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Wednesday, 10 April 2019

बइठ राफ़ेल अब उड़ो अकासा



 दयानंद पांडेय

बइठ राफ़ेल अब उड़ो अकासा 
इहां नहीं अब वोट के  आसा

मतदाता का विवेक ही जाने  
अब कौन है सोना , कौन है कांसा 

ई झूठ कि ऊ झूठ कि सारे झूठ 
किसी के पास नहीं सच का पासा  

झूठ के दलदल में बोलें ख़ुद को सांच
चुनाव जीतने के लिए खुद को फांसा

बैंड बजाते घूम रहे थे इन का उन का 
बाज रहा अब उन के सिर पर तासा

[ 10 अप्रैल , 2019 ]


Sunday, 25 November 2018

आख़िर लौट गए वह लोग अयोध्या से


आख़िर लौट गए वह लोग अयोध्या से
लेकिन अयोध्या के लोगों को भरपेट डरा कर
शायद फिर आएंगे

अपराधी हैं यह लोग
सामान्य लोगों को डराने वाले इन अपराधियों को
माकूल सज़ा मिलनी चाहिए

सज़ा मिलनी चाहिए इन चैनलों को भी
जो अनाप-शनाप बयान दिखा-दिखा कर
अपनी दुकान चलाते है
और पूरे देश को डरा कर
नफ़रत और जहर का काला धुआं उड़ाते हैं
पैनिक फैला कर
पूरे देश में भय का माहौल बनाते हैं

सज़ा मिलनी चाहिए सुप्रीम कोर्ट के उन न्यायमूर्तियों को भी
जो तमाम मामलों की तरह
ऐसे सामाजिक सवेदना के विषय को भी
सामान्य मामला समझते हैं
सुनने और निर्णय देने का कलेजा नहीं रखते

तारीखों में उलझा कर
देश को नफ़रत के तंदूर में निरंतर भूनते रहते हैं
हत्यारों को रोज ज़मानत देने वालों के पास
टाइम क्यों नहीं है राम मंदिर का मामला सुनने के लिए
सज़ा मिलनी चाहिए इन न्याय की मूर्तियों को

सज़ा मिलनी चाहिए
ऐसे राजनीतिक दलों और उन के लोगों को
जो इस नफ़रत के तंदूर को निरंतर धधकाते रहते हैं
कोई प्रत्यक्ष रूप से , कोई अप्रत्यक्ष रूप से

राम के नाम पर
अगर कुछ लोग वोट बटोरने का दंभ भरते हैं
तो कुछ लोग
राम के खिलाफ लोगों को भड़का कर
वोट बटोरते हैं
यह सभी अपराधी हैं
सामूहिक अपराधी

इन सभी को एक साथ खड़ा कर सज़ा देनी चाहिए
यह सभी के सभी देश के गुनहगार हैं और गद्दार भी
इन्हें सजा ज़रूर दी जानी चाहिए

यह सभी अपराधी हैं

हे अपराधियों
राम को राम ही रहने दो , भगवान ही रहने दो
तंदूर की भट्ठी नहीं बनाओ
कि लोग , लोगों की संवेदनाएं जल कर खाक हो जाएं
मनुष्य को मनुष्य ही रहने दो
लोहा मत बनाओ
अयोध्या को लोहा पिघलाने वाली भट्ठी मत बनाओ
हमें मूर्ति नहीं बनना

अयोध्या को अयोध्या ही रहने दो
राम को राम

अयोध्या राम का नगर है
तुम्हारे वोट का जंगल नहीं
तुम्हारी वोट की दुकान का विज्ञापन नहीं है अयोध्या

काश कि तुम सभी अपराधियों को
एक साथ खड़ा कर गोली मार देने का कानून होता
क्यों कि तुम लोग पूरे देश को हिरोशिमा नागासाकी बनाना चाहते हो
परमाणु बम से ज़्यादा खतरनाक हो तुम लोग

[ 25 नवंबर , 2018 ]

Thursday, 26 July 2018

हद है कि दिल्ली में भूख से मरने का अधिकार चाहिए


तुम्हें मेट्रो दे दिया
बुलेट ट्रेन बस देने ही जा रहा हूं
हद है कि तुम्हें रोटी भी चाहिए

तुम्हें स्मार्ट फोन दे दिया
कहीं फ्री , कहीं सस्ता इंटरनेट भी दे दिया
हद यह है कि तुम्हें भात भी चाहिए

तुम्हें सड़क , बिजली , आदि-इत्यादि दे दिया
दूध की तरह विकास देने वाली सरकार भी
हद है कि तुम्हें राशन के लिए राशन कार्ड भी चाहिए

तुम्हें अस्पताल दे दिया
भ्रूण हत्या की असीमित सुविधा भी
हद है कि तुम को भूख से मरने का प्रचार भी चाहिए

दहेज हत्या में मरो , सामूहिक बलात्कार के बाद मरो
तलाक़ और हलाला के बाद मरो , देश में कहीं भी , कैसे भी मरो
हद है कि तुम को दिल्ली में भूख से मरने का अधिकार चाहिए

