Monday, 30 December 2013

काश हर लड़की मुनमुन जैसी हो, जिस में अपने साथ होते हुए अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार लेने की हिम्मत हो

शन्नो अग्रवाल

दयानंद जी, नमस्कार !

अभी आप का उपन्यास ''बांसगांव की मुनमुन'' पढ़ कर समाप्त किया है। इसे पढ़ते हुए कितनी ही बार मन भर-भर आया। अग्नि परीक्षाओं से गुजर कर संघर्ष करते हुये अपने लिये मुकाम हासिल करने वाली मुनमुन के लिये आँखें भीगतीं रहीं।जैसा कि नाम से ही पता लगता है कि उपन्यास की केन्द्र मुनमुन है।सारी कहानी व उसके पात्र मुनमुन के चारों तरफ घूमते हैं, बिना उसके उनका कोई सार नहीं।
समाज में कई बार एक बेटी की शादी के बाद क्या स्थिति होती है और ससुराल वाले अपनी असलियत छुपाकर अपनी बहू की क्या हालत कर देते हैं इस उपन्यास से अच्छी तरह विदित होता है।आज के बदलते हुये परिवेश में व अपने जीवन में बढ़ती हुई जिम्मेवारियों से बहनों के प्रति अपने कर्तव्यों की तरफ भाइयों की उदासीनता का नमूना भी यहाँ देखने को मिलता है।बहन की शादी के बारे में अपने कर्तव्य को भली-भांति न निभाकर बाद में पछताने से क्या फायदा ''जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत...'' वाली बात।नौकरी करने के फैसले पर अडिग होकर मुनमुन ने अच्छा किया क्योंकि पति या ससुराल वालों की इच्छा या धमकी के आगे झुककर नौकरी छोड़ देने वाली हर औरत की कदर नहीं होती है।गाँव में रहते हुये भी मुनमुन को पारिवारिक अनुभवों से पैसे की कदर करना आ गया था और नौकरी छोड़ने के लिये उसने सर नहीं झुकाया कि पता नहीं बाद में किसके आगे हाथ फैलाना पड़े, इससे तो अच्छा है कि अपने बल-बूते पर रहे।आज के जमाने में औरत की नौकरी छुड़वाने और आश्वासन देने वाले पतियों के वादे बाद में टूट जाते हैं।जो भोली औरतें उनकी बातें मान लेती हैं उन्हें बाद में पछताना पड़ता है।
शादी के बाद औरतों को अक्सर अपमानजनक बातें सुननी पड़ती हैं ''पैसे अपने बाप के यहाँ से ले आती, तुझे तो तेरे बाप ने मुझ पर पटक दिया था'' या फिर ''मुझसे शादी क्यों कर ली (जैसे वह शादी के लिये मरी जा रही थी) अपने बाप के यहाँ ही रह लेती'' आदि, आदि।कहते हैं कि बेटी के नसीब के बारे में कोई कुछ नहीं जानता।इस पुरुष प्रधान समाज में अगर पति अच्छा व समझदार हुआ तो समझो बेटी के भाग्य खुल गये वरना उसकी बदनसीबी।इस उपन्यास में मुनमुन का पति राधेश्याम शायद पहले से ही पियक्कड होगा किन्तु उसका बाप दीपक से झूठ बोल गया कि वह तो गौने के बाद मुनमुन के व्यवहार के कारण फ्रस्ट्रेशन में पीने लगा था।अरे वो बेटे का बाप है तो झूठ बोलेगा ही अपने बेटे के लिये।बहू जिसे अपना पिता समझती है ऐसे झूठे ससुर के लिये किस बहू के मन में सम्मान रहेगा? अगर अन्याय की वजह से लड़की वापस अपने मायके आ जाती है तो कई बार अपने अहम के कारण पति अपनी पत्नी को वापस भी नहीं लेने जाते।और यदि उसके बाद कोई मायके से उसे ससुराल छोड़ जाये तो लड़की को ताने मिलते हैं और परिस्थिति विकट हो जाती है।
किन्तु यहाँ तो मुनमुन के विद्रोह करने पर भी उसका ससुर और उसका पति उसे वापस लाना चाहते हैं।लेकिन फिर दीपक की पत्नी खोलती है राज, जिसे संदेह है कि ''अब ये मामला दांव-पेंच का हो गया है।वह दहेज विरोधी मुक़दमे से बचने और तलाक लेने की जुगत में है।अब वह मुनमुन नाम की झंझट से छुटकारा पाना चाहता है l'' लेकिन मुनमुन भी झुकने वालों में से नहीं।और ये समाज भी ''जिसकी लाठी उसकी भैंस'' वालों में से है।मुनमुन की बहादुरी की मिसाल से उसके पक्ष में हो गया।समय के पलटा खाते ही लोग उसको प्रशंसा की दृष्टि से देखने लगे।मुनमुन तो झांसी की रानी बन गयी जिसकी बहादुरी के चर्चे फैलने लगे।काश हर लड़की मुनमुन जैसी हो जिसमे अपने साथ होते हुये अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार लेने की हिम्मत हो।तभी मुनमुन की ससुराल जैसे लोगों को कुछ सीख मिल सकती है।जब तक मुनमुन कमजोर रही उसे सबने लतियाया और जब अत्यचार और अन्याय के विरुद्ध लड़ते-लड़ते मुनमुन पत्थर हो गई तो वह सताई हुई औरतों के लिये एक प्रेरणा बन गयी।
अत्याचारी पति की हरकतों से तंग आकर और उसके हाथों बार-बार मार खाकर सहनशीलता की चरम सीमा लाँघ चुकी मुनमुन ने जब अपने पति की लाठी से धुनाई की तो किसी भी देखने वाले ने चूँ तक नहीं की क्योंकि उन्हें पता था कि उसका पति कितना निकम्मा और जल्लाद है जिसका अत्याचार सहते-सहते वह थक चुकी है।लेकिन औरत के जीवन में ये कैसी बिडम्बना है कि सहते-सहते जब वह द्दुर्गा बन जाती है तो कुछ लोगों से उसे प्रशंसा मिलने लगती है।पर जो लोग किसी कारण से बौखलाये होते हैं वह उसके विरुद्ध तमाम लोगों को भड़काने लगते हैं।लेकिन मुनमुन जैसी लड़कियाँ अपने उसूलों को नहीं बदलतीं, दृढता से अपनी तय की हुई राह पर चलती रहती हैं।दूसरों को राय व सहारा देने वाली मुनमुन अपनी लड़ाई में अपने को अकेला पाकर भी अपनी परिस्थितियों से किसी तरह जूझती हुई पथरीली और काँटे भरी राहें तय करके अपने मुकाम को हासिल करती है फिर भी शादी का सवाल उसके आगे उठता रहता है।शादी के एक भयानक अनुभव से गुजर कर क्या दूसरी बार चांस लेना जरूरी है? अगर औरत अपनी आर्थिक समस्या खुद हल कर ले तो क्या वो बिना शादी के एक नये वातावरण में खुली साँस नहीं ले सकती? दिमाग में सवाल घूमते हैं कि कहीं ऐसा ना हो कि उसे फिर धोखा मिले।कुछ भी हो अंत तक पढ़कर और मुनमुन के संघर्षों के बारे में सोचते हुये उनका हिसाब लगाते-लगाते आँखें बरबस बरस पड़ीं।
आपने ''बांसगांव की मुनमुन'' उपन्यास में जीवन की वास्तविकता पर कितनी खूबसूरती व सादगी से भाव उकेरे हैं इसके लिये आपको बहुत बधाई | शुरुआत में इतने लाड़-प्यार में पली एक लड़की का जीवन इतना बदल गया, लोग बदल गये, उनकी भावनायें बदल गयीं | और अंत में भोली सी मुनमुन समय के निर्मम थपेड़े खाकर खुद भी अन्यायी लोगों के प्रति कठोर व निर्मम बन गयी | लेकिन समाज को किसी लड़की का निडर होकर अपने फैसलों पर जीना कहाँ बर्दाश्त होता है | इन सभी पहलुओं पर सोचते हुये स्त्री की दशा को लेकर मन में आँधी सी उठी | बरसों बाद हिंदी का पूरा उपन्यास पढ़ा | और जिंदगी में पहली बार उस पर समीक्षा भी लिख बैठी (लिखने से अपने को रोक ना सकी) |


समीक्ष्य पुस्तक :

बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

गरज यह कि लड़ाई बहुत लंबी है, देश का आम चुनाव दिल्ली का हलवा पूरी नहीं है

कुछ राजनीतिक टिप्पणियां यह भी


  • अपने कुकर्मों, मंहगाई और भ्रष्टाचार से घिरी, हारी हुई कांग्रेस को दिल्ली शहर में हराना तो अरविंद केजरीवाल और उन की आम आदमी पार्टी के लिए बहुत आसान था। अब जीतती हुई भाजपा और मोदी को हराना उन को एक चुनौेती की तरह लेना चाहिए। बछड़ा उत्साह से बचना चाहिए। क्यों कि भारत देश दिल्ली शहर नहीं है। अंगड़ाई से लड़ाई का अंदाज़ा तो लगाया जा सकता है, ज़ज़्बा तो दिखाया जा सकता है लेकिन लड़ाई को जीत में बदलना भी एक कला है। और जीत को संभालना उस से बड़ी कला। आकाश की ऊंचाई छू लेना आसान है पर उस ऊंचाई को मेनटेन रखना किसी-किसी के ही हिस्से आता है। रही बात मीडिया की तो यह बिना पतवार की नाव है कब किधर कौन बहा ले जाए, वह खुद भी नहीं जानती। दूसरे करैला और नीम चढ़ा यह कि यह मीडिया कारपोरेट की रखैल भी है।

