Saturday, 21 March 2015

अरविंद कुमार का नया इश्क है - अरविंद वर्ड पावर

दयानंद पांडेय 


हिंदी में टोटकेबाज़ , खेमेबाज़ , ड्रामेबाज़ , दुकानदार और जाने क्या-क्या बहुतेरे हैं पर अरविंद कुमार जैसा तपस्वी ऋषि आज की तारीख में हिंदी में कोई दूसरा नहीं । पचासी साल की उम्र में आज भी वह हिंदी के लिए जी-जान लड़ाए पड़े हैं । रोज छ से आठ घंटे काम करते हैं ।  कंप्यूटर पर माऊस और की बोर्ड के साथ उन की अंगुलियां नाचती रहती हैं । हिंदी और अंगरेजी  के शब्दों से जूझते हुए वह जीवन में आ रहे नित नए शब्दों को अपने कोश में गूंथते रहते हैं , ऐसे जैसे कोई मालिन हों और फूलों की माला पिरो रहे हों । ऐसे जैसे कोई कुम्हार हों और शब्दों के चाक पर नए-नए बर्तन गढ़ रहे हों । ऐसे जैसे कोई जौहरी हों और कोयले में से चुन-चुन कर हीरा चुन रहे हों । ऐसे जैसे कोई गोताखोर हों और समुद्र में गोता मार-मार कर एक-एक मोती बिन रहे हों । शब्दों का ।  जैसे कोई चिड़िया अपने  बच्चों  के लिए एक-एक दाना चुनती है अपनी चोंच में और फिर बच्चों की चोंच में अपनी चोंच डाल कर उन्हें वह चुना हुआ दाना खिलाती है और खुश हो जाती है । ठीक वैसे ही अरविंद कुमार एक-एक शब्द चुनते हैं और शब्दों को चुन-चुन कर अपने कोश में सहेजते हैं और सहेज कर खुश हो जाते हैं उस चिड़िया की तरह ही । कोई चार दशक से वह इस तपस्या में लीन हैं । काम है कि खत्म नहीं होता और वह हैं कि थकते नहीं । वह किसी बच्चे की तरह शब्दों से खेलते रहते हैं। 

अरविंद कुमार जैसा इश्कबाज़ भी मैं ने दूसरा नहीं देखा । अब आगे भी कहां देखूंगा भला ? अरविंद कुमार को शब्दों से इश्क है । दुनिया की जैसे सभी भाषाओं और उन के शब्दों से  उन्हें बेतरह इश्क है । और अकसर कहते ही रहते हैं कि , ' जब तक भाषाएं बढ़ती और संवरती रहेंगी, मेरा काम चलता रहेगा !'   यानी कि  जब तक दुनिया चलेगी , भाषाएं बढ़ती और संवरती ही रहेंगी और अरविंद काम करते रहेंगे । यह तो इश्क की इंतिहा है । शब्दों से उन की इस आशिकी ने कई गुल खिलाए हैं । उन का नया इश्क है - अरविंद वर्ड पावर । कई गुना शब्द शक्ति बढ़ने वाला सशक्त कोष और थिसारस । इस का संयोजन अरविंद कुमार ने सुपरिचित कोश कर्म से किया है । ऊपर नीचे  पैराग्राफों में शब्दों के इग्लिश और हिंदी पर्याय तो अरविंद वर्ड पावर परोसता ही है , सदृश और विपरीत  जानकारी दे कर जाने के लिए भी उत्सुक बनाता है । भारतीय पाठकों की ज़रूरत को पूरा करने वाला अरविंद वर्ड पावर इकलौता इंग्लिश-हिंदी कोश है । भारतीय रीति-रिवाजों , प्रथाओं , परंपराओं , विचारधाराओं , दर्शन , सिद्धांत , मिथको, , मान्यताओं और संस्कृति से जुड़े शब्दों का महासागर है यह कोश ।  यह अनायास नहीं है कि हिंदी के सुपरिचित कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी ने अरविंद वर्ड पावर की चर्चा करते हुए अपने एक कालम में इसे नया उत्तम कोश बताते हुए लिखा है कि , ' अरविंद कुमार का यह सुशोभित-सुरचित कोश निश्चय ही हमारी भाषा के लिए एक ऐतिहासिक घटना है । हिंदी समाज को अरविंद कुमार का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्हों  ने ऐसा अद्भुत कोश बनाया है.। ' वह लिखते हैं, ' इस कोश का एक उल्लेखनीय पक्ष यह है कि इस में  बोलचाल में  प्रचलित बोलियों से आए शब्दों को भी जगह दी गई है।  ऐसे शब्द भी काफ़ी हैं , जो उर्दू फ़ारसी अऱबी, अंगरेजी आदि से आ कर हिंदी में  ज़ज्ब हुए हैँ।  ऐसे किसी भी कोश को एक स्तर पर हिंदी की अद्भुत समावेशिता का संकलन होना चाहिए – यह कोश ऐसा है।  उस से यह भी बख़ूबी प्रकट होता है कि हिंदी का चौगान और हृदय कितना चौड़ा है और कहां कहां तक फैला है।  हिंदी का राजभाषा रूप उसे संकीर्ण और दुर्बोध बनाता रहा है।  यह कोश एक तरह से इस का प्रतिरोध करता है. हिंदी के अपने उदार स्वभाव को तथ्य और शब्द-पुष्ट करता है।

1996 में जब नेशनल बुक ट्रस्ट ने हिंदी का अरविंद कुमार रचित पहला थिसारस समांतर कोश  छापा था तब खुशवंत सिंह ने लिखा था , ' इस ने हिंदी की  एक भारी कमी को पूरा किया है हिंदी को इंग्लिश भाषा के समकक्ष खड़ा कर दिया है ।'  यहां तो हिंदी की डिक्शनरियां भी सालों-साल परिवर्द्धित नहीं की जातीं। इसी लिए आप पाएंगे कि हिंदी की तमाम डिक्शनरियों में हिंदी में आए नए शब्द पूरी तरह लापता हैं । अरविंद के यहां ऐसा नहीं  है । वह तो जैसे अपने शब्द कोश , अपने थिसारस के लिए अपना संपूर्ण जीवन होम किए  बैठे हैं । जल्दी ही राजकमल ने उन का सहज समांतर कोश छाप दिया । फिर भारतीय मिथक पात्रों के संसार को ले कर शब्देश्वरी भी छापी । अभी इन की धमक गई भी नहीं थी कि 2007 में द पेंग्विन इग्लिश-हिंदी थिसारस एंड डिक्शनरी पेंग्विन ने तीन खंड में छापा । दुनिया का यह विशालतम द्विभाषी थिसारस तमाम विषयों के पर्यायवाची और विपर्यायवाची शब्दों का महाभंडार है । संदर्भ क्रम से संयोजित इस कोश में पहली बार संबद्ध और विपरीत शब्दकोटियों के क्रास रेफरेंस भी शामिल किए गए । अरविंद रुके नहीं और 2013 में समांतर कोश का परिवर्द्धित संस्करण बृहत्तर समांतर कोश छ्प कर आ गया । और अब 2015 में अरविंद वर्ड पावर हमारे सामने है । लेकिन अरविंद अभी भी रुके नहीं हैं । अब उन का सपना है शब्दों का विशाल विश्व बैंक बनाने का । यानी  वर्ड बाइक आफ वर्ड्स । 

