मौजूदा दशक में मीडिया के भीतर, और बाहर भी चर्चित रहे दयानंद पांडेय के उपन्यास 'अपने-अपने युद्ध' को जितनी बार पढ़ा जाए, अखबारी दुनिया की उतनी फूहड़ परतें उधड़ती चली जाती हैं। मीडिया का जितनी तेजी से बाजारीकरण हो रहा है, उसके भीतर का नर्क भी उतना ही भयावह होता जा रहा है। ऐसे में 'अपने-अपने युद्ध' को बार-बार पढ़ना नितांत ताजा-ताजा सा-लगता है। यह महज कोई औपन्यासिक कृति भर नहीं, मीडिया और संस्कृति-जगत के दूसरे घटकों थिएटर, राजनीति, सिनेमा, सामाजिक न्याय और न्यायपालिका की अंदरूनी दुनिया में धंस कर लिखा गया तीखा, बेलौस मुक्त वृत्तांत है। इसमें बहुत कुछ नंगा है- असहनीय और तीखा। लेखक के अपने बयान में—‘जैसे किसी मीठी और नरम ईख की पोर अनायास खुलती है, अपने-अपने युद्ध के पात्र भी ऐसे ही खुलते जाते हैं।’
'अपने-अपने युद्ध' दरअसल एक कंट्रास्ट भरा कोलाज है, जिसके फलक पर कई-कई चरित्र अपनी-अपनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं मीडिया, खास कर प्रिंट मीडिया के लोग। अपना-अपना महाभारत रचते हुए जिस्म और आत्मा की सरहद पर। संजय इसका मुख्य पात्र है—अर्जुन की भूमिका करते-करते अभिमन्यु और फिर एक नए अभिमन्यु की भूमिका में बंधा नहीं, बिंधा हुआ। शराब और कैरियर के तर्क इसके भी हथियार हैं—अपनों से और अपने से लड़ने के लिए। 'अपने-अपने युद्ध' में प्रेम भी है और प्यार करती स्त्रियां भी, कहीं मन जीती हुई, कहीं देह जीती हुई, अपना अस्तित्व खोजती-हेरती हुई, अकेलापन बांटती, जोड़ती, तोड़ती। अपने-अपने दुख हैं। अपने-अपने संत्रास। यह एक जटिल नग्न आत्मयुद्ध है—मीडिया, राजनीति, थिएटर, सिनेमा, सामाजिक न्याय और न्यायपालिका की दुनिया के चरित्रों का एक अंतहीन आपसी युद्ध, जिसमें पक्ष-प्रतिपक्ष बदलते रहते हैं। इसी अर्थ में यह उपन्यास एक अंतहीन सवाल है—जिनका जवाब फिलहाल उपलब्ध नहीं!
2001 में जब यह उपन्यास छपकर आया था तो उस पर आरोपों की बौछार सी हो गई थी। अश्लीलता से लेकर अवमानना तक की बात हुई थी। यह उपन्यास प्रिंट मीडिया के नरक को लेकर लिखा गया था और प्रिंट मीडिया में ही इसको लेकर ब्लैक-आउट जैसी स्थितियां थीं। भाई लोगों ने कहा कि कुत्ता कुत्ते का मांस नहीं खाता। अजब था यह तर्क भी। अखबार मालिकों की नजर में पतिव्रता सती सावित्री रहने का जैसा दौर आज है, तब भी था। चुभन और तड़प के बावजूद गहरी खामोशी थी। चूंकि उपन्यास प्रिंट मीडिया को लेकर था, सो और भी सरोकार थे इसके। न्यायपालिका से भी गहरे अर्थों में सरोकार था इस उपन्यास का। प्रिंट मीडिया में भले ब्लैक-आउट जैसी स्थिति थी पर न्यायपालिका को यह उपन्यास चुभ गया। कंटेंम्ट ऑफ कोर्ट हो गया इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में तो जैसे लोग नींद से जागे। पर खामोशी की चादर ओढ़े हुए ही।
साहित्य से जुड़ी पत्रिकाओं ने सांस ली। तमाम पत्रिकाओं में चर्चा, समीक्षा की जैसे बाढ़ आ गई। हंस में राजेंद्र यादव ने समीक्षा तो छापी ही, चार पन्ने की संपादकीय भी लिखी, केशव कही ना जाये क्या कहिए, शीर्षक से और सुविधाभोगियों, व्यवस्थाजीवियों को दौड़ा लिया। जनसत्ता में राजकिशोर ने अपने कालम में लंबी चर्चा की और लिखा कि अगर पत्रकारिता का भी कोई अपना हाईकोर्ट होता तो हमारा विश्वास है कि उपन्यासकार वहां भी प्रतिवादी के रूप में खड़ा होता। रवींद्र कालिया ने मान दिया और बताया कि कमलेश्वर पर भी एक बार अवमानना का मामला चल चुका है। कमलेश्वर ने इससे छुट्टी पाने का तरीका भी बताया और हौसला भी बढ़ाया। खैर, हालत यह है कि प्रिंट मीडिया में यातनाओं का घनत्व और बढ़ा है। चैनलों का घटाटोप सबको लील लेना चाहता है, प्रिंट मीडिया को भी, पर कोई कहीं सांस लेता नहीं दिखता इसके प्रतिकार में। अखबार अब विज्ञापन के साथ ही खबरें छापने का रेट कार्ड खुल्लमखुल्ला छापने लगे हैं। संपादकीय के नाम पर, खबर देना प्राथमिकता में नहीं है, अब व्यवसाय देना प्राथमिकता है। ब्यूरो अब नीलाम हो रहे हैं। मेधावी लोग वहां काम करने को अभिशप्त हैं। कोई कुछ बोलना तो दूर, सुविधाओं की चासनी में लटपटा कर इस बढ़ते कोढ़ की तरफ देखना भी नहीं चाहता। क्यों?
इसीलिए यहां 'अपने-अपने युद्ध' की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।
अपने अपने युद्ध पृष्ठ सं.264 मूल्य-250 रुपए प्रकाशक जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि. 30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर दिल्ली- 110032 प्रकाशन वर्ष-2001 |
आदरणीय श्री दिवाकर त्रिपाठी जी के लिए
वह तब भी फ्रीलांसर था जब देवेंद्र से बारह बरस पहले मिला था। और आज जब फिर देवेंद्र से मिल रहा था तो फ्रीलांसिंग भुगत रहा था। फर्क बस यही था कि तब वह दिल्ली में मिला था और अब की लखनऊ में मिल रहा था।
और देवेद्र ?
देवेंद्र तो तब भी फ्रीलांसर थे, अब भी फ्रीलांसर। और शायद आगे भी फ्रीलांसर रहेंगे ही नहीं फ्रीलांसिंग ही करेंगे। शायद आजीवन। रंगकर्म और पत्रकारिता का यह फर्क है। तो जब वह नाटक के मध्यांतर में लगभग सकुचाते हुए मिला देवेंद्र से कि, ‘‘मैं संजय!’’ तो वह हलके से मुसकुराए। संजय को लगा कि शायद देवेंद्र ने पहचाना नहीं। तो कह भी दिया, ‘‘शायद आप ने पहचाना नहीं।’’ तो देवेंद्र हाथ मिलाते हुए बोले, ‘‘अरे, दिल्ली में हम मिले थे।’’
सुन कर संजय खुश हुआ। बोला, ‘‘हम ने सोचा, क्या पता आप भूल गए हों।’’ तो देवेंद्र अपनी गंभीरता की खोल से जरा और बाहर निकले, ‘‘आप ने मेरे बारे में लिखा था। गोल मार्केट में रहते थे आप। कैसे भूल जाऊंगा।’’ अब गंभीर होने की संजय की बारी थी, ‘‘बड़ी अच्छी याददाश्त है आप की। नहीं, लिखता तो मैं जाने कितनों के बारे में हूं पर लोग इतने बरस बाद छोड़िए, छपने के दूसरे दिन से याद करना तो दूर पहचानना ही भूल जाते हैं। कन्नी काट कर बगल से कौन कहे सामने से ही बड़ी बेशर्मी से निकल जाते हैं।’’
देवेंद्र हलका-सा मुसकुराए। तब तक उन्हें और भी कई लोग घेर चुके थे। कि इसी बीच नाटक की घंटी बजी। और एक अभिनेता आ कर देवेंद्र से पूछने लगा, ‘‘शुरू करें?’’ देवेंद्र बिलकुल निर्देशकीय अंदाज और आवाज में सिर हिलाकर बोले, ‘‘हूं।’’ फिर संजय ने उन से पूछा, ‘‘ठहरे कहां हैं। कल कैसे भेंट होगी ?’’ देवेंद्र बोले, ‘‘ठहरा तो अप्सरा होटल में हूं। पर कल दिन दस से बारह यहीं रिहर्सल करेंगे। यहीं मिलते हैं।’’ संजय चाहता था कि कह दे ‘‘ठीक है।’’ पर कुछ कहा नहीं। कहते-कहते रह गया। अचानक उसे याद आया कि ग्यारह बजे उस ने अपनी महिला मित्र चेतना को टाइम दे रखा है। बोला, ‘‘तो ठीक है कल शाम को ही मिलते हैं।’’ सिर्फ कहानियां निर्देशित करने वाले देवेंद्र का सहज न रहना, खोल से बाहर न आना संजय को खल गया। शायद इस लिए कि सचमुच ही दूसरी प्रस्तुति ढीली थी, उस के लिए ठीक-ठीक तय कर पाना मुश्किल था। पर यह तो तय था कि इस के पहले वाली कहानी की प्रस्तुति काफी सशक्त थी। हालां कि दोनों कहानियां भुवनेश्वर की ही थीं। फिर भी पहली कहानी का कथ्य और प्रस्तुति दोनों ही कसे हुए थे। अभिनय की आंच भी पुरजोर थी। हालां कि कहानी के नायक का किरदार निभाने वाला लगातार तो नहीं पर लगभग हर तीसरे संवाद में मनोहर सिंह ‘‘बन’’ जाता था। आंगिक में कम पर वाचन में तो समूचा ही। मनोहर सिंह उस पर पूरी तरह हावी थे। हालां कि पूरे नाटक में उस के प्रिय कवि-लेखक की बेटी हेमा जो नायिका की भूमिका निभा रही थी, सब पर भारी थी। कहानी थी ही स्त्री-पुरुष संबंधों की सुलगन, थकन और जेहन के जद्दोजहद की। पर हेमा का अभिनय जिस तरह देह के द्वंद्व और मन के अंतर्द्वंद्व को परोस रहा था वह अप्रतिम था, अद्वितीय था।
यह कहानी जब ख़त्म हुई तो मध्यांतर में संजय भागा-भागा मंच के पीछे चला गया देवेंद्र की तलाश में। पर देवेंद्र के बजाय वह ‘‘मनोहर सिंह’’ मिल गया। तो संजय आदत के मुताबिक उस से लगभग पूछते हुए बोला, ‘‘अगर आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूं?’’
‘‘बिलकुल !’’ वह बोला।
‘‘आप सचमुच बुरा मत मानिएगा,’’ दुहराते हुए संजय बोला, ‘‘आप को नहीं लगता कि मनोहर सिंह आप में बुरी तरह तरह गूंजते हैं ?’’
‘‘हो सकता है।’’
‘‘हो सकता है नहीं, है। और मैं समझता हूं कम से कम सत्तर प्रतिशत।’’
‘‘हां, पहले भी कुछ लोगों ने ऐसा कहा है। पर मैं इसे गुड सेंस में मानता हूं। अगर ऐसा है।’’ उस ने कंधे उचकाए ‘‘क्रेडिट है !’’
‘‘आप का शुभ नाम जानूं ?’’
‘‘हां, वागीश।’’
‘‘ओह तो आप हेमा के पति हैं।’’ झिझकते हुए संजय बोला, ‘‘और जाहिर है एनएसडियन भी होंगे ?’’
‘‘हां।’’
‘‘तो रेपेट्री में भी रहे होंगे ?’’
‘‘हां।’’
‘‘तभी मनोहर सिंह आप में गूंजते हैं।’’
‘‘हां, वह मेरे मॉडल हैं। उन के साथ रेपेट्री में सात-आठ साल काम किया है।’’
‘‘कब थे रेपेट्री में आप ?’’
‘‘अस्सी इक्यासी से।’’
‘‘तब तो मैं भी दिल्ली में था,’’ संजय चहकते हुए बोला, ‘‘और तभी मनोहर सिंह को गिरीश कर्नाड के ‘‘तुगलक’’ में अल्काजी के निर्देशन में देखा था। इस के पहले उन के बारे में सुनता ही था। हां, ‘किस्सा कुर्सी का’ फिल्म में भी देखा था। पर मिला ‘‘तुगलक’’ में ही था। सुरेका सीकरी भी थीं।’’
‘‘रेपेट्री का कोई और प्रोडक्शन नहीं देखा आप ने ?’’
‘‘नहीं, देखा तो था।’’ संजय बोला, ‘‘घासीराम कोतवाल देखा।’’
‘‘पर घासीराम कोतवाल तो रेपेट्री ने तब किया ही नहीं।’’
‘‘नहीं भाई, मेघदूत में देखा था। मुझे अच्छी तरह याद है। डॉ॰ लक्ष्मीनारायण लाल के साथ देखा था।’’
‘‘ऊ-हूं।’’ वागीश ने सिर हिलाया।
‘‘हां, हां आप ठीक कह रहे हैं। एन॰ एस॰ डी॰ सेकेंडियर वालों ने किया था।’’
बात लंबी खिंच गई थी। और संजय देवेंद्र से मिलने को आतुर था। आगे बढ़ा तो हेमा आती दिखी। उस के चाचा विजय ने मिलवाया, ‘‘ये संजय हैं। पहले हमारे ही अख़बार में थे। दिल्ली में भी थे। तुम जानती होगी।’’ सुन कर हेमा अचकचाई तो संजय ने याद दिलाया, ‘‘जब आप एन॰ एस॰ डी॰ में पढ़ती थीं। हास्टल में विभा आप के बगल में रहती थी। वानी इरफाना शरद, उपेंद्र सूद वगैरह थे। तो मैं आता था....’’ बात बीच में ही काटते हुए हेमा बोली, ‘‘हां, हां याद आया।’’ जाने उसे सचमुच याद आ गया था कि याद आने का अभिनय कर रही थी। संजय को लगा जैसे अभिनय कर रही थी। आखि़र दस-बारह बरस बीत गए थे, तब से अब में। संजय अब थोड़ा सा मुटा भी गया था। और फिर उसे याद आया कि जब वह एन॰ एस॰ डी॰ पर फीचर लिखने के सिलसिले में गया तो वहां के बारे में संजय लिखे हेमा नहीं चाहती थी। उस ने कभी स्पष्ट रूप से तो यह नहीं कहा पर उस के हाव भाव से संजय को ऐसा ही लगा था। फिर तब हेमा अभिनय सीख-पढ़ रही थी, पक्की नहीं थी, सो तब संजय को उस की मंशा जानने में दिक्कत नहीं हुई।
हेमा क्यों नहीं चाहती थी कि संजय एन॰ एस॰ डी॰ के बारे में लिखे ? एन॰ एस॰ डी॰ मतलब दिल्ली का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा।
कारण दो थे।
एक तो शायद यह कि जिस पत्रिका के लिए संजय एन॰ एस॰ डी॰ पर फीचर तैयार कर रहा था, उस पत्रिका के संपादक पद से उस के पिता जल्दी ही हटाए गए थे और अब जो संपादक थे उस के पिता को वह भाते नहीं थे। दूसरे यह कि एन॰ एस॰ डी॰ में उन दिनों अराजकता पनपने लगी थी। दूर-दराज से रंगकर्म पढ़ने आने वाले छात्र आत्महत्या पर आमादा हो गए थे।
क्यों कर रहे थे आत्महत्या ?
संजय इस पर ख़ास तौर से फोकस करना चाहता था। इस फोकस करने के बाबत उस ने कुछ एनएसडियनों से दोस्ती गांठी। इस दोस्ती के बहाने धीरे-धीरे मंडी हाउस का कीड़ा उस में बैठने लगा।
हालां कि अंततः मंडी हाउस का कीड़ा वह फिर भी नहीं बन पाया। बावजूद तमाम कोशिशों और चाहत के।
तो सवाल यह था कि एनएसडियन आत्महत्या क्यों कर रहे थे ? देश की तमाम समस्याओं के मद्देनजर यह कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं थी। पर तब जाने क्या था कि संजय इस समस्या को ले कर लगभग झूल गया था।
कि आज उसे सोच कर अपने इस बचपने पर हंसी आती है।
सचमुच संजय के लिए वो दिन मंडी हाउस ओढ़ने बिछाने के दिन थे। और वह मंडी हाउस ही ओढ़ने बिछाने लगा। ‘‘लंच’’ और ‘‘डिनर’’ भी वह एनएसडियनों के साथ करने लगा। दो तीन ‘‘जोड़ों’’ के बीच अकेला घसीटता हुआ वह बंगाली मार्केट घूमने लगा। एनएसडियनों की कैंटीन साधते-साधते वह लड़कियों के हास्टल में भी घुस गया तो उसे लगा कि अब पहली बाजी वह मार ले गया। लड़कियों के हास्टल में घुसना जैसा कि संजय समझता था मुश्किल होगा, सचमुच जरा भी मुश्किल नहीं था। क्यों कि एन॰ एस॰ डी॰ का ‘‘कल्ट’’ ही कुछ ऐसा था कि कोई बिना ‘‘जोड़े’’ के रह ही नहीं सकता था। एकाध जो बिना जोड़े के थे वह या तो ‘‘क्रेक’’ डिक्लेयर हो जाते थे या अछूतों सा बरताव होता था उन के साथ। तो विवशता कहिए या अराजकता, चाहे लड़का हो या लड़की, जोड़ा बनाना ही पड़ता था। बिना जोड़े के गुजारा ही नहीं था एन॰ एस॰ डी॰ में।
यह देख और महसूस कर बहुत अच्छा लगा संजय को। तब संजय भी इत्तफाक से कुंवारा था। पर इस मामले में जरा संकोची था।
और वह आज भी पछताता है कि क्यों था संकोची तब ?
वह सचमुच संकोची था और थोड़ा बेशऊर भी। लड़कियों को देखने का सलीका तो उसे आ गया पर उन्हें ‘‘कनविंस’’ करने का न तो उसे शऊर था, न समय था, न ही साथ-साथ लगे रहने का बेहयाई वाला माद्दा। और यह लड़कियां ? चाहे कहीं की हों, कोई हों दो चीज तो मांगती ही मांगती हैं। एक तो समय, दूसरे बेहयाई। तीसरे, फूंकने को भरपूर पैसा भी हो तो क्या बात है। यह ध्रुव सत्य है। चाहे जितनी क्रांति हो जाए, मूल्य बदल जाएं, समय और इतिहास बदल जाएं पर यह सत्य नहीं बदलने वाला। ‘‘ध्रुव सत्य’’ जो ठहरा !
तो संजय को दो क्या इन तीनों सत्य के सांचे की सोच से भी घिन आती थी। कि, ‘‘पटती है लड़की, पटाने वाला चाहिए’’ वाला चलन उसे नहीं सुहाता था। बल्कि वह तो मेंटल हारमनी तलाशता था।
वह आज भी तलाशता है।
वह मानता था कि कम से कम बंगाली मार्केट में घूमने वाली लड़कियां, मंडी हाउस के ‘‘कल्ट’’ में समाई लड़कियां, और नहीं तो कम से कम रंगकर्म पढ़ने वाली एन॰ एस॰ डी॰ की लड़कियां तो इस मेंटल हारमनी को समझती ही होंगी। और ‘‘उसे’’ भी।
दिल्ली नया-नया गया था न ! पर काफी तलाश के बाद भी संजय को ऐसी कोई लड़की जब नहीं मिली, मतलब जब किसी भी लड़की ने उसे अपने को ‘‘आफर’’ नहीं किया तो वह जैसे नींद से जागा। वह समझ गया कि सेंट से महकती, मंडी हाउस में इतराती हाथ में हाथ डाले, पुरुष देह से लगभग चिपट कर चलती-बैठती लड़कियां उस की कुंडली में नहीं लिखी हैं। पर इसी बीच एक दिन विभा मिली। तब तक उस का ‘‘जोड़ा’’ नहीं बन पाया था। वह तो बहुत बाद में पता चला कि वह बिछड़ी हुई कबूतरी थी। विभा को तो अब तक शायद संजय की याद भी नहीं होगी। देखे, तो भी शायद न पहचाने। आखि़र हेमा ने भी तो नहीं पहचाना था। हो सकता है संजय भी अब विभा को न पहचाने। हो सकता है क्या बिलकुल हो सकता है। खै़र ! तो विभा उन दिनों अकेली ही घूमा करती थी। लखनऊ से गई थी। लखनऊ में वह कई नाटक कर चुकी थी। साथ ही भारतेंदु नाट्य अकादमी की डिग्री भी। संजय जब उसे पहली बार हास्टल में मिला तो वह बड़ी उदास सी थी। और कहीं जा रही थी। वह हास्टल के बूढ़े चौकीदार को बड़ी आत्मीयता से अपने कमरे की देख-रेख की जिम्मेदारी डाल रही थी। हालां कि कमरे में उस की रूम मेट सोई हुई थी। फिर भी विभा चौकीदार से कह रही थी, ‘‘आप तो इस की लापरवाही जानते ही हैं।’’
‘‘हां बिटिया। पर तुम निश्चिंत रहो।’’ कहते हुए चौकीदार ने तसल्ली दी।
विभा लखनऊ की थी मतलब यू॰ पी॰ की। और संजय को तब दिल्ली में यू॰ पी॰ के नाम पर मेरठ, हापुड़ का भी कोई मिल जाता था तो उस से अनायास आत्मीयता सी हो जाती थी। इस आत्मीयता में कई बार उसे दिक्कतें भी पेश आईं पर वह इस से कभी उबर नहीं पाया। हालां कि कई बार ऐसा भी होता था कि अगला आदमी उसे वही आत्मीयता नहीं भी परोसता तो भी संजय से वह आत्मीयता का राग नहीं छूटता। वह आलापता ही रहता। चाहे वह ब्यूरोक्रेट हो, पॉलिटिशियन, रिक्शेवाला, मजदूर या किसी भी तबके का। एक बार उस ने अपनी इस कमजोरी का हवाला अपने एक जरमनी पलट पत्रकार मित्रा को दिया जो मध्य प्रदेश के थे तो वह बोले, ‘‘आप यह कह रहे हैं। अभी आप हिंदुस्तान से कहीं बाहर चले जाइए तो जो दिल्ली में जिस बदकती पंजाबियत या खदबदाती हरियाणवी से आप चिढ़ते रहते हैं, वही वहां भली लगेगी। और जो यह लुंगी उठाए मद्रासी यहां कार्टून जान पड़ते हैं वहां बिलकुल अपने हो जाते हैं। यहां तक कि पाकिस्तानी भी वहां सगे हो जाते हैं। बल्कि कहूं कि समूचे एशियाई अपने हो जाते हैं।
फिर संजय जब इस के संक्षिप्त ब्योरे में उतर गया कि कैसे जब वह गांव से शहर में आया और उसे अपनी तहसील का जो कोई मिल जाता था तो अपना सा लगता था। और जो गांव जवार का जो कोई मिल जाए तो क्या कहने। और ऐसे ही जब वह अपने शहर से दिल्ली आया तो जिस मेरठ की बोली से वह यू॰ पी॰ में चिढ़ता था, दिल्ली में यू॰ पी॰ के नाम पर वह भी अच्छे लगने लगे। और जो कोई पूर्वांचल मतलब पूर्वी उत्तर प्रदेश का हो तो फिर तो वह उस के गले ही पड़ जाता। पूछने लग जाता कि, ‘‘भोजपुरी बोलते हैं कि नहीं ?’’ और फिर, ‘‘कहां घर है ? का करीले ? कब से बाड़ीं इहां ?’’ जैसे सवालों का सिलसिला थमता ही नहीं था। पर ज्यादातर लोग भोजपुरी न बोल पाने का स्वांग करते तो संजय उन्हें धिक्कारता। ख़ूब धिक्कारता। तो उन में से कुछ तो भोजपुरी पर उतर आते पर जो फिर भी ढिठाई करते, ‘‘का बताएं प्रैक्टिस नहीं रहा। समझ लेते हैं बोल नहीं पाते।’’ जैसे जुमले उछालते, संजय उन्हें ‘‘शर्म शर्म,’’ सरीखी कुछ और खुराकें खिलाता और कहता, ‘‘सिंधियों को देखो, सिंध छोड़ दिया पर सिंधी नहीं छोड़ी। और ये दो दिन से दिल्ली क्या आ गए अपनी बोली भूल गए। कल थोड़ी और तरक्की कर लेंगे तो अपनी मां को भी भूल जाएंगे। क्या तो वह अनपढ़ गंवार है, फिगर ठीक नहीं है। और परसों जो विदेश चले गए तो अपना देश भूल जाएंगे। क्या तो पिछड़ा है।’’ वगैरह-वगैरह जब संजय सुनाता तो ज्यादातर भोजपुरी क्षेत्र से आए लोग और बिदक जाते और उस से कतराते रहते। पर संजय को कोई फर्क नहीं पड़ता था।
वह तो चालू रहता।
पर विभा के साथ संजय भोजपुरी पर चालू नहीं हुआ। हां, इतना एहतियात के तौर पर जरूर कर लिया कि विभा से उस का जिला पूछ लिया। और जब उस ने लखनऊ और लखनऊ बता कर पिंड छुड़ाना चाहा तो संजय उस के पीछे पड़ा भी नहीं। उसे जाने दिया। और तभी हेमा अशोक के साथ आती दिखी। कंधे पर झोला लटकाए। संजय ने यहां और समय ख़राब करने के बजाय हेमा से औपचारिकतावश हालचाल पूछ चलता बना। बाहर आ कर उस ने देखा, विभा आटो रोकने के चक्कर में पड़ी थी। पर उस ने उधर ध्यान देने के बजाय सोचा कि क्यों न बंगाली मार्केट चल कर मिठाई खाए। फिर उस ने सोचा कि उधर से ही अजय-अलका के घर भी हो लेगा। फिर जाने क्या हुआ कि वह अचानक बस स्टॉप की ओर मुड़ गया। पर यह सोचना अभी बाकी था कि वह कहां जाए। आई॰ टी॰ ओ॰, कनॉट प्लेस कि प्रेस क्लब ? पर तब तक उसे शास्त्री भवन की ओर जाने वाली बस दिख गई और वह दौड़ा, फिर लटक कर चढ़ गया। और सोचा कि प्रेस क्लब चल कर पहले बियर पिएगा फिर कुछ खा कर थोड़ा उठंगेगा। फिर जो टाइम मिलेगा तो वापसी में अजय-अलका के घर। इस तरह मिठाई मुल्तवी होते हुए भी मुल्तवी नहीं हुई थी।
तो क्या यह विभा का नशा था ? कि बीयर पीने का सुरूर ? वह कुछ भी तय नहीं कर पा रहा था। पर वह यह अब तक जान गया था कि आज अजय-अलका के यहां जाना जरूर पड़ेगा।
बेचारा अजय !
एन॰ एस॰ डी॰ में जब उस ने दाखि़ला लिया तो घर में चौतरफा विरोध हुआ। वह नाटकों में एक्टिंग पहले भी करता था और तब घर वालों को ऐतराज तो था पर विरोध जैसा विरोध नहीं। लेकिन जब एन॰ एस॰ डी॰ में दाखि़ला लेने चला तो घर में जैसे कुहराम मच गया। पर अजय तो जैसे लंगोट बांध कर तैयार था। एक अजीब सा रोमेंटिसिज्म उस के सिर पर सवार था। और उस ने एन॰ एस॰ डी॰ में दाखि़ला आखि़रकार ले लिया। यह वह दिन थे जब एनएसडियनों के पंख जहां तहां उड़ और पसर रहे थे। तब यह ढेर सारे टी॰ वी॰ चैनल नहीं थे। फिर दूरदर्शन के डैने भी बड़े छोटे थे और फिल्मों में ओम शिवपुरी तक झण्डा गाड़ रहे थे। यह समानांतर फिल्मों के दिन थे। नसीर, राजबब्बर, कुलभूषण, रंजीत, रैना को एनएसडियन अजीब उत्साह से उच्चारते हुए अपने को भी उन्हीं के साथ पाते थे। पर सचमुच सभी के भाग्य में तो वह रूपहला परदा पैबंद बन कर ही सही नहीं लिखा था।
अजय के भाग्य में भी नहीं लिखा था।
अजय जब एन॰ एस॰ डी॰ आया था तो यह सोच कर कि वह अभिनय के नए प्रतिमान गढ़ेगा, तहलका मचा देगा। पर जब दूसरे साल उसे क्राफ्ट में विशेषज्ञता हासिल करने के लिए चुना गया तो वह अवाक रह गया। बहुत हाथ पांव मारने पर उसे निर्देशन में डाला गया। पर वह हार मानने वाला नहीं था, निदेशक को उस ने कनविंस किया। वह मान गए और वह अनिभय में फिर आ गया। पर बाद में उसे क्या लगा, उस के बैच मेट से ले कर लेक्चरर्स तक यह एहसास कराने लगे कि एक्टिंग के जर्म्स उस में हैं ही नहीं। वह बेकार ही वक्त जाया कर रहा है।
अजय का पहला सपना यहीं टूटा।
अजय ने उन दिनों पहली बार दाढ़ी बढ़ानी शुरू की। दाढ़ी बढ़ा लेने से एक बात यह हुई कि लोग कहने लगे कि अजय के मुखाभिनय में भारी फर्क आ गया है। अब वही लोग जो कहते थे कि अभिनय अजय के बूते की बात नहीं वही लोग अब कहने लग गए कि अजय नसीर की नकल करता है। पर बकौल अजय वह नसीर की नकल नहीं करता था। उस के मुखाभिनय में कोई फर्क भी नहीं आया था। अभिनय की वही रेखाएं वह अब भी गढ़ता था। फर्क बस यही था कि उस के चेहरे पर दाढ़ी जम गई थी। दाढ़ी शायद उस का नया सपना था। उन्हीं दिनों मोहन राकेश के आषाढ़ का एक दिन में जब अजय ने क्राफ्ट और अभिनय दोनों ही जिम्मेदारी एक साथ निभाई तो निर्देशक फ्रिट्ज वेनविट्ज ने उसे गले लगा लिया। फिर तो वह उन का प्रिय हो गया। इतना कि उसे लगने लगा कि उस को अभिनेता नहीं निर्देशक ही होना चाहिए। अजय की उधेड़बुन बढ़ती जा रही थी। वह ठीक-ठीक तय नहीं कर पा रहा था कि वह क्या बने अभिनेता कि निर्देशक ? कि क्राफ्ट्स में ही वापस हो ले। हालां कि अब कुछ भी संभव नहीं था। यही वह दिन थे जब वह चरस भी पीने लगा था।
क्या उधेड़बुन से बचने के लिए ?
एक रोज एन॰ एस॰ डी॰ के सामने वाले लॉन में बैठा वह सुट्टा लगा रहा था कि अचानक कथक केंद्र के भीतर से एक लड़की के जोर-जोर से बोलने की आवाज सुनाई दी। पर यह आवाज रह-रह कर रुक जाती थी या कि आते-आते ठहर जाती थी। चरस अभी उस पर असर नहीं कर पाई थी या कि शायद असर अभी आधा अधूरा था चरस का, उसे ठीक-ठीक याद नहीं। पर वह एकाएक उठ पड़ा और लगभग दौड़ते हुए कथक केंद्र में घुस गया। उस लड़की की आवाज में अजीब-सी कातरता और विवशता समाई हुई थी कि अजय अचानक हिंसक हो उठा। कथक केंद्र के महाराज जी को उस ने मारा तो नहीं पर जोर से धक्का दिया और वह फर्श पर गिर पड़े। जांघिया पहने महाराज मुंह के बल फर्श पर ऐसे गिरे थे कि मुंह से खून गिरने लगा। इस तरह महाराज जी के भुजपाश से वह लड़की छिटक कर दीवार से ऐसे जा भिंड़ी कि उस की रूलाई उसके घुंघरुओं की झंकार में झनझना कर रह गई। उस की आंख से आंसू ऐसे लुढ़के कि अजय को बेगम अख़्तर की गायकी याद आ गई, ‘‘रस की बूंदें पड़ें।’’ हालां कि यह गायकी यहां मौजू नहीं थी। पर उसे सूझा यही।
यह अलका थी।
हुआ यह था कि अलका का कथक केंद्र में पहला साल था सो महाराज जी उस पर कुछ ज्यादा कृपालु हो गए। उन को उस में अप्रतिम प्रतिभा दिखाई देने लगी। सो उसे उन्हों ने अपने शिष्यत्व में रख लिया। शिष्या तो अलका बन गई पर महाराज जी की ‘‘सेवा’’ करने में वह आनाकानी करने लगी। और महाराज की अदा यह थी कि बिना ‘‘सेवा’’ कराए वह सिखाते नहीं थे। ‘‘सेवा’ और ‘‘सीखने’’ में जो अंतर्द्वंद्व चला तो वह खिंचता ही गया। अक्सर महाराज जी उसे शाम को अकेले बुलाते कुछ ख़ास सिखाने के लिए। पर छोटे शहर की अलका पहुंचती तो किसी न किसी सहेली को ले कर। महाराज जी जो कथक नृत्य के पुरोधा थे, कई-कई पुरस्कारों, प्रशस्तियों से विभूषित थे, उन के ‘‘आशीर्वाद’’ के बिना कथक में किसी को ‘‘एंट्री’’ नहीं मिलती थी, कोई कलाकार नहीं बन सकता था और कम से कम उन के कथक केंद्र की डिग्री तो नहीं पा सकता था। उन्हीं महाराज जी की आंखों में कौंध गई थी वह अलका नाम की कन्या। और ऐसा कभी हुआ नहीं कि कथक केंद्र की कन्या उन की आंखों में समाए तो उन की बांहों में समाए बिना, जांघों पर बैठे बिना रह जाए। तो जो कन्या उन की आंखों को कौंधती थी, उन की नसों में उमंग भरती थी, उन की आहों में रमती थी उसे वह ‘‘शिष्या’’ बनाने की जिज्ञासा बड़े ही शाकाहारी ढंग से प्रगट करते थे। और भला किस कन्या में यह हसरत न हो, इतने बड़े गुरु महाराज की शिष्या बनने की उस में चाह न हो ? तो वह उसे अकेले बुलाते। पहले पैर दबवाते, पैर दबवाते-दबवाते कन्या का हाथ दबाते। यह दूसरा चरण था। तीसरे चरण में वह कन्या का हाथ अपनी जंघाओं के बीच धीरे से खींचते। और कन्या जो कुछ संकोच खाती तो उसे बड़े मनुहार से नृत्य की चकमक और जगमग दुनिया से नहलाते। ज्यादातर कन्याएं नहा जातीं और जो नहाने में अफनातीं तो उन्हें वह गंडा बांधने की तजबीज देते तो कुछ गंडे की गंध में आ जातीं और बिछ जातीं गुरु महाराज की ‘‘सेवा’’ में। कुछ फिर भी महाराज जी को अपने को अर्पित करने के बजाय अपना चप्पल या थप्पड़ अर्पित कर देती थीं।
अलका उन थोड़ी-सी कुछ कन्याओं में से ही एक थी।
अलका को जब महाराज जी ने शुरू में अकेले आने का आमंत्रण दिया तो पहले तो वह टाल गई। पर आमंत्रण का दबाव जब ज्यादा बढ़ गया तो उसे जाना ही पड़ा। पर गई वह सहेली के साथ। और जब भी कभी गई तो सहेली के साथ। सहेली के सामने ही उस ने महाराज जी के पैर दबाए पर थोड़ी झिझक के साथ। हफ्ते भर उस की झिझक और अपनी हिचक के साथ लड़ते रहे महाराज जी। अलका की सहेली उन को खटकती रही। तो एक दिन उन्हों ने उस की सहेली को बड़ी बेरूखी कहिए, बदतमीजी कहिए के साथ उसे लगभग अपमानित करते हुए टरका दिया। अलका तब बाथरूम गई हुई थी। और जाहिर है कि नहाने नहीं गई थी। क्यों कि उसे तो महाराज जी नहलाने वाले थे।
दूसरे दिन अलका के साथ उस की सहेली नहीं आई। अलका को अकेली आना पड़ा। महाराज जी को राहत मिली। और पैर दबवाते-दबवाते उन्हों ने अलका का हाथ दबा दिया। हौले से। अलका इसे अनायास ही मान कर महाराज जी के पैर दबाते हुए शिष्या धर्म निभा ही रही थी कि उन्हों ने फिर उस का हाथ दबाया। और भरपूर दबाया। अलका कुछ झिझकी। पर पैर दबाती रही। महाराज जी सोफे पर बड़ी-सी जांघिया पहने बैठे थे। उस ने गौर किया कि महाराज की जांघिया आज कुछ ज्यादा ही ऊपर खिसकी हुई है। वह थोड़ा-सा घबराई। और इसी घबराहट में उस ने महाराज जी की उंगलियां पुटकानी शुरू कर दी। पर महाराज जी ने ‘‘ऊं-हूं’’ कहते हुए उस का हाथ ऊपर खींच लिया। बिलकुल निर्विकार भाव से। वह फिर से पांव दबाने लगी। बाहर शाम का अंधेरा गहरा हो चला था। अलका का मन थरथराने लगा था। कि तभी महाराज जी ने फिर उस का हाथ हौले से ऊपर खींचा। पर बिलकुल अनमनस्क ढंग से। वह महाराज जी का अर्थ अब समझ गई। क्यों कि महाराज जी उस का हाथ अपने पुरुष अंग की ओर खींचने की अनायास नहीं सायास कोशिश कर रहे थे। पर चेहरे की मुद्रा अनायास वाली ही थी। और अलका गुरु जी के भारी व्यक्तित्व के वशीभूत विरोध के बजाय संकोच बरत रही थी। और फिर वह सोच रही थी कि अगर उस ने विरोध किया तो बदनामी उसी की होगी। वह लड़की जात ठहरी। महाराज जी का क्या ? फिर उसे अचानक एक जासूसी किताब की याद आ गई। मोहनलाल भास्कर की संस्मरणात्मक जासूसी किताब ‘‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था।’’ इस किताब में अलका ने यों तो कई रोचक किस्से पढ़े थे। पर इस समय उसे एक किस्सा तुरंत याद आ रहा था। पाकिस्तान के उस शहर का तो नाम याद नहीं आ रहा था अलका को। पर वह किस्सा मुख़्तसर यह था कि पाकिस्तान के किसी शहर में एक मौलवी साहब थे। झाड़ फूंक करते थे औरतों की अकेले में। किसिम-किसिम की औरतें उन की शरण में पहुंचती थीं। मौलाना का जब किसी सुंदर स्त्री पर दिल आ जाता था तो झाड़ फूंक करते वह लगभग डांटते हुए बोलते थे, ‘‘नाड़ा खोल !’’ ज्यादातर औरतें मौलवी की डपट में आ कर अपना नाड़ा खोल बैठती थीं। और मौलवी साहब का काम आसान हो जाता था। औरतें बदनामी के डर से मौलवी के खि़लाफ जबान नहीं खोलती थीं। पर जब एकाध औरतें मौलवी की डपट ‘‘नाड़ा खोल !’’ पर ऐतराज करती हुई उन्हें भला-बुरा कहने पर आतीं तो मौलवी फौरन अपना पैतरा बदल लेते। कहते ‘‘कमबख़्त औरत ! नीयत तेरी ख़राब और इल्जाम हम पर लगाती है।’’ और वह वहीं दीवार पर लगी एक खूंटी दिखाते जिस में एक नाड़ा बंधा रहता तो मौलवी साहब गरजते, ‘‘मैं तो उस खूंटी पर बंधे नाड़े को खोलने को कह रहा था। और तू कमबख़्त बदजात औरत मुझ पर तोहमत लगाने लग पड़ी। भाग कमबख़्त तेरा इलाज अब अल्ला पाक के कर्म से हम नहीं कर सकते।’’ बेचारी मौलवी की मारी औरत पलट कर मौलवी के पैरों में गिर-गिर कर गिड़गिड़ाने लगती।
‘‘उफ् !’’ अलका महाराज जी द्वारा बार-बार हाथ दबाने और रह-रह कर खींचते रहने से बुदबुदाई। उसे लगा बाहर से भी कहीं ज्यादा अंधेरा उस कमरे में घिर आया है। और उस के मन में तो पूरी तरह घुप्प अंधेरा पसर गया। वह सोचती जा रही थी कि कैसे महाराज जी से पिंड छुड़ाए। कि तब तक महाराज जी ने उस का हाथ पूरी शक्ति से खींच कर जहां चाहते थे जांघों के बीच रख दिया। और पैरों से उस के नितबों को कुरेदा। अलका पूरी तरह अफनाई हुई खड़ी हुई कि पास के स्विच से लाइट जला दे। वह उठी। उठी ही थी कि महाराज जी जैसे किसी शिकारी की तरह उसे खींच कर बांहों में भींचने लगे। उन की गोद में बैठे-बैठे ही उन की सारी आन-मान भुला कर अलका ने खींच कर उन्हें एक थप्पड़ मारा और उन से छिटक कर अलग होती हुई लपक कर लाइट जला दी।
महाराज जी की कनपटी लाल हो गई थी। पर वह जैसे हार मानने वाले नहीं थे। लगभग नृत्य मुद्रा में उन्हों ने फिर से अलका को पीछे से दबोच लिया। लाइट की परवाह नहीं की। यह भी नहीं सोचा कि खिड़कियां, दरवाजे सब खुले हैं। अपनी आन-मान और उम्र का भी ख़याल वह भूल बैठे। जैसे सुध-बुध खो गई थी उन की।
पर अलका गरजी। उन को धिक्कारा। चीख़-चीख़ कर धिक्कारा। शर्म-हया और उम्र का पाठ पढ़ाते हुए अलका ने उन्हें फिर धकियाया। पर महाराज जी जैसे शिष्या से कुछ सीखने सुनने को तैयार नहीं थे। वह तो बस अपना ही पाठ पढ़ाने की उतावली में अलका नामधारी कन्या को काबू करते हुए नृत्य की दूसरी मुद्रा धारण कर उसे फिर दबोच बैठे। अलका फिर चीख़ी। वह चिल्लाई, ‘‘दुष्ट पापी, अधम कुत्ते, हरामी !’’ आदि जितने भी तरह के शब्द उस की जबान की डिक्शनरी में समा पाए वह उच्चारती रही और चिल्लाती रही। पर महाराज जी हर ‘‘अलंकार’’ सहज भाव से स्वीकार-स्वीकार, बार-बार नृत्य मुद्राएं बदल लेते थे। अद्भुत था उन का यह नर्तन जो अलका के अशिष्ट वाचन के बावजूद सहज रूप से जारी था। जब उन्हें अचानक अजय ने ढकेला तो भी वह अलका को लगभग दबोचे, बाहुपाश में लिए किसी नृत्य मुद्रा में ही थे।
खै़र, अजय अलका को ले कर बाहर आया। बाहर आ कर अलका ने अपने घुंघरू उतारे। और दूसरे दिन उस ने कथक नृत्य को तो नहीं पर कथक केंद्र को अलविदा कहने की सोची। अजय को उस ने रोते-रोते यह बात बताई। जो अजय को भी नहीं भाई।
अजय ने उसे ढांढस बंधाया और कहा कि महाराज कोई ठेकेदार तो नहीं है कथक नृत्य का। और यह कथक केंद्र उस के बाप का नहीं है। फिर भी अलका तीन दिन तक नहीं गई कथक पढ़ने-सीखने। कमरे ही में गुमसुम पड़ी लेटी रहती। चौथे दिन सुबह-सुबह अजय उस से हास्टल में मिलने आया। उस ने फिर हौंसला बंधाया। अलका कथक केंद्र जाने लगी। कथक केंद्र क्या जाने लगी, अजय से भेंट बढ़ने-बढ़ाने लगी।
यह एन॰ एस॰ डी॰ में शायद पहली बार हो रहा था कि कोई लड़का एन॰ एस॰ डी॰ में इतर लड़की के साथ जोड़ा बनाकर घूम रहा था। नहीं ऐसे तो कुछ मामले जरूर थे जिन में एन॰ एस॰ डी॰ के बाहर के नाम पर एन॰ एस॰ डी॰ रेपेट्री के साथ ख़ास कर किसी लड़की ने जोड़ा एडाप्ट किया हो। पर इस से इतर कहीं और नहीं।
अजय को इधर एन॰ एस॰ डी॰ में और उधर अलका को कथक केंद्र में यह आपत्ति एक नहीं कई बार मजाक-मजाक में झेलनी पड़ी। पर शायद लोकेंद्र, हां लोकेंद्र त्रिवेदी ही नाम था उस लड़के का। उस ने एक दिन अचानक ही यह आपत्ति ख़ारिज कर दी कि, ‘‘एन॰ एस॰ डी॰ से बाहर अजय ने पेंग जरूर मारी है पर है कैम्पस के भीतर ही। यानी बहावलपुर हाउस के भीतर सो अबजेश्क्शन ओवर रूल।’’ कहते हुए उस ने दियासलाई की डब्बी कैरम की गौटी की तरह ऐसे उछाली कि वह गिलास में घुस गई। यह खेल उन दिनों एनएसडियनों के बीच आम था।
अलका-अजय अब दो जिस्म और एक जान थे। इत्तफाक से दोनों यू॰ पी॰ के थे। तो यह लगाव भी काम आया। पर दोनों विजातीय थे। सो दोनों ने अचानक जब शादी की ठान ली तो जाहिर है कि दोनों के परिवार वालों ने विरोध किया। पर विरोध को भाड़ में डाल कर शादी कर डाली उन्हों ने। अलका-अजय से अब वह अजय-अलका हो गए थे। अब तक अजय एन॰ एस॰ डी॰ से एन॰ एस॰ डी॰ रेपेट्री आ गया था। अलका ने कथक केंद्र बीच में ही छोड़ दिया। जाहिर है कि महाराज जी ही अंततः कारण बने। पर अलका को कभी इस का पछतावा नहीं हुआ। बल्कि कभी-कभी तो वह इस घटना को अपने लिए शुभ भी मानती। कहती, ‘‘नहीं अजय कैसे मिलते !’’
