दयानंद पांडेय
अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' की कहानियों में जो तासीर है वह कहीं अन्यत्र दुर्लभ है । उन की कहनियों में न वाम हैं , न राम है । बल्कि जीवन की वह धड़कन है जो उसे ताकतवर ही नहीं सहज भी बनाती है । अखिलेश श्रीवास्तव चमन की कहानियों को पढ़ना जैसे अपनी ही ज़िंदगी को बांचना है । जैसे अपनी ही ज़िंदगी पर बनी कोई फिल्म को देखना है बिना किसी एडिटिंग , बिना काट छांट या बिना किसी निर्देशन या पटकथा के । अपनी ही ज़िंदगी की सीवन खोलना और फिर-फिर सीना है । घुट-घुट कर जीना है , तिल-तिल कर मारना है। उन की कहानियों के बागीचे में कोई माली नहीं है जो पौधों या पेड़ को तराशता चले । उन की कहानियों की प्रकृति जंगल जैसी है । कि जो जैसे है , वैसे है । कोई नकलीपन या जिसे आजकल जादुई यथार्थवाद और कला आदि के नाम पर रोपा जा रहा है वह बनाव - श्रृंगार नहीं है । रंग -रोगन नहीं है । सीधी -सादी - सच्ची कहानी अपने पूरे पन में है । अखिलेश की कहानियों में झीनी - झीनी बीनी चदरिया वाली बात नहीं है बल्कि जस की तस धर दीनी चदरिया वाली बात है । अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' की चुनिंदा कहानियां संग्रह में कुल नौ कहानियां संग्रहित हैं । नवो कहानियां अलग -अलग रस लिए हुई हैं पर गर्भनाल सभी कहानियों की एक है। वह है भारतीय मध्यवर्गीय परिवार । अखिलेश की इन सभी कहानियों में परिवार पूरी तरह धड़कता है । परिवार की कोख से जन्मी इन कहानियों की गूंज मन में कहीं गहरे बस जाती है । इन कहानियों की बसावट में कई सारी संवेदनाएं एक साथ बसती जाती हैं अनायास । जो कभी फूल सी महकती हैं तो कांटे जैसी चुभती भी हैं ।
पुनरावृत्ति कहानी में अखिलेश इतनी सरलता से पीढ़ियों का दर्द और तेवर का तंबू तानते हैं कि पता ही नहीं चलता कि बेटा कब पिता में तब्दील हो गया । पारिवारिक ज़िम्मेदारियां आदमी को कैसे तो क्या से क्या बना देती हैं इस कहानी में यह बात इतनी बारीकी से उपस्थित होती है जैसे कोई नदी दूसरी नदी से चुपचाप मिल गई हो। संयुक्त परिवार की यातनाएं कैसे हर किसी की ज़िंदगी में उस को दीमक की तरह चाटती जाती हैं और आदमी इस यातना को निःशब्द भुगतता जाता है । इस बात की इबारत पुनरावृत्ति कहानी बड़ी तफ़सील से बांचती है । इस कहानी के दूसरे पैरे में ही अखिलेश ने लिखा है कि , ' दुनिया का हर सुख, हर दुःख जूठा है । यानी कि अनेक बार अनेक लोगों द्वारा भोगा जा चुका है ।' इस कहानी में बार-बार यह इबारत साबित होती जाती है ।
खरोंच कहानी भी जीवन के बहुत सारे सीवन खोलती-जोड़ती मिलती है । कि कैसे एक साथ पले बढ़े, एक दूसरे के लिए जीने-मरने वाले जिगरी दोस्त कैरियर बदलते ही वह दोस्ताना , वह संवेदना और वह भावना के तार बिलवा बैठते हैं । अचानक उन के सिद्धांतों और व्यवहार के बीच एक बड़ी नागफनी कब आ कर बैठ जाती है , पता ही नहीं चलता । बहुत सारे भ्रम अनायास ही टूटते जाते हैं । दो दोस्त हैं । एक साथ पले -बढे और पढ़े लेकिन बाद में एक दोस्त अध्यापक हो जाता है दूसरा आई ए एस । दोनों सिद्धांत में जीने वाले हैं, व्यवहार में भी । पर अध्यापक की प्राथमिकताएं तो नहीं बदलतीं पर आई ए एस की बदलती जाती हैं । बदलते-बदलते सिस्टम में समा जाती हैं । और वह 'व्यावहारिक ' बन जाता है । किसी ज़िले में वह कलेक्टर है और वह अध्यापक उसी ज़िले में किसी स्कूल में परीक्षक हो कर पहुंचता है । एक दिन का एक्स्ट्रा टाइम ले कर । कि दोस्त के साथ अपनी दोस्ती ताज़ा करेगा । वह बड़े गुमान से स्कूल के लोगों को बताता भी है कि डी एम मेरा दोस्त है। परीक्षा लेने के बाद वह बड़े ठाट से पहुंचता भी है डी एम के पास । लेकिन डी एम तो एक घाघ नेता के साथ बतियाने में व्यस्त है । उस की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं । अध्यापक दोस्त प्रतिवाद करता है तो वह कहता है , ' तो क्या चाहते हो तुम कि मैं अपनी सारी नौकरी सचिवालय में बैठे बाबूगिरी करते गुज़ार दूं ?' फिर बात सिस्टम , राजनीति नौकरशाही से लगायत जनता तक कहानी में होती है पर दोनों दोस्तों की प्राथमिकताओं का फर्क सामने आ ही जाता है , मोहभंग हो ही जाता है , खरोच लग ही जाती है । एक जगह हार कर वह आई ए एस दोस्त कहता भी है कि, ' आई ए एस का मतलब होता है आई एम सारी !'
