Monday, 29 August 2022

नोएडा के बिल्डर अफ़सरों को ही नहीं मुख्यमंत्रियों को भी अपनी ज़ेब में रखते हैं , सुप्रीम कोर्ट जान ले और योगी भी अपने को जांच लें !

दयानंद पांडेय 



कहते हैं कि मनी में बहुत पावर होता है। इसी लिए इस मनी के दम पर बिल्डर अफ़सरों को ही नहीं मुख्यमंत्रियों को भी अपनी ज़ेब में रखते हैं। मायावती तब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। नोएडा एक्सटेंशन जो अब ग्रेटर नोएडा वेस्ट नाम से प्रचलित है का काम बड़ी तेज़ी से चल रहा था। मथुरा का एक बिल्डर राम अग्रवाल भी मायावती से मिला। मायावती तब प्रति एकड़ दो करोड़ रुपए की रिश्वत खुलेआम का रेट खोले हुई थीं। अथॉरिटी को निर्धारित पैसा अलग था। इस बिल्डर राम अग्रवाल ने मायावती को पचास एकड़ के लिए सौ करोड़ रुपए एडवांस रिश्वत के मद में दे दिया। पर जब ज़मीन आवंटित हुई तो सैतालिस एकड़ ही हुई। बिल्डर राम अग्रवाल भागा-भागा मायावती के पास लखनऊ आया। बताया कि पैसे तो पचास एकड़ के लिए दिए थे। तीन एकड़ कम मिला है। सुन कर मायावती मुस्कुराईं। बोलीं , ' अब तो जो होना था , हो गया। ' बिल्डर राम अग्रवाल गिड़गिड़ाया , ' बहुत नुकसान हो जाएगा ! ' मायावती फिर मुस्कुराईं। पूछा , ' कितने मंज़िल का नक्शा है तेरा ? ' बिल्डर राम अग्रवाल बोला , ' 15 मंज़िल का। ' मायावती ने कहा , ' चल 19 मंज़िल बना ले ! ' वह बोलीं , ' तेरा नुकसान बराबर हो जाएगा। ' बिल्डर ख़ुशी-ख़ुशी लखनऊ से लौट गया। 19 मंज़िल के 20-22 अपार्टमेंट बना लिए इस 47 एकड़ की ज़मीन पर। प्लाट नंबर है जी एच - 05 , सेक्टर 16 बी , ग्रेटर नोएडा वेस्ट - 201310 उत्तर प्रदेश। कंपनी का नाम है एम / एस एस जे पी इंफ्राकन लिमिटेड। सोसाइटी का नाम है श्री राधा स्काई गार्डन। 

श्री राधा स्काई गार्डन में अब 15 की जगह 19 मंज़िल के 20 -22 अपार्टमेंट बन कर खड़े हैं। 25-30 परसेंट लोग रहने भी आ गए हैं। ज़्यादातर लोग जो नहीं आए हैं , वह इनवेस्टर लोग हैं। या कब्ज़ा नहीं मिला है। ज़्यादातर काला धन को सफ़ेद करने वाले इनवेस्टर। मतलब नौकरशाह आदि लोग हैं। इन लोगों ने भी  अपने दूर या नज़दीक़ के परिजनों के नाम पर फ़्लैट बुक कर छोड़ दिए हैं। बड़े-बड़े नौकरशाहों का काला धन राम अग्रवाल की कंपनी में लगा हुआ है। काला धन सफ़ेद करने की फैक्ट्री है यह बिल्डर राम अग्रवाल। मैंने भी इस श्री राधा स्काई गार्डन में एक फ़्लैट ले रखा है। पहले यह फ़्लैट एक इनकम टैक्स कमिश्नर का था। पर उस ने अपने नाम से नहीं बुक किया था। अपने पिता और सास के नाम से ज्वाइंट बुक कर रखा था। फ़्लैट ख़रीदने के पहले बिल्डर से लाख कहा कि एक बार जिस का फ़्लैट है , उस से मिलवा दीजिए। पर बिल्डर ने कहा कि , ' सर आप को जानते हैं। मिलना नहीं चाहते। ' मैं ने पूछा , ' क्यों ? दिक़्क़त क्या है ? ' बिल्डर बोला , ' उन्हें डर है कि आप उन से पैसे कम करने का दबाव बनाएंगे। और वह आप की बात टाल नहीं पाएंगे। फिर आप के सामने वह पड़ना भी नहीं चाहते। ' बिल्डर ने उस इनकम टैक्स के पिता का एकाउंट नंबर दिया। मैं ने आर टी जी एस के मार्फ़त उस अकाउंट में पैसा जमा कर दिया। बिल्डर ने रजिस्ट्री करवा दी। वह ख़ुश था कि नंबर एक में पैसा मिल गया। मेरे फ़्लैट की रजिस्ट्री तो ख़ैर पैसा देने के पंद्रह दिन बाद ही हो गई। पर ऐसे बहुत से लोग हैं , जिन का पूरा पैसा जमा है। पर बिल्डर रजिस्ट्री नहीं कर रहा। यहां तक तो न ठीक होते हुए भी सब ठीक था। पर अब जो थोड़े-बहुत लोग रहने लगे हैं , उन की भी कोई सुनने वाला नहीं है। न कोई रेरा , न कोई अथॉरिटी। न कोई मंत्री , न मुख्यमंत्री। तब जब कि श्री राधा स्काई गार्डेन के रेजीडेंट्स में कुछ सेलिब्रेटीज टाइप लोग भी हैं। कुछ मीडिया पर्सन भी। बड़े मीडिया घरानों में मशहूर लोग। अथॉरिटी के सी ई ओ हों या रेरा के बॉस लोग या एन पी सी एल के बाप लोग। सब के सब बिल्डर की ज़ेब में बैठ कर ऐश कर रहे हैं। 

बिल्डर ने 19 मंज़िल के तमाम अपर्टमेंट बना दिए। पर बीते पांच साल से बेसमेंट को गटर बना रखा है। सीवर का सारा पानी लीक हो कर यहीं हिंडन नदी बना रहता है। नतीज़तन समूची बिल्डिंग कमज़ोर हो रही है। कब धसक कर ट्विन टावर की तरह बैठ जाए , कोई नहीं जानता। लोगों की जान और बिल्डिंग ख़तरे में है तो रहे। बिल्डर की बला से। दूसरे , बेसमेंट में पार्किंग की जगह लोग इस्तेमाल नहीं कर पाते। क्यों कि यहां सीवर के जल की पार्किंग है। चहुं ओर बदबू ही बदबू। तब जब कि रजिस्ट्री के समय प्रति पार्किंग तीन लाख रुपए अलग से ले कर रजिस्ट्री की है बिल्डर ने। लेकिन लोग बाहर पार्किंग के लिए विवश हैं। बिल्डर ने क्लब , जिम , स्वीमिंग पुल आदि की सुविधा भी अभी तक नहीं दी है। यह सुविधाएं तो छोड़िए जब मन तब सिक्योरिटी गार्ड सारे गेट खुला छोड़ कर हड़ताल पर चले जाते हैं। क्यों कि उन्हें कभी समय से वेतन नहीं मिलता। हड़ताल करते हैं तो कुछ पैसा मिल जाता है। 

