Thursday, 28 July 2022

गांधारी बनी सोनिया गांधी और दुर्योधन की कथा दुहराते अधीर रंजन चौधरी नहीं जानते कि राष्ट्रपति शब्द कैसे बना

  दयानंद पांडेय 

राष्ट्रपति पद को , राष्ट्रपति शब्द को , इस की गरिमा को कभी राष्ट्रपत्नी की गाली में तब्दील होते हुए हम देखेंगे , कभी सोचा नहीं था। लेकिन कांग्रेस की सत्ता पिपासा का विष हमें इस राह तक ले आया है। अंगरेजी में प्रेसिडेंट आफ़ इंडिया को जब हिंदी में लिखने की बात आई थी तब देश में इस पर बहुत लंबी बहस , विचार-विमर्श हुआ था। लेकिन सत्ता में बैठे लोग जब इस पर एक राय नहीं हो सके तब देश के लोगों को भी इस प्रक्रिया में शामिल करते हुए इस प्रेसिडेंट आफ़ इंडिया शब्द के लिए हिंदी में कोई उपयुक्त शब्द देने का सुझाव मांगा गया। क्यों कि अध्यक्ष , सभापति आदि अनुवादिक शब्द वह प्रभाव नहीं छोड़ पा रहे थे , जो छोड़ना चाहिए था। फिर जनता ने , अख़बारों ने , सामाजिक संगठनों आदि ने विभिन्न नाम के सुझाव दिए। बात बन नहीं रही थी। कि तभी बनारस से प्रकाशित होने वाले दैनिक आज ने एक संपादकीय लिख कर भारत सरकार को प्रेसिडेंट आफ़ इंडिया के लिए हिंदी में राष्ट्रपति शब्द सुझाया। 

और यह देखिए सभी ने सर्वसम्मति से इस शब्द को स्वीकार कर लिया। आज अख़बार पहले भी बहुत महत्वपूर्ण अख़बार रहा था पर राष्ट्रपति शब्द देने के बाद इस की प्रतिष्ठा में चार चांद लग गए। आप जाइए कभी दिल्ली में सफदरजंग में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री निवास में जहां इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। वह अब स्मारक बना दिया गया है। इंदिरा गांधी की हत्या संबंधी ख़बरों की कई कटिंग वहां लगी है। जिस में आज अख़बार की कटिंग बड़ी प्रमुखता से वहां चस्पा है। आज अख़बार की और भी कुछ समाचारों की कटिंग है वहां। आख़िर आज के संपादक रहे बाबूराव विष्णु पराड़कर का नाम भारतीय पत्रकारिता में वैसे ही तो नहीं बहुत आदर से लिया जाता है। पंडित कमलापति त्रिपाठी जैसे विद्वान भी आज के संपादक रहे हैं। पराड़कर जी भले मराठी थे पर हिंदी पत्रकारिता को जो उत्कर्ष उन्हों ने दिया वह अतुलनीय है। क्रांतिकारी पत्रकार पराड़कर ने पत्रकारिता की शुरुआत कोलकाता से की और हिंदी में ही की। बाद में वह जन्म-भूमि बनारस लौटे। 

बहरहाल उसी बंगभूमि के एक अराजक नेता अधीर रंजन चौधरी ने आज राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी कह कर अपनी सत्ता पिपासा के विष और अहंकार में डूब कर जो अपमान किया है , वह अक्षम्य है। अधीर रंजन चौधरी ने तमाम वाद-विवाद के बावजूद राष्ट्रपत्नी कहे जाने पर अपनी ग़लती तो स्वीकार कर ली है। बता दिया है कि हिमालयी ग़लती हुई है उन से। पर इस के लिए क्षमा मांगने से इंकार कर दिया है। क्यों कि भाजपा माफ़ी मांगने को कह रही है। ज़िक्र ज़रुरी है कि कांग्रेस में आने के पहले अधीर रंजन चौधरी नक्सली रहे हैं। तो एक तो नक्सली अराजकता दूसरे , कांग्रेसी अकड़। कलफ़ लगी अकड़। फिर अगर कांग्रेस और कम्युनिस्ट को मिला कर देखिए तो जो इस का केमिकल रिजल्ट आता है , वह रावण या कंस पैदा करता है। वही अहंकार , वही अराजकता और वही गुरुर अधीर रंजन चौधरी में बार-बार देखने को मिलता है। आज यह कुछ ज़्यादा दिख गया। लेकिन अधीर रंजन चौधरी से भी ज़्यादा अहंकार आज सोनिया गांधी में देखने को मिला। जब मीडिया ने संसद परिसर में सोनिया से इस बाबत माफ़ी मांगने के बाबत सवाल पूछा तो जिस अहंकार में चूर हो कर सोनिया ने जवाब दिया कि अधीर रंजन ने माफ़ी मांग तो ली है ! 

यह एक पंक्ति कहने में सोनिया की बॉडी लैंग्वेज में जो घमंड झलक रहा था , जो अहंकार और हिकारत छलक रही थी , उस की तुलना किसी रावण जैसे खल चरित्र से ही मुमकिन है। दिख रहा था कि रस्सी जल गई है , पर बल नहीं गया है। ऐंठ जस की तस है। सत्ता में बैठने का गुरुर है कि जाता नहीं है। साम्राज्ञी होने का दंभ अभी भी बरक़रार है। गोया नरेंद्र मोदी नहीं , अभी भी मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हों। ख़ुदा यह दंभ बरक़रार रखें। सर्वदा-सर्वदा बरक़रार रखें। देह भले टूट जाए , जैसे सत्ता टूट गई है। पर दंभ और अहंकार न टूटे। ई डी वग़ैरह चाहे जो कर लें। जानती तो गांधारी का प्रतिरुप सोनिया गांधी भी हैं कि नरेंद्र मोदी राज में वह कभी भी जेल नहीं जाएंगी। न उन का कुपुत्र राहुल गांधी या दामाद रावर्ट वाड्रा जेल जाएगा। जानती हैं सोनिया गांधी , अच्छी तरह जानती हैं कि नरेंद्र मोदी , मोरार जी देसाई सरकार की ग़लतियां नहीं दुहराने वाला। बस ई डी , वी डी की आइसपाइस का खेल चलता रहेगा। नरेंद्र मोदी जानता है कि जेल भेजने से भारत की दयालु जनता द्रवित हो कर सोनिया , राहुल की सत्ता वापसी करवा सकती है। सो जेल के दरवाज़े पर तो खड़ा रखेगा नरेंद्र मोदी , सोनिया , राहुल , वाड्रा को पर जेल भेजेगा नहीं। सोनिया के अग्गुओं , लग्गुओं , भग्गुओं की जेल यात्रा ज़रुर जारी रहेगी। यह बात भी दंभी सोनिया गांधी को मालूम है।  