अरविंद का मानना है कि आज भारत की भाषा को संसार की हर भाषा से अपना संबंध बनाना चाहिए । आखिर हम कब तक संसार को अभारतीय इंग्लिश-कोशों के जरिए देखते रहेंगे ? और कब तक संसार हमें इन अभारतीय कोशों के जरिए देखता रहेगा ? क्यों नहीं हम स्वयं अपने अरबी-हिंदी और हिंदी-अरबी कोष बनाते? या हिंदी-जापानी जापानी-हिंदी कोश ? अरविंद कुमार ने यह भी संभव बनाने की ठानी है । उन का अरविंद लैक्सन इस काम में बहुत मददगार होने  वाला हैं । अरविंद लैक्सन जो नेट पर उपलब्ध है , के विशाल शब्द भंडार में एक-एक कर के दूसरी भाषाओं के शब्द डाल कर , वांछित भाषाओँ के द्विभाषी या त्रिभाषी कोश तत्काल बन सकते हैं । अरविंद कहते हैं कि समय आ गया है कि हम अपने दूरगामी राष्ट्रीय  हितों के लिए संसार की भाषाओं तक अपने भाषा सेतु बनाएं ।

 अरविंद लैक्सिकन पर 6 लाख से ज्यादा अंगरेज़ी और हिंदी अभिव्यक्तियां हैं। माउस से क्लिक कीजिए - पूरा रत्नभंडार खुल जाएगा। किसी भी एक शब्द के लिए अरविंद लैक्सिकन इंग्लिश और हिंदी पर्याय, सपर्याय और विपर्याय देता है, साथ ही देता है परिभाषा, उदाहरण, संबद्ध और विपरीतार्थी कोटियों के लिंक। उदाहरण के लिए सुंदर शब्द के इंग्लिश में 200 और हिंदी में 500 से ज्यादा पर्याय हैं। किसी एकल इंग्लिश ई-कोश के पास भी इतना विशाल डाटाबेस नहीं है। लेकिन अरविंद लैक्सिकन का सॉफ्टवेयर बड़ी आसानी से शब्द कोश, थिसारस और मिनी ऐनसाइक्लोपीडिया बन जाता है। इसका पूरा डाटाबेस अंतर्सांस्कृतिक है, अनेक सभ्यताओं के सामान्य ज्ञान की रचना करता है। शब्दों की खोज इंग्लिश, हिंदी और रोमन हिंदी के माध्यम से की जा सकती है। रोमन लिपि उन सब को हिंदी सुलभ करा देती है जो देवनागरी नहीं पढ़ सकते या टाइप नहीं कर सकते।

अरविंद लैक्सिकन को माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के साथ-साथ ओपन ऑफ़िस में पिरोया गया है। इस का मतलब है कि आप इनमें से किसी भी एप्लीकेशन में अपने डॉक्यूमेंट पर काम कर सकते हैं। सुखद यह है कि दिल्ली सरकार के सचिवालय ने अरविंद लैक्सिकन को पूरी तरह उपयोग में ले लिया है। अरविंद कहते हैं कि शब्द मनुष्य की सब से बड़ी उपलब्धि है, प्रगति के साधन और ज्ञान-विज्ञान के भंडार हैं, शब्दों की शक्ति अनंत है। वह संस्कृत के महान व्याकरणिक महर्षि पतंजलि को कोट करते हैं, 'सही तरह समझे और इस्तेमाल किए गए शब्द इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं।' वह मार्क ट्वेन को भी कोट करते हैं, 'सही शब्द और लगभग सही शब्द में वही अंतर है जो बिजली की चकाचौंध और जुगनू की टिमटिमाहट में होता है।' वह बताते हैं, 'यह जो सही शब्द है और इस सही शब्द की ही हमें अकसर तलाश रहती है।'

अब ज़रा एक नज़र पीछे मुड़ कर देखते हैं । अरविंद कुमार तब दिल्ली में रहते थे । एक हिंदी कहानी का इंग्लिश अनुवाद करते करते बुरी तरह उलझे हुए थे । एक हिंदी शब्द के लिए उन्हें उपयुक्त इंग्लिश शब्द नहीं सूझ रहा था।  यह 1952 में अप्रैल महीने का एक तपता गरम दिन था ।  पास ही बैठे थे उन के एक मित्र वरिष्ठ इंग्लिश फ़्रीलांसर।  अरविंद की समस्या समझ  कर वह उन्हें  कनाट प्लेस में किताबों की एक दुकान तक ले गए और एक किताब उन्हें पकड़ा दी। यह था ठीक सौ साल पहले लंदन में छपा लंबे से नाम वाला – थिसारस आफ़ इंग्लिश वर्ड्स ऐंड फ़्रैजेज़ क्लासिफ़ाइड ऐंड अरेंज्ड सो ऐज़ टु फ़ैसिलिटेट द ऐक्सप्रैशन आफ़ आइडियाज़ ऐंड ऐसिस्ट इन लिटरेररी कंपोज़ीशन ।  इस का हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार होगा – साहित्यिक रचना और विचारों की अभिव्यक्ति में सहायतार्थ सुनियोजित और संयोजित इंग्लिश शब्दों और वाक्यांशों का थिसारस।  रोजट्स थिसारस नाम से मशहूर इस किताब के पन्ने पलटते ही अरविंद पर उस का जादू चढ़ गया।  तुरंत ख़रीद लिया । ग्रीक शब्द थिसारस का सरल हिंदी अनुवाद तिजोरी है। यानी अंग्रेजी शब्दों की तिजोरी अरविंद के हाथ लग गई । 



