दयानंद पांडेय
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Saturday, 5 April 2025
असदुदीन ओवैसी की मर्चेंट आफ वेनिस
आनंद कीजिए कि आप काफ़िर भी हैं और कायर भी
दयानंद पांडेय
कट्टर कांग्रेसी और घनघोर सेक्यूलर रहे जगदंबिका पाल भाजपा के बड़े एसेट बन गए
दयानंद पांडेय
चित्रा के बहाने नफ़रत और घृणा का फैलता कारोबार
दयानंद पांडेय
नई राजनीति , नई कॉमेडी और नई पत्रकारिता
दयानंद पांडेय
Friday, 21 March 2025
उपेक्षा
दयानंद पांडेय
अम्मा जी जब भी गांव से कभी आतीं तो कोई न कोई अग्नि परीक्षा ले कर ही गांव लौटतीं। पर इस बार तो जैसे अग्नि परीक्षा से भी बड़ी परीक्षा वह ले बैठीं। नन्ही सी बेटी को ही मांग बैठीं। दो साल की बेटी जो मेरा दूध पी रही थी। कि जैसे भी हो इस को अब की वह अपने साथ गांव ले जाएंगी। यह सुन कर मेरी तो जैसे जान ही निकल गई।
बेटा जब बहुत छोटा था तब अम्मा जी उसे भी अपने साथ गांव में रखना चाहती थीं। जब उन्हों ने बेटे को अपने साथ ले जाने की बात कीं तो तब भी मैं घबरा गई थी। उन से बोली , ' मैं कैसे रहूंगी ? '
' जैसे मैं बिना अपने बेटे के रहती हूं। ' वह जैसे घायल हो कर बोलीं , ' मैं कैसे अकेले रहती हूं बिना अपने बेटे के , कभी सोचा है ? '
मैं चुप रह गई। लेकिन अम्मा जी का यह दुःख मुझे मथ गया। बुरी तरह मथ गया।
दो दिन बाद थोड़ा मजे लेती हुई अम्मा जी बोलीं , ' ऐसा करो तुम मेरे बेटे के साथ रहो , मैं तुम्हारे बेटे के साथ रहूंगी। हिसाब बराबर। ' यह सुन कर मैं रोने लगी। अम्मा जी ने मुझे अपनी गोद में ले लिया और मुझे संभालती हुई बोलीं , ' घबराओ नहीं। कुछ नहीं होगा। मेरा बेटा भी अपने पास रखो , अपना बेटा भी अपने पास रखो। मैं रह लूंगी अकेले भी। जैसे भी। '
बात ख़त्म हो गई थी। पर सचमुच नहीं।
एक बार गांव गई तो वापसी में फिर वही तान कि , 'कुछ दिन के लिए सही , बाबू को मेरे पास छोड़ दो। '
मैं फिर रोने लगी। बेटे के बिना रहने की कल्पना ही नहीं कर पा रही थी। बोली , ' अम्मा जी , अभी बहुत छोटा है। मेरा दूध पीता है। दूध छूट जाए तब रख लीजिएगा। '
' पक्का ? ' अम्मा जी ने मुदित हो कर मुझे अंकवार में भर कर पूछा।
' पक्का ! ' हंसती हुई मैं बोली।
बेटे को ले कर मैं शहर आ गई। दिन बीतने लगे। सब कुछ ढर्रे पर आ गया। अचानक अम्मा जी फिर शहर आईं। फिर वही परंपराएं , वही संस्कार की नर्सरी। वही अनुशासन , वही कर्फ्यू। बेटा जो कभी ग़लती से किचेन में ठुमक - ठुमक कर चला जाता तो दिन भर दादी को सफाई देता फिरता कि , ' देखिए दादी हम किचेन में नहा कर गए थे। चप्पल नहीं पहने थे। आदि - इत्यादि। एक दिन तो वह चप्पल पहने किचेन में आ गया। अचानक बड़ी सी जीभ निकाली। चप्पल कमर में खोंसी। बोला , ' दादी , हम चप्पल पहन कर नहीं आए। ' संयोग था कि दादी तब अपने बेटे से बतियाने में लगी थीं। ध्यान ही नहीं दिया। पर वापसी पर फिर बाबू को गांव ले जाने की ज़िद। पर अब की मुझे कुछ कहना ही नहीं पड़ा। पतिदेव ने कमान संभाली। बोले , ' अगले हफ़्ते इस का एडमिशन करवाना है स्कूल में। '
' इतना छोटा सा बच्चा , अभी से स्कूल ? ' अम्मा जी ने माथा पीटा।
' हां अम्मा ! ' वह बोले , ' स्कूल अब जल्दी भेजना पड़ता है बच्चों को। '
' पर स्कूल में एडमिशन तो जुलाई में होता है। मार्च में नहीं। ' अम्मा जी ने एक और पासा फेंका।
' अब अप्रैल में ही एडमिशन होता है अम्मा , जुलाई में नहीं। '
अम्मा जी इस तीर से हार गईं। बोलीं , ' अब पढ़ाई की बात है तो क्या कहूं ? '
अम्मा जी जब भी गांव से आतीं तो ढेर सारे गंवई सामान के साथ ढेर सारा प्यार और स्नेह भी आ कर मुझ पर लुटातीं। बरसातीं। पर जाने क्या था कि उन के आते ही घर में जैसे अघोषित भूकंप आ जाता। कर्फ्यू लग जाता। सब से ज़्यादा किचेन में। बहू थी उन की पर मानती वह मुझे बिटिया की तरह थीं। इस लिए कि उन की कोई बेटी नहीं थी। सो बेटी की साध भी वह मुझी से पूरा करतीं। फिर भी इस मां के पीछे उन के भीतर एक सास भी जैसे चुपके से बैठी रहती थी। दोपहर के सूर्य की तरह। लाख छुपाने पर भी यह दोपहर का सूर्य छुपता नहीं था। अपनी पूरी आंच के साथ उपस्थित। मैं चांद बन कर इस सूर्य के पीछे दुबकी-दुबकी रहती। ऐसे जैसे बिटिया उछलती रहती , बहू दुबकी-दुबकी। गांव से मेरा बहुत नाता नहीं था पर अम्मा जी से बहुत था। अम्मा जी का शहर से बहुत नाता नहीं था पर मुझ से बहुत था। अजब अंतर्विरोध था। अजब सहमतियां थीं। असहमतियां भी बहुत थीं। पर न अम्मा जी उसे सामने लातीं , न मैं। अम्मा जी गांव की सारी परंपराएं , संस्कार , रवायतें सब कुछ एक साथ मुझ में किसी धान के पौधे की तरह रोप देना चाहती थीं। मैं थी कि अम्मा जी को , उन की की बहुत सी बातों को अपने ढंग से आधुनिक बना देना चाहती थी। पर होता यह था कि अम्मा जी काली कमरिया थीं। उन पर कोई और रंग चढ़ता ही नहीं था। चढ़ो न दूजो रंग वाली स्थिति थी। वह अपनी आस्थाओं और जड़ों से गहरे जुड़ी हुई थीं। टस से मस नहीं होती थीं। बदलना मुझे ही रहता था। वह जब भी आतीं , सिर से पल्लू ले कर , मुझे आफ़िस से छुट्टी लेनी पड़ती। शुरू में वर्क फ्राम होम करती। पर अम्मा जी को यह वर्क फ्राम होम भी नहीं सुहाता था। कहतीं , ' इस से अच्छा तो तुम दफ़्तर ही चली जाया करो !' तो जैसे - तैसे पूरी छुट्टी ले लेती। आफिस वाले भी अम्मा जी के नाम पर माने जाते। छुट्टी नहीं लेती तो वह जैसे बहुत मासूम सा ताना देतीं , ' घर में पूरे दिन अकेले रह कर क्या ईंटें गिना करूं ? ' फिर छत देखती हुई कहतीं , ' यहां तो ईंटें भी नहीं दिखतीं। ' मैं छुट्टी ले कर घर बैठ जाती थी ताकि अम्मा जी को कठिनाई न हो। उन का मन लगा रहे। तब भी वह हफ़्ते दस दिन में ही बोर हो जातीं। टी वी उन्हें सुहाता नहीं था। बेटा भी छोटा था पर स्कूल चला जाता था। घर में रहते हुए भी या तो सोता , पढ़ता या खेलता। दादी की बातों में उसे बहुत दिलचस्पी नहीं रहती। अम्मा जी के पास गांव , दुआर , घर की बातें होतीं। गांव की बोली में। खांटी गंवई। बेटे के कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता था। बेटा पोएट्री सुनाता। अम्मा जी लोकगीत। दोनों के ही सब कुछ पास बाई। आफ्टरआल बच्चा था , बहू नहीं। और अम्मा जी तो , अम्मा जी ही थीं। सुप्रीमो ! घर की सुप्रीमो। छोटी बेटी बतियाने भर की हुई नहीं थी। सोती और खेलती ज़्यादा थी। पतिदेव भी अम्मा से उतना ही बतियाते जितने में उन का झगड़ा न हो। पतिदेव और अम्मा जी अक्सर किसी बात पर लड़ ही जाते थे। बेटा थे , बहू नहीं। कि बात बेबात सरेंडर करते रहें। कि सही होने पर भी अपने को ग़लत मान लें। अम्मा जी डिमांडिंग बहुत थीं। पतिदेव डिमांड सभी पूरी करते रहते थे पर कभी किसी बिंदु पर आ कर लड़खड़ा जाते। बस झगड़ा शुरू। पर वह अम्मा को मनाना भी बहुत जानते थे। दो मिनट में मना भी लेते।
अम्मा जी जब तक रहतीं तब तक किचेन में सिर्फ़ तीन ही लोगों की एंट्री थी। एक अम्मा जी की , दूसरी हमारी। तीसरी काम वाली की। काम वाली को वह घूरती बहुत थीं। चुपचाप। बिन बोले घूरतीं। इतना कि वह अकसर घबरा जाती। अम्मा जी किचेन में ही बैठ कर खाती - पीतीं। किचेन उन के लिए रसोई होता। चाहती थीं कि सभी लोग रसोई बोलें। भोजन बोलें। अगर कोई बच्चा गलती से भी खेलते - खेलते किचेन में घुस जाए तो किचेन अपवित्र। किचेन से खाने की कोई चीज़ बाहर आ गई तो अगर ग़लती से किचेन में वापस चली गई तो किचेन अपवित्र। किसी के लिए रोटी आ गई और उस ने नहीं ली और वह रोटी किचेन में वापस चली गई तो किचेन अपवित्र। किचेन अपवित्र मतलब अम्मा जी का कुछ भी खाना - पीना तब तक के लिए बंद जब तक किचेन साफ़ कर नया भोजन न पक जाए। चप्पल आदि पहने तो जा ही नहीं सकता था कोई। मैं भी बिना नहाए किचेन में प्रवेश नहीं कर सकती थी। दोनों टाइम नहाना। कितना भी जाड़ा पड़ रहा हो , कितनी भी अर्जेंसी हो। बाक़ी बातों में अम्मा बहुत व्यावहारिक थीं। आंख मूंद लेती थीं। बात टाल जाती थीं। लेकिन किचेन की पवित्रता के मामले में कोई कंप्रोमाइज नहीं। सारी व्यावहारिकता डस्टविन में। बल्कि कहें भाड़ में।
