Sunday, 6 March 2016

मधुमास की हवा में बहा जा रहा हूं

फ़ोटो : विजय पुष्पम पाठक

ग़ज़ल

पता ही नहीं है अब कहां जा रहा हूं
मधुमास की हवा में बहा जा रहा हूं

रुप की आग जलाती चारो तरफ है
मन की धरती पर जला जा रहा हूं

ये मुहब्बत है कि पर्वत है कि जुर्रत है
किसी परिंदे की तरह उड़ा जा रहा हूं

तुम्हारे प्यार की नदी विकल बहुत है
नदी सहती बहुत है सहा जा रहा हूं

आए तो थे जीतने के लिए जीत ने ठगा
मुकद्दर में हार थी हारा हुआ जा रहा हूं

देवदार की तरह सीना तान कर खड़ा
वर्जनाओं के नाम पर छला जा रहा हूं

यातनाओं का समंदर आकाश बहेलिया
बर्फ़ की तरह मुसलसल गला जा रहा हूं

यह शंकर की सभा है सच ही चलता है
सच के सांचे में निरंतर ढला जा रहा हूं


[ 7 फ़रवरी , 2016 ]

3 comments:

  1. अरे वाह !!सुंदर शब्दों के साथ इस मोर को अमर कर दिया आपने !!

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  2. अरे वाह !!सुंदर शब्दों के साथ इस मोर को अमर कर दिया आपने !!

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (08-03-2016) को "शिव की लीला अपरम्पार" (चर्चा अंक-2275) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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