वह अनोखी किताब क्या हाथ लगी अरविंद के कि हाथ से छूटती ही नहीं थी।  उन  की हमजोली बन गई, हर दम साथ रहती।  ज़रूरत पड़ने पर तो उस से वह मदद लेते  ही, बेज़रूरत भी पन्ने पलटते , शब्द पढ़ते  रहते । उन के मन में बार बार चाह उठती – हिंदी में भी कुछ ऐसा हो।  भारत में  कोशकारिता की परंपरा पुरानी है. प्रजापति कश्यप का 1800 वैदिक शब्दोँ का संकलननिघंटुथा, अमर सिंह का 8,000 शब्दोँ वाला प्रसिद्ध थिसारस अमर कोश था।  हिंदी में ऐसा था ही कुछ नहीं । 


अरविंद समझाते हैं:“रोजट के माडल मेँ हर संकल्पना का एक सुनिश्चित स्थान है।  उस का आधार वैज्ञानिक है.लेकिन भाषा जो भी हो, वैज्ञानिक नहीँ होती।  नए नए शब्द विज्ञान के आधार पर नहीं , मानसिक संबंधों के आधार पर, कई बार बस यूं ही या सामाजिक अवधारणाओं  पर बनते हैं ।  इंग्लिश के रेनी डे  का मुख्य अर्थ है कठिन समय, हमारे यहां  बरसाती दिन  सुहावना होता है, कविता का विषय है, रोमांस का समय है।

बात आगे बढ़ाते वह कहते हैं , विज्ञान मेँ ‘गेहूं ’ एक तरह की घास भर है, आम आदमी के लिए वह खाद्य अनाज है। संस्कृत से ले कर हिंदी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं  के अपने अलग सामाजिक संदर्भ हैं । सांस्कृतिक संकल्पनाएं हैं । .एक और समस्या यह है कि काव्य की भाषाएं होने के कारण हमारे यहां इंग्लिश के मुक़ाबिले पर्यायों की भरमार है । हलदी के लिए अरविंद को 125 पर्याय मिले! ‘हेलमेट के लिए 32 शब्द। इंग्लिश से हिंदी कोश बनाने वाले कोशकार जब इस शब्द पर आते हैं, तो वे बस शिरस्त्राण लिख देते हैं, क्योँ कि उन्हें  इस के लिए प्रचलित शब्दों  की जानकारी नहीं होती।  शिरस्त्राण तो किसी भी उस चीज़ के लिए काम में लाया जा सकता है जिस से सिर की रक्षा होती है।  सवाल यह उठता है कि राणा प्रताप युद्ध में  क्या लगाते थे? हैलमेट तो क़तई नहीँ ! हमारे पास राजस्थानी का झिलम शब्द है, और भी बहुत सारे शब्द हैं । वे हिंदी से हिंदी कोशों में हैं , पर समांतर कोश  से पहले कहीँ संकलित नहीँ थे। 
इंग्लिश में ईवनिंग इन पैरिस  पैरिस की कोई भी शाम है, हमारे यहां  शामे अवध  की रौनक़ बेमिसाल मानी जाती है, सुबहे बनारस  में  पूजापाठ और शंखनाद का पावन आभास है, तो शबे मालवा  सुहावनी ठंडक की प्रतीक है। थिसारसकारों  की भाषा में हर शीर्षक/उपशीर्षक विषय या संकल्पना कहलाते हैं । यानी किसी एक वस्तु या वस्तु समूह की अमूर्त या सामान्यकृत कोटि। 

एक बार अरविंद का दिल्ली से लगभग तीस पैंतीस किलोमीटर दूर मुरादनगर जाना हुआ।  वहां एक कारीगर के मुंह से नया शब्द सुना:बैटरा !- बैटरी का पुंल्लिंग।  मतलब था ट्रैक्टर ट्रक आदि मेँ लगने वाली बड़ी बैटरी। हिंदी इसी तरह के सैकड़ोँ अड़बंगे लेकिन बात को सही तरह कहने वाले नए शब्दों से भरी है। वह कहते हैं , इस का अर्थ था कि हिंदी थिसारस बनाना जितना मैं ने सोचा था, उस से दस गुना कठिन निकला। वह जैसे जोड़ते हैं , पीछे मुड़ कर देखता हूं  तो दसगुना ज़्यादा दिलचस्प भी। 


कमलेश्वर अरविंद कुमार को शब्दाचार्य कहते थे ।

कमलेश्वर अरविन्द कुमार को शब्दाचार्य ज़रूर कह गए हैं। और लोग सुन चुके हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि अमरीका सहित लगभग आधी दुनिया घूम चुके यह अरविंद कुमार जो आज शब्दाचार्य हैं, एक समय बाल श्रमिक भी रहे हैं। हैरत में डालती है उनकी यह यात्रा कि जिस दिल्ली प्रेस की पत्रिका सरिता में छपी सीता निष्कासन कविता से वह चर्चा के शिखर पर आए उसी दिल्ली प्रेस में वह बाल श्रमिक रहे।

वह जब बताते हैं कि लेबर इंस्पेक्टर जांच करने आते थे तो पिछले दरवाज़े से अन्य बाल मज़दूरों के साथ उन्हें कैसे बाहर कर दिया जाता था तो उनकी यह यातना समझी जा सकती है। अरविन्द उन लोगों को कभी नहीं समझ पाते जो मानवता की रक्षा की ख़ातिर बाल श्रमिकों पर पाबन्दी लगाना चाहते हैं। वह पूछते हैं कि अगर बच्चे काम नहीं करेंगे तो वे और उनके घर वाले खाएंगे क्या? वह कहते हैं कि बाल श्रम की समस्या का निदान बच्चों को काम करने से रोकने में नहीं है, बल्कि उनके मां-बाप को इतना समर्थ बनाने में है कि वे उनसे काम कराने के लिए विवश न हों। तो भी वह बाल मजदूरी करते हुए पढ़ाई भी करते रहे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अंगरेज़ी में एम. ए. किया। और इसी दिल्ली प्रेस में डिस्ट्रीब्यूटर, कंपोजिटर, प्रूफ रीडर, उप संपादक, मुख्य उप संपादक और फिर सहायक संपादक तक की यात्रा अरविन्द कुमार ने पूरी की। और 'कारवां' जैसी अंगरेज़ी पत्रिका भी निकाली। सरिता, मुक्ता, चंपक तो वह देखते ही थे। सचमुच अरविन्द कुमार की जीवन यात्रा देख कर मन में न सिर्फ़ रोमांच उपजता है बल्कि आदर भी। तिस पर उनकी सरलता, निश्छलता और बच्चों सी अबोधता उन की विद्वता में समुन्दर-सा इज़ाफा भरती है। यह एक विरल संयोग ही है कि अरविन्द उसी मेरठ में जन्मे हैं जहां खड़ी बोली यानी हिन्दी जन्मी।