हर अपार्टमेंट में दो लिफ्ट हैं। एक लिफ्ट हरदम बंद रहती है। दूसरी लिफ्ट भी जब-तब विश्राम ले लेती है। लोग 19 मंज़िल की सीढ़ी चढ़ते-उतरते हैं। कैसे उतरते हैं , वह ही जानते हैं। कब कौन ऊपर लटक जाए , कौन नीचे फंस जाए , हरदम की यातना है यह। बिजली जब-तब हर हफ़्ते कट जाती है। यह तब है जब बिजली बिल की प्री पेड व्यवस्था है। लेकिन बिल्डर पर लाखों रुपए का बिजली बिल काफी समय से बकाया है। टोकन पेमेंट पर बिजली जुड़ती है। फिर कट जाती है। जेनरेटर भी किराए का है। डीजल हरदम समाप्त रहता है। तब जब कि जनरेटर वाली बिजली 22 रुपए प्रति यूनिट है। बाक़ी 7 रुपए यूनिट। लोड का शुल्क अलग से। लगभग रोज का 50 रुपए। भले अपने फ़्लैट में आप ताला बंद रखिए। यह बिल देना ही है। अजब डकैती है। सफाई स्टाफ , कूड़ा उठाने वाला स्टाफ भी कब हड़ताल पर चले जाएं , वह भी नहीं जानते। टोकन पेमेंट पर काम करते हैं बिचारे। वह भी समय से नहीं मिलता। ऐसे ही अनेक समस्याएं मुंह बाए रोज खड़ी रहती हैं। यह सब तब है जब लोगों ने दो साल का मेंटेनेंस चार्ज दो साल का एडवांस दे रखा है। अब बिल्डर बिना कोई सुविधा दिए मेंटेनेंस चार्ज एक्स्ट्रा वसूलने का दबाव बनाए हुए है। 

अब लोगों ने बिल्डर को अपनी तकलीफ़ बतानी शुरु की। एकल भी। समूह में भी। मथुरा जा-जा कर। लिखित भी , मौखिक भी। मीडिया में भी कहानियां आने लगीं। ख़बरों पर ख़बरें। प्रिंट में भी , इलेक्ट्रानिक में भी। पर जब आश्वासन का झुनझुना टूटता ही गया तो लोगों ने नोएडा अथॉरिटी की राह पकड़ी। शिकायतें दर्ज होने लगीं। तीन-चार साल से अथॉरिटी भी मीटिंग करती है , सो जाती है। तमाम लोग रेरा में भी याचिका दायर कर चुके हैं। पर रेरा और अथॉरिटी ने भी श्री राधा स्काई गार्डेन के निवासियों को प्रकारांतर से बता दिया है कि आप लोग आदमी नहीं , झुनझुना हैं। हम जब-तब बजाते रहेंगे। आप बजते रहिए। बता दिया कि हम बिल्डर की जेब में हैं , सो लाचार हैं। दो साल पहले लोग एन पी सी एल गए। कि कम से कम बिजली के मामले में तो बिल्डर से मुक्त हो जाएं। पर दुनिया भर के सर्वे और फ़ार्म वगैरह भरवाने की क़वायद के बाद एन सी पी एल ने भी बता दिया लोगों को कि तुम लोग आदमी नहीं , झुनझुने हो। किसी को कोई कनेक्शन नहीं मिला बिजली का। एन पी सी एल ने भी बता दिया कि हम बिल्डर की जेब में हैं , सो लाचार हैं। 

श्री राधा स्काई गार्डेन के लोगों को बहुत उम्मीद थी की योगी राज में उन की ज़रुर सुनवाई होगी। क्षेत्रीय विधायक  भी आए और झुनझुना बजा कर चले गए। सारी फ़रियाद श्री राधा स्काई गार्डेन के बेसमेंट के गटर में सड़ गई। बाद में लोगों को समझ आया कि मथुरा का श्रीकांत शर्मा जो तब ऊर्जा मंत्री था , बिल्डर राम अग्रवाल ने उसे ख़रीद लिया था । श्रीकांत शर्मा कहीं कुछ होने ही नहीं देता था। पर योगी राज - दो में भी सब कुछ ढाक के तीन पात है। संयोग देखिए कि आवास मंत्रालय का विभाग मुख्यमंत्री योगी के ही पास है। तो इतना कोहराम मचने के बाद योगी के कान पर जूं क्यों नहीं रेंग रही ? क्या राम अग्रवाल ने योगी को भी मैनेज कर लिया है ? ऊर्जा मंत्री अरविंद शर्मा क्या कर रहे हैं ? कि श्रीकांत शर्मा की तरह अरविंद शर्मा भी बिक गए हैं ?

दिलचस्प यह कि श्रीराधा स्काई गार्डन की यह कथा सिर्फ़ श्री राधा स्काई गार्डेन की ही नहीं है। सेक्टर 16 -बी ग्रेटर नोएडा वेस्ट की सभी सोसाइटियों की है। हर कहीं बस एक ही समस्या , एक ही शोर। पर सभी बिल्डरों ने नोएडा अथॉरिटी , रेरा और एन पी सी एल को बेभाव ख़रीद रखा है। सभी का महीना बंधा हुआ है। योगी राज में भ्रष्टाचार की खुली किताब है , नोएडा अथॉरिटी , रेरा और एन पी सी एल। ग्रेटर नोएडा वेस्ट की सारी सोसाइटियांइस की गवाह हैं। 

आज एक चैनल पर ट्विन टावर वाले सुपर टेक का एक निदेशक आर के अरोड़ा ने इंटरव्यू में जिस ठसक के साथ बार-बार नोएडा अथॉरिटी का ज़िक्र किया और बताया कि उस ने जो भी किया था , अथॉरिटी की स्वीकृति के बाद ही किया था। एंकर पूछती रही कि नोएडा अथॉरिटी को कैसे आप ने मैनेज किया ? इस सवाल को मुसलसल टालता रहा आर के अरोड़ा। गौरतलब है की सुप्रीमकोर्ट ने साफ़ कहा है कि नोएडा अथारिटी नोएडा एक भ्रष्ट निकाय है इसकी आंख, नाक, कान और यहां तक कि चेहरे तक से भ्रष्टाचार टपकता है। योगी जी , आंख, नाक, कान और यहां तक कि चेहरे इस टपकते भ्रष्टाचार पर बुलडोजर कब चलेगा। ग्रेटर नोएडा वेस्ट के लाखो नागरिक इस बुलडोजर की प्रतीक्षा में हैं। इन भ्रष्ट अफसरों और राम अग्रवाल जैसे बिल्डरों को जेल भेजिए। इन की काली कमाई को ज़ब्त कीजिए। याद कीजिए यह वही नोएडा अथॉरिटी है , जिस की सी ई ओ रही नीरा यादव महाभ्रष्ट कहलाईं और अदालत में भ्रष्टाचार सिद्ध होने पर सज़ायाफ़्ता हुईं। जेल गईं। 