हां , मुझे मालूम है कि नरेंद्र मोदी के जीवित रहते कोई और पार्टी भारत की सत्ता पर सवार नहीं हो सकती। कोई कुछ भी कर ले। कितना भी हाथ-पांव या सिर मार ले। 

खैर , बात राष्ट्रपति शब्द की हो रही थी। तो जैसे राष्ट्रपति शब्द आज अख़बार ने दिया देश को वैसे राष्ट्रपिता शब्द भी महात्मा गांधी को नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने दिया था। जब कि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस के पहले ही गांधी को महात्मा की उपाधि दी थी। ख़ैर , गांधी को राष्ट्रपिता कहने पर भी दो धुर विरोधी लोगों को सख़्त ऐतराज रहा है। एक संघ के लोगों को। दूसरे , वामपंथियों को। गांधी और संघ के मतभेद किसी से छुपे नहीं हैं। और वामपंथी न गांधी को पसंद करते हैं न नेता जी सुभाषचंद्र बोस को। गांधी अहिंसा के पुजारी थे। और वामपंथी हिंसा के पुजारी। तीसरे , वामपंथी नेता जी सुभाषचंद्र बोस को हिटलर का कुत्ता कहने के आदी हैं। जब कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने और मोदी द्वारा बार-बार गांधी स्तुति से संघियों का यह ऐतराज थोड़ा डायलूट हुआ है। लेकिन वामपंथियों का नहीं। 

ख़ैर , इसी तरह लालक़िला पर पंद्रह अगस्त को राष्ट्र ध्वज फहराने को ले कर भी बहुत लोगों को दर्द होता है। उन लोगों को जान लेना चाहिए कि लालक़िला पर राष्ट्र ध्वज यानी तिरंगा फहराने का सपना नेता जी सुभाषचंद्र बोस का ही था। नेता जी के सपने को ही पूरा करने का फ़ैसला देश आज तक निभा रहा है। आगे भी निभाएगा। लाख अधीर रंजन चौधरी आते-जाते और पगलाते रहेंगे और विष वमन करते रहेंगे। पर राष्ट्रपति , राष्ट्रपिता और तिरंगे की शान में देश कभी किसी को बट्टा नहीं लगाने देगा। 

अधीर रंजन चौधरी द्वारा राष्ट्रपत्नी शब्द पर कुछ मतिमंद एक कुतर्क यह दे रहे हैं कि बंगाली होने के कारण , हिंदी कम जानने के कारण ऐसा हो गया। मेरे एक आई ए एस मित्र हैं। इन दिनों अमरीका में अपने बच्चों के पास रहते हैं। हरियाणा से हैं। लखनऊ काफी समय रहे हैं। उत्तराखंड जब बना तो उत्तराखंड चले गए। मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं। लेकिन जब सेवा में थे तो मैं ने कई बार देखा कि अपने अधीनस्थों से बेहद बदतमीजी से पेश आते थे। मैं ने उन्हें बाद में कई बार इस बात पर टोका तो वह अपने हरियाणवी होने की आड़ वह हर बार ले लेते। कहते क्या करें , हमारी बोली ही ऐसी है। लेकिन कुछ मौकों पर देखा कि अपने सीनियर्स से बातचीत में वह लगभग दंडवत हो जाते थे। ख़ास कर एक बार एक मुख्यमंत्री के साथ जब उन्हें राइट सर ! राइट सर ! करते देखा तो बाद में उन से पूछा कि मुख्यमंत्री के सामने तो आप का हरियाणवी बर्फ़ की तरह पिघल कर बह गया ! तो वह झेंप कर मुस्कुराने लगे। 

तो रही बात अधीर रंजन चौधरी की तो वह तो हिंदी में श्रीमती राजीव गांधी भी सोनिया गांधी को कहने का साहस नहीं रखते। अधीर रंजन चौधरी भूल जाते हैं कि प्रणव मुखर्जी भी बंगाली थे। प्रणव मुखर्जी ने कभी किसी हिंदी शब्द का उपयोग किसी को अपमानित करने के लिए भ्रष्ट नहीं किया। बताता चलूं कि ठीक से हिंदी न जानने के कारण ही इच्छुक होते हुए भी प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री नहीं बन सके थे। पर जब पहली बार सांसद बन कर दिल्ली आए , बंगाल से तो राष्ट्रपति भवन के पास ही उन्हें रहने के लिए सरकारी घर मिला। राष्ट्रपति भवन की शानो-शौक़त देख कर उन्हों ने अपनी बड़ी बहन से कहा था कि मैं चाहता हूं कि अगले जन्म में घोड़ा बन कर राष्ट्रपति भवन में रहूं। प्रणव मुखर्जी ब्राह्मण थे पर राष्ट्रपति भवन में रहने के लिए अगले जन्म में घोड़ा बनने के लिए सपना देख रहे थे। पर उन का सौभाग्य था कि वह इसी जन्म में राष्ट्रपति भी बन गए और राष्ट्रपति भवन का सारा सुख लूट कर दिवंगत हुए। 

अधीर रंजन चौधरी ने लेकिन सोनिया गांधी जैसी दंभी स्त्री को ख़ुश करने के लिए राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी कह कर सिर्फ़ द्रौपदी मुर्मू को ही नहीं , राष्टपति पद को ही नहीं , समूचे देश और देश को अपमानित किया है। ठीक वैसे ही जैसे कभी दुर्योधन ने भरी सभा में द्रौपदी का चीर हरण कर कर समूची स्त्री समाज का , समस्त मनुष्य जगत का अपमान किया था। गांधारी ने बहुत बिगाड़ दिया था दुर्योधन को। दुर्योधन को जीते जी उस चीर हरण का दंड मिल गया था। निश्चिंत रहिए , अधीर रंजन चौधरी , उन की आका गांधारी सोनिया और कांग्रेस को भी देश की जनता समय रहते दंड देगी। अधीर रंजन चौधरी देर-सवेर माफ़ी मांगेंगे , जैसे राहुल गांधी ने लिखित माफ़ी सुप्रीम कोर्ट में मांगी थी और दंड भी भोगेंगे। प्याज और जूता दोनों खाने का मुहावरा चरितार्थ करेंगे अधीर रंजन चौधरी ! और कि गांधारी , सोनिया भी। मैं तो सोच रहा हूं कि अधीर के अधर और जिह्वा कट क्यों नहीं गए राष्ट्रपत्नी कहते हुए !


