Friday, 29 May 2015

आत्म-मुग्धता, हिप्पोक्रेसी और बौखलाहट का मिला-जुला एक नाम है उदय प्रकाश



   योगी आदित्य नाथ के हाथ सम्मानित , पुरस्कृत होते एक नितांत अपठनीय रचना मोहनदास के 
महान लेखक उदय प्रकाश की प्रसन्न मुख मुद्रा के भला क्या कहने ! 


तुम जैसे नीच , झक्की और सनकी आदमी को मैं लेखक 
मानने से इंकार करता हूं । मेरा क्या कर लोगे उदय प्रकाश !

आत्म-मुग्धता, हिप्पोक्रेसी और बौखलाहट का मिला-जुला एक नाम है उदय प्रकाश । ब्राह्मण फोबिया उन के इस कंट्रास्ट को , उन के इस कॉकटेल को और सुर्खरू करता है । उन को लोग बड़ा लेखक कहते ज़रूर हैं , पर बड़प्पन उन में छदाम भर  नहीं है । उन की हां में हां जब  तक मिलाते रहिए तब तक तो कोई बात नहीं है । पर आप उन से एक रत्ती भी असहमत हो कर देखिए न  एक बार ।  उन का जमींदार, उन का सामंत , उन का क्षत्रिय, उन पर सवार हो  जाएगा । वह तू तकार पर आ जाएंगे।  गाली-गलौज पर आ जाएंगे । आप भले दलित ही क्यों न रहिए , आप को वह ब्राह्मणवादी करार दे देंगे । आप भले मुसलमान ही  रहिए ,  आप को वह बेधड़क भाजपाई भी बता देंगे । अच्छा तो आप वामपंथी हैं तो वह आप को नकली वामपंथी करार दे देंगे । बिना किसी शील संकोच के । आप बस उन से या उन की कीर्तन मंडली के किसी सदस्य से ही सही असहमत हो कर एक बार देखिए तो सही , आप को वह मनुष्य भी नहीं समझेंगे । आप को कीड़ा-मकोड़ा करार देने में वह क्षण भर भी नहीं लगाएंगे । वह अपना परिवार अंतर्राष्ट्रीय बताते ज़रूर हैं पर सोच उन की एक कुएं के मेढक से अधिक नहीं है । कुछ देश घूम लेने से , कुछ भाषाओं को पढ़ लेने या कुछ भाषाओं में हेन-तेन कर के अनुवाद  हो जाने से , कुछ विदेशी सामान उपयोग कर  लेने से , घर में विदेशी बहू आ जाने से आप की सोच ,  विचार भी वैश्विक हो जाएगी यह कोई ज़रूरी नहीं है। उदय प्रकाश को देख-समझ कर इस बात को बहुत बेहतर ढंग से जाना जा सकता है । अशोक वाजपेयी से हज़ार बार उपकृत होने के बाद उन के ज़रा सा असहमत होते ही वह बहुत निर्लज्ज हो कर अशोक वाजपेयी और उनकी मित्रमंडली को 'भारत भवन के अल्सेशियंस' तक कह सकते हैं । और फिर जल्दी ही उन को  जन्म-दिन पर ख़ास तरह से बधाई दे कर उन से फिर से कई पुरस्कार और सहूलियतें  फिर से भोग सकते हैं । और यह उपक्रम वह रिपीट अगेन एंड अगेन कर सकते हैं । पूरी निर्लज्जता से । करते ही रहे  हैं वह यह सब बार-बार । करते ही रहेंगे वह बार-बार । यही उन की पहली और आखिरी पहचान है । वह एक हत्यारे के हाथ सम्मानित हो कर पूरे ठकुरई ठाट से , पूरी ढिठाई से , पूरी निर्लज्जता से उसे जस्टीफाई कर सकते हैं। कांग्रेसी राज में इटली जा कर सोनिया गांधी के घर की दीवार अपनी उंगलियों से छू कर अभिभूत हो सकते हैं । झूठ पर झूठ गढ़ कर , ख़ुद घनघोर जातिवादी खोल में समा कर,  सामंतवाद का मुकुट पहन कर वह किसी को भी जातिवादी , ब्राह्मणवादी, भाजपाई आदि-आदि बड़े गुरुर के साथ बता कर अपना इगो मसाज कर सकते हैं और किसी जमीदार की तरह उस पर कुत्तों की तरह अपनी कीर्तन मंडली को लगा सकते हैं । बड़े लेखक होने का ढोंग कर साहित्य की धंधागिरी कर सकते हैं । करते ही हैं । ऐसे जैसे साहित्य की धंधा गिरी नहीं किसी मंदिर की पंडा गिरी कर रहे हों । हालां की पंडा भी उतनी छुआछूत नहीं करता होगा जितना उदय प्रकाश और उन की कीर्तन मंडली करती है । जितना जहर उगलती है । 

ब्राह्मण विरोध उन की बड़ी भारी कांस्टीच्वेंसी है । उन की धंधई की , उन की थेथरई की कई सारी शिफत हैं । उन की एक मंडली जो बाकायदा उन के साथ कोरस गाती है । वह छींक भी देते हैं तो यह मंडली उस में संतूर की मिठास ढूंढ लेती है । वह पाद भी देते हैं तो उस में बांसुरी की तान तड़ लेती है । 

लेकिन जब वह अपने ही कुतर्कों से हांफ-हांफ जाते हैं , तथ्य से मुठभेड़ नहीं कर पाते, कोई राह नहीं पाते निकल पाने की तो बड़े ठाट से एक मूर्ति बनाते हैं। फिर इस मूर्ति को ब्राह्मण नाम दे देते हैं । मूर्ति को स्थापित करते हैं । उस के चरण पखारते हैं , उस का आशीर्वाद लेते हैं । उन का रचनाकार खिल उठता है । फिर वह अचानक अमूर्त रूप से इस मूर्ति से लड़ने लगते हैं । उन की विजय पताका उन के आकाश में फहराने लगती है। वह सुख से भर जाते हैं । हां,  लेकिन उन की धरती उन से छूट जाती है , वह गगन बिहारी बन जाते हैं। उन का यही सुख उन्हें, उन की रचना को छल लेता है । लेकिन उन की आत्म मुग्धता उन्हें इस सच को समझने का अवकाश नहीं देती। उन की क्रांतिकारी छवि कब प्रतिक्रांतिकारी में तब्दील हो जाती है , यह वह जान ही नहीं पाते । और वह फिर से ब्राह्मण-ब्राह्मण का पहाड़ा पढ़ते-पढ़ते उल्टियां करने लगते हैं । लोग इसे उन की नई रचना समझ बिदकने लगते हैं । पर हमारे यह गगन बिहारी लेखक अपने आकाश से कुछ देख समझ नहीं पाते और वहीं कुलांचे मारते हुए नई -नई किलकारियां मारते रहते हैं। धरती से , धरती के सच से वह मुक्त हो चुके हैं। उन्हें इस धरती से और इस के सच से क्या लेना और क्या देना भला ! अब उन का अपना आकाश है , आत्म मुग्धता का आकाश। उदय प्रकाश और उन के जैसे लोगों को जान लेना चाहिए कि ब्राह्मणों के खिलाफ जहर भरी लफ्फाजी और दोगले विरोध की दुकानदारी अब जर्जर हो चुकी है। यह सब देख-सुन कर अब हंसी आती है और कि इन मूर्ख मित्रों पर तरस भी आता है। मित्रों अब अपनी कुंठा, हताशा , अपने फ़रेब और अपनी धांधली जाहिर करने का कोई नया सूत्र , कोई नया फार्मूला क्यों नहीं ईजाद कर लेते ? क्यों कि इस नपुंसक वैचारिकी का यह खोल और यह खेल दोनों ही आप की कलई खोल चुके हैं । यह कुतर्क आप को नंगा कर चुका है । अब भारतीय समाज मनुस्मृति या ब्राह्मणवादी व्यवस्था से नहीं चलता । संविधान , माफ़िया , भ्रष्टाचार , बेईमानी , छल-कपट और कार्पोरेट से चलता है आज का भारतीय समाज । लेकिन उदय प्रकाश को यह सब नहीं पता । उन को तो साहित्य का धंधा करने के लिए, दुकान  चलाने के लिए कुतर्क का जाल , सामंती भाषा और हिप्पोक्रेसी का पहाड़ा चाहिए ही चाहिए । हवाबाजी और हवा में तीर चलाना चाहिए ही चाहिए । 