Sunday, 28 August 2022

यश:प्रार्थी लोग ही विजयी लोग हैं

दयानंद पांडेय

यश:प्रार्थी एक युवा कवि आज घर पर मिलने आए । अभी-अभी लखनऊ में एक कविता पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम देख कर अभिभूत थे और अपनी कविता पुस्तक के लिए खर्चा भी जोड़ रहे थे । खुद ही बता रहे थे कि मान लीजिए पचास हज़ार रुपए पुस्तक प्रकाशित करवाने में लग जाएंगे । पचास हज़ार रुपए का बजट वह पुस्तक विमोचन के आयोजन पर भी बता रहे थे । कह रहे थे ख़ूब धूम-धाम से करेंगे । फिर कुछ बड़े कवियों , आलोचकों को बाहर से बुलाने और उन के रहने , खाने-पीने , शराब आदि के लिए भी वह पचास हज़ार रुपए का बजट बताने लगे । कहने लगे कुछ बढ़ा भी देंगे । पचास से पचहत्तर भी हो सकता है । स्थानीय पत्रकारों के शराब और डिनर की चर्चा भी की । मैं ने उन से पूछा कि आप यह सब मुझे क्यों बता रहे हैं ? वह कहने लगे कि बस आप की राय जानना चाहता हूं । मैं ने कहा कि मेरी राय तो यह है कि एक तो पैसा खर्च कर कविता-संग्रह छपवाने की कोई ज़रूरत नहीं है । दूसरे , अपना पैसा खर्च कर अपनी झूठी तारीफ करवाने के लिए पुस्तक विमोचन कार्यक्रम आयोजित कर इतना पैसा पानी में मत बहाइए । न ही झूठी तारीफ करने के लिए बाहर से कवियों , आलोचकों को भाड़े पर बुलाइए । न यह ड्रामा कीजिए । वह किंचित दुखी होते हुए बोले , आप तो सर , मेरे इरादे पर ही पानी डाल दे रहे हैं । मैं ने कहा कि आप ने राय मांगी तो सही राय दे दी । आप मत मानिए । किसी डाक्टर ने थोड़े कहा है कि आप मेरी राय मानिए ही मानिए । मैं ने उन्हें स्पष्ट बताया कि मैं ने पैसा दे कर कभी कोई किताब नहीं छपवाई । न ही किसी किताब का कभी कोई विमोचन आदि करवाया है । अब तो समीक्षा के लिए भी कहीं किताब नहीं भेजता । क्यों कि यह सारी चीज़ें , लेखक को अपमानित करने वाली हो चुकी हैं । सो हो सके तो आप भी इस सब से बचिए । क्यों कि दिल्ली , लखनऊ से लगायत पूरे देश में हिंदी जगत का यही वर्तमान परिदृश्य है । खास कर अगर वक्ता अध्यापक है तो वह पुस्तक पर न बोलते हुए भी , दाएं-बाएं बोलते हुए भी अपने अध्यापन के बूते लंबा बोलते हुए लेखक का इगो मसाज अच्छा कर लेता है । इस विमोचन में भी यही सब हुआ । अध्यापक वक्ताओं की बहार थी । बल्कि एक लेखक ने तो संचालिका से चुहुल करते हुए कहा भी कि आप ख़राब कविताएं भी बहुत अच्छा पढ़ती हैं । वह नाराज होने के बजाय हंस पड़ीं ।  

लेकिन उन युवा कवि पर पुस्तक छपवाने और विमोचन का जैसे भूत सवार था । मैं ने आजिज आ कर उन से पूछा कि क्या कविताएं भी पैसा खर्च कर लिखवा रहे हैं ?  वह भड़क गए । बोले , लिखना मुझे आता है । मैं ने उन से कहा कि चलिए आप के पास पैसा है , आप यह सब कर भी लेंगे । लेकिन कोई क़ायदे का कवि या आलोचक आप की कविता की तारीफ करने आएगा भी क्यों ? आप संपादक हैं क्या कि सब को बटोर लेंगे ? कि आप पुलिस अफ़सर हैं कि आई ए एस अफ़सर ? कि कोई सुंदर स्त्री ? कि किसी लेखक संघ के धंधेबाज पदाधिकारी हैं , सदस्य हैं , कि कोई गिरोहबाज लेखक हैं कि लोग अपना मान-सम्मान भूल कर भागे-भागे आ जाएंगे ? वह एक विद्रूप हंसी हंसे । कहने लगे एक एयर टिकट , या रेल का ए सी टिकट , होटल में रहने , शराब की बात पर हर कोई आ जाता है । बड़े से बड़ा भी । कविता कैसी भी हो तारीफ़ के पुल बांध कर जाता है । मैं ने कहा कि तारीफ़ के पुल बांधने वाले दिग्गजों ने बीते विमोचन कार्यक्रम में कितनी बात उस कवि की कविता पर की और कितनी बात कवि के बारे में की । और कितनी बात इधर-उधर की , की आप को याद है ? वह बरबस हंस पड़े । बोले यह तो ठीक है पर एक समां तो बंध ही गया न ! 

