Friday, 29 September 2017

जिनके भाग्य में नखलिस्तान नहीं


जितेन ठाकुर

इस बार दयानंद पांडेय के लेखन पर बात करने का मन हो रहा है। संयोगवश मैं ने उन के दो उपन्यास पढे- 'हारमोनियम के हज़ार टुकडे' और 'वे जो हारे हुए' । ज़िंदगी की सच्चाई को छूने वाला, एक कालखंड का यह इतिहास बहुत ताकत के साथ कलात्मक लेखन का दंभ भरने वालों को अंगूठा दिखाता है। आलोचकों और समीक्षकों को मुंह चिढाता यह लेखन साबित करता है कि अपने समय के समाज के साथ खडा होना ज़्यादा ज़रुरी है बनिस्पत 'साहित्य-साहित्य' की जुगाली करने के। शायद इसी लिए दयानंद पांडेय के पास केवल आज की भयावह दुनिया ही नहीं है बल्कि उस भयावहता को तोडने और काटने के लिए सोच की पैनी कलम भी है।

कमलेश्वर ने एक जगह लिखा है,- ' इधर की कहानियों में परंपरापूरक यथार्थवादी विवरणों की विपुलता है और भाषा भी एक तरह के बनावटी देशज लहज़े का शिकार हो गई है......,, जिस ने कहानी को पान की दुकान में बदल दिया है, जहां पत्ता, सुपारी, चूना, तंबाकू, सौंफ, मुलैठी, गुलकंद सब कुछ मौजूद है और तांबूल कला में सिद्धहस्त कलाकार अपने हर ग्राहक, संपादक, और आलोचक के लिए ' हमारा पान लगाना भाई ' की तर्ज़ पर गिलौरियां तैयार कर रहा है.........अपने मुंह में गलगला कर संपादक और आलोचक साहित्य को पीकदान समझ कर उस में थूक रहा है और अपने-अपने पनवाडी की तारीफ़ कर रहा है। '

अब भला ऐसी स्थितियों में कोई दयानंद पांडेय की बात क्यों करेगा? क्यों कि वह तो चपत के लिए हथेली ताने खडे हैं जो गलत होगा चपत खाएगा। अपना पराया क्या? सच कहना है तो दुश्मनी के लिए भी तैयार रहिए। पर एक बात दावे से कही जा सकती है कि दयानंद पांडेय ने अपनी कलम की स्याही आज के उन तमाम प्रश्नों पर खर्च की है कि जो कुछ भी पांडेय जी ने लिखा वह एक खबर बन सकती थी पर लेखक बहुत सफाई से उसे खबर बनाने से बचा गया और वह कहानी बन गई।

' हारमोनियम के हज़ार टुकडे ' पत्रकारिता जगत की कुरुपता को दर्शाने वाली कृति है तो ' वे जो हारे हुए ' सुबह बिस्तर छोडने से ले कर शाम को बिस्तर तक पहुंचने की कशमकश के बीच दांत किटकिटाती ज़िंदगी से एक साक्षात्कार है। इन भयावह जबडों से अगर आप निकल पाए तो गनीमत वरना अलविदा। कोई आप के लिए रुकने वाला नहीं। लाखों अनकही कहानियों की तरह दफ़न हो कर आप भी खो जाएंगे। बहुत हुआ तो एक खबर बन कर छप जाएंगे बस ! लोक को विस्मृति का रोग है और तंत्र को शक्ति का। दोनों एक दूसरे को इसी आधार पर स्वीका कर बने हुए हैं। फिर दयानंद पांडेय परेशान क्यों हैं? क्यों शोषण उन्हें परेशान करता है, क्यों समाज की विसंगतियों और विषमताओं को वह औरों की तरह स्वीकार नहीं लेते, क्यों विद्रुपताओं से विचलित हो कर कलम उठा लेते हैं?

मैं पांडेय जी को इस लिए बधाई देना चाहता हूं कि उन्होंने सच को सच की तरह लिखने का साहस दिखलाया। उन्होंने - वह नहीं लिखा जो हिंदी साहित्य के कद्दावर, झंडाबरदार संपादक और आलोचक चाहते हैं। उन्होंने वह भी नहीं लिखा जो लेखक होने के लिए विचित्रताओं से भरा होता है, उन्होंने तो केवल वह लिखा जिसे हम रोज भोगते हैं, पर परिभाषित नहीं कर पाते। सवा अरब कायर मनों के एक हिस्से को दयानंद पांडेय पढ पाए यही क्या कम है?

पांडेय जी के बहाने मैं उन सब कलमकारों को प्रणाम करता हूं जो सच को बिना मुलम्मा चढाए लिखने का साहस रखते हैं और साहित्य में दंभ के मारे आलोचकों से सदा उपेक्षित रह जाते हैं। टुकडों में सच बहुत बार पढने को मिला, कई बार खुद भी लिखा और इतराया, पर समग्र रुप से किसी स्थान विशेष के कालखंड का सच उदघाटित करने की जिस प्रक्रिया से दयानंद पांडेय गुज़रते हैं - वह विरल ही है। पाओलो कोहेलो की 'अल्केमिस्ट ' की तरह यहां कोई ' विश्वात्मा ' नहीं है जो अपने तादात्म्य स्थापित करने वाले को विपत्तियों से सुरक्षित बचा ले। यहां तो बस अंतहीन रेगिस्तान है और कंटीली झाडियां हैं। यह पुस्तक ज़िंदगी से जूझते हुए जिस बेचारे वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है उसके भाग्य में नखलिस्तान नहीं हुआ करते।

'हंस' के पुनर्प्रकाशन के पच्चीस वर्ष पूरे हुए। 'हंस' का प्रकाशन उस समय दोबारा आरंभ हुआ था जब 'सारिका' , 'दिनमान' , 'धर्मयुग' और 'हिंदुस्तान' नेपथ्य में जा चुके थे या फिर जाने की प्रक्रिया में थे। पाठक तक पहुंचने की ललक रखने वाले रचनाकार बेचैन थे। नए रचनाकारों के लिए कोई ऐसा मंच नज़र नहीं आता था जो उन्हें राजनीतिक झंडाबरदार पत्रिकाओं से इतर, अपनी सोच को खुले रुप में प्रकट करने की स्वतंत्रता दे। 'हंस' ने इस खला को भरा। भयानक मतभेदों और आरोप-प्रत्यारोप के लंबे दौर में भी उस समय साहित्य और साहित्यकार आदि केंद्र में रहे तो 'हंस' के योगदान के ही कारण।

