकेला खरगोश कैसे किसी की जिंदगी में एक अनिर्वचनीय सुख दे कर उसे कैसे तो उथल-पुथल में डाल देता है, तो भी यह किसी फुदकती गौरैया या गिलहरी की सी खुशी और चहक किसी भी प्रेम की जैसे अनिवार्यता बन गया है। प्रेम की पवित्रता फिर भी जीवन में शेष है। प्रेम की यह पवित्राता ही उसे दुनिया में सर्वोपरि बनाती है। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर मौजू है यहां:

मैं तो चुपचाप तेरी याद मैं बैठा था
घर के लोग कहते हैं, सारा घर महकता था।

जीवन में प्रेम इसी पवित्रता के साथ सुवासित रहे। ऐसे ही चहकता, महकता और बहकता रहे। सात जन्मों के फेरे की तरह। तो क्या बात है !

Saturday, 25 January 2014

ग्यारह पारिवारिक कहानियां

[कहानी-संग्रह]



-अब की पुस्तक मेले में मेरी तीन नई किताबें-


१-ग्यारह पारिवारिक कहानियां
[कहानी-संग्रह]
२-सात प्रेम कहानियां
[कहानी-संग्रह]
३-सिनेमा-सिनेमा
[सिनेमा से संबंधित लेखों और इंटरव्यू का संग्रह]


यह सभी किताबें जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं।
दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में जनवाणी प्रकाशन,दिल्ली के स्टाल पर
आप को यह किताबें मिल सकती हैं।


दुनिया और समाज चाहे जितने बदल जाएं परिवार और परिवार की बुनियाद कभी बदलने वाली नहीं है। माहेश्वर तिवारी का एक गीत है, 'धूप में जब भी जले हैं पांव, घर की याद आई !' सार्वभौमिक सच यही है। भौतिकता की अगवानी में आदमी चाहे जितना आगे बढ़ जाए, जितना बदल जाए परिवार के बिना वह रह नहीं सकता और परिवार उस के बिना नहीं रह सकता। कहा ही जाता है कि कोई भी घर छत, दीवार और दरवाजे से नहीं बनता। घर बनता है आपसी रिश्तों से। बहुत पुराना फ़िल्मी गाना है, ये तेरा घर ये मेरा घर, किसी को देखना हो गर तो मुझ से आ के मांग ले तेरी नज़र, मेरी नज़र! घर की तफ़सील की इबारतें और भी कई हैं। बस देखने की अपनी-अपनी नज़र है। इस संग्रह में संग्रहित ग्यारह कहानियों में भी परिवार का यह उतार-चढ़ाव, यह बुनावट, यह संवेदना आप को निरंतर मथती मिलेगी। बड़की दी का यक्ष प्रश्न संयुक्त परिवार की भावनाओं और ज़िम्मेदारियों की ही कहानी है। बाल विधवा बड़की दी की यातना सारे परिवार की यातना बन जाती है। चाहे मायका हो, चाहे ससुराल ! हर कोई बड़की दी का तलबगार है। सब के सब बड़की दी में अपना आसरा ढूंढ़ते हैं। लेकिन यही बड़की दी जब वृद्ध होती है तो अपना आसरा, अपनी इकलौती बेटी में ढूंढ़ती है। अपनी बेटी के प्रति वह इतनी आशक्त हो जाती है, इतनी पजेसिव हो जाती है कि उस के बिना रह नहीं पाती। उस के साथ रहने चली जाती है। तो जैसे कोहराम मच जाता है। परिवार का बना-बनाया ढांचा टूट जाता है। लोग दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। क्या मायका, क्या ससुराल। हर कहीं बड़की दी की थू-थू होने लगती है। और जब बड़की दी अपना सब कुछ बेटी के नाम लिख देती है तो जैसे तूफान-सा आ जाता है। और बड़की दी अकेली पड़ जाती है। बेटी को कैंसर हो जाता है। बड़की दी असहाय हो जाती है। बड़की दी का यक्ष प्रश्न में बड़की दी की यातना को बांचना किसी भी भारतीय विधवा स्त्री की यातना को बांचना है। सुमि का स्पेस कहानी में कैरियर और विवाह के बीच झूलती एक लड़की की कहानी है। सुमि कैसे तो अपने कैरियर के फेर में पड़ कर विवाह को टालती जाती है, यह परिवार के नित बदलने और युवाओं की छटपटाहट की अद्भुत कहानी है। सुमि अंततः अपना कैरियर चुनती है। न सिर्फ अपना कैरियर चुनती है बल्कि अपनी बहन को भी खींच लाती है। इस कैरियर की दौड़ में। यह सुमि का अपना स्पेस है जहां परिवार भौचक हो कर खड़ा ताकता रहता है और वह आगे बढ़ जाती है। संगम के शहर की लड़की भी शादी के छल-कपट की मारी हुई है। दहेज और पुरुष के दूसरे विवाह की यातना की मारी यह लड़की पारिवारिक अदालत में चक्कर लगाने को मजबूर हो जाती है। सिंदूर लगाते ही तलाक के दंश का दाहक विवरण अगर पढ़ना हो तो संगम के शहर की लड़की को पढ़ा जा सकता है। सूर्यनाथ की मौत कहानी में संयुक्त परिवार जैसे एक बार फिर लौटता है। परिवार के बच्चे एक साथ दिल्ली घूम रहे हैं सूर्यनाथ के साथ। सूर्यनाथ की प्राथमिकताएं गांधी की हत्या की जगह बिरला भवन, राष्ट्रपति भवन, नेशनल म्यूजियम आदि हैं तो बच्चों की प्राथमिकता पर मेट्रो और माल हैं। परिवार के मुखिया और बच्चों की सोच में बदलाव और प्राथमिकता की जो धड़कन है, बाज़ार और मूल्यों की जो मार है वह एक साथ सूर्यनाथ की मौत में उपस्थित हैं। घोड़े वाले बाऊ साहब एक निःसंतान दंपति की कथा तो है ही, सामंती अवशेष और उस की ऐंठ की पड़ताल भी इस कहानी में दिलचस्प है। मन्ना जल्दी आना परिवार की ऐसी त्रासदी में डूबी कहानी है जो सरहदें लांघती मिलती है। अब्दुल मन्नान देश-दर- देश बदलते हैं एक साज़िश का शिकार हो कर लेकिन अगर वह भारत देश से फिर भी जुड़े रहते हैं तो वह परिवार और पारिवारिक विरासत के ही चलते। यहां तक कि तोता भी उन के परिवार का अटूट हिस्सा बन जाता है। मन्ना जल्दी आना में तमाम यातनाओं और मुश्किलों के बावजूद परिवार कैसे तो एकजुट रहता है। यह देखना अविरल अनुभव है। संवाद कहानी में पिता, पुत्र और विमाता के अर्तंसंघर्ष की कड़वी टकराहट है। कैसे दो पीढ़ियों का टकराव जिसे हम जनेरेशन गैप भी कह सकते हैं संवाद में हमारे रु-ब-रु है। तो भूचाल कहानी में एक मां और बेटे का संघर्ष, महत्वाकांक्षा, अपेक्षा और कुढ़न की अजीब कैफियत है। जब मां कहती है कि बलात्कार से पैदा हुआ बेटा, बेटा नहीं होता ! तो उस मां की यातना, उस की तड़प का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। लेकिन परिवार तो परिवार है। वह टूटता है तो जुड़ता भी है। हर परिवार की यही कहानी है। राम अवतार बाबू कहानी में तो जीव-जंतु भी कैसे तो परिवार के अभिन्न सदस्य बन जाते हैं, देख कर कौतूहल होता है, आश्चर्य होता है। कन्हई लाल की मुश्किलें और हैं तो मेड़ की दूब की जिजीविषा और संघर्ष का ताना-बाना और है। सूखे का मारा पूरा गांव और परिवार का जीवन इस कहानी की इस इबारत में बांचा जा सकता है, ‘हम तो मेड़ की दूब हैं, काकी ! कितनी बार सूख कर फिर हरे हो गए। सूखना और फिर हरा होना, यही तो जिंदगानी है। और यह बज्जर सूखा सदा थोड़े ही रहेगा। इन ग्यारह पारिवारिक कहानियों के सारे रेशे, सारे तनाव और सारी भावनाएं परिवार की खुशियों, परिवार की अनिवार्यता और उसके तनाव से ही जुड़े हुए हैं। आमीन !

