Saturday, 31 January 2015

दिल्ली विधान सभा में अरविंद केजरीवाल का मुकाबला किरन बेदी से हरगिज़ नहीं है , नरेंद्र मोदी से है

 कुछ  फेसबुकिया नोट्स 

  • अरविंद केजरीवाल किरन बेदी को तो पानी पिला देंगे पर नरेंद्र मोदी का तो वह नाखून भी नहीं छू पा रहे। न राजनीतिक पैतरेबाज़ी में , न विजन में , न नौटंकी में , न वादे और इरादे में, न प्रहार और प्लैनिंग में । अरविंद केजरीवाल को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि दिल्ली विधान सभा में उन का मुकाबला किरन बेदी से हरगिज़ नहीं है , नरेंद्र मोदी से है। नरेंद्र मोदी की कड़कड़डुमा की भीड़ भरी रैली का संदेश अरविंद केजरीवाल के लिए बिलकुल शुभ नहीं है। वह नरेंद्र मोदी की बिछाई बिसात पर अगर टिक पाएंगे तो यह चमत्कार ही होगा ! और दिल्ली में मोदी की रेलियां अभी और भी हैं । जनता का ब्रेन वाश करना और उसे अपने पक्ष में खड़ा कर लेना किसी को सीखना हो तो वह सचमुच नरेंद्र मोदी से सीखे। गज़ब यह कि बराक ओबामा की भारत की सरकारी यात्रा को भी वह बहुत बारीकी से भाजपा और अपने पक्ष में कर विपक्ष को उलझाने के लिए एक झुनझुना भी थमा गए।


  • किरण बेदी बहुत बहादुर और ईमानदार औरत हैं लेकिन वक्ता बहुत खराब हैं। और राजनीतिक भाषण देने उन्हें बिलकुल नहीं आता। वह अपनी पुलिसिया कैरियर और नरेंद मोदी की तारीफ के अलावा कुछ जानती ही नहीं। कड़कड़डुमा की भीड़ भरी रैली में वह बहुत ख़राब बोलीं। बोलने के मामले वह अरविंद केजरीवाल की पासंग भी नहीं हैं।

















  • 30 जनवरी को जन्म-दिन पर सुबह अम्मा पिता जी से आशीर्वाद तो मिलता ही है सर्वदा। पूजा-पाठ भी होता ही है । आज के दिन पत्नी भी मां बन कर ख्याल रखने लगती हैं और बच्चे हमारे गार्जियन बन जाते हैं । पापा ऐसे करिए , वैसे करिए। हम भी सहर्ष बच्चा बन जाते हैं। जैसे कहा जाता है बच्चे बन कर स्वीकार करते जाते हैं । बेटियों का वश चले तो मुझे गोद में ले कर खिलाने लगें । पिता मैं हूं पर जैसे अपने वात्सल्य में बेटियां मुझे भिगोने लगती हैं । लोग बेटियों पर वैसे ही तो जान नहीं छिड़कते ! बेटियों में पिता की जैसे जान बसती है । आज सत्तावन का हो जाने पर भी यही सब कुछ हुआ। दुनिया भर से असंख्य मित्र, रिश्तेदार फ़ोन, फ़ेसबुक, वाट्स-अप के मार्फ़त इस हर्ष में मिसरी घोलते रहे। अब कैलेंडर की बदलती तारीख के साथ आप कुछ फ़ोटो भी लुक कर सकते हैं।


  •  फ़ेसबुक पर अराजकता , झक, तानाशाही के अलमबरदार और हद दर्जे के हिप्पोक्रेट जब कहते हैं कि अब हम फ़ेसबुक छोड़ देंगे तो उन पर हंसी आती है। और एक पुराना फ़िल्मी गाना याद आ जाता है , मैं मैके चली जाऊंगी , तुम देखते रहियो !


  • दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा अपनी जो ऊर्जा अरविंद केजरीवाल पर चढ़ाई करने में खर्च कर रही है काश कि यह यह ऊर्जा वह मंहगाई पर चढ़ाई में खर्च करती तो शायद उस का कुछ भला भी होता ! ऐसे में तो उस की बौखलाहट ज़्यादा लुक हो रही है।







































  • मुझे अंगरेजी ठीक से नहीं आती। लेकिन आर के लक्ष्मण के कार्टून ठीक से समझ जाता हूं। उन के भाई आर के नारायण की कहानियां जैसे भाती हैं , वैसे ही उन के कार्टून ! मालगुडी डेज जैसे दोनों ही में बसता है। और उस की खुशबू भी । उन्हें श्रद्धांजलि !



  • राष्ट्रपति भवन में ओबामा के खैर मकदम की महफ़िल में अचानक राऊंड पर आ गए इन मोहतरम श्वान के बारे में एक बड़े कांग्रेसी नेता ने एक बड़े पत्रकार को सपने में बताया कि यह अरविंद केजरीवाल का भेजा हुआ प्रतिनिधि था। उस को गिरफ्तार करना उचित नहीं था। मोदी दुनिया भर को चाय पिला रहे हैं। क्या उस एक आम कुत्ते को भी चाय पिलाना उन का फर्ज़ नहीं था ? याद कीजिए कि एक बार हमारी नेता सोनिया गांधी जी की महफ़िल में इसी तरह अमर सिंह जी मुलायम सिंह के प्रतिनिधि बन कर पहुंच गए थे तो क्या सोनिया जी ने उन्हें खाना नहीं खिलाया था ? जब कि उसी सपने में उसी पत्रकार को आप पार्टी के एक मामूली नेता ने बताया कि हमने उस सम्मानित श्वान को अपना प्रतिनिधि बना कर भेजा कि नहीं भेजा इस मुद्दे पर हम चुनाव बाद बात कर लेंगे । लेकिन यह बात तो बिलकुल पक्की है कि इस आम कुत्ते को गिरफ्तार करना उस आम कुत्ते का ही नहीं आम आदमी का भी अपमान है। हम इस की कड़ी निंदा करते हैं और सरकार से पूछना चाहते हैं कि आख़िर सब का साथ , सब का विकास का नारा यहां कैसे भूल गई है यह सरकार ? अब उक्त पत्रकार बड़ी मुश्किल में हैं कि इस खबर को ब्रेकिंग न्यूज़ कैसे बना दें ! वह चीख़-चीख़ कर दुनिया को बताना चाहते हैं यह देखिए, वह देखिए स्टाइल में। पर उन की दिक्कत यह है कि मोहतरम श्वान की विजुअल तो उन्हें मिल गई है पर उक्त बड़े कांग्रेसी नेता और आप के मामूली नेता दोनों ही अधिकृत रूप से उन्हें बाईट देने को तैयार नहीं हैं। कह रहे हैं कि इतने भर से काम चला सकते हो तो चलाओ ! बाक़ी तुम लोग बिके हुए तो हो ही । अब वह किसी दलित या मुस्लिम के साथ ही मायावती , ममता , जयललिता, वाम नेता की तलाश में हैं या ऐसा कोई भी मिल जाए जो मोदी और ओबामा से एक साथ खार खाता हो । और उन्हें बढ़िया , फड़कती हुई बाईट दे दे ! इस सिलसिले में मुझ से भी उन्हों ने सलाह ली है । मैं ने उन्हें इधर-उधर घूम कर वक्त खराब करने से मना करते हुए सीधे नीतीश कुमार का नाम सुझा दिया है ।


  • बराक ओबामा भारत से अमरीका अभी लौटे भी नहीं हैं। लेकिन कभी भारत की पीठ में छुरा घोंपने वाला चीन बहुत ज़्यादा परेशान हो गया है । बता रहा है कि मित्रता दो दिन में नहीं होती। वह मोदी और ओबामा की मित्रता पर आह भर रहा है। कांग्रेस और केजरीवाल की आह अभी सुननी शेष है। वाम पार्टियों का विरोध तो खुल्लमखुल्ला है।


  • बताइए कि लालकृष्ण आडवाणी को तो पद्म पुरस्कार में पद्म विभूषण दे कर एडजस्ट कर लिया । लेकिन पद्म पुरस्कारों की सूची में मुरली मनोहर जोशी को नहीं रखा ! अब और कहां एडजस्ट करेंगे उन को ?


  • कभी हैदराबाद के नवाब की हवेली रही हैदराबाद हाऊस में आज एक चाय वाले ने अमरीका के एक बराक को चाय पिला दी !


  • लालकृष्ण आडवाणी ने एक समय कुंठा में ही सही लेकिन सही ही कहा था कि नरेंद्र मोदी एक अच्छे इवेंट मैनेजर हैं। उस वक्त आडवाणी की इस बात को लोगों ने नरेंद्र मोदी के लिए निगेटिव अर्थ में लिया था। लेकिन आडवाणी कुंठित थे , लोग गलत थे । नरेंद्र मोदी सचमुच बहुत बड़े इवेंट मैनेजर हैं। और अब तो इंटरनेशनल इवेंट मैनेजर। और बराक से उन की दोस्ती तो अजब !


  • दोस्ती का दाना तो दोनों ही एक दूसरे को चुगा रहे हैं ! पर बराक ओबामा बड़े बहेलिया हैं कि नरेंद्र मोदी बड़े बहेलिया , यह तस्वीर अभी बहुत साफ नहीं हो पाई है।


  • भारत और अमरीका के बीच जो कूटनीति और व्यापारिक आदान-प्रदान का जो दौर चल रहा है वह सब तो अपनी जगह है ही। एक अच्छी बात यह भी है कि पाकिस्तान भी अमरीकी धमकी के मद्देनज़र ही सही , अमन-चैन बनाए हुए है। ओबामा के वेलकम से तौबा किए हुए है। सीमा पर भी , देश के भीतर भी । कोई धमाका नहीं किया !


  • राजनीति , कूटनीति और तमाम बातें अपनी जगह हैं लेकिन एक अहिंसा के पुजारी की समाधि पर एक हिंसक देश के राष्ट्रपति का जाना तकलीफ से भर देता है।


  • अजय माकन अभी जनार्दन द्विवेदी के प्रहार से उबरे भी नहीं थे कि आज शीला दीक्षित ने एक चैनल से इंटरव्यू में कहा कि अजय माकन नई दिल्ली क्षेत्र से चुनाव लड़ने से इस लिए भाग गए कि उन्हें यहां से हार जाने का डर था। यह कांग्रेसियों को हो क्या गया है ? हां लेकिन अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अजय माकन शीला दीक्षित के इस बयान पर कितना भड़कते हैं ? या जनार्दन द्विवेदी की हुंकार से सबक़ ले कर चुप्पी साध जाते हैं !


  • आज नीरज पांडेय निर्देशित बेबी देखी। फ़िल्म क्राफ्ट के हिसाब से बहुत दिनों बाद कोई इतनी चुस्त फ़िल्म देखने को मिली है। हैदर जैसी भटकी हुई, आतंकवाद की पैरवी करने वाली, और पी के जैसी लचर लेकिन विवाद के दम पर सांस लेने वाली फ़िल्म के बाद बेबी जैसी आतंकवाद की आंख से आंख मिलाती यह सशक्त फ़िल्म देखना सुखद है। कुछ फ़िल्मी मूर्खताओं को तार्किकता की कसौटी पर चढ़ाना अब एक नई मूर्खता हो गई है। इस एक बिंदु पर बात करने के बजाय मैं कहना चाहूंगा कि बेबी एक सेकेंड के लिए भी छोड़ने नहीं देती। बोर तो बिलकुल नहीं करती। रत्ती भर भी नहीं । थोड़ा बहुत जासूसी फ़िल्मों जैसा सस्पेंस का सिलसिला भी है। और मजेदार। क़ायदे से यह फिल्म टैक्स फ्री होनी चाहिए। लेकिन नहीं होगी। क्यों की किसी राजनीतिक नब्ज़ का ईगो मसाज नहीं करती। हां लेकिन पाकिस्तान में तुरंत प्रभाव से बैन कर दी गई है। जब कि दो पाकिस्तानी अभिनेताओं ने भी इस में लाजवाब अभिनय किया है। खास कर हाफ़िज़ सईद की भूमिका करने वाले अभिनेता ने तो अद्भुत अभिनय किया है !


