Thursday, 20 March 2014

हाय ! हम क्यों न हुए खुशवंत !

दयानंद पांडेय 


खुशवंत सिंह की याद तो हमेशा ही आएगी। हमारे दिल से वह कभी नहीं जाएंगे। और कि यह आह भी मन में कहीं भटकती ही रहेगी कि, हाय ! हम क्यों न हुए खुशवंत ! लेखक और पत्रकार तो वह बड़े थे ही, आदमी भी बहुत बड़े थे वह। जितने अच्छे थे वह, उतने ही सच्चे भी थे वह। एकदम खुली तबीयत के आदमी। लोग अब उन का औरतबाज़ और शराबी आदमी के रुप में ज़िक्र करते हैं तो मुझे यह बहुत बुरा लगता है। सच यह है कि वह सच्चे आदमी थे। बहुत ही सच्चे। अपनी खूबी-खामी हर चीज़ के बारे में वह खुल कर बोलते और लिखते थे। अगर वह खुद अपने बारे में इतने खुलेपन से न बताते या लिखते तो वह ऐसी तोहमत से बच सकते थे। पर दिखावा उन की तासीर में नहीं था। कितने लोग हैं आज की तारीख में जो इतना खुला जीवन जिएं और उसे कुबूल भी करें। हिप्पोक्रेटों से दुनिया भरी पड़ी है। भीतर कुछ , बाहर कुछ। कथनी कुछ, करनी कुछ। पर खुशवंत सिंह को हिप्पोक्रेसी छूती तक नहीं थी। सरलता और सच उन की बड़ी ताकत थे। सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत उन की आत्मकथा का हिंदी अनुवाद है। जिसे निर्मला जैन ने बड़ी तबीयत से किया है। ऐसा सरल अनुवाद और ऐसी निर्मल आत्मकथा मैं ने अभी तक नहीं पढ़ी है। खुशवंत सिंह से दो बार मिला भी हूं। एक बार दिल्ली में दूसरी बार लखनऊ में। मिलते भी वह तबीयत से थे। बाद में वह ज़रा ऊंचा सुनने लगे थे। लेकिन फ़ोन पर बात करते थे। और बता कर करते थे कि ज़रा जोर से बोलिए, कम सुनता हूं। ज़्यादातर समय वह फ़ोन भी खुद ही उठाते थे। वर्ष २००० में जब मेरा उपन्यास अपने-अपने युद्ध छपा था तब उन को भी भेजा था। किताब मिलने पर एक शाम उन का फ़ोन आया था । कहने लगे आप का नावेल तो मिल गया है पर क्या करें हमें हिंदी पढ़ने नहीं आती। माफ़ कीजिएगा। सुन कर मैं उदास हो गया था। लेकिन फिर कुछ दिन बाद उन का फ़ोन आया कि मैं ने कुछ हिस्सा उलट-पुलट कर पढ़वा कर सुना है आप के नावेल का। इस नावेल का हिंदी में क्या काम? इसे तो इंग्लिश में होना चाहिए। इसे ट्रांसलेट करवाइए। मैं ने हामी भर ली। लेकिन कोई ट्रांसलेटर ऐडवांस पैसा लिए बिना तैयार नहीं हुआ। और कि पैसे भी बहुत ज़्यादा मांगे। मैं ने तौबा कर लिया। गलती हुई तब कि किसी प्रकाशक से सीधी बात नहीं की कि वह अनुवाद कर के छापे। खैर बात फिर भी कभी कभार फ़ोन पर होती रही खुशवंत सिंह से।

हालां कि उन दिनों यहां लखनऊ में लोग अपने-अपने युद्ध को ले कर पीठ पीछे मुझ पर तंज करते कि यह तो खुशवंत सिंह को भी मात कर रहा है। गरज यह थी कि अपने-अपने युद्ध में कुछ देह प्रसंग थे। और पढ़ सभी रहे थे एक दूसरे से मांग-मांग कर। और अंतत: अघोषित तौर पर मुझे अश्लील लेखक करार दे दिया गया। घोषणा होती-होती कि हाईकोर्ट में कंटेंप्ट आफ़ कोर्ट हो गया इस उपन्यास को ले कर और राजेंद्र यादव का चार पेज का संपादकीय हंस में आ गया, केशव कहि न जाए, का कहिए ! इस उपन्यास को ले कर। सो लोगों के मुंह सिल गए। घोषणा स्थगित हो गई मुझे अश्लील लेखक करार देने की। मैं ने यह सारी दिक्कत बताई थी एक बार खुशवंत सिंह को भी फ़ोन पर। तो उन्हों ने छूटते ही कहा था कि इस सब की फिकर छोड़ कर सिर्फ़ लिखने की फिकर कीजिए। और गालिब का एक शेर भी सुनाया था। जो मुझे तुरंत याद नहीं आ रहा।

खैर, उषा महाजन के हिंदी अनुवाद के मार्फ़त उन की कुछ कहानियां पढ़ी हैं मैं ने। जब युवा था तब उन की बाटमपिंचर कहानी पढ़ी थी और जब तब बाटमपिंचरी का जायजा भी। उन की दिल्ली और बंटवारे को ले कर चले दंगे का लोमहर्षक कथ्य परोसता ट्रेन टू पाकिस्तान भी। छिटपुट लेख भी। और उन के कालम का तो मैं नियमित पाठक रहा हूं। शनिवार को पहले उन का कालम पढ़ता था फिर बाकी अखबार।   लेकिन जब उन की आत्मकथा सच, प्यार और ठोड़ी सी शरारत पढ़ी तो मैं जैसे दीवाना हो गया खुशवंत सिंह का। ऐसी निर्मल और ईमानदार आत्मकथा दुर्लभ है। दुनिया की किसी भी भाषा में। खुशवंत सिंह के जीवन में इतना रोमांच है, इतने मोड़, इतने सच और इतने बाकमाल अनुभव हैं कि पूछिए मत। और इन सब को कहने के लिए उन के पास जो पारदर्शिता है, जो बेबाकी है और जो आत्म-निरीक्षण की ताकत है वह किसी और आत्मकथा में मुझे तो नहीं मिली अभी तक। शायद ही मिलेगी।

भारतीय क्या किसी भी समाज में कोई अपनी मां की शराबनोशी के बारे में खुल कर लिखे और बताए कि मरते समय हमारी मां की अंतिम इच्छा ह्विस्की थी। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में यह बात लिखी है और बड़ी आत्मीयता से लिखी है। न सिर्फ़ लिखी है बल्कि इस बात को अपने पिता से भी जोड़ा है। बहुत ही सिलसिलेवार। बताया है कि पिता जब जीवित थे तो नियमित शराब पीते थे। शराब पार्टियां देते ही रहते थे। घर में शराब पीने का भी उन का एक समय निश्चित था। मां सारी व्यवस्था रोज खुद करती थीं। लेकिन खुद शराब छूती तक न थीं। बाद के दिनों में जब पिता का निधन हो गया, वह अकेली हो गईं तो अचानक पिता के शराब के समय खुद शराब पीने बैठने लगीं। नियमित। और जब मृत्यु का समय आ गया तो उन्हों ने अंतिम इच्छा हिचकी लेते हुए ह्विस्की की ही बताई। तो जाहिर है कि वह ह्विस्की नही, ह्विस्की के बहाने पति को याद कर रही थीं। यह और ऐसा रुपक, ऐसी संवेदना खुशवंत बिना किसी घोषणा या नैरेशन के रच देते हैं। और समझने वाले पाठक, समझ लेते हैं। वह भी आत्मकथा में। आत्मकथा उन की इतनी विविध है, इतने मोड़ और इतने रोमांच हैं उस में इतनी सारी घटनाएं भरी हैं कि सब का ज़िक्र कर पाना यहां अभी और अभी तो बिलकुल संभव नहीं है। फिर भी एक जायजा तो ले ही सकते हैं।