ललित कार्तिकेय, रेखा, संजीव, गीतांजलि श्री, अवधेश प्रीत, रतन वर्मा, रघुनंदन त्रिवेदी, विजय प्रताप, सृंजय, आनंद हर्षुल, प्रेमकुमार मणि, जयनंदन, देवेंद्र, प्रियंवद, अमरीक सिंह दीप, शैलेंद्र सागर और भी ऐसे बहुत से नाम हैं जो मुझे तुरंत स्मरण नहीं आ रहे हैं, इन सब की बेहतरीन कहानियों ने साहित्य जगत को अभिभूत कर दिया और इस सब का माधयम बना 'हंस'। कई विस्मृत रचनाकारों का पुनर्पाठ भी 'हंस' के ही माध्यम से हुआ। केवल और केवल 'राजेंद्र यादव' से विरोध और मतभेदों के चलते इस सत्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। रचनाकारों की तीन पीढियों को 'हंस' ने संभाला, सजाया और संवारा। 'पच्चीसी' पर बधाई, 'पचासे' के जलसे में सम्मिलित होने की कामना के साथ एक नई शुरुआत होगी-हमें यह आशा करनी चाहिए।

[दिल्ली से प्रकाशित शब्दयोग में नियमित कालम से साभार]

जितेन ठाकुर
4, ओल्ड सर्वे रोड, देहरादून
मोबाइल 09410925219

Monday, 25 September 2017

जैसे संघर्ष के लिए ही पैदा हुए थे संजय त्रिपाठी

दयानंद पांडेय  


होते हैं कुछ लोग जो सिर्फ़ संघर्ष के लिए ही पैदा होते हैं । हमारे छोटे भाई और फ़ोटोग्राफ़र मित्र संजय त्रिपाठी ऐसे ही लोगों में शुमार रहे हैं । आज जब संजय त्रिपाठी के विदा हो जाने की ख़बर सुनी तो दिल धक से रह गया। फ़रवरी , 1985 से हमारा उन का साथ था । 32 साल पुराना साथ आज सहसा टूट गया । लखनऊ में वह पहले मेरे ऐसे दोस्त बने जिन से आत्मीयता बनी । दुःख सुख का साथ बना । बिना किसी टकराव और अलगाव के कायम रहा । बिना कुछ कहे-सुने भी हम एक दूसरे को समझ लेते थे । साथ खबरें करते थे , घूमते थे , सिनेमा देखते थे । खुद्दारी रास आई सो दलाली , फोर्जरी , चापलूसी , चमचई न मुझे कभी भाई न संजय को । जब कि पत्रकारिता में यह आम बात हो चली है । बिना इस के अब गुज़ारा नहीं है । जो जितना बड़ा दलाल , उतना बड़ा पत्रकार । हम यह नहीं कर सके सो हम ने तो इस की भारी क़ीमत चुकाई है , चुका रहा हूं । कहां होना था और आज कहीं का नहीं रह गया हूं । एक से एक कौवे दलाली , चापलूसी कर के भाग्य विधाता बन गए और हम इन कौवों की बीट देखते-देखते खत्म हो गए । संजय त्रिपाठी भी इस मामले मेरे हमराही थे । वह इस बेरंग जिंदगी को विदा कह गए , मैं जाने क्यों शेष रह गया हूं । वह कोई तीन साल मुझ से छोटे थे । जब मेरे घर आते तो मेरे पैर छूते मेरे बड़े होने के नाते । बाद में मैं ने बहुत मना किया कि हम दोस्त हैं तो वह किसी तरह माने ।

जनसत्ता , दिल्ली से स्वतंत्र भारत , लखनऊ में जब मैं रिपोर्टर हो कर आया था तब संजय वहां पहले ही से फ़ोटोग्राफ़र थे । हम भी तब मुटाए नहीं थे लेकिन संजय त्रिपाठी ख़ूब दुबले-पतले थे । सींक सलाई जैसे । उन के चेहरे पर मासूमियत कुलांचे मारती थी , उत्साह जैसे हिलोरें मारता था । संकोच की चादर जैसे उन के पूरी देह पर लिपटी रहती थी । खुद्दारी की खनक उन के हर भाव से मिलती रहती थी । वह साईकिल से चलते थे । गले में कैमरा लटकाए , कैमरा संभालते , साईकिल चलाते उन को देखना मुश्किल में डालता था । लेकिन वह मुश्किल में नहीं रहते थे । पान कूंचते हुए वह अपनी सारी मुश्किलें जैसे साईकिल के टायर से कुचलते चलते थे । स्वतंत्र भारत था तो उस समय लखनऊ का सब से बड़ा अखबार , सवा लाख रोज छपता था लेकिन संजय त्रिपाठी का शोषण तब यह अख़बार बहुत करता था । उस समय सब को पालेकर अवार्ड के हिसाब से तनख्वाह मिलती थी , ठीक ठाक मिलती थी लेकिन संजय त्रिपाठी को प्रति फ़ोटो पांच रुपए मिलते थे । वह भी प्रकाशित फ़ोटो पर । वह फ़ोटो चाहे जितनी खींचें पर पैसे छपी फ़ोटो पर ही मिलती थी । और कई बार फ़ोटो सेलेक्ट हो कर भी नहीं छपती थी । कभी अचानक विज्ञापन आ जाने के कारण जगह की कमी के चलते । तो कभी किसी फ्रस्ट्रेटेड डेस्क के साथी की मनबढ़ई और सनक के चलते । खैर जैसे-तैसे संजय त्रिपाठी फोटोग्राफरी क्या चाकरी करते रहे थे । इस उम्मीद में कि कभी तो नौकरी पक्की होगी और कि उन्हें भी पालेकर अवार्ड वाली तनख्वाह मिलेगी । वह भी सम्मानजनक जीवन जिएंगे । लेकिन उन दिनों स्वतंत्र भारत में एक विशेष प्रतिनिधि थे शिव सिंह सरोज । निहायत ही मूर्ख , दुष्ट और धूर्त प्रवृत्ति के थे लेकिन चूंकि दलाल टाईप के पत्रकार थे सो उन की अख़बार और अख़बार से बाहर भी ख़ूब चलती थी । संजय को वह भरपूर परेशान और अपमानित करते । नित नए ढंग से । उन को चढ़ाई करने के लिए अपना फ्रस्ट्रेशन निकालने के लिए रोज कोई शिकार चाहिए होता था । संजय त्रिपाठी से कमज़ोर शिकार कोई और नहीं मिलता था । 

