प्रेम वही जो मन को छू जाए। जो मन में बस जाए। मनीषा की मल्लिका यही काम करती है। मन को छू कर , मन में बस जाती है। कहीं बहुत गहरे। परछाई की तरह साथ-साथ चलते हुए अंतस्तल को छू लेती है। मन एकांत में चला जाता है। प्रेम के एकांत में। इस एकांत की चांदनी इतनी नरम है , इतनी चटक है , इतनी पुरनम है , इतनी कशिश और इतनी अभिलाषा और उल्लास लिए है कि मन में घुंघरू बजने लगता है। आहिस्ता-आहिस्ता। जैसे किसी पाजेब का घुंघरू हो। प्रेम में पुलकित हो कर बज रहा हो । मल्लिका के प्रेम का आकाश इतना निर्मल , इतना निश्छल और इतना विराट है कि उसे किसी धागे , किसी सूत्र , किसी एक परिधि में बांध पाना नामुमकिन है। मल्लिका की ज़िंदगी का खटोला बहुत छोटा है , दुनिया बहुत छोटी है मल्लिका की। लेकिन मल्लिका का प्रेम , उस की एकनिष्ठता का आकाश कितना तो अनंत है। अनंत और उन्नत। प्रेम पर्वत शायद ऐसे ही बनते हैं। मल्लिका की भावनाओं और उच्छ्वास का सागर बहुत गहरा है।
मनीषा ने मल्लिका का ताना-बाना किसी चरखे पर , किसी करघे पर नहीं बुना है कि वह आवाज़ करे। मन की अलगनी पर बुना है , मन ही मन। बेआवाज़। ऐसे जैसे जल पर जल। कि कई बार तय करना मुश्किल हो जाता है कि मल्लिका के मन में मनीषा उतर गई हैं कि मनीषा के भीतर मल्लिका बैठ गई हैं। थाह पाते-पाते पता लगता है कि मल्लिका ही मनीषा के भीतर बैठ कर उन से अपनी सुघड़ कथा लिखवा ले गई हैं। किसी अनगढ़ हीरे की तरह जो तराशा नहीं गया है।
मल्लिका का प्रेम ऐसा ही अनगढ़ प्रेम है। जो प्रेमकथा की तरह तराशा नहीं गया है। जैसे बिखरे और उलझे हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र , वैसे ही मल्लिका का अकथ और अनिर्वचनीय प्रेम। अपने कक्ष में बैठी , रास्ते से गुज़रते , ठाकुर जी के मंदिर जाते हुए हरिश्चंद्र की राधे-राधे सुन कर ही वह पुलकित और विस्मित रहती है। जिस किसी सुबह वह राधे-राधे नहीं सुन पाती वह अधीर हो जाती है। और जब कभी कई दिन बीत जाते हैं राधे-राधे सुने तो वह बेचैन सी हो जाती है। मनीषा ने मल्लिका की इस बेकली को बहुत बेचैन हो कर ही बांचा है , बिना किसी शोर के। प्रेम में विदग्ध मल्लिका की अकुलाहट और छटपटाहट को धीमी आंच पर दूध की तरह गरम होने दिया है। लाल होने दिया है। खूब और खूब लाल।
मल्लिका पढ़ते हुए एकाध बार हजारी प्रसाद द्विवेदी के वाणभट्ट की आत्मकथा की भट्टिनी की याद आ जाती है। मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी याद आ जाती है। अज्ञेय की सुगठित भाषा और निर्मल वर्मा के गद्य का नीरव एकांत याद आ जाता है। मल्लिका के प्रेम की भाषा में जो स्वाद है , जो शालीनता और स्निग्धता है वह मोहित करती है। गंगा की लहरों की तरह बहती भाषा में मल्लिका को लहर-लहर बांचना भी अभिभूत करता है। यह लहर-लहर शब्द मल्लिका में वर्णित शब्द है । पूरे उपन्यास में दो कि तीन बार यह लहर-लहर शब्द उपस्थित होता है अपनी पूरी रवानी और ताजगी के साथ।
पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर में तमाल नदी के तट पर बसे एक गांव की मल्लिका बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की रिश्ते की बहन है। बाल विधवा है। उस का संघर्ष , उस की मुश्किलें , उस की निर्दोष मासूमियत और ज़िंदगी की जद्दोजहद को बहुत बारीकी और आत्मीयता से मनीषा ने मल्लिका में परोसा है। रेशा-रेशा उस का दुःख, उस का सुख किसी तबले की थाप की तरह मल्लिका के पन्नों में बजता रहता है। तबले की इस थाप में प्रेम की बांसुरी की संगत करते हुए , बजते हुए , मल्लिका का प्रेम गंगा की लहरों में जीवन बन कर बहता मिलता है। मन में मिसरी सी मिठास उतरती है मल्लिका के पन्नों में। मल्लिका का बचपन बिना मां के बीतता है पर बड़ी बहन के साथ मीठा-मीठा बीतता है। पिता में ममत्व इतना है कि मां की कमी मल्लिका के जीवन में नहीं दिखती। दिखती भी कैसे भला , बाल विवाह की मारी मल्लिका बाल विधवा भी बन जाती है। इतनी अबोध है कि अपने बाग़ में आम तोड़ने आए बच्चों को खदेड़ने में अपने पति को भी मार कर घायल कर देती है। बाद में मल्लिका के श्वसुर उस के घर अपने बेटे के साथ उलाहना देने आते हैं तब भी वह अपने पति को नहीं पहचान पाती। पहचानती भी कैसे , वह तो मिठाई खाते , ऊंघते हुए किसी तरह विवाह अनुष्ठान को संपन्न किए हुए होती है। उस का पति भी इतना अबोध है कि उसे नहीं पहचान पाता। न उसे , न अपनी ससुराल का घर जहां वह बारात में दूल्हा बन कर आ चुका है। दोनों समधी बच्चों की अबोधता पर ठठा कर हंस पड़ते हैं। लेकिन अब दोनों जब एक दूसरे को जान लेते हैं तो मिलने लगते हैं। चुपके-चुपके। नदी किनारे , बाग़ में। इधर-उधर। प्रेम की कोंपल भी फूटती है। बात चुंबन तक भी आ जाती है।
मल्लिका आठवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही थी. वह एफ़.ए. की । उसी बीच फागुन आ धमका था. उसने गांव के एक बच्चे से कह कर तमाल नदी के किनारे वाले विशाल वट के नीचे, बहुत संकोच से मल्लिका को बुलाया। वह उछलती- कूदती चली आई। अबीर साथ लाया था वह। उस के किशोर गालों पर अबीर लगाते उस के हाथ कांप रहे थे। उस क्षण दोनों नदी किनारे के वट के नीचे बैठे हुए दो पवित्र पुष्पों- से दिखाई दे रहे थे। दोनों का मन जोर से धक-धक कर रहा था। उस के छन्दमय हाथों के कोमल स्पर्श ने मल्लिका के अंतस के बंद कली को छू दिया था और उस की पंखुड़ियों ने खिलना चाहा था किंतु लज्जा से नेत्र झुक गए थे।
“ मैं परीक्षाओं के बाद कलकत्ता चला जाउंगा. कॉलेज के फॉर्म भरने हैं न। ” मल्लिका बहुत उदास हो गई थी.... चुपचाप तमाल की शांत लहरों में कंकर फेंकती रही।
“अगले वर्ष तुम कलकत्ता आ ही जाओगी। मैं मां से कह कर बुलवा लूँगा अपने पास। आओगी न?”