  • एक चैनल पर दिए गए इंटरव्यू में अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि भाजपा दिल्ली में एक डूबता हुआ जहाज है। तो फिर कांग्रेस क्या एक डूब गया जहाज है ?


  • अब लीजिए ज़ी न्यूज पर प्रसारित सर्वे में दिल्ली विधान सभा चुनाव में भाजपा को 52 , आप को 14 , कांग्रेस को 3 और अन्य को एक सीट ! इस के कुछ पल पहले ही इसी सर्वे ने भाजपा को 40, आप को 28 और कांग्रेस को 2 सीट दिया था । यह सर्वे है , सुनामी है कि भाजपा का विज्ञापन ? इस सर्वे की एक खासियत यह भी है कि अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी दोनों चुनाव हार रहे हैं । अजब है यह भी कि अपना ही सर्वे उलट-पुलट हो जाता है। पल में तोला , पल में मासा तो सुना था बार-बार पर यह और ऐसा चमत्कार तो पहली ही बार !


  • देते हैं यही प्रकाशक देते हैं । लेने वाला लेखक चाहिए । मैं वर्तमान में जीवित एक लेखक का नाम बता रहा हूं । वह अरविंद कुमार हैं । अरविंद कुमार 15 प्रतिशत से कम रायल्टी नहीं लेते । और प्रकाशक उन्हें एडवांस रायल्टी देते हैं । इतना ही नहीं अरविंद कुमार एक निश्चित रकम तय करते हैं कि अगर साल में इस से कम रायल्टी हुई तो किताब नहीं बिकी का बहाना नहीं चलेगा । कम से कम इतनी किताब अगर आप नहीं बेच सकते तो मैं किताब वापस ले लूंगा । और ऐसा सबक वह पेंग्विन जैसे प्रकाशक को अपनी किताब वापस ले कर सिखा चुके हैं । दोष प्रकाशकों का उतना नहीं है जितना लेखकों का है । कम से कम रायल्टी के मामले में । हिंदी के लेखक बेरीढ़ हैं । नहीं इन्हीं हिंदी के प्रकाशकों से अरुंधति राय और तस्लीमा नसरीन जैसी लेखिकाएं मुर्गा बना कर रायल्टी वसूल लेती हैं । कुछ बांग्ला लेखकों के परिवारीजनों को भी इन्हीं हिंदी प्रकाशकों को समय से रायल्टी भेजने के लिए परेशान देखा है मैं ने । क्यों कि डर होता है कि कहीं नाराज हो कर वह लोग किताब वापस न ले लें । रही बात हिंदी के बेरीढ़ लेखकों की तो बात न की जाए तो बेहतर है । हिंदी के कौन लेखक पैसा दे कर किताब छपवाते हैं और कौन लेखिका किस प्रकाशक के साथ हमबिस्तर हो कर किताब छपवाती है यह भी अब सब लोग जानते हैं ।

सन 45 -50 के आसपास की बात होगी। अज्ञेय अपने पत्रों में लिखते हैं कि 22 प्रतिशत से कम रॉयल्टी मैं नहीं लेता। उस समय अज्ञेय की उम्र 35-40 के आस-पास होगी। उनके ये पत्र उनकी रचनावली में संकलित हैं। प्रकाशक भी उनकी भीषण शर्तें मानने को मज़बूर होता है। आज कौन है जो इस तरह अपनी शर्तों पर अपनी किताब छपवाता होगा और इतनी रॉयल्टी लेता होगा। पहले ज्ञानपीठ (जो कि ट्रस्ट है, लाभ कमाने का उपक्रम नहीं ) 15 प्रतिशत रॉयल्टी देता था, अब वह भी 10 प्रतिशत पर उतर आया है।
 


  • कुछ लेखक मित्रों को पता नहीं क्यों यह इल्हाम होता रहता है कि कुछ लेखक और आलोचक साज़िश रच कर उन के लिखे को रिजेक्ट कर रहे हैं । यह कि उन को साहित्य से ख़ारिज करने का कुचक्र चल रहा है । अजब बीमारी है यह । किसी लेखक को ख़ारिज या रिजेक्ट करने का काम कोई लेखक या आलोचक कैसे कर सकता है भला ? यह काम तो पाठक का है। वह जिसे पढता है वह स्वीकृत हो जाता है नहीं खारिज हो जाता है। लेखकीय खेमेबाजी में शोशेबाजी तो हो सकती है , पाठकीय स्वीकृति नहीं मिल सकती । इस लिए असल काम तो पाठक ही करता है । लोग व्यर्थ ही लेखकीय राजनीति में वक्त खराब कर अपना खून जलाया करते हैं ।  

Wednesday, 28 January 2015

तुम्हें यह तुम्हारा ज़माना , यह ओबामा मुबारक़ !


पेंटिंग : अवधेश मिश्र

तो तुम ओबामा के साथ गप्प मारते हो !
अभी उस दिन तुम्हीं यह बात
पूरी ढिठाई से कह रहे थे
ओबामा के सामने ही
लेकिन हिंदी में

कुछ ज़्यादा नहीं हो गया ?
इतना समय मिल जाता है ?
लेकिन
चलो मान लेता हूं  तुम्हारा यह गप्प भी

इस लिए भी मान लेता हूं कि
जिस तरह उस रोज हैदराबाद हाऊस में
तुम घूम रहे थे ओबामा के साथ बतौर मेज़बान
तुम मेज़बान कम अल्सेसियन ज़्यादा लग रहे थे
चाय बना-पिला रहे थे
तुम्हारी इस खुशकिस्मती पर बहुत लोग जल भुन गए
कुत्तों का कुत्तों से जलना और भूंकना
पुरानी रवायत है
सो उन के इस जल भुन जाने पर ऐतराज है मुझे

लेकिन
 दिक्कत यह है कि तुम दोनों
अपनी बात को पक्का करने के लिए
विवेकानंद , महात्मा गांधी , मार्टिन लूथर
जैसों के नाम भी उच्चारते रहते हो

तुम दोनों यार
विवेकानंद , महात्मा गांधी , मार्टिन लूथर
या इन जैसे लोगों को बख्श नहीं सकते 
यह तुम्हारे बाज़ार का तिलिस्म और इस का राक्षस
क्या कम पड़ता है लोगों को लुभाने और छलने के लिए
यह राजा का बाजा बजाने वाली मीडिया
क्या कम पड़ती है तुम लोगों का ईगो मसाज करने के लिए
जो इन गरीब और संत लोगों का नाम भी
तुम लोग लेने लगते हो

तुम दोनों जो अपनी दोस्ती का दाना बिछा कर
दुनिया को फ़रेब की चाशनी में चाभ कर
मीडिया को अपनी लंगोट में बांध कर
अपने-अपने जादू का तमाशा दिखा रहे हो
तुम दोनों को क्या लगता है कि समूची दुनिया एक कबूतर है
और तुम दोनों बहेलियों के जाल में फंस जाएगी

यह ठीक है कि तुम झूठ और गप्प के मामले में
इस सदी के सब से बड़े आचार्य हो
आचार्य श्रेष्ठ
तुम्हारे झूठ के सलीके पर बड़े-बड़े सदके मारते हैं
निसार हैं तुम पर
तुम्हारे सलीकेदार झूठ और गप्प पर
ऐतबार भी न करें तो करें भी क्या लोग

अच्छा कभी अपने यार ओबामा से अपनी गप्प में
तुम ने कभी कहा नहीं क्या कि
यह आतंकवाद की फैक्ट्री पाकिस्तान को
करोड़ो डॉलर की इमदाद और हथियार देना बंद कर दो यार
हमारा देश इस से बहुत मुश्किल में है
हमारे देश की देह का एक हिस्सा कश्मीर बहुत घायल है
इस देह में और भी बहुत से घाव हैं
पाकिस्तान की ख़ुराफ़ात से
बंद करो उस मुए पाकिस्तान को सारी इमदाद
तुम्हारी इफ़रात और हराम की यह इमदाद
हमारे देश को तहस-नहस कर रही है

तुम ने कहा नहीं कि
उस ने सुना नहीं
क्या पता

तुम कहते हो कि बातों को परदे में रहने दो
रहने देते हैं
सियासी और कूटनीतिक बातों में वैसे भी फ़रेब बहुत होता है
इस हलके में
अश्वत्थामा मरो , नरो वा कुंजरो की भाषा और रवायत बहुत पुरानी है
सो मान लेते हैं यह परदेदारी भी

अच्छा तुम बताते ही रहते हो जब-तब कि
कभी तुम चाय बेचते थे
तुम्हारे दोस्त का दादा भी रसोइया था
तुम भी पिछड़ी जाति से आते हो
तुम्हारा दोस्त भी ब्लैक है
दोनों की यातना और दोनों के संघर्ष का संयोग
तुम दोनों की दोस्ती का रंग और गाढ़ा करता है
पर अब यह दुःख , यह संघर्ष अब अतीत है
और सुख के दिनों में
अतीत का दुःख भी कई दफ़ा सुख बन कर छलकता है
छलक ही रहा है तुम दोनों दोस्तों के दर्प में
लेकिन वर्तमान का दुःख , दुःख ही छलकाता है , सुख नहीं

यक़ीन न हो तो
आज वर्तमान के किसी चाय वाले से ही कभी बात कर लो
गप्प मार लो और पूछ लो उस से धीरे से
कि तुम्हारी अपनी चाय का खर्च भी कैसे चलता है
तुम्हारे घर की रोटी , दाल और सब्जी कैसी चल रही है
दवा दारु का इंतज़ाम कैसे करते हो

जानते हो
वह रो पड़ेगा ,
तुम्हारे गप्प में वह साथ नहीं दे पाएगा
मंहगाई , भ्रष्टाचार और तुम्हारे झूठ , तुम्हारे गप्प के भार में
दबा-कुचला वह तुम्हारे गप्प से त्राहिमाम कर लेगा

अच्छा कभी अपनी मां या छोटे भाइयों से भी तुम्हारी बात नहीं होती
मां तो तुम्हारी बर्तन साफ करती थी तुम्हारे बचपन में
अभी भी बहुत ठाट-बाट से नहीं रहती
तो तुम्हारी मां या भाई भी तुम्हें खाने-पीने की चीज़ों के बढ़े दाम नहीं बताते
नहीं बताते कि दिसंबर-जनवरी में दस-पांच रुपए किलो में बिकने वाली मटर
इस बरस पचास रुपए किलो बिक रही है , टमाटर तीस
नहीं बताते तुम्हें कि काजू बादाम सोने के भाव बिक रहा
काजू बादाम के भाव दाल और सब्जी बिक रही है
दाल के भाव पर आटा और आटे के भाव भूसा बिक रहा है
कैसे तो मूलभूत चीज़ें भी आम आदमी के हाथ से निकल गई हैं
अस्पताल और स्कूल अब सब की पहुंच से बाहर हो कर
लूट के नए अड्डे बन गए हैं

