Saturday, 23 November 2019

तो चुप रह कर भी सरकार बनाई जाती है


सुबह ज़रा कुछ देर से होती है मेरी। सोया ही था। कि पत्नी ने अचानक आ कर बताया कि देवेंद्र फडनवीस ने शपथ ले ली है। बिस्तर में लेटे-लेटे ही , आंख बंद किए ही पत्नी से पूछा कि कहां से यह अफ़वाह लाई हो ? पत्नी ने बताया कि फेसबुक से। मैं ने कहा कि फेसबुक पर ऐसे ही अफ़वाह फैलती रहती है। तो पत्नी ने कहा कि लेकिन आज तक वाली अंजना कश्यप बता रही है। मैं ने कहा , किसी वीडियो पर फर्जी आडियो बना लिया होगा। पत्नी से यह कह तो दिया पर अब लेटे-लेटे मुश्किल होने लगी। उठा। घड़ी में सुबह के 9 - 30 बज रहे थे। टी वी खोला। यही ख़बर चल रही थी। मैं अवाक रह गया। अब शाम हो गई है। किसिम-किसिम की ख़बरें आ-जा रही हैं। फिर भी अभी इस ख़बर पर जाने क्यों यक़ीन करने को जी नहीं कर रहा। पर सच से इंकार कैसे करुं। कांग्रेसियों और उन के बगलबच्चा वामपंथियों की तरह कुतर्क भी करना भी नहीं आता। जो भी हो , खेल दिलचस्प हो गया है। गज़ब का दिन है , अख़बार में छपा है उद्धव ठाकरे मुख्य मंत्री बनेंगे और टी वी में ख़बर है कि देवेंद्र फडनवीस मुख्य मंत्री बने।

अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि चुप रहना भी एक कला है। महाराष्ट्र में सत्ता साधने के लिए भाजपा ने इसी कला का उपयोग किया। जब कि शिवसेना बयान बहादुरी के बूते रोज सरकार बना रहा थी। बयान बहादुरी के बहाने निरंतर आग मूत रही थी। जहर उगल रही थी। शिवसेना जैसे सरकार बना रही थी , सरकार वैसे तो नहीं ही बनती। अब चबा-चबा कर अपना विरोध जता रही कांग्रेस अभी तक विधानमंडल दल का नेता तक तो चुन नहीं पाई है। आगे की क्या बात करें। समर्थन देने के लिए भी इतने दिन , इतनी कमेटियां बना दीं लेकिन पक्का फैसला लेने के नाम पर सोई रही। ऐसी विषम स्थिति में इतना समय कोई ज़िम्मेदार पार्टी तो नहीं लेती। शिवसेना जैसी चूहा लेकिन प्रवृत्ति से गुंडा पार्टी को शेर बनाने वाले शरद पवार का पावर भी कल रात ही भाजपा ने छीन लिया। शरद पवार के पास अब खुद को सांत्वना देने और शिवसेना को ठोंक कर बच्चों की तरह सुलाने के अलावा कोई काम शेष नहीं रह गया है। बाकी बातें शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के वाट्स अप स्टेटस और मीडिया के सामने आंसुओं से भरी नम आंखों ने कह दिया है। शरद पवार निश्चित रूप से महाराष्ट्र की राजनीति के आचार्य हैं लेकिन अमित शाह राष्ट्रीय स्तर पर जोड़-तोड़ और तोड़-फोड़ के नए आचार्य के रूप में उपस्थित हैं फ़िलहाल। जब कि नरेंद्र मोदी वैश्विक कूटनीतिज्ञ बन कर दुनिया के सामने उपस्थित हैं। शिवसेना , शरद पवार और कांग्रेस जाने क्यों और जाने किस मद में इस बात को भूल गए। 

फिर शरद पवार खुद इसी तरह छल-कपट कर के ही पहली बार मुख्य मंत्री बने थे महाराष्ट्र के। यह बात भी वह क्यों भूल गए। नहीं इसी महाराष्ट्र ने एक समय यह भी देखा है जब शालिनी ताई पाटिल अपने ही पति वसंत दादा पाटिल को सत्ताच्युत कर खुद मुख्य मंत्री बन बैठी थीं। हरियाणा में जब देवीलाल जीत कर आए और राज्यपाल जी डी तपासे ने रात में चुपचाप एक कमरे में भजनलाल को शपथ दिला दिया था , इंदिरा गांधी के इशारे पर। शरद पवार यह भी क्यों भूल गए। इतना ही नहीं एक समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को बर्खास्त कर राज्यपाल रोमेश भंडारी ने आधी रात जगदंबिका पाल को मुख्य मंत्री पद की शपथ दिला दी थी। अलग बात है , 24 घंटे में ही हाईकोर्ट के हस्तक्षेप से जगदंबिका पाल को हटना पड़ा। कल्याण सिंह को वापस शपथ दिलानी पड़ी थी रोमेश भंडारी को। 

बहरहाल आप कूटनीति कहिए , छल-कपट कहिए , ख़रीद-फरोख्त कहिए भाजपा के देवेंद्र फडनवीस ने आज सुबह मुख्य मंत्री पद की आनन-फानन शपथ ले ली है। अब आप विचारधारा , सिद्धांत , लोकतंत्र आदि के जो भी पहाड़े पढ़ने हों , पढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं। मेरा आकलन तो यह था कि भाजपा या तो एन सी पी से हाथ मिला कर सरकार बनाएगी या फिर कांग्रेस को तोड़ कर सरकार बनाएगी। शिवसेना में भी टूट की उम्मीद थी। लेकिन एन सी पी टूट कर इस तरह भाजपा के साथ जाएगी , यह उम्मीद तो नहीं ही थी। फिर टूट का मंज़र अभी अपना सिलसिला और बढ़ाने वाला है। सब से ज़्यादा मुश्किल शिवसेना को ही है अपने विधायकों को ले कर। शिवसेना का एक मूर्ख कल तक कह ही रहा था कि जो शिवसेना को तोड़ेगा , उस की खोपड़ी तोड़ दी जाएगी। अब वह कहां है , पता नहीं है। अभी तो शिवसेना ने अपने विधायकों को एक होटल में रख कर उन के मोबाइल ले लिए हैं। खबर यह भी है कि शिवसेना अपने विधायकों को राजस्थान भी ले जाने वाले हैं। कांग्रेस भी अपने विधायकों को पहले राजस्थान ले गई थी , फिर ले जाने वाली है। शरद पवार भी अपने विधायकों की यही घेरेबंदी करने वाली है। अपने विधायकों को बटोरने में लगे हैं। गोया विधायक न हों , भेड़-बकरी हों। हालां कि यह कहना भी भेड़-बकरी का अपमान है। याद कीजिए प्रेमचंद की मशहूर कथा , दो बैलों की कथा। इस कथा के बैल हीरा , मोती जैसे निष्ठावान नहीं हैं यह विधायक। बिकाऊ हैं। 