संजय त्रिपाठी और शिव सिंह सरोज जब कि एक ही क्षेत्र के रहने वाले थे । बाराबंकी के हैदरगढ़ के । बल्कि संजय त्रिपाठी के पिता श्री रामकिशोर त्रिपाठी साठ के दशक में हैदरगढ़ से विधायक रहे थे । लेकिन वह गांधीवादी थे सो पैसा नहीं बनाया , बेईमानी नहीं की । वह  पराग दुग्ध संघ के अध्यक्ष थे । चाहते तो संजय को कहीं अच्छी नौकरी दे सकते थे , किसी जगह सिफ़ारिश कर सकते थे । संजय ने ऐसा कई बार चाहा भी लेकिन पिता ने सख्ती से हर बार इंकार किया । संजय मन मसोस कर रह जाते थे । संजय के पिता जी एक समय भूदान आंदोलन में सक्रिय रहे थे । उत्तर प्रदेश में तमाम भूमिहीनों को भूमि के पट्टे दिए । लेकिन अपने किसी परिजन को एक इंच भूमि नहीं दी । अपने बच्चों को तो खैर क्या देते । आवश्यक वस्तु निगम के भी एक समय प्रशासक रहे । लेकिन उस भ्रष्ट विभाग में भी एक पैसा भी संजय के पिता ने न तो छुआ , न किसी को छूने दिया । ऐसे ईमानदार पिता के पुत्र संजय त्रिपाठी पांच रुपए प्रति फ़ोटो पर गुज़ारा कर रहे थे । रोज जीते थे , रोज मरते थे । किसी-किसी दिन एक भी फ़ोटो नहीं छपती । वह उदास हो जाते । शिव सिंह सरोज को बर्दाश्त करना उन के लिए दिन पर दिन भारी होता जा रहा था । नौकरों को भी कोई क्या डांटेगा जिस तरह शिव सिंह सरोज उन्हें डांटते , जलील करते । पर संजय करते भी तो क्या करते । उन के पास कोई विकल्प नहीं था । मैं देख रहा था , संजय दब्बू बनते जा रहे थे ।  उन की मासूमियत उन से मिस हो रही थी । खैर थोड़े दिन में वह संपादक वीरेंद्र सिंह की कृपा से दैनिक वेतन भोगी फ़ोटोग्राफ़र बन गए । अब थोड़ा ही सही , कम से कम एक निश्चित पैसा प्रति माह उन्हें मिलने लगा था । दबे-दबे से रहने वाले संजय अब फिर से हंसने लगे थे । उभरने लगे । संजय त्रिपाठी की खिंची फ़ोटो में भी निखार आने लगा । 

वह जो कहते हैं बाईलाईन , वह भी कभी-कभार संजय त्रिपाठी को फ़ोटो पर मिलने लगी । लेकिन कनवेंस अलाऊंस उन्हें नहीं मिलता था । जो उन दिनों डेढ़ सौ रुपए होता था । क्या तो उन के पास अपना कनवेंस नहीं था । हालां कि वह बहुत गुरुर के साथ कहते कि , ' है तो साईकिल मेरे पास ! ' लोग हंस पड़ते । बहुत लड़े वह इस के लिए । कुछ संघर्ष के बाद उन्हें कनवेंस अलाऊंस भी मिलने लगा । और यह देखिए कि शिव सिंह सरोज के तमाम विरोध के बावजूद संपादक वीरेंद्र सिंह ने संजय त्रिपाठी को स्टाफ़ फ़ोटोग्राफ़र का नियुक्ति पत्र थमा दिया । अब संजय ने लोन ले कर एक मोपेड भी ख़रीद लिया । जिसे उन के साथी फ़ोटोग्राफ़र संजय की बकरी कहते । अभी तक शिव सिंह सरोज के अपमान सहते आ रहे संजय अब थोड़ा दब कर ही सही उन से प्रतिवाद करने लगे थे । लेकिन स्वतंत्र भारत में एक क्राईम रिपोर्टर थे आर डी शुक्ल जो वीरेंद्र सिंह के बड़े मुंहलगे थे , वह भी सताने लगे । लेकिन संजय मेरे साथ बहुत कंफर्ट फील करते । बहुत से एसाइनमेंट हमारे साथ किए संजय ने । जब साईकिल से चलते थे तब वह हमारे साथ जब चलते तो अपनी साईकिल आफिस में छोड़ कर मेरी स्कूटर पर आ जाते । पीछे बैठे-बैठे ही वह फ़ोटो खींच लेते । ऐसी बहुत सी घटनाएं और यादें हैं । लेकिन कुछ दृश्य भुलाए नहीं भूलते । जैसे एक बार एक प्रदर्शन के समय विधान सभा के सामने लाठी चार्ज हो गया था । संजय बोले , थोड़ा रिश्क लीजिए तो हम बढ़िया फ़ोटो बना लें । हामी भरते ही वह रायल होटल की तरफ से हमारे स्कूटर पर पीछे की सीट पर पीछे मुंह कर के बैठे । बोले , बस खरामा-खरामा चलते चलिए । चौराहे पर आते ही पुलिस ने रोका लेकिन हम झांसा दे कर प्रेस-प्रेस कहते निकल लिए । बीच लाठी चार्ज में हमारी स्कूटर निकली । और संजय का कैमरा चमकने लगा । अचानक ठीक विधान सभा के सामने के आते ही पुलिस की चपेट में हम आ गए । संजय घबराए और बोले , फुल स्पीड में भाग लीजिए , नहीं पिट जाएंगे । हम कितना भागते । पुलिस की एक लाठी संजय के कैमरे पर आती-आती कि संजय ने कैमरे पर झुक कर अपना सिर लगा दिया । कैमरा बच गया , संजय का सिर फूट गया । चोट गहरी नहीं थी पर थी ।  स्कूटर सरपट भगा कर सिविल हास्पिटल आया । संजय को पट्टी वगैरह करवाई । लेकिन संजय को सिर पर चोट की परवाह नहीं थी । ख़ुश थे वह कि कैमरा बच गया और फ़ोटो अच्छी मिल गई थी । इस के पहले एक बार किसी प्रदर्शन में संजय का कैमरा टूट गया था । पांच हज़ार का उन का नुकसान हुआ था तब के दिनों । दफ़्तर से कोई सहयोग नहीं मिला था । वीरेंद्र सिंह ने बाद में मुझे डांटा । कहा कि , वह तो फ़ोटोग्राफ़र है , बैल है , बुद्धि नहीं है पर आप तो रिपोर्टर हैं , तिस पर लेखक भी , अकल से काम लेना था ।  कहीं जान पर बन आती तो ? एक लाठी चार्ज में एक नेता अक्षयवर मल की ऐसे ही किसी पुलिस लाठी चार्ज में सिर में चोट लगने से उन्हीं दिनों मौत हो चुकी थी । लेकिन दूसरे दिन संजय हीरो थे । अख़बार में आठ कालम की संजय की खींची फ़ोटो संजय की बाईलाईन के साथ छपी थी । ऐसी फ़ोटो किसी और अख़बार के पास नहीं थी । सभी अख़बार पिट गए थे ।

