Friday, 8 January 2016

लेकिन कंपनी मुझ को जोग्य मानती है !

 
पेंटिंग : डाक्टर लाल रत्नाकर


एक अख़बार में एक गधा टाइप का संपादक था । लेकिन कहते हैं न कि अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान। वह इस कहावत को जैसे सार्थक करने के लिए ही पैदा हुआ था। तो किस्मत का धनी यह गधा अकसर मुझ से खार खाया रहता था। मुझ से भयभीत भी बहुत रहता था। सो मुझे अपमानित करने के लिए नित नए तरीक़े आज़माता रहता था। इस काम में उस के चमचे उस की खूब मदद करते रहते थे। मीटिंग्स में मैं अकसर उस की ऐसी-तैसी करता रहता और सर्वदा जूते की नोक पर रखता था। एक दिन एक ख़बर को ले कर वह चर्चा करने लगा ।  मैं ने उस से साफ कहा कि ख़बर-वबर की चर्चा आप न ही करें मुझ से तो ठीक रहेगा।  तो वह अचानक तिड़क गया। अपनी एक आंख मिचमिचाते हुए बहुत ठंडे ढंग से बोला , ' शर , आप बहुत शीनियर हैं , बहुत शुंदर लिखते हैं , बहुत जोग्य हैं !' वह गधा थोड़ा रुका और अपनी छाती ठोंकते हुए पूरी ताक़त से बोला , ' लेकिन कंपनी मुझ को जोग्य मानती है ! '

यह सुनते ही मैं ज़ोर से हंस पड़ा। वह भौंचक हो कर मुझे देखने लगा।  पूछा कि , ' अब क्या हुआ ?' मैं ने उस से कहा , ' कुछ नहीं । लेकिन पहली बार आप की इस एक बात से सहमत होने का मन हो रहा है । ' वह अचकचाया , ' किश बात से शर ?'  

' यही कि कंपनी आप को जोग्य मानती है । '

' तो शर इस बात को आप भी मान लीजिए  !' वह गधा पूरी ढिठाई से बोला।  और मैं हंसता रहा। मंद-मंद ।  बाक़ी लोग भी । आज भी जब कभी यह प्रसंग याद आता है तो हंसी रुकती नहीं । आ ही जाती है । लेकिन देखता हूं कि अब तो लगभग सारे ही जोग्य लोग अख़बारों में संपादक बने बैठे हैं । जिन को न बोलना आता है , न लिखना । किस-किस पर हंसूं ? और किस लिए हंसूं ?

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