इतना ही नहीं वह अपने तमाम प्रेम और देह प्रसंग तो अपनी आत्मकथा में बांचते ही हैं, अपनी पत्नी के प्रेम प्रसंग को भी उसी निर्ममता से बांचते हैं। उन का एक दोस्त है और उन से एक दिन मजाक-मजाक में उन की बीवी की सुंदरता के बाबत चर्चा करता है और कहता है कि मुझे तो तुम्हारी बीवी से इश्क हो गया है। मेरा लव लेटर पहुंचा दो उस तक। खुशवंत सिंह मजाक ही मजाक में इस बात पर न सिर्फ़ हामी भर देते हैं बल्कि उस का प्रेम पत्र बीवी तक पहुंचाने भी लगते हैं। नियमित। और यह देखिए कि खुशवंत सिंह की पत्नी सचमुच उस आदमी के साथ न सिर्फ़ प्यार में पड़ जाती हैं बल्कि इन का दांपत्य भी खतरे में पड़ जाता है। अब खुशवंत सिंह अपना दांपत्य बचाने के लिए गुरुद्वारे में अरदास करते रहते हैं। अब उन का ज़्यादातर समय गुरुद्वारे में बीतने लगता है। इस पूरे प्रसंग को इतना भीग कर लिखा है कि खुशवंत सिंह ने कि खुशवंत सिंह से प्यार हो जाता है। मेरे जैसा आदमी  उन का मुरीद हो जाता है। नहीं लिखने को तो हरिवंश राय बच्चन ने भी अपनी आत्मकथा में ऐसा एक छिछला सा प्रसंग लिखा है और अपनी आत्ममुग्धता में डूब कर बड़ी बेइमानी से लिखा है कि पता चल जाता है कि वह सारा का सारा कुछ झूठ लिख रहे हैं। कि बच्चन लंदन में हैं। इलाहाबाद में एक आदमी उन की पत्नी तेजी बच्चन के चक्कर में पड़ जाता है। तेजी उस की कार में बैठ कर यमुना किनारे तक जाती भी हैं पर अचानक उतर कर भाग आती हैं आदि-आदि। लेकिन इन को नहीं बतातीं अपनी चिट्ठी में तो इस लिए कि कहीं पढ़ाई में विचलित न हो जाएं। बताइए कि तेजी बच्चन के तमाम प्रसंग लोगों की जुबान पर आज भी हैं, अमरनाथ झा से लगायत, सुमित्रानंदन पंत और जवाहरलाल नेहरु आदि तमाम-तमाम लोगों तक। लेकि्न बच्चन की आत्मकथा इन सारे प्रसंगों पर खामोश है और कि आत्म-मुग्धता के सारे प्रतिमान ध्वस्त करती हुई है। यह इस बिना पर मैं कह रहा हूं कि कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें बच्च्न और शमशेर दोनों ने लिखा है। शमशेर के विवरण में तटस्थता है अपने प्रति। पर बच्चन के विवरण में मैं ही मैं तो है ही, आत्ममुग्धता और झूठ भी है।  मैं तो कहता हूं कि अगर हरिवंश राय बच्चन की ज़िंदगी के खाते से मधुशाला, तेजी बच्चन और अमिताभ बच्चन को हटा लिया जाए तो हरिवंश राय बच्चन को लोग कैसे और कितना याद करेंगे भला? खैर यह दूसरा प्रसंग है। इस पर फिर कभी।

पर यहीं खुशवंत सिंह की आत्म-कथा अन्य से अनन्य हो जाती है। यह और ऐसे तमाम प्रसंग इस सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत को अप्रतिम बना देते हैं।

दूतावास की नौकरियों के कई विवरण हैं उन के पास। एक मध्यवर्गीय परिवार कैसे तो पैसे बचाता रहता है, इस बाबत उस की कंजूसी, चालाकी और बेशर्मी का वर्णन भी है। वह परिवार एक कमरे के मकान में रहता है। रोज रात को बच्चों को कार में सुला देता है। शाम का खाना अकसर नहीं बनता है। दूतावास में अकसर पार्टी वगैरह होती रहती हैं। तो उस पार्टी में कभी मिया, बीवी को खोजते हुए आ जाता है, कभी बीवी मिया को खोजते हुए आ जाते हैं। फिर बच्चे भी। यह्य उन का नियमित सिलसिला है। और खा पी कर चले जाते हैं।

मुंबई के दिनों के भी कई सारे दिलचस्प विवरण हैं। जैसे कि एक व्यवसाई की पार्टी का विवरण है। वह एक शीशे की छत का स्विमिंग पुल बनाए हुए है। पार्टी के दौरान औरतें नंगी हो कर तैरती रहती हैं और नीचे से लोग शराब पी्ते हुए इन औरतों को देखते रहते हैं। एक समय वह भी आता है जब खुशवंत के बेटे राहुल सिंह भी टाइम्स आफ़ इंडिया में सब एडीटर बन कर नौकरी करने आ जाते हैं। खुशवंत खुद इलस्ट्रेटेड वीकली में संपादक हैं।


बताइए कि पत्रकारिता में लायजनर्स और दलालों की जैसे फौज खड़ी है हमारे सामने लेकिन हर कोई अपने को पाक साफ और सती-सावित्री बताने में सब से आगे है। एक से एक एम जे अकबर, रजत शर्मा, प्रभु चावला, आशुतोष आदि पूरी तरह नंगे खड़े हैं पर सूटेड बूटेड दिखते हैं। बिलकुल शहीदाना अंदाज़ में। लेकिन इन सब में से किसी एक में यह हिम्मत नहीं है जो खुशवंत सिंह बन सके और उन की तरह खुल कर कह सके जैसे कि वह अपने बारे में कहते हैं अपनी आत्मकथा में। खुशवंत सिंह बहुत साफ लिखते हैं कि हां, मैं संजय गांधी का पिट्ठू था। और बार-बार। और तमाम सारे किस्से। एक जगह उन्हों ने लिखा है कि जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद जब कांग्रेस की दुबारा सरकार बनी तो संजय गांधी ने उन के सामने दो प्रस्ताव रखे। एक कि वह कहीं राजदूत बन जाएं या फिर कहीं संपादक और राज्य सभा सद्स्य बन जाएं। यह दूसरा प्रस्ताव खुशवंत ने स्वीकार कर लिया। फिर वह जल्दी ही हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बना दिए गए। और एक दिन वह भी आया जब वह राज्यसभा के लिए भी मनोनीत हो गए। उन्हों ने लिखा है कि जब उन्हें यह सूचना फ़ोन पर संजय गांधी ने दी तो वह किसी बच्चे की तरह खुश हो कर चिल्ला पड़े।


लेकिन एक समय वह भी था कि इमरजेंसी और सेंसरशिप लगते ही खुशवंत सिंह ने कहा था कि सारे अखबार बंद कर दिए जाने चाहिए। तब के दिनों वह टाइम्स आफ़ इंडिया ग्रुप की पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक थे। लेकिन बाद में मेनका गांधी की वज़ह से वह पलट गए। मेनका गांधी जो तब मणिका हुआ करती थीं, खुशवंत सिंह की रिश्तेदार हैं। यह बात माधुरी के तब के संपादक अरविंद कुमार ने लिखी है। खैर, बाद में यही खुशवंत सिंह इमरजेंसी के न सिर्फ़ अच्छे खासे पैरोकार बन कर उभरे बल्कि एक किताब भी इस बाबत लिखी। बाद के दिनों में इंदिरा गांधी और संजय गांधी के कसीदे भी उन्हों ने खूब लिखे। और अपनी इस कमी को स्वीकार भी किया।

लेकिन वह सिख दंगों के दिन थे जब खुशवंत सिंह का कांग्रेस से जब मोहभंग हो गया। एहतियात के तौर पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने उन्हें राष्ट्रपति भवन बुला लिया था और कई सिख परिवारों ने रा्ष्ट्रपति भवन में शरण ली थी तब। लेकिन दिक्कत यह थी कि राष्ट्रपति भवन में भी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह समेत तमाम सिख अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे थे और मारे भय के दुबके हुए थे।

राष्ट्रपति भवन के उन दिनों का बहुत ही लोमहर्षक विवरण खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में परोसा है। यह पढ़ कर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह पत्ते की तरह कांप रहे थे कि कहीं वह भी न मार दिए जाएं। राष्ट्रपति खुद थानों को फ़ोन कर रहे थे, अफ़सरों को फ़ोन कर रहे थे, सिख भाइयों को बचाने के लिए और इक्का दुक्का कोछोड़ कर कोई भी उन की सुनने को जल्दी तैयार नहीं हो रहा था। राष्ट्रपति असहाय थे।
राज्यसभा के भी एक से एक किस्से उन्हों ने लिखे हैं। सदन में सोने वालों से ले कर बदबूदार पादने वालों तक के। यह भी कि सिख दंगों पर कैसे तो कांग्रेसियों ने उन्हें न सिर्फ़ बोलने नहीं दिया सदन में बल्कि अपमानित भी बहुत किया। अगली बार लेकिन राज्यसभा जाने को वह फिर उतावले हुए। भाजपा की बांह तक थामी पर सफल नहीं हुए। यह सब कुछ बड़ी सहजता और पूरी ईमानदारी से। अपनी उपल्ब्धियां भी उतनी ही ईमानदारी से और अपनी कमजोरियां, अपनी क्षुद्रताएं और कमीनगी भी उसी ईमानदारी से। एक रत्ती भी बेईमानी नहीं।

वह ट्रेन से भोपाल जा रहे हैं। ट्रेन टु पाकिस्तान लिखने की योजना बना कर। वहां के ताल में एक गेस्ट हाऊस है उन का। ट्रेन में तब के दिनों के एक बड़े बिस्कुट व्यापारी भी उन के सहयात्री हैं। उन को खाने के लिए बिस्कुट पेश करते हैं औपचारिकता में। खुशवंत सिंह मना कर देते हैं तो वह कहते हैं कि देखो तो सही कि यह बिस्कुट तुम्हें खिला कौन रहा है? और अपना परिचय बताते हैं। खुशवंत सिंह बिस्कुट ले लेते हैं और अपना परिचय भी बताते हैं। अपने अमीर पिता शोभा सिंह का नाम बताते हैं। जो दिल्ली के न सिर्फ़ सब से बड़े ठेकेदार हैं बल्कि अमीर भी। अपने कैंब्रिज़ की पढ़ाई, दूतावासों की नौकरियों आदि की भी फ़ेहरिश्त बताते हैं। अपने संपादक और लेखक होने के व्यौरे में जाते हैं। यह सोच कर कि उस व्यापारी पर अपना रौब पड़े। पर वह तो अपने एक संवाद से ही खुशवंत को ज़मीन पर बिठा देता है।

वह यह सब सुन कर जब कहता है कि अरे तब तो तुम ने अपने बाप का पैसा डुबो दिया, अपनी पढ़ाई का भी खर्च नहीं निकाल पाए तुम तो ! यह सुन कर खुशवंत सिंह सन्न रह जाते हैं।


