1970 में फ़िराक गोरखपुरी को ज्ञानपीठ मिला तो लोगों ने उन से पूछा कि आप अब इतने सारे पैसे का क्या करेंगे । इस के दो साल पहले इलाहाबाद में ही रहने वाले सुमित्रानंदन पंत को 1968 में ज्ञानपीठ मिल चुका था । ज्ञानपीठ से मिले पैसों से उन्हों ने एक कार ख़रीद ली थी । जिस को फ़िराक साहब मोटर कहते थे । तो लोगों ने पंत जी की कार का हवाला देते हुए फ़िराक से पूछा , इन पैसों का आप क्या करेंगे ? फ़िराक ने शराब की ओर इंगित करते हुए हंस कर कहा कि इस मद में कुछ बकाया कर्जा था , वह चुका दिया है और जो पैसा बच गया उस की भी ख़रीद कर घर में भर दिया है । पैसा बचा ही कहां कि कुछ और सोचें । ऐसे ही एक समय अमृतलाल नागर को लगातार दो लखटकिया पुरस्कार मिले । एक उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का एक लाख का भारत भारती दूसरे , बिहार सरकार का भी एक लाख का पुरस्कार । मैं ने नागर जी से एक दिन बातचीत में कहा कि चलिए , अब कुछ तो आर्थिक कष्ट पर विजय मिली । आप के पास अब पैसा ही पैसा है । नागर जी हंसते हुए बोले , कहां पैसे ही पैसे ? नातिनों की शादी करनी है । जहां भी जाते हैं लोग मुंह बा देते हैं और कहते हैं , आप के पास तो पैसा बहुत है ।
ऐसे ही जब श्रीलाल शुक्ल को भारत भारती मिला तो उन्हें बधाई दी तो वह ख़ुश हुए । इस बीच उन्हीं दिनों , उन को भी दो-तीन पुरस्कार मिले थे । सो वह प्रसन्न बहुत थे । श्रीलाल जी को नागर जी की तरह कोई आर्थिक कष्ट भी नहीं थे । आई ए एस से रिटायर हुए थे । ठीक-ठाक पेंशन भी मिलती थी । तो वह बोले , जितना पैसा इन पुरस्कारों से मिल गया है , अब तक कभी इतना पैसा रायल्टी से नहीं मिला । अलग बात है कि जब श्रीलाल जी को ज्ञानपीठ मिला तब तक वह अचेतन अवस्था में जा चुके थे । न उस पैसे का वह कुछ कर पाए , न वह कुछ जान पाए कि क्या मिला , क्या नहीं मिला । इसी लिए मेरा मानना है कि लेखकों या किसी भी को कोई पुरस्कार या सम्मान उस की रचनात्मक सक्रियता के दौरान ही दे दिया जाना चाहिए । उस के मृत्यु शैया पर जाने की प्रतीक्षा से बचना चाहिए । सोचिए कि रामदरश मिश्र को साहित्य अकादमी 90 साल की उम्र में मिला । बस संयोग ही है कि अभी भी वह पूरी तरह स्वस्थ हैं । बहरहाल अभी जब मुझे भी एक लखटकिया पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई तो फ़ेसबुक पर एक महिला मित्र ने मौज लेते हुए कमेंट लिखा कि इतने सारे पैसे का आप क्या करेंगे ? मैं ने भी उन को मौज में बता दिया कि सोच रहा हूं कि अंबानी का सारा साम्राज्य ख़रीद लूं । बात यहीं नहीं रुकी । एक दूसरे मित्र ने अपने कमेंट में प्रश्न किया कि बाक़ी बचे पैसों का क्या करेंगे ? मैं ने उन्हें बताया कि बाक़ी बचा पैसा आप को सौंप देंगे । इतना ही नहीं इलाहाबाद से हमारी एक बहन आरती मोहन की राखी देर से सही आज मिली तो मैं ने उन्हें सूचना दी । आरती का पलट कर संदेश आया कि , भैया , बहुत सही समय से आप को राखी मिली है , दो लाख रुपए जो मिले हैं , फौरन ले कर आ जाइए । हे-हे ! अब कौन बताए आरती को कि अभी ऐलान हुआ है । खैर यह तो जीवन की आपाधापी है ।
