Friday 22 April 2022

कथा-गोरखपुर , खंड - 6


पेंटिंग : अवधेश मिश्र , कवर : प्रवीन कुमार









भगोड़े ● देवेंद्र आर्य

एक दिन का युद्ध ● हरीश पाठक 

घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय 

खौफ़ ● लाल बहादुर

बीमारी ● कात्‍यायनी

काली रोशनी  ● विमल झा

भालो मानुस  ● बी.आर.विप्लवी

तीन औरतें ● गोविंद उपाध्याय 

जाने-अनजाने   ● कुसुम बुढ़लाकोटी

ब्रह्मफांस  ● वशिष्ठ अनूप

सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव 







52  -
भगोड़े
[ जन्म : 18 जून , 1957 ]
देवेंद्र आर्य


मज़ाक़ में या जो भी रहा हो, मीटिंग के दौरान यह बात आयी कि सदस्यों को जेल जाने की ट्रेनिंग लेनी चाहिए  ताकि वक़्त बे वक़्त जब कभी धरना प्रदर्शन घेराव का निर्देश हाई कमान से आए तो मुंह न ताकना पड़े । परेशानी न महसूस हो । प्रशिक्षित काडर तैयार मिले । 

आखिर लोग जेल जाने से डरते क्यों हैं । बिना जेल गए कोई राजनीति होती है क्या ? अगर पार्टी चलानी है, राजनीति करनी है, तो जेल जाने के लिए बिस्तर बांधे तैयार रहना चाहिए । एक ने टोका, कामरेड वहां बिस्तर फ्री मिलता है । हां, हां वही, किस बात की चिंता ? तो साथियों हमारा एक पैर जेल में, और एक पैर बाहर होना चाहिए । मगर देखा जा रहा है कि जब कभी गिरफ़्तारी देनी होती है तो लोग ढूंढे नहीं मिलते । गिन गिनाकर वहीं दो चार मुर्गे । मानो वे पेशेवर जेल जवइया हों । पेशेवर ब्लड बोनर की तरह ।

जेल जाने के प्रशिक्षण के प्रस्ताव पर हंसी का एक फव्वारा सा छूटा । मगर उसके बाद ज्योंही यह कहा गया कि वे लोग हाथ उठाएं जो ख़ुद ब ख़ुद जेल जाने को तैयार हैं तो वातावरण शांत हो गया, मानो किसी का शोक प्रस्ताव पढ़ा गया हो । जब काफ़ी देर कोई कुछ नहीं बोला तो अध्यक्ष महोदय ने पुनः एड़ लगाई , 'क्यों यह ख़मोशी किस बात की हो गयी ?'

फुसफुसाहटों का दौर फिर चल पड़ा । पुराने लोग अपना जेल अनुभव सुनाते हुए अगल बगल के चेहरों पर प्रभाव पढ़ने की कोशिश करते उन्हें उकसाने का प्रयास करते रहे । दरअसल यह उनकी अपने पुराने होने के नाम पर बचाव की रणनीति भी थी । मगर सब सर झुकाए बैठे रहे । इस नीरवता के बीच कब काशी का हाथ उठ गया, किसी को पता ही न चला । काशी को लोगों का मगहर की तरह व्यवहार करना पसंद नहीं आ रहा था । लोगों की चुप्पी उसे नागवार गुज़र रही थी । जब मीटिंग में यह हाल है तो बाहर ये लोग क्या करेंगे । ख़ैर उसने हिम्मत की और बोल पड़ा - 'मैं जेल जाने को तैयार हूं ।'

जैसे थमे हुए जल में कोई पत्थर गिर पड़ा हो । जैसे पेड़ पर कोई सांप चढ़ रहा हो और वहां ठिकाना ढूंढे परिंदे कोलाहल करते पेड़ के इर्द-गिर्द मंडरा रहे हों । मीटिंग में ऐसा ही कुछ हुआ पर निःशब्द । सब अचम्भित । सबकी निगाहें काशी पर केंद्रित हो गयीं । धारदार मुस्कुराहटें काशी के चेहरे पर गड़ने लगीं । सब कुछ सामान्य होने में थोड़ा वक़्त लगा । धीरे धीरे लोग अपनी तरफ़ मुड़े और अगल बगल बतियाने लगे । ऐसा लगा कोई बड़ा ग्रह टल गया हो ।

अध्यक्ष महोदय ने एक लम्बी संगठनात्मक सांस खींची और बोल पड़े - 'वाह काशी वाह ! इतने लोगों के बीच एक तुम्हीं अकेले ने हिम्मत की । मुझे तुमसे बहुत उम्मीदें हैं ।' ज़ाहिर है, बाक़ी लोगों को भी वाह वाह करना ही था । सब वाह वाह की परम्परा का निर्वाह करने लगे । काशी को इस वाहवाही के शोर में एक फुसफुसाहट सुनाई पड़ी,  'अभी नए हो बच्चू ।'

मीटिंग की कार्यवाही को जैसे पंख लग गए हों । अब तक तो भूमिका थी, असली एजेंडा अब सामने आया । मीटिंग में तुरंत तय हुआ कि काशी , देबू और ज्ञानचंद्र कल रेलवे स्टेशन पर पर्चा बांटते हुए अपनी गिरफ़्तारी देंगे । पर्चा हाईकमान आफिस से ड्राफ्ट हो चुका था । आज शाम तक छप जाएगा । पर्चा सरकार के ख़िलाफ अपना विरोध दर्ज़ कराने के लिए तो बांटना ही था, असली मकसद उसके बहाने गिरफ़्तारी देकर विरोध को गाढ़ा और समाचार लायक़ बनाना तथा नए काडर के मन से जेल का भय दूर करना भी था । इसीलिए पर्चा बांटने और नारा लगाने के बाद भागने की कोई कोशिश एजेंडे में शामिल न थी । बता दिया गया कि कल साढ़े बारह बजे वाली एक्सप्रेस से मिनिस्टर साहब आ रहे हैं । उसी वक़्त नारा लगाते हुए पर्चा बांटना और गिरफ़्तार होना है ।

ज्ञानचंद्र इन तीन सदस्यीय शहीदी समिति का सबसे वरिष्ठ  सदस्य है । उम्र के लिहाज से भी और अनुभव के लिहाज से भी । घिसा हुआ पार्टी कार्यकर्ता । कई जेल यात्राएं । ज्ञानचंद्र का पार्टी में बड़ा मान जान और दबदबा है । उसी के ज़िम्मे पूरी योजना सौंप कर अध्यक्ष महोदय निश्चिंत हो गए । देबू भी अब नया नहीं रहा । ख़ासतौर से पिछले विधानसभा सभा सत्र के दौरान सरकार की नीतियों के विरुद्ध धरना-प्रदर्शन के दौरान जब वह गिरफ्तार हुआ था और सड़क पर रेन्हा मचाते उसकी तस्वीर अखबारों में छपी थी ।

काशी निकट के एक कस्बे से आया है । अब तक उसकी राजनीति कस्बे के इंटर कालेज के छात्रों के बीच ही सीमित थी । पाखाना, पेशाबखाना, पानी, कुर्सी मेज के लिए आवाज़ उठाना , भाषण देना और घंटा बजा कर स्कूल बंद करा देना । ऐसी ही कुछ राजनीति जो ऊपर से छात्र आंदोलन के नाम पर करते रहने और उसमें से उदीयमान पार्टी कार्यकर्ता छांटने के उद्देश्य से परदे के पीछे रह कर संचालित की जाती रही । ज्यादा हुआ तो ब्लाक पर जाकर खाद की सब्सिडी या चीनी आदि के हुए लिए नारा प्रदर्शन में हिस्सा लेना । बस । शहर की राजनीति का उसे कोई ख़ास तज़ुर्बा नहीं है । निकट चुनाव के मद्देनज़र इसबार पार्टी के विरोध प्रदर्शन की व्यापकता ने उसे उत्साहित किया और उसमें कुछ आगे बढ़ने की ख़्वाहिश जगी । जब उसके ब्लाक पर एक आमसभा हुई और उसमें हिस्सा लेते हुए उसने ज़ोरदार भाषण दिया तो इन्हीं ज्ञानचंद्र जी ने उसे शहर आकर मिलने का निमंत्रण दिया । वह तुरंत राज़ी हो गया । शाम को गांव-घर वालों ने जब सुना कि नेता जी ने काशी को शहर बुलाया है तो उन्हें लगा कि अब अपना दुख दलिद्दर जल्दिए मिटने वाला है । अपने बीच से एक लड़का नेता रहेगा तो हम लोगों की भी पूछ होगी । सबने उसे समझाया कि यहां कुर्ता पैजामा पहने गला फाड़ते रह जाओगे, कुछ होने का नहीं । जाओ, शहर जाओ । काशी में एक युवा तुर्क नेता की छवि सोच कर लोगों ने जाने क्या क्या मंसूबे पाल लिए थे ।

लगभग गयारह बजे रिक्शे पर सवार तीनों जने स्टेशन आए । स्टेशन फिलहाल स्टेशन के लिहाज से सूना ही था । कोई ख़ास चहल पहल नहीं । साफ़ सफ़ाई चल रही थी पर एक ख़ास किस्म की ख़ामोशी यहां भी पसरी थी जैसी इन दिनों हर जगह लहराती फिरती है । वर्दीधारियों की तादाद अच्छी थी । वे इधर उधर खड़े या तो बतिया रहे थे या पान-बीडी में मन लगा रहे थे । थोड़े बहुत यात्री भी इधर उधर छितराए दीख पड़ते थे । 

वे तीनों सतर्क नज़रों से स्टेशन के अंदर आए । ज्ञानचंद्र उन्हें एक तरफ़ एकांत में ले गया और समझाने लगा । बस तुम दोनों यहीं खड़े रहना । जब ट्रेन इन करती दिखे तो काशी यहीं रहेगा और देबू तुम टहलते हुए आगे बढ़ोगे, इंजन की विपरीत दिशा में । जैसे ही गाड़ी रुके और लोगबाग चढ़ने उतरने लगें, तुम दोनों अपनी अपनी जगह से पर्चा बांटते एक दूसरे की तरफ़ लपकना और जब नज़दीक आ जाना तो नारे लगाना शुरू कर देना - 'इंकलाब ज़िंदाबाद  ......और.... हां बस ऐसे ही । है न ! पर ध्यान देना कि दोनों ही लोग मिनिस्टर साहब वाली कोच के क़रीब ही रहोगे । मतलब यह कि उन्हीं को ख़ासतौर से दिखाना और सुनाना है । पब्लिक तो वैसे भी इकट्ठी हो जाती है । ठीक है न । डरोगे तो नहीं ?'

काशी चुपचाप सुनता रहा । थोड़ी देर बाद वह पहली बार एक अजीब दौर से गुज़रने वाला है । विरोध करना है, पर डरना नहीं है । बचना नहीं है । विरोध करना कम दिखाना अधिक है । कभी डर तो कभी साहस और कभी इसके बाद मिलने वाली प्रशंसा की सोच कर वह अपने में खो सा गया । यह उसके लिए पहला बड़ा मौक़ा है । पहली सुनियोजित जेल यात्रा । गांव में बहुत नेतागिरी की है पर यहां कुछ और ही बात है । कल के अख़बार में उसका नाम छपेगा । गांव के लोग जानेंगे तो ख़ुश होंगे कि उनके जवार के लड़के का नाम अख़बार में छपा है ।  अम्मा तो केवल फोटो देखेंगी , बाऊ उन्हें पढ़ कर सुना देंगे काशी की शौर्य गाथा । यह जानते हुए भी कि पकड़ा जाएगा, सीधे मिनिस्टर साहब से टकरा गया मेरा लाल । जब वह जेल से छूट कर गांव जाएगा तो उसे कितनी इज़्ज़त की निगाहों से देखेंगे लोग ।  फिर ज्ञानचंद्र के साथ गिरफ़्तार होना, उनके साथ नाम छपना अपने में एक ख़ास बात होगी । वे जिले भर के संगठन मंत्री हैं । लोग समझेंगे कि शहर जाकर पूरा नेता हो गया है । बड़े बड़ों के साथ उठना बैठना कर लिया है ।

मगर अगले ही क्षण जेल जाने की बात याद आने पर वह ख़ुद ही एक बार सिहर गया । पता नहीं क्या होगा  ? कैसे होगा ? मीटिंग में हाथ उठाते समय तो उसने कुछ सोचा ही नहीं था । मगर अब तो वह मोर्चे पर आ गया है । दूसरी बात जब नेतागिरी करनी है तो जेल जाना ही पड़ेगा, आज नहीं तो कल । अब तो जेल शरीफ़ों का अड्डा होता जा रहा है । चोर-बदमाशों, बेइमानों को पकड़ने का न तो इनके पास कोई मौक़ा है और न उसकी ज़रूरत । वे ही तो चुनाव में कार्यकर्ता होते हैं, बूथ इंचार्ज । वह शायद अभी और सोचता पर देबू ने टोक दिया -- 'और ज्ञान जी आप कहां रहेंगे ?
अचानक जैसे वातावरण का तापमान उछल गया हो ।

देबू पुराना हो चला था इसलिए थोड़ी पालिटिक्स उसकी समझ में आने लगी है । फिर उसे मालूम है कि बंद हो जाने के बाद क्या हालत होती है । उसको ज्ञानचंद्र की बनाई योजना में ज्ञानचंद्र कहीं नज़र नहीं आ रहे थे । इस काम के लिए आए तो वह तीन थे, पर क्या वह और काशी , दो ही जने .... ? और उसने तपाक से पूछ लिया था -- ज्ञान जी आप कहां रहेंगे ?

ज्ञानचंद्र हकला से गए । मैं ....मैं ...अरे मैं तुम लोगों के साथ ही रहूंगा, जाउंगा कहां ? तुम भी अजीब प्रश्न पूछ रहे हो । क्यों काशी , बात समझ में नहीं आई क्या ? देबू तुमसे अच्छा तो काशी है ।अरे यार शेर हो तुम दोनों पार्टी के , डरने की क्या बात । ज्ञान ने काशी का कंधा थपथपाया......जेल ही तो जाना है, कालापानी तो नहीं । यूं ही पार्टी विश्वास नहीं कर लेती । क्या क्या सहना पड़ता है । लाठी डंडा सब ।

काशी मंत्र-मुग्ध सा खड़ा सुनता रहा । उसे देबू के प्रश्न पर हंसी आई । आख़िर जब तीन जने साथ हैं तो यह पूछने की क्या ज़रूरत कि आप कहां रहेंगे । और वे तो हम सब के नेता हैं । जो उचित होगा निर्णय लेंगे । हमें तो फालो करना है । हम तो पार्टी के सैनिक हैं । आदमी अकेला हो तो डरे भी । साथ में दो चार लोग हों तो बहुत सहारा मिलता है । हम तीन तो हैं । ज्ञान जी नारा कढ़ाएंगे, हम दोनों उसका जवाब देंगे ।

वे तीनों अब आपस में नहीं, अलग अलग अपने से बातें करने लगे । ज़रा देर की चहलकदमी के बाद ज्ञानचंद्र बोले -- 'अच्छा तो तुम लोग यहीं ठहरो, मैं अभी आता हूं । ज़रा चाय पी लूं । सुबह से कुछ खाया पिया नहीं, सर पकड़ लिया । इनकी तबीयत ख़राब है, सो चाय भी नहीं मिली....उन्होंने घड़ी देखी ....साला बारह बज गए .....तुम लोग चाय पीओगे, क्यों ?.....नहीं मतलब नहीं । अच्छा तो ठीक है, मैं बस अभी आया । ज्ञानचंद्र स्टेशन से बाहर हो लिए ।

स्टेशन पर अब चहल पहल बढ़ने लगी थी । ऊंघते वर्दी वाले भी खड़े हो गए । टोपी बेल्ट ठीक की । ट्रेन पकड़ने वालों की तादाद बढ़ती जा रही थी । कुल पन्द्रह बीस मिनट रह गए गाड़ी आने में । ज्ञानचंद्र अभी तक लौटे नहीं । देबू को गड़बड़ लगने लगा । उसने काशी से कहा -- यार कितनी चाय पी रहे हैं ? तुम भी उल्लू ही हो । बस कह दिया , नहीं नहीं, आप पी आइए । अरे जब पूछा ही था तो हम दोनों भी पी आते ।अभी तक पता नहीं है उनका, कहां हैं । गाड़ी आने वाली है । कहो तो मैं जाकर देखूं बाहर ।' काशी ने कुछ घबड़ाते हुए देबू को रोका, अरे आते होंगे  अब तुम कहां जाओगे ?

देबू को अंदाज़ हो गया था कि ज्ञानचंद्र बाहर होगा नहीं मगर उसे देखने के बहाने वह ख़ुद भी खिसक जाना चाह रहा था । मरे अकेले साला कशिया । फालतू है घर का । मैं तो पहले ही जान रहा था सब मगर इस काशी के बच्चे को क्या बताऊं । अभी पालिटिक्स देखी कहां है । पालिटिक्स में जिसे जितना अधिक फुर्र होने की तमीज़ है, वह उतना ही चला हुआ यानी बड़ा नेता है । जैसे-जैसे राजनीति पुरानी पड़ती है, वैसे वैसे निखरती जाती है और मोर्चे पर कैडर को फंसा कर ख़ुद भाग लेने की कला परवान चढ़ती जाती है ।  मरा है कोई बड़ा नेता आज तक सड़क पर । हां मारा भले गया हो । देबू मन ही मन बुदबुदाता रहा, कहां फंस गया इसके चक्कर में । अकेले छोड़ते भी नहीं बनता ।

थोड़ी देर बाद देबू बोला -- 'अच्छा काशी यह बताओ मौक़ा लग गया तो भागा किधर से जाएगा ? मेरा मतलब यह है कि वर्दी वाले तो सबके सब मिनिस्टर साहब को घेरे रहेंगे । हम लोगों को कौन पूछेगा । मान लो हम लोगों को कोई नहीं पकड़ता तो हम लोग भी नारा लगा कर फूट लेंगे । मतलब यह कि वहीं थोड़ी देर खड़े रहेंगे, किसी ने पकड़ लिया तो ठीक वरना मौक़े से फ़रार हो लेने में हर्ज़ क्या है ? ख़ामख़्वाह जेल में जाने से कोई फ़ायदा तो है नहीं ।'

उसने काशी को समझा कर लाइन पर लाने की कोशिश की कि अबसे इसका दिमाग़ ठिकाने आ जाए । जहां एकबार भागने की बात घर कर गयी, फिर तो बेटा आगे आगे भागेंगे । मगर काशी ने प्रतिवाद किया --' देबू भाई आप भी ख़ूब बात करते हैं । आपको बस भागने भागने की पड़ी है । यह भला कैसे होने को है कि हम पर्चा बांटेंगे,नारा लगाएंगे और हमें कोई पकड़ेगा नहीं । इतनी ज़ुर्रत के बाद हमारी ख़ैर रहेगी क्या ? इतने वर्दी वाले हैं, कोई तो हमें धर दबोचेगा । फिर कोई पकड़े या न पकड़े, हमें तो गिरफ़्तारी देनी है न । मीटिंग में क्या तय हुआ था ? हम लोग इस तरह दुम दबाकर भाग भी चलें तो क्या कहेंगे अपने लोगों से ?'

देबू बोल पड़ा--'अरे ठीक है भाई । मैने तो बस ज़रा आगे पीछे सोचने की बात की है । बाक़ी तुम्हारी मर्ज़ी । अच्छा ज़रा ठहरो , मैं एक जुगाड़ देखता आऊं , क्योंकि गेट से निकलने पर तो बिना टिकट हो जाउंगा । तो और कोई रास्ता......' और बिना काशी के जवाब का इंतज़ार किए फटाक से आगे बढ़ गया । काशी को कुछ समझ में नहीं आया । उसने बस इतना कहा कि भाई ज़रा जल्दी रहे । गाड़ी बस आने ही वाली है ।

देबू ने पटरी लांघी और उस पार दूसरे प्लेटफार्म पर पहुंच कर आगे बढ़ गया । यहीं से बन कर जाने वाली पैसेंजर ट्रेन का एक ख़ाली रेक खड़ा था । सारे के सारे डिब्बे ख़ाली । ऐसी ख़ाली सीटे मिलें तो आराम से पसरे पसरे कहीं भी जाया जा सकता है । 

देबू अब काशी की नज़रों से दूर हो चुका था । एक डिब्बे में घुस कर उसने खिड़की वाली सीट ली और बैठ गया । यहां से काशी उसे साफ़ दिख रहा था । उसने इत्मीनान की सांस ली और एक सिगरेट सुलगा कर कश खींचने लगा । साला इधर कौन आने को है । सब तो उधर ही जमे हैं । काशी भी वहीं मुस्तैद खड़ा है । खड़ा रहे । बहुत देखी है पार्टी के प्रति वफ़ादारी । उसे याद आया , जब वह गांधी स्कूल वाली मीटिंग में भाषण के दौरान नारे लगाने के लिए खड़ा हुआ, सबके सब साले चुपचाप बैठे रहे । उसने बार बार आंख और हाथ के इशारे से उन्हें उठने के लिए कहा था पर वे जैसे देख ही न रहे हों । चारों तरफ पुलिस वाले खड़े थे पर उसने हिम्मत न हारी । अकेले ही नारा लगाने लगा और धर लिया गया । चार पाँच पुलिस वालों ने उसे टांग लिया और सभा स्थल के बाहर लाए । पुलिस के बड़े अफ़सर पहुंच चुके थे ---'तोड़ दो साले को । सारे किए धरे पर पानी फेर दिया ।'  इसी के साथ ताबड़ तोड़ डंडे गिरने लगे । 'और कौन कौन है तुम्हारे साथ' ? मन तो किया कि बता दे पर फिर न जाने क्या सोच कर कराह उठा --' कोई नहीं , मैं अकेले हूं ।' उसे पुलिस जीप में लोका दिया गया । उफ ! क्या क्या सितम नहीं सहे उसने । ये हाथ, ये घुटने, आज भी ..... बस चल फिर लेता हूं । जेल में ही पता चला कि बाप बीमार पड़ गए हैं । अर्ज़ी पड़ने के बाद भी मुलाकात की इजाज़त न मिल पाई थी । पुलिस मुआइने के बाद जब रिपोर्ट आई कि वाकई पिता आक्सीजन सपोर्ट पर चल रहे हैं तब कहीं जाकर दस दिन के पेरोल पर उसे छोड़ा गया । जिस दिन उसकी पेरोल ख़त्म होने वाली थी उसके एक दिन पहले ही पिता चले गए । पेरोल की मीयाद श्राद्ध तक बढ़वाई गयी । अंतिम संस्कार के बाद फिर जेल । उसकी परीक्षा भी छूट गयी । आख़िर कौन साला काम आया ?

सिगनल हो चुका था । काशी को घबड़ाहट होने लगी । अजीब आदमी हैं ये लोग । ज्ञानचंद्र उधर चले गए और देबू भी नहीं लौटा । एक को चाय की चिंता सताती रही, दूसरे को भागने के रास्ते की । हुंह ! भगोड़े कहीं के !
गाड़ी का इंजन सामने आता दिखाई पड़ा । उसकी रगों में ख़ून का दौरा तेज़ हो गया । आख़िर वो अकेले करे क्या ?
कम से कम ज्ञान को तो ज़िम्मेदार समझनी थी । अकेले नारा बोला जाता है कहीं ! 

गाड़ी आकर खड़ी हो गयी । काशी भी स्तब्ध खड़ा रहा । फिर एकाएक वह मशीन की तरह पर्चा बांटने लगा और बोल पड़ा -- इंकलाब, फिर थोड़ा ठहर कर, ज़िंदाबाद ! उसने अभी दो ही तीन नारे लगाए थे कि भीड़ में आवाज़ आई--'ज़िंदाबाद .... ज़िंदाबाद ।' उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और ख़ुशी भी कि चलो ऐन वक़्त पर साथी आ गए । थोड़ी देर ही सही पर...वह सारे मलाल भूल गया । जब लगा कि साथ देने वाले हैं तो वह दूने जोश से नारा लगाने लगा । पर यह क्या नारा दुहराने वाले तो अपरिचत चेहरे थे । यात्री । ज्ञान और देबू कहीं नहीं । काशी की दिलेरी और नारे की गरमाहट से भीड़ में से कुछ लोगों को जोश आ गया था और वे क़रीब आकर नारा लगाने लगे थे । इसी बीच वर्दी वालों ने उन्हें घेर लिया था । उनके हाथ पीछे किए जा चुके थे और उन्हें एक तरफ लगभग घसीटते हुए ले जाया गया । काशी इस वक़्त अपने पूरे रंग में था और नारा लगाए जा रहा था । उसने देखा कि पांच अन्य लोग उसका साथ दे रहे थे । पुलिस वाले लगातार गालियां दे रहे थे, 'चोप्प साले । चल अभी चल कर सारा इंकलाब तुम लोगों की गांड में घुसाते हैं । दो एक ने हाथ उठाया भी तो उन्हीं के पास खड़ा एक दारोगा बोल पड़ा --' नहीं यहां नहीं । पब्लिक काफ़ी है । मिनिस्टर साहब को निकल जाने दो ।'

देबू सब कुछ देख रहा था । उसका मन जाने कैसा हो आया । अकेले बेचारा काशी ! च्च च्च ! उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था । जो भी हो आज पता चल गया कि आदमी है काम का । मगर ये तिलंगे कहां से निकल आए ? घोर आश्चर्य ! वाह रे पब्लिक, कब क्या करवट ले, पता नहीं । काशी ख़ुश था । हालांकि काफ़ी मार पड़ी थी फिर भी  उसे ग़ुमान था कि जो ज़िम्मेदारी पार्टी ने उसे थी, उसने पूरी की । उसे अपने इन यकायक मिल गए साधियों के कारण और भी ख़ुशी हो रही थी । जो ज़िम्मेदार थे, अपने थे, वे तो धोखा दे गए । मगर ये सब ? ये सब तो यात्रा में थे । जो घर से सोच कर चले वे अधरस्ते डर के मारे साथ छोड़ गए और जिनसे न जान न पहचान, कहां से आ रहे थे, कहां जा रहे थे, वे अपनी राह त्याग कर मेरे लिए कंधा लगाने आ गए । साथ साथ थाने तक आए । टिकट था, यात्री थे, मारपीट कर भले छोड़ दिए गए पर मुझे मझधार में तो नहीं छोड़ा । अच्छा हुआ दो को खोकर पांच मिले । उसे गर्व हो रहा था अपने ऊपर और अपने से अधिक इन साथियों पर । क्या जिगरा है ! नाम पता रख लिया है । आगे काम आएंगे । वे तो आख़िर उसी की खोज हैं । इस वक़्त वह पांच का नेतृत्व कर रहा है । 
उसे स्टेशन पर और लोगों के चेहरे भूल नहीं रहे थे । एक छिपा छिपा सा समर्थन ! मगर ज़बान थरथरा कर चुप हो जा रही थी । हाथ उठ उठ कर गिर जा रहे थे । मगर ये पांचों अपने को रोक न पाए । बह गए भावना के ज्वार में । आ मिले उसके साथ । उस समय एक को छः होते देख भीड़ की आंखें चमक उठी थीं । रास्ते में उससे पूछा था --'भइया आप अकेले आए थे? आपके साथ और कोई न था ? .....लेकिन भाई वाह ! अकेले इतनी हिम्मत करना ! वाकई आप .......काशी ने टालते हुए कहा था -- 'हां मैं अकेला था । लेकिन अकेला कहां रहा, तम लोग मिल तो गए । अकेले आदमी क्या नहीं कर सकता । बस हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, फिर वह अकेला नहीं रह जाता । लोग उसे अकेला नहीं छोड़ देते । देखिए न कहां रहा मैं अकेला ?