वह अपनी आत्मकथा में कई सारे मिथ भी जहां तहां तोड़ते चलते हैं। जैसे कि वह लंदन दूतावास की नौकरी में हैं। कृष्णा मेनन हाई कमिश्नर हैं। प्रधान मंत्री नेहरु आने वाले हैं। मेनन खुशवंत को ज़िम्मेदारी देते हैं कि प्रेस को ठीक से संभालें और कि नेहरु को किसी अच्छी किताब की दुकान पर ले जाना शेड्यूल कर लें। नेहरु आते ही हवाई अड्डे से सीधे बिना किसी शेड्यूल के लेडी माउंटबेटन से मिलने चले जाते हैं। लेडी माउंटबेटन गाऊन मे ही उन का दरवाज़े पर वेलकम करती हैं। एक लंबे आलिंगन और चुंबन के साथ। छुपे हुए फ़ोटोग्राफ़र जो पहले ही से वहां उपस्थित हैं, फ़ोटो खींच लेते हैं। दूसरे दिन अखबारों में यही फ़ोटो छा जाती है। मेनन और नेहरु दोनों नाराज होते हैं। खैर एक शाम वह नेहरु के साथ किताबों की दुकान पर जा रहे हैं। दुकानदार को पहले से ही तैयार किए हुए हैं। रास्ते में औपचारिकता वश नेहरु से पूछ लेते हैं कि कैसी किताबें उन्हें पसंद हैं? यह सुनते ही नेहरु बिदक जाते हैं। कहते किसी भी तरह की नहीं। टाइम कहां है कोई किताब पढ़ने के लिए? नेहरु यहीं नहीं रुकते। बिदक कर पूछते हैं कि यह किताबों की दुकान पर जाना शेड्यूल करने की क्या ज़रुरत थी?

इसी दूतावास में एक दिन अचानक एक एजेंट आता है। हिंदुस्तान की एक महारानी का लंदन में निधन हो गया है। उन की अंत्येष्टि हिंदू तौर तरीके से की जानी है। ऐसा निर्देश वह मरने के पहले दे गई हैं किसी एजेंसी को। पैसा भी दे गई हैं। सब कुछ हो भी गया है। पर एक दिक्कत आ गई है उन्हें साड़ी पहनाने की। सो वह भारतीय दूतावास आ गया है और खुशवंत सिंह के पास चला गया है। यह सुन कर खुशवंत सिंह बहुत खुश हो जाते हैं। कि चलो मरने के बाद ही सही एक महारानी की नंगी देह तो देखने को मिलेगी। पर उन का हंसोड़ मन उन की इस तमन्ना पर पानी फेर देता है। वह कहते हैं उस एजेंट से कि साड़ी पहनाने तो नहीं पर साड़ी उतारने उन्हें ज़रुर आता है। इस का बहुत तजुर्बा भी है। एजेंट खुशवंत के इस मजाक का बुरा मान जाता है और सीधे मेनन से उन की शिकायत कर देता है। पर खुशवंत को उस की शिकायत से कोई शिकवा नहीं होता। शिकवा अपने आप से होता है कि मजाक-मजाक में एक महारानी की नंगी देह देखने से वंचित हो गए वह। एक मशहूर महिला चित्रकार से अपने संबंधों का बखान करते हुए वह लिखते है कि वह बहुत होशियार थी। कपड़े उतारने में नखरे करने के बजाय खुद कपड़े उतार कर तैयार रहती। वक्त बिलकुल नहीं खराब करती थी बेवकूफ़ी की बातों में।

खुशवंत सिंह स्कूल में हैं। नर्सरी, के जी टाइप क्लास में। और एक दिन वह स्कूल में बैठी अपनी शिक्षिका के प्राइवेट पार्ट किसी तरह देख लेते हैं और उस का भी वर्णन शिशु उत्सुकता-जिज्ञासा में अपनी आत्मकथा में लिख  देते हैं। वह प्राइमरी क्लास में ही एक चीफ़ इंजीनियर की बेटी से प्यार भी कर बैठते हैं। संयोग से तमाम और किस्सों के बावजूद इसी प्राइमरी वाली लड़की से विवाह भी हो जाता है खुशवंत सिंह का।

अब तो दिल्ली से लाहौर बस जाती है। लेकिन खुशवंत सिंह अपनी जवानी में दिल्ली से लाहौर मोटरसाइकिल से जाते हैं। लाहौर में अपने विद्यार्थी जीवन और वकालत के भी एक से एक नायाब प्रसंग उन्हों ने लिखे हैं। एक धोबिन का प्रसंग है। जो सुंदर है, युवा है और लड़कों से कुछ पैसे मिलते ही उन के साथ हमबिस्तरी करने में उसे गुरेज नहीं है। लेकिन लड़कों के तमाम प्रयास के बावजूद खुशवंत उस धोबिन के साथ नहीं सोते। लाहौर में उन के कई स्त्रियों से संबंध के रोचक विवरण हैं। पर एक प्रसंग तो अदभुत है। एक पार्टी में इन के बेटे की कुछ शरारत को ले कर एक औरत का इन की पत्नी के साथ विवाद हो जाता है तो वह औरत बाद में पता करती है कि इस का शौहर कौन है ? और फिर वहां उपस्थित औरतों से बाकायदा चैलेंज दे कर कहती है कि इसे तो मैं सबक सिखा कर रहूंगी। और वह खुशवंत के साथ हमबिस्तरी कर के ही उन की पत्नी को सबक सिखा देती है। खुशवंत सिंह ने हालां कि अभी हाल के एक इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि उन के संबंध ज़्यादातर मुस्लिम औरतों से ही रहे हैं, सिख औरतों से नहीं और इसी लिए वह मुसलमानों के बारे में हमेशा से उदार रहे हैं। दिल्ली में भी एक मुस्लिम औरत उन की आत्मकथा में मिलती है जो उन के साथ उन की फ़िएट में घूमती रहती रहती है। उन्हों ने लिखा है कि तब फ़िएट में गेयर स्टेयरिंग के साथ ही होता था सो उन का एक हाथ में स्टेयरिग पर होता था और दूसरे हाथ से उसे अपने से चिपटाए रहते थे।

बहुत कम लोग जानते हैं कि खुशवंत सिंह के पिता दिल्ली के न सिर्फ़ सब से बड़े ठेकेदार थे बल्कि उन्हों ने सामान ढोने के लिए खुद रेल लाइन बिछाई थी। उन की खुद की रेल भी थी। और कि राष्ट्रपति भवन के सामने बने नार्थ ब्लाक और साऊथ ब्लाक खुशवंत सिंह के पिता शोभा सिंह के ही बनवाए हुए है। तब के दिनों में वह जनपथ के एक बड़े से बंगले में रहते थे। तब कहा जाता था कि आधा कनाट प्लेस उन्हीं का था। हालां कि यह पूरा सच नहीं है। खैर तमाम अमीरी के बावजूद खुशवंत सिंह ने कुछ दिनों तक लाहौर में वकालत भले की पर बाद की ज़िंदगी लिखने-पढ़ने और नौकरी में ही गुज़ारी। आज़ादी के बाद वह भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका योजना के संपादक हो गए। एक बार क्या हुआ कि वह अंगरेजी के प्रसिद्ध लेखक नीरद सी चौधरी से मिलने उन के घर किंग्ज्वे कैंप गए। वह आर्थिक रुप से मुश्किल में थे। खुशवंत सिंह ने उन की मदद की सोची। पर उन्हों ने इंकार कर दिया। तब एक दूसरा रास्ता निकाला उन्हों ने उन की मदद का। कहा कि आप योजना के लिए लिखिए। और यह एडवांस ले लीजिए। जब जो मन हो लिख कर दे दीजिएगा। नीरद चौधरी मान गए। हालां कि वह लिख कर कभी कुछ दे नहीं पाए योजना को। बाद के दिनों में नीरद चौधरी इंगलैंड चले गए। एक बार खुशवंत सिंह को फिर पता चला कि वह आर्थिक मुश्किल में हैं। इस का विवरण अपने कालम में लिखा जब हिंदुस्तान टाइम्स में तब के के बिरला ने खुशवंत सिंह को यह पढ़ कर बुलाया और कहा कि हम आप के दोस्त की मदद करना चाहते हैं। आप उन से यह भर पूछ कर बता दीजिए कि वह पौंड, डालर या किस मुद्रा में लेना चाहेंगे? खुशवंत सिंह ने बिरला के कहे मुताबिक नीरद चौधरी से यह बात पूछी। पर नीरद चौधरी ने बिरला के इस मदद के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया।

अब इन दिनों तो पत्रकारों की नौकरी रोज ही खतरे में पड़ी रहती है। इतनी कि पत्रकार काम करने पर कम नौकरी बचाने पर ज़्यादा ध्यान देते हैं। पर पहले ऐसा नहीं था। खुशवंत ने एक जगह लिखा है कि जब उन्हों ने हिंदुस्तान टाइम्स ज्वाइन किया तो ज्वाइन करने के हफ़्ते भर बाद ही के के बिरला उन से मिले। और पूछा कि काम-काज में कोई दिक्कत या ज़रुरत हो तो बताइए। खुशवंत ने तमाम डिटेल देते हुए बताया कि अल्पसंख्यक नहीं हैं स्टाफ़ में और कि फला-फला और लोग नहीं हैं। ऐसे लोगों को रखना पड़ेगा और कि स्टाफ़ बहुत सरप्लस है, सो बहुतों को निकालना भी पड़ेगा। तो के के बिरला ने उन से साफ तौर पर कहा कि आप को जैसे और जितने लोग रखने हों रख लीजिए, पर निकाला एक नहीं जाएगा। के के बिरला एक बार खुशवंत के अनुरोध पर उन के घर खाने पर गए। वह लहसुन, प्याज भी नहीं खाते थे यह बताने के लिए अपना एक आदमी उन के घर अलग से भेजा जो उन के खाने की पसंद बता गया। बिरला जब पहुंचे तो बड़ी सादगी और विनम्रता से वहां रहे। उन्हें यह बिलकुल एहसास नहीं होने दिया कि वह उन के कर्मचारी भी हैं।

पर क्या आज भी ऐसा मुमकिन है?


