तो क्या क्रांतियां हमेशा लूट ली जाती हैं? भारत ही नहीं दुनिया भर में
क्रांतियां लूटी जाती रही हैं। चीनी कहानीकार लुशुन की एक मशहूर कहानी है द ट्रू
स्टोरीज आफ़ आह क्यू । इस कहानी में इस क्रांति के लूटे जाने की ही तफ़सील है।
बहुत बारीक तफ़सील। सो भारतीय राजनीति के मद्दे नज़र जाने क्यों बीते कुछ
समय से रह-रह कर यह कहानी याद आ रही है। इस कहानी का सार यही है कि क्रांतियां तो न सिर्फ़ लूट ली जाती हैं बल्कि व्यवस्था में भी उन्हीं का प्रभुत्व बना रहता है जो पहले भी शासक थे । इस कहानी का नायक लंबे समय से उत्पीड़ित है । वह सामान्य मानवीय स्थितियां पाने के लिए निरंतर विद्रोह और समर्पण के द्वंद्व से गुज़रता है । उस की एक मुश्किल यह भी है कि वह जब कभी भी पराजित होता है तो न सिर्फ़ दूसरों को बल्कि अपने आप को भी धोखा देता रहता है । और कि अपने आप को झूठी तसल्ली देता रहता है कि उस की नैतिक विजय तो हो ही गई है । इस तरह वह न सिर्फ़ पराजयवाद का शिकार हो जाता है बल्कि जल्दी ही वह अपने उत्पीड़कों और दुश्मनों को भी भूला देता है । इतना ही नहीं वह अपने से कमजोर लोगों से उत्पीड़क भाव बना कर उन से बदला लेने लगता है ।
अब इस कहानी में आप अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल को फिट कर लीजिए । यह ठीक है कि अन्ना आंदोलन को हम क्रांति तो नहीं कह सकते पर यह एक बड़ा आंदोलन था इस से भी भला कैसे इंकार कर सकते हैं? जे पी मूवमेंट के बाद इतना बड़ा और देशव्यापी आंदोलन कम से कम मेरी जानकारी में तो नहीं है । यह ठीक है की इस आंदोलन की सफलता में में भी इलेक्ट्रानिक मीडिया का भी बहुत बड़ा योगदान था । लेकिन देश एक बार भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ जाग तो गया ही था । अब यह अन्ना आंदोलन की विफलता कहिए या अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा से इसे जोड़ लीजिए यह आप की अपनी सुविधा और आप का अपना विवेक है । पर इस का गर्भपात हो गया यह तो तय है। यह गर्भपात तभी हो गया था जब अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में आने का फैसला किया था । अन्ना ने उन्हें लाख बताया की राजनीति कीचड़ है, मत जाओ उस में । पर अरविंद अपनी ज़िद पर आ गए । किसी की नहीं सुनी और मुंह की खा गए । उन के कीचड़ से कमल कब खिला यह भी वह नहीं जान पाए । नहीं कौन नहीं जानता की यू पी ए सरकार के खिलाफ सारा आंदोलन, सारा माहौल अन्ना आंदोलन की ही उपज है । लोकपाल आंदोलन के बहाने अन्ना ने भ्रष्टाचार, मंहगाई और काला धन का मसला उठाया । कि समूचा देश यू पी ए सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया । इस कदर कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया । अन्ना आंदोलन की ही जोती बोई ज़मीन की फसल पहले अरविंद केजरीवाल ने काटी । और अब मोदी काट ले गए हैं । लेकिन अन्ना हजारे का, उन के आंदोलन का अब कोई भूले से भी नाम नहीं ले रहा है। सारा कुछ और सब कुछ नरेंद्र मोदी के नाम दर्ज हो रहा है। कन्हैयालाल नंदन अपनी एक कविता में कहते हैं:
और कि शायद ऐसे ही क्षणों में कहा गया होगा कि : हम नींव के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते !
तुम्हें
नहीं मालूम
कि जब आमने सामने खड़ी कर दी जाती हैं सेनाएं
तो योग और
क्षेम नापने का तराजू
सिर्फ़ एक होता है
कि कौन हुआ धराशायी
और कौन है
जिसकी पताका ऊपर फहराई !