Sunday, 24 July 2022

जब मुलायम ने पुलिस भर्ती में लंबाई को सीने में , सीने को लंबाई में एडजस्ट कर भर्ती करने को कह दिया

दयानंद पांडेय 

इधर कुछ बरस से जब भी बच्चों के परीक्षा परिणाम आते हैं तो कुछ विघ्न संतोषी अपना ज़माना ले कर बैठ जाते हैं। यह सैडिस्ट लोग हैं। बच्चों की प्रतिभा से जलते हैं। भूल जाते हैं कि कभी पहले राष्ट्रपति रहे राजेंद्र प्रसाद की परीक्षा  कॉपी पर एक अंगरेज शिक्षक ने लिखा था , इक्जामिन इज बेटर दैन इक्ज़ामिनर। ठीक है कि वह ज़माना और था। नंबर कम मिलते थे। इस लिए भी कि तब हम कम जानते थे। बहुत-बहुत कम जानते थे। आज के बच्चों जैसा हमारा आई क्यू नहीं था। हमारे पास सुविधाएं भी नहीं थीं। ज्ञान के इतने ऑप्शन नहीं थे। किताब , कॉपी , कलम तक की कमी थी। शिक्षा और चिकित्सा में घनघोर विपन्नता थी। परिवार स्तर पर भी , समाज स्तर पर भी और सरकार स्तर पर भी। चौतरफा विपन्नता और कृपणता। हमारी गोरखपुर यूनिवर्सिटी में तो मैं ने पाया कि अंगरेजी जैसे विषय में थर्ड डिवीजन में पास लोग ही सालो-साल टॉपर रहे हैं। मतलब गोल्ड मेडलिस्ट। और भी विषयों का यही हाल था। तब अध्यापक लोग नंबर देने में भी बहुत कृपण थे। 

संयोग से मैं भी परीक्षक हूं। कभी-कभार पढ़ाता भी हूं। विभिन्न विश्वविद्यालयों में। बताते हुए ख़ुशी होती है कि विद्यार्थियों को नंबर देने के मामले में पूरी उदारता बरतता हूं। एक पैसे की भी कृपणता नहीं बरतता। कभी भी नहीं। यहां तक कि दो-चार नंबर से फेल हो रहे छात्र को भी खींच-खांच कर पास कर देता हूं। जो छात्र पचास-पचपन प्रतिशत तक जाता होता है , उसे भी खींच-खांच कर साठ प्रतिशत पार करवा देता हूं। साठ प्रतिशत वाले को सत्तर प्रतिशत तक पहुंचाने में मुझे दिली खुशी होती है। हां , अभी तक ऐसा कोई छात्र मुझे सौ प्रतिशत वाला नहीं मिला। पर पचासी-नब्बे प्रतिशत तक वाले विद्यार्थी तो मिले हैं। इन पर बहुत खींच-खांच नहीं करता। परीक्षा की कापियां जांचने , पेपर बनाने के अनेक अनुभव हैं। एक से एक बढ़ कर। अजब-ग़ज़ब के विद्यार्थी भी। 

एक बार बी एच यू का अनुभव नहीं भूलता। संयोग से हिंदी और अंगरेजी दोनों ही परीक्षक लखनऊ से ही गए थे। स्पष्ट है कि मैं हिंदी माध्यम की कापियां जांचता , पढ़ाता हूं। बी एच यू में पत्रकारिता विभाग में तब यह था कि परीक्षा के दिन ही पेपर बनता था , परीक्षा होती थी और उसी दिन तुरंत कॉपी भी जांच दी जाती थीं। तो हम दोनों एक ही कमरे में अगल-बगल बैठ कर कॉपी जांच रहे थे। अंगरेजी की कॉपी जांचने वाली भी पत्रकार ही थीं। बंगाली थीं। हमारे एक रिपोर्टर मित्र की पत्नी भी। हम दोनों दो संस्थान में साथ काम भी कर चुके थे। वह पायनियर में थीं , उन के पति भी पायनियर में ही थे। तब मैं स्वतंत्र भारत में था। घर आना-जाना भी था। फिर जब मैं नवभारत टाइम्स में था तब वह टाइम्स आफ इंडिया में थीं। तो कोई अजनबीपन नहीं था। 

अचानक अंगरेजी की कॉपी जांचते-जांचते वह गधा , उल्लू का पट्ठा जैसे शब्द बोलने लगीं। कापियां पलटतीं और किचकिचा कर कलम से कुछ काटने-पीटने लगतीं। थोड़ी देर में मुझ से मुखातिब हुईं। पूछने लगीं , ' आप की हिंदी में क्या है ? कैसे हैं यह लोग ? हमारे यहां तो एक से एक गधे , उल्लू के पट्ठे मिल रहे हैं ! '

' अच्छा यह बताएं कि आप के साथ जो लोग काम करते हैं , वह लोग कैसे हैं ? क्या हंड्रेड परसेंट परफेक्ट लोग हैं ? ' मैं ने हंस कर पूछा। 

' कहां भला ! ' वह अब कुर्सी से पीठ सटाते हुए रिलैक्स होते हुए कलम मेज़ पर रखती हुई बोलीं , ' एक से एक बड़े गधे वहां भी बैठे हैं। ' वह भड़कती हुई बोलीं , ' काम लेना मुश्किल हो जाता है। ' उन दिनों वह लखनऊ में एक अख़बार की इंचार्ज थीं। 

' तो जब दस-दस , पंद्रह साल के अनुभवी लोग ठीक से काम नहीं कर पाते। आप के मुताबिक़ काम नहीं कर पाते।  तो यह बिचारे तो स्टूडेंट हैं। इन से इस तरह परफेक्ट होने की उम्मीद क्यों करती हैं। '

' हां , यह तो है ! ' कंधे उचकाते हुए वह बोलीं। 

 ' बच्चों ने पहले मेडिकल , इंजीनियरिंग ट्राई किया होगा। नहीं हुआ होगा। तो कुछ और भी ट्राई किया होगा। एम बी ए वगैरह भी ट्राई किया होगा। फिर थक-हार कर पत्रकारिता की तरफ रुख़ किया होगा। '  मैं ने कहा , ' फिर इन्हें हम भी यहां पीछे धकेल देंगे तो बिचारे क्या करेंगे ? '

' तो क्या करें ? इन्हें बॉल की तरह उछाल कर इन की बल्ले-बल्ले कर दें ? ' वह खीझती हुई बोलीं। 