“ हाँ, बाबा से कह दूंगी, मुझे श्वसुरगृह भेज दो।“ वह दृढ़ स्वर में निस्संकोच बोली थी।
“आहा! बुद्धू तुम्हें तनिक लज्जा न होगी? और तुम्हें वे सहज भेज देंगे?” सुब्रत ने हंस कर कहा था।
“हाँ! वो मेरी कोई बात नही टालते हैं।“ कह कर मल्लिका ने मुंह बिचकाया।
अपनी वधू के इस भोलेपन पर तब उसने चिबुक उठा कर उस के ताज़े नीबू की महक से भरे होंठों का पहला अनाड़ी चुम्बन लिया था। उस चुम्बन की स्मृतियाँ स्थायी हैं, स्मृति से मिट नहीं सकतीं. भले उस चुम्बन देने वाले का चेहरा स्मृति में धूमिल हो चुका हो।
बालपन और किशोर वय की पहली सीढ़ी का यह प्यार पुलकित हो कर पुष्प पल्ल्वित होता अपनी खुशबू में मचल ही रहा होता है , इत्र की तरह गमक ही रहा होता है कि मल्लिका का पति सुब्रत अचानक ही महामारी का शिकार हो कर मल्लिका को विधवा बना जाता है। प्यार की बरसात समाप्त हो जाती है। मल्लिका का जीवन मझधार में पड़ जाता है। संस्कृत के विद्वान पिता टूट जाते हैं। तरह-तरह की यातनाएं हैं मल्लिका की ज़िंदगी में। लेकिन जो भी कोई देखता है मल्लिका की मदद के बहाने उसे भोगने की लालसा में पड़ जाता है। गांव के स्कूल का विधुर अधेड़ अध्यापक हो या बड़ी बहन के रिश्ते का अधेड़ विधुर। भाई अनिर्वान कलकत्ते में पढ़ते-पढ़ते क्रांतिकारी बन जाता है। घर से कट जाता है। बड़ी बहन अपनी ससुराल और ऐश्वर्य में मगन है। रौशनी दिखती है , आसरा मिलता है मल्लिका को तो रिश्ते के भाई बंकिम में। बंकिम सिविल सर्विस में हैं। उपन्यास लिखने वाले बंकिम मल्लिका का दुःख समझते हैं , संबल भी बनते हैं पर बंकिम की पत्नी का शक उसे बंकिम का घर छोड़ने को विवश कर देता है।
मल्लिका काशी जाना चाहती है। जैसे विधवाएं जाती हैं। बंकिम व्यवस्था कर देते हैं मल्लिका के काशी जाने और वहां किराए के घर की भी। कलकत्ते से काशी की यातनापूर्ण यात्रा मल्लिका के जीवन में सुबह का सूर्य बन कर उपस्थित होती है। हरिश्चंद्र उस के पड़ोसी बनते हैं। हरिश्चंद्र हिंदी के लेखक हैं। व्यवसायी हैं। उन का एक सार्वजनिक जीवन है। उन की ज़िंदगी में पत्नी के अलावा भी और औरतें हैं। कब आहिस्ता से मल्लिका की ज़िंदगी में भी वह दाखिल हो जाते हैं , मल्लिका भी नहीं जान पाती। लेकिन मल्लिका हरिश्चंद्र की ज़िंदगी में नैसर्गिक प्रेम की तरह उपस्थित होती है। अपने आप को समर्पित और न्यौछावर करती हुई बिना किसी प्रतिदान की कामना किए वह अपना अवदान ही जानती है। मल्लिका के घर की सीढ़ियां कम पड़ जाती हैं उस के निश्छल प्रेम के आगे। प्रेम की इतनी सीढ़ियां हैं , इतने मोड़ और इतने मेहराब हैं मल्लिका और हरिश्चंद्र के प्रेम में कि उन की कोई और उपमा नहीं मिलती। कोई और उदाहरण नहीं मिलता। इस बंगालन मल्लिका का प्रेम परवान चढ़ता है जैसे दिन में सूर्य चढ़ता है बिन कुछ बोले। बस सूर्य का ताप ही जैसे बताता है , वैसे ही मल्लिका का प्रेम बताता है अपने ताप को। बात हरिश्चंद्र के घर तक पहुंचती है। तो उन की पत्नी तीज के त्यौहार के दिन बुलवा भेजती हैं मल्लिका को अपने घर। मल्लिका पहुंचती है हरिश्चंद्र के घर। अरे तुम तो बच्ची हो ! से शुरू हो कर सम्मान सहित तमाम सारे ताने सुन कर वह लौट रही होती है कि हरिश्चंद्र उस का स्वागत करते हुए उसे रोक लेते हैं। अपनी बैठक में ले जाते हैं और प्रेम के उत्सर्ग में रत हो जाते हैं। संसर्ग के बाद ही वह लौट पाती है। गंगा के बजरे पर वह समारोह में वह हरिश्चंद्र की आभा देख चुकी है। अपने घर की छत की बगल में हरिश्चंद्र की छत पर भी काव्य रस का रंग जान चुकी है। संस्कृत की जानकार है और बांग्ला उस की मातृभाषा। हिंदी