अरविन्द हमेशा कुछ श्रेष्ठ करने की फिराक़ में रहते हैं। एक समय टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ग्रुप से प्रकाशित फिल्म पत्रिका माधुरी के न सिर्फ़ वह संस्थापक संपादक बने, उसे श्रेष्ठ फिल्मी पत्रिका भी बनाया। टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ग्रुप से ही प्रकाशित अंगरेज़ी फिल्म पत्रिका फिल्म फेयर से कहीं ज्यादा पूछ तब माधुरी की हुआ करती थी। माया नगरी मुम्बई में तब शैलेन्द्र और गुलज़ार जैसे गीतकार, किशोर साहू जैसे अभिनेताओं से उन की दोस्ती थी और राज कपूर सरीखे निर्माता-निर्देशकों के दरवाजे़ उनके लिए हमेशा खुले रहते थे। कमलेश्वर खुद मानते थे कि उनका फि़ल्मी दुनिया से परिचय अरविन्द कुमार ने कराया और वह मशहूर पटकथा लेखक हुए। ढेरों फि़ल्में लिखीं। बहुत कम लोग जानते हैं कि अमिताभ बच्चन को फि़ल्म फ़ेयर पुरस्कार के लिए अरविन्द कुमार ने ही नामित किया था। आनन्द फि़ल्म जब रिलीज़ हुई तो अमिताभ बच्चन के लिए अरविन्द जी ने लिखा - एक नया सूर्योदय। जो सच साबित हुआ। तो ऐसी माया नगरी और ग्लैमर की ऊभ-चूभ में डूबे अरविन्द कुमार ने हिन्दी थिसारस तैयार करने के लिए 1978 में 14 साल की माधुरी की संपादकी की नौकरी छोड़ दी। मुम्बई छोड़ दी। चले आए दिल्ली। लेकिन जल्दी ही आर्थिक तंगी ने मजबूर किया और खुशवन्त सिंह की सलाह पर अन्तरराष्ट्रीय पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के हिन्दी संस्करण सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संस्थापक संपादक हुए। जब सर्वोत्तम निकलती थी तब अंगरेज़ी के रीडर्स डाइजेस्ट से ज्यादा धूम उसकी थी। 

लेकिन थिसारस के काम में फिर बाधा आ गई। अन्तत: सर्वोत्तम छोड़ दिया। अब आर्थिक तंगी की भी दिक्कत नहीं थी। डॉक्टर बेटा सुमीत अपने पांव पर खड़ा था और बेटी मीता लाल दिल्ली के इरविन कॉलेज में पढ़ाने लगी थी। अरविन्द कुमार कहते हैं कि थिसारस हमारे कंधे पर बैताल की तरह सवार था, पूरा तो इसे करना ही था। बाधाएं बहुत आईं। एक बार दिल्ली के मॉडल टॉउन में बाढ़ आई। पानी घर में घुस आया। थिसारस के लिए संग्रहित शब्दों के कार्डों को टांड़ पर रख कर बचाया गया। बाद में बेटे सुमीत ने अरविन्द कुमार के लिए न सिर्फ कंप्यूटर ख़रीदा बल्कि एक कंप्यूटर ऑपरेटर भी नौकरी पर रख दिया। डाटा इंट्री के लिए। थिसारस का काम निकल पड़ा। काम फ़ाइनल होने को ही था कि ठीक छपने के पहले कंप्यूटर की हार्ड डिस्क ख़राब हो गई। लेकिन ग़नीमत कि डाटा बेस फ्लापी में कॉपी कर लिए गए थे। मेहनत बच गई। और अब न सिर्फ़ थिसारस के रूप में समान्तर कोश बल्कि शब्द कोश और थिसारस दोनों ही के रूप में अरविन्द सहज समान्तर कोश भी हमारे सामने आ गया। हिन्दी-अंगरेज़ी थिसारस भी आ गया।

अरविन्द न सिर्फ़ श्रेष्ठ रचते हैं बल्कि विविध भी रचते हैं। विभिन्न देवी-देवताओं के नामों वाली किताब 'शब्देश्वरी' की चर्चा अगर यहां न करें तो ग़लत होगा। गीता का सहज संस्कृत पाठ और सहज अनुवाद भी 'सहज गीता' नाम से अरविन्द कुमार ने किया और छपा। शेक्सपियर के 'जूलियस सीजर' का भारतीय काव्य रूपान्तरण 'विक्रम सैंधव' नाम से किया। जिसे इब्राहिम अल्काज़ी जैसे निर्देशक ने निर्देशित किया। गरज यह कि अरविन्द कुमार निरन्तर विविध और श्रेष्ठ रचते रहे हैं। एक समय जब उन्होंने 'सीता निष्कासन' कविता लिखी थी तो पूरे देश में आग लग गई थी। 'सरिता' पत्रिका, जिसमें यह कविता छपी थी, देश भर में जलाई गई। भारी विरोध हुआ। 'सरिता' के संपादक विश्वनाथ और अरविन्द कुमार दसियों दिन तक सरिता द़फ्तर से बाहर नहीं निकले क्योंकि दंगाई बाहर तेजाब लिए खड़े थे।

'सीता निष्कासन' को लेकर मुकदमे भी हुए और आन्दोलन भी। लेकिन अरविन्द कुमार ने अपने लिखे पर माफी नहीं मांगी। न अदालत से, न समाज से। क्योंकि उन्होंने कुछ ग़लत नहीं लिखा था। एक पुरुष अपनी पत्नी पर कितना सन्देह कर सकता है, 'सीता निष्कासन' में राम का सीता के प्रति वही सन्देह वर्णित था। तो इसमें ग़लत क्या था? फिर इसके सूत्र बाल्मिकी रामायण में पहले से मौजूद थे। अरविन्द कुमार जितना जटिल काम अपने हाथ में लेते हैं, निजी जीवन में वह उतने ही सरल, उतने ही सहज और उतने ही व्यावहारिक हैं। तो शायद इसलिए भी कि उनका जीवन इतना संघर्षशील रहा है कि कल्पना करना भी मुश्किल होता है कि कैसे यह आदमी इस मुकाम पर पहुंचा।

[ 22  मार्च , 2015 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित ]

Friday, 20 March 2015

सपनों का सिनेमा

दयानंद पांडेय 


कभी कभी अब भी तुम सपनों में झांक जाती हो तो लगता है जैसे कोई सिनेमा शुरू हो गया है। ऐसा सिनेमा जिस की कोई एक कहानी नहीं होती। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी कई सारी कहानियां। उन दिनों की कहानियां जब मैं तुम से प्यार करता था। इकरार और इसरार करता था। बेकरार तुम्हारी आंखों में झांक-झांक निसार होता था। बिलकुल ठीक वैसे ही तुम आज भी सपनों में झांक गई हो।