देश में मरने की तमाम जगहें हैं ,
किसी डाक्टर ने कहा है कि दिल्ली ही में मरो
हद है कि तुम्हें दिल्ली में मर कर विपक्ष के बयान में स्थान चाहिए

[ 26 जुलाई , 2018 ] 

Wednesday, 25 July 2018

एक पिता के चार बेटे

दयानंद पांडेय 
 

एक पिता के चार बेटे
चारो बेटे एनिमल एक्टिविस्ट  
बस फ़ील्ड अलग-अलग 

एक बेटा टाइगर बचाता है 
मीडिया में उस की फ़ोटो छपती है 
सेमिनारों में जाता है 

एक बेटा एनिमल लवर है 
कुत्तों , बंदरों आदि को बचाता है 
शहर के अख़बारों में उस के चर्चे हैं 

एक बेटा विश्नोई समाज का गहरा दोस्त है 
वह काला हिरन बचाता है 
फ़िल्मी हीरो को भी सज़ा करवाता है 

एक बेटा कहता है , गाय हमारी माता है 
जान पर खेल कर गाय बचाता है 
वह कट्टर हिंदू और सांप्रदायिक कहलाता है

यह न्यू इंडिया है
यह भारत और इंडिया के बीच का है
इसे सेक्यूलर इंडिया भी कहा जाता है 

[ 25 जुलाई , 2018 ]

मैं बरस रहा हूं


अभी हवा में ढूंढ रहा था तुन्हें
तो बादल मिल गया 
तो उसी से तुम्हारा पता पूछ लिया 

बादल बोला , पता तो मुझे मालूम है
पर बहुत जल्दी में हूं 
सो पता बता पाना मुश्किल है
 
बरस सकते हो तो बरसो मेरे साथ 
पता ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जाएगा 
पहुंच जाओगे उस के पास अनायास
जिस का पता पूछ रहे हो

सो अब बादल नहीं , मैं बरस रहा हूं 
तुम तक पहुंचने के लिए

[ 25 जुलाई , 2018 ]

Thursday, 8 February 2018

औरतें बहुत ज़रूरी हैं दुनिया के लिए

चित्र  : जे पी सिंघल 

मैं बूढ़ा भले हो रहा हूं
लेकिन एक औरत है
जो मुझे जवान बनाए रखती है 

एक औरत थी 
जो मुझे बच्चा बनाए रखती थी 
लेकिन वह मुझे छोड़ कर चली गई 

औरतें कई हैं मेरी ज़िंदगी में 
किसिम-किसिम की औरतें 
यह औरतें ही हैं 
जो ज़िंदगी को ज़िंदगी बनाए रखती हैं

औरतें नदी होती हैं
बहती हुई नदी
ज़िंदगी को साफ़ सुथरा रखती हैं

औरतों से हमारी बहुत बनती है
बनिस्बत पुरुषों के
औरतों से अच्छा कोई दोस्त नहीं होता

इस की शुरुआत घर से ही हुई
पिता से मेरी कभी ठीक से नहीं बनी
अम्मा में लेकिन जान बसती थी

अम्मा ने बीज दिए औरतों से दोस्ती के
औरतों ने विश्वास
इतना कि मैं पहली संतान बेटी ही चाहने लगा

हुई भी

अब दो बेटियां हैं
एक ससुराल चली गई
दूसरी बस जाने की तैयारी में है
लेकिन दोस्ताना जारी है दोनों से

यह औरतें न हों दुनिया में
तो मैं जी कर भी क्या करूंगा
जीना भी क्यों चाहूंगा

भला किस के लिए जीयूंगा
रोमांस किस से करूंगा
जवान कैसे रहूंगा

कहा न कि एक औरत है
जो मुझे जवान बनाए रखती है
और मैं सर्वदा जवान बने रहना चाहता हूं

इस लिए औरतें बहुत ज़रूरी हैं दुनिया के लिए
दुनिया को जवान बनाए रखने के लिए

[ 8 फ़रवरी , 2018 ]

Tuesday, 8 August 2017

मत लड़ा करो मेरी जान , मत लड़ा करो

दयानंद पांडेय 

फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह 

पति क्या कम पड़ जाता है
जो तुम मुझ से भी लड़ने लगती हो
बात-बेबात

मधुमक्खी की तरह मत मिला करो
शहद की तरह मिला करो
फूल की तरह खिला करो
मेरी जान , जान में जान बन कर रहा करो

मन में संगीत की किसी तान की तरह बजा करो
जैसे हरि प्रसाद चौरसिया की बांसुरी
जैसे बजता है शिव कुमार शर्मा का संतूर

जैसे लंबा आलाप ले कर
तुलसी का कोई पद गाते हैं भीमसेन जोशी
गाती हैं लता मंगेशकर कोई भजन या कोई प्रेम गीत
गाते हैं ग़ालिब को जगजीत सिंह
और उस में मिलाती हैं धीरे से अपना सुर चित्रा सिंह