गांव में भी उन की किचेन की पवित्रता शिखर पर रहती। शहर में भी। ख़ैर हमेशा की तरह इस बार भी अम्मा जी को स्टेशन छोड़ने गए हम सभी। बाबू जी उन्हें लेने आ गए थे। घर से चलते समय अम्मा जी ने बेटी को ले जाने के बाबत कुछ कहा ही नहीं। मैं ख़ुश-ख़ुश और निश्चिंत। कि अच्छा हुआ कि अम्मा जी भूल गईं। स्टेशन पर ट्रेन में बर्थ पर बैठते ही अम्मा जी बेटी को गोद में ले कर चूमने लगीं। सहसा पतिदेव से बोलीं , ' मैं इस को ले जा रही हूं ! ' पतिदेव ने हंसते हुए हामी भर दी। लेकिन मेरे तो जैसे प्राण ही सूख ही गए। मुझे चुप देख कर अम्मा जी बोलीं , ' तुम को कोई ऐतराज तो नहीं है ? '
' ऐतराज तो नहीं है। ' दबी जुबान मैं बोली, ' पर अभी यह हमारा दूध पीती है। इस का कोई कपड़ा-लत्ता भी तो लाए नहीं हैं। '
' दूध हम पिला देंगे गाय का। कपड़ा-लत्ता हम सब नया बनवा देंगे। गांव में सब कुछ मिलता है। दर्जी है। नहीं बाज़ार से रेडीमेड मंगवा लेंगे। ' वह बोलीं , ' तुम इस की चिंता मत करो ! खिलाएंगे , पिलाएंगे भी तुम से बढ़िया। काम वाली के भरोसे नहीं छोड़ेंगे। '
मैं चुपचाप रोने लगी।
बात ही बात में ट्रेन चलने को हो गई। अम्मा , बाबू जी के पांव छू कर हम डब्बे से प्लेटफार्म पर उतर आए। बेटी को बाई - बाई करते हुए। घर वापस आते समय रास्ते भर रोते रहे। घर आ कर पतिदेव से कहा कि , ' ट्रेन तो शहर के कई छोटे स्टेशन पर रुकते हुए जाएगी। तब तक आख़िरी वाले स्टेशन पर चलते हैं , बेटी को वापस लेते आते हैं। '
' नौटंकी मत करो ! ' वह बोले , ' मैं तो इस तरह किसी स्टेशन चलने से रहा। ऐसा ही था तो अम्मा से बेटी को स्टेशन पर ही ले लेना था। '
' ऐसा करें कि हम लोग भी क्यों न रात की ट्रेन से गांव चले चलें। ' पतिदेव से थोड़ी देर बाद कहा।
' मैं कहीं नहीं जा रहा। ' वह बोले , ' कुछ दिन अम्मा के साथ भी रह लेने दो बेटी को। अम्मा का भी मन बहल जाने दो। '
दो - चार दिन बीते। पर मैं घर में रह नहीं पा रही थी। चुप नहीं रह पा रही थी। बात - बेबात रो पड़ती। बेटी जैसे जब - तब सामने आ कर खड़ी हो जाती। आफिस भी जाना छोड़ दिया। छुट्टी बढ़ा दी थी। वाट्सअप पर बात होती अम्मा जी से रोज। बेटी भी दिख जाती। पर इस दूर से देखने से मन नहीं भरता था। दिल नहीं मानता था। मन करता था कि उस वीडियो काल में ही कूद कर बेटी को गोद में ले लूं। बाहों में भर लूं। छाती में दूध जैसे उफना जाता। ऐसे जैसे पतीली में दूध उफना गया हो। रोने लगती। मेरा रोज - रोज का रोना - धोना देख कर पतिदेव पसीज गए। रिजर्वेशन करवा दिया। अगले हफ़्ते सुबह - सुबह हम लोग गांव पहुंच गए। अम्मा जी ने देखते ही तंज किया , ' हफ़्ता भर भी नहीं रह पाई बेटी के बिना ? ' जवाब में सुबुक - सुबुक कर रोने लगी। हल्के घूंघट में थी। पर अम्मा जी से मेरा रोना नहीं छुपा। मैं उन के पांव छू रही थी और वह मेरी ठुड्डी पकड़ कर उठाए हुई मेरी भरी - भरी आंखें देख रही थीं। मेरा रुदन देख कर , अम्मा जी भी रोने लगीं। बोलीं , ' दुलहिन , इस में तुम्हारा दोष नहीं। औलाद होती ही ऐसी चीज़ है। ' कह कर उन्हों ने मुझे अपनी अंकवार में भर लिया।
सब कुछ था पर बेटी नहीं दिख रही थी। मैं , मेरी आंखें उसी को खोज रही थीं। पूछने पर पता चला बाबू जी उसे ले कर खेत की तरफ गए हैं।
' किसी को भेज कर बुलवा लीजिए न ! ' मैं ने अम्मा जी से कहा।
' किस को ? ' अम्मा जी ने पूछा।
' बाबू जी को। '
' बाबू जी को देखना है कि बेटी को ? '
' बेटी को। ' धीरे से मैं बोली।
बाबू जी थोड़ी देर में आ गए। बेटी भी। बाबू जी के पांव छू ही रही थी कि बेटी दादी की तरफ भाग गई। मेरी तरफ आई ही नहीं। मैं अवाक् रह गई। वह दौड़ कर दादी की गोद में समा गई। बाद के समय भी बहुत कोशिश की उसे अपने पास बुलाने की। वह आती ही नहीं थी। जिस के लिए सब कुछ छोड़ कर सैकड़ो किलोमीटर की दूरी तय कर आए थे , वही मेरे पास आने को तैयार नहीं थी। लग ही नहीं रहा था कि वह मेरी बेटी है , मैं उस की मां। अजब दृश्य था। दूध में जैसे दरार पड़ गई थी। कलेजे में टीस सी उठी। जैसे कोई भाला गड़ गया हो दिल में। दिन बीता , रात हो गई। बेटी मेरे पास नहीं आई। दादी के पास ही सोई। मैं और रोने लगी। कि ऐसा क्या हो गया। कि मेरे पास नहीं आ रही। दूसरे दिन गौर किया कि बेटी मेरे ही पास नहीं , अपने पापा के पास भी नहीं जा रही। वह लाख बुलाएं। पकड़ें। वह उछल कर भाग जाए। ऐसे जैसे मम्मी , पापा उस की ज़िंदगी में हैं ही नहीं। वह जानती ही नहीं हमें। बाबा - दादी ही सब कुछ हैं , उस के लिए। पड़ोस के बच्चों को वह जानती थी। पड़ोस की आती - जाती औरतों को वह पहचानती। अपने भाई को पहचानती। मम्मी - पापा से जैसे उस की दुश्मनी हो गई थी।
कहीं अम्मा जी ने अपने पास रखने के लिए इस पर कोई जादू-टोना तो नहीं कर दिया ? मैं ने सोचा। पर अम्मा जी के बारे में ऐसा सोच कर भी दुःख हुआ। अम्मा जी ऐसी नहीं हैं , मन ही मन कह कर इस बात को झटक दिया। पतिदेव को बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा कि बेटी उन के पास क्यों नहीं आ रही। इस बारे में उन्हों ने ध्यान भी नहीं दिया। वह गांव की रूटीन , खेत , पट्टीदार आदि में व्यस्त हो गए थे।
पर मैं क्या करूं ? क्या करूं कि बेटी मेरे पास आ जाए। उसे जी भर प्यार करूं। इसी उधेड़बुन में दूसरा दिन भी बीत गया। तीसरे दिन आंगन में खेलती हुई बेटी को ज़बरदस्ती पकड़ कर गोद में बिठा लिया। चूमने लगी। वह फिर उछल कर भाग खड़ी हुई। भाग क्या खड़ी हुई , किसी गौरैया की तरह फुदक कर उड़ गई। मैं दुःख में डूब गई। पीछे से अम्मा जी यह सब चुपचाप देख रही थीं। अचानक वह आईं और मेरा कंधा पकड़ कर वहीं बैठ गईं। बोलीं , ' यह तो हम से बड़ा अपराध हो गया , बड़ा पाप हो गया दुलहिन ! '
' क्या ? ' मैं अचकचा पड़ी।
' दो साल की बिटिया को तुम से अलग कर के। '
' क्या ? '
' हां। ' अम्मा जी बोलीं , ' बिटिया तुम दोनों से बहुत नाराज है। कह नहीं पा रही। शब्द नहीं है उस के पास नाराजगी जताने के लिए। पर यह अबोध बच्ची , दो साल की दुधमुंही बच्ची तुम लोगों से बहुत नाराज हो गई है। इसी लिए दो दिन से देख रही हूं , तुम लोगों की इतनी उपेक्षा कर रही है। निर्मोही हो गई है। उस को माफ़ कर दो और मुझे भी ! ' कह कर अम्मा जी ने हाथ जोड़ लिए। अम्मा जी की उदास आंखों में जैसे समंदर सा पानी था। भरभरा कर सारा बाहर आ गया।
मैं अम्मा जी के गले लग कर रो पड़ी। फफक - फफक कर। अम्मा जी भी फफक रही थीं और मैं भी।
उधर बेटी , अपने भाई के साथ खेल रही थी। कूद - कूद कर।
[ साहित्य अकादमी , दिल्ली द्वारा प्रकाशित पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के जनवरी - फ़रवरी , 2025 अंक में प्रकाशित। ]
Friday, 7 March 2025
भीगना
दयानंद पांडेय
सावन की शिवरात्रि है और कवि कालिदास के नगर में वह भीग रहा है। लाइन में लग कर भीग रहा है। अनायास और औचक। यह मनोहारी है। बारिश में भीगना उसे पसंद है। बेहद पसंद। बस भीगने के बाद होने वाले खांसी , जुकाम और बुख़ार से वह डरता है। बचपन में तो वह बारिश में भीगने पर मां से पिटता था। पर तब भी जब कभी बारिश होती तो किसी न किसी बहाने घर से निकल जाता बारिश में भीगने के लिए। तब मां पीटती थी , अब खांसी , जुकाम और बुखार मिल कर पीटते हैं। इन के पीटने में मां की मिठास नहीं होती। इस लिए भी बचता है अब बारिश में भीगने से। लेकिन अभी और बिलकुल अभी जयकारे और बारिश के बीच वह लाइन में है। भारी भीड़ में है। बचना , बारिश से बचना लगभग नामुमकिन है।