Friday, 24 January 2014

देश को चाहिए कि अपने गुस्से का इज़हार किसी किन्नर को अपना प्रधान मंत्री चुन कर कर दे !

दयानंद पांडेय 

इस गुस्से का इज़हार करते हुए पूर्व मेयर किन्नर अमरनाथ को देर से ही सही श्रद्धांजलि देने के साथ ही खूब बड़ा वाला सैल्यूट करने को दिल करता है ! खूब बड़ा वाला सैल्यूट अमरनाथ !

लोग जब नाराज होते हैं और गुस्सा फूटता है तो कई बार अनाप-शनाप विकल्प भी चुन लेते हैं। कुछ समय पहले हमारे गोरखपुर में लोगों ने राजनीतिक विकल्पों से आजिज आ कर एक निर्दलीय किन्नर को अपना मेयर चुन लिया था। लेकिन खास बात यह है कि उस मेयर अमरनाथ ने बिना किसी राजनीतिक या प्रशासनिक अनुभव के काम भी बढ़िया किया था। बिना किसी भेदभाव के। अधिकारी भी उस अमरनाथ से नाप में रहते थे। क्यों कि कुछ भी गड़बड़ होने पर अमरनाथ अपनी 'किन्नर अदा' पर उतर आते थे। और अपने पूरे समूह के साथ। सो हर कोई घबराता था। हां, वह जब बहुत खुश होते थे तो नाचने भी लगते थे। लेकिन उन के नाचने की ऐसी खबरें जब कई बार अखबारों में छपने लगीं तो उन्हों ने नाचना भी बंद कर दिया। मैं ने तभी एक उपन्यास लिखने की सोचा। मेयर साहब अब नाचते नहीं। अमरनाथ से इस बारे में मैं ने फ़ोन पर तब चर्चा भी की। उन्हीं दिनों मेरा एक उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं आया था। उस की बड़ी चर्चा थी तब के दिनों। अमरनाथ को यह बात तब मालूम थी कि नहीं, मैं नहीं जानता। लेकिन अमरनाथ ने मेरे प्रस्ताव को बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था यह कहते हुए कि, ' नाईं बाबा, रहे देईं !' मैं ने पूरी रुपरेखा रखी। लेकिन वह बार-बार, ' नाईं बाबा, रहे देईं !' ही कहते रहे और पूरी विनम्रता से।

संयोग से मैं अमरनाथ को बचपन के दिनों से जानता हूं। गोरखपुर के जिस मुहल्ले इलाहीबाग में मेरा बचपन बीता है, जहां जवान हुआ हूं, उसी मुहल्ले के बगल में नरसिंहपुर के एक यादव परिवार में अमरनाथ की पैदाइश थी। लेकिन किन्नर गुणों के नाते उन के परिवार ने उन्हें एक तरह से घर निकाला दे दिया। तब इलाहीबाग के एक नि:संतान पासी परिवार ने उन्हें अपना लिया। यह पासी परिवार तब के दिनों दातून बेचने का काम करता था। अमरनाथ के किन्नर लक्षणों से हम या हमारे बचपन के साथी तो क्या बहुत सारे बड़े लोग भी तब अनजान थे। साथ खेलते-कूदते थे। कोई मनाही नहीं थी। लेकिन अमरनाथ जैसे-जैसे बड़े होते गए उन का किन्नर रुप भी निखरने लगा। लड़कों में वह 'चिक्कन' और 'नमकीन' कह कर पुकारे जाने लगे। कबड्डी खेलते वक्त हर लड़का उन्हें भरपूर दबोचने की फ़िराक में रहने लगा। भले कबड्डी से वह आऊट हो जाए और अमरनाथ जीत जाएं पर हर कोई अमरनाथ को छू लेने या दबोच लेने की हद तक उत्सुक रहता। खास कर बड़ी गोल के लड़के। बड़ी गोल मतलब बड़ी उम्र के लड़के।

हम लोगों के साथ खेलते-खेलते अमरनाथ घरों में कब बरतन माजने का काम करने लगे तब पता ही नहीं चला। लेकिन हम या हमारी उम्र के लोग तब भी नहीं जान पाए कि अमरनाथ किन्नर हैं। बल्कि किन्नर नाम और गुण से भी सच बात है कि हम परिचित नहीं थे तब के दिनों। इलाहीबाग में तब हम लाला टोली में रहते थे, किराए के घर में। जो एक जमीदार साहब का खूब बड़ा सा घर क्या बिलकुल बंगला था। बड़ा सा अहाता। वह घर जमीदार साहब का हाता नाम से ही जाना जाता था। जमीदार साहब कायस्थ थे। ज़्यादातर घर वहां तब भी कायस्थों के थे, आज भी हैं। इक्का-दुक्का घर ब्राह्मणों के थे। जिस में एक दीक्षित जी और एक दुबे जी के घर को छोड़ कर बाकी हम और या और ब्राह्मण परिवार किराएदार थे। खास बात यह कि दीक्षित जी के घर के पास ही वह पासी परिवार भी रहता था। तो अमरनाथ ने सब से पहले दीक्षित जी के घर में ही बरतन माजना शुरु किया। फिर कुछ और घरों में भी। अमरनाथ मसाला बहुत अच्छा पीसते थे। उन का मसाला पीसना अब मशहूर हो रहा था। तब के दिनों घरों में दोनों टाइम सील-बट्टे पर मसाला-हल्दी पीसने का चलन था। पिसे हुए मसाले या हल्दी के बिकने का तब बहुत चलन नहीं था। खड़ा मसाला-हल्दी ही बिकता था। काम वालियों से बाकायदा यह तय होता था कि हल्दी मसाला भी दोनों टाइम या एक टाइम पीसना होगा। या नहीं पीसना होगा। या कि एक ही टाइम।

खैर, मुहल्ले में अमरनाथ की ख्याति बढ़िया मसाला पीसने में तो हो ही गई, धीरे-धीरे अमरनाथ की देह पर लावण्य भी आ गया। वह कहते हैं न कि रुप निखर आया है हल्दी और चंदन से। उन दिनों सिनेमा घरो में फ़िल्म शुरु होने के पहले और इंटरवल में चलने वाले विज्ञापनों में वीको वज्रदंती के इस विज्ञापन का यह स्लोगन लगता था उन दिनों जैसे अमरनाथ के लिए ही लिखा गया था। अब अमरनाथ हाफ़ पैंट,कमीज या कुरता पायजामा छोड़ कर साड़ी पहनने लगे थे। अचानक। हम या हमारे जैसे 'अबोध टाइप' के लड़के अवाक थे। लेकिन अमरनाथ पर जैसे जवानी छाई थी,क्या छा रही थी।अब हम कइसे चलीं डगरिया लोगवा नज़र लड़ावेला! वाली सूरत आ गई थी अमरनाथ को ले कर। अमरनाथ को देखते ही लोग इश्कमिजाजी पर उतर आते। रंगीन मिजाज लोगों की नसें तड़क जातीं। अब वह अमरनाथ के बजाय आशा उर्फ़ अमरनाथ नाम से गुहराए जाने लगे थे। उन के हुस्न को ले कर मुहल्ले की औरतें तक जद्दोजहद में पड़ गई थीं। अब अमरनाथ उर्फ़ आशा कहिए या आशा उर्फ़ अमरनाथ औरतों के लिए रश्क का सबब बन चले थे मुहल्ले की पर्दानशीन औरतों के बीच। क्यों कि अमरनाथ की चाल में, उन के चलन में न कोई परदेदारी थी न कोई लाग लिहाज़ ! छपेली टाइप की साड़ियों में अब वह कहर ढाने लगे थे। जब अमरनाथ चलते तो एक वह गाना है ना, मतवारी नारि झूमति-झूमति चलि जाए ! जैसा मंज़र होता। एक प्रौढ़ सज्जन लार टपकाते हुए पूरे भदेसपन में बउरा कर कहते क्या चभक-चभक कर चलता है ! खैर सब से पहले शिकार उन के दीक्षित परिवार के एक दीक्षित जी ही हुए। जो कि रेलवे में नौकरी करते थे। और लड़का पैदा करने के चक्कर में निरंतर सात बेटियों के पिता बन चुके थे। सात बेटियों के बाद उन्हें पुत्र रत्न आखिर प्राप्त हो गया था। जाने इस कामयाबी में या श्रीमती दीक्षित से ऊब जाने या फिर जाने क्या था कि वह अमरनाथ उर्फ़ आशा के आशिक बन गए। मुहल्ले में यह खबर फैलते और उड़ते देर नहीं लगी। इस के पहले भी यह दीक्षित जी एक और हसीन लड़के के इश्क में बदनाम हो चले थे। लेकिन अब वह एक साथ अमरनाथ और उस हसीन लड़के के साथ देखे जाने लगे। यह लड़का भी बड़ी गोल का था, जाति से बढ़ई था। और उन दिनों शत्रुघन सिनहा स्टाइल से ज़ुल्फ़ें संवारने में भी मशहूर था। ज़ुल्फ़ें उस की पेचोखम लिए हुए होतीं। अब दीक्षित जी के साथ चर्चा में यह लड़का और अमरनाथ, एक साथ थे। तीनों सिनेमा आदि देखने भी एक साथ, एक ही साइकिल से जाते। आगे डंडे पर अमरनाथ, पीछे वह लड़का। दीक्षित जी साइकिल चलाते बीच में।

