दयानंद पांडेय
दोस्तों , 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी का मर्सिया गाना छोड़ 16 दिसंबर के भारतीय सेना के शौर्य को प्रणाम कीजिए। मुझे उन लोगों की बुद्धि और समझ पर तरस आता है जो 1971 में आज के दिन पाकिस्तान पर विजय को गर्व , खुशी और उपलब्धि को नगण्य मानते हुए इंदिरा गांधी को जब-तब पानी पी-पी कर कोसते रहते हैं। क्या तो 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को मुफ्त में पाकिस्तान को वापस दे दिया। पी ओ के भी नहीं लिया। आदि-इत्यादि। इन मतिमंद लोगों के ऐसे कुतर्क पर हंसी आती है। कांग्रेस विरोध की बुरी लत से ऐसे कुतर्क उपजते हैं। एक कारगिल विजय , एक उरी सर्जिकल स्ट्राइक , एक बालाकोट पर एयर स्ट्राइक को आप हरदम सीने पर टांक कर घूमने में अगर वीरता और गौरव का सबब मानते हैं तो एक इतने बड़े भू-भाग पूर्वी पाकिस्तान पर जीत को आप कम कर क्यों आंकना चाहते हैं ? यह भी गर्व और गौरव का सबब है। यह कभी मत भूलिए।
लेकिन सिर्फ एक कांग्रेस और इंदिरा के विरोध खातिर आप पचासियों कुतर्क गढ़ लेते हैं कि 90 हज़ार सैनिकों को मुफ्त में क्यों छोड़ दिया ? पी ओ के क्यों नहीं ले लिया ? आदि-इत्यादि। पाकिस्तान का गुरुर तोड़ कर रातोरात बांग्लादेश बना देना इन कुतर्कियों को नहीं दीखता। दुनिया का भूगोल बदल जाना नहीं दीखता। यह भी नहीं याद आता कि 1965 में पाकिस्तान का बड़ा भूभाग जीत कर भी ताशकंद समझौते में लाल बहादुर शास्त्री को पाकिस्तान को लौटा देना पड़ा था। इसी आघात में उन का जीवन चला गया। इस लिए भी कि लाल बहादुर शास्त्री नेता बहुत बड़े थे , ईमानदार भी बहुत थे , बहादुर भी बहुत। पर विदेश नीति और कूटनीति में दरिद्र थे। पैदल थे। सो दबाव में आ कर वह ताशकंद समझौता कर बैठे। पाकिस्तान से जीती हुई सारी भूमि लौटा बैठे। बाद में उन्हें लगा कि ओह , यह क्या कर बैठा मैं। भारत लौट कर देशवासियों और अपने वीर सैनिकों को क्या मुंह दिखाऊंगा मैं। उन्हें इसी दबाव और कशमकश में दिल का दौरा पड़ा और वह हम से बिछड़ गए।
शास्त्री जी यह समझने में विफल रहे कि ऐसे समझौते तुरत-फुरत नहीं होते। ऐसे समझौते का ड्राफ्ट आनन-फानन नहीं तैयार होता। पूरी तैयारी और तर्क के साथ ऐसे ड्राफ्ट देश से ही बन कर आते हैं। सिर्फ दस्तखत और औपचारिक लेन-देन ही होते हैं और कि संबंधित अफसर ही दस्तखत करते हैं , प्रधान मंत्री नहीं। शास्त्री जी अपनी सादगी में इन तथ्यों को भुला कर सोवियत संघ के राष्ट्रपति के दबाव में आ कर दस्तखत कर बैठे। परिणाम सामने है। लाल बहादुर शास्त्री में कूटनीति और इस के लिए अनिवार्य तत्व काइयांपन का नितांत अभाव था। पर इंदिरा गांधी में यह कूटनीति और काइयांपन पर्याप्त था। जैसे कि वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी में यह विदेश नीति की समझ , कूटनीति और काइयांपन इंदिरा गांधी की तुलना में कहीं बहुत ज़्यादा है। इसी लिए वह सफल भी बहुत हैं। क्यों कि इंदिरा गांधी के पिता जवाहरलाल नेहरू में लालबहादुर शास्त्री की तरह सादगी तो नहीं थी जब कि विदेश नीति और कूटनीति की समझ तो थी पर इस के साथ अनिवार्य रहने वाला पर्याप्त काइयांपन का तत्व नहीं था। सो चीनी दांव में चित्त हो गए और हिंदी-चीनी , भाई-भाई के झोंके में चीन से पराजित हो कर देश को एक बड़ा घाव दे गए। सब जानते हैं कि कश्मीर का घाव भी पंडित नेहरू ने ही दिया हुआ है।