में उस की भटक खुलते-खुलते खुल रही है। एक दिन ऐसा आ जाता है कि हरिश्चंद्र और मल्लिका हिंदी और बांग्ला के सेतु बन जाते हैं। निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल / बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल । की परिकल्पना फलीभूत होती दिखती है। वह हिंदी में बांग्ला के अपने बंकिम भैया के उपन्यास के अनुवाद करने लगती है। भारतेंदु मंडल में सदस्य बन कर हिंदी सेवा में लग जाती है। मल्लिका का एक नाम चंद्रिका भी है। हरिश्चंद्र चंद्रिका वह निकालने लगते हैं। बाद में इस का नाम हरिश्चंद्रिके कर देते हैं। कवि वचन सुधा और बाला बोधिनी पत्रिका भी। मल्लिका का लेखकीय सहयोग लेते हैं। मल्लिका का अनुवाद भी। एक प्रकाशन गृह भी खोलते हैं , उस में भी मल्लिका का नाम जुड़ा होता है। जब आर्थिक स्थिति बिगड़ती है तो मल्लिका उन्हें पांच हज़ार रुपए का सहयोग भी करती है ताकि कोई प्रकाशन कार्य न रुके। यह सहयोग और सदभाव प्रेम में तब्दील होता जाता है और एक दिन मल्लिका के घर में हरिश्चंद्र बाहें फैला कर खड़े हो जाते हैं तो मल्लिका अपने को रोक नहीं पाती। अपने को समर्पित कर देती है। बनारस में गंगा तट की सीढ़ियों की तरह उतरती चढ़ती मल्लिका के प्यार के कई सारे घाट हैं। गामक में डूबी कई सारी गलियां। कल-कल बहती गंगा है। भावनाएं और संवेदनाएं हैं। कुछ बोले , कुछ अनबोले। मनीषा ने लिखा ही है , ' हर पुकार का उत्तर नहीं होता , कुछ पुकारों को अनुत्तरित रहना होता है। '
मल्लिका प्रतिवाद और तकरार करती हुई प्रेमिका नहीं है। समर्पिता है। साहिर लुधियानवी के एक गीत में कहें कि सखी री मेरा मन उलझे तन डोले की स्थितियां तो हैं लेकिन वह कभी भूल कर भी हरिश्चंद्र से कोई सवाल नहीं करती। मल्लिका के घर में हरिश्चंद्र की दो अचकन और टोपी हमेशा रखी रहती है। इस लिए कि माधवी जैसी तवायफों के पास जाना हो , घर में बवाल न हो तो बन ठन कर घर से निकलने के बजाय साधारण कपड़ों में निकलते हैं ताकि कोई सवाल न उठे। मल्लिका के घर आ कर वह अचकन टोपी पहन कर निकल जाया करते हैं। लेकिन मल्लिका के पास कोई प्रश्न नहीं होता कभी। एक दिन क्या होता है कि मल्लिका घर में अकेली है। जाने क्या सूझता है कि वह हरिश्चंद्र की अचकन और टोपी पहन कर , उन्हीं की तरह माथे पर टीका लगा कर हरिश्चंद्र का स्वांग कर ही रही होती है कि हरिश्चंद्र भी अचानक आ पहुंचते हैं। फिर तो जो दृश्य उपस्थित होता है , प्रेम का जो रस उपस्थित होता है तो रस नदी बन जाता है। अब मल्लिका हरिश्चंद्र है और हरिश्चंद मल्लिका बन जाते हैं। मल्लिका हरिश्चंद्र बन कर मल्लिका बने हरिश्चंद्र से प्यार करने लगती है। प्रेम में भीगे संवाद और दृश्य प्रेम का अनूठा पर्वत रचते हैं। इस पर्वत से प्रेम नदी अविरल बहती मिलती है। मनीषा ने इस देह दृश्य में प्रेम की गरिमा का ऐसा बिरवा रचा है कि प्रेम बिना अश्लील हुए , प्रेम की पुलक का सारा आकाश धरती पर न्यौछावर हो जाता है। प्रेम का बादर बरस-बरस खुद भीग जाता है। पढ़िए भी यह मादक अंश :
हरिश्चंद्र मुस्कुराए - हम्म, तो हमारा स्वांग धरा गया है। राधे रानी को कृष्ण बनने का चाव सूझा है। मन ही मन ज्यू तरल अनुभव कर रहे थे। हाय! क्या वे इस लायक हैं? यह तो प्रेम की पराकाष्ठा है, पागल श्रृद्धा है, जिसमें कोई व्यक्ति दूसरे में स्वयं को डुबो दे। एक अनोखे ढंग की मुक्त और आत्माभिमान भरी हंसी फूटी।
उन्होंने अपने केवड़ा महकते ओठों से मल्लिका के भाल का चुंबन ले लिया, सारिका जो सर पीछे किए, अपनी चोंच परों में छिपाए सो रही थी, जाग गई। बोल पड़ी - प्रणाम ! प्रणाम!