संजय जब अजय-अलका से मिला तब तक अजय एन॰ एस॰ डी॰ रेपेट्री भी छोड़-छाड़ बिजनेस के जुगाड़ में लग गया था। एक लैंब्रेटा स्कूटर सेकेंड हैंड ले कर उसी पर दौड़ता रहता था। नाटक-वाटक उस के लिए अब उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। एन॰ एस॰ डी॰ की डिग्री उसे बेमानी जान पड़ती। और अंततः अलका ही की तरह वह भी एन॰ एस॰ डी॰ और नाटक को ‘‘यों ही’’ मानने के बावजूद महत्वपूर्ण इस लिए मानता था कि इसी वजह से उसे अलका मिली थी।
अलका-अजय ने, ओह सारी, अजय-अलका ने शादी भले ही पारिवारिक विरोध के बावजूद की थी। पर अब दोनों परिवारों की स्वीकृति की मुहर भी लग गई थी और दोनों पक्षों का बाकायदा आना-जाना शुरू हो गया था। अजय को बिजनेस के लिए उस के पिता ने ही उकसाया था और कुछ रुपए भी इस ख़ातिर उसे दिए थे।
एक रोज संजय अचानक ही अजय-अलका के घर पहुंचा तो दोनों कहीं गए हुए थे । पर उसी समय अजय के पिता भी पहुंचे हुए थे। छूटते ही संजय से बोले, ‘‘तुम भी नाटक करते हो ?’’ उन के पूछने का ढंग कुछ अजीब-सा था। ऐसे जैसे वह पूछ रहे हों, ‘‘तुम भी चोरी करते हो ?’’
पर जब संजय ने लगभग उसी अंदाज में कि, ‘‘क्या तुम भी चोर हो ?’’ कहा कि, ‘‘नहीं।’’ और बड़ी कठोरता से दुहराया, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं।’’ तो उस के पिता थोड़ा सहज हुए और बताया कि वह अजय के पिता हैं। तो संजय ने उन्हें आदर और विनयपूर्वक नमस्कार किया।
वह बहुत खुश हुए।
फिर बात ही बात में जब उन्हों ने जाना कि संजय पत्रकार है तो वह कुछ अनमने से हुए और जब यह जाना कि वह नाटकों आदि की समीक्षाएं भी लिखता है तो फिर से संजय से उखड़ गए। जिस संजय के लिहाज और संस्कार की वह थोड़ी देर पहले तारीफ करते नहीं अघा रहे थे उसी संजय में उन्हें अब अवगुण ही अवगुण दिखने लगे थे। वह धारा प्रवाह चालू हो गए थे, ‘‘आजकल के छोकरों का दिमाग ही ख़राब है। काम-धंधा छोड़ कर नौटंकी में चले जाते हैं।’’ वह हांफने लगे थे, ‘‘और तुम पेपर वाले इन छोकरों का छोकरियों के साथ फोटू छाप-छाप, तारीफ छाप छूप कर और दिमाग ख़राब कर देते हो। जानते हो इस नौटंकी और अख़बार में छपी फोटू से कहीं जिंदगी की गाड़ी चलती है ?’’ वगैरह-वगैरह वह गालियों के संपुट के साथ बड़ी देर तक उच्चारते रहे थे। फिर जब वह थक कर चुप हो गए तो संजय उन से लगभग विनयपूर्वक आज्ञा मांगते हुए चला तो वह फिर फूट पड़े, ‘‘नौटंकी वालों के साथ रहते-रहते तुम को भी ऐक्टिंग आ गई है! मैं इतना भला बुरा तब से बके जा रहा हूं और तुम फिर भी चरण चांपू अंदाज में इजाजत मांग रहे हो।’’
‘‘नहीं मुझे कुछ भी बुरा नहीं लगा। और फिर आप बुजुर्ग हैं। अजय के पिता हैं। मैं ऐक्टिंग क्यों करूंगा। आती भी नहीं मुझे।’’ संजय बोला तो वह फिर सामान्य हो गए। बोले, ‘‘ऐक्टिंग नहीं आती तो ऐक्टरों के बारे में लिखना छोड़ दो। बहुतों का भला होगा।’’ संजय हंसते हुए चल पड़ा। फिर उस ने सोचा अजय रंगकर्म कैसे निबाहता है ?
और आज प्रेस क्लब जाते हुए अजय के पिता की यह बात सोच कर फिर हंसी आ रही थी कि ऐक्टिंग से छोकरे बरबाद होते हैं। फिर उस ने खुद सोचा क्या ऐक्टिंग से भी छोकरे बरबाद होते हैं ? बिलकुल पाकीजा फिल्म के उस संवाद की तर्ज पर कि ‘‘अफसोस कि लोग दूध से भी जल जाते हैं।’’ फिर अचानक उस ने सोचा कि ऐक्टिंग करने वाले छोकरे बरबाद होते हैं कि नहीं इस पर वह बाद में सोचेगा। फिलहाल तो उसे यह सोचना है कि ऐक्टिंग सीखने वाले छोकरे आत्महत्या क्यों करते हैं ? वह भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में। कभी पेड़ पर फांसी लगा कर, कभी छत के पंखे से फांसी लगा कर। तो कुछ नाखून ही उंगली से निकाल कर काम चला लेते हैं। और आत्महत्या पर विराम लगा देते हैं।
तो क्या यह एन॰ एस॰ डी॰ के डायरेक्टर पद से इब्राहिम अल्काजी के चले जाने का गैप था, या कारंत की निदेशकीय क्षमता का ह्रास था। या कि कारंत और अल्काजी के बारी-बारी चले जाने की छटपटाहट की आंच थी, अनुशासन की, प्रशासन की नपुंसकता की थाह लेते समय की चाल थी, या एनएसडियनों की टूटती महत्वाकांक्षाओं का विराम थीं ये आत्महत्याएं ? या नये निदेशकों की अक्षमताओं और अनुभवहीनता का नतीजा ?
कुछ ऐसा वैसा ही सोचते, सिगरेट फूंकते जब दूसरे दिन वह एन॰ एस॰ डी॰ की कैंटीन में पहुंचा तो विभा वह दियासलाई की डब्बी कैरम की गोटी की तरह उछाल कर गिलास में गोल करने वाला खेल खेलती हुई चाय पीती जा रही थी। आज वह खुश भी थी। उस ने संजय को विश भी किया और नमस्कार भी। बोली, ‘‘चाय पिएंगे ?’’
‘‘नहीं, मैं चाय नहीं पीता।’’
‘‘अजीब बात है सिगरेट पीते हैं और चाय नहीं !’’ और कंधे उचकाती हुई बोली, ‘‘कुछ और मंगाऊं क्या ?’’
‘‘नो थैंक्यू। शाम को कभी।’’
‘‘तो वह शाम कभी नहीं आने वाली।’’ कहती हुई वह इतराई और उठ खड़ी हुई। संजय ने टोका तो वह बोली, ‘‘डायलाग्स याद करने हैं और रूम रिहर्सल भी।’’
संजय आज विभा का खुश मूड देखते हुए कल की तरह फिर से उसे मिस नहीं करना चाहता था। सिगरेट जो वह कैजुअली पीता था फूंकते-झाड़ते उस के साथ-साथ हो लिया।
चलते-चलते विभा बोली, ‘‘सुना है आप एन॰ एस॰ डी॰ पर फीचर लिख रहे हैं ?’’
‘‘हां।’’
‘‘क्या-क्या फोकस कर रहे हैं ?’’
‘‘फोकस क्या प्राब्लम फीचर है। मेनली सुसाइड।’’
‘‘क्या मतलब ?’’ कहते हुए विभा लगभग बिदकी।
‘‘कुछ मदद करेंगी ?’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘कुछ जानकारी....।’’
‘‘सॉरी। मुझे माफ करिए। इस बारे में मैं कुछ मदद नहीं कर सकती आप की।’’
‘‘देखिए आप लखनऊ की हैं....।’’
‘‘तो ?’’ उस ने अजीब-सी नजरों से घूरा और बोली, ‘‘आप को ऐक्टिंग, नाटक, स्क्रिप्ट वगैरह के बारे में, यहां की पढ़ाई-लिखाई, रिहर्सल एटसेक्ट्रा आई मीन एकेडमिक प्वाइंट्स, डिटेल्स जानना हो तो जरूर बताऊंगी। फालतू बातें नहीं बताऊंगी।’’
‘‘आप के साथी मर रहे हैं। और आप इसे फालतू बता रहीं हैं।’’
‘‘हां।’’ कह कर वह चलते-चलते रुक गई। बोली, ‘‘मेरे लिए यह फिर भी फालतू है। मैं यहां पढ़ने आई हूं। एन॰ एस॰ डी॰ की पॉलिटिक्स डील करने नहीं।’’
‘‘पर मुश्किल क्या है ?’’
‘‘मुश्किल यह है कि मैं ने आप को गंभीर किस्म का पत्रकार मानने की भूल की। आप की कुछ रिपोर्टें और समीक्षाएं पढ़ी हैं मैं ने। पर आप मनोहर कहानियां ब्रांड रिपोर्टिंग भी करते हैं, यह नहीं जानती थीं। कहते-कहते वह चलने को हुई और बोली, ‘‘गुडबाई कहें ?’’
संजय के साथ एक दिक्कत यह भी हमेशा से रही कि अगर उस से कोई जरा भी तिरछा हो कर बोलता था उस से वह और तिरछा हो कर कट जाता था। चाहे वह लड़की ही क्यों न हो, चाहे वह संपादक ही क्यों न हो। उस का बाप ही क्यों न हो। सो जब विभा ने उस से कहा कि, ‘‘गुडबाई कहें ?’’ तो हालां कि उस के इस कहने में भी मिठास तिर रही थी पर संजय फिर भी फैल गया और ‘‘यस, गुड बाई’’ कहने की जगह, ‘‘हां, गुडबाई !’’ कह कर फौरन पलटा और सिगरेट फेंकते हुए ऐसे चल दिया गोया उस ने सिगरेट नहीं विभा को फेंका हो और उसे रौंदता हुआ चला जा रहा हो। जाहिर है विभा को ऐसी उम्मीद नहीं थी।
‘‘सुनिए।’’ वह जैसे बुदबुदाई।
पर संजय-चिल्लाया, ‘‘फिर कभी !’’ लगभग कैंटीन वाले अंदाज में। पर उस की बोली इतनी कर्कश थी कि दो तीन एनएसडियन जो उधर से गुजर रहे थे अचकचा कर ठिठके और उसे घूरने लगे।
विभा सकपका गई। और कमरे में भाग गई। संजय ने ऐसा रास्ता मुड़ते हुए कनखियों से देखा।
संजय फिर एन॰ एस॰ डी॰ नहीं गया। चार-पांच दिन हो गए तो उस पत्रिका के संपादक ने उसे फोन पर टोका कि, ‘‘एन॰ एस॰ डी॰ वाली रिपोर्ट तुम ने अभी तक नहीं दी ?’’
संजय को बड़ा बुरा लगा।
दूसरे ही क्षण वह खुद फोन घुमाने लगा। उस ने सोचा अब वह टेलीफोनिक रिपोर्टिंग क्यों न कर डाले। उस ने फटाफट एन॰ एस॰ डी॰ के चेयरमैन, डायरेक्टर समेत दो तीन लेक्चरर्स को फोन मिलाए। पर कोई भी फोन पर तुरंत नहीं मिला। लेकिन वह फोन पर जूझता रहा। आखि़र थोड़ी देर बाद डायरेक्टर मिले और एक दिन बाद का समय देते हुए कहा कि, ‘‘आप समझ सकते हैं फोन पर डिसकसन ठीक नहीं है। इत्मीनान से मिलिए।’’
संजय को निदेशक का इस तरह बतियाना अच्छा लगा। निदेशक शाह जो खुद भी एक अच्छे अभिनेता, निर्देशक तो थे ही कुछ नाटक भी लिखे थे उन्होंने। मिले भी वह बड़े प्यार और अपनेपन से। आधे घंटे की तय मुलाकात बतियाते-बतियाते कब दो घंटे से भी ज्यादा में तब्दील हो गई। दोनों ही को पता नहीं चला।
बिलकुल नहीं।
शाह बड़ी देर तक स्कूल की योजनाओं, परियोजनाओं, सिस्टम, इतिहास, तकनीक, रंगकर्मियों की विवशता, बेरोजगारी, दर्शकों की घटती समस्या, अल्काजी, शंभु मित्रा और कभी-कभार निवर्तमान निदेशक कारंत के बारे में बड़े मन और पन से बतियाते रहे। संजय उन की बातों में इतना उलझ गया कि मेन प्वाइंट छात्रों की आत्महत्या का सवाल बावजूद बड़ी कोशिश के वह बातचीत में शुमार नहीं कर पा रहा था।
तो क्या विभा का मनोहर कहानियां वाला तंज उसे तबाह किए हुए था ? या कुछ और था ? या कि शाह के वाचन से वशीभूत वह आत्महत्या वाले सवाल को बाहर लाने के बजाय भीतर ढकेलता जा रहा था ? आखि़र क्या था ? शायद यह सब कुछ था, गड्डमड्ड। पर तभी अनायास ही सवाल छात्रों की समस्याओं पर आ गया था तो शाह तौल-तौल कर कहने लगे कि, ‘‘मैं खुद चूंकि इस स्कूल का कभी छात्र रह चुका हूं। पढ़ाया भी यहां। चिल्ड्रन एकेडमी के बावजूद जिन्दगी यहां गुजारी है सो छात्रों की समस्याओं से भी ख़ूब वाकिफ हूं। और आप देखिएगा जल्दी ही कोई समस्या नहीं रह जाएगी। बिलकुल नहीं। बस बजट इतना कम है कि क्या बताऊं ?’’ वह कह ही रहे थे कि संजय पूछ ही बैठा, ‘‘पर आप के छात्र आत्महत्या क्यों करते जा रहे हैं ?’’
शाह बिलकुल अचकचा गए। उन्हों ने जैसे इस सवाल की उम्मीद नहीं की थी। शायद इसी लिए अकादमिक बातों को ही वह अनवरत फैलाते जा रहे थे। लेकिन आत्महत्या के सवाल पर वह सचमुच जैसे हिल से गए थे, ‘‘हमारे तो बच्चे हैं ये !’’ शाह जैसे छटपटा रहे थे। और संजय ने नोट किया कि उन की इस छटपटाहट में अभिनय नहीं कातरता थी, असहायता थी, आह थी और वह कठुआ से गए थे। साथ ही विह्नल भी। वह भावावेश में संजय के और करीब आ गए। और, ‘‘ये मेरे ही बच्चे हैं। मैं इन के बीच बैठ रहा हूं उन्हें सुन रहा हूं, समझ रहा हूं वन बाई वन।’’ जैसी भावुकता भरी बातें करते-करते अचानक जैसे उन का निदेशक पद जाग बैठा, ‘‘देखिए मुझे अभी दो महीने ही हुए हैं यह जिम्मेदारी संभाले। और यह आत्महत्याएं हमारे कार्यकाल में नहीं हुईं।’’ वह जरा रुके और संजय के करीब से हटते हुए कुर्सी पीछे की ओर खींच ली और बोले, ‘‘फिर भी मैं देखता हूं। आई विल डू माई बेस्ट।’’ कह कर उन्हों ने ऐसे सांस भरी कि संजय समझ गया कि अब और वह बातचीत के मूड में नहीं हैं। वह चलना चाहता था और निदेशक महोदय भी चाहते थे कि अब वह फूट ले। पर इसी बीच दुबारा काफी आ गई थी। और ‘‘नहीं-नहीं’’ कहते हुए भी उसे काफी पीने के लिए रुकना पड़ा। इस काफी का फायदा यह हुआ कि आत्महत्या प्रकरण से गंभीर और कसैले हुए माहौल को औपचारिक बातचीत ने कुछ सहज किया। इतना कि निदेशक महोदय उसे बाहर तक छोड़ने आए। हां, जो व्यक्ति उसे बाहर तक छोड़ने आया था वह शाह नहीं निदेशक ही आया था।
यह आत्महत्या प्रसंग की त्रासदी थी।
बाहर आया तो उस ने देखा कि कुछ एनएसडियन निदेशक के कमरे के बाहर जमघट लगाए पड़े थे और संजय को देखते ही वह सब के सब खिन्नता से भर उठे। पता लगा कि वह सभी कोई एक घंटे से वहां खड़े थे। और निदेशक से मिलने का उन का एप्वाइंटमेंट था। सो उन की खिन्नता संजय की समझ में आई। उस ने उन सब से माफी मांगी तो वह सब बड़ी हिकारत से बोले, ‘‘जाइए-जाइए।’’ और इस भीड़ में वानी और उपेंद्र भी थे। सो संजय को थोड़ी तकलीफ हुई। उस ने दुबारा, ‘‘सॉरी, वेरी सॉरी’’ कहा और बहावलपुर हाऊस से बाहर आ गया। बाहर निकलते-निकलते उस ने फिर पलट कर रिपोर्ट का मरा सा शीर्षक भी सोचा ‘‘बहावलपुर हाऊस के भीतर का सच’’ साथ ही उस ने सोचा कि शीर्षक तय करने वाला वह साला कौन होता है ? सोचते-सोचते उस का मन इतना कसैला हुआ कि बस स्टाप जाने के बजाय बगल से गुजर रहे आटो को रोक कर बैठ गया। पहले तो उस ने आटो वाले से आई॰ टी॰ ओ॰ चलने को कहा पर गोल चक्कर तक आते-आते बोला, ‘‘नहीं, यहीं बंगाली मार्केट।’’ आटो का ड्राइवर जो सरदार था भुनभुनाया। और एक भद्दी-सी गाली बकी। तो संजय ने उसे डपटा, ‘‘गाली क्यों बक रहे हो ?’’ तो वह ख़ालिस पंजाबी लहजे में बोला, ‘‘तेरे को थोड़े दे रहा, अपने नसीब को दे रहा। नसीब ही खोट्टा है जी अपना।’’ भुनभुनाया संजय भी अपने आप पर कि दो कदम की दूरी के लिए आटो लेने की क्या जरूरत थी। ख़ामख़ा पैसा बरबाद करने के लिए।
अलका-अजय के यहां जब वह पहुंचा तो अजय नहीं था। पर अलका थी। गजरा बांधे, इत्रा लगाए चहकी, ‘‘भीतर आ जाइए। अजय अभी आते ही होंगे।’’ वह भीतर जा कर सोफे के बजाय मोढ़े पर बैठ गया। अलका ने काफी के लिए पूछा तो संजय ने मना कर दिया। जब दुबारा उस ने काफी की रट लगाई तो बोला, ‘‘नहीं अभी पी कर आ रहा हूं।’’ तो भी अलका नहीं मानी शिकंजी बना लाई। शिकंजी पीते हुए संजय चहकती अलका से पूछ ही बैठा, ‘‘आज कोई ख़ास बात है क्या ?’’
‘‘नहीं तो !’’ कहते हुए उस ने चोटी से लटकता गजरा हाथों में ले लिया।
‘‘नहीं, कुछ तो बात है।’’
‘‘नहीं, कुछ ख़ास नहीं।’’ कहते हुए वह तनिक सकुचाई।
‘‘ख़ास न सही। यूं ही सही ?’’
‘‘आप तो बस पीछे ही पड़ जाते हैं।’’ कहते हुए वह उठी तो कलफ लगी उस की साड़ी फड़फड़ा उठी। अलका की साड़ी का रंग, उस पर कलफ, गजरा, फिर इत्रा और इस सब से ऊपर उस की मोहकता सब मिलजुल कर ऐसा कोलाज रच रहे थे कि सब कुछ सामान्य नहीं लगा रहा था। हालां कि अलका की मोहकता में हरदम सौम्यता झलकती थी, उस की सुंदरता में सादगी समाई रहती और चाल में सलीका, आज भी यह सब कुछ था पर इस सब के साथ हाशिए पर ही सही भावुक सी, कामुक सी शोखी भी आज अलका के अंगों से ऐसे फूट रही थी कि नीरज का लिखा वह फिल्मी गीत संजय की जबान पर आ गया तो उस ने अपनी आंखों में इसरार भरा और अलका से कहा, ‘‘आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन ! गीत तो आपने सुना ही होगा ?’’
अलका को संजय से ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी तो चिहुंकते हुए बोली, ‘‘क्या?’’ और लजा गई। बोली, ‘‘असल में हम और अजय आज ही के दिन मिले थे।’’
‘‘तो आज मैरिज एनिवर्सरी है ?’’
‘‘नहीं, नहीं।’’ वह इठलाई, ‘‘मतलब पहली बार मिले थे।’’
‘‘अच्छा-अच्छा।’’ कहते हुए संजय ने आंखें चौड़ी की और होंठ गोल।
‘‘पर आप प्लीज अजय से इस का जिक्र मत करिएगा।’’
‘‘क्यों ? आज तो बीयर क्या काकटेल उस की ओर से।’’
‘‘नहीं, आज यह सब नहीं। और देखिए फिर कह रही हूं कि अजय से इस का जिक्र नहीं करेंगे आप।’’ अलका आदेशात्मक लहजे में बोली।
‘‘पर क्यों ?’’ संजय उदासी का रंग जमाते हुए बुदबुदाया।
‘‘वो इस लिए कि देखना चाहती हूं कि अजय को भी यह दिन याद है कि नहीं।’’
‘‘ओह ! तो मुझे फूटना चाहिए।’’
‘‘क्यों ?’’ वह अचकचाई।
‘‘अरे भाई महाराज जी वाला हश्र मुझे याद है।’’
‘‘धत्, आप भी क्या बात ले बैठे। और आप वैसे थोड़े ही हैं।’’ कहते हुए जैसे वह अपने आप को निश्चिंत कर रही थी।
‘‘हूं तो नहीं। क्योंकि मुझे नृत्य नहीं आता। और कथक की मुद्राएं तो बिलकुल नहीं। पर यह मत भूलिए अलका जी कि मैं भी पुरुष हूं। और पुरुष की मानसिकता कोई बदल नहीं सकता।’’ कहते हुए संजय गंभीर होने लगा। वह आगे अभी और पुरुष मानसिकता पर अलका को ज्ञान देना चाहता था। पर अलका ने ही ब्रेक लगा दिया, ‘‘बस-बस ! अजय नहीं हैं सो आप अपनी रजनीशी फिलासफी पर विराम लगाइए। क्यों कि मैं इस पुरुष मानसिकता वाली बहस में उलझ कर मूड नहीं आफ करना चाहती।’’
‘‘आखि़र महिला मनोविज्ञान काम कर गया न ! और कर गई पलाबो।’’
‘‘ये पलाबो क्या है ?’’ वह जरा खीझी।
‘‘पलाबो !’’ वह बोला, ‘‘क्या है कि एक चुटकुला है।’’
‘‘तो इसे सुनाइए। कि मूड साफ हो। सारा मूड आफ कर दिया।’’
‘‘हद हो गई। मैं आप की सुंदरता की तारीफ कर रहा हूं। और आप का मूड फिर भी आफ हो रहा है। तो मैं तो चलूंगा।’’ कहते हुए संजय उठने लगा तो अलका लगभग नृत्य मुद्रा में आ गई। जैसे शिव का तांडव करने जा रही हो। पर दूसरे क्षण जाने क्या हुआ कि उस ने बड़ी नरमी से संजय का हाथ पकड़ कर उसे बिठा दिया और बोली, ‘‘यस पलाबो !’’
उस के स्पर्श में इतनी मादकता थी कि संजय का मन हुआ कि वह अलका को पकड़ कर चूम ले। पर उसे अजय का ख़याल आ गया। नैतिकता का ख़याल आ गया। एक पुरानी कहावत याद आ गई कि ‘‘डायन भी सात घर छोड़ देती है।’’ हालां कि अलका भी उस की दोस्त थी। पर अजय भी दोस्त था। और संजय इतनी नैतिकता तो निभाना जानता था। हालां कि वह देह संबंधों के मामले में ऊपरी तौर पर इस तरह की नैतिकता का मापदंड नहीं स्वीकारता था और रजनीश दर्शन का कायल था पर भीतरी और पारिवारिक संस्कार फिर भी आड़े आ जाते थे। यहां भी आ गया। फिर उस ने सोचा कि अलका आज उसे सुंदर लग रही है और अगर उसे चूमने की उस की इच्छा इतनी ही प्रबल है तो अभी जब अजय आ जाएगा तो वह अजय से कह देगा कि भई आज अलका बहुत ही सुंदर लग रही है और मैं उसे चूमना चाहता हूं। बिलकुल नैसर्गिक सौंदर्य की तरह। और वह यह जानता था कि अजय सहर्ष उसे चूमने देगा, मना नहीं करेगा। सपने में भी नहीं।
पर क्या अलका भी इस तरह उसे चूमने देगी ?
संजय ने सोचा। उस ने इस पर भी सोचा कि क्या जैसा कि वह अभी जैसे सोच रहा है वैसे ही निश्छल हो कर अजय से सचमुच यह कह सकेगा, कि ‘‘मैं अलका को चूमना चाहता हूं।’’ और कि क्या सब कुछ वैसे ही हो जाए जैसा कि वह सोच रहा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि कल को उस की इच्छा अलका के साथ सोने की न हो जाए ? परसों कहे कि, ‘‘चलो तुम हटो, कहीं और जा कर रहो। अब यहां मैं अलका के साथ रहना चाहता हूं।’’
क्या पता ?
कुछ भी हो सकता है। और सहसा संजय को अपने पर, अपनी इस सोच पर इतनी शर्म आई कि उसे लगा कि फिलहाल तो उसे कहीं चिल्लू भर पानी ढूंढ़ना चाहिए और उस में डूब मरना चाहिए। वह यह सब सोच ही रहा था कि अलका पहले उदास हो कर फिर बिंदास हो कर बोली, ‘‘यस-यस पलाबो।’’ और सोफे से उठ कर दूसरा मोढ़ा ले कर संजय के एकदम सामने आ कर बैठ गई। व्यंग्य के लहजे में बोली ‘‘लेबिल बराबर कर दिया है। अब तो कोई दिक्कत नहीं है।’’ वह बेफिक्र-सी हंसती हुई फिर उच्चारने लगी ‘‘यस-यस पलाबो।’’ उस ने दुहराया, और जरा जोर से ‘‘ओह यस !’’ बिलकुल ठसके के साथ। उस के हाथों में उस के बालों में गुंथा गजरा फिर खेलने लगा था। और वह रह-रह कर, ‘‘यस-यस पलाबो’’, ‘‘ओह यस’’ जैसे शब्द उच्चारती हुई कहती जा रही थी, ‘‘अब तो लेबिल में आ गए हैं भई।’’
‘‘लेबिल’’ और ‘‘ओह यस’’, ‘‘ओह यस’’ कह-कह वह जैसे संजय का मन सुलगाए दे रही थी। मन के भीतर ही भीतर उस की नैतिकता की दीवार रह-रह ढह रही थी, रह-रह गिर रही थी बतर्ज दुष्यंत कुमार, ‘‘मैं इधर से बन रहा हूं, मैं इधर से ढह रहा हूं।’’
‘‘लेबिल’’ में तो ऐसी कोई बात नहीं थी। अक्सर संजय और अजय पीते-पीते चौथे-पांचवें पेग के बाद इस ‘‘लेबिल’’ पर आ जाते थे। संजय कभी अजय से कहता कि, ‘‘तुम्हारी कम है,’’ तो कभी अजय संजय से कहता, ‘‘तुम्हारी कम है।’’ तो ‘‘लेबिल’’ में लाने की बात चल पड़ती। और अंततः ‘‘लेबिल’’ दोनों गिलासों को मिला कर अलका तय करती। क्यों कि दोनों एक-दूसरे से कहते, ‘‘तुम्हें चढ़ गई है,’’ ‘‘तुम साले बदमाशी कर रहे हो।’’ और एक बार तो अजय ने हद ही कर दी। उस ने चीख़ कर कहा, ‘‘अलका ! तू संजय का फेवर कर रही है।’’ सुन कर संजय तो चौंका ही आम तौर पर बात चीत में अंगरेजी नहीं बोलने वाली अलका भी चीख़ पड़ी, ‘‘ह्वाट यू मीन?’’ तो अजय आधे सुर पर आ गया, ‘‘जरा तुम भी आधा सुर कम कर लो और लेबिल में आ जाओ।’’ कह कर वह हंसा, ‘‘संजय के गिलास में कम है और तुम लेबिल में बता रही हो।’’
अलका फिर भी नहीं मानी और कहती रही कि ‘लेबिल में है !’ लेकिन अजय भी नहीं मानने वाला था। उस ने चम्मच मंगवाई और चम्मच-चम्मच ह्निस्की नपवाई। सचमुच संजय के गिलास में चार कि पांच चम्मच ह्निस्की कम निकली। और अजय ने घूरते हुए अलका की ओर देखा और बोला, ‘‘यस मैडम ?’’
अलका जैसे सफाई देने पर उतर आई। कहने लगी, ‘‘वो तो इस लिए कि मैं जानती हूं इन को दूर जाना है। सही सलामत घर पहुंच जाएं और क्या ?’’ वह बिफरी, ‘‘तो इसमें फेवर क्या हो गया ?’’
संजय ने देखा जरा सी बात चीत दोनों में झगड़े के बदल रही थी। उस ने पहले सोचा कि अब फूट ले। लेकिन जाने क्या हुआ कि बोल पड़ा, ‘‘तुम लोगों की चिक-चिक से मेरा सारा नशा काफूर हो गया। अब एक पटियाला और बनाते हैं।’’ फिर तो उस दिन जो पटियाला पैग चला तो रात के दो बज गए। और वह दोनों तभी उठे जब बोतल ने दगा दे दिया। मतलब पूरी डेढ़ बोतल दोनों ने डकार ली थी।
‘‘तो चलते हैं भई।’’ कह कर संजय उठा और दरवाजे पर पहुंचते-पहुंचते लुढ़क कर गिर गया। अलका ने उसे दौड़ कर उठाया और बुदबुदाई, ‘‘इतनी पीने की क्या जरूरत थी ?’’ वह जैसे नाराज थी। संजय लाख नशे के बावजूद बड़ा शर्मिंदा हुआ अपने इस लुढ़कने पर। वह जल्दी से जल्दी भाग लेना चाहता था वहां से। पर पैर थे कि भागना हीं नहीं चाहते थे। या कि शायद चाह कर भी भाग नहीं पा रहे थे। जो भी हो वह थोड़ी दूर ही चला कि पीछे से अजय, ‘‘संजय-संजय’’ पुकारता मिला। संजय रुक कर वहीं सड़क पर बैठ गया। पालथी मार कर। अजय हांफता हुआ आया और वह भी वहीं पालथी मार कर बैठ गया। संजय कुछ नशे में, कुछ भावुकता में बोला, ‘‘क्या बात है डियर ?’’
‘‘तुझे अकेले नहीं जाने दूंगा। तुम्हारी हालत ठीक नहीं है। मैं पहुंचा आता हूं। उठ!’’ अजय बांह पकड़ कर संजय को उठाने लगा।
‘‘नहीं मैं चला जाऊंगा।’’
‘‘मैं छोड़ आता हूं। तू एक मिनट घर चल।’’
‘‘एक पेग और नहीं मिल सकती कहीं से ?’’ वह वापस अजय के घर जा कर बोला, ‘‘बस एक पेग !’’ कहते हुए वह फिर ढप से फर्श पर ही बैठ गया। अब तक अलका पूरी तरह बोर हो गई थी। और अजय उस से लैंब्रेटा की चाभी पूछ रहा था, ‘‘कहां है, बता तो सही।’’ और अलका का कहना था कि एक तो छोड़ने मत जाओ। दूसरे जो जाओ तो स्कूटर से कतई नहीं। नहीं दोनों मर जाओगे। पर अजय मान नहीं रहा था। अचानक अलका धम-धम करती संजय के पास आई और जाहिर है धम-धम करती हुई किसी नृत्य मुद्रा में नहीं आई और धम-धम स्टाइल में ही बुदबुदाई और बौराई हुई, ‘‘तुम तो कुंवारे हो पर मुझे क्यों विधवा बनाने पर तुले हो ?’’ सुनते ही जैसे सांप सूंघ गया संजय को। और उस ने मुगले आजम के पृथ्वीराज कपूर स्टाईल में ऐलान कर दिया कि ‘‘वह अजय के साथ नहीं जाएगा। और जाएगा भी तो स्कूटर से कतई नहीं।’’ अजय पर इस ऐलान का असर पड़ा। और उस ने पायज़ामा उतार कर जींस पहनते हुए हवाई चप्पल उतार कर कोल्हापुरी पहनी और बाहर आ गया। दरवाजा बंद करते हुए अलका ने कहा, ‘‘संजय तुम यहीं क्यों नहीं सो जाते ? इस तरह जाने से तो अच्छा ही था !’’ पर संजय अलका की बात अनसुनी करते हुए अजय से पूछ रहा था, ‘‘एक पेग कहीं से और नहीं मिल सकती।’’ कहते हुए वह लगभग लहरा रहा था और बोल रहा था, ‘‘प्लीज ! एक पेग !’’ उस के एक-एक शब्द में नशा था। और अजय बोले जा रहा था, ‘‘मिलेगा डियर, मिलेगा एक नहीं दो पेग।’’
‘‘जाओ, अब तुम दोनों लेबिल में हो।’’ कहते हुए अलका ने भड़भड़ा कर दरवाज़ा बंद कर लिया। हालां कि उस रात तुरंत वहां कोई सवारी नहीं मिलने के कारण वह दोनों कहीं गए नहीं। पास ही सड़क पर एक बिजली के खंभे से पीठ टिका-टिका कर दोनों बैठे सिगरेट फूंकते रहे और नाटक, शायरी, सेक्स, बचपन और अंततः अपनी-अपनी बेचारगी बतियाते-बतियाते दोनों ने वहीं सुबह कर दी थी।
उस रात अजय बड़ी देर तक मैकबेथ के डायलाग्स सुनाता रहा कई-कई अंदाज में। डायलाग्स सुनते-सुनते संजय दुष्यंत कुमार के शेर सुनाने लग गया। फिर जाने कब फिल्मी गानों पर बात आ गई और दोनों गाने क्या गुनगुनाने लगे। एक बार हेमंत के गाए किसी गीत पर झगड़ा हो गया कि साहिर ने लिखा है कि शैलेंद्र ने। झगड़ा निपट नहीं रहा था कि संजय ने फिर एक गीत छेड़ दिया, ‘‘न हम तुम्हें जाने न तुम हमें जानो मगर लगता है कुछ ऐसा, मेरा हमदम मिल गया।’’ लेकिन इस गाने पर भी झगड़ा बना रहा कि फिमेल वायस सुमन कल्याणपुर की है कि लता मंगेशकर की ? और बात सेक्स पर आ गई। दोनों अपने-अपने किस्से बताने लगे। जाहिर है अजय के पास सेक्स का अनुभव ज्यादा था। वह एक अफसर की बीवी के बारे में बताने लगा जिसे ऐक्टिंग का शौक था। कि कैसे जब उस का हसबैंड बाहर टूर पर जाता था तो वह उसे बुलवा भेजती। और उस तीन चार घंटे में ही जब तक तीन चार बार सवार नहीं होता वह नहीं छोड़ती थी। चूस लेती थी साली पूरी तरह। संजय इस पर बिदका, ‘‘ बड़े चूतिया हो। तुम तीन चार घंटे में तीन चार बार उस पर क्या चढ़ते थे लगता है जैसे एहसान करते थे। अरे, मुझसे कहते मैं एक घंटे में ही तीन चार बार चढ़ जाता।’’ सुन कर अजय बोला, ‘‘बेटा जब शादी हो जाएगी तब समझेगा। अभी जबानी-जबानी एक घंटे में तीन चार बार जो करता है वह तीन चार दिन में एक बार हो जाएगा।’’
पर संजय यह मानने को तैयार नहीं था। उस ने अपना अनुभव बखाना कि, ‘‘आधे घंटे में ही वह तीन अटेंप्ट ले चुका है। और कम से कम ऐसा छ-सात चांस।’’
अजय हंसा, ‘‘तो बस कबड्डी-कबड्डी। गया और आया। आया और गया।’’ वह थोड़ा रुका और बोला, ‘‘यह कब की बात कर रहा है तू ? पंद्रह-सोलह साल की उम्र की तो नहीं ?’’
‘‘एक्जेक्टली।’’
‘‘हां, वही कहूं। तो अब कर के दिखा।’’
‘‘कोई मिले तब न।’’
‘‘अच्छा तो इसी लिए एन॰ एस॰ डी॰ के फेरे मार रहा है ?’’ घूरते हुए अजय हंसा।
‘‘नहीं, नहीं वहां तो बस प्रोफेशनली।’’
‘‘तो ठीक है। नहीं मर जाएगा साले।’’ फिर जाने क्या उसे सूझी कि वह ब्लू फिल्मों के फ्रेमों के बारे में बतियाते-बतियाते बताने लगा कि वह दो तीन बार अलका को भी ब्लू फिल्में दिखा चुका है। घर पर ही वी॰ सी॰ आर॰ किराए पर लाकर। और वह बड़े डिटेल्ड ब्यौरे में चला गया कि शुरू में अलका कैसे सुकुचाई। शुरू में तो उस ने चद्दर से मुंह ढक लिया। फिर धीरे-धीरे देखने लगी। देखते-देखते अमल भी करने लगी। पहले ‘‘सक’’ नहीं करती थी अब ‘‘सकिंग’’ में मुझ से ज्यादा उसे मजा आता है। और तो और क्लाइमेक्स के क्षणों में ब्लू फिल्मों की औरतों की तरह वह बाकायदा ‘‘ओह यस, ओह यस,’’ भी करती रहती है। बताते-बताते अजय कहने लगा, ‘‘सच डियर सेक्स लाइफ का मजा ही बढ़ गया है।’’
‘‘अच्छा !’’ संजय ने ठेका लगाया।
‘‘पर यार, एक झंझट हो गई एक बार।’’
‘‘क्या ?’’ संजय ने चकित होकर पूछा।
‘‘एक दिन अलका पूछने लगी तुम्हारा छोटा क्यों है ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘पेनिस।’’
‘‘अच्छा-अच्छा। तो सचमुच छोटा है तुम्हारा ?’’
‘‘नहीं भाई।’’ वह जरा रुक कर पीठ खुजलाने लगा और बोलता रहा ‘‘पहले तो उस का सवाल सुन कर मैं भी चौंका। पर दूसरे ही क्षण ठिठोली सूझी और पूछ लिया कि कितना बड़ा-बड़ा झेल चुकी हो। तो वह लजा कर मुझ से लिपट गई और बोली, ‘‘धत्।’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ संजय ने उत्सुकतावश पूछा।
‘‘होना क्या था। बहुत कुरेदने पर वह कसमें खाने लगी कि किसी का नहीं देखा, न ही ऐसा कोई अनुभव उसे है।’’ अजय अब जांघें ख़ुजलाने लगा था, ‘‘तो मैंने डपट कर पूछा कि फिर तुम्हें कैसे पता चला कि मेरा छोटा है ?’’ वह रुका और संजय की निंदियाई, अलसाई और नशाई आंखों में झांक कर कहा, ‘‘जानते हो उस ने क्या जवाब दिया।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘वह एकदम मासूम हो गई और शरमाती सकुचाती हुई बोली, ब्लू फिल्मों से। उस ने किसी हब्शी का देखा था।’’
‘‘ओह यस !’’ जोर से बोलते हुए संजय ने तब ठहाका लगाया था।
संजय के ठहाके के साथ ही पौ फट गई थी।
‘‘बहुत दिनों बाद ऐसी सुबह देख रहा हूं।’’ संजय बोला तो अजय ने भी हामी भरी, ‘‘मैं ने भी।’’ चलते-चलते संजय ने अजय से ठिठोली की, ‘‘घबराओ नहीं। ऐसा होता है और इत्तफाक से मेरा बड़ा है।’’ कहते हुए वह मजाकिया हुआ, ‘‘जरूरत पड़े तो बोल देना। बंदा तैयार मिलेगा।’’ अजय ने भी संजय की बात को मजाक में ही लिया, ‘‘भाग साले कबड्डी-कबड्डी। तेरी तो....।’’ संजय ने मजाक जारी रखा और अजय से कहा ‘‘ज्यादा मायूस मत हो। ऐसा बहुतों के साथ होता है। ले इसी बात पर एक सरदार वाला चुटकुला सुन।’’
‘‘सुना क्या है ?’’