खैर , राज्यपाल ने देवेंद्र फडवनीस को शपथ भले दिला दी हो लेकिन विधानसभा में बहुमत प्राप्त करना अभी इतना आसान नहीं है। कर्नाटक में येदुरप्पा का इतिहास भी दुहराया जा सकता है। येदुरप्पा को शपथ के बाद भी इस्तीफ़ा देना पड़ा था। कुछ समय बाद फिर वह मुख्य मंत्री बन गए , यह अलग बात है। मुझे याद है एक समय मायावती ने भी कल्याण सिंह सरकार को गिराने के लिए अपने विधायकों को ताले में बंद कर रखा था। किसी बाहरी से तो छोड़िए , परिवार के लोगों से भी मिलने पर प्रतिबंध था। विधानसभा में भी वह अपने सारे विधायकों को साथ ले कर पहुंची। लेकिन विधानसभा पहुंचते ही मायावती के कई विधायकों ने फ़ौरन पाला बदल लिया। मार-पीट शुरू हो गई। मायावती को उलटे पांव अपनी जान बचा कर बच्चों की तरह बकइयां-बकइयां भागना पड़ा था। भारतीय लोकतंत्र में अब सिद्धांत , विचार , पार्टी आदि फिजूल बात हो चली है। अब सब कुछ कुर्सी ही है। सत्ता ही है। बतर्ज़ बाप बड़ा न भैय्या , सब से बड़ा रुपैय्या। कोई भी , कैसे भी , कुछ भी पा सकता है। नहीं झारखंड में एक निर्दलीय विधायक मधु कौड़ा को भी हम मुख्य मंत्री के रूप में हम देख ही चुके हैं। अभी तो गोपीनाथ मुंडे के भतीजे एन सी पी के धनंजय मुंडे जो सुबह अजित पवार के साथ थे , शरद पवार से मिलने पहुंचे हैं। जो भी हो 30 नवंबर या इस से पहले भी देवेंद्र फडनवीस के विश्वास मत प्राप्त करने तक अभी बहुत सी मुलाकातें , शह और मात के विभिन्न शेड देखने को मिलेंगे। कल रात ही लिखा था कि शरद पवार भाजपा और अमित शाह की बिछाई बिसात पर खेल रहे हैं। अमित शाह ने अभी अपनी बिसात उठाई नहीं है। वह जो कहते हैं  न कि अभी तो तेल देखिए , तेल की धार देखिए। साथ ही राजनीति के सांप और सीढ़ी का खेल देखिए। कि किस को चढ़ने के लिए सीढ़ी मिलती है , किस को सांप निगलता है। देखना दिलचस्प होगा कि सुबह का भूला , शाम को लौटता भी है कि नहीं। भूला भी है कि नहीं , यह भी गौरतलब है। अभी जल्दी ही नितिन गडकरी ने हंसते हुए सच ही कहा था कि क्रिकेट और राजनीति में कुछ भी , कभी भी संभव है। इस बात का परीक्षण भी अभी इस बाबत शेष है। 




Friday, 22 November 2019

महाराष्ट्र की राजनीति में फ़िलहाल लक्ष्मण के मूर्छित होने और रावण वध के बीच का समय है


महाराष्ट्र की राजनीति में फ़िलहाल लक्ष्मण के मूर्छित होने और रावण वध के बीच का समय है यह 

दयानंद पांडेय 

भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता , सांप्रदायिकता , विचारधारा आदि-इत्यादि न सिर्फ़ लफ्फाजी है बल्कि बहुत बड़ा पाखंड है , महाराष्ट्र की नई राजनीति ने एक बार फिर साबित कर दिया है। यह भी कि लोकतंत्र में संख्या बल और जोड़-तोड़ ही नहीं , मनबढ़ई , लंठई , गुंडई , ज़िद और सनक भी एक प्रमुख तत्व है। और कि यह सब कोई नई बात नहीं है। याद कीजिए जब सेक्यूलर चैंपियन विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मंत्री बने थे तो दो धुर विरोधी भाजपा और वामपंथ के समर्थन से बने। जब कि ठीक उसी समय एक दूसरे सेक्यूलर चैंपियन मुलायम सिंह यादव भाजपा के ही समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने। याद कीजिए इंदिरा गांधी की इमरजेंसी जिसे हिंदुत्ववादी शिवसेना और सेक्यूलर वामपंथियों , दोनों ही ने समर्थन दिया था। यह बात भी जगजाहिर है कि मुंबई से वामपंथियों के प्रभाव को और हाजी मस्तान के बहाने  मुसलमानों बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए इंदिरा गांधी ने बाल ठाकरे को खड़ा किया था। बाल ठाकरे की गुंडई को अभयदान दिया था । 

अब कांग्रेस अगर हिचकिचाते हुए शिव सेना के नेतृत्व में बन रही सरकार में शामिल होने की दुविधा बार-बार दिखा रही है तो किसी विचारधारा के तहत नहीं , सत्ता का शहद चाटने के लिए , मोल-तोल कर रही है। इधर के दिनों में जब-तब भाजपाई मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की तजवीज देते रहते हैं तो जानते हैं यह जुमला भाजपाइयों ने किस से सीखा ? आप को यह जान कर एकबारगी हैरत तो होगी पर सच यह है कि भाजपाइयों ने यह जुमला पंडित जवाहरलाल नेहरू से सीखा। उन दिनों नेहरू वामपंथियों से जब बहुत आजिज आ जाते तो कहते , फिर आप सोवियत संघ चले जाइए। और वामपंथी चुप हो जाते। चीन से हार के बाद तो नेहरू वामपंथियों से इतने नाराज हो गए कि वामपंथियों पर सख्ती शुरू कर दी थी। मारे डर के साहिर लुधियानवी जैसे शायर भी बिन पूछे बताते फिरते थे कि मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। ज़िक्र ज़रूरी है कि नेहरू की आलोचना में  फेर में मज़रूह सुल्तानपुरी ने जेल की हवा खाई थी।  मज़रूह सुल्तानपुरी ने लिखा था :

मन में जहर डॉलर के बसा के
फिरती है भारत की अहिंसा
खादी के केंचुल को पहनकर
ये केंचुल लहराने न पाए

