Saturday, 11 June 2022

कुंठा , जहालत और चापलूसी का संयोग बन जाए तो आदमी सुधेंदु ओझा बन जाता है

दयानंद पांडेय 



कुंठा , जहालत , भाषा की विपन्नता और चापलूसी का संयोग बन जाए तो आदमी सुधेंदु ओझा बन जाता है। वैसे भी सुधेंदु मतलब सुधा और इंदु। सुधेंदु नाम का संधि विच्छेद यही बताता है। तो मर्दानियत का तो वैसे ही सत्यानाश हो जाता है। बाक़ी पैसे दे कर किताब छपवा लेना , रवींद्र जैन जैसे लोगों से अधकचरे गीत गवा लेना , अपने स्टूडियो में और इन की उन की ठकुरसुहाती से यश तो नहीं मिलता। पर यश:प्रार्थी तो यश:प्रार्थी। कोई रोक तो सकता नहीं। 

असल में दिल्ली में जितेंद्र पात्रो ने एक नया धनिक खोज लिया है। पिता की विरासत में मिले धन को बेहिसाब खर्च कर यह यश:प्रार्थी सुधेंदु ओझा इन दिनों जितेंद्र पात्रो के मार्फ़त न सिर्फ़ यश ख़रीद लेना चाहते हैं बल्कि जितेंद्र पात्रो का चंपू और चापलूस बन कर उपस्थित हैं। लेखन कला से विपन्न इस आदमी को जितेंद्र पात्रो से बड़ी उम्मीदें हैं। जितेंद्र पात्रो में एक बात तो है कि यश:प्रार्थी लेखकों को सपने बेचने में निपुणता हासिल है। तो  स्कूल और स्टूडियो चलाने वाले इस नवधनाढ्य यश:प्रार्थी को जितेंद्र पात्रो ने अपना चंपू और चापलूस बना कर इन के गले में प्रलेक प्रकाशन का पट्टा बांध दिया है। रहीम ने लिखा है : जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। / चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥ तो रहीम का लिखा यहां पलट गया है। इस यश:प्रार्थी व्यक्ति पर जितेंद्र पात्रो रुपी भुजंग ने लिपट कर इस व्यक्ति को भी विषैला और वनैला बना दिया है। इतना कि कभी मेरे आदर में बिछ-बिछ जाने , मेरे प्रशंसा गीत गाने वाले यह व्यक्ति सुधेंदु ओझा मुझ में जाने कौन सा मायानंद खोजने लगा। जो घटनाएं मेरे जीवन में कभी घटी नहीं , वह मायानंद के बहाने मेरे जीवन में चिपकाने लगा। मायानंद में कभी नारद , कभी दिव्या भारती को लिपटाने लगा। 

सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में मेरे पुराने वरिष्ठ सहकर्मी रहे राम अरोड़ा का नाम ले-ले कर ऐसी बातें करने लगा कि गोया यह सारी बातें राम अरोड़ा ने उसे बताई हों। वह नहीं जानता राम अरोड़ा को , न मुझे। न हमारे और राम अरोड़ा के संबंध को। सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में संपादक थे अरविंद कुमार। संत प्रवृत्ति के थे अरविंद कुमार। विनम्रता , सरलता और विद्वता का अद्भुत संगम थे अरविंद कुमार। राम अरोड़ा और मैं ने ही नहीं पत्रकारिता की दो-तीन पीढ़ियों ने अरविंद कुमार से बहुत कुछ सीखा है। मैं तो अब भी सीखता रहता हूं। गो कि अरविंद जी बीते बरस कोरोना के दिनों में दुनिया को विदा कह गए। मुझे पुत्रवत स्नेह करते थे। लेकिन यह सुधेंदु ओझा , मुझे अरविंद जी का अर्दली बताता है। अरे मेरा नहीं , न सही संत जैसे सर्वोत्तम संपादक अरविंद कुमार का आदर तो रखा होता। विरल और श्रेष्ठ संपादक थे वह। हिंदी पर उन का बहुत ऋण है। हिंदी थिसारस के जनक हैं , अरविंद कुमार। टाइम्स आफ इंडिया की माधुरी जैसी फ़िल्मी पत्रिका के वह 14 बरस संपादक रहे। संस्थापक संपादक थे माधुरी के और सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के भी। खुशवंत सिंह , धर्मवीर भारती , कमलेश्वर के समकालीन हैं। खुशवंत सिंह से भी अरविंद जी ने मुझे मिलवाया था। खुशवंत सिंह के बेटे राहुल सिंह रीडर्स डाइजेस्ट , भारतीय अंगरेजी संस्करण के चीफ़ एडीटर थे। बल्कि कमलेश्वर को फ़िल्मी दुनिया से परिचित ही करवाया अरविंद कुमार ने। जाने कितने अमिताभ बच्चन बनाए , बिगाड़े हैं अरविंद कुमार ने। 