खैर छोड़ो
अब यह सब तुम्हारे वश और कौशल का काम नहीं रहा

जीवन और दिनचर्या वैसे भी
किसी गप्प , किसी कूटनीति से नहीं चलती
राजनीतिक दांव-पेंच से नहीं चलती
किसी जादू और तमाशे से नहीं चलती
फ़रेब की चाशनी में चाभ कर
मीडिया को लंगोट में बांध कर नहीं चलती
मंहगाई तुम्हारे लिए सूचकांक होती है ,
आंकड़ेबाज़ी का खेल होती है
लेकिन एक छोटी सी  रुपए , दो रुपए की मंहगाई भी
बहुतायत लोगों की छोटी सी दुनिया कैसे बदल देती है
कितना उथल-पुथल से भर देती है
चाय वाले प्रधानमंत्री तुम क्या जानो

यहां लोग ग़रीबी , मंहगाई , कुपोषण ,
सांप्रदायिकता , जातीय जहर , आतंकवाद से छटपटा रहे हैं
और तुम हो कि गप्प मार रहे हो
कैसे मार लेते हो तुम लोग ऐसे में कोई गप्प भी

वह भी उस हिंसक देश के राष्ट्रपति से गप्प मारते हो
जिस ने समूची दुनिया को कसाईबाड़े में तब्दील कर दिया हो
अपना हथियार बेचने के लिए , अपनी दादागिरी जमाने के लिए

तुम ने सुने ही होंगे धर्मराज युधिष्ठिर के किस्से
नहीं सुने हैं तो सुन लो और जान लो
उस ने भी ऐसे ही कई छल और गप्प के कई कीर्तिमान रचे थे
छोटे भाई ने औरत जीती , मां ने कहा बांट लो
बांट लिया
लेकिन पहले मां को यह नहीं बताया कि औरत जीत कर लाए हैं
फिर उस औरत को भी भरी सभा में जुए में दांव पर लगा कर हार गया
गुरु के साथ भी छल किया
अश्वत्थामा मरो , नरो वा कुंजरो की भाषा में
वह भी धर्मराज था , तुम भी प्रधानमंत्री हो
उस का भी दोस्त कृष्ण था , जैसे तुम्हारा ओबामा है
सॉरी  तुम उसे बराक कहते हो
बराक यानी आशीर्वाद प्राप्त शख़्स
कृष्ण तो सब को आशीर्वाद ही देता था


अच्छा कभी भूल कर भी तुम से किसी गप्प में
वह यशोदा बेन के बारे में नहीं पूछता
पूछता है तो तुम किस तरह उस का सामना करते हो
और डिप्लोमेसी की किस तरकीब से उसे टालते हो
किस जादू से उस पर परदा डाल देते हो
देश जानना चाहता है

तो हे इवेंट मैनेजमेंट के राजा 
कार्पोरेट की आवारा पूंजी के बाजा
निश्चित ही तुम एक सफल आदमी हो , सफल राजनीतिज्ञ भी
एक तुम ही क्या
दुनिया के हर हलके में आज
जो जितना बड़ा नौटंकीबाज़ है
झूठा , गपोड़ी और जालसाज है
जो जितना बड़ा चालबाज़ और करिश्मेबाज़ है
जो जितना बड़ा फ़रेबी और मक्कार है
वही अव्वल है , वही टॉपर है , वही रंगबाज़ है
ज़माना उसी का है, इवेंट मैनेजमेंट का है
तुम्हें यह तुम्हारा ज़माना , यह ओबामा मुबारक़  !

[ 29  जनवरी , 2015 ]

Thursday, 22 January 2015

राजनीति में ललकार और चुनौती की भाषा से आदमी तो आदमी पार्टी की पार्टी मटियामेट हो जाती है

 कुछ और फ़ेसबुकिया नोट्स 

  • एक समय दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल जैसे कांग्रेसी अहंकारियों ने अन्ना के नेतृत्व में चल रहे इंडिया अगेंस्ट करप्शन के लोगों को ललकारा कि ऐसे ही देश बदलना है तो राजनीति में आ कर देखें। आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा। अन्ना हजारे कांग्रेस की इस शकुनी चाल को समझते थे । सो साफ कह दिया कि राजनीति की गंदगी में नहीं जाना। ममता बनर्जी के साथ जाने वाली क्षणिक फिसलन को छोड़ दें तो वह अभी तक इस पर कायम हैं । लेकिन अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा ज़ोर मार गई और वह अन्ना को धता बता कर आम आदमी पार्टी बना बैठे। एक आंदोलन का गर्भपात हो गया । तो भी अरविंद को क्षणिक सफलता मिली जिस को वह अपनी अति महत्वाकांक्षा में संभाल नहीं पाए। अब इस चुनाव में दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल की तरह भाजपा को ललकारने लगे कि आप के पास दिल्ली का चेहरा कौन है ! अब किरन बेदी चेहरा बन कर आ गईं तो उन को मुश्किल हो गई। राजनीति में ही क्या ज़िंदगी में भी ललकार और चुनौती की भाषा एक हद तक ही चलती है। क्यों कि इस का परिणाम घातक होता है । मिटटी पलीद हो जाती है । आदमी तो आदमी पार्टी की पार्टी मटियामेट हो जाती है किस्मत कांग्रेस हो जाती है , अरविंद केजरीवाल हो जाती है ! इतनी कि घर में कलह हो जाती है। शांति भूषण की जिरह सामने आ जाती है ।जनार्दन द्विवेदी की घुटन सामने आ जाती है , बिन्नी और शाजिया इल्मी की बगावत सामने आ जाती है। सतीश उपाध्याय की फज़ीहत सामने आ जाती है। सोचिए कि अरविंद की ज़रा जल्दबाज़ी देखिए कि बिजली कम्पनियों वाला सतीश उपाध्याय पर आरोप अगर वह उन के नामिनेशन के बाद लगाए होते तो क्या सीन होता ? लेकिन हर बार वही बनारस जाने की हड़बड़ी , तिस पर अहंकार और तानाशाही के नित नए आरोप उन्हें इतना मुश्किल में दाल देते हैं कि शांति भूषण और प्रशांत भूषण जैसे पिता-पुत्र आमने सामने आ जाते हैं। अरविंद केजरीवाल ने सचमुच भारतीय राजनीति को एक दिलचस्प बना कर एक नया आस्वाद दे दिया है। तो भी काश कि अरविंद केजरीवाल , दिग्विजय सिंह या कपिल सिब्बल जैसे लोग कबीर का यह कहा भी जान लेते कि :
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
  • दिल्ली विधान सभा चुनाव में इस बार टी वी चैनल खुल्लमखुल्ला अरविंद केजरीवाल की आप और भाजपा के बीच बंट गए हैं। एन डी टी वी पूरी ताकत से भाजपा की जड़ खोदने और नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोकने में लग गया है। न्यूज 24 है ही कांग्रेसी। उस का कहना ही क्या ! इंडिया टी वी तो है ही भगवा चैनल सो वह पूरी ताकत से भाजपा के नरेंद्र मोदी का विजय रथ आगे बढ़ा रहा है। ज़ी न्यूज , आज तक , आई बी एन सेवेन , ए बी पी न्यूज वगैरह दिखा तो रहे हैं निष्पक्ष अपने को लेकिन मोदी के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाने में एक दूसरे से आगे हुए जाते हैं। सो दिल्ली चुनाव की सही तस्वीर इन के सहारे जानना टेढ़ी खीर है। जाने दिल्ली की जनता क्या रुख अख्तियार करती है।

  • पत्रकारिता में गीदड़ों और रंगे सियारों की जैसे भरमार है। एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं। जब लोगों की नौकरियां जाती हैं या ये खा जाते हैं तब तक तो ठीक रहता है। लोगों के पेट पर लात पड़ती रहती है और इन की कामरेडशिप जैसे रजाई में सो रही होती है। लेकिन प्रबंधन जब इन की ही पिछाड़ी पर जूता मारता है तो इन का राणा प्रताप जैसे जाग जाता है।
देखिए कि आईबीएन सेवेन के पंकज श्रीवास्तव कैसे तो अपनी मुट्ठी तानने का सुखद एहसास घोल रहे हैं। लेकिन जब अभी बीते साल ही जब सैकड़ो लोग आईबीएन सेवेन से एक साथ निकाल दिए गए थे तब इनकी यह तनी हुई मुट्ठियां इन के लाखों के पैकेज में विश्राम कर रही थीं। कमाल है! ऐसे हिप्पोक्रेसी के मार पर कौन न कुर्बान हो जाए! पढ़िए ये क्या लिख रहे हैं अपने फेसबुक वॉल पर...

''बहरहाल मेरे सामने इस्तीफा देकर चुपचाप निकल जाने का विकल्प भी रखा गया था। यह भी कहा गया कि दूसरी जगह नौकरी दिलाने में मदद की जाएगी। लेकिन मैंने कानूनी लड़ाई का मन बनाया ताकि तय हो जाये कि मीडिया कंपनियाँ मनमाने तरीके से पत्रकारों को नहीं निकाल सकतीं। इस लड़ाई में मुझे आप सबका साथ चाहिये। नैतिक भी और भौतिक भी। बहुत दिनों बाद 'मुक्ति' को महसूस कर रहा हूं। लग रहा है कि इलाहाबाद विश्वविदयालय की युनिवर्सिटी रोड पर फिर मुठ्ठी ताने खड़ा हूँ।''
http://bhadas4media.com/edhar-udhar/3407-kachra-pankaj


  • ज़माने बाद आज अन्ना हजारे खबरों में दिखे तो इस पुराने लेख की याद आ गई। इसी नाम से मेरे राजनीतिक लेखों की किताब भी दो साल पहले आई थी। अन्ना अब कह रहे हैं कि जनलोकपाल की लड़ाई अब अकेले लड़ेंगे। दिल्ली विधान सभा चुनाव के बाद।
http://sarokarnama.blogspot.in/2012/08/blog-post_8.html


  • देख लेना,कबूतरबाज,तीतरबाज,पतंग उड़ाने वाली जहनियत रखने वाले लोग विश्वविद्यालयों में आचार्य बन जायेंगे।विश्वविद्यालय का नमक खाया है,इस लिए दुख होता है।
- फ़िराक गोरखपुरी


  • आज टी वी पर दिल्ली में किरन बेदी को लाजपत राय की धूल लगी प्रतिमा को साफ करते देख फिराक गोरखपुरी की याद आ गई। एक बार तब की इलाहबाद नगर पालिका ने फ़िराक की प्रतिमा लगाने की ठानी। फ़िराक जीवित थे सो उन से अनुमति मांगने के लिए एक पत्र ले कर नगरपालिका का एक कर्मचारी गया उन के पास। फ़िराक उस समय अपने घर से रिक्शे से कहीं जा रहे थे । रिक्शे पर बैठे-बैठे फ़िराक ने कर्मचारी ने से पूछा कि काम क्या है ? प्रतिमा लगाने की बात सुनते ही फिराक गुस्से से फट पड़े। बोले , क्या पक्षियों को बीट करने के लिए मेरी प्रतिमा लगाओगे ? गुस्से से लाल-पीले होते हुए वह चले गए। यह दृश्य सरदार ज़ाफरी द्वारा फ़िराक पर बनाई डाक्यूमेंट्री में बहुत दिलचस्प ढंग से फिल्माया गया है । पूरी तल्खी और तुर्शी के साथ।