उदय प्रकाश वस्तुत: हिंदी जगत के एक बड़े ब्लैक मेलर हैं । ठीक शत्रुघन सिनहा की तर्ज़ पर । जैसे कि शत्रुघन सिनहा लोक सभा चुनाव हारने के बावजूद बरास्ता राज्य सभा पहुंचे और अटल बिहारी वाजपेयी की कैबिनेट में कैबिनेट मंत्री बने । स्वास्थ्य मंत्री । तो विशुद्ध ब्लैक मेलिंग के दम पर । बिहारी बाबू की छवि भुना कर । बार-बार बगावत की गंध दे कर । जब कि वहीं विनोद खन्ना तीन बार लोक सभा जीत चुके थे । फ़िल्म  में भी वह न सिर्फ़  शत्रुघन सिनहा से बहुत वरिष्ठ थे , ज़्यादा फ़िल्में भी उन के पास थीं । सार्थक और सफल फ़िल्में । लेकिन विनोद खन्ना के पास ब्लैक मेलिंग की क्षमता नहीं थी । यही हाल उदय प्रकाश का है । उदय प्रकाश से ज़्यादा समर्थ कथाकार संजीव और शिवमूर्ति हैं । और भी कई कहानीकार और कवि हैं । पर यह लोग जोड़ -जुगाड़ और ब्लैक मेलिंग की कला से बाहर हैं । किसी को  ' अल्सेशियंस ' कहने की बेशर्मी नहीं कर सकते । तमाम छल - छंद नहीं कर सकते । रैट रेस में नहीं हैं सो कुछ लेना देना नहीं है । एक से एक नायाब कथाकार हैं हिंदी में पर वह नायब की हैसियत में भी नहीं हैं । क्यों कि वह उदय प्रकाश की तरह ब्लैक मेलर नहीं हैं । कि कभी मृत्यु का भय  दिखाएं , कभी बेरोजगारी का, कभी अकेलेपन का, कभी उपेक्षा का । कभी किसी चीज़ का , कभी किसी चीज़ का । कभी अंतरराष्ट्रीय होने का दंभ । तो कभी यह कहना कि हिंदी क्या है ? याद कीजिए , इकोनॉमिक टाइम्स में छपा उदय प्रकाश का वह अपमानजनक लेख । इस लेख में उन की स्थापना यह थी कि गरीबी , नीची जाति के लोगों और अल्पसंख्यकों को पता है कि हिंदी उन्हें नौकर बनाएगी और अंगरेजी उन्हें मालिक की कुर्सी तक ले जाएगी ।

इकोनामिक्स टाइम्स में छपा उदय प्रकाश का वह आपत्तिजनक लेख ।


वैसे मेरे बहुत पुराने परिचित रहे हैं उदय प्रकाश । मुझे यहां परिचित की जगह मित्र लिखना चाहिए । पर जान बूझ कर नहीं लिख रहा । क्यों कि अब जिस तरह का आचरण वह करने लगे हैं, बात बेबात विवेक और संयम गंवा कर बौखलाने लगे हैं , उस आधार पर कह सकता हूं कि कल को वह पूछ सकते हैं कि कौन दयानंद पाण्डेय? यह कौन है , क्या करता है ? यह तो ब्राह्मण है । आदि-आदि। तो परिचित लिखना भी यहां शायद उन के अर्थ में अपराध ही है । वह मैं परिचित भी हूं  उन से , अपनी बीमारी में भूल सकते हैं । और अपनी बेख़याली में पूछ सकते हैं धमकाते हुए कि यह दयानंद पांडेय है कौन ? मैं इसे नहीं जानता । यह जो भी बोल रहा है सब सरासर झूठ बोल रहा है । यह सुलूक वह अनगिन बार कई लोगों के साथ कर चुके हैं । करते ही रहते हैं । जब ज़िद और अहंकार में वह आते हैं तो जैसे अल्जाइमर नाम की बीमारी उन पर सवार हो जाती है । वही अल्जाइमर जिस में आदमी सब कुछ भूल जाता है । याददाश्त चली जाती है । वही अल्जाइमर्स जिस के शिकार जार्ज फर्नांडीज हैं इन दिनों और जया जेटली और लैला फर्नांडीज के बीच झूल रहे हैं । 


ख़ैर , अस्सी के दशक में जब वह दिनमान में थे तब उन से अकसर भेंट होती थी । वह उन के छप्पन तोले की  करधन , दरियाई घोड़ा और रात में हारमोनियम के प्रसिद्धि की शुरुआत भरे दिन थे । लेकिन जिस सहजता और फक्क्ड़ई से वह मिलते थे लगता ही नहीं था कि इतने बड़े रचनाकार से हम मिलते हैं । वहीं दिनमान में रघुवीर सहाय और फिर बाद में कन्हैयालाल नंदन थे । सर्वश्वर दयाल सक्सेना , प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज जैसे रचनाकार भी थे । सर्वेश्वर जी तो नहीं लेकिन प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज ज़रूर एक गंभीरता की खोल में रहते । ख़ास कर प्रयाग जी । उन्हीं दिनों रोम्यां रोलां का भारत के अनुवाद पर भी उदय प्रकाश काम कर रहे थे । जैनेंद्र कुमार के सुपुत्र प्रदीप जैन जी अपने पूर्वोदय प्रकाशन से छापने वाले थे । बाद में छापा भी उन्हों ने । तब मैं सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में था । इस अनुवाद में रत्ती भर मैं भी जुड़ा। जुड़ा क्या , मुझे कुछ पैसों की ज़रूरत थी , उदय प्रकाश ने मेरी मदद करने के लिए थोड़ा काम दे दिया था । जब मैं जनसत्ता में था तो जनसत्ता भी आ जाते थे उदय प्रकाश और बेपरवाह हो कर कहते कि चलिए पान खिलाइए । अकसर मैं पान , सिगरेट और शराब जैसी चीजों पर पैसा बिलकुल नहीं खर्च करता हूं । शुरू से ही । आज भी । अमूमन मित्र लोग ही खर्च करते हैं और मैं ख़ामोश खड़ा रहता हूं । लेकिन जब कभी उदय प्रकाश आते और कि शरारतन आते तो मैं कम से कम पान के लिए पैसा निकालता । इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग के ठीक सामने फुटपाथ पर बैठा पान वाला जो हमारे पूर्वी उत्तर प्रदेश का था , का पांड़े जी , कहते हुए हर्ष मिश्रित आश्चर्य से देखता और यह छुपाना कभी नहीं भूलता कि यह तो अनहोनी हो रही है ! और इस बात का पूरा मज़ा उदय प्रकाश भी लेते । और कहते कि,आप किसी को पान नहीं खिलाते हैं , कुछ खर्च नहीं करते हैं , इसी लिए वह ऐसा मज़ा लेता है ! मैं ज़रा सा झेंप जाता था ! उन दिनों उदय प्रकाश नि:संकोच दिल्ली में होने वाले कैबरे डांस के तमाम अड्डों का भी ज़िक्र करते रहते । अच्छे बुरे सभी कैबरे अड्डों के बारे में उन की जानकारियां बड़ी शार्प और तफ़सील लिए हुए होतीं । वह बताते रहते कि टिकट से ज़्यादा तो साले सब बीयर और खाने - पीने की चीज़ों में लूट लेते हैं ! कैबरे डांसर द्वारा बीयर बोतल के तमाम उपयोग का विवरण भी वह ख़ूब रस ले कर परोसते । फिर जोड़ते भी रहते लेकिन आप जैसे कंजूस आदमी के लिए यह सब नहीं है । यह कह कर वह ठठा कर हंसते और पान कूचते हुए , उत्तेजित करने वाले डांस आदि के  ' बारीक ' व्यौरों में समा जाते । खूब तफ़सील से । मज़ा लेते और देते हुए । सचमुच मैं ने आज तक कोई कैबरे नहीं देखा ।  इन सब मामलों में खुद तो हद दर्जे का कंजूस हूं  ही , कोई ले भी नहीं गया । उदय प्रकाश भी नहीं । एक फैक्टर और भी था उन के साथ । उदय प्रकाश के एक ममेरे भाई कुंवर नरेंद्र प्रताप  सिंह तब के दिनों हमारे गोरखपुर में रहते थे । इस लिए भी वह मुझ से सटते थे । उन की चर्चा करते हुए । उन्हें आर एस एस का स्वयंसेवक बताते हुए । 