अभिनेता विनोद मेहरा अरविंद कुमार के गहरे दोस्त थे। एक बार टाइम्स के मालिकानों ने अरविंद कुमार से विनोद मेहरा की फ़ोटो माधुरी में छापने के लिए कह दिया। जब तक अरविंद कुमार माधुरी के संपादक रहे , विनोद मेहरा की फिर कोई फ़ोटो नहीं छपी। विनोद कहते रहे अरविंद कुमार से कि मैं ने कुछ नहीं कहलवाया। पर अरविंद जी नहीं माने तो नहीं माने। राज कपूर , शैलेन्द्र , गुलज़ार जैसों से यारी थी , अरविंद कुमार की। तमाम फ़िल्मी हस्तियों से मिलवाया मुझे अरविंद जी ने। दिलीप कुमार , देवानंद , गुलज़ार जैसों से मुझे अरविंद जी ने मिलवाया। बहुत सी बातें हैं। क्या-क्या बताऊं। फिर हिंदी पत्रकारिता को अमूल्य योगदान है उन का। हिंदी थिसारस के लिए समूचा हिंदी समाज उन के आगे विनयवत है। अरविंद कुमार हिंदी में एक ही हैं। कोई एक दूसरा नहीं है। न उन का नाखून भी छू सकता है कोई। पर वह बहुत ही सरल और विनम्र थे। विद्वान ऐसे ही होते हैं। विद्वान लोग अर्दली नहीं रखते सुधेंदु ओझा , अब से नोट कर लीजिए। आप ने जो लिखा है न मायानंद चैप्टर , कभी राम अरोड़ा को दिखा दीजिएगा। गालियां दे कर भगा देंगे , ऐसा फूहड़ और लंपट लेखन देख कर। वह राम अरोड़ा हैं , अरविंद कुमार नहीं। एक बार हिम्मत कर ट्राई कर लीजिए। भाषा और कथा की मर्यादा बहुत है राम अरोड़ा में। 

अरविंद कुमार को जब हिंदी अकादमी , दिल्ली ने
श्लाका सम्मान दिया तब के समारोह में अरविंद जी के साथ मैं 