बेटी की शादी , दहेज़ और प्रताड़ना से गुंथी कहानियां भी कई हैं इस संग्रह में । बताइए कि भला कोई पिता कभी चाहेगा कि उस की बेटी घर छोड़ कर किसी के साथ भाग जाए ?
अखिलेश की कहानी ईश्वर सब की सुनता है का महेश लाल एक ऐसा ही किरदार है जो चाहता है कि उस की बेटी किसी के साथ भाग जाए ! इस लिए कि वह शादी में दहेज़ देने की हैसियत में नहीं है । वह अकसर प्रकारांतर से अपने बेटियों को इस के लिए उकसाता भी रहता है । अख़बार के वह पन्ने जिस में लड़कियों के भाग जाने की खबरें छपी होती हैं , बेटियों को पढ़ाने के लिए घर में जहां - तहां रख देता है । एक विवरण देखें , ' वह चाहते हैं कि उन की बेटियां प्रेमी के साथ लड़की के भागने वाली या प्रेम-विवाह रचने वाली खबर को ज़रूर पढ़ें । वह सोचते हैं कि शायद ऐसी खबरें उन की बेटियों के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकें ।'
महेश लाल इतने परेशान हैं कि पूछिए मत। वे सोचने लगते हैं , 'कितने भाग्यशाली हैं वे मां -बाप जिन की बेटियां ऐसा साहसिक कदम उठा लेती हैं । और कितनी समझदार हैं वे बेटियां जो अपने बाप की हिमालय सी बड़ी समस्या को चुटकी बजाते हल कर जाती हैं । काश उन की गऊ सरीखी सीधी-सादी बेटी अनीता को भी ईश्वर इतनी समझदारी और हिम्मत दे देता कि वह अपने निकम्मे बाप के भरोसे बैठी रह कर अपनी ज़िंदगी खराब करने के बजाय अपना प्रबंध खुद कर लेती । ' महेश लाल की चिंता, चिता बनती जाती है । पत्नी से उन की नोक झोक भी बढ़ती जाती है । अखिलेश लिखते हैं , ' बेटियों की शादी एक गंभीर समस्या बनी हुई थी और इस समस्या के लिए पत्नी महेश लाल को दोषी ठहरती तो महेश लाल अपनी पत्नी को । दरअसल अपनी बेटियों की निष्क्रियता , कायरता और सीधाई के लिए महेश लाल अपनी पत्नी को ही ज़िम्मेदार मानते थे । उन का मानना था कि पत्नी ने दोनों बेटियों को बचपन से ही इतने कड़े अनुशासन में रखा था और उन्हें शुचिता , शालीनता, मान-मर्यादा एवं ऊंच - नीच का इतना तगड़ा पाठ पढ़ाया था कि वे बेचारी बिलकुल ही डरपोक और बोदा हो गई थीं । '
पर यह देखिए कि महेश लाल एक शाम घर लौटते हैं तो उन के घर के सामने भारी भीड़ लगी है । पता चलता है कि उन की एक बेटी भाग गई है । पत्नी खोजने निकल गई हैं । पर महेश लाल यह खबर सुन कर खुश हो जाते हैं ।
बेटी की शादी और दहेज़ को ले कर महेश लाल के मार्फ़त अखिलेश ने समाज और परिवार की वह दुखती नस छुई है जो घर-घर की मुश्किल बनी हुई है । दहेज़ और शादी खोजने की इतनी सारी इबारतें अखिलेश ने इस कहानी में परोसी हैं कि उन का थाह पाना मुश्किल है । हद से आगे कहानी में भी अखिलेश दहेज यातना के ही तार छूते मिलते हैं । एक मोटर साइकिल को ले कर उमा पर उस के ससुरालीजन उसे किन-किन यातनाओं से नहीं गुज़ारते ! थाना-पुलिस तो शादी के दिन ही हो जाता है । पर ससुराल में जो उमा पर यातना का दौर चलता है तो यह मामला कचहरी तक पहुंच जाता है । कचहरी का दृश्य देखें , ' उस ने अपना आंचल समेटा और पीठ का नंगा हिस्सा वकील की तरफ कर के फूट पड़ी --' मैं नहीं बोलूंगी वकील साहब ये निशान बताएंगे सारी कहानी। मैं कसाइयों के बीच अब तक कैसे ज़िंदा रह गई यही आश्चर्य की बात है ।' उमा की पीठ पर काले, नीले निशान देख कर सारे लोग सन्न रह गए । फिर तो अचानक जैसे कोई जीन सवार हो गया हो उस के सर पर । गुस्से में विफरी उमा सारा शील-संकोच छोड़ अपने साथ हुई ज़्यादती की कहानी सिलसिलेवार सुनाने लगी ।' हद से आगे कहानी में मध्यवर्गीय जीवन के और भी कई गरमी - बरसात अपनी पूरी त्वरा में उपस्थित हैं।