‘‘सच।’’
‘‘हां, सुना डाल।’’ कहते हुए अजय ने बड़ी जोर से हवा ख़ारिज की। गोया कोई कपड़े का थान फाड़ रहा हो।
संजय का मूड आफ हो गया। क्योंकि रात भर तो रह-रह कर अजय थान फाड़ ही रहा था, अब चलते-चलते भी उस ने सुबह ख़राब कर दी थी। हालां कि रात भर रह-रह कर या तो अजय हवा ख़ारिज कर मूड ऑफ करता था तो कभी आती-जाती रेलगाड़ियां। अजय तो ख़ैर यहीं घर होने के नाते इन रेलगाड़ियों के आने-जाने का आदी था पर संजय को रह-रह कर यह आती जाती रेलगाड़ियां बहुत डिस्टर्ब करती रहीं। इतना कि उसे अनायास ही एम॰ के॰ रैना के उस करेक्टर की याद आ गई जो उन्हों ने रमेश बक्षी की कहानी वाली 27 डाऊन फिल्म में किया था। जिस में वह करेक्टर अपनी भैंस जैसी पगुराती बीवी से पिंड छुड़ाने की गरज से लगातार भागता रहा है और उस का सारा तनाव चलती रेलगाड़ी की गड़गड़ाहट में गूंजता रहा है। फिल्म का यह पूरा फ्रेम इतना बढ़िया बन पड़ा था कि सचमुच दर्शक भी उस तनाव की आंच उसी शिद्दत से महसूस कर सकता था। पर बंगाली मार्केट में रेल पटरी के पास की इस सुनसान सड़क पर आती-जाती रेलगाड़ियां तनाव नहीं मन में खीझ भर रही थीं। तिस पर अजय की रह-रह यह हवा ख़ारिज करने की आदत ! संजय सोचने लगा कि लोग इस बेशरमी से सब के सामने कैसे पाद लेते हैं ? और अजय की यह आदत बेचारी अलका कैसे बर्दाश्त करती होगी? उसे अपने से ज्यादा अलका की परेशानी की चिंता हुई। कि उसे इस कमबख़्त के साथ रात-दिन गुजारना रहता है। दाढ़ी तो बेचारी झेल लेती होगी पर यह पादना ? अभी संजय इस चिंता में दुबला हुआ ही जा रहा था कि अजय ने उसे टिपियाया, ‘‘अबे सरदार वाला किस्सा सुना न ?’’
‘‘किस्सा नहीं चुटकुला ! पर है नानवेज।’’
‘‘वही। वही।’’ उस ने जोड़ा, ‘‘तो प्रोसीड !’’
‘‘तो सुन’’ कह कर उसे मन हुआ कि वह भी जोर से पाद दे। पर ऐसा वह नहीं कर सका। कर भी नहीं सकता था। सो बोला, ‘‘एक सरदार जी की शादी हुई। विदाई के बाद सुबह दुलहन ले कर घर आए। घर में भीड़ बहुत थी पर बीवी से मिलने को बेताब सरदार जी ने युक्ति यह निकाली की बीवी को बाजार घुमा लाएं। सो बाजार में बीवी के हाथ में हाथ डाले घूम रहे थे। एक जगह जरा उन्हें मजाक सूझा। पैंट की दोनों जेबें ब्लेड से काट डालीं। और सरदारनी से जेब में हाथ डालने को कहा। सरदारनी ने जेब में हाथ डाला तो जेब फटी थी तो सीधे ‘‘वही’’ हाथ में आ गया। सरदार जी को मजा आ गया। फिर सरदार जी को सरदारनी पर रौब गालिब करने की सूझी। उन्हों ने शरमाते हुए दूसरी जेब में भी हाथ डलवा दिया। और फिर वही ‘‘घटना’’ घटी। सरदार जी ने सरदारनी पर रौब जमाते हुए कहा, ‘‘देखा, दो-दो है।’’ सरदारनी ने शरमा कर चुन्नी होंठों में दाब ली। इस तरह सरदार जी ने सरदारनी पर रौब तो गालिब कर लिया। पर दूसरे ही क्षण उन्हें रात की चिंता सताने लगी। कि रात को वह सरदारनी को कहां से दो-दो दिखाएंगे ?’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ अजय ने जम्हाई लेते हुए पूछा।
‘‘साले, सुन तो सही। अब तेरा वाला मामला आ रहा है।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘पूरा चुटकुला सुनना हो तो सुन नहीं मैं चलूं।’’ संजय ने अजय पर धौंस जमाई।
‘‘नहीं-नहीं सुना। अब नहीं बोलूंगा।’’
‘‘तो सरदार जी परेशान थे ही कि रात को कहां से दो-दो दिखाएंगे सरदारनी को। कि तब तक उन का दोस्त एक दूसरा सरदार बाजार में दिख गया। उसे उन्होंने बुलाया। उस ने कुछ पैसा पहले ही से सरदार जी से उधार ले रखा था। सो सरदार जी के रौब में भागा-भागा आया। सरदार जी उस दूसरे सरदार को सरदारनी से थोड़ी दूर एक कोने में ले गए। और उसे लगे हड़काने। वह हाथ पैर जोड़ने लगा। सरदार जी का काम हो गया था। सो वह उसे बख़्श कर सरदारनी के पास आ गए। सरदारनी ने पूछा, ‘‘कि गल है?’’ सरदार जी ने बड़ी मासूमियत से सरदारनी को बताया, ‘‘अपना यार है। हमारे पास जो ‘‘दो’’ हैं उस के पास ‘‘एक’’ भी नहीं है। सो एक मांग रहा था।’’ तो सरदारनी ने पूछा, ‘‘तुम ने क्या किया ?’’ सरदार जी बोले, ‘‘करना क्या था, यार है मदद कर दी उस की। एक उस को दे दिया।’’ सरदारनी बोली, ‘‘बड़े रहमदिल हो जी आप।’’ और मुसकुरा कर चुन्नी फिर होंठों से दबा ली।’’ कह कर संजय जरा रुका तो अजय कहने लगा, ‘‘इस में चुटकुला क्या हुआ?’’
‘‘अबे अभी ख़त्म कहां हुआ ?’’ संजय बोला।
‘‘बड़ा लंबा है ?’’
‘‘हां। और चुपचाप सुन अब ख़त्म होने वाला है। बोलना नहीं।’’
‘‘हां, सुना भई।’’
‘‘तो सरदार जी का बिजनेस था।’’ वह रुका और बोला, ‘‘तेरी तरह।’’ और दोनों हंसे। फिर संजय बोला, ‘‘सरदार जी एक बार बिजनेस टूर पर गए। काफी दिन हो गए लौटे नहीं। ऊपर से फोन कर-कर के सरदारनी को सताते रहते। सरदारनी को सरदार जी की तलब लगने लगी। इसी बीच एक दिन वह दूसरे सरदार जी जो पहले बाजार में मिल गए थे इन के घर आए। सरदारनी को लगा मौका अच्छा है। और इन के पास भी जो है वो भी अपने सरदार जी का ही है। कोई हर्ज नहीं। सो वह दूसरे सरदार के साथ स्टार्ट हो गईं। अब यह दूसरे सरदार जी सरदारनी की सेवा में रोज आने लगे। कुछ दिन बाद सरदारनी के असली सरदार बिजनेस टूर से वापस आ गए। रात में सरदारनी से इधर-उधर की जब हांकने लगे तो सरदारनी से रहा नहीं गया। वह सरदार से बोली, ‘‘जी तुम निरे बेवकूफ हो। बिजनेस क्या करोगे ?’’ सरदार जी भौंचक्के रह गए। बोले, ‘‘हुआ क्या ?’’ सरदारनी बोली, ‘‘तुम से बड़ा बेवकूफ कौन होगा जी। तुम अपना बड़ा सामान तो दोस्त को दे देते हो और छोटे से अपना काम चलाते हो।’’
‘‘ओह यस।’’ सुन कर अजय झूम गया। बोला, ‘‘मजा आ गया।’’
‘‘तो चलूं ? कि अभी एकाध बम बाकी है तुम्हारा ?’’
‘‘नहीं-नहीं जाओ।’’ अजय झेंपते हुए बोला, ‘‘अब सुबह भी हो गई है।’’ सुबह सचमुच हो गई थी।
‘‘ओह यस !’’ जब अलका फिर बोली तो संजय के मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘ह्वाट ?’’
‘‘यस पलाबो।’’ वह चहकी।
‘‘अच्छा-अच्छा।’’ कह कर उस ने कहा, ‘‘पहले एक शिकंजी और हो जाए ?’’
‘‘हां, हां बिलकुल।’’ और अलका शिकंजी बनाने में लग गई।
संजय सोचने लगा कि अलका को हो क्या गया है। जो बार-बार ‘‘ओह यस, ओह यस,’’ उच्चार रही है बेझिझक और उसी ब्लू फिल्म वाले अंदाज में। क्या वह उसे आमंत्राण दे रही है ? उस ने सोचा। लेकिन उस को अपनी सोच पर एक बार फिर शर्म आई और घिन भी। उस ने मन ही मन में कहा, नहीं अलका ऐसी नहीं है। चीप और चालू नहीं है। उस ने सोचा। फिर यह भी सोचा कि क्या पता अजय का सचमुच ‘‘छोटा’’ हो। बहुत छोटा। हो सकता है। कुछ भी हो सकता है। पर अलका फिर भी ऐसी नहीं हो सकती।
‘‘लीजिए।’’
‘‘आयं।’’ संजय चिहुंका। अलका शिकंजी का गिलास लिए खड़ी थी। संजय ने गिलास ले लिया और अलका ‘‘ओह यस’’ या ‘‘यस पलाबो’’ कहती कि संजय ने चुटकुला शुरू कर दिया, ‘‘मिलेट्री में सिख रेजीमेंट का नाम तो सुना ही होगा।’’ वह कह ही रहा था कि अलका पीछे मुड़ी और संजय की नजर उस के नितंबों पर अनायास ही पड़ गई। अब तो वह बिलकुल ही पीछे से ही पकड़ कर चूम लेना चाहता था पर अलका तब तक फिर पलट कर मोढ़े पर बैठने लगी। बैठती हुई बड़े बेमन से बोली, ‘‘सरदारों वाला चुटकुला है तो रहने दीजिए। अजय को ही सुनाइएगा।’’
‘‘क्यों ?’’ संजय की आंखों में इसरार था।
‘‘वैसे ही।’’ वह झिझकती हुई बोली।
‘‘नहीं-नहीं घबराइए नहीं। यह नानवेज नहीं है। और सरदारों वाला मिजाज भी नहीं है।’’ संजय ललचाती नजरों से उसे देखते हुए बोला। वह यह तो समझ ही गया था कि अजय अलका को वह सरदार जी वाला चुटकुला सुना चुका है। और यह भी समझ गया था कि अजय ने यह भी बता रखा है कि संजय ने सुनाया है। इस बीच उस ने देखा अलका कुछ असुरक्षित-सी महसूस करते हुए बार-बार पल्लू खींचती जा रही थी। उस का गजरा भी इस फेर में गड़बड़ाता जा रहा था। संजय समझ गया कि अलका उस की ललचाई नजरों का अर्थ समझ गई है। सो वह अपनी गंभीरता की सर्द खोल में वापस आ गया। निर्विकार भाव से उस ने चुटकुला शुरू किया, ‘‘बीच लड़ाई में सिख रेजीमेंट का कमांडर अपनी सिख बटालियन से बिछड़ गया। खोजते-खोजते वह बंगाल रेजीमेंट से जा मिला। उधर बंगाल रेजीमेंट से भी उस का कमांडर बिछड़ गया था तो तय हुआ कि सिख रेजीमेंट का कमांडर बंगाल रेजीमेंट की कमान संभाल ले। और लड़ाई में अमूमन कमांडर बटालियन के पीछे रहता है। और आगे की पोजीशन पूछता हुआ जरूरी आदेश देता रहता है। यहां भी यही हुआ। सिख रेजीमेंट का कमांडर पीछे से लगातार दुश्मन की पोजीशन पूछता रहता था। बंगाल रेजीमेंट के जवान लगातार दुश्मन की पोजीशन बताते और पूछ लेते, ‘‘पलाबो ?’’ सिख रेजीमेंट के कमांडर को बंगाली नहीं आती थी। सो उस ने मन ही मन सोचा कि हो न हो पलाबो का मतलब फायरिंग से हो। सो जब जवान बताते, ‘‘दोसमन दोसमन एक हजार मीटर ! पलाबो ?’’ तो कमांडर बोलता, ‘‘नो पलाबो।’’
‘‘दोसमन दोसमन पांच सौ मीटर, पलाबो ?’’ जवान बताते और कमांडर कहता, ‘‘नो पलाबो।’’ सिलसिला चलता रहा। अंततः जवानों ने जब कहा कि ‘‘दोसमन दोसमन सौ मीटर पलाबो ?’’ तो कमांडर बोला, ‘‘यस पलाबो !’’ और कमांडर का ‘‘यस पलाबो!’’ बोलना था कि सारे के सारे जवान पीछे की ओर भाग लिए। पलाबो बंगला का शब्द है और पलाबो मतलब भाग लेना। तो उन जवानों की योजना ही शुरू से भाग लेने की थी।’’ चुटकुला सुनते ही अलका खिलखिला कर हंस पड़ी बोली, ‘‘मजा आ गया।’’ वह बिलकुल अजय की तरह बोली।
‘‘मजा क्या ख़ाक आ गया ?’’ सजंय ने अलका से कहा कि, ‘‘अपने देश में ज्यादातर पढ़ी लिखी औरतों का भी यही हाल है कि पलाबो।’’
‘‘नहीं, मैं नहीं मानती।’’ अलका बिलकुल किसी फिलासफर की तरह बोली। और गंभीर हो गई।
‘‘अब देवी जी आप मानिए न मानिए। कोई जबरदस्ती तो है नहीं। पर दरअसल हकीकत यही है कि औरतें चीजों को फेस करने के बजाय, जाने क्यों भाग लेने में ही भलाई समझती हैं।’’
‘‘नो। बिलकुल नहीं।’’
‘‘कैसे नहीं ?’’ संजय बोला, ‘‘आप अपने ही को ले लीजिए। दिल्ली आईं कथक सीखने के लिए। और नृत्य के एक ठेकेदार को नहीं झेल सकीं। न झुक सकीं, न लड़ सकीं। पलाबो कर गईं।’’
‘‘संजय ! क्या ले बैठे ?’’ वह रूआंसी सी हुई और बोली, ‘‘आप भी !’’
‘‘नहीं अपने देश की महिलाओं का इतिहास ही यही रहा। रानी पद्मावती का ही किस्सा ले लीजिए।’’ संजय अब चालू हो गया था, ‘‘बीस हजार रानियों के साथ जौहर व्रत लिया और चिता में कूद कर जल मरीं।’’ संजय खीझ रहा था, ‘‘अरे मरना ही था तो जल कर क्यों ? लड़ कर क्यों नहीं मर सकती थीं ? और हो सकता था लड़ कर मरती नहीं मार देतीं उस आक्रमणकारी को।’’
‘‘वीर रस में आने की जरूरत नहीं है प्रभु ! आधे सुर में भी काम चल सकता है।’’ कहते हुए अलका बोली, ‘‘औरतों पर आक्षेप लगाना और बात है, परिस्थितियों को जानना और बात है।’’ कह कर अलका जरा रुकी और बोली, ‘‘पर मैं अभी डिवेट के मूड में नहीं हूं। फिर कभी।’’
‘‘फिर कभी क्या, कभी नहीं। हरदम पलाबो।’’ वह अलका को एक बार फिर भरपूर नजरों से देखता हुआ बोला, ‘‘शायद इसी लिए लोहिया ने भी औरतों को दलित कहा है।’’
‘‘यह लोहिया कौन है ?’’ अलका बिसूरती हुई पूछ बैठी, ‘‘जो औरतों को दलित कहता है।’’ सुन कर संजय ने माथा पीट लिया और हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘आप मार्क्स को जान सकती हैं माओ, लेनिन और मैक्सिम गोर्की को जान सकती हैं। उन की किताबें पढ़ सकती हैं। पर लोहिया का नाम भी नहीं जान सकतीं। धन्य हैं आप नृत्यांगना जी। धन्य हैं।’’ कह कर संजय ने अलका से आज्ञा मांगते हुए कहा, ‘‘तो मैं अब चलूं ?’’
‘‘नहीं रुकिए। अजय आते होंगे।’’
‘‘नहीं, अब चलूंगा।’’ कह कर संजय चलने लगा तो अलका बोली, ‘‘अब की रक्षा बंधन पर आप मुझ से राखी बंधवा लीजिए।’’
‘‘क्या मतलब।’’ संजय भड़का।
‘‘नहीं, आदमी तो आप अच्छे हैं पूरा विश्वास भी है आप पर। लेकिन कभी-कभी देखती हूं कि आप भी पुरुष मानसिकता से संचालित होने लगते हैं तो ठीक नहीं लगता।’’ सुन कर संजय लजा गया। बोला, ‘‘सॉरी।’’
‘‘नहीं कोई बात नहीं। प्लीज, आप माइंड नहीं करिएगा।’’
‘‘अरे नहीं, नहीं।’’ कहता हुआ संजय बाहर आ गया। बाहर क्या आ गया, उसे लगा जैसे वह भहरा गया। सोचने लगा कि कोई औरत लोहिया को जाने न जाने पुरुष की आंखों में छुपे अर्थ जरूर जान जाती है। फर्क यही है कि कहीं चुप रहती और कहीं कह देती है।
और लोहिया ? गांधी ? लोहिया और गांधी ? कि गांधी और लोहिया ? लोहिया ने तो औरतों की स्थिति के बारे में लिखा, पर अपनी ‘‘औरतों’’ के बारे में कहीं लिखा नहीं। इलाहाबाद की उन श्रीमती पूर्णिमा बनर्जी के बारे में भी नहीं। जिन से कहते हैं कि उन का विवाह होते-होते रह गया था ! हालां कि लोहिया के प्रति आर्किर्षत स्त्रिायों की संख्या अच्छी ख़ासी थी। फिर भी वह ‘अविवाहित’ रहे। तब जब कि वह सुंदरता के तलबगार थे। सुंदरता के रसिक पुजारी ! हां, गांधी ने अपनी पत्नी, अपने सेक्स के बारे में टाफी-टोकन जैसा ही सही जरूर लिखा। फिर उस ने सोचा कि क्या गांधी भी एकाधिक औरतों के फेर में पड़े होंगे ? हो सकता है पड़े हों। फिर वह अचानक रजनीश पर आ गया और जैसे अपने आप से ही कहने लगा कि रजनीश जैसा विद्वान और स्पष्ट वक्ता होना कितना कठिन है। इस सदी का इतना बड़ा विद्वान दार्शनिक। पर अफसोस कि उसे ठीक से पहचाना नहीं गया। और मन ही मन उस ने उच्चारा कि एक बार गांधी होना आसान है, लोहिया होना आसान है, मार्क्स, लेनिन और माओ होना आसान है पर रजनीश होना आसान नहीं है। ठीक उसी तर्ज पर जैसे रजनीश कहते हैं कि एक बार बुद्ध और महावीर होना आसान है पर मीरा होना आसान नहीं है। और फिर रजनीश की यह स्थापना कि मीरा तो एक शराब है, एक नशा है। यह कहना भी आसान है क्या किसी के लिए? गांधी ने राम के बारे में बहुत कहा, लोहिया ने राम, कृष्ण पर ख़ूब लिखा, राधा और मीरा के बारे में ज्यादा नहीं जिक्र भर का लिखा। पर गांधी ? गांधी मीरा को गा सकते थे, मीरा पर लिखना उन के वश का नहीं था। पर लोहिया ने मीरा की भक्ति को एक नया आयाम दिया। द्रौपदी के साथ मीरा का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए नारी के तीन रूप बताए - भोग्या, सती और सहचरी। कहा कि मीरा फैंटेसी में कृष्ण को जीती है और द्रौपदी साक्ष्य में। और सच भी है कि द्रौपदी की ओर कृष्ण का झुकाव ज्यादा है। मीरा के बारे में रजनीश जैसा लोहिया या गांधी क्यों नहीं कह पाए ? ठीक है कि तीनों का कैनवस, तीनों की सोच और एप्रोच अलग-अलग थी। पर और भी कई मामलों पर रजनीश जितना बेलाग, बेलौस और बेहतरीन अंदाज से बातों को क्यों नहीं कह पाए लोहिया ? क्यों नहीं कह पाए गांधी ? और शायद इसी लिए वह अपने कहानीकार दोस्तों से कहता भी रहता है कि कहानी कहने की कला अगर सीखनी हो तो रजनीश से सीखो।
सहसा उस ने सोचा कि ‘‘गांधी, लोहिया और जयप्रकाश’’ पर तो बहुत लिखा गया है और तय किया कि ‘‘गांधी, लोहिया और रजनीश’’ पर एक तुलनात्मक किताब न सही एक लेख तो वह लिखेगा ही। फिर उस ने सोचा कि कौन इसे पढ़ेगा ? और हर बार की तरह उस ने फिर सोचा कि क्या वह इस विषय पर जैसे सोच रहा है वैसे ही लिख भी सकेगा ? बिलकुल शास्त्रीय ढंग से कि वह लेख शाश्वत बन जाए। फिर उस ने खुद से ही कहा कि जब अख़बार के लिए लिखना है तो शास्त्रीय ढंग से क्यों सर्रे से क्यों नहीं ? कहीं ज्यादा शास्त्रीय हो जाए और संपादक के ही सिर से ऊपर निकल जाए तो? पर वह मूल सवाल पर फिर आ गया कि क्या वह अपने इस लेख ‘‘गांधी, लोहिया और रजनीश’’ में तीनों के साथ निष्पक्षता बरत पाएगा ? फिर उस ने जैसे खुद को ही जवाब दिया, क्यों नहीं ? क्यों कि वह तो तीनों का भक्त है गांधी का भी, लोहिया का भी, और रजनीश का भी।
फिर उस ने जैसे अपने आप को कटघरे में खड़ा कर लिया और पूछा कि क्या सचमुच वह इन तीनों के साथ निष्पक्ष रह पाएगा ? और फिर जवाब दिया कि, हां। पर सवाल फिर उठा कि वह तो रजनीश का कायल है। और अभी-अभी कुछ देर पहले खुद ही कह रहा था कि एक बार गांधी और लोहिया होना आसान है रजनीश होना आसान नहीं है। फिर उस ने एक वाक्य और जोड़ा कि क्या रजनीश भी एक शराब नहीं हैं, एक नशा नहीं हैं। और खुद से ही पूछा कि तो फिर अगर रजनीश शराब हैं तो गांधी और लोहिया क्या स्नैक्स हैं ? जो शराब के साथ चुगे जा सकें ? नहीं। उस ने अपने आप को धिक्कारा ! कि गांधी और लोहिया के बारे में उसे ऐसा नीच ख़याल आया कैसे ? पर उस के भीतर से कहीं आवाज आई कि बेटा बेवकूफी ही में सही बात तूने मार्के की कही है कि रजनीश एक शराब है और गांधी, लोहिया स्नैक्स। सच, स्थिति यही है कि गांधी, लोहिया स्नैक्स की तरह हर जगह फिट हो जाते हैं पर रजनीश शराब की तरह ज्यादातर छुप-छुपा के शुमार हैं।
पर यह तो उथली सोच है। उसने अपने मन को समझाया कि ऐसी स्थापनाएं उसे कहीं का नहीं छोड़ेंगी। और उस ने तय किया कि गांधी नेता, लोहिया विचारक और रजनीश दार्शनिक। पर यह प्रतिमान भी उसे बासी जान पड़ा और खुद से ही फिर कहा कि बेटा, अगर यही सब कुछ लिखना है तो मत लिखो। इस से बेहतर तो वह तुम्हारी शराब और स्नैक्स वाली एप्रोच है। उस ने तय किया कि कोई हंसे, चाहे उस का मजाक उड़ाए पर वह लिखेगा जरूर ‘‘गांधी, लोहिया और रजनीश !’’ दो सवाल फिर संजय के मन में लगभग दौड़ कर घुस आए। एक तो लेख के शीर्षक को ले कर कि बार-बार गांधी का ही नाम पहले क्यों वह लेता है कि ‘‘गांधी, लोहिया और रजनीश !’’ ‘‘लोहिया, रजनीश और गांधी’’ या फिर ‘‘रजनीश, गांधी और लोहिया’’ या ‘‘लोहिया, गांधी और रजनीश’’ वगैरह-वगैरह जैसा कुछ क्यों नहीं। पर यह सवाल उसे लगा कि बेवजह ही उस ने उठा दिया। इस सवाल में कोई वजन नहीं था। पर दूसरा सवाल उस की इस समूची सोच पर पानी फेरे जा रहा था। सवाल यह था कि क्या वह रजनीश पर निरपेक्ष ढंग से कलम चला भी सकेगा ?
जब-तब, जिस-तिस लड़की या महिला को देख कर चूमने की हसरत जाग जाए, उस के साथ सोने की ललक मन ही मन अंकुआ जाय, और तो और राह चलती जिस-तिस महिला, लड़की को दुर्घटना होने की हद तक मुड़-मुड़ कर देखने की जिस की आदत हो, डी॰ टी॰ सी॰ की बसों में महिलाओं के साथ रगड़ घिस्स और किसी लड़की के स्पर्श भर के लिए बेकल रहना, पीछे से सट कर खड़े हो जाने जैसी ओछी हरकतों तक से बाज नहीं आते आप, सपनों में जांघिया ख़राब कर डालें, यानी कि हर समय महिला रोग में मरते रहेंगे आप और लिखेंगे रजनीश पर ! उस का वश चलता तो इस सवाल के साथ अपने आप को चांटा मार लेता। पर नहीं वह पान की दुकान में बाहर जल रही रस्सी से सिगरेट सुलगाने लगा।
बाहर सिगरेट सुलग रही थी और भीतर वह ख़ुद सुलग रहा था। झुलस रहा था उस के लेख का शीर्षक ‘‘गांधी, लोहिया और रजनीश !’’ उस ने एक बार अपने को तसल्ली दी। माथे के बाल सहलाते हुए अपने मन को समझाया कि इस मामले में अपने को अपराधी समझने की कोई जरूरत नहीं और कि यह सब कुआंरेपन की समस्या है। और अभी-अभी तो उस ने टीनएज की दीवार फांदी है तो इस जवानी में लड़कियों के बारे में वह नहीं सोचेगा तो कौन सोचेगा ? जिस-तिस लड़की को चूमने या उस के साथ सोने के सपने वह नहीं देखेगा तो क्या उस का बाप देखेगा ? डी॰ टी॰ सी॰ की बसों में महिलाओं के साथ अगर आंख मूंद कर थोड़ी बहुत बेशरमी वह कर लेता है तो यह भी कोई ऐसा अपराध नहीं है जिस पर वह अपने आप को जेल में बैठा ले। ज्यादा से ज्यादा इस बेशरमी पर लगाम लगा ले। बस ! रही बात सपने में जांघिया ख़राब कर लेने की तो इस का भी इलाज है कि ढूंढ-ढांढ कर किसी पेटीकोट वाली का इंतजाम कर ले और अपनी जांघिया की बजाय किसी का पेटीकोट ख़राब करे।
फिर उस ने सोचा कि जरूरी तो नहीं है कि किसी पर लिखने के लिए उस को जीवन में उतार भी लिया जाए। अब जो वह भ्रष्ट या फ्राड लोगों के खि़लाफ तमाम लिखता रहता है तो ऐसा तो नहीं है कि उन के बारे में लिखने से पहले उन के ही जैसा हो जाता है। तो क्या जरूरी है कि रजनीश वगैरह पर लिखने के लिए उन के दर्शन को पूरी तरह जिंदगी में उतार ही लिया जाए ? माना कि समूचा रजनीश दर्शन इसी पर मुनःसर करता है कि चाहे सेक्स हो या पानी उस को संपूर्णता में पाए बिना या उस से अघाए बिना आप उस के बारे में एथारिटी नहीं हो सकते। तो फिर गांधी और लोहिया के भी विचारों का ही तो वह भक्त है। उन को भी जीवन में वह पूरी तरह कहां उतार पाता है। या उन को भी उस ने पूरा-पूरा पढ़ा या गुना कहां है ? और आखि़र लेखन के लिए, अपनी बात कहने के लिए यह जरूरी भी नहीं। फिर उस ने तय किया कि बहुत सोच चुका इस मसले पर। अब और नहीं सोचेगा। और अब सीधे लिखेगा, ‘‘गांधी, लोहिया और रजनीश।’’
संजय अब तक बस से उतर कर अपने घर वाले बस स्टाप पर आ गया था। उस ने बस स्टाप वाली पान की गुमटी से सिगरेट की डब्बी ख़रीदी और एक माचिस भी। हालां कि रस्सी यहां भी जल रही थी। पर पता नहीं क्यों रस्सी से सिगरेट सुलगाने में उस का सारा मजा ख़राब हो जाता था। माचिस की जलती तीली से सिगरेट सुलगने का जो मजा है वह रस्सी से सुलगाने में कहां है ? बल्कि सिगरेट सुलगाने से पहले अपनी सुलग जाती है पर जाने क्यों दिल्ली में तब उस ने देखा लगभग हर जगह जलती रस्सी मिलती। हालां कि कहीं-कहीं बिजली के स्विच भी तब शुरू हो गए थे। यह तो और भी बुरा लगता था।
सिगरेट ! सुलगती सिगरेट !! और वह !!!
संजय को याद है कि पहले पारिवारिक संस्कार के चलते सिगरेट से उसे कितनी घिन थी। उस ने सोचा ही नहीं था कि वह जिश्ंदगी में कभी सिगरेट पी भी सकता है। बहुत बचाया उस ने अपने को सिगरेट से। दोस्तों, सहपाठियों की मनुहार, इसरार और जबरदस्ती को लगभग ढकेलता हुआ। पर एक बार एक पुरानी फिल्म ममता में जब उस ने अशोक कुमार को तनाव के क्षणों में बार-बार सिगरेट सुलगाते देखा तो उसे मजा आ गया। उस ने सोचा कि वह सिगरेट पिए न पिए एक बार होंठों में दबा कर सुलगाएगा जरूर। ममता फिल्म में सुचित्रा सेन का मोहक अंदाज, दिलकश गीत और अशोक कुमार का सिगरेट सुलगाना वह आज भी नहीं भूला। जैसे कि विमल रॉय की देवदास फिल्म में दिलीप कुमार का संवाद कि ‘‘कौन कमबख़्त बर्दाश्त करने के लिए पीता है।’’ महल सहित और भी कई फिल्मों में अशोक कुमार ने लगभग वैसे ही तनाव के क्षणों में सिगरेट सुलगाई थी। पर संजय को जाने क्यों ममता फिल्म का ही अशोक कुमार का वह अंदाज भा गया था। हालां कि इस ममता फिल्म में अशोक कुमार बाद में सिगरेट छोड़ पाइप पर आ गए थे। और संजय ने सोचा कि अगर वह सिगरेट पीने लगा तो पाइप भी जरूर पिएगा। बिलकुल अशोक कुमार की तरह।
और सचमुच जब वह फिल्म देख कर हाल से निकला तो उस ने तुरंत एक सस्ती सी प्लेन सिगरेट खरीदी। दियासलाई ली। सिगरेट होठों में दबाई। पर चार-पांच तीलियां फूंक चुकने के बाद भी जब वह सिगरेट नहीं सुलगा पाया तो पान वाला भुनभुनाया। होता यह था कि सिगरेट सुलगाते समय वह हड़बड़ी में मुंह से सांस लेने लगता और सिगरेट सुलगने की बजाय तीली बुझ जाती थी। वह तीली पर तीली जब इसी तरह बरबाद करने लगा और पान वाले की भुनभुनाहट बढ़ती गई तो उस ने एक दियासलाई भी ख़रीद ली। पान वाला मुसकुराया, ‘‘एक सिगरेट और पूरी माचिस !’’ और सचमुच जब सिगरेट जैसे-तैसे सुलगी तो उस माचिस की आधी से अधिक तीलियां स्वाहा हो चुकी थीं और सिगरेट की तंबाकू मुंह में घुस कर जबान को बेमजा कर रही थी। सिगरेट उसे पीनी तो थी नहीं, सो सुलगाते ही फेंक दी और पूरी ताकत भर थूका। चाय की दुकान से पानी ले कर कुल्ला किया। तब जा कर जान में जान आई। फिर महीनों उस के जेहन से सिगरेट गायब रही। कि उसी बीच जैनेंद्र कुमार के उपन्यास पर आधारित फिल्म त्यागपत्र में उस ने प्रताप शर्मा को तनाव भरे क्षणों में जब सिगरेट सुलगाते देखा तो उसे लगा कि अब उसे सिगरेट पीनी ही चाहिए।
और वह सिगरेट पीने लगा।
हालां कि उन्हीं दिनों एक रिसर्च आई थी जिस में शायद बताया गया था कि एक सिगरेट पीने से आदमी की पांच मिनट उम्र कम होती है। सिगरेट के पैकेटों पर भी ‘‘स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक’’ छपने लगा था। संजय ने भी हंगरियन डाइजेस्ट में एक हंगरियन लेखक गीजश हेगेड्स का एक सिगरेट से पांच मिनट उम्र कम होने पर एक बड़ा दिलचस्प लेख पढ़ा। इस लेख में गीजश ने अपने किशोर वय से तंबाकू, सिगरेट और पाइप पीने का हिसाब लगाया था। जिस बेहिसाबी से सिगरेट उन्हों ने पी थी उस हिसाब से कोई पच्चीस-तीस साल उन की उम्र कम हो जानी चाहिए थी। लेख लिखते समय वह सत्तर वर्ष के थे। उन का कहना था, ‘‘फिर जियूंगा किस लिए ?’’ फिर उन्हीं ने तर्क दिए थे कि सिगरेट से ही क्यों ? होटल में बेयरा अभद्रता कर दे, आफिस में बॉस या चपरासी अभद्रता कर दे, आप को मिलेट्री में भरती हो जाना पड़े, सड़क पर मोटरों का धुआं, रोज आलू खाने जैसे बहुतेरी चीजें, उन्हों ने सोदाहरण गिना दी थीं, जो कि सिगरेट से कहीं ज्यादा उम्र कम करने वाली उन्हों ने बताई थीं। फिर अंत में गीजश सिगरेट पैकेटों पर ‘‘इंज्यूरियस फार हेल्थ’’ पर आ गए थे। उन का तर्क था कि अगर आप किसी लड़की से प्यार करते हों और अचानक एक दिन उस के सारे कपड़े उतार डालें और फिर उस की देह पर लिखा देखें ‘‘इंज्यूरियस फार हेल्थ’’ तो क्या आप रुक जाएंगे ? उसे प्यार नहीं करेंगे ? और मैं सिगरेट से प्यार करता हूं। सिगरेट बिना जी नहीं सकता। मैं सिगरेट बिना जिन्दगी की कल्पना नहीं कर सकता। सिगरेट मेरी जान है।’’ ऐसे ही कुछ शब्दों में उन्होंने लेख-समाप्त किया था। संजय को गीजश के ये तर्क इतने भा गए थे कि जब तब वह लोगों से बात-चीत में बताता रहता। उन दिनों संजय कविताएं लिखता था और एक लड़की के प्रेम में मुब्तिला था। पागलपन की हद तक। तब के दिनों का एक फिल्मी गाना ‘‘उल्फत में जमाने की हर रस्म को ठुकराओ’’ वह गुनगुनाता और सिगरेट सुलगाता। चुपके-चुपके।
यह बेहद तनाव भरे दिन थे।
सिगरेट पीने से उस का तनाव हरगिज नहीं छंटता था, बल्कि और बढ़ता था। ऐसे रिसर्च भी बाद में आए कि सिगरेट पीने से तनाव बढ़ता है। पर संजय को दरअसल मजा सिगरेट पीने में नहीं, सिगरेट सुलगाने में आता था। उसे लगता था जैसे वह सिगरेट नहीं, खुद को सुलगा रहा है, जमाने की रस्म को पलीता लगा रहा है।
उसे तब क्या पता था कि वह खुद को झुलसा रहा है। पलीते पर खुद बैठा हुआ है।
तो वह कविता, प्रेम, तनाव और सिगरेट के दिन थे।
कवि गोष्ठियों में बैठा-बैठा वह पैकेट पर पैकेट सिगरेट सुलगा डालता था। एक बार जब उस के दोस्त शायर हमदम ने बताया कि वह तीन साढ़े तीन घंटे की गोष्ठी में बीस सिगरेट फूंक गया है। तो उसे ताज्जुब नहीं चिढ़ हुई। उस ने हमदम को डपटा, ‘‘तो जनाब मेरी सिगरेट गिन रहे थे।’’ हमदम उस की डपट पर सकपका गया और बोला, ‘‘नहीं साहब आप बीस सिगरेट और फूंकिए। पर मुझे आप की सेहत की भी चिंता है।’’
‘‘क्यों मेरी सेहत को क्या हुआ ?’’
‘‘कुछ नहीं। बस आप सिगरेट फूंकिए।’’ कहते हुए हमदम ने दो पैकेट सिगरेट और उस की ओर बढ़ा दिए।
‘‘दियासलाई भी !’’ बड़ी बेहयाई से संजय ने कहा और तीली जला कर सिगरेट सुलगाने लगा। हमदम को बिसूरता देख लारी जो खुद बड़ी सिगरेटें फूंकता रहता था बोला, ‘‘फिक्र मत करो हमदम ये साला बहुत होशियार है। सिगरेट का धुआं भीतर नहीं ले रहा। देख नहीं रहे धुआं तो मुंह से ही बाहर फेंक दे रहा है। मुंह से भीतर जाएगा धुआं तब तो फेफड़ा हलाक होगा।’’ फिर वह संजय से मुख़ातिब हुआ, ‘‘साले, जब सिगरेट पीने नहीं आती तो क्यों उसकी मैया फक करते हो ?’’
‘‘अबे तुम से किस ने कहा कि मैं सिगरेट पीता हूं ?’’ संजय बिफरा।
‘‘तो ?’’
‘‘मैं तो सिगरेट सिर्फ सुलगाता हूं। और खुद को सुलगते हुए पाता हूं।’’ संजय भावुक हो रहा था।
‘‘अहा ! क्या बात कह दी। मुकर्रर !’’ कहते हुए लारी ने संजय को बाहों में भर लिया। बोला, ‘‘जाओ हमदम, तुम नहीं समझोगे।’’ और इसी के बाद हमदम ने एक गजल लिखी। जिस का मतला इतना ख़ूबसूरत था कि संजय को आज भी याद है, ‘सर्द लहू है क्या मुसकाऊं, सोच रहा हूं अब बिक जाऊं।’ सुनते ही संजय बोला, ‘‘बशीर बद्र की छुट्टी।’’ पर अफसोस कि हमदम बशीर बद्र की छुट्टी करने के बजाय धीरे-धीरे खुद शायरी से छुट्टी पाने की राह लग गया। अपनी जूनियर इंजीनियरी की नौकरी, पट्टीदारी के मुकदमों, पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझा हमदम शायरी तो नहीं भूला पर चकरघिन्नी बन कर रह गया। शायर के नाम पर लोकल कवि सम्मेलनों और मुशायरों से शुरुआती तीन चार लोगों में एक नाम उस का भी रहने लगा। वह भी इस लिए कि उस का तरन्नुम अच्छा था। वह कभी कभार तहत में पढ़ने की कोशिश करता भी तो हूट होने लगता। तो दो-तीन शेर ही तहत में पढ़ता और तरन्नुम में शुरू हो जाता। इस हूटिंग के डर से मुशायरों में नज्म कहने की उस की हसरत, हसरत ही रह गई। नशिस्तों या कवि गोष्ठियों में भी अगर वह नज्म पढ़ने की कोशिश करता तो यहां भी टोक दिया जाता, ‘‘नहीं, हमदम भाई तरन्नुम में।’’ वह बेबस हो जाता। बल्कि कवि सम्मेलनों का एक संचालक तो उसे लगभग आदेश देता कि, ‘‘फला गजल पढ़िए।’’ हमदम रिरियाता भी कि, ‘‘एक नई गजल कही है’’ पर संचालक फुंफकारता, ‘‘नहीं आप नई रहने दीजिए। कवि सम्मेलन अभी से नहीं उखाड़ना है। जो कह रहा हूं, वही पढ़िए।’’ और बेचारा वही पुराना रिकार्ड, ‘‘मतला अर्ज है,’’ कह कर बजा देता।
हमदम के साथ एक त्रासदी यह भी थी कि कवि सम्मलेनों या गोष्ठियों में बतौर उर्दू शायर उस का तवारूफ करवाया जाता जब कि नशिस्तों या मुशायरों में हिंदू होने के नाते हिंदी वाला कहलाया जाता। बाद में उर्दू वालों की इस तंगदिली से आजिज आ कर बाकायदा, ‘‘एक हिंदी गजल पेश है।’’ कहते-कहते वह भी जब-तब सिगरेट सुलगाने लगा। लोगों ने हमदम में एक फर्क और नोट किया। पहले वह मौलानाओं की तरह सिर पर रोएंदार टोपी लगाता था। अब उस के सिर से टोपी उतर गई थी। और जैसे उस की भरपाई में वह टाई बांधने लगा था। टोपी से टाई ! मतलब आसमान से गिर कर खजूर पर। संजय हालां कि उम्र में हमदम से बहुत छोटा था और यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। पर जब हमदम ने सिगरेट सुलगानी शुरू की तब तक संजय शराबियों की संगत में आ चुका था।
पर कैजुअली।
तब यह था कि शराब कैजुअली थी और कविता रेगुलरली। अब यह था कि शराब रेगुलरली थी और कविता कैजुअली ! और ऐसा संजय ही नहीं उस के बहुतेरे साथियों के साथ हो गया था। बल्कि कुछ के साथ तो यह भी हो गया था कि शराब ही शराब जिन्दगी थी, कविता तो खंडहर थी, अवशेष थी, मन में कहीं कविता की सिर्फ याद शेष थी। जिन्दगी की यह त्रासदी भी संजय के लिए भयावह थी। बहुत भयावह !