दो दिन हुए काशी को बंद हुए मगर कोई मिलने तक न आया । अब उसे देबू के प्रश्न का मर्म समझ में आ रहा था --'ज्ञान जी आप कहां रहेंगे ?' मगर ज्ञानचंद्र की बात छोड़ो,यह देबू भी तो फंटूस ही निकला । मुझे ही बहला रहा था कि चलो भाग निकलें । न ईमानदारी है, न साहस, । मतलबी । आख़िर पार्टी वालों को क्या पता न चला होगा ? क्या ज्ञानचंद्र को भी ख़बर न हुई होगी ? पर देखने तक नहीं आए । कोई बात नहीं । कभी तो छूटूंगा ।
एक एक के सामने इनकी लफ़्फ़ाज़ी खोल कर रख दूंगा । पूछूंगा मीटिंग में जब, कि आप दोनों कहां मर गए थे, तब इनके चेहरे देखने लायक़ होगा । यही सब सोचते, कराहते दो दिन बीत गए ।

देबू तीसरे दिन आया । उसके हाथ में कागज़ का एक ठोंगा था जिसमें से केले बाहर झांक रहे थे । दूसरे हाथ में एक तुड़ा मुड़ा अख़बार था । वह आकर भी जैसे आया न हो, चुपचाप खड़ा था । काशी को अजीब सा लगा, आख़िर यह चुप क्यों है ? क्या ज्ञानचंद्र को कुछ हो गया ? वह घबड़ा उठा । देबू भाई आप चुप क्यों हैं ? क्या बात है ?
देबू ने काशी का हाथ पकड़ लिया । उसकी आंखें बह चलीं । 'माफ़ करना मैं तुम्हें अकेला छोड़कर भाग आया था । भाग गया होता तो भी कोई बात थी पर मैं तो स्टेशन पर ही छुप कर तुम्हें देखता रहा, तुम्हारे नारे सुनता रहा ।
मुझे जैसे काठ मार गया हो, मैं निर्जीव सा सब अपनी आंखों देखता रहा । एकबार को मन में आया कि दौड़ कर मैं भी तुम्हारे साथ हो लूं । शामिल हो जाऊं तुम्हारी टोली में, पर न जा सका । भाई काशी मुझे माफ़ करना । मैं उसी दिन से बहुत बेचैन हूं । अंदर ही अंदर टूट रहा हूं । सोच रहा था, कैसे जाउंगा तुम्हारे सामने.......'

अरे तुम क्या बके जा रहे हो देबू भाई ! छोड़ो जो हुआ सो हुआ । मुझे तो जेल जाने का प्रशिक्षण लेना था न , सो मिल गया । टूट गया मेरा डर । तुम यह बताओ सब अच्छे तो हैं न ? ज्ञान भाई साहब ? 

देबू ने अख़बार काशी को थमा दिया । समाचार छपा था -- युवा नेता ज्ञानचंद्र ने अपने साथियों के साथ रेलवे स्टेशन पर पर्चे बांटे, नारे लगाए और मिनिस्टर साहब का घेराव करने की कोशिश । पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को हिरासत में ले लिया परंतु ज्ञानचंद्र वहां से बच निकले । पुलिस की टीम ने उनकी बरामदगी के लिए कई स्थानों पर छापे मारे हैं पर उसे अभी तक सफलता नहीं मिली है । पुलिस द्वारा गिरफ़्तार लोगों में एक का नाम काशी बताया जाता है ।....

काशी के बदन पर पड़ी लाठियां के निशान हरे हो गये और मन घिन से भर गया । देबू ने बताया यह समाचार स्वयं ज्ञानचंद्र ने लिख कर उसी के हाथों प्रेस को भेजवाया था । देबू की आंखें झुकी हुई थीं और काशी कहीं अनन्त में कुछ देख रहा था । दोनों के बीच चुप्पी पथरा गयी थी ।अगल के लोग जो अब तक उससे हिल मिल गये थे, पूछ पड़े --'क्या हुआ नेता जी ?

काशी जैसे होश में आया हो, 'नेता जी' ! तो अब वह नेता हो चुका है । वह अंदर तक सिहर गया । वह भी ज्ञानचंद्र की तरह नेता हो चुका है । उसने कहा --'नहीं कुछ नहीं । ऐसे ही ज़रा घर की बात चल पड़ी थी । घर में तो आप लोग जानते ही हैं , दस तरह की बातें लगी रहती हैं । गलत सही । नोंक झोंक । सब ठीक हो जाएगा देबू भाई । आप घबड़ाइए नहीं ।'

उसने अख़बार गोल करके देबू को थमा दिया । कुछ इस तरह जैसे औरों से छिपा रहा हो । देबू भाई आप जाइए, मुझे आप लोगों से कोई शिकायत नहीं । 

काशी सोच रहा था कि ग़नीमत है वे पांचों यहां नहीं हैं, वरना क्या सोचते !


53 -

एक दिन का युद्ध
[ जन्म : 20 दिसंबर , 1955 ]

हरीश पाठक 


अर्चना की रुलाई फूट पड़ी। गुस्से में थरथराती उसकी आवाज से अनुराग चौंक गया।

‘‘आठ, चालीस हो गए हैं और बाई का अब तक कोई पता नहीं है- मैं क्या करूँ जब मन आता है वह अपने घर बैठ जाती है बगैर कुछ बताए। इस हाल मैं बब्बू को किसके भरोसे छोड़कर जाऊँ?’’ पैर पटकती अर्चना खिड़की की तरफ भागी। 

वक्त को अपने जबड़े में दबाए घड़ी की सुई फिर आगे सरकी। अनुराग दरवाजे के बाहर आया। बरामदे की खिड़की से उसने झाँककर देखा- क्रांति नगर की पतली गली में सिर्फ एक अधनंगे बच्चे के दूर-दूर तक खामोशी थी। पार्वती बाई के आने का कोई निशान वह चाह कर भी नहीं देख पा रहा था।

फोन की घंटी बजी। अनुराग तेजी से फोन की तरफ बढ़ा। उसने सुना, ‘‘ड्यूटी रूम से सुधा बोल रही हूँ, मैडम हैं?’’

‘‘बोलो सुधा’’- वह बमुश्किल बोल पाया।

‘‘शिमित अमीन का फोन आया है वे आधे घंटे में पहुँच रहे हैं। मैडम भी रास्ते में ही होंगी?’’

फोन पर सन्नाटा था। फिर फोन अचानक कट गया।

‘‘यादव भाभी मान गई हैं, आज भर की तो बात है बब्बू को उनके घर छोड़कर जा रही हूँ।

अर्चना की टुकड़ा-टुकड़ा आवाज उसके कानों में गिरी। वह लपक कर दरवाजे तक आना चाहता था, वह अर्चना को सुधा के फोन के बारे में बताना चाहता था, वह बब्बू को प्यार से दुलारना चाहता था, वह चाहता था कि यादव भाभी के घर वह खुद अर्चना के साथ चले पर दरवाजा झटके से बंद हो गया था।

अनुराग की आँखें फिर दीवार पर जा चिपकीं। घड़ी के जबड़ों के बीच दबे वक्त की झटपटाहट उसे अंदर तक हिला गई।

कार शेड के पास की पत्थरोंवाली गली पार कर वह कब सड़क तक आया, सड़क से कैसे उसने साँई बाबा मंदिर के सामने का रास्ता पार किया, कब वह बगैर आगे-पीछे देख दनदनाते रेल की पटरियों को पार कर प्लेटफार्म नंबर तीन पर चढ़ गया- उसे कुछ नहीं मालूम। उसे पता ही नहीं चला कि कैसे, किस गति से उसने घर और स्टेशन के बीच पसरे सत्रह मिनट के फासले को तेजी से पार कर लिया है।

अब वह सीढ़ियों को पार कर पुल पर था और उसे पुल से उतरकर प्लेटफॉर्म नंबर पाँच पर पहुंचना था। कैसे भी, हर हाल में। पटरियों के पार उसकी नजर गई- नौ, बयालीस की फास्ट उसे आती हुई दिखी।

अबकी अनुराग दौड़ पड़ा। आगे भीड़ खिसक रही थी और अनुराग खिसकती उस भीड़ में छटपटा रहा था। जब उसके पैर आखिरी सीढ़ी तक पहुँचे, टेªन फिसल गई थी। वह कुछ देर ठिठका। उसने देखा फास्ट ट्रेन का तो कहीं पता ही नहीं। इंडीकेटर कुछ और दिखा रहा था।

तेज-तेज साँसों पर काबू करते उसने सुना, ‘‘प्लेटफॉर्म नंबर पाँच पर आनेवाली नौ, बयालीस की तेज लोकल आज प्लेटफॉर्म नंबर तीन से रवाना होगी, यात्रियों को होने वाली असुविधा के लिए हमें खेद है।’’

फिर इस पहाड़ को पार करना है- उसने सीढ़ियों पर तैरते जनसमुद्र को बेचारेपन से निहारा। तीन से पाँच, पाँच से फिर तीन- क्या करे अनुराग? वह फिर सीढ़ियों पर था। धीरे-धीरे खिसकता भीड़ का रेला। उस रेले के ठीक बीचोबीच फँसा अनुराग जब प्लेटफार्म नंबर तीन पर पहुँचा तो ट्रेन सरकने लगी थी। बाएँ हाथ से रेलिंग को थामे जब अनुराग ट्रेन में चढ़ा तो उसके दाएँ हाथ का बेग कई जोड़ा सिरों के ऊपर से टकराता डिब्बे के भीतर उसके पहले घुस चुका था।

दरवाजे से चिपका वह यह समझ ही नहीं सका कि यह कैसे संभव हुआ कि भीड़ ने ही उसे तीन से पाँच नंबर के प्लेटफॉर्म पर फेंका, भीड़ ही उसे पाँच से तीन नंबर पर ले आई और अब भीड़ के धक्के ने ही उसे डिब्बे में चढ़ा दिया है।

अनुराग अब तक हाँफ रहा था। तेज बारिश में सड़क के किनारे की कोई ओट या धाँय-धाँय बरसते हथगोलों के बीच दीवार से चिपककर खड़ा कोई निहत्था सैनिक जैसे जीवन को दसों उँगलियों से पकड़ना चाहता है- ट्रेन के दरवाजे से चिपके अनुराग की हालत भी ठीक ऐसी ही थी।

पहले-पहल उसके कुछ समझ में नहीं आया था कि खचाखच भरी ट्रेन में आखिर कैसे चढ़ा जाए? उसे अच्छी तरह याद है कि जब वह मुंबई और इस रेलवे कॉलोनी में नया-नया आया था तब अतुल कुमार उसे घंटों इस शहर के कायदे-कानून बताते रहते थे। ट्रेन में चढ़ने और उतरने पर उनके नए-नए नुस्खे उसे रोज ही सुनने पड़ते थे।

अकसर उसकी यादों में वह सुबह चमक उठती है जब ऊँचे-पूरे अतुल कुमार घर से निकलते ही रास्ते में पड़ने वाले हर मंदिर के सामने झुकते। कई-कई बार सूर्य को प्रणाम करते वक्त उनके माथे का सफेद टीका उनके काले शरीर पर चिपका हुआ लगता।

अनुराग तब उनके संग-संग स्टेशन तक आता। अतुल कुमार उसे बताते बीच का डिब्बा ही अक्सर पकड़ा करो। पीछेवाले डिब्बे में जेबकतरे इसी स्टेशन में चढ़ते हैं। लगेज का डिब्बा भूल से कभी मत पकड़ना। उसमें तो अपराधी समूहों में बैठते हैं। वे लूटपाट कर आपको कहाँ धक्का दे देंगे पता ही नहीं चलेगा। सबसे आगे डिब्बे में पढ़े-लिखे लोग तो  होते हैं पर उनका गिरोह इतना मजबूत है कि न वे आपके चढ़ने देंगे, न उतरने देंगे। यह गिरोह कल्याण से चढ़ता है और वीटी उतरता है। बस सबसे सुरक्षित यही बीच का डिब्बा है। इसमें सब भले लोग चढ़ते हैं।

इन्हीं भले लोगोंवाले डिब्बे में वह एक दिन अतुल कुमार के साथ चढ़ा। भजन गुनगुनाते, हाथ मिलाते अतुल कुमार आगे-आगे, वह पीछे-पीछे। वे दोनों स्टेशन तक आ गए। ट्रेन आई। भीड़ का रेला उतरा और उसने देखा अतुल कुमार भीड़ के धक्कों के बीच हाथ-पैर मार रहे हैं। उनके बुशर्ट के सारे बटन खुल गए थे। उनका नीला थैला किसी और के हाथ में लहरा रहा था। एक आदमी का मुक्का हवा में था। एक चीख रुक-रुककर बज रही थी। एक धोतीधारी सज्जन लगभग निर्वस्त्र प्लेटफॉर्म पर खड़े थे और एक बच्चा मिमियाता हुआ डिब्बे से बाहर निकल आया था।

ट्रेन चल दी भीड़ से ठसाठस भरी ट्रेन ने जब गति पकड़ी तो उसने देखा बाएँ हाथ से दरवाजे के डंडे को पकड़े अतुल कुमार सन्नाटे में थें दहशत के मारे अनुराग की हालत खराब थी। शाम को वह तड़पकर अतुल कुमार से मिला।

‘‘कैसे हैं, कही लगी तो नहीं?’’ उसने मिलते ही उनसे पूछा।

‘‘मुझे क्या हुआ?’’ अतुल कुमार सहज थे।

‘‘सुबह भीड़ ने आपको बुरी तरह घेर लिया था।’’ वह लगभग हकलाते हुए बोला।

‘‘वह तो रोज की बात है। भीड़ से क्या डरना? वह तो हमारे जीवन का हिस्सा है। वही तो हमें दफ्तर पहुँचाती है भाई। भीड़ न चढ़ाए तो क्या मैं अकेले ट्रेन में चढ़ या उतर सकता हूँ?’’

अतुल कुमार के शब्द रेशा-रेशा उसके भीतर उतरे। वह डर जो सुबह उसकी रग-रग में समा गया था, अतुल कुमार से मिलकर अचानक उस कौतुक में बदल गया जिसे वह दोबारा याद भी नहीं करना चाहता था।

उसकी चाहत तो यह थी कि आज वह आराम से घर पर बैठे। उसका मन था कि आज बब्बू को गोद में लिये वह इस कमरे से उस कमरे में, कभी बरामदे में तो कभी रेलवे कॉलोनी के उस विशाल मैदान में बेआवाज घूमे जो अकसर वीरान रहता हैं। उसकी इच्छा थी कि वह बब्बू को झूले में बैठाकर 'आ जा री आँखों में निंदिया, तू आ जा री आ' गुनगुनाये जो अकसर अम्मा किसी भी बच्चे को सुलाते वक्त गुनगुनाती थीं, तो कभी वह बब्लू को पलंग पर बैठाकर कोई गाना इतनी जोर से चला दे कि पड़ोस के सरदारजी ‘क्या हुआ पुत्तर’ कहते निकल आएँ। वह चाहता था कि आज बबू को लिए वह तब तक नाचता रहे जब तक वह थक न जाए।

पर गुरुवार को वह छुट्टी कैसे ले सकता है? उसने कई बार, कई तरीके से सोचा कि आखिर इस तरह दौड़ते-दौड़ते वह पहुँचेगा कहाँ? उसका आखिरी ठिकाना कहाँ है? रोज-रोज दौड़ते कहीं किसी दिन उसके दिमाग की नस फट गई तो अर्चना क्या करेगी? बब्बू का क्या होगा? उसने यहाँ तक सोच लिया था कि इस हाल में अर्चना सबसे पहले किसे बुलाएगी? यदि किसी को बुलाया भी तो इस शहर में क्या कोई दौड़ा-दौड़ा आ पाएगा।

**
अनुराग का इस कॉलोनी में आना भी एक संयोग था। अपने-अपने शहर में, अपनी-अपनी जिंदगी, अपने-अपने तरीके से जी रहे अर्चना और अनुराग अलग-अलग आँखों में सपना एक ही देख रहे थे। छोटे शहर की, छोटी जिंदगी से ऊब कर महानगर में बस कर बड़ा आदमी बनने का कभी खत्म न होने वाला सपना। इस सपने का एक छोर अर्चना के पल्लू में बँधा था और दूसरा छोर थामें था अनुरागरत्न उपाध्याय।

अर्चना के हाथ में सिर्फ सपनों के कुछ नहीं था। वह आकाशवाणी दरभंगा में आकस्मिक उद्घोषिका थी। अपनी खनकदार आवाज पर उसे भरोसा था पर जीवन की रपटीली राह पर सिर्फ आवाज के सहारे कैसे चला जा सकता था? चौड़ी लाल बिंदी लगा, माथे पर पल्लू डाल जब वह दहलीज पार करती तो जिया कहतीं ‘‘बारात अब इसी घर में आएगी।’’ चुप-चुप अर्चना घर छोड़ देती।

अर्चना पहले ड्यूटी रूम जाती। चार्ट देखती। कार्यक्रम अधिकारी से मिलती। स्क्रिप्ट हाथ में लेती। उसे एक बार पढ़ती। रिकॉर्ड चुनती। स्क्रिप्ट के मुताबिक गाना लगाती। कुछ देर बाद हवाओं के रथ पर सवार अर्चना की आवाज गूँजती-

प्यारी बहनों,

‘स्वप्न महल’ में आपको अर्चना शुक्ला का प्यारभरा नमस्कार। सपनों के इस महल की शुरूआत आज हम गिरिडीह की चमेली मंडल की इस फरमाइश से करते हैं। उनकी यह पसंद हम सबकी पसंद है। सच तो यह है कि जिंदगी की आपाधापी में आज हम कितने अकेले होते जा रहे हैं यह दर्द इस गीत में बखूबी उभरा है। तो आइए सुने चमेली मंडल की यह पसंद-

अर्चना की आवाज रुकती और हवा में गूँजताः

तुझसे नाराज नहीं जिंदगी हैरान हूँ मैं,

-हां हैरान हूँ मैं,

तेरे मासूम सवालों से परेशान हूं मैं

-हो, परेशान हूं मैं।

परेशानी का गोल-मोल चक्का रह-रहकर अनुराग के हाथ में भी तेज-तेज घूमता। सुबह से शाम वह हर छोटे-बड़े अखबार में चक्कर लगाता। उसके होंठो पर अचानक उग आए तमाम सवालों के जवाब उसे कहीं से नहीं मिलते। एक रात उसने सोचा छोटे अखबारों की छोटी नौकरी उसे क्या देगी?

तब कौन, क्या देगा? माँगने और देने की इस जद्दोजहद में उसने पाया कि सुबह उग आई है और वह निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर खड़ा है।

दिल्ली में यह उसका पहला दिन था। कैलेंडर के बदलते-बदलते वह पहला दिन रबड़ की तरह खिंचता हुआ आठ साल में तब्दील हो गया। इन आठ सालों की यादों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर निसहाय खड़ा अनुरागरत्न उपाध्याय इस बीच ‘स्वप्न महल’ की अर्चना शुक्ला से गहरे तक जुड़ चुका था। उसके मन में यह विचार जड़ जमा चुका था कि जब सब जगह आसमान का रंग नीला है, सबकी आँखों में सपने पलते हैं, उम्मीदें किसी की भी दम तोड़ सकती है, मन कहीं भी बेखौफ उड़ सकता है तो सामानांतर चल रहे सपनों को क्यों न एक छत मिले। झक्क सफेद छत के नीचे रोज-रोज बड़े हाक रहे सपनों को देखना कितना रोमांचक होगा?

जिस दिन यह विचार अनुराग के मन में उभरा उस रात अर्चना शुक्ला की नींद को न जाने किसने सोख लिया था। सबकुछ उसे टूटे इंद्रधनुष के बिखरे रंगों को मुट्ठी में सँजोने जैसा लग रहा था। वे दिन रह-रहकर उसकी यादों में जलतरंग से बजते। यह खूब सज-धजकर आकाशवाणी जाती। पुराने रिकॉडों की धूल को अपने नीले रूमाल से बार-बार पोंछती। कभी वह वाणी जयराम का गीत 'बोल रे पपिहरा' सुनती, तो कभी 'खुद मेरे घर आना मेरी जिंदगी' गुनगुनाती। क्या हो गया है अर्चना शुक्ला तुम्हें? वह कई-कई बार खुद से ही पूछती।

पर खुद से पूछा अर्चना का यह सवाल घर की दीवारों से चक्कर लगाकर, घूम-फिरकर उसी के पास लौट आता।

**
अनुराग फिर दिल्ली की यादों में लौट गया।

उस दिन अखबार के पन्ने बदलते-बदलते अचानक उसकी नजर एक विज्ञापन पर जम गई। ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ सब तरफ से उसने उस विज्ञापन को पढ़ा और वह इस नतीजे पर पहुँचा कि यह विज्ञापन सिर्फ और सिर्फ उसके लिए ही निकला है। वह जब-जब विज्ञापन पढ़ता तब-तब उसके कान के पास न जाने क्यों समुद्र की उठती-बैठती लहरों का तेज-तेज संगीत बजने लगता। उसे लगता जैसे यह शोर उसके कान के परदों को फाड़कर उसके भीतर तक उतर जाएगा। उसने दोनों हाथ कानों पर रख लिए पर आवाज का रुकना नहीं थमा था। 

उसने विज्ञापन को अखबार से काटकर अपनी जेब में रख लिया। एक क्षण उसे लगा जैसे अब दिल की धड़कनें बढ़ गयी हैं। दिल की बढ़ी हुई इन धड़कनों के साथ उसका मन उछल-उछलकर मुंबई पहुँच जाता। उसने मन-ही-मन यह तय कर लिया कि इरादों की बारीक डोर को थामे वह उस समंदर की जमीन को जरूर छू लेगा जो बहुतों का सपना होता है। उसने तय किया कि दूसरों का सपना इस बार उसकी सच्चाई बनेगा। बाद के बहुत सारे दृश्य आपस में गड्डमगड्ड है जिन्हें अनुराग साफ-साफ नहीं देख पा रहा। स्याह-सफेद इन यादों में दर्ज है अनुराग की बेचारगी, उसका एक रात चुपचाप दिल्ली से गायब हो जाना, कई-कई रात समंदर की रेत पर अकारण भटकना, विज्ञापन के सच को पूरी तरह झपट लेना, देश के सबसे बड़े अखबार में नौकरी पाना, पत्थरों की ऐतिहासिक इमारत को दर्प के संग अपना दफ्तर कहना, भाग कर दरभंगा जाना, दौड़ते हुए अर्चना से लिपटना, लाल फूलोंवाले छोटे से बक्से में उसका कपड़ों को ठूँसना, हाँफते हुए स्टेशन तक आना, चलती ट्रेन में लपककर चढ़ना-अनुराग को धीरे-धीरे सब याद आया।

उसे याद आए वे क्षण जिनमें दर्ज थी दो जोड़ा आँखों की कायरता, जिनमें दर्ज थी व्याकुलता, जिनमें दर्ज थी हिकारत और जिनमें दर्ज थी तकलीफों की न भूलनेवाली इबारत। प्यार, प्यास, भूख, त्रास, दंभ, दया, मान, इत्मीनान, रिक्तता, छल, यातना, कपट और यश के इतने चेहरे उसकी आँखों के सामने बेपरदा हुए कि अनुरागरत्न उपाध्याय उन चेहरों के ऊपर चढ़ी बारीक पर्त को खुरचना तक नहीं चाहता।
**
ट्रेन रूक गई थी। अनुराग ने आसपास देखने की कोशिश की तो चाहकर भी वह अपना सिर घुमा ही नहीं सका। एक-दूसरे से रगड़ खाते जिस्म। सिर्फ हाथों का हिलना भर देख पा रहा था। दाएँ-बाएँ उसकी नजर गई तो देखा कई ट्रेनें एक साथ रुकी हैं। कुछ यात्री बेखौफ पटरियों पर दौड़ रहे हैं। कुछ जोर-जोर से बातें कर रहे हैं। कुछ उतरना चाह रहे है पर लोग उन्हें उतरने ही नहीं दे रहे। कोई मोबाइल पर बात कर रहा है तो कोई मोबाइल न लगने का रोना रो रहा है।

‘‘सारी दुकानें बंद हो रही हैं। दादर पर जगह-जगह पत्थरबाजी शुरू हो गई है। कल रात शिवाजी पार्क की सभा में जो बवाल मचा था उसकी आग आज पूरी मुंबई में फैल गई है।’’ अनुराग ने सुना कुछ लोग आपस में बातें कर रहे हैं।

‘‘आठ, सत्रह की विरार फास्ट अब तक अटकी है। जब वहीं आगे नहीं बढ़ी तो इसकी क्या उम्मीद?’’

‘‘एक औरत आज सुबह एलफिंस्टन में कट कर मर गई। हड़बड़ी में पटरी पार कर रही थी।’’

‘‘सात-आठ लड़कों ने कल रात एक टैक्सीवाले को इतना मारा कि अस्पताल ले जाते वक्त उसकी मौत हो गई।’’

‘‘लाल बाग, लोअर परेल, काला चौकी, पांडुरंग वाड़ी, प्रभादेवी, फूल बाजार-सब जगह हिंसा जारी है। जिंदाबाद के नारे लगाने वाले लड़के नाम, पता पूछकर इतना मार रहे हैं कि आदमी मर ही जाए।’’

‘‘पुलिस चुप है। पुलिस कप्तान बेटी की शादी की तैयारी में जुटा है और मुख्यमंत्री कुरसी बचाने के चक्कर में कल रात से दिल्ली दरबार में हाजिरी लगा रहा है।’’

ट्रेन के हर कोने से आने वाली तरह-तरह की खबरों से अनुराग का दिल बैठने लगा। उसने आगे सरकने की कोशिश की तो किसी ने इस तेजी से उसकी बुशर्ट खींच दी कि उसे लगा कहीं बुशर्ट ही फट न जाए। तब फटी बुशर्ट पहनकर वह दफ्तर कैसे जाएगा?