और यह देखिए अब कुछ और नाम भी अमरनाथ के साथ नत्थी होने लगे। किशोर वय के लड़कों के साथ ही कुछ प्रौढ़ लोग भी। अमरनाथ अब महामारी की तरह चर्चित हो गए। जिस भी किसी के साथ अमरनाथ का नाम जुड़ता, मुहल्ले की औरतें उसे, उस घर को, उस घर के लोगों को अजीब नज़रों से घूरतीं, खुसफ़ुस उन की चर्चा करतीं। उस पासी के छोटे से ओसारे में बैठने वाले लोग ज़्यादा हो गए। अमरनाथ को सिनेमा दिखाने वाले, रात के अंधेरे में उन से मिलने वालों में इज़ाफ़ा हो गया। नतीज़ा सामने था उस पासी परिवार ने भी अमरनाथ को अपने से अलग कर दिया। अब अमरनाथ मुहल्ले की ही एक खाली ज़मीन पर जो थोड़ी आड़ में भी थी, झोपड़ी डाल कर रहने लगे। फिर तो खुला खेल फ़रुखाबादी हो गया। अमरनाथ की झोपड़ी तमाम-तमाम दिलफेक लोगों का अड्डा बन गई। अब अमरनाथ को घरों की शरीफ़ और पर्दानशीन औरतों ने अपने-अपने घरों से क्रमश: काम से हटाना शुरु कर दिया। हर औरत डर गई कि क्या पता अमरनाथ उस के घर के ही किसी पुरुष या किसी लड़के को न फंसा ले। अब हर औरत को अमरनाथ में अपनी सौत दिखने लगी। अमरनाथ उर्फ़ आशा मतलब महामारी को न्यौता हो गया। अब सारे शरीफ़ पुरुष और औरतें अमरनाथ को मुहल्ले से ही बाहर निकालने पर आमादा हो गए। और सचमुच अब अमरनाथ ने एक दिन मुहल्ला अचानक छोड़ दिया। चुपचाप। इस लिए भी कि उन का विरोध तो चौतरफ़ा था ही, काम भी नहीं रह गया था। आशिकों की फ़ौज मौज-मज़ा तो चाहती थी, सिनेमा और चाट या चाय पकौड़ी भी कभी-कभार करवा देती लेकिन रोज की रोटी-दाल की मुश्किल हो गई थी। कई बार इस हसीन आशा उर्फ़ अमरनाथ की रातें ऐयाशी में गुज़रने के लिए बदनाम होने के बावजूद फाके में भी गुज़रने लगी थीं। अमरनाथ ऊब गए थे अब अपनी सुंदरता से, अपनी कटीली और बांकी चाल से। धीरे रे चलो मेरी बांकी हिरनिया का सा उन का नशा उतर रहा था। पेट की भूख बड़े-बड़े का नशा उतार देती है, अमरनाथ के हुस्न का, हुस्न के जादू का भीे उतार रही थी। सो अमरनाथ एक रात अपनी झोपड़ी सूनी कर गायब हो गए। कुछ कर्जा भी हो चला था तब उन के ऊपर। लेकिन अमरनाथ ऊर्फ़ आशा अचानक कहां गायब हो गए, किसी ने इस की सुधि नहीं ली। न उन के आशिकों ने, न उन्हें कर्ज़ा देने वालों ने। बदनामी के मुहाने से हर कोई बचना चाहता था। खास कर कर्ज़ा देने वाले। एकाध लोगों ने गुपचुप चर्चा भी की तो वह लोग खामोशी साध गए। हालां कि वह कर्ज़ा भी दो रुपए, पांच रुपए, दस रुपए तक वाले ही थे। किसी-किसी ने रुपया या आठ आना या चार आना भी न्यौछावर कर रखा था। सब ने खामोश बर्दाश्त कर लिया यह नुकसान भी।

खैर बहुत दिनों बाद अमरनाथ ऊर्फ़ आशा अचानक नज़र आए मुहल्ले में। जब एक परिवार में एक लड़के का जन्म होने पर बधावा गाने किन्नरों का एक दल मुहल्ले में आ पहुंचा। तो लोगों ने पहचाना कि अरे, यह तो अमरनथवा है ! लेकिन अमरनाथ का वह लावण्य अब उन से बिसर रहा था। या कहूं कि बिसरने की दस्तक दे रहा था। मैं तब तक किशोर हो गया था और इस बात को बड़ी तल्खी से महसूस कर रहा था। जाने यह किन्नरों की संगत का असर था या जीवन संघर्ष और किन्नर होने के पहचान की त्रासदी थी या और कुछ यह मैं तब ठीक-ठाक नहीं जान सका। लेकिन तब सारी थकन और पराजय के बावजूद अमरनाथ के नृत्य के दौरान कमर में एक खास लोच और गमक ज़रुर दर्ज हो रही थी। वह अन्य किन्नरों की ही तरह ताली बजा-बजा कर अपने हिस्से के सारे संवाद और गाने भी गाए जा रहे थे। हालां कि मैं अमरनाथ के आशिकों में नहीं था, न ही अमरनाथ से कोई खास लगाव था मेरा, न कोई दोस्ती। पर एक लुटते और बिसरते सौंदर्य को इस तरह देख कर मुझे भीतर ही भीतर जाने क्यों बहुत दुख हुआ। लगा कि मेरे भीतर कुछ टूट सा गया है। कुछ दरक सा गया है। एक टीस सी उठी मन में। जैसे भीतर ही भीतर कई सारे कांच टूट गए हों। मेरी आंखें अनायास भर आईं। लेकिन यह बात महसूस कर मैं घुट कर रह गया। किसी से चाह कर भी कुछ चर्चा नहीं कर सका। इस लिए भी कि तब हमारी गिनती मुहल्ले के सब से शरीफ़ लड़कों में होती थी। शराफ़त की यह नकाब तोड़ पाना मेरे लिए अब भी कठिन होता है। नहीं उतार पाता हूं। लेकिन आज भी याद है कि मैं तब अमरनाथ के इस नए रुप को देख कर भीतर-भीतर अपने आप से ही लड़ा बहुत था। खामोश ! फिर वह मुहल्ला छूट गया, गोरखपुर छूट गया। मैं दिल्ली चला गया। नौकरी करने। भूल गया कि अमरनाथ नाम का कोई जीव भी कोई था हमारे बचपन की दिनों में। जिस के हुस्न की तपिश देखते हुए मैं किशोर हुआ था। जिस की कटीली चाल और उस का रुप किशोर हो जाने पर मुझे भी भीतर ही भीतर विभोर करता रहा था। हालां कि अमरनाथ हमारे समय में बड़ी गोल के थे यानी मुझ से उम्र में कुछ साल बड़े थे तो भी उन के निश्छल हुस्न की आंच पहुंचती तो थी ही मुझ तक भी। तो भी मैं उन्हें लंबे समय तक भूला रहा। लेकिन कुछ स्मृतियां ऐसी होती हैं जो मन से विदा नहीं होतीं। ठीक वैसे ही जैसे राख में दबी आग। सुलगती ही रहती है। लेकिन मौका मिलते ही अचानक आग बन कर दहक जाती है।