एक बार लखनऊ महोत्सव के कवि सम्मेलन में शिव सिंह सरोज ने अपना सम्मान आयोजित करवाया । सम्मान समारोह की गरिमा बनाने के लिए अमृतलाल नागर सहित कुछ और लोगों को भी सम्मान सूची में रखवा लिया । तब के मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी को सम्मानित करना था । ठाकुर प्रसाद सिंह कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे । वह सम्मान के समय शिव सिंह सरोज का नाम भूल गए और कवि सम्मेलन शुरू कर दिया । शिव सिंह सरोज संजय को ख़ास ताकीद कर के ले गए थे समारोह में कि मेरे सम्मान की बढ़िया फ़ोटो खींचना । पर जब सम्मान समारोह खत्म हो गया , शिव सिंह सरोज का नाम नहीं पुकारा गया तो कवि सम्मेलन शुरू होते ही संजय पेशाब करने पंडाल से बाहर चले गए । लेकिन एक कवि के कविता पाठ के बाद सरोज ने संचालक को याद दिलाया कि उन के सम्मान का क्या हुआ ? तो उन्हों ने कवि सम्मेलन रोक कर शिव सिंह सरोज का सम्मान भी करवा दिया । फिर जल्दी ही शिव सिंह सरोज को कविता पाठ के लिए भी बुला लिया । शिव सिंह सरोज का डबल अपमान हो गया । एक तो क्रम से सम्मान नहीं हुआ दूसरे उन की वरिष्ठता का ख्याल नहीं रखते हुए नए कवियों के साथ पहले ही कविता पाठ करने के लिए बुला लिए गए । गुस्से में आग बबूला वह कविता पाठ करने आए । आग्नेय नेत्रों से ठाकुर प्रसाद सिंह को देखते हुए उन्हों ने बेलीगारद शीर्षक लंबी कविता पढ़नी शुरु की और हूट होने लगे । इतना कि वीर रस की यह कविता करुण रस में तब्दील हो गई । लेकिन लाख हूटिंग के शिव सिंह सरोज ने पूरी कविता पढ़ी । सम्मान में मिली कंधे से गिर गई शाल पीछे मुड़ कर उठाई , कंधे पर रखी और अपनी जगह ऐसे आ कर बैठे सीना तान कर कि हल्दीघाटी जीत कर लौटे हों । लेकिन असली हल्दीघाटी तो दूसरे दिन की रिपोर्टिंग मीटिंग में शेष थी । उन्हों ने संजय से अपने सम्मान समारोह की फ़ोटो मांगी । तो संजय बिदक कर पूछ बैठे कि , ' आप का सम्मान हुआ भी था ? ' और उन्हों ने जैसे जोड़ा , ' हां आप के बेलीगारद कविता पाठ की फ़ोटो ज़रूर खींची है ! ; कह कर उन के काव्य पाठ की फ़ोटो सामने रख दी । शिव सिंह सरोज ऐसे फटे गोया आसमान फट गया हो । फ़ोटो फेकते हुए बोले , ' बेलीगारद ! भाग जाओ यहां से । ' मुख्य मंत्री ने हम को सम्मानित किया , पूरी दुनिया ने देखा और ई बेलीगारद देखि रहे थे ! ' संजय उठ कर मीटिंग से बाहर चले गए । फिर घर चले गए । शिव सिंह सरोज ने संजय को बर्खास्त करने के लिए लिख दिया । वीरेंद्र सिंह ने टालते हुए कहा , यह बर्खास्तगी का विषय नहीं है । लेकिन संजय की तबीयत ख़राब हो गई । डिप्रेसन में चले गए । हफ़्ते भर बाद लौटे । संजय की जिंदगी फिर रफ़्तार पर आ गई । लेकिन अकसर बुदबुदाते हुए कहते यह बुड्ढा मेरी नौकरी खा जाएगा किसी दिन । शिव सिंह सरोज के इस बेलीगारद प्रसंग का सविस्तार वर्णन मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में किया है । हुआ यह भी कि मैं संजय को जब-तब बेलीगारद कह कर भी बुलाने लगा । वह कभी मुस्कुरा पड़ता तो कभी ताव खा जाता । 

उन दिनों मैं दारुलशफा में रहता था तो मेरे घर अकसर आते संजय । दफ़्तर का दुखड़ा रोते । घर में भी कम दिक्कत नहीं थी । एक दिन वह बहुत ख़ुश होते हुए बोले , मालूम है पांडेय जी , इस दारुलशफा में मैं भी रहा हूं काफी समय । बचपन गुज़रा है मेरा यहां । पूछा कैसे ? तो हलके से मुस्कुराते हुए बताया कि पिता जी एम एल थे न ! फिर चुप हो गए । 

पिता ईमानदारी का बरगद थे पर एक सौतेली माता भी थीं । उन का सौतेलापन भी कम नहीं था । संजय भीतर-बाहर दोनों तरफ टूट रहे थे । संयोग देखिए कि वीरेंद्र सिंह ने स्वतंत्र भारत से इस्तीफ़ा दे दिया तो शिव सिंह सरोज कार्यकारी संपादक बना दिए गए। कुछ दिनों के लिए ही सही । सरोज से मेरी भी नहीं निभती थी । संजय की तो खैर क्या कहूं । वह सरोज को का वा स बोलता । खैर सरोज के बाद पत्रकारिता में एक और दलाली के चैंपियन राजनाथ सिंह सूर्य संपादक की कुर्सी पर शोभायमान हो गए । मेरे लिए और मुश्किल हो गई । स्वतंत्र भारत से छुट्टी हुई और नवभारत टाइम्स आ गया । जल्दी ही राष्ट्रीय सहारा शुरू हुआ तो संजय त्रिपाठी भी स्वतंत्र भारत छोड़ राष्ट्रीय सहारा आ गए । अब हम उन को संजय के बजाय मज़ा लेते हुए कहते , का हो  , बेलीगारद !  राष्ट्रीय सहारा में आ कर संजय की जिंदगी जैसे पटरी पर आ गई । अब वह ख़ुश और मस्त दिखने लगे । लेकिन जल्दी ही वह फिर पटरी से उतर गए । रणविजय सिंह नाम का एक मूर्ख संपादक बन गया । जो पत्रकारिता का क ख ग भी नहीं जानता था । यह रणविजय सिंह शिव सिंह सरोज से भी ज़्यादा मूर्ख और धूर्त निकला । संजय से भी जूनियर था , मुझ से भी । वह संजय जैसे खुद्दार आदमी को निरंतर अपमानित करने लगा । संजय गालियां देते हुए कहता कि यार यह साला किस्मत का पट्टा लिखवा कर लाया है । अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान । फिर जैसे टूटते हुए कहता हम जैसों की किस्मत भगवान ने गधे के लिंग से लिखी है । रणविजय को पेट भर गरियाता और कहता साले को कुछ आता-जाता नहीं लेकिन दिन-ब-दिन मज़बूत हुआ जाता है पैर छू-छू कर । तंत्र-मंत्र कर के । बाद के दिनों में हम भी राष्ट्रीय सहारा पहुंचे । संजय और हम फिर साथ हो गए । 