अब न खुशवंत सिंह जैसे लोग हैं न के के बिरला जैसे। आज तो संपादक मालिकान तो मालिकान उन के बच्चों, चमचों, चपरासियों, ड्राइवरों और कुत्तों तक के चरण चूमते देखे जाते हैं। जैसे बेरीढ़ ही पैदा हुए हों।

खैर बात यहां हम खुशवंत सिंह की कर रहे हैं। वह खुशवंत सिंह जो खुद को संजय गांधी का पिट्ठू कहता था। पर क्या सचमुच ही वह पिट्ठू था किसी का? मुझे तो लगता है कि खुशवंत सिंह अगर किसी एक का पिट्ठू था तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक कलम का पिट्ठू था। हम तो खुशवंत सिंह को उन की कलम के लिए ही याद और सैल्यूट करते हैं।

खुशवंत सिंह ने दो खंड में सिखों का इतिहास लिखा है। बल्कि सिख इतिहास लिखने के लिए ही दुनिया में उन को पहली बार जाना गया और वह प्रसिद्धि के शिखर पर सवार हो गए। फिर पीछे मुड़ कर उन्हों ने नहीं देखा। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता आदि तो बाद की बात है। उन के जीवन में पहले सिख इतिहास ही है। पर सोचिए कि सिख इतिहास लिखने वाले खुशवंत सिंह का बाद के दिनों में सिख धर्म ही नहीं सभी धर्मों से यकीन उठ गया। उन की आत्मकथा का आखिरी और लंबा हिस्सा इसी धर्म से यकीन उठ जाने पर है। यह हिस्सा एक लंबी और गंभीर बहस की मांग करता है। जो कभी हुई नहीं। होनी चाहिए। खुशवंत सिंह ने जो मुद्दे और जो सवाल तमाम धर्म को ले कर उठाए हैं और विस्तार से उठाए हैं, सुचिंतित और सुतर्क के साथ उठाए हैं। उस पर खुल कर बात होनी चाहिए। जो अब तक नहीं हुई। खुशवंत सिंह की आत्मकथा का यह हिस्सा इतना महत्वपूर्ण और सारगर्भित है कि उन के जीवन और यौवन के सारे रोमांच इस के आगे फीके पड़ जाते हैं। वह एक जगह जैसे मुक्त होते हुए लिखते हैं कि वह यही गुरुद्वारा है जहां अपना दांपत्य बचाने के लिए मैं घंटों बैठा रहता था ! ऐसा लिखना खुशवंत के ही वश की बात थी। क्यों कि खुशवंत ने जीवन को पूरी तरह जिया है और भरपूर जिया है। भरपूर जीने के बाद ही ऐसा कोई लिख सकता है।

मुक्तिबोध की एक कविता याद आती है :

अब तक क्या जिया, जीवन क्या जिया
लिया बहुत ज़्यादा, और दिया बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रहे तुम !


हमारे जैसे सामान्य लोगों पर तो यह कविता भले फिट बैठती हो लेकिन बड़ी विनम्रता से यहां यह कहना चाहता हूं कि खुशवंत सिंह ने जो जीवन जिया और जिस तरह जिया, जिस रोमांच, जिस सलीके और पारदर्शिता से जिया उस में दिया बहुत ज़्यादा और लिया बहुत कम। ऐसा जीवन और ऐसा लिखना काश कि सब के नसीब में होता ! और कि हमारे भी नसीब में काश कि होता। निन्यानबे साल की उम्र में भी ऐसा ज़िंदादिल आदमी हम ने न सुना न देखा। आप ने देखा हो तो हम नहीं जानते। सच कई बार उन को पढ़ कर रश्क होता है और कहने का मन होता है कि हाय ! हम क्यों न हुए खुशवंत !

Sunday, 16 March 2014

सपने में सिनेमा का पाठ साहित्योत्सव, 2014 में

 साहित्य अकादमी के साठ साल


साहित्य अकादमी ने अपने साठ साल का होने पर दिल्ली में बीते 10 मार्च से 15 मार्च तक साहित्योत्सव, 2014 का आयोजन किया। देश भर से विभिन्न भारतीय भाषाओं के रचनाका्रों ने इस में शिरकत की। रचना पाठ और व्याख्यान के कई-कई सत्र हुए। इसी साहित्योत्सव में 15 मार्च को मेघदूत परिसर, रवींद्र भवन में उत्तर-पूर्व एवं क्षेत्रीय लेखक सम्मिलन में आयोजित कहानी-पाठ में मैं ने भी अपनी एक कहानी का पाठ किया। कहानी का शीर्षक है सपने में सिनेमा। यह मेरी बिलकुल नई कहानी है। और कि अनूठी प्रेम कहानी है। जिसे चार दिन पहले ही लिखा है। बहुत दिनों बाद।

हालां कि दो उपन्यास और चार-पांच कहानियां एक साथ मन में चल रहे हैं। बहुत दिनों से। लेकिन सपना बन कर। मन ही मन लिख रहा हूं।  कलम से हो कर कागज़ पर नहीं। यह बताते हुए ज़रा संकोच भी होता है कि कोई तीन साल बाद मुझ से कोई कहानी लिखना हो पाया है। इस नई कहानी के पहले फ़ेसबुक में फंसे चेहरे लिखी थी। इस के बाद एक और कहानी विपश्यना में विलाप कुछ समय पहले लिखना शुरु किया था, पर अभी भी यह कहानी पूरी नहीं हो पाई है। जाने क्यों। कोशिश है कि जल्दी ही उसे भी पूरा करुं। इस बीच छिटपुट लेखों और टिप्पणियों के अलावा कुछ रचनात्मक नहीं लिख पाने का बहुत अफ़सोस भी है। इस गहरे अफ़सोस को आप मित्रों के साथ बड़ी शर्मिंदगी के साथ शेयर कर रहा हूं। बहरहाल सपने में सिनेमा मेरी नई -नवेली कहानी है। सरोकारनामा पर जल्दी ही यह कहानी आप मित्रों को पढ़वाऊंगा।

खैर, इस कहानी पाठ सत्र की अध्यक्षता चंद्र त्रिखा ने की। सत्र समापन पर त्रिखा जी का संबोधन सोने पर सुहागा था। असमिया से शिवानंद काकती, अंगरेजी से राहुल सैनी, हिंदी से मैं खुद था और मणिपुरी से राजकुमा्री हेमवती देवी ने कहानी-पाठ किया। राजकुमारी हेमवती देवी का कहानी पाठ अदभुत था। संवेदना में भीगा ऐसा कहानी पाठ मैं ने अभी तक नहीं सुना। इस मौके पर विभिन्न भाषा के बहुत सारे रचनाकार मित्रो से भेंट भी सुखद थी। पेश है इस मौके पर मेरे कहानी पाठ की कुछ फ़ोटो। रंगों के महापर्व होली की अनंत और अशेष शुभकामनाएं !










 मणिपुरी कहानीकार राजकुमारी हेमवती देवी , मैं खुद और अंगरेजी कहानीकार राहुल सैनी










 छात्र जीवन से ही मुझे निरंतर बढ़ावा देने और मेरा लिखा छाप-छाप कर मुझे आगे बढ़ाने वाले, मुझे स्नेह करने वाले मेरे प्रिय कवि मंगलेश डबराल और हम साहित्य अकादमी के साठ साल पूरा होने पर आयोजित साहित्योत्सव, २०१४ दिल्ली में। मंगलेश जी के साथ जनसत्ता, दिल्ली में जनसत्ता की पहली टीम के रुप में काम करने का सुखद संयोग भी मिला बाद के दिनों में।




अपनी प्रिय उपन्यासकार मृदुला गर्ग के साथ साहित्य अकादमी के साहित्योत्सव, २००१४ में


अपनी प्रिय लेखिका पद्मा सचदेव  के साथ साहित्य अकादमी के साहित्योत्सव, २००१४ में









असमिया कहानीकार 
शिवानंद काकती के साथ










रवींद्र भवन में 
गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर 
की मूर्ति के साथ

Monday, 10 March 2014

मोदी अब एक नई दहशत हैं हिंदुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान के लिए भी