सच यही है कि दो लाख , पांच लाख , ग्यारह लाख के मिलने वाले पुरस्कार से जिंदगी के आर्थिक मोर्चे पर आप कुछ नहीं कर सकते । दो-तीन महीने का रूटीन खर्च भी नहीं चल सकता एक आदमी का । बहुत कर सकते हैं तो बस नैनो कार खरीद सकते हैं । जो अब बनना बंद हो चुकी है । आप कार नहीं खरीद सकते हैं , एक कमरे का घर भी नहीं खरीद सकते हैं इन पैसों से । अब तो अच्छा टी वी या लैपटाप भी लाख-डेढ़ लाख का मिल रहा है । जब कि बुकर , मैग्सेसे या नोबेल पाने वाले लोग अपना जीवन मौज से काट सकते हैं । दूसरों का भी संभाल सकते हैं । तो भारत में इस बूंद भर पैसे का क्या हासिल भला । खैर , मध्यवर्गीय पत्नी की तरह हमारी पत्नी भी इस बूंद भर मिलने वाले पैसे को ले कर बहुत पजेसिव थीं कल तो छोटी बेटी ने एक बात कह कर उन की आंख खोल दी । बताया कि क्या मम्मी , यह दो लाख तो मेरी दो महीने की सेलरी से भी कम है । यह पैसा मिलते-मिलते हो सकता है कि मेरी एक महीने की सेलरी से भी कम हो जाए । पत्नी चुप हो गईं । तो जिस दो , चार , पांच लाख के पुरस्कार पाने के लिए तमाम लेखक क्या-क्या नहीं कर गुज़रते। इस पुरस्कार और पैसे का जीवन में कुछ बहुत अर्थ नहीं है सिवाय आत्म-मुग्धता और आत्म श्लाघा के । हां , लेकिन यह एक तत्व ज़रूर महत्वपूर्ण है कि एक संतोष मिलता है कि जैसे भी हो , दिखावटी ही सही , हमारे लिखे को इस निर्मम समाज में एक स्वीकृति मिली । हालां कि यह संतोष भी क्षणिक ही होता है । पानी का बुलबुला बन कर तब और फूटता है , जब लेखकों के बीच तत्कालीन सरकारों से इन पुरस्कारों को जोड़ कर आपसी थुक्का-फज़ीहत शुरू हो जाती है । यह भूल-भाल कर कि सरकार चाहे जो हो , जिस की भी हो , जनता की चुनी हुई होती है । फिर यह पैसा किसी के बाप का नहीं , हमारे आप के जमा किए टैक्स का पैसा होता है । यानी हमारा ही पैसा । फिर भी लोगों की नज़र में बशीर बद्र का एक शेर मौजू हो जाता है :
वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही खुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निजाम है ।
बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आंच ना तुझपे आयेगी
ये जुबां किसी ने खरीद ली ये कलम किसी का गुलाम है ।
लेकिन यहां मैं अपने लिए , अपने ही तीन शेर याद करना चाहता हूं :
सफलता बांध लेती है बेजमीरी के गमले में बोनसाई बना कर
बड़े-बड़ों को देखा है कुत्तों की तरह पट्टा बांधे सब के सामने
कभी झुकता नहीं बेचा नहीं जमीर किसी सुविधा की तलब में
असफल हूं तो क्या हुआ सीना तान कर खड़ा हूं सब के सामने
जुबां अना जमीर सब सही सलामत है बेचा नहीं कभी कहीं
मेरी ज़िंदगी खुली किताब है हाजिर है सर्वदा सब के सामने
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-08-2019) को "बप्पा इस बार" (चर्चा अंक- 3447) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
श्री गणेश चतुर्थी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक अलग स्वाद इस रचना में.
ReplyDelete
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 4 सितंबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सटीक! सोचनीय स्थिति।
ReplyDelete