अमूमन वह लाइन में लगने से बचता है। भीड़ में जाने से बचता है। भारी भीड़ में जाने से तो डरता है। पर आदमी की जैसे प्रवृत्ति है कि भीड़ की तरफ दौड़ता है और चाहता है कि उसे रास्ता मिले। पर रास्ता मिलता नहीं है भीड़ में। कैसी भी लाइन हो , कैसी भी भीड़। इस लिए बेतरह बचता है। अकसर एकांत और निर्जन ढूंढता है। भक्ति में श्रद्धा तभी उमड़ती है। लंबी लाइन और भारी भीड़ सारी श्रद्धा छीन लेती है। आदमी थक कर चूर हो जाता है। टूट जाता है। सुविधाजीवी आदमी के लिए यह लाइन और भीड़ यातना बन जाती है। लेकिन जयकारे और बारिश के बीच वह लंबी लाइन में है। बहुत भारी भीड़ में है। लाइन भी अजगर की तरह है और भीड़ भी भक्तों की है। न आगे बढ़ा जा सकता है , न पीछे लौट कर वापस हुआ जा सकता है। लोहे की ख़ूब पतली ढाई - तीन फ़ीट चौड़ी बैरिकेटिंग ही कुछ ऐसी है लोगों को पंक्तिबद्ध करने ख़ातिर। बैरिकेटिंग भी मुड़ - मुड़ कर है। ऐसे जैसे कोई सर्प अपने को बटोर कर बैठा हो। यह बैरिकेटिंग चींटी की तरह आगे बढ़ने तो देती है , वापस लौटने नहीं देती। ऐसे जैसे किसी नदी की धार हो। आदमी उलटी तैराकी तो कर सकता है , नदी की धारा उलटी नहीं बह सकती। बरसते बादल से भरे आसमान के नीचे यह असहाय होना कितना तो रोमांचकारी भी है। इतना कि कुछ भी अपने हाथ में नहीं है। जैसे बारिश , बादल के हाथ नहीं। बादल का रिमोट जाने किस हाथ में। बारिश धीमी हो जाती है। तेज़ हो जाती है। थम जाती है। फिर अचानक बरस जाती है। बरसती ही जाती है। मुसलसल।
क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा: रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे।
अव्यवस्थित चित्तानाम् प्रसादोऽपि भयंकर:।।
वाली स्थिति है। गरज यह कि क्षण-क्षण में रुष्ट और तुष्ट होने वालों की प्रसन्नता भी अति भयंकर होती है.! बारिश और बादल के बीच यही चल रहा है। क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा: रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे। जाने यह ठीक बगल में मंद - मंद बह रही , क्षिप्रा नदी का अवसाद है या कालिदास का रुदन। कि कालिदास की प्रतीक्षा में बैठी उन की प्रेयसी मल्लिका के आंसू। वह नहीं जानता। पर वह भीग रहा है। आस्था में कम , अव्यवस्था में ज़्यादा। उस का मन बारंबार कह रहा है कि वह लाइन तोड़ कर भाग निकले। पर भागने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा। भीड़ का अजगर चारो तरफ है। उज्जैन का काल भैरव मंदिर जैसे उस की परीक्षा का कुरुक्षेत्र बन गया है।
जगह-जगह से आए तरह-तरह के लोग हैं। वृद्ध भी , नन्हे बच्चे भी। एक नन्हा बच्चा रह-रह कर बम-बम भूले का जयकारा लगाता रहता है। उस की मम्मी बार-बार सुधारती रहती है बम-बम भोले ! वह बच्चा एक बार बम-बम भोले बोलता है फिर दुबारा बम-बम भूले ! यह भूले और भोले में उस का भोलापन उसे भा जाता है। बच्चा भी भीग रहा है और वह भी , बारिश में सभी भीग रहे हैं। लेकिन वह तो उस अबोध बच्चे के भूले की अबोधता में भीग रहा है। भीगता ही जा रहा है। बारिश में तो वह बहुत भीगा है , भीगता ही रहता है पर बम-बम भूले की अबोधता में ऐसे , इस तरह भीगने का कभी अवसर ही नहीं मिला था , जो आज मिल रहा है। यह अवसर भी अवर्णनीय है। वह शिशु इस भारी भीड़ में छटकते हुए , कूदते हुए चल रहा है। बम-बम भूले बोलता हुआ। बच्चा दरअसल शब्द नहीं , अर्थ समझ रहा है। भीग रहा है बारिश में भी , भोले की जय-जय में भी , भूले बोलता हुआ।
बनारस से भी कुछ युवा लड़कों का जत्था है। बिलकुल बनारसी अंदाज़ में हर-हर महादेव का जयकारा लगते हुए। ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ! बोलते हुए। बिलकुल बम-बम अंदाज़ है। ग़रीब भी हैं , अमीर भी। महाराष्ट्रियन , राजस्थानी , गुजराती , मलयाली , तमिलियन , कन्नड़ , बिहारी हर कहीं से लोग हैं। कुछ अकेले हैं , दो लोग हैं , सपरिवार हैं तो कुछ जत्थे बनाए हुए हैं। स्त्री-पुरुष सभी के लिए एक ही लाइन है। सो कुछ लाइनबाज़ भी हैं। युवा स्त्रियों से अनायास का अभिनय करते हुए , सायास सटते हुए। कुछ स्त्रियां भीड़ के कारण बर्दाश्त कर ले रही हैं , कुछ बिदक कर भी चुप हैं तो कुछ भड़क भी रही हैं। अचानक एक लड़की किसी पर भड़कती हुई बोलती है , हिंदू हो कि जेहादी !
' हिंदू हूं बहन ! ' वह हाथ जोड़ते हुए हकलाता है , ' माफ़ करना ! ' कह कर वह ठिठक जाता है। लड़की अपने परिवारीजन के साथ आगे बढ़ जाती है। वह धीरे-धीरे चलते हुए पीछे होता जाता है। अचानक एक पेड़ मिलता है , बीच बैरिकेटिंग में। पेड़ के कारण वहां थोड़ी अतिरिक्त जगह भी है। दो-तीन लोग वहां भी प्रसाद बेचते मिलते हैं। पत्नी कहती हैं , ' हम लोगों ने प्रसाद तो ख़रीदा ही नहीं। '
' यहां का मुख्य प्रसाद क्या है जानती हो ? '
' नहीं। '
' शराब है। ' वह जोड़ता है , ' ले आऊं ?
' नहीं-नहीं ! ' पत्नी बिदकती हुई बोलती है।
फिर भी वह इन युवाओं से प्रसाद का एक लड्डू वाला डब्बा और फूल ले लेता है। डलिया सहित। बिना मोलभाव के। यह युवा छाता भी बेच रहे हैं। पूछता है वह पत्नी से कि , ' छाता ले लें ? '
' बुरी तरह भीग तो गए हैं। अब क्या फ़ायदा ? '
फिर भी वह मोलभाव में लग जाता है। दो सौ वाला छाता , छ सौ का दे रहा है। कुछ भी कम करने को तैयार नहीं है। वह हाथ जोड़ लेता है। वापस मुड़ता है तो पाता है कि पत्नी आगे निकल गई है। दिखती नहीं। फूल और लड्डू के पैसे दे कर बिना छाता लिए वह आगे बढ़ता है। मद्धिम बारिश फिर तेज़ हो गई है। वह तेज़ी से आगे बढ़ना चाहता है। बारिश से भी ज़्यादा तेज़। लेकिन भीड़ है कि रोक-रोक लेती है। बढ़ने नहीं देती। भीड़ जैसे यकायक ठहर सी गई है। एक सूत नहीं बढ़ रही। बम-बम भोले , हर-हर महादेव का जयकारा तेज़-तेज़ शुरू हो जाता है। बारिश से भी ज़्यादा तेज़। लेकिन उसे न तेज़ बारिश की चिंता है , न जयकारे का जोश है। चिंता है पत्नी की। चिंता है कि भीड़ की भगदड़ में पत्नी कहीं चोटिल न हो जाए। कहीं फिसल कर गिर न जाए। भीड़ में कुचल न जाए। गुम न हो जाए। उस से उस के बुढ़ापे का सहारा न छिन जाए। बुढ़ापे की सब से बड़ी छड़ी , सब से बड़ा सहारा पत्नी ही तो होती है। वह इस लिए बहुत परेशान है। जयकारा लगा रही भीड़ से हाथ जोड़ता है कि उसे आगे जाने दिया जाए। जयकारा लगा रहे युवकों से हाथ जोड़ कर कहता है , ' मुझे आगे जाने दीजिए। मेरी पत्नी आगे निकल गई हैं। उन के पास तक जाना है ! '
' हां-हां अंकल आइए। ' एक युवक तिरछे खड़े हो कर रास्ता बनाते हुए कहता है , ' घबराइए नहीं आंटी मिल जाएंगी। ' वह ही नहीं , और भी युवा रास्ता बनाते हुए उसे आगे बढ़ने देते हैं। वह तेज़ी से आगे बढ़ता जाता है। थोड़ा और आगे जाते ही पत्नी दिख जाती हैं। वह चैन की सांस लेता है। मिलते ही कहता है , ' हम तो घबरा ही गए थे। चलो तुम मिल गई। अच्छा हुआ। '
' हम तो आप के साथ खड़े ही थे। अचानक भीड़ का रेला आया। मुझे भी आगे धकेल दिया। नहीं बढ़ती आगे तो लोग धकेल कर गिरा देते। भीड़ के पांव तले कुचल जाती। '
' अच्छा किया। ' वह बोला , ' पर बता कर आगे बढ़ी होती। '
' समय कहां मिला बताने के लिए ! ' वह बोली , ' भीड़ ने कुछ कहने-सुनने का समय कहां दिया ? '
' चलो कोई बात नहीं। '
भीड़ फिर ठिठक गई है। ऐसे कि जैसे बिजली चली गई हो। लाइट , पंखे , ए सी सब बंद। लेकिन बारिश बंद नहीं हुई है। बारिश और जयकारा दोनों ही ललकार रहे हैं। बम-बम भूले करते हुए वह अबोध बच्चा फिर दिख गया है। लोगों का जयकारा अलग है , उस का अलग। नितांत अलग। जब लोगों का जयकारा स्थगित होता है ज़रा देर के लिए , उस का बम-बम भूले सुनाई देने लगता है।
बीच बारिश भीड़ रुकी हुई है। कुछ लोगों के बीच बात शुरू हुई है। किसी ने पूछा है , ' कहां से ? '
' उत्तर प्रदेश। ' वह पूछता है , ' आप ? '
' हम भी उत्तर प्रदेश , बनारस से। और आप ?'
