फ़ोटो : निखिलेश त्रिवेदी |
ग़ज़ल
यह धुंध में खोया हुआ सिक्किम का जंगल है जंगल में मैं हूं मुझ में आग है
आग का दरिया पार करना आसान है लेकिन यह मन के जंगल की आग है
आग बुझती नहीं है मन की आसानी से मन का जंगल भी पार होता नहीं है
तुम समझती हो स्विच आफ करने से बुझ जाएगी यह क्या बिजली की आग है
करंट फैला हुआ है सारे जंगल में तुम्हारी आहट का ग़ोशा-ग़ोशा धड़कता है
कालिदास के मेघदूत से बुझती नहीं है यह तुम्हारी आंखों के जंगल की आग है
एक अनबूझ सिलसिला है कोहरे और जंगल का पल-पल दहशत धड़कती है
रौशनी की एक नदी गुज़रती है बीच जंगल से इस नदी में मुहब्बत की आग है
नदी में चांदनी छिटकती है तो चांद की परछाईं भी नहीं दिखती है साफ पानी में
मुहब्बत में दिन ख़राब होते हैं तो जलाती है चांदनी भी यह चांदनी की आग है
जंगल ज़िंदगी का अनमोल हिस्सा है कितना काटोगे और लूटोगे बेईमानों
तुम्हारा घर बचेगा हरगिज नहीं यह ईमानदारी में महकते पसीने की आग है
बेईमानों की फाइलों में पाप का घड़ा भर जाता है तो दफ़्तर में आग लगती है
ख़बर अकसर छपी मिलती है शहर के अख़बारों में यह शार्ट सर्किट की आग है
bhai isko ghazal nahiin kehte hain aapne upar ghazal kyu likh dii hai
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