और सपनों की एक रेल चल गई है। सॉरी रेल नहीं, मेट्रो रेल। कि चली नहीं कि तुम्हारा हाथ हाथों में ले लूं कि दूसरा स्टेशन आ गया है। आता ही जा रहा स्टेशन-दर-स्टेशन पर तुम्हारा हाथ मेरे हाथों में नहीं आ पाता। जैसे तुम मेरी ज़िंदगी में आ कर भी नहीं आ पाई। जैसे कोई क्लास में तो रोज बैठे। सारे पीरियडस भी पढ़े। इम्तहान का फ़ार्म भी भरे। पर ऐन वक्त पर इम्तहान देने से रह जाए। और जब इम्तहान ही नहीं दिया तो फिर रिजल्ट भी कैसे आए भला ?

मैं पूछना चाहता हूं कि यह हमारे सपनों में तुम्हारी मेट्रो इतनी तेज़ चलती क्यों है? कि सारा सिनेमा गडमड हो जाता है। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी कहानी वाला सिनेमा। कुछ-कुछ कहानियां ऐसी जिन के टुकड़े कैमरा क़ैद नहीं कर पाता। कुछ दृश्यों को निर्देशक समझ नहीं पाता। तो कुछ को पटकथा लेखक पहले ही निकाल बाहर फेंक देता है। कि इस से तो सिनेमा स्लो हो जाएगा। और सब को फास्ट चाहिए। बिलकुल कसा हुआ। चाहे सिनेमा हो, चाहे औरत, चाहे प्रेम। क्या इसी लिए कहते हैं कि कथा और पटकथा नदी के दो छोर हैं। कथा इस पार, पटकथा उस पार। ज़्यादा कुछ तो इसी में साफ हो जाएगा। बाक़ी का निर्देशक और कैमरा मारेगा। तो कुछ एडिटिंग में खो जाएगा। मतलब कहानी का सत्यानाश्! लेकिन सिनेमा चलेगा हमारे सपनों का।

तुम्हें याद है

मुगल गार्डेंन में अंत्याक्षरी खेलते-खेलते हम लोग जब-तब लिपट जाते थे। अंत्याक्षरी तो एक बहाना था। तुम मुझ से गाना सुनना चाहती थी। और मैं गाता था। तुम्हारे लिए। एक बार गांधी समाधि पर जब रधुपति राघव राजा राम गाने लगा था तो तुम कैसे तो तमक कर उठ खड़ी हुई थी कि अभी मैं मरी नहीं हूं ! मेरे मरने पर यह गाना। और मैं, ‘कोरा कागज था ये मन मेरा, लिख दिया नाम उस पे तेरा !’ गाने लगा था। 

उन्हीं दिनों एशियाड हुआ था। इंदिरा गांधी ने दिल्ली में एक साथ कई फ्लाई ओवर बनवा दिए थे। उन फ्लाई ओवरों पर जब कोई युवा जोड़ा चिपटा-चिपटा अपनी बाइक से सन-सन करता गुज़रता तो तुम फिर मचल जाती। कहती कि, ‘तुम भी बाइक ख़रीदो न! मैं भी तुम्हारी कमर में हाथ डाल कर तुम्हारे साथ चिपट कर बैठना चाहती हूं। पर पैसे ही इतने नहीं हुए तब कि कभी बाइक ख़रीद कर तुम्हें चिपटा कर बैठाता। कुछ बैंकों के चक्कर भी मारे। कि लोन मिल जाए। बाइक के लिए। पर नहीं मिला। तुम्हारी यह फ़र्माइश नहीं पूरी कर पाने का मलाल आज तक है। इतना कि बाइक चलाना भी आज तक नहीं सीखा।

हम लोग एक शाम जब दिल्ली के लोहे वाले पुल पर पैदल चलने वाले हिस्से पर खड़े थे। हाथों में हाथ लिए यमुना की धारा को निहारते हुए। पुल के नीचे से एक नाव गुज़री थी। उस नाव पर भी एक जोड़ा था। लगभग लिपटा हुआ, गुत्थमगुत्था। यह देख कर तुम मचल गई थी कि, ‘हम भी नाव पर बैठेंगे! ’ कि तभी पुल के  ऊपर से कोई रेल गुज़री थी धड़-धड़ ! समूचा पुल हिलने लगा था। और तुम मारे डर के मेरे सीने से लिपट गई थी। किसी सिनेमाई हिरोइन की तरह। बगल से गुज़रते हुए लोग ‘ओए-ओए!’ कहते हुए मज़ा लेने लगे थे। मैं असहज हो गया था। पर तुम बेख़बर सीने से चिपटी रही। ट्रेन के गुज़र जाने के बाद हम लोग नाव के लिए घाट पर भी गए थे। अंधेरा होने को था। कोई नाव वाला तैयार नहीं हुआ। हम दोनों मायूस लौटे थे। दूसरे दिन मुद्रिका वाली बस में हम बैठे। हाथ में हाथ लिए। एक दूसरे के स्पर्श में खोए। बस से कौन उतर रहा है, कौन चढ़ रहा है, इस सब से बेख़बर। एक ही बस में अप-डाउन करते रहे। दिन भर। उतरे नहीं। बस एक दूसरे को महसूसते हुए बैठे रहे। कंडक्टर अजीब़ नज़रों से घूरता रहा। मैं असहज हो गया। पर तुम बेख़बर रही।

वह जाड़ों के दिन थे। जब तुम गांधी नगर की गलियों में एक रात मुझ से सट कर चल रही थी। कि अचानक दो तीन कुत्तों ने भौंकना शुरू किया। मैं डर गया। डर कर ýक गया। कुत्ते पास आए। तुम्हें मुझ से प्रेम में पड़े देख कर यकायक भौंक कर चुप हो गए। मैं तो कुत्तों से डरता रहा, तुम मुस्कुराती खड़ी रही। कुत्ते हमारे प्रेम को देख कर जैसे मुदित हो गए। चुप हो गए। और दुम हिलाते हुए चले गए। तुम से, तुम्हारे प्रेम के ऐसे अनगिन दृश्य हैं मेरी आंखों में, मेरी यादों में, मेरी सांसों में। किसी न ख़त्म होने वाले सिनेमा की तरह। जैसे सिनेमा तो वही हो पर उस के सारे शो में हम तुम ही बैठे हों। फ़िल्म एक दूजे के लिए की याद है तुम्हें? दरियागंज के गोलचा सिनेमा में तुम्हारे साथ देखी थी। कमल हासन और रति अग्निहोत्री जब लाईट जला-बुझा कर, संकेत दे कर अपने-अपने घरों से मौन संदेश भेजते हैं। और एक दृश्य में कपड़ा धोते-धोते, कपड़ा पटकते-पटकते, कपड़ा फाड़ देने वाला वाकया देख कर कितना तो ठठा कर हंसा था मैं। और तुम ने अपना हाथ मेरे मुंह पर रख दिया था। और खुसफुसाई थी कि, ‘इस तरह मत हंसो, लोग देख रहे हैं।’