' अयोध्या से। ' कहते हुए वह तनिक सकुचाता है।
' लाज नहीं आती ?'
' आती तो है ! ' वह शर्म से धंस जाता है। कहता है , ' पर क्या करें ! जाने कैसे गड़बड़ा गया। '
' गड़बड़ा नहीं गया। ' बनारसी बिलकुल चढ़ाई करते हुए बोला , ' बेइज्जत करवा दिया देश को। नाक कटवा दिया सनातन का। '
' अब क्या कहें ? ' वह बुदबुदाया।
' तुम लोगों की हिम्मत कैसे होती है , कहीं जाने की और अयोध्या बताने की। '
वह दांत चियार कर चुप ही रहता है। लेकिन कोई एक तीसरा आदमी है जो अपने को मुंबई का बताता है। बनारस वालों को धौंसिया लेता है , ' तुम बनारस वालों ने भी कम पाप नहीं किया है। हराते - हराते रह गए पी एम को। ' बातचीत अब ज़्यादा बढ़ गई है। सभी पक्ष उत्तेजित हो चले हैं। लगता है अब हाथापाई हो जाएगी। कि तभी एक नया आदमी बहस में कूद पड़ा , ' कोई राजनीतिक बात नहीं। यहां बस बाबा की बात होगी। ' किसी न्यायाधीश की तरह निर्णय देते हुए वह हर-हर महादेव का जयकारा लगाने लगता है। चारो तरफ हर-हर महादेव का जयकारा होने लगता है। अचानक एक बनारसी जयकारा बदलते हुए बोलता है : ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ! पार्वती पति महादेव को प्रणाम करने का यह जयकारा जैसे बारिश को समझ आ गया है।
बारिश अब मद्धिम हो कर रिमझिम-रिमझिम है। ऐसे जैसे कोई गीत गा रही हो। बूंदें ऐसे गिर रही हैं गोया गा रही हों : तनी धीरे खोलो केंवड़िया, रस की बूंदें पड़ें !
अयोध्या वाले युवा जानबूझ कर धीरे-धीरे पीछे होते गए हैं। ताकि बात और आगे न बढ़े। बनारसी युवा झुंड में थे। कई थे। अयोध्या वाले युवा दो ही थे। अगर मार पीट हो जाती तो इन्हें संभालने के लिए पुलिस भी पास नहीं थी। लोहे की बैरिकेटिंग पुलिस को जल्दी आने भी नहीं देती।
घूंघट काढ़े औरतों का एक झुंड गीत गाते हुए चल रहा है। लोकगीत गा रही औरतें भीगती हुई ऐसे गा रही हैं जैसे अपने गांव-घर से कोई संदेशा लाई हों और बाबा काल भैरव के मार्फ़त शिव जी को समर्पित कर देना चाहती हों। उन की सादगी , सरलता और समर्पण भाव अविरल है। मोहित करता है। वह सोचता है कि शहर चाहे जितना भी धावा गांव पर बोल ले , गांव इतनी जल्दी मरने वाला नहीं है।
कुछ नव विवाहित जोड़े हैं। अलग-अलग मिलते रहते हैं। दुल्हन चाहे कहीं की हो , उस का पहनावा , हाव-भाव बता ही देता है : ख़मोश लब हैं झुकी हैं पलकें दिलों में उल्फ़त नई नई है / अभी तकल्लुफ़ है गुफ़्तुगू में अभी मोहब्बत नई नई है। यह युवा जोड़े इस बात को छुपाना भी नहीं चाहते। कुछ माता-पिता के साथ दिखते हैं , कुछ बिना माता-पिता के। उन की चाहत , उन का इक़रार और इसरार इस बारिश से ज़्यादा है। उन्हें बारिश की नहीं , अपनी चाहत की चिंता है। उन के चाल में फुटबाल सी उछाल है। वालीबाल जैसी उछाह है। कोई - कोई तो गोल्फ़ की बॉल की तरह आसमानी उछाल लिए है। भीड़ , बारिश सब बेमानी है। आंखों में उमंग , हाथों में शराब की बोतल लिए यह विवाहित जोड़े जैसे कूद कर काल भैरव से मिल लेना चाहते हैं। भीड़ चलते-चलते जब-तब अचानक थम-थम जाती है। ऐसे जैसे कोई सेना की परेड हो और कमांडर बोल दे , ' परेड थम ! ' और लोग थम से जाते हैं। यह सिलसिला रह-रह चलता रहता है। तो भीड़ एक बार थम जाती है। एक अधेड़ आदमी सपत्नीक दर्शन के लिए आया है। फ़ोन पर किसी को बता रहा है , ' महाकाल में बहुत आसानी से दर्शन हो गया। एक दोस्त की मदद से प्रोटोकाल मिल गया था। पुलिस वाला बिना किसी लाइन के ले जा कर सीधे महाकाल के दर्शन करवा दिया। शिवलिंग के पास जा कर शिव जी को स्पर्श तो नहीं करने दिया गया। बेलपत्र आदि भी नहीं चढ़ाने दिया। शिवलिंग तक जाने की किसी को अनुमति अब नहीं है। पर शिवलिंग के सामने शिव जी के नंदी के पास बिठा दिया हम दोनों को। लगभग दस मिनट तक बैठ कर महाकाल के दर्शन कर विभोर हो गए। वह बता रहा था कि पर भैरव बाबा के यहां प्रोटोकाल की व्यवस्था ही नहीं है क्या करें। लाइन में फंसे पड़े हैं। लंबी लाइन। जब यहां आए तो लंबी लाइन देख कर दोस्त को बताया कि यहां भी प्रोटोकाल दिला दे। तो वह बोला कि ज़्यादा दिक़्क़त हो तो हाथ जोड़ कर वापस आ जाइए। लेकिन वाइफ बोलीं कि जब यहां तक आ गए हैं तो भैरव बाबा से मिल कर ही हाथ जोड़ते हैं। अब लगे हैं लाइन में। जैसे सारा देश ही आ गया है दर्शन को ! एक दूसरा आदमी बता रहा है , यहां तो कुछ भी नहीं है। तिरुपति गया था। आठ घंटे लाइन में लगे रहे , तब दर्शन हुआ। थक कर चूर हो गए। अनेक लोग हैं , अनेक क़िस्से। वैष्णो देवी से लगायत महाकुंभ तक के।
एक आदमी है लंबा सा। रेन कोट पहन कर आया है। सिर से ले कर पांव तक। उस के आगे-आगे चल रहा है। आगे एक कंधा पकड़ कर चल रहा है। कुछ भी हो जाए , उस का कंधा नहीं छोड़ता। उस की परछाईं की तरह चल रहा है। हिलोरें मारता हुआ। कई सारे जोड़े हैं जो चिपक कर चल रहे हैं। कुछ नवविवाहित हैं। लासा की तरह एक दूसरे से लिपटे हुए। चिपटे हुए। युवा स्त्रियों का पहनावा , हाथ में भरी चूड़ियां , लचक-लचक कर चलना , सिहरना और इस बारिश में भी बेख़बर चल रही हैं। मादकता ओढ़े हुई। पर लाज भी ओढ़े हुई हैं। उच्छृंखल नहीं हो रहीं। पर यह आदमी तो लासा नहीं , फेविकोल की तरह चिपका हुआ चल रहा है। वह पत्नी से बुदबुदा कर कहता भी है कि यह तो अति किए हुए है। लेकिन पत्नी ऐसी बातें नहीं सुनतीं। टाल जाती हैं। सर्वदा की तरह यहां भी टाल गई हैं। पत्नी को लगता है कि ऐसी बातें करने और सुनने से पाप पड़ता है। और जब अति की भी अति हो जाती है तो वह किसी तरह उस व्यक्ति से आगे निकल लेता है। थोड़ी देर बाद वह पीछे मुड़ कर उसे देखता है तो पाता है कि जिस के कंधे से चिपका वह लंबा व्यक्ति चल रहा है , वह भी स्त्री नहीं , पुरुष ही है। फिर थोड़ी देर बाद वह पाता है कि वह लंबा व्यक्ति मज़बूरी में उस के कंधे से चिपका चल रहा है। उस के एक पांव में कुछ समस्या है। यह देख कर वह ख़ुद को धिक्कारता भी है। और जगह मिलते ही पत्नी का हाथ पकड़ कर धीरे से आगे , और आगे बढ़ जाता है। भीड़ अच्छे अच्छों को अंधा बना देती है।
बारिश अचानक तेज़ हो गई है। मोटी - मोटी बूंदें आवाज़ भी बहुत तेज़ कर रही हैं। सावन भले है पर क्षिप्रा नदी के तट पर यह घनघोर बारिश आषाढ़ के दिन की याद दिलाती है। कालिदास की प्रेयसी मल्लिका की याद दिलाती है। आषाढ़ के पहले दिन की बारिश में भीगते हुए ही सहसा दोनों प्रेम में पड़ जाते हैं। वह सोचता है कि कालिदास और मल्लिका दोनों बारिश में न भीगते तो क्या प्रेम में नहीं पड़ते ? क्या तो प्रेम था। कि मल्लिका कालिदास के लिए अपने हाथ से सिल कर कोरे भोजपत्र का एक ग्रंथ तैयार करती है कि जब कालिदास से मिलेगी तो उन्हें देगी कि इस पर वह अपना कोई महाकाव्य लिखें। पर मिलन की प्रतीक्षा लंबी है। मिलते भी हैं कालिदास मल्लिका से तो तब तक वह भोजपत्र जगह-जगह से कटने और फटने लगा है। मल्लिका अफ़सोस से यह बात बताती है। लेकिन कालिदास देखते हैं कि भोजपत्र जगह - जगह स्वेद कण से मैले हो गए हैं। पानी की बूंदें पड़ी हैं। फूलों की सूखी पत्तियों ने अपने रंग छोड़ दिए हैं। कई जगह मल्लिका के दांत गड़ने के निशान हैं। कालिदास कहते हैं मल्लिका से कि यह पृष्ठ कोरे नहीं हैं। यह जो जगह - जगह पानी की बूंदें हैं , पानी की बूंदें नहीं , तुम्हारे आंसुओं की बूंदे हैं। तुम्हारे आंसुओं की बूंदों ने , आंखों की कोरों ने कई-कई सर्ग लिख दिए हैं। अनंत सर्गों के साथ तुम इन पर महाकाव्य की रचना कर चुकी हो। यह पृष्ठ कोरे नहीं हैं। महाकाव्य की रचना हो चुकी है।
तो अपने ग्राम प्रांतर में बैठी क्या मल्लिका अभी भी महाकाव्य रच रही है , उन भोजपत्रों पर अपने आंसुओं से। यह बारिश नहीं , मल्लिका के आंसू हैं ? जो उज्जैन तक आ रहे हैं। जहां कालिदास उपस्थित हैं। क्या कश्मीर भी जा रहे होंगे यह बादल बरसने के लिए जहां कालिदास ने शासन किया।
क्या पता ?