    अरविंद केजरीवाल और उन के साथियों को यह भी जानना चाहिए कि भारत देश में जाति और धर्म एक तथ्य है। कम से कम शादी व्याह और चुनाव का अंतिम सत्य। अपवाद छोड़िए। भारत गांव में बसता है और जातियों और धर्म से ही चलता है। अखबार और टी वी का हस्तक्षेप गांव में भी बढ़ा ज़रुर है पर मनोरंजन के तौर पर ज़्यादा चेतना के तौर पर कम। धूर्त राजनेताओं ने चाहा ही यही। लगभग हर चुनाव में मायावती और मुलायम जैसे लोग मीडिया को जी तोड़ खरीदने के बाद यह कहते भी मिल ही जाते हैं और कि पूरी हुंकार के साथ कि मीडिया मनुवादी है। और पूरे गर्व और फ़ुल बेशर्मी के साथ कहते हैं कि अच्छा है कि हमारा वोटर अखबार नहीं पढ़ता। कड़वा सच यह है ही एक अर्थ में। गरज यह कि अधिकांश वोटर पढ़ा-लिखा नहीं है। साक्षर भी नहीं। शहरी पढ़ा-लिखा आम आदमी नहीं है वह। वह तो दबा-कुचला, निरक्षर और चेतना विहीन है। जिन्हें इन धूर्त राजनीतिज्ञों ने धर्म और जातियों के खाने में बांट रखा है। किसिम-किसिम के प्रलोभनों में बझा रखा है। इन को साक्षर बना कर, चेतना संपन्न बना कर ही कोई बड़ी लड़ाई लड़नी संभव है। खास कर चुनावी लड़ाई। यह आदमी बच्चों को स्कूल भेजता भी है तो मीड डे मील खाने के लिए, पढ़ने के लिए नहीं। और दुर्भाग्यपूर्ण यह कि बच्चे यह मीड डे मील खा कर बीमार पड़ जाते हैं, मर जाते हैं। गरज यह कि लड़ाई बहुत लंबी है, देश का आम चुनाव दिल्ली का हलवा पूरी नहीं है।


  • समाजवाद की यह कौन सी इबारत है?

    बताइए कि जया बच्चन समाजवादी पार्टी की सांसद हैं। लेकिन अमिताभ बच्चन मुंबई में एक कार्यक्रम में राज ठाकरे के साथ बैठ गए तो समाजवादी पार्टी की मुंबई इकाई में जलजला आ गया। अब अमिताभ बच्चन के घरों और उन की सुरक्षा के लिए भारी पुलिस तैनात हो गई है। मुजफ़्फ़र नगर के दंगा राहत कैंपों में ठंड से ३४ बच्चे मर गए हैं। दूर-दूर से लोग आ कर मदद कर जा रहे हैं। लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उन के पिता मुलायम सिंह यादव जो मुसलमानों के बड़े खैरख्वाह भी माने जाते हैं, प्रधानमंत्री पद के तलबगार भी हैं, को सैफई में लड़कियों का डांस देखने से फ़ुर्सत नहीं है। वहां नहीं जाते। उन का एक अफ़सर मूर्खतापूर्ण बयान देता है कि ठंड से लोग मरते होते तो साइबेरिया में कोई नहीं बचता। और तो और मुलायम खुद कह देते हैं कि इन राहत शिविरों में कांग्रेसी और भाजपाई जमे हुए हैं।


    लालू यादव तक पहुंच जाते हैं वहां और फ़ोन कर अखिलेश से कहते हैं कि बहुत बुरा हाल है, देखो भाई। न हो तो चाचा शिवपाल को ही भेज दो। लेकिन अखिलेश और उन की मशीनरी राहत शिविर के तंबुओं को उजाड़ कर बुलडोजर चलवा देते हैं। एक टी वी चैनल रिपोर्ट में दिखाता है कि कैसे तो लोग वहां के तंबुओं में नरक भुगत रहे हैं। बच्चे, औरतें बीमार हैं। लाचार हैं। पीने का साफ पानी तक नहीं है। दवाई तो बहुत दूर की बात है। हर मर्ज की एक दवा पैरासीटामाल है। एक जलौनी लकड़ी के लिए कैसे तो बड़े बूढ़े, औरतें, बच्चे आते ही एक साथ टूट पड़ते हैं। और इस जलौनी लकड़ी की आग में भी बहु्तेरे बच्चे झुलस चुके हैं। पर इन का भी कोई पुरसाहाल नहीं है। यह सारा दृष्य देख कर कलेजा मुह को आता है। यह कौन सा समाजवाद है? समाजवाद की यह कौन सी इबारत है? हम किस प्रजातांत्रिक देश में जी रहे हैं। यह कौन सा कल्याणकारी राज्य है? इस मंज़र के आगे अदम गोंडवी का वह शेर भी फीका पड़ जाता है :

    सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है
    दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है।

    क्यों कि यहां तो सौ फ़ीसदी आदमी नाशाद है !

  • आप के राजतिलक के पहले दिल्ली के पांच कांग्रेसी विधायकों ने जो गुबार निकाला है भले एक स्टिंग में ही सही और अरविंद ने इस के बाद भी जो कहा कि विश्वासमत की चिंता नहीं है। इस के राजनीतिक फलितार्थ क्या होंगे यह तो अब सभी जानते हैं। लेकिन भारतीय राजनीति का स्वास्थ्य भी सुधरेगा इस की क्या गारंटी है ? इस उम्मीद का क्या करें? क्यों कि काग्रेसी लफ़्फ़ाज़ों को तो अभी मोदी के बुखार से ही फ़ुर्सत नहीं है। आंख फूट गई है पर चेहरे पर शिकन नहीं है।

  • बतौर मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी को मैं ने मुख्य मंत्री कार्यालय में ही भोजपुरी में आज़ादी के गीत गाते सुना और देखा है। मुलायम सिंह यादव को कार्यक्रमों में गाना सुनते देखा है। मायावती को भी। लालू प्रसाद यादव को लौंडा नाच देखते देखा है। पर किसी मुख्य मंत्री को ठीक शपथ के बाद गाना गाते और भाषण देते पहली बार मैं ने देखा है। वह अरविंद केजरीवाल को देखा। अब अरविंद केजरीवाल सरकार की उम्र कितनी है यह तो नहीं मालूम पर यह ज़रुर मालूम है कि अब राजनीति के तौर तरीके तो बदलेंगे ही। दिल्ली की सरकारी मशीनरी से रिश्वत तो अब विदा होगी, यह भी तय है। रंगे हाथों पकड़वाने का आह्वान रंग दिखाएगा यह भी पक्का है। कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के कांतिहीन चेहरे सचमुच बहुत आनंद दे रहे हैं। 'इंसान से इंसान का हो भाईचारा यही पैगाम हमारा !' जय हो !

  • अरविंद केजरीवाल के मार्फ़त थोड़ी बहुत ही सही राजनीति बदल रही है। क्या पत्रकारिता भी कुछ बदलेगी? पत्रकारिता को भी किसी अरविंद केजरीवाल जैसे की कहीं ज़्यादा ज़रुरत है। जो इसे कारपोरेट, दलाली, दिखावे, और साक्षरों की फौज से छुट्टी दिलवाए और जन सरोकार से जोड़ने की मुहिम चलाए। सच मानिए कि अगर पत्रकारिता साफ सुथरी रहती तो राजनीति इतनी पतित नहीं होती।
  • Thursday, 26 December 2013

    फूल सी मुनमुन जब ज्वालामुखी बन जाती है !

