डा. मुकेश
मिश्रा
राजनीति एक ऐसा विषय
है जिस में आंशिक या पूर्ण दखल हर नागरिक रखता है। क्यों कि राजनीति भी आम आदमी के
जीवन का एक रंग है। जिसको वह अपनी निश्छल भावना के रंग में रंगीन देखना चाहता है। खास कर
भारत जैसे देश में जहां मौजूदा राजनीति को पाने में हर भारतीय का खून-पसीना किसी न
किसी प्रकार से बहा है। किसी के बाप, दादा तो किसी के नाना, मामा अथवा पड़ोसी-मुहल्ले
का कोई सख्श आजादी की जंग में शामिल जरूर रहा है। भले उसका जुड़ाव भावनात्मक ही
क्यों न रहा हो। लेकिन आज देश की राजनीति का जो रंग है वह इस कदर बदरंग है कि
साधारण आदमी उस का हिस्सा किसी भी तरह से नहीं बनना चाहता। यहां तक कि वोट बूथ तक
जाकर भी नहीं। इसका एक कारण यह है कि आम आदमी को आज की राजनीति और राजनीतिज्ञों के
अस्तित्व पर भरोसा भी नहीं है और उसे उनके अंदरूनी अंतर्विरोधों की समझ भी नहीं
है। लेकिन कुछ लोग आज के दौर में भी राजनीति, राजनीतिज्ञों और राजनीतिक घटनाक्रमों
पर बारीक नज़र रखते हैं। और न सिर्फ़ नज़र रखते हैं बल्कि हर
उस संभव मंच से उसका खुलासा करने को आगे भी आते हैं। सम-सामयिक राजनीतिक लेखों पर
आधारित ‘एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी’ पुस्तक के लेखक दयानंद पांडेय ऐसे ही
व्यक्तित्व के धनी हैं। जिन्हें समाज के हर पहलू की गंभीर समझ है और उस के साथ-साथ
उसे व्यक्त करने के लिए भाषा की अद्भुत कूची भी है। अपनी बारीक भाषाई कूची का
इस्तेमाल वे बेधड़क और साफगोई से करते हैं। यह उन की लेखनी की खासियत है जो कम ही
लेखकों में देखने को मिलती है।
पेशे से पत्रकार
दयानंद पांडेय का कार्यक्षेत्र बड़ा व्यापक रहा है। जिस का फ़ायदा उन्हें मिला या
नहीं मिला यह कहना कठिन है लेकिन यह कहना अति सरल है कि उन्हों ने उस का फ़ायदा पूरी शिद्दत से
उठाया। और फ़ायदा उन की लेखनी के माध्यम से समाज भी उठा रहा
है। यह उपरोक्त पुस्तक में भी देखने को मिलता है। जो विशुद्ध रूप से शोध और खोज से इतर रचना
है। यह पूरी तरह अनुभववादी रचना है। जो देखा, समझा, अनुभव किया, वही समय आने पर
व्यक्त कर दिया। ‘एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी’ में कुल १७ अध्याय हैं और
सभी राजनीति, राजनीतिज्ञ और राजनीतिक हालात का सीधा प्रसारण की तरह उपस्थित हैं।
पुस्तक की शुरूआत वर्तमान भारत के एक ऐसे
जनांदोलन से की गई है जिस को ले कर देश दुनिया में बड़ी उम्मीदें थीं। खास कर
भारतीय समाज के नई पीढ़ी के लिए वह एक ऐतिहासिक घटना थी जिस की आग में वह भस्म
होने को भी तैयार दिख रहा था। लेकिन उस का अंत जिस तरह से हुआ
वह किसी त्रासदी से कम नहीं था। अन्ना हजारे के हालिया आंदोलन के बारे में
दयानंद पांडेय लिखते हैं ‘लोग यह भूल गए कि कोई भी जनांदोलन हथेली पर सरसो उगाना
नहीं है। यह लगभग एक तरह की किसानी है। खेती-बारी है। बरसों लग जाते हैं मिट्टी
बनाने में। खाद पानी देते-देते मिट्टी बनती है। और फिर इसमें भी पपीते की खेती भी
नहीं है कि लगाते ही छह महीने में फल मिलने लगता है पर छह महीने में ही पपीता खत्म