सर्वोत्तम टीम का अकेला व्यक्ति हूं जिसे मई , 1981 से दिवंगत होने तक अरविंद जी और उन के परिवार का स्नेह निरंतर मिलता रहा है। पुत्रवत आज भी उन के घर में हूं। दुनिया में अरविंद जी कहीं भी रहे , मुझ से निरंतर संपर्क बनाए रखते रहे। अमरीका , दुबई , सिंगापुर , पांडिचेरी , गाज़ियाबाद। हर किसी जगह से वह मुझे पुकारते रहते। फ़ोन कर हाल लेते और देते रहते। अरविंद कुमार संपादक थे। पर कभी बॉस बन कर दफ़्तर में नहीं रहते थे। सभी से मित्रवत। मेरे संस्मरण में पढ़िए। राम अरोड़ा से पूछ लीजिए। अरविंद जी पर मैं ने कई बार , कई तरह से लिखा है। संस्मरण मैं ने बहुत लोगों पर लिखे हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , जैनेंद्र कुमार से लगायत विष्णु प्रभाकर , अमृतलाल नागर आदि दर्जनों लोगों पर। लेकिन सब से बड़े संस्मरण अभी तक मैं ने सिर्फ़ तीन लोगों पर लिखे हैं। एक अपनी अम्मा पर , दूसरा अरविंद कुमार और तीसरा , प्रभाष जोशी पर। तो अरविंद कुमार पर लिखा संस्मरण ही किसी वाट्स अप ग्रुप पर पढ़ कर सुधेंदु ओझा ने मुझ से संपर्क किया। मेरे प्रशंसक बन गए। अरविंद जी के इस संस्मरण में सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में घटे एक अप्रिय प्रसंग में राम अरोड़ा से जुड़ी एक घटना का ज़िक्र है। इस घटना के कारण ही राम अरोड़ा सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट से इस्तीफ़ा दे दिए। स्वाभिमानी आदमी हैं। फिर कभी सर्वोत्तम में भूल कर भी नहीं लौटे। न किसी से संपर्क रखा। तो वाट्स अप ग्रुप में अरविंद जी पर संस्मरण पढ़ कर राम अरोड़ा का ज़िक्र किया सुधेंदु ओझा ने। उन की दो फ़ोटो भेजी। और बताया कि वह वसुंधरा , गाज़ियाबाद में रहते हैं। मैं ने राम अरोड़ा का नंबर मांगा। कुछ दिन बाद दिया सुधेंदु ने। सर्वोत्तम के बाद राम अरोड़ा से मेरा कोई संपर्क नहीं था। सुधेंदु ओझा ने राम अरोड़ा का नंबर दिया तो राम अरोड़ा से मेरी बात हुई। हम दोनों की प्रसन्नता का कोई पारावार नहीं था। क्यों कि सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट टीम से अब हम दो ही शेष रह गए हैं। शेष सभी लोग स्मृति-शेष हो गए हैं। ऋतुशेष के कहानीकार राम अरोड़ा से तय हुआ कि आगे जब भी नोएडा आऊंगा , हम लोग मिलेंगे। 

अब सुधेंदु ओझा का अकसर फ़ोन आने लगा। वह कुछ न कुछ जानकारी लेने लगे। एक दिन अपने स्टूडियो की जानकारी देते हुए बताने लगे कि एक छोटे चैनल को किराए पर दिया था। पर कोरोना में चैनल बंद हो गया। अब उसे ठीकठाक करवा कर अपना यू ट्यूब चैनल चलाएंगे। आदि-इत्यादि। अपने घर बुलाने लगे। पर हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा। जितेंद्र पात्रो पर जब बीते 7 अप्रैल , 2022 को लिखा तो दूसरे दिन सुधेंदु ओझा का फोन आया। कहने लगे कि मेरा अनुभव तो जितेंद्र पात्रो के साथ बहुत अच्छा रहा है। मैं ने उन्हें बताया कि शुरु में मेरा भी अनुभव अच्छा रहा था। मेरी एक किताब तो तीन दिन के अंदर छाप कर लखनऊ मंगवा लिया था। पर बाद में जितेंद्र पात्रो से बेहद ख़राब अनुभव रहा है। बहुत अपमानजनक। इंतज़ार कीजिए , आप का भी होगा। दो दिन बाद फिर फ़ोन आया सुधेंदु ओझा का। थोड़ी देर इधर-उधर की बात के बाद वह बोले कि प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो से बात फिर से हो सकती है। कोई रास्ता निकाल लीजिए। मैं ने उन्हें बताया कि जितेंद्र पात्रो के बेहूदा और अभद्र व्यवहार को देखते हुए अब कोई रास्ता शेष नहीं है। न ही अब मेरी कोई दिलचस्पी है। बहुत गंदा और गिरा हुआ आदमी है वह। सुधेंदु ओझा को स्पष्ट बता दिया कि अभी नहीं , और कभी नहीं। बात ख़त्म हो गई। फिर 20 मई , 2022 का अप्रिय प्रसंग आया जब 112 नंबर की पुलिस ले कर आधी रात जितेंद्र पात्रो लखनऊ के मेरे घर आ गया। एक घिनौना आरोप लगाया कि मैं ने उस की बीवी को अश्लील संदेश भेजा है। 