मल्लिका ने अपनी बड़ी आँखें खोल लीं, उनमें लाल - लाल डोरे थे, उनमें जो प्रतीक्षा पक्षी बंधे थे, एकाएक खुल गए। वह मुस्कुराई। ज्यू ने सुचिक्कण केशों में सरकती टोपी उठाकर माथे पर कस कर रख दी। हरिश्चंद्र ने बाहुपाश से मल्लिका को घेरा हुआ था।
" ज्यू! "
"धत्त! कहाँ मैं.....।" मल्लिका के कपोल रक्तिम दाड़िम से दहक उठे थे.
" सच मल्लिके ज्यू बनकर थोड़ा भार मेरा उठा लो, मैं अकेला कम पड़ता हूं जगत को।" ज्यू गंभीर होकर बोले.
" तो मल्लिका कहां जाएगी?" उसने होंठ वक्र करके पूछा।
" मैं मल्लिका बन जाया करूंगा, यदा - कदा।" वे कानों में फुसफुसा कर बोले। मल्लिका की देह में लहरें उठने लगीं, वह पर्यंक से नीचे उतरने को उद्धत हुई मगर प्रेमपाश का पहरा था। हरिश्चंद्र ने अपनी पहनी हुई टोपी बगल में तिपाई पर रख दी। अपने बालों को अंगलियों से बिखेर लिया। सादा सफ़ेद अंगरखे को बंदों से ढीला कर, बांहों से सरका दिया। वे मसनद पर टिके और करवट लिए लेटी, कृश - देह मल्लिका को अपने ऊपर खींच लिया।
" हरिश्चंद्र बाबू, दीवस भर हम कीतना परतीक्षा कीए, आपको हमारा श्मरण भी नहीं आयी।" हरिश्चंद्र चिबुक पर उंगली रखे मल्लिका की नकल निकाल कर बोले और मल्लिका के अंगरखे पर उंगलिया फिराने लगे।
"धत्त अब हम किधर बोलते ऐसी भाषा? हस्व - दीर्घ का भेद अब हम जानते हैं। लिंग भी सही प्रयोग करते हैं। वर्तनी में कभी अशुद्धि हो जाए बोलते तो सही हैं। पर हाँ आपको आज मल्लिका बनना है तो ठीक से बनिए। साड़ी पहनिए, वेणी लगाइए। "
" क्यों बिना साड़ी, दुकूल हम मल्लिका नहीं?" हरिश्चंद्र ने अभिनय करते हुए कहा।
" बच रहे हैं?" मल्लिका ने उनके घुंघराले केश पकड़ कर कहा।
" ऊई, केश मत खींचिए न, जो भी हो, हम ऐसी ही मल्लिका हैं, ज्यू और आपको हमें प्रेम करना होगा।" निराले स्त्रैण ढंग से दीवार की ओर करवट ले कर, मान करते हुए मल्लिका बने हरिश्चंद्र बोले। उनकी लम्बी खुली सांवली पीठ मल्लिका की तरफ थी। सुघर नितंब चादर में आधे ढके थे।
" मल्लिके! मेरी चंद्रिके। सुनो तो! रुष्ट हो गईं तुम तो। कल रात नींद नहीं आई सो तुम पर एक कविता लिखी थी सुनोगी?" मल्लिका आवाज़ बदल कर बोली।
प्यारै ज्यू तिहारी प्यारी अति ही गरब भरी ।
हठ की हठीली ताहि आपु ही मनाइए ।
नैकहू न माने सब भाँति हौं मनाय हारी
आपुहि चलिए ताहि बात बहराइए ।
जैसे बनै तैसे ताहि पग पिर लाइए ।।
हरिश्चंद्र ने उधर मुख किए - किए मुस्कुराए। मल्लिका ने उनकी सिंह कटि पर हाथ रखा और उन्हें पलटा कर अपने दुर्बल बाहुबंध में भर लिया और ज्यू से बोलीं बोलीं - कुछ बोलोगी नहीं?