भीड़ में फँसे-फँसे उसे अर्चना की याद आ गई। सुबह उसकी बेचैनी अनुराग से देखी नहीं जा रही थी। उसे लगा, उसकी आँखें अचानक बरसने लगेंगी, और उन टपकती बूंदो के संग-संग बहुत कुछ बहने लगेगा- अनुराग का धैर्य उसकी मुस्कान, उसकी खुद्दारी, उसका हौंसला, उसका जीवट और उसका विश्वास। पर न अर्चना टूटी और न ही उसने अपना धीरज खोया। ऐसी बातों पर यदि वह ही टूट जाता तो न जाने कितने साल पहले वापस गाँव नहीं तो दिल्ली तो लौट ही गया होता। आखिर मुंबई की रोज-रोज की तकलीफें आदमी को अंदर तक हिला ही देती हैं, पर वह सीखता भी तो इन्हीं परेशानियों से है। अनुरोग अपने ही सवालों के खुद ही उत्तर दे रहा था।

फिर उसे बब्बू की याद आई। कैसा है जीवन का यह रंग? एक सपने को अपनी आँखों में पाले दरभंगा की अर्चना मुंबई की एक रेलवे कॉलोनी में अपने सपनों को बड़ा होते देख रही है और छिंदवाड़ा के एक निपट देहात का अनुरागरत्न उपाध्याय दिल्ली होते एक नामचीन पत्रकार बनने की जिद में मुंबई की इस गोल-गोल घूमती जिंदगी का हिस्सा बनने को अभिशप्त है।

तीस दिनों के सात सौ रूपया पाने वाली पार्वती जामसंडेकर का एक दिन न आना बब्बू को, उसे और अर्चना को कितना लाचार बना देता है? चाची, भाभी, मौसी और अम्मा के भरे-पूरे परिवार में एक पार्वती बाई इतनी बलशाली हो जाती है कि उसका एक दिन उन सपनों को ही धुँआ-धुआँ कर देता है जो सालोंसाल से अर्चना और अनुराग के जीवन का आधार है।

वाया दादर अनुराग अँधेरी स्टेशन पर उतर तो गया पर उसने देखा दूर-दूर तक न ऑटो का पता था, न बसें दिख रही थीं। स्टेशन के बाहर के चौराहे पर काँच ही काँच था। पता चला एक उन्मादी भीड़ ने बसों पर जमकर पत्थरबाजी की हैं। चौराहें के आसपास की दुकानों पर भी लूटपाट की कोशिश हुई। ‘नवरंग’ सिनेमा में चल रही भोजपुरी फिल्म को दंगाईयों ने रोक दिया। उन्होंने फिल्म के पोस्टर फाड़ दिए और कुछ दर्शकों के साथ मारपीट की। पुलिस का सायरन सुनते ही भीड़ भाग गई।

बेबस अनुराग पैदल ही दफ्तर की तरफ चल पड़ा। उसने देखा तनाव हर मोड़ पर चमक रहा है। बंद दुकानों के बाहर खड़े लोग उबल रहे हैं। हनुमान मंदिर के बाहर की सब्जी की दुकानों की हालत साफ बता रही थी कि कुछ देर पहले यहाँ क्या हुआ होगा? रोती हुई एक औरत को भीड़ दिलासा दे रही थी पर उसके आँसू थम ही नहीं रहे थे। सड़क पर इक्का-दुक्का बसें ही रेंग रही थीं। रेंगती उन बसों के हर हिस्से पर यात्री लटक रहे थे।

दफ्तर में अफरातफरी का माहौल था। दोटे-छोटे झुंड में लोग इधर-उधर आपस में बातें कर रहे थे। उसे देखते ही भीड़ फट गई।

दिनकर कुछ संवाददाताओं के साथ उसके सामने था। वह बता रहा था- शहर में हिंसा बढ़ रही है। हर जगह संवाददाता और फोटोग्राफर तैनात हैं। सांताक्रुज और सहारा हवाई अड्डे पर दत्ता जाधव और संदीप माने को भेज दिया है। कल्याण, ठाणे, नवी मुंबई दादर, चर्चगेट और वीटी पर भी टीमें भेज दी हैं। मंत्रालय पर मनीषा पाटनकर है और पुलिस मुख्यालय पर प्रफुल्ल सरदेसाई।

अनुराग लगातार आ रही खबरों को देख, सुन रहा था। पहला संस्करण जल्दी ही प्रेस में भेजना है। बदहवास-सा वह घर पर फोन पर हिदायत दे रहा था। वह बार-बार प्रेस को बता रहा था कि जितनी जल्दी मशीन चालू हो सके कर दो। हमारा अखबार सबसे पहले बाजार में आना है।

खबरें आ रही थीं-

‘‘सिद्धिविनायक, महालक्ष्मी और बाबुलनाथ मंदिरों की सुरक्षा बढ़ाई गई।’’

‘‘पुलिस मुख्यालय में आए एक गुमनाम फोन के कारण सभी पुलिस स्टेशनों को तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था करने के आदेश दिए हैं।’’

‘‘एक उत्पाती भीड़ ने नरीमन प्वाइंट स्थित एक स्टॉल को आग के हवाले कर दिया।’’

‘‘कांजुर मार्ग पर कुछ युवकों ने ट्रेन से उतारकर यात्रियों को जमकर पीटा।’’

‘‘नवी मुंबई में हिंसक भीड़ ने एक हिंदी स्कूल की इमारत को आग लगा दी।’’

अनुराग हर खबर पर नजर रखे था। पहला संस्करण प्रेस में जा चुका था पर अनुराग की बदहवासी थम ही नहीं रही थी। वह हर संवाददाता से फोन पर जुड़ा था। वह उनसे पल-पल की खबर ले रहा था।

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फोन की घंटी बजी। दूसरे छोर पर अर्चना थी। उसकी आवाज काँप रही थी। उसने सुना ‘‘यादव भाभी के घर दिनभर बिजली की सिगड़ी जलती है। किचन तक उन्होंने किराये पर दिया है। अभी-अभी कॉलोनी से किसी ने फोन कर उसे बताया तो वह दहल गई। बब्बू, यदि घुटुअल चलता सिगड़ी तक पहुँच गया तो- मैं घर जा रही हूँ।’’

अनुराग की रीढ़ में जैसे किसी ने करंट उतार दिया। उसके पोर-पोर से पसीना बहने लगा। न चाहते हुए भी उसे कर्नल भाटिया का वह पिलपिला चेहरा याद आ गया जो उसने कुछ साल पहले आगरा के पागलखाने में देखा था। अपनी विक्षिप्त पत्नी के सामने थके-थके खड़े कर्नल को देख वह हिल गया था।

तीन लड़कियों के बाद कर्नल के एक बेटा हुआ था। रसोई में काम करते-करते मिसेज भाटिया अचानक नहाने चली गईं और जमीन पर जलती बिजली की सिगड़ी के पास ही खेल रहे उसके इकलौते बेटे ने उसे छू लिया। जब तक मिसेज भाटिया किचन तक पहुँची तब सबकुछ खत्म हो चुका था। कर्नल के घर पहुँचने तक बच्चे की साँसें थम चुकी थीं।

बच्चे की निर्जीव देह देख मिसेज भाटिया ऐसी खामोश हुईं की दुनिया का कोई इलाज उन्हें ठीक ही नहीं कर सका। वे उठते-बैठते चीखतीं- ‘‘मेरा बेटा मुझे वापस दे दो।’’ उनकी जानलेवा चीखें जब घर से बाहर तक आने लगीं तो उन्हें मानसिक चिकित्सालय में भरती कराया गया। सालोंसाल से वे उसी परकोटे में चक्कर लगा-लगाकर अपने बेटे को याद करती हैं।

अनुराग ने सोचना बंद कर दिया।

जब वह स्टेशन पहुँचा तो फास्ट ट्रेन आ चुकी थी। सड़कों पर सुबह के उत्पात के निशान मौजूद थे। वह चलती ट्रेन पर लटक गया। वह भीड़ के बीचोंबीच फँस गया। उसकी साँस रुकने को हुई। वह घिघियाता हुआ अंदर की ओर घुसा। वह रोना चाहता था पर उस क्षण कोई ऐसा कोना नहीं था जहाँ वह अपना सिर टिका कर रो सके। उसने फोन लगाया, फिर काट दिया। फिर फोन लगाया। घंटी सुनी पर डर के मारे फोन का बटन ही बंद कर दिया।

उसने ट्रेन के बाहर देखा। उसे लगा इतना बेरंग, बेरौनक आसमान तो उसने पहले कभी नहीं देखा। उसने सूख रहे अपने होंठों पर जीभ फेरी। फिर उसे लगा अर्चना से बात कर ली जाए। फिर उसने फोन लगाया पर घंटी बजती रही, बजती ही रही।

अनुरागरत्न उपाध्याय अब बुरी तरह डर गया। जरूर कुछ अनिष्ट घट गया है। इतनी देर हो गई। अर्चना तो फोन करती कि आखिर क्या हुआ? क्यों वह इस खबर पर इतना डर गई कि यादव भाभी के घर दिन भर बिजली की सिगड़ी जलती है। फिर उसने खुद को टटोला। यदि कुछ हो गया तो?

अब वह कुर्ला स्टेशन पर था। प्लेटफॉर्म नंबर नौ पार कर वह कार रोड के बगलवाली सड़क पर बाकायदा दौड़ रहा था। उसने देखा उसकी बिल्डिंग के बाहर भीड़ जुटी है। वह रूक गया।

अब क्या करे अनुराग? क्या वापस मुड़े और देर तक अकारण स्टेशन पर ही घूमता रहे या दनदनाता घर की सीढ़ियाँ चढ़ जाए। जो होना होगा, वह तो हो चुका होगा। तब उससे डरने का क्या मतलब?

वह अबकी अपने घर के दरवाजे पर था। उसने देखा अर्चना सब्जी काट रही है और बब्बू पलंग पर सो रहा है।

***

एक नामालूम-सा सन्नाटा अर्चना और उसके बीच न जाने क्यों धीरे-धीरे पसर रहा था।

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54  -

घोड़े वाले बाऊ साहब
[ जन्म : 30 जनवरी , 1958 ]
दयानंद पांडेय 


बाबू गोधन सिंह इन दिनों परेशान हैं। उन की परेशानी के कोई एक दो नहीं कई कारण हैं। लेकिन तुरंत-तुरंत उन की परेशानी के दो कारण हैं। एक तो वह अपनी बैलगाड़ी का एक चक्का बदलना चाहते हैं और जो संपर जाए तो बैलों की जोड़ी में से कम से कम एक दाहिने बैल को बेंच कर नया ले लें। जो जुगत बन जाए तो जोड़ी ही बदल दें !

पर कैसे ?

एक समय था जब बाबू गोधन सिंह को घोड़े बदलने में देर नहीं लगती थी और आज बैल बदलने के लिए, बैलगाड़ी का चक्का बदलने के लिए भी उन्हें चारों ओर देखना पड़ रहा है! वह बुदबुदाते भी हैं, ‘सब समय-समय का फेर है !’

वह जमाना ही और था। तब गोधन सिंह की तूती बोलती थी। बल्कि उन से भी ज्यादा उन के घोड़ों की तूती बोलती थी। और घोड़े भी ऐसे जैसे, ‘राणा की पुतली फिरी नहीं, चेतक तुरंत मुड़ जाता था।’ बाबू गोधन सिंह भी घोड़ों के एक-एक रोएं का खुद ख़याल रखते थे। उन के पट्टीदारों के घर हाथियां बंधतीं पर वह घोड़ा ही बांधते थे। घोड़ों से जैसे उन्हें इश्क था। घुड़सवारी जैसे उन की सांस थी, उन की धड़कन थी। तबीयत जो ख़राब हो तो वह एक टाइम खाना भले न खाएं पर घुड़सवारी जरूर करते। घोड़ों की जीन कसे बिना उन का खाना हजम नहीं होता था! घोड़े भी जैसे उन की राह देखते रहते।

बाबू गोधन सिंह का भी काम तब दो एक घोड़ों से नहीं चलता था। चार-छह घोड़े हरदम उन की घुड़साल में रहते ही रहते थे। काला, सफ़ेद, लाल। किसिम-किसिम के रंग और नस्ल के घोड़े। बाबू गोधन सिंह जब घोड़े पर चढ़ कर निकलते तो गांव में लोग उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ते।

बाद के दिनों में अपनी घुड़सवारी दिखाने की उन्हें लत सी पड़ गई। ‘दर्शक’ बने रहें इस चक्कर में वह जब घोड़े पर बैठ कर निकलते तो गरीब गुरबा में कुछ कपड़ा-लत्ता, पैसा-कौड़ी भी बांटने लगे। भीड़ और बटुरने लगी। भीड़ देख कर बाबू गोधन सिंह की छाती और मूंछ दोनों अकड़ जाती। उन के रौब में और इजाफा हो जाता। साथ ही भीड़ देखने की ललक भी बढ़ जाती।

धीरे-धीरे इस भीड़ की ललक में बाबू गोधन सिंह कब शादी-ब्याह के पहले द्वारपूजा की अगुवानी करने लग गए इस का पता उन्हें भी नहीं चला। पहले पहल वह अपनी पट्टीदारी की लड़की की शादी में जब बारात आई तो अपना घोड़ा ले कर पगड़ी बांधे अगुवानी के लिए निकले। फिर जाने क्या सूझी कि वह खेतों में घुड़सवारी के करतब दिखाने लगे। फिर तो गांव में ठाकुर बिरादरी की किसी की बेटी की शादी हो बाबू गोधन सिंह की घुड़सवारी वाली अगुवानी के बिना द्वारपूजा होती नहीं थी। धीरे-धीरे बाबू गोधन सिंह आस-पास के गांवों के ठाकुरों की लड़की की शादी में द्वारपूजा की अगुवानी करने लगे। सिलसिला बढ़ता गया और वह ठाकुरों की लकीर लांघ कर ब्राह्मणों की बेटियों की शादी की द्वारपूजा में भी अगुवानी के लिए मशहूर हो गए। और जल्दी ही वह सारी सीमाएं तोड़ कर छोटी-बड़ी सभी जातियों की बेटियों की शादी की द्वारपूजा में अगुवानी करने लगे। बाबू गोधन सिंह का नाम भी अब धूमिल होता जा रहा था। लोग अब उन्हें बाबू गोधन सिंह की जगह सिर्फ बाबू साहब ही कहने लगे थे। बाबू साहब लोग वैसे तो गांव में और भी थे पर बाबू गोधन सिंह को लोग जिस ठसक और आदर से बाबू साहब कहते, किसी और बाबू साहब को नहीं। बाबू गोधन सिंह की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती जाती। इतनी कि अब वह बाबू साहब भी नहीं, बाऊ साहब कहलाने लगे थे। इलाके में उन की लोकप्रियता का आलम यह था कि लोग कहते कि अगर वह एम॰ पी॰, एम॰ एल॰ ए॰ का चुनाव लड़ें तो जीत जाएं। पर वह तो राजनीति नाम से चिढ़ते थे। और जब चुनाव-चुनाव कुछ ज्यादा ही उन के नाम के आगे जुड़ने लगा, फिर कुछ राजनीतिक पार्टियों के लोग उन से मिलने भी आने लगे तो वह खीझ गए। कलफ लगा कर खद्दर का सफेद धोती कुर्ता बड़ी शान से पहनने वाले बाबू गोधन सिंह ने अचानक खद्दर पहनना छोड़ कर रंगीन टेरीकाट का कुर्ता और सूती धोती पहननी शुरू कर दी। खद्दर के सभी कुर्ते धोती उन्हों ने अपने हरवाह फेंकुआ को दे दिए। इस फेर में कुछ दिनों तक वह घुड़सवारी के करतब दिखाना भूल गए। वह तो भला हो गोपी कोइरी का कि उसी बीच उस की बेटी की शादी पड़ गई और वह 'दोहाई बाऊ साहब’ कहते हुए उन के दरवाजे पहुंच गया। बाऊ साहब को भी जैसे आक्सीजन मिल गई। वह न सिर्फ अगुवानी के लिए तैयार हो गए बल्कि गोपी कोइरी को पांच सौ एक रुपए भी बिटिया की शादी में बतौर मदद दे बैठे। बोले, ‘न्यौता है ! रख ले!’

फिर तो उस दिन की अगुवानी भी देखने लायक थी।

इधर तुरही-नगाड़ा बजा, उधर बाऊ साहब का घोड़ा दौड़ा। लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली। ऐसी घुड़सवारी बाऊ साहब की लोगों ने पहले कभी देखी नहीं थी। पर बाऊ साहब पर तो जैसे जुनून सवार था घुड़सवारी के करतब दिखाने का।

फिर तो जैसे सिलसिला ही चल निकला। इधर तुरही-नगाड़ा बजता उधर बाऊ साहब का घोड़ा दौड़ता ! अब लोग दूर-दूर से बाऊ साहब की अगुवानी देखने आने लगे। इतने जितने नाच देखने नहीं आते थे। बल्कि कई तो खाना बांध कर साथ लाते थे कि शाम को बाऊ साहब की अगुवानी देखेंगे और रात में नाच ! फिर आने-जाने का कौन झमेला पाले ! तो कुछ चतुर दर्शक बारात में ही पैठ कर भोजन के बहाने ‘आलू परोरा और अरवा चावल’ काट लेते।

बाऊ साहब की अगुवानी अब इस इलाके में किंवदंती बन चली थी। पर बाऊ साहब कितने परेशान और तबाह हैं इस की ख़बर किसी को नहीं थी। वह किसी को पता लगने भी नहीं देते थे। खद्दर की कलफ लगी धोती और कुर्ता भले ही उन से बिसर कर उन की अकड़ के इजाफे को धूमिल करते थे पर लुजलुजे टेरीकाट के कुर्ते में भी उन की मूंछों की कड़क पहले ही जैसी थी।

पर करें तो क्या करें ?

इन कड़क मूछों का वारिस उन्हें नहीं मिल रहा था। सात-आठ बरस बीत गए थे उन की शादी के पर वह संतान सुख से वंचित थे। मार पूजा-पाठ, सोखा- ओझा, झाड़-फूंक, देवता-पित्तर, अनौती-मनौती सब कर धर कर वह हार चुके थे। पर बात थी कि बनती नहीं थी। उल्टे उन की धर्मपत्नी को जब तब चुड़ैल धर लेती थी सो वह परेशान रहने लगे थे। संतान न होने के गम में वह घोड़े बढ़ाते जाते। कुछ पंडितों ने गऊ सेवा की सलाह दी तो उन्हों ने घोड़ों के साथ-साथ गायों की संख्या भी बढ़ा दी। घुड़साल-गऊशाला दोनों ही बराबर थे। गायों का तो गोबर, सानी-पानी भी वह खुद करने लगे। पर बात तब भी नहीं बनी। फिर कुछ लोगों ने बिहार में मैरवां बाबा के थान जाने की सलाह दी।

बाऊ साहब मैरवां बाबा के थान गए। मैरवां जा कर एक संन्यासी साधु की शरण ली। उस के हाव-भाव बाऊ साहब को अच्छे नहीं लगे पर संतान का सवाल था सो चुप लगाए रहे। शुरू में उस ने बाऊ साहब से कुछ पूजा-पाठ करवाए और बबुआइन पर डोरे डाले। पर उस की दाल नहीं गली। फिर उस ने उपवास के आदेश दिए। दिन भर निराजल व्रत और शाम को एक समय फलाहार। दोनों जने के लिए। कहा कि, ‘ब्रह्मचर्य भी दोनों जने के लिए जरूरी है।’ रात में वह लौंग भभूत भी करता। दिन में वह बाऊ साहब को कुछ जड़ी-बूटी ढूंढने के लिए भेजने लगा और बबुआइन से अपनी सेवा करवाता। सेवा करवाते-करवाते वह एक दिन बबुआइन को बाहों में भर कर लिटाने लगा। पहले तो बबुआइन अचकचा गईं और कुछ समझी नहीं और जब तक कुछ समझतीं-समझतीं तब तक वह संन्यासी उन्हें निर्वस्त्र कर चुका था। बबुआइन थीं तो निराजल व्रत और बाऊ साहब जड़ी बूटी ढूंढने के लिए दूर भेजे गए थे सो संन्यासी ने बबुआइन को संतान सुख देने का इरादा बना लिया था। बबुआइन भले निराजल व्रत थीं, दम देह से बाहर था पर उन की पतिव्रता स्त्री ने कहीं भीतर से जाेर मारा और उन्हों ने संन्यासी को दुत्कारते हुए अपने ऊपर से ढकेल दिया। संन्यासी भन्नाया और धर्म-कर्म की धौंस दी। कहा कि, ‘धर्म में अड़चन बनोगी तो संतान सुख नहीं मिलेगा।’ उस ने धमकाया और कहा कि, ‘यह देह भोग भी अनुष्ठान का एक हिस्सा है ! सो अनुष्ठान पूरा होने दो नहीं, बड़ा पाप पड़ेगा।’

बबुआइन ने पलट कर संन्यासी की दाढ़ी नोंच ली और पास पड़ी लौंग भभूत उस की आंखों में झोंक दिया। संन्यासी, ‘अनर्थ-अनर्थ, घोर अनर्थ !’ चीख़ने लगा। बबुआइन बोलीं, ‘कुछ अनर्थ-वनर्थ हमारा नहीं होने वाला। जो होगा, वह तेरा होगा।’ वह देह पर जल्दी-जल्दी कपड़े लपेटती हुई बोलीं, ‘हम से कहता है ब्रह्मचर्य जरूरी है और अपने ‘भोग’ करना चाहता है। मलेच्छ ! तुझे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी!’

‘अब भी कहता हूं कि बुद्धि से कार्य ले मूर्ख औरत ! और अनुष्ठान पूरा हो जाने दे, मुझे भोग करने दे, यही विधान है, प्राचीन विधान है, कइयों को इस से संतान सुख मिल चुका है ! पर तू अभागन है जो अनुष्ठान में बाधा डाल रही है।’ संन्यासी अपनी आंख मलता हुआ बोला।

‘ऐसे मुझे नहीं चाहिए संतान सुख !’ कह कर बबुआइन ने उस आंख मलते संन्यासी को जोर की एक लात मारी ! जाने कहां से बबुआइन में इतनी ताकत आ गई थी। दर्द से कराहता हुआ संन्यासी बोला, ‘छोड़ दे मेरी कुटिया अभागन।’ वह जोर से चीख़ा, ‘और इसी समय छोड़ दे ! तूने मेरा और मेरी कुटिया दोनों का अपमान किया है।’

बबुआइन ने झटपट उस की कुटिया छोड़ते हुए कहा, ‘तू क्या छुड़ाएगा, मैं ख़ुद ही तेरी यह पाप की कुटिया छोड़े जा रही हूं !’ और अभी जब पुलिस आ कर तुझ पर डंडे बजाएगी तब तुझे समझ आएगा कि कैसे संतान के लिए अनुष्ठान में भोग जरूरी होता है।’

‘तो पापिन तू पुलिस के पास जाएगी ?’ वह संन्यासी गुर्राया।

‘बिलकुल जाऊंगी। सौ बार जाऊंगी।’ वह बोलीं।

‘जा अभागन जा !’ संन्यासी बोला, ‘जरूर जा। तुझे संतान सुख जरूर मिलेगा।’

संन्यासी बोला, ‘मुझ से तो तू बच गई, छूट गई मेरे हाथ से, पर पुलिस तुझे नहीं छोड़ेगी। तुझे संतान सुख जरूर देगी।’ उस ने जोड़ा, ‘ऐसा भी बहुत हो चुका है और जो तू समझ रही है कि पुलिस मुझे डंडे लगाएगी तो यह तेरा अज्ञान है औरत! पुलिस यहां डंडे नहीं ‘हफ्ता’ लगाती है। वह क्या खा कर डंडे लगाएगी? हा-हा।’ कह कर वह संन्यासी फिर से चिलम में भरी चरस पीने लगा।

बबुआइन उस की बातें सुन कर एक बार के लिए तो डर गईं। पर जल्दी-जल्दी अपना सामान बांधा और कुटिया के बाहर आ कर बाऊ साहब के इंतजार में बैठ गईं। बाऊ साहब जो संतानोत्पत्ति के अनुष्ठान ख़ातिर जड़ी-बूटी लेने गए थे। कहीं दूर। बहुत दूर।

सांझ घिरते-घिरते बाऊ साहब आ भी गए। बबुआइन को मय सामान के बाहर बैठे देख कर कुछ तो वह खुद ही समझ गए, जो बाकी रहा बबुआइन की आंखों और उन के छलकते आंसुओं ने समझा दिया। बाऊ साहब बबुआइन को ले कर कुटिया के भीतर गए और जिस संन्यासी के रोज सुबह-शाम पांव छूते थे उसे पैरों से दोनों जने मार कर बाहर आ गए। वह संन्यासी चरस में धुत्त था, उस की सेहत पर कुछ असर नहीं पड़ा। बबुआइन के कहे पर बाऊ साहब पुलिस में भी गए। पर जैसा कि उस संन्यासी ने कहा था कि, ‘पुलिस यहां डंडे नहीं हफ्ता लगाती है।’ वैसे ही हुआ। उल्टे बबुआइन ही पुलिस के सवाली फंदे में आ गईं। पुलिस ने उन से रात थाने में रुकने को कहा तो बबुआइन डर गईं। उन्हें उस संन्यासी की कही बात याद आ गई कि, ‘मुझ से बच गई, छूट गई मेरे हाथ से, पर पुलिस तुझे नहीं छोड़ेगी। तुझे संतान सुख जरूर देगी।’ बबुआइन को उस का कहा यह भी याद आया कि, ‘ऐसा भी बहुत हो चुका है।’ बबुआइन ने बाऊ साहब को यह सारी बातें खुसफुस-खुसफुस कर के बताईं तो बाऊ साहब भी सशंकित हुए और खाना खाने के बहाने थाने से रुखसत हुए। हालां कि पुलिस वालों ने उन्हें रोका और कहा कि, ‘भोजन की चिंता मत करें, यहीं मंगवा देते हैं।’ पर बाऊ साहब दो कदम आगे जा कर बोले, ‘अरे जाएंगे कहां, खा कर यहीं आएंगे और यहीं सोएंगे।’ तो पुलिस वाले निश्चिंत हो गए। लेकिन बाऊ साहब निश्चिंत नहीं हुए। वह सवारी ढूंढ कर सीधे छपरा पहुंचे। वहां नहीं रुके। स्टेशन पर कोई गाड़ी नहीं थी रात में तो वहीं वेटिंग रूम में रुक गए। सुबह गाड़ी मिली और वह घर वापस आए।

उदास और परेशान !

गांव में लोग पूछते और बार-बार पूछते कि ‘क्या हुआ ?’ अब क्या हुआ का क्या जवाब देते बाऊ साहब। गांव की ‘ज्ञानी’ और ‘अनुभवी’ औरतें भी बबुआइन से ‘ठिठोली’ फोड़तीं। किसिम-किसिम की। पर बबुआइन लोक लाज के डर से चुप लगा जातीं। लेकिन गांव क्या जवार के लोग भी चुप नहीं थे। सब के सब उम्मीदों की ढेर पर उछल रहे थे कि अब तो बाऊ साहब के ख़ानदान का चिराग आने वाला है। पर उम्मीदों के खोखले ढेर पर आख़िर लोग कब तक उछलते ? दो साल, तीन साल बीत गया और बाऊ साहब के यहां बबुआइन के खटाई खाने का दिन नहीं आया, सोहर गाने का दिन नहीं निकला।

और अब तो गांव जवार के क्या, बाऊ साहब क्या बबुआइन भी परेशान रहने लगीं कि आख़िर ख़ानदान के चिराग बिना वह क्या करेंगी। बाऊ साहब तो घोड़ों में अपनी इस चिंता का घाम उतार लेते थे। पर बबुआइन क्या करें?

हां, क्या करें बबुआइन ?

हार मान कर बबुआइन ने बाऊ साहब को दूसरी शादी कर लेने को कह दिया। न सिर्फ कह दिया बल्कि पूरा दबाव भी डाला और डलवाया। पर बाऊ साहब तैयार नहीं थे। वह कहते, ‘जब संतान सुख लिखा होगा तो एक ही पत्नी से मिल जाएगा। नहीं लिखा होगा तो दो क्या चार शादियां कर लूं नहीं मिलेगा।’

‘शुभ-शुभ बोलिए !’ बबुआइन उन का मुंह पकड़ती हुई कहतीं, ‘ऐसा नहीं कहते,’ और बाऊ साहब चुप रह जाते।

बबुआइन आख़िरकार नहीं मानीं और अपनी एक ममेरी बहन से बाऊ साहब का रिश्ता तय करवा दिया। बारात विदा हुई तो लोढ़ा ले कर बबुआइन ने खुद बाऊ साहब को परीछा। टीका लगाया।

पर बारात विदा होने के बाद जाने क्यों वह रोईं भी और बहुत रोईं। उन को लगने लगा था कि बाऊ साहब अब उन से बिछड़ जाएंगे। उन के नहीं रहेंगे। यही सोचते-सोचते वह और रोने लगतीं। आख़िरकार वह रोते-रोते घुड़साल में चली गईं और एक-एक कर के सभी घोड़ों को दुलराने लगीं। और जब बाऊ साहब के सब से प्रिय घोड़े के पास वह पहुंचीं तो उस से चिपट गईं और फफक-फफक कर रोने लगीं।

सांझ हो गई थी। पर उधर दूल्हा बने बाऊ साहब भी उदास थे। द्वारपूजा की बेला तो वह और भी उदास हो गए। ख़ास कर जब बैंड बाजे के साथ तुरही-नगाड़ा बजा तो वह बेकल हो गए। बहुत दिनों बाद बल्कि उन के लिए तो यह पहली बार हो रहा था कि तुरही-नगाड़ा बज रहा था और उन का घोड़ा और वह अगुवानी में नहीं थे। वह बहुत छटपटाए और एक बार तो उन्हों ने सोचा भी कि दूल्हे की भूमिका से जरा देर छुट्टी ले कर वह अगुवानी की भूमिका में हो लें। लड़की के पिता को बुला कर मजाक ही मजाक में उन्हों ने यह बात ‘मामा जी मामा जी !’ संबोधित कर बड़े मनुहार से कही भी। पर मामा जी सकुचा गए। बोले, ‘आप भी का कहते हैं दामाद जी! आज और एह बेला ई बात भूल जाइए।’ वह बोले, ‘अभी तो आप दूल्हा बाबू हैं। यही बने रहें। इसी में आप की भी शोभा है। और हमारा भी इसी में शोभा है !’