अब तो कुतुबमीनार की सीढ़ियां बंद हैं चढ़ने के लिए। पर तुम्हें याद है कि एक बार कुतुबमीनार की अंधेरी सीढ़ियां उतरते हुए पीछे से बांहों में भर कर चूम लिया था तुम्हें। और तुम खूब ज़ोर से चीख़ी थी। कि सब लोग ठिठक गए थे। यह हमारे प्यार के पछुवा के दिन थे। पछुवा हवा बहती है तो पानी लाती है। बादर को बरसाती है।

कनाट प्लेस में पालिका बाज़ार उन दिनों नया-नया बना था। दिल्ली का पहला अंडर ग्राउंड मार्केट। हम बाज़ार में बेवज़ह घूम ही रहे थे। कि कुछ लोग आए जो बरसात में भीगे हुए थे। तुम मचल गई कि हम भी भीगेंगे। हम ऊपर आ गए थे। भीगने लगे। तुम भीगती हुई घास पर लेट गई। मुझे भी बुला कर अपने पास लिटा लिया। हम गुत्थमगुत्था पड़े रहे थोड़ी देर। बारिश बंद हो गई। सन्नाटा टूट गया। लोग आने-जाने लगे। हम भी उठ गए। मद्रास होटल के बस स्टैंड पर आ कर बैठे तो तुम अचानक चीख़ पड़ी, ‘हाय मेरी चुन्नी!’ हम भाग कर फिर वहां गए। बहुत खोजा पर तुम्हारी चुन्नी नहीं मिली।

बहुत दिन हो गया था तुम मिली नहीं थी। एक शाम तुम्हारे घर की सीढ़ियां चढ़ रहा था। सीढ़ियां चढ़ते हुए तुम्हारे घर से तुम्हारी मां की चीख़ती-चिल्लाती आवाज़ सुनाई दे रही थी। मन हुआ कि लौट जाउळं। पर ठिठक कर रुक  गया। ज़रा रुक कर सीढ़ियां चढ़ते हुए तुम्हारे घर के दरवाज़े पर आया तो दरवाज़ा खुला था। मैं भीतर घुस आया। देखा कि तुम्हारी मां तुम्हें पीट रही हैं कपड़े धोने वाली थापी से। मैं अवाक् था। घर में सब लोग थे। लेकिन तुम्हें पिटने से रोकने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं थी। सो मैं ने बढ़ कर तुम्हारी मां का हाथ पकड़ लिया। उन्हों ने मुझे आग्नेय नेत्रों से देखा और कपड़े धोने वाली थापी वहीं फर्श पर पटक कर भीतर के कमरे में चली गईं। मैं ने तुम से पूछा कि, ‘आखि़र बात क्या है?’ तो तुम जैसे बिलखती हुई फूट पड़ी, ‘तुम!’  

मैं अवाक्, हैरान, परेशान सा तुम्हें देखता रहा। मेरी घिघ्घी बंध गई। धीरे से बुदबुदाया, ‘अरे!’

मैं ने तुम्हारा हाथ पकड़ा ज़ोर से और तुम्हारे घर से तुम्हें बाहर निकाल लाया। हमें सीढ़ियां उतरते हुए तुम्हारे पिता, भाई, बहन और मां देखते रहे। पड़ोसी भी लेकिन हम दोनों साथ-साथ चुपचाप सीढ़ियां उतरते रहे। गोया सूरज की किरने उतर रही हों और शाम हो गई हो।

लेकिन हमारे घर आ कर तुम खिल उठी थी। हमारी ज़िंदगी में सवेरा हो चुका था। सवेरे की लाली हमारी ज़िंदगी पर तारी हो गई थी। हम बिना शादी के साथ-साथ रहने लगे। लोगों ने इसे लिव-इन-रिलेशनशिप का नाम दे दिया था। इस लिव इन के पहले भी तुम कई बार मेरे इस कमरे पर आई थी। और हमने बहुत बार देह को संभोग के आवेग में ढकेला था। पर जाने क्यों अब की इस लिव-इन में दस दिन बीत जाने के बाद भी हम संभोगरत नहीं हुए। न हमने कभी सोचा इस बारे में न तुम ने कोई पहल की। एक बिस्तर में सोने के बावजूद। यह तुम्हारी मां की थापी से तुम्हारी पिटाई का असर था, कि तुम्हारी देह में दर्द का असर था कि किस का डर और किस का असर था, जान पाना कठिन था। लेकिन ठीक ग्यारहवें दिन हम संभोगरत हो गए। फिर नियमित। पर वह पहले वाला आवेग नहीं था हम दोनों के संबंधों में। कहीं कुछ रिक्तता थी, कहीं कुछ छूट रहा था। कहीं कुछ टूट रहा था।

क्या यह हम दोनों का एक दूसरे से मोहभंग का समय था?

पता नहीं। पर जल्दी ही हम दोनों में बात-बेबात झगड़े शुरू हो गए थे। नौबत हाथा-पाई की आ गई। सारा प्यार, सारा इकरार भस्म हो गया था। तब के दिनों। एक पड़ोसिन ने बीच बचाव किया। समझाया-बुझाया। गाड़ी फिर चल निकली। हम छुट्टियां मनाने हफ़्ते भर के लिए चंडीगढ़ गए। वहां रॉक गार्डेन, रोज गार्डेन घूमते-घामते, सुकना झील में बोटिंग करते हुए, भुट्टे और आइसक्रीम खाते, साथ-साथ रहते हुए लगा कि सचमुच हम एक दूजे के लिए ही हैं। दो रात पिंजौर गार्डेन में गुज़ारने के बाद यह एहसास और घना हुआ। जैसे कि कोई नदी बहती हुई अच्छी लगती है, वैसे ही हम इस शहर से उस शहर घूमते हुए अच्छे लगते। फिर तो हमने तय कर लिया कि हम छुट्टियां बाहर ही मनाया करेंगे। बाहर जा कर घूमने-फिरने से हमारा प्यार और गहरा हो जाता। हमारा आपसी विश्वास और उस की संवेदनाएं और गाढ़ी हो जातीं। आगरा से चंडीगढ़ तक हम ने कई-कई बार घुमाई की। लोगों का पसंदीदा ताजमहल होता है पर फतेहपुर सीकरी हमारी पसंदीदा जगह थी। जो छुटिट्यां मैं अम्मा के साथ गांव में बिताता था, तुम्हारे साथ घूमने में बिताने लगा। अम्मा नाराज भी होती और कहती कि, ‘बाबू तुम बदल रहे हो। अब तुम मेरे पास बहुत कम आते हो। यह क्या हो गया है तुम्हें ?’ मैं चुप रहता।  भला क्या जवाब देता अम्मा की बातों का? श्रीनगर घूमने जाने की तैयारी में थे तब हम। 