रणविजय सिंह जैसे साक्षर , दलाल और धूर्त से मेरी भी कभी नहीं निभी । अजब अहमक था यह आदमी । बीच मैच में फ़ोटोग्राफ़र से मैन आफ़ द मैच की फ़ोटो मांगता । फ़ोटोग्राफ़र कहता कि अरे मैच खत्म होगा तब तो मैन आफ़ द मैच होगा। वह कहता टेक्निकल्टी मत समझाओ मुझे । मुझे तो बस फ़ोटो चाहिए । एक से एक मूर्खताएं करता रहता वह । समझ से पूरी तरह पैदल । निर्मल वर्मा का निधन हुआ तो तब के दिनों दिल्ली में फ़ीचर देख रहे मित्र से मैं ने फ़ोन कर कहा कि निर्मल जी पर एक विशेष पेज निकलना चाहिए । मेरे पास उन के एक इंटरव्यू सहित कुछ सामग्री है , कहिए तो भेज दूं । वह बोले , पहले संपादक से बात कर लूं फिर बताता हूं ।थोड़ी देर में उन का फ़ोन आया । कहने लगे कुछ मत भेजिए । मैं ने कारण पूछा तो वह बताने लगे कि संपादक ने पूछा कि क्या बहुत बड़ा कलाकार था ? मैं ने कहा , नहीं लेखक थे । तो मुंह बिचका कर कहने लगा फिर रहने दीजिए । ऐसी मूर्खताओं के उस के अनेक किस्स्से हैं । लेकिन संजय सही कहता था , अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान । रणविजय तो समूह संपादक हो गया । और यह देखिए कि औरतबाजी , दलाली  करते-करते , ट्रांसफर , पोस्टिंग करते-करवाते सांसद निधि बरसने लगी उस पर , विधायक निधि बरसने लगी उस पर । लाखों , करोड़ों में । वह मैनेजमेंट कालेज खोल बैठा  , इंजीनियरिंग कालेज भी । बारात घर भी । कई-कई घर और फार्म हाऊस । इधर संजय नींद की दवा खाने लगा । डिप्रेसन में जाने लगा । बच्चे बड़े हो रहे थे जिम्मेदारियां बढ़ रही थीं । तनाव उस से ज़्यादा । शराब तनाव से भी ज़्यादा । लाठियां खा कर भी फ़ोटो खींचने वाला संजय , कैमरे बचाने में सिर फोड़वा लेने वाला संजय अब एसाइनमेंट से भागने लगा । कभी मासूम सा दिखने वाला संजय अब अड़ने , लड़ने और झगड़ने वाला हो चला था । शिव सिंह सरोज से बड़ा सिरदर्द रणविजय सिंह हो गया संजय के लिए । लेकिन वह जैसे तैसे निभाता रहा । फ़ोटो खींचने में फ़ोटोग्राफ़र अकसर पिटते रहते हैं । कभी पुलिस पीटती है तो कभी गुंडे , कभी भ्रष्ट अफ़सर । संजय राष्ट्रीय सहारा की नौकरी में भी कई बार पिटा । लेकिन वापस दफ़्तर आ कर भी जलील हुआ तो टूट-टूट गया । परिवार बिखरने लगा । अब यह देखिए कि एक दिन पता चला कि संजय ने आत्महत्या की कोशिश की । ढेर सारी नींद की दवा खा ली थी । परिवारीजनों ने अस्पताल ले जा कर किसी तरह बचा लिया । जल्दी ही संजय ने दूसरी बार आत्म हत्या की कोशिश की । फिर घर वालों ने बचा लिया । पहली बार मैं ने समझाया था , सांत्वना दी थी । दूसरी बार डांटा । कि यह बार-बार की क्या बेवकूफी है । वह लिपट कर रोने लगा । कहने लगा आप बड़े भाई हैं , आप को डांटने का हक़ है ! पर मेरी लाचारी समझिए । बच्चों का वास्ता दिया , बेटी का वास्ता दिया । पर एक बहादुर आदमी हर बात पर रोता रहा । अंततः उस ने वायदा किया कि अब यह गलती नहीं करेगा। लेकिन उस की जिंदगी पटरी से उतर गई थी। डिप्रेशन उस का बड़ा भाई बन गया था । अब वह जिस तिस से लड़ पड़ता । इसी बीच वह मुनव्वर राना से उस की मुलाकात हो गई । अब वह उन की शायरी का मुरीद हो गया । बात-बात में वह मुनव्वर राना के शेर कोट करता रहता । अब वह गजलों का शौक़ीन हो चला था । अकसर रात को फ़ोन करता । कहता सो न रहे हों तो बड़े भाई कुछ शेर सुनाऊं । फिर एक से एक शेर सुनाता । कई बार वह यह काम सुबह-सुबह भी करता । फ़ोन करता और कहता , अरे , कब तक सोते रहेंगे , शेर सुनिए । अब वह जब घर आता तो ग़ज़लों की कोई सी डी लिए । कभी पेन ड्राइव लिए हुए कहता इसे सुनिए 

अब यह संजय ,  शराब और शेरो शायरी का दौर था । कह सकते हैं उस के डिप्रेसन की इंतिहा थी 

पिछले दिनों हम दोनों बेटी की शादी खोजने में लगे थे । संजय की बेटी की शादी तय हुई तो वह कार्ड ले कर आया । शादी के दिन ही दिल्ली में मेरा एक कार्यक्रम था । बताया तो कहने लगा कुछ नहीं आना है । अपनी बेटी की शादी में नहीं आएंगे तो कब आएंगे ? मैं ने टिकट कैंसिल किया । गया भी शादी में । बेटी की शादी संजय ने ख़ूब धूमधाम से की । इस के पहले संजय के एक छोटे भाई की शादी में अंबेडकर नगर के एक गांव में बारात गई थी । तब संजय का और ही रुप देखने को मिला था । बहुत सी रिपोर्टिंग यात्राओं में भी संजय का साथ रहा है । पर उस के रंग में फर्क नहीं आता था । उस की शेरो शायरी का रंग और ज़िम्मेदारी का रंग कैसे तो सुर्खरू थे । बेटी की शादी कर के वह बहुत निश्चिंत हो गया था । बिलकुल मस्त और मगन । मुझे बेटी के विवाह के लिए परेशान देखता तो कहता कि बेटियां अपना भाग्य ले कर आती हैं सो घबराओ नहीं यार ! हो जाएगी बिटिया की शादी भी ! वह बेटी की एक से एक फ़ोटो सेशन करता और कहता यह फ़ोटो भेज कर देखिए । अब की तो बात बन जाएगी । जब मेरी बेटी की शादी हुई तो वह आया और ख़ूब ख़ुश ।  