पर डोली के अगल-बगश्ल घोड़ों की पदचाप सुन-सुन कर बाऊ साहब परेशान हो गए। उन्हें अपने प्रिय घोड़े की याद आ गई और साथ ही बबुआइन की भी।

बाऊ साहब बबुआइन के बारे में सोचने लगे कि वह कितना उन्हें चाहती हैं। उन्हें और उन के ख़ानदान को। कि ख़ानदान का चिराग हो इस के लिए वह अपनी सौत तक लाने को तैयार हो गईं। यहां तक कि उन्हें ख़ुद परीछ कर भेजा। वह बबुआइन की याद में भावुक हो गए। उन की आंखें भर आईं। यहां तक कि जब वह अपनी दूसरी पत्नी की मांग में सिंदूर भर रहे थे तब भी उन की आंखों में बबुआइन ही थीं, उन के भावों में बबुआइन ही थीं। वह मांग में सिंदूर ऐसे भर रहे थे जैसे वह बबुआइन की मांग में सिंदूर भर रहे हों। और उन्हें अपने पहले ब्याह की याद आ गई। जब कि इधर ससुराल की औरतें बाऊ साहब के साथ ठिठोली और मजाक पर आमादा थीं। लेकिन बाऊ साहब तो बबुआइन की याद में भींग रहे थे।

आख़िर बाऊ साहब दूसरी बबुआइन को भी ब्याह कर घर पहुंचे। तब भी बड़की बबुआइन, (हां, अब वह बड़की बबुआइन हो गई थीं।) बढ़-चढ़ कर बाऊ साहब और छोटकी को परीछ रही थीं। यहां तक कि सुहागरात के लिए भी छोटकी बबुआइन के पास बाऊ साहब को पकड़ कर बड़की बबुआइन ही ले गईं। बड़की बबुआइन जब बाऊ साहब को छोटकी बबुआइन के कमरे में छोड़ कर आने लगीं तो जाने यह छोटकी बबुआइन से उम्र का गैप था या बड़की बबुआइन से लगाव बाऊ साहब कूद कर बड़की बबुआइन से लिपट कर दहाड़ मार कर रोने लगे। जैसे कोई बच्चा अपनी मां से लिपट कर रो रहा हो। पर बड़की बबुआइन उन्हें समझा बुझा कर चली आईं। लेकिन थोड़ी ही देर बाद बाऊ साहब भाग कर बड़की बबुआइन के कमरे में आ गए। और उन से लिपट गए। धीरे-धीरे बड़की बबुआइन के कपड़े उतारने लगे। बड़की बबुआइन हालां कि बुदबुदाती रहीं, ‘आज की रात हमारी नहीं, छोटकी की है।’ पर बाऊ साहब माने नहीं और यह रात बड़की बबुआइन पर ही न्यौछावर कर गए।

दूसरी सुबह बड़की बबुआइन ने छोटकी से माफी मांगी और कुछ ‘गुन’ भी उसे बताए बिलकुल भौजाई अंदाज में। ऐसे जैसे भाभी ननद को बताए।

लेकिन बाऊ साहब तो बाऊ साहब ! बड़की बबुआइन का पल्लू छोड़ते ही नहीं थे। हार मान कर बड़की बबुआइन कुछ काम निकाल कर नइहर चली गईं।

वापस आईं तो बिलकुल धर्म की गठरी बन कर। गोया बड़की बबुआइन नहीं संन्यासिन हों। बाऊ साहब भी तब तक छोटकी बबुआइन में रम गए थे। पर बड़की बबुआइन का यह संन्यासिन रूप उन्हें चौंका गया। वह तो बाद में बड़की बबुआइन ने उन्हें इस का राज बताया कि ख़ानदान के चिराग के लिए यह पूजा पाठ बहुत जरूरी है। छोटकी बबुआइन के रूप जाल में रीझ चुके बाऊ साहब भी आंख मूंद कर मान गए। अब अलग बात है कि गांव में लोग खुसफुसाते कि भरी जवानी में बड़की बबुआइन सधुआइन होइ गईं !

आलम यह था कि बड़की बबुआइन पूजा पाठ में रम गई थीं और बाऊ साहब छोटकी बबुआइन में। कई बार यह भी होने लगा कि छोटकी बबुआइन, बड़की बबुआइन को हाशिए पर रखने लगीं, उन्हें अपमानित करने लगीं। जिसे बड़की बबुआइन इतने दुलार से लाई थीं वही अब उन की सौत बनने लगी। बड़की बबुआइन ने कभी इस का बुरा नहीं माना। सब कुछ वह हंस कर टाल जातीं। लेकिन बाऊ साहब छोटकी बबुआइन की गुलामी में इतने अंधे हो गए कि बड़की बबुआइन का अपमान उन्हें दिखाई ही नहीं देता था। हां, यह जरूर था कि बड़की बबुआइन के लाख ‘नहीं-नहीं’ रटने के बाजवूद बाऊ साहब कभी-कभी उन के साथ भी रात गुजार लेते थे।

मन फेर वास्ते।

छोटकी बबुआइन के आए तीन-चार साल होने लगे पर समय बाऊ साहब का नहीं बदला। न ही उन का दुर्भाग्य। छोटकी बबुआइन के सारे ‘गुन-जतन’ और बड़की बबुआइन के लाख पूजा-पाठ के बावजूद बाऊ साहब के ख़ानदान के चिराग का दूर-दूर तक पता नहीं था। छोटकी बबुआइन के खटाई खाने के दिन का इंतजार, इंतजार ही बना रह जाता। उल्टे अब होने यह लगा कि बड़की बबुआइन के साथ-साथ छोटकी बबुआइन को भी चुड़इल धरने लगी थी। अब की बार बाऊ साहब ने सोखा-ओझा के अलावा डॉक्टरों की भी सेवाएं लेनी शुरू कर दी थीं।

पर सब बेअसर था।

गांव में चरचा चल पड़ी कि बाऊ साहब के भाग्य में संतान नहीं बदा है। अब जो पट्टीदार दूर-दूर रहते थे, जलन रखते थे, वह भी अब करीब आने लगे, मीठा व्यवहार करने लगे। क्या तो बाऊ साहब की जमीन-जायदाद आख़िर कौन संभालेगा?

एक तरह से कंप्टीशन ही लग गया था कि कौन पट्टीदार बाऊ साहब का ज्यादा सगा है। सब उन की ख़ातिरदारी में लगे रहते। पर बड़की बबुआइन सब कुछ समझते हुए भी अनजान बनी पूजा-पाठ में लगी रहतीं। छोटकी बबुआइन को भी वह पूजा-पाठ के लिए समझातीं पर वह उन की सुनती ही नहीं थीं। समय धीरे-धीरे कटता जा रहा था साथ ही बड़की बबुआइन की चिंताएं भी। बाऊ साहब तो अपने घोड़ों और द्वारपूजा की अगुवानी में फिर से मगन हो गए थे। लेकिन बड़की बबुआइन बड़े पशोपेश में थीं कि आख़िर बाऊ साहब के ख़ानदान का चिराग कहां से लाएं ?

एकाध बार उन्हों ने किसी बच्चे को गोद लेने की भी बात बाऊ साहब से चलाई।

लेकिन बाऊ साहब ने न इंकार किया न हां किया। वह टाल गए।

उन्हीं दिनों एक युवा ब्राह्मण बड़की बबुआइन को पोथी सुनाने आने लगा। पोथी सुनाते-सुनाते वह बड़की बबुआइन की छलकती देह भी देखने लगा। बड़की बबुआइन भी अब चालीस की उम्र छू रही थीं। पर उन की गोरी चिट्टी देह, देह का गठाव उन्हें तीस-पैंतीस से नीचे का ही भास दिलाता था। संतान न होने के नाते भी उन की देह ढली नहीं थी, उठान पर थी। ब्राह्मण था भी तेइस-पच्चीस बरस का। पोथी सुनाते-सुनाते वह अनायास ही बड़की बबुआइन की उठती-गिरती छातियां देखने लगता। भगवान ने भी बड़की बबुआइन को संतान भले नहीं दिया था पर सुंदरता और सुंदर देह देने में कंजूसी नहीं की थी। बड़की बबुआइन जब चलतीं तो उन के नितंबों को ही देख कर लोग पागल हो जाते।

और वह युवा ब्राह्मण ?

वह तो जैसे उन का उपासक ही बन चला। बड़की बबुआइन के आगे उस का ब्रह्मचर्य गलने लगता। लेकिन बड़की बबुआइन युवा ब्राह्मण की इस उपासना से बेख़बर भगवान की ही उपासना में लीन थीं। युवा ब्राह्मण यह तो जानता था कि बड़की बबुआइन संतान के लिए लालायित हैं सो एक दिन हिम्मत कर उस ने महाभारत की कथा बांचनी शुरू कर दी। बड़की बबुआइन ने ब्राह्मण को मना भी किया कि, ‘महाभारत वह न सुनाएं। महाभारत सुनने से घर में झगड़ा होता है।’ पर युवा ब्राह्मण उन्हें महाभारत सुना देने पर आमादा था। कहा कि, ‘एक-दो अध्याय सुनने से कोई हानि नहीं होती।’ बड़की बबुआइन मान गईं। तो ब्राह्मण ने महाभारत का वह प्रसंग बड़की बबुआइन को सुनाना शुरू किया जिस में ऋषि वेद व्यास नियोग से अंबिके, अंबालिके और दासी को संतान सुख देते हैं। ब्राह्मण ने इस कथा को पूरे मनोयोग, पूरे लालित्य और पूरे विस्तार से सुनाया और उस ने पाया कि कथा सुन कर बड़की बबुआइन विचलित भी हुईं। फिर उन्हों ने बात ही बात में ब्राह्मण से पूछा भी कि, ‘नियोग क्या आज के युग में भी संभव है ?’ युवा ब्राह्मण का ब्रह्मचर्य भले बड़की बबुआइन के आगे गल रहा था पर ईमान अभी नहीं गला था। उस ने साफ बता दिया कि, ‘मेरी जानकारी में आज के युग में नियोग संभव नहीं है फिर....’ कह कर वह चुप हो गया।

‘फिर क्या ?’ बड़की बबुआइन में उत्सुकता जागी।

‘संतान के लिए किसी ब्राह्मण की मदद लेना भी धर्म ही है।’ वह युवा ब्राह्मण संकोच बरतते हुए बोला।

‘क्या बात करते हैं पंडित जी !’ नाराज होती हुई बड़की बबुआइन उस ब्राह्मण से बोलीं, ‘अब आप जाइए !’ ब्राह्मण चुपचाप चला गया। फिर नहीं आया। बड़की बबुआइन ने बुलवाया भी नहीं।

कुछ दिनों बाद जब बड़की बबुआइन का चित्त स्थिर हुआ तो उन्हों ने उस युवा ब्राह्मण को बुलवा भेजा। वह ब्राह्मण आया और फिर से पोथियां पढ़ने लगा। दिन बीतने लगे। एक दिन बड़की बबुआइन ने भरी दुपहरिया में उस युवा ब्राह्मण से फिर महाभारत में वर्णित ऋषि वेद व्यास द्वारा अंबिके, अंबालिके और दासी को नियोग से संतान सुख देने की कथा सुनाने को कहा। पहले तो युवा ब्राह्मण ने उन्हें मना कर दिया पर जब बड़की बबुआइन का इसरार ज्यादा बढ़ा तो ऋषि वेद व्यास का नियोग प्रसंग वह ब्राह्मण सुनाने लगा। नियोग प्रसंग सुनते-सुनते कब बड़की बबुआइन उस के चरणों में लेट गईं उसे पता ही नहीं चला। जब पता चला तो पहले तो वह घबराया कि कहीं अनर्थ न हो जाए, कहीं बड़की बबुआइन नाराज न हो जाएं पर जल्दी ही उस ने हिम्मत बटोर का बबुआइन के गाल पर पड़े आंसुओं को धोती की कोर से पोंछा। फिर उन के बालों को सहलाया। और जब देखा कि बड़की बबुआइन जागी हुई भी हैं पर आंखें बंद किए निष्चेष्ट लेटी पड़ी हैं तब धीरे से उस ने एक हाथ नीचे से उन के नितंबों पर फेरा और दूसरा उरोजों पर। बड़की बबुआइन एक क्षण के लिए तो कुनमुनाई कसमसाईं पर दूसरे ही क्षण वह आंखें बंद किए-किए समर्पिता के भाव में आ गईं। ब्राह्मण युवा था और अनुभवहीन भी। जल्दी ही स्खलित हो गया। बड़की बबुआइन उदास हो गईं। पर क्या करें अब तो वह उस के आगे समर्पित हो चुकी थीं। इज्जत तो गंवा ही चुकी थीं और संतान प्राप्ति की लालसा भी उन्हें दबोचे हुई थी। संतान प्राप्ति की लालसा में अब वह हर भरी दुपहरिया में उस युवा ब्राह्मण के आगे समर्पित होने लगीं। वह ब्राह्मण बाऊ साहब की तरह उन्हें पूरी तरह तृप्त तो नहीं कर पाता था पर बड़की बबुआइन भी उस के साथ देह नहीं, संतान जीती थीं। मन में एक मलाल भर कर कि, ‘यह तो पाप है।’ पर अब वह करें तो भी तो क्या ? संतान की चाह में पतिव्रत धर्म और इज्जत वह दोनों ही गंवा चुकी थीं। सब कुछ के बावजूद वह उदास भी रहने लगीं। ब्राह्मण उन्हें बहुत बहलाने की कोशिश करता पर एज गैप सामने आ जाता। वह छोटा पड़ जाता। दीन तो वह था ही, हीन भी हो जाता। पर धीरे-धीरे बड़की बबुआइन को लगने लगा कि अब इस युवा ब्राह्मण से भी उन्हें तृप्ति मिलने लगी है। और कभी-कभी तो वह बाऊ साहब से भी ज्यादा तृप्ति दे देता।

बाऊ साहब एक बार में ही करवट बदल लेते। पर यह युवा ब्राह्मण करवट ही नहीं बदलता। घंटे भर में ही दो बार-तीन बार तृप्त करता। वह तृप्त करता और बबुआइन उसे भरपूर दक्षिणा देतीं।

इस देह तृप्ति और दक्षिणा का संयोग आखि़र रंग लाया। बड़की बबुआइन की मंथली इस बार रुक गई। उन की कोख हरी हो गई। वह खुशी से दोहरी हो गईं। उस दुपहरिया वह युवा ब्राह्मण के प्रति ज्यादा कृतज्ञ थीं। ज्यादा तृप्त भी हुईं। फिर उस को ऐसे चूमती रहीं जैसे वह उन के होने वाले बच्चे का पिता नहीं, ख़ुद होने वाला बच्चा हो।

पर बड़की बबुआइन ने यह बात तुरंत-तुरंत किसी को नहीं बताई। बाऊ साहब को भी नहीं कि कहीं उन्हें कोई शक न हो जाए। ख़ुद तो वह खुशी से समायी न फूलतीं। पर वह खुशी किसी और पर जाहिर नहीं करतीं। एक तो मारे लाज से। दूसरे, टोने-टोटके के डर से। फिर एक डर यह भी था कि कहीं गर्भ पक्का न हो तो ? कुछ अपशकुन हो जाए तो ? पर जब दूसरे और तीसरे महीने भी मंथली नहीं हुई और उलटियां शुरू हो गईं तो गांव भर में बाऊ साहब ने लड्डू बंटवाए। मंदिर-तीर्थ किए और बड़की बबुआइन के लिए लेडी डॉक्टर का प्रबंध किया। संयोग देखिए की बड़की बबुआइन ने बेटे को जन्म दिया। बधावे बजने लगे। घर में औरतें सोहर गाने लगीं और बाहर हिजड़े नाचने लगे। नगाड़ा-तुरही बजने लगे।

गांव झूम उठा। बाऊ साहब की ख़ुशी में सभी शरीक थे। और बाऊ साहब? वह तो अपना प्रिय सफेद घोड़ा ऐसे दौड़ाते जैसे वह चेतक हो और खुद राणा प्रताप !

लेकिन इस सारे क्रम में कोई अगर दुःखी था तो दो लोग। एक तो बाऊ साहब के पट्टीदार और दूसरे छोटकी बबुआइन। पर यह लोग अपना दुःख जाहिर नहीं करते।

और वह युवा ब्राह्मण ?

उस की तो जैसे लाटरी खुल गई।

बाऊ साहब ने उसे पांच बीघा जमीन दे कर उस की एक कुटिया कम आश्रम बनवा दिया। क्या तो बड़की बबुआइन का पूजा-पाठ और इस ब्राह्मण के आशीर्वाद से ही बाऊ साहब को संतान सुख मिला था।

सच भी यही था।

बड़की बबुआइन ने भी उस युवा ब्राह्मण की सेवा में कसर नहीं छोड़ी। पर साथ ही उस की पोथी-पत्र की कसम भी ले ली कि वह इस राज को राज ही रहने देगा, मर जाएगा पर भेद नहीं खोलेगा। वह और तो सब कुछ मान गया, अपने मन और जबान पर लगाम लगा लिया पर तन का वह क्या करे ? वह बार-बार मौका देख कर बड़की बबुआइन के सामने याचक बन कर खड़ा हो जाता। पर बड़की बबुआइन उस की याचना के आगे पिघलती ही नहीं थीं। उन्हें वैसे भी देह सुख की तलाश नहीं थी। संतान सुख की तलाश उन की पूरी हो ही चुकी थी। लेकिन वह युवा ब्राह्मण बिना बड़की बबुआइन की देह फिर भोगे छोड़ने वाला नहीं था। आख़िर बड़की बबुआइन को उस के आगे झुकना ही पड़ा। उस की देह के नीचे आना ही पड़ा। वह युवा ब्राह्मण भी अब ढीठ हो चुका था और ‘अनुभवी’ भी।

धीरे-धीरे बड़की बबुआइन को भी उस से सुख मिलने लगा। वह देह सुख में डूबने लगीं। और बाऊ साहब ? उन्हें लगता बाऊ साहब अब बुढ़ा रहे हैं। देह लीला अब उन के मान की नहीं रही। सो अब वह थीं, ढींठ और अनुभवी हो चला युवा ब्राह्मण था, उस का आश्रम था और देह भोग था। नतीजा सामने था बड़की बबुआइन के पांव फिर भारी थे।

खुशियां फिर छलछलाईं।

अब वह दो बेटों की मां थीं। धीरे-धीरे युवा ब्राह्मण की कृपा से वह ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ को चरितार्थ करती हुई अब तीन-तीन बेटों की मां बन चली थीं। एक बेटे की शक्ल तो बड़की बबुआइन से मिलती थी पर बाकी दो किस पर गए थे यह बाऊ साहब के लिए शोध का विषय था। क्यों कि उन पर तो एक भी बेटा नहीं गया था। फिर भी वह यही सोच कर खुश थे कि अब उन के तीन-तीन बेटे हैं।

लेकिन छोटकी बबुआइन खुश नहीं थीं। उन की हालत अब बिगड़ती जा रही थी। बड़की बबुआइन के तीन-तीन बेटे और उन के एक भी नहीं। तब जब कि बाऊ साहब संतान सुख के लिए ही उन्हें ब्याह कर लाए थे। बड़की बबुआइन की तरह छोटकी बबुआइन ने भी अब पूजा-पाठ शुरू कर दिया। एक बार बाऊ साहब से वह मैरवां बाबा के थान चलने के लिए भी अड़ीं पर बाऊ साहब ने उन्हें डांट दिया। बोले, ‘वहां सब अघोड़ी रहते हैं।’

अंततः छोटकी बबुआइन ने भी पोथी सुनना शुरू किया लेकिन उन का ब्राह्मण युवा नहीं, बूढ़ा था। दूसरे, छोटकी बबुआइन का लावण्य भी अब जाता रहा था। मारे कुंठा के वह घुलती जा रही थीं। पर देह सुख की लालसा उन की अभी मरी नहीं थी। तिस पर बाऊ साहब उन के लिए पूरे नहीं पड़ते थे। महीने में दो एक बार ही उन के पास आते और जल्दी ही छितरा कर छिटक जाते। छोटकी बबुआइन भुखाई की भुखाई रह जातीं, तृप्त भी नहीं हो पातीं। हार मान कर वह बाऊ साहब से चिपटने लगतीं तो आजिज आ कर बाऊ साहब उठ कर बड़की बबुआइन के कमरे में चले जाते।

तो क्या करें अब छोटकी बबुआइन ?

हार मान कर वह बड़की बबुआइन की शरण में गईं। वह जैसे बड़की बबुआइन की दासी सी बन गईं। बहुत सेवा करने के बाद आख़िर एक रोज उन्हों ने बबुआइन से पूछ ही लिया राज की बात। बोलीं, ‘दीदी एक बात पूछूं?’

‘पूछो !’ दर्प में ऊभ-चूभ बड़की बबुआइन बोलीं।

‘आख़िर कौन सा उपाय करती हैं जो आप के एक नहीं तीन-तीन बेटे हो गए!’ वह बड़की बबुआइन की मनुहार करती, लजाती हुई बोलीं, ‘हम को भी बता न दीजिए दीदी ! जिंदगी भर आप के चरणों में रहूंगी।’ कह कर छोटकी बबुआइन, बड़की बबुआइन के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाईं। लेकिन बड़की बबुआइन सिर पर पल्लू रखती हुई उठ खड़ी हुईं। और बिन कुछ बोले चली गईं। लेकिन छोटकी बबुआइन ने भी जैसे ठान ही लिया था। वह जब तब सांझ-सवेरे, रात-दुपहरिया बड़की बबुआइन के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगतीं, ‘हम को भी बता न दीजिए दीदी !’ पर बड़की बबुआइन चुप लगा जातीं। आख़िर वह बतातीं भी तो क्या बतातीं? लेकिन जब ‘हम को भी बता न दीजिए दीदी !’ का दबाव बहुत बढ़ गया तो बड़की बबुआइन एक दिन पिघल गईं। छोटकी पर उन्हें दया आ गई। पल्लू सिर पर रखती और पांव फैलाती हुई उन्हों ने संतान सुख का सूत्र दे दिया, ‘बाऊ साहब के भरोसे रहोगी तो कुछ नहीं होगा।’ वह खुसफुसाईं, ‘अपना इंतजाम खुद करो !’ कह कर वह किंचित मुसकुराईं। ऋषि वेद व्यास की नियोग कथा बरास्ता अंबिके, अंबालिका सुनाई और बोलीं, ‘लेकिन सावधानी से किसी को पता न चले। आख़िर ख़ानदान की इज्जत का सवाल है।’ और फिर उदास हो कर लेट गईं। छोटकी बबुआइन बड़ी देर तक उन के पांव दबाती रहीं।

संतान सुख का सूत्र छोटकी बबुआइन के हाथ भी लग ही गया था। जल्दी ही उन के भी पांव भारी हो गए। छोटकी बबुआइन का ब्राह्मण भी बूढ़ा भले था पर इतना भी नहीं कि संतान सुख न दे सके। पर छोटकी बबुआइन को तो सिर्फ संतान सुख ही नहीं, देह सुख की भी तलाश थी। अंततः उन्हों ने भी एक युवा ब्राह्मण तलाश लिया था जो दीन भी था और हीन भी लेकिन देह सुख और संतान सुख देने में प्रवीण और निपुण। देखते-देखते छोटकी बबुआइन के भी तीन संतानें हो गईं। दो बेटा, एक बेटी। उधर बड़की बबुआइन के भी एक बेटी हो गई थी। इस तरह बाऊ साहब के जहां संतान नहीं होती थी और अब सात-सात संतानें हो गई थी। खर्चे बढ़ गए थे। ज्यादातर खेत सीलिंग में फंस गए थे जो बचे थे खर्च निपटाने के चक्कर में बिकने लग गए थे। सब से ज्यादा खर्च बाऊ साहब का घोड़ों पर था और बच्चों पर। आठ घोड़ों में से अब तीन घोड़े ही उन के पास रह गए थे। इन में भी दो बूढ़े़। वह परेशान रहने लग गए थे। पट्टीदारों के घरों से हाथियां हट गई थीं, पर बाऊ साहब के घर से घोड़े नहीं। घोड़े और घुड़सवारी जैसे उन की सांस थे। साल दर साल खेत बिकते जा रहे थे और खर्च बढ़ता जा रहा था। तिस पर तीन घोड़े वह नए ख़रीद कर लाए थे।

‘लेकिन सिर्फ घोड़े भर ख़रीद लेने से तो काम चलता नहीं, घोड़ों को चना भी चाहिए होता है।’ छोटकी बबुआइन एक दिन भुनभुनाईं। सुनते ही बाऊ साहब गुस्से से लाल-पीले हो गए। और एक झन्नाटेदार थप्पड़ लगा दिया। यह पहली बार था जब बाऊ साहब ने किसी औरत पर हाथ उठाया था। हाथ उठा कर वह भी पछताए। लेकिन वह करते भी तो क्या करते ? पहली बार ही किसी ने उन से उन के घोड़ों के बाबत सवाल उठाया था। वह एक बार मौत मंजूर कर सकते थे पर उन के घोड़ों की शान में कोई बट्टा लगा दे यह उन्हें मंजूर नहीं था। वह चाहे कोई भी हो।

पर खर्चे कैसे रोकें ?

आख़िर एक दिन उन्हों ने बड़की-छोटकी दोनों बबुआइनों को बुला कर एक साथ बैठाया। खर्चे काबू करने पर राय मशविरा किया और उठने से पहले फरमान जारी कर दिया। दोनों बबुआइनों से साफ-साफ कह दिया बाऊ साहब ने कि अब उन्हें और बच्चे नहीं चाहिए। उन्हों ने अंगरेजी शब्द ‘बर्थ कंट्रोल’ का भी इस्तेमाल किया। उन को लगा कि बबुआइनें जाने मानें या न मानें सो ‘गवर्मेंट’ का डर भी दिखाया और बताया कि, ‘यह सिर्फ हम ही नहीं गवर्मेंट भी कहती है कि बर्थ कंट्रोल करो।’ उन्हों ने जोड़ा ‘नहीं जेल भेज देगी।’

दोनों बबुआइनों ने आंखों-आंखों में एक-दूसरे को देखा और सचमुच डर गईं।

सवाल था कि वह दोनों बबुआइनें तो परहेज कर जाएं। लेकिन उन युवा ब्राह्मणों का वह क्या करें ?

बड़की बबुआइन ने तो अपने को कंट्रोल कर लिया और ब्राह्मण को भी समझा कर बर्थ कंट्रोल कर लिया। लेकिन छोटकी ?

वह अपने आप को ही कंट्रोल नहीं कर पाईं। देह सुख के फेर में पड़ कर फिर से गर्भवती हो गईं। अब वह क्या करें ? दिक्कत यह भी थी कि इन दिनों बाऊ साहब भी बर्थ कंट्रोल के फेर में छोटकी के पास नहीं जाते थे और छोटकी बबुआइन गर्भवती हो गई थीं। अब वह कहां मुंह दिखाएं। बाऊ साहब को क्या जवाब दें ?