भयावह ही है दिल्ली की सड़कों से गुजरना। सड़क पार करते समय डी॰ टी॰ सी॰ की बस से कुचलते-कुचलते बचा संजय । मौत से बच कर उस ने एक सिगरेट सड़क पार करते-करते फिर सुलगा ली। और खुद सुलगता रहा।
ठीक ऐसे ही एक रात कवि सम्मेलन के बाद जब वेद नाम के एक कवि ने संजय से कहा था, ‘‘क्यों शराब में अपने भीतर के कवि को मार रहे हो ?’’ तो सुलगता हुआ संजय उस पर बरस पड़ा था, ‘‘मेरे कवि को शराब नहीं, तुम जैसे भड़ए और गलेबाज मार रहे हैं। जो साले कविता के नाम पर सिर्फ चुटकुलेबाजी, भडै़ती और रही-सही गलेबाजी कर रहे हैं। और वही चार ठो चुटकुला, चार ठो गोइयां, सइयां और गोरी, गांव वाला गीत ले कर पूरा देश घूम डाल रहे हैं।’’ किसी तरह कुछ लोगों ने संजय को जैसे तैसे चुप कराया। और वह बेचारा वेद ‘मैंने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा।’ जैसे गीत फटे गले से गाने वाला, सिर पर पांव रख कर जाने कहां भाग गया।
सुबह जब संजय सो कर उठा तो कवियों में अजीब कोहराम मचा हुआ था। पता चला आयोजक-संयोजक कवियों को बिना ‘पत्रम-पुष्पम्’ दिए फरार हो गए हैं और एक कवि जो नौवों रस की कविता पढ़ने में ‘‘सिद्ध’’ थे अपने समूचे रौद्र रूप में उपस्थित थे। सांप की मानिंद फुंफकार रहे थे, ‘‘तो निकालो स्कूल का मेज कुर्सी। यही बेच कर हम कवि अपना पैसा वसूल लेंगे। पर बिना पैसा लिए हरगिज नहीं जाएंगे।’’ एक वीर रस के कवि तो अभी से रोने लगे थे, ‘‘मुझे तो मात्र मार्ग व्यय पर बुलाया था। और वापस जाने भर का भी पैसा नहीं है।’’
कवि सम्मेलनों में यह और ऐसी ही तमाम नौटंकियों से आजिज आ गया था संजय। वह उठा नहाया-धोया। और बस स्टेशन चल दिया। एक कवि को जिम्मा दे दिया कि, ‘‘पैसा मिले तो मेरा भी वसूल लेना।’’ फिर संजय ने कवि सम्मेलनों में जाना लगभग ठप्प कर दिया। वैसे भी कवि सम्मेलनों में उस के जैसे कवियों की जरूरत नहीं होती थी। फिलर की तरह कब खड़े हुए, कब बैठ गए किसी तरफ से एकाध ‘‘वाह’’ या मंच से ही, ‘‘बहुत अच्छा’’ ‘‘सुंदर’’ या ‘‘क्या बात कही है’’ जैसी इक्का-दुक्का दाद कभी- कभार मिल जाती थी तो पता चलता था कि कोई तो कविता सुन रहा है, या सुनने का अभिनय ही सही कर तो रहा है। नहीं अमूमन होता यही था कि जब कोई नई कविता वाला कवि गलती से माइक पर संचालक बुला लेता तो मंच पर आसीन कवि बड़ी ख़ामोशी से चाय पीने में तल्लीन हो जाते और ‘‘होशियार’’ श्रोता पेशाब करने निकल जाते। उधर आयोजक फुसफुसाते, ‘‘किस को बुला लिया ?’’ पर ज्यादातर चालू संचालक इन नई कविता वाले कवियों को साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने वाले जैसे वगैरह-वगैरह जुमलों में कैद कर पेश करते तो श्रद्धावश लोग झेल लेते।
किसी तरह।
घर आ कर संजय ने सुलगती सिगरेट ऐसे झाड़ी जैसे वह सिगरेट की राख नहीं, कविता की आग झाड़ रहा हो जो कलेजे में कील बन कर मन में कहीं दफन है।
कमरे में पहुंच कर पहले उस ने थैला खूंटी से लटकाया, चद्दर झाड़ी, झाड़ कर बिछाया और गुटुर मुटुर गठरी की तरह चद्दर ओढ़ कर लेट गया। थक गया था वह। पर इस थकन में भी वह सोच रहा था ‘‘गांधी, लोहिया और रजनीश।’ वह सोच रहा था कि बुद्ध, महावीर और मीरा तीनों के बीच जो एक कारुणिक संस्पर्श था क्या वही संस्पर्श गांधी, लोहिया और रजनीश में भी है ? फिर उस ने खुद को ही जवाब दिया, संस्पर्श तो है पर कारुणिक नहीं, चेतना का संस्पर्श। तीनों ही चेतना से लैस हैं। एक राजनीतिक चेतना का नायक, दूसरा जन चेतना का नायक और तीसरा मन की चेतना का नायक ! संजय को सूत्रा मिल गया था और स्थापना भी। बस बाकी रह गया था तो सिर्फ लिखना।
पर वह एन॰ एस॰ डी॰ की रिपोर्ट का क्या करे ? उस ने सोचा निदेशक तो आज मिल गए थे पर आत्महत्या वाले मामले पर सिवाय भावुक अभिनय करने के वह कुछ ख़ास बता नहीं पाए। न ही वह पूछ पाया। निदेशक की भावुकता के आगे वह खुद भी भावुक हो गया। पर ऐसे भावुक हो कर रिपोर्टिंग तो नहीं ही होती !
दूसरे दिन वह फोन पर लगातार जूझा रहा। एन॰ एस॰ डी॰ के ट्रस्टी और चेयरमैन डॉ॰ सिंधवी जो उन दिनों सुप्रीम कोर्ट के मशहूर वकील थे, से मिलने के लिए। तीन चार फोन के बाद बड़ी मुश्किल से वह फोन पर आए और उस से भी ज्यादा मुश्किल से वह तीन दिन बाद सिर्फ पांच से सात मिनट का समय देने पर राजी हुए।
इतनी तो किसी मंत्री से भी आज तक संजय को मिलने में दिक्कत पेश नहीं आई। गनीमत उस ने आत्महत्या वाले इशू का जिक्र नहीं किया वरना यह निश्चित ही समय देने पर राजी नहीं होते।
तीन रोज बाद तय समय से दस मिनट पहले ही डॉ॰ सिंधवी के साऊथ एक्सटेंशन वाले मकान पर जब संजय पहुंचा तो देखा कुछ जूनियर वकील और कुछ मुवक्किल पहले ही से बैठे थे। उस ने डॉ॰ सिंधवी के पी॰ ए॰ को बता दिया कि वह आ गया है। फिर जब वह सिंधवी से बात कर बाहर आया तो पाया कि पांच सात मिनट की जगह वह डॉ॰ सिंधवी का पूरा-पूरा पैंतालिस मिनट खा गया है।
डॉ॰ सिंधवी पेशेवर वकील ठहरे। और संजय पेशेवर पत्रकार। पांच मिनट की तय मुलाकात को वह पैंतालिस मिनट में बदल तो ले गया। पर बहुत घेरने पर भी सिंधवी ठीक से खुले नहीं। एकाधिक बार खुलते-खुलते रह गए। आयं-बांय-सांय, सिंधवी की यह पूरी बातचीत ‘देखेंगे, सोचेंगे’ जैसे टरकाऊ जवाबों से भरी पड़ी थी। ‘‘काम’’ की बात सिर्फ एक लाइन की थी कि ‘‘आत्महत्या के मद्देनजर जांच बैठाएंगे।’’ बिलकुल सरकारी किस्म का जवाब। जो संजय के काम का एकदम नहीं था। शुरू में तो चेयरमैन साहब ने एन॰ एस॰ डी॰ में छात्र आत्महत्या कर रहे हैं, तथ्य से ही अनभिज्ञता जाहिर की। बहुत कुरेदने पर वह ‘पता करेंगे’’ पर आए और फिर ‘‘जरूरी हुआ तो जांच बिठाएंगे।’’ जवाब पर आ गए।
यही हाल भारत सरकार में सांस्कृतिक कार्य विभाग की संयुक्त सचिव कपिला वात्स्यायन का भी रहा। संजय बोर हो गया। तिस पर सुप्रीम कोर्ट के वकील साहब ने संपादक को फोन कर के शिकायत भी कर दी कि, ‘‘आप का रिपोर्टर आ कर पांच मिनट के बजाय मेरे पैंतालिस मिनट खा गया। कहिए तो बिल भेज दूं। पचीस हजार का ?’’ संपादक ने जब यह शिकायत सर्द और सख़्त आवाज में संजय को बताई तो वह और कुढ़ गया। फिर उस ने एक सर्रे की रिपोर्ट लिख डाली। जिस का लब्बो लुबाब यह था कि एन॰ एस॰ डी॰ में छात्रों की आत्महत्या का मुख्य कारण वहां पढ़ाने वाले अध्यापकों की आपसी राजनीति थी। जिस में सब के सब निदेशक की कुर्सी पर बैठने के जुगाड़ में सनके हुए थे। दूसरे निदेशक की कमजोर पकड़, हास्टल के एक-एक कमरे में कई-कई छात्रों का एक साथ रहना, लड़कियां जैसी कई और रूटीन सिलसिलों का जिक्र तो था ही। छात्रों, निदेशक, चेयरमैन से बातचीत, एन॰ एस॰ डी॰ का इतिहास, एन॰ एस॰ डी॰ का वर्तमान माहौल आदि पर तीन चार बाक्स आइटम भी संजय ने सर्रे से लिख कर संपादक को थमा दिया। रिपोर्ट में अल्काजी के निदेशक रहते हुए एन॰ एस॰ डी॰ के स्वर्णिम काल, कारंत के रिजिम में एन॰ एस॰ डी॰ के बिखरने की कथा और अब एन॰ एस॰ डी॰ की ऐसी तैसी होने की कथा, भविष्य में बेकारी का भय आदि भी डिटेल्ड में संजय ने लिखा । और यह भी रेखांकित किया कि रंगकर्म पढ़ने वाले छात्र इतना तनाव क्यों जीते हैं ?
संपादक ने सारी सामग्री पढ़ी। और कहा कि, ‘‘स्टोरी तो बहुत अच्छी है पर इसे छापेंगे कहां ? जगह कहां है इतनी ? थोड़ी क्या चौथाई छोटी कर दो।’’ सुन कर संजय का दिमाग ख़राब हो गया। उस ने सहायक संपादक से कहा भी कि, ‘‘नार्थ एवेन्यू, साउथ एवेन्यू, सेंट्रल हाल, तुगलक रोड, पंडारा, पटेल, जनपथ वगैरह मार्गों से रत्ती भर के लाए हुए सच में कुंटल भर का गप्प मिला कर लिखी रिपोर्टें ही आप लोगों को क्यों भाती हैं? मेरी समझ में आज तक नहीं आया।’’ और वह पैर पटकता हुए चौधरी चरण सिंह से इंटरव्यू लेने तुगलक रोड़ चल दिया। चौधरी के यहां गया तो तय समय के बावजूद उसे बाहर ही बैठा दिया गया। थोड़ी देर ऊबने के बाद वह चहलकदमी करने लगा। चलते-चलते वह चौधरी के कमरे की ओर बढ़ गया तो देखा चौधरी कुर्सी पर बैठे हैं। और नीचे एक तरफ मुलायम तो दूसरी तरफ मालवीय बैठे हैं। तो उस का दिमाग और ख़राब हुआ।
ज्यादा दिमाग ख़राब होता उस के पहले ही उसे बुला गया। वह इंटरव्यू ले ही रहा था कि चौधरी के चुनाव क्षेत्र बागपत से कुछ लोग आ गए। चौधरी उन सब से मुख़ातिब हो गए। अजीब-अजीब सवाल थे उन के और अजीब मांगें। पर सब पर चमचई की चाशनी लिपटी हुई। इतनी कि संजय को उबकाई आने लगी।
इसी बीच एक आदमी उठ कर खड़ा हो गया। बोला, ‘‘चौधरी मुझे कुछ नहीं तुम बस एक टेलीफोन दे दो। बस !’’
‘‘तू टेलीफोन का क्या करेगा ?’’ चौधरी ने मुसकुरा कर पूछा।
‘‘बड़े काम का है जी।’’ वह ठसक के साथ बोला, ‘‘पिछली बार जब मैं आया था तो देखा कि तुम ने जो भी काम हुआ, टेलीफोन उठाया, कहा और काम हो गया। तो हम को भी टेलीफोन चाहिए-चाहिए। मैं भी टेलीफोन उठाऊंगा बोल दूंगा, खेत को पानी दो, खेत को खाद दो, गन्ने की पर्ची दो। सब काम बैठे-बैठे !’’
सुनते ही सब के सब उस के भोलेपन पर हंस पड़े। स्पष्ट था कि वह सहज ही बोल रहा था, व्यंग में नहीं।
संजय ने चौधरी के इंटरव्यू के साथ ही इस घटना को भी बाक्स आइटम बना के खोंस दिया। एक बाक्स आइटम उस ने और लिखा चौधरी की अक्खड़ई, जिद और मौका-परस्ती पर। जिसे संपादक ने देखते ही रिजेक्ट कर दिया। और कहा कि जानते हो, ‘‘वह प्रधानमंत्री रह चुके हैं। इस से उन की छवि ख़राब होगी।’’ संजय ने प्रतिवाद भी किया, ‘‘पर है तो सच। और पाठकों को अपने नेता के बारे में जानने का हक है।’’ उस ने सकुचाते हुए जोड़ा, ‘‘और पीस भी अच्छा बन पड़ा है।’’
‘‘अच्छा तो है। कवर स्टोरी लायक है। पर है टोटल डिफरमेटरी। मैं नहीं छाप सकता।’’
बेचारी हिंदी पत्रकारिता ! हुंह !
कभी-कभी उसे शरम आती इस पत्रकारिता पर और सोचता कि वह पत्रकारिता करता क्यों है ? अभी यही आइटम जो कहीं टाइम, न्यूजवीक या देश के ही किसी अंगरेजी अख़बार, पत्रिका में छपा होता तो कोई डिफरमेशन नहीं होता और पचा लिया जाता हिंदी अख़बारों, पत्रिकाओं में। अंगरेजी अख़बारों के जूठन पर पल रही हिंदी पत्रकारिता की यह दुर्गति उसे बहुत आहत करती। पर उस के सामने सिवाय खीझने के कोई चारा नहीं था। क्यों कि हिंदी पत्रकारिता के सारे घाघ और महारथी बिना अंगेरजी का कचरा चाटे हिंदी पत्रकारिता का भविष्य अंधकारमय पाते। सो अंगरेजी से हिंदी अनुवाद। यही रही, यही है और शायद यही रहेगी हिंदी पत्रकारिता।
देश के बाहर की हदों से आने वाली ख़बरों का एक बार अनुवाद फिर भी समझ में आता है। पर देश में ही घट रही घटनाओं के लिए भी अंगरेजी से अनुवाद पर शरम आती। चलिए अगर किस्सा दक्षिण भारत, आसाम वगैरह का है तो भी एक बार दिल कड़ा कर अंगरेजी का थूक घोंट लिया पर ऐन दिल्ली में भी जब सीमापुरी की किसी झुग्गी बस्ती में आग लगती है तो उस की रिपोर्ट भी पहले अंगरेजी में लिखवा कर हिंदी में अनुवाद करवाने की हिंदी संपादकों की शेखी पर वह सनक उठता। क्या हिंदी रिपोर्टर इतने घटिया हैं ? और यही काम जब एक लोहियावादी संपादक ने जो देश भर में हिंदी के हक की लड़ाई में अगवा बने फिरते थे, को करते संजय ने देखा तो बउरा गया। पर उस के हाथ में कुछ था नहीं। उस का मन करता कि ऐसे ढोंगी संपादकों, पत्रकारों को वह गोली मार दे। और तब तो हद ही हो जाती जब वह देखता कि हिंदी फिल्मों पर भी लिखने के लिए अपने हिंदी पत्रकारों को अंगरेजी कतरनों की जूठन चाहिए-चाहिए थी। बिना अंगरेजी कतरन के भाई लोग हिंदी फिल्मों के बारे में भी लिख नहीं पाते थे। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश की घटनाओं पर भी अंगरेजी का उथला ही हिंदी अख़बारों के संपादकीय पृष्ठों पर भी जब वह छपा पाता तो शर्म की सीमा टूट जाती। दिन भर वह उस अख़बार के संपादक की ऐसी तैसी करता घूमता। पर होना क्या था ? लोग उसे ही क्रेक बता देते। हिंदी पत्रकारिता की समूची दुनिया ही जब अंगरेजी अनुवाद पर टिकी थी तो कोई कर भी क्या सकता था ?
ऐसे में वह पराड़कर जैसे लोगों को सब से बड़ा दोषी पाता। जो कि लोग खुशी-खुशी हिंदी पत्रकारिता के पितामह बन कर मर गए। पर हिंदी पत्रकारिता को कुपोषण, दरिद्रता और हीनता के गलियारों में बेमौत मरने के लिए बिना रीढ़ के छोड़ गए। रीढ़ चूंकि नहीं है सो खड़ी भी कैसे होती भला हिंदी पत्रकारिता। रेंगती अभिशप्त अश्वत्थामा की सी जिन्दगी जीती हिंदी पत्रकारिता की विवशता वह दिल्ली ही आ कर ठीक-ठाक जान पाया। पत्रकारिता के नाम पर एक तरफ दलाली करने वाले रिपोर्टरों की फौज थी तो दूसरी तरफ अंगरेजी से हिंदी में उड़ाने वाले डेस्क वालों की फौज। दोनों ही फौज तलवा चाटने में प्रवीण! तीसरी तरफ नेताओं, उद्योगपतियों और दूतावासों को एक साथ साधने और सहलाने वाले संपादकों की टुकड़ी। संजय इन में कहीं भी अपने को फिट नहीं पाता था। संजय जैसे मुट्ठी भर कुछ और पत्रकार भी थे। पर सब लाचार, नौकरी की विवशता में समाए हुए। उन की हालत जरा सी रोटी के लालच में चूहेदानी में कैद उस चूहे सरीखी थी कि भीतर कैद और चूहेदानी से बाहर होते ही कुत्ते बिल्लियों द्वारा गट हो जाने का डर। सो सब चुप ही रहते। पर संजय अगिआता रहता, बकबकाता रहता।
एक बार उस के बकबकाने को ले कर काफी हाउस में जैसे बहस चल पड़ी। अपने को वरिष्ठ मनाने वाले एक पत्रकार ने कहा, ‘‘असंतुष्ट है।’’ इस पर संजय ने प्रतिवाद के अंदाज में कहा, ‘‘क्या ?’’ तो वह फिर उसी तरह तौल-तौल कर बोले, ‘‘नहीं। नाराज होने की जरूरत नहीं। असंतुष्ट होना प्रगति की निशानी है।’’ उन्हों ने जैसे उसे संतुष्ट करने की कोशिश की, ‘‘आप अगर अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट हैं तो इस का मतलब बिलकुल साफ है कि आप आगे और बेहतरी चाहते हैं, तरक्की चाहते हैं।’’
‘‘पर मैं देख रहा हूं कि अगर इसी तरह यह प्रगति की राह पर चलता रहा तो मुझे डर है कि योगेश का कॉपीराइट यह छीन लेगा।’’ एक पी॰ आर॰ ओ॰ जो कभी कभार कहानियां लिख कर कहानीकार होने का दम भरता था बीच में मजा लेता हुआ बोला तो उस वरिष्ठ कम गरिष्ठ पत्रकार ने बड़ा संयत हो कर पूछा, ‘‘योगेश का कॉपीराइट ? मींस?’’
‘‘परेशानी !’’ पी॰ आर॰ ओ॰ उछल कर बोला, ‘‘अभी तक तो परेशानी का कॉपीराइट हम लोगों ने योगेश को ही दे रखा है। अब संजय उस से छिन ले तो बात और है।’’
संजय डर गया। यह बातें सुन कर। वह योगेश की जिंदगी नहीं जीना चाहता था। दुबले पतले, सांवले चेहरे पर चेचक के दाग लिए योगेश खुद तो कहानीकार थे। पर अपने बच्चों को ठीक से पढ़ा नहीं पाए। उन के दो बेटे कंपोजिटर हो गए थे। और जवान बेटी शादी के इंतजार में एक प्राइवेट फर्म में दिहाड़ी पर टाइपिस्ट। योगेश खुद प्रकाशकों के यहां चक्कर काट-काट कभी प्रूफ तो कभी कॉपी एडिटिंग का काम जुगाड़ते रहते। और जब तब क्या अक्सर बात-बेबात झगड़ पड़ते ! उन को देखते ही लगता वह आदमी नहीं परेशानी का ढांचा हों। उन के घर की हालत ऐसी थी कि जा कर अपराधबोध होता था। पर योगेश के स्वभाव में अक्खड़ई, स्वाभिमान और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हरदम लड़ते रहने, कभी न झुकने की प्रवृत्ति कूट-कूट कर भरी थी। घर में लंबी बीमारी भुगत रही पत्नी की दवा के लिए वह दिन रात प्रूफ पढ़ते जगते रहते। पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्हों ने किसी से कभी एक पैसा उधार मांगा हो। पैसा नहीं रहा तो दवा नहीं लाए। हफ्ते दस दिन बिना दवा के गुजर जाते। पर वह किसी के सामने अपनी विवशता, लाचारी नहीं उच्चारते। वह तो व्यवस्था, तंत्र और लोगों की मोनोपोली, टुच्चई और नपुंसकता से परेशान रहते। लोगों के तलुवे चाटने की कला से परेशान रहते। क्षण में कुछ, क्षण में कुछ हो जाने वाले मौकापरस्तों से परेशान रहते। वह बेवजह भी परेशान रहते। बात-बेबात परेशान हो जाते। क्योंकि वह सचमुच परेशान थे। काफी हाउस में इसी लिए ‘‘परेशानी’’ का कॉपीराइट योगेश के पास सुरक्षित कर दिया गया था। हालां कि वहां आने वाला कौन साला परेशान नहीं था।
पर सब साले अपनी परेशानी गांड़ में घुसा कर चेहरे पर मस्ती टांक, जबान में चाशनी घोल लेते थे। सब में और योगेश में फर्क यह था कि योगेश परेशानी को गांड़ में घुसाने के बजाय चेहरे और जबान पर टांक कर घूमते थे।
संजय ने उस दिन पक्के तौर पर सोच लिया कि कल से क्या अब से और अभी से वह भी अपनी परेशानी, अपनी जद्दोजहद और सारी दिक्कत और सब बुद्धिजीवियों की तरह गांड़ में घुसेड़ कर घूमेगा। योगेश की जिन्दगी वह नहीं जिएगा। नहीं जी सकता योगेश की जिन्दगी। उस में न तो इतना धैर्य है, न हिम्मत, न ही व्यवस्था को बदलने की हिमाकत। इस लिए भी कि परेशानी का कॉपीराइट ले कर जीने के लिए वह पैदा नहीं हुआ है। यह सब कुछ जैसे अदृश्य सिनेमा रील की तरह एक झटके में संजय के दिमाग में घूम गया था। उस ने सोचा उफ दिल्ली ! और दिल्ली का दंश !
उधर भेड़िया का मंचन ख़त्म हो गया था। थोड़े से जो लोग नाटक देखने आए थे वापस जाने लगे। पहली कहानी की अपेक्षा यह भेड़िया कहानी कहीं ज्यादा बोझिल और प्रस्तुति ढीली थी। सो सब लोग अनमनस्क से थे। संजय भी देवेंद्र से यह कह कर कि, ‘‘अच्छा कल यहीं मिलते हैं !’’ कह कर चलने लगा।
‘‘ठीक है।’’ कह कर देवेंद्र हलका सा मुसकुराए। उसे लगा जैसे कि देवेंद्र की किसी उम्मीद पर वह पानी फेर रहा था। शायद वह उम्मीद कर रहे थे कि संजय उन से इंटरव्यू के लिए कहेगा। पर उस ने नहीं कहा। कहता भी किस लिए ? जब कि इन दिनों बेकारी भुगत रहा था और किसी अख़बार में लिख भी नहीं रहा था। इस का अफसोस संजय को भी बेहद हुआ। कि वह देवेंद्र से इंटरव्यू तो नहीं ले रहा। उन के नाटकों की समीक्षा भी वह आज नहीं लिखेगा।
और वही हुआ जिस का कि उसे अंदेशा था। दूसरे दिन सुबह हेमा के चाचा विजय जिस अख़बार में काम करते थे वहां समीक्षा छपी ही नहीं थी। संजय जानता था कि यही होगा। क्यों कि उसे वहां के लोगों की अतिशय क्षुद्रता के बारे में पता था। नाटक या उस के वजन से उन्हें कुछ लेना देना था नहीं। टारगेट तो यह रहा होगा कि विजय की भतीजी का नाटक है सो काटो। और विजय इतने संकोची कि न कुछ कर पाए होंगे, न कुछ कह पाए होंगे। एक अंगरेजी अख़बार में सिर्फ फोटो से काम चला दिया गया था। और एक हिंदी अख़बार में ‘‘समीक्षा’’ देख उस ने सिर पीट लिया। नाटक की समीक्षा तो ख़ैर नदारद थी ही रिपोर्ट के नाम पर भी इतने मरे, इतने घायल अंदाज में। पहले पैरे में फला की ओर से फला नाटक हुआ। दूसरे और तीसरे पैरे में नाटक की कहानी यह है। और चौथे पैरे में फला का काम बहुत अच्छा था, फला फला का ख़राब। ध्वनि, प्रकाश उत्तम। निर्देशन कसा हुआ। समीक्षा ख़त्म ! तिस पर निर्देशक देवेंद्र का नाम भी गलत छपा था। पढ़ कर उसे खीझ भी हुई और शरम भी आई। इसके सिवा वह कर भी क्या सकता था। अलबत्ता वह हमेशा की तरह सोच सकता था। और उस ने सोचा कि यह गदहपचीसी समीक्षा न ही छपी होती तो अच्छा होता। और अख़बार सिरहाने रख वह चुपचाप आंखें मूंद लेट गया।
शाम को उस का मन हुआ कि आज वह नाटक देखने न जाए। पर चूंकि पंजाबी लेखिका अजीत कौर की आत्मकथा ‘‘ख़ानाबदोश’’ का मंचन था सो वह जाने का लोभ छोड़ नहीं पाया।
ख़ानाबदोश वैसे भी उस ने पढ़ रखी थी। ख़ानाबदोश के पहले उस ने दो और महिला लेखिकाओं की आत्मकथा पढ़ी थी। एक अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट और दूसरी कमला दास की मेरी कहानी। पहले पहल जब उस ने रसीदी टिकट पढ़ी तो उसे वह लाजवाब लगी। ख़ास कर अमृता की वह साफगोई कि मेरे बेटे पूछते हैं कि मम्मी हम इमरोज पापा के बेटे हैं कि साहिर अंकल के ? ऐसे ही और भी कई प्रसंग उसे कुलबुला गए थे। फिर जब उस ने कमला दास की मेरी कहानी पढ़ी तो अमृता प्रीतम की बोल्डनेस फीकी हो गई। जो महिला तमाम सेक्स संबंधों समेत अपने बेटे के दोस्त के साथ संबंध स्वीकार सकती है वह कितनी ईमानदार होगी, उस ने तब सोचा था। बल्कि कमला दास की मेरी कहानी दरअसल उन की आत्मकथा नहीं उन की सेक्स कथाओं का पिटारा थी। जब कि रसीदी टिकट सिर्फ संबंधों का खुलासा करती थी। प्याज की परत दर परत। पर ख़ानाबदोश जब संजय ने पढ़ी तो रसीदी टिकट और मेरी कहानी बहुत फीकी लगी। ख़ानाबदोश की कैफियत ही कुछ और थी। पति के जुल्मों, सताई हुई औरत के अकेलेपन और प्रेमी (?) द्वारा निरंतर देह शोषण रेखांकित करती कथा। अकेलेपन का संत्रास औरत को कैसे तार-तार करता है यह तो सभी जानते हैं पर अजीत कौर जब उसे अपने ‘‘पन’’ से पेश करती हैं, बिलकुल नंगे सच की तरह तो सांघातिक तनाव का एक तंबू सा तन जाता है।
पर अफसोस कि जिस हेमा ने कल भुवनेश्वर की कहानी में पति, प्रेमी और स्त्री के जिस तनाव को बड़े मन से जी कर स्त्री-पुरुष संबंधों का बासीपन, टटकापन, देह का द्वंद्व और मन का अंतर्द्वंद्व जिस सहजता से परोसा था आज उस में वही सहजता नदारद थी। शायद इस लिए भी कि अजीत कौर की आत्मकथा में संवाद बड़े-बड़े थे। पर संजय को लगा कि बात संवादों के लंबा होने भर की ही नहीं थी। हेमा के वाचन में वह तरलता भी नहीं थी जो ख़ानाबदोश के संवादों को दरकार थी। उलटे उस के वाचन में एक अजीब सा कसैलापन तिर रहा था। और वह सर्रे से ऐसे बोले जा रही थी गोया संस्कृत का कोई रूप रट रही हो। वह जो तीव्र अनुभूति, संवेग, मन का उद्वेग और आकुलता अजीत कौर के संवादों में, आत्मकथा में उपस्थित थी हेमा के अभिनय में उभरने के बजाय दबती जा रही थी। संवादों में जो मेह, मीठे मेह की तरह बरसना चाहिए था, हेमा की जबान पर आते ही वह बादलों की तरह गड़गड़ा कर गुजर जाता था। वह लयात्मकता, वह सुर और वह संत्रास छूट-छूट जाता था। घना नहीं हो पाता था। तिस पर ओमा का किरदार निभा रहे वागीश के संवादों में ‘‘हैगा’’ जैसे कई शब्द और पंजाबी शब्दों का बेशुमार इस्तेमाल आत्मकथा में वर्णित तनाव को उद्घाटित करने के बजाय एक अजीब सा हास्य रचा जाता था। संजय ने भी ख़ानाबदोश आत्मकथा पढ़ी थी, हिंदी में। उस में सिवाय तनाव, अकुलाहट और एक बेधड़क सच के साथ प्यार की तपिश महसूस की जा सकती थी, अकेलेपन की आग और उस की आंच ही दहकती मिली थी संजय को। पर यहां तो लोग रह-रह कर ओमा वाले चरित्र-संवादों को सुन-सुन हंस रहे थे। जब कि ओमा आत्मकथा में कहीं-कहीं स्वार्थ तो गुनता था पर हास्य हरगिज नहीं बुनता था।
संजय को भी इस प्रस्तुति से उम्मीद थी और शायद जरूरत से ज्यादा, उस पर पानी फिर गया था। वह घर से यह भी सोचकर आया था कि नाटक में सखाराम बाईंडर या हयबदन टाइप कुछ बोल्ड दृश्यबंध भी देवेंद्र ने रचे ही होंगे। जिस की कि पूरी-पूरी गुंजाइश थी। रंडियों के कोठे, कैबरे सब कुछ वाचन में गुजर गए। ओमा, अजीत कौर के कुछ भावुक क्षण भी दृश्यबंध के बजाय सर्रे से वाचन में कब गुजर गए पता ही नहीं चला।
पर जब नाटक ख़त्म हुआ तो लगभग सब के सब विभोर थे, ‘बहुत अच्छा’’ ‘‘बहुत बढ़िया’’ जैसे जुमलों में लोग बतिया रहे थे, ‘‘गजब कर दिया आप ने ।’’ एक स्थानीय रंगकर्मी देवेंद्र से कहते हुए भावुक हुए जा रहे थे। उन की भावकुता में और भी कई लोग बह चुके थे। और देवेंद्र निर्विकार मुसकुराते जा रहे थे।
जब सब को नाटक अच्छा लगा तो संजय को क्यों नहीं जमा ? उस ने अपने आप से पूछा। फिर सोचा कि शायद इस लिए कि उस ने ख़ानाबदोश पढ़ रखी थी सो उस कथा और इस प्रस्तुति में वह लय खोजता रहा। यही बात उस ने देवेंद्र से भी कही, ‘‘आत्मकथा वाली लय इस प्रस्तुति में नहीं आ पाई।’’ वह बुदबुदाया ‘‘शुरुआत ही में कथा और अभिनय का सुर गड़बड़ा गया। आप को नहीं लगा ?’’
‘‘हो सकता है।’’ देवेंद्र पेशेवर अंदाज में बोले, ‘‘मैं ने देखा नहीं। मैं बाहर था।’’
‘‘हद है।’’ उस ने कहना चाहा पर संकोचवश कह नहीं पाया। बात बदल कर बोला, ‘‘हमारा ख़याल है आप ने शायद पहली बार कोई बायग्राफी उठाई है।’’
‘‘आटो बायग्राफी !’’ देवेंद्र उस की बात काटते हुए बोले। संजय को लगा जैसे देवेंद्र ने ‘‘आटो बायग्राफी’’ नहीं कहा उसे सड़ाक से छड़ी मारी है। पर वह पुराने संबंधों का ख़याल कर मन मसोस कर रह गया। फिर उस से गलती भी तो हुई थी आटो बायग्राफी को बायग्राफी कह गया था। उस ने बात फिर से संभाली, ‘‘हां-हां, आटो बायग्राफी पर उठाई तो पहली ही बार है !’’
‘‘हां।’’ संक्षिप्त सा उत्तर दे कर देवेंद्र जब चुप हो गए तो उस ने फिर पूछा, ‘‘कल क्या कर रहे हैं ?’’ वह सोच रहा था कि घर पर खाने को बुलाए। पर वह बोले, ‘‘कल तो सुबह ही चला जाऊंगा।’’
‘‘गोमती से ?’’
‘‘नहीं बाई रोड। शाहजहांपुर। रात को वहीं से लखनऊ मेल पकड़ूंगा दिल्ली के लिए।’’
‘‘आप का नया पता क्या है ?’’
‘‘अभी तो स्कूल ही है।’’
‘‘मतलब एन॰ एस॰ डी॰।’’
‘‘हां। पर अगले महीने से साल भर के लिए बेंगलूर।’’
‘‘ठीक है चिट्ठी लिखूंगा।’’ हालां कि वह और भी कई बातें देवेंद्र से करना चाहता था। बहुत सी यादें ताजा करना चाहता था। बहुत से लोगों के बारे में जानना चाहता था। पर जाने क्यों उस का मन उचट गया। और ‘‘ठीक है, चिट्ठी लिखूंगा।’’ कह कर चल तो दिया पर उस ने देखा देवेंद्र के चेहरे पर तब जो भाव उभरा था, जो लकीरें खींचीं थी उस से लगा कि संजय के इस व्यवहार की उन्हें भी उम्मीद नहीं थी। उस ने फिर उन्हें आंखों ही आंखों में जैसे तसल्ली सी दी गरदन और सिर हिलाया और चल दिया।
बाहर आ कर उस ने स्कूटर की किक ऐसे मारी जैसे देवेंद्र और अपने परिचय, जान-पहचान को किक मार रहा हो। और जैसे अपने आप से पूछने लगा, ‘‘आदमी इतना अजनबी कैसे हो जाता है ? इतना संवेदनहीन क्यों हो जाता है ?’’
हो जाता है, होना ही पड़ता है। उस ने अपने मन को समझाया।
लोगों की संवेदनहीनता का एक उदाहरण उस ने अभी बीच नाटक में भी देखा। हेमा एक दृश्य में बाल झटक कर कुछ बोलने को जैसे मुड़ी उस के बालों में गुंथी एक चिमटी छिटक कर स्टेज से नीचे आ गिरी। जिस का उसे गुमान भी नहीं हुआ। पर नीचे आगे की लाइन में बैठी उस की बूढ़ी दादी ने उस की चिमटी गिरते, बाल खुलते देख लिया। और उस मद्धिम सी रोशनी में भी उन की बूढ़ी आंखों ने उठ कर हेमा की चिमटी ढूंढी और जा कर धीरे से स्टेज के सामने चिमटी लिए खड़ी हो गईं। खड़ी तो वह हो गईं चिमटी लिए पर हेमा को डिस्टर्ब भी नहीं करना चाहती थीं। संजय ने गौर किया कि हेमा ने उन्हें एक क्षण तो कनखियों से देखा। पर दूसरे ही क्षण वह उन्हें अनदेखा कर अपने संवादों में, अभिनय में डूब गई। बिलकुल किसी प्रोफेशनल की तरह। पर वह बेचारी वृद्धा, दादी मां उसे अपलक निहारती चिमटी देने के लिए असहाय खड़ी रहीं। तब तक पीछे से कुछ लोग बोले, ‘‘अरे इन्हें हटाओ।’’ कोई बोला, ‘‘शायद मेंटली डिस्टर्ब हैं।’’ तो किसी ने बात पूरी करते हुए कहा, ‘‘ऐसे लोगों को यहां लोग क्यों ले आते हैं।’’ और ऐसे-वैसे ही कुछ और जुमले लोग बोलते रहे। संजय के बाएं बाजू बैठा एक पत्रकार भी बुदबुदाया, ‘‘ये हैं कौन ?’’ तो संजय ने फुसफुसाते हड़काया, ‘‘चुप बैठो, इस लड़की की दादी हैं ?’’
‘‘किस लड़की की ?’’ वह भी फुसफुसाया।
‘‘जो स्टेज पर है।’’
‘‘पर यह तो दिल्ली से आई है।’’
‘‘पर ओरिजिन है लखनऊ की।’’
‘‘अच्छा !’’ वह निढाल हो कर ऐसे बोला जैसे उस की जिज्ञासा शांत हो गई हो। पर दूसरे ही क्षण वह फिर फुसफुसाया, ‘‘क्या मेंटली डिस्टर्ब हैं ?’’
‘‘नहीं।’’ संजय ने उसे धौंसियाया, ‘‘भगवान के लिए अब चुप रहो।’’ और वह चुप हो गया था। इसी बीच संजय के दाएं हाथ की और बैठे हुए आदमी ने जो एक कथक नृत्यांगना के साथ आया था, आगे बढ़ कर हेमा की दादी को धीरे से उन की जगह ला कर बिठा दिया। वापस आ कर उस ने बताया कि वह उसे उस की गिरी चिमटी देना चाहती थीं ताकि वह अपने खुले बाल बांध ले। पर उस दादी की वेदना, निश्छलता और निजता पर लोगों ने ‘‘क्रेक’’ की मुहर लगा दी थी।
तो कोई क्या कर सकता था ?
लोग क्यों नहीं समझते हैं किसी की भावनाओं को ? उस ने खिन्न होते हुए सोचा! क्या समझें लोग ! जब हेमा जैसी समर्थ अभिनेत्राी अजीत कौर का चरित्र नहीं समझ पाती, उस चरित्र का मर्म, उस के दुःख और उस का दंश नहीं समझ पाती, उस के अकेलेपन की आह और संत्रास अपने अभिनय में नहीं उकेर पाती, और देवेंद्र जैसा नामी-गिरामी सजग निर्देशक उस आत्मकथा की मछली-सी छटपटाती लेखिका का चरित्र बाजार में बिकती निस्पंद निर्जीव मछली के मानिंद बना देता है, उस का मन नहीं थाह पाता, ओमा जैसे चरित्र को हास्य में ढकेल देता है, उस का सूत्र नहीं पकड़ पाता तो बाकियों की क्या बिसात ?
और संजय भी सब को, सब की भावनाओं को समझ लेता है भला ? अगर समझ लेता तो चेतना उस से बार-बार क्यों कहती रहती है, ‘‘आप मुझे क्यों नहीं समझते ?’’
बेचारी चेतना !
चेतना जब पहली बार उस से मिली थी तो वह बंडी लुंगी पहने बैठा था। प्रकाश उसे संजय के घर ले आया था। वह किसी प्राइवेट कंपनी में काम करती थी। नौकरी से निकाल दी गई थी। कंपनी वाले उसे रख लें या कम से कम उस का बकाया उसे दे दें। ऐसा वह चाहती थी। प्रकाश जानता था कि संजय यह काम करवा सकता है। प्रकाश उस से इस बारे में पहले भी बात कर चुका था। मामला चूंकि लड़की का था इस लिए संजय ने दिलचस्पी ले ली। नहीं आज कल अक्सर सब से कहने लगा था कि ‘‘समाज सेवा अब बंद !’’ क्यों कि बहुतेरे लोग किसिम किसिम का काम ले कर आते। काम करवाते और काम निकलते ही पहचानना भूल जाते। ऐसा एक नहीं अनगिनत बार हो चुका था। कुछ लोग तो बाकायदा सिर पर सवार आते, काम करवाते और बीच में दलाली भी वसूल लेते। संजय को पता तक नहीं चलता। और बाद में जब उसे यह सब पता चला तो वह हतप्रभ रह गया। बंद कर दी उस ने समाज सेवा। उस ने शुरू-शुरू में प्रकाश से भी यही कहा कि, ‘‘समाज सेवा बंद कर चुका हूं। तुम तो जानते ही हो।’’
‘‘पर अब की समाज सेवा नहीं अपनी सेवा करो !’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘एक लड़की है। उस की मदद कर दो। हो सकता है तुम्हारी बात बन जाए। साले बड़ा भुखाए घूमते हो।’’
‘‘ठीक है, ठीक है। पहले ले तो आओ।’’ संजय ने कह तो दिया। पर चेतना पर रौब गालिब करने के लिए प्रकाश ने पहले खुद ही मामला सुलझाने की कोशिश की और रह-रह कर चेतना की तारीफ कर-कर कहता रहा, ‘‘आप का चेहरा बड़ा फोटेजनिक है। आप माडलिंग क्यों नहीं करतीं ?’’ लड़कियां फंसाने का यह उस का पुराना ट्रिक था। और अक्सर लड़कियां उस के इस ट्रिक में आ जातीं। शादी के इंतजार और रोजगार की तलाश में लगी लड़कियां। प्रकाश ने ऐसी कितनी लड़कियों को पार किया था। पर चेतना उस के ट्रैक पर नहीं आई तो नहीं आई। वह उस का काम भी नहीं करवा पाया था। पर जब उस ने चेतना को संजय से मिलवाया तो जाने क्यों वह उस के साथ तुरंत खुल गई। प्रकाश चकित था। पर संजय ने चेतना से दुबारा खुद मिलने की कोशिश कभी नहीं की। पर एक दिन प्रकाश ने पूछा, ‘‘पिकनिक पर चलोगे ?’’ उस ने अनिच्छा जताई तो वह बोला, ‘‘चेतना भी चल रही है।’’ तो संजय तुरंत तैयार हो गया। पर ऐन वक्त पता चला कि चेतना नहीं आई तो वह गाड़ी से उतर गया। बोला, ‘‘तुम लोग जाओ। मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही।’’ और वापस आ कर उस ने बेतहाशा पी। जाने क्यों ?
इस का जवाब वह आज तक ढूंढ नहीं पाया है।
पर अचानक चेतना एक दिन उस के घर आई। बोली, ‘‘अभी मेरे साथ चल सकेंगे?’’
‘‘क्यों ? क्या बात है ?’’
‘‘बात बाद में बताऊंगी। पहले चलिए।’’ वह साधिकार बोल रही थी। ऐसे कि जैसे वह बरसों से उसे जानती हो। और संजय कपड़े पहन कर उस के साथ निकल पड़ा था, ‘‘चलना कहां है ?’’
‘‘किसी बड़े पुलिस अफसर के पास !’’
‘‘बात क्या है ?’’
‘‘टाइम नहीं है। समय बहुत कम है। पहले चलिए, रास्ते में सब बताती हूं।’’ रास्ते में जो उस ने बताया वह मुख़्तसर यह था कि लखनऊ से थोड़ी दूर एक गांव में दहेज के फेर में सुशीला नाम की एक औरत जला दी गई थी। वह औरत कुछ पढ़ी लिखी थी और दहेज विरोधी एक संस्था को उस ने चिट्ठी लिख कर अपने ऊपर हो रहे अत्याचार की सूचना दी थी। तो उस दहेज विरोधी संस्था की कुछ अति उत्साही लड़कियां उस के घर पहुंच गईं। बताया कि उस की सहेलियां हैं। पर उस औरत की अनपढ़ सास तड़ गई। उस ने सुशीला की जगह अपनी बेटी को उन से मिलवा दिया। और यह दहेज विरोधी संस्था की लड़कियां उस की बेटी से तुरंत खुल बैठीं कि तुम्हारी चिट्ठी मिली थी। तुम घबराओ नहीं। तुम्हारे ऊपर अब और अत्याचार नहीं होने दिया जाएगा। वगैरह-वगैरह। भीतर बैठी सुशीला को जब इस की भनक मिली तो उस का हाड़ कांप गया। वह समझ गई जो वह अभी भी चुप रही तो उस की खै़र नहीं। रोज़-रोज़ की पिटाई से वह पुख़्ता हो गई थी। पर अब तो उस की जान पर बन आई। घूंघट काढ़े, गठरी बनी वह दरवाजे पर आ कर धप्प से बैठ गई और चिल्लाई, ‘‘सुशीला यह नहीं, मैं हूं। यह तो मेरी ननद है।’’ आगे वह कुछ और बोलती इस के पहले उसे सास ढकेल कर घर में बंद कर चुकी थी। और यह शहरी लड़कियां कुछ प्रतिवाद करतीं, कुछ समझ पातीं, इस के पहले चार मुस्टंडे उन्हें गालियां दे-दे कर गांव से बाहर भगा आए। इन लड़कियों के साथ इन मुस्टंडों ने ब्लाउज में हाथ डालने जैसी अभद्र हरकतें भी कीं और वार्निंग दी, ‘‘अब जो हियां अइहो तो सुहाग रात मनावे अइहो।’’ घबराई लड़कियां कुछ दूर पर स्थित संबंधित थाने पर गईं तो वहां भी उन के साथ छेड़खानी हुईं। मदद मिलने की बात तो दूर की कौड़ी थी। दुबारा वह कुछ पुरुष सदस्यों के साथ थाने गईं। सी॰ ओ॰ के आदेश के साथ जो उन्होंने इस दहेज विरोधी संस्था के आवेदन और साथ में नत्थी सुशीला की चिट्ठी पर दे दिए थे। आदेश क्या था टालू मिक्सचर था, ‘‘जांच कर उचित कार्रवाई करें।’’ यह आवेदन भी एस॰ एस॰ पी॰ के नाम था। एस॰ एस॰ पी॰ ने सी॰ ओ॰ को मार्क किया था। और सी॰ ओ॰ ने थानाध्यक्ष को ‘‘जांच कर उचित कार्रवाई करें।’’ लिख दिया था। पर थाने में दुबारा जा कर उन के उत्साह पर फिर पानी पड़ गया। दारोगा ने वह आदेश एक तरफ फेंकते हुए कहा, ‘‘ठीक है आप लोग जाइए। हम देख लेंगे।’’ और खुद कहीं चल दिया। यह लोग फिर सुशीला के गांव गए। पर बेकार गया। सुशीला से फिर मिलने नहीं दिया गया। उस की सास ने बताया, ‘‘नइहर गई। भाई आवा रहा लइ गवा।’’ पर जब यह लोग गांव से बाहर आ रहे थे तब कहीं एक कोने में दुबकी खड़ी घूंघट काढ़े एक औरत बुदबुदाई, ‘‘नइहर वइहर कहीं ना गई। सब जलाई डारे हैं। घर ही मा है। मर रही बेचारी।’’ कह कर वह अचानक ओझल हो गई।
दहेज विरोधी कार्यकर्ता फिर थाने आईं और बताया कि वह जला दी गई है। पर थाने वालों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। सब लाचार वापस आ गईं। चेतना को जब पता पड़ा तो उस ने जाने किस आस पर उन को भरोसा दिलाया और भागी संजय के पास चली आई। बात जब ख़त्म हुई तो संजय ने उसे घूरते हुए पूछा, ‘‘तो आजकल दहेज विरोधी संस्था में हो ?’’