अमन का झंडा इस धरती पर
किसने कहा लहराने न पाए
ये भी कोई हिटलर का है चेला
मार लो साथ जाने न पाए

कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू
मार ले साथी जाने न पाए

खैर , समय बदला। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हो कर पहले नेहरू ने फिर इंदिरा गांधी ने भी संघियों के खिलाफ वामपंथियों को पूरी ताकत से खड़ा कर दिया। न सिर्फ़ खड़ा किया तमाम सरकारी कमेटियों , न्यायपालिकाओं , विश्वविद्यालयों , मीडिया समेत तमाम संस्थाओं में लाइन से भर दिया। शिक्षा मंत्री नुरुल हसन से लगायत इरफ़ान हबीब , रोमिला थापर , नामवर सिंह आदि-इत्यादि जैसे लोगों का बेहिसाब उत्थान इसी नीति का परिणाम था। इन्हीं दिनों जे एन यू जैसे वाम दुर्ग भी बने। साहित्य , संस्कृति हर कहीं , हर बिंदु पर वामपंथी लोग भरे जाने लगे। नतीजा यह हुआ कि तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग वामपंथी सूरमाओं से परास्त हो गए। एक नैरेटिव रच दिया गया कि संघ के लोग गाय , गोबर वाले पोंगापंथी लोग हैं। वामपंथी घोर वैज्ञानिक। वेद , उपनिषद , पुराण , रामायण , महाभारत भारतीय संस्कृति आदि  को हिकारत की  दृष्टि से देखने की दृष्टि विकसित की गई। 

ब्राह्मणवाद का एक नैरेटिव खड़ा कर दलितों और मुसलमानों को एकजुट कर नफरत की नागफनी रोपी गई। जय भीम , जय मीम का एक प्रकल्प खड़ा गया। संघी लोग सामाजिक समरसता का संवाद लिए दही , भात खाते रहे और उधर नफ़रत की नागफनी खूब घनी हो गई। धर्म निरपेक्षता का पाखंड इस नागफनी को घना करने का माकूल औजार बना इमरजेंसी में। लेकिन अतियां इतनी ज़्यादा हो गईं कि वामपंथी अब मजाक का पर्याय बन गए। बुद्धिजीवी पाखंड के प्राचीर बन गए। संघियों को फासिस्ट कहते-कहते वामपंथी खुद कब फासिस्ट बन गए , यह बात वह खुद भी नहीं जान पाए। जे एन यू जैसे शीर्ष शैक्षणिक संस्थान को इस दुर्गति तक लाने के लिए वामपंथियों की अतियां और अराजकता का हाथ इसी नागफनी का नतीज़ा है। इतना कि कांग्रेस के लिए बैटिंग करते-करते यह वामपंथी अपनी अस्मिता और पहचान भी बिसार बैठे हैं। शायद इसी लिए सर्वदा ज्ञान और सलाह की गठरी खोल कर बैठ जाने वाले , बात-बेबात सलाह या टिप्पणी की जगह सीधे फैसला देने की बीमारी वाले वामपंथी महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ एन सी पी और कांग्रेस के सत्ता रथ पर सवार हो जाने पर , अपनी आवाज़ खो कर , खामोश बैठ गए हैं। गोया शिवसेना अब अपनी मराठा गुंडई के नाम पर उत्तर प्रदेश , बिहार के मज़दूरों को जान से मारने , भगाने के अपराध से मुक्त हो गई है। कि अपने हिंदुत्व के जहर से मुक्त हो गई है। क्यों कि सिवाय ओवैसी और भाजपा के हर कोई इस बिंदु पर चुप है। सारे विषैले टिप्पणीकार भी मुंह सिले बैठे हैं। लेखक , पत्रकार भी। गुड है यह भी। 

बहरहाल , इन चुप रहने वालों को क्या भाजपा की बिसात नहीं दिख रही है ? जिस बिसात पर आज शरद पवार चाल पर चाल चलने का अभिनय करते हुए विजेता की मुद्रा में खड़े दिख रहे हैं। यह बिसात भाजपा की बिछाई हुई है , यह भी क्या किसी को बताने की ज़रूरत है ? भाजपा ढील दे कर पतंग काटने की राजनीति की आदी  हो चली है। क्या यह बात शरद पवार और सोनिया गांधी को बताने की ज़रूरत है। भाजपा खेल गई है एक बड़ा दांव , तात्कालिक दांव हार कर। यह तथ्य अगर किसी शरद पवार , किसी सोनिया गांधी को नहीं दिख रही तो अमित शाह और नरेंद्र मोदी तो टार्च की रौशनी डाल कर दिखाने से रहे। रही शिवसेना की और उद्धव ठाकरे की बात तो अहंकार , ज़िद और सनक में आ कर जिस ने अपनी आंख खुद फोड़ ली हो , उसे तो अल्ला मियां भी कुछ नहीं दिखा सकते। अभी तो आप शरद पवार की सरकार , जिस के मुख्य मंत्री उद्धव ठाकरे होने जा रहे हैं , उन्हें बधाई दीजिए। और जल्दी ही किसी पार्टी के टूटने या महाराष्ट्र में अगले विधान सभा चुनाव का इंतज़ार कीजिए। महाराष्ट्र की राजनीति में फ़िलहाल लक्ष्मण के मूर्छित होने और रावण वध के बीच का समय है। लंका के आनंद लेने का समय है यह। फ़िलहाल तो कांग्रेस ने लंबी लड़ाई लड़ कर अपनी राजनीति को दीर्घ बनाने की जगह , छोटी जीत का स्वाद ले कर , अपनी बीमारी और कमज़ोरी का स्थाई निदान करने की जगह एंटीबायोटिक ले कर सत्ता का आनंद लेना क़ुबूल कर लिया है। लेकिन एक बात और भी है। आजीवन कांग्रेस विरोध में जीने वाले लोहिया एक समय कहा करते थे कि बड़े राक्षस को मारने के लिए कभी-कभी छोटे राक्षस से भी हाथ मिलाना पड़ता है। तो क्या कांग्रेस लोहिया के इस कहे पर चल पड़ी है ? अगर मन करे तो यह बात भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि कांग्रेस ने भाजपा रूपी बड़े राक्षस को मारने के लिए शिवसेना जैसे छोटे राक्षस से हाथ मिला लिया है। इस लिए भी कि राजनीति सर्वदा एक संभावना का खेल है। राजनीति अब दो और दो के जोड़ चार से ही नहीं चलती। सांप-सीढ़ी के खेल सरीखी भी चलती है। कभी गाड़ी नाव पर , कभी नाव गाड़ी पर की रवायत भी बहुत पुरानी है। 