लोकतंत्र बहाली के लिए जे पी मूवमेंट में भी कई सारे दाल और संगठन जुड़े थे । बाद में वह बिखर गए । यह दूसरी बात थी । पर वह अपने मकसद में कम से कम आंशिक ही सही कामयाब तो हुए । जे पी मूवमेंट को दूसरी आज़ादी का नाम दिया गया था । पर अन्ना आंदोलन क्यों अपने भ्रूण अवस्था में ही बिखर गया ? क्यों उस की भ्रूण हत्या हो गई ? लोकपाल के लिए जब अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, किरन बेदी, शांति भूषण, प्रशांत भूषण , स्वामी अग्निवेश आदि एकजुट हुए थे जंतर-मंतर पर तो क्या तो समा बंध गया था तब ! क्या तो मंजर था ! कि आज भी वह मंजर याद कर के मन में रोमांच सा छा जाता है । यह मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना वाले नारे के दिन थे । अन्ना से जुड़े इस नारे की इबारतों वाली इन टोपियों के दिन थे । और एक बार तो लगा था की संसद भी झुक गई है । मैं ने खुद लिखा था तब के दिनों कि झुकती है संसद झुकाने वाला चाहिए ! अन्ना आंदोलन का वह शिखर था । कि यू पी ए सरकार को अध्यादेश ला कर सिविल सोसाइटी के तौर पर अन्ना टीम को लोकपाल कमेटी में शामिल किया गया था । जिस का संसद में भाजपा ने पुरजोर विरोध किया था । शरद यादव जैसे सांसदों ने भी सरकार की जम कर खिल्ली उड़ाई थी । मुलायम और लालू यादव जैसे लोगों ने भी मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लिया था । लालू तो इतना अभद्र ढंग से पेश आए थे संसद में तब कि पूछिए मत । मनमोहन सिंह को लगभग धिक्कारते हुए लालू ने कहा था कि इस तरह लुंज-पुंज हो कर सरकार नहीं चलानी चाहिए । पूरे संसद की राय लगभग यही थी । और भी तमाम ड्रामा हुआ । मान लिया गया कि राजनीतिक पार्टियां जनता की भावना नहीं समझ पा रहीं । पर कांग्रेस ने जैसे जनता की भावना समझने का ड्रामा किया । रामलीला मैदान में यशवंत देशमुख को अपना प्रतिनिधि बना कर भेजा । लेकिन इसी नरमी के साथ-साथ कांग्रेस ने अन्ना आंदोलन के खिलाफ लाक्षागृह भी रचने शुरु कर दिए । शुरुआती दौर में वह इस में कामयाब भी रही । अन्ना आंदोलन के स्तंभ में से पहले शिकार बने स्वामी अग्निवेश । उन का फ़ोन एक चैनल पर ट्रैप हो गया और वह कपिल सिब्बल के साथ यह कहते हुए पकड़े गए कि इन्हें संभालिए नहीं यह तो हाथी की तरह सब को कुचल देने पर आमादा हैं सब को । उन की बात भले कपिल सिब्बल से हो रही थी पर बात का केंद्र अरविंद केजरीवाल ही थे । अग्निवेश से तब तक अरविंद केजरीवाल का इगो क्लैश हो चुका था । स्वामी अग्निवेश इस के बाद गद्दार डिक्लेयर कर के टीम से बाहर कर दिए गए । अरविंद केजरीवाल के इगो के दूसरे शिकार फिर बने एक दूसरे स्वामी । स्वामी रामदेव । स्वामी रामदेव अन्ना टीम के सक्रिय सदस्य तो नहीं थे पर बाहर से रह कर वह उन के आंदोलन को मदद कर रहे थे । अरविंद ने शुरू से ही स्वामी रामदेव से एक निश्चित दूरी बना रखी थी और की अन्ना से भी बनवा रखी थी । बाद के दिनों में अरविंद से इतना घायल हुए रामदेव की रामलीला मैदान में उन्हों ने खुद का डेरा तंबू गाड़ लिया और योग शिविर के बहाने आंदोलनरत हो गए । उन की महत्वाकांक्षाएं भी जाग गईं । इस के पहले एयरपोर्ट पर पांच -पांच मंत्री उन की अगवानी में पहुंचे सो वह मुदित हो गए । यह भी नहीं समझ पाए की कांग्रेस ने बहेलिया की तरह दाना दिखा कर जाल बिछाया है । और वह कांग्रेस के बिछाए