लेकिन मल्लिका के आंसू हैं कि ख़त्म ही नहीं होते।
अब तक तमाम पड़ाव पार करते हुए वह मंदिर की सीढ़ियों पर उपस्थित है। हर - हर महादेव का जयकारा ज़ोर पकड़ चुका है। मल्लिका के आंसू और महादेव के जयकारे में जैसे होड़ सी लगी हुई है। सीढ़ियों के ऊपर छत है। लेकिन सीढ़ियां पानी से भीगे हुए लोगों के निरंतर आते जाने से गीली हो गई हैं। फिसलन हो गई है। बहुत संभल-संभल कर वह चल रहा है। पत्नी का हाथ पकड़ लिया है। अपने से ज़्यादा पत्नी को संभालने की फ़िक्र है। पत्नी की हड्डियां बहुत कमज़ोर हैं। गिर गई तो कठिनाई बढ़ जाएगी। अलग बात है पत्नी को इस की फ़िक्र नहीं है। भक्ति की भावना , महादेव का जयकारा और मंदिर में पहुंच जाने का उत्साह है। गिरने - पड़ने की कोई चिंता नहीं। दर्शन करने का नंबर लगभग आ चुका है। स्त्री और पुरुष की लाइन मंदिर के कार्यकर्ताओं ने अलग - अलग करवा दी है। लोगों के हाथ में शराब की बोतलें हैं। हमारे हाथ में पुष्प और मिष्ठान। चढ़ाने के लिए सर्वदा की तरह पुष्प और लड्डू की डलिया पत्नी को थमा देता है। हाथ में शराब की बोतल न देख कर पुजारी मुस्कुराता है। शीश झुकाने पर पीठ पर आशीष जमा कर माथे पर टीका लगा देता है। हाथ में प्रसाद दे देता है। एक कार्यकर्त्ता धीरे से सब को आगे की तरफ बढ़ा देता है। भीड़ का दबाव बहुत है। ज़रा नीचे और मंदिर हैं। वहां दर्शन आसान है। भीड़ कम है। मंदिर से निकल कर लोग पीछे की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे हैं। सीढ़ियों के बाद नीचे सड़क नई बनी हुई है। उखड़ी हुई सड़क की छोटी-छोटी गिट्टियां पांव में चुभ रही हैं। नंगे पांव चलते नहीं बन रहा है। अभ्यास नहीं है इस तरह , नंगे पांव चलने का। तब तक ड्राइवर दिख गया है। कहता है सर , यहीं रुकें। कार यहीं ले आता हूं। वह कार ले कर आता है। पर चप्पल एक दुकान पर हैं। जा कर लाता है। मल्लिका के आंसू सहसा थम गए हैं। पूरा बाज़ार भीग कर जैसे सहमा हुआ सा दिखता है। लेकिन लोगों में उल्लास है। मंदिर जाने वालों का तांता अभी भी लगा हुआ है। महादेव के जयकारों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। बुरी तरह भीगा हुआ एक आदमी कह रहा है , शिव जी ने सारी गंगा यहीं उतार दी है। यह भीगना भी अलग - अलग है। आंसू है , बारिश है और गंगा भी। वह भी पौराणिक नदी क्षिप्रा के तट पर। कुंभ ऐसे ही लगता है। दुनिया ऐसे ही जगमग होती है। इस जगमग में भीगना ही महत्वपूर्ण है। कोई प्रेम में भीग रहा है , कोई भक्ति में। कोई दोनों में। बरसे कंबल भीजे पानी वाली बात भी है। सुख बहुत है इस भीगने में।
जय हो बाबा कालभैरव !
सहसा वह नन्हा बच्चा भी दिख गया है जो भरी भीड़ में अकसर बम-बम भोले की जगह बम-बम भूले का जयकारा लगा रहा था। उसे देखते ही वह प्यार से बोलता है : बम-बम भूले ! उस की मां मुस्कुराने लगती है। हंसने लगती है अपने बच्चे के भोलेपन पर। मां की यह नैसर्गिक हंसी अनमोल है।
[ पाखी , फ़रवरी-मार्च , 2025 अंक में प्रकाशित ]
Monday, 24 February 2025
कामरेड समरेश बसु और फ़िल्मकार विमल रॉय का अमृत कुंभ !
बांग्ला भाषा के मशहूर लेखक कामरेड समरेश बसु का एक मशहूर उपन्यास है अमृता कुंभेर संधाने। यानी अमृत कुंभ की खोज। इस अमृत कुंभ उपन्यास का नायक ग़रीब है पर प्रयाग में कुंभ नहाने की बड़ी इच्छा है। पैसे के अभाव में कुंभ नहीं जा पाता। पर अगले कुंभ की प्रतीक्षा में प्रयाग जाने के लिए पैसा बटोरता रहता है। वृद्ध हो जाता है। बीमार हो जाता है। पर प्रयाग में कुंभ नहाने की उस की इच्छा जीवित रहती है। वह कुंभ नहाने प्रयाग जाता भी है। ट्रेन में बहुत कठिनाई उठाते हुए , संघर्ष करते हुए , कुंभ के दिन प्रयाग पहुंचता है। कुंभ के दिन ही उस की मृत्यु हो जाती है। प्रसिद्ध फ़िल्मकार विमल रॉय को समरेश बसु का यह उपन्यास , इस की कहानी बहुत पसंद आई।
विमल रॉय ने अमृत कुंभ नाम से इस पर फ़िल्म बनाने की योजना बनाई। वह फ़िल्म की तैयारी में ही थे कि बीमार रहने लगे। जांच में पता चला कैंसर है। फिर भी अमृत कुंभ फ़िल्म पर काम करना नहीं छोड़ा। प्रयाग जाने और वहां जा कर शूटिंग करने लायक़ नहीं रह गए। लेकिन अपने असिस्टेंट डायरेक्टर गुलज़ार और कैमरा मैन कमल बोस को प्रयाग भेजा प्रयाग में मेले की आऊटडोर शूटिंग के लिए। गुलज़ार प्रयाग गए और शूट कर लौटे। पर तब तक विमल रॉय की तबीयत और बिगड़ गई थी। लेकिन उठते - बैठते , सोते - जागते , विमल रॉय अपनी फ़िल्म अमृत कुंभ ही सोचते। अमृत कुंभ की ही बात करते। विमल रॉय कैंसर के बावजूद सिगरेट पीना नहीं छोड़ सके थे। डाक्टर आ कर बहुत सख़्ती से सिगरेट पीने के लिए मना कर जाता। पर डाक्टर के जाते ही वह सिगरेट सुलगा लेते।
सिगरेट सुलगाते और उन के भीतर अमृत कुंभ सुलगता रहता था। घर वाले , मित्र , शुभचिंतक और उन की टीम सिगरेट न पीने के लिए डाक्टर की हिदायत की उन्हें याद दिलाते रहते। विमल रॉय कहते , डाक्टर बेवकूफ है। वह कुछ नहीं जानता। उन दिनों विमल रॉय के स्वास्थ्य के बारे में एक जगह गुलज़ार ने लिखा है। विमल रॉय सोफे पर बैठे रहते। उन्हें देख कर लगता कि जैसे कोई कुशन रखा हो , सोफे पर। गरज यह कि विमल रॉय का वज़न बहुत कम हो गया था। बहुत दुबले हो गए थे। पर अमृत कुंभ और उस का नायक जैसे उन के भीतर बैठ गए थे। बाहर निकलते ही नहीं थे। विमल रॉय कहते थे कि इसे पढ़ कर लगता है, मानो समरेश के पात्रों के साथ मैं भी अमृत की तलाश में कुंभ पहुंच गया हूं। बावजूद इस के अमृत कुंभ का काम पिछड़ता ही गया। संयोग देखिए कि जैसे अमृत कुंभ का नायक सर्वदा कुंभ सोचते हुए प्रयाग में देह छोड़ गया , विमल रॉय भी 1966 में कुंभ शुरू होने के समय ही उपन्यास के नायक की तरह बीच कुंभ में ही देह त्याग गए। अमृत कुंभ उन के मन में इतना बस गया था l
क़ायदे से गुलज़ार को अपने गुरु की याद में , उन की इच्छा के सम्मान में अमृत कुंभ फ़िल्म बना कर पूरी करनी चाहिए थी। लेकिन जाने क्यों नहीं की। वही जानें। क्यों कि इस बारे में गुलज़ार ने न कभी कहीं लिखा , न कुछ कहा। काफ़ी समय बाद विमल रॉय के बेटे जॉय ने फ़िल्मकार यश चोपड़ा की मदद से गुलज़ार द्वारा शूट कराए गए फुटेज से ग्यारह मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री तैयार की। हां , बांग्ला फ़िल्मकार दिलीप रॉय ने ‘अमृता कुंभेर संधाने’ नाम से ही बांग्ला में एक फ़िल्म बनाई। यह फ़िल्म 1982 में रिलीज़ हुई थी जिसमें शुभेंदु चटर्जी, अपर्णा सेन, भानु बंदोपाध्याय, रूमा गुहा ठकुरता और समित भांजा ने काम किया था।
विमल रॉय भारतीय सिनेमा के चुनिंदा फ़िल्म निर्देशकों में शुमार हैं। एक से एक क्लासिक फ़िल्में उन के खाते में दर्ज हैं। कहानी , अभिनेता आदि चुनने में वह बहुत सतर्क रहते थे। वाकये कई सारे हैं। पर अभी यहां एक क़िस्सा सुनाता हूं। पचास के दशक की बात है। विमल रॉय दो बीघा ज़मीन की तैयारी कर रहे थे। बलराज साहनी उन दिनों बड़े अभिनेता थे। रंगमंच में उन का बड़ा नाम था। बी बी सी में मशहूर एनाउंसर रहे थे। शांति निकेतन में पढ़ा चुके थे। विद्वान आदमी थे। उन को जब पता चला दो बीघा ज़मीन के बारे में तो वह विमल रॉय के पास पहुंचे। सूटेड-बूटेड , टाई बांधे बलराज साहनी को विमल रॉय ने सेकेंड भर में रिजेक्ट कर दिया। कहा कि इस फ़िल्म में तुम बिलकुल नहीं चलेगा। ग़रीब किसान और हाथ रिक्शा खींचने वाले की कहानी है यह। [ पश्चिम बंगाल में हाथ रिक्शा होता था , जिस में घोड़े की जगह आदमी ही रिक्शा खींचते हुए दौड़ता रहता था। ] तुम सूटेड - बूटेड उस में क्या करेगा ?