भी हो जाता है। जनानंदोलन जैसे कटहल की खेती है। कि लगाती एक पीढ़ी है, खाती आगे की
पीढ़ियां हैं।’ आगे वह उसे ‘गगन विहारी’ आंदोलन बताते हैं। जो पब्लिसिटी तो पा गया
पर जमीन नसीब नहीं हुई। अन्ना हजारे की खासियतों को उकेरते हुए उन की गलतियों को
रेखांकित करना और फिर सोनिया गांधी की ताकत को आडवाणी, प्रणव मुखर्जी सहित तमाम
नेताओं की स्थिति के सापेक्ष अंदर की हकीकत को सामने लाना इस लेख की विशिष्टता है।
लेख में दयानंद पांडेय ने अनुभवहीनता और जल्दबाजी को एक जनांदोलन के गर्भपात का
कारण बता कर यह सिद्ध किया है कि वे न केवल सामयिक मुद्दों पर पकड़ रखते हैं बल्कि
उन के समाधान की राह सुझाने को भी तत्पर हैं।
उक्त लेख के अलावा ‘धृतराष्ट्र,
कोसल और अन्ना’, ‘संसद में आग लगाने वाले राहत इंदौरी के शेर पर सांसद मौन क्यों?’,
‘लोकपाल और अन्ना की बहस में नानाजी देशमुख जैसे फकीरों का असली चेहरा भी देखें’, ‘अब
चुनाव निशान भर नहीं हाथी हथियार है मायावती के लिए’, ‘एक्जिट पोल की त्रासदी’
जैसे कुछ उल्लेखनीय लेख हैं जिनमें लोकतांत्रिक भारत की मौजूदा राजनीतिक विडंबनाओं
की सर्जरी है। धृतराष्ट्र, कोसल और अन्ना में यह लाइनें इसकी बानगी हैं- ‘रामदेव
की पतंग काटने की बजाय उन के हाथ से चर्खी ही छीन ली। उन को औरतों की सलवार पहन कर
भागना पड़ा।’ दयानंद पांडेय को इतिहास की समझ है और वे उस के प्रसंगों को वर्तमान
के जोड़ने में भी माहिर लगते हैं। उक्त लेख में कांग्रेस पार्टी की करतूतों को जिस
ढंग से व्यक्त किया गया है वह तो काबिले गौर है ही उस से कहीं अधिक भाजपा के
चरित्र की व्याख्या गौर करने लायक है। एक लतीफे के बहाने इसे कुछ यूं रखा है- ‘एक
सज्जन थे जो अपने पड़ोसी रामलाल को सबक सिखाना चाहते थे। इस के लिए उन्हों ने अपने
एक मित्र से संपर्क साधा और कहा कि कोई ऐसी औरत बताओ जिस को एड्स हो। उस के साथ
मैं सोना चाहता हूं। मित्र ने कहा कि इस से तो तुम्हें भी एड्स हो जाएगा। जनाब
बोले यही तो मैं चाहता हूं। मित्र ने पूछा ऐसा क्यों भाई? जनाब बोले कि मुझे अपने पड़ोसी रामलाल को सबक
सिखाना है।
मित्र ने पूछा कि इस तरह रामलाल को कैसे सबक सिखाओगे भला? जनाब बोले- देखो इस औरत के साथ मैं सो जाऊंगा तो मुझे एड्स हो जाएगा। फिर मैं अपनी बीवी के साथ सोऊंगा तो बीवी को एड्स हो जाएगा। मेरी बीवी मेरे बड़े भाई के साथ सोएगी तो बड़े भाई को एड्स हो जाएगा। फिर बड़ा भाई से भाभी को होगा और भाभी मेरे पिता जी के साथ सोएगी तो पिता जी को एड्स हो जाएगा। फिर मेरी मां को भी एड्स हो जाएगा। और जब पड़ोसी रामलाल मेरी मां के साथ सोएगा तो उस को भी एड्स हो जाएगा। तब उस को सबक मिलेगा कि मेरी मां के साथ सोने का क्या मतलब होता है! तो अपनी यह भाजपा भी सत्ता में आने के लिए कांग्रेस को सबक सिखाना चाहती है हर हाल में। देश की कीमत पर भी’। अपने इसी लेख में वे श्रीकांत वर्मा की एक कविता को संदर्भित करते हुए लिखते हैं ‘कोसल में विचारों की बहुत कमी है।’ इसी कमी को वे इस लेख के माध्यम से उकेरने में सफल हैं।