‘‘नहीं।’’ वह बोली, ‘‘मेरी एक सहेली है।’’ और उसे जैसे लगा कि संजय उस की बात की गंभीरता से नहीं ले रहा वह बोली, ‘‘बोलिए, आप मदद करेंगे कि नहीं ?’’
‘‘मदद क्यों नहीं करूंगा ?’’ संजय बिफरा, ‘‘पर यह बात तुम घर पर भी बता सकती थी।’’
‘‘यहां बताने से क्या नुकसान हो गया ?’’
‘‘बहुत ज्यादा।’’ वह स्कूटर वापस मोड़ता हुआ बोला, ‘‘घर से फोन करता। फोन से काम ज्यादा आसान हो जाता। ऐसे किस-किस के यहां भागते फिरेंगे ?’’
‘‘फोन से काम हो जाएगा ?’’
‘‘बिलकुल किसी एक से बात करने भर से तो काम चलने वाला है नहीं। और फिर पता नहीं कौन मिले, कौन न मिले।’’
‘‘सॉरी। वेरी सॉरी।’’ वह बीच में ही बोल पड़ी।
‘‘कोई बात नहीं।’’ उस ने जैसे उसे तसल्ली दी। घर आते ही उस ने पुलिस महानिदेशक का फोन मिलाया। वह नहीं मिले। फिर वह आई॰ जी॰ जोन का फोन मिलाने लगा। फोन नहीं मिल रहा था तो वह भुनभुनाने लगा और सोचा कि एस॰ एस॰ पी॰ से ही बात कर लें। जाने क्या उसे सूझा कि वह चेतना से पूछ बैठा, ‘‘आखि़र लोकल पुलिस क्यों नहीं सपोर्ट कर रही। दहेज के खि़लाफ तो बहुत सख़्त कानून है। सुशीला की चिट्ठी काफी है उस के परिवार वालों को अंदर करने के लिए।’’
‘‘अब यह तो मैं नहीं जानती कि बात क्या है। पर मेरी सहेली बता रही थी कि सुशीला का हसबैंड कहीं सब इंस्पेक्टर तैनात है। शायद इसी लिए।’’
‘‘ओह !’’
‘‘अब अगर वह सचमुच जला....।’’ वह बोल रही थी कि संजय ने इशारे से चुप रहने के लिए कहा। आई॰ जी॰ जोन का फोन मिल गया था। संजय ने सर्रे से सारा किस्सा बताया और बोला, ‘‘प्लीज हेल्प मी।’’ आई॰ जी॰ जोन को फोन करना काम आया। उन्हों ने फौरन स्पेशल स्कवाड एक डी॰ एस॰ पी॰ स्तर के अधिकारी के नेतृत्व में भेजने का वादा किया। और संजय से कहा कि, ‘‘ चाहे तो आप भी साथ जा सकते हैं। पर ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे के अंदर आप आ जाइए।’’
‘‘नो थैंक्यू। आप मेरे लिए इंतजार मत करिए। मैं सीधे पहुंच जाऊंगा।’’
‘‘ओ॰ के॰।’’ आई॰ जी॰ ने कहा तो फोन रखते हुए उस ने सोचा क्यों न एक एंबुलेंस भी ट्राई कर ले। क्या पता वह औरत ज्यादा जल गई हो। और उस ने हड़बड़ी में स्वास्थ्य महानिदेशक को फोन मिला दिया। वहां से टका सा जवाब मिला, ‘‘अस्पताल फोन कीजिए।’’
‘‘पर आप इंस्ट्रक्ट तो कर सकते हैं अस्पताल को।’’
‘‘नो। इट्स नाट पार्ट आफ माई ड्यूटी।’’ सुन कर संजय का दिमाग ख़राब हो गया और डपटते हुए बोला, ‘‘शट आप ! तुम्हें किस ने डाइरेक्टर जनरल हेल्थ बना दिया? कह रहा हूं कि समय कम है। और मानवीय आधार पर मेरी ओर से आप ही फोन कर दीजिए। और शायद मालूम नहीं कि एंबुलेंस के फोन नंबर सिर्फ कहने के लिए होते हैं। डफर !’’ कहते हुए वह फोन रख ही रहा था कि उधर से डाइरेक्टर जनरल हेल्थ कुत्ते की तरह गुर्रा रहा था, ‘‘रास्कल यू शट अप।’’
संजय समझ गया कि गलत जगह फोन कर दिया उस ने। वह बड़ी देर तक टेलीफोन डाइरेक्टरी में छपे एंबुलेंस फोन नंबर मिलाता रहा। पर हर नंबर पर घंटी बजती रहती। कोई फोन उठाने वाला नहीं मिला। फिर उसे अपने एक डॉक्टर दोस्त की याद आई। वह फोन पर मिल तो गए पर एंबुलेंस की बात पर कतराने लगे। सारी बातचीत का उन का उत्साह जैसे ख़त्म हो गया था। संजय डॉक्टर पर भी बिगड़ पड़ा, ‘‘मानवता की सेवा वाली कसम क्या आप की सारी कौम ने घोल कर पी लिया है ?’’ डॉक्टर साहब फिर भी नहीं पिघले। बोले, ‘‘क्या बेवकूफी की बात करते हैं आप ? कैसी मानवता और कहां की मानवता ?’’ फिर संजय को अचानक याद आया कि एक उस का परिचित डॉक्टर ऐसा है जो अख़बारों में अपना नाम छपा देख कर बड़ा खुश होता है। और उस ने फौरन इस डॉक्टर का फोन बीच बात में काट कर उस डॉक्टर को मिलाया। बात बन गई थी। उस ने पता लिखवाया तो डॉक्टर बोला, ‘‘यह तो रूरल एरिया है। हम कैसे भेज सकते हैं एंबुलेंस वहां ?’’ संजय ने चेतना से पूछा, ‘‘क्यों गाड़ी वहां पहुंच जाती है ? सड़क वड़क है वहां ?’’
‘‘हमें क्या मालूम ?’’
‘‘बात सड़क की नहीं, एरिया की है।’’ डॉक्टर उधर से बोला तो संजय उसे छेड़ते हुए बोला, ‘‘बात न सड़क की है, न एरिया की। बात मानवता की है डॉक्टर साहब। अब आप पुलिस वालों की तरह मत बोलिए कि वहां तो फलां थाना पड़ता है।’’ डॉक्टर साहब मान तो गए पर बोले, ‘‘है तो मुश्किल। फिर भी देखता हूं। सुपरिंटेंडेंट साहब से स्पेशल परमिशन लेनी पड़ेगी।’’
‘‘अब यह आप का काम है। मैं निश्चिंत होता हूं।’’ कह कर उस ने फोन काट दिया। फिर उस ने चेतना से कहा, ‘‘जाओ अपनी दहेज विरोधी सहेली से बता दो कि वह भी वहां पहुंच जाए अपने साथियों को ले कर। फिर जैसा हो बताना।’’
‘‘क्यों आप नहीं चलेंगे ?’’ चेतना सकुचाती हुई बोली।
‘‘हम क्या करेंगे जा कर ?’’
‘‘प्लीज चले चलिए। क्या पता वहां फिर कोई गड़बड़ हो। आप रहेंगे तो ठीक रहेगा। जैसे इतना किया है थोड़ा-सा और प्लीज !’’ वह बार-बार इतना ‘‘प्लीज, प्लीज’’ कहने लगी कि संजय को उस के साथ जाना पड़ा। जाते समय अपने दफ्श्तर भी फोन करता गया कि क्या पता वापस आने में लेट हो जाए या न आ पाए।
यह बैशाख की दोपहर थी। बिलकुल देह जला देने वाली।
सुशीला के गांव जब वह पहुंचा तो न तो पुलिस पहुंची थी, न ही एंबुलेंस ! संजय बड़ा परेशान हुआ। दहेज विरोधी फोरम की लड़कियां तो जैसे वहां से तुरंत भाग लेना चाहती थीं। संजय ने उन्हें समझाने की कोशिश की तो वह सब लगभग एक साथ बोल पड़ीं, ‘‘आप नहीं जानते यहां के लोगों को।’’ उन के चेहरे पर जैसे आतंक की दुहरी-तिहरी इबारतें अपने आप लिख गई थीं। इतनी साफ कि एक बार संजय भी घबराया। पर भीतर से साहस बटोर कर बोला, ‘‘आइए पहले सुशीला के घर चलते हैं।’’
‘‘ना बाबा।’’ वह सब फिर एक साथ बोल पड़ीं।
‘‘आओ चेतना हम दोनों चलते हैं।’’ वह जैसे चेतना में हिम्मत भरता हुआ बोला, ‘‘घबराओ नहीं मैं भी गांव का ही रहने वाला हूं।’’ सुन कर चेतना चल तो दी पर अचानक ठिठक गई। एक लड़की की ओर देखती हुई बोली, ‘‘आओ तुम लोग भी चलो न सुनीता!’’
‘‘नहीं, तुम इन गांव वालों को नहीं जानती। बिना पुलिस फोर्स के जाने लायक नहीं है।’’
‘‘हां, जैसे पुलिस फोर्स बड़ी शरीफ होती है।’’ संजय चुटकी लेते हुए बोला।
‘‘आप को तो मजाक सूझ रहा है। यहां जान सूख रही है। आप पुरुष हैं, आप क्या समझें। स्त्री होते तो जानते कि अपमान क्या होता है ?’’ दहेज विरोध फोरम की एक दूसरी लड़की बोली। संजय ने सोचा शायद पिछली बार गांव के गुंडों ने उसी के ब्लाउज में हाथ डाला होगा। संजय का मन हुआ कि कुछ बोले पर गांव की तरफ से कुछ गांव वालों को आता देख चुप रह गया। गांव वालों को आता देख सभी लड़कियां चीख़ीं, ‘‘ओ माई गाड !’’ संजय ने देखा चेतना भी उन के साथ हो गई थी। वह पछताया कि नाहक ही इन मोपेड चलाने वाली चार लड़कियों के साथ वह यहां आ गया। आई॰ जी॰ का कहा उसे मान लेना चाहिए था। पुलिस फोर्स के साथ ही आना चाहिए था।
गांव वाले करीब आ गए थे। करीब सात आठ थे। दो के हाथ में लाठियां थीं। और लग रहा था जैसे एक लड़का कमर में कट्टा या चाकू जैसा कुछ खोंसे हुए था। आते ही सब के सब लड़कियों की ओर बढ़ गए। एक लाठी लिए संजय की ओर बढ़ा। बोला, ‘‘का बात है। हियां काहें मजमा बाधे हो इन रंडियों को ले कर।’’ संजय का जैसे ख़ून खौल उठा। पर मौके की नजाकत देख वह चुप ही रहा। पर वह लाठी वाला लगातार उसे घुड़पता जा रहा था। और जब वह कई बार, ‘‘का बात है ?’’ करता रहा और संजय फिर भी जब कुछ नहीं बोला तो उस ने खींच कर एक थप्पड़ संजय को मारा और बोला, ‘‘अबे तुम ही से पूछित हैं।’’ थप्पड़ खाते ही संजय अवाक् रह गया। मिमियाता हुआ बोला, ‘‘देखिए भाई साहब हम तो आप को जानते तक नहीं फिर आप क्यों....?’’ वह अभी बोल ही रहा था कि एक घूंसा उस के पेट में मारते हुए वह लठैत बोला, ‘‘अबहीं बतावत हैं तुमका कि हम कवन हईं !’’
पेट में घूसा खाते ही संजय गश खा कर बैठ गया। बैठते-बैठते उस ने देखा उधर लड़कियों को भी गांव के गुंडे मार रहे थे और एक लड़की जो साड़ी पहन कर आई थी उस की साड़ी दो गुंडे ऐसे खींच रहे थे गोया दुशासन हों। और वह बेचारी भी बिलकुल द्रौपदी की ही तरह अपनी लाज बचाती गुहार लगा रही थी, ‘‘बचाओ-बचाओ।’’ पर यहां कौन सुनने वाला था। एक संजय था जो एक थप्पड़ और एक घूसे में ही पेट पकड़ कर बैठ गया था। पर गुस्से और खीझ से तमतमाया। शायद उस के पास पिस्तौल होती इस समय तो वह कानून की ऐसी तैसी करता हुआ इन सालों को गोली मार देता। बिलकुल किसी फिल्म में अमिताभ बच्चन की तरह। पर यह मात्र कल्पना थी। हकीकत में तो वह गुंडे लड़कियों के साथ नोचा-नोची, ब्लाउज में हाथ डालने और करीब करीब शील भंग करने की हरकत पर उतारू थे और दूसरी तरफ संजय अभी श्याम बेनेगल की किसी फिल्म के नायक की तरह एक घूंसे में ही कांप रहा था। शायद ठीक वैसे ही जैसे फिल्म आक्रोश में गुंडों के आक्रमण के समय वकील बना नसीरूद्दीन शाह कांप रहा होता है। इधर संजय थरथरा रहा था उधर वह लड़की टूटती हुई आवाज में ‘‘बचाओ-बचाओ’’ की जगह ‘‘बस करो, बस करो’’ कहती हुई बिलबिला रही थी। संजय ने सोचा कि अब या तो वह मर जाए या मार डाले। पर अपनी इन नपुंसकता को मार कर, एक बार ललकार कर कम से कम खड़ा हो जाए ! और उस ने बिलकुल यही किया। उठ कर अचानक खड़ा हुआ और बोला, ‘‘मारो सालों को !’’ सुनते ही मार खा पस्त पड़ी लड़कियां भी उठ खड़ी हुईं और सचमुच वह गुंडों से जूझ पड़ीं। कि तभी उस ने देखा एंबुलेंस गाड़ी आ कर अचानक खड़ी हो गई। डॉक्टर उस में से निकलते हुए बोला, ‘‘संजय यह क्या हो रहा है। कौन हैं ये गुंडे ?’’ बिलकुल फिल्म अभिनेता शफी इनामदार स्टाइल में डॉक्टर का गरजना था कि गुंडे सकपका कर खड़े हो गए। हालां कि डॉक्टर खुद भी उन सब गुंडों को देख कर डर गया था। उस के चेहरे का रंग उड़ गया था और कांपने लगा था पर आवाज उस की बुलंद थी, ‘‘कौन हो तुम लोग ?’’ वह सब के सब निरूत्तर थे। तब तक एंबुलेंस के भीतर से दो वार्ड ब्वाय स्ट्रेचर ले कर बाहर निकले। इतने में गुंडों की हवा निकल गई। संजय समझ गया कि बात डॉक्टर की आवाज का नहीं एंबुलेंस का था। सरकारी गाड़ी देख कर उन की हक्की-बक्की बंद हो गई थी। साफ था कि सब गांव लेबिल के दादा थे। वरना गुंडे कहीं एंबुलेंस देख कर भी डरते हैं ? डॉक्टर अभी गुंडों को पाठ पट्टी पढ़ा ही रहा था कि पुलिस भी आ गई। डी॰ एस॰ पी॰ से संजय ने तुरंत अपना परिचय बताया और कहा कि ‘‘आप लोग देर से आए और देखिए हम पिट गए और लड़कियां भी।’’ डी॰ एस॰ पी॰ संजय और लड़कियों की ओर ध्यान दिए बगैर बोला, ‘‘पकड़ लो माधर चोदों को। पीट कर बैठा दो गाड़ी में भोंसड़ी वालों को। हाथ पैर तोड़ दो गांडुओं का।’’ डी॰ एस॰ पी॰ के पास जितनी गालियां थीं जब सब ख़ाली कर चुका तो संजय से बोला, ‘‘एक्सट्रीमली सॉरी ! असल में हम लोग रास्ता भूल गए थे। फिर लोकल पुलिस स्टेशन गए। वहां से एक सिपाही लिया। फिर यहां आ पाए।’’
‘‘कोई बात नहीं।’’ संजय बोला, ‘‘आप आए तो सही।’’
‘‘ठीक है तो गांव में चलें ? आई मीन सुशीला के घर।’’
‘‘हां, हां।’’ कहते हुए संजय ने देखा दहेज विरोधी संस्था की लड़कियों के चेहरे मार खाने के बावजूद फूल से खिल उठे थे। उस ने देखा चेतना का भी होंठ उस के होंठों की तरह सूज गया था। पर वह पुलिस के आ जाने से इतनी खुश थी कि सुनीता के साथ गांव के भीतर बिलकुल आगे-आगे चल रही थी। पुलिस का आना था कि समूचे गांव में सरे शाम सन्नाटा छा गया था। उस ने सोचा पुलिस की इमेज ही ऐसी है। पर है बड़े काम की। उस ने यह भी सोचा। और कम से कम इस समय तो काम की थी ही। नहीं उन सब की जाने क्या गति बना देते यह साले गुंडे !
सुशीला के घर पहुंचते ही उस की सास और ननद ने रोने-पीटने का वो ड्रामा रचा कि संजय भी एक बार द्रवित हो गया। सास, ननद दोनों यही रट लगाए पड़ी थीं कि, ‘‘सुशीला मायके चली गई है।’’ जितना रो सकती थीं, दोनों रोती रहीं और सब के पांव पकड़-पकड़ रहम की भीख मांगती रहीं। पर डी॰ एस॰ पी॰ खुर्राट था। सास से बोला, ‘‘देख, भोंसड़ी अभी डंडा डाल-डाल के तुम्हारी और तुम्हारी बेटी की भतियान फाड़ दूंगा। चुपचाप सीधे से निकाल अपनी बहू को।’’
पर सास, ननद दोनों घाघ थीं। दोनों डी॰ एस॰ पी॰ के पांव पकड़ कर बैठ गईं। लगीं रोने। संजय को लगा कि दोनों सचमुच सच बोल रही हैं। उस ने डी॰ एस॰ पी॰ से कहा, ‘‘जाने दीजिए। जब वह घर में है ही नहीं तो बेचारी कहां से लाएंगी ?’’
‘‘हां, बचवा !’’ सुशीला की सास बोली।
‘‘आप चुप रहिए।’’ डी॰ एस॰ पी॰ ने संजय को डांटते हुए कहा, ‘‘इन छिनारों का छछन्न मैं जानता हूं।’’ कहते हुए उस ने सास, ननद दोनों को पैर से ऐसे झटका कि दोनों दूर जा गिरीं। और कहने लगीं, ‘‘साहब हमरो बेटा दारोगा है। हमरो इज्जत है।’’
‘‘चुप भोंसड़ी !’’ डी॰ एस॰ पी॰ ने गाली दी। कहा, ‘‘अब वह भोंसड़ी वाला दारोगा भी नहीं रह जाएगा।’’ फिर रुक कर पूछा, ‘‘इस समय तुम्हारे घर में कोई मर्द है ?’’
‘‘नाहीं हजूर !’’ सुशीला की सास कांपती हुई बोली।
‘‘काहे तेरा छोटा लौंडा कहां है ?’’
‘‘रिश्तेदारी में गवा है हजूर !’’
‘‘गांव के प्रधान को बुलावो।’’ डी॰ एस॰ पी॰ ने साथ आए सब इंस्पेक्टर से कहा। सब इंस्पेक्टर जब जाने लगा तो डी॰ एस॰ पी॰ फिर बोला, ‘‘गांव के चौकीदार को भी लाना। ‘‘साथ में दो तीन आदमी और।’’
‘‘सर !’’ कह कर सब इंस्पेक्टर चला गया तो डी॰ एस॰ पी॰ बोला, ‘‘देख बुढ़िया बहू को घर में से निकाल दे। नहीं तो घर की तलाशी लूंगा और तुम्हें बंद कर दूंगा।’’
बुढ़िया फिर भी टस से मस नहीं हुई।
पूरे घर की तलाशी ले ली गई पर सचमुच सुशीला कहीं नहीं थी। सब लोग बाहर आ गए। कड़क डी॰ एस॰ पी॰ भी ढीला पड़ गया। और संजय को सवालिया निगाह से टटोलने लगा। संजय को लगा कि कहीं अब यह डी॰ एस॰ पी॰ उसे भी न गाली दे दे सो वह उठ कर लड़कियों के बीच में आ गया। पर डी॰ एस॰ पी॰ उसे वहां भी घूरता रहा।
इस बीच ग्राम प्रधान ‘हजूर-हजूर’ करता पुलिस पार्टी के चाय पानी के इंतजाम में लग गया था। जाने कहां से कुछ और चारपाइयां, चारपाइयों पर रंगीन चादरें बिछ गईं थीं। पर संजय और दहेज विरोधी लड़कियां बैठने के बजाय खड़े रहे। गांव वाले पुलिस वालों की तो ताबेदारी कर रहे थे पर संजय और उस के साथ की लड़कियों को ऐेसे घूर रहे थे जैसे उन्हों ने उन के गांव में आग लगा दी हो।
‘‘बहुत शरीफ गांव है हजूर। और ई दारोगा जी का परिवार तो बहुत शरीफ।’’ ग्राम प्रधान डी॰ एस॰ पी॰ को ब्रीफ कर रहा था। और डी॰ एस॰ पी॰ संजय को ऐसे घूर रहा था जैसे किसी अपराधी को वाच कर रहा हो। और इधर संजय चेतना को ऐसे घूर रहा था जैसे कह रहा हो कि कहां ला कर फंसा दिया। शाम भी घिरती जा रही थी।
‘‘चौप्प !’’ डी॰ एस॰ पी॰ अब ग्राम प्रधान को डांट रहा था, ‘‘तभी से चपड़-चपड़ किए जा रहा है स्साला ! एक मिनट सोचने का मौका ही नहीं दे रहा।’’
‘‘छिमा सरकार। गलती हो गई।’’ ग्राम प्रधान मिमियाया।
‘‘पर भाई साहब, सुशीला है इसी घर में।’’ जिस लड़की की साड़ी गुंडे खींच रहे थे वह लड़की संजय से बोली, ‘‘मेरे ख़याल से पुलिस वालों से कहिए कि एक बार तलाशी और ले लें।’’ वह रुकी और बोली, ‘‘पिछली बार हम लोग आए थे तब भी बुढ़िया इसी तरह घड़ियाली आंसू बहा रही थी।’’ संजय अभी इस लड़की जिस का नाम शायद वीरा था, बात कर ही रहा था कि अचानक उस की नजर एक ऐसी औरत पर पड़ी जो बिलकुल पागलों की तरह उसे देखते ही उंगली हिला जैसे कुछ इशारा सा करने लगती। संजय ने जब ऐसा तीन-चार बार करते उस औरत को देखा और देखा कि वह अनायास नहीं सायास उंगलियां भांज रही है और पैर के अंगूठे से नीचे पड़ा भूसा कुरेद रही है। तो वह उस औरत का इशारा फौरन समझ गया। वह भाग कर डी॰ एस॰ पी॰ के पास गया और हड़बड़ाता हुआ बोला, ‘‘सुशीला इसी घर में है।’’
‘‘कौन सुशीला ?’’ डी॰ एस॰ पी॰ ने अचकचा कर पूछा।
‘‘वही औरत जो इन लोगों ने जला दी है।’’
‘‘मिस्टर संजय ! आप खुद घर का चप्पा-चप्पा छान आए हैं। फिर यह क्या हांक रहे हैं। यहां ख़बर थोड़े लिखनी है कि बे-सिर पैर की जो चाहा लिख दिया।’’
‘‘अच्छा आप मत चलिए। सिर्फ एक सिपाही दे दीजिए। मैं तलाश लूंगा।’’
‘‘मुझे जो करना है मैं खुद करूंगा। आप चुपचाप बैठ जाइए। और सिपाही क्यों दे दूं ? क्या मतलब है आप का ?’’
‘‘मतलब पानी की तरह साफ है। मेरी पक्की सूचना है कि सुशीला इसी घर में है। और भगवान के लिए इस वक्त बहस में मत पड़िए। क्योंकि सुशीला के लिए अभी एक-एक मिनट कीमती है। मैं जानता हूं वह जिन्दगी और मौत के बीच जूझ रही है। प्लीज !’’
‘‘ठीक है आइए। जब इतनी दूर आए हैं तो एक बार फिर झख मार लेते हैं।’’ कहते हुए डी॰ एस॰ पी॰ खड़ा हो गया। पीछे-पीछे लड़कियां भी आ गईं और वह सब इंस्पेक्टर भी एक सिपाही के साथ । पूरा घर फिर छान मारा। एक-एक कोना, कूड़ा, गद्दा, रजाई, चारपाई सब कुछ उलट-पलट कर देख लिया गया और कहीं ज्यादा चौकन्नी नजर से। पर सुशीला कहीं नहीं थी।
सभी उदास वापस आने लगे और डी॰ एस॰ पी॰ फिर गालियों पर उतर आया था, ‘‘माधर चोद ने पता नहीं किस भोंसड़ी में घुसेड़ लिया है।’’ डी॰ एस॰ पी॰ की गाली से लड़कियां बिदक रही थीं पर सुनते रहना लाचारी थी।
‘‘पता नहीं किस भोंसड़े में घुसेड़ रखा है।’’ डी॰ एस॰ पी॰ ने फिर यही बात दुहराई तो जैसे संजय का सिक्स्थ सेंस जागा और उस औरत द्वारा पैर के अंगूठे से भूसा कुरेदना उसे याद आया। वह डी॰ एस॰ पी॰ से बोला, ‘‘एक मिनट !’’
‘‘क्या है ?’’
‘‘जरा इस कमरे को भी देख लें ?’’
‘‘क्या बेवकूफी है ?’’ डी॰ एस॰ पी॰ खीझा, ‘‘आप देख रहे हैं भूसा भरा है।’’ वह बिदकते हुए बोला, ‘‘कैसे पत्रकार हैं आप ?’’
‘‘पर आप एक बार मेरा कहा तो मानिए। आखि़र धरती तो नहीं लील गई सुशीला को ?’’ संजय ने जैसे विश्वास जमाते हुए कहा, ‘‘मुझे याद है जब मैं छोटा था तो हमारे गांव में एक बार किसी के घर डाका पड़ा। डाकुओं के डर से घर की औरतों ने अपने जेवरों वाले बक्से भूसे में ही छुपाए थे। आप मान जाइए एक-बार प्लीज !’’
‘‘तो मैं अब भूसा पलटवाऊं ?’’
‘‘आफ कोर्स।’’ संजय बिलकुल पक्का होता हुआ बोला।
‘‘क्या है !’’ बिदकते हुए डी॰ एस॰ पी॰ ने सब इंस्पेक्टर से कहा, ‘‘लाओ भाई टार्च लाओ और दो सिपाहियों को डंडा सहित बुलाओ।’’
भूसे वाले कमरे में टार्च पड़ते ही भूसे के ऊपर कोई चीज जैसे हिली। हिलता देखते ही डी॰ एस॰ पी॰ की आंखें चमकीं और होंठ पर गाली फूटी, ‘‘हे भोंसड़ी वालों तुम ऊपर चढ़ो।’’ वह दोनों सिपाहियों से बोला। सिपाही भूसे पर गिरते फिसलते ऊपर चढ़ गए। वह हिलती हुए चीज कोई और नहीं सुशीला ही थी जो गुदड़ी में लिपटी भूसे पर पड़ी-पड़ी छटपटा रही थी। पर मुंह बंधा होने के नाते बोल नहीं पा रही थी। वहीं भूसे के ढूहे पर ही एक कोने में उस का देवर भी ढुका बैठा था। उसे भी मारते हुए पुलिस वाले नीचे लाए।
सुशीला की देह लगभग अस्सी प्रतिशत जल गई थी। मवाद, बदबू और भूसा अलग उस की देह में जहां-तहां चिपक गया था। डॉक्टर उस की हालत देखते ही हरकत में आया। डी॰ एस॰ पी॰ से बोला, ‘‘आप को एतराज न हो तो मरीज को हम तुरंत ले जाएं। कनूनी कार्रवाई आप आ कर कर लीजिएगा।’’
‘‘इट्स ओ॰ के।’’ यह पहली बार था जब डी॰ एस॰ पी॰ शराफत की जबान बोल रहा था। उधर वीरा डॉक्टर से पूछ रही थी, ‘‘सुशीला बच जाएगी सर ?’’
‘‘कोशिश तो यही रहेगी।’’ उस ने जैसे वीरा को ढाढस बंधाया, ‘‘बच भी सकती है।’’
‘‘थैंक गाड !’’ लगभग एक साथ सब लड़कियां बोल पड़ीं।
‘‘आप में से कोई चाहे तो एंबुलेंस में भी साथ आ सकता है।’’ डॉक्टर ऐसे में भी लड़कियों से लाइनबाजी पर उतर आया था।
‘‘हां, हां। क्यों नहीं।’’ वीरा और सुनीता कहती हुई सुशीला के स्ट्रेचर के साथ चल पड़ीं।
इधर पूरा गांव जैसे भक हो गया था। हर किसी का चेहरा धुआं। और डी॰ एस॰ पी॰ पूरे गांव को गाली देता सब इंस्पेक्टर से कह रहा था, ‘‘इन तीनों को भी जीप में बिठाओ।’’
संजय ने डी॰ एस॰ पी॰ को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘‘आप ने बड़ी मदद की।’’
‘‘कुछ नहीं हम ने तो नौकरी की। मदद तो आप लोगों ने हमारी की।’’ कहते हुए वह लड़कियों को घूरने लगा, ‘‘और मार खा कर भी। घबराइए नहीं उन सालों की आज गांड़ तोड़ दूंगा !’’ किसी फिल्म सरीखी इस सारी कथा का अंत यह हुआ कि बड़ी मुश्किल से सही, पर सुशीला बच गई थी। पर उस के बयान ने उस की सास, ननद, देवर और पति सब को बचा लिया था। संजय ने एक दिन चेतना से पूछा, ‘‘ऐसा क्यों किया सुशीला ने ?’’
‘‘वीरा बता रही थी कि उस की पांच साल की बेटी उन्हीं लोगों के पास थी।’’
‘‘ओह ! पर थी कहां वह। उस दिन तो वहां नहीं थी उस की बेटी ?’’
‘‘हां, उस बुढ़िया ने सुशीला को जलाने के बाद उस की बेटी को अपने मायके भेज दिया था। वह क्या करती भला ? मरती क्या न करती !’’
‘‘चलो संतोष इसी बात का है कि एक जान बच गई।’’
‘‘हां, ये तो है। पर एक नहीं दो-दो जान। सुशीला और उस की बेटी दोनों की।’’ चेतना बोली।
बाद में संजय चेतना के साथ सुशीला से मिला और कहा कि, ‘‘अगर आप अब से चाहें तो अपना बयान बदल सकती हैं। कह दिया जाएगा कि आप ने पहला बयान दबाव में और बेटी को बचाने के इरादे से दिया था। और फिर आप के पति, सास सभी को जेल हो जाएगी। इस पर सुशीला का जवाब संजय को सकते में डाल गया। वह बोली, ‘‘यह पाप मुझ से मत करवाइए।’’ वह बोली, ‘‘पति को जेल भिजवा कर ऊपर जा कर भगवान को क्या जवाब दूंगी ? मुझे नरक में मत डालिए।’’
‘‘पर यह तो बेवकूफी है। अंधविश्वास है।’’ संजय बिफरा।
‘‘जो भी है। पर अब आप चलिए !’’ चेतना बोली, ‘‘अब इस के बाद न कोई सवाल बनता है, न जवाब !’’
चेतना और संजय अब अक्सर किसी न किसी बहाने मिलने लगे। ऐसा भी नहीं था कि जैसे दोनों के बीच प्यार अंकुआ रहा हो। पर बेवजह ही सही वह मिलने लगे थे। काफी दिनों तक वह सचमुच बेमतलब ही मिलते रहे। संजय को कई बार ऐसा लगा जैसे वह उस का हाथ चूम लेना चाहता है या फिर उसे चूम लेना चाहता है। पर जाने क्यों उस में कभी यह इच्छा बहुत तीव्र ढंग से नहीं उठी। एक दिन उसे जाने क्या सूझा कि उस ने चेतना से पूछा, ‘‘तुम्हें गाना गाने आता है ?’’ पर चेतना कुछ बोली नहीं। फिर किसी दिन उस के बड़े इसरार पर एक पार्क के चबूतरे पर बैठ कर चेतना तीन, चार गाने सुना गई। सब के सब फिल्मी थे। आवाज उस की बहुत अच्छी नहीं थी पर दर्द में डूबी हुई थी। उस ने गाने भी इसी शेड के चुने थे। ‘‘रजनीगंधा’ फिल्म का ‘‘यूं ही महके प्रीत पिया की मेरे अनुरागी जीवन में।’’ गीत जब वह गा रही थी तो संजय ने देखा उस की आंखों की कोरें नम हो गई थीं। चलते समय संजय ने उसे कुरेदा भी, ‘‘लगता है प्यार में बहुत मार खाई हुई हो ?’’ पर वह बहुत संक्षिप्त सा ‘‘नहीं।’’ कह कर मुसकुराने लग पड़ी। संजय ने फिर उस से कहा, ‘‘अच्छा लाओ जरा तुम्हारा हाथ देखूं।’’
हालां कि संजय को हाथ देखने का क, ख, ग भी नहीं मालूम था। पर उस ने मन ही मन उस का हाथ अपने हाथ में लेने की तरकीब निकाली थी। पर चेतना ने उस की वह बात भी ठुकरा दी। और बोली, ‘‘आइए चलते हैं।’’
‘‘कुछ खाओगी ?’’ अवध बाजार की ओर से गुजरते हुए उस ने पूछा तो वह फिर संक्षिप्त सा, ‘‘नहीं।’’ बोल कर चुप हो गई।
‘‘पर मैं तो खाऊंगा।’’ चेतना की आंखों में झांकता हुआ द्विअर्थी संवाद बोलता हुआ फिर बोला, ‘‘बहुत भूख लगी है।’’
‘‘आप खा लीजिए। पर मैं नहीं खाऊंगी।’’ पर संजय नहीं माना। दो डोसा मंगा लिया। और फिर बात ही बात में बिना रजनीश का नाम लिए वह रजनीश दर्शन पर उतर आया। डोसा खाने के बीच अपने कई रजनीश उवाच चेतना को सुना डाले। पर चेतना बिना कहीं कोई आपत्ति जताए ‘‘हूं’’ ‘‘हूं’’ ‘‘ना’’ जैसे संक्षिप्त उत्तर देती जा रही थी पर किसी बात पर आपत्ति नहीं जताई। जब कि कई बातें आपत्तिजनक भी थीं। आपत्ति उसे आपत्तिजनक बातों के बजाय डोसा खाने पर हुई।
‘‘पर अब तो आ गया है।’’ संजय ने जैसे उस की खुशामद की। पर वह बोली, ‘‘दोनों आप खा लीजिए।’’ उस ने सफाई दी, ‘‘मैं बाहर का कुछ नहीं खाती पीती।’’
‘‘पंडित मैं हूं कि तुम ?’’ कह कर जब संजय ने बहुत जोर दिया तो किसी तरह वह डोसा चुगने लगी। संजय को आज जाने क्या हो गया था वह चेतना से सेक्स और देह की चर्चा पर बिना किसी प्रसंग के अचानक उतर आया। बिलकुल किसी दार्शनिक की तरह। संजय की यह दार्शनिकता भी उस पाकिस्तानी मौलवी की तरह ‘‘नाड़ा खोल’’ अंदाज में थी। वह इस बहाने चेतना का मन थाह लेना चाहता था। उस का मन थाहते-थाहते वह सीधे रजनीश के एक किस्से पर आ गया। कि एक संन्यासी था। सुबह-सुबह वह घर से बाहर निकलने की तैयारी में था कि अचानक उस का एक बहुत पुराना संन्यासी मित्र आ गया। अब संन्यासी बड़े धर्म संकट में पड़ गया। कि मित्र को छोड़े, कि जिन लोगों से आज मिलना तय है, उन से मिलना छोड़े। अंततः उस ने मित्र से कहा कि, ‘‘तुम भी मेरे साथ चले चलो।’’
‘‘पर मेरे कपड़े मैले हो गए हैं। दूसरा है नहीं। और इसे धोने, सुखाने में समय लगेगा।’’
‘‘तुम इस की चिंता छोड़ो। तुम बस नहा धो लो। मेरे पास एक नया वस्त्र है तुम उसे पहन लेना।’’
उस का मित्र जब नहा धो कर तैयार हुआ तो उस ने वह कपड़ा जो कहीं से उसे उपहार में मिला था उस को पहनने के लिए दे दिया। मित्र जब वह नया कपड़ा पहन कर उस के साथ चला तो संन्यासी उसे देख कर बड़ी मुश्किल में फंस गया। उस ने देखा कि नये कपड़ों में वह उस से ज्यादा जम रहा है। कहीं भी जाएगा तो लोग उस के मित्र को ही देखेंगे, उस का क्या होगा ?
रास्ते भर वह इसी उहापोह में रहा। पहली जगह जब वह गया तो उस ने अपने मित्र का परिचय कराया और बताया कि, ‘‘रही बात कपड़ों की सो ये इन के नहीं मेरे हैं।’’ मित्र को यह सुन कर तकलीफ हुई। पर चुप रहा। लेकिन बाहर आ कर उस ने कहा, ‘‘यह कहने की क्या जरूरत थी कि कपड़े इन के नहीं मेरे हैं। ले लो अपने कपड़े। अब मुझे तुम्हारे साथ कहीं नहीं जाना।’’
संन्यासी ने इस पर अपने संन्यासी मित्र से माफी मांगी। कहा कि, ‘‘क्या बताऊं गलती हो गई। पर अब आगे ऐसी बात नहीं होगी।’’
मित्र मान गया और साथ चल पड़ा। दूसरी जगह पहुंच कर संन्यासी ने अपने मित्र का परिचय कराया और कहा, ‘‘रही बात कपड़ों की सो वे मेरे नहीं इन्हीं के हैं। बाहर आ कर मित्र ने संन्यासी को फिर लताड़ा। कि, ‘‘यह कहने की क्या जरूरत थी कि कपड़े मेरे नहीं इन्हीं के हैं।’’ संन्यासी ने फिर गलती स्वीकार की, मित्र से क्षमा मांगी और कहा कि अब हरगिज ऐसा नहीं होगा।
पर रास्ते भर संन्यासी के दिमाग में मित्र का पहना कपड़ा ही घूमता रहा। तीसरी जगह भी संन्यासी ने मित्र का परिचय कराया और कहा कि, ‘‘रही बात कपड़ों की सो उस के बारे में कोई बातचीत नहीं होगी।’’ मित्र फिर हैरान।
‘‘तो असल में जैसे उस संन्यासी के दिमाग में हर वक्त कपड़ा ही घूम रहा था ठीक वैसे ही आदमी के दिमाग में सेक्स घूमता रहता है। पर वह उसे दबाता रहता है। और मौका मिलते ही सेक्स की बात करता रहता है।’’ संजय ने यह रजनीश दर्शन चेतना पर थोपते हुए यह अंदाजना चाहा कि कहीं वह इस कथा का बुरा तो नहीं मान गई है? पर चेतना ने जब कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो संजय का माथा ठनका कि कहीं यह किस्सा चेतना के सिर के ऊपर तो नहीं गुजर गया। उस के पल्ले ही नहीं पड़ा ?
इस बात को थाहने के लिए वह बड़ी देर तक सेक्स के इर्द गिर्द ही बातें करता रहा। पर कोई थाह नहीं मिली उसे। बात ही बात में वह मीरा और मीरा के भजनों पर आ गया। उस ने चेतना से पूछा, ‘‘तुम क्या मीरा की भजनें भी गाती हो ?’’
‘‘नहीं। पर वह मेरी बहन है।’’
‘‘कौन बहन है ?’’
‘‘मीरा !’’ वह बेचैन सी हुई। बोली, ‘‘मैं मीरा जैसी जिन्दगी जीना चाहती हूं।’’ वह रुकी और बोली, ‘‘और जो कुछ तभी से आप हमें बताए जा रहे हैं वह मीरा की जिन्दगी में नहीं है।’’
‘‘क्या बेवकूफी की बात करती हो ?’’ संजय सुलगता हुआ बोला, ‘‘मीरा की जिन्दगी जीना इतना आसान समझती हो।’’
‘‘आसान तो नहीं है। पर मैं जिऊंगी।’’ कह कर वह चली गई। संजय छटपटा कर रह गया।
कहीं यह लड़की पागल तो नहीं है ? उस ने सोचा। और कि बेवजह ही इस पर वह अपना समय ख़राब करता जा रहा है। रजनीश का भाष्य बेमतलब उस से भाखता रहा है।
मीरा !
मीरा मन जीती थी, देह नहीं। पर त्रासदी यह थी कि संजय इस चेतना रूपी ‘‘मीरा’’ का मन नहीं उस की देह जीना चाहता था, उसकी देह भोगना चाहता था। तो क्या वह राजा भोज गति को प्राप्त होने की ओर उन्मुख था ? कि उसे राधा बना कर कान्हा सा सुख लूटना चाहता था ?
उसे कुछ भी पता नहीं था !