    वसुंधरा पांडेय

    इस उपन्यास को पढ़ते समय बहुत सारी भावनाएं उमड़ी-घुमड़ी, आँखों की कोरें भी भींगीं

    'बांसगांव की मुनमुन' दयानंद पांडेय का उपन्यास है,जिसे पढने की इच्छा मेरी इधर चार दिन पहले पूरी हुई। कहानी शुरू होती है जैसा कि आप नाम से ही समझ सकते हैं..बांसगांव से ! 'बांसगांव की मुनमुन की चर्चा बहुत सुनी थी ! (बचपन में एक बार बांसगांव जाने का सौभाग्य मिला था , माँ की सखी की बेटी का ससुराल जो ठहरा !ठाकुरों की दबंगई और बात -बात पर काटने, मारने गाड़ देने और ये धमकी कि ऐसा गाड़ देंगे कि पोस्टमार्टम के लिए मृत शरीर ढूंढते रह जाओगे नही मिलेगा, बात -बात पर लाठी भाला बंदूक और देशी तमंचा आम बात होती है। हाँ, बचपन से सुनती आई थी की वहां का नाम सुबह-सुबह ले लो तो दिन भर भोजन न मिले,जैसा कि उपन्यास में भी वर्णित है। कोई झगड़ने न आ जाए भई बांसगाव वाला,, तो मैं बता दूँ की मेरे मायके के लोग तिवारी हैं..कटियारी के तिवारी । वहां के बारे में भी सुना है की कटियारी का नाम सुबह -सुबह ले लो तो आगे आया हुआ भोजन छिन जाए। ) हाँ, तो इस उपन्यास को पढने की उत्सुकता इस लिए और थी क्यों कि उस बांसगांव को मैं जानती हूँ। कहानी भले ही काल्पनिक हो पर पढ़ते समय आप एकमुश्त बंध जाएंगे पूरी कहानी ख़त्म करने तक। क्यों कि इस उपन्यास में हम सभी पात्रों को अपने आस-पास ही पाते हैं। इस उपन्यास ने चरित्रों को खूब समझा-जीया है । घर गृहस्थी की किच-किच, शकुनी चालें...
    कहाँ किसी लड़की को बदनाम कर देना, कहाँ पौरा भारी देख गिरगिट सा रंग बदलना, फिर परास्त हो कर अंत में सारे कर्मों का लेखा जोखा यहीं भरपाई कर के जाना।
    यह उपन्यास उसी गाँव में रहने वाले पेशे से वकील ,मुनक्का राय के संघर्षों के सफ़र की कहानी है! मुनक्का राय के कहने को तो चार चार बेटे हैं। जिस में बड़ा बेटा जज है, दूसरा प्रशासनिक अधिकारी, तीसरा बैंक मैनेजर और चौथा एन आर आई है। पर चारों में कोई भी माता पिता और छोटी बहन को साथ रखने को तैयार नही है। और ना हीं उन के खर्चे उठाने को तैयार हैं। सब से छोटा बेटा राहुल कभी-कभी पैसे भेज दिया करता है और उसे लगता है की उसने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया... ! ऐसे 'होनहार-बीरवान' चार सपूत होते हुए भी पिता मुनक्का राय को घर के खर्चे चलाने और छोटी बेटी (जिसे टीबी हो गया है ) की बीमारी का इलाज करवाने के लिए पैसों का मोहताज होना पड़ता है ! उसी बहन के बड़े भाइयों के पास उस बहन का इलाज करवाने के लिए समय और पैसा दोनों नहीं है, जिस को बचपन में गोद में उठा कर वो सब मिलकर गीत गाया करते थे,मेरे घर आई एक नन्ही परी...! उसी नन्ही परी का विवाह एक पियक्कड़ पागल लड़के से हो जाता है ,विवाह में मेहमान बन कर चारो भाई आते हैं और दो दिन में ही सब चले जाते हैं, उन्हें इतना वक्त नहीं होता कि पिता द्वारा ढूंढे हुए वर की जाँच-पड़ताल कर लें । जब कि बहन मुनमुन, भाई और भाभियों को मुंह खोल कर बोलती है कि एक बार होने वाले बहनोई को देख समझ आओ..! और शादी के पंद्रह दिन बाद मुनमुन वापस मायके आ जाती है। पहले से लगी हुई शिक्षा मित्र वाली नौकरी कर के अपना और अपने बुजुर्ग माँ बाप का पेट पालती है ..इस उपन्यास को पढ़ते समय आपको कई बार पुक्का फाड़ कर ( जोर से चिल्ला-चिल्ला कर ) रोने का जी चाहेगा !
    यहाँ सोचने वाली बात है कि जिस बहन के पति को वे गजटेड अफ़सर नाकारा भाईयों ने ज़रा भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि लड़का कैसा है जिस से हम अपनी परी का ब्याह कर रहे हैं। क्या उन की अपनी बेटी का ब्याह करना होता तो ऐसे ही बूढ़े असहाय पिता के ढूंढे हुए वर से कर देते ? और नहीं तो ज़बरदस्ती उस बहन को उस शराबी के यहाँ भेजने की सारी तरकीबें,,हैवानियत के सारे फंडे आजमा लेते हैं। उपन्यास के मध्य भाग में मुनमुन के फुफुरे भाई दीपक का आगमन होता है जो दिल से चाहते हैं की सारे भाई मिल कर एक हो जाएं ताकि मुनमुन के उजड़े जीवन को सजा दिया जाए। पर कामयाब नही हो पाते हैं। ऐसे में पीड़ा सहते इन चालबाजों के करतूतों से थक जाती है मुनमुन। जो बचपन में चुलबुली अल्हड़ मनमौजी एक प्यारी सी फूल की मानिंद थी , वो एक मजबूत दिल वाली दबंग औरत बन जाती है। असहाय औरतों के लिए रौशनी की एक किरण है मुनमुन! एक मशाल है मुनमुन! परिस्थितियों से कैसे जूझा जाए और कैसे निपटा जाए? फूल सी मुनमुन ज्वालामुखी सी नज़र आती है अपने और दूसरी औरतों के हक़ के लिए समाज में वो मिशाल बनती है! आए दिन शराबी पति आ कर मुनमुन और उस की माँ को पीट जाता है,गाली गलौज करता है। एक दिन मुनमुन भी पलट कर जब चंडी बनती है और लाठी से पति की पिटाई करती है तो वही समाज वाले तब तालियाँ बजाते हैं। मुनमुन नाम से चनाजोर गरम बेच कर कमाई करने वाले कमाते हैं क्यों कि अब गौरैया मुनमुन नहीं थी, मुनमुन शेरनी हो गई थी। मुनमुन जब शिक्षा मित्र की नौकरी कर अपना और माता-पिता का भरण पोषण करती है तो भाईयों को शर्म आती है। और जब मुनमुन जी तोड़ मेहनत करके 'एस डी एम' बन जाती है तो नाते रिश्तेदार सब बधाई देते हैं पर भाईयों का फ़ोन तक नहीं आता! इस उपन्यास को पढ़ते समय बहुत सारी भावनाएं उमड़ी-घुमड़ी, आँखों की कोरें भी भींगीं।
    कैसी बिडंबना है अपने समाज की। आज 99 प्रतिशत घरों में यही स्थिति है बेटों को ले कर। बेटी ही है जो माँ बाप को समझती है। अधिकांश वही बेटियां जब बहू बनती हैं तो उन्हें क्यों नहीं समझ आता,सास ससुर का खयाल? क्यों नहीं रहता? उन्ही सास -ससुर से तो वो पति वाली बनी हैं। क्यों आते ही बेटों को भी माँ बाप से दूर कर देती हैं? और बेटे भी क्यों बस पत्नी और अपने जने बच्चों के हो कर रह जा रहे हैं? बड़ी भयावह होती जा रही है यह स्थिति! मन टूटता है, दरकता है, जेठ माह के दरारों सा ! कहाँ से पानी लाया जाय, इन दरारों को पाटा जाय,, कलेजा मुंह को आता है आज कल की ये सोच देख कर! यह उपन्यास टूटती हुई स्त्रियों के लिए स्तंभ है, मशाल है ! अगर मुनमुन समाज की दृष्टि में बुरी थी या है तो मुझे ऐसी लाखों-लाखों मुनमुन स्वीकार हैं! पाण्डेय जी,बहुत-बहुत बधाई आप को,हमें हमारी कस्बाई माटी की सुगंध देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!

    इस उपन्यास को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें :

    बांसगांव की मुनमुन 



    समीक्ष्य पुस्तक :

    बांसगांव की मुनमुन
    पृष्ठ सं.176
    मूल्य-300 रुपए

    प्रकाशक
    संस्कृति साहित्य
    30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
    दिल्ली- 110032
    प्रकाशन वर्ष-2012

    Wednesday, 25 December 2013

    कर्ण, केजरीवाल और कार्पोरेट की अकथ कहानी

    अरविंद केजरीवाल ने एक पत्थर तो तबीयत से आकाश में उछाल ही दिया है,
    आकाश में सुराख होते देखना अभी शेष है !


    जैसे महाभारत गडमड हो कर नए संस्करण और नए तेवर में हमारे सामने उपस्थित है। अब तक की स्थितियां यह तो बता ही रही हैं कि अरविंद के्जरीवाल अब इस नई महाभारत में कर्ण की भूमिका में आ चुके हैं। उन के आचार्य अन्ना हजारे परशुराम बन चुके हैं। अब यह देखना शेष है कि अरविंद केजरीवाल के रथ का पहिया कब फंसता है, परशुराम का श्राप कब फलीभूत होता है, और कि अर्जुन बन कर उन्हें कौन 'विदा' करता है। रामलीला मैदान की बिसात पर बिछी महाभारत की यह बिसात पानी, बिजली और लोकपाल के बाद वैसे भी सिमट जानी है। इस पूरे परि्दृष्य में कांग्रेस का शिखंडी की गति को प्राप्त होते जाना एक अलग क्षेपक है। मोदी का रथ रोकने की कांग्रेस की एक यह कवायद भी फ़ुस्स होती दिख रही है। कांग्रेस मोदी के रथ का पहिया रोकने के लिए केजरीवाल को अपना भस्मासुर बना चुकी है। नीतीश कुमार, रामविलास पासवान से हाथ मिला चुके हैं। मुलायम मुज़फ़्फ़र नगर के राहत कैंपों में कांग्रेस और भाजपा के लोगों को शरण दे चुके हैं, उन का तीसरा मोर्चा का सपना समय के साथ शरणागत है। अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्य मंत्री श्रीपति मिश्र के स्लोगन नो वर्क, नो कंपलेंड की खतरनाक सीमा को भी पार कर चुके हैं। अखिलेश की गति को देख कर श्रीपति मिेश्र भी लज्जित हो रहे होंगे। गरज यह कि कई-कई सपनों के टूटने का यह कठिन समय है। तमाम कामरेडों, सेक्यूलरों और सांप्रदायिकों को पानी पिलाते, ठेंगा दिखाते मोदी का सपना कब टूटेगा इस प्रतीक्षा में बौद्धिक बहस तेज़ है। निर्भया, भारत रत्न सचिन तेंदुलकर, आसाराम, तरुण तेजपाल, जस्टिस ए के गांगुली और देवयानी पर बहस की आग ठंडी पड़ चुकी है। लेकिन कांग्रेस और भाजपा के लाक्षागृहों की आग कब ठंडी होगी, यह कोई नहीं जानता।