मित्र ने पूछा कि इस तरह रामलाल को कैसे सबक सिखाओगे भला? जनाब बोले- देखो इस औरत के साथ मैं सो जाऊंगा तो मुझे एड्स हो जाएगा। फिर मैं अपनी बीवी के साथ सोऊंगा तो बीवी को एड्स हो जाएगा। मेरी बीवी मेरे बड़े भाई के साथ सोएगी तो बड़े भाई को एड्स हो जाएगा। फिर बड़ा भाई से भाभी को होगा और भाभी मेरे पिता जी के साथ सोएगी तो पिता जी को एड्स हो जाएगा। फिर मेरी मां को भी एड्स हो जाएगा। और जब पड़ोसी रामलाल मेरी मां के साथ सोएगा तो उस को भी एड्स हो जाएगा। तब उस को सबक मिलेगा कि मेरी मां के साथ सोने का क्या मतलब होता है! तो अपनी यह भाजपा भी सत्ता में आने के लिए कांग्रेस को सबक सिखाना चाहती है हर हाल में। देश की कीमत पर भी’। अपने इसी लेख में वे श्रीकांत वर्मा की एक कविता को संदर्भित करते हुए लिखते हैं ‘कोसल में विचारों की बहुत कमी है।’ इसी कमी को वे इस लेख के माध्यम से उकेरने में सफल हैं।
किसी व्यक्ति विशेष
पर कुछ लिखना और वह भी निष्पक्ष हो कर, थोड़ा कठिन है। वह भी तब, जब किसी समकालीन
राजनीतिज्ञ के विषय में लिखना हो। दरअसल, इस में संदर्भित व्यक्ति की आलोचना और
समर्थन दोनों के ही अपने खतरे होते हैं। लेकिन खतरे कम हो जाते हैं जब लेखक के पास
जानकारी का खजाना हो। दयानंद पांडेय के इन राजनीतिक लेखों के संग्रह में कुछ लेख
नितांत व्यक्तिवादी होते हुए भी जानकारियों से भरपूर हैं और सार्थक भी। इस कड़ी
में ‘कभी मायावती कभी अखिलेश हूं अभी न सुधरूंगा उत्तर उत्तरप्रदेश हूं’,और ‘का हो
अखिलेश कुछ बदली उत्तर प्रदेश’ जैसे लेख मील का पत्थर हैं। जिस में उत्तर प्रदेश
की सियासत की उन तमाम परतों को खोला गया है जो शायद बड़ी संख्या में लोगों के
संज्ञान में न हों। ‘चाचाओं के चक्रव्यूह में अखिलेश और फिर चोरों के चक्रव्यूह
में उत्तर प्रदेश’, ‘मुलायम का चरखा ममता की हेकड़ी और समय की दीवार पर प्रणब
मुखर्जी’, ‘बेनी की बेलगाम बयानबाजी के मायने और बहाने’, आदि लेखों में लेखक ने
गजब का राजनीतिक परिदृष्य पेश किया है। जो इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-‘सब पी
गए पूजा नमाज बोल प्यार के, और नखरे तो ज़रा देखिए परवरदिगार के ।’
राजनीतिक लेखों के
इस संग्रह की खासियत यह भी है कि यह लेखक की स्वानुभूतिक अनुभवों और अधिकांशतः
देखे गए माहौल पर आधारित है। यही इस की ताकत कही जाए तो गलत नहीं होगा। बानगी
देखें कि ‘मुलायम सिंह यादव एक समय चरण सिंह के चरणों में बैठे रहते थे। कम से कम
मैं ने ऐसे ही बैठे देखा है मुलायम को चरण सिंह के साथ।’ आज़ाद भारत के सर्वाधिक
लोकप्रिय नेताओं में से एक अटल बिहारी बाजपेयी पर लिखे अंतिम लेख में भी यह खासियत
झलकती है। और इसी किताब में उद्घृत एक कविता ‘ऊपर ऊपर लाल मछलियां नीचे ग्राह बसे।
राजा के पोखर में है पानी की थाह किसे’ पुस्तक की भावना को व्यक्त करने के लिए
काफी है।
समीक्ष्य पुस्तक :
एक जनांदोलन के
गर्भपात की त्रासदी
लेखक- दयानंद पांडेय
प्रकाशक- जनवाणी प्रकाशन
३०/३५-३६, गली नंबर ९, विश्वास नगर,
दिल्ली-११००३२
मूल्य- २०० रुपए
पृष्ठ- १०४