जैसे वृक्ष पर बैठी गाती हुई बतियाती है कोई गौरैया
जैसे मां की छाती से चिपटता है किलकारी मारता कोई शिशु
जैसे मिलती हैं कल-कल करती नदियां सागर से
जैसे मिली थी तुम पहली बार सपनों का सागर लिए हुए
वैसे ही मिला करो
सपनों के सागर में डूब कर

जैसे बारिश की कोई बूंद मिलती है धरती से आहिस्ता
प्रेम के इस प्रहर में ऐसे ही धीरे से मिला करो
मिसरी बन कर मन में घुला करो
मत लड़ा करो मेरी जान , मत लड़ा करो

प्रेम के पाग में सान लो मुझ को
किसी नदी के निर्मल जल सी बहो मेरे मन में
गंगोत्री बन कर


इस कविता का मराठी अनुवाद 


🌹वाद नको करु माझ्या प्रिये
वाद नको करू🌹
पति काय कमी पडतोय म्हणून तू माझ्याशी पण वाद घालते कुठल्याही गोष्टी वर.
मधमाशी सारखी नको भेटूस
मधा सारखे मिसळत जा
फुलासारखी उमलत जा
माझ्या जीवा, जीवात जीव बनून
रहा
मनात संगीतातल्या कुठल्याशा
ताने सारखी गुंजत रहा.
जशी हरी प्रसाद चौरसिया ची बासरी
जसे वाजते शिव कुमार शर्मा चे
संतूर.
जसा लांब आलाप घेवून तुलसीदासाचे कुठले से पद गातात
भीमसेन जोशी
गाते लता मंगेशकर कुठले भजन किंवा कुठले प्रेम गीत
गातात गालिब ला जगजीत सिंह
आणि त्यात हळूवार मिसळते आपले सुर चित्रा सिंह.
जशी वृक्षावर बसलेली
गाण्यातून चिवचिवणारी
आहे कुणी चिमणी
जसा आईच्या छाती शी बिलगतो खदखदुन हसणारा कोणी शिशु
जश्या मिळतात कलकलणाऱ्या
नदया सागराला
जशी भेटलीस पहिल्यांदा स्वप्नसागर घेवून
तशीच भेटत जा
स्वप्नसागरात बुडलेली.
जसा पावसाचा कुठला थेम्ब
हळूच मिळतो धरतीला
प्रीतिच्या या प्रहरी अशीच हळूवार
भेटत जा मला
साखर बनून मनात घोळत रहा
नको वाद करू माझ्या प्रिये
नको वाद करू.
प्रेमाच्या पाकात विरघळवून टाक मला
कुठल्याशा नदीच्या निर्मल जलासम प्रवाहीत हो
माझ्या मनातली गंगोत्री बनून.

अनुवाद : प्रिया जलतारे 

Monday, 26 June 2017

बोनसाई बरगद



गमले के बोनसाई भी
अपने को जब सचमुच का बरगद समझ कर
बोलने लगते हैं तो कितने हास्यास्पद हो जाते हैं ,
कितने तो बौने दीखते हैं ,
वह बरगद होने के गुरुर में समझ नहीं पाते ।
समझ नहीं पाते कि
आफ्टरआल वह बोनसाई हैं , बोनसाई ही रहेंगे ।

इस कविता का मराठी अनुवाद 


🌹बोन्साय वटवृक्ष🌹
कुंडीतले बोन्सायही
स्वत:ला जेव्हा खरेखुरे वटवृक्ष समजून
बोलायला लागतात
तेव्हा किती
हास्यास्पद वाटतात
किती तर
खुजे दिसतात
वटवृक्ष असण्याच्या कैफात
ते समजूच नाही शकत
समजूच नाही शकत की
आफ्टर ऑल ते आहेत बोन्साय,
बोन्सायच राहणार ! 

अनुवादक ; प्रिया जलतारे 

Tuesday, 20 June 2017

उन का सुख

 
पेंटिंग : बी प्रभा
 
बहुतायत लोगों की हर खुशी में
गिनती के कुछ लोग
दुःख खोज लेने के लिए अभिशप्त हैं । 
 
गज़ब यह कि वह यह भी चाहते हैं
कि उन के दुःख में 
सभी लोग दुखी हो जाएं । 
 
यही उन का सुख है ।

Thursday, 6 October 2016

इतना विष भी तुम कहां से लाती हो शगुफ़्ता ज़ुबेरी


हाय शगुफ़्ता ज़ुबेरी
कहां हो , कैसी हो
मंथरा मोड में अभी भी हो
कितनी जगह इत्र लगा कर
अपने जहर का दरिया बहा चुकी हो 
कितने घरों में आग लगा कर नहा चुकी हो 

कभी मंथरा-कैकेयी , कभी सूर्पनखा-सुरसा
अपने घर में भी इतनी भूमिकाओं में कैसे रहती हो 
तुम इतना परेशान आख़िर क्यों रहती हो
फ़ेसबुक पर फर्जी प्रोफाईल गढ़-गढ़ कर
चुड़ैल बन कर टहलती-फिरती
कितने पुरुषों को झांसे में फांस चुकी हो