Sunday, 18 January 2015

लेकिन जीतन राम मांझी कतई किसी भी सूरत में नीतीश के भरत नहीं हैं

कुछ फेसबुकिया नोट्स 


  • नीतीश कुमार तो अब लद गए । पहले नरेंद्र मोदी से मोर्चा खोल कर मुंह की खाए ही थे , अब उन के खड़ाऊं राज के प्रतीक जीतन राम मांझी ने भी उन्हें जोर का झटका धीरे से दे दिया है। नीतीश नाम की माला फेर-फेर कर ही उन को बड़ा सा दर्पण दिखा दिया है। अभी एक न्यूज चैनल पर उन का इंटरव्यू देख कर यह तो पता चल ही गया है कि जीतन राम मांझी न सिर्फ़ घुटे हुए राजनीतिक खिलाड़ी हैं बल्कि बहुत शातिर भी हैं। नीतीश ने उन्हें अपना खडाऊं भले दिया हो कभी लेकिन जीतन राम मांझी कतई किसी भी सूरत में नीतीश के भरत नहीं हैं , न कभी साबित होंगे । उन्हों ने बिना तलवार निकाले नीतीश कुमार को चुनौती भी दे दी है। उन के निशाने पर नीतीश ही नहीं , लालू प्रसाद यादव भी हैं। उन का दलित कार्ड ही उन की तलवार है। बहुत मुश्किल है जीतन राम मांझी को मूली की तरह किसी के द्वारा उखाड़ पाना। जीतन राम मांझी बहुत परिपक्व और बहुत घाघ राजनेता हैं । नीतीश से हर हाल में बीस हैं जीतन राम मांझी । और बिहारी नेताओं की तरह बड़बोलेपन में भभक कर बुझ जाने के लिए वह पैदा नहीं हुए हैं। उन का इंटरव्यू बताता है कि वह लंबी रेस के घोड़े हैं। बिहार में इतनी समझदारी से बात करने वाला कोई मुख्यमंत्री बहुत दिनों बाद दिखा है। सच बताऊं मैं तो जीतन राम मांझी का फैन हो गया हूं इस इंटरव्यू को देखने के बाद। अपने दलित एजेंडे पर सख्ती से कायम रहते हुए भी अतिशय सदाशयता से बात करने वाले दलित नेताओं में जीतन राम मांझी मेरी जानकारी में मौजूदा दौर में इकलौते हैं।


  • वैसे देखना दिलचस्प होगा कि अरविंद केजरीवाल अभिमन्यु साबित होते हैं कि अर्जुन ! चक्रव्यूह तो चौतरफा रच दिया गया है। कांग्रेस , भाजपा और अपने ' आप' के लोग भी नित नए चक्रव्यूह रच रहे हैं । भाजपा से ज़्यादा कांग्रेस उन पर हमलावर हो गई है। जाने दिल्ली की जनता उन के साथ क्या सुलूक करने वाली है !

  •  
तुम्हें नहीं मालूम
कि जब आमने सामने खड़ी कर दी जाती हैं सेनाएं
तो योग और क्षेम नापने का तराजू
सिर्फ़ एक होता है
कि कौन हुआ धराशायी
और कौन है
जिसकी पताका ऊपर फहराई
कन्हैया लाल नंदन की यह कविता आज के राजनितिक परिदृश्य के मद्दे नज़र बड़ी शिद्दत से याद आ रही है । बाक़ी विमर्श का कोई मतलब या कोई हासिल नहीं है। सिर्फ़ टाइम पास है।


  • किरन बेदी के भाजपा में आ जाने से अरविंद केजरीवाल और उन की पार्टी आप से ज़्यादा, दिल्ली भाजपा नेताओं से ज़्यादा बाक़ी लोग ज़्यादा परेशान हैं। बहुत ज़्यादा परेशान हैं । लेकिन क्यों परेशान हैं यह लोग ?


  • अब अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बनें या किरन बेदी। ठप्पा तो अन्ना हजारे का ही रहेगा ! आम आदमी या भाजपा का नहीं। इन दोनों की सामाजिक जीवन में पहचान तो अन्ना के समर्थक के तौर पर ही है । भले आज की टी वी पत्रकारिता के दौर में अन्ना सीन से बाहर हों ।


  • अब अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बनें या किरन बेदी। ठप्पा तो अन्ना हजारे का ही रहेगा ! आम आदमी या भाजपा का नहीं। इन दोनों की सामाजिक जीवन में पहचान तो अन्ना के समर्थक के तौर पर ही है । भले आज की टी वी पत्रकारिता के दौर में अन्ना सीन से बाहर हों ।

जिस तरह से नामी गिरामी लोग बीजेपी के साथ जा रहे है, मुझे लगता है कि कहीं 26 जनवरी को अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा भी लाल किले से पार्टी में शामिल होने की घोषणा न कर दें..पार्टी और साहिब की नीतियों से प्रभावित हो कर...


  • बताइए कि तब भी दलितोत्थान के मारे कुछ मूर्ख पंडित मदन मोहन मालवीय को ब्राह्मणवादी और दलित विरोधी बता कर उन्हें गरियाते हुए नहीं थकते ।


महामना मालवीयजी आरा[बिहार] गये।जगजीवनराम प्रतिभाशाली छात्र थे, इसलिये मालवीयजी को मानपत्र जगजीवनरामजी से दिलवाया गया।मालवीयजी प्रतिभा के पारखी तो थे ही,पहचान गये ,बोले >तुम आगे की पढाई के लिये काशीहिन्दू विश्वविद्यालयमें आजाओ!जगजीवनराम विश्वविद्यालयमें दाखिल हो गये,छात्रावास में भी जगह मिल गयी।लेकिन बरतन-वाले ने कहा कि > हम इस निम्न के बरतन नहीं धोयेंगे! नौकरी जाये तो जाये! बात मालवीयजी तक पंहुची ,वे बोले >जगजीवनराम हमारे घर पर रहेगा,और इसके जूठे बरतन मैं धोऊंगा।जगजीवनराम गद्गद हो गये ,बोले घर पर तो अपने बरतन मैं धोलूंगा छात्रावास में धोना तो अपमान है!यहां तो सब बराबर हैं! बात बरतन-वाले तक पंहुच गयी।वह आकर बोला> इया नाईं हुइ सकति हमारी अकड ते महाराजजी को ऐस दुख पंहुचै।हम बरतन ध्वावैं मां कौनिउ आनाकानी न करब।मालवीय जी ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर शाबाशी दी।


  • पहले राऊंड में तो किरन बेदी ने अरविंद केजरीवाल को बैकफुट पर ला दिया है। खुदा न खास्ता अगर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ वह चुनाव लड़ गईं तो केजरीवाल चुनाव भी पक्का हार जाएंगे। वैसे नरेंद्र मोदी इतने मूर्ख नहीं हैं । वह किरन बेदी को केजरीवाल के खिलाफ उतारने का रिश्क शायद ही लें । रही बात भाजपाइयों की तो भाजपा के बड़े-बड़े लोकल नेताओं को तो किरन बेदी ने जैसे नाथ ही दिया है। सब चुप-चाप ताली बजाने में मशगूल हो गए हैं । विजय कुमार मल्होत्रा , हर्षवर्धन , विजय गोयल , सतीश उपाध्याय , आरती मेहरा आदि सब के सब मुंह बाए भकुआ गए दीखते हैं। किरण बेदी दिल्ली की पुलिस कमिश्नर भले नहीं बन पाईं, दिल्ली भाजपा की कमिश्नर तो फ़िलहाल बन गई है।


  • अब बताईए भला कि सुबह शाम अकलियत की बात करने वाले अमर सिंह और उन की सखी जयाप्रदा भी भाजपा की ओर पेंग मारते हुए मोदी की प्रशंसा करने लगे हैं। यह वही अमर सिंह हैं जो एक समय बटाला हाऊस इनकाऊंटर को फर्जी बताने में दिग्विजय सिंह के साथ कंधे से कंधा मिला कर आग मूत रहे थे। अकलियत की बात करने में वह एक समय सपा में आजम खान के भी कान काट रहे थे। अब वह भाजपा में जाने के लिए जयाप्रदा को अग्रिम आशीर्वाद दे रहे हैं ।


  • कभी टेनिस की राष्ट्रीय चैम्पियन रहीं देश की पहली महिला आई पी एस किरन बेदी के राजनीति में आने को मैं शुभ मानता हूं। पढ़े-लिखे , बहादुर और ईमानदार लोगों का राजनीति में आना बहुत ज़रूरी है । देश और राजनीति में सार्थक बदलाव इसी तरह आएगा। अब यह भाजपा का मास्टर स्ट्रोक है या दिल्ली के नए मुख्यमंत्री की आहट यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी। तो भी दिल्ली का मुख्यमंत्री चाहे अरविंद केजरीवाल बनें या किरन बेदी दिल्ली और देश की राजनीति के लिए यह बहुत शुभ होगा। दोनों ही ईमानदार हैं और बहादुर भी। अब यह तो दिल्ली की जनता जनार्दन के हाथ है। लेकिन मैं किरन बेदी को नंबर एक पर रखना चाहूंगा। अरविंद को नंबर दो पर रखूंगा । इस लिए कि उन में लड़ने की क्षमता तो है , लेकिन सत्ता संभालने और प्रशासन की समझ नहीं है उन में । झख से आंदोलन तो चल सकते हैं प्रशासन नहीं । मैं उन दिनों दिल्ली में ही रहता था जब किरन बेदी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की कार भी क्रेन से उठवा लिया था । क्यों कि कार गलत जगह पार्क थी । तब वह एस पी ट्रैफिक हुआ करती थीं दिल्ली की। उन दिनों उन का नाम किरन बेदी से बदल कर क्रेन बेदी रख दिया था दिल्ली की जनता ने। बाद में कांग्रेस के हरिकिशन लाल भगत जैसे लोगों ने किरन बेदी के लिए लगातार मुश्किलें खड़ी कीं लेकिन किरन बेदी कभी झुकीं नहीं । किसी पुलिस अधिकारी का किसी सत्ता के साथ लड़ना बहुत आसान तो नहीं होता । पर किरन बेदी आख़िरी दम तक लड़ती रहीं । कभी झुकीं नहीं । बाद के दिनों में किरन बेदी को केंद्रित कर एक फिल्म बनी तेजस्विनी। जो चली भी और चर्चित भी खूब हुई । किरन बेदी जब तिहाड़ जेल में तैनात की गईं परेशान करने के लिए तो इस मौके को भी उन्हों ने अवसर बना लिया । तिहाड़ के कैदियों का जीवन बदल दिया । कई लोकप्रिय और कल्याणकारी योजनाएं कैदियों के लिए बनाईं । उन को सुधारने के लिए भी कार्यक्रम बनाए। लेकिन उन को कांग्रेस लगातार परेशान करती रही थी और अंतत: उन्हें दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बनने दिया। उन को अपमानित करते हुए उन से दो साल जूनियर को पुलिस कमिश्नर बना दिया। आज़िज आ कर किरन बेदी ने वी आर एस ले लिया और बाद में अन्ना आंदोलन में कूद गईं । अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा में अन्ना आंदोलन बिखर गया। किरन बेदी घर बैठ गईं। आज वह घर से बाहर निकल कर राजनीति में आ गई हैं तो भाजपा से अपनी तमाम असहमतियों के बावजूद किरन बेदी का राजनीति में आना मैं शुभ मानता हूं ! किरन बेदी को बधाई देना चाहता हूं।


  • तेजेंद्र जी , पूरी तरह सहमत। नौकरी तो बहुत लोग करते हैं। पर बृजेंद्र त्रिपाठी साहित्य अकादमी की नौकरी ही नहीं साहित्य को जीवन की तरह जीते हैं। वह न सिर्फ़ बहुत अच्छे कवि हैं बल्कि बहुत अच्छे अनुवादक भी हैं। मैं ने उन का काव्यपाठ तो सुना ही है , उन के द्वारा अनूदित कविताओं का पाठ भी सुना है । बृजेंद्र त्रिपाठी बहुत अच्छे आयोजक भी हैं और कार्यक्रमों के संचालक भी । वह प्रेक्षक भी बहुत शार्प हैं । उन के पास इतने अनुभव , इतनी यादें और इतनी सूचनाएं हैं , लोगों की कहानियां हैं कि अगर वह रचें तो जाने कितनी पुस्तकें तैयार हो जाएं। इतनी सहिष्णुता , सहनशीलता और शालीनता बहुत कम लोगों को प्रकृति देती है , जितनी बृजेंद्र त्रिपाठी को दी है । सौ बात की एक बात यह भी कि वह बहुत अच्छे और सरल आदमी हैं। मैं नहीं जानता कि बृजेंद्र त्रिपाठी से कभी कोई नाराज भी हो सकता है। बताते हुए ख़ुशी होती है कि गोरखपुर में मेरे गांव के बहुत पास ही उन के पुरखों का गांव सोहगउरा है । और वह आज से नहीं बहुत समय से आचार्यों का गांव है। पंडित विद्या निवास मिश्र , राम दरश मिश्र , मन्नन द्विवेदी और जीवन जी जैसे आचार्यों के गांव भी आस-पास ही हैं । Brajendra Tripathi