मैं ने उन से कहा कि कमज़ोर कविताओं पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले दिग्गजों से पूछिएगा कभी कि आप उन कविताओं पर क्या इतना हर-भरा लिख कर कहीं छपवा भी सकते हैं ? देखिएगा सभी के सभी तो नहीं पर ज्यादातर कतरा जाएंगे । नामवर जैसे लोग भी बोलते बहुत थे कभी विमोचन कार्यक्रमों में लेकिन उन किताबों पर लिखते नहीं थे कभी । और कई बार तो बहुत दबाव में आ कर वह कार्यक्रम में आ तो जाते थे पर अप्रिय भी बोल जाते थे । जैसे गोरखपुर में किसी कार्यक्रम में एक ग़ज़ल संग्रह का विमोचन करते हुए बोल गए कि फ़िराक के शहर में कुत्ते भी शेर में भौंकते हैं । दूरदर्शन के पुस्तक समीक्षा कार्यक्रम में लंदन के एक लेखक के कहानी संग्रह पर वह अपमानजनक ही बोल गए । अशोक वाजपेयी के भी पुस्तक विमोचन , पत्रिका विमोचन के ऐसे अनेक किस्से हैं । कहूं कि तमाम स्थापित लेखकों के अनगिन किस्से । लखनऊ में नरेश सक्सेना भी विमोचन कार्यक्रमों में अटपटा और अपमानजनक बोल कर फज़ीहत उठाने के आदी हो चले हैं । विमोचित किताब पर अमूमन वह नहीं ही बोलते । इधर-उधर की बोलते हैं । अध्यापक हैं नहीं , सो जलेबी भी नहीं छान पाते ।लेकिन नरेश सक्सेना  को उस दिन सुन कर लगा कि वह मौक़ा और पात्र देख कर ही अटपटा और अपमानजनक बोलते हैं , हर जगह नहीं । वह जानते हैं कि कहां क्या बोलना है , और कहां क्या नहीं बोलना है । कम से कम उस दिन यही लगा । आदतन वह एक बार फिसले तो पर अचानक फिसलते-फिसलते भी बच लिए । फिसल कर हर-हर गंगे कहने से बच गए । बल्कि बचा ले गए अपने आप को । मेरा मानना है कि नरेश जी को पुस्तक विमोचन कार्यक्रमों में जाने से भरसक बचना चाहिए । इस लिए भी कि पुस्तक चाहे जितनी भी बकवास हो , उस का लेखक उस समय उस समारोह का दूल्हा या दुलहन होता है । और दुलहन या दूल्हा काना हो , अंधा हो , लंगड़ा हो , गंजा हो , बुड्ढा हो , जैसा भी हो उस की तारीफ ही की जाती है । अवगुण नहीं देखा जाता । नरेश जी अवगुण देखने लगते हैं । या फिर पुस्तक पर बात ही नहीं करते । चाय , समोसा की लोगों की तलब पर बात बताने लगते हैं । अपने बारे में बताने लगते हैं । दुनिया भर की कविताओं आदि की बात करते हैं पर विमोचित पुस्तक की बात नहीं करते । गरज यह कि दूल्हे की भरपूर उपेक्षा ही उन का मकसद दीखता है । यह उन की चिर-परिचित अदा है अब । नतीजतन पुस्तक का लेखक और उस के संगी-साथी कुढ़ते बहुत हैं । बाकी लोग मजा लेते हैं ।

यश:प्रार्थी युवा कवि अब सहज हो रहे थे । और किचकिचा कर कहने लगे कि इन को तो मैं बुलाऊंगा ही नहीं । फिर जब मैं ने उन्हें बताया कि पैसा खर्च कर समीक्षाएं आदि भी लिखवाई और छपवाई जाती हैं अब तो ।

क्या कह रहे हैं आप ? पूछते हुए युवा कवि उछल पड़े । मैं ने उन्हें कई सारे दृष्टांत दिए । वह बहुत चकित हुए तो मैं ने उन्हें बताया कि हंस में एक लेखिका की किताब पर एक नामी आलोचक की लिखी समीक्षा राजेंद्र यादव ने बतौर विज्ञापन छाप दी थी और पूरी प्रमुखता से । प्रकाशक ही पैसा ले कर किताब नहीं छापते , संपादक भी पैसा और देह भोग कर सब कुछ छापते हैं । पैसा और देह भोग कर लोग पुरस्कार भी दे रहे हैं । ऐसे पुरस्कृत और उपकृत कुछ नायक , नायिकाओं के नाम भी बताए । लेकिन वह यश:प्रार्थी युवा कवि भी घाघ निकले । बोले , इस दिशा में भी सोचता हूं सर ! मैं ने उन से कहा कि यह सब मैं ने आजमाने के लिए आप को नहीं बताया । इस लिए बताया कि इन सब चीज़ों से आप दूर रहिए । सिर्फ़ और सिर्फ़ रचनारत रहिए । अपनी रचना पर यकीन कीजिए । किसी नौटंकी आदि-इत्यादि में नहीं । क्यों कि रचा ही बचा रहता है । तिकड़मबाजी और शार्टकट आदि नहीं । सिर्फ़ बदनामी मिलती है इन सब चीज़ों से । वह मुझे शर्मिंदा करते हुए बोले , जब हमारे सीनियर लोग रास्ता बता और बना गए हैं तो इसे आजमाने में कोई हर्ज नहीं है । मेरे पांव छू कर आशीर्वाद लिए और ख़ुश हो कर वह बोले , बड़ी फलदायी रही आप से यह मुलाकात । और विजयी भाव लिए चले गए । वैसे भी आज की तारीख में यही और ऐसे ही लोग विजयी लोग हैं । इन मीडियाकर्स के घोड़े खुले हुए हैं , इन का अश्वमेघ यज्ञ जारी है । अनवरत ।


Saturday, 27 August 2022

यू ट्यूब पर एंकरिंग करना मतलब हस्त मैथुन करना है

दयानंद पांडेय 

ग़ालिब छुटी शराब के लेखक रवींद्र कालिया ने इसी किताब में लिखा है कि अकेले शराब पीना हस्त मैथुन करने जैसा है। मेरा मानना है कि यू ट्यूब पर एंकरिंग करना मतलब हस्त मैथुन करना है। ख़ुद ही पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सारी भूमिका निभानी होती है। फिर कितने लोग देखते हैं , इन यू ट्यूबर को ? इन से हजारगुना ज़्यादा तो लोग लोकल गायकों , गायिकाओं को देख लेते हैं। यक़ीन न हो तो पुण्य प्रसून वाजपेयी , आशुतोष , अजीत अंजुम , दीपक शर्मा आदि तमाम जूनियर-सीनियर ऐंकरों का नर्क देख लीजिए। हाथ मलते देखते रहिए। अंदाज़ा लग जाएगा। कारवां गुज़र चुका है , बस गुबार बाक़ी है। तिस पर हिमालयी अहंकार अलग से। वह तो कहिए बीच-बीच में चुनाव आ जाता है। अखिलेश यादव जैसे थैलीशाह मिल जाते हैं। आलोक रंजन जैसे पूर्व नौकरशाह के मार्फ़त सैकड़ो करोड़ रुपए बंटवा देते हैं। जो जीत की नकली हवा बना देते हैं। तो हस्तमैथुन से थोड़ी फुर्सत मिल जाती है। बिस्तरबाज़ी हो जाती है। अरविंद केजरीवाल को भगत सिंह बनाने की लंतरानी याद आ जाती है। केजरीवाल भी जब-तब इन हस्त वीरों की व्यवस्था संभालते रहते हैं। 

कांग्रेस भी आगे-आगे ही रहती है इन हस्त वीरों को हाथ देने में। कुछ फाउंडेशन , कुछ एन जी ओ वगैरह भी हाथ दे देते हैं। देते ही रहते हैं। यू ट्यूब भी कुछ थमा देता है। रोटी-दाल चल जाती है। लेकिन जैसे हस्त मैथुन में दूसरों के भरोसे बहुत दूर तक नहीं चल सकते। यू ट्यूब के भरोसे भी बहुत दूर तक ऐश के साथ नहीं चल सकते। नहीं रह सकते। काले धन की गोद में बैठे किसी नामचीन बैनर के बिना ग्लैमर और ऐश की ज़िंदगी छूट जाती है। क्रांति-व्रांति की सारी सिलाई उखड़ जाती है। सारी खीर जल जाती है। समझ आ जाता है कि वह सब तो भ्रांति थी। सारा एजेंडा , सारी दलाली दिन में ही तारे दिखाने लगती है। गगन बिहारी बनने के बाद ज़मीन साफ़ दिखाई नहीं देती। 