"प्रेम में निरत युगल के बीच मौन ही तो बोलता है।बिहारी लाल कहते हैं न जब घुँघरू मौन हो जाते हैं तो किंकिणी की बारी आती है।" स्त्री अभिनय करते हरिश्चंद्र ज्यू बोले।
" छि: मल्लिके, तुम स्त्री होकर ऐसा भीषण प्रेमातुर वार्तालाप कर रही हो? तुम्हारी लज्जा हमसें कुछ अधिक ही खुल गई है।" मल्लिका के कपोल आरक्त थे, मगर ज्यू बन कर उसने मल्लिका बने ज्यू को ही बरज दिया. ऐसा क्रीड़ामय वार्तालाप उसे मनोरंजन और आनंद दोनों दे रहा था। उत्तेजना का परावार न था.
" हम तो आज वाचाल हैं, हमारे अधर बढ़ कर बंद कर दो न ज्यू।" कह कर ज्यू ने मल्लिका को स्वयं पर गिरा लिया। मल्लिका ने अपने अधर ज्यू के अधरों पर रख दिये, बस उसी क्षण मानो ज्यू उसके भीतर जीवंत हो गए। ज्यू के मांसल अधर पहली बार मल्लिका के अधरों के अधीन थे। सूर्यास्त हो ही रहा था, वातावरण में दूर तक रंगराग छा गया था। गवाक्ष से भीतर आती समीर में चंपई गंध थी। धरती और ब्रहमांड एकदूसरे के विपरीत गति में संचालित थे। इस विचित्र घूर्णन में प्रकृति भ्रमित - सी थी। पक्षी नीड़ों की ओर लौटते हुए चुप - से थे।
" तुमने नृत्य सीखा है क्या।" निश्चल लेटे - लेटे हरिचंद ज्यू ने मल्लिका से पूछा।
" अंह...नह नहीं....। कभी बालपन में शायद....." हाँफते हुए मल्लिका बोली।
" इस क्षण मुझे प्रतीत हुआ कि मैं एक मंच हूं और तुम नृत्यरत नृत्यांगना। सबकुछ कितना लय-बद्ध था। और मैं सच में मैं नहीं था, तुम भी नहीं.....कोई और ही था। "
" ज्यू!" मल्लिका ने हरिचंद ज्यू के वक्ष के बाईं ओर अपना चेहरा धंसा लिया था।
दोनों की सांवले शरीर एक दूसरे से रंगावृत्ति में कितने भिन्न थे। मल्लिका के श्याम रंग में स्वर्ण घुला था और हरिश्चंद्र का रंग लालिमायुक्त श्याम.....पूर्णचंद्र की रात्रि में संगम पर शिथिल पड़ी गंगा और कालिंदी की धाराओं की तरह दोनों के शरीर कटि से नीचे श्वेत मगर सुनहरी किनार वाली चादर में बंद थे। नातिउष्ण फागुनी हवा चल रही थी. अर्धमृत वासना थोड़ी देर के लिए जागी और अतृप्त और आघातों से आहत जीवन के कुछ क्षण सुख से बीते.
जब भारतेंदु जाने लगे वह उठी तो एक आविष्ट अवस्था में थी. चरणों के अलस संचार में एक अव्यक्त विरह था. केशपाश से अभी – अभी बीता आनंद झर रहा था.
मन किया आज यहीं रोक ले, भोजन के बहाने....किंतु वह जानती थी अजाकल बहुत दिनों से रात्रि भोजन वे अपने चौके में, मन्नो-देवी के हाथ का पका ही खाते थे. क्योंकि ऎसा न होने पर मन्नो भूखी ही चौके में सो जाती थीं.
शिथिल नयनों में व्यथा थी... व्याकुल उच्छ्वास उठा तो ज्यू ने पूछा – क्या हुआ ?
“ कुछ नहीं... चाहती थी आज रुक जाते.... उपन्यास पूरा किया है पढ़ पाते.”
” तुम जानती तो हो मन्नो का जी आजकल ठीक नहीं.... ऎसा करो उपन्यास का पुलिंदा दे दो मुझे. थोड़ा आज रात और बाकि प्रात: उठ कर पढ़ डालूंगा.”