एक निर्मल सच यह भी है कि व्यक्तिगत जीवन में उदय प्रकाश सच में ब्राह्मणों से निरंतर उपकृत होते रहे हैं ।  उदय प्रकाश ब्राह्मणों का आदर भी बहुत करते रहे हैं । एक क्षत्रिय हो कर । क्षत्रिय होने के नाते । कम से कम मैं ने अपने अर्थ में तो यही पाया था । [ अब अलग बात है कि यह कड़ी और सिलसिला बीते दिनों मटियामेट हो गया है । कह सकते हैं बिलकुल अभी-अभी । एक महिला जो इन की कीर्तन मंडली की प्रमुख है , के बहकावे में वह ऐसा कर गुज़रे हैं । यह उन का अपना चयन है । मुझे कोई शिकायत नहीं है । एक पैसे की भी नहीं । ] ख़ैर , वह व्यक्तिगत बातचीत में किसी सामान्य क्षत्रिय की तरह विनम्र भाव में ब्राह्मणों से आशीर्वाद भी मांगते हैं । संयोग और उदाहरण बहुतेरे हैं। पर जैसे कि एक बार वह सहारा समय ज्वाइन करने वाले थे । मैं उस दिन संयोग से नोएडा में उपस्थित था । फ़ोन पर बातचीत में उन्हों ने यह सूचना बड़े हर्ष के साथ दी कि मैं आज सहारा समय ज्वाइन कर रहा हूं । आप भी आइए और आशीर्वाद दीजिए । एक ब्राह्मण का आशीर्वाद बहुत ज़रूरी है । आप आएंगे तो अच्छा लगेगा । मैं ने कहा भी कि , आप से बहुत छोटा हूं । वह बोले , तो क्या हुआ , आप ब्राह्मण हैं । ऐसी बात बहुत से क्षत्रिय लोगों से विनय पूर्वक सुनता ही रहता हूं । अकसर । उन से आदर-सत्कार पाता ही रहता हूं । बचपन से ही । यह क्षत्रिय धर्म का एक अनिवार्य संस्कार भी है शायद । काशीनाथ सिंह जी भी अकसर बाबा पालागी से ही संबोधित करते हैं । जब कि  वह लगभग मेरे पिता की उम्र के हैं । पूर्व मंत्री जगदंबिका पाल तो भरी भीड़ में बाबा पालागी ! चिल्ला कर हर्ष विभोर हो कर कहते ही रहते हैं । अखंड प्रताप सिंह की जब उत्तर प्रदेश में नौकरशाही और सत्ता गलियारे में तूती बोलती थी , तब भी प्रणाम कहते हुए ही मिलते थे । ऐसी अनेक घटनाएं और बातें मेरे जीवन में उपस्थित हैं । ख़ैर , इस सब के बावजूद मैं ने उदय प्रकाश को हमेशा बड़ा भाई , बड़ा रचनाकार और शुभचिंतक मित्र के रूप में ही सर्वदा देखा है , देखता हूं । मेरी रचनाओं के भी वह अनन्य प्रशंसक हैं । लेकिन जैसा कि बड़े लेखकों की आदत होती है उन्हों ने कभी मेरी रचनाओं पर लिखा नहीं । कहते ज़रूर रहे और बिना कहे या पूछे निरंतर कहते रहे कि लिखूंगा ! और मैं जानता था कि कभी नहीं लिखेंगे । सो उन के कहने के साथ ही मैं कहता रहा कि अरे , फिर तो मैं अमर हो जाऊंगा , मत लिखिएगा ! जो भी हो लेकिन उदय प्रकाश मेरे उपन्यासों कहानियों की मौखिक रूप से सर्वदा प्रशंसा करते रहे हैं । मैं आज भी नहीं भूला हूं वह रात जब अपने-अपने युद्ध पढ़ते हुए आधी रात को उदय प्रकाश ने मुझे फ़ोन किया और कहा कि  मैं जानता था कि आप सो गए होंगे , फिर भी यह उपन्यास पढ़ कर आप को फ़ोन करने से ख़ुद को रोक नहीं पाया । फिर वह उपन्यास के पात्रों वागीश और हेमा आदि की बड़ी देर तक चर्चा करते रहे । वह दिन भी नहीं भूला हूं मैं जब वह अचानक हड़बड़ा कर कहते कि फोन रख रहा हूं , चौराहा आ गया है , ड्राइव कर रहा हूं , चालान हो जाएगा । यह हम सब की ज़िंदगी में मोबाइल की आमद के दिन थे । यह और ऐसी तमाम बातें हैं, तमाम व्यौरे हैं उदय प्रकाश के । जो फिर और कभी ।

ख़ैर , उस दिन मैं पहुंचा भी उदय प्रकाश जी के स्वागत में नोएडा के सहारा दफ्तर । उदय प्रकाश आए भी आकर्षक गाढ़े नीले बुशर्ट और ग्रे पैंट में, माथे पर लाल तिलक लगाए हुए । बिलकुल किसी दूल्हे की तरह । यहां भी उन को सहारा समय ज्वाइन करने के लिए समूह संपादक जो कि एक ब्राह्मण ही थे , गोविंद दीक्षित ने उन्हें इस नई नौकरी के लिए आमंत्रित किया था । अब अलग बात है कि मंगलेश डबराल से वरिष्ठता का पेंच का मसला ऐसा फंसा कि उस पर बात अटक गई और उदय प्रकाश , ने सहारा समय ज्वाइन नहीं किया और वापस चले गए ।


लेकिन इधर कुछ समय से वह अपनी हर हारी-बीमारी का इलाज ब्राह्मणों को गरियाने में खोजने लगे हैं , खोज ही लेते हैं । कुछ ज़्यादा ही । जिस को अति कहते हैं । वारेन हेस्टिंग्स का सांड़  जैसी कहानी लिखने वाले उदय प्रकाश पीली छतरी वाली लड़की लिखने लगे । उदय प्रकाश की बहुप्रशंसित कहानी पीली छतरी वाली लड़की में तो यह जातिगत बदले का जोश इस कदर मदमस्त हो जाता है कि बताइए कि नायक राहुल एक सवर्ण लड़की अंजलि जोशी के साथ प्रेम करता है। प्रेम करता है बदला लेने के लिए। लड़की को भगा ले जाता है। कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं। बस जातिगत बदले के लिए। जो कि प्रेम में पागल लड़की अंजलि जोशी नहीं जानती। संभोग भी करता है नायक प्रेम की बिसात पर उस ब्राह्मण लड़की के साथ तो हर आघात पर उस के मन में प्रेम नहीं, बदला होता है। संभोग के हर आघात में वह बदला ही ले रहा होता है। अदभुत है यह जातिगत बदला भी जो प्रेम का कवच पहन कर लिया जा रहा है। जाने किन पुरखों के ज़माने के अपमान का बदला ले रहा है राहुल। प्रेम में ऐसा भी होता है भला? लगता ही नहीं कि यह वही लेखक है जिस ने वारेन हेस्टिंगस का सांड़ या और अंत में प्रार्थना जैसी कहानियां लिखी हैं । छप्पन तोले की करधन, टेपचू  या तिरिछ जैसी कहानियों का लेखक है। पर उदय प्रकाश की यह कहानी तमाम सहमतियों-असहमतियों के बावजूद उन के लेखन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव बन चुकी है। जहां प्रेम में डूबा नायक प्रेम और संभोग के आवेग में भी हर आघात बदले की भावना में मारता हुआ दिखता है ? क्यों कि नायिका ब्राह्मण है और नायक दलित ! प्रेम और संभोग में ऐसा छल भी करने का अवकाश मिलता है क्या किसी को ? उदय प्रकाश के नायक को मिलता है । इसी अर्थ में यह कहानी प्रेम कहानी की जगह प्रेम के नाम पर छल और कपट की कहानी बन जाती है । गुलेरी की उस ने कहा था या शिवानी की करिये छिमा  की तरह सर्वकालिक और प्रामाणिक प्रेम कहानी नहीं बन पाती । लेकिन जातीय विमर्श की खाद पा कर इसे तात्कालिक रूप से बड़ी कहानी का दर्जा मिल-मिला गया । तमाम अनुवाद भी हो गए । अब उदय प्रकाश के मुंह सफलता का खून लग गया । ब्राह्मण को गरियाने की सफलता का सूत्र मिल गया । यह वही खेती है जो फूलती फलती हुई उन से मोहनदास जैसी कमजोर रचना भी लिखवा देती है । लेकिन क्या है कि हिंदी  सिनेमा की एक परंपरा  हिंदी  साहित्य में भी घर कर गई है कि किसी अमिताभ बच्चन , किसी शाहरुख़ ख़ान की कोई कमज़ोर फिल्म भी आ जाती है तो भी समीक्षक उस की सफलता और प्रशंसा की विजय पताका खूब ज़्यादा फहरा देते हैं। 