यही सब छूटता देख रवीश कुमार ने कहा है कि वह बाथरुम में जैसे दरवाज़ा बंद कर गाना गा लेते हैं , वैसे ही बाथरुम से एंकरिंग भी कर लेंगे। कहीं बैठ कर , किसी चौराहे से भी एंकरिंग कर लेंगे। फ़ासिज्म यानी मोदी विरोध का नगाड़ा बजा लेंगे। गुड है यह भी। 

यह तो सभी जानते हैं कि हस्त मैथुन बिना बेडरुम के भी मुमकिन है। कहीं भी , कैसे भी। जैसे लोग लाल सिंह चड्ढा गर्ल फ्रेंड के साथ देखने गए और ख़ाली हाल पा कर जाने क्या-क्या कर के लौटे। ऐसे बहुत से वीडियो अब वायरल हैं। यह बिचारे नादान लोग नहीं जानते कि अब सारे मॉल वाले सिनेमा घरों में सुरक्षा के नाम पर सी सी टी वी भी लगे रहते हैं। सिनेमा हाल के भीतर घट रही हर घटना वाच होती है। रिकार्ड भी। तो अजब-ग़ज़ब मंज़र पेश आ रहे हैं। जो काम लोग पार्क में , कार में बैठ कर , एकांत देख कर करते हैं , लाल सिंह चड्ढा देखते हुए भी एकांत पा कर अंजाम दे गए हैं। हाल में बैठ कर भी फ़िल्म नहीं देखी , कुछ और-और किया। आप भी कीजिए। हाऊ कैन यू रोक ?

टी वी पर एंकरिंग करते हुए भी रवीश कुमार जब-तब कहते रहे हैं कि आप टी वी मत देखिए। लेकिन यह नहीं कभी कह सके कि आप टी वी मत देखिए , मैं भी टी वी छोड़ देता हूं। एंकरिंग छोड़ दे रहा हूं। गोदी मीडिया का प्रपंच चलाने वाला एन डी टी वी बहुत सी गोद में बैठा रहा है। यथा सोनिया गांधी , यथा पोंटी चड्ढा। यथा वामपंथी , यथा केजरीवाल। एजेंडा सेट करने और उसे हिट करने में एन डी टी वी अग्रणी रहा है ,सर्वदा। अच्छा कोई रवीश जैसे एजेण्डाबाज़ों से कभी क्यों नहीं पूछता कि , पूजनीय आप की इतनी मेहनत , इतनी नफ़रत और इतनी हाहाकारी लड़ाई , इतने ज़बरदस्त प्रतिरोध , इतनी फैन फॉलोइंग और जहरबाद के बावजूद फासिस्ट नरेंद्र मोदी के कितने बाल , कितने रोएं टूटे। फैसलाकुन क्यों नहीं हो पाए। जनमत क्यों नहीं बदल पाए। 

ई डी के हवाले से जेल भुगत रहे संजय राउत के शब्दों में जो पूछूं कि क्या-क्या उखाड़ लिया। याद कीजिए मुंबई के पाली हिल पर बने कंगना रानौत का घर तोड़ कर संजय राउत ने शिव सेना के अख़बार सामना में बैनर हैडिंग लगा कर छापा था , उखाड़ दिया ! तो जनाबे आली , 2014 से आप का फ़ासिस्ट दुश्मन निरंतर फूलता-फलता जा रहा है , उस का क्या-क्या उखाड़ लिया ? दिन-रात इसी एजेंडे के तहत अपनी ज़िंदगी नर्क बना ली है। मैग्सेसे की उपलब्धि के बावजूद चेहरा झुलस क्यों गया है। तमाम लोकप्रियता और शोहरत के बावजूद समय से पहले ही चेहरा वृद्ध दिखने लगा। यह कौन सा डिप्रेशन है। साथ में कुछ नशेड़ी बना लिए अपने। आप की तो यही दुकानदारी है। आप की दुकान तो चली। ख़ूब चली। पर जो दवा बेची , इस दुकान से वह दवा कारगर क्यों नहीं हुई इन आठ सालों में। भगत सिंह को याद करने के साथ ही पत्रकारिता में महामना मदनमोहन मालवीय और गणेश शंकर विद्यार्थी को भी याद कर लेने में नुकसान नहीं होता। सर्वदा नफ़रत के तीर चलाना , एकतरफा बात करना पत्रकारिता नहीं , कुछ और है।

तो ब्लैक मनी से चलने वाला एन डी टी वी अगर किसी और धन पिशाच के पास चला जा रहा है तो आप को पेचिश क्यों हो रही है हुजुरेआला ! यह पैसे की दुनिया है , बाज़ार है। ऐसे ही छल और कपट से चलती है। व्यवसाय में एजेंडा , नफ़रत और मनबढ़ई नहीं चलती। ट्रिक चलती है। सोनिया के सत्ता में आने का सपना दुर्योधन बन कर कभी पूरा नहीं हो सकता। लाक्षागृह बना कर सफलता अर्जित नहीं होती। द्रौपदी की साड़ी किसी दुशासन से नहीं उतरवाई जा सकती।  जुआ खेलेंगे तो भले ही धर्मराज युधिष्ठिर ही क्यों न हों , फ़ज़ीहत तो होगी ही। आप के एजेंडे की , आप  के नफ़रत की द्रौपदी की लाज तो लुटेगी। सीता का अपहरण कर आप सीता को नहीं पा सकते। सीता को पाने के लिए राम होना पड़ता है। राम का आचरण भी करना पड़ता है। राम की खिल्ली उड़ा कर रामराज की बात नहीं हो सकती। यक़ीन न हो तो एक बार आमिर ख़ान से पूछ लीजिए। इत्मीनान से पूछ लीजिए। हाथी के दांत बन गए हैं। सारी परफेक्टनेस जाने किस पॉकेट में चली गई है। खोजे नहीं मिल रही। आप की भी आप के पॉकेट में चली जाएगी। किसी भी की जा सकती है। इसी लिए एक समय बाद लोग ऐसे लोगों को भूल जाते हैं। देखिए कि राहुल गांधी से ज़्यादा मीम इन दिनों रवीश कुमार के बन रहे हैं। कहां तो रवीश को जन पत्रकारिता का प्रतीक बनना था। अफ़सोस कि इन दिनों वह लतीफ़ा और नफ़रत के प्रतीक बन कर उपस्थित हैं। 