लेकिन यह देश तो किसी एक मोदी की जागीर नहीं है

और अब लीजिए देश के तमाम-तमाम सेक्यूलर और मुसलमान समेत मीडिया ने जैसे मान लिया हैं कि नरेंद्र मोदी  हिंदुस्तान के नए प्रधान मंत्री हैं ठीक वैसे ही पाकिस्तान और पाकिस्तान के लोगों ने भी मान लिया है कि मोदी अब हिंदुस्तान के नए प्रधान मंत्री हैं। पाकिस्तान में भी मोदी की ऐसी तैसी शुरु हो गई है और जैसी कि पाक मीडिया की रिपोर्ट आ रही हैं उस के मुताबिक वहां के कठमुल्लों ने भी मुसलमानों को मोदी के डर में, लोगों को जीना सिखा रहे हैं। मोदी अब एक नई दहशत हैं पाकिस्तान के लिए भी। वहां के कठमुल्ले मोदी से न सिर्फ़ मुसलमानों को मोदी से डरा रहे हैं बल्कि मोदी को बाकायदा दहशतगर्द घोषित करते हुए बता रहे हैं कि मोदी यह नहीं देखेगा कि कौन शिया है, कौन सुन्नी, कौन यह, कौन वह, वह तो बस एक ही चीज़ देखेगा कि कौन मुसलमान है और काट कर फेंक देगा सो हिंदुस्तान और पाकिस्तान ही नहीं, दुनिया भर के मुसलमानों सावधान हो जाओ !  पाकिस्तान के कुछ लोग तो मोदी की तुलना पाकिस्तानी आतंकवादी फ़ैजुल्ला से कर रहे हैं। वही फ़ैजुल्ला जो लोगों के सर काट कर उन की नुमाइश करता है पाकिस्तान में। पाकिस्तान में एक वर्ग ऐसा है जो बाकायदा तालिबान और अफ़गानिस्तान को मोदी के खिलाफ़ खड़ा करने की हिमायत भी कर रहा है। हालां कि वहां हामिद मीर जैसे लोग भी हैं जो मोदी को दहशतगर्द मानने से इंकार कर रहे हैं और उन की तुलना फ़ैजुल्ला से करने को गलत बता रहे हैं। यह बता रहे हैं कि मोदी को कोर्ट ने क्लीन चिट दे दी है। और कि उन्हों ने किसी का सर नहीं काटा है। फ़ैजुल्ला की तरह। तरह-तरह के कयासों के बीच लेकिन मोदी पाकिस्तान में न सिर्फ़ चर्चा के सबब हैं बल्कि वहां के न्यूज चैनलों पर वह खलनायक बन कर उपस्थित हैं। और हर जगह चर्चा उन्हीं की हो रही है। हिंदुस्तान से भी ज़्यादा।
अमरीका अलग मोदी राग में मरा जा रहा है और उन के लिए वीजा आदि की सुगबुगाहट दिखा रहा है। हिंदुस्तान में तो खैर मोदी अब एक फ़ोबिया हैं। क्या दोस्त, क्या दुश्मन सब के सब मोदी का पहाड़ा पढ़ने में तल्लीन हैं।
आखिर ऐसा क्या है मोदी में?

कि अभी चुनाव का ऐलान हुआ ही हुआ है और नीतीश कुमार से लगायत कांग्रेस, वाम मोर्चा, तीसरा मोर्चा, बसपा, सपा, धर्मनिरपेक्ष ताकतों, केजरीवाल, कारपोरेट आदि-आदि और अमरीका तक ने स्वीकार कर लिया है कि नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना तय है। और अब पाकिस्तान भी ! अभी से इन सब ने इस पर स्यापा और विरोध एक साथ शुरु कर दिया है। यह टेलीविजन पत्रकारिता से उपजी टेलीविजन राजनीति भर नहीं है।
भारत के हर नगर, हर डगर, हर गांव हर गली में यही गूंज है। इन सब का एक स्वर है कि बस नरेंद्र मोदी को धूल चटाओ। तर्क-कुतर्क, हेन-तेन जैसे भी हो। गुजरात दंगे का दु:स्वप्न इन का एकमात्र हथियार है। और जाहिर कि थका और चुका हुआ हथियार है। एस आई टी और सुप्रीम कोर्ट तक ने क्लीन चिट दे दिया है लेकिन यह सारे के सारे लोग इस बात पर एकमत हैं कि येन-केन प्रकारेण भारतीय मुसलमानों में मोदी का डर ज़िंदा रखना है। बीच में एक लड़की की जासूसी आदि का ड्रामा भी क्षेपक के तौर पर इस्तेमाल हुआ। वह लड़की आज तक नहीं बोली है लेकिन लोग हैं कि तबाह हैं और साहब का रुपक ले कर पिले पड़े हैं। लेकिन बड़ा मामला मुसलमानों में मोदी का डर दिखाने का ही है। इन मुसलमानों को भी कोई यह समझाने वाला नहीं है कि यह देश किसी एक मोदी, किसी एक सोनिया, किसी एक कांग्रेस या किसी भाजपा भर का नहीं है। यह देश उन का भी उतना ही है जितना कि और सब का। जैसे सूरज और धरती सब की है वैसे ही यह देश भी सब का है। किसी एक की जागीर नहीं है यह देश।
इस एक मुद्दे पर कोई क्यों नहीं बात करता?
ज़रुरत इसी बात की है न कि मोदी के फ़ोबिया में हर क्षण मुसलमानों को डरा कर रखने में। देश को मुसलमानों को भी अपनी पड़ताल करनी चाहिए और उन्हें अपने को दीन-हीन मानना छोड़ कर अपना खुद का नेतृत्व विकसित कर देश के विकास में अपनी भूमिका खुद लिखने के लिए आगे आना ज़रुरी है। देश के मुसलमान जब तक अपने भीतर शिक्षा और इस की जागरुकता नहीं लाएंगे, मुख्य धारा में खुद बढ़ कर आगे नहीं आएंगे राजनीति के चूल्हे पर निरंतर ठगे जाते रहेंगे और मोदी जैसे लोग उन के लिए दहशत का सबब बने रहेंगे। यह सारी बातें न देश के हित में हैं, न मुसलमानों के हित में। दुनिया बदल रही है, मुसलमानों को भी बदलने की ज़रुरत है। उन्हें यह साफ तौर पर जान लेना चाहिए कि यह देश उतना ही उन का भी है, जितना किसी और का। लेकिन यह देश तो किसी एक मोदी की जागीर नहीं है, न किसी भाजपा, किसी कांग्रेस या किसी सोनिया, किसी राहुल आदि की जागीर है। बस यह अल्पसंख्यक नाम की टोपी उतार कर उन्हें मुख्य धारा में मिल जाने की ज़रुरत है। क्यों कि हाल फ़िलहाल देश के या दुनिया के राजनीतिज्ञ तो बदलने से रहे। वह तो अपनी वोट की रोटी सेंकने से बाज़ नहीं आने वाले। लेकिन जनाब आप तो उन के लिए गरम तवा बनना बंद करें ! सब ठीक हो जाएगा। मोदी भी।

Monday, 3 March 2014

मीडिया के दिल भी हारमोनियम जैसे हैं जो बजते-बजते किसी पत्थर की चोट से टूट जाते हैं

 [शन्नो अग्रवाल कोई पेशेवर आलोचक नहीं हैं । बल्कि एक दुर्लभ पाठिका हैं । कोई आलोचकीय चश्मा या किसी आलोचकीय शब्दावली, शिल्प और व्यंजना या किसी आलोचकीय पाठ से बहुत दूर उन की निश्छल टिप्पणियां पाठक और लेखक के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाती हैं । शन्नो जी इस या उस खेमे से जुडी हुई भी नहीं हैं । यू के में रहती हैं, गृहिणी हैं और सरोकारनामा पर यह और ऐसी बाक़ी रचनाएं पढ़ कर अपनी भावुक और बेबाक टिप्पणियां अविकल भाव से लिख भेजती हैं । ]
 