बताना अपना हालचाल
किसी और फर्जी प्रोफाईल से
जैसे फला-फला लेखक-लेखिका की सेक्सचर्या

उस दिन अभी तुम यही तो पूछ रही थी
बेधड़क , बेअंदाज़ , फुल बेशऊरी से
लेकिन तुम्हारी बेशऊरी से जैसे ही तुम्हें पहचान लिया
तुम भाग गई सर्वदा की तरह
फिर आई नई प्रोफाइल से फिर और फिर और
वाह , कितनी ऊर्जा है तुम में डाह की 
सब को परेशान रखने की चाह की

इतनी निगेटिविटी , इतना समय , इतना हिसाब 
कहीं अदा का कबाब , कहीं  शबाब की बिरयानी बेहिसाब
वाह-वाह की चटनी में चैट का डंक तुम कैसे बरसाती हो 
नदी की तरह बातों में बल बहुत खाती हो
ख़ुद से भी बाज-बाज जाती हो
कि बोलते-बोलते ख़ुद नीली पड़ जाती हो 
इतना विष भी तुम कहां से लाती हो शगुफ़्ता ज़ुबेरी
तुम औरत हो कि कांटों से भरी झाड़   

बाहर लाल सलाम , घर में भजन आरती  
इन के , उन के कहे सूत्र वाक्यों के सार
कैसे जी लेती हो  शगुफ़्ता ज़ुबेरी यह कंट्रास्ट 
खाती रहती हो घूम-घूम कर बातों की लात

मंथरा मोड में इस कदर सर्वदा कैसे रह लेती हो 
किसी इत्र की सनक है यह या सटके हुए दिमाग की हनक
इतने सारे कांटों की झाड़ पर पागलों की तरह चढ़ कैसे लेती हो 
शगुफ़्ता ज़ुबेरी मन में इतने कार्बन भर कर भी तुम जी कैसे लेती हो

Wednesday, 6 July 2016

तुम अपनी ईद अकेले मना लो अभी दुनिया रो रही है


समूची दुनिया घायल है , खून-खून है अल्ला मियां
मैं ईद मनाऊं तो मनाऊं भी कैसे
बधाई दूं तो भला दूं भी कैसे किस को

माफ़ करना अल्ला मियां 
अब की ईद पर मैं तुम्हें बधाई नहीं देना चाहता
मैं तुम्हें ईद की बधाई नहीं दूंगा 
तुम अपनी ईद अकेले मना लो अभी दुनिया रो रही है

मनुष्यता रो रही है
मैं रो रहा हूं
कि अभी मेरी बेटी तारुशी रो रही है
रो रही है हलाल होती हुई
तुम्हारा छुरा अभी उस की गरदन पर है
वह हलाल हो रही है और रो रही है
सिसक सिसक कर चीख़ रही है
उस के गले के भीतर छुरा है
और वह चीख़ रही है

चीखते-चीखते सो गई है
अपनी अंतिम नींद में है

ढाका का महीन मलमल खून से भीगा हुआ है
किस से पोछूं अपने आंसू
फ़िरोज़ाबाद की टूटी चूड़ियां बटोरूं कैसे
तारुशी अभी-अभी सोई है
आवाज़ होगी तो जाग जाएगी

हे अल्लाह , हे पैगंबर
माफ़ करना
गंगा-जमुनी तहज़ीब का ताना-बाना कमज़ोर हो गया है
इस का सूत सड़ गया है खून में सन कर

यह ढाका , यह मदीना , वह पेरिस ,
मुंबई , कश्मीर , पाकिस्तान , अमरीका के खून अभी ताज़ा हैं
स्कूली बस्ते लिए खून में सने पेशावर के बच्चे अभी आंखों में हैं
ऐसे में मैं ईद की बधाई कैसे दूं , किस मुंह से दूं
ईद मनाऊं भी तो कैसे भला , किस मुंह से
मीठी सिवई मुंह में उतरेगी भी तो कैसे

सीरिया , फिलिस्तीन , इसराईल की कराह अभी कान में है
समूची दुनिया घायल है
खून-खून है अल्ला मियां

तुम कोई नया पैगंबर क्यों नहीं भेजते
कुरआन की कैद से मुक्त क्यों नहीं करते
आप जानते हैं अल्ला मियां कि अब दुनिया को 
रमजान के महीने और जुमे की नमाज़ से डर लगने लगा है  

मनुष्यता से ऐसी भयानक दुश्मनी 
कि सारी दुनिया काप गई है 
कि तुम एक तरफ पूरी दुनिया एक तरफ 
अजब है यह भी

हां लेकिन मैं ने कुरआन की आयत पढ़ना सीख लिया है
रोते-रोते , डरते-डरते
बच्चों ने भी सीख लिया है
ताकि कोई वहशी उन्हें मारे नहीं , गला नहीं रेते