Sunday, 17 November 2019

मर्यादा पुरुषोत्तम राम को सम्मान दे कर विदा हुए जस्टिस रंजन गोगोई

दयानंद पांडेय 


होते हैं कुछ लोग जो अपनी पहचान सिर्फ ईमानदार और काबिल व्यक्ति के तौर पर ही रखना चाहते हैं। बाक़ी कुछ नहीं। आज रिटायर हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को भी मैं समझता हूं लोग ईमानदार और क़ाबिल शख्स के रूप में याद रखना चाहेंगे। कम से कम उन का न्यायिक इतिहास इस बात का साक्षी है। एक नहीं अनेक किस्से हैं , फ़ैसले हैं जस्टिस रंजन गोगोई की इस यात्रा के पड़ाव में। अभी अगर तुरंत-तुरंत कोई मुझ से किन्हीं दो जस्टिस का नाम पूछे इस बाबत तो मैं धड़ से दो जस्टिस लोगों का नाम ले लूंगा। ईमानदार और काबिल। एक जस्टिस जगमोहन लाल सिनहा का दूसरे जस्टिस रंजन गोगोई का। जस्टिस जगमोहन लाल सिनहा ने भी न्यायिक इतिहास में अपने एक फैसले से अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में  दर्ज करवाया था। तब की सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी को चुनाव में अयोग्य ठहरा कर भारत की राजनीति और उस की दिशा बदल दी थी। भारतीय न्यायिक इतिहास में ऐसा फ़ैसला न भूतो , न भविष्यति। तब जब कि सारी सरकारी और न्यायिक मशीनरी का उन पर बेतरह दबाव था। ढेरो प्रलोभन थे। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बना देने तक का प्रलोभन। लेकिन जस्टिस सिनहा नहीं झुके तो नहीं झुके। जस्टिस सिनहा ही क्यों उन के निजी सचिव मन्ना लाल तक पर दबाव था। मन्ना लाल भी किसी दबाव में नहीं आए। 

पर यहां अभी हम जस्टिस रंजन गोगोई की बात कर रहे हैं। पहली बार जस्टिस रंजन गोगोई का नाम मैं ने तब सुना जब उन्हों ने बड़बोले रिटायर्ड जज मार्कण्डेय काटजू को अवमानना नोटिस जारी कर दिया। यह 2016 की बात है। जब जस्टिस काटजू सुप्रीम कोर्ट में न सिर्फ़ पेश हुए बल्कि अपनी फेसबुक पोस्ट के लिए बिना शर्त माफ़ी मांगी। कोलकाता हाईकोर्ट के बिगड़ैल जस्टिस सी एस कर्णन को भी जेल भेजने वाली बेंच में जस्टिस गोगोई की उपस्थिति थी। जो जस्टिस अपने जस्टिस लोगों के साथ भी न्यायिक प्रक्रिया में कोई रियायत न बरते वह जस्टिस रंजन गोगोई अब जब रिटायर हो गए हैं तब वह मुझे न सिर्फ अपनी न्यायिक सक्रियता के लिए याद आ रहे हैं , बल्कि न्यायिक पवित्रता को भी बचाने के लिए याद आ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के 25 न्यायाधीशों में से जिन 11 न्याययधीशों ने वेबसाइट पर अपनी संपत्ति का सार्वजनिक विवरण पेश किया , रंजन गोगोई भी उन में से एक हैं। रंजन गोगोई के खाते में कई सारे न्यायिक कार्य हैं जो उन्हें न्यायिक इतिहास में सूर्य की तरह उपस्थित रखेंगे। आसाम में एन आर सी की राह सुगम बनाने में जस्टिस रंजन गोगोई को हम कैसे भूल पाएंगे। ठीक वैसे ही राफेल विवाद में भी गोगोई का नजरिया बिलकुल साफ़ रहा। राफेल की राह भी आसान की और सरकार को क्लीन चिट भी दी। सुप्रीम कोर्ट को भी आर टी आई के दायरे में रखने का आदेश जस्टिस गोगोई ने ही दिया। प्रेस कांफ्रेंस के लिए भी उन्हें कौन भूल सकता है। 

जस्टिस रंजन गोगोई ने लेकिन जो एक सब से बड़ा काम किया वह है अयोध्या में राम जन्म-भूमि मुकदमे का सम्मानजनक और खूबसूरत फैसला। सदियों पुराना विवाद एक झटके में 40 दिन की निरंतर सुनवाई के बाद निर्णय सुनाना आसान काम तो नहीं ही था। लेकिन वह जो कहते हैं न कि न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे। राम मंदिर के फैसले में यही हुआ। ऐसा फैसला दिया जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने जिस का स्वागत लगभग पूरे देश ने किया। कुछ लोग पुनर्विचार याचिका की बात भी कर रहे हैं , यह उन का कानूनी और संवैधानिक अधिकार है। लेकिन जस्टिस गोगोई की बेंच ने ऐसा खूबसूरत फैसला एकमत से दिया है कि अब इस में कोई भी अदालत कुछ इधर-उधर नहीं कर सकती। सो सदियों पुराने इस विवाद का यह फैसला लोग सदियों याद रखेंगे। यह फैसला दुनिया के लिए एक नज़ीर बन चुका है। 

तमाम जगहों की तरह सुप्रीम कोर्ट भी काजल की कोठरी है। तो इस काजल की कोठरी में रंजन गोगोई को भी घेरा गया। एक महिला के मार्फत गोगोई पर यौन शोषण का आरोप लगा कर घेरा गया। लेकिन गोगोई बेदाग निकले। माना गया कि गोगोई राम मंदिर का मसला नहीं सुन सकें , इस लिए यौन शोषण का यह व्यूह रचा गया। ठीक वैसे ही जैसे कभी चीफ जस्टिस रहे दीपक मिश्रा पर महाभियोग का दांव संसद में चला गया था। सो दीपक मिश्रा चुपचाप इस मंदिर मामले को ठंडे बस्ते में डाल कर किनारे हो गए। लेकिन गोगोई हार कर किनारे नहीं हुए। डट कर मुकाबला किया। और तय मानिए मिस्टर गोगोई अगर किसी बहाने आप भी इस फैसले से चूक गए होते तो जनता-जनार्दन का न्यायपालिका नाम की संस्था से यकीन उठ गया होता। और स्थितियां इतनी बिगड़ गई थीं कि अब न्यायपालिका की राह भूल कर इस राम मंदिर के लिए लोग संसद की राह देख रहे थे। कि अब संसद में क़ानून बना कर राम मंदिर निर्माण की बात हो जाए। लोगों का धैर्य जवाब दे रहा था। न्यायपालिका से लोग अपनी उम्मीद तोड़ चुके थे। लेकिन यह रास्ता शायद निरापद न होता। सो आप ने राम की , लोक की मर्यादा तो रख ही ली , न्यायपालिका की खोती हुई मर्यादा भी संभाल ली है रंजन गोगोई । न्यायपालिका का बुझता हुआ दीप भी बचा लिया है। इस एक स्वर्णिम फैसले से। 