अंततः वह एक चमाइन से पेट मलवाने लगीं कि बच्चा गिर जाए। पर कुछ नहीं हुआ। उन्हों ने बहुत दिनों बाद चुड़इल धरने का भी टोटका किया कि सोखा-ओझा की मार पीट से बच्चा गिर जाए। बच्चा तब भी नहीं गिरा। फिर वह चुपके-चुपके एक झोला छाप डॉक्टर के इलाज में पड़ गईं। बच्चा तो पूरा नहीं गिरा, वह जरूर मर गईं।

बाऊ साहब बहुत दुखी हुए और नाराज भी। उस झोला छाप डॉक्टर को जूतों-लातों से ख़ूब मारा। और पुलिस के हवाले कर दिया। उसे जेल जाना पड़ा। पर जेल जाते-जाते उस ने सच भाख दिया। वह भी सार्वजनिक। बाऊ साहब जैसे आसमान से गिरे। गिरे तो महीनों बिस्तर से उठे नहीं। वह तो बड़की बबुआइन की सेवा और तपस्या ने उन्हें जिला दिया नहीं, डॉक्टर तो जवाब ही दे चुके थे।

बाऊ साहब के इलाज में खर्चा बहुत हो गया था। इतना कि बड़की बबुआइन को उन के घोड़े तक बेचने पड़ गए। पर जब बाऊ साहब ठीक हो कर खड़े हुए बड़की बबुआइन ने खुद कर्जा कुर्जी जुगाड़ कर बाऊ साहब के लिए सफेद घोड़ा ख़रीद दिया था क्यों कि वह जानती थीं कि बिना घोड़े के बाऊ साहब जी नहीं सकते थे। और सचमुच बाऊ साहब घोड़ा देखते ही जीन कस कर उस पर सवार हो उसे सरपट दौड़ाने लगे। उन के पहले जैसे दिन फिर वापस आ गए। वह फिर से शादी की द्वारपूजा की अगुवानी करने लगे उसी आन, उसी बान और उसी शान से।

पर यह कितने दिन चल सकता था? सात-सात बच्चों का खर्च, बेटियों की शादी की चिंता तिस पर घोड़े का शौक। बाऊ साहब के लिए अब यह सब कुछ भारी पड़ता जा रहा था। आख़िर कब तक खेत बेंच-बेंच कर वह घोड़ा ख़रीदें और उसे खिलाएं ? वह सोचते और सो जाते।

अब होने यह लगा था कि जैसे पहले बाऊ साहब अगुवानी करते थे तो साथ में लड़की के पिता को न्यौता के नाम पर कुछ मदद भी जरूर करते थे। लेकिन अब जब वह अगुवानी करते थे तो घोड़े की ख़ुराक के नाम पर कुछ मदद ले लेते थे।

विवशता थी उन की यह लोग भी समझते थे। लेकिन इस सब के बावजूद उन की अगुवानी देखने वाले दर्शकों का तांता नहीं टूटा था। दर्शकों का ग्राफ उल्टे बढ़ा ही था। एक तरह से मान लिया गया था कि जिस द्वारपूजा की अगुवानी बाऊ साहब न करें, वह शादी, शादी नहीं।

पर जल्दी ही भ्रम टूटा। लोगों का भी और बाऊ साहब का भी।

बाऊ साहब के लिए वैसे भी अगुवानी तो मात्र बहाना थी, उन का मकसद तो पहले ही से उन के मन में साफ था कि उन की घुड़सवारी लोग देखें। बस ! घुड़सवारी में उन के प्राण बसते थे। पर यह शौक अब उन के लिए दिन-ब-दिन शाही शौक बनता जा रहा था। खेत बिकते जा रहे थे। फिर कुछ लोगों ने बाऊ साहब को समझाया कि अब आज का घोड़ा तो मोटर साइकिल है। एक बार ख़रीद लीजिए और जब चलाइए तभी पेट्रोल भरवाइए। घोड़े की तरह नहीं कि बैठा कर भी चना खिलाइए।

बात बाऊ साहब की समझ में आ गई थी। उन्हों ने फिर खेत बेंचा और एक राजदूत मोटर साइकिल ख़रीदी।

पर अब यह राजदूत मोटर साइकिल चलाए कौन ? बाऊ साहब ने इस राजदूत मोटर साइकिल को चलाने के लिए बाकायदा वेतन दे कर एक ड्राइवर रखा। दो बरस में उन्हों ने तीन मोटर साइकिल ख़रीदी और चार ड्राइवर बदले। पर जो बात घुड़सवारी में थी वह इस मोटर साइकिल में नहीं बनी। एक तो उन्हें सिकुड़ कर पीछे बैठना पड़ता था और उन्हीं की तनख़्वाह पाने वाला सीना तान कर आगे बैठता था। फिर भी वह मूंछें ऐंठ कर गर्दन आगे निकाल कर बैठते। लोग कहते भी थे कि, ‘वो देखो घोड़े वाले बाऊ साहब जा रहे हैं।’ तो उन्हें बुरा लगता। बहुत बुरा। दूसरे उन्हें जितने भी ड्राइवर मिले सब बेइमान मिले।

हरदम मोटर साइकिल बिगाड़ देते और बनवाने के नाम पर मैकेनिक से मिल कर मोटर साइकिल के पार्ट बदलवा देते। कुछ दिन में फिर मोटर साइकिल कबाड़ा हो जाती।

औने-पौने दामों में बेचना पड़ता। वह परेशान हो गए। मोटर साइकिल बेचते-ख़रीदते। दूसरे घुड़सवारी जैसा चैन भी उन्हें इस सवारी में नहीं मिलता था। हार मार कर उन्हों ने मोटर साइकिल बेंच दी और फिर नहीं ख़रीदी।

पर बिना सवारी किए वह जीते तो कैसे भला ? उन की सांस फूलने लगी। तो क्या वह फिर से घोड़ा ख़रीदें ?

पर वह घोड़े के खर्चे से डर गए। फिर उन्हों ने बहुत सोच समझ कर एक बैलगाड़ी बनवाई। एक जोड़ी बढ़िया बैल ख़रीदे। ख़ास इस बैलगाड़ी के लिए। इन बैलों को वह हल में नहीं जुतने देते थे शुरू में। फिर बाद में वह हल में भी जुतने लगे। पर इन बैलों का फिर भी ख़ास ख़याल रखते थे बाऊ साहब। फिर जब बैलगाड़ी में इन बैलों को बांध कर बाऊ साहब चलते, इन बैलों के गले में बंधी घंटियां जब खन-खन बजतीं तो बाऊ साहब का रोयां-रोयां पुलकित हो जाता। लोग कहते भी कि, ‘वो देखो घोड़े वाले बाऊ साहब जा रहे हैं।’ यह सुन कर उन्हें जरा धक्का सा लगता पर दूसरे ही क्षण वह फिर से मूंछें ऐंठ कर बैलों की लगाम ढीली कर उन की पूंछें ऐंठने लगते तो यह बैल भी घोड़े की तरह तो नहीं लेकिन दौड़ने जरूर लगते थे। बैलों का यह दौड़ाना भी बाऊ साहब को अच्छा लगता।

वह लोगों से कहते भी कि, ‘उस निगोड़ी मोटर साइकिल से तो ठीक ही है यह बैलगाड़ी। सिकुड़ कर पीछे तो नहीं बैठना पड़ता। और उस से भी बड़ी बात कि लगाम अपने हाथ में है। न सही घोड़े की, बैलों की ही लगाम। लगाम तो है अपने हाथ।’ बाऊ साहब यह कह कर ठसक से भर जाते और मूंछें ऐंठने लग जाते।

और द्वारपूजा की अगुवानी ?

अगुवानी अब वह भूल गए थे। गांव में भी किसी लड़की की शादी पड़ती तो वह कोशिश कर के गांव से बाहर चले जाते कि जब घोड़ा ही नहीं तो कैसी द्वारपूजा, कैसी अगुवानी ?

पर बैलगाड़ी ?

बैलगाड़ी तो वह दौड़ाते। कुछ लोग कहते भी कि, ‘क्या हो गया है बाऊ साहब को? दुनिया बैलगाड़ी से तरक्की कर जेट, कंप्यूटर और ऐटम युग में जा रही है और बाऊ साहब बैलगाड़ी और बैलों की लगाम में ही लगे बैठे हैं?’ बाऊ साहब ऐसा कहने वालों से कोई तर्क नहीं करते। कहते, ‘यह तो अपने मन और चैन की बात है।’

पर एक बार जब उन का बेटा एक बोरा गेहूं बेंच कर सिर्फ एक जूता ख़रीद कर लाया,एक्शन जूता। तब उन्हों ने जब उसे टोका तो वह भी कहने लगा ‘बाबू का चाहते हैं कि हमहूं आप की तरह बैलगाड़ी युग में जिएं ?’ सुन कर बाऊ साहब सकते में आ गए।

इसी बीच एक घटना और घटी। उन के दूसरे बेटे का गांव के एक पट्टीदार के लड़के से झगड़ा हुआ। तो बाऊ साहब उस पर नाराज हो गए। पंचायत बैठी तो बाऊ साहब जानते थे कि पट्टीदार का लड़का मैरवां बाबा के थान की ‘कृपा’ से पैदा हुआ था। बात ही बात में वह उसे दोगला कह बैठे। बोले, ‘जानता हूं मैरवां के दोगली संतान !’ फिर क्या ? पट्टीदार भी अपनी पर आ गया। बोला, ‘तो बाऊ साहब आप के यहां ही कौन सब कुछ ठीक ठाक है ? आप के भी सभी पुत्र ऋषि पुत्र ही हैं।’ वह बोला, ‘आप आंख मूंदें तो मूंदें समूचा गांव थोड़े ही आंख मूंदेगा।’

सुन कर बाऊ साहब मरने मारने पर आमादा हो गए।

घर आ कर बड़की बबुआइन से जिरह करने लगे। बड़की बबुआइन बोलीं, ‘लोगों का क्या है जो चाहे कह दें। पर आप कैसे मान गए इस बात को ? आप तो जानते हैं सब भगवान के आशीर्वाद से है।’ बड़की बबुआइन बोलीं, ‘फिर आप काहे इन नीचों के मुंह लगते हैं ?’

पर बड़की बबुआइन उस रोज बाऊ साहब से हरदम की तरह आंख मिला कर ई सब नहीं बोलीं। बाऊ साहब उदास हो गए और बिना खाना खाए ही रात सो गए।

पर नींद थी कहां ?

बाऊ साहब के पास घोड़ा नहीं था, यह वह मन मार कर बर्दाश्त कर गए थे पर अब आन भी न रहे यह उन्हें बर्दाश्त नहीं था। करवट बदल-बदल कर वह सोचते रहे। वह अपने आप ही से बुदबुदाए भी कि, ‘अगर यह सब साले ऋषि पुत्र हैं तो अच्छा था कि वह निःसंतान ही रहते। निरवंश ही रहते। आख़िर क्या जरूरत थी उधार के अंश से वंश चलाने की ? कौन राजपाट था जो राजगद्दी ख़ाली रह जाती? रही बात खेती-बारी की तो वह भी तो अब बिकती ही जा रही है।’ वह बुदबुदाते रहे और अकुलाते रहे। अफनाते रहे और बार-बार, फिर-फिर यही सोचते रहे कि यह सब क्या सचमुच ऋषि पुत्र हैं ? मतलब दोगले हैं ? उन के अपने अंश नहीं हैं? उन के अपने खून नहीं हैं ? तो कौन हैं ये सब ? आख़िर किस ऋषि की संतानें हैं ये सब ? कहीं पूजा-पाठ करने वाले उन ब्राह्मणों की तो नहीं ? उन की शकलों से बच्चों की शकल की मिलान भी वह ख़यालों ही ख़यालों में करने लगे।

उलटी-सीधी और तमाम बातें सोचते-सोचते सुबह हो गई थी पर बाऊ साहब की आंखों में नींद नहीं समाई।

नींद आंखों में कैसे समाती भला ? वह तो बेकल थे।

इस विकलता का कोई जवाब भी उन्हें ढूंढ़े नहीं मिलता था। छोटकी बबुआइन तो पाप की गठरी बन कर मर चुकी थीं, बड़की बबुआइन सब कुछ भगवान पर छोड़ देतीं। उन ब्राह्मणों से पूछने की हिम्मत नहीं होती थी बाऊ साहब की। कहीं श्राप दे दें सब तो ? और फिर इस सवाल को सार्वजनिक रूप से कुरेदने में अपनी ही बेइज्जती थी। सो वह इस सवाल को मन ही मन कुरेदते रहते और बैलगाड़ी हांकते रहते।

अब फर्क उन के बैलगाड़ी हांकने में भी आ गया था। पहले जैसे वह शौकिया घोड़े दौड़ा कर अगुवानी करते थे पर बाद के दिनों में घोड़े की ख़ुराक के नाम पर कुछ पैसे ले लेते थे, ठीक वैसे ही वह अब बैलगाड़ी भी शौकिया हांकना भूल गए थे। गांवों में लोगों के पास अब सामान ढोने के लिए ट्रैक्टर-ट्राली भी था। डनलफ भी। और बाहर सड़कों पर ट्रक। फिर भी बैलगाड़ी की जरूरत अभी भी थी।  सो बाऊ साहब की बैलगाड़ी भी अब लदनी करने लगी थी। बाऊ साहब के साग-सब्जी का खर्च निकल जाता था। कोई टोकता भी कि, ‘का बाऊ साहब ?’ तो वह छूटते ही बोलते, ‘कोई आन की गाड़ी तो हांक नहीं रहा। फिर अपनी ही बैलगाड़ी हांक रहा हूं। कुछ लाद लिया तो का हुआ ?’ वह जैसे जोड़ते, ‘एक पंथ दो काज। खर्च का खर्च निकलता है और अपनी ड्राइवरी भी जिंदा रहती है।’ वह हंसते हुए गला खंखार कर सफाई पर उतर आते, ‘अरे, पहले घोड़ा ड्राइव करता था, फिर मोटर साइकिल ड्राइव करवाया। पर ड्राइव करवाना हम को रास नहीं आया तो अब बैलगाड़ी ड्राइव कर रहा हूं।’

वह कहते, ‘क्या करें मशीनी चीज हम ड्राइव नहीं कर सकते मोटर साइकिल, जीप, मोटर क्या चीज है? एरोप्लेन ड्राइव करते।’ वह ठसक से भर कर बोलते, ‘घोड़े की भी लगाम हमारे हाथ में रहती थी, अब बैलगाड़ी की लगाम अपने हाथ है।’ कह कर ठठ्ठा लगाते कहते, ‘बैलगाड़ी हो, घोड़ा हो, बीवी हो या कुछ और सही, लगाम अपने हाथ में होनी चाहिए। तभी ड्राइव करने का मजा है।’ कह कर वह मूंछें ऐंठते और बैलों को ललकार कर अपनी बैलगाड़ी ‘ड्राइव’ कर देते।

उन के इस ‘ड्राइव’ में उन की सारी चिंताएं डूब जातीं !


55  -
खौफ़

लाल बहादुर


रघुनाथ को अपने घर के बाहर मोटर-साइकिल रुकने की आवाज सुनायी पड़ी तो वह चैंका, उठ कर बैठ गया। उसे अटपटा लगा। इस वक्त कौन हो सकता है।

घर का दरवाजा बन्द था। वह कमरे में जहाँ सोया था, वहाँ अंधेरा था, पर बाहर सुबह का उजाला फैल रहा था। उसकी नजर दरवाजे के फोंफर पर पड़ी, जहाँ से वह अक्सर बाहर कोई आहट होने पर देख लेता है। उसने देखा, मोटर साइकिल से उतर कर दो लोग उसके घर की तरफ आ रहे थे। जब तक वह उठकर सहज होता, तब तक दरवाजे की कुण्डी खटखटा दी गयी-

‘‘रघुनाथ जी!’’

रघुनाथ को शक हो गया था। वे ही लोग होंगे। जब उन्होंने उसका नाम पुकारा, तब उसका शक सही निकला। उसे लगा कि उसकी जमीन अब किसी भी दशा में बच नहीं पायेगी। वे जबरन लिखवा लेंगे, कब्जा कर लेंगे। उसका मुंह सूख गया। हाथ-पैर, पूरा शरीर ढीला हो गया बेदम।

उसने अगल-बगल देखा, पत्नी नहीं थी। सुबह-सुबह हो सकता है शौच के लिए गयी हो, या कोई काम कर रही हो। रघुनाथ डर के मारे जड़ हो गया। अब वह बच नहीं सकता। वे घुसते ही उसका गला दबा कर मार डालेंगे। जान तो जायेगी, जमीन भी जायेगी। उसके जी में आया कि दरवाजा न खोले, कितना भी वे जोर-जोर से चिल्लायें, दरवाजा पीटें। सुबह का समय है। आस-पास के लोग अभी कामों पर नहीं गये होंगे। कोई तो सुनकर आयेगा। बेदम-सा खड़ा वह एक पल सोचता रहा। किसी तरह हिलते हुए उसने दरवाजा खोल दिया। वे सीधे कमरे में आ गये। बढ़िया, शानदार कपड़ों, आँखों पर मंहगे चश्मों का खौफ। रघुनाथ को लगा कि अभी हार्ट-अटैक हो जायेगा। दिमाग थरथर कांप रहा था। जुबान सुन्न हो गयी थी। अपने ही घर में वह फांसी की सजा पाये कैदी की तरह खड़ा था। वे अलग-बगल देखकर कमरे में रखीं प्लास्टिक की कुर्सियों पर बैठ गये।

‘‘अरे रघुनाथ जी, अभी तक आप सोये थे क्या ?’’

वे थोड़ा मुस्कराये। रघुनाथ की सुन्न हो गयी जुबान मौत के खौफ से ऐसी जकड़ी हुई थी कि हिल तक नहीं पा रही थी। बहुत मुश्किल से वह खड़ा भर रहा। वे फिर बोले-

‘‘रघुनाथ जी, दस-बारह दिन हो गये, क्या सोचा आपने ? देखिये हमें इस जमीन की जरूरत है। हम आप को मुँह मांगा पैसा देंगे। घरबाइए मत। आप इस पैसे से कहीं भी बढ़िया मकान खरीद कर आराम से रह सकते हैं।’’
वे बोलते रहे- ‘‘आप के बगल वाले पीताम्बर, वो राधेश्याम आप को कह रहे हैं। आप ‘हाँ’ कर देंगे तो वे भी बेच देंगे। आप की जमीन पहले पड़ती है। हम आपको उनसे ज्यादा रेट लगा देंगे।’’

रघुनाथ के चेहरे पर नकार का भाव मड़राया। दिमाग में थोड़ी हलचल हुई। किसी तरह जुबान खुली- ‘‘अरे, मैं कुछ कह नहीं पा रहा हूँ।’’

रघुनाथ को ताज्जुब हुआ कि कैसे उसके मुंह से कोई बात निकल गयी थी। वह तो थर-थर कांप रहा था और जुबान ऐंठी हुई थी।
वे रघुनाथ के चेहरे के भावों को बखूबी समझ रहे थे और ऐसे समय में चाल चलने में माहिर भी थे। वे बोले- ‘‘पाँच-छः दिन का और समय ले लीजिये। सोच लीजिए। हमें यह जमीन चाहिए। हम आपको पूरा पैसा पहले दे देंगे।’’

वे चले गये।

कमरे में खौफ भरा रहा। रघुनाथ खौफ से भरे कमरे में हांफ रहा था। जमीन के साथ जान भी जायेगी। उसने पत्नी को पुकारना चाहा। पर उसके मुँह से ‘मंजू’ निकला ही नहीं। वह वहीं प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ गया।
चार-पांच दिन पहले भी वे आये थे, सुबह ही सात बजे के लगभग। बड़ी-बड़ी चार पहिया गाड़ियों से। उनके साथ राइफल लिए तीन शूटर भी थे। उन्होंने पीताम्बर, राधेश्याम, बीरबल को भी बुलाया था। रघुनाथ समझ नहीं पाया था कि क्या मामला है। जब उन्होंने बताया कि- ‘‘हम यहाँ एक कालोनी बनाने जा रहे हैं। वह जो बिजली का पोल है, वहां से लेकर इस गुमटी तक। करीब डेढ़-दो एकड़ जमीन खरीद ली गयी है। दो लोग अभी और देने वाले हैं। बगल में आप लोगों की जमीनें हैं। हम आप लोगों को मुंह मांगा पैसा देंगे, बाजार रेट से दूना। आप हमारी समस्या का समाधान कर दें, हम आपको मालामाल कर देंगे।’’

रघुनाथ सुनकर अवाक् रह गया था। उसकी नजर बार-बार राइफल लिए शूटरों पर पड़ रही थी। चारों तरफ मौत का सन्नाटा घिर गया था। रघुनाथ को चक्कर आ गया था, लगा था कि गिर पड़ेगा। बहुत मुश्किल से वह खड़ा रह पाया था।

‘‘हमने पता लगा लिया है कि किसकी कितनी जमीन है। बस आप लोग ‘हाँ’ कर दीजिए। पांच-छः दिन का समय ले ले लीजिए। एक बात बता दें कि इतने पैसे से आप दूनी जमीन पा जायेंगे। कहीं भी मकान ले सकते हैं।’’

वे कब चले गये थे, रघुनाथ को पता ही नहीं चला था। वह देर तक पीताम्बर, राधेश्याम के साथ खड़ा रहा। दहशत से भर गया था। लग रहा था जैसे किसी अजनबी जगह पर खड़ा हो। उसकी अपनी जमीन, अपना घर पराया लग रहा था।

वह जमीन बेचना नहीं चाहता, किसी भी दशा में। उसकी जमीन है, उसका घर है। रहता है। क्यों बेचे। बेचने के बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था।

वह धीरे से घर चला आया था। अमूमन वह पत्नी से बहुत सारी बातें साझा करता है, किन्तु यह बात उसे नहीं बतायी थी कि वह न जाने क्या-क्या सोचेगी, परेशान होगी। 

पहले वह कभी ऐसी झंझट में नहीं फँसा था। उसने सोचा भी नहीं था कि जमीन, घर को लेकर ऐसी नौबत आ सकती है। उसे अपने काम से मतलब होता था। घर से काम पर निकलता, काम से घर। समय नहीं मिलता उसे। अलबत्ता उसे बतियाने की आदत रही। साइट पर वह मौका मिलने पर अक्सर बतियाता, हंसी-मजाक करता।

अब वह डर गया था। अगर उसने उन्हें जमीन नहीं बेची तो वे उसे मार डालेंगे। जमीन कब्जा कर लेंगे। तब से उसे ठीक से नीद नहीं आती। न खाने की इच्छा करती, न किसी काम में जी लगता। बहुत कम किसी से बोलता, बतियाता, प्रायः चुप रहता। सोचता रहता कि कैसे जमीन बचे, क्या करे। 

दो दिन बाद वह काम पर गया था। दोपहर में लंच के समय टिफिन से खाना निकालते वक्त उसके साथ काम करने वाले जवाहिर ने पूछा था- ‘क्या बात है, रघुनाथ ? कुछ खोये-खोये से हो।’ ‘नहीं-नहीं, कुछ नहीं।’ इतना कहते हुए रघुनाथ को लगा था कि जैसे कोई पहाड़ सीने में दबा लिया हो, जिसे वह किसी को दिखा नहीं सकता था। मगर सीने में दबाये पहाड़-से खौफ की आंच उसके चेहरे, आँखों में छिपती नहीं थी। कई लोगों ने पूछा था, लेकिन रघुनाथ टाल गया था। उसके जी में एक बार आया था कि मालिक से मिले। उन्हें पूरी बात बताये। हो सकता है कि कोई हल निकल जाय। वह भी बड़े ठेकेदार हैं। करोड़ों के ठेके लेते हें। कई बड़ी-बड़ी कालोनियां, काम्प्लेक्स बनवाये हैं। रेलवे, विश्वविद्यालय, नगर-निगम, पी0डब्ल्यू0डी0 सब जगह काम चलता रहता है। तमाम लोगों से सम्पर्क है। पर वह मालिक से मिला नहीं। उसे लगा कि वह भी कालोनियां बनवाते हैं। काफी अमीर हैं, ताकतवर हैं। हो सकता है वह उन सब से परिचित हों, उनके दोस्त-रिश्तेदार हों। फिर वह उसकी बात क्यों सुनेंगे। वह तो एक राजमिस्त्री है, मजदूर।

रघुनाथ के दादा (बाप) भी राजमिस्त्री थे। जायदाद के नाम पर यही इतनी जमीन, जिसके एक कोने में रघुनाथ के बाबा का बनवाया घर था। बाकी बची जमीन में थोड़ी-बहुत सब्जियाँ पैदा कर लेते थे। पेट-परदा मेहनत-मजदूरी से ही चलता था। रघुनाथ सातवीं तक पढ़ा था। आगे की पढ़ाई पड़ोस के तमाम लड़कों की तरह उसने भी छोड़ दी थी। चैदह-पन्द्रह साल का रहा होगा तभी उसके दादा गुजर गये थे। घर की हालत अचानक बिगड़ गयी थी। रघुनाथ से बड़ी एक बहन, अम्मा सब का पेट-परदा चलना मुश्किल हो गया था। परिवार का बोझ रघुनाथ पर आ गया था। उसकी अम्मा फिर आस-पास काम करने लगी थीं। रघुनाथ अपने पड़ोसियों के साथ शहर मजदूरी करने जाता था। राजमिस्त्रियों के साथ काम करते-करते वह भी राजमिस्त्री का काम करने लगा था। तब से वह यही बाबू साहब के यहां काम करता है। पैंतीस-छत्तीस साल हो गये।

वह साइकिल से शहर जाता था। तब शहर दूर था। यहां से शहर तक किसानों के खेत थे, लहराती फसलें। सिंगल टैªक की सड़क थी, जिस पर बहुत कम मोटरगाड़ी दिखायी देती थी। तीस-पैंतीस सालों में शहर फैल कर उसके गांव तक आ गया था, बल्कि उसके गांव को भी पार करके और आगे बढ़ता जा रहा था। चैबीस-पचीस सालों में तो कुछ लोगोें के पास इतने पैसे हो गये कि इतनी ही दूर में एक बड़ा अस्पताल, माल, मल्टीस्टोरीज कालोनियां, एक प्राइवेट मेडिकल कालेज और न जाने क्या-क्या बन गये थे, जिनका रघुनाथ ने इसके पहले कभी नाम नहीं सुना था, जिन्होंने खेतों, गांवों की पहचान को मिटा दिया था। उनके लोकल नाम लोगों की जुबान से गुम हो गये थे। नये नाम गढ़ दिये गये थे। सिंगल ट्रैक सड़क भी फोरलेन की हो गयी थी। फोरलेन सड़क के लिए जब जमीन अधिग्रहीत की जा रही थी, दस-बारह  साल पहले की बात है, तो प्रभावित किसानों ने खूब विरोध किया था। वे  सड़क पर प्रदर्शन करते थे। हाथों में तख्तियां होती थीं, जिन पर बहुत  सारे नारे लिखे होते थे। बड़ा-सा बैनर टंगा रहता था। वे वहां भाषण  करते थे। रघुनाथ भी कुछ मिस्त्रियों के साथ रुक कर भाषण सुनता था। किसानों ने कई बार सड़क भी जाम की थी। पुलिस ने लाठी चार्ज करके कई को घायल कर दिया था और कुछ को जेल भी भेजा था। जबरन जमीनें अधिग्रहीत कर ली गयी थीं। बहुत सारे उजड़ गये। उजड़ कर वे कहाँ गये, पता नहीं। फोरलेन की सड़क काफी दूर तक बन गयी थी, आगे पड़ोसी प्रदेश में भी बनती जा रही थी। अब इस पर नयी-नयी किस्म की तमाम गाड़ियाँ चलती हैं। रघुनाथ सड़क के नीचे पटरी पर साइकिल से उसी तरह हांफता हुआ आता-जाता है, तो धंुओं से उसकी आँखें गड़ती हैं। 

रघुनाथ छोटा था, उसके दादा जिन्दा थे, उस समय उसका वह घर बरसात में कई जगह चूता था। माटी की भीत थी। पूरी भीत तर हो जाती थी। गिरने का डर बना रहता था। थोड़ी सी जगह में खाना बनता था और वहीं सोना होता था। दादा के मरने के बाद उसे घर की चिन्ता सताने लगी थी। काम से वह जब लौटता था तो घर के ही बारे में सोचता था। उसी समय उसने घर बनवाना शुरू किया था। राजमिस्त्री के साथ वह भी चुनाई करता था। सुबह उठता था, राजमिस्त्री के आने के पहले कुछ न कुछ चुनाई कर डालता था। इस तरह वह अपना घर बनाने से राजमिस्त्री बना। घर बन रहा था, उसी समय उसने बहन की शादी की थी और कुछ साल बाद अपनी भी। एक साल बाद बाप भी बन गया था। पांच-छः सालों में दो कमरों का घर बना, पीछे टिनशेड का अलग कमरा। इसी घर से उसने अपने लड़के की शादी की। शादी में बिजली की झालरों से पूरा घर सजा था। मेहमानों से भरा घर बहुत अच्छा लग रहा था। लड़का बीवी-बच्चे को लेकर बाहर रहता है। त्योहारों में वह अक्सर बीवी-बच्चे के साथ आता है। वे यहीं रहते हैं अपने घर। साल में एकाध बार बहन भी आती है। उसके बच्चे ननिहाल आते हैं। कितना अच्छा है अपना घर कि यह अपने बहु-बेटे, पोते का घर है, बहन का मायका है, भान्जों का ननिहाल। क्या हुआ अगर बीस-पचीस सालों में घर का प्लास्टर नहीं करा सका। फर्श पहले की तरह कच्चा है। दरवाजों, खिड़कियों की लकड़ियाँ इस कदर सूख गयी हैं कि उनमें कई जगह फोंफर हो गये हैं।

रघुनाथ की आँखे भर आयी थीं। वह बहुत गौर से घर और जमीन को देख रहा था। उसकी जमीन में अमरूद का एक पेड़ है। उसमें फल आ गये थे। अभी छोटे थे, कच्चे। जब थोड़े बड़े होंगे, पकने लगेंगे कि आस-पास के बच्चे पेड़ के पास मंड़राना शुरू कर देंगे। उसकी पत्नी रखवाली करती रह जायेगी। उसे पता भी नहीं चलेगा कि कब सारे अमरूद खत्म हो गये। उसने देखा कि उसकी पत्नी कहीं से आयी और सीधे घर में चली गयी। रघुनाथ की तरफ उसका ध्यान नहीं गया। रघुनाथ सोच रहा था कि क्या होगा अगर उन्होंने उससे जमीन लिखवा ली ! तो वह कहां जायेगा यहाँ से उजड़ कर ! अब तक कितने उजड़े लोगों को पैसा मिला है और कितने कहीं बस पाये हैं! बहू, बहन उनके बच्चे अगर कभी आयें तो कहां रहेंगे। उसकी आंखों में भर आये आंसू झर-झर बह रहे थे। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे, सिवा इसके कि वह एक अंगुल भी जमीन बेचना नहीं चाहता। पहले जब घर गिर रहा था, बहन की शादी करनी थी, पैसों की अत्यन्त जरूरत थी, एक-एक पैसा जोड़ घर बनवा रहा था, तब तो जमीन का एक कोना भी बेचने के बारे में नहीं सोचा था। अब क्यों बेचे। बेचकर कहाँ जाय? कहीं बस पायेगा ? भाई-पट्टीदार से मिल पायेगा कभी ?