और यह देखिए कि एक ब्राह्मण श्रीलाल शुक्ल की अध्यक्षता में बनी कथाक्रम की कमेटी मोहनदास के लिए ही उन्हें कथाक्रम सम्मान की अनुशंसा कर देती है । बात यहीं नहीं रुकती यही ब्राह्मण अशोक वाजपेयी इसी मोहनदास के लिए उदय प्रकाश को सारा विरोध दरकिनार कर साहित्य अकादमी पुरस्कार का फ़ैसला करने में पूरी ताक़त  लगा देते हैं । तब जब कि आधार पत्र में विचार के लिए उदय प्रकाश का नाम भी नहीं होता । इतना ही नहीं उदय प्रकाश उन दिनों अपने गांव में होते हैं , वहां भी फ़ोन कर अशोक वाजपेयी उन्हें यह शुभ समाचार सुनाते हैं । इस के पहले तक साहित्य अकादमी के प्रति उदय प्रकाश लगातार व्यक्तिगत बातचीत में फायर रहते थे बल्कि एक गहरा अवसाद भी उन्हें घेरे रहता था । इस बात को सिर्फ़ मैं ही नहीं , बहुत सारे और मित्र भी तब के दिनों नोट कर रहे थे । यह वही दिन थे जब उदय प्रकाश अपनी मृत्यु की बात अकसर करते रहते थे , लिखते रहते थे । पिता के असमय मृत्यु की चर्चा में डूबे उदय प्रकाश अकसर हताशा की बातें करने लगते थे। खैर,  इस में से एक ब्राह्मण अशोक वाजपेयी तो बहुत पहले जब भोपाल में भारत भवन और संस्कृति विभाग के सर्वेसर्वा होते थे तब भी उदय प्रकाश को न सिर्फ़  पूर्वग्रह पत्रिका के संपादन की ज़िम्मेदारी थमा दिए थे बल्कि और मामलों में भी उन्हें अपना लेफ्टिनेंट बना लिया था । बाद के दिनों में जब किसी बात को ले कर खटक गई तो दिल्ली में एक और ब्राह्मण कन्हैयालाल नंदन [ तिवारी ] ने उन्हें कई सारे अतिरिक्त इंक्रीमेंट दे कर दिनमान जैसी पत्रिका में नौकरी दे दिया था । इतना ही नहीं यही ब्राह्मण नंदन जी जब संडे मेल की कमान संभालते हैं तब इन्हीं उदय प्रकाश को संडे मेल में भी एक बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ अपना सहायक संपादक बना लेते हैं । क्या यह सब भी अब भूल चले हैं उदय प्रकाश ?

लेकिन कहा न कि ब्राह्मण विरोध अब उदय प्रकाश की बहुत बड़ी कांस्टीच्वेंसी है । वह ब्राह्मण विरोध नहीं , अपनी कांस्टीच्वेंसी एड्रेस कर रहे होते हैं । याद आती हैं मायावती । तमाम राजनीतिज्ञों के मैं ने इंटरव्यू लिए हैं । मायावती के भी कई सारे इंटरव्यू समय-समय पर लिए हैं । उन दिनों वह नई-नई मुख्य मंत्री बनी थीं । गांधी को शैतान की औलाद कहने के लिए ख़ूब चर्चा में भी थीं और सब के निशाने पर भी । मैं ने उन से तब पूछा था कि जिस गांधी को लगभग पूरी दुनिया पूजती है , उस गांधी को आप शैतान कहती हैं , आप को दिक्क़त नहीं होती , असुविधा नहीं होती ? मायावती ठठा कर तब हंसी थीं । हंसते हुए पूरी बेशर्मी से बोलीं , मेरा तो क़द और बढ़ गया । रैलियों  में भीड़ और बढ़ गई , रैली में मिलने वाली थैली और मोटी, और बड़ी हो गई । थैली मतलब पैसा । तो इसी तर्ज़ पर यह ब्राह्मण विरोध का उदय प्रकाश का धंधा , उन की कांस्टीच्वेंसी ख़ूब फूल फल रही है । वह भूल गए हैं कि साहित्य और राजनीति का काम अलग-अलग है । राजनीति भले लोगों को आपस में तोड़ती हो पर साहित्य सेतु का काम करता है , जोड़ने का काम करता है । समाज में फैले जहर को ख़त्म करने का काम करता है । जातीय दंगा नहीं करता-करवाता साहित्य । उदय प्रकाश यह भूल गए हैं । अपनी कांस्टीच्वेंसी, अपने धंधे के फेर में ।अपनी दुकानदारी के लोभ में । 

योगी  आदित्यनाथ के साथ उदय प्रकाश। उसी कार्यक्रम का एक और चित्र  

अभी बताया ही था कि उदय प्रकाश के एक ममेरे भाई कुंवर नरेंद्र प्रताप  सिंह तब के दिनों हमारे गोरखपुर में रहते थे । शाहीपुर हटिया, इलाहबाद  के मूल निवासी कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह गोरखपुर के दिग्विजय नाथ डिग्री कालेज में संस्कृत पढ़ाते थे । उन को इस कालेज में नौकरी मिली थी तो सिर्फ दो विशेष योग्यता के कारण । एक तो वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक थे , दूसरे क्षत्रिय । संस्कृत तो मेरा विषय नहीं था लेकिन संयोग से इस कालेज में मैं भी पढ़ा हूंगोरखनाथ मंदिर के महंत की जागीर है यह कालेज । क्षत्रिय बहुल अध्यापकों और विद्यार्थियों वाला कालेज । कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्मठ कार्यकर्ता थे और उन दिनों के महंत अवैद्यनाथ सिंह के परम चंपू । ठकुरई की कलफ में उन का पूरा बदन अकड़ा रहता था । बाद में वह इस कालेज में आचार्य से प्रोन्नत हो कर प्राचार्य बन गए थे । इन्हीं के निधन के बाद उन के परिवारीजनों ने एक पुरस्कार शुरू किया और पहला पुरस्कार और अंत में प्रार्थना जैसी कहानी लिखने वाले इन्हीं क्षत्रिय उदय प्रकाश सिंह को दिया गया । उदय प्रकाश बार-बार यह कहते नहीं थकते कि उन्हें बिलकुल नहीं मालूम था कि योगी आदित्यनाथ यह पुरस्कार देने वाले हैं । सफेद झूठ बोलते हैं उदय प्रकाश । उन्हें सब कुछ मालूम था । यक़ीन न हो तो ऊपर वाली फोटो में उन की प्रसन्न मुख मुद्रा देख लीजिए । उन्हों ने परमानंद श्रीवास्तव को आग्रह कर के खुद बुलाया था , इस आयोजन में । हां , उन को यह ज़रूर अंदाज़ा नहीं था कि गोरखपुर की यह घटना देश भर में उन्हें हंसी,  घृणा और अपमान का पात्र बना देगी । उन्हों ने अपने ब्लॉग में पहले तो इस घटना का ज़िक्र भी नहीं किया । इसी यात्रा को उन्हों ने कुशी नगर की यात्रा बताते हुए अपने ब्लॉग पर लिखा । लेकिन इस समारोह के बाबत सांस नहीं ली । न कोई फ़ोटो लगाई । जैसा कि अमूमन वह करते रहते हैं , आप का अपना लेखक आदि की गिनती गिनते हुए ।


इस ख़बर में पढ़िए तो सही कि जादुई यथार्थ के योद्धा उदय प्रकाश किस सदाशयता के साथ एक संघी कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह की वैचारिक निष्ठा के गुण - गान में सादर ओत-प्रोत हैं । न्यौछावर हैं । और अंत में प्रार्थना का कौन सा अंतर्पाठ कर रहे हैं । खाने के और दिखाने के और क्या इसी को कहते हैं ?

अच्छा चलिए , एक बार मान भी लेते हैं कि आप को नहीं मालूम था कि इस आयोजन में योगी आदित्य नाथ भी आने वाले हैं । दस बार मान लिया । पर आप को क्या यह भी नहीं मालूम था कि  कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह , आप के ममेरे भाई , राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्मठ कार्यकर्ता और स्वयं सेवक रहे हैं , उन के नाम का ही यह पुरस्कार लेना था आप को ? तब तो आप पारिवारिक आयोजन कह कर लोगों की आंख  में धूल  झोंकते रहे । आज भी यही जुमला बोलते रहते हैं । यह किसी को क्यों नहीं बताया कि आप के ममेरे भाई कुंवर नरेंद्र सिंह की भी पहचान क्या है ? आज भी नहीं बताते आप । लेकिन वहां अपने भाषण में बताया उदय प्रकाश ने कि कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह कभी वैचारिक निष्ठाओं से नहीं डिगे । अब से ही सही अपने पाठकों को  बताएंगे भला कि कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह की वह निष्ठाएं आख़िर थीं भी क्या ? अच्छा जो आप इतने नादान थे तो अगर उस आयोजन में आदित्य नाथ आ ही गए तो आप उन के हाथ से वह पुरस्कार या सम्मान जो भी हो , लेना भी क्यों नहीं अस्वीकार कर पाए ? साफ कह देते कि जो भी हो , वैचारिक विरोध नाते इन के हाथ से पुरस्कार नहीं लूंगा । ऐसा कर के तो आप पूरे देश में हीरो बन जाते । और अंत में प्रार्थना के सच्चे लेखक बन जाते । लेकिन तब तो आप पूरे विधि विधान से पुरस्कार ले कर, मुस्कुराते हुए फोटो सेशन करवाते रहे थे । भाई वाह ! क्या मासूमियत है ? यहां तो हमारे लखनऊ में एक प्रसिद्ध पत्रकार के विक्रम राव जो घोषित समाजवादी हैं , लोहियावादी हैं , जार्ज के साथ इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़े हैं , जेल गए हैं , एक बार योगी आदित्यनाथ से बतौर पत्रकार गोरखपुर में मिल कर लौटे तो लोगों ने उन से किनारा कर लिया । कथाक्रम के आयोजन में विक्रम राव को बोलने के लिए ज्यों बुलाया गया मुद्राराक्षस और वीरेंद्र यादव अध्यक्ष मंडल के सदस्य के नाते पहले से मंच पर बैठे थे , फौरन मंच से उठ कर बाहर चले गए । एक सेकेंड की भी देरी नहीं की । न मुद्राराक्षस ने , न वीरेंद्र यादव ने । तमाम लोगों ने इसे अशिष्टता कहा । लेकिन इन लोगों ने किसी की परवाह नहीं की । लेकिन उदय प्रकाश को इस सब की परवाह हरगिज नहीं थी । वह तो फोटो खिंचवाते रहे पारिवारिक समारोह बता कर । और अंत में प्रार्थना क्या ऐसे ही लिखी जाती है ? इस पाखंड के साथ ? उदय प्रकाश की इस हिप्पोक्रेसी की इंतिहा यही नहीं थी ।