    मंहगाई, भ्रष्टाचार और लोकपाल अब कभी न खत्म होने वाले शाश्वत विषय हैं। एन जी ओ देश में इतनी ताकत से सामने आ जाएंगे कि बना बनाया राजनीतिक ढांचा नष्ट हो जाएगा, बह जाएगा, इस तरह? यह कौन जानता था भला? वह दिन हवा हुए जब भाजपा के नकवी कहते थे कि लिपिस्टिक लगाए, मोमबत्ती हाथ में लिए ये एन जी ओ की औरतें ! अब आम आदमी भी खास हो रहा है। क्यों कि कारपोरेट लीला की यह अकथ कहानी है। देखिए न कि एक मोबाइल फ़ोन कंपनी कैसे तो हफ़्ते भर में ही एक विज्ञापन ले कर आ गई है कि सरकार कैसे बनाएं, पार्टी पूछ रही है! दिल्ली के दिल में अभी तो बहुत करवटें हैं। अभी आम भी बहुत बदलेंगे और खास भी।
    नहीं सच तो यह है ही कि शीला दीक्षित ने सचमुच दिल्ली के विकास के लिए इन बीते पंद्रह सालों में बहुत काम किया है। फ़्लाई ओवर, मेट्रो आदि विकास के कई नए मीनार बनाए हैं शीला दीक्षित ने, इस में कोई शक नहीं। लेकिन सोनिया, राहुल
    और मनमोहन की तिकड़ी, मंहगाई और भ्रष्टाचार ने शीला दीक्षित के सारे काम यमुना के पानी में बह गए। वोटर भूल गया यह सब कुछ,सारा विकास,मेट्रो और फ़्लाई ओवर ! उसे झाड़ू याद रहा और उस ने चला दिया झाड़ू ! ठीक वैसे ही जैसे कभी अटल विहारी वाजपेयी सरकार ने शाइनिंग इंडिया का नारा दिया था लेकिन गुजरात में सरकार द्वारा प्रायोजित दंगे की आंच ने उन के शाइनिंग इंडिया के नारे को बंगाल की खाड़ी में बहा दिया था वोटर ने, वोट डालते समय। ठीक वैसे ही जैसे सात रुपए किलो प्याज और आपसी सर फुटौव्वल ने जनता पार्टी की सरकार को विदा कर दिया था 1979 में, इंदिरा गांधी की तानाशाही को तब भुला दिया था। ठीक वैसे ही जैसे राजीव गांधी का सारा कंप्यूट्राइजेशन और उन के मिस्टर क्लीन की छवि को वोटर ने बोफ़ोर्स की बदनामी में बिसरा दिया था। 1989 में। फ़िलहाल तो कांग्रेस ने एक शकुनी चाल फिर चली है कि अरविंद केजरीवाल को मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए स्पीड ब्रेकर बना कर खड़ा करने की। अब मोदी इस कैसे और किस चाल से इस स्पीड ब्रेकर को पार कर पाते हैं यह उन की कुटिल बुद्धि जाने पर कांग्रेस अब खुद पटरी से उतर चुकी है। दिग्विजय सिंह जैसों के बड़बोलेपन और चिदंबरम और कपिल सिब्बल जैसे लोगों के आसमानी तौर तरीके, सलमान खुर्शीद जैसे चाटुकारों और भ्रष्टों ने उसे कहीं का नहीं छोड़ रखा है। एक समय कभी देवकांत बरुआ ने इंदिरा इज इंडिया का स्लोगन दिया था और अब सलमान सोनिया को समूचे देश की मां बता कर उन चाटुकारिता भरे दिनों और कांग्रेस की सत्ता से विदाई के संकेत दे दिए हैं। भ्रष्टाचार और मंहगाई, बेरोजगारी को भी इस में जोड़ लीजिए किसी भी सरकार को ले डूबने के लिए काफी है।


    अब अरविंद केजरीवाल का दिल्ली का मुख्य मंत्री बनना तो तय है। लेकिन क्या यह भी तो नहीं तय है कि वह दूसरे विश्वनाथ प्रताप सिंह साबित होंगे? जिस किरन बेदी ने दिल्ली की पुलिस कमिश्नर नहीं बन पाने के विरोध में नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था, अब उसी दिल्ली का मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल बनने जा रहे हैं। अब अगर वह अन्ना, किरन बेदी आदि से वह अलग नहीं हुए होते तो यह संभव नहीं होता। ठीक उसी तरह जैसे कि अगर विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गांधी और उन की कांग्रेस से अलग नहीं हुए होते तो प्रधान मंत्री नहीं बन पाए होते। मुद्दों की राजनीति का दम भरने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने अंतर्विरोधों के चलते जल्दी ही प्रधान मंत्री की कुर्सी गंवा बैठे। अंतरात्मा की अवाज़ उन के कहे के बावजूद किसी ने सुनी नहीं और वह 'शहीद' हो गए लोकसभा में। फिर धीरे-धीरे राजनीति से भी विदा हुए। अब उन्हीं की
    तरह अतियों और मुद्दों की लफ़्फ़ाज़ी हांकते अरविंद केजरीवाल भी खड़े हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह भाजपा की बैसाखियों पर खड़े हो कर प्रधानमंत्री बने थे। कुर्सी गंवाने के बाद वह भाजपा को सांप्रदायिक बताने में लग गए। पर अरविंद केजरीवाल तो कांग्रेस की बैसाखी पर खड़े होने के पहले ही से कांग्रेस के लिए असंसदीय शब्दों और आरोपों की की झड़ी लगाए बैठे हैं। जेल भेजने की धमकी दिए बैठे हैं। क्या होगा दिल्ली का? विशवनाथ प्रताप सिंह की एक कविता याद आ रही है। दिल्ली की जनता के मद्देनज़र । शीर्षक है लिफ़ाफ़ा :

    पैगाम उन का
    पता तुम्हारा
    बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा।


    बहरहाल अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आप की सरकार का एक मतलब यह तो है ही कि फ़िलहाल दिल्ली में बिचौलियों और भ्रष्टों की ऐसी-तैसी ! उन के तंबू कनात तो उखड़ेंगे ही। भले इस सरकार की उम्र कितनी भी कम क्यों न हो पर एक बार कल्पना कर के देखिए कि खुदा न खास्ता अगर अरविंद केजरीवाल केंद्र की सरकार में भी आने वाले दिनों में जो काबिज़ हो जाते हैं तो इन अंबानियों, टाटाओं आदि का क्या होगा और इन पर क्या गुज़रेगी? सोच कर ही मज़ा आ जाता है ! उन के परिजन कह ही रहे हैं कि अरविंद को लालकिले से झंडा फहराते देखना चाहते हैं। खैर, अभी तो जो हो अरविंद केजरीवाल ने एक पत्थर तो तबीयत से आकाश में उछाल ही दिया है, आकाश में सुराख होते देखना अभी शेष है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है, 'भेड़िया गुर्राता है/ तुम मशाल जलाओ/ उस में और तुम में यही बुनियादी फ़र्क है/ भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।'अरविंद केजरीवाल ने कहीं इन राजनीतिक भेड़ियों के आगे क्या मशाल तो नहीं जला दी है? यह अब आप तय कर लीजिए। क्यों कि जब दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने बिजली के कटे कनेक्शन जोड़ने शुरु किए थे तब बहुत कम लोगों ने यह सोचा था कि अरविंद बिजली के कनेक्शन तो जोड़ रहे हैं पर साथ ही कांग्रेस का सत्ता से गर्भनाल का रिश्ता भी काट रहे हैं। अभी शीला दीक्षित का सत्ता से गर्भनाल से कटा है पर अब क्या यह अंगड़ाई, आगे की और लड़ाई में बदले बिना रहेगी?
    काश कि कांग्रेस ने दो साल पहले ही लोकपाल बनाने में सचमुच की पहल की होती तो आज शायद उस की इतनी दुर्गति नहीं हुई होती। लेकिन कांग्रेस तो तब 'हां-हां' करते हुए भी नित नए ला्क्षागृह बनाती रही अन्ना आंदोलन का अंत करने के लिए। स्वामी अग्निवेश को रोड़ा बनाया, फिर स्वामी रामदेव को आगे किया फिर उन के के साथ आधी रात बदसलूकी की। इन को, उन को तोड़ने के लिए लगाती रही। जो भी आंदोलन हुए, कुचलने के लिए कांग्रेस कटिबद्ध हो गई। अन्ना को जेल भेज दिया। निर्भया आंदोलन के साथ भी यही चाल चली। गरज यह कि अपनी ही बिछाई बिसात पर कांग्रेस लेट गई। और फिर चुनावों में लुट गई। हां, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि अगर अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षाएं इतनी बलवती न होतीं और कि वह राजनीति में आने के बजाय अन्ना के साथ ही संघर्षरत रहे होते तो यह किन्नर टाइप लोकपाल जो आज संसद ने पारित किया है, देश इस से बच ज़रुर गया होता। एक जनांदोलन का इस तरह गर्भपात न हुआ होता। एक मज़बूत लोकपाल भी आ सकता था। इतना मज़बूत कि मुलायम सिंह यादव जैसे लोग अपने ही भ्रष्टाचार के कालीन में लिपट कर लोकसभा में ही बेहोश हो गए होते। बहिर्गमन की नौबत ही नहीं आती। लेकिन क्या अरविंद केजरीवाल और उन के साथियों को यह जान नहीं लेना चाहिए कि मुहब्बत और राजनीति ज़िद से नहीं होती। और न ही काठ की हाडी बार-बार चढ़ती है। अभी तो इब्राहिम का एक शेर याद आता है :