मालिनी अवस्थी और संजय त्रिपाठी , साथ में संजय कृष्णेत 

ऐसे ही एक दिन मिला तो कहने लगा मालिनी अवस्थी से कभी बात होती है । मैं ने कहा हां, होती है कभी-कभार । मैं ने पूछा कि क्यों क्या हुआ ? कहने लगा कि यार अब हमें वह पहचानती ही नहीं । फिर याद दिलाते हुए कहा कि याद है मालिनी अवस्थी के बलरामपुर अस्पताल वाले घर में आप के साथ गया था । आप ने इंटरव्यू किया था , हम ने फ़ोटो खींची थी । वह घर में स्कर्ट पहने बैठी थीं , उन की स्कर्ट में फ़ोटो । स्वतंत्र भारत में छपी थी बड़ी सी । किसी अख़बार में मेरी खींची फ़ोटो ही पहली बार उन की छपी थी , उन्हें याद तो दिलाइए । कि उन को स्टार बनाने में मेरा भी हाथ है । पहचान लिया करें मुझे भी तो अच्छा लगेगा । हम ने कहा , ठीक है । लेकिन मालिनी अवस्थी से यह कभी कह नहीं पाया । क्या कहता भला । यह भी कोई कहने की बात होती है । रिपोर्टिंग और फ़ोटोग्राफ़ी में ऐसे तमाम मुकाम आते-जाते रहते हैं । बहुत से लोग कंधे पर सिर रख कर निकल गए । जब ज़रुरत हुई सुबह-शाम सलाम किया । ज़रूरत खत्म , पहचान खत्म । कौन किस को याद करता है । लेकिन संजय अकसर याद दिलाता और कहता कि कहा नहीं मालिनी अवस्थी से क्या । मैं हर बार कहता हूं , कह कर टाल जाता । फिर बहुत दिन हो गए इस बात को उस ने यह कहना बंद कर दिया । पर एक दिन फ़ेसबुक पर संजय की वाल पर देखा कि वह मालिनी अवस्थी के साथ एक फ़ोटो में मुस्कुरता हुआ खड़ा था । लेकिन मैं ने उस से कुछ कहा नहीं । जाने कितनी सांस और फांस है संजय के साथ हमारी । जाने कितने लोगों के इंटरव्यू , सेमिनारों , नाटकों , राजनीतिक कार्यक्रमों , धरना , प्रदर्शन , आंदोलन आदि-इत्यादि में उस के साथ की अनेक यादें जैसे दफ़न हैं हमारे सीने में ।

कुछ समय पहले इस राष्ट्रीय सहारा की नौकरी से भी इस्तीफ़ा दे दिया था संजय ने । सो जिंदगी जो थोड़ी बहुत पटरी पर थी बिलकुल पटरी से उतर गई थी । आर्थिक समस्याएं जब नौकरी करते हुए नहीं खत्म हुईं तो बिना नौकरी के कैसे खत्म होतीं । उसे अपना फाइनल हिसाब मिलने का इंतज़ार था कि ख़ुद फाइनल हो गया । संजय का एक छोटा भाई विनोद त्रिपाठी भी टाइम्स आफ़ इंडिया में फ़ोटोग्राफ़र था । कुछ साल पहले विनोद भी विदा हो गया था । अब संजय अपने गांव की बात करता रहता था । लेकिन गांव में भी कौन सी जमींदारी थी भला । पुरखे देवरिया से आ कर हैदरगढ़ के पास के गांव पूरे झाम तिवारीपुरवा में बसे थे और पिता विरासत में ईमानदारी और संघर्ष दे गए थे । दुर्भाग्य से संजय भी अपने दोनों बेटों को यही विरासत सौंप गए हैं 

शुरु के दिनों में जब संजय स्वतंत्र भारत में अपने को फ़ोटोग्राफ़र साबित करने के संघर्ष में लगा था , उसे हर कोई फ़ोटोग्राफ़ी सिखाने में लगा था । जिसे कैमरा पकड़ने का शऊर नहीं होता वह भी , जिसे फ़ोटो की समझ नहीं होती वह भी । उन्हीं लोगों में से एक मैं भी था । मैं भी उसे कभी रघु रॉय के फ़ोटो दिखाता तो कभी सत्यजीत रॉय के फ़ोटो । और बताता कि देखो फ़ोटो यह होती है। वह फ़ोटो देखता , मेरी बात सुनता और टाल जाता । यह सब जब कई बार हो गया तो संजय कहने लगा यह दिल्ली नहीं है , बंबई और कलकत्ता नहीं है , लखनऊ है । यहां ऐसी फ़ोटो कौन खींचता है , कौन छापता है । तो मैं उसे अनिल रिसाल सिंह के फ़ोटो दिखाता । सत्यपाल प्रेमी के फ़ोटो दिखाता और कहता यह देखो , यह तो लखनऊ के फ़ोटोग्राफ़र  हैं । वह तड़पता हुआ कहता , इन के कैमरे देखे हैं , इन के लेंस देखे हैं ? क्या है मेरा कैमरा ? यह कोई कैमरा है ? वह कहने लगा दिला दीजिए ऐसा ही कैमरा , ऐसा ही लेंस और ऐसी ही सुविधा । और फिर धरना , प्रदर्शन , नाटक , नौटंकी की रूटीन फोटुओं से फुर्सत , डाल दीजिए मेरे पेट में भरपेट रोटी । ऐसी ही सुविधा और ऐसी ही निश्चिंतता । इन से अच्छी फ़ोटो खींच कर न दिखाऊं तो कहिएगा । वह कहता , यहां तो रोज जब फ़ोटो खींचता हूं तो शिव सिंह सरोज का अपमानित करने वाला सामंती रवैया दिमाग में सवार रहता है । फ़ोटो क्या खाक खींचूंगा ? रोटी दाल चलाने दीजिए परिवार की । व्यवहार में यही है , बाकी सब सिद्धांत है । सच यही है कि अधिकांश रिपोर्टर , फ़ोटोग्राफ़र रोटी दाल में ही स्वाहा हो जाते हैं और अपना बेस्ट नहीं दे पाते हैं । शिव सिंह सरोज और रणविजय सिंह जैसे पत्रकारिता के दलाल गिद्ध जाने कितने संजय त्रिपाठी खा गए हैं , खाते रहेंगे ।

क्यों कि अब इन्हीं शिव सिंह सरोज और रणविजय सिंह जैसे दलालों और भडुओं का ज़माना है । अख़बारों में यह भडुए दलाल ही भाग्य विधाता हैं । पढ़े-लिखे लोगों की ज़रुरत अब किसी प्रबंधन को नहीं है । 

अलविदा मेरे भाई , मेरे दोस्त , मेरे बेलीगारद ! बहुत सारी बातें हैं , बहुत सारी यादें हैं । स्मृतियों में तुम सर्वदा उपस्थित रहोगे । अभी इतना ही । शेष फिर कभी । लेकिन तुम ने आज मुझे रुलाया बहुत है । अकसर तुम्हें चुप कराने वाला मैं आज कैसे चुप रह पाता भला । सो रो-रो कर हलका किया ख़ुद को । तुम धू-धू कर जलते रहे , मैं फूट-फूट रोता रहा । यही तो आज हुआ , मेरे बेलीगारद , डियर बेलीगारद !

पर अब किसे इतने दुलार से कहूंगा डियर बेलीगारद ! तुम तो चले गए !