जान लेना चाहिए कि कृत्रिम हवा चला कर , नकली हवा बना कर , सोनिया गांधी की गोदी में बैठ कर एक जोकर और लतीफ़ा को महानायक बना कर , राहुल गांधी के चरण चूम कर हवा महल तो बनाया जा सकता है , ख़याली पुलाव भी पकाया जा सकता है। गोदी मीडिया की गाली भी गढ़ी जा सकती है। हर असहमत को भक्त की गाली भी दी जा सकती है। बकौल समाजवादी नेता मुलायम परिवार के रौशन चिराग , पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव हाऊ कैन यू रोक ? पर स्वस्थ मीडिया और लोकतांत्रिक देश की मज़बूत बुनियाद तो नहीं ही बनाई जा सकती। नफ़रत के दाने बिछा कर कोई बहेलिया कुछ मानसिक रोगियों को फंसा तो सकता है , अपने बहेलिएपन पर नाज़ कर सकता है। पर किसी को कोई राह नहीं दे सकता। सिवाय कुछ घड़ी के अवसाद के। कोई माकूल प्राचीर नहीं बना सकता। ऐसे लोग अंतत : बुझ जाते हैं। वसीम बरेलवी याद आते हैं :

चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का 

हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती।

Monday, 15 August 2022

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे

दयानंद पांडेय 

लगभग सभी विधाओं में निरंतर लिखते रहने वाले रामदरश मिश्र आज 99 वर्ष के हुए। अगले वर्ष वह 100 बरस के हो जाएंगे। दिलचस्प यह है कि इस उम्र में भी न सिर्फ़ देह और मन से पूरी तरह स्वस्थ हैं बल्कि रचनाशील भी हैं। पत्नी का साथ भी भगवान ने बनाए रखा है। वह भी पूरी तरह स्वस्थ हैं। रामदरश मिश्र की इस वर्ष भी कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं। उन की याददाश्त के भी क्या कहने। नया-पुराना सब कुछ उन्हें याद है। जस का तस। अभी जब उन से फ़ोन पर बात हुई और उन्हें बधाई दी तो वह गदगद हो गए। वह किसी शिशु की तरह चहक उठे। भाव-विभोर हो गए। उन की आत्मीयता में मैं भीग गया। कहने लगे आप की याद हमेशा आती रहती है। चर्चा होती रहती है। कथा-गोरखपुर और कथा-लखनऊ के बारे में भी उन्हों ने चर्चा की। पूछा कि किताब कब आ रही है ? बताया कि अक्टूबर , नवंबर तक उम्मीद है। तो बहुत ख़ुश हो गए। कहने लगे इंतज़ार है किताब का। 


जब कथा-गोरखपुर की तैयारी कर रहा था तब उन्हों ने अपनी कहानी तो न सिर्फ़ एक बार के कहे पर ही भेज दी बल्कि गोरखपुर के कई पुराने कथाकारों का नाम और कहानी का विवरण भी लिख कर वाट्सअप पर भेजा। वह कोरोना की पीड़ा के दिन थे। पर वह सक्रिय थे। चार वर्ष पहले दिसंबर , 2018 में वह लखनऊ आए थे। उन के चर्चित उपन्यास जल टूटता हुआ पर आधारित भोजपुरी में बन रही फिल्म कुंजू बिरजू का मुहूर्त था। उस कार्यक्रम में रामदरश जी ने बड़े मान और स्नेह से मुझे न सिर्फ़ बुलाया बल्कि उस का मुहूर्त भी मुझ से करवाया। रामदरश जी को जब उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का शीर्ष सम्मान भारत भारती मिला तो मुझे भी लोक कवि अब गाते नहीं उपन्यास पर प्रेमचंद सम्मान मिला था। वह बहुत प्रसन्न थे। मंच पर खड़े-खड़े ही कहने लगे अपने माटी के दू-दू जने के एक साथ सम्मान मिलल बा। यह उन का बड़प्पन था। संयोग ही है कि रामदरश मिश्र के बड़े भाई रामनवल मिश्र के साथ भी मुझे कविता पाठ का अवसर बार-बार मिला है , गोरखपुर में। 

गोरखपुर में उन का गांव डुमरी हमारे गांव बैदौली से थोड़ी ही दूर पर है। इस नाते भी उन का स्नेह मुझे और ज़्यादा मिलता है। उन की आत्मकथा में , उन की  रचनाओं में उन का गांव और जवार सर्वदा उपस्थित मिलता रहता है। कोई चालीस साल से अधिक समय से उन के स्नेह का भागीदार हूं। साहित्य अकादमी उन्हें वर्ष 2015 में मिला। सरस्वती सम्मान इसी वर्ष मिला है। उम्र के इस मोड़ पर यह सम्मान मिलना मुश्किल में डालता है। यह सारे सम्मान रामदरश मिश्र को बहुत पहले मिल जाने चाहिए थे। असल बात यह है कि हिंदी की फ़ासिस्ट और तानाशाह आलोचना ने जाने कितने रामदरश मिश्र मारे हैं । लेकिन रचना और रचनाकार नहीं मरते हैं। मर जाती है फ़ासिस्ट आलोचना। मर जाते हैं फ़ासिस्ट लेखक। बच जाते हैं रामदरश मिश्र। रचा ही बचा रह जाता है। रामदरश मिश्र ने यह ख़ूब साबित किया है। बार-बार किया है। 

सोचिए कि रामदरश मिश्र और नामवर सिंह हमउम्र हैं। न सिर्फ़ हमउम्र बल्कि रामदरश मिश्र और नामवर सहपाठी भी हैं और सहकर्मी भी। दोनों ही आचार्य हजारी प्रसाद के शिष्य हैं। बी एच यू में साथ पढ़े और साथ पढ़ाए भी। एक ही साथ दोनों की नियुक्ति हुई। रामदरश मिश्र कथा और कविता में एक साथ सक्रिय रहे हैं। पर नामवर ने अपनी आलोचना में कभी रामदरश मिश्र का नाम भी नहीं मिला। जब कि अपनी आत्मकथा अपने लोग में रामदरश मिश्र ने बड़ी आत्मीयता से नामवर को याद किया है। नामवर सिंह की आलोचना की अध्यापन की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। बहुत सी नई बातें नामवर की बताई हैं। सर्वदा  साफ और सत्य बोलने वाले रामदरश मिश्र को उन की ही एक ग़ज़ल के साथ जन्म-दिन की कोटिश: बधाई !

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,

खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।


किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,

कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे।


जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर,

वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।


पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,

उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।


न हँस कर न रोकर किसी में उडे़ला,

पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।


गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,

गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।


ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था,

उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे।


मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,

मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।




Tuesday, 9 August 2022

मोहर्रम की बधाई देने और मर्सिया पर ताली बजाने वाले सेक्यूलर लोग

 दयानंद पांडेय 

आज मोहर्रम है। ग़म का दिन है। त्यौहार नहीं है मोहर्रम। लेकिन लालू यादव के कुख्यात पुत्र तेजप्रताप यादव आज नीतीश कुमार को अपने पाले में आया देख कर मोहर्रम की बधाई भी देने लगे। कुछ न्यूज़ चैनलों के एंकर भी मोहर्रम को त्यौहार बता गए। कुछ समय पहले तो नवभारत टाइम्स जैसे अख़बार ने बाक़ायदा संपादकीय लिख कर मोहर्रम को त्यौहार बता कर बधाई दी थी। सेक्यूलरिज्म की यह पराकाष्ठा है। तेज प्रताप सत्ता के जश्न में थे। मोहर्रम को भी जश्न बना बैठे थे। पर यह मीडिया के साक्षर लोग ? 