वह संदेश क्या है , जितेंद्र पात्रो आज तक नहीं बता पाया , न दिखा पाया। अलग बात है कि उलटे पुलिस उसी को घसीट ले गई। 30 घंटे हवालात में काटने के बाद माफ़ी मांग कर छूटा। एक तहरीर लिख कर अगर हम ने दे दिया  होता तो वह हफ़्ते भर जेल काट कर लौटता। यह विकल्प अभी भी मेरे पास शेष है। जितेंद्र पात्रो को अभी भी जेल भिजवा सकता हूं। क्यों कि उस का सारा किया-धरा पुलिस रिकार्ड में दर्ज है। जी डी में। ख़ैर , माफ़ी वीर बन कर थाने से निकलने के बाद कई लेखकों को जितेंद्र पात्रो ने मेरे ख़िलाफ़ लिखने के लिए संपर्क किया। हर किसी ने मना कर दिया। क्यों कि जितेंद्र पात्रो का क्या है ? वह किसी को माता तुल्य कह कर उसे पागल भी कह सकता है। 70 - 75 बरस की वृद्ध महिला का ब्वाय फ्रेंड भी खोज सकता है। जितेंद्र पात्रो के पतन की यह पराकाष्ठा है। और तो और स्त्री अस्मिता की ललकार लगाने वाली ललनाएं भी इस पतित जितेंद्र पात्रो के सुर में सुर मिला कर अपने पतन का उद्घोष करने में अव्वल हो जाती हैं। जितेंद्र पात्रो को विक्टिम बता देती हैं। तब जब कि यही जितेंद्र पात्रो इन ललनाओं के बारे में लोगों से बिलो द बेल्ट बातें करता घूमता है। इतना कि उस का उल्लेख करना भी मेरे लिए यहां कठिन है। अब अलग बात है सुधेंदु ओझा जैसे अपने चापलूसों द्वारा वह किसी को बीताश्री भी लिखवा देता है। विनय पत्रिका में तुलसीदास वैसे ही तो नहीं लिख गए हैं : केशव , कहि न जाइ का कहिए ! 




बहरहाल , सुधेंदु ओझा को जितेंद्र पात्रो ने अमर बनाने का झांसा दे दिया। तो हिंदी साहित्य में अमर होने की अभिलाषा में एक अकेले सुधेंदु ओझा ने बैलेंस बनाते हुए अपने संपर्क भाषा भारती पत्रिका की वाल पर बीते 22 मई , 2022 को एक पोस्ट लिखी। किसी और ने नहीं। शीर्षक दिया : यूँ ही......बदनाम करने का कुचक्र या फिर लेखक का शोषण ??? उन के इस लिखे को एक मित्र ने मेरे पास 29 मई को भेजा। मैं ने उन से मेसेज बॉक्स में संदेश भेज कर पूछा , यह क्या है ? बताया कि आप का यह लिखना अनुचित है। आप व्यवसाई हैं , आप को किसी धूर्त प्रकाशक के पचड़े में पड़ने से बचना चाहिए। उन का घिघियाता हुआ एक जवाब आया। लिखा कि मेरी पोस्ट का मंतव्य तथ्यों को सामने रख कर अफ़वाहों के बाज़ार को ठंडा करना मात्र है। मैं ने उन्हें लिखा : स्कूल चलाने का अर्थ यह नहीं होता कि एक धूर्त प्रकाशक जितेंद्र पात्रो की चापलूसी में लिप्त हो कर आप मुझे ज्ञान देने लगें। जितेंद्र पात्रो वाली पोस्ट पढ़ कर आप ने ही पहले फ़ोन किया था। खैर, आप अपनी चापलूसी की दुनिया में प्रसन्न रहें। मुझे जो करना है, मैं कर ही रहा हूं। करता रहूंगा। आप खातिर जमा रखें।

सुधेंदु ओझा तड़क गए। उन्हों ने लिखा :

ख़ातिर आप भी जमा रखिएगा। आप/हम ईश्वरीय ख़ातिर का जीता-जागता प्रमाण हैं। आपके रमेश रिपु द्वारा भेजी पोस्ट को पढ़ कर फोन किया था। आप भाषा संयत रखें। आपके लिए दुनिया धूर्त, कमीना, चापलूस और जाने क्या क्या हो सकती है। अपने बारे में भी किसी से राय ले लीजिएगा। सम्यक दृष्टि/संतुलन रखिए।

जवाब में मैं ने उन्हें सिर्फ़ दो अक्षर का एक शब्द लिखा : 

हुंह! 