मित्रो (सहनशीलता-श्री कौन)
पिछले दिनों किसी से बातचीत चल रही थी कि सहनशीलता की सीमा क्या हो सकती है। कोई मानता है कि पत्नी जितना जीवन भर में सहती है शायद ही कोई और उसका मुक़ाबला कर सकता है।
मैनें भी इस विषय पर गहन विचार किया। मेरे हिसाब से हिन्दी साहित्य जगत में यदि हम किसी को सहनशीलता-श्री का सम्मान देने के बारे में सोचें तो केवल एक ही नाम सामने आता है - बृजेन्द्र त्रिपाठी Brajendra Tripathi। यह व्यक्ति साहित्य अकादमी में हर कहानीकार की कहानियां सुनने को अभिशप्त है। स्वयं कवि हो कर भी अन्य कवियों की कविताएं सुनने की मजबूरी है। साहित्य चाहे देसी हो या प्रवासी इस बन्दे की नियति केवल और केवल सुनना है।
चेहरे पर बिना कोई भाव लाए हल्की सी मुस्कुराहट लिये बस सुनता रहता है। किसी के प्रति बदले की भावना नहीं रखता। अपनी सहज सरल मीठी भाषा में बात करता है। - क्या आप मेरी बात से सहमत हैं......


  • शेर अगर पिंजड़े में हो तो कोई कुत्ता भी उसे ललकार सकता है !


  • यह तो शार्ली आब्दी का सरासर अपमान है !
हमारे भारतीय समाज में ही नहीं पूरी दुनिया में ही लेखक वर्ग अपनी सहिष्णुता , अपने प्रतिरोध और न झुकने के लिए जाना जाता है । इस के एक नहीं अनेक उदाहरण हैं । भारत में भी , दुनिया में भी। लेखक टूट गए हैं , बर्बाद हो गए हैं पर झुके नहीं हैं । अपनी बात से डिगे नहीं हैं । व्यवस्था और समाज से उन की लड़ाई सर्वदा जारी रही है । हर कीमत पर जारी रही है । इसी अर्थ में वह लेखक हैं । लेकिन इधर कुछ लेखकों में पलायनवादिता की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है । इन लेखकों में एक सब से बड़ी दिक्कत आई है तानाशाही प्रवृत्ति की । इस तानाशाही ने लेखक बिरादरी का बड़ा नुकसान किया है । तानाशाही इस अर्थ में कि हम जो कहें वही सही । अगर भूले से भी कोई असहमत हो जाए उन के कहे से या लिखे से तो यह लेखक बलबला जाते हैं । ऐसे गोया उन पर कितना बड़ा अत्यचार हो गया हो ! भाई वाह ! आप का विरोध , विरोध है दूसरे का विरोध अत्याचार ! इतनी भी सहिष्णुता शेष नहीं रह गई है कि आप किसी का विरोध भी न सह सकें अपने लिखे को ले कर तो आप लेखक हैं किस बात के ? ऐसे ही समाज से और व्यवस्था से लड़ेंगे और कि उसे बदलेंगे ? इस तरह छुई-मुई बन कर ? इतनी भी रीढ़ आप में अगर बाकी नहीं रह गई है कि किसी का विरोध न सह सकें आप तो क्या डाक्टर ने कहा है कि आप लेखक बने रहिए ? बात यहीं तक नहीं है अंगुली कटवा कर शहीद बनने कि ललक भी लेखकों में बहुत तेज़ी से बढ़ी है । तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन का मामला ताज़ा-ताज़ा है । मैं ने मुरुगन कि कोई रचना नहीं पढ़ी है । लेकिन उन के बाबत फेसबुक पर भेड़िया धसान देख रहा हूं। सुना है अंग्रेजी चैनलों पर भी चर्चा कुचर्चा है । लेकिन सब से ज़्यादा हैरतंगेज है मुरुगन कि तुलना शार्ली आब्दी से कर देना । लोगों को इतनी तमीज भी नहीं है कि शार्ली आब्दी को बरसों से धमकियां मिल रही थीं , इस्लामी संगठनों से लेकिन उस टीम ने अपनी जान दे दी पर अपना काम, अपना विरोध नहीं छोड़ा। मारे जाने के बाद भी उन का वह काम उन के साथी पूरी ताकत से जारी रखे हैं । बिना डरे और बिना झुके । और मुरुगन कि बहादुरी देखिए कि एक विरोध का प्रतिकार वह फेसबुक पर अपने लेखक के मरने की कायराना घोषणा कर के देते हैं । और उन के अंध समर्थक जो उन्हें कभी पढ़े भी नहीं हैं , उन्हें शार्ली आब्दी घोषित कर देते हैं । यह तो कोई बात नहीं हुई दोस्तों ! यह तो शार्ली आब्दी का सरासर अपमान है !


  • दिल्ली विधानसभा चुनाव में मौलाना लोग बहुत तेज़ी से लामबंद हो रहे हैं । इन के पास ज़रा भी अकल नहीं है । अगर खुदा न खास्ता भाजपा के खिलाफ मुसलामानों से आम आदमी पार्टी को वोट देने का फतवा जारी कर दिया इन मौलाना लोगों ने तो जो अरविंद केजरीवाल अभी तक बढ़त बनाए दिख रहे हैं , औंधे मुंह गिरेंगे। यह मौलाना लोग कहीं हिंदू वोटों को पोलराइज करने के लिए नरेंद्र मोदी के ट्रैप में तो नहीं फंस गए हैं ? इस लिए भी कि भाजपा दिल्ली में पांच से अधिक मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने जा रही है । इन में से कुछ पूर्व आपिये भी हैं। नरेंद्र मोदी जैसा बहेलिया अभी तक भारतीय राजनीति में तो नहीं देखा गया। मुसलमानों की खिलाफत ने ही इस बहेलिये को इतना ताकतवर बनाया है यह मौलाना लोग अभी तक नहीं समझ पाए , यह तो हद्द है !


  • यह भी अजब अंतर्विरोध है कि जो लोग शरीयत के नाम पर चार पत्नी रखने की पैरवी करते हैं और औरतों को जीते जी नरक के सिपुर्द कर देते हैं वह लोग भी इन इन साक्षी और साध्वियों जैसे मूर्खों के चार बच्चों वाले बयान पर घायल हुए जा रहे हैं। जनसंख्या विस्फोट समूची दुनिया के लिए सरदर्द है। सवाल यह भी है कि धर्मांतरण के मुद्दे पर क़ानून बनाने की बात करने वाली भाजपा दो बच्चों से अधिक बच्चे न पैदा करने के बाबत क़ानून क्यों नहीं बना देती ? और ऐसे अराजक बयान जारी करने वाले साक्षियों और साध्वियों का कान ठीक से क्यों नहीं गरम कर देती कि इन की बोलती बंद हो जाए !

नरेश सक्सेना का सतहत्तरवां जन्म-दिन और विवादों और मतभेदों की तुर्शी

नरेश सक्सेना के साथ

लखनऊ के साहित्यिक हलके में विवादों और मतभेदों की तुर्शी हरदम तारी रहती है । नरेश सक्सेना इस विवाद के आकाश में अभी नए केंद्र हैं । रायपुर साहित्य समारोह में जा कर वह विवाद के घेरे में आए हैं ।  वीरेंद्र यादव ने जनसत्ता में लेख लिख कर इस पर गहरा हस्तक्षेप किया । नरेश सक्सेना ने इस पर तीखा प्रतिवाद किया । वाद , विवाद अभी जारी है । इसी बीच 16 जनवरी को नरेश सक्सेना का सतहत्तरवां जन्म-दिन मनाया गया समारोहपूर्वक । इस मौके पर रेवांत पत्रिका ने एक शाम कविता के नाम लखनऊ के जयशंकर प्रसाद सभागार में आयोजित किया । शहर के लेखक , कवि इकट्ठे हुए । विवाद भूल कर वीरेंद्र यादव भी । उन्हें बुके के साथ बधाई दे कर वह गले मिले । यह सुखद था । होना भी यही चाहिए । वाद-विवाद अपनी जगह , जीवन अपनी जगह । लेकिन विवाद जैसे इन दिनों नरेश सक्सेना के साथ-साथ चलने के अभ्यस्त हो गए हैं ।  नलिन रंजन सिंह ने जो फेसबुक पर अपनी टिप्पणी दर्ज की है वह यहां  गौरतलब है । आप भी पढ़िए और इस मौके की कुछ फ़ोटो लुक कीजिए । 


माऊथ हॉर्गन बजाते नरेश सक्सेना
16 जनवरी को कवि नरेश सक्सेना जी का जन्म दिन था | इस अवसर पर 'रेवांत' पत्रिका की संपादक अनीता श्रीवास्तव की ओर से 'एक शाम कविता के नाम' कार्यक्रम का आयोजन किया गया था | रेवांत की ओर से दिए जाने वाले 'मुक्तिबोध' सम्मान के निर्णायकों में शामिल वीरेंद्र यादव और अखिलेश, रेवांत के प्रधान संपादक जन संस्कृति मंच के कौशल किशोर समेत शहर के तमाम साहित्यकार इस अवसर पर मौजूद थे | हम सब को उम्मीद थी कि नरेश जी की कोई नयी कविता सुनने को मिलेगी लेकिन कविता के बजाय नरेश जी ने 'प्यार हुआ इकरार हुआ' की धुन माउथ हार्गन पर सुनाई | हाँ उन्होंने समकालीन कविता के बारे में जो वक्तव्य दिया वह अवश्य निराशाजनक रहा | उन्होंने कहा-'मार्क्सवादी आलोचकों ने कविता का कबाड़ा कर दिया | कन्टेन्ट को इतना ठूँस देने की वकालत की कि फॉर्म की घोर उपेक्षा हो गयी |' उन्होंने कार्यक्रम में एक सस्वर गीत गाने वाली गायिका की चर्चा की और छंदों का महत्व बताया | उन्होंने कहा कि 'आजकल कविता लिखने वाले गद्य भी नहीं पढ़ते छंद क्या जानेंगे ?' अच्छी कविताओं का उदहारण देते हुए उन्होंने जिन कविताओं के हिस्से प्रस्तुत किये उनमें शब्दों का खेल अधिक था | चमत्कार पैदा करने वाली,शब्दों की पुनरावृत्ति करती हुयी लगभग तुकांत कवितायेँ बाल कवितायेँ अधिक लगीं | एक कविता तो वास्तव में एक बाल पत्रिका में छपी थी |ऐसा लगा जैसे वे फॉर्म के नाम पर शब्दों के खेल से रची हुयी मंचीय कविता के निकट खड़े हों |
नलिन रंजन सिंह
नरेश सक्सेना की तमाम कविताओं का मैं प्रशंसक हूँ | उनके कविकर्म पर 'अलाव' और 'उद्भावना' में मैं लिख चुका हूँ | लेकिन नरेश जी के वक्तव्यों से निराशा हुयी | कवि और आलोचक दोनों होना शायद आसान नहीं है | सच है, हर कोई मुक्तिबोध नहीं हो सकता | मुझे लगता है विचार,संवेदना और शिल्प - तीनों कविता के लिए जरुरी हैं | सही है कि सपाट बयानी के नाम पर सिर्फ गद्य या सिर्फ कन्टेन्ट कविता नहीं है; ठीक उसी तरह सिर्फ तुकबंदी,सिर्फ छंद चमत्कार या सिर्फ शब्दों के खेल से भी सार्थक कविता नहीं बनती | कविता के फॉर्म में बदलाव दुनिया भर में आया तो हिंदी कविता उससे अछूती कैसे रहती ! अगर कविता में विचार और संवेदना नहीं,कहन नहीं तो काहे की कविता ! सामान्य शब्दों से कथ्य को केंद्र में रखकर भी बड़ी कविता लिखी जा सकती है | ऐसी ही एक कविता नरेश जी के लिए -

कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह
बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?
क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया है
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल
पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।
(राजेश जोशी)

यहां दिलचस्प यह भी है कि जैसे नरेश सक्सेना ने अपने जन्म-दिन पर अपनी कविता पढ़ने के बजाय अपने प्रिय कवियों की कविताएं सुनाईं , माऊथ हॉर्गन सुनाया वैसे ही नलिन रंजन सिंह ने भी अपनी बात रखते हुए नरेश सक्सेना के लिए राजेश जोशी की कविता पेश कर दी है । गरज यह की चिंगारी अभी सुलगती रहेगी । ज़िक्र ज़रूरी है कि रायपुर साहित्य समारोह के बिना पर कुछ लोगों ने घोषित रूप से इस कार्यक्रम का बहिष्कार भी किया ।

काव्यपाठ करते हुए



Tuesday, 13 January 2015

क्षमा

    इस्लाम ने धर्म के नाम पर जितना रक्त बहाया है, उस में उस की सारी मसजिदें डूब जाएंगी।

यह प्रेमचंद का लिखा वाक्य है । जैसी संरचना आज के समाज और साहित्य की है यह वाक्य प्रेमचंद को सांप्रदायिक करार देने के लिए काफी है।  लेकिन प्रेमचंद न सिर्फ अपने समय के बल्कि आज के भी बड़े लेखक हैं तो अनायास ही नहीं हैं।  उन की यह कहानी आज भी सर्वकालिक और प्रासंगिक है । इस्लामी आतंकवाद आज अपने चरम पर है। इतना कि मनुष्यता खतरे में पड़ गई है । न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया में मार-काट मची है। ऐसे में प्रेमचंद की यह कहानी क्षमा का पाठ एक नया अंतर्पाठ खोलती है । मनुष्यता का पाठ। यहां प्रस्तुत है यह कहानी : 