उन दिनों उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का राज था। अम्मार रिज़वी कैबिनेट मिनिस्टर थे। सचिवालय में उन के कमरे से कुछ पत्रकार एक साथ बाहर निकल रहे थे कि अचानक एक सेक्यूलर पत्रकार उधर से गुज़रे। पूछा कि कोई ख़ास बात है क्या ? पत्रकारों में से एक चुहुल पर उतर आया। बोला , ' अरे कुछ ख़ास नहीं। बस अम्मार भाई को मोहर्रम की बधाई देने चले गए थे। ' सेक्यूलर पत्रकार ने आव देखा , न ताव अम्मार रिज़वी के कमरे में धड़धड़ा कर घुस गए। और हाथ बढ़ा कर हाथ मिलाते हुए बोले , ' अम्मार भाई , मोहर्रम की बहुत बधाई ! '

अम्मार रिज़वी सकते में आ गए। अम्मार रिज़वी ख़ुद शिया थे। लेकिन करते तो क्या करते। पत्रकार की मूर्खता पर चेहरा बिगाड़ कर रह गए। 

एशिया में दो ही जगह ऐसी हैं जहां सब से ज़्यादा शिया-सुन्नी दंगे होते रहे हैं। एक लखनऊ में , दूसरे कराची में। इस लिए कि सब से ज़्यादा शिया लखनऊ और कराची में ही रहते हैं। अस्सी के दशक में भी लखनऊ में  मैं  ने शिया-सुन्नी के भयानक दंगे देखे हैं। दंगे बहुत देखे हैं और उन्हें कवर किया है। जैसे दिल्ली में हिंदू-सिख दंगा। तमाम हिंदू-मुस्लिम दंगे भी कवर किए हैं। 

पर 1996 में तो चौक के सिरकटा नाले के पास शिया-सुन्नी दंगा कवर करते हुए मेरी हत्या होते-होते बची थी। किसी तरह जान बची थी। कुछ दंगाइयों ने मेरे लिए छुरा और तलवार निकाल लिया था। क्यों कि मैं हिंदू था। ब्राह्मण था। मुझ पर वह दंगाई हमलावर होते-होते कि हमारे सहयोगी एक मुस्लिम पत्रकार शबाहत हुसैन विजेता बढ़ कर अचानक अपनी जान पर खेल कर , छटक कर मेरे आगे आ कर खड़े हो गए। बोले , ' मैं तो मुसलमान हूं। पर पहले मुझे मारो ! ' दंगाई कुछ समझते-समझते कि और स्थानीय लोगों ने मुझे पीछे से पकड़ कर , मेरी कालर पकड़ कर खींचने लगे। खींचते-खींचते जाने किस-किस गली में ले गए। मुझे भी और विजेता को भी। 

अचानक एक घर में ले जा कर हम लोगों को धकेल दिया। दरवाज़ा बंद कर लोग बोले , ' अब आप लोग सुरक्षित हैं ! ' तो जैसे सांस में सांस आई। यह लोग भी मुसलमान ही थे। अनजान थे। यह शिया लोग थे कि सुन्नी। आज भी नहीं जानता। पर बोले , ' आप की रिपोर्ट हम लोग रोज पढ़ रहे हैं। आप ठीक-ठीक लिख रहे हैं। असलियत लिख रहे हैं। अगर आप के साथ यह दंगाई कुछ गड़बड़ कर देते तो हम लोग कल क्या कहते। कैसे मुंह दिखाते किसी को ?'  थोड़ी देर बाद जब माहौल ठीक हुआ तो हम लोग फिर से बाहर आए। हमारे साथ एक और मुस्लिम पत्रकार हमारे सहयोग के लिए थे। पर वह मुझ पर हमला होते ही न सिर्फ़ अचानक ग़ायब हो गए बल्कि उस शाम दफ़्तर भी नहीं पहुंचे। दो दिन बाद दफ़्तर आए तो मैं ने पूछा , ' कहां ग़ायब हो गए थे ? ' वह बोले , ' सर मैं बहुत डर गया था। ' 

अब इस के बाद क्या कहता भला। 

लखनऊ में तो ऐसे-ऐसे सेक्यूलर रहते हैं कि मत पूछिए। वामपंथियों की सभा में मर्सिया सुन कर भी लोगों को तालियां बजाते देखता हूं। यह लोग नहीं जानते कि मर्सिया शोक गीत है। वैसे ही जैसे आज तेजप्रताप यादव एक न्यूज़ चैनल से बात करते हुए हर्षित हो कर मोहर्रम की बधाई सुबह-सुबह दे रहे थे। मोहर्रम ग़म का दिन है। इराक स्थित कर्बला में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया। शिया मुसलमान इसी लिए इमामबाड़ों में जा कर मातम मनाते हैं। ताजिया निकालते हैं। लखनऊ इस मातम का विशेष केंद्र है। सुन्नी इस का विरोध करते हैं। दंगा हो जाता है। अब तो ख़ैर योगी राज है। सो दंगों की गुंजाइश समाप्त है।

Monday, 1 August 2022

प्रेमचंद के साहित्य और जीवन दोनों ही में खूबियां , खामियां दोनों हैं

दयानंद पांडेय 



प्रेमचंद के जीवन में दो पत्नियों के अलावा और भी कई सारी स्त्रियां थीं। यहां तक कि उन की सौतेली मां भी। शिवरानी देवी लिखित प्रेमचंद घर में यह बात उभर कर सामने आई है। निर्मला उपन्यास उन की ही कहानी है। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के शैलेश ज़ैदी ने तो अपनी किताब में प्रेमचंद को औरतबाज बताया है। वेश्या गमन के तथ्य भी रखे हैं और बताया है कि प्रेमचंद निर्धन कतई नहीं थे। कभी नहीं थे। प्रेमचंद के समय में फ़ोटो खिंचवाना बहुत बड़ी अमीरी थी। इस बात को सर्वदा ध्यान रखिए।

मेरी इस टिप्पणी को ले कर मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिली हैं। कुछ निरापद हैं तो कुछ संतुलित तो कुछ प्रतिशोध से भरी हुई। कुछ छुद्र जनों को मुझे निपटा देने और अपमानित करने का एक मार्ग मिल गया है बरास्ता इस टिप्पणी। इन मानसिक विकलांगों को क्या ही कुछ कहूं। 