बलराज साहनी ने विमल रॉय की बात का बुरा नहीं माना। विमल रॉय की बात को चुनौती के रूप में लिया। कोलकाता चले गए। कुछ महीने नंगे पांव रह कर हाथ रिक्शा खींचा। किसान और मज़दूर के चरित्र को समझा। और एक दिन अचानक मुंबई में विमल रॉय के सामने रिक्शा वाला बन कर नंगे पांव उपस्थित हो गए। विमल रॉय उन्हें देखते ही उछल पड़े। बलराज साहनी को वह पहचान नहीं पाए पर बोले , बिलकुल ऐसा ही एक्टर चाहिए दो बीघा ज़मीन के लिए। विमल रॉय ने निर्देशन में और बलराज साहनी ने अभिनय में प्राण फूंक दिया दो बीघा ज़मीन में। निरुपा रॉय हीरोइन थीं। शैलेंद्र के दिलकश गीत थे। मीना कुमारी गेस्ट आर्टिस्ट। मीना कुमारी पर फ़िल्माया गया एक लोरी गीत जैसे आज भी मन में बसा हुआ है। आजा री आ निंदिया तू आ ! दुनिया है मेरी गोद में , पूरा हुआ सपना मेरा !
1953 में फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से नवाजी गई दो बीघा ज़मीन। कान महोत्सव में भी सम्मानित हुई।
एक क़िस्सा बंदिनी का भी सुन लीजिए। बंदिनी के समय नूतन को जब विमल रॉय ने हीरोइन का ऑफर दिया तो वह गर्भवती थीं। मोहनीश बहल पेट में थे। नूतन ने मना कर दिया। विमल रॉय ने कहा कि सारी फ़िल्म ही तुम्हीं को सोच कर प्लान किया है। नूतन ने फिर भी मना कर दिया। तो विमल रॉय ने कहा , कोई बात नहीं , फिर हम भी यह फ़िल्म नहीं बनाएगा। और बड़ी गंभीरता से कहा। नूतन ने इस बात की चर्चा अपने पति से की। पति सोच में पड़ गए। फिर नूतन से कहा कि जब ऐसी बात है तो यह फ़िल्म कैसे भी कर लो। नूतन ने बंदिनी फ़िल्म की। 1963 में रिलीज हुई और आज तक चर्चा में है। नूतन की पहचान बहुत लोग बंदिनी से ही करते हैं। बंदिनी को भी फिल्म फेयर मिला।
देवदास , बंदिनी , सुजाता , मधुमती , परिणीता जैसी तमाम क्लासिक फिल्मों के निर्देशक विमल रॉय ही नहीं , अमृत कुंभ के लेखक समरेश बसु के बारे में भी थोड़ा सा जानिए। जानिए कि वह कम्युनिस्ट थे। फिर भी अमृत कुंभ जैसी कालजयी रचना लिखी। समरेश बसु दरअसल ट्रेड यूनियन नेता थे। ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्युनिस्टों के साथ संपर्क में आए और कम्युनिस्ट हो गए। विचारों से ही नहीं कर्म से भी कम्युनिस्ट थे। मज़दूर आंदोलनों में जेल भी गए। जेल से निकल कर कहानी लेखक बन गए। उन की कहानियों पर बांग्ला ही नहीं , हिंदी में भी कई सफल फ़िल्में बनी हैं। एक बार एक बांग्ला पत्रिका के लिए कवरेज करने के लिए वह प्रयाग के कुंभ में आए। समरेश बसु की नियमित रिपोर्ट पढ़ - पढ़ कर ही विमल रॉय आनंदित थे। बाद में उन्हीं रिपोर्टों को आधार बना कर समरेश बसु ने बांग्ला में अमृता कुंभेर संधाने उपन्यास लिखा। जो ख़ूब चर्चित हुआ। आज तक चर्चित है। ख़ैर , एक कामरेड समरेश बसु को देख लीजिए , जो जनता - जनार्दन की नब्ज़ जानते थे। आस्था , परंपरा और विरासत भी जानते थे। आज के हिप्पोक्रेट वामपंथियों के तरह किसी मंगल ग्रह से तो आए नहीं थे। जन से जुड़े थे। जन को जानते थे। दूसरी तरफ आज नाली में पड़े कीड़ों की तरह बजबजाते वामपंथियों को देख लीजिए। कुंभ को ले कर क्या तो मातम है। क्या तो मुसलसल विष - वमन है।
लेखन क्या होता है , पत्रकारिता क्या होती है , विचार क्या होता है , कमिटमेंट क्या होता है , समझ आ जाएगा।
तथ्यों को छुपाने , भ्रामक सूचनाएं और नफ़रत फैलाना , विष - वमन करना ही आज के हिप्पोक्रेट वामपंथियों का पथ्य बन गया है। सेक्यूलरिज्म के फ़ैशन में श्वान बन चुके बाकियों का हाल और बुरा है।
देश की लगभग आधी आबादी कुंभ नहा चुकी है l पर कुंभ की सफलता को ले कर यह लोग इतने बौखलाए हुए हैं कि निरंतर प्रश्न पूछ रहे हैं कि अम्मा , हमारे पिता जी कौन हैं ? और अम्मा हैं कि मुसलसल चुप हैं, इन के इस बेहूदा सवाल से l अम्मा इस अपमानजनक प्रश्न से छुब्ध हैं l
सवाल ज़रूरी हैं , सत्ता और व्यवस्था से l पर इस तरह और इतना भी ज़रूरी नहीं कि माँ से पिता का सुबूत मांगना पड़ जाए l नाम पूछना पड़ जाए l
अरे कुंभ नहीं पसंद है , कोई बात नहीं l गोली मारिए , कुंभ को l पर नाग बन कर , फ़न काढ़ कर , नित्य प्रति , क्षण -क्षण खड़े रहना इतना ज़रूरी है ?