    खड़े हैं रेत में काग़ज की कश्तियाँ ले कर ,
    मिला है हुक्म कि दरिया को पार करना है।


    लेकिन यहीं राहत इंदौरी भी कह गए हैं :

    लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के सँभालते क्यों हैं
    इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं।


    अब अरविंद केजरीवाल कर्ण बनते हैं, अभिमन्यु बनते हैं कि अर्जुन ! कार्पोरेट के हाथ खेलते हैं कि दो-दो हाथ करते हैं, यह सब समय की दीवार पर लिखी इबारत में अभी बिलकुल साफ नहीं है। यह देखना शेष भी है और दिलचस्प भी। इस लिए भी कांग्रेस का कुटिल हाथ आप के साथ है। और कि मोदी के हौवा में घायल कांग्रेस कुछ भी करने से अब बाज़ आने वाली नहीं है।



    Monday, 16 December 2013

    व्यवस्था के प्रति विश्वास जगाने की कहानी


    अशोक कुमार शुक्ला

    दयानंद पाण्डेय का यह उपन्यास समूचे हिंदी-भाषी उत्तर भारत के एक आम कस्बे की कहानी है जो आज़ादी के उत्तरोत्तर वर्षों में शहरीकरण और आबादी के बढते बोझ के कारण नया स्वरूप लेते समाज की बानगी प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास में एक ही गांव में निवास करने वाले राय परिवार के पट्टीदारों के मध्य व्याप्त शीतयुद्ध सरीखे वातावरण के बीच एक परिवार के सभी बालकों का बारी बारी से प्रतिष्ठित सेवावों में जाते हुए अपने पीछे गांव में छूट गए परिवार की कहानी तो है ही साथ ही आम भारतीय पीढ़ियों की संस्कारो से पलायन की कहानी भी है।

    उपन्यास की शुरूआत आज कें संयुक्त परिवारों में व्याप्त सामान्य कलह की परिणामी घोषणा के रूप में मुनक्का राय के एन आर आई पुत्र का अपने मां पिता की अंत्येष्टि तक में भी न आने के निश्चय से होता है-

    'अम्मा जान लो अब मैं भी फिर कभी लौट कर बांसगांव नहीं आऊंगा।' अम्मा भी चुप रही।

    'तुम लोगों की चिता को अग्नि देने भी नहीं।' राहुल जैसे चीखते हुए शाप दे रहा था अपनी अम्मा को। फिर अम्मा बाबू जी के बिना पांव छुए ही वह घर से बाहर आया और बाहर खड़ी कार में बैठ कर छोड़ गया बांसगांव।

    वही इस का अंत उसी मुनक्का राय की बेटी मुनमुन का सफल हो कर प्रशासनिक अधिकारी बनने के बाद भी अपने बूढे पिता को अपने साथ रखते हुये मुनमुन को प्राप्त वैभव का साझीदार बनाने के साथ होता है-

    मुनक्का राय ने कोई जवाब देने के बजाय छड़ी उठा ली है। और टहलने निकल गए हैं। रास्ते में सोच रहे हैं कि क्या मुनमुन अब अपना वर भी खुद ही नहीं ढूंढ सकती? कि वह ही फिर से ढूंढना शुरू करें। मुनमुन के लिए कोई उपयुक्त वर। क्या अख़बारों में विज्ञापन दे दें? या इंटरनेट पर? घर लौटते वक्त वह सोचते हैं कि आज वह इस बारे में मुनमुन से स्पष्ट बात करेंगे। वह अपने आप से ही बुदबुदाते भी हैं, ‘चाहे जो हो शादी तो करनी ही है मुनमुन बिटिया की!’

    यह उपन्यास यह संदेश भी देता है कि जहां बेटे सफलता के पायदानों पर चढने के साथ मां बाप को एकाकी जीने के छोड़ने में कोई संकोच नहीं करते वहीं पुत्रियां सफलता के पायदानों पर चढते हुये भी मां बाप को साथ रखना नही भूलते। इस प्रसंग को लेखक ने मुनमुन की मां के हवाले से कही इस रोचक बोध कथा द्वारा दिया है -

    'बाबू एक राजा था। उस ने सोचा कि वह दूध से भरा एक तालाब बनवाए। तालाब खुदवाया और प्रजा से कहा कि फला दिन सुबह-सुबह राज्य की सारी प्रजा एक-एक लोटा दूध इस तालाब में डालेगी। यह अनिवार्य कर दिया। प्रजा तुम्हीं लोगों जैसी थी। एक आदमी ने सोचा कि सब लोग दूध डालेंगे ही तालाब में हम अगर एक लोटा पानी ही डाल देंगे तो कौन जान पाएगा? उस ने पानी डाल दिया। राजा ने दिन में देखा पूरा तालाब पानी से भर गया था। दूध का कहीं नामोनिशान नहीं था। तो बाबू तुम्हारे बाबू जी अपने परिवार के वही राजा हैं। सोचते थे कि सब बेटे लायक़ हो गए हैं थोड़ा-थोड़ा भी देंगे तो बुढ़ापा सुखी-सुखी गुज़र जाएगा। पर जब उन की आंख खुली तो उन्हों ने देखा कि उन के तालाब में तो पानी भी नहीं था। यह कैसा तालाब खोदा है तुम्हारे बाबू जी ने बेटा मैं आज तक नहीं समझ पाई।' कह कर अम्मा रोने लगीं।

    समूचे उपन्यास में एक इमानदार अधिवक्ता का तहसील स्तरीय वकालत में न टिक पाना और शनै: शनै: कुंठाग्रस्त हो कर अवसाद का शिकार होना विद्यमान न्यायिक व्यवस्था की कलई भी खोलता है-

    उस की प्रैक्टिस अब लगभग निल थी। कई बार तो वह कचहरी जाने से भी कतराने लगा। पत्नी के साथ देह संबंधों में भी वह पराजित हो रहा था। चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता। एक दिन उस ने पत्नी से लेटे-लेटे कहा भी कि,'लगता है मैं नपुंसक हो गया हूं।'

    पत्नी कसमसा कर रह गई। आखों के इशारों से ही कहा कि,'ऐसा मत कहिए। पर रमेश ने थोड़ी देर रुक कर जब फिर यही बात दुहराई कि, 'लगता है मैं नपुंसक हो गया हूं।' तो पत्नी ने पलट कर कहा, 'ऐसा मत कहिए।' वह धीरे से बोली,'अब मेरी भी इच्छा नहीं होती।'

    क्या पैसे की तंगी और बेकारी आदमी को ऐसा बना देती है? नपुंसक बना देती है? रमेश ने अपने आप से पूछा।

    हांलांकि यही अवसादग्रस्त अधिवक्ता अपनी पत्नी के सहृदयतापूर्ण व्यवहार और सर्मपण की बदौलत वरिष्ठ न्यायिक सेवा में चयनित होता है। इस उपन्यास में जितनी बेबाकी से लेखक ने यह दिखाया है कि आज यहां शिक्षामित्र से ले कर आंगनबाडी कार्यकर्त्री तक की नौकरी हासिल करने के लिये सिफ़ारिश से अलावा कोई विकल्प नहीं है उतनी ही सुंदरता से यह भी यह भी साबित किया है अपने श्रम की बदौलत प्रत्येक मेहनतकश युवा आज भी व्यवस्था के उच्च पदों पर पहुंच भी सकता है।

    वास्तव में मुनक्का राय के परिवार के बच्चों का धीरे धीरे उच्च पदों पर चयनित होते जाना आज के युवा वर्ग के लिए विद्यमान व्यवस्था के प्रति विश्वास जगाने की कहानी भी है। आज के अधिकांश लेखक जब व्यवस्था के प्रति नकारात्मक संदेश को अपने लेखन का आधार बना रहे हों वहां दयानंद जी का यह उपन्यास नई पीढ़ी को आशावाद का संदेश देता है।
    [ गद्य कोश से साभार ]



    समीक्ष्य पुस्तक :

    बांसगांव की मुनमुन
    पृष्ठ सं.176
    मूल्य-300 रुपए

    प्रकाशक
    संस्कृति साहित्य
    30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
    दिल्ली- 110032
    प्रकाशन वर्ष-2012