यह 30 मई , 2022 की बात है। सुधेंदु ओझा ने इस हुंह ! को जाने दिल पर ले लिया कि जितेंद्र पात्रो का विष व्याप गया। 2 जून , 2022 को अपने संपर्क भाषा भारती पत्रिका की वाल पर सुधेंदु ने लिखा : यूँ ही .......मायानन्द की माया। इस शीर्षक से पोस्ट में जितेंद्र पात्रो द्वारा दिया गया सारा जहर उतार दिया। सारी कुंठा बघार दी। ऐसे जैसे कोई दाल बघारे। तो ख़ूब तड़का लगा कर भाषा की सारी दरिद्रता और अभद्रता से रिश्तेदारी निभाते हुए लिखा। मायानंद को अरविंद जी का अर्दली बता दिया। पहाड़गंज के किसी होटल में दिव्या भारती से लंपटई की एक फूहड़ और नकली कहानी रची। मायानंद के पिता को पुरोहित बताया। बताया कि भूख का मारा मायानंद पिता के पैसे चुरा कर घर से भागा। झिलमिल में अरविंद बाबू मिले। आदि-इत्यादि। नहीं मालूम इस जहरीले व्यक्ति को कि मेरे गांव , परिवार और रिश्तेदारों में एक भी पुरोहित नहीं है। फिर पुरोहित होना कोई पाप नहीं है। और कि मेरे पिता जी तो केंद्रीय तारघर में तार बाबू थे। इस मतिमंद को यह भी नहीं मालूम कि मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री के लोग पहाड़गंज जैसी जगहों के खटारा और खस्ताहाल होटलों में नहीं ठहरते। अशोका , ताज़ , ओबेराय जैसे सात सितारा होटलों में ठहरते हैं। मेहरौली के फ़ार्म हाऊसों में ठहरते हैं। फिर दिव्या भारती जैसी अभिनेत्री कभी दिल्ली आई भी होगी , मुझे शक़ है। दिव्या भारती जब फिल्मों में आई तब तक मैं दिल्ली छोड़ कर लखनऊ शिफ्ट हो चुका था। दिव्या भारती की फ़िल्मोग्राफ़ी कुल दो-ढाई बरस की ही थी। असमय ही संदिग्ध निधन हो गया। तो दिव्या भारती से कभी मिला तो नहीं। पर हां , दिव्या भारती पर एक श्रद्धांजलि लेख ज़रुर लिखा था। 

अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू 

सुधेंदु ओझा जैसे मतिमंद को जानना चाहिए कि दिलीप कुमार से लगायत शशि कपूर , अमिताभ बच्चन , जितेंद्र , शत्रुघन सिनहा , जानी वाकर , ए के हंगल , राज बब्बर , कुलभूषण खरबंदा , मनोज वाजपेयी जैसे तमाम अभिनेताओं , महेश भट्ट जैसे निर्देशक , आशा पारेख , रेखा , हेमा मालिनी , शबाना आज़मी , रोहिणी हटंगणी , रति अग्निहोत्री , पूजा भट्ट , सिंधु भाग्या जैसी तमाम अभिनेत्रियों ,  लता मंगेशकर , आशा भोसले , हृदयनाथ मंगेशकर , जगजीत सिंह , दलेर मेंहदी , कुमार शानू जैसे गायकों समेत तमाम फ़िल्मी हस्तियों से लगातार मिलता रहा हूं।  इन सब के इंटरव्यू किए हैं। बराबरी में बैठ कर। लंबे-लंबे इंटरव्यू। इन सब के साथ तमाम फ़ोटो हैं। सिनेमा पर मेरी एक मोटी सी किताब भी है। और यह मतिमंद दिव्या भारती के साथ पहाड़गंज के खटारा होटल में खर्च हो गया ,किसी लंपट मायानंद के साथ। कहानी लिखते नहीं बनी तो नारद को ऐसे घुसेड़ दिया कहानी में जैसे भूसा भर रहा हो। रह-रह ब्लू फिल्म की हीरोइनों की तरह राम अरोड़ा , राम अरोड़ा की चीत्कार करता रहा। गोया यह सब कुछ उसे राम अरोड़ा ने बताया हो। अजब मतिमंद है यह सुधेंदु ओझा भी। फिर गोरखपुर का एक चार सौ बीस अतुल श्रीवास्तव पुष्पार्थी , जो प्रकाशन जगत की चार सौ बीसी में जितेंद्र पात्रो का बाप है। जो जितेंद्र पात्रो से ज़्यादा बदबू मारता है , पोस्ट पर किसी बैसाखनंदन की तरह रेंकता हुआ आ गया। फिर गिनती के कुछ सांप बिच्छू भी अहा, अहो ! करते हुए दिखे। जितेंद्र पात्रो भी गदगद हो कर आया। पूछा कि शेयर कर लूं ? 