बहरहाल अब मैं लखनऊ आ गया बाद के दिनों में।

मैं तब फिर विभोर हुआ जब कुछ साल पहले पता चला कि अमरनाथ गोरखपुर के मेयर चुन लिए गए हैं। और कि बतौर निर्दल तमाम दिग्गजों और स्थापित पार्टियों की ज़मानत ज़ब्त कराते हुए। यह तब था जब गोरखपुर में लंबे समय से गोरखनाथ मंदिर के महंत लोगों की हर चुनाव में दखल और वर्चस्व टूटता नहीं है। लेकिन अमरनाथ को मेयर के चुनाव में कुछ लोगों ने मज़ाक-मज़ाक में चुनाव लड़वा दिया था, बिना किसी तैयारी के। लेकिन तब लोगों के गुस्से ने इस किन्नर अमरनाथ में अपनी छांव पा ली थी और अमरनाथ को पूरी गंभीरता से ले लिया। और यह देखिए कि अमरनाथ ने महंत के और अन्य राजनीतिक वर्चस्व को किन्नर होते हुए भी उस बार मटियामेट कर दिया था। यह गोरखपुर के लोगों का गुस्सा था जो अमरनाथ को मेयर चुनने के रुप में फूटा था। गोरखपुर के लोग तब बागी हो गए थे। और अमरनाथ इस गुस्से का प्रतिफल ले कर गोरखपुर का मेयर बन कर दुनिया के सामने उपस्थित थे। हिंदुस्तान के लोकतंत्र की यह बड़ी घटना थी।

तभी मध्य प्रदेश में एक किन्नर के विधायक होने की खबर भी आई थी। बाद के दिनों में तो मध्य प्रदेश के सागर कटनी, शहडोल और जबलपुर में भी किन्नर मेयर बने। लेकिन इस गुस्से की पहली इबारत अमरनाथ ने ही लिखी देश में। फिर खबर आई कि अमरनाथ के चुनाव को ले कर हाईकोर्ट में मुकदमा कर दिया गया है। उस बार महिला आरक्षण के नाते अमरनाथ आशा देवी बन कर चुनाव जीते थे। कोर्ट की बारीकियों में मुकदमा फंसा रहा। कहा गया कि वह महिला नहीं हैं। आदि-आदि। मुकदमा करने वाले शायद नादान और मूर्ख लोग थे। नहीं अगर वह ठीक से लड़े होते तो अमरनाथ वह मुकदमा ज़रुर हार जाते। क्यों कि अपनी तमाम शराफ़त के बावजूद मैं यह तो जानता ही था कि अमरनाथ पुरुष किन्नर थे। यह कथा फिर कभी किसी मौके पर बताऊंगा। खैर, यह मुकदमे की खबर अभी चल ही रही थी कि उन के जगह-जगह नाचने की खबरें आने लगीं कि मेयर साहब फला कार्यक्रम में फिर नाचे ! के टोन में। लेकिन मीडिया की ऐसी खबरों के चलते यह भी पता चला कि मेयर साहब ने नाचना छोड़ दिया है। यह वही दिन थे जब मैं ने उन्हें फ़ोन कर के मेयर साहब अब नाचते नहीं उपन्यास लिखने के बाबत उन से चर्चा की थी। और अमरनाथ ने, 'नाईं बाबा, रहे देईं!' कह कर बड़ी विनम्रता से टाल दिया था। खैर, जल्दी ही ऐसी खबरों की भी बाढ़ आ गई कि मेयर साहब ने किन्नरों के साथ फला अधिकारी को घेर लिया। और जो काम वर्षों से लंबित था, वह काम हो गया। गोरखपुर शहर की सड़कों, खड़ंजों और नालियों आदि के दिन बहुर गए थे मेयर अमरनाथ के कार्यकाल में। मेयर अमरनाथ ने गोरखपुर के शहरी विकास में जैसे गति ला दी थी। सरकारी महकमों में जो कोई काम न हो रहा हो लोग कहते कि अमरनाथ को बुलाऊं क्या? और काम हो जाता था। लोग एक दूसरे को चिढ़ाने के लिए, मज़ाक के लिए भी अमरनाथ के पद का हवाला देते ! तंज में कहते अरे, यह तो मेयर साहब हैं। और लोग या तो लजा जाते या नाराज हो जाते। खैर, अमरनाथ ने अपना पूरा कार्यकाल बिना किसी दाग के पूरा किया। लोगों ने उन्हें बहुत चढ़ाया कि वह फिर चुनाव लड़ें। लेकिन अमरनाथ साक्षर ही थे, पढ़े-लिखे नहीं थे पर यह तो जानते ही थे कि काठ की हाड़ी फिर दुबारा नहीं चढ़ती। वह नहीं लड़े।

बाद के दिनों में अमरनाथ फिर गुमनामी में चले गए। फिर दो साल पहले उन की याद तब आई थी जब महेंद्र भीष्म का उपन्यास किन्नर कथा पढ़ रहा था। बहुत सारी बातें तो नहीं लेकिन एक किन्नर की जो यातना होती है वह तो वही और वैसी ही थी अमरनाथ की भी। भले वह एक निम्न वर्गीय परिवार से आते थे और महेंद्र भीष्म के किन्नर कथा में वह एक राजपरिवार से आता है। पर किन्नर होने का त्रास और यातना तो दोनों की एक ही है। दिलचस्प यह कि मेयर बनने के बाद उन के परिवार और समाज ने भी अपना लिया। न सिर्फ़ अपना लिया बल्कि नरसिंहपुर के घर में उन्हें जगह भी ससम्मन मिल गई। मिलती भी कैसे नहीं अब वह लालबत्ती पर सवार थे। सफलता सब को अपना बना लेती है। भले वह कोई किन्नर की ही सफलता क्यों न हो ! हालां कि एक बार खबर यह भी मिली थी तब कि अधिकारियों से नाराज हो कर मेयर अमरनाथ मेयर वाली कार छोड़ कर रिक्शे पर लाल बत्ती लगा कर चल रहे हैं। यह और ऐसी तमाम खबरों का पिटारा बन चले थे तब के दिनों अमरनाथ।

बहरहाल अभी जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्य मंत्री बने तो मुझे जाने क्यों बार-बार अमरनाथ की याद फिर आने लगी हैं। क्यों कि जैसे तब के दिनों में अमरनाथ गोरखपुर के लोगों के गुस्से का प्रतीक बने थे कि लोगों ने राजनीतिक पार्टियों और व्यवस्था के प्रति विरोध जताने के लिए एक किन्नर को अपना मेयर चुन लिया था । और अब दिल्ली के लोगों ने यही गुस्सा दिखाया है अरविंद केजरीवाल और उन की आप पार्टी को चुन कर। इस लिए भी याद आती है अमरनाथ की वह पढ़े-लिखे नहीं थे, मात्र साक्षर थे। पर अरविंद केजरीवल तो पढ़े-लिखे ही क्या नौकरशाह भी रहे हैं। पर जैसे अमरनाथ ने गोरखपुर के लोगों का गुस्सा किन्नर और साक्षर होने के बावजूद संभाल लिया था, निराश नहीं किया था गोरखपुर के लोगों को। तो क्या अरविंद केजरीवाल भी ऐसा कर पाएंगे? क्या अमरनाथ की तरह वह भी यह जानते हैं कि काठ की हाड़ी फिर दुबारा नहीं चढ़ती? अभी जब अमरनाथ की याद लगातार आने लगी इन दिनों तो सोचा कि अमरनाथ से एक बार बात करुं। उन का फ़ोन नंबर पता करने की कोशिश की तो पता चला कि अमरनाथ तो बीते साल ही महाप्रयाण कर गए। और बताइए कि हम जान भी नहीं पाए। तो शायद इस लिए भी कि अमरनाथ जैसे किन्नर की मृत्यु तब किसी मीडिया की खबर नहीं बन पाई। एक किन्नर की मौत भी कोई खबर होती है हमारी मीडिया के लिए भला? भले ही वह हिंदुस्तान जैसे लोकतांत्रिक देश में किसी एक गौरवशाली शहर का मेयर बन कर इतिहास में दर्ज हो गया हो। जाने क्यों मुझे कई बार लगता है कि जैसे तब के दिनों गोरखपुर के लोग भारी गुस्से में थे और अपना गुस्सा एक गुमनाम से किन्नर को मेयर चुन कर जाहिर किया था। अब शायद वही गुस्सा समूचे देश में है। और देश को चाहिए कि अपने गुस्से का इज़हार किसी किन्नर को अपना प्रधान मंत्री चुन कर कर दे। स्थितियां तो बिलकुल वही हैं। सो देश को अब बागी हो जाना चाहिए। जैसे कभी गोरखपुर के लोग बागी हुए थे। जैसे कभी मध्य प्रदेश के शहडोल, सागर और जबलपुर के लोग हो गए थे। पर अफ़सोस कि लोग बागी होते दिख नहीं रहे हैं। अफ़सोस यह भी है कि प्रधान मंत्री देश के चुने हुए सांसद करते हैं, [जो चुने जाने के बाद किन्नर भी नहीं, नपुंसक हो जाते हैं।] सीधे जनता नहीं। वैसे भी यह सांसद और राजनीतिज्ञ ऐसे पेश आ रहे हैं गोया जनता से भी उपर संसद हो गई है। जिस संविधान को दिन रात बदल कर अपने अनुरुप बनाते जा रहे यह नेता उस में संशोधन कर कर के उस का लोथड़ा बना चुके हैं। उसी संविधान की दुहाई दे-दे कर जनता को गाय की तरह सुई लगा-लगा कर दूहने वाले यह राजनीतिज्ञ अपनी सुविधा और सुख के लिए दिन रात देश को बेचने लगे हैं। एक नहीं अनेक मामले हैं। और सब को सब कुछ पता है। राहत इंदौरी तो साफ लिख रहे हैं कि:

सच बात कौन है जो सरे आम कह सके
मैं कह रहा हूं मुझ को सज़ा देनी चाहिए।

सौदा यहीं पे होता है हिंदुस्तान का
संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए।


और राहत इंदौरी ने यह शेर या गज़ल कोई आज नहीं लिखी है। यह कोई 6 या 7 साल पुराना शेर है। सवाल तो धूमिल भी उठा गए हैं। प्रेमचंद कहते थे कि साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है। तो शायद इसी मशाल को ध्वनित करते हुए धूमिल चालीस साल पहले संसद से सड़क तक की कैफ़ियत बांच रहे थे। धूमिल जैसे अपनी कविताओं से इस व्यवस्था और संसद पर तेजाब डाल रहे थे। एक बानगी देखिए:

मुझ से कहा गया कि
संसद देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद-
तेली की वह घानी है
जिस में आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहां एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिस ने सत्य कह दिया है
उस का बुरा हाल क्यों है?'


धूमिल ने यह सवाल भी पूछा है:

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।


ठीक ऐसे ही द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने जाने तंज में यह कविता लिखी थी, यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता,/सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।' या कि किसी और भाव में पता नहीं। पर मशहूर बहुत हुई थी तब के दिनों। और हालात सचमुच वही हैं आज की तारीख में। कि सब के सब किन्नर नरेश बन चुके हैं। सो पूरी कविता को यहां बांचिए और खुद से पूछिए कि क्या हमारे शासक सत्ता का दुरुपयोग किन्नर नरेश बन कर ही नहीं कर रहे?

यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता,
सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।

बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे,
प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे।

मेरे वन में सिह घूमते, मोर नाचते आँगन,
मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण।

यदि होता किन्नर नरेश मैं, शाही वस्त्र पहनकर,
हीरे, पन्ने, मोती माणिक, मणियों से सजधज कर।

बाँध खडग तलवार, सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता,
बड़े सवेरे ही किन्नर के राजमार्ग पर चलता।

राज महल से धीमे-धीमे, आती देख सवारी,
रूक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी।

जय किन्नर नरेश की जय हो, के नारे लग जाते,
हर्षित होकर मुझ पर सारे, लोग फूल बरसाते।

सूरज के रथ-सा, मेरा रथ आगे बढ़ता जाता,
बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता।


खैर,इस गुस्से का इज़हार करते हुए पूर्व मेयर किन्नर अमरनाथ को देर से ही सही श्रद्धांजलि देने के साथ ही खूब बड़ा वाला सैल्यूट करने को दिल करता है ! खूब बड़ा वाला सैल्यूट अमरनाथ ! यह सैल्यूट करते समय बचपन के वह दिन याद आते हैं जब अमरनाथ के खूब हसीन दिन थे। और हम तब यह भी नहीं जानते थे कि अमरनाथ किन्नर हैं। या कि किन्नर क्या बला है और कि उस के दुख क्या-क्या हैं? बल्कि अंतहीन हैं।

खुदा बचाए इन अदाओं और इन बलाओं से !

टेलीविजन राजनीति की भी यह कौन सी ज़मीन है भला?

भेद-मतभेद, सहमत-असहमत सब अपनी जगह है। लेकिन अरविंद केजरीवाल में कुछ तो है जो वह सभी स्थापित राजनीतिज्ञों को एक सुर से खटकने लगे हैं। और सब के सब उन पर एक साथ पिल पड़े हैं। अरविंद के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस समेत तमाम दल एक साथ हो गए हैं। अब देखिए न कि राखी सावंत से उन की तुलना शिव सेना ने सामना में कर दी तो शरद पवार की पार्टी के प्रवक्ता डी पी त्रिपाठी ने शिव सेना की इस राय से फ़ौरन सहमति जता दी। चैनलों को एक मसाला मिल गया, इस पर बहस चला दी। गुमनामीं में डूबी राखी सावंत को भी झाड़ पोछ कर यह चैनल वाले सामने ले आए ज़माने बाद। और यह देखिए कि राखी सावंत ने भी अपने अहंकाराना अंदाज़ में अरविंद केजरीवाल को आइटम ब्वाय बता दिया और खूब जली कटी की झड़ी लगा दी। रात में सड़क पर उन के सोने पर भी सवाल उठा दिया। संकेत यह कि सड़क पर रजाई में कोई और सोया था अरविंद केजरीवाल नहीं। गज़ब है यह आदमी भी। टेलीविजन राजनीति की भी अदाएं अजब-गज़ब हैं। कि राखी सावंत तक को लगा दिया । सोचिए कि कहां अरविंद केजरीवाल और कहां राखी सावंत ! टेलीविजन राजनीति की भी यह कौन सी ज़मीन है भला? खुदा बचाए इन अदाओं और इन बलाओं से !

  • हे अरविंद केजरीवाल, दिल्ली प्रदेश सरकार का जन लोकपाल बिल कहां गुम है? उसे तो २८ जनवरी तक लाने का वादा था। आम आदमी और भ्रष्टाचार , महगाई, बेरोजगारी का ताना-बाना कब आखिर तार-तार होगा भला?

  • यह देश भी अजब है। यहां उद्योगपति उद्योग लगाने की जगह रिटेल मार्केट में आ जाते हैं। नमक, तेल, आटा दाल, चावल, सब्जी आदि बेचने लगते हैं। राजनीतिज्ञ एन जी ओ चलाने लगते हैं, स्कूल खोलने लगते हैं, बिल्डर तक बन जाते हैं। ठेका-पट्टा करने लग जाते हैं। अपनी जन सभाएं इवेंट मैनेजमेंट के मार्फ़त करने लगते हैं। वकील वकालत छोड़ दलाली करने लगते हैं। न्यायाधीश न्याय करने की जगह न्याय बेचने लगते हैं। रिटायर होने के बाद भी किसी आयोग में जगह पाने के लिए सरकारों के तलवे चाटते फिरते हैं। आई ए एस, आई पी एस अफ़सर कारपोरेट कंपनियों की चाकरी बजाने लगते हैं। पत्रकार पेड न्यूज़ करने लगते हैं। लेखक लिखना छोड़ लफ़्फ़ाज़ी झोकने में प्रतिभा निसार किए बैठे हैं। वाद, विवाद संवाद की फ़ितरत छोड़ कर खेमेबाज़ी और फ़ासिज़्म का विरोध करते-करते कुद फ़ासिस्ट हुए अपने-अपने अहंकार में न्यस्त हैं। लोकप्रिय और मंचीय कविता अब लबारी का दूसरा नाम हो गया है। जोकरई इन के आगे फेल है अब। सामाजिक कार्यकर्ताओं की तो हालत और बुरी है। ज़्यादातर अब एन जी ओ के बंदर हैं। एन जी ओ ही उन्हें नचाते-उठाते-बैठाते हैं। सिनेमा बनाने वाले सिनेमा में नकली समाज उपस्थित कर चार सौ बीसी वाली दो कौड़ी की फ़िल्में बना कर नंबर दो का पैसा नंबर एक का बनाने में लग जाते हैं। धारावाहिक बनाने वाले सास बहू, लंपटई और अपराध की कबड्डी खेल-खेल कर खुश हैं। खेल के नाम पर क्रिकेट की दुकान सजी है। फूहड़ लाफ़्टर शो अब घर-घर में घुस गया है। कपिल इस के चैम्पियन। और तो और एक मुख्य मंत्री अपना काम काज भूल कर, शपथ आदि भूल कर, संघीय व्यवस्था को धूल चटा कर धरना-प्रदर्शन करने लगता है। तिस पर तुर्रा यह कि आम आदमी है ! अब बिचारा आम आदमी करे तो क्या करे ? मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तो जैसे उस के सहोदर ही हैं। तिस पर यह सब झमेला भी ! बेचारा आम आ्दमी ! जाए भी तो जाए कहां, करे भी तो क्या !