ज़िक्र ज़रूरी है कि जस्टिस रंजन गोगोई आसाम के उस राज परिवार से आते हैं जिसे अहम राजपरिवार कहा जाता है। माना जाता है कि आसाम में जितने भी छोटे-बड़े मंदिर हैं , इसी राज परिवार ने बनवाए हैं। और अब इस परिवार के खाते में अयोध्या का राम मंदिर बनवाने का श्रेय भी आ जुड़ा है। यह एक विरल संयोग है। 

संयोग ही है कि रंजन गोगोई दो भाई हैं। इन के पिता केशव गोगोई जो आसाम के मुख्य मंत्री भी रहे हैं , चाहते थे कि कोई एक बेटा सैनिक स्कूल में पढ़ने जाए। यह तय करने के लिए कौन जाए , टॉस किया गया। टॉस में बड़े भाई अंजन गोगोई को सैनिक स्कूल जाने की बात आई। वह गए भी। और एयर मार्शल बने। संयोग ही है कि रंजन गोगोई गौहाटी , पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट आए। चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया हुए। और बतौर चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया राम जन्म-भूमि मामले की सुनवाई की बेंच बनाई और इस की अध्यक्षता करते हुए एक स्वर्णिम फैसला लिख कर अपना नाम न्यायिक इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज होने का सौभाग्य भी पाया। और देखिए न कि आज रिटायर होते ही वह सपत्नीक तिरुपति मंदिर पहुंच गए। सचमुच मिस्टर जस्टिस रंजन गोगोई , भारतीय न्यायिक इतिहास में इस फैसले के लिए लोग सदियों तक आप को सर्वदा-सर्वदा याद करेंगे। इस लिए भी कि न सिर्फ आप ने सदियों पुराना विवाद चुटकी भर में सुलटा दिया बल्कि आप ने सही मायने में संपूर्ण न्याय किया। बिना किसी पक्षपात के। तो क्या वह टॉस इसी के निमित्त हुआ था। इस शानदार फैसले के निमित्त। 

मजाक भले चल रहा है कि एक भगवान का न्याय , इंसान कर रहा है। पर सच यही है। कि इस कलयुग में भगवान को भी न्याय इंसान से मिला है। यह हमारा अंतर्विरोध है। दुर्भाग्य भी। लेकिन न्याय तो न्याय ही होता है। इतना कि आप के इस शानदार फैसले से लोग वह मुहावरा भी भूल चले हैं कि देर से मिला न्याय भी अन्याय होता है। यह सब भूल कर लोग न्याय महसूस कर रहे हैं। सदियों बाद ऐसा क्षण आया है। ऐसा न्याय आया है। सचमुच में राम राज्य वाला न्याय , राम को भी मिला है। बहुत आभार जस्टिस रंजन गोगोई , बहुत आभार। पूरा देश आप का ऋणी है। समूची मनुष्यता आप की ऋणी है। कि आप ने ऐसा फैसला दिया है कि जिसे बिना किसी मार-काट के लोगों ने स्वीकार लिया है। अब अलग बात है कि इस मार-काट न होने के पीछे नरेंद्र मोदी के शासन का संयोग भी है। फिर भी इस के लिए असल बधाई के पात्र सिर्फ़ और सिर्फ आप हैं जस्टिस रंजन गोगोई। कभी राम ने एक पत्थर को छू कर अहिल्या को फिर से जीवन दे दिया था। श्राप से मुक्त कर दिया था। आप ने यह फैसला दे कर राम को सम्मान दे दिया है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का सम्मान। लोहिया ने लिखा है , राम,कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। तो यह एक टूटा हुआ स्वप्न भी पूरा किया। 

तिरुपति मंदिर में रंजन गोगोई 


Friday, 8 November 2019

देह का गणित सपाट सही , वंदना गुप्ता रिस्क ज़ोन में गई तो हैं

दयानंद पांडेय

वंदना गुप्ता की कहानी देह का गणित पर अगर कोई यह आरोप लगा दे कि कहानी बहुत कमज़ोर है। बहुत उथली और इकहरी है। वंदना गुप्ता को कहानी लिखनी नहीं आती। अखबारों , पत्रिकाओं में छपने वाले सेक्स समस्याओं के समाधान से भी खराब ट्रीटमेंट है। आदि-इत्यादि। तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। अगर कोई यह आरोप भी लगाता है कि संपादक ने इस देह का गणित कहानी को छापने में संपादकीय कौशल का परिचय नहीं दिया है। तो यह आरोप भी मैं सुन सकता हूं। लेकिन जो भी कोई लोग इस देह का गणित कहानी को अश्लील होने का फतवा जारी कर रहे हैं , मैं उन से पूरी तरह असहमत हूं। उन के इस आरोप को फौरन से फौरन ख़ारिज करता हूं। यह आरोप ही अपने आप में अश्लील है। क्यों कि साहित्य में कुछ भी अश्लील नहीं होता। 

मैं कहना चाहता हूं कि अश्लीलता देखनी हो तो अपने चैनलों और अखबारों से शुरू कीजिए। जहां पचासों लोगों को बिना नोटिस दिए मंदी के नाम पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। पूंजीपति जैसे चाह रहे हैं आप को लूट रहे हैं। हर जगह एम आर पी है लेकिन किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य। आखिर क्यों ? कार के दाम घट रहे हैं, ट्रैक्टर महंगे हो रहे हैं। मोबाइल सस्ता हो रहा और खाद-बीज मंहगे हो रहे हैं। एक प्रधानमंत्री जब पहली बार शपथ लेता है तो भूसा आंटे के दाम में बिकने लगता है। वही जब दूसरी बार शपथ लेता है तो दाल काजू-बादाम के भाव बिकने लगती है।

तो मित्रों अश्लीलता यहां है, देह का गणित में नहीं। अगर हमारा जीवन ही अश्लील हो गया हो तो समाज का दर्पण कहे जाने वाले साहित्य में आप देखेंगे क्या ? स्वर्ग ?