देखिए और अंत में प्रार्थना वाले मुख्य अतिथि उदय प्रकाश को  योगी आदित्यनाथ के साथ । 
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्मठ कार्यकर्ता कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह जयंती समारोह की स्मारिका का विमोचन करते हुए ।


लखनऊ से अनिल यादव ने जब एक ब्लॉग पर इस बात का खुलासा करते हुए,  उदय प्रकाश को नंगा करते हुए जब जुतियाया तो उदय प्रकाश हत्थे से उखड़ गए । सर्वदा की तरह बौखला गए । चिग्घाड़ने लगे कि यह अनिल यादव कौन है ? अनिल ने फौरन जवाब दिया कि आप मेरे काम के प्रशंसक  रहे हैं ,  मेरे घर भी आए हैं , आदि-आदि । तब उदय प्रकाश कहने लगे अच्छा वह चंदन मित्रा का नौकर ? मेरे मित्र चंदन मित्रा का नौकर ? अनिल यादव उन दिनों पायनियर अखबार में नौकरी कर रहे थे और चंदन मित्रा पायनियर अखबार के मालिक और संपादक हैं । बताइए भला बातचीत की,  असहमति की ही सही यह भाषा होती है भला ? अनिल यादव क्या आप के आसामी हैं ? आप होंगे अपने गांव में ज़मीदार । चलाइए  वहीं अपनी यह सामंती भाषा और अभद्रता । पर हिंदी जगत में यह छुद्रता नहीं चलने वाली , नहीं चलती । असहमति की भी एक शिष्टता होती है । लेकिन यह बात उदय प्रकाश नहीं जानते । इसी तरह हर किसी को अपनी सामंती भाषा के लिबास में लपेट लेने की उन्हें असाध्य बीमारी हो गई है । उन की अभद्रता का एक और नमूना देखिए जो अभी बीते महीने , फेसबुक की अपनी टाईमलाईन पर उन्हों ने परोसी  है :

ये कमल पांडे नामक टीवी और फ़िल्मी लेखक कौन है, जिसने मुंबई में कई-कई महेंगे अपार्टमेंट्स और मकान ख़रीद डाले हैं ? और ये भरत तिवारी नामक साहित्यकार कौन है ?
ये दोनों ही नहीं, इन जैसे अनेक संदिग्ध मानुसखोर ठग हैं और हिंदी से संबंद्ध तमाम संस्थानों-व्यवसायों में अपनी जातिवादी-नेक्सस से लाभ उठाते पाये जा सकते हैं।
दोस्तो, ये अमीर बन चुके होंगे और अपनी तरह से, अपने निजी मापदंडों पर कामयाब भी, लेकिन तीन सूत्र इन जैसों के बारे में बताना चाहूँगा।
१: ये झूठ और द्वेष के प्रचारक हैं।
२: ये मनुष्य नहीं, अपनी प्रजाति के रोबो हैं।
३: अपनी दुर्दम्य महत्वाकांक्षा के तेज़ाब में ये किसी का भी मासूम चेहरा जला सकते हैं।
इन जैसों से सतर्क रहें।
आज के पतित समय में इनकी बुलंदियाँ और बुलंद होंगी।
फ़िराक़ का एक शेर, जो अक्सर मैं कोट करता हूँ, एक बार फिर :
"जो कामयाब हैं दुनिया में, उनकी क्या कहिये,
है इससे बढ़ के, भले आदमी की क्या तौहीन ?"
(रईस और अमीर फ़िल्मी पांडे की कथा मैं लिखूँगा। यह हमारे समय के समाज, संस्कृति और कॉमर्शियल पाप्युलर कल्चर का एक और आख्यान होगा। )


आत्म मुग्धता और बौखलाहट का या और ऐसी अभद्रता उदय प्रकाश का अब जीवन बन गया है । बदजुबानी में , सामंती भाषा में, बात करना उन की लाइलाज बीमारी हो गई है । एक मित्र से इस पर चर्चा चली तो वह कहने लगे कि उदय प्रकाश अब विष्णु खरे बनना चाहते हैं । आदमी का रचनाकार जब चुक जाता है तो इसी तरह जद्द - बद्द बकने लगता है । मैं ने मित्र से कहा कि  विष्णु खरे की बराबरी करने के लिए उन के जैसी कविता , विद्वता और प्रतिभा भी वह कहां से और भला कहां से लाएंगे ? और वह कलेजा ? ला भी सकेंगे ? विष्णु खरे की भाषा और उन के बड़प्पन का वह नाखून भी छू सकेंगे कभी इस जीवन में ? विष्णु खरे तो कबीर की तरह अपने बारे में भी सच-सच कहने का साहस रखते हैं ।  कहते ही रहते हैं अपने बारे में भी अप्रिय बातें विष्णु खरे । उदय प्रकाश तो यह सोच कर भी कुम्हला जाएंगे ! वह तो सर्वदा राजकुमार ही बने रहना चाहते हैं । भगवान ही बने रहने चाहते हैं । अपना कीर्तन ही सुनते रहना चाहते हैं । क्या खा कर वह विष्णु खरे बनेंगे ? विष्णु खरे बनने के लिए बहुत तपना पड़ता है , खुरदुरे रास्तों से चलना पड़ता  है । उदय प्रकाश विष्णु खरे का नाखून नहीं छू सकते अभी या कभी भी। किसी भी मामले में । 

बहरहाल आपा खो कर इस तरह क्यों उदय प्रकाश अकसर बौखलाते फिरते हैं इस की मनोवैज्ञानिक व्याख्या की दरकार है । उन की कीर्तन मंडली तो उन्हें किसी मनोचिकित्सक के पास ले जाने से रही क्यों कि इस पूरी मंडली को ही इस की दरकार है । तो उन के किसी शुभ चिंतक को इस बाबत विमर्श करना चाहिए ।  बहरहाल अभी ऊपर जो फ़ेसबुक प्रसंग उद्धृत किया है उस में उदय प्रकाश की बौखलाहट का कारण भी नहीं जानना चाहेंगे आप ? 