बिहारी मास्टर में भी पारिवारिक जीवन के तमाम सारे छेद अपनी पूरी ताकत से उपस्थित हैं । जीवन कैसे बदल रहा है , नई पीढ़ी अपने स्वार्थ में अंधी हो कर कैसे तो अपनी मां को भी नौकरानी बना लेती है यह और ऐसे तमाम व्यौरे बिहारी मास्टर कहानी में यत्र-तत्र उपस्थित हैं । और बिहारी मास्टर ही क्यों अखिलेश श्रीवास्तव चमन की लगभग सभी कहानियों में ही यह पारिवारिक आख्यान और उस का संत्रास , उस का पतन , उस का दुःख अपने पूरे ताप में उपस्थित है । खौलता और बदकता हुआ ।
कैंसर कहानी में प्रेम भी है और धर्मिक छुआछूत का तार और संत्रास भी । रजिया और अमोल के मार्फ़त अखिलेश बहुत बारीकी और बहुत सावधानी से जीवन के एक अहम पक्ष से रूबरू करवाते हैं । कहानी बिना किसी नारेबाजी या शोशेबाजी के यह बता देती है कि धर्म और जाति भारतीय समाज के अनिवार्य सत्य हैं । खुलती राहें , मन के हारे हार और औकात जैसी कहानियों की आंच भी पाठक को बहुत जलाती है ।
अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' के कथा संसार की जो बड़ी खूबी है वह यह कि वह किसी कथ्य या किसी बात को आक्रामक हो कर कहने के बजाय बहुत शांत और संयमित ढंग से करते हैं पर सिस्टम और समाज पर प्रहार बहुत मारक और निर्णायक ढंग से करते हैं। बिना लाऊड हुए । उन का जोर शिल्प और कथ्य , कला और उपमान आदि के नकली टोटकों और लटकों-झटकों के बजाय सीधी सच्ची कहानी पर ही होता है । वह अपनी कहानियों में चौंकाते नहीं बल्कि एक चीख भरते मिलते हैं , कातर चीख ! जो लहू-लुहान होती है और लहू-लुहान करती ही चलती है। सिस्टम और समाज के चीथड़े उड़ाती हुई । ऊबड़-खाबड़ पथरीले पथ वाली इन कहानियों की गूंज और इन का प्रभाव मन से गुज़रता भर नहीं है, बल्कि मन में कहीं गहरे बस जाता है , डेरा जमा कर बैठ जाता है और फिर उठता नहीं ।
समीक्ष्य पुस्तक :
अखिलेश श्रीवास्तव ' चमन ' की चुनिंदा कहानियां
प्रकाशक - साहित्य भंडार
50 , चाहचंद , इलाहबाद - 211003
मूल्य पेपर बैंक - 50 रुपए
पृष्ठ - 132
संस्करण : 2014
अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' की कहानियों में जो तासीर है वह कहीं अन्यत्र दुर्लभ है । उन की कहनियों में न वाम हैं , न राम है । बल्कि जीवन की वह धड़कन है जो उसे ताकतवर ही नहीं सहज भी बनाती है । अखिलेश श्रीवास्तव चमन की कहानियों को पढ़ना जैसे अपनी ही ज़िंदगी को बांचना है । जैसे अपनी ही ज़िंदगी पर बनी कोई फिल्म को देखना है बिना किसी एडिटिंग , बिना काट छांट या बिना किसी निर्देशन या पटकथा के । अपनी ही ज़िंदगी की सीवन खोलना और फिर-फिर सीना है । घुट-घुट कर जीना है , तिल-तिल कर मारना है। उन की कहानियों के बागीचे में कोई माली नहीं है जो पौधों या पेड़ को तराशता चले । उन की कहानियों की प्रकृति जंगल जैसी है । कि जो जैसे है , वैसे है । कोई नकलीपन या जिसे आजकल जादुई यथार्थवाद और कला आदि के नाम पर रोपा जा रहा है वह बनाव - श्रृंगार नहीं है । रंग -रोगन नहीं है । सीधी -सादी - सच्ची कहानी अपने पूरे पन में है । अखिलेश की कहानियों में झीनी - झीनी बीनी चदरिया वाली बात नहीं है बल्कि जस की तस धर दीनी चदरिया वाली बात है । अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' की चुनिंदा कहानियां संग्रह में कुल नौ कहानियां संग्रहित हैं । नवो कहानियां अलग -अलग रस लिए हुई हैं पर गर्भनाल सभी कहानियों की एक है। वह है भारतीय मध्यवर्गीय परिवार । अखिलेश की इन सभी कहानियों में परिवार पूरी तरह धड़कता है । परिवार की कोख से जन्मी इन कहानियों की गूंज मन में कहीं गहरे बस जाती है । इन कहानियों की बसावट में कई सारी संवेदनाएं एक साथ बसती जाती हैं अनायास । जो कभी फूल सी महकती हैं तो कांटे जैसी चुभती भी हैं ।
पुनरावृत्ति कहानी में अखिलेश इतनी सरलता से पीढ़ियों का दर्द और तेवर का तंबू तानते हैं कि पता ही नहीं चलता कि बेटा कब पिता में तब्दील हो गया । पारिवारिक ज़िम्मेदारियां आदमी को कैसे तो क्या से क्या बना देती हैं इस कहानी में यह बात इतनी बारीकी से उपस्थित होती है जैसे कोई नदी दूसरी नदी से चुपचाप मिल गई हो। संयुक्त परिवार की यातनाएं कैसे हर किसी की ज़िंदगी में उस को दीमक की तरह चाटती जाती हैं और आदमी इस यातना को निःशब्द भुगतता जाता है । इस बात की इबारत पुनरावृत्ति कहानी बड़ी तफ़सील से बांचती है । इस कहानी के दूसरे पैरे में ही अखिलेश ने लिखा है कि , ' दुनिया का हर सुख, हर दुःख जूठा है । यानी कि अनेक बार अनेक लोगों द्वारा भोगा जा चुका है ।' इस कहानी में बार-बार यह इबारत साबित होती जाती है ।
खरोंच कहानी भी जीवन के बहुत सारे सीवन खोलती-जोड़ती मिलती है । कि कैसे एक साथ पले बढ़े, एक दूसरे के लिए जीने-मरने वाले जिगरी दोस्त कैरियर बदलते ही वह दोस्ताना , वह संवेदना और वह भावना के तार बिलवा बैठते हैं । अचानक उन के सिद्धांतों और व्यवहार के बीच एक बड़ी नागफनी कब आ कर बैठ जाती है , पता ही नहीं चलता । बहुत सारे भ्रम अनायास ही टूटते जाते हैं । दो दोस्त हैं । एक साथ पले -बढे और पढ़े लेकिन बाद में एक दोस्त अध्यापक हो जाता है दूसरा आई ए एस । दोनों सिद्धांत में जीने वाले हैं, व्यवहार में भी । पर अध्यापक की प्राथमिकताएं तो नहीं बदलतीं पर आई ए एस की बदलती जाती हैं । बदलते-बदलते सिस्टम में समा जाती हैं । और वह 'व्यावहारिक ' बन जाता है । किसी ज़िले में वह कलेक्टर है और वह अध्यापक उसी ज़िले में किसी स्कूल में परीक्षक हो कर पहुंचता है । एक दिन का एक्स्ट्रा टाइम ले कर । कि दोस्त के साथ अपनी दोस्ती ताज़ा करेगा । वह बड़े गुमान से स्कूल के लोगों को बताता भी है कि डी एम मेरा दोस्त है। परीक्षा लेने के बाद वह बड़े ठाट से पहुंचता भी है डी एम के पास । लेकिन डी एम तो एक घाघ नेता के साथ बतियाने में व्यस्त है । उस की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं । अध्यापक दोस्त प्रतिवाद करता है तो वह कहता है , ' तो क्या चाहते हो तुम कि मैं अपनी सारी नौकरी सचिवालय में बैठे बाबूगिरी करते गुज़ार दूं ?' फिर बात सिस्टम , राजनीति नौकरशाही से लगायत जनता तक कहानी में होती है पर दोनों दोस्तों की प्राथमिकताओं का फर्क सामने आ ही जाता है , मोहभंग हो ही जाता है , खरोच लग ही जाती है । एक जगह हार कर वह आई ए एस दोस्त कहता भी है कि, ' आई ए एस का मतलब होता है आई एम सारी !'