लेकिन अब हम ईद नहीं मनाएंगे
बधाई नहीं देंगे ईद की किसी को भी
अल्ला मियां तुम को भी नहीं
कि अभी हम तुम से बहुत खफ़ा हैं
तुम्हारे पैगंबर से भी यह कह दिया है
सुनना हो तो तुम भी सुन लो अल्ला मियां

[ 6 जुलाई , 2016 ]

Thursday, 7 April 2016

देश , देश न हो गौशाला हो और यह कसाई


जे एन यू में जब भारत विरोधी नारे लगे तो वह चुप थे  
ओवैसी ने जब कहा कि भारत माता की जय नहीं बोलूंगा
तब वह खुश थे , यह नाराज 

अनुपम खेर जब खड़े हुए देश भक्ति का नारा लगाते 
तो उन को सिनेमाई , भक्त और चमचा बता दिया 
देशद्रोही नारों को ग्लैमराइज और जस्टीफाई करने में जान लड़ा दी

जावेद अख्तर ने जब कहा कि 
बार-बार बोलूंगा भारत माता की जय 
वह फिर चुप हो गए , यह बोलने लगे

अमिताभ बच्चन ने तिरंगा लहराया 
क्रिकेट मैच जीतने की ख़ुशी में 
वह मजाक उड़ाने लगे , यह तिलमिलाने लगे

अब श्रीनगर की एन आई टी में 
तिरंगा लहरा कर वंदेमातरम भारत माता की जय बोल 
छात्र पिट गए हैं पुलिस से 

उन की देश भक्ति जाग गई है , बांछें खिल गई हैं
वह उन बच्चों के साथ मौखिक ही सही खड़े हो गए हैं 
वंदे मातरम देश भक्ति और भारत माता की जय अच्छा लगने लगा है 

वह बदलने लगे हैं 
लेकिन बदल अब यह भी गए हैं 
भूल गए हैं वंदे मातरम , भारत माता की जय 

भारत माता की जय न हो , वंदे मातरम न हो 
इन की और उन की सुविधा हो 
देश , देश न हो गौशाला हो और यह कसाई

वह बच्चे , बच्चे न हों , चिमपैंजी हों
इन की राजनीति का औजार हों
वामपंथ , कांग्रेस और आर एस एस की प्रयोगशाला हों , रंगशाला हों

कभी हैदराबाद , जे एन यू , जाधवपुर कभी एन आई टी श्रीनगर 
विष बुझी बयार में झुलस रहे हैं , नहा रहे हैं तेजाब में बच्चे 
वामपंथ , कांग्रेस और संघ के कछार में बाढ़ आ गई है देश डूब रहा है 

बचाने वाला कोई नहीं है


[ 7 अप्रैल , 2016 ]

Monday, 1 February 2016

ग़ज़ब यह कि मफ़लर और शाल का रंग लाल है


फ़ोटो : निखिलेश त्रिवेदी

इत्र में इतराती और गमकती
वह मिलती है एक राजनीतिक से
किसी समारोह  में
उस के साथ वह फ़ोटो सेशन करवाती है
जैसे करवाती है कोई माडल फ़ोटो सेशन
उस के ध्यान में है फ़ेसबुक पर अपनी संभावित पोस्ट
फ़ेसबुक पर फ़ोटो ही उस का अपना गंतव्य है

राजनीतिक से मुसकुराने को कहती है फ़ोटो में
वह मुसकुराता है भरपूर
अर्थ भरी दृष्टि डालते हुए कहता है
मेरे मफ़लर का रंग देखो
वह छटपटा कर ख़ुश हो जाती है
मारे ख़ुशी के बुदबुदाती है
मेरी शाल जैसा है

वह यह फ़ोटो
फ़ेसबुक पर चिपकाती है
आधी रात
अपनी दत चियार हंसी के साथ
राजनीतिक के मफ़लर
और अपनी शाल के रंग की तफ़सील के साथ
गोया क्रांति बस हो जाना चाहती है

ललचाता है एक लेखक
इस तफ़सील भरी फ़ोटो पर
आधी रात
लिबलिबा कर लिखता है कमेंट
और बताता है
मैं ने कुरता भी इसी रंग का पहना हुआ है
औरत फ़ौरन इसे लाइक करती है

ग़ज़ब यह कि मफ़लर और शाल का रंग लाल है
लेखक के कुर्ते का भी यही मान लेते हैं
होने को यह भगवा भी हो सकता है और हरा भी
क्रांति इसी को तो नहीं कहते कहीं
पूंजीवादी सोशल साईट फ़ेसबुक पर लाल क्रांति
क्रांति की यह नई तफ़सील है
मित्रों  फ़ेसबुक पर क्रांति की यह अर्ध-रात्रि है

समय ही ऐसा भयानक है
कि बिल्ली कैसी भी हो
सर्दी में आग खोजती है
प्रसिद्धि की तलब में
बुझी हुई आग को भी वह आग समझती है
ख़ुद को क्रांति की मशाल समझती है
मज़ा लेते हुए क्रांति भी अब मजे-मजे से होती है