हुआ यह कि मंच नामक पत्रिका ने शिवमूर्ति पर एक विशेषांक प्रकाशित किया था कुछ वर्ष पहले । इस मंच में कमल पांडेय का एक संस्मरणनुमा लेख छपा है , इस फ़िल्म के नायक हैं शिवमूर्ति ! शीर्षक से । इस संस्मरण में कमल पांडेय ने अपने संघर्ष के दिनों की याद की है । कि शिवमूर्ति ने कैसे उन को प्रोत्साहित किया , उन्हें सहारा दिया , आदि का विवरण है । कमल पांडेय चित्रकूट के रहने वाले हैं । शिवमूर्ति ने उन्हें दिल्ली में अब्दुल बिस्मिल्ला के यहां पंद्रह दिन तक रहने की व्यवस्था करवाई और कहा कि आगे का संघर्ष तुम्हें ख़ुद तय करना है । अब कमल घर तलाश रहे हैं और इसी संघर्ष में उदय प्रकाश उन्हें मिल जाते हैं । उदय प्रकाश का घर रोहिणी में है । परिवार वहीं रहता है । लेकिन उदय प्रकाश जे एन यू के ओल्ड कैम्पस में भी एक घर लिए हुए हैं । कमल इसी घर में उदय के पार्टनर बन कर आठ सौ रुपए किराए का साझा कर रहने लगते हैं । जल्दी ही उदय को समझ आ जाता है कि यह कमल तो आठ सौ भी देने के लायक नहीं है , घोर स्ट्रगलर है । वह अचानक कमरे पर ताला लगा कर चंपत हो जाते हैं । कमल उदय को फोन कर घिघियाते हैं कि कमरा खोल दें , सड़क पर कहां रहूं? अच्छा मेरा सामान ही निकाल कर मुझे अपने कमरे से दे दीजिए। लेकिन उदय नहीं पसीजते । कहते हैं , आप तो सिनेमा के जरिए पैसा कमाने आए हैं , मैं आप की मदद क्यों करूं ? कमल शिवमूर्ति को फोन कर दुखड़ा सुनाते हैं तो शिवमूर्ति उन से कहते हैं कि ऐसी ही ठोकरें मजबूत बनाती हैं । यह और ऐसे तमाम विवरण कमल ने लिखे हैं । यही कमल अब के दिनों में मुम्बई में सफल फ़िल्मी लेखक बन चुके हैं । और मंच में छपा कमल पांडेय का यह संस्मरण भरत तिवारी ने इधर के दिनों में अपनी ई-पत्रिका शब्दांकन में भी लगा दिया । लेकिन उदय प्रकाश और उन की कीर्तन मंडली ने यह भी देखना ज़रुरी नहीं समझा कि 2010 के लेख पर राशन पानी ले कर शब्दांकन और भरत तिवारी पर पिल पड़े । सारा विवेक और संयम खो दिया । अब भरत और कमल पांडेय उदय प्रकाश की नज़र में मनुष्य भी नहीं रह गए हैं । जैसे कीड़ा , मकोड़ा बन गए हैं । सर्वहारा के लिए अपने तथाकथित लेखन में निरंतर जयघोष करने वाले उदय प्रकाश के लिए जब कमल पांडेय आठ सौ रुपए में कमरा शेयर कर रहे थे , तब साथी थे , अब यह सब लिख देने के बाद वह घटिया आदमी हो गए हैं , कीड़ा , मकोड़ा हो गए हैं । और हां , ब्राह्मण हो गए हैं । गरियाने के काबिल ब्राह्मण ! भरत तिवारी भी साथ में नत्थी हो चले हैं । इस फेसबुकीय विमर्श में प्रतिवाद करने पर उदय ने भरत तिवारी को पहले तो सामंती अंदाज़ में डिक्टेट किया फिर ब्लाक कर दिया । लेकिन एक बार भी भूल कर अपने इस शर्मनाक रवैए के लिए न तो खेद व्यक्त किया, न इसे कमल पांडेय का झूठ कह कर खंडन किया । लगातार थेथरई और दंभ भरे प्रवचन देते रहे । ब्राह्मण विरोध का बिगुल बजाते रहे । और कोढ़ में खाज यह कि सर्वदा की तरह कीर्तन मंडली आंख मूंद कर उदय प्रकाश के भजन , आरती और विरुदावली गाती रही । ज़िक्र ज़रुरी है कि शिवमूर्ति बड़े कथाकार हैं । उदय की इस बौखलाहट की नींव में दरअसल शिवमूर्ति ही हैं । उदय प्रकाश के समकालीन । 1987 में हंस में छपी कहानियों आधार पर चुनी गई कहानियों में शिवमूर्ति अपनी कहानी तिरिया चरित्तर के लिए प्रथम पुरस्कार के लिए चुने गए  थे , उदय प्रकाश तिरिछ के लिए द्वितीय। चंद्र किशोर जायसवाल तृतीय । यह वर्ष 1988  की बात है । शिवमूर्ति से अपनी यह पराजय उदय प्रकाश आज तक भूल नहीं पाए हैं । पर साफ कह नहीं पाते । कि  पिछड़ी जाति का  होते हुए भी शिवमूर्ति  कैसे एक क्षत्रिय उदय प्रकाश को पीछे छोड़ गया ! ग़नीमत कि उन्हों ने तब यह आरोप नहीं लगाया कि इस निर्णायक मंडल में मन्नू भंडारी नाम की एक ब्राह्मण ने उन्हें द्वेषवश द्वितीय  कर दिया । विवशता भी थी कि सामने शिवमूर्ति थे ,  पिछड़ी जाति के थे , ब्राह्मण नहीं थे । लेकिन सब कुछ के बावजूद शिवमूर्ति ब्राह्मण के पाखंडी पहाड़े और लफ़्फ़ाज़ी में नहीं फंसते । जो भी कहना है , जैसे भी कहना है , वह रचना में ही कहते हैं और तार्किक ढंग से । लफ़्फ़ाज़ी का कोई अंतर्पाठ वह नहीं रचते । क्यों कि शिवमूर्ति सचमुच बड़े रचनाकार हैं । उन में बड़प्पन भी है । लेकिन ब्राह्मण का पहाड़ा उदय प्रकाश निरंतर पढ़ते ही रहते हैं । पढ़ते ही रहेंगे । अभिशप्त हैं इस के लिए । यह उन की लाइलाज बीमारी है । एक बार कैंसर और एड्स भी ठीक हो सकता है , उदय प्रकाश की यह बीमारी नहीं । हालां कि एक समय वह भी दिल्ली में लोगों ने देखा है जब उदय प्रकाश बड़ी शान से कहते फिरते थे कि हमारे पुरखे ग्रीस से आए हुए हैं । मैं ब्लू ब्लड हूं । ब्लू ब्लड मतलब राजशाही खानदान । यह देखिए मेरी नाक ग्रीक्स से मिलती है । बताइए कि क्या उदय प्रकाश की हिप्पोक्रेसी की इस से भी बड़ी कोई इंतिहा होगी ? अपनी राजशाही पर इतना नाज़ और दुकानदारी दलित प्रेम की , ब्राह्मण विरोध के दम पर ? पार्टनर , क्या जलवा है कांस्टीच्वेंसी एड्रेस का  ! 

कविता कृष्णपल्लवी ने बीते साल उदय प्रकाश की रचना में वामपंथी-समाजवादी अंतर्विरोध की शिनाख्त जब की और ख़ूब तफ़सील से की तो पहले तो उदय प्रकाश कुतर्क करते रहे । साथ ही अपनी कीर्तन मंडली को भी कुत्तों की तरह लगा दिया कुतर्क करने के लिए । लेकिन जब कविता ने इस विमर्श में उन्हें लगभग दबोच लिया तो उदय प्रकाश कहने लगे कि यह तो कोई और है जो मेरे ख़िलाफ़ कुचक्र रच रहा है , कविता कृष्ण पल्लवी तो फर्जी नाम है, फर्जी आई डी है आदि-आदि । कविता ने अपना पूरा परिचय , अपना काम और पता भी दर्ज किया यह कहते हुए कि जब चाहे कोई भी आ कर शिनाख्त कर ले कि मैं कौन हूं । यह भी बताया कि गोरखपुर की मूल निवासी हूं । ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट हूं । गुड़गांव में रहती हूं । लेकिन उदय प्रकाश और कुत्तों की तरह उन को फॉलो करने वाली उन की कीर्तन मंडली पूरी बेशर्मी से यही भजन गाती रही कि यह कविता तो फर्जी है । अंतत: कात्यायनी को यह कहने के लिए फ़ेसबुक पर अपना एकाउंट खोल कर उपस्थित होना पड़ा और कि कहना पड़ा कि कविता कृष्णपल्लवी उन की सगी छोटी बहन हैं । तो उदय प्रकाश विमर्श छोड़ कर चंपत हो गए । सब को ब्लॉक कर दिया । उदय प्रकाश की अब यह एक जानी-पहचानी अदा बन गई है कि जो उन से असहमत हो उसे ब्लॉक कर चंपत हो लेना । ख़ैर , कीर्तन मंडली की एक सदस्य फिर भी छोड़ गए । लेकिन कीर्तन मंडली की यह सदस्य भी नहीं टिक पाई और पीठ दिखा कर चंपत हो गई । सोचिए कि उदय प्रकाश राजेंद्र यादव के संपर्क में भी रहे हैं । राजेंद्र यादव हिंदी जगत में अपने घनघोर लोकतांत्रिक होने के लिए आज भी बड़ी शिद्दत से याद किए जाते हैं । हमारे जैसे लोग तो उन्हें मिस करते हैं सिर्फ़ इस एक बात के लिए । राजेंद्र यादव के यहां असहमति का जितना बड़ा स्पेस था , इतना स्पेस किसी संत के यहां भी , किसी दार्शनिक , किसी मानव शास्त्री, किसी तर्क शास्त्री के यहां भी मैं ने नहीं देखा है । राजेंद्र यादव की कोई भी धज्जियां उड़ा सकता था , और वह पीस हंस में सम्मान से छप सकता था । छपता ही था । वह किसी असहमत व्यक्ति को , किसी असहमत विचार को अछूत बना कर , तू-तकार कर अपमानित नहीं करते थे , न ब्लाक करते थे । किसी को मुकदमा कर देने की धमकी दे कर आतंकित नहीं करते थे । विमर्श में यह सब भी कहीं होता है भला ? हां , उदय प्रकाश के यहां ज़रूर होता है । और ख़ूब होता है । कुतर्क की हद तक होता है । अफ़सोस कि उदय प्रकाश राजेंद्र यादव से ऐसा कुछ भी नहीं ग्रहण कर पाए । 