  • खोदा पहाड़, निकली चुहिया ! अरविंद केजरीवाल क्या इसी को जीत कहते हैं? कि दो थानेदार छुट्टी पर भेज दिए गए ! आप तो निलंबन मांग रहे थे? एक मुख्यमंत्री की यही हैसियत है ? अति की भी एक सीमा होती है। संविधान कानून और संसदीय परंपरा भी कोई चीज़ होती है। अरविंद केजरीवाल तो खैर घाघ राजनीतिज्ञ हो चुके हैं, बेशर्म और अतिवादी हो चुके हैं। उन पर अब कोई टिप्पणी कोई बहुत मतलब नहीं रखती। धरना-प्रदर्शन की जो गरिमा महात्मा गांधी ने बनाई थी, अभी-अभी अन्ना हजारे ने उस की प्रासंगिकता सिद्ध किया था, अरविंद केजरीवाल ने अभी-अभी उसे लज्जित कर दिया है। अरविंद तो गणतंत्र की पवित्रता पर भी आज सवाल खड़ा कर दिया। जो भी हो अरविंद केजरीवाल की हालत पर गालिब का एक मिसरा याद आ गया है, बड़े बेआबरु हो कर तेरे कूचे से हम निकले ! दिल्ली की जनता की जीत बता कर इसे जनता की तौहीन बना दिया है। आम आदमी के विश्वास को इस तरह खंडित और दुरुपयोग करना इतिहास भी दर्ज कर रहा है। व्यवस्था परिवर्तन क्या ऐसे ही होना चाहिए? ऐसे ही बदलेगी व्यवस्था? यह तो आप लालू प्रसाद यादव की जोकरई की राह पर चल पड़े हैं। संसदीय परंपरा और एन जी ओ चलाना दोनो दो बातें हैं। लेकिन अरविंद केजरीवाल तो अरविंद केजरीवाल, हिंदी के कुछ लेखकों की इस बाबत जो लिजलिजी भाऊकता फ़ेसबुक पर दिखी, उस पर भी तरस बहुत आया। साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल अब क्यों नहीं है, यह भी समझ में आ गया। जय हो !
  • Monday, 20 January 2014

    यह देश अब अरविंद जैसे महत्वाकांक्षी और अतिवादी राजनीतिज्ञ को बर्दाश्त करने के लिए तैयार हो जाए

    पांडवों ने तो सिर्फ़ पांच गांव मांगे थे। अगर धॄतराष्ट्र और दुर्योधन ने दे दिए होते पांडवों को पांच गांव तो शायद महाभारत नहीं हुआ होता। तो क्या केंद्र की कांग्रेस सरकार धृतराष्ट्र बन गई है? अगर दो चार पुलिस अफ़सरों का सस्पेंशन या तबादला मान गई होती केंद्र सरकार तो एक मुख्य मंत्री सड़क पर उतरने या रात सड़क पर सोने से रुक तो गया ही होता। अब अलग बात है कि दुर्योधन की यह बात कहीं से भी नाजायज नहीं थी कि अगर मेरा पिता अंधा था तो इस में मेरा क्या कसूर ! पर दुर्योधन के तरीके नाजायज थे। जुआ में द्रौपदी को जीतना या लाक्षागृह का निर्माण आदि नाजायज था। तो क्या अरविंद केजरीवाल दुर्योधन हैं? कि मांगें जायज हैं और तरीके नाज़ायज़ ! तो इन का शकुनी कौन है?

    जानते तो वह भी हैं कि देश में एक संविधान है, एक कानून है, एक संसद है। अच्छा-बुरा जैसा भी है। तो इस व्यवस्था को बदलने के लिए, दिल्ली पुलिस को दिल्ली प्रदेश सरकार के अधीन करने के लिए दिल्ली को पहले पूर्णकालिक राज्य बनना होगा। तब ही दिल्ली पुलिस, दिल्ली प्रदेश सरकार के अधीन हो सकेगी। तो मांग जायज होते हुए भी अरविंद केजरीवाल ने तरीके नाजायज अख्तियार कर लिए हैं इस में कोई दो राय नहीं। कायदे से उन्हें दिल्ली विधान सभा बुला कर दिल्ली को पूर्णकालिक राज्य बनाने के बाबत एक प्रस्ताव पास कर केंद्र को भेजना चाहिए। लोकसभा की मंजूरी के बाद ही दिल्ली को पूर्णकालिक राज्य का दर्जा मिलेगा, तब ही दिल्ली पुलिस दिल्ली प्रदेश सरकार के अधीन हो सकेगी। अरविंद केजरीवाल और उन के सहयोगी सब के सब पढ़े-लिखे लोग हैं। सब लोग यह बात जानते भी हैं। पर यह राजनीति का रोग बहुत बड़ा रोग है। अरविंद केजरीवाल अब इसी राजनीति रोग के मारे हुए हैं। वह जानते हैं कि प्रस्ताव आदि पास करने कराने में लंबा समय लगेगा। इस सब में २०१५ तक का समय लग जाएगा। सब कुछ के बावजूद। और दिल्ली के बाद देश में भी उन को अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की उन की महत्वाकांक्षा, उन की उतावली ने उन्हें इस डगर पर ला खड़ा किया है। सो २०१५ तक का इंतज़ार और प्रक्रिया अपनाने का समय उन के पास है नहीं। क्यों कि लोक सभा चुनाव तो इस २०१४ में ही है। सो वह मैया मैं तो चद्र खिलौना लइहों ! की तर्ज़ पर आ गए हैं। अब उन का यह चंद्र खिलौना देश, संविधान और संसदीय परंपराओं पर कितना भारी पड़ेगा इस की उन्हें कतई परवाह नहीं है। वह तो बस इतना जानते हैं कि कांग्रेस और भाजपा को उन्हों ने छठी का दूध याद दिला दिया है। और सच यही है कि आप उन्हें भले नौटंकीबाज़ कह लें लेकिन अब वह लोकसभा चुनाव के परिदृष्य पर कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ते हुए भाजपा के नरेंद्र मोदी से सीधे मुकाबले में आ गए हैं। जो लोग अरविंद केजरीवाल को राजनीतिज्ञ मानने से परहेज़ करते रहे हैं, अब उन को मान लेना चाहिए कि अरविंद केजरीवाल अब विशुद्ध राजनीतिज्ञ के चोले में हमारे सामने उपस्थित हैं। किसी खांटी राजनीतिज्ञ की तरह नरेंद्र मोदी को ताल ठोंक कर ललकारते हुए। जो काम नरेंद्र मोदी से निपटने का राहुल गांधी को करना था, वह काम अब अरविंद केजरीवाल ने संभाल लिया है। राहुल गांधी अब रेस से बाहर हैं। और जो मणिशंकर की ही बात का आधार ले कर कहें तो राहुल को अब कांग्रेस दफ़्तर या मीटिंग्स में चाय पीने-पिलाने में ही वक्त गुज़ारना चाहिए। अब उन के लिए यही मुफ़ीद है।
    सोमनाथ भारती ने या अरविंद के किसी मंत्री ने कब क्या कहा, क्या किया, क्या संसदीय है और क्या असंसदीय है, क्या नियम से है और क्या नियम के विपरीत यह सब अब भूल जाइए। अब तो अरविंद केजरीवाल कांग्रेस और भाजपा की छाती पर दाल मूंग रहे हैं। अब वह भाजपा के नरेंद्र मोदी के बाद दूसरी बड़ी राजनीतिक ताकत के रुप में भारतीय टेलीविजन राजनीति के परदे पर उपस्थित हैं। जैसे सब कुछ गंवा कर कांग्रेस और भाजपा ने जैसा भी सही लोकपाल बिल संसद से पास किया, वैसे इन पुलिस कर्मियों को भी केंद्र सरकार को हटाना ही पड़ेगा पर सारी शुचिता और मर्यादा को तार-तार करने के बाद ही। कांग्रेस जाने कब अपने मूर्ख सलाहकारों से छुट्टी लेगी और कोई फ़ैसला तुरंत लेना सीखेगी। देश तो एक गैर राजनीतिक व्यक्ति मनमोहन सिंह के प्रधान मंत्री होने की कीमत अब बहुत ज़्यादा अदा कर चुका है। यह देश अब अरविंद केजरीवाल जैसे महत्वाकांक्षी और अतिवादी राजनीतिज्ञ को बर्दाश्त करने के लिए तैयार हो जाए। जो लीक से थोड़ा नहीं, पूरा हट कर है। इस टेलीविजन राजनीति के दौर में अरविंद केजरीवाल का सूरज कब तक चमकता मिलता है यह देखना भी दिलचस्प ही होगा। हालां कि इस पूरे परिदृष्य पर यह भी कहने को जी चाहता है, बिलकुल वैसे ही जैसे वह गाना है न निगाहें मिलाने को जी चाहता है ! कि अरविंद केजरीवाल यह कौन सी संसदीय परंपरा है? मोदी का रथ रोकते-रोकते यह तो आप मोदी के लिए लाल कालीन बिछा बैठे हैं ! और अपने हाथ में उस्तरा। जो दिल्ली की जनता ने आप को थमा दिया है अति उत्साह और अति उम्मीद में। जो भी है यह सब गुड बात नहीं है। और जानिए कि राजनीति या समाज किसी की ज़िद से तो नहीं ही चलते। अच्छे लोग, ईमानदार लोग राजनीति में होने चाहिए, इस उम्मीद और इस धारणा को इस तरह मिट्टी में भी न मिलाइए हुजूर ! अब बस भी कीजिए !