शाम को उसने प्रेम को फोन किया था, घर से बाहर निकल कर कि पत्नी न जान सके। वह सुबह से ही सोच रहा था कि उसे फोन कर पूरी बात बता दे। बहू ने फोन अटेण्ड किया था। फिर उसने प्रेम को मोबाइल दे दिया था-

‘‘बाबूजी प्रणाम।’’

‘‘खुश रहो।’’

‘‘बाबू जी, बहुत दिन बाद आप से बात हो रही है! ठीक-ठाक हैं ? अम्मा ठीक हैं ?’’

‘‘हां, ठीक है। तुम से एक बात करनी थी।’’ रघुनाथ धीरे-धीरे बोल रहा था। उसका ध्यान घर की तरफ था कि पत्नी न आ जाय। 

‘‘यह कह रहा था। दो दिन पहले कुछ लोग आये थे। वे पूरी जमीन मांग रहे हैं।’’ रघुनाथ चुप हो गया था। अभी वह कुछ और कहता कि उधर से प्रेम बोला था-

‘‘क्या पैसा दे रहे हैं ?’’

‘‘बात पैसों की नहीं है। पैसा तो बाजार रेट से दूना देने के लिए कह रहे हैं, लेकिन क्या जमीन बेच दी जाय ?’’

‘‘देखिये बाबू जी, बेच देने में कोई हर्ज नहीं है। आज उनकी गरज है तो वे दूना पैसे दे रहे हैं। कल हमें जरूरत हो तो बाजार रेट भी नहीं मिलेगा। मैं तो कहूंगा कि बेच दीजिए।’’

उसने सोचा था कि प्रेम जमीन बेचना नहीं चाहेगा। वह बोलेगा- ‘नहीं, जमीन बेचने की जरूरत नहीं है। मना कर दीजिए।’ प्रेम की बात सुन कर तो रघुनाथ का तनाव और बढ़ गया था। वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर प्रेम ऐसा क्यों कह रहा था। वह ट्रक-ड्राइवर है। ट्रक चलाते-चलाते वह पता नहीं क्या समझ गया हैं ! वह एक पल सोचता रहा। उसे लगा था कि प्रेम किसी भयानक साजिश का शिकार हो गया है। उसने प्रेम से ज्यादा बतियाना जरूरी नहीं समझा था। उसने यह भी नहीं बताया था कि वे डरा-धमका कर जमीन लिखवाना चाहते हैं। प्रेम परेशान होगा। वह धीरे से बोला था- ‘‘मैं नहीं बेचना चाहता। बाप-दादों की जमीन है। घर है, कितनी मेहनत से बना है। कैसे बेचूँ। कहां जाऊँगा बेचकर।’’

‘‘वैसे बाबू जी, क्या है घर! जब से होश सम्भाला, आज तक प्लास्टर नहीं हुआ, क्योंकि हमारे पास पैसे नहीं हंै। जमीन बेचकर हम उसके पैसे से बढ़िया घर बनवा सकते हैं। यही होगा न, कि जमीन थोड़ी दूर मिलेगी, तो क्या हुआ।’’

‘‘तुम समझ नहीं रहे हो प्रेम। इतमिनान से सोचकर बताना। हाँ, अपनी अम्मा को कुछ मत बताना।’’ 

रघुनाथ ने फोन काट दिया था। उसके आंसू सूख गये थे। वह मन-ही-मन बड़-बड़ा रहा था। क्या हो गया प्रेम को ? उसे समझना चाहिए कि यह उसका घर है। उसकी पहचान है। इसी पते पर लोगों की चिट्ठियाँ आती रही हैं। शादी-ब्याह के न्योते यहीं आते हैं। कोई फार्म भरने पर इसी घर का पता होता है। वोटर-कार्ड पर यही पता है। उसके ड्राइविंग लाइसेंस पर भी स्थायी पता इसी घर का है। 

रघुनाथ को याद आ रहा था, जब प्रेम त्योहारों में घर आता था तो अपनी अम्मा से अक्सर अपनी समस्याओं की चर्चा करता था। घर का खर्च नहीं चलता है। मकान के किराये में ज्यादा पैसा निकल जाता है, फिर खाना-पीना, कपड़ा। बहुत परेशानी होती है। राज अगले साल से स्कूल जाने लायक हो जायेगा, उसकी पढ़ाई-लिखाई, तब और दिक्कत होगी। प्रेम जब जाने लगता तो उसकी अम्मा उसे आने-जाने का किराया देती, कभी-कभी बहू, बच्चे को कपड़े या कपड़े के पैसे देती थी। एक बार उसने रघुनाथ से यह बताते वक्त अपने मन की बात भी बतायी थी- ‘सोचती हूँ कि घर के प्लास्टर के लिए प्रेम से पैसे की बात करूं, लेकिन कह नहीं पाती हूँ।’ रघुनाथ ने तत्काल मना कर दिया था- ‘अरे नहीं। उतनी दूर पराये शहर में रहता है। सुख-दुख में पैसे की कभी जरूरत हो तो कहां पायेगा। कौन है वहां अपना। और फिर घर का क्या, ठीक है। जिनके घर नहीं हैं, उनको देखो।’ उसकी पत्नी ने फिर कभी यह बात नहीं की। वह बड़बड़ाये जा रहा था। क्या हो गया प्रेम को। वह समझ रहा है जमीन बेचकर मालामाल हो जायेगा। जमीन, घर सब हो जायेंगे। जमीन बेचकर अगर कहीं बस नहीं पाया तो ? वह उजड़ जायेगा।

दिन ढल रहा था और अंधेरा बढ़ रहा था। रघुनाथ वहीं अमरूद के पेड़ के इर्द-गिर्द टहल रहा था। अंधेरा उसके दिमाग में भी भर रहा था। वह बेहद डरा हुआ था। नितान्त अकेला और असहाय महसूस कर रहा था।

वे पांच-छः दिन के लिए कह कर गये थे। पांच दिन हो गये थे। वे किसी भी दिन आ सकते थे। रघुनाथ को कुछ सूझ नहीं रहा था कि अगर वे आ गये तो क्या कहेगा उनसे। इस बार वे उसे उठा ले जायेंगे, जमीन लिखवा लेंगे। अगर उसने जमीन नहीं लिखी तो वे उसे पत्नी समेत मार डालेंगे। गरीब और कमजोर को कौन पूछने वाला है। रात भर वह सोचता था कि क्या करे, किससे मिले।

वह सुबह घर से काम पर निकला। साइट पर जाने की बजाय थाने चला गया। थाने के गेट से थोड़ी दूर साइकिल रोक कर खड़ा हो गया। गेट की दूसरी पटरी पर कई गाड़ियां खड़ी थीं, काफी दिनों से लावारिस पड़ी लग रही थीं। कभी दो, चार पुलिस वाले गेट के अन्दर जाते या बाहर आते। रघुनाथ की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि आगे बढ़े, किसी पुलिस वाले को रोक कर पूछे। रघुनाथ को पुलिस से बचपन से डर लगता है। जब वह छोटा था, कक्षा छः या सात में पढ़ रहा था, उसके गांव में पटेसरी पासी और उसके साथ तीन और लोग चोरी के इल्जाम में पकड़े गये थे। पुलिस ने उन्हें बहुत मारा था। पुलिस की मार ऐसे देखने पर नहीं जाहिर होती थी। मात्र चेहरा सूजा हुआ था। कपड़ा उघाड़ने पर पता चला था। रघुनाथ को वह दृश्य याद है। महीनों उनका इलाज चला था। आखिर में पटेसरी पासी की मौत ही हो गयी थी। तब से रघुनाथ रास्ता चलते किसी पुलिस वाले के पास से नहीं गुजरता है। डर जाता है, कहीं मार न दे या गाली न दे दे।

उसने साइकिल वहीं खड़ी कर दी। आहिस्ता-आहिस्ता वह थाने के अन्दर चला गया। थाने के बरामदे में दो पुलिस वाले कुर्सियों पर बैठे थे। दो-चार इधर-उधर खड़े बात कर रहे थे। बरामदे के नीचे कुछ लोग बेहद धीमी आवाज में आपस में बात कर रहे थे। थाने के अन्दर एक आदमी के जोर-जोर से चिल्लाने, रोने की आवाज आ रही थी। रघुनाथ को समझते देर नहीं लगी कि पुलिस वाले उसे पटेसरी पासी की तरह पीट-पीट कर कबूलवा रहे थे। रघुनाथ उधर ज्यादा ध्यान न देकर बरामदे के पास पहुंचकर नीचे खड़ा हुआ। पुलिस अफसर की तरफ ताक रहा था तभी उस अफसर की नजर उस पर पड़ी- ‘‘क्या है ?’’ वह गुर्राया।

‘‘हुजूर परसा गांव से आया हूँ। थोड़ी-सी जमीन है और उसी में छोटा सा घर। कुछ लोग लिखने के लिए कह रहे हैं।’’

‘‘तू क्या चाहता है ?’’

‘‘मैं नहीं चाहता हुजूर।’’

”जब तू नहीं चाहता तब कौन तेरी जमीन लिखवा लेगा। चल यहाँ से, भाग। फिर मत आना।’’

वह फुर्ती से वहां से निकला और सीधे वहां जाकर खड़ा हो गया, जहाँ उसने साइकिल खड़ी की थी। उसने राहत की सांस ली। पहली बार वह थाने में गया था वह भी अकेला। उसे ताज्जुब हो रहा था कि कैसे वह चला गया था। वह बहुत तेजी से साइकिल चलाता साइट पर चला गया। कभी-कभी एकाध घण्टा लेट से पहुंचने पर भी हाजिरी लग जाती है।

उसका कोई काम करने में जी नहीं लगता। इसी उधेड़बुन में रहता था कि किससे मिले, किससे समस्या का समाधान हो सकता है।

घर लौटते समय वह सोच रहा था कि डी0एम0 साहब से मिले। बड़े साहब हैं। जनता की फरियाद सुनते हैं। वह जरूर उसकी मदद करेंगे। वह पूछते-पूछते डी0एम0 आफिस गया। वह दूसरी बार कचहरी गया था, पहली बार तब जब उसे अपने दादा के मरने के बाद जमीन अपने नाम करानी थी। वह भी तब डी0एम0 आफिस नहीं गया था। वह डी0एम0 आफिस पहुंचकर बाहर पोर्टिको के पास खड़ा हो गया। उसने अनुमान लगाया कौन यहां का हो सकता है। उसने बहुत साहस करके एक आदमी से पूछा- ‘‘सर, मुझे डी0एम0 साहब से मिलना है।’’

उस आदमी ने अंगुली से गैलरी की तरफ जाने का इशारा किया। रघुनाथ वहां पहुंच कर समझ गया कि यही डी0एम0 आफिस है। लाल साफा बांधे अर्दली से पूछा- ‘‘सर, मुझे डी0एम0 साहब से मिलना है।’’

उसने स्टेनो बाबू के कमरे में भेज दिया। स्टेनो ने पूछा कि क्या काम है ?

‘‘साहब, मैं बहुत मुसीबत में फंस गया हूँ। मैं परसा गांव का हूँ। राजमिस्त्री हूँ। थोड़ी सी जमीन है। कुछ लोग लिखवाना चाहते हैं।’’

‘‘तुम बताओ, बेचना चाहते हो ?’’ स्टेनो बाबू ने पूछा।

‘‘नहीं सर, कत्तई नहीं।’’

‘‘तब कैसे कोई जमीन लिखवा लेगा।’’

रघुनाथ कैसे समझाये कि वे लालच दे रहे हैं। धमकी दे रहे हैं। वे जबरन जमीन लिखवा लेंगे। वह दो-तीन मिनट खड़ा रहा। उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। वह वहां से चला आया।

एक-एक दिन बीत रहा था और उसका डर बढ़ता जा रहा था। जितने समय तक वह घर रहता, उतने समय तक हमेशा डर बना रहता। वे कभी भी आ सकते थे। सुबह आँख खुलते ही वह दरवाजे के फोंफर से बाहर देख लेता। कोई नहीं होता। उसे तुरन्त राहत महसूस होती, लेकिन फिर डर बढ़ जाता। वे रास्ते में उस पर अटैक कर सकते हैं। 

वह साइट पर नहीं गया। सोच रहा था कि विधायक से मिले। वह चाह लेंगे तो किसी की हिम्मत नहीं जो जमीन की तरफ आँख उठा कर देख सके। वह विधायक के घर गया। काफी दूर था। बाहर गेट पर देखा, बहुत सारी गाड़ियां खड़ी थीं। हिम्मत करके गेट पर खड़े सुरक्षा गार्डाें से इजाजत लेकर अन्दर गया। बहुत बड़ा लान था। लान में तमाम कुर्सियां थीं। बहुत सारे लोग इधर-उधर कुर्सियों पर बैठकर बात कर रहे थे। रघुनाथ बहुत गौर से उनकी तरफ देख रहा था। उनके कपड़ों और हाव-भाव में वही खौफ था जो जमीन लिखवाने वालों के कपड़ों और चश्मों में था। उसकी सांस कुछ देर के लिए अटक गयी। जुबान जम गयी। वह किसी से पूछ नहीं पाया कि उसे विधायक जी से मिलना है। वह चुपचाप वहां से चला आया।

रघुनाथ थक गया था। उसे जमीन बच पाने की कोई उम्मीद नहीं थी। वे कभी भी आकर उसे उठा ले जायेंगे। मार कर फेंक देंगे। जमीन कब्जा कर लेंगे। अब उसे कोई बचा नहीं सकता। जमीन तो जायेगी, जान भी चली जायेगी।
सुबह वह दरवाजे पर खड़ा था। काम पर जाने की उसकी इच्छा नहीं कर रही थी। वह जमीन को, कभी अमरूद के पेड़ को देख रहा था। सोच रहा था कि उसकी जमीन पहले पड़ती है, इसके बाद पीताम्बर, राधेश्याम, बीरबल की जमीनें हैं। वे इनसे भी जमीनें मांग रहे हैं। अगर इन लोगों ने अपनी जमीनें नहीं दीं तो वे सिर्फ उसकी जमीन लेकर क्या करेंगे। उसे लगा कि उसे इन लोगों से बात करनी चाहिए। हो सकता है कि ये लोग भी जमीन बेचना न चाहते हों। तब तो वह अकेला नहीं है। उसे लगा कि उसकी जमीन बच सकती है। उसे अभी इन लोगों से मिलना चाहिए। उसके मुंह से जोर से निकला- ‘‘मंजू।’’

वह वहीं खड़ी थी। हड़बड़ा कर सामने आ गयी।

‘‘अरे क्या है ? मैं तो यहीं हूँ।’’

‘‘ठीक है। मैं अभी आ रहा हूँ। कुछ लोगों से मिलने जा रहा हूँ।’

वह तेजी से उनके घर की तरफ जा रहा था। 



56 - 
बीमारी
[ जन्म : 7 मई , 1959 ]
कात्‍यायनी

एक्‍सरे रिपोर्ट लेकर लौटते हुए प्रेम बाबू रिक्‍शे में कुछ आतंकित और उदास तो थे लेकिन दिल के किसी कोने में एक शहीदाना अन्‍दाज़ भी था। बगल में बैठी पत्‍नी को कनखी से देखकर उन्‍होंने यह  ताड़ने की कोशिश की कि वह उनके दुख से कितनी दुखी है। पत्‍नी अनमनी सी अगल-बगल से गुजरते पैदल और रिक्‍शा या साइकिल पर जाते लोगों को देखती जा रही थी। प्रेम बाबू तय नहीं कर पाये कि वह कितनी उदास है और कितनी तटस्‍थ। उन्‍हें एकाएक झु्ंझलाहट सी आने लगी और रिक्‍शे की पीठ से टेक लगाकर आँख मूँदकर वे बैठ गये। एकाएक वे अपने को कुछ ज्‍़यादा दुखी महसूस करने लगे।

अभी तीन दिन पहले महीनों से चली आ रही खाँसी की तकलीफ कुछ ज्‍़यादा ही बढ़ जाने के बाद प्रेम बाबू डा. मेहरोत्रा को दिखाने गये थे। आज एक्‍सरे रिपोर्ट देखने के बाद मेहरोत्रा ने बताया कि वे टी.बी. की शुरुआती स्‍टेज में हैं। बहुत ही सामान्‍य ढंग से डाक्‍टर ने उन्‍हें यह सूचना दी और कहा कि घबड़ाने की कोई बात नहीं, अब तो टी.बी. को गंभीर बीमारी भी नहीं माना जाता। प्रि‍स्क्रिप्‍शन पर दवाएं घसीटकर उसने एहतियात बताये और विदाई देने के भाव से मुस्‍कुराने लगा। प्रेम बाबू आहत हो गये। उन्‍हें लगा कि यह डाक्‍टर एकदम से पेशेवर हो गया है और इन्‍सान के साथ स्‍वाभाविक हमदर्दी तक जताना भूल चुका है। ''पैसे के कीड़े हैं साले'' - दवा लेते हुए प्रेम बाबू भुनभुनाये और पैसे निकालती हुई पत्‍नी को देखने लगे। वह लगातार चुप थी और प्रेम बाबू को यह अच्‍छा नहीं लग रहा था।

एकाएक पत्‍नी ने फल की दुकान के सामने रिक्‍शा रुकवाया और प्रेम बाबू का ध्‍यान उचट गया। अंगूर, संतरे खरीदती पत्‍नी पर उन्‍हें एकाएक प्‍यार-सा उमड़ने लगा। कितनी परेशान रहती है बेचारी! चार-चार उधमी बच्‍चों को सँभालना, खुद रोज़ स्‍कूल पढ़ाने जाना, उस पर मेरा इतना ख्‍याल रखना। प्रेम बाबू का मन आर्द हो गया। वे सोचने लगे, उनकी बीमारी से पत्‍नी बहुत दुखी हो गयी है।

फल लेकर पत्‍नी के रिक्‍शे में बैठने के साथ ही उन्‍होंने कहा, ''घबड़ाने की कोई बात नहीं है, अभी तो पहला स्‍टेज है।'' पत्‍नी ने जम्‍हाई लेते हुए कहा, ''हाँ बस खान-पान थोड़ा ठीक रखना होगा और एहतियात बरतना होगा... महीने भर की छुट्टी तो ले ही लो और पूरा आराम करो।'' प्रेम बाबू को लगा कि पत्‍नी उनकी बीमारी को उतनी गंभीरता से नहीं ले रही है, जिस गंभीरता से उसे लेना चाहिए। उन्‍हें फिर अकारण ही गुस्‍सा चढ़ने लगा।

रिक्‍शा से उतरकर प्रेम बाबू सीधे घर में आकर बिस्‍तर पर पसर गये। एक लम्‍बी सी सांस लेकर उन्‍होंने दीवार की तरफ़ मुँह कर लिया। रिक्‍शे का पैसा देकर जब पत्‍नी अंदर आयी तो वे आँखें बन्‍द किये हुए थे। ''बहुत थक गये क्‍या?'' उसने पूछा।

''नहीं,'' उन्‍होंने संक्षिप्‍त-सा जवाब दिया।

दवा और पानी का गिलास लेकर पत्‍नी फिर वापस आयी - ''दवा ले लो।''

एक हल्‍की सी कराह लेकर प्रेम बाबू उठ बैठे। पानी के सहारे दवा गले के नीचे उतारी और इन्‍तज़ार करने लगे कि पत्‍नी जल्‍दी ही फल लाकर खाने को कहेगी।

''कुछ फल वगैरह अभी लोगे?''

यह प्रश्‍न उन्‍हें एकदम बेकार-सा लगा और न चाहते हुए भी उन्‍होंने कहा ''नहीं, कुछ समय बाद।''

अन्‍नू और गीता स्‍कूल जा चुकी थीं। मंटू और संजू बगल के कमरे में धमाचौकड़ी मचा रहे थे। आज उनकी छुट्टी थी शायद।

एकाएक उनका शोरगुल जैसे प्रेम बाबू के दिमाग में चढ़ने लगा। उन्‍हें लगा, किसी को उनकी परवाह नहीं है। घर के लिए जैसे वे एक गै़र-ज़रूरी चीज होकर रह गये हैं। यदि मैं कुछ महीने घर में यूँ ही पड़ा रह गया तब तो ... प्रेम बाबू ने सोचा और और ज़ोर से चिल्‍लाए, ''बन्‍द करो यह शोर।''

बच्‍चे सहमकर अपनी-अपनी किताबें लेकर बैठ गये। शाम को अन्‍नू और गीता ने आकर उनका हाल-चाल पूछा। उन्‍होंने उनसे टी.बी. वाली बात नहीं बतायी, लेकिन उन्‍हें पत्‍नी से अपेक्षा थी कि वह बेटियों को बताकर उनकी ठीक से देखभाल करने के लिए समझायेगी। जब रात तक उन्‍हें इसका कुछ आभास नहीं मिला तो फिर उनका गुस्‍सा चढ़ने लगा। रात को सोते समय पत्‍नी ने जब उनके सिर पर तेल रखकर दबाना शुरू किया तो इकट्ठा हुए गुस्‍से का पहाड़ पिघलकर बहने लगा... उन्‍हें लगा, पत्‍नी को तो उनकी परवाह है ही। बच्‍चों का क्‍या? सभी अपनी-अपनी राह पकड़ेंगे। साथ तो पत्‍नी को ही देना है। प्रेम बाबू ने सोचा और सन्‍तुष्‍ट भाव से सो गये।

अगले दिन सुबह उन्‍होंने मंटू को बुलाकर एक दरख्‍वास्‍त उसके हाथों पड़ोस के अनंत बाबू को ले जाकर दे देने के लिए दी, जो उनके साथ ही एकाउण्‍ट्स सेक्‍शन में काम करते थे।

''अनंत बाबू से कह देना कि बड़े बाबू को देकर साहब तक भिजवा देंगे और खुद भी मिलकर बता देंगे। उनसे कह देना दफ़तर से लौटकर इधर से होकर ही जायेंगे'' उन्‍हें उम्‍मीद थी कि दरख्‍वास्‍त में लिखी हुई बीमारी की बात से अनंत बाबू चिंतित होकर इधर से होते हुए ही दफ़तर जायेंगे। उन्‍हें यह भी उम्‍मीद थी कि हरदम झिड़कने वाले बड़े बाबू भी कम से कम एक बार तो आर्द हो ही उठेंगे। और साहब भी।

मंटू जब जाने लगा तो इत्‍मीनान कर लेने के लिए उन्‍होंने उसे रोका और पूछा ''सुनो, वहाँ क्‍या कहोगे?''

''यही कि आप बीमार हैं और अभी कुछ दिन आफिस नहीं जायेंगे... क्‍यों कुछ और भी कहना है क्‍या?''

''नहीं-नहीं, बस ठीक है, तुम जाओ।

उसके जाने के बाद वे उसका बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करने लगे... पता नहीं किस तरह से क्‍या कहेगा?... मंटू के आने में थोड़ी देर हुई तो वे झुँझलाते और नाराज़ होते रहे।

दस बजे तक जब अनंत बाबू नहीं आये तो वे निराश हो गये। दिन भर वे शाम होने का इंतज़ार करते रहे। उन्‍हें उम्‍मीद थी कि अनंत बाबू तो आयेंगे ही दफ्तर के कुछ और भी दोस्‍त-मित्र भी हाल-चाल पूछने आयेंगे। छह बजे तक जब कोई नहीं आया तो उन्‍होंने सोचा शायद घर से होते हुए आयेंगे। आखिर सात बजे अनंत बाबू की आवाज़ बाहर से ही सुनायी पड़ी। वे एकाएक उठ बैठे। फिर जैसे उन्‍हें याद आया बीमारी के बारे में और हल्‍की-सी कराह के साथ तकिये पर उठंग गये।

''अरे भई, ये क्‍या दावत दे डाली। लगता है, दफ़्तर से लम्‍बी छुट्टी मारने का इरादा किये हुए थे।'' प्रेम बाबू उनके मज़ाक पर मुस्‍कुराये और दफ़्तर के बारे में पूछने लगे। मन के किसी कोने में यह जानने की इच्‍छा छिपी हुई थी कि दफ्तर में लोग उनके बारे में क्‍या बात कर रहे थे।

अनंत बाबू चाय पीकर, पकौड़ी खाकर सेहत के बारे में कुछ हिदायतें देकर चले गये।

अगला दिन इतवार था। बच्‍चे दिन भर शोर मचाते रहे, झगड़ा करते रहे। आज सुबह से ही प्रेम बाबू का पारा चढ़ा हुआ था। वे चाहते थे कि पत्‍नी बच्‍चों को डाँटकर शांत करे, उन्‍हें उनकी बीमारी के बारे में बताये। कहीं न कहीं मन में यह इच्‍छा दबी हुई थी कि उनके बच्‍चे अपने पापा की बीमारी से दुखी-सहमे से बैठे रहे, दबे पाँव उनके कमरे में आयें और आपस में साँय-साँय बात करें। पर ऐसा नहीं हो रहा था। यह सब पत्‍नी की लापरवाही है, उन्‍होंने सोचा और नाराज़ होकर दोस्‍तों का इंतज़ार करने लगे, जिनके आने की आज पूरी उम्‍मीद थी...