पीली छतरी वाली लड़की जब हंस में धारावाहिक छपी तो उस साल बोर्खेज़ की जन्म-शती मनाई जा रही थी । एक व्याख्यान में रवि भूषण ने स्पष्ट आरोप लगाया कि पीली छतरी वाली लड़की में तितली वाले पैरे जस के तस उदय प्रकाश ने बोर्खेज़ की एक रचना से उठा कर रख दिए हैं । और बोर्खेज़ को बिना कोट किए । वह बोर्खेज़ जिन के लिए निर्मल वर्मा ने अपनी पुस्तक शब्द और स्मृति में पूरा एक अध्याय लिखा है : लंदन में बोर्खेज़ , मैं कहीं भटक गया हूं । इस व्याख्यान की रिपोर्ट तब कथादेश में छपी । उदय प्रकाश ने अपना प्रतिवाद भी कथादेश में छपवाया । रवि भूषण ने उदय प्रकाश के प्रतिवाद की धज्जियां उड़ा कर रख दीं । उदय प्रकाश के पास जब कोई जवाब नहीं रह गया तो जानते हैं क्या किया ? रवि भूषण को अपने वकील से पचास लाख रुपए हर्जाना मांगने की क़ानूनी नोटिस भेज दी । बताइए रचना की चोरी भी करेंगे और सीनाजोरी करते हुए मुकदमे की धमकी भी देंगे। हालां कि आज डेढ़ दशक बीत जाने पर भी यह मुक़दमा नहीं किया उदय प्रकाश ने । यह और ऐसे अनगिनत सिलसिले हैं उदय प्रकाश के साथ । शायद इसी लिए बहुत सारे लेखकों से उन के रिश्ते छत्तीस के हैं । उसी दिल्ली में रह रहे विष्णु नागर , इब्बार रब्बी , मंगलेश डबराल आदि तमाम रचनाकारों से उन की संवादहीनता के अनंत क़िस्से हैं । बाहर के भी तमाम रचनाकारों के साथ उन के सहज संबंध या तो असहज हो चले हैं या समाप्त हैं । बस फ़ेसबुक की अपनी टाइम लाइन और ब्लॉग पर वह अपनी मैं , मैं और आप का यह लेखक के साथ सुबह-शाम उपस्थित रहते हैं और उन की कीर्तन मंडली जो साहित्य की समझ से शून्य है , जिस के पास कोई रचना नहीं है , सिवाय उदय प्रकाश की जय-जयकार के और कुछ नहीं है, उन का इगो मसाज और न जाने क्या-क्या करती रहती है । और उन की हिप्पोक्रेसी पर निसार  हो कर मचलती रहती है । गोया कोई मछली बेमक़सद पानी में मचल रही हो । 


खैर , पीली छतरी वाली लड़की के हंस में छपने के पहले उदय प्रकाश की स्थिति ठीक वैसी ही थी जैसी कि ए बी सी एल के भारी घाटे में डूब जाने के बाद अमिताभ बच्चन की थी। वह गहरे अवसाद में थे । लेकिन राजेंद्र यादव ने उदय प्रकाश को इस गहरे अवसाद से बाहर निकाला । पीछा कर-कर के पीली छतरी वाली लड़की लिखवाया । किश्तों में छापा और उदय प्रकाश वैसे ही पीली छतरी वाली लड़की के साथ अपने अवसाद से बाहर आ पाए जैसे अमिताभ बच्चन कौन बनेगा करोड़पति से । राजेंद्र यादव ने हंस में एक बार लिखा है कि उदय प्रकाश चाहते हैं कि उन को अच्छे कवि के तौर पर जाना जाए , पर कवि बहुत ख़राब हैं उदय प्रकाश । लेकिन कहानीकार लाजवाब हैं । तो क्या इसी एक बात से नाराज हो कर उदय प्रकाश दिल्ली में रहते हुए भी राजेंद्र यादव के निधन पर उन की अंत्येष्टि में भी शामिल नहीं हुए। कारण चाहे जो भी हो , पर शब्दांकन वाले भरत तिवारी जो राजेंद्र यादव के भी बहुत करीब थे , बड़े अफ़सोस के साथ कहते हैं कि उदय प्रकाश दिल्ली में रहते हुए भी राजेंद्र जी की अंत्येष्टि में नहीं आए । एहसान फ़रामोशी की भी , सदाशयता और अशिष्टता की भी यह पराकाष्ठा है । 

एक बार क्या हुआ कि कथाक्रम सम्मान लेने उदय प्रकाश लखनऊ आए थे । किसी जगह लेखक मित्रों के बीच वह अपनी बेरोजगारी की दास्तान छेड़े हुए थे । कि बरसों से बेरोजगार हूं । आदि-आदि । शायद वह लोगों को जताना चाहते थे यह बता कर कि मैं लेखन के दम पर जिंदा हूं । हालां कि हिंदी का कोई लेखक आज की तारीख़ में सिर्फ़ लेखन के बूते अपनी चाय का खर्च भी नहीं चला सकता यह हर कोई जानता है । उदय प्रकाश भी जानते हैं । लेकिन उदय प्रकाश कभी यह नहीं किसी को बताते कि उन की जमींदारी से उन का खर्च चलता है । बहरहाल , अखिलेश बताते हैं कि उस वक्त उदय प्रकाश की यह बेरोजगारी की बात सुन-सुन कर एक युवा लेखक रोशन प्रेमयोगी बेधड़क बोले , भाई साहब ! आप इतना अच्छा लिखते हैं , इतनी मेहनत करते हैं , इतनी अच्छी भाषा है आप के पास , कहीं भी टाईपराइटर ले कर बैठ जाइए । लोगों का अप्लिकेशन भी टाईप कर देंगे तो खर्च निकल जाएगा । काम तो चल ही जाएगा ! यह सुनते ही उदय प्रकाश एकदम से चुप हो गए । हालां कि मैं रोशन प्रेमयोगी को जहां तक जानता हूं , उन्हों ने यह बात निश्छल भाव से ही कही होगी , तंज में नहीं । 

अब इधर क्या हुआ कि लखनऊ की एक महिला जो उदय प्रकाश की कीर्तन मंडली की प्रमुख सदस्य हैं,  वह कई फर्जी आई डी बना कर फ़ेसबुक पर जहर उगलने के काम में लगे रहने की शौक़ीन भी हैं । अनर्गल आरोप लगाने के लिए फर्जी आई डी उन की बहुत बड़ी सखी है । जब वह घिर जाती हैं तो वह फर्जी आई डी मिटा कर चंपत हो जाती हैं । अभी वह शगुफ़्ता ज़ुबैरी नाम की एक आई डी  से मेरी टाईमलाईन  पर आ कर अनर्गल आरोप लगाने लगीं मेरी एक पोस्ट पर । और जब वह अपनी ही बातों में घिर गईं और कि  मैं ने उन्हें साफ बता दिया कि मैं जान गया हूं  कि आप कौन हैं । आप की कुंठा और आप की भाषा ने बता दिया है कि आप हमारे ही बीच की हैं । विमर्श करना ही है तो असली आई  डी से आइए फिर बात करते हैं । फर्जी आई डी से क्या बात करना ? मैं ने यह भी लिखा कि घबराइए नहीं , आप कौन हैं , यह बताने के लिए अपने एक मित्र को आप की यह फर्जी आई डी सौंप रहा हूं , जल्दी ही आप का इतिहास भूगोल सामने आ जाएगा । इस महिला ने तुरंत मुझे ब्लाक कर दिया । फिर मैं ने लगातार कुछ पोस्ट इस बाबत अपनी टाईमलाईन पर उक्त महिला का चरित्र चित्रण करते हुए लिखा । जिन को नहीं जानना था , वह भी जान गए इस खल महिला को कि कौन है यह ? अब इस फर्जी आई डी के मार्फत सब पर हमला करने वाली,  उदय प्रकाश की कीर्तन मंडली की प्रमुख सदस्य ने जाहिर है अपना दुखड़ा उन से रोया । उदय प्रकाश कान के इतने कच्चे निकले , अकल के इतने दुश्मन निकले कि सर्वदा की तरह बौखला गए । और दिलचस्प यह कि अपनी टाईमलाईन पर भी नहीं , अनिल जनविजय की टाईमलाईन पर जा कर बिना किसी प्रसंग , बिना किसी संदर्भ के अपनी बौखलाहट किस तरह उतारी है , इस पर ज़रा गौर कीजिए , और उन की बौखलाहट का फुल आनंद लीजिए :