    रवींद्र वर्मा का महुआ तोड़ कर खाना-खिलाना


    मित्रो, आप में से कितने लोगों ने महुआ तोड़ कर खाया है? हमने तो खैर सुबह-सुबह बीन कर खाया है महुआ। निहुरे-निहुरे बीन कर। सुखा कर भी। इस का लाटा भी खाया है और हलुआ भी। महुआ बीन कर उस की माला भी खूब बनाई है। पहनी-पहनाई है। बचपन का हमारा खेल था यह। जीवन था यह। इस लिए भी कि एक खूब बड़ा सा महुआ का पेड़ हमारी छावनी वाले गांव के घर के सामने ही था। और एक उस के ठीक बगल में। सो महुवे की छांव तले महुए की मादकता भी जानी है, उस की आंच भी और उस की गंध भी, मिठास भी। उसे सूखते, सुखाते भी देखा है। एक समय विपन्न लोगों के भोजन में शुमार था महुआ। अब विपन्न लोगों के शराब बनाने में भी शुमार है। खैर, भोजपुरी में मोती बी. ए. का एक बहुत मशहूर गीत भी उन्हीं से कवि सम्मेलनों में खूब सुना है, असो आइल महुआ बारी में बहार सजनी ! इस बहार में बचपन बीता है। जवान हुए हैं हम। लेकिन दिलचस्प यह कि रवींद्र वर्मा का एक उपन्यास कथादेश के अगस्त, २०१३ अंक मे छपा था। एक डूबते जहाज की अंतरकथा। पठनीयता का तत्व भी नाम अनुरुप कई जगह डूबता-उतराता मिलता है इस उपन्यास में। खैर, यह रवींद्र वर्मा की रचनाओं की खास खासियत है। कोई नई बात नहीं है। कई बार तो ऐसी रचनाओं को पढ़ या देख कर मृणाल पांडेय का एक दोहा याद आ-आ जाता है:

    खुदै लिख्यै थे,खुदै छपाए
    खुदै उसी पर बोल्यै थे।


    लेकिन इस उपन्यास एक डूबते जहाज की अंतरकथा में तो कई जगह कुछ वर्णन तथ्यों और अनुभव से परे हैं। इस में पृष्ठ २२ पर तो एक चरित्र आम के साथ-साथ महुआ भी तोड़ कर खाना-खिलाना बताता है। अभी एक दिन पहले ही जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित एक चर्चा में इस लघु उपन्यास पर लखनऊ में कुछ साथियों ने बाकायदा चर्चा की। अच्छी बात है। रचना आई है तो उस पर चर्चा भी होनी ही चाहिए। लेकिन आंख मूंद कर? इस से बचना भी चाहिए। मित्र की रचना है तो मित्र को मित्रवत यह और ऐसी कोई और चूक भी क्या नहीं बताई जाई जानी चाहिए? कि रवींद्र वर्मा जी महुआ तोड़ कर नहीं, बीन कर खाइए। महुआ को महुआ और आम को आम ही रहने दीजिए। लिखने की धुन में महुआ को इतना खास भी मत बनाइए महराज !
    लेकिन रवींद्र वर्मा का भी क्या दोष? अब उन के लिए तो बशीर बद्र के कुछ शेर ही याद आ रहे हैं :


    दरिया से इख्तलाफ़ का अंजाम सोच लो
    लहरों के साथ-साथ बहो तुम नशे में हो

    क्या दोस्तों ने तुम को पिलाई है रात भर
    अब दुश्मनों के साथ रहो तुम नशे में हो

    बेहद शरीफ़ लोगों से कुछ फ़ासला रखो
    पी लो मगर कभी न कहो तुम नशे में हो

    कागज़ के ये लिबास चिरागों के शहर में
    जानां संभल-संभल के चलो तुम नशे में हो

    मासूम तितलियों को मसलने का शौक है
    तौबा करो, खुदा से डरो तुम नशे में हो


    तो क्या करें रवींद्र वर्मा। बेहद शरीफ़ लोगों से घिरे हुए हैं। आरंभ ही से। तो महुआ तोड़ कर खाएं कि आम किसी को फ़र्क नहीं पड़ता। कोई उन्हें बताने वाला है नहीं कि महुआ तो बीन कर ही खाएं। वह तो इन्हें सफलता के नशे में झुमा कर रखे हुए हैं। रही बात मेरी तो मुझ को दर्पण दिखाने की आदत हो गई है और लोग मुझ से कतराने लगे हैं। तो कतराएं। अपनी बला से। बशीर बद्र ही का एक शेर फिर याद आ गया है :

    मुखालफ़त से मेरी शख्सीयत संवरती है
    मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूं।


    औरत बदल रही है वह अब केवल पिजरे में बंद तोता नहीं रही

    शुचिता श्रीवास्तव

    संस्कृति साहित्य दिल्ली द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखक दयानंद जी की रचना[उपन्यास ] ''बांसगांव कि मुनमुन '' परिवार और समाज में संघर्ष कर रही दुनिया भर की औरतों को समर्पित है । सरल और सहज भाषा शैली में लिखी गयी यह रचना दिल को छूती है ह्रदय को उद्वेलित भी करती है समाज के सच को उजागर करती है यह इतना भयानक समय है कि सवेदनशीलता का कहीं नमो निशान तक नहीं बचा है कहाँ से कहाँ पहुँच गए है हम तरक्की के आसमान पर बैठे हैं पर कर्त्तव्यनिष्ठा पाताल में चली गयी है अपने देश ,अपने समाज के लिए उसके हित के बारे में हम क्या सोचेंगे जब अपने परिवार के बारे में ही नही सोच पा रहे हैं जन्म देने वाले पिता तक कि परवाह नही इतने संकुचित हैं कि बस अपनी पत्नी और बच्चों से आगे का कोई रिश्ता ही नहीं दिखता अपने ही घर मेहमान की तरह जाते हैं और चले आते हैं।माँ बाप का तनाव उनका अभावग्रस्त जीवन देखकर भी अनदेखा करते हैं इतना लालच है कि निसंकोच भाई की लाश तक काटने की बात करते है उत्तर प्रदेश के एक शहर गोरखपुर के पास है बांसगांव कस्बा यह उपन्यास उसी कस्बे में रहने वाले पेशे से वकील मुनक्का राय की कहानी है उनके संघर्षों के सफ़र की कहानी है| उनके जीवन में उतार चढ़ाव की कहानी है| वास्तव में देखें तो यह सब कहानी नहीं समाज की बहुत बड़ी सच्चाई है इसके सारे के सारे पात्र हमारे आस पास मौजूद हैं यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है साथ ही लेखक की बहुत बड़ी सफलता की पूरे उपन्यास में कहीं भी काल्पनिकता झलकती ही नहीं। सब कुछ ऐसा लगता है मानो हमारे अगल बगल की घटनाएं हों।
    मुनक्का राय के कहने को तो चार चार बेटे है जिसमें एक जज है एक प्रशासनिक अधिकारी एक बैंक मैनेजर और एक एन आर आई है पर कोई भी माता पिता और छोटी बहन को साथ रखने को तैयार नही है न ही उनके खर्चे उठाने को तैयार हैं कभी कभार छोटा बेटा राहुल पैसे भेज दिया करता है और उतने से ही सब अपने कर्त्तव्यों कि इतिश्री समझ लेते हैं चार बेटों {जज ,प्रशासनिक अधिकारी ,बैंक मैनेजर और एन आर आई }के पिता मुनक्का राय को ठीक तरह से गृहस्थी चलाने और अपनी पत्नी और बेटी का इलाज करवाने के लिए पैसों का मोहताज होना पड़ता है दुर्भाग्य वश मुनक्का राय की सबसे छोटी बेटी मुनमुन को टीबी की बीमारी हो जाती है पर भाइयों के पास उस बहन का इलाज करवाने के लिए पैसा और समय दोनों नहीं है जिसको बचपन में गोद में उठाकर वो गाया करते थे मेरे घर आयी एक नन्ही परी,,,, कितनी बड़ी विडंबना है ये और समाज का सच भी .......चारो भाइयों में किसी के पास इतना समय नही की उस परी के लिए पिता द्वारा ढूढे गये वर की जाँच पड़ताल कर लें बेचारी की शादी एक शराबी और पागल लड़के से ही हो जाती है और जब मुनमुन ससुराल से वापस आ जाती है अपनी शिक्षा मित्र की नौकरी से माता पिता और अपना भरण पोषण करती है ,अपना इलाज करवाती है आत्मसम्मान से रहने का प्रयास करती है तो उसके भाई उसे आवारा तक कहने में संकोच नहीं करते जो जज दूसरों को न्याय देते है वो अपनी बहन को झोंटा पकड़ कर जबर्दस्ती शराबी ,पागल पति के पास उसके ससुराल भेजने को तैयार हैं यहां सवाल उठता है कि क्या बहन कि जगह उनकी अपनी बेटी होती तो क्या उसके साथ भी यही सुलूक करते ?
    हर तरफ से निराश होने पर आँसू बहाते बहाते जब मुनमुन थक जाती है तो खुद अपनी किस्मत बदलने का निर्णय लेती है। और फिर चल पड़ती है उस राह पर जो उसे अपने मंजिल पर ले जायेगा। अपने साथ-साथ अपनी तरह की दूसरी औरतों की पीड़ा का भी एहसास है उसे। इस लिए वह दूसरों को भी रास्ता दिखाती है उनकी मदद करती ह। जब पागल और शराबी पति उसके घर आकर उसे जब तब आकर मारता पीटता है गली गलोज करता है तो तंग आकर एक दिन सरेआम मुनमुन भी उसे जी भर के पीटती है। जो आज कल बदल रही औरतों का सच ह॥ और लोग भी उसके इस काम पर तालियां बजाते हैं। पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं यह औरत का आत्मविश्वास है। अपने दम पर जी सकती है वह किसी के सहारे कि जरुरत नही॥ आज कल की औरतों को उनके अंदर एक आग है। अपनी ही आग में तप कर वह खरा सोना बन सकती है। अगर पति नाकारा है तो आज कल की औरत को अपने सुहाग चिन्ह मिटा डालने तक से गुरेज नहीं ह। निश्चित ही औरत बदल रही ह। वह अब केवल पिजरे में बंद तोता नहीं रह॥ न वह शारीरिक पीड़ा सहने को तैयार है न मानसिक। मुनमुन की हिम्मत थी जो अपने दम पर शराबी और पागल पति से पीछा छुड़ाया और खुद शिक्षा मित्र की नौकरी करते करते प्रशासनिक अधिकारी के पद पर पहुंची। मुनमुन समाज कि सारी महिलाओं कि प्रेरणा बनी। अत्याचार मत सहो किसी भी कीमत पर नही ……कुल मिलाकर ''बांसगाव की मुनमुन''बहुत रोचक उपन्यास है एक बार में ही पठनीय।