गांव के अपने खेत में संजय त्रिपाठी 

Friday, 22 September 2017

गोदी मीडिया का स्लोगन दे कर प्रणव रॉय खुद काले धन की गोद में न बैठे होते तो शायद यह दिन न आता


अंध सेक्यूलरिज्म का झांसा राजनीति से उतर कर मीडिया में भी अपनी परिणति पर आ गया है । तो भी एन डी टी वी का इस तरह बिक जाना दुखद है । भारतीय पत्रकारिता का यह दुर्भाग्यपूर्ण दिन है । लेकिन गोदी मीडिया का स्लोगन दे कर प्रणव रॉय खुद काले धन की गोद में न बैठे होते तो शायद यह दिन न आता । एन डी टी वी बिकाऊ तो पहले ही से था । पहले उसे कांग्रेसियों और वामपंथियों ने ख़रीद रखा था अनौपचारिक रुप से । लेकिन अब उस के शेयर बिके हैं । इस कारण उस का मालिकाना हक़ बदल गया है । पहले वह कांग्रेस और लेफ्ट का स्पीकर था अब संभवतः भाजपा का स्पीकर बन जाएगा । किसी भी मीडिया हाऊस का किसी का स्पीकर बनना दुर्भाग्यपूर्ण होता है । उस से भी ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण होता है उस का बिक जाना । एन डी टी वी ने न्यूज़ के नाम पर नमक में दाल इतना खिला दिया कि उस का यह हश्र होना ही था । व्यवसाय करते हुए , मनी लांड्रिंग करते हुए , दुनिया भर के अनाप-शनाप काम करते हुए आप मीडिया के नाम पर सारे अनैतिक काम करें और सरकार से लड़ते भी रहें , और कि कोई आप को छुए भी नहीं , मुमकिन नहीं होता । लेकिन प्रणव रॉय को कोई यह समझाने वाला नहीं रहा कि मनी लांड्रिंग और माइकल टाईसन का मुक्का एक साथ नहीं चल सकता । इस लिए भी कि व्यवसाय और मीडिया दोनों दो चीज़ हैं । अगर एन डी टी वी सिर्फ़ मीडिया होता , व्यवसायी नहीं तो बात कुछ और होती । होशियार व्यवसायी सरकार बदलते ही अपनी दुनिया , अपने सरोकार , अपनी प्रतिबद्धता बदल लेता है । लेकिन मीडिया को नहीं बदलना चाहिए । इस लिए भी कि मीडिया अपने आप में मुकम्मल प्रतिपक्ष होता है । लेकिन दुर्भाग्य से हिंदुस्तान में अब ऐसा मीडिया नहीं रहा जिस के लिए अकबर इलाहाबादी लिख गए हैं :

खींचो न कमानों को न तलवार निकालो 
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो

तो अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए प्रणव रॉय ने रवीश कुमार जैसे सिंसियर रिपोर्टर को नफ़रत का तोपखाना बना दिया । एक समय की जांबाज रिपोर्टर रही प्रभा दत्त की बेटी बरखा दत्त को पूरमपूर दलाल बना कर नीरा राडिया का कैरियर बना दिया । विनोद दुआ जैसे प्रतिभाशील एंकर को नागफनी बना दिया । एन डी टी वी को एकपक्षीय और जहरीली रिपोर्टिंग का अड्डा बना दिया । प्रणव रॉय खुद भी एक प्रतिभाशील टेलीकास्टर रहे हैं लेकिन उन्हों ने अपने आप को भी भड़भूज बना लिया । जब कि वह न्यूज़ चैनल की दुनिया के रामनाथ गोयनका बन सकते थे । अलग बात है कि बाद के दिनों में रामनाथ गोयनका भी अपने व्यावसायिक हितों के मद्देनज़र झुक गए थे । यह राजीव गांधी का समय था । ब्रिटिश राज में नहीं झुके थे गोयनका , न इंदिरा गांधी के इमरजेंसी राज में लेकिन एक एक्सप्रेस बिल्डिंग के अवैध एक्सटेंसन को बचाने के लिए वह राजीव गांधी सरकार के आगे झुक गए । प्रणव रॉय ने पहले दूरदर्शन फिर स्टार न्यूज़ और फिर एन डी टी वी के मार्फ़त भारत की पत्रकारिता को निश्चित रुप से एक मोड़ , एक शार्पनेस दी । एक तेवर दिया । भूत प्रेत और अंधविश्वास नहीं परोसा । खांटी न्यूज़ परोसी । वह जल्दी हिंदी नहीं बोलते हैं कैमरे पर और अंगरेजी में ही सांस लेते हैं । लेकिन हिंदी में लिया पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ का वह लंबा इंटरव्यू मेरे मन में अभी भी किसी तस्वीर की तरह टंगा हुआ है जिस में उन्हों ने परवेज़ मुशर्रफ की तबीयत से धुलाई की थी । बिना किसी चीख़-चिल्लाहट के मुशर्रफ को कई बार निरुत्तर कर दिया था । मुशर्रफ की घिघ्घी बंध-बंध गई थी इस इंटरव्यू में । प्रणव रॉय की समझ पर भी कभी संदेह नहीं रहा लेकिन एकपक्षीय रिपोर्टिंग करते-करवाते उन का एप्रोच बाद के दिनों में ख़ुदा होने का हो गया । हबीब जालिब के एक शेर में जो कहें तो :

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था 
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था 

वह गांधी का वह कहा भी भूल गए कि साध्य ही नहीं , साधन भी पवित्र होने चाहिए । ब्लैक मनी की आंधी में ऐसे गिरफ़्त हुए कि पत्रकारिता छोड़ कर गिरोहबंदी पर आमादा हो गए । दूरदर्शन की सरकारी पत्रकारिता की आदत उन्हें भ्रष्ट बना गई । अपने इस भ्रष्ट आचरण को छुपाने के लिए प्रणव रॉय ने सेक्यूलरिज्म की आड़ ली और निगेटिव पत्रकारिता की नदी में बह चले । खबरों की समझ और धार की ख़ुशबू को गैंग के एक पक्षीय गटर में बहा दिया । तरुण तेजपाल ने काले धन की नदी में जैसे तहलका को और ख़ुद को तबाह कर लिया , ठीक वही काम प्रणव रॉय ने एन डी टी वी को तबाह कर , कर दिया है । तरुण तेजपाल और प्रणव रॉय दोनों ही ने सेक्यूलरिज्म को गंगा समझ लिया कि सेक्यूलरिज्म की गंगा में नहा कर सारे आर्थिक पाप , सारे धतकरम धो ले जाएंगे । यहीं फंस गए यह दोनों । तरुण तेजपाल तो शुरू ही से तहलका के दलदल में खड़े थे , झूठ और फरेब के दलदल में थे , प्रणव रॉय बाद में इस दलदल में धंसे । ऐसा फंसे कि फिर निकलना मुश्किल हो गया । हम अभी प्रणव रॉय के आर्थिक अपराधों की गठरी नहीं खोल रहे । यहां यह विषय है भी नहीं । लेकिन सरकार के सुर में सुर मिलाने वाली पत्रकारिता के इस कठिन समय में सरकार के सुर में सुर न मिलाने वाले एन डी टी वी का इस तरह बिक जाना , वह भी भाजपा से संबद्ध व्यवसाई स्पाईस जेट के अजय सिंह के हाथ बिक जाना निश्चित ही भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है । इस लिए भी कि भारत में वर्तमान में विपक्ष वैसे ही मरणासन्न है , ऐसे में मीडिया भी सरकार के साथ मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा ! गाने में व्यस्त है तो कोई तो एक मीडिया होना ही चाहिए जो सत्ता के सुर में सुर न मिला जनता का सुर भी बने । प्रणव रॉय ने काले धन की हवस में खुद को जेल जाने से बचाने के लिए एन डी टी वी का यह सौदा कर के ठीक नहीं किया है । फिर से दुहरा दूं कि गोदी मीडिया का स्लोगन दे कर प्रणव रॉय खुद काले धन की गोद में न बैठे होते तो शायद यह दिन न आता । समय आ गया है कि मीडिया को काले धन की गोद से उतार कर जनता के हितों के लिए खड़ा किया जाए और सत्ता के सुर में सुर मिलाने वाली मीडिया को भी सबक सिखाया जाए । फ़िलहाल तो बशीर बद्र के यह तीन शेर बड़ी शिद्दत से याद आ रहे हैं :

वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है

बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है

मैं ये मानता हूँ मेरे दिये तेरी आँधियोँ ने बुझा दिये
मगर इक जुगनू हवाओं में अभी रौशनी का इमाम है 

Tuesday, 12 September 2017

और कई दिन तक मुनमुन मेरे दिल- दिमाग में चहलक़दमी करती रही

दिव्या शुक्ला


आप लोग चाहते हैं कि मैं जियूं और अपने पंख काट लूं । ताकि अपने खाने के लिए उड़ कर दाने भी न ले सकूं। मैं पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं ! तल्खी भरे यह सख़्त वाक्य --अपने स्वार्थी भाइयों को दो टूक जवाब एक करार तमाचा सा था । मुनमुन के पास स्वाभिमान से जीने का यही तो एक हथियार था । और साथ ही गांव , कस्बों और शहरों में भी दोहरा जीवन जीती उन हज़ारों औरतों के लिए संदेश भी ---और फिर मां के टोकने पर - बेटी सुहाग के यह चिन्ह मत छोड़ो । चलो पहनो चूड़ी। सिंदूर लगाओ । बोल पड़ी मुनमुन मन का दबा ज्वार फूट पड़ा --जिस चूड़ी सिंदूर की न तो छत है न छांव , न सुरक्षा उसे लगा कर भी क्या करना --अगर यह सुहाग चिन्ह है तो जो पुरुष अपना न हो वो कैसा सुहाग ? उस के चिन्ह क्यों धारण करना -जो हमारे लायक़ नहीं उसे झटक फेंक देना ही उचित --क्यों ढोना उसे ? जिस चुटकी भर सिंदूर ने उस की दुनिया ही नर्क कर दी उसे तिलांजलि देना ही उचित ।

मुनमुन की पहचान पहले बांसगांव के नामी वकील की बेटी फिर उच्च पदों पर आसीन भाइयों की बहन के रूप में सम्मानित बहन बेटी की । फिर जल्दी ही लोगों की निगाहों में ललक भी झलकी परंतु शीघ्र ही वह एक सताई हुई औरत हो गई । लोगों की आंखों में दया करुणा या अकसर उपेक्षा झलकने लगी । पर समाज और परिवार की सताई औरतें मुनमुन में अपनी मुक्ति भी तलाशने लगी उस से सलाह लेती वह इन सब का आदर्श बन गई और अपना रास्ता अपनी मंजिल खुद तलाशी और अपना मुकाम हासिल किया। अपने संघर्ष के बारे वह यही कहती है कि सब कुछ बदलता है कुछ भी स्थाई नहीं न सुख न दुःख न समय। मुनमुन की यह कहानी समाज में संयुक्त परिवार के विघटन और उनमे पनपते स्वार्थो का उदाहरण है । बेटियां मां बाप का सुख दुःख अपने कलेजे में ले कर जीती हैं । वहीं अधिकांश बेटे सफल होते ही उपेक्षित कर देते है अपने माता पिता को ।

दयानंद पांडेय जी का यह उपन्यास गांव कस्बों की तसवीर आईने की तरह सामने लाता है बांसगांव की मुनमुन के रूप में। परिवारों में आगे निकलने की होड़ कितना पतित बना देती है --संयुक्त परिवार का विघटन , पैसा कमाने की होड़ में जहां आगे बढ़ते गए पीछे अपने रिश्तों को दफ़न करते गए । लाचार बेबस माता पिता भले ही दवा और दाने को तरसे परंतु बेटे के ऊंचे पद की चर्चा मात्र से आंखें गर्व से चमक जाती हैं । वहीं बुढ़ौती में पुत्रों पर आर्थिक रूप से निर्भर पिता कितना लाचार होता है। यह उपन्यास पढ़ते हुए मानो कितने मुनक्का राय हमारे इर्द-गिर्द नज़र आने लगते हैं । तो क्या सफलता स्वार्थ भी साथ ले कर आती है?

कभी-कभी अभाव खून का रंग सफ़ेद कर देता है । जिस बहन को बचपन में नन्ही परी चांदनी के रथ पर सवार/ गुनगुनाते हुए झुलाते थे उसे जीवन की उबड खाबड़ राहों में धकेल दिया। विवाह का बोझ उतार कर विदा किया और निशचिंत हुए।अपनी लड़ाई लड़ना, अपने घाव से टपकते रक्त को अपनी जिह्वा से चाटना कितना पीड़ादायक है यह वह स्त्री ही जानती है । तब जन्म लेती है एक दूसरी स्त्री जो अपने प्रति किए सारे अपराधों का दंड स्वयं तय करती है। यह उस की अपनी अदालत, अपना मुक़दमा और हाक़िम वही । कटघरे में है कुछ रक्त से जुड़े नाते तो कुछ समाज द्वारा तय किये गए जन्मांतर के नाते, जो कांटे की तरह चुभने लगे ! यह एक नया रूप था पति परमेश्वर की महिमामंडित छवि की खंडित करती नकारती नारी का, जिसे पुरुष समाज पचा नहीं पा रहा था। पर सफलता के आगे सदैव स्वार्थ झुकता है।

समाज ने अंतत स्वीकार किया । पर नायिका का तो प्रेम और रिश्ते नातों से विश्वास उठ गया । लेखक ने इसे बड़ी बखूबी से दर्शाया है । ऐसा लगता है पात्रों के मस्तिष्क में चल रही हलचल भी पाठकों तक पहुंच रही है । यही सफलता होती है एक अच्छे लेखक की। जातिवाद भी है। राजनीति के पहलुओं को भी छुआ है। कुल मिला कर गांव कस्बों के जीवन और एक स्त्री के संघर्ष पर आधारित यह पुस्तक पठनीय है । यह उपन्यास इतना रोचक है कि इसे मात्र तीन दिन में पढ़ा । और कई दिन तक मुनमुन मेरे दिल-दिमाग में चहलक़दमी करती रही।


समीक्ष्य पुस्तक:

बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

बांसगांव की मुनमुन उपन्यास को इस लिंक पर पढ़ें :

बांसगांव की मुनमुन