औरत झूम-झूम कर आरती गाती है घर में
घंटी बजा-बजा कर
बाहर लाल सलाम बोलती है
चिल्ला-चिल्ला कर
सूत्र वाक्य में बोलती है लिखती है
फलाने ने यह कहा ढेकाने ने यह कहा
यही कह-कह कर वह जहर घोलती है


[ 2 फ़रवरी , 2016 ]

Monday, 18 January 2016

जींस पहन कर फ़ेसबुक पर वह लाल सलाम बोलते हैं ताकि तने रहें


फ़ोटो : रघु राय

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

वह बाज़ार के ख़िलाफ़ लिखते हैं , बोलते हैं ताकि बाज़ार में बने रहें
जींस पहन कर फ़ेसबुक पर वह लाल सलाम बोलते हैं ताकि तने रहें

फ़सिज्म का विरोध करते-करते कब ख़ुद फासिस्ट बन गए उन्हें पता नहीं 
वह तो गिरोह चलाते हैं ताकि सभा सेमिनारों में ताक़तवर सरगना बने रहें 

लेखकों में अफसर हैं अफसरों में लेखक बिल्डर भी उन के प्रकाशक भी 
आलोचक उन की कोर्निश बजाते रहते ताकि साहित्य में वह सजे-धजे रहें 

वह संपादक हैं साहित्यिक पत्रिका के भ्रष्ट नेताओं अफसरों से यारी है
विज्ञापन के बाजीगर हैं पर शीर्षासन जारी है कि  कहानीकार वह बने रहें  

कारपोरेट के ख़िलाफ़ वह बिगुल बजाते बच्चे मल्टी नेशनल में नौकरी बजाते
बड़े ठाट बाट से वह ब्रेड खिलाते भूखों को ताकि मजलूमों में शान से खड़े रहें

ब्रांडेड कपड़े ब्रांडेड जूते ब्रांडेड ह्विस्की ब्रांडेड जुमलों में  ख़ूब नारे लगवाते
वह ब्रेख्त और नेरुदा को झूम कर गाते हैं ताकि बड़का क्रांतिकारी बने रहें

जो उन से मतभेद जता दे उस को आंख मूद संघी बतलाते और गरियाते 
सेक्यूलरिज्म के कुत्ते दौड़ाते ताकि सल्तनत के बेताज बादशाह वह बने रहें 

रेलवे स्टेशन  भूल गए हैं  शहर की गलियां उन्हें चिढ़ातीं कुत्ते दौड़ाते  हैं
एयरपोर्ट से आते-जाते कूल-किनारा भूल गए ताकि वह एलिट  बने रहें 

मालपुआ खा कर जहर बोते हैं ब्राह्मणों को गरियाने में सर्वदा से चैंपियन
सारी कसरत है अपना जातीय मठ बचाने की ताकि मठाधीश वह बने रहें 

उन की दुकान ही है जातियों में आग लगा कर दलित पिछड़ा बताने की 
देश रहे चाहे जाए भाड़ में  उन का मकसद साफ है सरकार में बस बने रहें

पैसा लेते हैं जो अफसर तूती उन की ही बोले ईमानदार पागल कहलाते
कमाई में सब का अपना-अपना हिस्सा है बस नेता जी सी बी आई से बचे रहें

 [ 18 जनवरी , 2016 ]

Sunday, 17 January 2016

हम इतने बुजदिल हैं कि टुकुर-टुकुर सिर्फ़ ताकते रह गए



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

भडुए दलाल हमारे सिर पर पैर रख कर आगे  निकल गए
हम इतने बुजदिल हैं कि टुकुर-टुकुर सिर्फ़ ताकते रह गए 

राजनीति भी उन्हीं की प्रशासन भी मीडिया में भी वही हैं 
हर जगह यही काबिज हैं ईमानदार लोग टापते रह गए

हिस्ट्री शीटर रहे हैं हत्या डकैती अपहरण के मुकदमे भी बहुत 
लेकिन खनन माफ़िया को शरण देते-देते वह नेता जी बन गए 

बड़ी आग थी सरोकार भी थे पर पार्टी में सर्वदा अनफिट रहे
सिद्धांत बघारते-बघारते वह कार्यक्रमों  में दरी बिछाते रह गए 

ठेकेदार थे बिल्डर हुए कालोनी बनाते-बनाते मीडिया मालिक भी 
लड़कियां सप्लाई करते-करते वह सब के भाग्य विधाता बन गए 

आई ए एस हैं बड़ी-बड़ी डील करते हैं मिलते नहीं जल्दी किसी से 
बच्चे विदेश में  स्विस बैंक में खाता लूट-पाट कर देश बेचने लग गए 

चार सौ बीस विद्वान हो कर  विद्वता की किसिम-किसिम दुकान चला रहे 
विपन्नता में डूबे आचार्य लोग घर-घर सत्यनारायन की कथा बांचते रह गए