फिर 5 जून , 2022 को मतिमंद सुधेंदु ओझा ने अपने अपने संपर्क भाषा भारती पत्रिका की वाल पर मायानन्द : हिन्दी के छिछले समुद्र की गंदगी शीर्षक पोस्ट लिखी। इस में मायानंद , मायानंद करते हुए अचानक गुरु दयानंद पर आ गए। अरे जितेंद्र पात्रो के चंपू , चापलूस सुधेंदु ओझा सीधे मेरा नाम लिखने की औक़ात रखो। सही और सच्ची बात करना सीखो। छाती ठोंक कर लिखो। जैसे मैं लिखता हूं। तर्क और तथ्य के साथ। कोई एक भी मेरी बात को किसी सूरत काट नहीं सकता। दिलचस्प यह कि इस पोस्ट पर जितेंद्र पात्रो के लीगल टीम की हेड , राजेंद्र यादव फेम ज्योति कुमारी को बहुत आनंद आया। ऐसे जैसे चरम सुख में डूब गई। वह एक कहावत है न सूप हंसे तो हंसे , चलनी भी हंसे जिस के बहत्तर छेद। बिलकुल उसी तरह। वही लिजलिजापन लिए। क्या भेल से रिटायर हो कर पत्रकार बनने की हकलाहट है यह ? हालां कि केशव ओझा के पोते और निशेंदु ओझा के पुत्र सुधेन्दु ओझा के सामाजिक सरोकार के प्रशंसक लोग भी मिले हैं मुझे। भूरि-भूरि प्रशंसा करने वाले लोग। लेकिन क्या कीजिएगा जब कोई विषैला भुजंग लिपट जाए तो विष तो आ ही जाता है , व्यवहार में। लेखन में भी। 

एक पुरानी कहावत है कि डाइन भी सात घर छोड़ देती है। लेकिन जितेंद्र पात्रो उस डाइन को भी मात करता है। एक सत्तर साल की वृद्ध लेखिका के लिए जिस तरह अभद्र भाषा में लिखा है और उन्हें पागल घोषित करते हुए ब्वाय फ्रेंड जैसी अपमानजनक बातें भी लिख गया है। दूसरी तरफ जिस लेखिका के कंधे पर बैठ कर दीदी-दीदी कर के प्रलेक प्रकाशन का तंबू-कनात गाड़ा , उसी लेखिका का नाम बिगाड़ कर इस मतिमंद सुधेंदु ओझा से बीताश्री लिखवाने लगा। आप भी गौर कीजिए की वाल पर इस लिखे पर संपर्क भाषा भारती पत्रिका की वाल पर :

अब एक ताज़ी खबर और सुन लीजिए.....यह आप केलिए ही है।   

जस्ट ब्रेकिंग न्यूज़ : कुछ पत्रकार की तरह साहित्य लिखने वाले अब सिंगल मदर्स को भी अपनी कुंठा के निशाने पर लेने लग गए हैं। लेखिका एटम पावर सिंह और बीताश्री को लेकर भी कुंठा-वमन हो रहा है। 

यह हिन्दी साहित्य का छिछला महासागर है जिसमें दूर-दूर तक, बहुत दूर तक सड़े-गले व्यक्तिगत सम्बन्धों की गंदगी को साहित्य के नाम पर परोसने की कोशिश हो रही है। पर यह कोशिश नई नहीं है। फूल कुमारी भारती हों या सहेली फूल कुमारी सभी रेत की मछलियाँ बन कर साहित्य में तड़प रही हैं। 

हिन्दी साहित्य का पाठक गत सदी के तीस और चालीस दशक का रचा हुआ साहित्य तलाश रहा है पर उसे मिल रहा है आज कल के लेखक-लेखिकाओं का जिया हुआ इतिहास। 

खैर, यह छिछला समुद्र है। यहाँ इस तरह की गंदगी मिलती ही रहेगी। ऐसा मुझे पूरा यकीन है।

अंत में, फेसबुक पर नमूदार मायानन्द, महेश जैसे पथिकों का जिनका रास्ता और लक्ष्य ही अद्भुत है......उन्हें प्रणाम, उनके बहाने कुछ कहने का अवसर प्राप्त हुआ......