चुप रहना भी एक कला है l
हां , विमल रॉय भी कोई हिंदुत्ववादी नहीं थे। संघी आदि नहीं थे। जीनियस डायरेक्टर थे। दिलीप कुमार को मेथड एक्टिंग में मास्टर बनाने वाले विमल रॉय ही थे। गुलज़ार को गीतकार और डायरेक्टर बनाने वाले भी। उन के कई सारे असिस्टेंट बाद में नामी डायरेक्टर बने। यथा हृषिकेश मुखर्जी। अभिनेता , अभिनेत्री तो बहुत ही। विमल रॉय अपने आप में भारतीय सिनेमा के एक बड़े स्कूल हैं l
एक महत्वपूर्ण बात यह कि अगर यही अमृता कुंभेर संधाने कामरेड समरेश बसु ने आज़ की तारीख़ में लिखा होता तो अब तक कब के कट्टर संघी , हिंदुत्ववादी आदि घोषित हो चुके होते l विमल रॉय भी नहीं बचते l
Thursday, 20 February 2025
दिल्ली में यमुना का तनाव तंबू
दयानंद पांडेय
रेखा गुप्ता के गले में प्रवेश वर्मा का पत्थर
दयानंद पांडेय
Tuesday, 18 February 2025
विभास के आंगन में अभिनय के प्रेम की चांदनी
दयानंद पांडेय
राज बिसारिया के निर्देशन में अनिल रस्तोगी और वेदा राकेश के अभिनय की त्रिवेणी का कमाल आज देखने लायक़ था विभास में। असल में जब अभिनय के दो बड़े हस्ताक्षर बाकमाल निर्देशक के निर्देशन में काम करते हैं तो विभास की चमक , उस का तेज़ सूर्य की तरह ही हो जाता है। चंद्रमा सा सुकून देता हुआ। विभास के आंगन में अभिनय के प्रेम की चांदनी तभी खिलती है। जो कि आज खिली। लखनऊ के वाल्मीकि प्रेक्षागृह में।
डाक्टर अनिल रस्तोगी और वेदा राकेश के अभिनय की युगलबंदी में निबद्ध दो वृद्धों के प्रेम का आख्यान विभास , सचमुच अपने नाम के अनुरूप सुबह के समय गाए जाने वाले भैरव राग की ही तरह था। अपनी पूरी चमक और निःशब्द हो गई वीणा की तरह बजती विभास की प्रेम कथा हमें एक गहरे जल में ले जाती है। प्रेम के गहरे जल में। जहां सिर्फ़ साथ की अकुलाहट है। बिना किसी याचना , बिना किसी वासना के। एक सेनेटोरियम में एक विधुर डाक्टर और एक मरीज लेकिन परित्यक्ता स्त्री की यह प्रेम कथा प्रेम के गहन छोर पर ही छोड़ती मिलती है। अपनी पूरी मिठास , स्निग्धता और सुवास के साथ।
शुरुआत हिंदी फ़िल्मों की तरह दोनों के झगड़े से होती है। लेकिन आहिस्ता से जैसे कोई ट्रेन पटरी बदल दे। किसी और शहर जाती हुई ट्रेन किसी और शहर की ओर चल दे। प्रेम के नगर की तरफ। विभास की कथा भी आहिस्ता से पटरी बदल लेती है। बदलती हुई चलती रहती है। प्रेम की यह पटरी निरंतर बदलती रहती है। कभी इस नगर , कभी उस नगर। ओर भी प्रेम है , छोर भी प्रेम। मुंबई की बरसात है। बरसात क्या है , प्रेम की बरसात है। छाता है। समंदर का किनारा है। डाक्टर और एक अभिनेत्री के प्रेम की छाया समूचे विभास में किसी जलतरंग सी बजती रहती है। किसी इंद्रधनुष की तरह खिलती हुई। मुड़-मुड़ कर मिलती हुई। ठहर - ठहर कर सुलगती हुई। जा - जा कर लौटती हुई। जैसे कोई लौ हो , दिपदिपाती हुई। प्रेम ऐसे ही तो खिलता है , किसी गुलाब की तरह। गुलाब से ही दोनों के प्रेम का पाग बनता है और मद्धिम - मद्धिम ख़ुशबू में तिरता हुआ किसी रातरानी की तरह। बेला की तरह महकता और गमकता हुआ।
कहानी सशक्त हो , अभिनय सधा हुआ हो और निर्देशन कसा हुआ तो नाटक ही नहीं शाम भी सुंदर बन जाती है। आज की शाम इतनी दिलक़श और दिलफ़रेब होगी , नहीं मालूम था। विभास ने यह शाम सुंदर की। राज बिसारिया अब नहीं हैं पर उन के ही निर्देशन में खेला गया नाटक विभास आज फिर खेला गया। रूसी नाटककार अलेक्सी अर्ब्यूज़ोव के नाटक ओल्ड वर्ल्ड का हिंदी एडाप्टेशन वेदा राकेश ने विभास नाम से किया है। वेदा राकेश ने न सिर्फ़ नाटक का एडाप्टेशन बहुत ही सरल लेकिन मोहक ढंग से किया है बल्कि इस नाटक के संवाद भी बहुत शक्तिशाली और संप्रेषणीय लिखे हैं। ऐसे जैसे पानी। पानी पर तैरती नाव की तरह ही विभास के दृश्यबंध भी हैं। वेदा राकेश पुरानी अभिनेत्री हैं पर संयोग ही है कि उन्हें मंच पर आज पहली बार बतौर अभिनेत्री देखा है। निःशब्द करने वाला वेदा राकेश का अभिनय इतना टटका और इतना विस्मयकारी था कि मन रोमांचित हुआ जाता था। रीता चौधरी के अभिनय में प्राण डालना कठिन सा था। लेकिन वेदा ने रीता को सजीव ही नहीं किया प्राणवान और सम्माननीय भी बनाया। जगह - जगह गायकी में वह गामक नहीं थी पर अभिनय की तासीर ने संभाल-संभाल लिया।
रीता चौधरी की भूमिका में वेदा के सामने डाक्टर की भूमिका में डाक्टर अनिल रस्तोगी के अभिनय ने जैसे विभास को वैभव दे दिया। अनिल रस्तोगी के अभिनय में सुरीलापन और लचीलापन का जो कोलाज है , वह बहुत आसान नहीं है। हर नाटक की हर भूमिका में वह अपने को ऐसे परोसते हैं , गोया अभिनय नहीं कर रहे हों , पात्र न हों , वह जीवन ही उन का हो। विभास में भी वह डाक्टर की भूमिका में नहीं , डाक्टर ही बन गए थे। शुचिता पसंद और अनुशासन का क़ायल डाक्टर जब प्रेम की नदी में नहाता है तो कैसे तो सारी बेड़ियां तोड़ कर किसी मछली की तरह फुदकने लगता है। मदहोश हो कर नाचने लगता है किसी मोर की तरह। ट्विस्ट डांस करते हुए युवा बन जाता है। कोई वृद्ध भी प्रेम करते हुए कैसे तो युवा बन जाता है , विभास में अनिल रस्तोगी के अभिनय में निहारा जा सकता है। तब जब प्रेम उन के अभिनय में शैंपेन की तरह छलकने लगता है। ह्विस्की की तरह सारी हिचक तोड़ कर , नदी की तरह सारे बांध तोड़ कर प्रेम का पान चबाने लगता है। इतना कि दर्शक भी इस प्रेम में पुलकित और मुदित हो जाता है।
अस्सी बरस से अधिक की इस उम्र में भी न सिर्फ़ अभिनय बल्कि देह की लोच भी अनिल रस्तोगी की देखने लायक़ है। एक दृश्य में प्रेम में मगन वह जिस तरह उछल कर बच्चों की तरह उछल कर लेट जाते हैं , वह दृश्य तो अनिर्वचनीय था। आलौकिक और निर्मल था। एक वृद्ध के प्रेम में यह उछाह की , ललक और लगाव की अदभुत अभियक्ति थी। प्रेम से लबालब अभिनय की इस आंच में जल ही जाना था दर्शकों को। अनिल रस्तोगी का अभिनय बहुत सारे नाटकों और फिल्मों में देखने का संयोग मिला है। पर यह नाटक उन का कुछ अलग सा था। उन का अभिनय कुछ अलग सा और अनूठा था। फिर भी मेरे लिए यह कह पाना बहुत कठिन है कि अनिल रस्तोगी का अभिनय बीस था कि वेदा राकेश का। गरज यह कि दोनों ही बीस थे। नाटक के एक दृश्य में शैंपेन भले नहीं उछली , ह्विस्की भी नीट पी गई। पर अभिनय में प्रेम की आवाजाही गहरे समंदर जैसी थी। मन में ख़ूब सारा शोर करती हुई सी लहरें थीं। अभिनय के विन्यास में लरजती हुई सी।
इस नाटक का मंचन राज बिसारिया की याद में थिएटर आर्ट्स वर्कशाप ने उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के वाल्मीकि प्रेक्षागृह में किया।
Monday, 17 February 2025
फ़ेसबुक के नशे की बहुरंगी दुनिया
दयानंद पांडेय
Friday, 14 February 2025
जुगानी भाई का जाना
दयानंद पांडेय
Thursday, 13 February 2025
तो सूरमा भोपाली बनना छोड़ दें !
दयानंद पांडेय
बहुत पहले फ़िराक़ गोरखपुरी से एक बार पूछा गया कि सब से बड़े दो शायरों के नाम बताइए। फ़िराक़ साहब बोले , सूरदास और तुलसीदास। और देखिए कि यह दोनों आज भी ख़ूब पढ़े जाते हैं। बिकते भी ख़ूब हैं। आप कह सकते हैं कि भक्ति में लोग पढ़ते हैं। पर क्या सचमुच ? सूर और तुलसी की रचनाएं , रचना नहीं धार्मिक हैं ? फिर कबीर , मीरा , मीर और ग़ालिब ? धूमिल और दुष्यंत के बारे में क्या राय है ? दिनकर , बच्चन और नीरज क्या नहीं पढ़े जा रहे ? पढ़े और सुने तो आप भी जाते हैं। अब अगर प्रकाशक बेईमान हों , चोर हों और लेखक कवि उन्हें पैसे दे कर किताब छपवाने लगें तो किसे दोषी मानेंगे ? बाइबिल मुफ़्त बांटी जाती है पर तुलसी की रामचरित मानस रोज बीस - पचीस हज़ार बिकती है। गीता प्रेस छाप नहीं पाता। चौबीसो घंटे छपाई चलती रहती है। डेढ़ सौ करोड़ की आबादी में अगर दस - बीस किताबों का संस्करण छपने की बात हो जाए तो यह क्या है ? पचीस - तीस बरस पहले किताबों की कुछ ख़रीद समितियों में रहा हूं। राजा राममोहन राय ट्रस्ट की ख़रीद समिति में भी। देखा है सारा गुणा भाग। उन दिनों प्रकाशक लेखकों को बहुत दुःख से बताते थे कि पांच सौ प्रतियों का संस्करण हो गया है। वह सही कहते थे। पर यह नहीं कहते थे कि यह पांच सौ प्रतियों का संस्करण सबमिशन एडिशन होता था। विभिन्न ख़रीद में सबमिशन के लिए यह पांच सौ प्रतियां भी कई बार कम पड़ जाती थीं। इस के बाद आर्डर का सिलसिला शुरू होता है। सैकड़ो , हजारो करोड़ की किताबें देश भर में सरकारें खरीदतीं हैं। प्रकाशक मालामाल होते रहते हैं। मनमोहन सरकार ने आर टी आई की सुविधा दी हुई है। कोई लेखक यह सुविधा इस्तेमाल क्यों नहीं करता। क्यों नहीं पूछता कि हमारी फला किताब कितनी खरीदी गई ? नियम है सरकारी खरीद में कि लेखक को न्यूनतम दस प्रतिशत रायल्टी दी जाए। लेखक से एन ओ सी दे प्रकाशक , तभी भुगतान होगा। लेकिन अस्सी प्रतिशत रिश्वत के रूप में कमीशन देने वाला प्रकाशक लेखक की एन ओ सी खुद ही दे देता है। भुगतान ले लेता है। लेखक को रायल्टी नहीं देता।
निर्मल वर्मा ने अपने निधन के पहले एक लेख भी लिखा था इस मामले पर। इस लेख में उन्हों ने बताया था कि दिल्ली में हिंदी के कई प्रकाशकों को वह व्यक्तिगत रुप से जानते हैं। जिन के पास हिंदी की किताब छापने और बेचने के अलावा कोई और व्यवसाय नहीं है। और यह प्रकाशक कहते हैं कि किताब बिकती नहीं। फिर भी वह यह व्यवसाय कर रहे हैं। न सिर्फ़ यह व्यवसाय कर रहे हैं बल्कि मैं देख रहा हूं कि उन की कार लंबी होती जा रही है, बंगले बड़े होते जा रहे हैं, फ़ार्म हाऊसों की संख्या बड़ी होती जा रही है तो भला कैसे?