शन्नो अग्रवाल

समय के साथ हर चीज़ में परिवर्तन होता रहा है l चाहें वो प्रकृति हो या इंसान, सामाजिक रीति-रिवाज या किसी व्यावसायिक संस्था से जुड़ी धारणाएं l इस उपन्यास में समय के बदलते परिवेश में अखबारी व्यवस्था का बदलता रूप दिखाया गया है l जिन्हें अखबारी दुनिया के मालिकों व इस के कर्मचारियों की ज़िंदगी में झांकना हो उन से मेरा कहना है कि वो इस उपन्यास 'हारमोनियम के हज़ार टुकड़े' को ज़रूर पढ़ें l कुछ समय पहले मैं ने दयानंद जी के ‘बांसगांव की मुनमुन’ उपन्यास को पढ़ा था और तब से अब तक उन की सात प्रेम कहानियों व ग्यारह पारिवारिक कहानियों में गोता लगा चुकी हूँ...यानी उन्हें पढ़ चुकी हूँ l आप के लेखन में समकालीन जीवन के रहन-सहन और उन की समस्याओं का विवरण बड़े खूबसूरत और व्यवस्थित ढंग से देखने व पढ़ने को मिलता है l
उपन्यास के आरंभ में सालों पहले अस्सी के दशक की दुनिया की झलक देखने को मिलती है जो आज के अखबारों की दुनिया से बिलकुल अलग थी l धीरे-धीरे अखबार के मालिक, संपादक और कर्मचारियों के संबंधों में बदलते समय की आवाज़ गूंजने लगती है l पहले अखबारों के मालिक और संपादक के बीच अच्छे व सहज संबंध होते थे l संपादक के हाथ में पावर होती थी और उस के निश्चय की मालिक कदर करते थे l और वह संपादकों के प्रति विनम्रता से पेश आते थे l मालिक को अगर संपादक से मिलना हो तो उन की सहूलियत के बारे में पूछते थे l और अब मालिकों के बच्चे उन की जगह संपादक को हुकुम देते हैं, इस का उदाहरण लेखक के शब्दों में मिलता है,’ज़रा जल्दी आ जाइए हमें कुछ बात करनी है l और जो संपादक कहते कि अभी तो अखबार के काम का समय है l' तो मालिकान कहते, ’फिर बाद में हमारे पास समय नहीं होगा l आप फौरन आइए।' आज व कल की अखबारी दुनिया में ज़मीन आसमान का फ़र्क है l लेखक ने उस समय व आज की अखबारी व्यवस्था की आपस में तुलना करते हुये इससे जुड़ी हर समस्या व हकीकत की बारीकियां अपने इस उपन्यास में दिखाई हैं l उन दिनों सालों पहले भारत में ‘आज़ाद भारत’ नाम का अखबार छपता था जिस में कोई विशेष विषय वस्तु ना होने पर भी इस की मांग बहुत थी l क्यों कि ये एक पुराना व सब का जाना पहचाना अखबार था l और इस की हर दिन एक लाख से ऊपर प्रतियां छपती थीं l उन दिनों अखबारी व्यवस्था में सभी एक दूसरे का सम्मान किया करते थे, एक दूसरे के प्रति विनम्र रहते थे l मालिक का संपादक पर पूरा इत्मीनान था l कर्मचारी अपने को खुशकिस्मत समझते हुए वफादारी व लगन से काम किया करते थे व उन मे एक तरह की स्वछंदता व मस्ती थी l धीरे-धीरे मीडिया में इंकलाब आने लगा l और अखबारी दुनिया की इमेज बदलने लगी l समय पलटने से पत्रकारिता का रूप तो बदला ही साथ में लोगों की सोच व राजनीति में भी बदलाव आने लगा l पुराने मालिक की जगह अब उन की नई पीढ़ी के बच्चे काम संभालने लगे तो उन के व संपादक के बीच संबंध भी वैसे ना रहे जैसे कि पहले मालिक के साथ हुआ करते थे l नई पीढ़ी हिंदी की जगह अंगरेजी अखबार पढ़ना पसंद करने लगी l अखबारों की बदलती व्यवस्था में संपादक को हुकुम देना, संपादक से सीधे बात न कर के मैनेजमेंट के जरिए बात-बात पर स्पष्टीकरण मांगना कि कौन सी खबर छपनी चाहिए कौन सी नहीं आदि बातें होने लगीं l जब इंसान को अपने हर निर्णय पर किसी का कंट्रोल होता महसूस हो तो मन खुद व खुद उखड़ जाता है l और यही होता है ‘आज़ाद भारत’ के एक योग्य और २७ साल का अनुभव समेटे संपादक के साथ जो इस तरह मैनेजमेंट की गुलामी में काम करने की वजाय अपना इस्तीफ़ा देना अच्छा समझता है l किंतु इतने पुराने और अनुभवी कर्मचारी को कोई आसानी से तो नहीं छोड़ना चाहता l लेकिन इंसान की खुद्दारी भी कोई चीज़ होती है l इस बात पर दयानंद जी की एक प्रेम कहानी ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ के नायक विष्णु प्रताप जी की याद आ गई जो एक कंपनी में जनरल मैनेजर थे और इसी उपन्यास के संपादक की तरह अनुभवी खुद्दार व आल राउंडर थे, यानि तमाम विषयों की जानकारी रखते थे l उन्हें भी उन की कंपनी खोना नहीं चाहती थी और यहाँ ‘आज़ाद भारत’ अखबार के संपादक को भी मालिक आसानी से खोना नहीं चाहते l लेकिन अपना अपमान होने पर इस्तीफ़ा देने के बाद विष्णु जी की ही तरह इस संपादक को भी गेट पर रोक कर किताबें या पर्सनल चीज़ें नहीं ले जाने दीं गईं l
ये दुनिया कितनी मतलबी व अवसरवादी है ये इस बात से ही पता चल जाता है कि इतने पुराने संपादक के इस्तीफ़ा देने पर भी किसी कर्मचारी या पत्रकार ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की, विरोध नहीं किया l और ना ही किसी ने उन से सहानुभूति ही जताई, सब को जैसे सांप सूंघ गया l इंसान की मानसिकता कितनी जल्दी बदल जाती है लोगों के प्रति l और इतने अनुभवी संपादक के काम छोड़ कर जाने पर भी लोगों की संवेदनहीनता देख कर लगता है जैसे ‘तू नहीं और सही’ l और उन की जगह मुकुट नाम के एक अयोग्य व निकम्मे इंसान को संपादक बना दिया जाता है l बिल्ली के भाग छींका टूटा ! मुकुट जी के तीन सपनों में से एक संपादक बनने का भी सपना था जो पूरा हो जाता है l पर उस समय किसी को पता नहीं होता कि वे संपादकीय कार्यभार संभालने के सक्षम नहीं l उन के सहयोगी उन्हें बात-बात में उल्लू बनाते रहते हैं l इस तरह के संपादक का कोई कर्मचारी सम्मान भी नहीं करता और कुछ लोग तो काम दूसरी जगह तलाश करने लगते हैं l बाकी के लोगों को प्रबंधन प्रमोशन की रिश्बत देकर रोक लेता है l इतना सब कुछ होने पर भी मुकुट जी के नसीब में ज़्यादा दिनों तक संपादक बनना नहीं लिखा था l जो इंसान संपादकीय स्तंभ तक लिखने की क्षमता ना रखता हो वो कैसे उस पोस्ट को संभाल सकता है l उन की अयोग्यता पर उन्हें वहां से दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया जाता है l

चार दिन की चांदनी और फिर अंधेरी रात

एम डी ने धकिया दिया मार पिछाड़े लात ।

उन की इस दशा पर ग़ालिब का एक शेर भी याद आ रहा है:

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले।

इन दिनों अखबारी दुनिया में एक क्रांति सी आने लगती है l अखबार छापने की नई मशीनें, नए प्रिंटर्स और कंप्यूटर्स आने से लोगों में कार्यक्षमता बढ़ने लगती है l लेकिन साथ में भ्रष्टाचार भी छूत के रोग की तरह फैलना शुरू हो जाता है l लोगों के जो काम बिना रिश्वत के हो जाते थे अब बिना पैसे का लेन-देन के कोई काम बनना मुश्किल होने लगा, हर जगह भ्रष्टाचार पसरने लगा l मुकुट जी के जाते ही उन की जगह अखबार के मालिक को विज्ञापन रुपी सरकारी रिश्वत दे कर मुख्यमंत्री की सिफ़ारिश पर उन के एक रिपोर्टर चमचे की नियुक्ति हो जाती है l इसी तरह का एक और अखबार में भी एक संपादक है जो हर तरह के अवैध कामों में माहिर है, व्यभिचारी है व गुंडई के काम करता व करवाता रहता है l लोगों ने इसे भइया नाम दे दिया l और भइया जैसे लोग बड़े शातिर होते हैं जो अपने मालिकों और मैनेजमेंट की चमचागिरी करके, अकसर उन के काम बनवा कर उन का दिल जीत लेते हैं; फिर आफिसों में बैठे मनमानी करते हैं l खैर इस नए संपादक से लोग खुश हैं क्यों कि ये अपने सहयोगियों को चीज़ें उधार दे कर उन का भी दिल जीत लेता है l फिर कोई उसकी करतूतों पर चूँ नहीं करता l इधर दूसरे अखबार ‘आज़ाद भारत’ से होड़ लेने लगते हैं और इस की नीव हिलने लगती है l अन्य नए अखबारों की संख्या बढ़ती है और फ्रीलांस जर्नलिज्म की बाढ़ सी आने लगती है l ऐसे समय में लालच और लोभ का मारा अखबार का मालिक अपने अंगरेजी अखवार की जयंती मनाते हुए मौका देख कर प्रधान मंत्री का इस्तेमाल कर के अपनी नई फैक्ट्रियों के लिए लाइसेंस साइन करा लेता है l ऊपर से साफ सुथरी इमेज और अंदर ये काले कारनामे l इस उपन्यास में अखबार के मालिकों की काली करतूतों के खुलासे हैं जिन की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती l पढ़ते हुए ऐसे ढोंगी लोगों की तस्वीरें दिमाग में उभरने लगती हैं l अखबारी काम को व्यवसाय बना कर ये लोग इस तरह बड़ी-बड़ी मिलें और शिपिंग कंपनी तक खरीद कर उन के भी मालिक बन बैठते हैं l पैसे के लोभी चेयरमैन और मालिकों की दुनिया में शराब आदि के ठेकों की डील करने में मंत्रियों को भारी रकम दी जाती है l इस तरह के खेलों में जेल जाना भी इन की ज़िंदगी का एक हिस्सा बन जाता है l पर ये लोग जल्दी ही कोई तिकड़मबाजी कर के ज़मानत होने पर छूट भी जाते हैं l इन की आंखों में वैभव की चमक होती है शर्म नहीं l अखबारों की दुनिया के बाहर भी इन लोगों की दुनिया शराब और व्यभिचार से भरी है l क्या-क्या चालें ये खेलते हैं इन्हें इस उपन्यास में पढ कर मन दंग हो जाता है l मन सोचता है कि क्या वाकई में अखबार के मालिकों व संपादकों का इतना मानसिक पतन हो चुका/रहा है कि उन का जीवन राजनीति, गुंडई, चाटुकारिता और व्यभिचार की दुनिया में उलझ कर रह गया l पर जेल जाने या कोई और बदनामी होने पर भी इन की महिमा कम नहीं होती l इंसान जितना बुद्धिमान होता जा रहा है उस का मानसिक पतन भी होता जा रहा है l बुद्धिमानी का दुरुपयोग कर के कुकर्मी हो रहा है, दूसरों को कुचल रहा है l पैसा, मान, इज्ज़त और ऊंचे शिखर छूने की चाहना क्या शराब की महफ़िलों, भ्रष्टाचार और व्यभिचार से ही पूरी की जा सकती है l सीधे सरल कर्मचारियों को भी अपने से ऊंचे पद वालों का अनुसरण करना पड़ता है l फिर भी ना उन की नौकरी की गारंटी ना उन के भविष्य की सुरक्षा l अपने लालच व सुख के लिए ये न्यूजपेपर के मालिक सब को शराब के मद सागर में बहा ले जाते हैं l इंसान के संस्कार व मान्यताओं की कोई कीमत नहीं l इस दुनिया में बड़ी मछली छोटी को निगलती जाती है l और राजनीति के जाल में फंस कर इस के छोटे कर्मचारियों की मौत होती रहती है l जहां अपनी गंदी चाल से मैनेजमेंट यूनियन के मुख्यमंत्री को भारी रिश्वत दे कर एक ही बार में खरीद लेता है और वो उन के आगे दुम हिलाने लगता है तो बाकी लोगों का क्या हो?
यूनियन के कदम अपने कर्मचारी भाइयों के संग अन्याय के विरुद्ध उठने बंद हो जाते हैं l पैसा में कितनी ताकत है कि ये इंसान की इंसानियत तक खरीद लेता है l जब यूनियन का लीडर ही भ्रष्ट हो कर मैनेजमेंट के आगे दुम हिलाने लगे तो यूनियन का संगठन भंग होने में कितनी देर लगती है? सब भाईचारा एक तरफ रखा रह जाता है l और जहां तक संपादकों की बात है तो जहनी लोग शराब, व्यभिचार में डूब कर भी अच्छे संपादक हो सकते हैं l लेकिन सवाल उठता है कि किसी बड़ी पोजीशन को प्राप्त करने व किसी बड़ी संस्था में काम करने वालों को क्या शराब, भ्रष्टाचार व व्यभिचार को भी अपनाना ज़रूरी होता है? क्या इस के बिना काम नहीं चल सकता? क्या ऊंची ख्वाहिशें रखने वालों का इन सब के बिना काम नहीं चल सकता? हर जगह राजनीतिक दांव-पेंच व षड्यंत्र चल रहे हैं l कभी खुले आम तो कभी पीठ पीछे l एक मंत्री का चमचा रिपोर्टर से सीधे संपादक बन सकता है जैसा कि मुकुट जी के बाद का संपादक l जिसने आते ही मालिक की चमचागिरी करनी शुरू कर दी और अपने कर्मचारियों की छोटी-मोटी हेल्प करके उन के दिल जीत लिए l पब्लिक में बदनामी होती है पर इस से उस के रुतबे पर अधिक असर नहीं पड़ता क्यों कि ताकत उस के हाथ में है और कर्मचारी उस के हाथों में कठपुतलियां l