राम कटोरा बाग़ के मंदिर में माला पहना कर जब हरिचंद ज्यू उसे अपनी पत्नी घोषित करते हैं तब भी वह कुछ बहुत अपने को अभिव्यक्त नहीं करती। अभिव्यक्त करती हैं हरिश्चंद्र के निधन के बाद उन की पत्नी। घर बुलाती हैं और अपने परिवार के सामने , अपने देवर से कहती हैं कि इन के जीवन में बहुत सी औरतें आईं और गईं। पर इन जैसी कोई नहीं। यह भी उन की दूसरी पत्नी हैं। घर में इन का इसी तरह सम्मान किया जाए। हरिश्चंद्र की सभी किताबों , पांडुलिपियों की ज़िम्मेदारी भी मल्लिका को वह दे देती हैं। साथ ही पचास रुपया महीना जीवन निर्वाह के लिए भी। ऐसा सम्मान किसी प्रेमिका को उस की पत्नी दे , नामुमकिन ही होता है पर मनीषा ने मल्लिका को वह दे कर मल्लिका को ही नहीं , स्त्री को भी सम्मानित सम्मानित किया है। पर मल्लिका अपने ज्यू के अधूरे काम पूरे कर , सब कुछ भारतेंदु के छोटे भाई गोकुल को सुपुर्द कर वृंदावन चली जाती है। यह बता कर कि आती-जाती रहूंगी।
मनीषा ने मल्लिका की भूमिका में माना है कि बहुत खोजने पर भी बहुत कुछ सूत्र नहीं मिल पाते मल्लिका के बारे में सो इसे गल्प ही माना जाए। तो इस गल्प में मनीषा ने मल्लिका का वह त्यागमयी और स्वाभिमानी चेहरा परोस कर हिंदी के एक बड़े लेखक की गरिमा तो रखी ही है , उस से भी बढ़ कर उस की प्रेमिका को जो मान और सम्मान से विभूषित किया है वह बहुत ही सैल्यूटिंग है। मनीषा ने भूमिका में मल्लिका का कोई प्रकाशित काम नहीं पाने की टीस लिखी है। उपन्यास में भी मल्लिका के काम को हरिश्चंद्र बहुत क्रेडिट नहीं देते , यह बात बार-बार आई है। मल्लिका का हरिश्चंद्र के जीवन में क्या योगदान और अवदान है , इस बात का कहीं दर्ज न होना , कोई विवरण न मिल पाने की बात से प्रभा खेतान की आत्मकथा की याद आ जाती है। प्रभा खेतान ने अन्या से अनन्या के आखिर में अपने प्रेमी डाक्टर सर्राफ की श्रद्धांजलि सभा का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि लेकिन इस श्रद्धांजलि सभा में प्रभा खेतान नाम की औरत का कोई ज़िक्र नहीं था। उन की आत्म कथा इसी एक बात पर आ कर खत्म हो जाती है। तो मल्लिका हो या प्रभा खेतान या कोई और सही , इन सभी की पीड़ा को मनीषा ने बहुत भीतर तक धंस कर समझा , गुना और परोसा है किसी राधा , किसी मीरा की तन्मयता के साथ। मल्लिका के ही शब्दों में ही जो कहूं तो धन्नबाद मनीषा , धन्नबाद ! धन्नबाद ऐसी सुगढ़ कृति और ऐसी निर्मल मन की मल्लिका से परिचित करवाने के लिए। ऐसी पावन प्रेमकथा को मन में गंगा की तरह प्रवाहित करने के लिए।
मल्लिका में कुछ चीज़ें खटकती भी हैं। जैसे बनारस का बना रहे रस उपस्थित नहीं है। बनारस का वह ठाट मन खोजता ही रह जाता है। भीमा , कजरी के संवाद अवधी को छूते हुए मिलते हैं। बनारस की भोजपुरी या जिसे काशिका कहते हैं , पूरी तरह अनुपस्थित है। बांग्ला कविता के , संस्कृत के उद्धरण के हिंदी में भावार्थ अनुपस्थित हैं। इस से रसाघात होता है। मनोहर श्याम जोशी ने कसप में जहां कुंमायूनी शब्द आते हैं , वहां फुटनोट दिए हैं। कसप भी कुंमायूनी शब्द है। कसप माने क्या जाने। वार एंड पीस में टालस्टाय ने बात को समझाने के लिए नक्शे तक