मेरा पहला उपन्यास जब छपा था तो कह सुन कर उस की समीक्षा कई जगह छपवा ली। अच्छी-अच्छी। कुछ जगह अपने आप भी छप गई। तो मेरा दिमाग थोड़ा खराब हुआ। मन में आया कि अब मैं बड़ा लेखक हो गया हूं। कोई पचीस-छब्बीस साल की उम्र थी, इतराने की उम्र थी, सो इतराने भी लगा। प्रभात प्रकाशन के श्यामसुंदर जी ने इस बात को नोट किया। एक दिन मेरे इतराने को हवा देते हुए बोले, 'अब तो आप बड़े लेखक हो गए हैं! अच्छी-अच्छी समीक्षाएं छप गई हैं।' मैं ने ज़रा गुरुर में सिर हिलाया। और उन से बोला, 'आप का भी तो फ़ायदा होगा!'
'वो कैसे भला?'
'आप की किताबों की सेल बढ़ जाएगी !' मैं ज़रा नहीं पूरे रौब में आ कर बोला।
'यही जानते हैं आप?' श्यामसुंदर जी ने अचानक मुझे आसमान से ज़मीन पर ला दिया। अमृतलाल नागर, अज्ञेय, भगवती चरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर आदि तमाम बडे़ लेखकों की किताबों के साथ मुझ जैसे कई नए लेखकों की कई किताबें एक साथ मेज़ पर रखते हुए वह बोले, 'इन में से सभी लेखकों की किताबें बेचने के लिए मुझे एक जैसी तरकीब ही लगानी पड़ती है।'
'क्या?' मैं चौंका।
'जी!' वह बोले, 'बिना रिश्वत के एक किताब नहीं बिकती। वह चाहे बड़ा लेखक हो या घुरहू कतवारु। सब को रिश्वत दे कर ही बेचना होता है। बाज़ार का दस्तूर है यह। बड़ा लेखक दिखाऊंगा तो दो चार किताबें खरीद ली जाएंगी। तो उस से तो हमारा खर्च भी नहीं निकलेगा।'
हकीकत यही थी। मैं चुप रह गया था तब।
किताबों की सरकारी खरीद में वैसे एक नियम है , खास कर राजा राम मोहन राय ट्रस्ट की किताबों की खरीद में तो है कि लेखकों को रायल्टी मिल गई है की एन ओ सी प्रकाशक सरकार को दें। प्रकाशक लेखक की यह एन ओ सी देते भी हैं , सरकार को। लेकिन फर्जी। लेखक को तो पता भी नहीं चलता कि कब कितनी और कौन सी किताब खरीदी गई और क्या रायल्टी बनी। इस बात की चर्चा मैं ने लखनऊ में एक आर टी आई एक्टिविस्ट नूतन ठाकुर से की जो एक आई पी एस अफ़सर अमिताभ ठाकुर की पत्नी हैं। तय हुआ कि वह हाईकोर्ट में इस बाबत एक याचिका दायर कर सरकार को निर्देश दिलवाएंगी कि लेखकों की रायल्टी सीधे लेखकों के खाते में सरकार भिजवाया करे। फिर बात आई कि इस बारे में कुछ लेखक लिख कर दें ताकि याचिका को बल मिले। तब के दिनों श्रीलाल शुक्ल , कामतानाथ , मुद्राराक्षस आदि लेखकों से इस बाबत मैं ने बात की। पर यह सभी लेखक दाएं-बाएं हो कर कतरा गए। अब यह लोग नहीं रहे। लेकिन उन्हीं दिनों मैं ने शिवमूर्ति और वीरेंद्र यादव जैसे कई लेखकों से भी बात की थी। एक शिवमूर्ति तैयार हुए । शिवमूर्ति ने इस बारे में दिल्ली में बलराम से चर्चा की। बलराम भी वीर रस में आए। लेकिन अफ़सोस कि आज तक एक भी लेखक की दस्तखत इस बाबत नहीं मिल सकी । आगे भी खैर क्या मिलेगी। मुद्राराक्षस ने तभी कहा था कि आधा-अधूरा ही सही कुछ रायल्टी तो यार मिल ही जाती है। अब ऐसा करेंगे तो यह प्रकाशक छापना ही बंद कर देंगे तो क्या करेंगे ? ऐसा ही और भी लेखकों ने घुमा-फिरा कर कहा। गरज यह कि लेखक चूहा हैं और प्रकाशक बिल्ली। फिर वही बात की बिल्ली के गले घंटी बांधे कौन ?
हिंदी लेखक एक कायर कौम है और हिंदी का प्रकाशक एक बेईमान कौम ! दुनिया भर में प्रतिरोध का डंका बजाने वाला हिंदी का लेखक हिप्पोक्रेट भी बहुत बड़ा है । पुरस्कारों , फेलोशिप और विदेश यात्राओं के जुगाड़ में नित अपमानित होता यह हिंदी लेखक शोषक और शोषित की बात भी बहुत करता है लेकिन अपने ही शोषण के खिलाफ बोल नहीं सकता । इस बाबत उकसाने पर भी कतरा कर आंख मूंद कर निकल जाता है। दुनिया भर के मजदूरों की बात बघारने वाला यह हिंदी लेखक अपनी ही मजदूरी की बात करना भूल जाता है । प्रकाशक से रायल्टी की बात तो छोड़िए उलटे प्रकाशक को पैसे दे कर किताब छपवाने की जुगत भी करता है। हिंदी का यह लेखक अकसर पाठक का रोना भी बहुत रोता है पर अपने बच्चों को वह पढ़ाता इंग्लिश मीडियम से ही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध भी यह हिंदी लेखक बहुत ज़ोर-शोर से करता है लेकिन उस के बच्चे लाखों के पैकेज पर इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरियां करते हैं। आलम यह है कि अगर कोई बहुत बड़ा फन्ने खां हिंदी लेखक अगर रायल्टी मिलने की बड़ी हुंकार भरता मिले तो उस की हुंकार सुन लीजिए लेकिन यह बात तो जान ही लीजिए कि सिर्फ़ लेखन के दम पर यह हिंदी लेखक अपना और अपने घर के लोगों की चाय का खर्च भी नहीं उठा सकता है। बाक़ी कविता , कहानी , लेख आदि और सेमिनारों, गोष्ठियों-संगोष्ठियों वगैरह में तो अवमूल्यन , पतन और हेन-तेन आदि-आदि की जलेबी छानने और अति बघारने के लिए वह पैदा हुआ ही है । आप तो बस प्रणाम कीजिए हिंदी लेखक नाम के इस जीव को यह सोच कर कि अब तक यह ज़िंदा कैसे है ? बल्कि जिंदा क्यों है ? यह बात भी आप शौक से पूछ सकते हैं। यकीन मानिए वह कतई बुरा नहीं मानेगा । हां यह ज़रूर हो सकता है कि यह सवाल सुन कर वह बहरा हो जाए , इस बात को अनसुना कर दे , कोई झूठ बोल दे , कतरा कर निकल जाए या शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसा ले ! यह अब उसी पर मुन:सर है। आप बस आज़मा कर देखिए।
बातें बहुतेरी हैं। जिन का विस्तार यहां मुमकिन नहीं है।
रही बात सरकारी प्राइमरी स्कूलों के बंद करने की तो बहुत तलाश किया ऐसा आदेश अभी तक नहीं मिल सका है। आदेश नहीं हुआ है तो भी हो जाना चाहिए। जैसे मुफ्त अनाज , मुफ्त की बिजली आदि देना देश हित में नहीं है , यह प्राइमरी स्कूल भी नहीं हैं। कोई जाता नहीं। क्यों कि सभी लोग अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाना चाहते हैं। हमारा गांव फोरलेन सड़क पर है। गोरखपुर -बनारस रोड पर। जब जाता हूं तो हालचाल लेता हूं। अब वहां सिर्फ़ एक दाई है। जो बच्चों के लिए दलिया बनाती है। ग्राम प्रधान के निर्देशन में। कोई दो दशक पहले की बात है। स्कूल में अध्यापकों की कमी देख कर कई बार कह - सुन कर तैनाती करवाता रहता था। एक बार दो - तीन अध्यापिकाएं गांव में घर पर आईं। हाथ जोड़ कर बोलीं , आप हरदम यहां तैनाती करवा देते हैं। मत किया कीजिए। उन का कहना था कि एक तो पढ़ाने के लिए बच्चे नहीं हैं। दूसरे , सड़क पर गांव होने के कारण जो भी अधिकारी यहां से गुज़रता है , जांच करने आ जाता है।
बाद में पता चला कि यह अध्यापिकाएं गोरखपुर शहर में रहती हैं। कार से आती - जाती हैं। कहीं दूर देहात में तैनाती करवाती हैं। महीने में दो - चार बार स्कूल जा कर अटेंडेंस बना कर वेतन ले लेती हैं। सड़क वाले गांव में इसी लिए तैनाती नहीं चाहतीं। क्या - क्या बताऊं ? मनमोहन सरकार हो या नरेंद्र मोदी सरकार। अखिलेश सरकार हो या योगी सरकार। सब एक जैसी हैं। सब की सब जन विरोधी हैं। ऐसे में लेखकों , कवियों से उम्मीद की ही जा सकती है कि कम से कम जनता के साथ रहे। जनविरोधी न बने। इस सरकार , उस सरकार के खाने में न बंटे। सिर्फ़ विचारधारा ही नहीं , सच के साथ रहें । जन के साथ रहें। देश , जनता और सरकार में फ़र्क़ समझें और सीखें। सरकार का विरोध डट कर करें। ईंट से ईंट बजा दें। पर देश और जनता को इस में न पीसें।
प्रकाशक से अपना हिसाब , अपने श्रम का मूल्य लेना सीखें। नहीं ले सकते अपनी रायल्टी तो सूरमा भोपाली बनना छोड़ दें।
[ एक मित्र की पोस्ट पर मेरा प्रतिवाद। ]