' बिलकुल ! ' मैं ने कहा , ' ' सोचिए कि कंप्टीशन कितना बढ़ गया है। मासकम्युनिकेशन करने के बाद अगर यह नेट का फ़ार्म भी भरेंगे तब भी मिनिमम साठ प्रतिशत नंबर पा कर ही भरेंगे। ऐसे ही तमाम जगह पर्सेंटेज की बैरियर बनी हुई है। तो हम इन के इस बैरियर को तोड़ कर इन की मदद तो कर ही सकते हैं। बाक़ी इन की मेहनत , इन की योग्यता , इन का भाग्य ! ' 

' अरे , इस तरह तो मैं ने सोचा ही नहीं ! ' कह कर वह ख़ुद पर झल्ला पड़ीं। लेकिन यह सुनने के बाद वह ख़ुश हो गईं। कहने लगीं , ' यह भी हमारे बच्चे ही ठहरे ! '

' फिर आज की पत्रकारिता भी निरंतर बदल रही है। इन में से हर कोई तो मशहूर एंकर , एडीटर तो हो नहीं जाएगा। जैसा कि यह सोच रहे होंगे। ' मैं ने कहा , ' इस दलाली वाली पत्रकारिता में अब कौन सर्वाइव कर पाएगा , कहना मुश्किल है। तो इन के बाक़ी की नौकरियों के ऑप्शन हम क्यों बंद कर दें , नंबर देने में कंजूसी कर के। ' मैं ने उन से साफ़ कहा। 

वह सहमत हो गईं। बाक़ी आगे उन्हों ने क्या किया , वह ही जानें। पर जब रिजल्ट आया तो हिंदी मीडियम का छात्र टॉपर निकला। 

तो बताऊं कि मैं अपने छात्रों को बिलकुल निराश नहीं करता। न अपने पाठकों को। जानता हूं कि अगर अपठनीय , कुतर्क या झूठ लिखूंगा तो मुझे कोई भला क्यों पढ़ेगा। फिर अगर कोई विद्यार्थी भी अपने कैरियर में तरक्की करता है तो मेरा दिल बल्लियों उछल जाता है। जैसे कि बी एच यू में ही एक छात्र मुझे मिला। बिहार से था। उस के घर में , रिश्ते में हर कोई आगे था। कोई आई ए एस , आई पी एस , डाक्टर आदि। बस वह ही एक पिछड़ता जा रहा था। ओवर एज होने के मुहाने पर खड़ा , फ्रस्ट्रेशन की घंटी बजा रहा था। हार कर मॉस कम्युनिकेशन करने आ गया। मैं ने उसे भरपूर समझाया। बाद में फ़ोन पर भी। बराबर। फिर मॉस कम्युनिकेशन की एक सफलता ने उस की ज़िंदगी में रंग भर दिया। कुछ समय बाद वह बिहार की प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया। उस के हर्ष का कोई ठिकाना नहीं था। मैं भी चकित था। 

मुलायम सिंह यादव जब पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने तो उन का ध्यान सरकारी नौकरियों में , ख़ास कर पुलिस फ़ोर्स में अपने लोगों को भर्ती करने पर बहुत था। अपने लोगों , मतलब यादव लोगों को। एक बार पुलिस भर्ती में एक यादव डी आई जी को उन्हों ने सिपाही भर्ती के लिए तैनात किया। उस डी आई जी को सिपाही में भर्ती के लिए एक लंबी सूची भी भेज दी। एक दिन उस डी आई जी से फ़ोन पर भर्ती के बारे में पड़ताल की। तो डी आई जी ने उन्हें संकोच में पड़ते हुए , सहमते हुए बताया कि , ' एक बड़ी दिक़्क़त आ गई है सो आप की भेजी सूची में सभी की भर्ती नहीं हो पाएगी। '

मुलायम ने पूछा कि , ' क्या दिक़्क़त है ? ' कौन अड़ंगा लगा रहा है , उस का नाम बताओ। अभी हटाता हूं उसे। ' तो उक्त डी आई जी ने बताया कि , ' कोई अड़ंगा नहीं लगा रहा। ' 

मुलायम ने पूछा , ' फिर ? '

' किसी की लंबाई कम पड़ रही है। किसी का सीना कम पड़ रहा है। ' उक्त डी आई जी ने अपनी मुश्किल बताई। 

' बस इतनी सी बात ? ' मुलायम ने कहा , ' ऐसा करो कि जिस की लंबाई कम है , उस का सीना उस में एडजस्ट कर दो। जिस का सीना कम पड़ रहा हो , उस की लंबाई उस में एडजस्ट कर दो। सब को भर्ती कर दो ! '

तो मैं नंबर देते समय उदारता तो बहुत बरतता हूं। लेकिन कभी भूल कर भी मुलायम फ़ार्मूला अख़्तियार नहीं करता। न लंबाई , सीने में एडजस्ट करता हूं न सीना , लंबाई में। बहुत से बच्चों को फेल भी करने का दुर्भाग्य झेलता रहता हूं। भारी मन से।  


Friday, 22 July 2022

कहां प्रेमचंद , कहां संजीव !