परोसे हैं। हरिश्चंद्र की जिंदगी में शामिल अन्य स्त्रियों का प्रेम विवरण भी होता मल्लिका में तो मल्लिका और समृद्ध हो सकती थी। क्यों कि सार्त्र और सिमोन द बुआ जैसी खुली और बेधड़क कहानी नहीं है मल्लिका और हरिश्चंद्र की। बंद और संकोच में समाया हुआ है इन का सह-जीवन। कबीर ने लिखा ही है , प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय। तो मनीषा कबीर की राह पर चल कर मल्लिका में सिर्फ़ मल्लिका के प्रेम को ही उपस्थित रखने की ज़िद में रही हैं। उन्हों ने बताया भी है कि वह बहुत ज़्यादा भारतेंदु हरिश्चंद्र को स्पेस नहीं देना चाहती थीं। दिया भी नहीं है। ऐसा होने पर कई बार मिटाया भी है। लेकिन मल्लिका में बाल विवाह का विरोध , अपनी बहन की बेटी के बाल विवाह , ईश्वरचंद्र विद्यासागर का पुनर्जागरण के विवरण , विधवाओं की मुश्किलें , बनारस में विधवा जीवन के कष्ट और शोषण के विवरण को मनीषा ने जगह दी है , इसे नहीं मिटाया है। भाषा के स्तर पर भी उस काल खंड को जीवित रखा है। वही भाषा , वही लयबोध और वही व्यंजना। वही क़रार और वही कसमसाहट। यह सिर्फ प्रेम कथा ही नहीं , अपने समय के समाज को बांचती कथा भी है। सामाजिक सोद्देश्य के साथ लिखी गई भावप्रवण कथा।
आज की तारीख में पढ़ना भी एक बहुत कठिन काम हो चला है। मुझ जैसे आलसी के लिए तो बहुत कठिन। बता दूं कि मैं बहुत अपढ़ किस्म का आदमी हूं। बहुत सी किताबें अधपढ़ी पड़ी हुई हैं। लेकिन मल्लिका को जब पढ़ना शुरू किया तो एक बैठकी में पढ़ गया। कुछ दिन हुए मल्लिका को पढ़े हुए। लेकिन जब से पढ़ा है मन में मल्लिका परछाईं बन कर जैसे चल रही है , सतत चलती ही जा रही है। एक संगीत की तरह। प्रेम संगीत बन कर मन में बजती हुई। जैसे रविशंकर का सितार बज रहा हो , जैसे बिस्मिल्ला खान की शहनाई , जैसे हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी। ऐसा मेरे साथ एक बार और हुआ है जब देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति पढ़ रहा था। जहां कहीं भी होता चंद्रकांता के चरित्र मन में चलते रहते। उन दिनों मैं व्यस्त बहुत रहता था , कई बार अपने आप से मिलने की फुरसत नहीं होती थी। पर जब घर से निकलता तो चंद्रकांता पढ़ कर। लौटता तो फिर चंद्रकांता से लिपट जाता। लेकिन मल्लिका तो पढ़ चुका हूं। मल्लिका से फिर भी लिपटा हुआ हूं। अब जाने यह मल्लिका का जादू है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ की कलम की श्रेष्ठता का जादू। मेरे लिए यह तय करना कुछ कठिन है। पर मनीषा के शब्द में कहूं तो लहर-लहर मल्लिका जाग रही है , जागती हुई चलती जा रही है मेरे मन में। जाने कब तक जागेगी , चलेगी , कह नहीं सकता। पर वह हरिश्चंद्र नाटक में भारतेंदु ने लिखा है न कि प्यारे हरिचंद की कहानी रह जाएगी। तो इसी तर्ज पर जो कहूं कि प्यारी मल्लिका की कहानी भी लोगों की जुबां पर अब आएगी ही आएगी। इस लिए भी कि हिंदी के नायक की यह नायिका , यह प्रेमिका , यह मल्लिका नायाब है।
समीक्ष्य पुस्तक :
मल्लिका
लेखिका : मनीषा कुलश्रेष्ठ
प्रकाशक : राजपाल एंड संस
1590 मदरसा रोड , कश्मीरी गेट , दिल्ली - 110 006
मूल्य : 235 रुपए
पृष्ठ : 160