फ़ोटो : पंकज सिनहा |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
इक ग़ज़ल ही है जहां ख़ुद को शहंशाह लिखता हूं
लिखना है तुम्हारी आंख लेकिन कटार लिखता हूं
तुम्हारा रुठना मिलना और मनुहार लिखता हूं
ग़ज़ल कहां लिखता हूं तुम से प्यार लिखता हूं
दिल के आकाश में उड़ता बादल मुहब्बत का
तुम्हारे दिल की पृथ्वी पर मैं बरसात लिखता हूं
अनमोल है तुम्हारी लगन मुझे ग़ज़ल में बसाने की
ज़िंदगी की इस कड़ी धूप में तुम्हारी छांह लिखता हूं
नयन तुम्हारे अधर तुम्हारे कपोल पर चुंबन हमारा
इस त्रिवेणी में नहा धो कर नदी की धार लिखता हूं
बहता पानी छानता बहुत है तराशता भी चलता
मन के पानी में बैठ नाव की पतवार लिखता हूं
मेरी बेबसी मेरी बेचैनी मेरी आकुलता को समझो
तुम को कच्ची कली कचनार बार बार लिखता हूं
तुम्हारी ललक तुम्हारी चाहत तुम्हारा मादक स्पर्श है
थकता नहीं हूं राह में कभी भी बस इंतज़ार लिखता हूं
ख़ुशबू में डूबी सांझ नदी में चलती धारा के विरुद्ध नाव
घर लौटती उड़ती गौरैया को बहुत प्रणाम लिखता हूं
पर्वत पर्वत घूमना बहकना तुम्हारे साथ का दिन सुहाना
लजाती देह में गुज़री रात का भीना भिनसार लिखता हूं
तुम्हारी सुरीली आंख में लिखा है जैसे मोह का एक ज्ञापन
दिल की धड़कन पर बरखा की पहली बौछार लिखता हूं
सर्वदा फूल और फूल की ख़ुशबू ही कहां होती है
गुज़र जाती है जो दिल पर वह नागवार लिखता हूं
घायल बहुत हूं एंटी बायटिक भी काम नहीं आती
घाव सभी सूख जाते हैं जब तुम्हारी याद लिखता हूं
रहता हूं दिन रात तुम्हारी गुलामी में दुनिया जानती
तुम को ख़ुश देखने के लिए सर्वदा आदाब लिखता हूं
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-04-2016) को "जय बोल, कुण्डा खोल" (चर्चा अंक-2303) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'