दयानंद पांडेय 


प्रेमचंद तो बेहद पठनीय लेखक हैं। बेहद लोकप्रिय भी। आप प्रेमचंद से बहुत जगह सहमत या असहमत हो सकते हैं पर उन की पठनीयता पर प्रश्न नहीं उठा सकते। वहीं संजीव बेहद अपठनीय लेखक हैं। घनघोर जातिवादी। लेकिन राजेंद्र यादव ने उन का प्रभा मंडल बना दिया। उस प्रभा मंडल का शव कुछ लोग लादे हुए अभी तक घूम रहे हैं। हां , संजीव की इच्छा ज़रुर प्रेमचंद को छूने की रही है। लेकिन प्रेमचंद का नाख़ून भी नहीं छू सके हैं। क्यों कि जातिवादी हो कर एक तो आप बड़े लेखक नहीं हो सकते। दूसरे लेखक का प्रभामंडल पाठक बनाते हैं। संपादक या आलोचक नहीं। संपादक या आलोचक किसी लेखक की शान में पटाखे तो फोड़ सकते हैं , लेखक की शान में बैंड तो बजा सकते हैं , लेखक को पठनीय नहीं बना सकते। लोकप्रिय नहीं बना सकते। जैसा कि प्रेमचंद को उन के पाठकों ने लोकप्रिय बनाया। अभी तक बनाए हुए हैं। इस लिए भी कि प्रेमचंद बेहद पठनीय लेखक हैं।  प्रेमचंद के तमाम खल-पात्र ब्राह्मण हैं। प्रेमचंद ब्रिटिश राज के लेखक हैं। ब्रिटिश राज में ब्राह्मण भी सामान्य प्रजा ही था। बल्कि भिखमंगा था। जब कि प्रेमचंद के समय में गांव में सब से बड़े खल-पात्र कायस्थ हुआ करते थे। कायस्थ मतलब पटवारी। लेखपाल। गांव की जर-ज़मीन के तमाम विवाद पटवारी की ही देन थे। आज भी हैं।  पर प्रेमचंद की कथा में कहीं भी किसी भी रचना में कोई पटवारी खल-पात्र उपस्थित नहीं है। लेकिन इस एक कारण से प्रेमचंद का लेखक छोटा नहीं पड़ता। कहीं भी। कभी भी। फिर यह लेखक का विवेक है कि किसे नायक बनाए , किसे खलनायक। लेकिन देखिए कि प्रेमचंद को स्थापित किस ने किया ? गढ़ा किस ने ?  महावीर प्रसाद द्विवेदी ने। रामचंद्र शुक्ल ने। इन लोगों ने कभी यह नहीं कहा या कहीं यह लिखा कि प्रेमचंद तो ब्राह्मण के ख़िलाफ़ लिखते हैं। रामचंद्र शुक्ल तुलसी के बाद अगर किसी की घनघोर प्रशंसा करते हैं तो प्रेमचंद की। स्थापित करते हैं प्रेमचंद को। स्थाई तौर पर। परमानंद श्रीवास्तव की तरह तुरंता तौर पर नहीं। अवध उपाध्याय जैसे निंदक आलोचक भी थे प्रेमचंद के। अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद पर चोरी का आरोप भी लगाया। ख़ास कर रंगभूमि पर। पर आज अवध उपाध्याय को कितने लोग जानते हैं ? प्रेमचंद को लेकिन दुनिया जानती है। 

प्रेमचंद की शुरुआती कहानी है पंच परमेश्वर। प्रेमचंद ने जब सरस्वती में इसे छपने भेजा तो महावीर प्रसाद द्विवेदी संपादक थे सरस्वती के। प्रेमचंद ने कहानी का शीर्षक दिया था पंचों के भगवान। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस कहानी में न सिर्फ़ कई संशोधन किया , पुनर्लेखन किया बल्कि शीर्षक भी बदल कर पंचों के भगवान की जगह पंच परमेश्वर कर दिया। पंचों के भगवान और पंच परमेश्वर में कितनी दूरी है , कहने की ज़रुरत नहीं है। प्रेमचंद में जातीय अहंकार नहीं था। संजीव में बहुत है। जातीय जहर में डूब कर कोई बड़ा लेखक नहीं बन सकता। पठनीय भी कैसे बन सकता है भला। एक पत्रकार हैं दिलीप मंडल। बेहद प्रतिभावान। पर जातीय जहर में आकंठ डूब कर अपनी प्रतिभा को ख़ुद ही कुचल बैठे हैं। पर यह जातीय जहर उन की दुकानदारी है। ख़ूब पैसा पीट रहे हैं। लेकिन संजीव तो अपनी रचनाओं और टिप्पणियों में जहर बो कर भी पैसा नहीं पीट रहे। जैसे पठनीयता में विपन्नता ही उन की पूंजी है वैसे ही आर्थिक मामले में भी वह विपन्न ही हैं। दिलीप मंडल की तरह पैसे नहीं पीट रहे , जातीय जहर से। राजेंद्र यादव ने हंस में संजीव को कार्यकारी संपादक ज़रुर बनाया था पर ऐसे जैसे उन पर बड़ी कृपा कर रहे हों। सिर्फ़ दस हज़ार रुपए ही वेतन भी देते थे। इतने कम वेतन में दिल्ली में गुज़ारा मुश्किल ही नहीं , बहुत मुश्किल होता है। 

ख़ैर , वाल्मीकि , वेदव्यास , कालिदास , भवभूति , कबीर , तुलसी , मीरा , सूर , जायसी , रसखान , रहीम , मीर , ग़ालिब , से लगायत टैगोर , बंकिम , टालस्टाय , ब्रेख्त , नेरुदा , शेक्सपीयर , शरतचंद्र , प्रेमचंद , महाश्वेता देवी , आशापूर्णा देवी आदि किसी के यहां भी जातिवाद का जहर मिलता हो तो कृपया बताएं। जातीय जहर आदमी को आदमी नहीं रहने देता। तो रचना कैसे बड़ी होगी भला जातीय जहर का खाद पानी ले कर। लेखक तो अंतत: टुच्चा ही साबित होगा। जाति या धर्म का जहर रचना और लेखक दोनों को छोटा बना देती है। यह बात बारंबार सिद्ध हुई है। होती रहेगी। वामपंथी लेखन अचानक शोषक और शोषित के द्वंद्व से निकल कर कब जातीय जहर की खोह में समा गया , इस पर शोध होना चाहिए। 

ख़ैर , रही बात आलोचकों के नाम पर कुछ कुकुरमुत्तों की तो इन की इन दिनों पौ बारह है। आज के यह कुकुरमुत्ते आलोचक तारीफ़ करते समय दरबारी बन जाते हैं और आलोचना करते समय असभ्य। संजीव को ले कर नरेश सक्सेना की बात भी बहुत हो रही है। नरेश सक्सेना ने कुछ कविताएं बहुत अच्छी लिखी हैं पर मंच पर आते ही वह बिखर जाते हैं। बहक जाते हैं। फिसल-फिसल जाते हैं। कुछ का कुछ बोल जाते हैं। अपने कहे पर अटल भी नहीं रहते। तुरंत ही बदल जाते हैं। छीछालेदर की हद तक। फिर कहानी उन का विषय नहीं है। लेकिन अखिलेश की कहानी वह ट्रेन के ट्वायलेट के पास भी जा कर पढ़ने का अतिरेक बता जाते हैं। जब कि अखिलेश भी अपठनीय लेखकों में शुमार हैं। बेहद अपठनीय लेखक हैं अखिलेश। हां , तद्भव के संपादक वह भले हैं। तमाम विवाद के बावजूद तद्भव में पठनीयता है। रवि भूषण तो एक लीगल नोटिस से डर जाने वालों में से हैं। आलोचना क्या खा कर करेंगे भला। वीरेंद्र यादव प्रेमचंद तक ही अपने को सीमित रखें तो बेहतर। अखिलेश , महुआ माजी आदि की बात करते समय वह दरबारी बन जाते हैं। उन का अध्ययन , उन की विद्वता का विरवा इस फेर में झुलस जाता है। तब जब कि महुआ माजी पर रचना चोरी का आरोप सिद्ध हो चुका है। कम से कम दो उपन्यास उन के चोरी के हैं। अब वह झारखंड का मंत्री स्तर का सरकारी पद भोग रही हैं। नरेश जी की तरह वीरेंद्र यादव भी अकसर बिखर और बहक जाते हैं। संतुलित नहीं रह पाते वह। वैचारिकी के विचलन का बोझ भी बहुत है उन के ऊपर। नतीज़तन वीरेंद्र यादव आलोचक नहीं , एक्टिविस्ट आलोचक बन कर उपस्थित हैं। चुनी हुई चुप्पियां , चुने हुए विरोध का जाल बहुत बड़ा है उन का। वह भूल गए हैं कि पूर्वाग्रह आप को बड़ा नहीं , छोटा बना देता है। जीवन हो या रचना या आलोचना। हर कहीं। बाक़ी हमारे यहां शव पर भी फूल चढ़ा कर सम्मान देने की परंपरा है। आप चढ़ाते रहिए फूल। रोक भी कौन रहा है। एक पूर्व सांसद की अंगरेजी में जो कहूं , हाऊ कैन यू रोक !