हमारे विक्टोरियन मानसिकता वाले समाज में लोग लेडी चैटरलीज़ लवर को नंगी अश्लीलता ही समझते रहे हैं। पर आम जीवन का यौन व्यवहार कितना गोपनीय अश्लील है यह कोई दिखाता ही नहीं। लोहिया  ने किसी पुस्तक में सेठानियोँ और रसोइए महाराजों का ज़िक्र किया है , वह अश्लील नहीं है। दशकों पहले हमारे समाज में रईसोँ के रागरंग बड़ी आसानी से स्वीकार किए जाते थे, समलैंगिकता जीवन का अविभाज्य और खुला अंग थी। उर्दू में तो शायरी भी होती थी— उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं जिस ने दर्द दिया है। पठानों के समलैंगिक व्यवहार के किस्से जोक्स की तरह सुनाए जाते थे।  लिखित साहित्य अब पूरी तरह विक्टोरियन हो गया है, पर मौखिक साहि्त्य… वाह क्या बात है।

इटली की ब्रौकिया टेल्स जैसे या तोता मैना, अलिफ़लैला, कथासागर जैसे किस्से खुले आम सुन सुनाए जाते थे। हम में से कई ने ऐसे चुटकुले सुने और सुनाए होंगे। उन की उम्र होती है। पीढ़ी दर पीढ़ी वही किस्से दोहराए जाते हैं। सोशल मीडिया की एक बड़ी खासियत है ,वो खबर हो चाहें खबरों से परे कोई बात ,उसे अपने तरीके से देखना चाहती है ,वो उसे उस ढंग से स्वीकार नहीं कर पाती, जैसी वो मूलतः है । वर्तमान समय में सेक्स से जुडी वर्जनाओं के टूटने की सब से बड़ी वजह सोशल मीडिया खुद है। 

निहायत शरीफ़ लोग अगर इस तरह के नंगे यथार्थ को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ज़ाहिर है कि यह दुनिया उन के लिए नहीं है। हाल के महीनों में जो खबरें सामने आई हैं, उस से मैं यह भी नहीं कह सकता कि आशाराम बापू जैसे संतों के आश्रम भी उन के लिए सब से महफूज़ जगह है।

साहित्य में अश्लीलता पर बहस बहुत पुरानी है। यह तय करना बेहद मुश्किल है कि क्या अश्लील है और क्या श्लील। एक समाज में जो चीज़ अश्लील समझी जाती, वह दूसरे समाज में एकदम शालीन कही जा सकती है। यह जो वाट्स आप पर नान वेज़ जोक्स का ज़खीरा है, होम सेक्स वीडियो है , उस से कौन अपरिचित है भला?  भाई जो इतने शरीफ़ और नादान हैं तो मुझे फिर माफ़ करें। 

ऐसे तो हमारे लोकगीतों और लोक परंपराओं में कई जगह गज़ब की अश्लीलता है। मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखता हूं। हमारे यहां शादी व्याह में आंगन में आई बारात को भोजन के समय दरवाज़े के पीछे से छुप कर घूंघट में महिलाएं लोक गीतों के माध्यम से जैसी गालियां गाती हैं उसे यह लोग घोर अश्लील कह सकते हैं।  लेकिन समाज इस में रस लेता है और इसे स्वीकृति देता है। पर मेट्रो के दर्शकों को यह कार्यक्रम अश्लील लग सकता है। फ़र्क सिर्फ़ हमारे सामाजिक परिवेश का है।

एक मुहावरा हमारे यहां खूब चलता है–का वर्षा जब कृषि सुखाने ! वास्तव में यह तुलसीदास रचित रामचरित मानस की एक चौपाई का अंश है। एक वाटिका में राम और लक्ष्मण घूम रहे हैं। उधर सीता भी अपनी सखियों के साथ उसी वाटिका में घूम रही हैं, खूब बन-ठन कर। वह चाहती हैं कि राम उन के रूप को देखें और सराहें। वह इस के लिए आकुल और लगभग व्याकुल हैं। पर राम हैं कि देख ही नहीं रहे हैं। सीता की तमाम चेष्टा के बावजूद। वह इस की शिकायत और रोना अपनी सखियों से करती भी हैं, आजिज आ कर। तो सखियां समझाती हुई कहती हैं कि अब तो राम तुम्हारे हैं ही जीवन भर के लिए। जीवन भर देखेंगे ही, इस में इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है? तो सीता सखियों से अपनी भड़ास निकालती हुई कहती हैं—का वर्षा जब कृषि सुखाने !

यह तब है जब तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और फिर मानस में श्रृंगार के एक से एक वर्णन हैं। केशव, बिहारी आदि की तो बात ही और है। वाणभट्ट की कादंबरी में कटि प्रदेश का जैसा वर्णन है कि पूछिए मत। भवभूति के यहां भी एक से एक वर्णन हैं। हिंदुस्तान में शिवलिंग आदि काल से उपासना गृहों में पूजनीय स्थान रखता है। श्रद्धालु महिलाएं शिवलिंग को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर अपना माथा उस से स्पर्श कराती हैं। यही शिवलिंग पश्चिमी समाज के लोगों के लिए अश्लीलता का प्रतीक है।

कालिदास ने शिव-पार्वती की रति क्रीड़ा का विस्तृत, सजीव और सुंदर वर्णन किया है। कालिदास ने शंकर की तपस्या में लीन पार्वती का वर्णन किया है। वह लिखते हैं—- पार्वती शिव जी की तपस्या में लीन हैं। कि अचानक ओस की एक बूंद उन के सिर पर आ कर गिर जाती है। लेकिन उन के केश इतने कोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के कपोल पर आ गिरती है। कपोल भी इतने सुकोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के स्तन पर गिर जाती है। और स्तन इतने कठोर हैं कि ओस की बूंद टूट कर बिखर जाती है, धराशाई हो जाती है। कालिदास के लेखन को उन के समय में भी अश्लील कहा गया। प्राचीन संस्कृत साहित्य से ले कर मध्ययुगीन काव्य परंपरा है। डीएच लारेंस के ‘लेडीज़ चैटरलीज़ लवर’ पर अश्लीलता के लंबे मुकदमे चले। अदालत ने भी इस उपन्यास को अश्लील माना लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि साहित्य में ऐसे गुनाह माफ़ हैं। ब्लादिमीर नाबकोव की विश्व विख्यात कृति ‘लोलिता’ पर भी मुकदमा चला। लेकिन दुनिया भर के सुधि पाठकों ने उन्हें भी माफ़ कर दिया। आधुनिक भारतीय लेखकों में खुशवंत सिंह, अरूंधति राय, पंकज मिश्रा, राजकमल झा हिंदी में डा. द्वारका प्रसाद, मनोहर श्याम जोशी, कृश्न बलदेव वैद्य उर्दू में मंटो, इस्मत चुगताई आदि की लंबी फ़ेहरिश्त है। 