संजय ने सोचा कि शायद चेतना अब उस से नहीं मिले। उस ने कुछ जल्दबाजी कर दी थी, इस का उसे थोड़ा मलाल तो था पर उसे इस का कोई बहुत पछतावा नहीं था। वह इस तरह मिल के ही क्या करती ! यह सोचते ही अचानक उसे आलोक की याद आ गई। बरबस।
दिल्ली में जब उस नए-नए दैनिक में ढेर सारे नए-नए लोग इकट्ठा हो गए थे। और पूरे संपादकीय में सिर्फ एक लड़की थी। वह भी अप्रेंटिस। सो सब उसी पर रियाज मारते रहते। जब कि वहीं साथ के अंगरेजी वाले दोनों दैनिकों में महिलाओं की भरमार थी। एक से एक मॉड, हसीन और दिलफेंक। दो तीन महिलाएं तो बाकायदा चेन स्मोकर थीं। इन में भी एक अक्सर बुरी तरह पी कर कभी कभार देर रात गए दफ्तर की सीढ़ियों पर यूं ही बैठी या उलटियां करती दिख जाती। चीफ सब थी। बाद में वह एक फोर्ट नाइटली में कोआर्डिनेटर होकर चली गई। और वहीं से एक कंप्यूटर विशेषज्ञ के साथ शादी कर लिया। जैसे फर्राटे से वह सिगरेट पीती थी उसी फर्राटे से काम भी करती थी। पेजमेकिंग में उस का जवाब नहीं था। लंबी, छरहरे बदन वाली वह चीफ सब जब लंबे-लंबे नाखूनों वाली, लंबी-लंबी उंगलियों में लंबी-सी सुलगती सिगरेट पकड़े जब लंबा सा कश खींच कर उस से भी लंबा धुआं फेंकती तो कई लोगों को अनायास ही लंबा कर देती। टेलीप्रिंटर के तार छांटते समय उस की उंगलियों में दबी सिगरेट से हमेशा अंदेशा बना रहता कि कहीं ख़बरें जल न जाएं, कहीं आग न लग जाए। पर न ख़बरें जलती थीं, न आग लगती थी। अलबत्ता नए-नए आए लोगों के दिल जल जाते थे, आग लग जाती थी उन के मन में कहीं, यह सब देख कर। पर वह सिगरेट, शराब और सांस सब कुछ अंगरेजी में लेती थी। जब वह रिजाइन कर फोर्ट नाइटली जाने लगी तो अपने फेयरवेल में वह इतना पी गई, पी कर इतनी भावुक हो गई, भावुक हो कर इतना सरल हो गई, और सरल हो कर इतने शानों पर उस ने सिर रखा कि संजय तो क्या आलोक भी ठीक से नहीं गिन पाया। हां, आलोक ने दूसरे दिन अपनी बड़बोली स्टाइल में खुलासा किया, ‘‘शानों की तो गिनती नहीं है, पर शानों पर उस के सिर रखते समय कितनों ने उस की रानों को ‘‘टच’’ किया, कितनों ने उस की हिप टच की और कितनों ने हाट किस, कितनों ने फ्लाई किस किया, उस का आंकड़ा मेरे पास जरूर है।’’
‘‘पर इसमें तुम ने क्या-क्या किया ?’’ संजय ने उस से पूछा।
‘‘आंकड़ा इकट्ठा किया !’’ उमेश ने चुटकी ली।
‘‘एक्जक्टली यही किया।’’ उस ने शेखी बघारी, ‘‘चौबीस कैरेट का ख़बरची जो ठहरा !’’
‘‘पर मैं ने तो देखा कोई पौने ग्यारह बजे वह फलैट हो गई थी। और ग्यारह बजे बेसिन पर खड़ी उलटियां कर रही थी।’’ सुरेश ने अतिरिक्त जानकारी देने की कोशिश की।
‘‘पर जब वह बेसिन पर खड़ी उलटियां कर रही थी तो उस की पीठ कौन सहला रहा था? मालूम है किसी को ?’’ वह इठलाया, ‘‘मुझे मालूम है। और यह भी कि जब वह अचानक रोने लग गई तो कार में बिठा कर उसे कौन चिपटा-चिपटा कर बड़ी देर तक चुप कराता रहा। और जब वह कार से बाहर निकली तो उस की अस्त व्यस्त साड़ी किस ने ठीक की, ब्लाउज और ब्रा के हुक किस ने लगाए।’’
‘‘क्या बोल रिया है ?’’ सुजानपुरिया पायजामा खोंसते हुए आश्चर्य चकित आंखें फैला कर बड़ी जोर से बोले। ऐसे जैसे कोई अनहोनी हो गई हो।
‘‘सुजानपुरिया जी आप चुप रहिए। देख रहे हैं ‘‘एडल्ट’’ बातचीत हो रही है।’’ आलोक ने कहा, ‘‘जब आप के लाइन की बात हो तब बोलिएगा।’’
‘‘ठीक है भइया।’’ कहते हुए सुजानपुरिया फिर से पायजामा खुंसियाते हुए सरक लिए, ‘‘अब तुम लौंडों से कौन मुंह लगे।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं।’’ कहते हुए सुजानपुरिया एकदम ही गायब हो गए।
‘‘और वह नंदा ?’’ आलोक उचक कर मेज पर बैठता हुआ बोला, ‘‘न्यूज एडीटर ने उस की हिप पर इतनी बार हाथ फेंके कि वह भी एक रिकार्ड है।’’
‘‘क्या यार मम्मी की बात करने लगे ?’’
‘‘मम्मी ? और साले जब वह शाम को बैडमिंटन खेलती है तो कटोरा जैसी आंखें फाड़ मुंह बाए खड़े रहते हो तब ?’’
‘‘अच्छा उस की बात कर रहे हो। मैं समझा सर्कुलेशन वाली नंदा।’’
‘‘क्या जायका ख़राब कर दिया। उस का जिक्र छेड़ कर।’’ अभी बैठकबाजी चल रही थी कि चपरासी ने संजय को आ कर बताया कि उस का फोन आया है। वह जाने लगा तो आलोक ने कहा, ‘‘उस का हो तो हमें भी बुलाना। नहीं, जल्दी आना।’’
‘‘ओ॰ के॰।’’ कह कर तो गया संजय। पर तुरंत वापस नहीं गया। थोड़ी देर बाद पता चला कि आलोक की किसी अंगरेजी वाले से हाथापाई हो गई। मामला वही था। रात की पार्टी पर जुमलेबाजी। आलोक बैठा गपिया रहा था कि उस अंगरेजी वाले ने आलोक पर तंज किया, ‘‘तुम साले मीन मेंटेलिटी हिंदी वाले।’’ इतना कहना था कि आलोक उस पर टूट पड़ा। आलोक का कहना था कि, ‘‘उसे जो कहना था, मुझे कहता। ये ‘‘हिंदी वाले’’ का क्या मतलब था उस का। मेरी मातृभाषा को गाली देगा और मैं उस दोगले अंगरेज की औलाद को छोड़ दूंगा ?’’ वह बिफरा, ‘‘सवाल ही नहीं।’’
असल में हुआ क्या था कि हिंदी प्रदेशों की राजधानियों, जिलों से दिल्ली गए आलोक जैसे लोगों के लिए दिल्ली की महिलाओें का इस हद तक खुलापन या तो विभोर कर देता था या फिर झकझोर देता था। सहजता से वह सब कुछ मान नहीं पाते थे। और चूंकि वह चीजें, वह सुख उन से बहुत दूर था तो जुगुप्सा उपजनी स्वाभाविक ही थी। ऐसी ही जुगुप्साओं का शिकार था आलोक। आलोक जोशी। हरदम खुश रहने वाला पर बड़बोलेपन का शिकार।
वह अपनी ख़बरों में भी बड़बोलापन बोए रहता था। भाषा जैसे उस की गुलाम थी और इस का लगभग दुरुपयोग करते हुए वह जाने कितने रिकार्ड बना चुका था। जैसे कि शुरू के कुछ दिनों तक वह लगातार एक चीज का शिकार रहा। जैसे ही कोई मरता वह फोन पर जूझ जाता और आनन-फानन ढेर सारे लोगों के बयानों से भरी एक भावुक रिपोर्ट लिख मारता। साथ ही कुछ सनसनीखे़ज बयान खोंस देता। भले ही दूसरे दिन कई लोगों के खंडन आ जाते। कि हमने तो ऐसा नहीं कहा था। या हमारी आप के संवाददाता से कोई बात नहीं हुई। जब खंडनों का तांता लगने लगा। तो आजिज कर कुछ दिनों तक उन खंडन वाली चिट्ठियों को डिस्पैच क्लर्क को मिला कर वह गायब करा देता। पर जब लोग दफ्तर खुद आने लग गए तो अंततः उस ने अपना विकास कर लिया। अब वह प्रतिक्रियाएं बटोर कर लिखने के बजाय संस्मरण लिखने लग गया। वह चाहे कोई महान हस्ती मरी हो या कोई मॉडल आत्महत्या कर गई हो या किसी जाने पहचाने आदमी या औरत की हत्या हो गई हो। आलोक जोशी फौरन संस्मरण लिख मारता और उस में यह जिक्र जरूर कर देता कि मरने के या आत्महत्या के पहले वह उस से मिला था। ‘‘वह बहुत खुश थी’’ या ‘‘उस के चेहरे पर आंतक की रेखाएं थीं’’ ‘‘वह डरा हुआ था’’ जैसी बातें भी वह जरूर जोड़ देता।
एकाध बार ऐसा भी हुआ कि किसी चीफ सब ने उस के लिखे ऐसे अंश अगर काट दिए तो वह दूसरे दिन उस से भिड़ जाता कि, ‘‘क्यों काटा ?’’
‘‘इस लिए कि वह सब अनर्गल था, झूठ था।’’
‘‘क्या मतलब ? मतलब कि मैं झूठ लिखता हूं।’’ वह हांफने लगता, ‘‘कोई खंडन आया है आज तक ?’’
‘‘मरे हुए लोग खंडन नहीं भेज सकते। नहीं, जरूर आ जाता।’’
‘‘डफर !’’ वह गुर्राता, ‘‘खुद तो एक लाइन लिख नहीं सकते। काटने की भी तमीज नहीं। जो मन में आया काट दिया।’’ वह जोड़ता, ‘‘निकाल लिया अपना फ्रश्स्ट्रेशन!’’ और पैर पटकता वह चला जाता। धीरे-धीरे यह सब उस की रोजमर्रा में शुमार हो गया।
संजय ने उन्हीं दिनों एन॰ एस॰ डी॰ पर लिखी वह रिपोर्ट अप टु डेट कर के छपने को दे दी थी। जो बड़ी होने के नाते उस पत्रिका में नहीं छप पाई थी। पर दैनिक में जब पूरे पेज की वह रिपोर्ट छपी तो एन॰ एस॰ डी॰ के छात्र नाराज हो गए। दैनिक के कार्यालय पर बाकायदा तख्तियां ले कर वह प्रदर्शन पर उतर आए। रिपोर्ट में अल्काजी, कारंत और वर्तमान निदेशक की कार्यप्रणाली का फर्क, इन का गैप और अल्काजी की सालने वाली कमी के प्रोजेक्शन के साथ ही शराब, लड़कियां, ड्रग और आत्महत्या के गिनाए गए कारणों से एनएसडियन नाराज थे। इस प्रदर्शन की रिपोर्ट आलोक ने लिखी तो वह फिर प्रदर्शन करने आ धमके। आलोक बोला, ‘‘मैं इस प्रदर्शन को फिर रिपोर्ट करना चाहता हूं।’’ संपादक ने मना कर दिया। और सचमुच आलोक उन के बीच जाता तो पिट जाता। संजय यह सब देख कर पछताने लगा। उस ने सोचा कि वह चौधरी वाली रिपोर्ट भी अगर वह आज संभाल कर रखे रहता तो आज मजा आ जाता। हुआ यह था कि जब चौधरी वाला वह आइटम उस पत्रिका के संपादक ने छापने से मना कर दिया तो उस ने वही सामग्री अंगरेजी में ट्रांसलेट करवा कर कलकत्ता की एक अंगरेजी पत्रिका में भेज दिया। क्यों कि वह यह जान गया था कि हिंदी में वह सामग्री कभी नहीं छप पाएगी। और दिल्ली में तो कतई नहीं। क्योंकि बागपत पास था। और किसे अपने दफ्तर में आग लगवानी थी ?
पर दिलचस्प यह रहा कि अंगरेजी में छपी वह चौधरी वाली सामग्री एक दिन उस ने उस हिंदी पत्रिका में भी छपी देखी। बिलकुल वही ब्यौरे, वही अंदाज। पर धार वह नहीं थी। फायरी लैंग्वेज कमनीयता के साथ परोसे गए ब्यौरे में मर गई थी। और मजा यह कि क्रेडिट साभार के बजाय विशेष संवाददाता की थी। उस ने सोचा कि फोन कर उस संपादक से पूछे कि, ‘‘अंगरेजी से उड़ा कर छापी गई सामग्री डिफरमेटरी नहीं होती क्या?’’ पर वह टाल गया।
एन॰ एस॰ डी॰ वाली रिपोर्ट पर जब बवाल मचा तो एक दिन उस संपादक का फोन आया, ‘‘रिपोर्ट तो मैं ने तुम्हें पहले ही बताया था कि अच्छी है। पर इस्तेमाल भी बढ़िया हुई है। भाषा भी तुम्हारी अच्छी है।’’
लगभग उन्हीं दिनों जब उस ने एक कुष्ठाश्रम पर लंबी रिपोर्ट लिखी और उस में पर्दाफाश किया कि कैसे एक माफिया उस कुष्ठाश्रम और कुष्ठ रोगियों को चूस रहा है तो समाचार संपादक ने वह रिपोर्ट छापने से सिरे से मना कर दिया। उस के बहुत जोर देने पर समाचार संपादक ने कहा, ‘‘क्या फिर बवाल का इरादा है ?’’
‘‘नहीं तो !’’
‘‘तो वह माफिया वाला हिस्सा काट दो।’’
‘‘लेकिन तब तो पूरी रिपोर्ट ही मर जाएगी !’’
‘‘मरने दो।’’ समाचार संपादक ने उसे घूरा, ‘‘तुम नहीं जानते वह कितने ख़तरनाक लोग हैं।’’ अंततः संजय ने जब कोई चारा नहीं देखा तो समाचार संपादक से कह दिया, ‘‘जो काटना हो आप खुद काट लीजिए। मैं नहीं काट पाऊंगा।’’
‘‘फिर आलोक की तरह हल्ला मत मचाना कि रिपोर्ट की आत्मा ही मार डाली।’’
‘‘ठीक है।’’ उस ने कह तो दिया। रिपोर्ट छप भी गई। पर उस की आत्मा उसे रह-रह कचोटती रही। रात को सपने में वह कुष्ठ रोगी आ-आ कर उसके सामने खड़े हो जाते। वह परेशान हो गया। अंततः उस ने फिर से बल्कि और फायरी लैंग्वेज में वह कुष्ठाश्रम वाली रिपोर्ट लिखी। और कलकत्ता वाली हिंदी पत्रिका में भेज दिया।
‘‘माफ़िया की गोद में कुष्ठाश्रम’’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में काट छांट तो हो गई थी पर माफिया को भरपूर इंगित करने वाला हिस्सा आ गया था। रिपोर्ट क्या छपी, संजय का जीना मुश्किल हो गया। धमकियां उसे पहले भी कई बार मिल चुकी थीं पर अबकी सिर्फ धमकी भर नहीं थी। धमकियां कलकत्ता की उस पत्रिका तक पहुंची। मामला कोई ख़तरनाक मोड़ लेता कि चुनाव की घोषणा हो गई। वह माफिया चुनाव लड़ने में मशगूल हो गया। पर जब उस माफिया पर बीच चुनाव में रासुका लग गया तो वह फरार हो गया। बाद में सरेंडर कर जेल चला गया। और जेल से ही वह चुनाव संचालन करने लगा। संजय उस से इंटरव्यू के लिए जब जेल में मिला तो वह बिलकुल बदला हुआ था। उस के कारिंदों ने इशारों-इशारों में बताया भी कि, ‘‘यही है वह।’’ तो भी वह बड़ी संजीदगी से टाल गया। और चलते समय जब संजय ने उस की ओर से मिली धमकियों का जिक्र किया तो वह बिलकुल अनजान बन गया, ‘‘राम राम ! यही सब हम करेंगे अब ?’’ और दूसरे ही क्षण उस ने बड़ी विनम्रता से धमकियों के लिए माफी मांग ली। तभी संजय ने सोचा कि यह माफिया सरगना अगर राजनीति में ख़ुदा न खास्ता एंट्री पा गया तो बड़ा शातिर निकलेगा। संजय का सोचना सही निकला। हालां कि वह माफिया उस बार तो इंदिरा लहर के चक्कर में संसदीय चुनाव हार गया। पर अगली बार जेल से ही चुनाव लड़ कर वह विधान सभा में जीत कर आ गया था। फिर बाद के दिनों में तो वह मंत्राी भी बना।
तो जब उस माफिया ने कलकत्ता वाली पत्रिका का दफ्श्तर खून से रंग देने की धमकी दे दी और दिल्ली में संजय को आतंकित करने लगा तब फिर आलोक इस के विरोध की मुहिम में लग गया। बाद में बात आई गई हो गई।
एक दिन कैंटीन में बैठा वह हरदम की तरह गपिया रहा था। बात चली उस कन्या की जो उस दैनिक में इकलौती थी। वह लड़की उन दिनों सब सहयोगियों की आशिकी से आजिज हो गई थी। कुछ लोग उसे काम नहीं आता, वह जर्नलिज्म कर ही नहीं सकती जैसे जुमले बोल-बोल कर रूला देते। जब वह रोने लगती तो उसी में से कोई सांत्वना देने आ जाता। सांत्वना देते-देते उस की पीठ सहलाने लगता, आंसू पोंछने के बहाने उस के गालों पर हाथ फेरने लगता। ऐसे में वह बिलकुल असहाय हो जाती। और बचने के लिए फला जी कहने के बजाय भाई साहब-भाई साहब, जैसे संबोधन को बचाव के लिए हथियार बनाती। और उस दैनिक में तब ज्यादातर लोगों की आंखों में शर्म का पानी था। ‘‘भाई साहब’’ कहते ही बेचारे किनारा कस लेते। पर कुछ फिर भी लगे रहते तो उन्हें वह ‘‘भइया-भइया’’ कहने लगती। फिर वह बेचारे भी कटने लगते उस लड़की से।
तो इस गप गोष्ठी में प्रसंग यही चल रहा था। बात ही बात में आलोक कहने लगा, ‘‘चूतिए हैं सब साले। कन्या साधने का गुन नहीं जानते।’’
‘‘पर जब वह भइया-भइया कहने लगती है तो फिर कोई रास्ता रह जाता है ? भाई इतनी नैतिकता तो अपन में है।’’ ताजा ताजा भइया बना उमेश बिलबिला रहा था।
‘‘पर देखना वह मुझे भइया नहीं कहेगी। और मैं सक्सेस भी रहूंगा। इस साली को नाप के न दिखा दूं तो कहना।’’
‘‘और जो न नाप पाए तो ?’’
‘‘जिन्दगी में लाइन मारना छोड़ दूंगा।’’ वह तफसील में चला गया, ‘‘देखो भई अपनी तो एक ही लाइन है। कि कोई लड़की अगर आप से हरदम हंस-हंस कर बात करे। चाय पीने, कहीं साथ-साथ जाने, घूमने और सिनेमा जैसे आफर मान ले तो समझिए कि आप को वह नापसंद नहीं करती। बस उसे आप की पहल का इंतजार होता है। और मैं उन में से नहीं हूं कि दो-दो, तीन-तीन साल या फिर पूरी जिन्दगी सिर्फ घूमने या साथ चाय पीने, सिनेमा देखने में गुजार दूं। भई मैं तो दो चार मुलाकातों के बाद सीधा-सीधा प्रस्ताव रख देता हूं कि साथ सोना हो तो बोलो। नहीं ऐसे ही सिर्फ घूमने घामने से समय ख़राब करना हो तो गुड बाई।’’
‘‘बिलकुल खुल्लमखुल्ला ?’’ सुजानपुरिया जाने कहां से आ टपका था और बिस्मित होता हुआ बोला !
‘‘तो क्या !’’ आलोक चिढ़ता हुआ बोला, ‘‘मैं उन में से नहीं हूं जो साले साल, दो साल सिर्फ लड़की का हाथ छूने भर में ही गंवा देते हैं। यहां तो बस सीधा-सीधा मेन प्वांइट !’’
‘‘और जो लड़की बुरा मान गई तो ?’’
‘‘मान जाए साली। अपनी बला से। जब वह अपने काम ही नहीं आ सकती तो उसे खुश रखने से ही क्या फायदा ?’’
‘‘यह तो साला सिर्फ बकचोदी करता है।’’ आलोक को इंगित करते हुए उमेश ने सुजानपुरिया से कहा, ‘‘श्रीमान जी, कहीं आप इस का फार्मूला ट्राई मत कर लीजिएगा, नहीं ऐसी धुलाई होगी कि पायजामे का नाड़ा नहीं मिलेगा। यह दिल्ली है, आगरा नहीं।’’
‘‘तो क्या हम को बिलकुल चूतिया समझ रिया है ?’’ कहते हुए गर्दन भीतर धंसाते हुए सुजानपुरिया पायजामा उठा कर वहीं धप्प से बैठ गया, ‘‘मैं तो भइया जगह देख कर हाथ डालता हूं।’’
‘‘बड़े छुपे रूस्तम हैं आप तो। पर हाथ डाल कर काम चलाते हैं आप सुजानपुरिया जी ! छी-छी। यही गड़बड़ है।’’ कहते हुए आलोक वहां से उठने लगा तो सुजानपुरिया ने उसे रोक लिया। कहा कि, ‘‘भइया तुम से एक काम है।’’
‘‘भइया कहने का इंफेक्शन आप को भी लग गया।’’
‘‘तुम को तो मजाक सूझ रिया है। पर जरा मामला गंभीर है।’’
‘‘अच्छा, बताइए क्या बात है ?’’
‘‘तुम तो भइया दिल्ली में पहले ही से हो। सब जानते हो यहां का हाल। हम को कुछ मालूम नहीं हियां के बारे में।’’
‘‘भूमिका मत बांधिए। सीधे प्वाइंट पर आइए।’’
‘‘सर्दी आ रही है। गरम कपड़ा बनवाना था।’’
‘‘बजट क्या है ?’’
‘‘बजट तो कुछ नहीं बनाया है। पर कुछ खर्चा काट कूट कर बनवाना तो है ही। सुना है यहां जाड़ा बहुत पड़ता है। और हम को जाड़ा लगता बहुत है।’’
‘‘स्वेटर बिनवाना है, रेडिमेड लेना है, कोट या सूट सिलवाना है। पहले यह तय कर लीजिए। नहीं, वह मकान वाला किस्सा मत दुहरा दीजिएगा जैसे डेढ़ सौ रुपए में आप साऊथ डेलही में कमरा ढूंढ रहे थे।’’ आलोक कुछ-कुछ खीझता हुआ बोला।
‘‘जो हो, दाद देनी पड़ेगी सुजानपुरिया की। कि भले जमुनापार जरा उजाड़ में ही सही पर लिया कमरा तो डेढ़ सौ रुपए में।’’ उमेश बोला।
‘‘वो भी बिजली पानी सहित।’’ सुजानपुरिया उचकते हुए बोला।
‘‘फिर ठीक है। तीन सौ में आप को सिलाई सहित सूट मिल जाएगा।’’ आलोक सर्रे से बोला।
‘‘कहां भइया !’’ सुजानपुरिया उचक कर खड़े हो गए, ‘‘कल ही दिलवाये दो।’’ पर तुरंत सवाल भी कर बैठे, ‘‘मजबूत तो होगा। चल जाएगा दो चार साल ?’’
‘‘बिलकुल।’’ मजबूत इतना कि बड़े हो कर आप के बच्चे भी पहनेंगे।’’
‘‘फिर कल्है चलइ चलौ।’’ सुजानपुरिया उत्साहित हो गए थे।
‘‘कल क्या आज ही चले चलिए।’’
‘‘नहीं, आज नहीं।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘कल पैसा ले कर आएंगे तब।’’
‘‘आएंगे क्या सीधे लालकिला के पिछवाड़े चले जाइएगा। वहीं मिल जाएगा। बस दिक्कत यही है आप के नाप का मिलेगा कि नहीं ?’’
‘‘धत्। हुआं तो हम होइ आए हैं। वो तो पुराना-पुराना है।’’
‘‘तो क्या हुआ। ड्राई क्लीन करवा लीजिएगा। दूसरा क्या जानेगा कि आप ने पुराना ख़रीदा कि नया।’’
‘‘पर सुना है एड्स हो जाता है। ना भाई ना।’’ कहते हुए सुजानपुरिया पायजामा खोंसते, कमीज की कालर का बटन बंद करते खिसक लिए।
बाद के दिनों में सुजानपुरिया ने गरम कपड़े के बाबत दफ्तर के छोटे-बड़े लगभग सभी से कंसल्ट किया। जाड़ा आ गया, पर उन का गरम कपड़ा नहीं। लेकिन अचानक एक दिन वह रूई वाला जाकेटनुमा लिहाफ पहने दिखे। बड़े खुश। आलोक ने देखते ही उन्हें टोका, ‘‘तो सुजानपुरिया जी आप की समस्या साल्व हो गई ?’’
‘‘और नहीं तो क्या। पर तुम तो एड्स दिला रिया था और लूट अलग से रिया था।’’ वह जाकेट दिखाते हुए आलोक से कहने लगा, ‘‘यह देखो तीस रुपए में। सिर्फ तीस रुपए में। एकदम नया। और तू हमें तीन सौ रुपए में एड्स दिला रहा था। रैकेटियर कहीं का।’’
‘‘क्या कहा ?’’
‘‘रैकेटियर।’’ वह हाथ उठा कर बोले, ‘‘और हमीं नहीं यहां सभी तुम्हें रैकेटियर कहते हैं।’’ और सुजानपुरिया यह बात कुछ ऐसे रिद्म में कह रहे थे जैसे, ‘‘हमीं नहीं सभी लाजवाब कहते हैं।’’ फर्क था तो सिर्फ मुहम्मद रफी की गायकी और सुजानपुरिया की झक्की स्टाइल का। पर वजन और लय बिलकुल वही।
आलोक अभी सुजानपुरिया से कैसे पिंड छुड़ाए यह सोच ही रहा था कि तब तक उमेश आ गया।
‘‘कितने में लिया सुजानपुरिया जी !’’ उस ने उन का रूई वाला जाकेट छू कर देखते हुए पूछा।
‘‘तीस रुपए में।’’ सुजानपुरिया ठसक में थे।
‘‘सिर्फ तीस रुपए में ?’’
‘‘और क्या ?’’
‘‘अरे बस का टिकट भी तो लिया होगा ?’’ उमेश जाकेट गौर से देखते हुए बोला।
‘‘नहीं।’’
‘‘विद आऊट टिकट ?’’
‘‘नहीं-नहीं। टिकट सुरेश ने लिया। उसी ने ख़रीदवाया जनपथ से आज।’’
‘‘फिर तो सेलीब्रेट करिए। ज्यादा कुछ नहीं, चाय से भी काम चल जाएगा।’’
‘‘अभी तक आलोक लूट रिया था। तीन सौ में एड्स दिला रिया था। अब तू लूटने आया है।’’
‘‘एक कप चाय में क्या लुट जाएंगे सुजानपुरिया जी !’’
‘‘बड़ा चूतिया है। तुझे एक कप पिलाऊंगा तो सभी हड्डे की तरह पीछे पड़ जाएंगे। किस-किस को पिलाऊंगा। मेरा तो भट्ठा बैठ जाएगा। जाकेट से ज्यादा चाय में चला जाएगा।’’ सुजानपुरिया पूरे फार्म में थे, ‘‘जा अपना काम कर !’’
आलोक के लिए वह दिन बड़ा भारी था। उस से एक बड़ी ख़बर छूट गई थी। सुबह-सुबह संपादक ने डांटा। संपादक से छुट्टी मिली तो सुजानपुरिया सवार हो गए। और उस लड़की को भी जो नहीं कहना चाहिए था उसे उस दिन ही कह दिया था। हालां कि संपादक की डांट धोने की गरज से वह टाई वाई बांध कर आया था और रह-रह कर टाई की नॉट दिन भर टाइट करता रहा। टाई की नॉट तो टाइट रही दिन भर, पर उस का चेहरा फिर भी टाइट नहीं हो पाया। ढीला-ढीला वह घूमता, जेब में हाथ डाले कभी इस फोन, कभी उस फोन पर जूझता रहा।
शाम को वह उदास चेहरा लिए पर झूमती चाल से जब कैंटीन में घुसा तो सब की नजरें उसी पर थीं। संजय ने भी उसे देखा, सिगरेट सुलगाई और उसे पुकारा, ‘‘आलोक इधर आओ।’’
‘‘बोलो।’’ वह आता हुआ बोला।
‘‘सुना आज उस ने तुम को भी भइया कह दिया ?’’ संजय उस से खेलते हुए बोला।
‘‘तो क्या हुआ ?’’ आलोक ने हिकारत से पूछा।
‘‘कुछ हुआ ही नहीं ?’’ संजय जब यह आलोक से पूछ रहा था तो कैंटीन में मौजूद लोग आलोक का जवाब सुनने के लिए और पास खिसक आए। और जैसे अपने-अपने कान खड़े कर लिए।
‘‘तुम लोग शायद एक बात मेरे बारे में नहीं जानते हो।’’ उस ने सब को एक साथ घूरते हुए कहा, ‘‘मैं बहनचोद भी हूं। बहनचोद ! समझे !’’ उस ने टाई की नॉट ढीली की और बोला, ‘‘सिर्फ बकचोद नहीं। मैं फिर दुहरा रहा हूं, उसे नाप कर दिखाऊंगा।’’
कैंटीन की भींड़ छट गई थी। पर संजय और आलोक बैठे रहे। बैठे-बैठे दुष्यंत कुमार की गजलों, अरुण साधू के उपन्यास बंबई दिनांक, पंजाब में भिंडरांवाले की वहशियाना हरकतों और डी॰ टी॰ सी॰ बसों की बदहाली तक के बारे में बतिया गए। जब काफी देर हो गई तो संजय उठ कर जाने लगा। आलोक उसे पकड़ कर बैठाने लगा तो संजय ने उस से कहा, ‘‘क्यों आज ख़बर नहीं लिखनी ?’’
‘‘नहीं। आज झांट एक ख़बर नहीं लिखूंगा। देखता हूं कौन क्या उखाड़ता है।’’आलोक सचमुच उखड़ा हुआ था।
‘‘पर मुझे तो लिखनी है।’’ कह कर संजय जाने लगा तो आलोक भावुक होता हुआ बोला, ‘‘बैठो तो सही।’’
‘‘जल्दी बोलो !’’ वह उस की भावुकता धोता हुआ बोला।
‘‘क्या बोलें। साले, सुपरफास्ट हुए जा रहे हो।’’
‘‘फिर भी ?’’
‘‘बताओ तुम्हें तकलीफ नहीं होती। कि सब से ज्यादा एक्सक्लूसिव स्टोरिज फाइल करो। और एक दिन एक झांट सी ख़बर छूट जाए तो साले लौंड़ा काट कर हाथ में थमाने लगते हैं। सिंसियरिटी का पाठ पढ़ाने लगते हैं। बास्टर्ड ! सरकुलेशन और साख समझाने लगते हैं।’’ आलोक उखड़ा-उखड़ा बोलता जा रहा था, ‘‘साले बनिये का कच्छा धोती धोते-धोते संपादक बन गए तो दिमाग ख़राब हो गया है। अरे जाओ साले अइसे ही है तो सरकुलेशन मैनेजर हो जाओ, जनरल मैनेजर हो जाओ, कच्छे धोती से प्रमोशन पर पेटीकोट, पैंटी और ब्रा धोने को मिलेगा। हिप्पोक्रेट साले!’’
‘‘पर एडीटर तो यार तुम्हें मानता है।’’
‘‘तभी न जब-तब मेरी मारता रहता है।’’
‘‘तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है।’’ कह कर संजय चल दिया। आलोक ने उसे फिर टोका, ‘‘सुनो तो सही।’’
‘‘सॉरी, अभी नहीं। अब एक डेढ़ घंटे बाद।’’ कहते हुए संजय जाने लगा तो आलोक बोला, ‘‘लगता है आज कोई लंबा थाम के आए हो।’’ कहते हुए उस ने टांट किया, ‘‘बाटम है कि लीड ?’’
‘‘अरे कुछ नहीं !’’ कह कर संजय चला गया पर आलोक बैठा रहा।
उन दिनों आलोक दफ्तर की एक टेलीफोन आपरेटर को भी नापने में लगा हुआ था। उस टेलीफोन आपरेटर के कई आशिक थे। जिन में एक फिल्म क्रिटिक सुरेंद्र मोहन तल्ख़ भी था। तल्ख़ उर्दू पत्रकारिता करते-करते अचानक बुढ़ौती में हिंदी पत्रकारिता में समा गया था। अक्सर गलत हिंदी लिखता था पर रहता ऐंठा-ऐंठा। बेवजह ऐंठे रहना उस की आदत में शुमार था। पर लड़कियों या महिलाओं को देखते ही वह पानी-पानी हो जाता। तब उस की सारी अकड़ फड़फड़ा कर जाने कहां उड़ जाती थी। लगता ही नहीं था तब यह तल्ख़ वही तल्ख़ है। अक्सर वह लाल किले के पीछे वाली मार्केट या जामा मस्जिद वाली पुराने कपड़ों के मार्केट से ख़रीदी पैंट पहनता। ऐसे वाले सूट भी उस के पास तीन चार थे। पर सारे सूटों पर वह जाने क्यों हमेशा एक ही टाई बांधता था। शायद वह नई थी। पर सुर्ख़ लाल। उस की कमीज की कालर और सूट के कोट की कालर, दोनों ही बड़ी-बड़ी कुत्ते की कानों की तरह लटकी होतीं। इन कालरों के बीच बंधी टाई को देख कर चपरासी की टिप्पणी, ‘‘रजिया फंस गई गुंडों में’’ सब को मजा देती। पर तल्ख़ इन सब चीजें से बेख़बर अकड़ा, ऐंठा बैठा रहता। इत्तफाक से उस इकलौती लड़की की सीट भी तल्ख़ के पास ही थी। उस से मिलने जब-तब कोई न कोई लड़की आती रहती। और कई बार वह तीन-चार-पांच की संख्या में भी होतीं। तल्ख़ उन लड़कियों की फौरन गिनती करता चपरासी बुलाता और गिनती से दो चाय ज्यादा समोसा या सुहाल सहित मंगवा भेजता। उन के बीच-चाय भिजवा कर तल्ख़ उन के पास जा कर खड़ा हो जाता। कहता, ‘‘मे आई ज्वाइन योर कंपनी ?’’ और दूसरे ही क्षण कुर्सी खींच कर उन के बीच बैठ जाता। वह लड़की कई बार इस बाबत तल्ख़ से ऐतराज जताते-जताते थक गई, कई बार उन चायों के पैसे देने की कोशिश की, शिकायत की। पर सब बेकार। तल्ख़ इस तरह अक्सर उस लड़की और उस की सहेलियों के बीच बैठ उन का मन, मिजाज और माहौल तल्ख़ कर देता। पर इस का उसे इल्म नहीं रहता। उर्दू अख़बारों की राय का छोटा सा पीस लिखने में उसे दो-दो, तीन-तीन दिन लग जाते। तब जब कि वह इस में युद्ध स्तर पर लगा रहता। वह जब-तब उस लड़की को उर्दू सिखाने की भी पेशकश करता रहता। कहता, ‘‘मैं तुम्हें उर्दू, सिखा देता हूं, तुम मुझे हिंदी सिखा दो।’’ लड़की कहती, ‘‘मैं अप्रेंटिस ! कैसे सिखा सकती हूं आप को हिंदी। और उर्दू मुझे सीखनी नहीं।’’ पर तल्ख़ फिर भी ‘‘मैं तम्हें उर्दू, तुम मुझे हिंदी’’ की चरस बोए रहता। संपादक उसे अक्सर समझाता रहता कि बोलचाल की हिंदी लिखा करिए। हिंदी की आचार्य किशोरी दास वाजपेयी वाली वर्तनी भी उस के लिए सिरदर्द बनी रहती। इस चक्कर में कई बार तल्ख़ कुछ का कुछ कर बैठता। जैसे कि एक फिल्मी लेख में यह जिक्र था कि शत्रुघ्न सिनहा सीधे दिल्ली रवाना हो गए। तल्ख़ ने हेडिंग इस तरह लगाई, ‘‘शत्रुघ्न सिंहा सीधा दिल्ली हुआ।’’ ऐसे कई गपड़ चौथ वह अक्सर करता रहता। लोग चिढ़ाते रहते। पर वह अकड़ा-ऐंठा दफ्तर में भी धूप का चश्मा लगाए जब तब सिगरेट फूंकता रहता। चिड़चिड़ाता रहता। तो उस टेलीफोन आपरेटर को भी जब तब वह चाय पिलाता रहता।
एक बार राजेश खन्ना नाइट दिखाने की तल्ख़ ने उसे पेशकश की। वह खुशी-खुशी मान गई। तल्ख़ ने राजेश खन्ना नाइट में दो मिले कार्डों में से एक उसे दिया। दोनों कार्डों पर सीट नंबर थे। और दोनों ही सीटें साथ की थीं। तल्ख़ मगन था टेलीफोन आपरेटर को कार्ड दे कर कि बगल में बैठेगी।
पर सुरेंद्र मोहन तल्ख़ की बदकिस्मती देखिए कि उस शाम टेलीफोन आपरेटर की रिलीवर ने छुट्टी की अप्लीकेशन भेज दी। सो उस टेलीफोन आपरेटर को ओवरटाइम और राजेश खन्ना नाइट में से एक ही चुनना था। उस ने ओवरटाइम चुन लिया। फिर अचानक उसे लगा कि राजेश खन्ना नाइट का कार्ड वह बेवजह क्यों ख़राब करे, क्यों न किसी को दे दे। और देने के नाम पर उसे मिला भी तो आलोक। आलोक से टेलीफोन आपरेटर हंस कर बोली, ‘‘कहिए तो आज आप की रात रंगीन करवा दूं ?’’
‘‘नेकी और पूछ-पूछ ?’’ आलोक भी लस गया। पर जब रात रंगीन करने के नाम पर उस ने उसे राजेश खन्ना नाइट का कार्ड थमा दिया तो आलोक मायूस हो गया। बोला, ‘‘शुक्रिया ! चला जाऊंगा।’’ पर तल्ख़ की बदकिस्मती यहीं खत्म नहीं हुई। आलोक को भी अचानक एक ख़बर में उलझ जाना पड़ा। जिस में आधी रात भी हो सकती थी। इसी ख़याल में उस से सुजानपुरिया टकरा गया।
‘‘क्या हाल हैं सुजानपुरिया जी ?’’ आलोक ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं। ड्यूटी ख़त्म। घर जा रिया हूं।’’
‘‘कहीं और तो नहीं ?’’
‘‘ना भइया अब नहीं।’’ कह कर वह कान पकड़ने लगे।
सुजानपुरिया ताजा ताजा जी॰ बी॰ रोड पर पूरी तनख्वाह गंवा आए थे। हुआ यह था कि सुजानपुरिया के बीवी बच्चे आगरा गए हुए थे। सो उन को कुछ ‘‘चेंज’’ की सूझी। जिस-तिस से वह, ‘‘कहां मिलेगी,’’ ‘‘कोई जुगाड़ कराओ,’’ ‘‘कुछ चक्कर चलाओ,’’ जैसी बातें करते थे। एक प्रूफ रीडर ने एक दिन उन से कह दिया, ‘‘क्या मुंह बाए हरदम भुखाए घूमते रहते हैं। माल जे़ब में डालिए और गांधी बाबा रोड निकल जाइए। न हाय, न किच-किच।’’
‘‘गांधी बाबा रोड ?’’ सुजानपुरिया की जिज्ञासा बढ़ गई थी।
‘‘अरे वही जी॰ बी॰ रोड। उस का असली नाम गांधी बाबा रोड है।’’
सुजानपुरिया ने उस प्रूफ रीडर से जी॰ बी॰ रोड का पूरा ख़ाका लोकेशन ले लिया। पहली तारीख़ को तनख्वाह मिली। उन्हों ने अजमेरी गेट की बस पकड़ी और पहुंच गए जी॰ बी॰ रोड।
सुजानपुरिया को रंडियों के पास जाने का तजुर्बा पहले से था। आगरा में कई बार जा चुके थे। सो जानते थे कि रंडियां जामा तलाशी ले सारा पैसा निकलवा लेती हैं। सो वह पूरे एहतियात के साथ पहुंचे। फुटकर सौ रुपए दो जेबों में रखा और बाकी तनख्वाह पैरों के मोजे में ठूंस कर छुपा ली। गए छांटा बीना और यहां भी सब से सस्ती औरत तय की। जब मौका हाथ आया तो वह पायजामा उतार कर खड़े हो गए। पर जूता पहने रहे। उस औरत ने इन्हें डांटा, ‘‘जूते भी उतारो।’’
‘‘नहीं जूते नहीं।’’ कहते हुए सुजानपुरिया ने हाथ जोड़ लिए। औरत तड़ गई। उस ने बड़ी फुर्ती से इन का जूता उतार कर मोजा टटोल लिया। बोली, ‘‘बड़ी बदबू आ रही है। इसे भी उतार देते हैं।’’ सुजानपुरिया का सारा मजा ख़राब हो गया। वह उस औरत के पैरों पर गिर पड़े। बड़ी मिन्नत की, ‘‘नहीं मोजे नहीं।’’ पर उन के दोनों मोजे उस ने निकाल कर पैसे ब्लाउज में खोंस लिए। सुजानपुरिया गिड़गिड़ाते रहे। पर उस ने उन की एक न सुनी और कमरे से बाहर कर दिया। सुजानपुरिया बिना कुछ किए धरे बेरंग तनख्वाह गंवा कर बाहर हो गए। अब तक कई औरतों ने उन्हें घेर लिया था। कोई गुदगुदा रही थी, कोई चुटकी काट रही थी तो कोई टीप मार रही थी। सुजानपुरिया रोने लगे। पैसे मांगने लगे। सभी औरतों के पैर पड़-पड़ के गिड़गिड़ाए, ‘‘बहन जी ऐसा मत करिए।’’ पर बहन जी लोगों ने सुजानपुरिया को हड़का लिया। सुजानपुरिया चीख़ते चिल्लाते रहे, ‘‘बहन जी ऐसा मत करिए। बहन जी मेरे पैसे दे दीजिए।’’ पर कोई फायदा नहीं हुआ। सुजानपुरिया अंततः हार गए और जान गए कि अब पैसा वापस नहीं मिलने वाला तो उन्हों ने एक कोशिश और की ‘‘तो फिर बहन जी कर लेने दीजिए।’’ ‘‘कर लेने दीजिए’’ सुनना था कि औरतों ने सुजानपुरिया को सीढ़ियों पर ढकेल दिया और कहा कि, ‘‘बहन जी, बहन जी बोलता है और करेगा भी। भाग भड़ुए साले।’’
सुजानपुरिया ने फिर भी बड़ी मिन्नतें कीं सीढ़ियों पर खड़े-खड़े। पर न उन्हें करने को मिला, न पैसा ही मिला। बहुत रोने-पीटने पर उन का पायजामा, जूता और घर वापस जाने के लिए पांच रुपए उन्हें मिल पाए। सुजानपुरिया रोते पीटते उसी रात दफ्तर आए। सारा किस्सा सुनाया। एक रिपोर्टर, एक सब एडीटर उन्हें साथ ले कर अजमेरी गेट थाने गए। पुलिस अख़बार वालों के नाम पर मदद करने को न सिर्फ तैयार हुई बल्कि इंस्पेक्टर ने तुरंत एक सब इंस्पेक्टर, दो सिपाही भी साथ भेजे। पर अफसोस कि कई कोठों की सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते सुजानपुरिया यही नहीं शिनाख्त कर पाए कि वह गए कहां थे और लुटे कहां थे ? दो घंटे की मशक्कत के बाद थक हार कर सब लोग वापस आ गए। सुजानपुरिया ने फिर कुछ उधार, कुछ एडवांस ले कर महीना गुजारा।
आलोक यही सोच कर उन्हें चिढ़ा बैठा, ‘‘कहीं और तो नहीं?’’ और जब सुजानपुरिया, ‘‘ना भइया, अब नहीं’’ कह कर कान पकड़ने लगे तो आलोक ने सोचा कि क्यों न राजेश खन्ना नाइट का पास सुजानपुरिया को थमा दे।
‘‘राजेश खन्ना नाइट देखेंगे ?’’ आलोक ने सुजानपुरिया से पूछा।
‘‘कब ?’’ सुजानपुरिया अफनाए।
‘‘आज ही।’’
‘‘आज ही ?’’