    जय हो टेलीविजन राजनीति की ! संविधान आदि की ऐसी-तैसी !

    अभी तक हम संसदीय राजनीति, भ्रष्ट राजनीति के साक्षी थे। अब टेलीविजन राजनीति के साक्षी हैं। नतीज़ा है कि संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति भी आंदोलनकारी बन गया है। टेलीविजन के कैमरे न रहें तो सारा धरना, सारा प्रदर्शन बे-पानी, बे-नमक हो जाएगा। यह कैमरे इतने बड़े राक्षस हो कर उपस्थित होंगे और घर-घर में घुस जाएंगे, जनमत बनाने लग जाएंगे कौन जानता था? कि संविधान, अनुच्छेद, धाराएं सब झाड़ू के आगे असहाय हो गए हैं। संवैधानिक पद और उस की शपथ की ऐसी-तैसी करना किसी को सीखना हो तो वह दिल्ली जाए और टेलीविजन कैमरे का इंतजाम करे और जो चाहे सो करे। कोई उस का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। आप पुलिस को भी वर्दी उतार कर आंदोलनरत होने का आह्वान कर सकते हैं। व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती है जनता की बला से ! आप तो आम आदमी हैं। और कि टेलीविजन कैमरा नाम का एक राक्षस आप के साथ है। यह टेलीविजन कैमरा ही है कि कभी राहुल देवता बन जाते हैं, तो कभी नरेंद्र मोदी तो कभी अन्ना हजारे, कभी रामदेव और कभी अरविंद केजरीवाल। कभी अमिताभ, कभी सचिन तेंदुलकर भगवान बन जाते हैं। या फिर कोई और। कोई भी चार सौ बीसी टाइप की फ़िल्म बना कर, इन चैनलों पर लफ़्फ़ाज़ी झोंक कर, कुछ क्लिपिंग दिखा कर करोड़ों-अरबों रुपए कमा सकता है, गरीब जनता की जेब से निकाल कर। उस की आंख में धूल झोंक कर। और महान फ़िल्मकार और अभिनेता बन सकता है दो कौड़ी की फ़िल्म बना कर। सिनेमा, क्रिकेट और टेलीविजन ने लगता है हमारे सारे सामाजिक जीवन और राजनीति का अपहरण कर लिया है। तिस पर यह फ़ेसबुक, यह ट्विटर ! गरज यह कि समाज और राजनीति के बाद अब पारिवारिक जीवन भी निशाने पर है ! जय हो आम आदमी की ! जय हो झाड़ू की ! जय हो टेलीविजन राजनीति की ! संविधान आदि की ऐसी-तैसी !

  • अरविंद केजरीवाल यह कौन सी संसदीय परंपरा है? मोदी का रथ रोकते-रोकते यह तो आप मोदी के लिए लाल कालीन बिछा बैठे हैं ! और अपने हाथ में उस्तरा। जो दिल्ली की जनता ने आप को थमा दिया है अति उत्साह और अति उम्मीद में। जो भी है यह सब गुड बात नहीं है। और जानिए कि राजनीति या समाज किसी की ज़िद से तो नहीं ही चलते। अच्छे लोग, ईमानदार लोग राजनीति में होने चाहिए, इस उम्मीद और इस धारणा को इस तरह मिट्टी में भी न मिलाइए हुजूर ! अब बस भी कीजिए !

  • कोई सहमत हो या असहमत लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है कि अरविंद केजरीवाल ने रा्जनीति में आने में बहुत जल्दबाज़ी कर दी है। खैर जो हआ सो हुआ। अब उन्हें बिना तै्यारी के लोक सभा चुनाव में कूदने से बचना चाहिए। कम से कम इस चुनाव से तो बच ही लेना चाहिए। अभी उन्हें दिल्ली सरकार को सफलता से चला कर अपने और अपनी पार्टी को सिद्ध करना चाहिए। नहीं आ्धी छोड़ पूरी को धावे, पूरी पावे न आधी पावे को दुहराएंगे। अपने तो मुंह की खाएंगे ही, लोगों की उम्मीदों पर भी पानी फेरेंगे। और धोबी के कुत्ते की गति को प्राप्त होंगे। क्यों कि उन के पास सिर्फ़ विवाद ही हैं अभी। न कोई राष्ट्रीय नीति है उन की पार्टी के पास. न कोई मसौदा। न ही नियंत्रित कार्यकर्ता हैं, न कोई विचारधारा आदि।

  • अन्ना का वह कहा कि राजनीति कीचड़ है, जिसे अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्य मंत्री पद की शपथ लेने के बाद दिए गए भाषण में बताया था, अब शायद अन्ना के उस कहे की चुभन को भी वह महसूस करने लगे होंगे। और यह भी कि हर कीचड़ में कमल भी नहीं खिलता।
  • Tuesday, 14 January 2014

    चंद्रशेखर की याद और राजनीति, सिनेमा और अभिनय की यह काकटेल !