आज तो बहुत थकान हो गयी... सन्‍तुष्‍ट मन से प्रेम बाबू ने कहा और अँगड़ाई लेकर आँखें बन्‍द कर ली। आज शाम को उनके दफ़तर के चार-पाँच लोग देखने आये। रस्‍म के मुताबिक चाय के साथ बहस चलती रही। किसी ने प्राकृतिक चिकित्‍सा भी साथ-साथ चलाने पर ज़ोर दिया तो किसी ने योग करने की सलाह दी। किसी ने 'विश्‍व प्रसिद्ध' वैद्य आत्‍माराम से भी मिल लेने की राय दी और बात आते-आते होम्‍योपैथ और एलोपैथ की तुलना पर टिक गयी। दफ़तर की भी बात हुई और प्रेम बाबू की मेहनत-लगन वगै़रह-वगै़रह की भी। फिर बातें चुकने लगी और महफि़ल चुप्‍पी पर आकर खत्‍म हुई।

हफ़ता भर बीत गया। प्रेम बाबू की बीमारी धीरे-धीरे घर में एक आम बात सी होने लगी। वे खुद भी जब सामान्‍य होने लगते तो बीमारी के बारे में याद करते और गंभीर हो जाते। पत्‍नी चुपचाप काम करती रहती, उनकी पूरी तीमारदारी भी करती, पर उन्‍हें लगता कि उन्‍हें कुछ और भी अपेक्षा है उससे, जो पूरी नहीं हो रही है। फिर यह सोच कर उन्‍हें संतोष भी होता कि पत्‍नी ने उनकी तीमारदारी के लिए ही अपने स्‍कूल से हफ्ते भर की छुट्टी ले रखी है। मगर फिर वे दुखी हो जाते।

''किसी को मेरी परवाह नहीं है। सही बात है, दुनिया बड़ी स्‍वार्थी है। मैं रिटायर हो जाऊँगा, तब तो यहाँ मेरी कोई पूछ ही नहीं रह जायेगी।'' प्रेम बाबू सोचते और सांसारिक मोह-माया से प्रतिक्षण भर को उनके अंदर विराग-सा पैदा होता। पर पत्‍नी जैसे ही उन्‍हें दवा देने आती या प्‍लेट में फल लेकर आती, प्रेम बाबू के आहत मन पर जैसे मलहम सा लग जाता और बैराग्‍य भाव पर सांसारिक माया फिर हावी हो जाती।

''आज तो मेरी छुट्टी खत्‍म हो गयी। आज से स्‍कूल जाना है।'' अगले सोमवार को पत्‍नी ने कहा।

''हाँ, छुट्टी आखिर कब तक चलतीा'' प्रेम बाबू ने एक लम्‍बी साँस लेकर कहा और आँखें बन्‍द कर ली।

''खाना बना कर मैं चली जाया करूँगी। तुम खा लिया करना। दवा और फल-दूध वगैरह भी समय से ले लिया करना। थोड़ा ध्‍यान दे दोगे तो सेहत जल्‍दी सुधरेगी।''

प्रेम बाबू कुछ बोले नहीं। उन्‍हें अपना गला कुछ रुधा हुआ सा लग रहा था। न जाने वे क्‍यों थोड़े दुखी थी थे और सन्‍तुष्‍ट भी।

दिन भर वे चुपचाप पड़े बोर होते रहे। इस समय उन्‍हें लग रहा था कि यदि बच्‍चे आकर कुछ शोरगुल भी करें तो ठीक ही रहेगा। फिर वे अनायास कोई न कोई बात याद करके दुखी होते रहे। पिछले हफ्ते उनके लगातार झुँझला जाने पर पत्‍नी से जो एकाध बार नोंक-झोंक हो गयी थी, उसे याद करते रहे। इस बात को भी याद करके वे दुखी होते रहे कि दोस्‍तों का आना भी अब बन्‍द हो गया है। भूले-भटके अनंत बाबू आ जाया करते थे। दुखी होकर उन्‍होंने सोचा, ''मरने दो मुझे। किसे मेरी पड़ी है। फिर 'दोस्‍तों के बारे में सोचा - ''साले कितने स्‍वार्थी हैं। रोज साथ-साथ उठने-बैठने वाले भी जैसे भूल गये।''

शाम को पत्‍नी ने आने के साथ ही उनका हाल-चाल पूछा। वे दीवाल की ओर मुँह किये आँखें बन्‍द किये पड़े रहे। धीरे से बोले, ''ठीक ही हैा''

रात होने तक न चाहते हुए भी वे अपना मौन बरकरार न रख सके। कई बार शोर मचाने के लिए बच्‍चों को डाँटा। ठंडी चाय के लिए पत्‍नी पर भी बरसे। पत्‍नी भी आज कुछ उखड़ी हुई सी थी।

रात होने के बाद समझौते के मूड में उन्‍होंने बात शुरू करते हुए कहा, ''जरा मेरे दोस्‍तों को देखो। जिनके साथ रोज-रोज का उठना-बैठना और खाना-पीना था, वे अब भूले-भटके हाल-चाल लेने भी नहीं आतेा''

''एक बात बताओ। तुम खुद इन औपचारिकताओं के खिलाफ़ थे। चाचा जी का जब एक्‍सीडेंट हुआ था और वे छह माह अस्‍पताल में रहे थे तो तुम केवल एक बार देखने गये थे। मेरी माँ बीमार थी तो तुम कहते थे दवा डाक्‍टर देगा, भला मैं जाकर क्‍या करूँगा। यहाँ तक कि लोगों की मरनी-करनी में भी जाने से भरसक तुम बचना चाहते हो। फिर तुम खुद क्‍यों अपेक्षा करते हो कि तुम्‍हारे दोस्‍त रोज तुम्‍हें देखने पहुँचा करेंगेा'' पत्‍नी ने जैसे कई दिनों का गुबार इकट्ठे निकाल दिया।

''बस करो। लेक्‍चर मत झाड़ो ज्‍यादा। तुम्‍हें... तुम्‍हें क्‍या पड़ी है...'' प्रेम बाबू कुछ कहते-कहते रुक कर हाँफने लगे और जल्‍दी ही चादर तानकर लेट गये।

पत्‍नी दूसरी तरफ़ लेट गयी। जल्‍दी ही उसकी साँसें खर्राटों में बदल गयी। प्रेम बाबू घंटों आँखें बन्‍द किये पड़े रहे। अन्‍दर ही अन्‍दर जैसे कुछ सुलग रहा था। ''कुछ नहीं, दुनिया का हर सम्‍बन्‍ध एक धोखा है, छलावा है,'' वे बार-बार मन ही मन दुहराते और दुखी होते। आज खाँसी भी उन्‍हें कुछ ज्‍यादा ही आ रही थी। वे खाँसते और सोचते ''भला किसी को मेरी क्‍या पड़ी है। मरने दो मुझे। सोओ सभी तान कर।'' वे हाँफते हुए पेशाब करने के लिए उठे। बाथरूम में खाँसकर जब उन्‍होंने थूका तो एकाएक बलगम में खून के एकाध छोटे-छोटे चकत्‍ते देखकर चौंक उठे। ''और सोओ सभी लोग तानकर। किसी को जगाऊँगा नहीं, मरने दो मुझे।'' उन्‍होंने सोचा और शहीदाना भाव से उठ खड़े हुए। लेकिन फिर एकाएक उनके मन पर घबड़ाहट और आतंक का भाव हावी होने लगा। आँखों के सामने लाल-लाल धब्‍बे नाचने लगे। घबड़ाहट और भय की ठंढी-सी लहर में उनका सारा आहत स्‍वाभिमान पिघल-पिघलकर बहने लगा और वे अचानक ही कातर होकर फँसे गले से पत्‍नी को आवाज़ देने लगे।


57  -
काली रोशनी
[ जन्म :18 जून , 1968 ]
विमल झा


विभा की पलकें खुल-सी गई। घुप्प अंधेरा. . .। एकदम सन्नाटा। उसने अपने निगाहें इधर-उधर दौड़ाई। वह सोचने लगी- वह कहां है? अरे, हां! रात को वह और डॉली साथ ही साथ तो सोई थीं, उसे याद आया।

उसने बगल में टटोला- डॉली उससे बेखबर सो रही थी। वह थोड़ी देर तक डॉली के शरीर को टटोलती रही। अचानक उसे गर्मी महसूस हुई। एअर कंडीशनर बंद पड़ा है- नाइट बल्ब भी बुझा हुआ है। यानी बिजली नहीं है।
अब उसने खुद को टटोलना शुरू किया। कनपटी के पास पसीने की कुछ बूंदें जमा थीं। गर्दन के पास भी गीलापन महसूस हो रहा था। डॉली का बयां हाथ उसकी कमर पर था। दो-चार लम्बी सांसें खींचने के बाद वह डॉली से लिपट-सी गई। सन्नाटा और भी छितरा गया था। कमरे का वातावरण उन्मादी होता चला गया।

सुबह पहले नींद खुली डॉली की। थोड़ी देर तक अलसाई-सी पड़ी रही, फिर झकझोरते हुए अपने विभा को उठाया। विभा हड़बड़ा कर उठी। क्या है? क्यों इतना परेशान है? 

अरे, उठोगी नहीं? देखों कितने बजे हैं? डॉली ने घड़ी की ओर तकाया।

मैं आज ऑफिस नहीं जाऊंगी... तू जा। विभा ने अपनी टांगे सीधी कीं।

डॉली उठने की प्रक्रिया मेें थी कि विभा ने रोक दिया, रुक जरा... नजदीक तो आ।

डॉली सरकती हुई उसके करीब चली गई। विभा ने थोड़ा उठकर उसके कपोलों पर अपने होठ रखकर एक जोरदार चुम्बन लिया। डॉली खिलखिला कर हंस पड़ी और गाउन सहेजते हुए पलंग से उठ गई।

डॉली तैयार हो कर जाने लगी, तो विभा करीब आई, दरवाजा तो बंद कर लो।

विभा अलसाई-सी उठी। डॉली ने दरवाजा खोलने से पहले विभा के शरीर को अपनी बांहों में समेट-सा लिया और फिर दरवाजा खोल वह बाहर निकल गई। विभा ने झपट कर दरवाजा बंद कर लिया।

दरवाजा बंद करने के बाद विभा स्लीपर घसीटती हुई पलटी, तो उसकी नजर आदमकद आईने की ओर चली गई। एक ओर विभा खड़ी थी दर्पण के अंदर। दोनों विभाएं एक-दूसरे को जांच -परख रही हैं। डॉली के चले जाने के बाद विभा को अजीब किस्म का अकेलापन महसूस हो रहा है। जब भी वह अकेली पड़ती है, तो अतीत की यादें प्याज के कतरों की तरह परत-दर-परत उतरने लगती है।

दर्पण में अब एक पांच साल की लडक़ी खड़ी है। विभा बाईस-तेईस वर्ष पीछे जा चुकी है।

आज की विभा पहले अनु थी। तभी तो उसकी मम्मी पुकार रही है उसे, इसी नाम से अनु... उठो... उठो न.. सवेरा हो गया। हड़बड़ा कर उठी वह। हमेशा हड़बड़ा कर ही उठती है।

उठो... अनु।

उठ तो  मम्मी... डैडी कहां हैं?

डैडी सो रहे हैं, बेटा... वे रात में देर से आए हैं... उन्हें सोने दो। तुम तैयार हो जाओ।

डैडी क्यों देर से आते हैं, मम्मी...।

अरे भई! काम करते हैं न ढेर सारा। तुम बड़ी हो जाओगी तो समझोती। मम्मी उसे उठाकर किचन में चली गई।
मुंह बनाते हुए वह बाथरूम में जाती है। उसकी मम्मी तैयार कर देती है उसे। नाश्ता भी ठीक से नहीं कर पाती है अनु कि बस आ जाती है। जल्दी से बैग उठाकर वह मम्मी की एक पप्पी लेते हुए भागती है बस में। डैडी अनु की पहली पसंद हैं, तब मम्मी । लेकिन डैडी से वह मिल ही नहीं पाती। डैडी बहुत बड़े बिजनेसमैन हैंन, इसलिए एकदम हीरो-से हैं वे। लेकिन मम्मी भी किसी हीरोइन से कम नहीं। क्या हुआ, डैडी से बातें न होती हों तो, मम्मी तो हैं ही बातूनी। लेकिन सन्नो भी अच्छी है और बातूनी भी...।

सन्नो उसके यहां काम करती है। उससे बड़ी है वह, लेकिन मम्मी से छोटी है। अनु को खूब मजा आता है उससे बातें करने में। अनु अगर नाराज भी हो, तो सन्नो उसे मना लेती है। सन्नो कहती है, चलो अनु, खाना और खा लेती है अनु।
जब तक तुम पढ़ो, मैं कुछ काम कर लूं। सन्नो कहती है और अनु पढऩे लगती है।

चलो अनु बिस्तर पर, एक बढिय़ा कहानी सुनाऊंगी। और अनु बिस्तर पर चली जाती है।

सन्नो बताती है कि अनु के डैडी बहुत व्यस्त रहते हैं, इसलिए उसे उन्हें तंग नहीं करना चाहिए। अनु बेचारी इन बातों को सुन कर पिघल जाती है और उसका पारा  धीरे-धीरे सामान्य हो जाता है।

अक्सर यह होता है कि जब अनु सोने की तैयारी करती रहती है या सोई रहती है, तो डैडी आते हैं, आते हैं, अनु को पप्पी देते हैं और फिर खाने की टेबुल पर अनु कितनी सारी बातें करना चाहती है डैडी से, मगर कुछ भी नहीं कर पाती। खाने के बाद वे बेडरूम में चले जाते हैं और वह हाथ मलती रह जाती है। ज्यों ही वह रुआंसा चेहरा बनाती है,तो सन्नो की आगोश में।

हुंह ठेंगे से ... मन में सोचती है अनु और सन्नो से लिपट जाती है। क्या समझते हैं डैडी अपने आपको? सन्नो उनसे अच्छी है... दाढ़ी तो नहीं गड़ाती... कितने चिकने उसके गाल हैं...। मम्मी की तरह, मेरी तरह... डैडी की तरह नहीं।
और सन्नो उसे और भी अच्छी लगने लगती है। रात को जब भी अनु की नींद खुलती है, वह सन्नो की छातियां छूने लगती है... इतनी बड़ी क्यों है सन्नो की छातियां? सन्नो की नींद खुल जाती है,तो वह लिपटा लेती है अनु को और अनु उसके सीने में मुंह रख कर सो जाती है।

विभा की आंखें झपकने-सी लगीं। ओफ, कितनी आलसी हो गई हूं मैं, विभा सोचती है। बालकनी से अखबार उठा कर वह बिस्तर पर आ गई। डॉली विभा की अच्छी सहेली है। विभा को वह बहुत अच्छी लगती है, क्योंकि उसके पास केवल वर्तमान है। थोड़ा-बहुत अतीत है, लेकिन भविष्य की कोई चिन्ता नहीं। यहां कम्पनी सेक्रेटरी है। अच्छी-खासी तनख्वाह है। खूब अलमस्त है। बेफ्रिकी की जिन्दगी। विभा के साथ ही रहती है।

डॉली विभा को पसंद क्यों न हो? जीवन में व्यक्ति कितना लम्बा सफर तय करता है... कहां-कहां से गुजरता है... किस-किसके साथ, किन-किन गली-कुंचों से संबंधों में जकड़ा मन भटकता है। कुछ लोग कहीं छूट जाते हैं, कुछ तो स्मृतियों से भी गायब हो जाते हैं, लेकिन डॉली कहां मिलता है कोई इतना सुलझा हुआ, इतना परिपक्व , जो अनदेखी-अनजानी बेचैनियों को भी प्यार से सहला दे?

सचमुच , बहुत कृतज्ञ है विभा डॉली के प्रति।

विभा ने सर झटका। मगर स्मृतियां तो दूर-दूर तक पीछा नहीं छोड़तीं...। अनु से विभा बनने की प्रक्रिया में कितने स्तरों से गुजरी है वह... किस-किसको भुलाए... किस-किसको सहेजे?

अनु अब काफी बड़ी हो गई है... लगभग 10-11 वर्ष की। छठी क्लास में पढऩे वाली स्मार्ट लडक़ी। डैडी के लिए न रोने वाली। मम्मी की प्यारी अनु। जब डैडी कहीं बाहर चले जाते हैं, तो वह मम्मी की छातियों में मुंह छुपा कर सो जाती है। लेकिन अनु अब काफी समझदार हो गई है। उसके क्लास की एक लडक़ी रमा बताती है कि जिनकी छातियां बड़ी होती हैं , उनमें दूध भरा होता है।

अनु ने इसके बारे में सन्नो से पूछा, तो सन्नो ने गंदी बात कह कर उसे डांट दिया। खैर, होता होगा कुछ। लेकिन अनु को परेशानी है कि उसकी छातियां इतनी छोटी क्यों हैं।

एक रात अचानक अनु की नींद खुल गई। सन्नो उससे बेखबर उसके बगले में सो रही थी। अनु के हाथ स्वत: ही सन्नो की ओर बढ़ गए। झटके से नींद खुली सन्नो की। कुछ क्षणों के लिए वह विचारशून्य-सी पड़ी रही। फिर धीरे-धीरे स्थिति के प्रति जागरूक होती गई। उसे यह समझते देर न लगी कि ये हाथ उसकी बगल में लेटी अनु के हैं।
सन्नो को सिहरन-सी हो आई।अनु के हाथों का स्पर्श उसे अच्छा तो लग रहा था, लेकिन साथ ही उसकी इच्छाओं को विस्तार भी दे रहा था। वह अनु के जिज्ञासायुक्त हाथों के स्पर्श को अपने पूरे वजूद के साथ भोगने लगी। धीरे-धीरे सन्नो के संयम को अंत हो गया और उसने अनु के छोटे-से जिस्म को अपनी बांहों में बांध-सा लिया। अनु की सांस घुटने लगी। लेकिन वह चुपचाप सन्नो के साथ चिपकी पड़ी रही।

संवेदना और समर्पण पर आधारित यह रिश्ता धीरे-धीरे विकसित होता गया। अनु और सन्नो दोनों एक-दूसरे की मन: स्थिति व आकांक्षाओं के अनुरूप ढलने में तत्पर-सी रहतीं। लेकिन यह संबंध भी डेढ़ -दो वर्षों तक ही चल पाया। अनु से अलग हटकर भी सन्नो का अपना आकाश विकसित हो उठा। उस आकाश ने अपनी बांहें फैलाई और सन्नो उसमें ललक कर समा गई।

उस दिन दरवाजे पर सन्नो खड़ी थीं। खूब बढिय़ा कपड़े पहने, बगल में सांवले रंग का एक युवक  था। सन्नो ने अंदर आकर मम्मी को नमस्ते की और अनु की ओर मुस्कुराते हुए देखने लर्गी।

अरे सन्नो। तू कहां चली गई थी? मम्मी पास आकर बोलीं।

जी...जी... मैंने शादी कर ली है। सन्नो शरमाते हुए बोली।

आगे सन्नो ने कुछ नहीं कहा। उसकी आंखों की पुतलियों के सहारे मम्मी का ध्यान दरवाजे की ओर चला गया। मम्मी सकपका-सी गई, अरे, अंदर बुला लो उसे... बाहर क्यों खड़ा कर रखा है?

और थोड़ी देर बाद सन्नो हंसती-खिलखिलाती चली गई। जाते-जाते अनु के पास आई थी, अनु मैं आया करुंगी... तुम घबराना मत... अच्छा।

अनु रुआंसी-सी हो उठी थी-क्या हुआ, सन्नो चली गई तो। लेकिन उस रात अनु की आंखों से नींद गायब थी। आंखों से आंसू के कतरे झलक-छलक हाते थे। बहुत दिनों तक अनु सन्नो की अनुपस्थिति को स्वीकार न कर पाई। कभी-कभी उसे लगता कि सन्नो आ गई है और खाने या पढऩे के लिए कह रही है। वह थोड़ा चेतन होती, तो वहां कोई न होता।

अकेलापन से उपजी निराशा और दुख से अनु को मुक्ति दिलाई पुष्पा ने। करीब महीने भर बाद डैडी के दफ्तर का क्लर्क पुष्पा को लाया था। पुष्पा ने आते ही सन्नो का काम-काज संभाल लिया। पहले यह अनु की सहेली बनी, फिर धीरे-धीरे अनु के मन की कोमल परतों में समाती चली गई। दिन बीतते रहे। पुष्पा का सुंदर शरीर अनु की संवेदनात्मक और भौतिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करने में तो काम आया, लेकिन उसने अनु की इच्छाओं को विस्तार दे दिया।

अनु विभा बनने की प्रक्रिया में थी। जिस किशोरावस्था के दौर में विभा के मन व सोच को किसी किशोर के इर्द-गिर्द होना चाहिए था, वह समय पुष्पा के बारे में चिंतन करने में लगता।

पुष्पा के जाने के बाद विभा की दुनिया में जो खालीपन आया, उसमें उसकी पढ़ाई-लिखाई, कोर्स, कॉलेज आदि की व्यस्तताओं ने अपना स्थान बना लिया। छोटी-छोटी चीजों से घायल होने वाली विभा एक होनहार छात्रा हो रही थी। लेकिन कभी-कभी कुछ घटनाएं घटती हैं और वर्तमान एवं अतीत के तारों को जोड़ देती हैं।

उस दिन भी ऐसा ही घटित हो गया। मनोविज्ञान का क्लास चल रहा था। मिस पॉल लेक्चर देरही थीं, व्यक्तित्व के विकास में किशोरावस्था का महत्वपूर्ण योगदान है। इस अवस्था में काम भावनाओं का पुनर्जागरण होता है। इसमें विपरीत लिंग की ओर आकर्षण बढ़ता है। किशोर या किशोरी की इच्छा यह रहती है कि उसका अधिकांश समय विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ गुजरे।

विभा खामोश थी। सारा  क्लास खामोश था। लेकिन विभा के दिगाम में कई प्रश्न सीटी की तरह गूंज रहे थे-नहीं-नहीं। यह एकदम सच नहीं है। विभा के लिए तो कतई नहीं।

सुबह की ही घटना थी। विभा कॉलेज आ रही थी।

जरा सुनिए। एक पतली-मोटी आवाज का सम्मिश्रण बहता हुआ आया। पड़ोस में रहने वाला नितिन था। नितिन से विभा की कोई जान-पहचान न थी। विभा ने गौर किया था कि महीने भर से वह उसे कॉलेज जाते समय रास्ते में खड़ा मिलता। उसे चिढ़-सी होती थी। नितिन की घूरती हुई आंखें देख कर विभा तन कर चलती हुई निकल जाती-हुंह, ये लडक़े क्या करते रहते हैं... सडक़ पर घूमना अच्छा लगता है? घूमें... भुगतेंगे एक दिन सब-विभा सोचती।
विभा के साथ ही सुमन भी कॉलेज जाती थी। एक दिन सुमन ने कहा था, जानती हो विभा, वो नितिन है न , उसने भैया से कहा है कि वह तुमको बहुत पसंद करता है।

इन लोगों को कोई ओर काम नहीं रहता क्या? विभा ने नाराजगी जताई। सुमन चुप हो गई।

वह नितिन था... आज सुबह उसके सामने।

जी... वो आपसे बात करनी है। नितिन की आवाज और आंखों की पलकें कांप-सी रही थी। आंखों में पानी की हलकी-सी परत भी आ गई। 

कीजिए। विभा बोली।

देखिए... ऐसा है कि आप मुझे बहुत अच्छी...

नितिन का वाक्य अधूरा ही छूट गया था कि विभा फट-सी पड़ी, देखिए मिस्टर, मुझे यह सब कतई पसंद नहीं ... मैं तो महीने भर से आपसे परेशान हूं। आईंदा आपने इस तरह की हरकत की, तो ठीक नहीं होगा।

नितिन की आंखे झुक-सी र्ग। कातर दृष्टि से वह देखता रहा और विभा तेज कदमों से सुमन के घर चली आई थी।
विभा को लडक़े एकदम पसंद नहीं हैं-पता नहीं क्यों? उसे लडक़े इतना क्रू र क्यों लगते हैं? रूखा चेहरा, भोंडी मुस्कराहट, और कठोर व्यक्तित्व।

लेकिन वह भी तो किशोरावस्था में ही है... मिस पॉल क्या कह रही हैं...विभा के साथ तो ऐसी कोई बात नहीं... वह तो कोमल और खूबसूरत लड़कियों को पसंद करती है। उनसे बातें करना चहाती है।

..उनसे लिपटना चाहती है। उनसे प्यार करना चाहती है।

मिस पॉल का पीरियड समाप्त हो गया। वे अपने चैम्बर  में चली गई थीं। विभा हिचकते हुए मिस पॉल के चैम्बर में चली गर्ई।

क्या बात है? किस पॉल ने विभा की आंखों में देखा।

कुछ पूछना है मिस।

क्या है, बोलो?

जी मिस... आपने कहा है कि किशोरावस्था में अपोजिट सेक्स की तरफ आकर्षण होता है, मगर मेरे साथ तो ऐसी कोई बात नहीं... क्या यह जरूरी है कि ऐसा  सबमें हो? विभा ने एक बार में ही अपनी परेशानी बता दी।

मिस पॉल मुस्कुराई, स्वाभाविक रूप में यही होता है... लेकिन हो सकता है तुम्हारे उपर कुछ और संसकार हावी हों।

नहीं, मिस... पता नहीं क्यों , मुझे लडुके जंगली लगते हैं विभा ने मिस पॉल के चेहरे पर अपनी बात फेंक-सी दी।
मिस पॉल घड़ी की ओर देखती हुई उठ गई, देखों, इस समय मेरा पीरियड है... फिर मिल लेना या कल संडे है... दिन में घर आ जाओ। 

विभा लौट आई। मिस पॉल का घर कोई दूर नहीं था उसके धर से। दो-ढाई किलोमीटर का फासला है, बस। वैसे भी कॉलेज के वार्षिकोत्सव के दौरान वह उनके घर जा चुकी थी।

यह एक ठंडी दोपहरी थी। बादल,आसमान को नजरों से दूर किए हुए थे। सर्द हवाओं के झोंके क्षण-क्षण के अंतराल पर सिहरन पैदा कर रहे थे। बीच-बीच में हलकी-हलकी बौछारें भी पड़ रही  थीं। सर्दी जैसे भटकती हुई जिस्म के अंदर घुस जाना चाहती थी। लोग अपने घरों में दुबके पड़े थे। लेकिन विभा मिस पॉल के घर की ओर रवाना हो गई, हालांकि मम्मी ने बहुत मना किया था कि इतनी वर्दी में बाहर न निकले।

रिक्शा सडक़ पर धीरे-धीरे बढ़ता चला जा रहा था। मिस पॉल के फ्लेट पर पहुंचने से पहले ही पिुर बौछारें पडऩे लगीं। विभा के कपड़े काफी गीले हो गए। रिक्शेवाले को पैसे देकर वह बरामदे में आई। कॉल बेल दबाने के बाद काफी देर तक विभा को इंतजार करना पड़ा, तब मिस पॉल ने दरवाजा खोला, अरे विभा, तुम? आओ...आओ।

विभा सकुचाई-सी अंदर चली गई। मिस पॉल ने उसके कपड़ों को छू कर देखा, तो गीले थे वे। वह विभा को बेडरूम में लेती गई। रूम हीटर के कारण कमरा गर्म था। विभा की जान में जान आई।

मैंने तो सोचा था, आज तुम नहीं आ पाओगी। मिस पॉल की आंखेंं उसके गीले कपड़ों पर थीं, ऐसा करो, ये कपड़े उतार दो... अभी सूख जााएंगे। तब तक तुम कुछ और पहन लो।

नहीं मिस, आप परेशान न हों।

अरे नहीं, तबियत खराब होजाएगी तुम्हारी। ठंडक के मारे विभा का हालत खराब थी। ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी वह। मिस पॉल ने आलमारी से गाउन निकाल कर उसकी ओर बढ़ाया। विभा के संकोची हाथों ने उसे ले लिया।
यहीं चेंज कर लो... तब तक मैं कॉफी बना कर लाती हूं मिस पॉल किचन की ओर चली गई।

विभा ने जल्दी से अपने कपड़े उतारे। बेडरूम के प्रकाश में उसका दुधिया शरीर चमक उठा। उसने जल्दी से अपने बदन को तौलिए से पोंछा और गाउन पहन लिया।

मिस पॉल कॉफी की दो प्यालियां लिए हुए आई। विभा ने प्याला ले लिया। मिस पॉल काफी पीकर रजाई में धुस गर्ई। विभा सिमटती-सी एक किनारे बैठी रही। उम्र में अधिक अंतर न होने के कारण दोनों में पटती तो थी, लेकिन छात्र-शिक्षक की लकीर दोनों के दरम्यान खिंची रहती थी।

कुछ देर तक औपचारिक वार्तालाप चलता रहा। फिर मिस पॉल मुख्य विषय पर आ गई हूं तो तुम कल क्या कह रही थीं।

विभा थोड़ा चिझकी, मगकर उसने अपनी परेशानी बता दी। मिस पॉल हंसी, अरे, तो घबराने की क्या बात है... खुद मेरे साथ यही है.... तुम्हारे साथ कोई अनहोनी बात नहीं जुड़ी है।

लेकिन आप तो कल किशोरावस्था की विशेषताएं पढ़ा रही थीं। मिस तो....? विभा ने प्रतिवाद किया।

हां, नॉर्मली यही होता है... लेकिन व्यक्तित्व के विकास में कोई व्यवधान अहा जाता है, तो थोड़ी अस्वाभिकता आ जाती है। मिस पॉल ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा, देखों विभा शिशु जब पैदा होता है तो उसे साथ मिलता है सिर्फ मां का। जब वह थोड़ा बड़ा होता है तो लडक़ा है तो मां की तरफ आकर्षित होता है या उसे चाहने लगता है। लेकिन लडक़ी शुरू से ही अपनी शारीरिक बनावट के कारण हीन भावना से ग्रस्त होती है। अत: वह प्रत्यक्ष रूप से अपने पिता को प्यार करती है। इसे इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स कहते हैं। लेकिन जब उसमें नैतिक मूलयों का विकास होता है, तो उसे लगता है कि नैतिक रूप से वह ठीक नहीं । तब वह अपने पिता की जगह किसी दूसरे व्यक्ति की तलाश करती है।

विभा की आंखें झुक-सी गई। मिस को कैसे बताए वह कि वह प्रेम पात्र की जगह डैडी को नहीं, सन्नो और पुष्पा को ढूंढना चाहती है। उसके दिल में प्यार है मम्की के लिए न कि डैडी के लिए। लेकिन वह चुप रही।

लगता है, बचपन में तुम्हे डैडी का प्यार नहीं मिला। मिस पॉल ने विभा को कुरेद-सा दिया।

हां मिस... ऐसा ही समझिए। बचपन में तो मैं डैडी से मिल ही नहीं पाती थी।

तुम्हारा ज्यादा समय किसके साथ बीतता था? मिस पाँल ने अब तक का सबसे खतरनाक सवाल उसके सामने रख दिया।

कुछ क्षणों की खामोशी के बाद विभा को बताना ही पड़ा- सन्नो के साथ वह हमारे घर पर काम करती थी।

कैसी थी वह? 

ठीक थी। विभा गड़बड़ा गई।

लगता है, बचपन में तुम्हे उससे ही प्यार हो गया था। मिस पॉल हंसते हुए पूछ पड़ी, आजकल वह कहां है?