‘‘हां, आज ही। जाना हो तो बताइए।’’
‘‘इंतजाम हो जाएगा ?’’
‘‘इंतजाम हो जाएगा क्या, इंतजाम हो गया है।’’ कहते हुए आलोक ने सुजानपुरिया को राजेश खन्ना नाइट का पास थमा दिया। सुजानपुरिया पास पाते ही खिल उठे। जाने के लिए बस नंबर, बस स्टैंड की जानकारी ले वह बड़ी फुर्ती से निकल गए। जाते-जाते बोले, ‘‘आज तो मजा आ गया।’’
सुजानपुरिया पहुंचे तो हाल के बाहर सुरेंद्र मोहन तल्ख़ बड़ी बेचैनी से टहलता नजर आया। सुजानपुरिया ने उन्हें लपक कर नमस्कार किया। पर तल्ख़ ने सुजानपुरिया को कोई तवज्जो नहीं दी, न कोई जवाब दिया नमस्कार का। सिगरेट फूंकते हुए वह दूसरी ओर देखने लगा। सुजानपुरिया भी उस की परवाह किए बिना पायजामा उठा कर दूसरे हाथ से बंद कालर की बटन टटोली और हाल में घुस गए। अंदर कार्यक्रम चालू था। बड़ी मुश्किल से वह अपनी सीट ढूंढ पाए। क्यों कि तब हाल में अंधेरा था। पर स्टेज की लाइट से वह ढूंढते ढूंढते अपनी सीट पर बैठ गए। पूरा हाल भरा था। पर उन के बगल की सीट ख़ाली थी। कोई आधे घंटे बाद अंधेरे में ही तल्ख़ आया और उस ख़ाली सीट पर बैठ गया। सुजानपुरिया ने उसे देखा तो पर तन कर कंधा उचका कर वह कार्यक्रम देखने में मशगूल हो गए पर तल्ख़ से बोले नहीं। थोड़ी देर बाद तल्ख ने सुजानपुरिया के हाथ की उंगुलियों को धीरे से छुआ। सुजानपुरिया ने सोचा यूं ही छू गया होगा। पर जब तल्ख़ ने छूते-छूते हलके-हलके दबाना शुरू किया तो सुजानपुरिया बिदक गए और कर्कश आवाज में कुछ ऐसे बोले जैसे खौलता पानी, ‘‘ये क्या कर रिया है ?’’
सुनते ही तल्ख़ छटक कर खड़ा हो गया, ‘‘तुम यहां कैसे आ गए ?’’
‘‘पास है मेरे पास।’’ अकड़ते हुए सुजानपुरिया तल्ख़ को सफाई देते हुए जेब से पास निकाल कर दिखाने लगा।
‘‘पर तुम्हें ये पास मिला कैसे ?’’ तल्ख़ अपना आपा खो बैठा था।
‘‘तुम से मतलब ?’’ कह कर सुजानपुरिया ने तल्ख़ का दिमाग बिलकुल ही ख़राब कर दिया। तल्ख़ तुरंत उठ गया और पैर पटकते हुए हाल से बाहर चला गया।
दूसरे दिन तल्ख़ ने उस टेलीफोन आपरेटर की ऐसी तैसी कर डाली। उस को रंडी, छिनार जैसे सारे विशेषण सरे आम दे डाले। और कहा, ‘‘क्यों नहीं आ सकती थी मेरे साथ राजेश खन्ना नाइट देखने ?’’
‘‘सुनिए तो तल्ख साहब !’’
‘‘क्या सुनूं ?’’ तल्ख़ कुछ सुनना नहीं, कहना ही चाहता था, ‘‘मैंने देखा है होटलों में लोगों के साथ तुम्हें जाते। और कई बार देखा है। फिर मेरे साथ बैठने में, देखने में क्या दिक्कत थी और जो बड़ी सती सावित्राी बनती है तो बन, पर उस चूतिए सुजानपुरिया को क्यों पास दे दिया ? मारा साले ने सारा मजा ख़राब कर दिया। जायका बिगाड़ दिया।’’ तल्ख़ हांफने लगा था, ‘‘क्या लगता है सुजानपुरिया तेरा ?’’
‘‘पर मैंने सुजानपुरिया को पास नहीं दिया।’’ वह बिफरी।
‘‘तो मेरा दिया पास उस के पास कैसे पहुंचा ?’’
‘‘पता नहीं। पर मुझे ओवर टाइम मिल गया था तो पास आलोक को दे दिया था कि क्यों ख़राब करूं पास।’’
‘‘ओवर टाइम मिल गया था कि कोई ग्राहक ?’’
‘‘देखिए तल्ख़ साहब तमीज से बात करिए।’’
‘‘क्यों क्या कर लेगी ? आलोक से कह देगी। क्या कर लेगा वह लौंडा मेरा!’’
‘‘देखिए तल्ख़ साहब !’’ वह रूआंसी हो गई।
‘‘क्या देखूं कि आज कल आलोक के साथ रातें गुजार रही हो ? काल गर्ल साली।’’
‘‘तल्ख़ साहब आप प्लीज यहां से जाइए।’’ कहते-कहते वह फफक कर रो पड़ी।
तल्ख़ चला गया।
बाद में कुछ लोगों के उकसाने पर टेलीफोन आपरेटर तल्ख़ की बदतमीजी की लिखित शिकायत ले कर संपादक के पास चली गई। संपादक ने तल्ख़ को तुरंत बुलवाया और बहुत डांटा। कहा कि अपनी उम्र पर शर्म कीजिए और इस महिला को अपनी बेटी, बहन जो कह पाइए, कह कर माफी मांगिए। तल्ख़ कसमसाया तो बहुत। पर कोई और चारा भी नहीं था। उस ने एक बार सोचा कि माफी मांगने के बजाय इस्तीफा लिख दे। लेकिन इस बुढ़ौती में कहां नौकरी ढूंढ़ता फिरेगा भला ? तल्ख़ ने ‘‘माफ कर दीजिए गलती हो गई।’’ कहा और जाने लगा।
संपादक ने उसे टोका कि, ‘‘ऐसे नहीं। मैं ने कहा था कि बहन या, बेटी कह कर माफी मांगिए।’’ तो तल्ख़ की जबान जैसे रूंध गई। बोला,‘‘बहन जी, माफ कर दीजिए।’’
तल्ख़ दिन भर अनमना बैठा सिगरेट फूंकता रहा। शाम को जाते समय चपरासी को छुट्टी की अर्जी लिख कर देता गया। और फिर हफ्ते भर नहीं आया। उधर इत्तफाक ही था कि टेलीफोन आपरेटर भी हफ्ते भर की छुट्टी पर चली गई।
राजेश खन्ना नाइट और सुजानपुरिया, तल्ख़ तथा टेलीफोन आपरेटर दोनों को भारी पड़ गए थे। पर आलोक को गपियाने के लिए एक नया किस्सा मिल गया था। दृश्य-दर-दृश्य वह लोगों को मिर्च मसाला लगा कर यह किस्सा सुनाता और कहता, ‘‘तल्ख़ भी साला बहन चोद हो गया। अपनी जमात में आ गया। बहन जी माफ कर दीजिए। बुड्ढा साला !’’ कह कर वह हंसने लगता, ‘‘चूतिया राजेश खन्ना नाइट दिखा रहा था। अरे, सीधे ‘‘आफर’’ करता जैसे मैं करता हूं। आखि़र मकसद तो वही था, ‘‘सेक्स!’’
चेतना के साथ संजय का मकसद भी साफ था - सेक्स ! जिस की गंध उस ने कोई ओछी हरकत कर के देने के बजाय सीधी बातचीत में दे दी थी। उस ने सोच लिया कि अव्वल तो चेतना अब उस से मिलेगी नहीं। और दूसरे जो मिलेगी तो वह सीधा-सीधा प्रस्ताव रख देगा। जैसे दिल्ली में नीला के साथ रख दिया था।
नीला !
उन दिनों वह फिल्म समीक्षाएं भी लिखा करता था। तब वी॰ सी॰ आर॰ या केबिल का इतना जोर नहीं था। टी॰ वी॰ चैनल नहीं थे। पिक्चरें सिनेमा हाल में ही देखनी पड़ती थीं। वह टाइपिस्ट उस की फिल्म समीक्षाएं टाइप किया करती थी। वह जब उस के पास जाता तो वह झट से मुसकुरा पड़ती। एकाध बार उस ने कहा भी, ‘‘संजय जी हम को भी पिक्चर दिखा दीजिए।’’ पर वह टाल गया। उस ने सोचा वह पास मांगना चाहती होगी। शक्ल सूरत में भी वह कोई ख़ास नहीं थी कि संजय उस से लाइनबाजी करता। दुबली-पतली, सांवली सी काया थी उस की। सो वह उसे ‘‘क्लिक’’ नहीं करती थी और फिर संजय उन दिनों ख़ाली भी नहीं था। दूरदर्शन की एक कैजुअल एनाउंसर के साथ उस की उन दिनों लाइनबाजी चल रही थी। पर जब उस ने हर बार सिनेमा दिखाने की बात कहनी शुरू की तो संजय ने उस से पूछ लिया, ‘‘कितने लोग जाएंगे देखने ?’’
‘‘क्या ?’’ वह चौंकी।
‘‘मतलब आप के परिवार में जितने लोग हैं उतने लोगों का पास ला दूं। शो और तारीख़ भी बता दीजिए।’’
‘‘संडे को मैटनी रख लीजिए। छुट्टी भी रहेगी !’’ कहती हुई वह अर्थपूर्ण हंसी, हंसी। पर संजय ने इस की नोटिस नहीं ली।
‘‘पर कितने लोग ?’’
‘‘पांच ले लीजिए।’’ कहते हुए वह टाइप करने लगी। दूसरे दिन संजय ने उसे पांच फ्री पास ला कर दे दिया और बता दिया, ‘‘इस पर कोई पैसा नहीं देना पड़ेगा।’’
‘‘क्यों आप साथ नहीं रहेंगे ?’’ उस ने बेधड़क पूछा तो संजय शरमा गया बोला, ‘‘पास पांच ही हैं न।’’
‘‘पर हम ने तो आप को भी गिन कर पांच बताया था। हम तो चार ही लोग हैं।’’
‘‘फिर भी सॉरी !’’ कहते हुए संजय ने उसे बताया, ‘‘संडे को आप की छुट्टी है, मेरी नहीं। मुझे तो ख़बर लिखनी ही है। और संडे को साइंटिस्टों का एक सेमिनार है प्रदूषण पर। उसे कवर करना है।’’
‘‘फिर भी कोशिश कीजिएगा।’’
‘‘अच्छा देखेंगे।’’ कह तो दिया संजय ने। पर संडे को वह नीला नाम की उस टाइपिस्ट के साथ सिनेमा देखने नहीं जा पाया।
मंडे को दफ्तर में जब नीला मिली तो संजय ने उस से औपचारिकतावश पूछ लिया कि, ‘‘पिक्चर कैसी थी ?’’
‘‘पिक्चर तो अच्छी थी पर मजा नहीं आया।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘आप जो नहीं थे ?’’ वह इठलाई, ‘‘मैं तो आप के साथ पिक्चर देखना चाहती थी।’’ सुन कर संजय हकबका गया।
वह समझ गया कि अभी तक लड़कियों को वह टपाता था पर अब की यह लड़की उसे टपाने में लग गई है। वह बोला, ‘‘तो ऐसी बात है ?’’
‘‘और नहीं तो क्या ?’’ वह फिर इठलाई और खिस्स से हंस पड़ी।
‘‘तो ठीक है। कल मंगल है और मेरा आफ है। कल पिक्चर देख लें ?’’
‘‘पर मेरी तो छुट्टी नहीं है।’’
‘‘कोई बात नहीं इवनिंग शो देख लेते हैं।’’
‘‘इवनिंग शो ?’’
‘‘क्यों ? क्या बात है ?’’
‘‘घर जाने में देर हो जाएगी।’’ कहते हुए वह चिंतित सी हुई पर बोली, ‘‘खै़र, कोई बात नहीं मैं मैनेज कर लूंगी।’’
‘‘तो कल शाम यहीं दफ्तर से ले लूं ?’’
‘‘नहीं-नहीं। यहां ठीक नहीं रहेगा।’’ वह टालती हुई बोली।
‘‘तो फिर ?’’
‘‘आप जहां कहिए मैं वहीं पहुंच जाऊंगी।’’ फिर उस ने खुद ही तय किया कि, ‘‘दरियागंज में गोलचा टाकीज पर ही सवा पांच बजे मिलते हैं।’’
‘‘पर पिक्चर तो साढ़े छः बजे शुरू होगी ?’’
‘‘पर मेरी छुट्टी तो पांच बजे हो जाएगी। दफ्तर में बैठने से अच्छा आप के साथ बैठूंगी।’’
‘‘तो ठीक है।’’ संजय बोला।
दूसरे दिन संजय शाम पांच बजे ही गोलचा पर पहुंच गया। नीला भी सवा पांच से पहले आ गई। आज वह और दिनों की अपेक्षा बन ठन कर आई थी, कलफ लगी साड़ी पहन कर।
‘‘अभी तो काफी टाइम है पिक्चर में।’’ संजय ने अब तक तय कर लिया था कि पिक्चर देखने में वक्त ख़राब करने से कोई फायदा नहीं। ख़ास कर तब जब लड़की खुद ही तैयार दिखती हो। सो उस ने तुरंत तीन प्रस्ताव रख दिया, ‘‘कहीं और चलें, काफी पिएं, कि अपने घर चलें। ?’’
‘‘कहां रहते हैं आप ?’’
‘‘गोल मार्केट में।’’
‘‘किधर है ये ?’’
‘‘कनॉट प्लेस के पीछे।’’
‘‘अच्छा अच्छा।’’ कहते वह बोली, ‘‘अपना है ?’’ सजंय ने बताया, ‘‘नहीं किराए का।’’ फिर उस ने पूछा, ‘‘कौन-कौन है आप के घर में ?’’
‘‘फिलहाल अकेला हूं।’’ सुन कर वह एक अर्थपूर्ण मुसकान फेंक कर रह गई। पर बोली कुछ नहीं। उस की चुप्पी तोड़ते हुए संजय फिर बोला, ‘‘तो कहां चलें ?’’
‘‘आप के घर ही चलते हैं।’’
‘‘ओ॰ के॰।’’ संजय खुश हो कर बोला।
घर पहुंच कर संजय ने उसे चाय बना कर पिलाई। फिर बेडरूम में नीला को ले जा कर एक कुर्सी पर बिठा दिया। और ख़ुद भी एक कुर्सी ले कर उसकी बगल में बैठ गया। बड़ी देर तक दोनों फिल्म, दफ्तर, दफ्तर की पालिटिक्स और इधर-उधर की बातें करते रहे। इस बीच संजय ने तीन चार बार जानबूझकर अपना पैर उस के पैर से सटाने की कोशिश की। पर जताया यही कि यह अनायास हो गया है। पर जब-जब उस ने नीला का पैर अपने पैर की अंगुलियों से छूने की कोशिश की तब-तब उस ने अपना पैर धीरे से पीछे खिसका लिया। पर न तो विरोध किया, न ही मुंह से कुछ कहा। पर पैर हटाने के थोड़ी देर बाद अपना पैर फिर वहीं रख देती। और संजय फिर पैर की अंगुलियों से उसे टटोलने लगता। यह अंगुलियों का खेल खेलते-खेलते जब सवा घंटे से भी ज्यादा हो गया तो संजय के मन में आया कि वह उठे और नीला को बांहों में भर ले। पर यह हरकत उसे ओछी लगी। सो उस ने ऐसा नहीं किया और तय किया कि क्यों न सीधा प्रस्ताव रख कर पूछ ले। और नीला से कहा, ‘‘अगर बुरा न मानो तो एक बात कहूं ?’’
‘‘कहिए।’’ वह गंभीर होती हुई बोली।
‘‘नहीं, बुरा मान जाओगी।’’
‘बुरा मानने वाली बात होगी तो जरूर मानूंगी।
‘‘तब रहने दो।’’
‘‘पर बात क्या है ?’’
‘‘अब जाने दो।’’
‘‘आप कहिए तो सही।’’
‘‘अब जाने भी दो।’’
‘‘क्यों ऐसी क्या बात है ?’’
‘‘कहा न बुरा मान जाओगी।’’
‘‘कौन सी बात है जो मैं बुरा मान जाऊंगी ?’’
‘‘बुरा मानने वाली भी बात है और नहीं भी।’’
‘‘तो कह डालिए।’’
‘‘पहले वादा करो कि बुरा नहीं मानोगी।’’
‘‘चलिए, नहीं बुरा मानूंगी।’’ कहते हुए वह इठलाई।
‘‘मैं तुम्हारे साथ सोना चाहता हूं।’’ वह अटका, ‘‘मतलब तुम्हारी देह।’’ वह फिर अटका, ‘‘मतलब सेक्स !’’ कह कर संजय चुप हो गया। ऐसे जैसे उस ने कोई अपराध कर दिया हो। नीला भी चुप रही। उस के चेहरे पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी।
‘‘आखि़र बुरा मान गई ?’’ थोड़ी देर बाद संजय बोला।
‘‘कौन सी बात बुरा मान गई ?’’ नीला ने अपने पैर की अंगुलियों से फर्श कुरेदते हुए पूछा।
‘‘वही सेक्स वाली।’’
‘‘बस ! यही कहने के लिए तब से बैठे थे ?’’
‘‘नहीं मैं....मैं....’’
‘‘और यह कहने में इतनी देर लगा दी ?’’ नीला अब संजय की आंखों में आंखें डाल ऐसे झांक रही थी जैसे उसे लील जाना चाहती हो। पूरा का पूरा।
‘‘तो उधर क्या बैठी हो, इधर आओ !’’ कुर्सी से बिस्तर पर जाते हुए उस ने नीला को भी कुर्सी पर से उठा लिया। दोनों बांहों से उठाते हुए संजय ने नीला को चूम लिया। और बिस्तर तक आते आते चुंबनों की बौछार कर दी। नीला को बिस्तर पर लिटाते-
लिटाते वह उस पर पूरा का पूरा लद गया। वह फुसफुसाई, ‘‘पर आज ही यह सब नहीं। प्लीज !’’
‘‘क्यों ?’’ वह भी फुसफुसाया।
‘‘आज मन नहीं है। फिर कभी !’’ पर संजय अब कहां रुकने वाला था। अब तक वह उस के ब्लाउज के हुक खोलने में लग गया था।
‘‘अच्छा, ऊपर से जरा उतर जाइए। प्लीज !’’ संजय उस के बगल में होते हुए उसे अपनी ओर भींच कर जब एक हाथ से उस की ब्रा के हुक खोलते हुए साड़ी पेटीकोट पार करते हुए दूसरे हाथ से उस के नितंबों को सहला रहा था तो वह कहने लगी, ‘‘साड़ी ख़राब हो रही है।’’ वह किसी भालू की तरह उसे दबोचता जा रहा था पर बोला, ‘‘तो साड़ी उतार दो न।’’
‘‘आप छोड़िए तो सही।’’ पर संजय तो जैसे अफनाया हुआ था। उस ने उसका गाल काटना चाहा। पर नीला ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘नहीं। काटिएगा नहीं।’’
‘‘अच्छा तो साड़ी उतारो।’’ संजय बुरी तरह उत्तेजित था, ‘‘जल्दी, जल्दी।’’
‘पर मैं तो कह रही थी, आज मान जाते !’’
‘‘क्या बेवकूफी है ? जल्दी उतारो।’’ कह कर संजय खुद उस की कलफ लगी साड़ी खोलने लगा तो वह फिर फुसफुसाई, ‘‘प्लीज।’’
‘‘चुप्प !’’ संजय फुसफुसाया। तो वह उठ कर साड़ी उतारती हुए बोली, ‘‘मैं फिर रिक्वेस्ट कर रही हूं कि आज नहीं।’’
‘‘अच्छा ठीक है। आज नहीं। पर साड़ी तो उतारो। वह नहीं तो बाकी बात तो हो सकती है ?’’
‘‘हां ये ठीक है।’’ नीला अभी बोल ही रही थी कि काल बेल बजी। घंटी की आवाज सुनते ही वह घबरा गई। और संजय का सारा नशा, सारी उत्तेजना टूट गई। पर उस ने नीला से कहा, ‘‘घबराओ नहीं। तुम यहीं रहो। मैं अभी देख के आता हूं।’’ बाहर दरवाजश खोला तो धोबी कपड़े ले कर आया था जो उस ने सुबह उसे प्रेस करने को दिया था। उस ने कपड़े लिए और धोबी से कहा, ‘‘पैसे बाद में लेना।’’ और भड़ से दरवाजश बंद कर दिया। वापस आया तो देखा कमरे से नीला गायब थी। वह हैरत में पड़ गया। कहां गायब हो गई ? अभी संजय सोच ही रहा था कि नीला की आवाज आई, ‘‘कौन था ?’’
‘‘धोबी। पर तुम हो कहां ?’’
‘‘यहां।’’ कहते हुए वह दरवाजे के पीछे से निकली। उस ने देखा वह आल्मारी और दरवाजे के बीच छुपी थी। उस की साड़ी, पीठ और बांहों पर चूने लग गए थे और जाले भी। उस ने देखा, वह सचमुच डर गई थी।
‘‘अच्छा आओ। और साड़ी उतार दो।’’
‘‘प्लीज !’’
‘‘अब और मूड आफ मत करो।’’ कह कर संजय ने पैंट कमीज उतारते हुए नीला को बिस्तर में खींच लिया। नीला ने साड़ी उतार दी थी।
‘‘अब ये कौन उतारेगा ?’’ वह नीला से उस का ब्लाउज दिखाते हुए बोला।
‘आप भी बस ! मानेंगे नहीं।’’
‘‘खुद उतार लो तो अच्छा है, नहीं कोई हुक टूट गया तो तुम्हीं को मुश्किल होगी।’’ कह कर वह ब्लाउज के हुक खोलने लगा तो वह बोली, ‘‘रहने दीजिए।’’
उस ने ब्लाउज उतार दिया। ब्रा नहीं उतारा तो संजय उस की हुक खोलता हुआ बोला, ‘‘चलो इस में हुक टूटने का ख़तरा नहीं है। इसे मैं ही उतार देता हूं।
‘‘सब कुछ उतार देना जरूरी है ?’’
‘‘और नहीं तो क्या ?’’ संजय फिर उत्तेजित हो गया। ब्रा उतार कर जब वह पेंटी पर आ गया तो नीला फिर ‘‘प्लीज-प्लीज, नहीं-नहीं’’ पर आ गई। पर संजय कहां मानने वाला था। पेटीकोट उतारने के बाद संजय ने पाया कि ‘‘आज नहीं, आज नहीं फिर कभी।’’ की रट लगाने वाली नीला तो उसे रोक रही थी पर ख़ुद पानी-पानी हो रही थी। अब संजय उस पर सवार हो गया तो वह रह-रह पैर सिकोड़ने लगी।
‘‘क्या नाटक लगा रखा है ?’’ कह कर संजय ने उस के दोनों पैर कस-कस के फैला कर झटके से ऊपर उठा दिए तो वह, ‘‘हाय मम्मी’’ कह कर चीख़ पड़ी। पर संजय की उत्तेजना में उस की चीख़ दब कर रह गई।
‘संजय जब हांफता हुआ निढाल हुआ तो फोन की घंटी बज रही थी। उसे बड़ा बुरा लगा। बड़ी देर तक घंटी बजती रही पर उस ने रिसीवर नहीं उठाया। घंटी अपने आप बंद हो गई। फोन की घंटी बंद हो गई तो नीला उस के सीने में सिमटते हुए बोली, ‘‘यह क्या कर दिया आप ने ?’’ अभी वह कुछ बोलता, कि घंटी बजने लगी। हार कर उस ने फोन उठाया तो फोन पर एक एम॰ पी॰ साहब थे। एक ख़बर ब्रीफ करना चाहते थे। संजय ने फोन पर ‘‘हूं’’ ‘‘हां’’ कर एम॰ पी॰ से छुट्टी ले ली और फोन काट कर रिसीवर भी आफ कर दिया। क्यों कि इस समय वह कोई घंटी वंटी सुनने के मूड में नहीं था। न ही किसी की बात सुनने के मूड में। पर नीला लगातार रह-रह कर ‘‘यह क्या कर दिया आप ने ?’’ फुसफुसाती रही। आखि़र जब आजिश्ज हो कर उस ने नीला से कहा, ‘‘अब चुप भी करोगी, प्लीज !’’
‘‘और जो कहीं कुछ गड़बड़ हो गया तो ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘आप ने जो किया उस से कहीं गड़बड़ हो गया तो मैं क्या करूंगी ? कैसे मुंह दिखाऊंगी किसी को ?’’
‘‘घबराओ नहीं। एक बार में कुछ नहीं होता। होता भी है तो सिर्फ हिंदी फिल्मों में। हकीकत में नहीं।’’
‘‘फिर भी अगर चार आने का तीन ले लिए होते तो अच्छा रहता।’’ उस का इशारा निरोध की तरफ था।
‘‘अच्छा ठीक है। अगली बार से ले लेंगे।’’ कह कर अब वह उठना चाहता था। पर नीला उस से चिपटती जा रही थी। उस ने घड़ी देख कर बताया कि, ‘‘साढ़े आठ बज गए हैं।’’ पर वह अनसुना कर गई। और तब तक संजय से चिपटी रही जब तक वह उस पर फिर सवार नहीं हो गया। हांफते-हांफते संजय जब उसे पेट के बल उंकड़ई कर पीछे से शुरू हो गया तो वह बोली, ‘‘अब यह क्या कर रहे हैं ?’’
‘‘बस चुपचाप रहो।’’ संजय ने कहा तो बावजूद घुटना दुखने के वह न सिर्फ चुप रही, बल्कि कोआपरेट भी करती रही। बाद में वह बोली, ‘‘बड़े एक्सपर्ट हैं आप ? क्या-क्या जानते हैं ? कहां से सीखा ?’’ जैसे सवालों पर वह आ गई। जाहिर है इस स्टाइल से वह पहली बार परिचित हुई थी, इसी लिए कुछ-कुछ चकित भी थी और खुश भी।
फिर अक्सर हर दूसरी, तीसरी शाम वह संजय के साथ उस के घर में बिताने लगी। और बिना दो तीन बार के वह जाती नहीं थी। चाहे जितना टाइम लग जाए। एक दिन संजय के सीने से चिपकी, उस के बालों को सहलाती हुई बोली, आप जात-पात में विश्वास करते हैं।’’
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं।’’
‘‘और आप के घर वाले ?’’
‘‘मिला जुला रुख है। क्यों ?
‘‘नहीं बस वैसे ही।’’
‘‘फिर भी ?’’
‘‘नहीं कोई बात नहीं।’’ कह कर वह साड़ी बांधने लगी। साड़ी बांध कर बालों में कंघी करते हुए बोली, ‘‘आप की बात मैं ने मानी। मेरी एक बात आप भी मान जाइए।’’
‘‘बोलो।’’
‘‘नहीं, पहले वादा करिए कि मान जाएंगे ।’’
‘‘चलो, वादा !’’
‘‘पक्का वादा ?’’
‘‘बिलकुल पक्का !’’ कहते हुए उस ने पीछे से बांहों में भर लिया।
‘‘आप मुझ से शादी कर लीजिए।’’
‘‘शादी ?’’ संजय की पकड़ उस पर ढीली पड़ गई।
‘‘देखिए आप ने पक्का वादा किया है।’’
संजय चुप रहा।
‘‘बोल क्यों नहीं रहे ?’’ वह पलटी और संजय का चेहरा अपने दोनों हाथों में लेती हुई बोली, ‘‘बोलिए करेंगे न मुझ से शादी ? देखिए आप ने पक्का वादा किया है।’’
‘‘पर मेरी शादी तो हो गई है। मेरे एक बेटा भी है।’’ संजय सफाई देते हुए बोला। तो वह जैसे आसमान से गिर पड़ी।
‘‘पर आप ने पहले कभी नहीं बताया ?’’ वह बिलकुल हिल गई थी।
‘‘तुम ने पूछा ही नहीं।’’ संजय भी उस की उदासी से उदास हो रहा था।
‘‘फिर भी आप बता सकते थे।’’
‘‘पर इस से क्या फर्क पड़ता है ?’’
‘‘आप को न सही। हम को तो पड़ता है।’’ वह ऐसे बोल रही थी जैसे उस के सपनों का गुब्बारा किसी ने जबरिया फोड़ दिया हो।
‘‘ऐसा मत कहो।’’ कह कर संजय उसे चूमने लगा।
‘‘पर आप की मिसेज हैं कहां ?’’
‘‘मायके गई हुई हैं।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘बाथरूम में गिर कर उस का बायां पैर टूट गया था। प्लास्टर के बाद उस की देख रेख कौन करता यहां। उस का भाई आ कर ले गया।’’
‘‘कब तक वापस आएंगी आप की मिसेज ?’’
‘‘क्या पता ?’’
‘‘आप मिलने नहीं जाते ?’’
‘‘अरे कोई दिल्ली में तो हैं नहीं। कि जब मन आए पहुंच जाऊं ?’’
‘‘अच्छा-अच्छा।’’ कह कर वह जाने लगी।
‘‘चलो तुम्हें छोड़ दूं।’’
‘‘नहीं मैं चली जाऊंगी।’’
‘‘चला चलता हूं।’’
‘‘नहीं प्लीज !’’
इस के बाद वह तीन चार दिनों तक दफ्तर नहीं आई। संजय को उस के घर का पता भी नहीं मालूम था। दफ्तर में पता मालूम करने में वह हिचक गया। आखि़र किस से पूछे कि वह कहां रहती है ? पता नहीं कौन क्या सोचे।
कोई हफ्ते भर बाद वह दफ्तर में दिखी। उस ने जा कर उसे ‘‘हलो’’ किया। तो वह ऐसे पेश आई जैसे उसे जानती ही न हो। संजय को बड़ी तकलीफ हुई। उस वक्त तो वह चला गया। पर थोड़ी देर बाद फिर उस के पास पहुंच गया। फुसफुसाया, ‘‘शाम को घर आओगी ?’’
‘‘क्या ?’’
‘‘घर !’’
‘‘आऊंगी।’’ संक्षिप्त सा बोल कर वह अपने काम में लग गई।
शाम को वह संजय के घर जब आई तो खुश थी। पर जाने क्या हुआ कि फफक कर रोने लगी।
‘‘क्या बात हो गई है ?’’ संजय उसे अपनी बांहों में भरता हुआ बोला। पर नीला कुछ नहीं बोली। संजय इस बीच उस के एक-एक कर के कपड़े उतारता रहा पर वह सुबकती रही। संजय जब निढाल हुआ तब भी वह रह-रह कर सुबक रही थी। लगातार सुबकती रही थी। आज वह पहली बार के बाद ही कपड़े पहनने लगी।
‘‘आज बात क्या है ?’’ संजय ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं।’’ वह अब भी सुबक रही थी। सीढ़ियां उतरते समय भी वह सुबक रही थी।
दूसरे दिन उस ने बताया कि उस की मम्मी को कुछ शक हो गया है। उस के घर देर से पहुंचने को ले कर भी घर में हंगामा हुआ। मम्मी और भाई दोनों ने उसे मिल कर बहुत मारा था। मार के निशान होंठों पर, मुंह, हाथ और पैर पर भी थे। इस लिए निशान छूटने तक उसे छुट्टी लेनी पड़ी।
‘‘तो जल्दी चली जाया करो न !’’
‘‘बात जल्दी जाने भर की नहीं है।’’
‘‘फिर क्या है ?’’
‘‘शक !’’
‘‘कैसा शक ?’’
‘‘मम्मी कहती हैं, अब तू लड़की नहीं लगती। तेरी देह बदल रही है।’’
‘‘अब इस का क्या किया जा सकता है ?’’
‘‘क्यों नहीं किया जा सकता ?’’
‘‘क्या ?’’
‘‘आप मुझ से शादी कर लीजिए।’’
‘‘पर मैं ने तुम्हें बताया कि मेरी शादी हो चुकी है।’’
‘‘तो दूसरी भी तो कर सकते हैं ?’’
‘‘ना !’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘अच्छा चलो इस पर फिर कभी सोचेंगे।’’
नीला की शामें फिर संजय के साथ रंगीन होने लगीं। शनिवार की शाम वह काफी देर तक संजय की बांहों में पड़ी रही। बोली, ‘‘आज जाने का मन नहीं कर रहा ।’’
‘‘तो मत जाओ।’’
‘‘नहीं जाना तो पड़ेगा।’’ वह रुकी और बोली, ‘‘कल तो संडे है। कल आप क्या कर रहे हैं ?’’
‘‘कुछ ख़ास नहीं।’’
‘‘तो कल छुट्टी ले लीजिए। कल दिन भर मैं आप के साथ रहना चाहती हूं।’’
‘‘ठीक है। ले लेता हूं कल छुट्टी।’’
दूसरे दिन नीला सुबह-सुबह आ धमकी। तब आठ बज रहे थे। पर उस की सारी योजना पर पानी फिर गया था। संजय की बीवी रात ही आ गई थी। संजय की बीवी को देखते ही नीला को जैसे डंक मार गया। उस का चेहरा बिलकुल फीका पड़ गया और संजय ने नोट किया कि उस का व्यवहार भी असहज, एब्नार्मल हो गया था। वह संजय के घर की एक-एक चीज ऐसे घूर रही थी जैसे वह सब उस का ही हो और किसी ने उस से वह जबरिया छीन लिया हो। चाय की प्याली भी पीते-पीते उस ने ऐसे छलकाई कि उस की साड़ी भींग गई।
संजय समझ गया कि अब कुछ अनर्थ होने वाला है। क्यों कि नीला तो एब्नार्मल हो ही रही थी, संजय ने देखा कि उस की पत्नी भी नीला के व्यवहार से कुछ शंकालु नजरों से उसे घूरने लगी थी।
‘‘घबराओ नहीं वह छूट जाएगा।’’ संजय बोला तो पत्नी ने पूछा, ‘‘कौन छूट जाएगा?’’ नीला भी अचकचा कर कुछ कहने ही जा रही थी कि संजय फिर बोल पड़ा, ‘‘इस का भाई। कल रात मुहल्ले के कुछ लोगों के झगड़े में पुलिस ले गई।’’ संजय ने जोड़ा, ‘‘तभी तो बेचारी सुबह-सुबह आई है।’’ उस की ओर लापरवाही से देखते हुए वह बोला, ‘‘लगता है रात भर सोई भी नहीं है।’’
‘‘हां, हां।’’ हड़बड़ा कर बोलती हुई नीला की जैसे जान में जान आ गई।
‘‘घबराओ नहीं, अभी चलते हैं जरा नहा धो लें।’’ संजय ने नीला को इशारे से ढाढस दिया।
‘‘पर घटना रात की है। यह अभी आ रही हैं। आप को कैसे पता पड़ा कि इन का भाई बंद है ?’’ संजय की पत्नी फिर शंकालु हुई।
‘‘अरे भाई इस ने रात को फोन कर के बताया था।
‘‘पर रात तो मैं आ गई थी। कब फोन आया इन का ?’’
‘‘तुम्हारे आने से पहले।’’ संजय ने जैसे सफाई दी, ‘‘रात हम ने पुलिस कमिश्नर से भी बात की थी पर उन्हें थाने का इंस्पेक्टर नहीं मिल पाया था। अब उन की बात हो गई होगी सो जाते हैं, छुड़वा देते हैं।’’
‘‘पर जब बात हो गई होगी और वह छूट ही गया होगा तो आप को जाने की क्या जरूरत है ?’’
‘‘तुम्हारे पैर का प्लास्टर तो कट गया है पर तुम्हारे दिमाग पर भी कोई प्लास्टर लगा हो तो उसे कटवा डालो।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘ये औरत हो कर अकेले थाने कैसे जाएंगी ?’’
‘‘कोई और नहीं है इन के घर में ?’’
‘‘जी नहीं एक बूढ़ी मां हैं और एक ही भाई।’’
‘‘तो वह भाई जाए न ?’’
‘‘अरे वही तो बंद है।’’
‘‘ओह !’’ कह कर वह किचेन की ओर दौड़ी, ‘‘लगता है दूध उबल रहा है।’’
जलते दूध की महक सचमुच आ रही थी।
तो क्या नीला की आर्द्र और डरी आंखों में भी कुछ ऐसा उबल रहा था जिस की गंध संजय की बीवी के नथुनों में किचन में उबलते, जलते दूध की गंध की तरह फड़क रही थी और वह सवाल पर सवाल ऐसे फेंके जा रही थी जैसे कपिलदेव का बाउंसर।
उस दिन संजय ने किसी तरह से बीवी से छुटकारा लिया और नीला को ले कर निकल पड़ा। घर से निकलते ही नीला बोली, ‘‘सोचा था आज दिन भर आप के साथ इनज्वाय करेंगे पर क्या बताएं ?’’
‘‘घबराओ नहीं। फिर भी इनज्वाय करेंगे ।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘चलो तो सही।’’
‘‘संजय ने पहाड़गंज के एक सस्ते से होटल में कमरा लिया। दरवाजश बंद कर नीला को बांहों में अभी भरे ही था कि कोई दरवाजा नॉक कर रहा था। उस ने खोला तो देखा होटल का कोई कर्मचारी खड़ा था।
‘‘क्या बात है ?’’ संजय ने उसे डपटा।
‘‘सामान कहां है ?’’
‘‘सामान वामान कहां है। जरा समझा करो।’’ संजय नरम हुआ।
‘‘तो साहब डबल चार्ज पड़ेगा। बोलो दोगे ?’’
‘‘चलो तुम्हारे मैनेजर से बात करते हैं।’’ संजय भड़क रहा था।
‘‘चलो कर लो।’’
‘‘तुम चलो मैं अभी आता हूं।’’ कह कर संजय कमरे का दरवाजा अंदर से बंद करने लगा तो वह कर्मचारी अड़ कर खड़ा हो गया। बोला, दरवाजा अभी मत बंद करो।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘पहले डबल पेमेंट कर दो।’’
‘‘क्या बदतमीजी है ?’’ कहते हुए संजय मैनेजर के पास पहुंचा और कर्मचारी की शिकायत की।
‘‘वह ठीक बोल रहा है।’’ मैनेजर उस की शिकायत ख़ारिज करते हुए बोला, ‘‘तुम नहीं जानते। अभी पुलिस रेड पड़ जाएगा तो हम क्या करेंगे ?’’
‘‘अच्छा चलो, पुलिस आई तो हम संभाल लेंगे। पुलिस कुछ नहीं करेगी।’’
‘‘ऐसे ही सभी बोलते हैं। पर पुलिस के आगे कभी किसी की नहीं चलती।’’
‘‘पर मेरी चलेगी।’’
‘‘कुछ नहीं चलेगी। तुम को भी पुलिस बंद कर देगी, हम को भी और तुम्हारे साथ आई उस लड़की को भी।’’
‘‘पर हमारा विश्वास तो करो।’’
‘‘कुछ नहीं। हम तो सिर्फ पैसे पर विश्वास करते हैं। और पुलिस भी पैसा ही मानती है सिफारिश-सोर्स नहीं।’’
‘‘तो नहीं मानेंगे आप ?’’ संजय ने आखि़री बार कोशिश की।
‘‘नहीं साहब !’’
‘‘लूटते हैं साले !’’ कहता हुआ संजय नीला को ले कर होटल से बाहर आ गया।
‘‘अब कहां चल रहे हैं ?’’ नीला बिलकुल नर्वस हो रही थी।
‘‘कहां चलें, तुम बताओ ?’’
‘‘हम क्या बताएं।’’
‘‘गांधी समाधि चलें ?’’
‘‘चलिए।’’
उस रोज दिन भर गांधी समाधि के पीछे झाड़ की आड़ में और जोड़ों की तरह संजय और नीला भी एक दूसरे से चिपटते रहे, एक दूसरे को चूमते रहे। जब कोई आता दिखता तो छिटक जाते। नीला हरदम आशंकित रहती, ‘‘कोई आ रहा है।’’ और दूसरे ही क्षण फिर चिपट जाती।
कुछ दिनों तक दोनों ऐसे ही किसी न किसी सार्वजनिक स्थान, निर्जन सड़क, गांधी समाधि, शांति वन की झाड़ियों में मिलते और चिपटते रहते। वह पीछे वाली स्टाइल बड़े काम आती। वह किसी भी निर्जन सड़क पर पेड़ के पीछे स्कूटर पर झुक कर खड़ी हो जाती और काम बन जाता। और दिल्ली में ऐसी निर्जन सड़कें ढेर थीं। बस थोड़ी हिम्मत चाहिए थी। जो नीला में थी। एक दिन दफ्तर की कैंटीन में गप्प गोष्ठी चल रही थी। अचानक सुरेश आया और बोला, ‘‘संजय की तो अब खै़र नहीं है।’’ वह बहुत गंभीर था।
‘‘पर हुआ क्या ?’ आलोक ने पूछा।
‘‘अरे, ये आजकल लगातार एड्स के साथ देखे जा रहे हैं।’’ उस ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा, ‘‘रिपोर्टिंग पर तो इन के असर पड़ ही चुका है। अब यह देह से भी कब बीमार होते हैं यही देखना है।’’
‘‘क्या मतलब है तुम्हारा ?’’ संजय ने पूछा।
‘‘मतलब साफ है।’’ सुरेश बोला।
‘‘माजरा क्या है ?’’ आलोक ने संजय के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
‘‘पता नहीं, हमें तो कुछ समझ नहीं आ रहा।’’
‘‘मर जाऊं इस मासूमियत पर।’’ सुरेश ने टांट किया।
‘‘तो तुम्हीं बता दो। खामखा रहस्य बुनने से क्या फायदा ?’’
‘‘नीला !’’ सुरेश ने चुटकी ली।
‘‘अच्छा, अच्छा ! तो आजकल उस घाट पर पानी तुम्हीं पी रहे हो।’’ आलोक मेज थपथपाते हुए बोला, ‘‘वही मैं कहूं। क्यों कि वह तो कभी ख़ाली रह ही नहीं सकती।’’
‘‘अच्छा, यह बताओ अभी शादी का प्रस्ताव उस ने किया कि नहीं ?’’ सुरेश अब ब्यौरों में आ रहा था।
‘‘वह तो हर लड़की कर देती है।’’ संजय मायूस हो कर बोला।
‘‘बड़ा तजुर्बा है।’’ वह रुका और बोला ‘‘अच्छा वह प्रिगनेंट अभी हुई कि नहीं?’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘मतलब कि एबार्शन के लिए पैसे मांगे कि नहीं ?’’
‘‘क्या बदतमीजी है ?’’ संजय भड़का।
‘‘अच्छा मांग लेगी।’’ आलोक बोला, ‘‘सुना है सरकुलेशन मैनेजर से दो हजार मांगे थे। उस की बीवी को ख़बर लग गई। बेचारे की ठुकाई हो गई।’’
‘‘ठोकेगा तो ठुकाई तो होगी !’’ आलोक उसे एलर्ट करता हुआ बोला, ‘‘बुरे काम के लिए बुरी नहीं है पर जाने झूठ है कि सच वह चपरासी से ले कर जनरल मैनेजर तक के साथ रपट चुकी है।’’
संजय को बड़ा बुरा लगा यह सब सुन कर। वह उठ कर चलने लगा तो सुरेश बोला, ‘‘बुरा मत मानना। दोस्त हूं। एक सलाह ले लो। हो सके तो निरोध का इस्तेमाल कर लिया करो। क्यों कि वह तो एक चलती फिरती एड्स की दुकान है।’’
क्या सचमुच नीला ऐसी है ?
संजय तीन चार दिनों तक यही सोचता रहा और नीला से मिलने से बचता रहा।
तो क्या वह नीला से प्यार करने लगा था ?