जाल में निरंतर फंसते गए । और संयोग देखिए कि बहेलिया और पंछी दोनों ही की किरकिरी हो गई । एक साथ सरकार और रामदेव दोनों की मति मारी गई । दिल्ली पुलिस ने आधी रात रामदेव के शिविर पर धावा बोल दिया, दूसरी तरफ रामदेव स्त्री के कपडे में वेश बदल कर औरतों में छुप गए और रंगे हाथ पकड़े गए । इस के पहले वह सरकार से लिखित समझौता भी कर आए थे । तब उन की इतनी छीछालेदर हुई कि वह आज तक उस दाग को धो नहीं पाए । शायद ही कभी वह दाग उन के जीवन से धुल पाए । रामदेव पूरी तरह एक्सपोज हो गए । चाहे जो हो इस रामदेव प्रकरण ने भी अन्ना आंदोलन को धक्का लगाया । अन्ना फिर-फिर आंदोलनरत हुए । गए मुंबई भी । पर फ्लॉप हो गए । कहा गया साथ रामदेव ने छोड़ दिया है, आर एस एस ने भी साथ नहीं दिया सो उन का मुंबई धरना फ्लॉप हो गया । अन्ना आंदोलन पर आर एस का ठप्पा शुरु से ही लगा रहा । अरविंद केजरीवाल अन्ना आंदोलन पर इस आर एस एस के आरोप से निकलने की छटपटाहट में रामदेव से लगातार दूरी बनाने में लग गए । इसी बीच अन्ना ने एक और धरना अगस्त में आयोजित कर दिया । अगस्त क्रांति के नाम पर । रामदेव को पानी पिलाने की खुशी में सरकार पगला गई थी तब । अन्ना को गिरफ़्तार कर लिया । कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने तू तकार की भाषा में अन्ना को भला बुरा कहा । कांग्रेस फिर मात खा गई । यह पहली बार हुआ देश में कि तिहाड़ जेल के सामने हज़ारों कार्यकर्ता धरने पर बैठ गए । चारो तरफ थू-थू होने लगी कांग्रेस की । बिना शर्त छोड़ना पड़ा अन्ना को । अब गुपचुप अरविंद केजरीवाल की किरन बेदी से ठन गई । अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी के इगो क्लैश में अन्ना आंदोलन की अभी और झटका खाना था जैसे । अरविंद केजरीवाल का इगो क्लैश अन्ना से भी सामने आ गया । अब अरविंद केजरीवाल ने नई पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया । आम आदमी पार्टी का ऐलान हो गया । अन्ना चुपचाप टुकुर-टुकुर देखते रह गए । पर कुछ बोले नहीं । बोले अपने गांव रालेगण सिद्धी जा कर । कहा कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी से उन का कोई लेना देना नहीं । अब अन्ना आंदोलन में जैसे पलीता लग चुका था । कांग्रेस का लाक्षागृह अपना काम पूरा कर गया था । आंदोलन जल कर भस्म हो चुका था अगर कुछ था तो अन्ना आंदोलन के नाम पर अरविंद केजरीवाल और उन की आम आदमी पार्टी का बुलबुला था । अब अरविंद ने दिल्ली विधान सभा के चुनाव के मद्दे नज़र दिल्ली के लोकल मुद्दों को उठाना शुरू किया । पानी-बिजली के मुद्दे उन के खूब चले भी । शीला दीक्षित की सरकार की बेअंदाज़ी ने अरविंद केजरीवाल के बिजली मुद्दे को जैसे परवान चढ़ा दिया । अब अरविंद कटी बिजली जोड़ने लगे खंभों पर चढ़-चढ़ कर । दिल्ली की जनता जैसे अरविंद की दीवानी हो गई । प्रशांत भूषण , मनीष सिसोदिया, आनंद कुमार, योगेंद्र यादव, शाजिया इल्मी, संजय सिंह, कुमार विश्वास जैसे अन्ना के साथी अब टूट कर अरविंद केजरीवाल के साथ हो गए थे । अब मैं भी अन्ना , तू भी अन्ना की टोपी मैं हूं आम आदमी की इबारत में बदल चुकी थी । अन्ना अब हवा में भी नहीं रह गए थे । अन्ना अब अगर कहीं थे तो बस अपने गांव रालेगण सिद्धी में । उन के साथ अब किरन बेदी रह गई थीं । नए साथी जनरल वी के सिंह और संतोष भारतीय भी । अजब मंजर था यह भी । कि एक पूर्व सैनिक अन्ना एक पूर्व जनरल वी के सिंह की अगुवाई कर रहा था । और यह जनरल वी के सिंह इस विनम्रता से अन्ना के पीछे बैठे मिलते की लोगों का मन जुड़ा जाता यह दृश्य देख कर । लेकिन यह सब बहुत दिनों तक नहीं चला ।