दलाली करते-करते पैर छूते-छूते वह चीफ एडिटर और सी ई ओ हो गया 
लिखने-पढ़ने वाले समझदार लोग अपमानित हो नौकरी से वंचित रह गए

 [ 17 जनवरी , 2016 ]

Saturday, 16 January 2016

सारे घोड़े वह अपने विजय रथ में बांध लेती है

पेंटिंग : राजा रवि वर्मा

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

जीतना उस का मुकद्दर है हर संभव वह मुझ को साध लेती है 
मेरी इच्छाओं के सारे घोड़े वह अपने विजय रथ में बांध लेती है

सुख की धूप उतरती है आहिस्ता-आहिस्ता आंगन में जब भी 
डिवोशनल सरेंडर ही मुहब्बत है यह बात औरत जान लेती है

सर्दी की नर्म धूप काफी का गरम प्याला तुम्हारा सजीला दुशाला
होशियार औरत मुहब्बत की तफ़सील सारी धीरे-धीरे जान लेती है

होशियारी का नशा मुहब्बत में काम आता नहीं कभी किसी सूरत
प्यार को गणित समझ ख़ुद को गुणा भाग में बुरी तरह बांट लेती है

लड़ाई लड़ती नहीं कभी बिन लड़े वह हर लड़ाई जीत जाती है
यह तब है जब वह हर युद्ध में बिना ढाल बिना तलवार होती है  

रोती-बिलखती नहीं चीख़ती-चिल्लाती भी नहीं डिप्लोमेसी जानती है
मुश्किलें जब भी आएं जैसी भी आएं वह हरदम आसान कर लेती है 

लोग छटपटाना जानते हैं बिखरना टूटना पर वह तो विजेता है
अपने रूप अपने दर्प और नाज़ नखरे से वह कमाल कर देती है   

लोगों का आना-जाना , रह-रह कर तुम्हारा चिहुंक जाना सिहरना
जैसे वह ख़ामोश सड़क हर संभव तुम को मेरे नाम कर देती है

अहंकार आदमी को तोड़ देता है दुनिया उस की तबाह होती रहती  है
औरत जैसी भी हो धैर्य उस की ताक़त पुरुषों को हर संभव साध लेती है

बरबाद करने को शक का घरौंदा काफी है कुछ रहता नहीं है बाक़ी
जैसे कोई झगड़ालू औरत सनक में घर की सारी सुख शांति चाट लेती है


 [ 17 जनवरी , 2016 ]

Friday, 15 January 2016

यह पुस्तक मेला यह पुस्तक विमोचन दम तोड़ते हुए जलसे हैं


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

मिलना-जुलना ही होता है सब पूछते रहते हैं और आप कैसे हैं
यह पुस्तक मेला यह पुस्तक विमोचन दम तोड़ते हुए जलसे हैं

किताबों की दुनिया बहुत सुंदर प्रकाशकों की दुनिया भयावह बहुत
रिश्वत ही से किताब बिकती है पाठक लेखक संबंध मर रहे जैसे हैं 

सरकारें हरामखोर अफसर रिश्वतखोर लेखक कायर प्रकाशक चोर
सरकारी ख़रीद में लाईब्रेरियों में करते कैद किताब कैसे-कैसे हैं 

नया लेखक बिचारा उत्सव रचाता है बुलाता है टायर्ड लोगों को 
प्रकाशक कुछ नहीं करता जानता है यह सब फालतू के खर्चे हैं

देखना दिलचस्प होता है नए लेखक किताब देते हैं  चरण छू कर 
नामी लेखक भेंट पाई यह किताबें बड़ी हिकारत से फेकते कैसे हैं

छपास के मारे यह अफसर यह मास्टर यह  पैसे वालों की औरतें  
किताब छपवाने ख़ातिर प्रकाशक को पैसे दे-दे कर बिगाड़ देते जैसे हैं 

जगह-जगह से पहुंचते  हैं बिचारे यश:प्रार्थी दल्लों के शहर दिल्ली में
मेले विमोचन की फ़ोटो हों या चर्चे सब ग्वाले के पानी मिले दूध जैसे हैं  

किताब बिकती नहीं प्रकाशक चीख़-चीख़ कर सब से कहता रहता है
लेकिन बेशर्म लेखक फ़ेसबुक पर कहता है मेरी किताब के बहुत चर्चे हैं

कुछ ज़िद में कुछ सनक में कुछ ऐंठे हुए कुछ पूर्वाग्रही कुछ क्रांतिकारी
आदमी कोई नहीं है सभी लेखक हैं लोग कहते हैं यह पागल कैसे-कैसे हैं 

फालतू की गंभीरता ओढ़ महाकवि बनने का स्वांग अब बहुत हो गया
मठ ढहेंगे नेट का ज़माना है  प्रिंट की धांधली और छल चला गया जैसे है