    कुछ गौरतलब टिप्पणियां

    खबरिया चैनल आज तक पर आज कांग्रेस नेताओं का स्टिंग देख कर पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर की याद आ गई। जिन्हों ने एक मामूली से आरोप पर कि वह राजीव गांधी की जासूसी करवा रहे हैं के बिना पर बगैर एक क्षण की देरी किए इ्स्तीफ़ा दे दिया था। राजीव गांधी कहते फिरे कि मेरा समर्थन जारी है और कि मैं ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा। लेकिन चंद्रेशेखर ने राजीव की सफाई पर बिलकुल गौर नहीं किया, न कान दिया। और कहा कि अब इस्तीफ़ा दे दिया है तो दे दिया है। बतर्ज़ जो कह दिया सो कह दिया ! पर कांग्रेसी नेताओं ने अब आप सरकार और केजरीवाल के विरुद्ध जो-जो नहीं कहना चाहिए, सब कह दिया है और फुल बेशर्मी से कह दिया है। केजरीवाल के सारे फ़ैसलों को गैर कानूनी भी कह दिया। भ्रष्ट भी कहा और सीधे-सीधे कटघरे में खड़ा कर दिया।

    आज तक की यह स्टिंग भी हालां कि कटघरे में है। कांग्रेस नेता लवली लगातार कह रहे हैं कि वह सारी बात आफ़ द रिकार्ड कह रहे हैं। मतलब यह कि वह आज तक के संवाददाता से जान-समझ कर बात कर रहे हैं। और आफ़ द रिकार्ड बात कर रहे हैं। तो फिर पत्रकारिता की नैतिकता या शुचिता जो भी कह लें उस के मुताबिक यह सब आज तक को भी दिखाना नहीं चाहिए था। तकाज़ा तो यही है। पर पत्रकारिता भी अब चूंकि एक दुकान है। तो जो वह पुराना मुहावरा है न कि प्यार और युद्ध में सब ज़ायज़ है। तो इस में अब भाई लोगों द्वारा शायद एक और शब्द जोड़ लिया गया है कि प्यार, युद्ध और दुकानदारी में सब ज़ायज़ है ! पत्रकारिता के बाबत शायद इसी अर्थ का विस्तार दलाली, लायजनिंग आदि शब्दों में भी है। पर अभी तो मुद्दा इस नैतिकता या शुचिता का नहीं, कांग्रेस और केजरीवाल सरकार का है।

    लेकिन क्या कीजिएगा अरविंद केजरीवाल चंद्रशेखर नहीं हैं और न ही संसदीय मामलों के जानकार ! नैतिकता आदि शब्दों की तो खैर बिसात ही क्या ! कांग्रेस ने केजरीवाल को समर्थन दे कर अपने लिए तो गड्ढा खोद ही लिया है केजरीवाल भी कांग्रेस का समर्थन ले कर गले में फंदा डाले बैठे हैं। और भाजपा इन दोनों के बीच मज़ा ले रही है। दूसरी तरफ सलमान खान भी मोदी की पतंग अलग उड़ा गए हैं। बेस्ट मैन आफ़ द कंट्री कह कर ! अभी वह सैफई में समाजवाद के नाच में नाचे ही थे। धन्य है यह राजनीति भी ! राजनीति, सिनेमा और अभिनय की यह काकटेल भी !

  • यह शायद देश में पहली बार हो रहा है कि किसी एक प्रदेश में एक साथ दो मु्ख्य मंत्री रह रहे हैं। और यह सौभाग्य उत्तर प्रदेश को मिला है। एक मुख्य मंत्री लखनऊ में रहते हैं, जिन की चौतरफ़ा थू-थू हो रही है इन दिनों। लेकिन एक मुख्य मंत्री गाज़ियाबाद में रहते हैं, जिन की देश भर में जय-जयकार हो रही है इन दिनों। अजब है यह संयोग भी।

  • बाकी तो सब ठीक है। लेकिन यह जो आम आदमी होने का भी एक गुरुर है इस का क्या करें?


  • समाजवादी पार्टी का समाजवाद तो खैर अमर सिंह की आमद के साथ ही जल कर राख हो गया था। और जब अमर सिंह विदा हुए तो समाजवाद की यह राख भी वह अपने साथ ही बहा ले गए थे। अब रह गया था, सेक्यूलर होने की खाल। अब की मुज़फ़्फ़र नगर की आह में सैफ़ई के समाजवादी नाच-गाने में वह भी साफ हो गया है। सलमान-माधुरी के ठुमकों की गमक ही कुछ ऐसी है। कोई करे तो क्या करे भला? अभी तो मंत्रियों और विधायकों का प्रतिनिधिमंडल गया है यूरोप दौरे पर लोकतंत्र समझने। अध्ययन करने। जो इस पार्टी के परिवारवाद की आग में शुरु ही से जय हिंद हो चुका है।

  • राम गोपाल यादव, नरेश अग्रवाल और बुक्कल नवाब खबरिया चैनलों के दर्शकों के लिए तो सर दर्द हैं ही, समाजवादी पार्टी के लिए भी भारी बोझ हैं। ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस में दिग्विजय सिंह, शकील अहमद और संजय निरुपम। लगता है यह सब कुतर्क की चक्की का पिसा हुआ बहुत मोटा आटा खाते हैं। इसी लिए तर्क और विवेक से इन की सारी रिश्तेदारी टूट चुकी है। हाजमा बिगड़ गया है। सो इस 'दस्त' में कुतर्क और चीखना-चिल्लाना ही इन के लिए शेष रह गया है। मुलायम के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में वैसे ही भूसा भर रखा है अखिलेश यादव के नाकारापन ने। तिस पर मुज़्फ़्फ़र नगर ने अलग फ़िज़ा बिगाड़ रखी है। दूसरे यह तीनो राम गोपाल यादव, नरेश अग्रवाल और बुक्कल नवाब ने भी इस भूसे में आग लगा रखी है। जैसे उपरोक्त तीनो कांग्रेसियों दिग्विजय सिंह, शकील अहमद और संजय निरुपम ने राहुल गांधी का पायजामा फाड़ रखा है। शायद यहां सोने पर सुहागा नहीं चलेगा, न करेला, तिस पर नीम चढ़ा भी नहीं चलेगा। तो क्या आप पार्टी में जैसे आशुतोष गए हैं, वह चलेगा? हां, देखिए याद आ गया ! कोढ़ में खाज चलेगा। चलेगा क्या दोड़ेगा ! जय हो !

  • खबरिया चैनलों पर सपा के राम गोपाल यादव, नरेश अग्रवाल और बुक्कल नवाब या कांग्रेस में दिग्विजय सिंह, शकील अहमद और संजय निरुपम के टक्कर का भाजपा या किसी और पार्टी में हो तो कोई मित्र बताएं। हम सब के ज्ञान में वृद्धि ही होगी। और मित्र का नाम होगा ! नहीं?

  • मुझे राहुल गांधी पर इस लिए भी गुस्सा आता है कि यह नरेंद्र मोदी का एक इंच भी विरोध नहीं कर पाता। सिर्फ़ मनमोहन सिंह की पगड़ी पर बैठा मूत्र आदि विसर्जित करता रहता है। कागज आदि फाड़ने की नाटकीयता में चाटुकारों की फ़ौज की सलामी लेता मम्मी-मम्मी गुहारता रहता है ! इस लिए भी गुस्सा आता है। रही-सही कसर ये फ़ेसबुकिया चमचे पूरी कर देते हैं तो गुस्से का ग्राफ़ और गाढ़ा हो जाता है। और अब जब पांच सौ करोड़ सोशल मीडिया पर खर्च करने जा रहे हैं अपनी छवि को गढ़ने के लिए तो सोच रहा हूं कि यह गुस्सा अब कहां पड़ाव डालेगा?

  • यह क्या हुआ कि अरविंद केजरीवाल के चक्कर में काग्रेसियों से ज़्यादा भाजपाइयों के चेहरे कांतिहीन हो चले हैं। और कि फ़्रस्ट्रेशन के बुलबुले लगातार बजबजा रहे हैं? तो क्या नरेंद्र मोदी केविजय रथ को इस सर्दी में भी लू लग गया है? यह कैसी उलटी हवा चल रही है? कि मौसम ही उलटा हो गया है?

  • तो क्या लूट-पाट की राजनीति के दिन अब विदा हो जाएंगे?

  • कांग्रेस की हेकड़ी और मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारीकरण की हवा जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने चंद दिनों में निकाल दी है वह सैल्यूटिंग है। सिर्फ़ एक पानी और बिजली बिल की कटौती से साबित हो गया है मनमोहन सिंह कारपोरेट कंपनियों की रखैल या दलाल से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। लेकिन सवाल है कि क्या मनमोहन सिंह ने जो अमीरी और गरीबी की चौड़ी खाई आर्थिक उदारीकरण की आड़ में खोदी है, कि अमीर और अमीर, और गरीब और गरीब होता गया है, यह खाई कब कम होगी। और कि कितनी कम होगी?