नहीं ऐसी बात तो नहीं थी। इस हद तक तो वह कभी गया भी नहीं। नीला और उस के बीच सिर्फ देह थी, प्यार नहीं। क्यों कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह नीला को देखने के लिए बेकरार हुआ हो। एक क्षण के लिए भी नहीं। और शायद नीला भी नहीं। वह दोनों सिर्फ देह जी रहे थे और शायद मन से, पूरे मनोयोग से। वह मिलते और मौका पाते ही एक दूसरे पर टूट पड़ते।
तो क्या सिर्फ देह की भूख ही दोनों की जोड़ती थी ?
नीला का तो समझ में आता था।
पर संजय ?
नीला तो शादी की उम्र पार कर रही थी। और शादी हो न हो देह की अपनी जरूरत, अपनी भूख तो होती ही है। आखि़र शादी के इंतजार में कब तक वह अपनी देह, अपनी इच्छा भस्म करती रहती। और वह पाता कि दिल्ली में कोई साठ प्रतिशत लड़कियां शादी की उम्र पार करती, नौकरियां करती जिंदगी गुजार रही थीं। कुछेक प्रतिशत को छोड़ कर ज्यादातर किसी न किसी के साथ ‘‘अटैच्ड’’ ही हो जाती थीं। कोई मन से, कोई देह से, कोई देह-मन दोनों से तो कोई मन-देह दोनों से। संजय इस हालत पर बात-बात में मजबूर का एक शेर भी कोड करता, ‘‘पूछा कली से कुछ कंवारपन की सुनाओ हजार संभली खुशबू बिखर जाती है।’’ और कहता, ‘‘परवीन बाबी तो कहती है कि चौदह साल के बाद अगर कोई लड़की यह कहती है कि मैं कुआंरी हूं तो वह झूठ बोलती है।’’ पर वह खुद अपनी सोच को जब तब सही करार देता और कहता असल समस्या तो दहेज की है। अगर दहेज के भूखे भेड़िये अपने मुंह और पेट पर लगाम चढ़ा लें तो ये बेचारी लड़कियां इस तरह देह जीने को विवश नहीं होतीं। और फिर वह अचानक दहेज, दांपत्य का बिखराव, कभी पूरी न पड़ पाने वाली आर्थिक जरूरतों को लड़की के फिसलने के मुख्य कारणों में गिना जाता। वह पाता कि दिल्ली में ज्यादातर मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय ख़ास कर पंजाबी परिवारों की लड़कियां इंटर, बी॰ ए॰ करते न करते सरकारी, गैर सरकारी नौकरियों में जबरिया लगा दी जातीं कि जुटाओ अपना दहेज, पांच साल, सात साल, दस साल जो भी लगे। और इस फेर में लड़की कहां-कहां से गुजर जाए इस की परवाह अमूमन नहीं होती थी।
तो क्या नीला भी इसी विसंगति की उपज है ?
क्या पता ?
वह फिर भी कतराता रहा। पर लाख कतराने के बावजूद एक शाम वह टकरा गई। बातचीत के लिए उस ने एक मशहूर फिल्मी गीत का एक मिसरा इस्तेमाल किया, ‘‘बदले-बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं।’’
‘‘सच !’’
‘‘और नहीं तो क्या ?’’ नीला ने एक मादक मुसकान फेंकी।
‘‘तुम बदली होगी। मैं तो नहीं बदला।’’
‘‘सच ?’’ नीला ने उस का सवाल दुहरा दिया था।
‘‘बिलकुल !’’ संजय ने उस का जवाब नहीं दुहराया।
‘‘चलिए खुशी हुई। वह उस के स्कूटर के पीछे की सीट को छूती हुई बोली, ‘‘आइए कहीं काफी पीते हैं।’’
‘‘चलो।’’
काफी पीने के बाद दोनों घूमते घामते आखि़र फिर देह के मकसद पर आ गए। और जैसे फिर वही पुराना रूटीन ! ऐसी ही एक शाम वह बोली, ‘‘कल मेरे घर आ जाइए।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘बस यों ही।’’
‘‘कोई ख़ास बात ?’’
‘‘नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।’’
‘‘अच्छा चलो आऊंगा। पर पता तो बताओ।’’
उस ने गांधी नगर का पता दिया।
‘‘कब आऊं ?’’
‘‘कल। कह तो रही हूं।’’
‘‘अरे, किस समय ?’’
‘‘दोपहर बाद।’’
‘‘कल आफिस नहीं आओगी ?’’
‘‘नहीं। छुट्टी ले रखी है।’’
‘‘ठीक है।’’
दूसरे दिन कोई दो बजे वह जब गांधी नगर की उस तंग गली में पहुंचा तो नीला का मकान ढूंढने में बड़ी परेशानी हुई। तब तक होजरी का कारोबार वहां इतना नहीं फैला था। नीला के मकान पर जब वह पहुंचा तो उस ने देखा वह छत की खिड़की से चुपचाप ऊपर आने का इशारा कर रही थी और स्कूटर वहीं कहीं खड़ी कर देने को भी वह इशारों में समझा रही थी। संजय ने ऐसा ही किया।
संजय ने पाया कि गली से भी ज्यादा तंग नीला के घर की सीढ़ियां हैं। सीढ़ियां चढ़ कर ज्यों ही वह ऊपर उस के कमरे में पहुंचा वह उस पर एकदम भुखाई हुई शेरनी की तरह टूट पड़ी। वह कुछ कहने को हुआ पर उस के होंठ उस के होंठों को बंद कर चुके थे। संजय को एक बार लगा कि यह तो आज उलटा हो गया। एक महिला पुरुष के साथ बलात्कार पर आमादा थी। पर सच यही है कि पुरुष के साथ बलात्कार हो नहीं सकता। क्यों कि टांग उठा कर शुरू हो जाने वाला खेल इस गेम में होता नहीं। बल्कि संजय तो आज तक यह भी नहीं समझ पाया कि कोई पुरुष भी स्त्री की बिना सहमति के बलात्कार कैसे कर लेता है। स्त्री की, डर से ही सही, स्वार्थ, लालच या किसी और कारण से ही सही परोक्ष या अपरोक्ष उस की सहमति तो होती ही होगी तभी पुरुष उस के साथ पशुवत व्यवहार करता होगा। नहीं स्त्री चीख़ती, चिल्लाती रहे और जाहिर है उस के हाथ पांव बंधे हों तो भी कैसे लोग स्त्री देह पर बलात्कार की इबारत लिख देते हैं, संजय यह भी नहीं समझ पाता। हां, यह स्थिति तो हो सकती है कि स्त्री मानसिक रूप से, मन से तैयार न हो पर देह उस बलात्कारी के हवाले कर दे, डर या लालच से तो चाहे संभव है। नहीं बात बेबात ही डिस्टर्ब हो जाने वाला पुरुष, टेलीफोन की घंटी, कालबेल या किसी आहट भर से ही शिथिल हो जाने वाला उस का पुरुष अंग आखि़र लाख विरोध के बावजूद कैसे बलात्कार कर लेता है, संजय की समझ से हमेशा परे रहा है। वैसे ही आज नीला की उस पर चढ़ाई उसे पहले तो बेअसर जान पड़ी। पर नीला पर तो जैसे भूत सवार था। उस ने संजय को भी उत्तेजित कर लिया।
थोड़ी देर बाद उस ने पूछा, ‘‘घर में कोई नहीं है क्या ?’’ तो अब की उस ने होंठों के बजाय उंगलियां उस के होंठों पर रख दी। संजय ने देखा कमरे का दरवाजा खुला हुआ है। वह फुसफुसाया, ‘‘कम से कम दरवाजा तो बंद कर दो। तो नीला ने बिन बोले सिर हिला कर मना कर दिया। और इशारे से बताया परदा तो है। वह इस बीच चुपचाप काफी बना कर लाई और ढेर सारे बिस्किट, भुने काजू। खाने पीने के बाद फिर संजय से चिपट गई। और अचानक वह मुख मैथुन पर उतर आई।
चार बजते-बजते उस ने संजय को चार राउंड चूस लिया था।
फिर अक्सर वह संजय को दिन में घर बुलाने लगी। और खुद छुट्टी ले लेती। पर उस के देह का ज्वार फिर भी नहीं थमता।
नीला की मां टीचर थीं। पिता का निधन हो चुका था। बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। छोटा भाई फैक्ट्री में था। सो घर में कोई नहीं रहता था। मकान अपना था और नीचे का सारा हिस्सा किराए पर था। नीचे उन किराएदारों तक बात न पहुंचे इस लिए न वह बोलती, न बोलने देती। पर एक दिन क्या हुआ कि नीला संजय जूझे पड़े थे कि एक छोटा लड़का, ‘‘आंटी-आंटी’’ करता आ धमका। नीला बड़ी फुर्ती से चद्दर लपेट बिस्तर से कूद पड़ी और संजय पर दूसरा वाला गद्दा पलट दिया। ‘‘बोली, ‘‘भइया अभी जाओ, मैं जरा नहाने जा रही हूं।’’
‘‘अच्छा आंटी !’’ कह कर वह लड़का भागता हुआ नीचे चला गया।
अब निर्जन अंधेरी सड़कों की जगह नीला के घर ने ले ली थी। कोई दो महीने बाद उस ने संजय को फोन किया, ‘‘जरूरी बात करनी है।’’
‘‘बोलो ’’
‘‘फोन पर ही ?’’
‘‘हां, क्यों क्या हुआ ?’’
‘‘मिलिए तो बताऊं।’’
‘‘बोल तो दफ्तर से ही रही हो ?’’
‘‘हां।’’
‘‘तो मेरे पास आ जाओ।’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो मैं ही आता हूं।’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो फोन पर ही बताओ न !’’
‘‘कैसे बताऊं ?’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या करूं ?’’
‘‘दिक्कत क्या है ?’’
‘‘मिलिए तो बताऊं।’’
‘‘फोन पर ही बता दो न !’’
‘‘क्या बताऊं ?’’
‘‘जो बताना चाहती हो।’’
‘‘असल में कुछ गड़बड़ हो गई है।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘नहीं फोन पर नहीं बता सकती। मिल कर ही बताऊंगी।’’
‘‘गांधी समाधि पहुंचें ?’’
‘‘ठीक पांच बजे।’’
‘‘ओ॰ के॰।’’
उस शाम पहले तो वह चिपट-चिपट कर रोई फिर बोली, ‘‘मैं प्रिगनेंट हूं।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘हां।’’
संजय चुप हो गया। उसे सुरेश और आलोक की बातें याद आ गईं।
‘‘आप चुप क्यों हो गए ?’’
‘‘नहीं बस वैसे ही।’’
‘‘तो कल डॉक्टर के यहां चलें ?’’ नीला उस के बाल सहलाती हुई बोली।
‘‘क्या करने ?’’
‘‘दिखाना तो पड़ेगा ?’’
‘‘पहले कनफर्म तो होने दो।’’
‘‘तो आप क्या चाहते हैं मैं उलटियां करने लगूं। घर-दफ्तर सब लोग जान जाएं तब डॉक्टर के यहां चलेंगे ?’’
‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है।’’
‘‘फिर क्या बात है ?’’ वह घुड़प कर बोली।
‘‘नहीं, कुछ नहीं।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘तुम जैसा चाहो।’’
‘‘तो ठीक है। कल दो हजार रुपए का इंतजाम कर लीजिएगा।’’
‘‘क्या मतलब ?’’ संजय सुलगता हुआ बोला।
‘‘डॉक्टर की फीस।’’
‘‘इतनी ?’’
‘‘जी हां, एबार्शन में इतना ही लग ही जाएगा ?’’
‘‘पर एबार्शन की जरूरत क्या है ?’’ संजय घाघ बनता हुआ बोला।
‘‘तो किसकी जरूरत है ?’’
‘‘तुम प्रिगनेंट हो तो बच्चा पैदा भी कर सकती हो।’’
‘‘अनाथालय में पलने के लिए। अपनी थू-थू कराने के लिए।’’
‘‘नहीं। तुम बच्चा पैदा करो। मैं अपना नाम दूंगा।’’
‘‘शादी के नाम से बीवी का भूत खड़ा हो जाता है। और बच्चे को नाम देंगे !’’ वह बिफरी।
‘‘मैं सच कह रहा हूं।’’ संजय तौल-तौल कर बोल रहा था।
‘‘तो चलिए शादी कर लेते हैं।’’
‘‘अभी कैसे ?’’ संजय हकबका गया।
‘‘आप सभी मर्द एक जैसे ही होते हो।’’
‘‘कितने मर्दों का तजुर्बा है ?’’ संजय अब बेहयाई पर आमादा था।
‘‘क्या मतलब है आप का ? कहना क्या चाहते हैं ?’’
‘‘मैं नहीं दफ्तर वाले कहते हैं।’’
‘‘ओह !’’ वह उसे अगियाई आंखों से देखती हुई बोली, ‘‘कितना जहर भरा है आप के दिमाग में ?’’
‘‘हो सकता है।’’
‘‘आप इतने गिरे हुए हैं। मैं नहीं जानती थी।’’
‘‘अब तो जान लिया।’’
‘‘आज क्या हो गया है आप को ?’’ वह फिर बिफरी, ‘‘प्लीज आप मुझे समझने की कोशिश करिए।’’
संजय चुप ही रहा।
‘‘मैं जानती हूं आप औरों जैसे नहीं हैं। आप सब से अलग हैं।’’
‘‘तो ?’’
‘‘आप यकीन मानिए, मैं सच कह रही हूं।’’ वह रुकी, ‘‘और मेरे पेट में आप का ही बच्चा है।’’ कह कर वह संजय के गले से लिपट गई और सुबकने लगी।
‘‘मैं भी तो अपनाने को तैयार हूं। अपना नाम देने को तैयार हूं।’’ संजय ने उसे ढाढस बंधाते हुए, उसे बांहों में भर कर कहा।
‘‘पर यह संभव कैसे है ?’’
‘‘क्यों नहीं है संभव ?’’
‘‘आप का अपना परिवार है।’’
‘‘तो क्या हुआ ?’’
‘‘और यह दकियानूसी दुनिया ?’’
‘‘मैं सब को देख लूंगा।’’
‘‘पर मैं नहीं देख सकती।’’
‘‘ठीक है, कल देखते हैं।’’
‘‘देखते हैं का क्या मतलब ?’’ वह बोली, ‘‘डॉक्टर के यहां चलना ही चलना है। मैं और रिस्क नहीं ले सकती।’’
‘‘रिस्क क्या है ?’’
‘‘रिस्क तो है ही। मैं पहले ही रिस्क नहीं ले रही थी।’’ वह ताना देती हुई बोली, ‘‘मैं हमेशा ही निरोध के लिए कहती। पर जनाब को निरोध में मजा ही नहीं आता था।’’ वह फिर सुबकने लगी, ‘‘अब तकलीफ तो मैं भुगतूंगी।’’ वह सुबकती जा रही थी।
‘‘अच्छा-अच्छा चुप हो जाओ। कल ही डॉक्टर के यहां चलते हैं। पर नर्सिंग होम के बजाय किसी सरकारी अस्पताल में।’’
‘‘नहीं सरकारी अस्पताल नहीं। वहां कुछ भी सीक्रेट नहीं रहता।’’ उस ने फौरन विरोध किया।
‘‘सीक्रेसी की क्या जरूरत है ?’’
‘‘मुझे है।’’
‘‘अच्छा किसी दूर के अस्पताल में चलते हैं।’’
‘‘नर्सिंग होम जाने में क्या दिक्कत है ?’’
‘‘अभी इतने पैसे नहीं हैं मेरे पास।’’
‘‘अभी मैं इंतजाम कर लूंगी, आप बाद में दे दीजिएगा।’’
‘‘नहीं।’’ वह चीख़ा।
‘‘आप को हो क्या गया है ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ लज्जित होते हुए उस ने हाथ जोड़ लिए।
दूसरे दिन वह दोनों दूर दराज के एक फेमिली प्लैनिंग वाले अस्पताल में पहुंचे। वहां ज्यादा नहीं दो तीन औरतें ही थीं। एक दाई किस्म की औरत से नीला ने जाने क्या बातचीत की और वापस आ कर संजय से बोली, ‘‘चलिए यहां से।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘उन को पति के दस्तख़्त भी चाहिए फार्म पर।’’
‘‘तो ?’’
‘‘पति मैं कहां से लाऊं ?’’
‘‘मैं दस्तख़्त कर देता हूं।’’
‘‘पर मैं तो आप को जीजा बता चुकी हूं उस से। और बता दिया है कि पति बाहर हैं।’’
‘‘फिर क्या ! चलो !’’ कह कर संजय ने लंबी सी सांस भरी।
तीसरे दिन वह दोनों फिर एक दूसरे सरकारी अस्पताल पहुंचे। कोई पांच मिनट ही हुए होंगे कि नीला एकदम से हड़बड़ा गई, ‘‘प्लीज तुरंत चलिए।’’
‘‘बात क्या हुई ?’’
‘‘बहस बाद में।’’ वह अफनाई, ‘‘तुरंत चलिए।’’
‘‘हुआ क्या था ?’’ अस्पताल के बाहर आ कर थोड़ी दूर निकल आने के बाद संजय ने पूछा।
‘‘मेरे मुहल्ले की एक औरत दिख गई थी।’’
‘‘अच्छा-अच्छा।’’
इतना कुछ होने के बाद वापसी में भरी दोपहरी में घना पेड़ और सुनसान देख कर संजय ने स्कूटर रोक दिया।
‘‘क्या है ?’’ नीला मुसकुराते हुए बोली।
‘‘कुछ नहीं पेशाब करना है।’’
‘‘सिर्फ पेशाब ?’’
‘‘तुम बड़ी बदमाश हो।’’ कहते हुए उस ने नीला का गाल ऐंठ दिया।’’
‘‘क्या करते हैं आप ?’’ हाथ हटाते हुए बोली, ‘‘यही सब अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘सच ?’’
‘‘नहीं, अच्छा तो लगता है।’’ कहते हुए वह लजाई पर अचानक साड़ी उठा कर जांघ पर बना नीला निशान दिखाने लगी, ‘‘पर इन काले नीले निशानों से डर लगता है।’’
‘‘यह कैसे हो गया ?’’ संजय ने पूछा।
‘‘ओ-हो-हो।’’ वह मटकी, ‘‘कितने मासूम बन गए हैं। जैसे कुछ जानते ही नहीं!’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘जो यहां वहां चिकोटी काटते रहते हैं आप। उन चिकोटियों का सर्टिफिकेट हैं ये निशान।’’ वह रुकी और बाल ठीक करती हुई बोली, जांघों और चेस्ट पर तो कोई देखता नहीं पर चेहरे पर जरा भी कुछ हो जाता है तो लोग घूरने लगते हैं और मां तो जैसे जीना हराम कर देती हैं।’’ वह पैर हिलाती हुई बोली, ‘‘इस लिए बता देती हूं, हां !’’ कहते हुए वह ख़ुद संजय के बालों को दोनों हाथों से ऐंठने लगी।
‘‘क्या कर रही हो ?’’
‘‘क्यों मैं नहीं कर सकती क्या ?’’ वह इतराई, ‘‘क्या यह सब करने का कॉपीराइट सिर्फ पुरुषों के ही पास रहना चाहिए।’’
‘‘क्या बदतमीजी है।’’ कहते हुए संजय ने जब उस के गाल काटने चाहे तो वह छिटक कर खड़ी हो गई। तभी एक कार और डी॰ टी॰ सी॰ बस सड़क से गुजरी तो वह सहम सी गई। फिर वह बड़ी देर तक उकताई बैठी रही। संजय के बहुत खींचने खांचने पर वह जैसे-तैसे मान पाई।
फिर कुछ ऐसा हुआ कि संजय को हफ्ते भर के लिए अचानक गांव जाना पड़ गया।
वापस आया तो दफ्तर की चिट्ठियों में उसे एक ऐसी चिट्ठी मिली जिस पर न किसी का नाम पता था, न दस्तख़त। सिर्फ दो लाइन की टाइप की हुई चिट्ठी, ‘‘आप ने यह अच्छा नहीं किया। आप माफ करने लायक भी नहीं हैं।’’
संजय पहले तो कुछ समझा नहीं। पर दूसरे ही क्षण वह समझ गया कि चिट्ठी नीला की है। पर टाइप का फेस उस की टाइप मशीन का नहीं था। लिफाफे पर डाकघर की मुहर भी साफ नहीं थी। जिस से पता लग सके कि कहां से पोस्ट की गई होगी यह चिट्ठी। और यह पता करने के लिए पोस्ट आफिस जाना भी उसे ठीक नहीं लगा।
वह सीधे नीला की सीट पर गया। वह नहीं थी।
तीन दिन बाद वह मिली। बिलकुल बिलबिलाई हुई। मरा हुआ सा चेहरा। संजय उस के पीछे हो लिया, ‘‘सुनो तो।’’ वह फुसफुसाया।
‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना।’’ वह जोर से बोली। और पैर पटकती आगे बढ़ गई। संजय निराश सा, उदास और हताश सा अपनी सीट पर जा कर बैठ गया।
वह फिर सोचने लगा क्या वह नीला से प्यार करने लगा है ? पर अंततः वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह प्यार नहीं, लगाव है। देह का ही सही, नेह है। आखि़र इतने दिन उसके साथ जुड़े रहने को, वह उसी की तरह एक झटके से कैसे तोड़ सकता है। वह बजाय ख़बर लिखने के यही सब सोचता रहा। कि तभी न्यूज एडीटर ने उस की मेज पर आ कर पूछा, ‘अंतर्कथा तैयार हो गई ?’’
‘‘नहीं, अभी एक दो वर्जन लेना बाकी है। मिलते ही लिखना शुरू कर दूंगा।’’ वह झूठ बोल गया। सच यह था कि सभी वर्जन उसे मिल चुके थे पर लिखने का उस का मन नहीं हो रहा था। न्यूज एडीटर ने घड़ी देखी, ‘‘पर तुम कब लिखोगे, कंपोज कब होगा? ऐसे तो आज ख़बर जा नहीं पाएगी। और तुम लिखोगे भी पचनारा। जल्दी करो। जल्दी।’’ कह कर वह चला गया। पर वह तो लिख नहीं पा रहा था। कलम उठा कर ज्यों वह डेटलाइन लिखता, झल्लाती हुई नीला उस के सामने खड़ी हो जाती, ‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना।’’ और जब ऐसा कई बार हो चुका तो उस ने सारे कागज मरोड़ कर बास्केट में फेंके और, ‘‘तो मुझे भी कुछ नहीं लिखना।’’ बुदबुदाता हुआ उठ खड़ा हुआ।
‘‘क्यों पागल हो रिया है। नहीं लिखना है तो मत लिखो।’’ सुजानपुरिया उस का बुदबुदाना सुन कर सलाह देने लगा।
‘‘आप जा कर चुपचाप अपना बाजार भाव बनाइए सुजानपुरिया जी।’’ संजय ने हड़काया, ‘‘और आप रिपोर्टर्स रूम में इस समय क्या कर रहे हैं ?’’
‘‘नाराज क्यों हो रिया है ? जा रिया हूं।’’ कालर बंद करते हुए सुजानपुरिया चला गया।
संजय कैंटीन में आ कर बैठ गया। और चुपचाप सिगरेट सुलगा ली।
‘‘यह तो ऐसे उदास बैठा है जैसे इस ने ही एबॉर्सन करवाया हो।’’ उमेश चाय सुड़कते हुए बोला।
संजय कुछ नहीं बोला। सिर्फ उमेश को घूर कर रह गया।
‘‘नहीं-नहीं डांट खा के आ रिया है।’’ सुजानपुरिया यहां भी आ गया था, ‘‘डबल डांट।’’
‘‘क्या मतलब ?’’ सुरेश बोला।
‘‘किससे-किससे ?’’ उमेश ने पूछा।
‘‘दोनों एन॰ एन॰ से।’’ सुजानपुरिया अभी बोल ही रहा था कि संजय ने उसे घूरा और वह चुप हो गया।
‘‘दोनों एन॰ एन॰ ? मैं समझा नहीं। जरा ठीक से खुलासा करिए सुजानपुरिया जी। नाड़ा खोल के।’’ सुरेश मूड में था।
‘‘अब मैं क्या बोलूं। वो तो गुस्सा हो रिया है।’’ कहते हुए सुजानपुरिया ने आंख मटकाई।
‘‘डरते क्यों हैं सुजानपुरिया जी। कोई खा थोड़े ही जाएगा। हम लोग हैं न ! बेधड़क बोलिए।’’ सुरेश ने ताव खिलाया।
‘‘मैं ने देखा तो नहीं पर चरचा है कि नीला ने संजय को लंबी झाड़ पिलाई। पर न्यूज एडीटर को तो मैं ने ही डांटते देखा।’’ सुजानपुरिया ऐसे बोल रहा था जैसे संजय से कोई बदला ले रहा हो।
‘‘नहीं सुजानपुरिया जी आप झूठ बोल रहे हैं।’’ सुरेश बोला।
‘‘क्या ?’’
‘‘यही कि संजय नीला या एन॰ इ॰ की डांट बर्दाश्त कर सकता है !’’ सुरेश फिर बोला।
‘‘और अव्वल तो एन॰ इ॰ या नीला दोनों ही इसे डांटने की स्थिति में नहीं हैं।’’
यह बहस अभी जारी थी कि संजय बिन बोले सिगरेट फूंकते हुए कैंटीन से बाहर आ गया। सीट पर आ कर जैसे तैसे ख़बर घसीटी, न्यूज एडीटर को थमाया। और सीधा नीला के घर जा पहुंचा।
तब रात के कोई नौ बजे थे।
नीला संजय को अचानक देख कर चौंकी पर तुंरत ही सहज हो गई। निरीह से भाई और गाय सी मां से परिचय कराया और मुसकुराने की कोशिश करती हुई बोली, ‘‘कहिए कैसे आना हुआ ?’’
‘‘नहीं, कोई ख़ास बात नहीं। इधर आया था तो सोचा तुम्हारे यहां भी हो लूं।’’
‘‘अच्छा-अच्छा।’’ कहते हुए नीला ने आंखों ही आंखों में संकेत दे दिया कि कोई ऐसी वैसी बात वह न करे।
‘‘बेटा तुम्हारे बड़े गुन गाती है यह। आज तुम्हें देख भी लिया।’’ नीला की मां बोली।
‘‘ऐसा क्या कर दिया भाई, जो तुम तारीफ कर गई।’’ उस ने तंज किया, ‘‘मैं तारीफ के लायक तो नहीं हूं।’’
नीला कुछ बोली नहीं पर आंखों से ऐसा घूरा कि संजय हिल गया। और इसी हड़बड़ाहट में वह चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।
‘‘खाना खा कर जाओ बेटा।’’ नीला की मां बड़े प्यार से बोली।
‘‘नहीं, फिर कभी।’’
‘‘अच्छा कम से कम काफी तो पी लीजिए।’’
‘‘हां, हां।’’ कहते हुए संजय बैठ गया।
‘‘आप का नाम तो अक्सर अख़बार में छपा देखता हूं। पर आप को भी आज देख लिया।’’ नीला का भाई बोला।
‘‘आप लोगों से मिल कर मुझे भी खुशी हुई।’’ काफी ख़त्म करता हुआ संजय बोला, ‘‘ख़ास कर इस बात से कि दिल्ली में रह कर भी आप सब की बोली ख़राब नहीं हुई। नहीं, ‘‘आ जा, ले-ले, बैठ जा, खा-ले, परे हट जैसी बोली से मजा ख़राब हो जाता है।’’ बोलते-बोलते वह रुका, ‘‘अच्छा तो अब आज्ञा दीजिए।’’
संजय जब सीढ़ियां उतरने लगा तो नीला की मां बोली, ‘‘संभल के बेटा !’’ नीला भी बोली, ‘‘अगली बार भाभी को ले कर आइएगा।’’
‘‘हां, बेटा।’’ नीला की मां बेटी के सुर में सुर मिला कर बोली।
‘‘अच्छा।’’ कह कर संजय नीला के घर से चला तो आया पर रास्ते भर, ‘‘भाभी को ले कर आइएगा।’’ उस के कानों में चुभता रहा। ‘‘भाभी !’’ मतलब वह भइया हो गया !
क्या हो गया है नीला को !
पर दूसरे दिन जब वह मिली तो सामान्य थी। शाम को पालिका बाजार के ऊपर घास पर बैठे आइसक्रीम खाते हुए सारे गिले शिकवे दोनों ने दूर किए। भाभी वाली बात पर उस का कहना था, ‘‘आखि़र मां के सामने भला और क्या कहती ?’’
‘‘तो अब आइंदा मत कहना।’’
‘‘ठीक है।’’
फिर वह मुख्य मसले पर आई। नीला समझी थी कि पैसे देने के डर से वह गायब हो गया था और कि जब इतनी छोटी सी जिम्मेदारी से वह कतरा गया था तो अगर वह बिन ब्याही बच्चा जनती तो वह इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे निभाता ? आखि़र उस ने एबार्शन करवा लिया था। वह इस ब्यौरे में भी गई कि उसे इस एबार्शन में कितनी तकलीफ उठानी पड़ी। और कोई शक न करे इस लिए दफ्तर भी आती रही। बल्कि ठीक एबार्शन के दिन भी वह दफ्तर आई। ब्लीडिंग हो रही थी, डबल पैड बांध रखा था, चक्कर आ रहा था, काम नहीं किया जा रहा था, जैसे ब्यौरे भी उस ने दिए।
संजय ने भी अपने मन का पाप उस से कह डाला। बता दिया सुरेश, उमेश और आलोक के ताने। यह भी बताया कि गांव वह जानबूझ कर नहीं गया था। उस का जाना जरूरी ही था वगैरह वगैरह। उस ने यह भी कहा कि, ‘‘तुम्हारी देह के कष्ट में तो मैं भागीदार नहीं हो सकता पर पैसे जितने भी खर्च हुए हैं, इंतजाम कर के सारे के सारे दूंगा।’’
‘‘नहीं इस मद में मुझे आप से एक भी पैसा स्वीकार नहीं है। और न दीजिएगा। आप को कसम है मेरी। और भगवान के लिए इन सब बातों की चरचा आप कहीं मत करिएगा।’’
‘‘क्या तुम मुझे इतना सतही और घटिया समझती हो ?’’
‘‘नहीं। समझती तो नहीं। पर पुरुष का क्या ठिकाना। यही सोच कर कह दिया। आप माइंड मत करिएगा प्लीज।’’
‘‘नहीं, नहीं।’’ कहते हुए उस ने उस का पैर अपने पैर से छू दिया।
‘‘नहीं, यहां कोई शैतानी नहीं।’’ कहते हुए उस ने अपने फैलाए पैर समेट लिए।
‘‘कुछ और खाओगी ?’’
‘‘नहीं।’’ वह अपनी चोटी ठीक करती हुई बोली, ‘‘यह बताइए उमेश भी यह सब कह रहा था ?’’
‘‘छोड़ो उस साले नपुंसक की बात।’’ कहते हुए संजय बिफरा, ‘‘वह क्या बोलेगा।’’ और जब बात-बात में कई बार संजय ने उमेश को नपंसुक, इंपोटेट उच्चारा तो नीला बोली, ‘‘उस को नपुसंक क्यों कह रहे हैं ?’’
‘‘मैं क्या सभी कहते हैं ?’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘यही कि साले की स्तंभन शक्ति गायब है। मतलब औरत के काबिल नहीं है।’’
‘‘नहीं, वह नपुसंक नहीं है।’’
‘‘क्या ?’’ संजय चौंका।
‘‘हां, मैं जानती हूं।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘यूनिवर्सिटी में हम लोग साथ पढ़ते थे। हम से शादी का वादा किया उस ने। और मुझे ख़राब कर के रख दिया।’’
‘‘फिर शादी क्यों नहीं की उस ने ?’’
‘‘बहुत घटिया और गंदा आदमी है वह ?’’
‘‘वो तो है।’’
‘‘एक बार मुझ से कहने लगा कि अगर बिना शादी के तुम मेरे साथ लेट सकती हो तो किसी और के साथ भी नहीं लेटती हो इस की क्या गारंटी है ? मैं भला क्या गारंटी देती। कहती रही कि ऐसा नहीं है। पर वह नहीं माना। और एक दूसरी लड़की के साथ घूमने लगा।’’
उस दिन वह नीला को उस के घर छोड़ने पहली बार गया। वह अपने घर से थोड़ी दूर पहले ही उतर गई। बोली, ‘‘संभल कर जाइएगा।’’
गांधी नगर के पास जमुना नदी के पुराने लोहे वाले पुल पर तब कि दिनों में सुबह लालकिले की तरफ आने और शाम को गांधी नगर वापस जाने में भारी भीड़ होती थी। और कभी-कभी घंटों ट्रैफिक जाम हो जाता। ट्रैफिक जाम से बचने के लिए संजय नीला को आई॰ टी॰ ओ॰ पुल से पुश्ते की तरफ से गांधी नगर पहुंचाने लगा।
पुश्ते पर उन दिनों दिन में ही न के बराबर ट्रैफिक होती। शाम को तो बिलकुल नहीं। इक्का दुक्का कोई सवारी निकल जाती। संजय और नीला के देह लीला की नई स्थली बन गई यह पुश्ते की राह।
पुश्ता, संजय और नीला !
पर ज्यादा दिनों यह नहीं चला। अचानक एक दिन वह बताने लगी, ‘‘अब आप से जुदाई के दिन करीब आ गए हैं।’’ वह भावुक हो रही थी। बहुत ज्यादा।
‘‘क्यों ?’
‘‘मेरी शादी की बात चल रही है।’’
‘‘कहां ?’’
‘‘यहीं दिल्ली में ही।’’
‘‘मैं तो तुम से पहले ही कहता था, तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए। मुबारक हो !’’
‘‘लड़के वाले देख गए हैं। पसंद भी कर गए हैं।’’ वह सुबकने लगी थी।
‘‘अरे, यह तो खुशी की बात है। इस में रोने की क्या जरूरत है ?’’ कहते हुए संजय ने उसे बांहों में भरा और चूम लिया।
नीला चुप रही। सुबकती रही।
एक दिन उस ने शादी का कार्ड दिया। बोली, ‘‘आप से एक बार ठीक से मिलना चाहती हूं।’’
‘‘जब कहो।’’
‘‘ठीक है, बताऊंगी।’’
कोई हफ्ते भर बाद उस का फोन आया। किसी पब्लिक बूथ से बोल रही थी, ‘‘आज ही, और अभी मिल सकेंगे आप ?’’
‘‘हां, क्यों नहीं ?’’
‘‘पर पूरी फुर्सत से आइएगा। छुट्टी वुट्टी ले कर।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘कहा तो था कि एक बार आप से ठीक से मिलना चाहती हूं।’’
‘‘अच्छा-अच्छा। पर आज तो शाम को यू॰ पी॰ के चीफ मिनिस्टर की प्रेस कांफ्रेसं है।’’
‘‘जरूरी है कि आप ही कवर करें।’’
‘‘हां यू॰ पी॰ मेरी बीट है।’’
‘‘पर कोई और भी तो कर सकता है। प्लीज, देखिए मैं फिर नहीं मिल पाऊंगी।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘कल से मेरा घर से निकलना बिलकुल बंद।’’
‘‘ओह !’’
‘‘ओह, ओह मत कीजिए। छुट्टी लीजिए और आ जाइए।’’
‘‘ठीक है।’’
‘‘हां, सुनिए। कहीं कमरा नहीं अरेंज हो जाएगा ?’’
‘‘अब तुरंत-तुरंत कहां हो पाएगा।’’
‘‘अच्छा आप छुट्टी लीजिए और जंतर-मंतर पर मिलिए ठीक सवा बारह बजे।’’
‘‘ओ॰ के॰।’’
जंतर मंतर से वह वेस्ट पटेल नगर ले गई। वहां उस की सहेली थी, उस के हसबैंड आफिस गए थे और बच्चे स्कूल। और खुद वह उन दोनों को छोड़ कर, ‘‘अभी आती हूं।’’ कह कर निकल गई।
जैसी कि संजय को उम्मीद थी कि नीला अब उस पर टूट पड़ेगी, वैसा नहीं हुआ। वह उस से चिपट कर रोने लगी। वह रोती रही और संजय उस के कपड़े उतारता रहा। पर जब उस का अंतिम वस्त्र पैंटी उतारने लगा तो वह बोली, ‘‘अब यह सब रहने दीजिए!’’
पर संजय नहीं माना और, ‘‘एक बार बस, एक बार प्लीज।’’ कह कर स्टार्ट हो गया।
थोड़ी देर बाद संजय बोला, ‘‘शादी के बाद भी मिलोगी न ?’’
‘‘क्या मालूम ?’’
‘‘फिर भी ?’’
‘‘अब ससुराल का जैसा माहौल होगा देखूंगी। पर आप अपनी ओर से मिलने की कोशिश मत करिएगा। कोई सूरत निकलेगी तो मैं खुद ही मिल लूंगी।’’
‘‘ठीक है। यही ठीक रहेगा।’’
इसके बाद वह बड़ी देर तक उस से चिपटी रही, ‘‘पर आप मुझे मत भूलिएगा।’’ वह यह बार-बार बुदबुदाती रही।
नीला अपनी शादी के एक महीने बाद आफिस आई। ख़ूब सजी संवरी, बनी ठनी, ठुमक-ठुमक करती हुई। पायल छमकाती हुई। ऐसे जैसे वह पुरानी वाली नीला नहीं हो।
सचमुच यह नीला वह नीला नहीं थी।
तो कौन थी यह ?
संजय ने यह जानने की बिलकुल कोशिश नहीं की। वादे के मुताबिक उस ने कोई पहल नहीं की। उस की पहल का इंतजार किया। ऐसा भी नहीं कि नीला, संजय से बोली नहीं हो इस बीच। वह अपने पति जिस को वह बार बार ‘‘मेरे हसबैंड, मेरे हसबैंड’’ कहती रहती उस हसबैंड को ले कर संजय के घर भी कई बार आई। एक बेटी की मां बन गई। पर संजय उस की पहल का इंतजार करता रहा जो नहीं हुआ।
होना ही नहीं था।
एक दिन उस ने नीला को फोन किया और कहा कि, ‘‘मिल नहीं सकती मुझ से?’’
‘‘क्यों नहीं ? अभी आती हूं।’’
‘‘ऐसे नहीं अकेले में।’’
‘‘नहीं, यह तो नहीं हो सकता।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘मैं प्रिगनेंट हूं।’’
‘‘फिर तो और मजा आएगा। तुम्हें मालूम नहीं प्रिगनेंसी के दौरान सेक्स का मजा बढ़ जाता है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो मिलो तो मजा चखाऊं !’’
‘‘नहीं, अभी नहीं।’’ वह बड़ी बेरूखी से बोली।
‘‘तो फिर ?’’
‘‘ठीक है मैं फिर बताऊंगी।’’
नीला का दूसरा बच्चा बेटा हुआ। अब वह तीसरी बार प्रिगनेंट थी। संजय ने उसे एक दिन घेर लिया तो उस ने बताया, ‘‘मैं फिर प्रिगनेंट हूं।’’
‘‘पर तुम औरत हो कि मशीन ? कि हर साल एक माडल निकालती जा रही हो?’’
‘‘चाहती तो मैं भी नहीं हूं पर ससुराल की मर्जी से चलना पड़ता है।’’ वह दुखी होती हुई बोली।
‘‘हद है। बेटी और एक बेटा तुम्हारे हो ही गया है। अब कौन सा सन कांपलेक्स है ?’’
‘‘उन्हें एक बेटा और चाहिए।’’
‘‘बड़ा जाहिल है तुम्हारा पति।’’
‘‘नहीं मेरे हसबैंड नहीं, मेरी सास और जेठानी।’’
‘‘तो इतने सारे बच्चे और आफिस । कैसे निभाओगी ?’’
‘‘मैं खुद परेशान हूं। पर क्या बताऊं ?’’ कहती हुई वह चलने लगी। बोली, ‘‘जरा देर से पहुंचो तो सास चिल्लाने लगती हैं।’’
‘‘मैं छोड़ दूं।’’
‘‘नहीं।’’ कह कर वह इस तेजी से भागी कि कहीं संजय सचमुच उसे स्कूटर पर न बैठा ले।
नीला के तीसरा बच्चा बेटी हुई। सास ने बड़े ताने दिए। पर अब की नीला ने स्पष्ट मना कर दिया कि वह ‘‘अब और बच्चा पैदा नहीं करेगी।’’
‘‘क्यों ?’’ सास ने पूछा।
‘‘नौकरी और बच्चा दोनों एक साथ नहीं हो पाएगा।’’
‘‘नौकरी छोड़ दो।’’ सास गरजी।
नीला ने संजय को फोन पर यह सब कुछ बताया और पूछा कि, ‘‘क्या करूं ?’’
‘‘नौकरी तो हरगिज मत छोड़ना।’’ संजय ने उसे सलाह दी।
‘‘पर घर में तो जैसे आग लगी हुई है।’’
‘‘ऐसा करो तुम कुछ दिनों के लिए छुट्टी ले लो। मन करे तो लंबी छुट्टी।’’
‘‘लंबी छुट्टी कहां मिलेगी ?’’
‘‘मैं जी॰ एम॰ से रिक्वेस्ट कर के स्वीकृत करा दूंगा। पर तुम नौकरी मत छोड़ना। आज की तारीख़ में नौकरी औरत का सब से बड़ा हथियार है।’’
‘‘हां, ये तो है।’’
‘‘और फिर दुबारा ठीक-ठाक नौकरी मिल जाय कोई जरूरी नहीं।’’ तुम ख़ुद सोचो कि अगर तुम नौकरी में नहीं होती तो क्या तुम्हारे ससुराल वाले तुम पर और जुल्म नहीं ढाते ?’’
‘‘ये तो है।’’
‘‘अच्छा ये बताओ तुम्हें कहीं मारते तो नहीं हैं सब?’’
‘‘नहीं।’’ नीला संक्षिप्त सा बोली।
‘‘सच-सच बताओ।’’
‘‘हां, कभी-कभी।’’
‘‘कौन ?’’
‘‘सास !’’
‘‘और हसबैंड ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘सच बोल रही हो ?’’
‘‘हां।’’
‘‘नहीं तुम सच नहीं बोल रही हो।’’
‘‘अब आप से क्या छुपाऊं। कभी-कभी वह भी।’’
‘‘हद है।’’ संजय बड़बड़ाता रहा, ‘‘सोचो अगर तुम नौकरी में नहीं रहोगी तब क्या होगा ? इस लिए मेरी मानो, छुट्टी ले लो। और पति तुम्हारा दिखने में सीधा दिखता है। उस से कहो परिवार नियोजन के उपाय अपनाए।’’
‘‘कहा तो मैं ने भी। पर आप की तरह वह भी नहीं मानते।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘कंडोम से उन्हें भी मजा नहीं आता।’’
‘‘तो ठीक है। कापर टी लगवा लो। गोलियां ले लो।’’
‘‘गोलियां सास खाने नहीं देंगी। वह हरदम तलाशी लेती रहती हैं, मेरे कमरे, बिस्तर, ट्रंक सब का।’’
‘‘तो चुपचाप कापर टी लगवा लो।’’
‘‘देखिए,’’ वह बोली, ‘‘पर मेरी छुट्टी स्वीकृत करवा दीजिएगा।’’
‘‘करवा दूंगा।’’
अपने अपने युद्ध भाग दो पर जारी
आप हिंदी के खुशवंत सिंह हैं
ReplyDeleteआधुनिक समाज का आईना।
ReplyDeleteLove you bro
Very interesting
ReplyDeleteबहुत ही सही और यथार्थ का चित्रण 🙏
ReplyDeleteअपने अपने युद्ध
ReplyDelete👌👌
ReplyDelete