बहरहाल इंदिरा गांधी ने शिमला समझौते में 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को छोड़ देने की कुछ वही लोग आलोचना करते हैं जो तब की स्थिति और कूटनीति नहीं जानते। विदेश नीति नहीं जानते। अंतराराष्ट्रीय राजनीति का दबाव नहीं जानते। अरे इंदिरा गांधी अगर तब नहीं छोड़तीं तो बाद में अंतरराष्ट्रीय दबाव में छोड़ना पड़ता। तिस पर उस समय देश में खाद्यान्न का भारी संकट अलग से था। अमरीका से गेहूं मंगाया जाता था खाने के लिए। तो उन सैनिकों को खिलाना-पिलाना भी एक भारी संकट था। बांग्लादेशी शरणार्थियों का दबाव अलग था। वह बांग्लादेश जिसे भारत ने पाकिस्तान से न सिर्फ अलग किया था बल्कि रातोरात उसे मान्यता दे कर सोवियत संघ से मान्यता दिलवा कर विश्व राजनीति में भारत की धमक और चमक उपस्थित की थी। तब जब कि उस समय अमरीका खुल्ल्मखुल्ला पाकिस्तान के साथ खड़ा था , जैसे कि आज चीन खड़ा है।
बल्कि अमरीका ने तो पाकिस्तान से युद्ध में अपना सातवां बेड़ा भी पाकिस्तान के लिए रवाना किया था। भारत के खिलाफ लड़ने के लिए। इस सातवें बड़े में अमरीकी लड़ाकू विमान थे। वह तो इंदिरा गांधी की कूटनीति थी कि अमरीका के इस सातवें बड़े के पीछे-पीछे सोवियत संघ ने अपना बेड़ा भी लगा दिया था ,भारत के पक्ष में। इस तरह विश्व युद्ध की संभावना को देखते हुए अमरीका को विवश हो कर बीच रास्ते से अपना सातवां बेडा वापस लौटा लेना पड़ा था। इस लिए विवश हो कर 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को जनरल नियाजी के नेतृत्व में आत्म-समर्पण करना पड़ा। क्यों कि भारतीय वायु सेना ने बम मार-मार कर पाकिस्तानी सेना की नाक में दम कर रखा था। और पूर्वी पाकिस्तान में कोई लड़ाकू जहाज शेष नहीं था। पश्चिमी पाकिस्तान से पाकिस्तानी वायु सेना को भारत के आकाश से गुज़रना पड़ता और भारत उन्हें मार गिराता। इसी लिए पाकिस्तान की मदद खातिर समुद्री रास्ते से अमरीका ने सातवां बेडा भेजा था , लड़ाकू जहाज भर कर। जिसे अमरीका को बीच रास्ते से वापस लेना पड़ा था।
फिर शत्रु देश के 90 हज़ार सैनिकों को , वह भी पाकिस्तान के सैनिकों को संभाल कर रखना एक बड़ी चुनौती थी। 90 हज़ार भैंस संभालना मुश्किल होता है , वह तो फिर भी सैनिक थे। कहीं वह सैनिक एक साथ विद्रोह कर देश में ही फ़ैल कर तोड़-फोड़ शुरू कर देते तब ? दो-चार सौ सैनिक तो थे नहीं। तो उन सैनिकों का खाने-पीने और रहने का खर्च , उन की सुरक्षा का खर्च संभालना टेढ़ी खीर थी। फिर वह एकतरफा समझौता था , कहना गलत है । बहुत से भारतीय सैनिकों को जो पाकिस्तान में बंदी थे , बहुत समय से बंदी थे , पाकिस्तान ने भी तब छोड़ा था। यह ठीक है कि अभिनंदन की तरह नहीं छोड़ा था , पर छोड़ा तो था। तो नब्बे हज़ार सैनिकों के सरेंडर के शौर्य को भूल कर जो लोग उन की वापसी का मर्सिया पढ़ने लगते हैं , यह लोग न युद्ध नीति जानते हैं , न विदेश नीति , न कूटनीति। सो दोस्तों , 90 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी का मर्सिया गाना छोड़ 16 दिसंबर के भारतीय सेना के शौर्य को प्रणाम कीजिए। और जानिए कि पाकिस्तान को यह बहुत बड़ा घाव है , जो कभी सूखने वाला नहीं है। पाकिस्तान आजीवन इस घाव को न सिर्फ सहलाता रहेगा बल्कि ऐसा ही कोई और घाव फिर न मिल जाए इस की आहट से भी निरंतर डरता रहेगा।
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