बेटी की शादी , दहेज़ और प्रताड़ना से गुंथी कहानियां भी कई हैं इस संग्रह में । बताइए कि भला कोई पिता कभी चाहेगा कि उस की बेटी घर छोड़ कर किसी के साथ भाग जाए ?
अखिलेश की कहानी ईश्वर सब की सुनता है का महेश लाल एक ऐसा ही किरदार है जो चाहता है कि उस की बेटी किसी के साथ भाग जाए ! इस लिए कि वह शादी में दहेज़ देने की हैसियत में नहीं है । वह अकसर प्रकारांतर से अपने बेटियों को इस के लिए उकसाता भी रहता है । अख़बार के वह पन्ने जिस में लड़कियों के भाग जाने की खबरें छपी होती हैं , बेटियों को पढ़ाने के लिए घर में जहां - तहां रख देता है । एक विवरण देखें , ' वह चाहते हैं कि उन की बेटियां प्रेमी के साथ लड़की के भागने वाली या प्रेम-विवाह रचने वाली खबर को ज़रूर पढ़ें । वह सोचते हैं कि शायद ऐसी खबरें उन की बेटियों के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकें ।'
महेश लाल इतने परेशान हैं कि पूछिए मत। वे सोचने लगते हैं , 'कितने भाग्यशाली हैं वे मां -बाप जिन की बेटियां ऐसा साहसिक कदम उठा लेती हैं । और कितनी समझदार हैं वे बेटियां जो अपने बाप की हिमालय सी बड़ी समस्या को चुटकी बजाते हल कर जाती हैं । काश उन की गऊ सरीखी सीधी-सादी बेटी अनीता को भी ईश्वर इतनी समझदारी और हिम्मत दे देता कि वह अपने निकम्मे बाप के भरोसे बैठी रह कर अपनी ज़िंदगी खराब करने के बजाय अपना प्रबंध खुद कर लेती । ' महेश लाल की चिंता, चिता बनती जाती है । पत्नी से उन की नोक झोक भी बढ़ती जाती है । अखिलेश लिखते हैं , ' बेटियों की शादी एक गंभीर समस्या बनी हुई थी और इस समस्या के लिए पत्नी महेश लाल को दोषी ठहरती तो महेश लाल अपनी पत्नी को । दरअसल अपनी बेटियों की निष्क्रियता , कायरता और सीधाई के लिए महेश लाल अपनी पत्नी को ही ज़िम्मेदार मानते थे । उन का मानना था कि पत्नी ने दोनों बेटियों को बचपन से ही इतने कड़े अनुशासन में रखा था और उन्हें शुचिता , शालीनता, मान-मर्यादा एवं ऊंच - नीच का इतना तगड़ा पाठ पढ़ाया था कि वे बेचारी बिलकुल ही डरपोक और बोदा हो गई थीं । '
पर यह देखिए कि महेश लाल एक शाम घर लौटते हैं तो उन के घर के सामने भारी भीड़ लगी है । पता चलता है कि उन की एक बेटी भाग गई है । पत्नी खोजने निकल गई हैं । पर महेश लाल यह खबर सुन कर खुश हो जाते हैं ।
बेटी की शादी और दहेज़ को ले कर महेश लाल के मार्फ़त अखिलेश ने समाज और परिवार की वह दुखती नस छुई है जो घर-घर की मुश्किल बनी हुई है । दहेज़ और शादी खोजने की इतनी सारी इबारतें अखिलेश ने इस कहानी में परोसी हैं कि उन का थाह पाना मुश्किल है । हद से आगे कहानी में भी अखिलेश दहेज यातना के ही तार छूते मिलते हैं । एक मोटर साइकिल को ले कर उमा पर उस के ससुरालीजन उसे किन-किन यातनाओं से नहीं गुज़ारते ! थाना-पुलिस तो शादी