Monday, 8 June 2015

सामाजिक सरोकार के बावजूद

 धनंजय कुमार 
आज के उपभोक्तावादी समय में निःसंदेह बाहरी चमक-दमक और अर्थ (कीमत) को अधिक महत्व देने तथा अपने खाल में ही सिमटते जाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ऐसे में पत्राकारिता के दायित्व का यथासंभव ईमानदारीपूर्ण निर्वाह और उसके साथ ही आम जन के प्रति प्रतिबद्धता वाले लेखन की कोशिश निश्चय ही प्रशंसनीय कही जाएगी। परंतु इसके लिए जरूरी है कि भूमिका में दिए गये वक्तत्वयों का रचना में भी निर्वाह हो। पेशे से पत्रकार दयानंद पांडेय के नवीनतम कहानी संग्रह ‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’ को इस दृष्टि से पढ़ना काफी रोचक है। संग्रह में कुल नौ कहानियां है। पहली कहानी जो कि संग्रह के नामकरण का आधार है, दो युवाओं विपरीत लिंगी आकर्षण और उनकी कुंठाओं का दस्तावेज है। स्त्रियों के प्रति पुरुषवादी मानसिकता को यह कहानी भलीभांति दर्शाने का प्रयास करती है। लेकिन मानसिक अवसाद को कन्विंसिंग तरीके से कहने के प्रयास में कहानी अपनी दिशा खो देती है।

संग्रह की दूसरी कहानी ‘मन्ना जल्दी आना’ निश्चित तौर पर संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी है, जिसमें अब्दुल मन्नान को अचानक पाकिस्तानी घोषित कर देश निकाले का हुक्म थमा दिया जाता है। अपनी जमी-जमायी गृहस्थी और रोजगार से बेदखल होने तथा अपनों से बिछुड़ने का दर्द और संघर्ष इस कहानी को मजबूत जमीन देते हैं। ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्न’ में आज के बेरहम होते समाज में रिश्ते के ऊपर भारी पड़ते जायदाद के मोह का बयान है। ‘प्लाजा’ कहानी दफ्तरी जिंदगी की खट-पट, प्रबंधन के तानाशाही रवैये और यूनियन के लोगों की स्वार्थ केंद्रित तोलमोल की भावना को स्पष्ट करती है, हालांकि यह कहानी अपने कमजोर शिल्प के कारण बिखर-सी गयी है।

सामंतवाद को खत्म कर देने की उद्घोषणाएं भले ही कागजों पर बार-बार हो चुकी हैं, लेकिन असलियत तो यही है कि आजादी के लगभग छह दशकों में भी इसका मानसिक प्रभाव खत्म नहीं हो पाया। यहां औरत आज भी बच्चा पैदा करने की मशीन मात्रा है। एक मशीन सफल न हो तो दूसरी ले आओ। दिखावे की जिंदगी जहां कमाई भले न हो खर्च तो होंगे ही, बाहरी दिखावों के चोंचले रहेंगे ही- यही सब कुछ आधार है कहानी ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ का। यहां प्रदर्शन है, झूठ है, दगा है, अवैध संबंध हैं, खस्ताहाली के बावजूद हाथ से काम न करने का ‘बड़कापन’ है, यानी वह सब कुछ है जो आज भी हमारे गांवों में पतनशील सामंती अवशेषों के खंडहरों के सबूत हैं।

राजनीति आज के समाज का ऐसा विषय है, जिसकी चर्चा के बिना अभिव्यक्ति का पूरा होना असंभव है सो इस संग्रह में काफी राजनीति भी है। ‘मन्ना जल्दी आना’, ‘भूचाल’, ‘प्लाजा’, ‘मुजरिम चांद ओर देह-दंश आदि कहानियों में अलग-अलग शेड्स में राजनीति देखने लायक है। यहां राजनीति हो वहां भ्रष्टचार, भाई-भतीजावाद, अपराध और अवैध संबंध की बात न हो तो संदर्भ पूरा नहीं होता। राजनीति के इसी बियावान और काजल की कोठरी को चित्रित करने का प्रयास करती है संग्रह की अंतिम कहानी ‘देह-दंश’। इस कहानी में राजनीति और देह के अंतर्गुफित साहचर्य को लेखक ने सामने रखा है।

हालांकि अत्यधिक प्रतीकात्मकता और दर्शन बघारने के चक्कर में यह कहानी भी पटरी से उतरती जान पड़ती है। राजनीतिज्ञों और अफसरशाही के आपसी संबंधों और अफसरों को चमचागिरी तथा उनकी कार्यशैली को ‘मुजरिम चांद’ कहानी ने सजीव कर दिया है।

इसमें भूलवश नेचुरल कॉल के लिए राज्यपाल के टॉयलेट में प्रवेश करने का खमियाजा एक वरिष्ठ पत्रकार को दिन भर की पुलिस हिरासत और अपमानजनक पुलिसिया व्यवहार के रूप में भुगतना पड़ता है। ‘फोन पर फ्लर्ट’ कहानी आज के शहरी जीवन की नैतिकता को प्रश्नों के घेरे में ला खड़ा करती है। वहीं ‘भूचाल’ संग्रह की सबसे कमजोर कहानी है जिसका अभिप्राय ही स्पष्ट नहीं हो पाता। संग्रह की कहानियों के विषय निश्चित तौर पर ‘सामाजिक सरोकारों से युक्त कहे जा सकते हैं, लेकिन अधिकांश कहानियों से खुलेपन के चक्कर में ऐसे शब्द तथा वाक्य धड़ल्ले से प्रयुक्त हुए हैं जो अश्लीलता की हद तक पहुंच जाते हैं। वैसे भी आज के दौर में ‘अकहानी’ के दौर की कहानियों के ट्रेंड पर कहानी लिखने को सही नहीं ठहराया जा सकता हैं। जाहिर है, सिर्फ सार्थक विषय चयन ही पर्याप्त नहीं होता, उसका शिल्प और विधागत निर्वाह भी उतना ही जरूरी है।

[ राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित ] 

समीक्ष्य पुस्तक :
सुंदर लड़कियों वाला शहर
पृष्ठ-192
मूल्य-200 रुप॔ए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2003

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