थोड़े से लोग किताब ख़रीद कर पढ़ते हैं कुछ  दुम हिलाते रहते हैं
ठकुरसुहाती का ज़माना है  मालिश पुराण के अब यह नए नुस्खे हैं

बटोरता फिरता है मेले में इन के उन के अपमान के कचरे भरे क़िस्से 
गोया गांधी है दलित बस्ती में सफाई करता इधर-उधर फिर रहा जैसे है
 
हर कोई सच कह नहीं पाता , कह सकता भी नहीं छुपाता हर कोई है 
वह तो हम हैं जो हर छोटी बड़ी बात को ग़ज़ल में भी कह देते जैसे हैं

 [ 16 जनवरी , 2016 ]

वह ईमानदार है इस लिए बहुत हैरान और परेशान है


फ़ोटो : सुशील कृष्णेत
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

मजे उसी के हैं जो जालसाज कमीना और बेईमान है 
वह ईमानदार है इस लिए बहुत हैरान और  परेशान है 

कोई पागल समझता है कोई केमिकल लोचा  बताता है 
वह डिगता नहीं ईमान से इस से परेशान हर बेईमान है 

फकीर नहीं है पर दीखता और रहता फकीर जैसा  है 
कपड़े लत्ते से बेपरवाह गर्वीली ग़रीबी उस की शान है 

बंगला नहीं कार नहीं लाकर या सोने से लदी बीवी नहीं
बिगड़ैल बेटा भी नहीं वह तो रोटी दाल में ही परेशान है 

दुःख जैसे दोस्त है सुख से घनघोर दुश्मनी है उस को
मुश्किलें उस की मौसी हैं बेबात अड़ जाना पहचान है 

टूट सकता नहीं झुक सकता नहीं समझौता सुहाता नहीं 
उसे अपनी अनमोल ईमानदारी पर बहुत ज़्यादा गुमान है 

[ 15 जनवरी , 2016 ]

Thursday, 14 January 2016

ताजमहल भारत में है पाकिस्तान बना सकता नहीं



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

पाकिस्तान आख़िर पाकिस्तान है सुधर सकता नहीं 
ताजमहल भारत में है पाकिस्तान बना सकता नहीं   

धरती आकाश समंदर बंटता है  उस का पानी भी 
पाकिस्तान का  माईंड सेट कोई बदल सकता नहीं

आतंक पाकिस्तानी सेना का मजहब है मुहब्बत दुश्मन 
खून ख़राबा उस का बुनियादी चरित्र जो बदल सकता नहीं  
 
फ़ौज भारत में भी है मनुष्यता की सर्वदा हामीदार होती है
 विपदा कैसी भी ऐसी  मदद कोई और तो कर सकता नहीं

भारतीय सेना मदद को दुनिया भर में बुलाई जाती है
पाकिस्तानी सेना से मदद कोई  देश मांग सकता नहीं
[ 14 जनवरी , 2016 ]

तुम्हारी सरहदों पर गांधी के कुछ भजन गाना चाहता हूं

 
फ़ोटो : सुलोचना वर्मा


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 
   
आसमान धुंधला ही सही शांति के कबूतर उड़ाना चाहता हूं
तुम्हारी सरहदों पर गांधी के कुछ भजन गाना चाहता हूं

साइमन कमीशन गो बैक की पतंग उड़ाई थी लखनऊ ने 
आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमन की पतंग उड़ाना चाहता हूं

डिप्लोमेसी तुम करो तुम ही जानो जोड़-तोड़ हार  जीत
यहां तो मनुष्यता की जीत का  ऐलान लिखना चाहता हूं

सरहद से आई है एक फौजी के शहादत की मनहूस ख़बर
उस की विधवा के बहते आंसू को सैल्यूट लिखना चाहता हूं 

संसद सुप्रीम कोर्ट सभी शक़ के घेरे में यक़ीन नहीं किसी पर
नंगई के इस दौर में बहुत धीरे से एक ईमान लिखना चाहता हूं

बारिश अब की हुई नहीं ठंड  ग़ायब ओस भी है लापता
धरती की लाचारी आंसू दुःख और संताप लिखना चाहता हूं

माघ की नरम ठंड में धूप तीखी लगती है रजाई बेमानी 
मौसम के रूठने मनाने का शोक गीत गाना चाहता हूं

मोबाईल और इंटरनेट के दौर में भी वह चिट्ठी लिखवाती है 
वसंत जैसे आया हो बाग़ में आम के बौर लिखना चाहता हूं 

पैसा मां बाप पैसा ही सब कुछ है पैसा सब से बड़ा भगवान 
इस भयावह दौर में घास पर भीगी ओस लिखना चाहता हूं 
  
घर का लिपा आंगन अम्मा की लोरी दादी के वह क़िस्से
ममत्व से सनी गोद में बैठ कर दूध भात लिखना चाहता हूं 

माथे पर टिकुली आंख में काजल गाल पर मासूम डिंपल 
तुम्हारे इसी गाल पर चुंबन बेहिसाब लिखना चाहता हूं


[ 14 जनवरी , 2016 ]