    समीक्ष्य पुस्तक:

    बांसगांव की मुनमुन
    पृष्ठ सं.176
    मूल्य-300 रुपए

    प्रकाशक
    संस्कृति साहित्य
    30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
    दिल्ली- 110032






    Friday, 13 December 2013

    अपनी वैचारिकी से पलटी मारना किसी को सीखना हो तो वह लखनऊ के साहित्य भूषण वीरेंद्र यादव से सीखे

    दयानंद पांडेय 

    नौ-दस महीने में ही अपनी वैचारिकी से पलटी मारना किसी को सीखना हो तो वह लखनऊ के साहित्य भूषण वीरेंद्र यादव से सीखे। इसी बरस बीते मार्च में लखनऊ सोसाइटी ने लखनऊ लिट्रेचर फ़ेस्टिवल आयोजित किया था। तब उन को उस कार्यक्रम में बुलाया गया था कि नहीं यह बात तो आयोजक और वह ही जानें। पर तब वीरेंद्र यादव ने हिंदुस्तान अखबार में साहित्य का फ़ेस्टिवल हो जाना शीर्षक से  रुदन में लबालब एक टिप्पणी लिखी थी। इस टिप्पणी में उन्हों ने प्रेमचंद को बड़ी शिद्दत से याद किया था। लखनऊ में हुए लेखक सम्मेलन मे प्रेमचंद के भाषण को उन्हों ने कोट किया था, ' साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उस का दर्जा इतना न गिराइए।'  आगे उन्हों ने लिखा कि, लगता है प्रेमचंद की इस नसीहत से सबक लेते हुए लिट फ़ेस्ट के आयोजकों ने महफ़िल तो सजाई और मनोरंजन का सामान भी जुटाया लेकिन यह सावधानी भी बरती कि उन लेखकों को दूर ही रखा गया जिन के दिलो दिमाग में प्रेमचंद के कथन की अनुगूंज अभी तक रची-बसी है। संभवत: इसी के चलते आयोजन के निमंत्रण पत्र में किसी हिंदी लेखक का नाम था और न ही एकाध अपवादों को छोड़ कर किसी को आमंत्रण।


    ऐसी गलतबयानी वीरेंद्र यादव ही कर सकते हैं। नरेश सक्सेना, योगेश प्रवीन, यतींद्र मिश्र, रूपरेखा वर्मा और मैं खुद, अमरेंद्र त्रिपाठी आदि हिंदी के लेखक उस आयोजन में आमंत्रित थे। पर वीरेंद्र यादव को अपने इर्द-गिर्द के चार-छ लेखकों को छोड़ कर लखनऊ में लेखक ही नहीं दिखते। या कि वह किसी को लेखक मानते ही नहीं। उन की इस रतौधी का इलाज अब बहुत मुश्किल दिखता है। गौरतलब यह भी है कि लोहिया को फ़ासिस्ट बताने वाले वीरेंद्र यादव ने यहां इस टिप्पणी में लोहिया के  गुणगान भी गाए हैं। खैर, इसी टिप्पणी में वह संत और सीकरी आदि पर भी लफ़्फ़ाज़ी झोंक कर अफ़सोस जाहिर करते रहे कि इस आयोजन में राजा, नवाब आदि आए। विंटेज कार रैली आदि हुई। नाच-गाना आदि हुआ। और फिर निष्कर्ष देते हुए लिखा था कि, 'शायद साहित्य के सरोकारों से मुक्त होने और 'फ़ेस्टिवल' में तब्दील के अनिवार्य दुष्परिणाम है। सचमुच साहित्य के नाम पर यह दृष्य दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है।'


    चलिए न मानते हुए भी मान लिया यह भी एक बार। लेकिन कुतर्क और पलटीबाज़ी की भी एक सीमा होती है। मैं ने इस के मद्देनज़र फ़ेसबुक पर एक टिप्पणी भी लिखी। आप भी गौर कीजिए :


    सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ों की जागीर बन गया है यह शहर लखनऊ साहित्य के नाम पर?


    अपने लखनऊ का साहित्यिक मंज़र भी खूब है। कि जो क्रांतिकारी लोग लिट फ़ेस्ट का पिछली बार बायकाट किए थे, वही सूरमा भोपाली लोग अब की कैसे तो सूरमेदानी लिए मुसकुराते हुए खड़े फ़ोटो खिंचवाते रहे ! यह देखना भी दिलचस्प था। हम तो शहर में थे नहीं लेकिन लौटे तो अखबारों और फ़ेसबुक पर उस की बदली-बदली बयार में बहती फ़ोटो देखी तो मन मुदित हो गया। तो क्या अब की मल्टी नेशनल कंपनियां प्रायोजक नहीं थीं ? अंगरेजी आदि का जाल बट्टा नहीं था? कि अंगरेजियत नहीं थी? लेकिन अब मुस्कुराते हुए फ़ोटो खिंचवाते इन क्रांतिवीरों से पूछे कौन? रही बात पत्रकारों की तो उन में यह सब पूछने की भूख और रवायत दोनों ही जय हिंद है। जहालत से उन की बहुत तगड़ी रिश्तेदारी है। अशोक वाजपेयी भी आए थे लेकिन क्रांतिकारी आलोचकों, संपादकों और लेखकों को उन के आने से कोई गुरेज़ नहीं था। उन के साथ यह कार्यक्रम शेयर किया। यह तो अच्छी बात हुई। कि कुछ सही पूर्वाग्रह छूटा तो सही, कुछ ऐंठ टूटी-छूटी तो सही। लेकिन रज़ा फ़ाउंडेशन द्वारा आयोजित विश्व कविता समारोह भारी फ़ज़ीहत में फंस गया है। अशोक वाजपेयी रज़ा फ़ाउंडेशन के सर्वेसर्वा हैं। इस पर भी इस शहर में किसी लेखक, पत्रकार या आलोचक ने उन से कोई बात क्यों नहीं की? यह भी हैरतंगेज़ है। क्या यह शहर इतना सोया हुआ है? या सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ों की जागीर बन गया है यह शहर लखनऊ साहित्य और संस्कृति के नाम पर? या कि बस सुविधा की ही बात रह गई है। कि मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू ! यह सवाल सुलगना लाजिम है। क्यों कि अवसरवादिता की यह तो पराकाष्ठा है।

    दिलचस्प यह कि बीते मार्च में जब यह लखनऊ लिट्रेरी फ़ेस्टिवल का आयोजन हुआ, जिसे लखनऊ सोसाइटी ने आयोजित किया था तो वीरेंद्र यादव और उन का गिरोह खासा नाराज़ रहा। लेकिन अब की दिसंबर में जब यही आयोजन एक दूसरी संस्था लखनऊ एक्सप्रेसंस ने लखनऊ लिट्रेरी कार्निवाल नाम से आयोजित किया तो वीरेंद्र यादव और उन के लोग हैपी हो गए। तब जब कि यह आयोजन भी लखनऊ लिट्रेरी फ़ेस्टिवल की पुनरावृत्ति ही रहा। वह तो फिर भी फ़ेस्टिवल था यानी त्यौहार ! और यह कार्निवाल था यानी तमाशा। और इस आयोजन में भी वही राजा और वही नवाब लोग थे। वही फ़िल्मी लोग थे। वही नाच-गाना और वही विंटेज कार एक्ज़ीबिशन आदि। मतलब वही सारे नखरे, वही टोटके आदि। वही महफ़िल. वही मनोरंजन के सामान आदि। लेकिन वीरेंद्र यादव गए इस आयोजन में राजेंद्र यादव को श्रद्धांजलि देने के बहाने। वह प्रेमचंद का कहा भी भूल गए। कि,  ' साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उस का दर्जा इतना न गिराइए।'

    लखनऊ के एक सुपरिचित लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा ने फ़ेसबुक पर अपनी वाल पर लिखा है कि :


    लखनऊ कार्पोरेटी लिटररी फेस्टिवल रिलायंस के पैसों से संपन्न हुआ है . अब यहाँ बताने की क्या जरूरत की यह साहित्य का आखेटीकरण है या साहित्यकारों के वैचारिकी की दुम और उसके कंपन का मापीकरण है। 
    .
    सुभाष चंद्र कुशवाहा की इस टिप्पणी पर कवि कौशल किशोर की एक टिप्पणी भी गौरतलब है:

    यह फेस्टिवल साहित्य का कारपोरेटीकरण है जिसका मकसद साहित्य को उपभोक्तावादी माल में बदलना है, उसे सामाजिक सरोकार व उसकी मूल चिंता से दूर ले जाना है। लेकिन विडम्बना कहिए कि सब चुप हैं। ऐसे में मुझे मुक्तिबोध याद आते हैं: 
     
    सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन नि
    र्वाक्
    चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं,
    उनके खयाल से यह सब गप है
    मात्र किंवदन्ति।
    रक्तपाई वर्ग से नाभिनालबद्ध ये सब लोग
    नपुंसक-भोग-शिरा-जालों में उलझे।
    प्रश्न की उथली-सी पहचान
    राह से अनजान
    वाक् रुदन्ती।

    सुभाष चंद्र कुशवाहा इसी टिप्पणी की एक प्रतिक्रिया में लिखते हैं :

     धर्मेन्द्र राय जी, भैस का दूध पी कर भैस बनने वाली बात नहीं है , भैंस के अस्तित्व को नकार करने की विचारधारा पाल कर, भैस का दरबार करने से है ! बात इतनी सरल नहीं होती जितनी समाझ ली जाती है।

     सुभाष चंद्र कुशवाहा की एक और टिप्पणी है :

    सफाई मिली है की लखनऊ कार्पोरेटी लिटररी फेस्टिवल रिलायंस के पैसों से नहीं, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, स्टेट बैंक , सरकार और "इत्यादि" के सहयोग से हुआ है . भाई मुझे आयोजन से क्या आपत्ति ? आयोजन चाहे पप्पू यादव कराएँ या दाऊद इब्राहिम? आपत्ति उनसे है जो दूसरे के लिए आदर्श बघारते हैं और अपने के लिए रास्ता निकालते हैं ! और अगर सफाई आ ही रही है तो यह आनी चाहिए की ये "इत्यादि" कौन हैं. कुल कितना खर्च हुआ और किन-किन से कितना आया ? यह बात सिर्फ इसलिए कि सफाई आई है, वरना तो क्या ?

    अब सुभाष जी और कौशल किशोर जी के इस लिखे के आलोक में भी ज़रुर सोचा जाना चाहिए। दिलचस्प यह एक तथ्य भी है कि वीरेंद्र यादव ने न सिर्फ़ इस तमाशे में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई बल्कि वह इस आयोजन के मार्गदर्शक  मंडल के सदस्य भी हैं। और तब भी किसी दलित लेखक आदि जिस की तुरही वह अकसर बजाते रहते हैं अपने भाषणों में, नहीं बुलाया गया इस आयोजन में। इसी लखनऊ में मुद्रारक्षस, शिवमूर्ति, हरिचरण प्रकाश, नवनीत मिश्र, जैसे कई और सशक्त कहानीकार भी हैं, वह भी इस आयोजन से खारिज रहे। वीरेंद्र यादव के मार्गदर्शक मंडल में रहने के बावजूद। तो यह क्या था महफ़िल सजाना या मनोरंजन का साधन जुटाना? यह ज़रुर पूछा जाना चाहिए। फ़िलहाल तो इस आयोजन को ले कर किसिम-किसिम की चर्चा चल रही है। वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय में शोध छात्र हिमांशु वाजपेयी लखनऊ के ही हैं। और इस आयोजन से गहरे जुड़े हुए हैं। पिछले आयोजन से भी जुड़े थे। उन्हों ने भी फ़ेसबुक पर अपनी वाल पर एक दिलचस्प टिप्पणी दर्ज की है:

    लखनऊ वालों के लिए खुशखबरी ! अगर आपमें भी ‘अपना खुद का’ लिटरेचर फेस्टिवल करवाने के कीड़े हैं लेकिन आप लाचारी के चलते बेरहमी उनको मारने में जुटे हैं, तो अब आपको निराश होने की ज़रूरत नहीं है. लिटफेस्ट्स की इस सहालग में हम लेकर आए हैं खास आपके लिए ‘मस्तो बाबा गेसूदराज़’ का सिद्ध किया हुआ चमत्कारी ताबीज़. इस अद्भुत ताबीज़ को धारण करते ही पूरा लखनऊ शहर साहित्य और संस्कृति की दुनिया में आपके वर्चस्व को सजदारेज़ होकर तस्लीम कर लेगा. साहित्य को लेकर आपका और आपकी टीम का अज्ञान पूरी तरह से मिट जाएगा. दुनिया भर का साहित्य और उससे जुड़े मुद्दों की जानकारी सबके दिमाग में अपने आप फीड होने लगेगी. एक से एक खुर्राट और नामी साहित्यकार आपके दरवाज़े आकर गुज़ारिश करेंगें कि ‘लखनऊ में साहित्य और संस्कृति के पुनरूद्धार हेतु कृपया आप एक लिटफेस्ट करवाएं जिसमें हम बिना पैसे लिए शिरकत करेंगें’. सेलिब्रिटीज़ आपके यार-दोस्तों के साथ सटकर फोटो खिंचाने और नकली हंसी हसने में अपनी खुशकिस्मती समझेंगें. लखनऊ आपका अहसान मानेगा कि आपने उसे इतने बड़े सितारों के दर्शन करवाए. और तो और आपके बुलाए दो कौड़ी के शाइर भी महफिल लूट लेंगें. एंकर चाहें अंग्रेज़ों के कक्का ही क्यों न हों, बिल्कुल शुद्ध हिन्दी बोलेंगे. आदिवासियों को चूस लेने वाली मल्टीनेशनल कंपनियां आपको स्पॉन्सरशिप देते वक्त दानवीर कर्ण बन जाएंगीं. आपका जलवा कायम होगा. इरादे लोहा होंगे, मन मुलायम होगा. दूसरों के लिटफेस्ट को कोई नहीं पूछेगा. उनके यहां की भीड़ भी उठकर आपके आयोजन में दौड़ी चली आएगी. जिला प्रशासन आपके कार्यक्रम को न सिर्फ बिना मांगे अनुमति देगा बल्कि मुफ्त जगह और सुरक्षा भी उपलब्ध करवाएगा. शहर के बड़े बड़े लोग आपके फेस्ट में शिरकत करने के लिए लबलबाए रहेंगें. पत्रकार लोग मनचाहा कवरेज देंगें. खूब चर्चा होगी. राज्य सरकार इस महान साहित्य सेवा हेतु आपका नाम पद्मश्री के लिए भेजेगी. विश्वविद्यालय साहित्य और संस्कृति में आपके योगदान पर पीएचडी करवाएंगें...

    सुपर तांत्रिक ताबीज़ का मूल्य- 151 रूपए मात्र
    स्पेशल तामसी ताबीज़ का मूल्य- 251 रूपए मात्र

    गलत साबित करने वाले को 1000 रूपए इनाम...

    सम्पर्क करें- ‘मस्तो बाबा गेसूदराज़’. फोन नंबर- 420840420840

    (हिमांशु बाजपेयी जैसे फ्रॉडियों से सावधान: ये नास्तिक है और लोगों को आस्था से विमुख करता है)

    चलिए हिमाशु की इस टिप्पणी को आप अपने ढंग से ले लीजिए। लेकिन वीरेंद्र यादव के उस रुदन का क्या करें? जो बीते आयोजन के समय उन्हों ने दर्ज किया था। यकीन न हो तो उन की वह टिप्पणी जस की तस आप मित्रों के ध्यानार्थ यहां साथ में नत्थी कर रहा हूं। और इस बार के आयोजन में उन की उपस्थिति की चहक भरी फ़ोटो भी। अब आप ही सोचिए कि क्या किसी की वैचारिकी इतनी जल्दी पलटी मार जाती है? कि संतन को सीकरी से अब काम पड़ ही गया है? या कि खाने के और दिखाने के और होते हैं? और कि क्या अवसरवादिता भी इसे ही नहीं कहते हैं? कि आदमी खुद का भी लिखा- कहा भी भूल जाए, 'शायद साहित्य के सरोकारों से मुक्त होने और 'फ़ेस्टिवल' में तब्दील के अनिवार्य दुष्परिणाम है। सचमुच साहित्य के नाम पर यह दृष्य दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है।' फिर यह तो फ़ेस्टिवल भी नहीं कार्निवाल था। यानी तमाशा ! बल्कि कहीं ज़्यादा। क्यों कि तब दो दिन का फ़ेस्टिवल हुआ था, अब की तीन दिन का कार्निवाल हुआ है।

    चलिए और तो सब ठीक है। यह सब अपनी-अपनी सुविधा और विवेक पर मुन:सर है। कि आप कहां जाएं, कहां न जाएं और कि क्या करें और क्या न करें, क्या लिखें और क्या बोलें। पर प्रेमचंद के उस कहे का भी क्या करें, ' साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उस का दर्जा इतना न गिराइए।'  प्रेमचंद के कथन की अभी तक रची-बसी अनुगूंज इतनी जल्दी बिसर गई? तो क्या दर्जा सचमुच गिर गया है?  साहित्य भूषण वीरेंद्र यादव तो निश्चित ही नहीं बताएंगे। मित्रो, आप ही कुछ बताइए !



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