बीताश्री को तो पहचान गया पर इन में से यह स्वेद पुत्र एटम पावर सिंह , महेश कुमार भोंपू और फूल कुमारी भारती को पहचान पाने में मैं अभी तक असफल हूं। कोई मित्र पहचान करवाएं। बहरहाल लेखक कोई भी हो , कभी भी बीता हुआ नहीं होता। अपने पाठकों में सर्वदा ज़िंदा रहता है। सहमति-असहमति , पसंद-नापसंद अपनी जगह है। तो यह बीताश्री क्या होता है ? अरे हिम्मत है तो सीधा नाम लिखो। जिस का भी लिखो। लेकिन एक तो साहस नहीं। दूसरे तथ्य और तर्क नहीं। तीसरे , लिखने का हुनर नहीं। कलम से दरिद्र। होने को मेरे पास सुधेंदु ओझा के निजी जीवन की कुछ अतिरिक्त और आकर्षक जानकारियां भी हैं। पर अभी उन का ज़िक्र नहीं करना चाहता। कुछ कार्ड होते हैं जिन्हें खोल कर नहीं खेला नहीं जाता। खेल अभी शुरु हुआ है। तो आगे ज़रुरत पड़ी तो देखा जाएगा। वैसे भी किसी की निजी ज़िंदगी में ताक-झांक करना मैं गुड बात नहीं मानता। बहुत बैड बात मानता हूं। पर क्या करुं गीता भी पढ़ रखी है। फिर वह एक शेर है न :

मैं वो आशिक़ नहीं जो बैठ के चुपके से ग़म खाए 

यहां तो जो सताए या आली बरबाद हो जाए। 

फिर मेरे जीवन में तो छुपाने के लिए कुछ है ही नहीं। सारा जीवन ईमानदारी , नैतिकता और शुचिता का तलबगार रहा हूं। कोई एक पैसे का भी कोई आक्षेप नहीं लगा सकता। इसी लिए छाती ठोंक कर लिखता हूं। किसी भी के बारे में। फिर अपने बारे में बहुत कुछ ख़ुद लिख चुका हूं। लिखता ही रहता हूं। घर से ले कर सार्वजनिक जीवन की सारी बातें सब के सामने हैं। खुली किताब हूं। जो जब चाहे , पढ़ सकता है। सर्वदा स्वागत है। मायानंद की आड़ लेने की ज़रुरत ही किसी को नहीं है। लेकिन आधा सुधा , आधा इंदु मतलब सुधेंदु ने एक पोस्ट में लिखा है :

मैंने मायानन्द के पुराने जानकारों से संपर्क किया।

सब ने एक ही स्वर में मुझ से पूछा “अरे वो साला अभी ज़िंदा है क्या?”

मैंने जवाब दिया “हाँ!!”

“अरे उस साले से बच के रहना। महा धूर्त किस्म का काइयाँ इंसान है।“ उधर से यह पारिभाषित टिप्पणी हासिल हुई। 

बताइए कि वह यही सुधा और इंदु है जो मुझ से लिखने के लिए टिप मांगता था। मुझे कभी बहुत आदर पूर्वक ऐसे संदेश भेजा करता था :

आदरणीय दयानंद पांडेय जी प्रणाम!!

उपरोक्त छलात्कारी विषय में मैंने आपके कुछ आलेख पढ़े हैं जिनमें कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, राजेन्द्र अवस्थी, नंदन, दुष्यंत, नीलाभ इत्यादि का कुछ-कुछ रेखा चित्र आपने खींचा था। शायद एक घोर जनवादी आलोक आपकी निगाह से बच निकला था। 