अच्छा यह बताइए कि चतुरसेन शास्त्री , अज्ञेय , मोहन राकेश , धर्मवीर भारती , कमलेश्वर , शिवानी , मन्नू भंडारी , मनोहर श्याम जोशी , ममता कालिया आदि तमाम महत्वपूर्ण लेखकों की चर्चा नामवर सिंह या अन्य आलोचकों ने भी नहीं की तो क्या यह लेखक ख़त्म हो गए ? ख़त्म हो जाएंगे भला ? इन के पाठक इन्हें मर जाने देंगे ? ऐसे तमाम लेखक और कवि हैं जिन के पाठक उन्हें जीवित बनाए रखते हैं। बनाए रखेंगे। आलोचक या संपादक नहीं। 

सौ बात की एक बात जब रचना बड़ी होती है तो आलोचक भी बड़ा होता है। रचना ही आलोचक को बड़ा बनाती है। मतलब यह कि रचना बड़ी तो आलोचक बड़ा। उदाहरण दे कर कहूं तो रामचंद्र शुक्ल आलोचक बड़े बने तो तुलसीदास और प्रेमचंद की रचना के कारण बने। रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी और प्रेमचंद को ऐसा स्थापित किया कि आज तक तमाम ज़ोर के बावजूद कोई हिला न पाया। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसी तरह कबीर को स्थापित किया। रामविलास शर्मा बड़े आलोचक बने तो इस लिए कि निराला की रचना बड़ी थी। रामचंद्र शुक्ल , हजारी प्रसाद द्विवेदी , राम विलास शर्मा कभी किसी का दरबारी बन कर या असभ्य बन कर कुछ नहीं लिखते दिखते। स्पष्ट है कि आलोचक न रचना को बड़ा बना सकता है , न लेखक को। छोटी रचना को बड़ा बताने के चक्कर में आलोचक ख़ुद भी बौना बन जाता है। संजीव प्रसंग में दुर्भाग्य से यही हो गया है। आलोचक तो साधू होता है। अध्ययन का साधू। किसी खूंटे से बंध कर नहीं रहता। रमता जोगी , बहता पानी की तरह नहीं है आलोचक तो फिर काहे का आलोचक। कबीर कहते ही हैं :

जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।

मोल करो तलवार को पड़ा रहन दो म्यान ॥

तो लेखक और आलोचक को भी कबीर की राह चलना चाहिए। जातीय जहर से भरसक बचना चाहिए। रचना में भी , जीवन में भी। गोरख के शबद में जो कहूं :

मरो वै जोगी मरौ, मरण है मीठा। 

मरणी मरौ जिस मरणी, गोरख मरि दीठा॥ 

गोरख यहां अहंकार को मारने की बात करते हैं। गोरख वैसे भी कवियों के कवि हैं। कबीर , मीरा , नानक , जायसी आदि गोरख की शाखाएं हैं। गोरख की एक लंबी परंपरा है। पर हमारे आज के कवि , लेखक , आलोचक जाने किस अहंकार में चूर हैं। यह सारे विवाद अहंकार से ही उपजे हुए हैं। रही सही कसर वैचारिकी का कब्ज़ या वैचारिकी की पेचिश निकाल देती है। कहते ही हैं कि अज्ञान आदमी को अहंकारी बना देता हैं। 

प्रेमचंद तो गांधीवादी हैं। बतौर व्यक्ति भी और लेखक भी। लेकिन लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की अध्यक्षता की बिना पर प्रेमचंद को वामपंथी बना दिया जाता है। यह बहुत ही हास्यास्पद है। लगे हाथ एक बात और। वामपंथ की खाल ओढ़े लेखकों और आलोचकों ने एक ग्रंथि और बना दी है कि अगर आप वामपंथी नहीं हैं तो लेखक नहीं हैं। कवि नहीं हैं। आलोचक नहीं हैं। आदमी ही नहीं हैं। ग़ज़ब है यह नैरेटिव भी। एक कथा याद आती है। आप भी सुनिए। 

एक पुराना क़िस्सा है। एक बार एक आदमी किसी महत्वपूर्ण आदमी के पास गया। और कहा कि आप के लिए एक दैवीय वस्त्र ले आया हूं। वह व्यक्ति बहुत ख़ुश हुआ। कि वह दैवीय वस्त्र धारण करेगा। पर तभी उसे याद आया कि राज्य के एक मंत्री से उसे काम था। फिर उस ने सोचा कि क्यों न वह यह दैवीय वस्त्र उस मंत्री को भेंट कर दे। मंत्री ख़ुश हो जाएगा और उस का काम बन जाएगा। सो उस ने उस व्यक्ति से अपनी मंशा बता दी कि वह यह दैवीय वस्त्र उसे दे दे ताकि वह मंत्री को दे सके। उस व्यक्ति ने बताया कि यह दैवीय वस्त्र वह ख़ुद ही पहना सकता है। कोई और नहीं पहना या पहन सकता है। सो वह व्यक्ति मंत्री के पास उस आदमी को ले कर गया। मंत्री भी बहुत ख़ुश हुआ कि उसे दैवीय वस्त्र पहनने को मिलेगा। फिर वह बोला कि राजा के सामने मैं दैवीय वस्त्र पहनूंगा तो यह अच्छा नहीं लगेगा। ऐसा करते हैं कि यह दैवीय वस्त्र राजा को भेंट कर देते हैं। 