कि अचानक मेरी नौकरी छूट गई। घर खर्च में दिक्कतें आने लगीं। घूमना-फिरना थम सा गया। प्यार की नदी दुबराने लगी। अचानक एक शाम घर पहुंचा तो तुम्हारी मां आई हुई थीं। वह तुम्हें ले जाने के लिए आई थीं। ले गईं। मैं ने कुछ कहा नहीं।

कुछ दिन बाद मैं ने नई नौकरी शुरू की। सोचा घर कुछ व्यवस्थित होने के बाद तुम्हें लिवा लाऊंगा । और कि अब की कुछ दिन तुम्हारे साथ रहने के बाद तुम्हारे साथ लिव-इन के बजाय शादी कर के रहूंगा। पर यह सब सोचना सिनेमा बन कर रह गया।

एक संडे की सुबह-सुबह मेरे घर पुलिस आ गई। पुलिस आई तो पड़ोसी भी आ गए। मैं तमाशा बन गया। ख़ैर, पुलिस ने थोड़ी बहुत बदतमीजी से पेश आने के बाद थोड़ी सहूलियत दी। एक दारोगा बोला,‘कपडे़-सपड़े पहऩ ले और थाने चल !’

थाने आया तो पाया कि तुम्हारा पूरा घर उपस्थित था वहां। भाई, पिता, मां, बहन समेत तुम खुद। मेरे ख़िलाफ़ दहेज उत्पीड़न की तहरीर तुम्हारी ओर से लिखी जा चुकी थी। यह जान कर मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई। मैं ने दबी जबान कहा कि, ‘जब शादी ही नहीं हुई, न शादी की बात, तो यह दहेज कहां से आ गया?’

तो बिना शादी के ही हनीमून मना रहा था चंडीगढ़ और आगरा में?’ दारोगा कुछ फ़ोटुओं को दिखाता हुआ बोला।
हनीमून तो नहीं पर हां हम साथ-साथ थे। दिल्ली में भी साथ ही रहते थे। लिव-इन-रिलेशनशिप में थे हम।’
ये कौन सा रिलेशन होवे है जी!’ दारोगा बोला, ‘इंडिया है यह, लंदन-अमरीका ना!’

ठीक है पर यह दहेज वहेज की बात बकवास है। आप पूरी तफ़्तीश कर लीजिए। फिर, बेशक मुझे जेल भेज दीजिए।’

सात साल तक जमानत ना होगी!’ दारोगा ने फिर कहा।

मालूम है।’

थाने में तुम्हारी तरफ से सब लोग थे और मैं अकेला। मैं ने तुम से अकेले में दो मिनट बात करने की मोहलत मांगी। जिस का पुरज़ोर विरोध तुम्हारी मां ने किया। लेकिन पुलिस ने इज़ाज़त दे दी। मैं मौक़ा पाते ही थाना परिसर में नीम के पेड़ के नीचे तुम से लिपट गया था। बरबस रो पड़ा। फूट-फूट कर। रोते हुए ही तुम से गिड़गिड़ाया, ‘क्यों मेरी और अपनी ज़िंदगी ख़राब कर रही हो। क्यों प्रेम में गांठ डाल रही हो!’

मैं नहीं, मम्मी!’ तुम ने भी सुबकते हुए कहा था और अपनी पिटाई के निशान दिखने लगी थी कि तभी तुम्हारी मां आईं और तुम्हें घसीट ले गईं, ‘लैला की अम्मा चल यहां से !’ और तुम चली गई थी।

पुलिस ने बाद में मुझे भी शक के बिना पर छोड़ दिया था। बाद में पुलिस मेरे नए दफ़्तर भी जब-तब तफ़्तीश के नाम पर आती रही। मुझे बदनाम करती रही। कुछ पैसे दे कर कंप्रोमाइज़ करने का दबाव डालती रही। मैं ने आजिज आ कर सोच लिया कि अब यह नौकरी ही नहीं, यह शहर दिल्ली भी छोड़ देना है। अभी इसी उधेड़बुन में था कि एक दिन तुम्हारा भाई आया। बोला, ‘पापा की तबीयत बहुत ख़राब है। हिंदूराव अस्पताल में हैं। आप से मिलना चाहते हैं। कह कर रोने लगा। हिंदूराव अस्पताल में तुम्हारे पापा की हालत देख कर तकलीफ हुई। वह लाचार थे और मैं अभिशप्त। तुम्हारे पापा चाहते थे कि मेैं तुम्हारी ज़िम्मेदारी ले लूं। तुम से शादी कर लूं। वहीं पता चला कि तुम्हारी मां से पूरा परिवार परेशान है। और कि तुम्हारे पापा उन्हीं की बदतमीजियों से उपजी बीमारियां झेल रहे हैं। लेकिन मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता था। मैं ने वह नौकरी छोड़ दी, दिल्ली छोड़ दी। तुम को छोड़ दिया। अपने आप को छोड़ दिया। 

फिर दिल्ली तभी आया जब बेटे का नाम जे.एन.यू. में लिखवाने आना पड़ा। नहीं पता था कि तुम मिल जाओगी ! जे.एन.यू. की उन रोमांटिक पहाड़ियों के बीच। तुम मिली खूब चटक सिंदूर लगाए। बड़ी सी गाड़ी में। ऐसे मिली जैसे इतने सालों में हमारे बीच कुछ हुआ ही न हो। तुम्हें अपने बेटे का नाम लिखवाना था, मुझे अपने। सारी औपचारिकताओं के बाद तुम ने अपने हसबैंड से भी मिलवाया। वह भी ऐसे मिला गोया कब से मुझे जानता हो। तुम और तुम्हारे पति मेरे बेटे के लोकल गार्जियन बन गए। 

लगा जैसे तुम फिर मिल गई हो। जे एन यू की पहाड़ियों के बीच हमारा प्यार जैसे फिर से खिल गया। तुम्हारे हसबैंड खुद आ कर होटल से मेरा सामान ले कर तुम्हारे घर लाए।

अब हम दिल्ली फिर से आने-जाने लगे। लगा कि जैसे तुम और तुम्हारी यह दिल्ली मेरे लिए ही बनी हो। एक दिन देखा कि मेरा बेटा तुम्हें मम्मी जी ! कह रहा है। मैं ने टोका तो बोला, ‘आंटी ने ही कहा है कि आंटी मत कहा करो, ख़राब लगता है। मम्मी ही कहा करो।’ मैं ने तुम को भी टोका तो तुम बोली, ‘हां, वह मेरा मानस पुत्र है !’