साहित्यिक अश्लीलता से बचने का सब से बेहतर उपाय यह हो सकता है कि उसे न पढ़ा जाए। यह एक तरह की ऐसी सेंसरशिप है जो पाठक को अपने उपर खुद लगानी होती है। उस की आंखों के सामने ब्लू फ़िल्मों के कुछ उत्तेजक दृश्यों के टुकडे़ होते हैं, जवानी के दिनों की कुछ संचित कुंठाएं होती हैं। 

द्वारिका प्रसाद के उपन्यास घेरे के बाहर में सगे भाई, बहन में देह के रिश्ते बन जाते हैं। उपन्यास बैन हो जाता है। अनैतिक है यह। लेकिन क्या ऐसे संबंध हमारे समाज में हैं नहीं क्या। मैं लखनऊ में रहता हूं। एक पिता ने अपनी सात बेटियों को अपने साथ सालों सुलाता रहा। बेटियों को घर से बाहर नहीं जाने देता था। किसी से मिलने नहीं देता था। बेटियों से बच्चे भी पैदा किए। अंतत: घड़ा फूटा पाप का। वह व्यक्ति अब जेल में है। ऐसे अनगिन किस्से हैं हमारे समाज में। हर शहर , गांव और कस्बे में। गोरखपुर में तो हमारे मुहल्ले में एक ऐसा किस्सा सामने आया कि एक टीन एज लड़का , पड़ोस की दादी की उम्र से जब तब बलात्कार करता रहा। वृद्ध औरत जैसे-तैसे बर्दाश्त करती रही। लेकिन किसी से कुछ कहा नहीं। जब भेद खुला तो लड़का शहर छोड़ कर भाग गया। तो इन घटनाओं को ले कर कहानी लिख दी जाए तो वह अश्लील कैसे हो जाती है भला ? बहुत से ऐसे मामले हैं मेरे सामने गांव से ले कर शहरों तक के हैं कि पिता और बेटी के संबंध हैं। बहू और ससुर के संबंध हैं। राजनीतिक हलके में तो कुछ ऐसे संबंध सब की जुबान पर रहे हैं। कुछ बड़े नाम लिख रहा हूं। कमलापति त्रिपाठी , उमाशंकर दीक्षित , देवीलाल आदि। हमारे पूर्वांचल में ऐसे संबंधों को कोड वर्ड में पी सी एस कहा जाता रहा है। प्रमोद महाजन की हत्या उन के भाई ने क्यों की थी , याद कीजिए। नेहरू , मोरारजी देसाई , तारकेश्वरी सिनहा , इंदिरा गांधी , फिरोज गांधी आदि के अनगिन और अनन्य किस्से कौन नहीं जानता। 

जब दिल्ली में मैं रहता था तब घर के सामने ही सड़क उस पार एक परिवार में चाचा , भतीजी खुल्ल्मखुल्ला संबंध में रहते थे। पूरी कालोनी को पता था। जैनेंद्र कुमार की सुनीता एक एकांत स्थान पर एक पुरुष चरित्र के सामने अचानक निर्वस्त्र हो जाती है ताकि उस का क्रांतिकारी जाग जाए और अपना काम करे। यह कहती हुई कि इसी के लिए तो तुम यहां अपना काम छोड़ कर रुके हुए हो। वह हकबका जाता है। यह शॉक्ड था , उस के लिए। तो क्या जैनेंद्र कुमार की सुनीता  अश्लील हो गई ? अज्ञेय की पहली पत्नी ने तलाक लेने के लिए मेरठ की एक अदालत में अज्ञेय पर  नपुंसक होने का आरोप लगाया था। जिसे अज्ञेय ने चुपचाप स्वीकार कर लिया था। तलाक हो गया था। लेकिन नदी के द्वीप पढ़ने वाले जान सकते हैं कि नपुंसक व्यक्ति उन दृश्यों को , उन प्रसंगों को नहीं लिख सकता था। तो अज्ञेय का नदी का द्वीप अश्लील है ?