अब मंत्री उस दैवीय वस्त्र वाले आदमी को ले कर राजा के पास पहुंचा। राजा को दैवीय वस्त्र के बारे में बताया। और कहा कि यह आप को भेंट देने के लिए आया। राजा बहुत ख़ुश हुआ। मंत्री से कहा कि आप लोग मेरा इतना ख़याल रखते हैं , ऐसा जान कर बहुत अच्छा लगा। राजा दैवीय वस्त्र पहनने के लिए राजी हो गया। उस आदमी ने कहा कि दैवीय वस्त्र पहनने के लिए स्नानादि कर लें। फिर मैं पहनाऊं, इसे। राजा नहा-धो कर आए तो उस आदमी ने सब से कहा कि राजा को छोड़ कर सभी लोग बाहर चले जाएं। लोग कक्ष से बाहर निकल गए। अब राजा से उस आदमी ने कहा कि जो भी वस्त्र देह पर हैं , सब उतार दें। राजा ने उतार दिया। आदमी ने कहा कच्छा भी उतारिए। राजा ने आपत्ति की कि यह कैसे हो सकता है। आदमी ने कहा , दैवीय वस्त्र पहनने के लिए निकालना तो पड़ेगा। राजा ने बड़ी हिचक के साथ कच्छा भी उतार दिया। अब उस आदमी ने अपने थैले से कुछ निकाला जिसे राजा देख नहीं सका। फिर उस आदमी ने कुछ मंत्र पढ़ते हुए प्रतीकात्मक ढंग से राजा को दैवीय वस्त्र पहना दिया। और राजा से कहा कि अब कक्ष से बाहर चलें महाराज ! 

राजा ने पूछा , इस तरह निर्वस्त्र ? वह आदमी बोला , क्या कह रहे हैं , राजन ? क्या आप को दैवीय वस्त्र नहीं दिख रहा ? राजा ने कहा , बिलकुल नहीं। आदमी ने कहा , राम-राम ! ऐसा फिर किसी से मत कहिएगा। राजा ने पूछा , क्यों ? आदमी ने बताया कि असल में जो अपने पिता का नहीं होता , उसे यह दैवीय वस्त्र कभी नहीं दिखता। राजा बोला , ऐसा ! आदमी ने कहा , जी ऐसा ! अब राजा ने फ़ौरन पैतरा बदल दिया। दैवीय वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा शुरु करने लगा। राजा निर्वस्त्र ही बाहर आया तो लोग चौंके। कि राजा इस तरह नंगा ! पर लोग कुछ बोलते , उस के पहले ही उस आदमी ने लोगों को बताया कि जो आदमी अपने बाप का नहीं होगा , उस को यह दैवीय वस्त्र नहीं दिखेगा। राजा ने फिर से वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा शुरु की। राजा की देखा-देखी मंत्री समेत सभी दरबारी लोग भी राजा के दैवीय वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। कि क्या तो वस्त्र है ! कैसी तो चमक है ! ऐसा बढ़िया वस्त्र कभी देखा नहीं आदि-इत्यादि। अब चूंकि राजा ने दैवीय वस्त्र पहना था तो तय हुआ कि इस ख़ुशी में नगर में राजा की एक शोभा यात्रा निकाली जाए। 

राजा की शोभा यात्रा निकली नगर में। पूरे नगर की जनता देख रही थी कि राजा नंगा है। पर शोभा यात्रा के आगे-आगे प्रहरी नगाड़ा बजाते हुए उद्घोष करते हुए चल रहे थे कि आज राजा ने दैवीय वस्त्र पहन रखा है। लेकिन जो अपने बाप का नहीं होगा , उसे वह यह वस्त्र नहीं दिखेगा। जो अपने बाप का होगा , उसे ही यह दैवीय वस्त्र दिखेगा। अब नगर की सारी जनता राजा के दैवीय वस्त्र का गुणगान कर रही थी। भूरि-भूरि प्रशंसा कर रही थी। राजा के दैवीय वस्त्र के बखान में पूरा नगर मगन था। राज्य के किसी गांव से एक व्यक्ति भी अपने छोटे बच्चे को कंधे पर बिठा कर नगर आया था। बच्चे ने अपने पिता से पूछा , बापू राजा नंगा क्यों है ? उस व्यक्ति ने अपने बच्चे को दो थप्पड़ लगाया और बोला , राजा इतना बढ़िया कपड़ा पहने हुए है और तुझे नंगा दिख रहा है ? बच्चा फिर बोला , लेकिन बापू , राजा नंगा ही है ! अब गांव घर पहुंच कर उस आदमी ने अपनी पत्नी की अनायास पिटाई कर दी। पत्नी ने पूछा , बात क्या हुई ? वह व्यक्ति बोला , बोल यह बच्चा किस का है ? पत्नी बोली , तुम्हारा ही है। इस में पूछने की क्या बात है भला ? उस आदमी ने कहा , फिर इसे राजा का दैवीय वस्त्र क्यों नहीं दिखा ? बच्चा बोला , पर बापू राजा नंगा ही था ! उस आदमी ने फिर से बच्चे और पत्नी की पिटाई कर दी !

वामपंथी बिरादरी ने लेखकों में यही भ्रम फैला रखा है कि अगर आप वामपंथी नहीं हैं तो अपने बाप के नहीं हैं। सो सब के सब घर में घंटी बजा कर आरती गाते हुए बाहर वामपंथी बने हुए हैं। रचना और आलोचना कौड़ी भर की नहीं है पर वामपंथी होने की खाल ओढ़ कर , भ्रम भूज कर आप बहुत बड़े लेखक और आलोचक बनने की सुविधा और प्राथमिकता पा लेते हैं। नंगा राजा बने घूम रहे हैं। गुड है , यह भी ! 