क्षमा
प्रेमचंद
मुसलमानों को स्पेन-देश पर राज्य करते कई शताब्दियाँ बीत चुकी थीं। कलीसाओं की जगह मसजिदें बनती जाती थीं, घंटों की जगह अजान की आवाजें सुनाई देती थीं। ग़रनाता और अलहमरा में वे समय की नश्वर गति पर हँसनेवाले प्रासाद बन चुके थे, जिनके खंडहर अब तक देखनेवालों को अपने पूर्व ऐश्वर्य की झलक दिखाते हैं। ईसाइयों के गण्यमान्य स्त्री और पुरुष मसीह की शरण छोड़कर इस्लामी भ्रातृत्व में सम्मिलित होते जाते थे, और आज तक इतिहासकारों को यह आश्चर्य है कि ईसाइयों का निशान वहाँ क्योंकर बाकी रहा ! जो ईसाई-नेता अब तक मुसलमानों के सामने सिर न झुकाते थे, और अपने देश में स्वराज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे उनमें एक सौदागर दाऊद भी था। दाऊद विद्वान और साहसी था। वह अपने इलाके में इस्लाम को कदम न जमाने देता था। दीन और निर्धन ईसाई विद्रोही देश के अन्य प्रांतों से आकर उसके शरणागत होते थे और वह बड़ी उदारता से उनका पालन-पोषण करता था। मुसलमान दाऊद से सशंक रहते थे। वे धर्म-बल से उस पर विजय न पाकर उसे अस्‍त्र-बल से परास्त करना चाहते थे; पर दाऊद कभी उनका सामना न करता। हाँ, जहाँ कहीं ईसाइयों के मुसलमान होने की खबर पाता, हवा की तरह पहुँच जाता और तर्क या विनय से उन्हें अपने धर्म पर अचल रहने की प्रेरणा देता। अंत में मुसलमानों ने चारों तरफ से घेर कर उसे गिरफ्तार करने की तैयारी की। सेनाओं ने उसके इलाके को घेर लिया। दाऊद को प्राण-रक्षा के लिए अपने सम्बन्धियों के साथ भागना पड़ा। वह घर से भागकर ग़रनाता में आया, जहाँ उन दिनों इस्लामी राजधानी थी। वहाँ सबसे अलग रहकर वह अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में जीवन व्यतीत करने लगा। मुसलमानों के गुप्तचर उसका पता लगाने के लिए बहुत सिर मारते थे, उसे पकड़ लाने के लिए बड़े-बड़े इनामों की विज्ञप्ति निकाली जाती थी; पर दाऊद की टोह न मिलती थी।
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एक दिन एकांतवास से उकताकर दाऊद ग़रनाता के एक बाग में सैर करने चला गया। संध्या हो गयी थी। मुसलमान नीची अबाएँ पहने, बड़े-बड़े अमामे सिर पर बाँधे, कमर से तलवार लटकाये रबिशों में टहल रहे थे। स्त्रियाँ सफेद बुरके ओढ़े, जरी की जूतियाँ पहने बेंचों और कुरसियों पर बैठी हुई थीं। दाऊद सबसे अलग हरी-हरी घास पर लेटा हुआ सोच रहा था कि वह दिन कब आयेगा जब हमारी जन्मभूमि इन अत्याचारियों के पंजे से छूटेगी ! वह अतीत काल की कल्पना कर रहा था, जब ईसाई स्त्री और पुरुष इन रबिशों में टहलते होंगे, जब यह स्थान ईसाइयों के परस्पर वाग्विलास से गुलजार होगा।
    सहसा एक मुसलमान युवक आकर दाऊद के पास बैठ गया। वह उसे सिर से पाँव तक अपमानसूचक दृष्टि से देखकर बोला- क्या अभी तक तुम्हारा हृदय इस्लाम की ज्योति से प्रकाशित नहीं हुआ ?
    दाऊद ने गम्भीर भाव से कहा- इस्लाम की ज्योति पर्वत-शृंगों को प्रकाशित कर सकती है। अँधेरी घाटियों में उसका प्रवेश नहीं हो सकता।
    उस मुसलमान अरब का नाम जमाल था। यह आक्षेप सुनकर तीखे स्वर में बोला- इससे तुम्हारा क्या मतलब है ?
    दाऊद- इससे मेरा मतलब यही है कि ईसाइयों में जो लोग उच्च-श्रेणी के हैं, वे जागीरों और राज्याधिकारों के लोभ तथा राजदंड के भय से इस्लाम की शरण में आ सकते हैं; पर दुर्बल और दीन ईसाइयों के लिए इस्लाम में वह आसमान की बादशाहत कहाँ है जो हजरत मसीह के दामन में उन्हें नसीब होगी ! इस्लाम का प्रचार तलवार के बल से हुआ है, सेवा के बल से नहीं।
    जमाल अपने धर्म का अपमान सुनकर तिलमिला उठा। गरम होकर बोला- यह सर्वथा मिथ्या है। इस्लाम की शक्ति उसका आंतरिक भ्रातृत्व और साम्य है, तलवार नहीं।
    दाऊद- इस्लाम ने धर्म के नाम पर जितना रक्त बहाया है, उसमें उसकी सारी मसजिदें डूब जायँगी।
    जमाल- तलवार ने सदा सत्य की रक्षा की है।
    दाऊद ने अविचलित भाव से कहा- जिसको तलवार का आश्रय लेना पड़े, वह सत्य ही नहीं।
    जमाल जातीय गर्व से उन्मत्त होकर बोला- जब तक मिथ्या के भक्त रहेंगे, तब तक तलवार की जरूरत भी रहेगी।
    दाऊद- तलवार का मुँह ताकनेवाला सत्य ही मिथ्या है।
    अरब ने तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर कहा- खुदा की कसम, अगर तुम निहत्थे न होते, तो तुम्हें इस्लाम की तौहीन करने का मजा चखा देता।
    दाऊद ने अपनी छाती में छिपाई हुई कटार निकालकर कहा- नहीं, मैं निहत्था नहीं हूँ। मुसलमानों पर जिस दिन इतना विश्वास करूँगा, उस दिन ईसाई न रहूँगा। तुम अपने दिल के अरमान निकाल लो।
    दोनों ने तलवारें खींच लीं। एक-दूसरे पर टूट पड़े। अरब की भारी तलवार ईसाई की हलकी कटार के सामने शिथिल हो गयी। एक सर्प की भाँति फन से चोट करती थी, दूसरी नागिन की भाँति उठती थी। लहरों की भाँति लपकती थी, दूसरी जल की मछलियों की भाँति चमकती थी। दोनों योद्धाओं में कुछ देर तक चोटें होती रहीं। सहसा एक बार नागिन उछलकर अरब के अंतस्तल में जा पहुँची। वह भूमि पर गिर पड़ा।
3
जमाल के गिरते ही चारों तरफ से लोग दौड़ पड़े। वे दाऊद को घेरने की चेष्टाकरने लगे। दाऊद ने देखा, लोग तलवारें लिये दौड़े चले आ रहे हैं। प्राण लेकर भागा; पर जिधर जाता था, सामने बाग की दीवार रास्ता रोक लेती थी। दीवार ऊँची थी, उसे फाँदना मुश्किल था। यह जीवन और मृत्यु का संग्राम था। कहीं शरण की आशा नहीं, कहीं छिपने का स्थान नहीं। उधर अरबों की रक्त-पिपासा प्रतिक्षण तीव्र होती जाती थी। यह केवल एक अपराधी को दंड देने की चेष्टा न थी। जातीय अपमान का बदला था। एक विजित ईसाई की यह हिम्मत कि अरब पर हाथ उठाये ! ऐसा अनर्थ !
    जिस तरह पीछा करनेवाले कुत्तों के सामने गिलहरी इधर-उधर दौड़ती है, किसी वृक्ष पर चढ़ने की बार-बार चेष्टाकरती है, पर हाथ-पाँव फूल जाने के कारण बार-बार गिर पड़ती है, वही दशा दाऊद की थी।
    दौड़ते-दौड़ते उसका दम फूल गया; पैर मन-मन भर के हो गये। कई बार जी में आया इन सब पर टूट पड़े और जितने महँगे प्राण बिक सकें, उतने महँगे बेचे; पर शत्रुओं की संख्या देखकर हतोत्साह हो जाता था।
    लेना, दौड़ना, पकड़ना का शोर मचा हुआ था। कभी-कभी पीछा करनेवाले इतने निकट आ जाते थे कि मालूम होता था, अब संग्राम का अंत हुआ, वह तलवार पड़ी; पर पैरों की एक ही गति, एक कावा, एक कन्नी उसे खून की प्यासी तलवार से बाल-बाल बचा लेती थी।
    दाऊद को अब इस संग्राम में खिलाड़ियों का-सा आनंद आने लगा। यह निश्चय था कि उसके प्राण नहीं बच सकते, मुसलमान दया करना नहीं जानते, इसलिए उसे अपने दाँव-पेंच में मजा आ रहा था। किसी वार से बचकर उसे अब इसकी खुशी न होती थी कि उसके प्राण बच गये, बल्कि इसका आनंद होता था कि उसने कातिल को कैसा ज़िच किया।
    सहसा उसे अपनी दाहिनी ओर बाग की दीवार कुछ नीची नजर आयी। आह ! यह देखते ही उसके पैरों में एक नयी शक्ति का संचार हो गया, धमनियों में नया रक्त दौड़ने लगा। वह हिरन की तरह उस तरफ दौड़ा और एक छलाँग में बाग के उस पार पहुँच गया। जिन्दगी और मौत में सिर्फ एक कदम का फासला था। पीछे मृत्यु थी और आगे जीवन का विस्तृत क्षेत्र। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ नजर आती थीं। जमीन पथरीली थी, कहीं ऊँची, कहीं, नीची। जगह-जगह पत्थर की शिलाएँ पड़ी हुई थीं। दाऊद एक शिला के नीचे छिपकर बैठ गया।
    दम-भर में पीछा करनेवाले भी वहाँ आ पहुँचे और इधर-उधर झाड़ियों में, वृक्षों पर, गड्ढे में शिलाओं के नीचे तलाश करने लगे। एक अरब उस चट्टान पर आकर खड़ा हो गया, जिसके नीचे दाऊद छिपा हुआ था। दाऊद का कलेजा धक्-धक् कर रहा था। अब जान गयी ! अरब ने जरा नीचे को झाँका और प्राणों का अंत हुआ ? संयोग- केवल संयोग पर अब उसका जीवन निर्भर था। दाऊद ने साँस रोक ली, सन्नाटा खींच लिया। एक निगाह पर उसकी जिंदगी का फैसला था, जिंदगी और मौत में कितना सामीप्य है !
    मगर अरबों को इतना अवकाश कहाँ था कि वे सावधान होकर शिला के नीचे देखते। वहाँ तो हत्यारे को पकड़ने की जल्दी थी। दाऊद के सिर से बला टल गयी। वे इधर-उधर ताक-झाँककर आगे बढ़ गये।
4
अँधेरा हो गया। आकाश में तारागण निकल आये और तारों के साथ दाऊद भी शिला के नीचे से निकला। लेकिन देखा, उस समय भी चारों तरफ हलचल मची हुई है, शत्रुओं का दल मशालें लिये झाड़ियों में घूम रहा है; नाकों पर भी पहरा है, कहीं निकल भागने का रास्ता नहीं है। दाऊद एक वृक्ष के नीचे खड़ा होकर सोचने लगा कि अब क्योंकर जान बचे। उसे अपनी जान की वैसी परवा न थी। वह जीवन के सुख-दुख सब भोग चुका था। अगर उसे जीवन की लालसा थी, तो केवल यही देखने के लिए कि इस संग्राम का अंत क्या होगा ? मेरे देशवासी हतोत्साह हो जायेंगे, या अदम्य धैर्य के साथ संग्रामक्षेत्र में अटल रहेंगे।
    जब रात अधिक बीत गयी और शत्रुओं की घातक चेष्टा कुछ कम न होती दीख पड़ी तो दाऊद खुदा का नाम लेकर झाड़ियों से निकला और दबे-पाँव, वृक्षों की आड़ में, आदमियों की नजर बचाता हुआ, एक तरफ को चला। वह इन झाड़ियों से निकलकर बस्ती में पहुँच जाना चाहता था। निर्जनता किसी की आड़ नहीं कर सकती। बस्ती का जनबाहुल्य स्वयं आड़ है।
    कुछ दूर तक तो दाऊद के मार्ग में कोई बाधा न उपस्थित हुई। वन के वृक्षों ने उसकी रक्षा की, किन्तु जब वह असमतल भूमि से निकलकर समतल भूमि पर आया, तो एक अरब की निगाह उस पर पड़ गयी। उसने ललकारा। दाऊद भागा। ‘कातिल भागा जाता है !’ यह आवाज हवा में एक ही बार गूँजी और क्षण-भर में चारों तरफ से अरबों ने उसका पीछा किया। सामने बहुत दूर तक आदमी का नामोनिशान न था। बहुत दूर पर एक धुँधला-सा दीपक टिमटिमा रहा था। किसी तरह वहाँ तक पहुँच जाऊँ। वह उस दीपक की ओर इतनी तेजी से दौड़ रहा था, मानो वहाँ पहुँचते ही अभय पा जायगा। आशा उसे उड़ाये लिये जाती थी। अरबों का समूह पीछे छूट गया; मशालों की ज्योति निष्प्रभ हो गयी। केवल तारागण उसके साथ दौड़े चले आते थे। अंत को वह आशामय दीपक के सामने आ पहुँचा। एक छोटा-सा फूस का मकान था। एक बूढ़ा अरब जमीन पर बैठा हुआ रेहल पर कुरान रखे उसी दीपक के मंद प्रकाश से पढ़ रहा था। दाऊद आगे न जा सका। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। वह वहीं शिथिल होकर गिर पड़ा। रास्ते की थकन घर पहुँचने पर मालूम होती है।
    अरब ने उठकर कहा- तू कौन है ?
    दाऊद- एक गरीब ईसाई। मुसीबत में फँस गया हूँ। अब आप ही शरण दें, तो मेरे प्राण बच सकते हैं।
    अरब- खुदा-पाक तेरी मदद करेगा। तुम पर क्या मुसीबत पड़ी हुई है ?
    दाऊद- डरता हूँ कहीं कह दूँ तो आप भी मेरे खून के प्यासे न हो जायँ।
    अरब- अब तू मेरी शरण में आ गया, तो तुझे मुझसे कोई शंका न होनी चाहिए। हम मुसलमान हैं, जिसे एक बार अपनी शरण में ले लेते हैं उसकी जिंदगी-भर रक्षा करते हैं।
    दाऊद- मैंने एक मुसलमान युवक की हत्या कर डाली है।
    वृद्ध अरब का मुख क्रोध से विकृत हो गया, बोला- उसका नाम ?
    दाऊद- उसका नाम जमाल था।
    अरब सिर पकड़कर वहीं बैठ गया। उसकी आँखें सुर्ख हो गयीं; गरदन की नसें तन गयीं; मुख पर अलौकिक तेजस्विता की आभा दिखायी दी, नथुने फड़कने लगे। ऐसा मालूम होता था कि उसके मन में भीषण द्वंद्व हो रहा है और वह समस्त विचार-शक्ति से अपने मनोभावों को दबा रहा है। दो-तीन मिनट तक वह इसी उग्र अवस्था में बैठा धरती की ओर ताकता रहा। अंत में अवरुद्ध कंठ से बोला- नहीं-नहीं, शरणागत की रक्षा करनी ही पड़ेगी। आह ! जालिम ! तू जानता है, मैं कौन हूँ। मैं उसी युवक का अभागा पिता हूँ, जिसकी आज तूने इतनी निर्दयता से हत्या की है। तू जानता है, तूने मुझ पर कितना बड़ा अत्याचार किया है ? तूने मेरे खानदान का निशान मिटा दिया है ! मेरा चिराग गुल कर दिया ! आह, जमाल मेरा इकलौता बेटा था। मेरी सारी अभिलाषाएँ उसी पर निर्भर थीं। वह मेरी आँखों का उजाला, मुझ अँधे का सहारा, मेरे जीवन का आधार, मेरे जर्जर शरीर का प्राण था। अभी-अभी उसे कब्र की गोद में लिटा आया हूँ। आह, मेरा शेर, आज खाक के नीचे सो रहा है। ऐसा दिलेर, ऐसा दीनदार, ऐसा सजीला जवान मेरी कौम में दूसरा न था। जालिम, तुझे उस पर तलवार चलाते जरा भी दया न आयी। तेरा पत्थर का कलेजा जरा भी न पसीजा ! तू जानता है, मुझे इस वक्त तुझ पर कितना गुस्सा आ रहा है ? मेरा जी चाहता है कि अपने दोनों हाथों से तेरी गरदन पकड़कर इस तरह दबाऊँ कि तेरी जबान बाहर निकल आये, तेरी आँखें कौड़ियों की तरह बाहर निकल पड़ें। पर नहीं, तूने मेरी शरण ली है, कर्तव्य मेरे हाथों को बाँधे हुए है, क्योंकि हमारे रसूल-पाक ने हिदायत की है, कि जो अपनी पनाह में आये, उस पर हाथ न उठाओ। मैं नहीं चाहता कि नबी के हुक्म को तोड़कर दुनिया के साथ अपनी आक़बत भी बिगाड़ लूँ। दुनिया तूने बिगाड़ी, दीन अपने हाथों बिगाड़ूँ ? नहीं। सब्र करना मुश्किल है; पर सब्र करूँगा ताकि नबी के सामने आँखें नीची न करनी पड़ें। आ, घर में आ। तेरा पीछा करनेवाले दौड़े आ रहे हैं। तुझे देख लेंगे, तो फिर मेरी सारी मिन्नत-समाजत तेरी जान न बचा सकेगी। तू नहीं जानता कि अरब लोग खून कभी माफ नहीं करते।
    यह कहकर अरब ने दाऊद का हाथ पकड़ लिया, और उसे घर में ले जाकर एक कोठरी में छिपा दिया। वह घर से बाहर निकला ही था कि अरबों का एक दल द्वार पर आ पहुँचा।
    एक आदमी ने पूछा- क्यों शेख हसन, तुमने इधर से किसी को भागते देखा है ?
    ‘हाँ देखा है।’
    ‘उसे पकड़ क्यों न लिया ? वही तो जमाल का कातिल था !’
    ‘यह जानकर भी मैंने उसे छोड़ दिया।’
    ‘ऐं ! गजब खुदा का ! यह तुमने क्या किया ? जमाल हिसाब के दिन हमारा दामन पकड़ेगा तो हम क्या जवाब देंगे ?’
    ‘तुम कह देना कि तेरे बाप ने तेरे कातिल को माफ कर दिया।’
    ‘अरब ने कभी कातिल का खून नहीं माफ किया।’
    ‘यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, मैं उसे अपने सिर क्यों लूँ ?’
    अरबों ने शेख हसन से ज्यादा हुज्जत न की, कातिल की तलाश में दौड़े। शेख हसन फिर चटाई पर बैठकर कुरान पढ़ने लगा, लेकिन उसका मन पढ़ने में न लगता था। शत्रु से बदला लेने की प्रवृत्ति अरबों की प्रवृत्ति में बद्धमूल होती थी। खून का बदला खून था। इसके लिए खून की नदियाँ बह जाती थीं, कबीले-के-कबीले मर मिटते थे, शहर-के-शहर वीरान हो जाते थे। उस प्रवृत्ति पर विजय पाना शेख हसन को असाध्य-सा प्रतीत हो रहा था। बार-बार प्यारे पुत्र की सूरत उसकी आँखों के आगे फिरने लगती थी, बार-बार उसके मन में प्रबल उत्तेजना होती थी कि चलकर दाऊद के खून से अपने क्रोध की आग बुझाऊँ। अरब वीर होते थे। कटना-मरना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी। मरनेवालों के लिए वे आँसुओं की कुछ बूँदें बहाकर फिर अपने काम में प्रवृत्त हो जाते थे। वे मृत व्यक्ति की स्मृति को केवल उसी दशा में जीवित रखते थे, जब उसके खून का बदला लेना होता था। अन्त को शेख हसन अधीर हो उठा। उसको भय हुआ कि अब मैं अपने ऊपर काबू नहीं रख सकता। उसने तलवार म्यान से निकाल ली और दबे पाँव उस कोठरी के द्वार पर आकर खड़ा हो गया, जिसमें दाऊद छिपा हुआ था। तलवार को दामन में छिपाकर उसने धीरे से द्वार खोला। दाऊद टहल रहा था। बूढ़े अरब का रौद्र रूप देखकर दाऊद उसके मनोवेग को ताड़ गया। उसे बूढ़े से सहानुभूति हो गयी। उसने सोचा, यह धर्म का दोष नहीं, जाति का दोष नहीं। मेरे पुत्र की किसी ने हत्या की होती, तो कदाचित् मैं भी उसके खून का प्यासा हो जाता। यही मानव प्रकृति है।
    अरब ने कहा- दाऊद, तुम्हें मालूम है बेटे की मौत का कितना गम होता है।
    दाऊद- इसका अनुभव तो नहीं, पर अनुमान कर सकता हूँ। अगर मेरी जान से आपके उस गम का एक हिस्सा भी मिट सके, तो लीजिए, यह सिर हाजिर है। मैं इसे शौक से आपकी नजर करता हूँ। आपने दाऊद का नाम सुना होगा।
    अरब- क्या पीटर का बेटा ?
    दाऊद- जी हाँ। मैं वही बदनसीब दाऊद हूँ। मैं केवल आपके बेटे का घातक ही नहीं, इस्लाम का दुश्मन हूँ। मेरी जान लेकर आप जमाल के खून का बदला ही न लेंगे, बल्कि अपनी जाति और धर्म की सच्ची सेवा भी करेंगे।
    शेख हसन ने गम्भीर भाव से कहा- दाऊद, मैंने तुम्हें माफ किया। मैं जानता हूँ, मुसलमानों के हाथ ईसाइयों को बहुत तकलीफें पहुँची हैं, मुसलमानों ने उन पर बड़े-बड़े अत्याचार किये हैं, उनकी स्वाधीनता हर ली है ! लेकिन यह इस्लाम का नहीं, मुसलमानों का कसूर है। विजय-गर्व ने मुसलमानों की मति हर ली है। हमारे पाक नबी ने यह शिक्षा नहीं दी थी, जिस पर आज हम चल रहे हैं। वह स्वयं क्षमा और दया का सर्वोच्च आदर्श है। मैं इस्लाम के नाम को बट्टा न लगाऊँगा। मेरी ऊँटनी ले लो और रातों-रात जहाँ तक भागा जाय, भागो। कहीं एक क्षण के लिए भी न ठहरना। अरबों को तुम्हारी बू भी मिल गयी, तो तुम्हारी जान की खैरियत नहीं। जाओ, तुम्हें खुदा-ए-पाक घर पहुँचावे। बूढ़े शेख हसन और उसके बेटे जमाल के लिए खुदा से दुआ किया करना।
       ×        ×          ×          ×          ×
     दाऊद खैरियत से घर पहुँच गया; किंतु अब वह दाऊद न था, जो इस्लाम को जड़ से खोदकर फेंक देना चाहता था। उसके विचारों में गहरा परिवर्तन हो गया था। अब वह मुसलमानों का आदर करता और इस्लाम का नाम इज्जत से लेता था। 