मृदुला गर्ग का चितकोबरा जब छप कर आया तो तहलका मच गया। हमारे जैसे लोगों ने उसे छुप-छुपा कर पढ़ा। गोया कोई चोरी कर रहे हों। विद्यार्थी थे ही। चितकोबरा को बाकायदा अश्लील घोषित कर दिया गया। जैनेंद्र कुमार तब सामने आए। कहा कि मृदुला गर्ग की यातना को समझिए। कहा कि यह उपन्यास अश्लील नहीं है। हालां कि सारा चितकोबरा सिर्फ़ चार-छ पन्नों के लिए ही पढ़ा गया। वह भी इस लिए कि तब ब्लू फ़िल्में बाज़ार में आम जन के लिए उपलब्ध नहीं थीं। अगर होतीं तो चितकोबरा की लोग नोटिस भी नहीं लिए होते। इस लिए कि चितकोबरा में जो भी देह दृश्य , जो भी कल्पना थी , ब्लू फिल्मों से ही प्रेरित थीं। काश कि उस के दो मुंह होते , काश कि उस के वह दो होते , यह दो होते , चार होते। आदि-इत्यादि। जल्दी ही ब्लू फिल्म आम हुई और चितकोबरा का जादू गायब हो गया। सारी सनसनी सो गई। मृदुला गर्ग का कठगुलाब भी ऐसे ही आया और चटखारे ले कर चला गया। चित्रा मुद्गल , रमणिका गुप्ता , मैत्रेयी पुष्पा आदि की एक खेप आ गई अश्लीलता के आरोप का वसन पहने। कृष्ण बलदेव वैद , मनोहर श्याम जोशी आदि भी इधर बैटिंग में थे। वर्ष 2000 में मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध पर भी भाई लोगों ने अश्लीलता का आरोप लगाया। लेकिन मैं तो नहीं डिगा। न इस आरोप को कभी स्वीकार किया। लंबे समय तक विवाद और विमर्श का सिलसिला जारी रहा। अभी भी जारी है। जल्दी ही मेरे उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं पर भी यह आरोप दर्ज हुआ। मेरी कुछ कहानियों , कविताओं को भी अश्लील कहा गया। सो अश्लीलता के इस बेहूदा आरोप की यातना से खूब वाकिफ हूं। अश्लीलता का बखेड़ा सिर्फ़ और सिर्फ़ एक बीमारी है। और कुछ नहीं। अगर मां , बेटे के संबंध जैसे भी घटित हो गए हैं देह का गणित में तो वह कृत्य घृणित है , कहानी नहीं। वंदना गुप्ता को बधाई दीजिए कि इस घृणित कृत्य को वह अपनी कहानी देह का गणित का कथ्य बनाने की वह हिम्मत कर सकीं। कहा ही जाता है कि औरत और मर्द का रिश्ता आग और फूस का रिश्ता होता है। आग लगती है तो लगती है। लगती ही जाती है। वर्जनाएं , शुचिता , नैतिकता , मर्यादा आदि का चलन इसी लिए बनाया गया है। जैसे मृदुला गर्ग की चितकोबरा में चार, छ पन्ने ही उस का प्राण थे , वंदना गुप्ता की देह की गणित में भी सौ , डेढ़ सौ शब्द ही हैं जिन के लिए लोग इस कहानी का नाम ले रहे हैं। चितकोबरा और देह का गणित में एक फर्क यह भी है कि चितकोबरा के वह पन्ने बार-बार हम ने पढ़े , रस लेने के लिए। लेकिन देह का गणित फिर दुबारा पढ़ने का मन नहीं हुआ। इस लिए भी कि वंदना गुप्ता ने इस में सेक्स का रस नहीं घोला है। सिर्फ घृणित कृत्य की सीवन उधेड़ी है। देह की गणित की मां अगर मदर इंडिया की नरगिस के चरित्र की तरह बेटे को गोली मार देती तो यह चरित्र बहुत बड़ा बन सकता था। पुलिस में रिपोर्ट कर जो जेल भेज देती बेटे को तब भी यह चरित्र निखर जाता। लेकिन फ़िल्मी कहानी और जीवन की कहानी में फर्क होता है। यहां देह की गणित की मां चूंकि खुद भी देह सुख में डूब लेती है तो वह ऐसा करती भी तो कैसे भला। कहानी की ईमानदारी और यथार्थ की मांग भी यह सब नहीं थी। मां , बेटे के नैतिक पतन और पाप को , व्यभिचार को यह कहानी सपाट ढंग से ही सही , कह जाती है। बावजूद इस सब के वंदना गुप्ता रिस्क ज़ोन में गई हैं। नहीं ऐसे संबंध हमारे समाज में बहुत पहले से हैं। पर हिंदी पट्टी में पाखंड के व्याकरण के तहत में इस संबंध पर कहानी लिखना पाप है , अपराध है। सो लोग बचते हैं। सोचिए कि ऐसे तो रामायण लिखने वाले बहुतेरे रचनाकारों द्वारा रावण द्वारा सीता के अपहरण की घटना लिखनी ही नहीं चाहिए था। क्यों कि यह अनैतिक था। पाप था। इस से बाल्मीकि , तुलसी दास या अन्य रचनाकारों को भी बचना चाहिए था। महाभारत में भी कंस , धृतराष्ट्र  , शकुनि , दुर्योधन , दुशासन , कुंती , कर्ण , द्रोपदी आदि फिर नहीं होने चाहिए थे। ऐसे ही तमाम निगेटिव करेक्टर नहीं होना चाहिए , किसी भी साहित्य में। क्या तो यह अनैतिक है। अपराध है। आदि-इत्यादि। फिर तो इस बुनियाद पर दुनिया भर का दो तिहाई कथा साहित्य अश्लील हो गया।

अच्छा देह का गणित तो कहानी है। मलयाली लेखिका कमला दास की आत्म कथा माई स्टोरी की याद कीजिए।  हिंदी में भी मेरी कहानी नाम से उपस्थित है। वह तो सच है। जिस में तमाम देह संबंधों के साथ ही वह अपने बेटे के दोस्तों के साथ भी देह सुख बटोरती रहती हैं। तो क्या वह अश्लील है ? तमाम हिंदी लेखिकाओं की कथाएं और उन का जीवन किन-किन किस्सों से नहीं भरा पड़ा है तो क्या वह अश्लील है ? कुछ लेखिकाएं सिर्फ़ इसी लिए ही जानी जाती हैं , अपने लेखन के लिए नहीं। अभी जो यहां इन लेखिकाओं के नाम लिख दूं तो स्त्री विरोधी का फतवा जारी करते हुए सब की सब मुझ पर हड्डों की तरह टूट पड़ेंगी। कुछ लेखिकाओं की आत्मकथा पढ़िए। कैसे तो अपनी साड़ियां खुद उतारती फिरती हैं। क्या-क्या नहीं लिख गई हैं। और जो वह नहीं लिख पाई हैं , क्या वह भी पब्लिक डोमेन में नहीं हैं ? यही हाल तमाम लेखकों का है। शिवरानी देवी की किताब प्रेमचंद घर में यह खुलासा है कि प्रेमचंद के अपने विमाता से निजी संबंध थे। निर्मला उन की ही अपनी कहानी है। रवींद्रनाथ टैगोर के संबंध अपनी सगी भाभी से थे। देवानंद के छोटे भाई और प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक , अभिनेता विजय आनंद ने अपनी सगी भांजी से तमाम विरोध के बावजूद विवाह किया। यह और ऐसे तमाम विवरण हैं। तो क्या यह सब अश्लील है ?

जी नहीं , यह जीवन है। निंदनीय ही सही यह जीवन सर्वदा से ही ऐसे चलता रहा है। पौराणिक कथाओं में भी यह और ऐसे चरित्र बहुतेरे हैं। वर्तमान में भी यह जीवन कहानियों में भी , उपन्यासों में भी , जल में परछाईं की तरह झलकता रहेगा। समय के दर्पण में दीखता रहेगा। साहित्य है ही , समाज का दर्पण। सो फिकर नाट वंदना गुप्ता । देह का गणित होता ही है ऐसा। आग , फूस जैसा। लोग जलते हैं तो जलने दीजिए। हम ने तो लिखने के लिए लोगों के अभद्र और अश्लील आरोप ही नहीं , हाई कोर्ट में कंटेम्प्ट का मुकदमा भी भुगता है , लेकिन सच लिखना नहीं छोड़ा। नहीं छोडूंगा। लोगों का क्या है , लोगों का तो काम ही है कहना। आप अपना काम पूरी निर्भीकता से करती रहिए। हमारे लखनऊ में भगवती चरण वर्मा कहते थे , संसार में अश्लीलता नाम की कोई चीज़ भी है , इस पर मुझे शक है। रही नैतिकता की बात तो मनुष्य का यह अपना निजी दृष्टिकोण है।

[ पाखी , नवंबर , 2018 अंक में प्रकाशित ]