  • क्यों अनिल जनविजय, ये दयानंद पांडे नामक व्यक्ति तुम्हारा दोस्त या वैचारिक-साहित्यिक सहकर्मी है ?
    जवाब का इंतज़ार है।
    मनुष्यता के कितने कलंकों और हिंदी लेखन के कितने दाग-धब्बों से तुम्हारे एफबी पोस्ट्स, जो अक्सर सस्ते चुटकुलों जैसे असहनीय हुआ करते हैं, की टीआरपी बनती है ?
    तुम इसको भी अपना 'पुश्किन पुरस्कार' दे कर, मास्को की यात्रा करा दो।
  • Dayanand Pandey अनिल जनविजय जी , उदय प्रकाश जी आप के पुराने मित्र हैं , हमारे भी हुआ करते हैं , बड़े लेखक हैं , आप उन की सलाह मान लीजिए न । पासपोर्ट मेरा पहले से बना हुआ है । बाकी तो जो लोग देख रहे हैं , जान रहे हैं सो हईये है !
  • Anil Janvijay ये दयानंद पांडे न दोस्त हैं, न वैचारिक-साहित्यिक सहकर्मीै। लेकिन हिन्दी भाषी हैं, हिन्दी के पत्रकार हैं और वैचारिक विरोध होने के बावजूद भी, भारतीय हैं, मनुष्य हैं। हां, उदय, तुम मेरे दोस्त हो और मुझे तुम पर गर्व भी है।
  • संध्या सिंह उदयप्रकाश जी आपसे से ये उम्मीद नहीं थी ......
  • Uday Prakash तो पांडेय जी से बोलो कि हम उन पर भी कभी, मनुष्यता के नाते ही, कभी गर्व करने की बात सोच सकें।
  • Uday Prakash कभी कोई उम्मीद न पालें। संध्या सिंह जी।
  • संध्या सिंह पता नहीं ये कैसा झगड़ा है और किस दिशा में जा रहा है खैर आपकी कवितायें बेमिसाल होती हैं ...
  • संध्या सिंह अनिल जी वाल इस युद्ध का अखाड़ा क्यों ? ये भी समझ से परे है.... अनसुलझे सवालों के साथ यहाँसे विदा ..... प्रणाम
  • Dayanand Pandey हा हा ! बस हंसी आती है ! असली जड़ तो यह है न !


अब यह देख पढ़ कर आप ख़ुद अंदाज़ा लगा लीजिए कि अपने को अंतरराष्ट्रीय लेखक कहलाने का दंभ भरने वाला यह उदय प्रकाश हिंदी का प्रतिनिधित्व भी किस आचरण से करता होगा ?  जो आदमी, अच्छा आदमी नहीं हो सकता , शालीन भाषा नहीं बोल और लिख सकता , जिस के पास असहमत होने वालों के लिए कोई स्पेस नहीं हो सकता , वह अच्छा लेखक भी क्या ख़ाक होगा ? तुम जैसे नीच , झक्की और सनकी आदमी को मैं लेखक मानने से इंकार करता हूं । मेरा क्या कर लोगे उदय प्रकाश ! फ़ेसबुक पर ब्लॉक कर दोगे ? अपनी कीर्तन मंडली से मुझ पर ब्राह्मण होने की गालियों की बौछार करवा दोगे ? एक लीगल नोटिस भेज कर मुझे मुकदमे की धमकी दोगे ? मुकदमा कर दोगे ? तुम्हारे जैसे हारे हुए,  हिप्पोक्रेट आदमी के पास इस के अलावा चारा भी क्या है ? है क्या ? अपना एक चेहरा तक तो है नहीं । न तर्क , न विवेक , न संयम। तू-तकार की भाषा है , जादुई यथार्थ का एक चुराया हुआ क्राफ़्ट है और गलदोदयी भरी थेथरई के बूते हिंदी में साहित्य की धंधेबाज़ी है । और है क्या ? बहुत बड़े लेखक बने घूमते हो , कितनी लाख, कितनी हज़ार , कितनी सौ किताबें बिकती हैं  तुम्हारी ? कितनी रॉयल्टी पाते हो तुम  , क्या यह हिंदी जगत नहीं जानता ? कोई एक भी कायदे का लेख या किताब किसी भले आलोचक ने तुम पर लिखा है क्या आज तक ? कोई चालीस साल से अधिक तो हो ही गए तुम्हें लिखते हुए , पर एक भी शास्त्रीय समीक्षा या टीका किसी आलोचक ने क्यों नहीं लिखी ? चालू और सतही टिप्पणियों को भी आलोचना मानते हो ? बाज़ार के रथ पर सवार हो कर विज्ञापनी टोटके आज़मा कर तो आज बहुत सारे लेखक इतराते फिर रहे हैं । तुम्हारी ही तरह विदेश यात्राओं और अनुवाद की जुगत भिड़ा कर । तुम अकेले नहीं हो इस खेल में , अपना डंका ख़ुद ही बजाते हुए ।  बहुतेरे हैं । लेकिन इस का गुमान तुम्हें कुछ ज़्यादा ही है । जज कॉलोनी में रहने भर से कोई जज नहीं हो जाता कि तुम सब के लिए फैसले और फतवे जारी करते फिरो । रहता तो मैं भी आई ए एस अफसरों की कॉलोनी में हूं , तो क्या मैं अफसर हो जाऊंगा ? आदेश और शासनादेश जारी करने लगूंगा ? जिस आदित्य नाथ के साथ तुम छाती फुला कर , मोहिनी मुद्रा में मुसकुराते हुए फ़ोटो खिंचवा कर सम्मानित होते हो , उसी आदित्यनाथ से मैं उसी गोरखपुर शहर में आंख से आंख मिला कर बात करता हूं , उस की और उस की गुंडई की धज्जियां उड़ा देता हूं । यक़ीन न हो तो मेरा उपन्यास वे जो हारे हुए फिर से पढ़ लो । उपन्यास गायब हो गया हो , खोजने में दिक्क़त हो तो इसी ब्लॉग पर यह पूरा उपन्यास उपस्थित है , पढ़ लो ! बस यही है कि मैं साहित्य का धंधेबाज़ नहीं हूं, दुकानदार नहीं हूं । इन सब चीज़ों पर यक़ीन भी नहीं है। स्वाभिमान से जीने का आदी हूं । तीन तिकड़म और चार सौ बीसी नहीं करता । जोड़-जुगाड़ नहीं करता । लेकिन आदित्यनाथ जैसे हत्यारों और गुंडों से डरता नहीं हूं । जूते की नोक पर रखता हूं । जब कि उसी गोरखपुर का रहने वाला हूं । मेरा घर , मेरा गांव , मेरी खेती बारी , मेरे माता-पिता , नात-रिश्तेदार सब वहीं है । उसी गोरखपुर में । तब भी उसे गुंडा और हत्यारा कहने का साहस रखता हूं । कहता ही हूं । मैं जाति-पाति में नहीं जीता , वामपंथ मेरा भी आदर्श है। लेकिन हां , मैं ब्राह्मण हूं , उतना ही जितना कि तुम क्षत्रिय हो , जितना कि कोई जैन , कोई कायस्थ , कोई यादव , कोई पिछड़ा, कोई दलित या कुछ और होता है। ब्राह्मण होना अपराध नहीं है । जैसा कि तुम और तुम्हारे जैसे नपुंसक वैचारिकी के मारे मुहिम चलाए हुए हैं । वामपंथ सर्वदा सर्वहारा के लिए जीता और मरता है । और इस देश में असल सर्वहारा की संख्या दलितों में ही पाई जाती है । थोड़ा बहुत ब्राह्मणों और क्षत्रिय आदि सब जातियों में । क्यों कि सर्वहारा की कोई जाति नहीं होती । पर  इन दलितों के सर्वमान्य नेता बाबा साहब अंबेडकर ने भारतीय वामपंथियों के लिए क्या लिखा है मालूम भी है ? अंबेडकर  ने भारत में वामपंथियों के लिए लिखा है , बंच आफ ब्राह्मण ब्वॉयज़ ! लेकिन यह मेरे या किसी भी के लिए इतराने का नहीं,  शर्म का विषय है । 

ख़ैर , ऊपर के इस आख़िरी पैरे में तू तकार की भाषा का कैसा आनंद मिला , उदय प्रकाश जी मुझे बताइएगा  नहीं , बस ज़रा फील कर लीजिएगा । पर पीड़ा में आप की आनंद लेने की बीमारी में शायद कुछ सुधार आ जाए ! आप की कलफ़ लगी ठकुरई में , सामंती अकड़ और ज़मीदार होने के भाव में कुछ नरमी आ जाए । कीर्तन मंडली के इगो मसाज़ के शाही शौक़ के मिजाज में कुछ फरक आ जाए । वैसे मुझे पूरा यक़ीन है कि आप यह पर पीड़ा का सुख , या यह सारे शग़ल छोड़ने से रहे । क्यों कि इस फेर में अभी आप को अपमान के कई चरण पार करने शेष हैं । आमीन !