पर जिस तरह एक अयोग्य संपादक अधिक दिनों अपनी पोस्ट पर बरकरार नहीं रहता उसी तरह एक प्रतिभा शाली संपादक भी अपने खराब चरित्र से कई बार अपनी पोस्ट से हाथ धो बैठता है l जैसा कि इस उपन्यास के पात्र मनमोहन कमल जी के साथ हुआ l अखबार ‘सांध्य दैनिक’ नहीं चल पाया और मनमोहन कमल अपने अवैध संबंधों के कारण मुसीबत में जो फंसे तो अपनी पोस्ट से ही हाथ धो बैठे l लेकिन वो इतने बेशर्म हैं कि बदनामी को झेलते हुए भी उन की स्त्रियों पर जल्दी रीझने की आदत नहीं गई l और ये भी देखिए कि ठाठ-बाट से रहने वाले इस इंसान की किस्मत इतनी अच्छी है कि अपने लेखन की सराहना व काबिलियत के कारण ‘आज़ाद भारत’ के प्रधान संपादक बन बैठते हैं l इन का बुरा चरित्र लोगों की बातों का विषय रहता है पर फिर भी लोग इन की प्रतिभा के कायल रहते हैं l मतलब ये की आज की दुनिया में अपनी बदनामी से कोई चुल्लू भर पानी में डूब कर मरने की नहीं सोचता बल्कि ऐसे लोग समाज में सिर उठा कर चलते हैं l और उन के कुकर्मों पर लोग उन के मुंह पर थूकने की वजाय उन की प्रतिभा या काबिलियत के कायल रहते हैं l क्या पाप है क्या निष्पाप है इस पर लोग कुछ देर खुसुर-पुसुर करते हैं फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है तो पापी परवाह क्यों करने लगा l     

सुनील जैसे पुराने कर्मचारी जो ये सब खेल देखने के अभ्यस्त हो रहे हैं और अपनी जुबान चुप रखते हैं उन्हें भी नए मैनेजमेंट की चालों से इस्तीफ़ा देना पड़ता है l और मनमोहन कमल जी जैसे लोग संपादन के साथ व्यभिचार में भी निपुण होते हैं l और उन के कदमों पर चलने वाले सूर्य प्रताप जैसे रिपोर्टर जब आते हैं तो वो प्रतिभाशाली होने के साथ चुस्ती में उन से भी दो कदम आगे होते हैं l जैसे सूर्य प्रताप मनमोहन जी से मिलते ही अपने को ब्यूरो चीफ कहने लगता है l मनमोहन जी ने ‘आज़ाद भारत’ की रूप-रेखा तो बदली ही साथ में अपने स्टाफ में अपने जैसे जहनी व व्यभिचारी पत्रकारों की नियुक्ति कर ली l और कुछ सुंदर पत्रकार लड़कियों का चयन कर के उन की तो बल्ले-बल्ले हो गई l सब कुछ उन के ही हाथ l उन्हों ने अखबार में चार चांद लगा दिए l किंतु फिर उस की चांदनी में अधिक दिनों तक नहा नहीं सके l किया तो प्रेम विवाह था किंतु पत्नी अब शायद कहीं कबाड़ की तरह पड़ी होगी l सुंदर औरतों से प्रेम के लफड़े मनमोहन कमल जैसे लोगों के जीवन में रोज की बात होती है l और अंत में उनके पतन का कारण भी एक औरत ही बनी जिस का लोगों को पहले से ही अंदेशा हो चुका था l पहले भी एक बार इसी चक्कर में फंस कर अपना जाब खो चुके थे l इतने अकलमंद हो कर भी आदत से लाचार हो कर स्त्रियों से अपने अवैध संबंधों के लिये बदनाम थे l किसी को भांग और चरस के नशे की लत होती है तो मनमोहन कमल का नशा सुंदर स्त्रियां थी l दिल्ली के आफिस में जिस सुंदर फ़ीचर एडिटर को वो चाहते थे एक दिन उस पर सी ई ओ की आंखें भी अटक गईं और उस पर वे लट्टू हो गए l फिर क्या था बस तन गई मनमोहन और सी ई ओ के बीच में l मनमोहन कमल का वर्ताव हर किसी से फरक-फरक था l उन के जैसे तमाम लोग बड़ी नफासत और शालीनता से रहते हैं लेकिन उन की शालीनता के पीछे धूर्तता और कमीनापन छिपा रहता है l व्यवहार कुशलता उन के वर्ताव की खासियत होती है कभी ‘जल्लाद, सनकी और तानाशाह कभी निहायत उदार और भाईचारे वाला’ l औरतों के मामले में अपने लफंगेपन के कारण बदनाम, राजनीति, शराब, भ्रष्टाचार और व्यभिचार की काकटेल पीते हुए मनमोहन और दूसरे अखबार का संपादक भइया इन दोनों की आपस में पटरी कभी नहीं बैठी l एक तरफ नफासत और दूसरी तरफ शराफत का चोला पहने हुए मनमोहन और दूसरी तरफ खुलेआम अपनी गुंडई के लिए जाने वाले भइया दोनों ही अपनी पोजीशन के नशे में चूर रहते हैं l और एक दूसरे के साथ लुच्चईपने पर उतर आते हैं l अपमान करने की होड़ में पत्रकार भी पीछे नहीं रहते l लेकिन बाद में उन्हें अपनी औकात का पता चलता है l पत्रकार, संपादक आदि सभी मंत्रियों को खुश करने में क्या कुछ नहीं करते l मंत्रियों को अपनी अच्छी पब्लिसिटी करने की भूख रहती है और संपादकों को बजट पास कराने की l ये खेल ऐसा हुआ ‘तू मेरी पीठ खुजा और मैं तेरी' l इस अंधेर नगरी में सब अपने लिये रोशनी ढूँढते फिरते हैं l