[ मानसरोवर भाग - 3  से साभार ]

Monday, 12 January 2015

डलिया भर हरसिंगार-अक्षर

 
गौतम चटर्जी



गौतम चटर्जी

मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि दयानंद पांडेय कवि हैं। मैें उन्हें कवि उस अर्थ में कह रहा हूं जिस अर्थ में मैं निर्मल वर्मा को कवि मानता रहा हूं। तमाम किस्सागोई प्रतिभा-प्रखरता के बावजूद यदि मुझे उन्हें लेखक के अतिरिक्त कथाकार मानना पड़े तो तय करने में मुझे एक उम्र प्रतीक्षा करनी होगी। लेकिन कवि होने की उन की उपस्थिति हिंदी के काव्यसंसार में एक रचनानिष्ठ आश्वस्ति है, ऐसा उन की इन कविताओं को पहली बार पढ़ कर और बार बार पढ़ कर एहसास हुआ।

कविताओं को रेखांकित कर उन पर कुछ कहने से पहले मैं कवि,, कविता और रचनानिष्ठता पर कुछ कहना चाहता हूं।

मेरे लिए कवि होना एक ऋषि होना है। भारतीय विद्या वांग्मय में ऋषि को कवि कहा गया है। ऋषि ही सही अर्थों में कवि होता है। वह इस लिए कवि है क्यों कि उस ने सत्य को देखा है। इस लिए सुभाषित है कि जैसे तपस्यारत ऋषियों के पास स्तुतियां स्वयं चली आतीं हैं उसी प्रकार कवि के पास रचना स्वयं चली आती है। उसे पत्रकार या कथा लेखक की तरह विषय ढूंढ़ना या गढ़ना नहीं पड़ता। थोड़ा असमंजस में होंगे आप कि भला वैदिक ऋषि के पद में आज के कवि को कैसे देखा जा सकता है तो मैं इसे आसान कर देता हूं। पाणिनि ने रचनाकारों की चार श्रेणियां बनाई हैं। प्रथम श्रेणी को उन्हों ने कहा है दृशी। यह शब्द ही कालांतर में ऋषि हुआ है। इस श्रेणी में वे रचनाकार आते हैं जो कविता को देखते हैं लेकिन उन्हें लिखते नहीं। जैसे वैदिक ऋषि या बुद्ध या सुकरात। दूसरी श्रेणी की संज्ञा है प्रोक्ता । ये रचनाकार दृशी की कविता को लिखते हैं या संग्रहीत करते हैं जैसे अश्वघोष या प्लेटो। तीसरी श्रेणी है उपज्ञात की। जो रचनाकार किसी नई विधा की खोज करते हैं उन्हें इस श्रेणी में रखते हैं। महर्षि पाणिनि ने खुद को इसी श्रेणी में रखा है क्यों कि उन्हों ने व्याकरण की खोज की थी। और अंतिम श्रेणी का नाम है कृत। इस में सभी सामान्य रचनाकार आ जाते हैं जैसे कालिदास से ले कर रवींद्रनाथ ठाकुर तक सभी। कवि कालिदास ने ही दृश्य-काव्य लिखा है जिसे आज हम नाटक कहते हैं। वैदिक काल से मध्यकाल तक नाटक को दृश्य-काव्य कहने की परंपरा रही है। नाटक उस समय एक तकनीकी शब्दावली हुआ करता था जो दस रूपकों के अंतर्गत आता था। दृश्य-काव्य लिखने वाले कवियों ने लेखन के रूप को कविता कहने की जगह काव्यमन को कविता कहा है जो ‘काव्य-मीमांसा’ के रचयिता और आलोचक राजशेखर के शब्दों में, ‘लिखे अनुच्छेदों के काव्यस्पर्श से पता चल जाता है।’ आज हम हिंदी में जिसे गद्य कविता कहते हैं वह कहने की ज़रूरत ही नहीं हैं। गद्य स्वयं में कविता है यदि उस में काव्य-मन का स्पर्श है। इसी अर्थ में निर्मल वर्मा का गद्य कविता है।

पिछले पचास-साठ वर्षों में भारतीय भाषाओं में कविता की भंगिमा में लिखी कविताओं को पढ़ कर कुछ ही कवियों पर ध्यान टिका रहा और अभी तक टिका हुआ है। इन में हिंदी में कुंवर  नारायण और मलयालम में ओएनवी कुरूप का ही नाम फिलहाल ध्यान आ रहा। कुरूप की कविताओं में प्रतीक, रस और ध्वनि उसी प्रकार असाधारण हैं जिस प्रकार की छवियां हमें टॉलस्टॉय, मोपासां या मार्खेस की कहानियों में मिलती हैं। ये दोनों ही कवि अभी हमारे बीच रह कर कविताएं साझा कर रहे हैं।

मुुख्यतः गद्य लेखक दयानंद पांडेय इन्हीं अर्थों में कवि हैं। उन की कविताएं पहली बार कविता-संग्रह के रूप में सामने आ रही हैं और मैं ने भी उन की कविताएं पहली बार पढ़़ी हैं और इस अभिव्यक्ति ने मुझे पूरे मनोयोग से बार-बार पढ़ने को विवश किया है। उन की कहानियां और उपन्यास मैं ने पढ़़े हैं और कहने दीजिए कि कविताओं को पढ़ कर लगेगा नहीं कि रचनाकार वही है। आप को भी प्रिय आश्चर्य होगा। प्रेम का यह जोग, प्रेम एक निर्मल नदी, मैं तुम्हारा कोहरा तुम हमारी चांदनी, यह तुम्हारा रूप है कि पूस की धूप और तुम कभी सर्दी की धूप में मिलो मेरी मरजानी जैसी कविताओं से प्रतीत हो सकता है कि किसी भी कवि की तरह ये उस की प्रथम कविताएं होंगी लेकिन ऐसा नहीं है। देह का बिंब लगातार पिघलता हुआ है और ऐसे प्रभाव में बदलता हुआ है कि आनंद के सरोवर में कोई अंधेरे का टुकडा़ तैर रहा, पाठक और पारखी दोनों के लिए। जब तब अनुप्रास का प्रयोग करने वाले कवि दयानंद के भावों में प्रेम का यथार्थ-युग्म है, परस्पर विरोधी, जैसे सिर्फ़ हरसिंगार में ही होता है कि पंखुड़़ी का रंग भी खिला और उस की डंडी का रंग भी खिला फिर भी दोनों अलग अलग रंगों के, क्रमशः नारंगी और सफ़ेद , फिर भी गंध के एकात्म में पूर्ण होते हुए। नयन-नयनाभिराम, कोहरे में किलोल जैसी तेईस कविताओं में यह एकात्म गंध मन में सात रंगों का इंद्रधनुष बनाता है जहां सारे रंगों का स्वतंत्र अस्तित्व भी है और एक का दूसरे में विगलन भी। हर रंग दयानंद की हर कविता में आंख बनती हुई है। हर कविता में विपरीत रंगों की समरूप आंखें। अधर, उरोज जैसे मांसल शब्दों के बावजूद कविताएं भाव के स्तर पर रत्यात्मक होती हैं जैसे हमारे चेहरे की दोनों आंखें समरूप होते हुए भी एक दूसरे को देख नहीं पातीं इस लिए पलकें बंद कर एक दूसरे से हृदय में मिलती हैं और रत्यात्मक हो जातीं हैं और जब हमें कोई गहरी नींद से जगाता है तो इस विपरीत रंगों की इस रत्यात्मक अवस्था में विघ्न पहुंचता है और आंखें खुलते ही कुछ तरल सा हमारे स्पर्श में आ जाता है। वह कवि का दुःख है जो उसे अपूर्णता में हरसिंगार की खुशबू तक तो ले जाता है लेकिन हरसिंगार का सच यह भी है कि उषा की पहली छुअन से ही वह अपने वृक्ष देह से अलग हो जाता है। कविता पूरी होने के बाद पूरा दिन न देख पाने में आंख खुलने की ऐसी घटना है दयानंद पांडेय की कविता। मानों बांस की डलिया में हरसिंगार से बने कई अक्षरों का समवाय जो खिलने और सुगंधित होने के लिए काव्य-रात की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस रात को कोई कवि ही देख सकता है। ऐसा कवि ही प्रेम कविता लिख सकता है। दुःख के कोमलतम क्षणों में रिल्के की तरह। ऐसी छवियां हैं यहां । छवियां और ध्वनियां ।

ऐसे कृती के कृृत से हम कृतकृत्य हो सकते हैं।

[ अरुण प्रकाशन , ई-54 , मानसरोवर पार्क , शाहदरा , दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य कविता-संग्रह यह घूमने वाली औरतें जानती हैं में रंगकर्मी और फ़िल्म निर्देशक गौतम चटर्जी की लिखी भूमिका ]

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