Saturday, 2 July 2022

अविकल , अभिराम मालिनी

दयानंद पांडेय 



देश प्रेम की इस महफ़िल के दर्शकों में राज्यपाल आनंदी बेन पटेल , मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ भी थे। तमाम और सारे नामचीन लोग। और अविकल , अभिराम मालिनी थीं। मालिनी अवस्थी। आज़ादी के गीत गाती हुई , मीरा की तरह नाचती हुई। बहुत समय बाद आज की शाम इतनी मधुर , इतनी संगीतमय , इतनी सघन , इतनी गरिमामयी , इतनी भावुक और इतनी समृद्ध हुई। यह आज़ादी के अमृत महोत्सव पर सोनचिरैया द्वारा मुक्तिगाथा की शाम थी। मुक्तिगाथा की प्रस्तुति में मालिनी अवस्थी ने आज कलेजा काढ़ लिया। मालिनी अवस्थी निःसंदेह अब बहुत बड़ी स्टेज परफार्मर हो चली हैं। हेमा मालिनी और इला अरुण को पीछे छोड़ती हुई। मालिनी का आज का स्टेज परफॉर्मेंस अविरल , अलहदा , अदभुत और अनूठा था। मालिनी अवस्थी को मैं चार दशक से भी अधिक समय से सुनता और देखता आ रहा हूं। मालिनी की गायकी की किसिम-किसिम के रंग से रुबरु और वाकिफ़ हूं। मुतासिर भी। ग़ज़ल गायकी , शास्त्रीय गायन , लोक गायन जैसे कई पड़ाव हैं मालिनी के। स्टेज शो , टी वी शो भी उन की पहचान और शोहरत में शुमार हैं। बेतरह। 


संगीत साधना है। तपस्या है। आत्मा भी। मालिनी ने आज इसी आत्मा को देशभक्ति और स्वतंत्रता संग्राम को संगीतात्मक कथा में निरुपित कर लखनऊ में संगीत नाटक अकादमी के संत गाडगे प्रेक्षागृह में सदानीरा नदियों की अजस्र धारा को जैसे प्रवाहित कर दिया। मंगल पांडेय की क्रांति कथा से ब्रिटिश राज के अत्याचारों की कथा को गायन , नृत्य , अभिनय , वाचन और चित्रों के कोलाज में जिस तरह शुरु किया वह अनिर्वचनीय था। अविकल था। आल्हा गाते आज मालिनी को सुनना जैसे किसी हरहराती नदी के वेग को सुनना था। क्रांतिकारियों की वीरता को आल्हा में ही सही स्वर दिया जा सकता था। मालिनी ने यही किया। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, / खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। 

रानी लक्ष्मी बाई की वीरगाथा गाते हुए मालिनी चौरीचौरा , काकोरी , नेता जी सुभाष चंद्र बोस , भगत सिंह , बिस्मिल , आज़ाद आदि अनेक क्रांतिकारियों की वीरगाथा में पगा आल्हा गाते हुए अचानक भोजपुरी गीतों पर आ गईं। भोजपुरी गाते-गाते ग़ज़ल पर आ गईं। आज़ादी की लड़ाई के समय तमाम प्रतिबंधित लोकगीतों , गीतों को मालिनी ने फिर से स्वर दे दिया। हम नहीं जानते थे कि अंगरेजों ने चैती , कजरी , ठुमरी बिरहा आदि को भी कभी प्रतिबंधित कर दिया था। पर मालिनी ने आज यह बताते हुए ऐसे कई सारे प्रतिबंधित गीत गाए। प्रार्थना , ग़ज़ल और बंदिश भी मालिनी की आज की गायकी के गमक के अंग थे। खटका , मुरकी कब आए और कब गए , यह जोहने और सोचने का अवकाश भी कहां था किसी के पास। था तो एक जादू था। सिर चढ़ कर बोलता जादू। गायकी में ठहर कर , आज़ादी की सांस का जादू। 


कोई घंटे भर की इस मुक्तिगाथा में कब 15 अगस्त और वंदे मातरम आ गया। कथा में कब विराम आ गया , पता ही नहीं चला। स्वतंत्रता संग्राम के इतने बड़े कालखंड को एक घंटे से कुछ कम समय में संगीत और नृत्य में बांध कर पेश करना बहुत कठिन और श्रमसाध्य था। खचाखच भरे हाल में अजब जोश था। लोग एकटक , अभिराम देख रहे थे। सुन रहे थे। लोग थे , वीरों की गाथा थी , मालिनी की गायकी थी और रह-रह तालियों की गड़गड़ाहट थी। दर्शकों में राज्यपाल आनंदी बेन पटेल , मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ भी थे। तमाम और सारे नामचीन लोग। और अविकल , अभिराम मालिनी थीं। मालिनी अवस्थी। आज़ादी के गीत गाती हुई , मीरा की तरह नाचती हुई। मंत्रमुग्ध करती हुई। 


मुक्तिगाथा की गायकी और इस के संगीत , नृत्य की जितनी तारीफ़ की जाए , कम है। नृत्य संयोजन लेकिन अप्रतिम था। कई बार बिरजू महराज याद आ गए। मालिनी की इस मुक्तिगाथा का जादू इसी एक बात से समझ लीजिए कि राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने कहा कि इस मुक्तिगाथा को देश भर के स्कूलों , कॉलेजों में दिखाया जाना चाहिए। वह मुक्तिगाथा से इतनी प्रभावित थीं कि राजभवन की तरफ से दस लाख रुपए सोनचिरैया को दिए जाने का ऐलान कर दिया। मुख्य मंत्री योगी ने कहा कि सोनचिरैया मतलब सोने की चिड़िया। ऐसे कार्यक्रम से देश को फिर से सोने की चिड़िया बना सकते हैं। बातें और भी बहुतेरी हुईं। फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। ठीक वैसे ही जैसे मुक्तिगाथा के सहयोगी कलाकारों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है।  


मुक्तिगाथा से अभिभूत मालिनी अवस्थी को मैं ने बधाई देते हुए कहा कि 2023 की आप पद्म भूषण हैं। यह सुन कर वह संकोच से भर गईं। मेरा दोनों हाथ पकड़ कर विनम्रता में शीश नवा दिया। यह मालिनी की विनम्रता है। लेकिन तय मानिए कि मैं ने कुछ भी ग़लत नहीं कहा है। मुक्तिगाथा मालिनी के संगीत का शिखर है। वह और भी शिखर ज़रुर छुएंगी। पर आज़ादी के इस अमृत महोत्सव में मुक्तिगाथा मालिनी का उत्कर्ष है। अभी तो मुक्तिगाथा को लखनऊ के लोगों ने देखा है। देश जब देखेगा , देखता ही रहेगा। थकेगा नहीं। मालिनी की मुक्तिगाथा से किसी को मुक्ति नहीं मिलने वाली। आज़ादी के इतिहास की ऐसी संगीतमय कथा दुर्लभ है। मुक्तिगाथा की लय और इस का लास्य दोनों ही इस कथा को अप्रतिम बनाते हैं। मालिनी को मानिनी ! अविकल , अभिराम मालिनी ! निर्मल गंगा सी बहती हुई। जानिए कि गंगा का एक नाम मालिनी भी है। निर्मल गंगा की तरह कल-कल बहती हुई गिरिजा देवी की यह शिष्या अभी बहुत आगे जाने वाली है। दिल थाम कर बैठिए।