अब अरविंद केजरीवाल की आंधी में मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना की टोपी और टीम उड़ चुकी थी । समय ने इस बात को दर्ज कर लिया था । लोग मसोस कर रह गए । अन्ना की यह दुर्दशा देख कर । अन्ना भी संयम तोड़ कर खुल कर अरविंद के खिलाफ खड़े हो गए । अन्ना अब जैसे अपने आंदोलन की कब्र खुद खोद रहे थे । दिल्ली में अब हर जगह अरविंद की तूती बज रही थी । पता नहीं अन्ना को क्या हुआ की वह अचानक ममता बनर्जी के साथ खड़े हो कर ममता बनर्जी को आशीर्वाद देने लगे । बात यहीं तक नहीं रुकी । अन्ना अचानक ममता बनर्जी के लिए चुनाव प्रचार के विज्ञापन में बोलते दिखने लगे । यह दिल्ली विधान सभा का चुनाव था । लोगों ने अन्ना का यह हश्र देख कर दांतों तले अंगुलियां दबा लीं । यह वही अन्ना थे जो अरविंद केजरीवाल को राजनीति में जाने से इस लिए मना कर रहे थे क्यों की राजनीति कीचड़ है । दिल्ली में एक सभा हुई ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस की । अन्ना हजारे को भी आना था । अन्ना के नाम पर भी भीड़ नहीं आई । पूरा मैदान खाली था । अन्ना भी नहीं आए । बता दिया की तबीयत खराब है ।
अरविंद केजरीवाल की जय-जय हो रही थी, अन्ना का कहीं अता-पता नहीं था । आम आदमी पार्टी दिल्ली में 28 सीट ले कर अपना डंका बजा चुकी थी । पर बहुमत से 8 सीट दूर थी । कांग्रेस का बाजा बज चुका था । भाजपा 32 सीट पा कर बहुमत से 4 सीट दूर थी । कांग्रेस 8 सीट पा कर सरकार बनवाने की हैसियत में बाकी रह गई थी । भाजपा को दिल्ली की केंद्र सरकार दिख रही थी । उस ने सरकार बनाने से हाथ बटोर लिए और तोड़-फोड़ से भी । कांग्रेस ने फिर बिसात बिछाई । एक नया लाक्षागृह बनाया । अरविंद केजरीवाल के लिए । जाल बिछाया दाना दिखा कर । अपमान सह कर । और यह देखिए बिना मांगे कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने के लिए समर्थन दे दिया । मजा यह कि दुनिया भर का ड्रामा कर के अरविंद केजरीवाल ने सरकार बना ली । शपथ में गाना-वाना भी गा दिया । सब ने अरविंद केजरीवाल की जय-जय की । मैं ने भी की । अरविंद केजरीवाल मुख्य मंत्री बन गए पर ड्रामा नहीं छोड़ा उन्हों ने । वह निरंतर जारी रहा । क्या कि सरकारी गाड़ी, सरकारी बंगला सब हराम हो गया उन के लिए । अपनी वैगनार में चलते रहे वह बतौर मुख्य मंत्री । बिना ताम-झाम के । हालां की बाद में घर ले लिया सरकारी । सुरक्षा भी । यहां तक भी चलिए सब ठीक था । लेकिन जनता से किए वायदों में भी उन का ड्रामा बदस्तूर जारी रहा । बिजली का बिल कम करने का मुख्य वायदा था उन का । इस में भी वह ड्रामा कर गए । पानी में भी यही किया । और यह देखिए की मीडिया ने उन को इतनी हाइक दे दी इन सब बातों पर, उन की सादगी पर कि अपनी सादगी पर वह खुद मर मिटे । 