मैं चुप रह गया। सोचने लगा कि यह कौन सा नया सिनेमा चल रहा है हमारी जिंदगी में ? इस की परिणति क्या होगी ? कथा-पटकथा किस की है और निर्देशक कौन है इस नई फ़िल्म का?

अब दिल्ली बहुत बदल गई थी। पर हमारा प्रेम नहीं बदला था। हमारी चाहत बरकरार थी। मेट्रो लाइन के लिए जगह-जगह सड़कें खुद रही थीं पर हम दोनों ने कभी भूल कर भी अपने अतीत को नहीं खोदा। न तुम ने, न मैं ने। जब भी कभी मौक़ा मिलता हम आलिंगनबद्ध हो जाते। छिटपुट संभोग के आवेग भी घट जाते। तुम्हारा पति बड़ा सरकारी अफसर था। उसे समय वैसे ही नहीं रहता था। पर मैं जब भी दिल्ली में होता तो वह कोशिश करता कि शाम की शराब वह मेरे साथ ज़रूर पिये। धीरे-धीरे हम लोग हम निवाला, हम प्याला बन गए। लेकिन तमाम नशे के बावजूद उस ने कभी हमारा अतीत जानने की कोशिश नहीं की। बावजूद इस के कि उसे यह पूरा एहसास था कि मैं तुम्हारा प्रेमी हूं। मैं इस से बहुत प्रसन्न रहता। तुम दोनों के बीच जाने यह कौन सी संधि थी। जाने कौन सी डिप्लोमेसी थी। जाने कौन सी केमेस्ट्री थी। ख़ैर, सब कुछ स्मूथली चल रहा था कि एक दिन तुम अचानक मुझ पर बरस पड़ी। बोली, ‘तुम अब मेरे घर मत आया करो !’

. के. !’ कहते हुए मैं सकते में आ गया। फिर संभलते ही धीरे से पूछा, ‘लेकिन क्यों?’

तुम ने मेरे हसबैंड को शराबी बना दिया है।’ तुम तुनकती हुई बोली, ‘तुम चाहे जितना शराब पियो मुझे कोई मतलब नहीं। पर मेरे हसबैंड को बख्श दो !’

मैं चुपचाप तुम्हारे घर से मय सामान के चला आया। हमारे सपनों के सिनेमा का यह जाने कौन सा मोड़ आ गया था। जो मेट्रो के लिए खुद रही सड़कों में दफन हो रहा था। मायूस मन से मैं लौटा था तब दिल्ली से। छोड़ दिया शराब भी। और एक बार फिर भूल गया तुम को और तुम्हारी दिल्ली को भी।

पर भूल कहां पाया?

बेटा भी पढ़-लिख कर मुंबई चला गया नौकरी करने।

बहुत दिनों बाद तुम दिखी फ़ेसबुक पर। तुम्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी पर तुम्हारा कनफ़र्मेशन नहीं आया। अब तक नहीं आया। तुम्हारी वाल पर जा -जा कर तुम्हारी फ़ोटुएं और पोस्ट देख-देख कर चला आता हूं। 

अब देखो कि एक शादी में शरीक़ होने कुछ बरस बाद फिर दिल्ली आया हूं। तुम्हारे सपनों का सिनेमा फिर जाग गया है। तुम नहीं हो, तुम्हारी याद है। चंडीगढ़ और आगरा में बिताए दिन याद आते हैं। तुम्हारे साथ खेली अंत्याक्षरी और गाने याद आते हैं। तुम्हारे साथ देखे गए सिनेमा याद आते हैं। एक-एक पल याद आते हैं। मुद्रिका वाली बस की याद आती है। लोहे वाला पुल याद आता है। गांधी नगर की गलियां और वह कुत्ते याद आते हैं। कुतुबमीनार याद आता है। पालिका बाज़ार की घास और बरसात याद आती है। जाने कितने आवेग और संभोग याद आते हैं। अब तो दिल्ली में मेट्रो फर्राटे भरती है। सोचता हूं कि काश तुम एक बार फिर कहीं भूले से ही सही मिल जाओ तो तुम्हारे साथ दिन भर मेट्रो में घूमूं। तुम्हारा हाथ-हाथ में लिए। वैशाली से द्वारिका और फिर द्वारिका से वैशाली। बेवज़ह घूमता रहूं। तुम्हारे साथ। तुम्हारे भीतर अपने को खोजता हुआ। जैसे सपनों का सिनेमा मेरे भीतर रील दर रील चलता जा रहा है। पर तुम हो कि मिलती ही नहीं। मैं अकेले ही घूम रहा हूं। मेट्रो में। वैशाली से द्वारिका, द्वारिका से वैशाली। यह कौन सा सिनेमा है हमारे भीतर? जो ख़त्म ही नहीं होता। सारे स्टेशन एक जैसे हैं। आते-जाते, चढ़ते-उतरते लोग भी एक जैसे। सब अपने-अपने सपनों के सिनेमा में। लेकिन इस भीड़ में तुम मिलती क्यों नहीं। क्या तुम्हारे सपनों का सिनेमा ख़त्म हो गया है? हमारे पल-छिन प्रेम का सिनेमा। काश कि तुम कहीं मिल जाओ ! अभी बहुत सी कहानियां, कहानियों के टुकड़े जोड़ने हैं। यह सपने भी टूट-टूट कर क्यों आते हैं? अब सपना नहीं, मैं टूट रहा हूं। काश कि तुम मिल जाओ ! और जो मिलती नहीं हो तो सपनों में झांकती क्यों हो? बंद करो सपनों और यादों में यह पुरवा हवा की तरह बहना। और झांकना। बूढ़ा हो रहा हूं। सो दर्द बहुत होता है।

[  कल के लिए में प्रकाशित ]