और गजब तो होना ही था l पहला गजब हुआ सुंदरी फ़ीचर एडिटर को ले कर और दूसरा हुआ जब मुख्यमंत्री की शान में ‘आज़ाद भारत’ ने ऐसे कसीदे काढ़े कि और अखबार हाथ मलते रह गए l और भइया तो पहले से ही मनमोहन कमल से जले-भुने बैठे थे l ऊपर से अब उन के चेला-चपाटे भी उन के अखबार को पत्रकार यानी दलाल की उपाधि दे बैठे l जले पे ये नमक कैसे बर्दाश्त हो? इधर हिंदी अखबार के संपादक मनमोहन जी मंत्रियों को मुट्ठी में रखने को उन के नखरे उठाने में माहिर हैं तो दूसरी तरफ अंगरेजी अखबार के प्रधान संपादक मेहता को मनमोहन का ये अंदा्ज़ बिलकुल पसंद नहीं आता l उन्हें अपने मालिक या किसी राजनीतिज्ञ की चाटुकारिता करना बिलकुल पसंद नहीं इस लिये वे अपना इस्तीफ़ा दे देते हैं l इस बात पर दयानंद जी के एक और उपन्यास ‘वे हारे हुए’ में मुख्य भूमिका निभाने वाले पात्र आनंद की याद आ जाती है जिसे मेहता जी की तरह ही अपने उसूल प्यारे हैं l 'हारमोनियम के हज़ार टुकड़े' को जैसे-जैसे पढ़ते जाओ तो अखबार के व्यवसाय की आड़ में क्या-क्या अनर्थ होता है इसका खुलासा होता रहता है l अखबार जैसी संस्था में भी ऐसे कुत्सित कर्म होते हैं कि पढ़ कर आंखें खुल जाती हैं l लेकिन संबंधों को बिगड़ने में देर नहीं लगती l जब तक किसी के मन की होती रहे तो सब चंगा वरना सब किया धरा गुड़ गोबर हो जाता है l जैसे कि मुख्यमंत्री जी की याददाश्त शराब की सप्लाई की डील वाली बात पर धोखा खा जाती है और फिर उन की चेयरमैन से बिगड़ जाती है और पैसे की बात पर आंख दिखाने लगते हैं l बाद में पता चलता है कि डील का वो पैसा संपादक ने अपने पास रख लिया था l तो मुख्यमंत्री जी को भी अपनी याददाश्त की गडबडी पर कोई मलाल नहीं होता l सब के सब अपनी पोजीशन में भ्रष्ट हैं और पैसे का नाजायज फायदा उठा रहे हैं l अखबार के चेयरमैन का अखबार पर से यकीन उठ जाता है। अखबार बंद होने की नौबत आ गई और मनमोहन कमल के पैरों के नीचे धरती खिसकने लगती है l ख़बरों की दुनिया में अखबार व पत्रिकाएं निकलते हैं और फिर अचानक बंद हो जाते हैं l राजनीति और पत्रकारिता का अब जैसे घी शक्कर सा संबंध है l ये दोनों एक दूसरे में इतने गुंथे हैं कि एक दूसरे के बिना इन का सांस लेना मुश्किल है l 

अखबार व्यवस्था व मालिकों के गंदे खेलों के बीच उन के कर्मचारियों का भविष्य झूलता है l ये राजनीतिक खेलों के खिलाड़ी अपने कर्मचारि्यों को मोहरों की तरह इस्तेमाल करते हैं l कौन जाने कब उन्हें उठा कर फेंक दें l अखबार बंद होने पर भ्रष्ट संपादक और अखबार के मालिक पर असर नहीं बल्कि मीडिया से जुड़े अन्य कर्मचारियों पर पड़ता है l अपने से ऊपर के लोगों की मदद करते हुए वो कर्मचारी लोग बाद में फंसा दिए जाते हैं और नौकरी से निकाल दिए जाते हैं l सुनील और सूर्य प्रताप जैसे लोग उदाहरण हैं l एक प्रतिष्ठित अखबार से निकाले जाने पर जो कड़वाहट पैदा होती है वो ‘अंगूर खट्टे हैं वाली बात हो जाती है l जैसे सूर्यप्रताप ने पान वाले से कहा,‘पता है आज मैं ने इस्तीफा दे दिया इस रंडी अखबार से l' अखबार बंद होने पर या उस का मालिक बदल जाने पर कर्मचारी अपनी रोजी-रोटी से हाथ धो बैठते हैं l गरीबी में पले सूर्य प्रताप जैसे लोग पता नहीं कितने संघर्ष सहते हुये पढ़ाई आदि पूरी कर के मीडिया में किसी पद को हासिल करते हैं और फिर एक दिन इन्हीं अखबार के मालिकों के लिए काम कर के किसी भी फ्राड में फंसा दिए जाते हैं और नौकरी छिन जाती है l जैसे रेत में बना घरौंदा मिट जाता है, ’उस की जिंदगी में भइया और मनमोहन कमल जैसे लोग आ गए l एक निर्दोष मासूम आदमी, एक कवि, एक जुझारू और संघर्षशील पत्रकार को इन लोगों ने अपने हितों के लिए दलाल बना दिया l दलाल पत्रकार का ठप्पा लगा दिया l सूर्यप्रताप के जुझारू तेवर को अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ राजनीतिज्ञों ने भी साधा l सुविधाओं और शराब की चाशनी में पग कर एक जुझारू पत्रकार जो सिर्फ खबरों के लिये जीता था, ख़बरों के लिए मरता था, उस का पतन हो गया l' कितनी बार पिटाई हो जाना, जेल जाना आदि जैसे इन के जीवन का हिस्सा हो जाते हैं l और खाली सूर्य प्रताप, सुनील और मनमोहन ही नहीं बल्कि उन के जैसे ही कितने कर्मचारी अपने मालिकों की घातक चालों से तबाह हो जाते हैं l उस के बाद नौकरी के लिए ठोकरें खाते हुए फिर भटकना, किसी की चौखट पर नाक रगड़ना चालू हो जाता है l मीडिया के प्रोफेशन में भी कितने धक्के खाने होते हैं l सूर्यप्रताप कहां ब्यूरो चीफ था फिर फ्रीलांस पत्रकार l इंसान काम करते हुये समय की धार में अपने आदर्शों की बलि दे कर भी घुट-घुट कर मरता रहता है l अखबारों के मालिक जब कंपनी बेचते हैं तो उन के मालिक भी बदल जाते हैं l और इस सब का प्रभाव उन के नीचे काम करने वाले कर्मचारियों पर पड़ता है l    

अस्सी के दशक के लखन जैसे लोग जो हर जलूस, मोर्चे, हड़ताल व आंदोलन पर हारमोनियम पर गाने लगते थे उन की हारमोनियम तोड़ दी जाती है l मीडिया के दिल भी हारमोनियम जैसे हैं जो बजते-बजते किसी पत्थर की चोट से टूट जाते हैं l सुनील जैसे लोग अपने चारों तरफ नैतिकता को स्वाहा होते देखते हैं पर खामोश रहते हैं l पर उन्हें भी जाहिल संपादक नहीं छोड़ते l उन पर अनुशासनहीनता का आरोप लगा कर इस्तीफा दिला कर अत्यचार करते हैं l किसी प्रकार की खुराफात व धांधलेबाजी से कोई गड़बड़ हो जाने पर जब किसी अखबार की मौत होती है तो उस के साथ उस के कितने ही कर्मचारी भी जीते जी मर जाते हैं l जीवन के उतार-चढ़ाव में आजकल माफिया, दो नंबर का पैसा, संपादकों की गुंडई, ऐयाशी और पत्रकारिता में घुसी राजनीति क्या गुल खिलाती है और कितने लोगों के जीवन बर्बाद कर देती है इसे इस उपन्यास को पढ़ कर ही जाना जा सकता है l ऐयाश लोगों की आँखों में हया नहीं लालच और वासना होती है l और मीडिया में काम करने वाले लखन जैसे लोगों की हारमोनियम जब तोड़ी जाती है तो उस के साथ-साथ कितने कर्मचारियों की नौकरियां छिन जाती हैं l हज़ारों दिल चूर-चूर हो जाते हैं जिन के टुकड़े फिर कभी नहीं जुड़ पाते l सूर्य प्रताप, लखन और सुनील जैसे कितने ही गरीब परिवार से आए संघर्ष करते हुए मीडिया की नौकरी में आ कर अपने को खुशनसीब समझते हैं किंतु इस में उन का ईमान बिक जाता है l और फिर अपने अधिकारियों व मैनेजमेंट की चालों में फंस कर अपनी नौकरी से हाथ धो बैठते हैं l लखन, सुनील, सूर्य प्रताप, मेहता, भइया और मनमोहन कमल जैसे पात्रों से पहचान होने पर उन की ही तरह के अनेकों लोगों के जीवन की झांकी मिलती है l दयानंद जी ने इस उपन्यास में अखबारी दुनिया के हर पहलू व इस से संबंधित तमाम बारीकियों का उल्लेख किया है l अखबारों की व्यवसाई दुनिया का एक भयानक रूप दिखाया है l जहां धूर्त और चालाक लोग अपनी खुदगर्जी के लिए औरों का जीवन बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ते l समकालीन जीवन से जुड़े इस नायाब लेखन पर लेखक को मेरा साधुवाद l 

समीक्ष्य पुस्तक:

हारमोनियम के हज़ार टुकडे़
पृष्ठ सं.88
मूल्य-150 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2011

उपन्यास आप यहां पढ़ सकते हैं

हारमोनियम के हज़ार टुकड़े



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