28 विधायकों वाली सरकार को 49 दिन में ही होम कर बैठे । उन को लगा की उन की किस्मत में प्रधान मंत्री की कुर्सी लिखी है, वह खामखा दिल्ली के मुख्य मंत्री के रूप में वक्त बरबाद कर रहे हैं । यह उन के मफलर और खांसी के दिन थे । इस बीच वह अपनी पार्टी के विधायक बिन्नी से भी अपना इगो भिड़ा चुके थे । दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष बरखा सिंह को हटाने का मन बना चुके थे । उन की मंत्री राखी बिड़लान कई करनामे कर चुकी थीं । उन के मंत्री सोमनाथ भारती भी पराक्रम दिखा चुके थे । दिल्ली के उप राज्यपाल से भी वह दो-चार हाथ कर चुके थे । अब उन को लग रहा था की दिल्ली के मुख्य मंत्री की कुर्सी बहुत छोटी है उन के लिए । सो उन्हों ने मुख्य मंत्री की कुर्सी लोकपाल के बहाने होम की । और कहा की वह मुख्य मंत्री बनने नहीं देश की राजनीति बदलने आए हैं । और वह कूच कर गए नरेंद मोदी की माद में । यानी सीधे गुजरात । वहां भी उन्हों ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में सब का ध्यान खींचा । मीडिया कवरेज के सारे यत्न किए । मिला भी मीडिया कवरेज । वह बिना टाइम मांगे मोदी से मिलने का ड्रामा भी कर आए । सब कुछ करते-करते अंतत: लतीफा बन गए । अब जैसे उन की खांसी, मफलर के साथ-साथ जब-तब थप्पड़ खाना भी उन का पर्याय बन गया । मौसम बदल गया मफलर उत्तर गया, खांसी भी जाती रही । पर इन की जगह तमाम सारे थप्पड़ और लतीफों ने ले ली । अब कब उन पर थप्पड़ पड़े और कब उन पर लतीफे बने इस का हिसाब भी लोग भूल गए । वह चुनाव लड़ने जब बनारस गए तो एक लतीफा यह भी चला की मोदी कहते हैं कि मुझे गंगा ने बुलाया है, अरविंद केजरीवाल कहते हैं की मुझे मोदी ने बुलाया है ।
बताइए कि लोग चुनाव लड़ते हैं जीतने के लिए । पर अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ रहे थे हारने के लिए । सब ने कहा कि उन्हें किसी जीतने वाली सीट से भी लड़ना चाहिए । दिल्ली की ही किसी सीट से सही । पर अपनी ज़िद और सनक पर सवार किसी की सुनने का अवकाश कहां था उन के पास ? सिर्फ़ मुसलमानों की सहानुभूति पा कर बाकी जगह मुस्लिम वोट पाने के लिए वह मोदी से वैसे ही भिड़े रहे गोया किसी बाघ से बिल्ली लड़ जाए । और बताइए की राजनीति को बदलने का ताव भी और तेवर भी साथ में । ऐसे ही राजनीति होती है भला? कि किसी ट्रक के मालिक से नाराज हो कर उस ट्रक से ही जा कर भिड़ जाना कौन सी बुद्धिमानी है भला ? जो आदमी खुद को न बदल सके वह राजनीति को बदलने का दम भरे ! सच अगर अरविंद केजरीवाल इगो में, ज़िद में पड़ कर राजनीति करने के बजाय थोड़ी सोच-समझ और दृष्टि के साथ, थोड़ा अनुभव के साथ राजनीति किए होते तो सचमुच वह देश की राजनीति को बदल सकने में ज़रूर कामयाब हुए होते इस में कोई दो राय नहीं थी । उन्हों ने न सिर्फ़ गलती की, बल्कि गलती पर गलती की । अभी भी करते जा रहे हैं । सच यह है की अरविंद केजरीवाल का आर टी आई एक्टिविस्ट वाला रोल ज़्यादा चमकदार और ज़्यादा सफल था । उन्हें न सही ता-ज़िंदगी, बल्कि कुछ दिन के लिए ही सही अन्ना हजारे की उस बात को मान लेना चाहिए था कि राजनीति कीचड़ है, मत जाओ राजनीति में । पर वह नहीं माने राजनीति करने आ गए । राजनीति में भी उन्हों ने पपीते की खेती करनी सीखी । पपीता छ महीने में फल ज़रूर देने लगता है पर फिर छ महीने बाद उस का पता नहीं चलता है । कि कहां गया ? अरविंद केजरीवाल को राजनीति में कटहल की खेती करना सीखना चाहिए । कटहल सोलह साल बाद पहला देता ज़रूर है पर बाद में पीढ़ियां उस का फल खाती रहती हैं । अरविंद केजरीवाल को यह जान लेना चाहिए कि राजनीति करने के लिए ही नहीं, राजनीति को साफ करने के लिए भी बड़े मनोयोग और साधना की ज़रूरत होती है, धैर्य और दृष्टि के साथ योजना की भी ज़रूरत होती है । राजनीति हड़बड़ी का काम कतई नहीं है । राजनीति ज़िद, सनक और झख से भी नहीं चलती । जिस तिस को बिना प्रमाण चोर कह देना और खुद को पाक-साफ कह देना, गैर ज़िम्मेदारी और अति से भी राजनीति और जीवन नहीं चला करता । अरविंद की इस हड़बड़ी और अधैर्य ने न सिर्फ़ उन का बल्कि देश के करोड़ों-करोड़ लोगों का वह सपना तोड़ कर रख दिया है जिन लोगों ने अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के मार्फ़त देश में साफ-सुथरी राजनीति का सपना देखा था । अरविंद केजरीवाल को यह भी जान लेना चाहिए कि देश की राजनीति जो बदलते-बदलते रह गई है अभी भी गुंजाइश बाकी है, देश की राजनीति बदल सकती है । वह अब से सही सक्रिय राजनीति छोड़ कर एक्टिविस्ट की भूमिका में आने की कवायद शुरू करें । इस लिए भी की सत्ता की राजनीति उन के वश की नहीं है । दूसरे अब उन के पीछे ड्रामेबाज, भगोड़ा जैसे पुछल्ले जुड़ गए हैं जो बहुत आसानी से उन का पीछा छोड़ने वाले हैं नहीं । वह बांड न भरने के फेर में जेल यात्रा कर अंतत: बांड भर कर कर जेल से लौट चुके हैं । दिल्ली की सरकार असमय छोड़ने की गलती भी वह स्वीकार चुके हैं । पर उन्हें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए की दिल्ली की सरकार बना कर भी उन्हों ने बड़ी गलती की थी । अगर दिल्ली की सरकार बनाने के बजाए सीधे वह लोकसभा चुनाव में उत्तर गए होते तो शायद नरेंद्र मोदी कम से कम इस तरह अजर-अमर हो कर इतने बहुमत से तो न आए हुए होते । बहुत संभव है कि तब अरविंद केजरीवाल उन के सामने एक मज़बूत विपक्ष के रूप में सामने होते। खैर राजनीति और समाज कोई एक दो दिन में तय नहीं होता। अब वह फिर से रालेगण सिद्धी लौट जाने की सोचें । अन्ना हजारे उन को बहुत मिस करते हैं । अन्ना हजारे को अपना गुरु फिर से मान कर नए ढंग से लड़ाई शुरू करें अपनी टीम को ले कर । अपनी ऊर्जा ड्रामा करने में खर्च करने के बजाय समाज को बदलने में खर्च करें । समाज बदलेगा तभी राजनीति बदलेगी । दूसरे, अपने भीतर के अहंकार से भी छुट्टी ले लें। क्यों कि आम आदमी की तरह दिखना ही नहीं, आम आदमी की तरह होना भी ज़रुरी है। उन के तमाम सारे साथियों ने न सिर्फ़ उन का साथ छोड़ा है बल्कि उन पर तानाशाह होने का भी आरोप लगाया है। और बार-बार । लोकतांत्रिक होना भी बहुत ज़रुरी है और पारदर्शी भी। सो अपनी हिप्पोक्रेसी से छुट्टी लेना बहुत ज़रुरी है। नहीं क्रांतियां ऐसे ही लुटती रहेंगी । अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे यों ही अपनी ऊर्जा बरबाद करते रहेंगे । जनता आखिर किस पर और कितना विश्वास करेगी ? और यह सवाल सर्वदा शेष रहेगा कि क्या क्रांतियां ऐसे ही लुटती रहेंगी? लेकिन कब तक? आखिर कब तक क्रांतियां ऐसे ही लुटती रहेंगी? आखिर लशुन की वह कहानी द ट्रू स्टोरी आफ आह क्यू कब तक प्रासंगिक बनी रहेगी ? अपनी पराजय को आखिर कब तक हमारे नायक अपनी नैतिक विजय बता कर खुद को धोखा देते रहेंगे ? और की साफ सुथरी राजनीति का का सपना दिखा कर जनता के सपनों को भी लूटते रहेंगे? और कि क्रांतियां और आंदोलन ऐसे ही लुटते रहेंगे? और कि हम लशुन की इस कहानी की चर्चा करते हुए एक दूसरे से पूछते फिरेंगे कि क्या क्रांतियां हमेशा लूट ली जाती हैं?