सभी मित्रों से निवेदन है कि प्रेमचंद बड़े लेखक हैं , इस में कोई दो राय नहीं है। लेकिन अगर उन की पत्नी शिवरानी देवी उन के बारे में अपनी पुस्तक , प्रेमचंद घर में पुस्तक में कोई तथ्य लिखती हैं तो उन की चर्चा करना अपराध नहीं है। शैलेश ज़ैदी ने भी अगर अपनी पुस्तक में कुछ ऐसा , वैसा लिखा है तो तार्किक और तथ्यात्मक ढंग से लिखा है। प्रामाणिक ढंग से लिखा है। कुछ भी अनर्गल नहीं लिखा है। आप सभी मित्रों को यह बात ज़रूर जान लेनी चाहिए कि प्रेमचंद के पिता भी गोरखपुर में पोस्ट मास्टर थे। पोस्ट मास्टर तब के दिनों में भी , अब के दिनों में भी निर्धन नहीं होता। फिर पढ़ाई के बाद प्रेमचंद भी एस डी आई थे , वह भी निर्धन नहीं होता। आज की तारीख़ में वह पी सी एस एलायड कहलाता है। बनारस जैसी जगह में  प्रिंटिंग प्रेस चलाने वाला भी निर्धन नहीं होता। फिर पत्रिकाएं छापने वाला या मुम्बई में फ़िल्में लिखने वाला भी निर्धन नहीं होता। मैं प्रेमचंद के गांव लमही भी गया हूं। ठीक-ठाक खेती बारी और घर दुआर भी था उन का। कच्चे मकान की जगह अपना पक्का मकान बनवा कर वह दिवंगत हुए थे ।   

फिर आप लोगों ने खुद पढ़ा होगा , छात्र जीवन में भी प्रेमचंद रामलीला की आरती में भी बीस आना दे देते हैं। तब के समय एक सरकारी अध्यापक का एक महीने का वेतन हुआ करता था , बीस आना। ऐसे तमाम किस्से हैं । लेकिन मैं ब्राह्मण हूं , इस लिए उन के खिलाफ लिख रहा हूं , ऐसा कहना आप लोगों की मूर्खता ही है। प्रेमचंद को हिंदी में छापा किस ने मालूम है ? पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती में। हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठित किया आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने। तब जब कि उन के तमाम खल पात्र ब्राह्मण ही हैं।   प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी है , पंच परमेश्वर। प्रेमचंद ने सरस्वती में इसे छपने भेजा था और शीर्षक दिया था , पंचों के भगवान। सरस्वती के तब के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने न सिर्फ़ इस कहानी को रिराईट किया बल्कि इस का शीर्षक पंच परमेश्वर कर दिया। पंचों के भगवान और पंच परमेश्वर में क्या फर्क और क्या ध्वनि है , आप मित्रों में अगर समझ हो तो ज़रूर समझ सकते हैं। समझ से दरिद्र और पैदल हैं तो मुझे कुछ नहीं कहना। 

रही बात चीनी के लिए तरसने की तो , बचपन में चीनी के लिए मैं भी तरसा हूं। घर में चीनी चुरा कर मैं ने भी खाई है । मध्यवर्गीय परिवार की दिक्कत है यह। फिर तब के दिनों में चीनी , नहीं गुड़ का चलन ज़्यादा था। बाक़ी प्रेमचंद के जीवन में कुछ स्त्रियों की बातें , शिवरानी देवी ने ही लिखी हैं। प्रेमचंद के वार्तालाप के सौजन्य से । मैं ने तो सिर्फ़ हल्का सा ज़िक्र भर किया है इस का । तमाम लेखकों और पुरुषों के जीवन में स्त्रियां रहती हैं , यह अपराध नहीं है । तो कायस्थ कुलोदभव लोगों से कहना चाहता हूं कि प्रेमचंद को कायस्थ लेखक बना कर उन्हें कायस्थ समुदाय तक सीमित कर अपने जहर का बुखार मत उतारिए। प्रेमचंद जैसे भी हैं , अपनी तमाम खामियों और खूबियों के साथ विश्वस्तरीय लेखक हैं , सभी समुदाय के लेखक हैं। उन्हें कायस्थीय कुएं में कैद करने से बचिए। 

दिलचस्प यह भी देखिए कि जातीय जहर के मारे महाबीमार दिलीप मंडल [ Dilip C Mandal ] भी इस पोस्ट पर ,' दयानंद पांडे की मानसिक अवस्था ठीक नहीं है। कथा सम्राट प्रेमचंद पर ऐसे आरोप लगाने से पहले उनकी ज़ुबान को लकवा क्यों न मार गया? '  बताने के लिए उपस्थित हो गए। गुड है , यह भी। 

मित्रों जान लीजिए कि प्रेमचंद भगवान नहीं थे। जान लीजिए कि प्रेमचंद के साहित्य और जीवन दोनों ही में खूबियां , खामियां दोनों हैं। सभी के साथ होता है । प्रेमचंद के जीवन में ही नहीं , साहित्य में भी बहुत सी कमज़ोर कड़ियां हैं। प्रेमचंद पर साहित्यिक चोरी तक के आरोप , अवध उपाध्याय जैसे आलोचकों ने लगाए हैं। कई कमज़ोर और अंतर्विरोधी रचनाएं भी हैं प्रेमचंद के पास। नमक का दारोगा जैसी अंतर्विरोध में सनी कहानियां भी हैं प्रेमचंद के पास। सारी की सारी रचनाएं किसी भी लेखक की महान नहीं होतीं। प्रेमचंद की भी नहीं हैं। कोई तीन सौ से अधिक कहानियां प्रेमचंद ने लिखी हैं। लेकिन  दो दर्जन कहानियों की ही चर्चा घूम फिर कर होती है। प्रेमचंद के कहानियों के अंतर्विरोध पर मुद्राराक्षस जैसे लेखकों ने बहुत गंभीरता से लिखा है। दलित विरोधी तक बताया है प्रेमचंद को। और भी लोगों ने। कई बार तो मुझे लगता है कि प्रेमचंद के लिखे संपादकीय और तमाम लेख , उन के साहित्य से ज़्यादा मारक और प्रासंगिक हैं। बावजूद इस सब के प्रेमचंद हिंदी , उर्दू ही नहीं , विश्व के महान लेखक हैं और रहेंगे। मेरी जानकारी में दुनिया में दो ही लेखक ऐसे हैं जो प्राइमरी से लगायत एम ए तक पढ़ाए जाते हैं। एक शेक्सपीयर , दूसरे प्रेमचंद। इस लिए आप लोग इस बहाने अपनी-अपनी बीमारियां यहां न ही बताएं तो बेहतर। प्रेमचंद के बारे में कुछ बोलने के पहले उन्हें और उन के बारे में पढ़ना सीखें। पढ़ लेंगे तो , अनर्गल बोलना भूल जाएंगे।