ब्रजेश्वर मदान
‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ दयानंद पांडेय का नया कहानी संग्रह है।
पिछले अढ़ाई दशकों से वह निरंतर लिख रहे हैं और इससे पहले उनके तीन उपन्यास
और तीन कहानी संग्रह ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्न’, ‘संवाद’ और ‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके बावजूद उनकी कहानियों का पर्याप्त
चर्चा न मिलने का कारण यह हो सकता है कि उनकी कहानियों में वे शिल्पगत
प्रयोग नहीं मिलते, जिनके कारण साहित्य में कहानियां चर्चित और प्रशंसित
होती रही है। यह अलग विषय है कि उन प्रयोगों के चलते कहानी में कहानी कम और
शिल्प ज्यादा रह गया है और उनके पाठक भी ज्यादातर लिखने वाले ही रह गये
हैं।
दयानंद पांडेय ने मृणाल पांडेय के संदर्भ से कहानी के इस वर्तमान परिदृश्य की ओर भूमिका में संकेत भी किया है- ‘खुदै लिख्या था, खुदै ही छपाये, खुदै उस पर बोल्ये थे।’ इसलिए यह कहा जा सकता है कि उन्होंने अत्यंत ही सचेत स्तर पर कहानी को आम पाठकों से दूर करने वाले अति बौद्धिक प्रयोगों से दूर रहते हुए ‘पापुलर स्पेस’ के लिए क़िस्सागोई को अपनाया। यहां यह बताना आप्रासंगिक नहीं होगा कि क़िस्सागोई को पिछली शताब्दी में नयी कहानी आंदोलन में खारिज कर दिया गया था और उसके बाद चले व्यापक आंदोलन में वह साहित्यिक हल्कों में ही पढ़ने-लिखने की चीज हो गयी है। यही नहीं कहानियों से कहानी के साथ-साथ चरित्र ही गायब हो गये हैं जिनके लिए हम पिछली सदी में अमृतलाल नागर के कथा-उपन्यासों को याद करते हैं।
दयानंद पांडेय की इन कहानियों का एक महत्वपूर्ण पक्ष उनके चरित्र प्रधान होने में है। कहानी के वर्तमान परिदृश्य में जो कहानियां आ रही हैं, उनमें हमें ऐसे चरित्र नहीं मिलते जो इस संग्रह की ‘चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी’ और रामावतार बाबू में है। इन कहानियों का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि समाज और साहित्य से इन चरित्रों के गायब होने के व्यवस्थागत कारणों में जाकर वे पाठक को आज के उस यथार्थ से रू-ब-रू करते हैं, जहां जीवन की कद्र कीमतों में बदल गयी है।
चनाजोर गाम वाले चतुर्वेदी जी एक ईमानदार आई.ए.एस. ऑफीसर है और इस ईमानदारी के कारण ही वह लगातार भ्रष्ट होती जाती व्यवस्था में न केवल समाज बल्कि अपने परिवार के लिये अप्रासंगिक हो जाते हैं। कहानी पढ़ते हुए लगता है कि कहानीकार आजादी के बाद के उस समय को याद कर रहा है, जब आदमी कुछ अच्छे मूल्यों के साथ जी सकता है। लेकिन यहां तो चतुर्वेदी जी अपने घर में ही अल्पसंख्यक हो जाते हैं।
इस कहानी को पढ़ते हुए हम आज की राजनीति के बदलते हुए जातीय समीकरणों को भी देखते हैं जहां कहानीकार समाज में रूढ़िवाद के खिलाफ एक स्पष्ट दृष्टि के साथ सामने आता है। ‘राम अवतार बाबू’ इस संग्रह की एक अद्भुत कहानी है। इस कहानी में हम देखते हैं कि किस तरह जानवरों के प्रति अतिसंवेदनशील व्यक्ति अंत में जानवरों के साथ ही रह जाता है। इस कहानी को हम आज की दुनिया के रूपक के तौर पर देख सकते हैं जहां मनुष्य की पीड़ा में उसके साथ मनुष्य नहीं होते। यहां तक की जानवरों के प्रति अंतिसंवेदनशील व्यक्ति स्वयं भी अपनी पत्नी के प्रति कितना संवेदनहीन हो जाता है कि उसकी मृत्यु में भी उसके साथ नहीं रहता।
‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ और ‘भूचाल’ हमें समाज में अवैध यौन समस्याओं से होने वाली मनुष्य की परिणति का त्रासद पक्ष दिखाती है। जीनियस अपनी मृत्यु के पीछे एक विवाद छोड़ जाता है और ‘भूचाल’ की नायिका को हम एक सिजोफ्रेनिक चरित्रा के तौर पर देखते हैं।
दयानंद पांडेय की इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी पठनीयता है। संग्रह की कहानियां पाठक को अंतिम शब्द तक अपने साथ लेकर चलती हैं। कहानी और पाठक के बीच की खाई को पांडेय जी किस्सागोई के तत्वों के प्रबल इस्तेमाल के साथ पाटते हैं। लेखक की सबसे बड़ी चिंता समाज में व्यक्ति के असंवेदनशील होते जाने का है।
‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’, ‘मेड़ की दूब’, ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’, ‘मुजरिम चांद’ भी संग्रह की रोचक कहानियां हैं। शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि उनकी कहानियों में रोचकता के आधारभूत तत्व किस्सागोई भी हैं। उसे कहानी के वर्तमान परिदृश्य में किसी लेखक की पाठक की तरफ वापसी की कोशिश भी कहा जा सकता है। इन कहानियों के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि लेखक की समाज पर हर टिप्पणी में जजमेंट नहीं वकालत है। वे हमें समाज में व्यवस्थागत कारणों से अप्रासंगिक होते पात्रों की एक वकील की तरह पैरवी करते नजर आते हैं। यह बात उन्होंने पुस्तक में अपने आत्म कथ्य में भी कही है।
[ राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित ]
समीक्ष्य पुस्तक :
एक जीनियस की विवादास्पद मौत
पृष्ठ-200
मूल्य-200 रुप॔ए
प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2004
दयानंद पांडेय ने मृणाल पांडेय के संदर्भ से कहानी के इस वर्तमान परिदृश्य की ओर भूमिका में संकेत भी किया है- ‘खुदै लिख्या था, खुदै ही छपाये, खुदै उस पर बोल्ये थे।’ इसलिए यह कहा जा सकता है कि उन्होंने अत्यंत ही सचेत स्तर पर कहानी को आम पाठकों से दूर करने वाले अति बौद्धिक प्रयोगों से दूर रहते हुए ‘पापुलर स्पेस’ के लिए क़िस्सागोई को अपनाया। यहां यह बताना आप्रासंगिक नहीं होगा कि क़िस्सागोई को पिछली शताब्दी में नयी कहानी आंदोलन में खारिज कर दिया गया था और उसके बाद चले व्यापक आंदोलन में वह साहित्यिक हल्कों में ही पढ़ने-लिखने की चीज हो गयी है। यही नहीं कहानियों से कहानी के साथ-साथ चरित्र ही गायब हो गये हैं जिनके लिए हम पिछली सदी में अमृतलाल नागर के कथा-उपन्यासों को याद करते हैं।
दयानंद पांडेय की इन कहानियों का एक महत्वपूर्ण पक्ष उनके चरित्र प्रधान होने में है। कहानी के वर्तमान परिदृश्य में जो कहानियां आ रही हैं, उनमें हमें ऐसे चरित्र नहीं मिलते जो इस संग्रह की ‘चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी’ और रामावतार बाबू में है। इन कहानियों का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि समाज और साहित्य से इन चरित्रों के गायब होने के व्यवस्थागत कारणों में जाकर वे पाठक को आज के उस यथार्थ से रू-ब-रू करते हैं, जहां जीवन की कद्र कीमतों में बदल गयी है।
चनाजोर गाम वाले चतुर्वेदी जी एक ईमानदार आई.ए.एस. ऑफीसर है और इस ईमानदारी के कारण ही वह लगातार भ्रष्ट होती जाती व्यवस्था में न केवल समाज बल्कि अपने परिवार के लिये अप्रासंगिक हो जाते हैं। कहानी पढ़ते हुए लगता है कि कहानीकार आजादी के बाद के उस समय को याद कर रहा है, जब आदमी कुछ अच्छे मूल्यों के साथ जी सकता है। लेकिन यहां तो चतुर्वेदी जी अपने घर में ही अल्पसंख्यक हो जाते हैं।
इस कहानी को पढ़ते हुए हम आज की राजनीति के बदलते हुए जातीय समीकरणों को भी देखते हैं जहां कहानीकार समाज में रूढ़िवाद के खिलाफ एक स्पष्ट दृष्टि के साथ सामने आता है। ‘राम अवतार बाबू’ इस संग्रह की एक अद्भुत कहानी है। इस कहानी में हम देखते हैं कि किस तरह जानवरों के प्रति अतिसंवेदनशील व्यक्ति अंत में जानवरों के साथ ही रह जाता है। इस कहानी को हम आज की दुनिया के रूपक के तौर पर देख सकते हैं जहां मनुष्य की पीड़ा में उसके साथ मनुष्य नहीं होते। यहां तक की जानवरों के प्रति अंतिसंवेदनशील व्यक्ति स्वयं भी अपनी पत्नी के प्रति कितना संवेदनहीन हो जाता है कि उसकी मृत्यु में भी उसके साथ नहीं रहता।
‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ और ‘भूचाल’ हमें समाज में अवैध यौन समस्याओं से होने वाली मनुष्य की परिणति का त्रासद पक्ष दिखाती है। जीनियस अपनी मृत्यु के पीछे एक विवाद छोड़ जाता है और ‘भूचाल’ की नायिका को हम एक सिजोफ्रेनिक चरित्रा के तौर पर देखते हैं।
दयानंद पांडेय की इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी पठनीयता है। संग्रह की कहानियां पाठक को अंतिम शब्द तक अपने साथ लेकर चलती हैं। कहानी और पाठक के बीच की खाई को पांडेय जी किस्सागोई के तत्वों के प्रबल इस्तेमाल के साथ पाटते हैं। लेखक की सबसे बड़ी चिंता समाज में व्यक्ति के असंवेदनशील होते जाने का है।
‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’, ‘मेड़ की दूब’, ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’, ‘मुजरिम चांद’ भी संग्रह की रोचक कहानियां हैं। शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि उनकी कहानियों में रोचकता के आधारभूत तत्व किस्सागोई भी हैं। उसे कहानी के वर्तमान परिदृश्य में किसी लेखक की पाठक की तरफ वापसी की कोशिश भी कहा जा सकता है। इन कहानियों के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि लेखक की समाज पर हर टिप्पणी में जजमेंट नहीं वकालत है। वे हमें समाज में व्यवस्थागत कारणों से अप्रासंगिक होते पात्रों की एक वकील की तरह पैरवी करते नजर आते हैं। यह बात उन्होंने पुस्तक में अपने आत्म कथ्य में भी कही है।
[ राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित ]
समीक्ष्य पुस्तक :
एक जीनियस की विवादास्पद मौत
पृष्ठ-200
मूल्य-200 रुप॔ए
प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2004
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