मेरे पास भी कुछ रोचक सामग्री है, इजाफा करना चाहता हूं।

नीलाभ और आलोक धन्वा के त्रासद जीवन में कुछ साम्यता है तो कुछ असाम्यता भी।

आपसे सहयोग/सहायता की दरकार है।

संभवतः, आपके विषय में धनंजय सिंह (कादम्बिनी) के मुख से कई बार सुना था।


सादर

सुधेन्दु ओझा

लेकिन जितेंद्र पात्रो रुपी भुजंग ने लिपट कर इस व्यक्ति को इतना विषैला बना दिया कि इस आदमी में इतना जहर भर गया। भाषा में दरिद्र पहले ही से था , अब अभद्र भी हो गया। जितेंद्र पात्रो के विष में लिपटे इस व्यक्ति को कोई बताने वाला नहीं है कि नाम के आगे पंडित लिखने से कोई पंडित नहीं होता। पंडित होने के लिए बड़ी तपस्या करनी होती है। बहुत अध्ययन और अनुभव से , बड़ी विनम्रता और धैर्य से पंडित बनता है कोई। पंडित मतलब ज्ञानी। अधजल गगरी छलकत जाए वाली जानकारी , आदमी को पंडित नहीं , कुत्ता बनाती है। कुंठित बनाती है। चापलूस और चंपू बनाती है। होठों पर उंगली रख कर फ़ोटो क्लिक करवाने से कोई लेखक नहीं बन जाता। लेखक बनने के लिए रचना पड़ता है। लेखकीय आचरण करना होता है। मायानंद जैसे , बीताश्री जैसे फर्जी नाम की आड़ नहीं लेनी पड़ती है। लेखक तो सीधा कहता है। उसे मायानंद और बीताश्री की ज़रुरत नहीं पड़ती। सनातन समाज की आचार संहिता क्या ऐसे ही दरिद्र भाषा में लिखा है ? कि सितारा देवी जैसी नर्तकी पर इसी तरह अभद्र ढंग से लिखा है ? 

पिता का कमाया पैसा उड़ाना आसान होता है। पर ख़ुद कमाना कठिन होता है। बहुत कठिन। पिता का मेहनत से कमाया हुआ पैसा चापलूसी और चंपूगिरी में पानी की तरह बहाना कोई गुड बात तो नहीं ही है। वह भी एक कलंकी , चालबाज और धूर्त प्रकाशक जितेंद्र पात्रो की चापलूसी और चंपूगिरी में तो कतई गुड बात नहीं है। वैसे भी पहले ही बताया कि सुधेंदु मतलब सुधा और इंदु। तो मर्दानियत का तो वैसे ही सत्यानाश हुआ पड़ा है। बाक़ी पैसे दे कर किताब छपवा लेना , रवींद्र जैन जैसे लोगों से अधकचरे गीत गवा लेना , अपने स्टूडियो में और इन की उन की ठकुरसुहाती से यश तो नहीं मिलता। फिर जो आदमी जितेंद्र पात्रो जैसे माफ़ी वीर की चंपूगिरी और चापलूसी में ही खर्च होने के लिए पैदा हुआ हो , उस पर मैं भी काहे खर्च हुआ जा रहा ! हुंह !

माफ़ी वीर जितेंद्र पात्रो का माफ़ीनामा 



कृपया इस लिंक को भी पढ़ें :


1 . कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर को ले कर जितेंद्र पात्रो के प्रलेक प्रकाशन की झांसा कथा का जायजा 

2 .  प्रलेक के प्रताप का जखीरा और कीड़ों की तरह रेंगते रीढ़हीन लेखकों का कोर्निश बजाना देखिए 

3 . जितेंद्र पात्रो , प्रलेक प्रकाशन और उन का फ्राड पुराण 

4 . योगी जी देखिए कि कैसे आप की पुलिस आप की ज़ोरदार छवि पर बट्टा लगा रही है

5 . तो जितेंद्र पात्रो अब साइबर सेल के मार्फ़त पुलिस ले कर फिर किसी आधी रात मेरे घर तशरीफ़ लाएंगे

6 . लीगल नोटिस और धमकी से लेखक लोगों की घिघ्घी बंध जाती है , पैंट गीली हो जाती है , यह तथ्य जितेंद्र पात्रो ने जान लिया है

7 . जितेंद्र पात्रो , ज्योति कुमारी और लीगल नोटिस की गीदड़ भभकी का काला खेल 

8 . माफ़ी वीर जितेंद्र पात्रो को अब शची मिश्र की चुनौती , अनुबंध रद्द कर सभी किताबें वापस ले लीं 

9 . कुंठा , जहालत और चापलूसी का संयोग बन जाए तो आदमी सुधेंदु ओझा बन जाता है

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