के दिन ही हो जाता है । पर ससुराल में जो उमा पर यातना का दौर चलता है तो यह मामला कचहरी तक पहुंच जाता है । कचहरी का दृश्य देखें , ' उस ने अपना आंचल समेटा और पीठ का नंगा हिस्सा वकील की तरफ कर के फूट पड़ी --' मैं नहीं बोलूंगी वकील साहब ये निशान बताएंगे सारी कहानी। मैं कसाइयों के बीच अब तक कैसे ज़िंदा रह गई यही आश्चर्य की बात है ।' उमा की पीठ पर काले, नीले निशान देख कर सारे लोग सन्न रह गए । फिर तो अचानक जैसे कोई जीन सवार हो गया हो उस के सर पर । गुस्से में विफरी उमा सारा शील-संकोच छोड़ अपने साथ हुई ज़्यादती की कहानी सिलसिलेवार सुनाने लगी ।' हद से आगे कहानी में मध्यवर्गीय जीवन के और भी कई गरमी - बरसात अपनी पूरी त्वरा में उपस्थित हैं।
बिहारी मास्टर में भी पारिवारिक जीवन के तमाम सारे छेद अपनी पूरी ताकत से उपस्थित हैं । जीवन कैसे बदल रहा है , नई पीढ़ी अपने स्वार्थ में अंधी हो कर कैसे तो अपनी मां को भी नौकरानी बना लेती है यह और ऐसे तमाम व्यौरे बिहारी मास्टर कहानी में यत्र-तत्र उपस्थित हैं । और बिहारी मास्टर ही क्यों अखिलेश श्रीवास्तव चमन की लगभग सभी कहानियों में ही यह पारिवारिक आख्यान और उस का संत्रास , उस का पतन , उस का दुःख अपने पूरे ताप में उपस्थित है । खौलता और बदकता हुआ ।
कैंसर कहानी में प्रेम भी है और धर्मिक छुआछूत का तार और संत्रास भी । रजिया और अमोल के मार्फ़त अखिलेश बहुत बारीकी और बहुत सावधानी से जीवन के एक अहम पक्ष से रूबरू करवाते हैं । कहानी बिना किसी नारेबाजी या शोशेबाजी के यह बता देती है कि धर्म और जाति भारतीय समाज के अनिवार्य सत्य हैं । खुलती राहें , मन के हारे हार और औकात जैसी कहानियों की आंच भी पाठक को बहुत जलाती है ।
अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' के कथा संसार की जो बड़ी खूबी है वह यह कि वह किसी कथ्य या किसी बात को आक्रामक हो कर कहने के बजाय बहुत शांत और संयमित ढंग से करते हैं पर सिस्टम और समाज पर प्रहार बहुत मारक और निर्णायक ढंग से करते हैं। बिना लाऊड हुए । उन का जोर शिल्प और कथ्य , कला और उपमान आदि के नकली टोटकों और लटकों-झटकों के बजाय सीधी सच्ची कहानी पर ही होता है । वह अपनी कहानियों में चौंकाते नहीं बल्कि एक चीख भरते मिलते हैं , कातर चीख ! जो लहू-लुहान होती है और लहू-लुहान करती ही चलती है। सिस्टम और समाज के चीथड़े उड़ाती हुई । ऊबड़-खाबड़ पथरीले पथ वाली इन कहानियों की गूंज और इन का प्रभाव मन से गुज़रता भर नहीं है, बल्कि मन में कहीं गहरे बस जाता है , डेरा जमा कर बैठ जाता है और फिर उठता नहीं ।
समीक्ष्य पुस्तक :
अखिलेश श्रीवास्तव ' चमन ' की चुनिंदा कहानियां
प्रकाशक - साहित्य भंडार
50 , चाहचंद , इलाहबाद - 211003
मूल्य पेपर बैंक - 50 रुपए
पृष्ठ - 132
संस्करण : 2014