पता नहीं। विभा ने नजरें चुराई।

वास्तव में, विभा, तुम सन्नो को चाहती हो, उसी से जुडऩा चाहती हो... या यों कहो कि तुम सन्नो की जगह ही किसी को स्थापित करना चाहती हो। यही सच है-क्यों? मिस पॉल की स्पष्टता ने उसे स्तब्ध-सा कर दिया। वह शांत बैठी रही। बड़ी मुश्किल से मिस पॉल से नजरें मिला पा रही थी वह।

इधर देखो... मेरी ओर। मिस पॉल ने उसकी ठुड्डी को उपर उठाया।

विभा ने अपनी आंखें उठाई। वह अपनी निगाहें मिलस पॉल के चेहरे से हटा न पाई। अपने महसूस किया कि कोई उससे कह रहा है, मेरे साथ भी यही हुआ है, विभा... बिल्कुल यहीं, देखो। आज मैं कितनी अकेली हूं... मेरा कोई दोस्त नहीं है... कोई दुश्मन नहीं है... मेरा अकेलापन मेरी छाया की तरह मुझसे जुड़ा है- फर्क यही है कि अंधेरे में यह और भी मजबूती से दामन थाम लेता है।

विभा हतप्रभ सी मिस पॉल का आलाप सुन रही थी। मिस पॉल के जोर-जोर से बोलने के कारण उनका सीना तेज से उठ-गिर रहा था। नहीं... ये मिस पॉल नहीं हैं... यह सन्नो है... सन्नो, जिसके शरीर का एक-एक भूगोल विभा को मालूम था। हां, यह वही सन्नो है... ये सन्नो की गुलाबी आंखें हैं... ये आंखें उसे बुला रही है।

क्या करे वह ? कैसे बचाए खुद को इस आकर्षण? ये मिस पॉल हैं नहीं-नहीं , सन्नो है।

अचानक मिस पॉल ने उसे इस अंतद्र्वन्द्व से मुक्ति दिला दी। उनकी संगमरमरी बांहों ने विभा को नजदीक खींच लिया। मिस पॉल ने उसके सिर को अपनी गोद में रख उसके कपोलों पर अपने होठ रख दिए। युगों-युगों से प्यासी विभा मिस पॉल के शरीर में डूबती चली गई।

कॉलेज छोडऩे के बाद विभा विश्वविद्यालय में आ गई थी। मिस पॉल भी जिन्दगी की दौड़ में कहीं पीछे छूट गई। उन्हीं दिनों एक दूसरा नितिन भी आया उसकी जिन्दगी में। डैडी की इच्छा थी कि विभा की शादी अनूप से हो जाए। अनूप उसे खूब चाहता था। लेकिन विभा ने डैडी से सख्त मनाही कर दी। बाद में अनूप मिला था... काफी अजीब हालत में। शादी भी नहीं की थी उसने। वह हीन भावना का शिकार हो गया था। नजर भी नहीं मिला पा रहा था विभा से। लेकिन विभा पर कोई असर नहीं हुआ था। वह उसी तरह सामान्य ढंग से मिली थी उससे। उससे मिल कर विभा के मन में यही विचार उठा ाकि लोग किसी को स्वतंत्र क्यों नहीं रहने देते। क्यों अपनी इच्छाएं लादते हैं? कोई अपनी इच्छा से जी भी नहीं सकता।

लेकिन विभा ने सब कुछ नकारा। डैडी-मम्मी से विद्रोह कर वह यहां आ गई। बड़े घर की लडक़ी का फ्रेम उसने वहीं छोड़ दिया। डैडी के पूरे साम्राज्य व परिवेश को बेरहमी से छोड़ कर उसने किससे बदला लिया- उनसे या इस तरह की मानसिकतावाले पूरे समुदाय से, यह उसने कभी नहीं सोचा। वह तो उस माहौल से सिर्फ नफरत करने की शक्ति व इच्छा रखती है। उसे तो बस उस घुटन भरे वातावरण से निकलना था। अपनी एक स्वच्छन्द दुनिया बसानी थी- एक ऐसी दुनिया, जहां वह अपनी इच्छा से जी सके।

डॉली आफिस से लौट आई है। विभा अन्यमयस्क सी बिस्तर पर पड़ी रही।

क्या बात है, तबीयत ठीक नहीं है क्या? डॉली करीब आ कर बैठ गई।

कुछ खास नहीं , थोड़ा, हेडेक है... तू जा, फ्रेश तो हो ले। विभा अपने अकेलेपन को आज भंंग नहीं करना चाहती। वह सिर झटक देना चाहती है- क्यों अतीत याद आने लगता है उसे... आखिर क्यों? ओफ, लेकिन यह मात्र शारीरिक सुख? मात्र चंद क्षणों का अस्थायी भ्रम...? लेकिन क्यों?  इसके पीछे क्या तर्क है विभा का? उसकी उपलब्धि क्या है? लेकिन किसी की इच्छा जरूरी तो नहीं कि मान्य हो ही।

विभा करवट बदलती है।

अनु, प्यारी-सी बच्ची... डैडी का प्यार न मिला, तो क्या हुआ? मम्मी तो थी। सन्नो...सन्नो से संतुष्टि... नहीं, वह संतुष्टि नहीं थी...भ्रम था वह, पलायन था, अपने-आपको भूल जाने का प्रयास था। लेकिन नितिन... अच्छा-सा लडक़ा... बेचारा नितिन। उसका तो विभा की तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक बात ही थी।

विभा सिर झटकती है- यह मेरी इच्छा थी... लेकिन इच्छाएं सर्वमान्य नहीं होतीं। किसी-किसी के लिए हो सकती हैं... लेकिन नहीं, उनके पीछे निश्चित उद्देश्य होता है। क्या है उद्देश्य? कुछ नहीं... कुछ भी नहीं...मात्र भ्रम... स्वाभाविकता से पलयान...। नितिन की कुंठा के लिए जिम्मेदार।

और मिस पॉल? क्या किया उन्होंने? रास्ता बताया, नहीं रास्ता ढूंढऩे की क्षमता भी नष्ट कर दी उन्होंने। क्यों, वहां तो वह समाधान के लिए गई थी? उनके साथ संबंध... मात्र एबनार्मल्टी... केवल क्षणिक सुख की तलाश।

और अनूप... वह बेवकूफ था... नहीं... वह बेवकूफ नहीं था। तो क्या मैं बेवकूफ थी...? वह क्यों परेशान हुआ? इसका जिम्मेूदार कौन है? मात्र स्वार्थी इच्छा... ओफ...।

विभा के शरीर में अजीत-सी सिहरन होने लगीं। विचार उसे मथने लगे- नितिन...सन्नो...सुमन...अनूप...मिस पॉल...डॉली...नहीं, मैं गलत नहीं हूं... मैं, मेरी मर्जी क्या मैं स्वतंत्र नहीं हूं? लेकिन कैसी स्वतंत्रता? जो दूसरों की कुंंठाओं के लिए जिम्मेदार है... मैं जिम्मेदार हूं। नहीं, यह सच नहीं है...। यही सच है... नहीं...नहीं विभा उठ कर बैठ गई। उसकी मनस्थिति विचित्र-सी हो उठी-ये सब बातें उसे क्यों परेशन कर रही हैं- वह नहीं जान पा रही। वह भूल जाना चाहती है सब कुछ ...अतीत को...वर्तमान को...खुद को...

लेकिन इतना आसान नहीं है अपने अतीत को झटक कर फैंक देना। मैं जिम्मेदार हूं...मैं अपराधिनी हूं... नहीं-नहीं... विभा की जोरदार चीख कमरे में गूंजी। डॉली दूसरे कमरे से दौड़ती हुई आई।

तुम..तुम कौन हो? तुम भी मुझे गलत समझती हो? विभा का चेहरा वीभत्स-सा हो आया, नहीं मैं गलत नहीं हूं...

अजीब-सा पागलपन उस पर सवार था, तुम हट जाओ..., तुम मुझे दंड देना चाहती हो? नहीं, मैं स्वतंत्र हूं...मैं जो चाहूंगी... वहीं करुंगी। 

विभा का शरीर पसीने से नहा-सा गया। उसकी आंखों की पुतलियां फैल-सी गई। वह डॉली को घूर रही थी, नहीं, तुम सब मुझे नष्ट कर देना चाहती हो।

वह आगे बढ़ कर डॉली के कंधों को थाम लेती है, मैंने कुछ भी गलत नहीं किया..., सब चाहते हैं न कि मैं दूर चली जाऊं? मैं चली जाऊंगी... सबसे दूर... इस दुनिया से दूर।

और फिर, देर रात तक विभा की चीखें कमरे में गूंजती रहीं।
..

58  -
भालो मानुस 
[ जन्म : 15 दिसंबर , 1959 ]
बी.आर.विप्लवी

                                                                                         
स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही उसकी चीखती हुई आक्रामक आवाज़़ ने कोच के दरवाज़े पर खड़े यात्रियों को जैसे धकिया दिया हो। सभी सवारियाँ उत्सुकतावश गेट की ओर गर्दन घुमाने-उचकाने लगीं ताकि नई  सवारी की धमाकेदार आमद और उसके रौबदार आत्म-विश्वास के सबब उसे देखा-जाना जा सके। गेट पर खड़ी मुसाफ़िरों की भीड़ रूपी टाटी में घुसने भर की जगह बनाने के लिए उसने हाथों का कम और ज़बान का ज़्यादा इस्तेमाल किया था और इस टाटी के दो-फ़ाड़ करती हुई वह देवी हमारे डिब्बे में साधिकार दाख़िल हो गई । क़ाज़ी हाउस या कसाईबाड़े की तंग कोठरी में हाँफते जानवरों के बीच में जैसे कोई अजनबी जानवर आकर पहली दफ़ा शामिल हुआ हो । कुछ ऐसी ही धक्का-मुक्की करती, कंधा से कंधा रगड़ती भीड, दम साधे अपने गन्तव्य स्टेशन की बाट जोह रही थी कि इसी बीच किसी सख़्त दीवार में ड्रिल मशीन सी जगह बनाती यह श्यामांगी युद्ध की भेरी बजाती हुए आइ  और कील की तरह इस भीड़ की दीवार में फिट हो गयी । जगह देने की उसकी विनय या अपील नहीं थी बल्कि एक अल्टीमेटम था । उससे डर कर नहीं तो कम से कम बिना-वज़़ह के लफ़ड़े से बचते हुए ही सही; अपने को शरीफ़ दिखाते हुए यात्री अपनी काया को ज़बरन सिकोड़ते हुए उस दैवी-सवारी के लिए जगह बनाने लगे । इस धर्मयुद्ध या ज़ेहाद में कामयाबी हासिल करने के बाद, कुछ क्षण तो वह लम्बी साँसें भर कर संघर्ष से राहत का प्रकाशन करती हुई मौसम में ऊमस के नाम लानत भेजती रही । कुछ संयत होकर उसने अपने पाँच-छः साल की बड़ी बेटी और चार साल की छोटी बेटी दोनों की गर्दन में हाथ देकर धकियाती हुई  भीड़ की सुराखों को बलात फैलाती हुए जगह तलाशती आगे बढ़ने लगी ।  भीड़ के गणितीय ज़ोर को भीड़ के ही मनोविज्ञान  से पानी की तरह तरल करती हुई  वह उस पार से इस पार तक तैर आइ  थी जिसे देखकर सबने दाँतों तले उँगली दबा ली ।     

वाक़िआ महानगरी की उस लोकल ट्रेन का है, जो सियालदह-लाल गोला रूट पर चलती है। कृष्णानगर से सियालदह जंक्शन तक पहुँचने का अल्प समय यादों की लम्बी फेहरिस्त में महत्त्वपूर्ण  बनकर यूँ जुड़ा कि उसके सजीव चित्र आज भी आँखों में उतर आते हैं ।  इतवार होने के बावज़ूद भी दोपहर की लोकल में पाँव जमाने भर की जगह भी ग़नीमत थी। कृष्ण जन्माष्टमी के त्योहार एवं  यहां के स्थानीय  “मनसा” पूजा के कारण शायद  ऐसा हुआ हो । ऊमस भरी गर्मी के कारण पसीने से तर-ब-तर स्त्री-पुरुष जैसे साँसे रोके प्रतीक्षारत  थे । भीड़ की चिल्ल-पों, नन्हें बच्चों का रोना चिल्लाना और हाकरों की मन-लुभावन ललकार के नाद-निनाद; जल-प्लावन में पड़े  उठते-गिरते लकड़ी के गुटके की तरह, ऊब-डूब कर रहे थे-  द्रुत और विलम्बित ख़याल की बेतरतीब प्रस्तुति की तरह ! कोच के दोनों  दरवाज़ों तक लोकल  ट्रेन के मुसाफ़िरों का रेला अटा पड़ा था । स्टेशन आते ही जितने मुसाफ़िर उतर रहे उससे कहीं  अधिक चढ़ रहे थे । हालत बद से बदतर होती जा रही थी । हवा के एक झाँपे के लिए तरसता पसीना, बरसता जाता और हौल-दिली बढ़ती ही जा रही है थी । इन दृश्यों में ख़ुद शामिल होकर भी मैं दर्शक बना हुआ होऊं जैसे । 

कृष्णानगर रेलवे स्टेशन से ट्रेन के खुलते ही कई मुसाफ़िर भीड़ की इस दम-घोंटू रस्साक़शी में मजबूरन ज़ोर आज़माइश करते हुए हारकर स्टेशन पर ही छूट गये । उनकी नज़रों में निराशा से अधिक उलाहने का भाव साफ़ पढ़ा जा सकता था । सुबह- सवेरे बादलों  की लुका-छिपी और हल्की धुन्द में बारिश का आसार नहीं था किन्तु दोपहर तक धूप न होने की ग़लतफ़हमी  से कई   लोगों  के नंगे सिर को बादलों से छनकर आ रहे गुप्त-ताप से जलाना भी नहीं छोड़ रहा  था   बादलों का खेल सूखे हुए पानी के चाँपाकल की तरह ढाढ़स तो बँधता रहा किन्तु प्यास बुझाने के नाम पर छलावा ही साबित हो रहा था । ट्रेन चलती तो हवा भी जबरन प्रवेश की सी आहट देती । पसीना पोंछने के लिए हाथ हिला पाना भी दुश्वार । टपकते पसीने से एक दूसरे के कपड़े भिंगाना तो स्वयमेव चल रहा था । भीड़ की धक्का-मुक्की में मुचड़ते कपड़े अब अजीब चिपचिपाहट पैदा करने लगे । डेली पैसेन्जरों के लिए यह मामूली बात थी । गाड़ी ने रफ़्तार बढ़ाई  तो हवा का एक झोंका पसीने से मिलकर जिस्म को ठंडेपन की ख़बर दे गया । यूँ तो गाड़ी के खोमचे वाले और दूसरे हाकर भी इस भीड़ में एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच पाने में ख़ुद को असमर्थ पा रहे थे किन्तु उनका तो रोज़ का काम है, वे इसकी परवाह करने लगे तो रोटी के लाले पड़ जाएं । वे यात्रियों की डांट-डपट और थुक्का-फ़ज़ीहत झेलकर भी अपने नरम लहजे से लोगों को रिझा ले रही थे तथा  कुछ न कुछ धन्धा कर ही ले रहे थे- पापी पेट के सवाल पर ।जब हम ट्रेन पकड़ने के लिए रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रहे थे उस समय से लेकर ट्रेन के छूटने से पहले तक हम महानगर के इस जीवन-संग्राम को देखने-परखने में यूं मश्गूल थे कि ’घूमन-हाट’ में ख़रीदे गये पुतलों की याद ही नहीं रही । अब याद आया कि पुतुल तो पैक होकर दुकान पर ही छूट गये ।  इस पर परेशान होना स्वाभाविक ही था । पुतुल और सूती वस्त्रों की ख़रीदारी का लोभ ही  हमें कालीगंज से यहाँ तक की चालीस कि॰मी॰ लम्बी सड़क की यात्रा कराने का कारण बना था । अब इन पुतलों ने तो हमारे किए पर जैसे पानी ही फेर दिया हो । इस छोटी सी किन्तु महत्वपूर्ण  चीज़ को हासिल करके खो देने के भाव ने स्मृतियों में इस यात्रा के कई  भूले-विसरे प्रसंगों को सामने ला पटका । इन पुतुलों को लेने के लिए हम हरिनाथपुर (कालीगंज) से सुबह ही चल पड़े थे ।  इस बहाने यहाँ का देहाती क्षेत्र देखने का एक मौक़ा भी अनायास हाथ लग गया था ।  धनखेतों  की धानी चादर का विस्तार आँखों की सीमा से परे तक और बीच-बीच में आम के बाग़ या छिट-पुट वन-प्रांतर  के वृक्ष । ट्रेन की रफ़्तार और कम्पार्टमेन्ट के दृश्यों से थोड़ा  हटकर, आँखें बन्द किए हुए, हम बीते दिन की यात्रा में जैसे शरीक़ हो गये ।

कल  का मंज़र  आज से अलग तो थी ही किन्तु वहाँ भी नयापन और अजनबीयत का कौतूहल-मय मिश्रण था । सियालदह स्टेशन से चल रही भागीरथी इक्सप्रेस के ए.सी.कोच में आज जैसी धक्का-मुक्की तो नहीं थी किन्तु इसका भरपूर फ़ायदा फेरीवाले, खोन्चेवाले और डेली हाकर्स उठा रहे थे । कोच में लगा कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर के साथ महात्मा गाँधी के बड़े फ्रेम वाली तस्वीर जैसे यात्रियों और फेरीवालों  की कारगुजारी से निस्पृह होकर आपस में गंभीर मंत्रणा कर रही हो । यात्रा की शुरुआत से लेकर अन्त तक  नई -नई  चीज़ें दिखाने-बेचने का क्रमिक सिलसिला चल रहा था । झालमुड़ी वाले के गले में लटकता पट्टा और उससे झूलता चौकोर बॉक्स, बॉक्स में रखे एल्यूमुनियम के गिलासनुमा बड़े-बड़े पात्रों में भरी मूढ़ी, दालमोठ, कटी प्याज, भुना चना, पापड़ी, सादा नमक, काला नमक, मसाला, नीबू, कागज़ के खोमचे, बोतल में भरा सुच्चा सरसों का तेल और कच्चे नारियल की कटी हुई लंबी फांक । सलीक़ से सजे पात्रों को एल्यूमुनियम के गोल ढक्कन से बन्द किया हुआ  ये ढक्कन सूती रस्सी में नत्थी रहते है जिसे आसानी से हटाकर बॉक्स के चारों ओर झूलते छोड़ा  जा सकता है ताकि काम में अनावश्यक विलम्ब और असुविधा से बचा जा सके । बॉक्स का यह पेटेन्ट  डिजाइन शायद अभी तक अन्य शहरों ने हासिल नहीं किया है । ग्राहकों के इशारे पर वह सामग्री की आवश्यक मात्रा को अपने तज्रबे के अनुपात में एक प्लास्टिक के मग में डालता जाता और अन्त में सरसों के तेल को बोतल के ढक्कन में बने सूराख से उड़ेलता । अन्ततः इस मिश्रण को चम्मच डालकर गोल-गोल घुमाता और अपने फाइनल प्रोडक्ट को अख़बारी काग़ज के ठोंगे मैं रखकर ग्राहक को बड़ी तहज़ीब से पेश करता-नारियल गिरी की पतली फांअशक के साथ।  इस कारोबार के पीछे चायवाला, विस्कुटवाला, नाश्तावाला आदि भी बारी-बारी से अपना उत्पाद लगाते जाते ।  मूँगफली-चीनिया-बादाम, लेमन-चूस, पानी की बोतल, अंडा- सब कुछ आपको बैठे-बिठाए उपलब्ध होता है । भागीरथी इक्सप्रेस के रानाघाट से छूटते ही कोच में रंगा-रंग सामानों की जैसे प्रदर्शनी सी लग गयी । तौलिया, रूमाल, गुड्डा-गुड़िया, टार्च, पेन, नेल-कटर, थैला, बटुआ, ताला, मोबाइल कवर, पर्स, आई कार्ड कवर और ऐसे ही ढेर सारे सामानों को बेचनेवाले अपनी उपस्थिति से यात्रा का आकर्षण बढ़ाए दे रहे थे  ।  बंगला साहित्य के महान कवि- कथाकार अनिल घड़ाई और श्रीमती सर्बानी घड़ाई के विशेष आग्रह पर और उससे भी बढ़कर अनिल की बिगड़ती तबीयत के चलते हमें बंगाल के इस निभृत और देशज इलाक़े की यात्रा में यहाँ तक आना पड़ा । 

अपरिचित इलाके में भी हमारे लिए यहाँ की स्थानीय भाषा-बोली और ख़रीद-फ़रोख़्त  का पूरा-पूरा लुत्फ़ था । रात सवा नौ बजे देबग्राम रेलवे स्टेशन पर उतरकर सामने की क़र्स्बाइ  बाज़ार से कुछ उपहार ख़रीदकर कालीगंज पहुँचते-पहुंचते रात के ग्यारह बज गये । कोलकाता में हो रही भारी बारिश के बावज़ूद भी कालेज-स्ट्रीट में किताबें ढूँढते हुए सारा वक़्त निकल गया था और “मिठुआ बाज़ार” से फलों की खरीद कर पाना भी सम्भव नहीं हो पाया था । बहरहाल, हमारी सारी आशंकाओं के बावज़ूद यह यात्रा रोचक थी किन्तु आज के माहौल की रोचकता तो ख़ुद को बचाने-समेटने में ही जाया हुई जा रही थी । कालेज-स्ट्रीट में घूमते हुए कल की बारिश से जितनी गुत्थम-गुत्थाई हुई  थी उससे कहीं अधिक आज इस लोकल ट्रेन की भीड़ से  हो रही है । इस उमस में कालीगंज की हल्की ठंडी शाम यादों में हमें सुकून दे पा रही है । अनिल घड़ाई  जी एवं उनके पूरे परिवार द्वारा जो आतिथ्य मिला था, उसकी भीनी ख़ुश्बू के बल पर ही हम ट्रेन में पसीने की दुर्गन्ध को झुठलाने में सक्षम हो पा रहे थे ।

अभी इन विचारों की सरणी में हम घूम ही रहे थे कि ट्रेन में धक्का-मुक्की से उठता शोर-शराबा किसी रणभूमि की चीत्कार भरे कोलाहल में तब्दील हो गया । हमने आँखें खोंलीं तो देखा कि ट्रेन एक हाल्ट स्टेशन पर रुकी है और भीड़ का रेला पहले से ही ठुँसी हुई ट्रेन में जबरन जगह बनाकर प्रवेश करने को आतुर है । अगला स्टेशन बद-खिपला है। रेलवे ट्रैक के किनारे टिन की छत वाली छप्परों की भरमार है जिनकी फर्श  तो सीमेंट से चुनी हुई ईंटों  की है  किन्तु कच्ची मिट्टी से लीपी-पोती हुई  दीवारें सीलन से भरी हुई  हैं। सामने ही पटसन के छरहरे घने पौधों से पूरा सीवान अटा पड़ा है । जूट-उत्पादन में इस इलाक़े का अग्रणी स्थान रहा है ।  इन्हीं किसानों के बल-बूते बंगाल की जूट मिलें अब भी कुछ न कुछ उत्पादन दे पाती हैं । आगे बीरपुर रेलवे स्टेशन का यात्री  प्रतीक्षालय म्यूरल की कलाकृतियों से सजा हुआ ख़ूबसूरत दिर्खाइ  दे रहा है । हरिनारायणपुर पहुँचते हुए बड़े-बड़े  पोखरे, सिंघाड़े की खेती से भरे दिखाई दिए जहाँ पूरी जल-सतह पौधों की लतरों से आच्छादित है ।  नदी पार के ऊँचे-नीचे कछारों में घने बाँस के जंगल हैं । बायीं तरफ़ मिले-जुले पेड़ों की प्रजाति वाला हरियाली से भरपूर घना जंगल है । रानाघाट स्टेशन पर भारी भीड़ देखकर फिर मन सिहर उठा । ट्रेन आगे बढ़ी तो रेलवे र्लाइन के किनारे लम्बे-सुरुहरे सुपाड़ी के  पेड़  तथा आजू-बाज़ू में नारियल-वृक्षों के झुरमुट का सम्मोहन दिखा । नये आमोले धान के खेतों तथा केले के पेड़ों के बीच-बीच में दिखाई दे रहे थे । इतनी हरियाली और ऐसी उपजाऊ ज़मीन देखकर कुछ पल के लिए मन का दुख-दर्द तो मिट ही जाता है ।  नई  अमराइयों की लाल कोंपलें दूर से लल-छौंहे फूलों का आभास देती हैं ।  दूर खेत में बकरी के पीछे भागती हुई अस्त-व्यस्त स्त्री अन्ततः उसकी पिछली टाँगें ही पकड़ पाई है । यूँ भी बकरी के पाँवों को रस्सिया से छान रखा गया है ,ताकि शाम होते वह कहीं दूर न निकल जाय ।

चकदह रेलवे स्टेशन और सिमुराली के आगे रेलवे र्लाइन से लगे नारियल, सुपाड़ी और केले के वृक्षों  की बहुतायत है जो हमारी बायीं तरफ़ से साफ़ नज़र आ रहे हैं । पान के पौधों के लिए फ़ूस की झोंपडियां हैं, जिनमें हल्की हरियावल लतरें और उनका घना झुरमुट आंखों को ठंडक पहुंचाता है । मर्दनपुर रेलवे स्टेशन और कांचरापाड़ा स्टेशन के बीच भी आम के आमोलों की भरमार है । कहीं-कहीं बेतरतीब जंगली पेड़ों की  हरियाली भी सुहावनी है । इस रेलवे स्टेशन पर स्टील की ऊँची पानी टंकी पर ब्रिटिश स्टाइल का वलयाकार ‘इम्ब्लेम’ बना है  जिस पर ’1882’ की इबारत लिखी हुई है । वर्कशाप में तैनात सुपरवाईजरों केघरों को उनकी नाम-पट्टी से ही पहचाना जा सकता है । बायीं तरफ़ रेलवे का भारी-भरकम कारख़ाना है जहाँ से सड़क की तिमुहानी पर कल्यानी इक्सप्रेसवे तथा रेलवे कारखाना-गेट का संकेतक देखा जा सकता है । नई हाटी का बड़ा रेलवे स्टेशन-प्लेटफार्म, भारी भीड़ समेटे हुए सामने ही आ गया है । 

 कोई  तीस-पैंतीस साल की युवती; साँवली काया पर ताँत की हल्की साड़ी टखनों के ऊपर तक बाँधें,आंचल को अपने उन्नत उरोजों के बीचों-बीच कसे हुए किसी भी भीड़-आपदा से निबटने के लिए जैसे तैयार हो ।  अपनी दो छोटी-छोटी बच्चियों के साथ भीड़ को ठेलती-ठालती, ब-मुश्किल गाड़ी में सवार हो र्पाइ  है । कोच के दरवाज़े पर दाख़िल होते ही उसकी ऊँची-कड़क आवाज़ ने लोगों का ध्यान बरबस ही अपनी तरफ़ आकृष्ट कर लिया है । बाँगला भाषा की मिठास को उसने अपनी तल्ख़ आवाज़ औ चुटीले लहज़े से मन-माफिक़ मारक बना लिया है । वह लगातार इस भीड़ में लोगों की संवेदन-हीनता पर लानत-मलामत भेज रही है । एक हाथ में झोला और दूसरे हाथ में दोनों बच्चियों की हथेलियाँ पकड़े वह भीड़ को बार-बार अपने दबाव में लेती हुई इस मानव-व्यूह को लगातार भेदती आगे बढ़ती जा रही थी । थोड़ा भी अवरोध होता तो वहाँ अपना सूत्र-वाक्य ऊँची आवाज़ में उछालती जिसका मतलब था कि एक औरत दो-दो बच्चियाँ साथ लिए खड़ी है और इस गाड़ी में बैठे लोगों की आदमीयत और शराफ़तत उसे बैठने भर जगह देने तक भी नहीं बची है । भीड़ के दबाव और उमस के कारण बच्चियों के माथे से पसीना टप-टप  चू रहा है । बड़ी बच्ची जो लगभग छः साल की है, अपने हाथ में भुट्टा लिए है और उसका अन्तिम दाना दाँतों से निचोड़ लेने में लगी है । छोटी जो लगभग चार साल की है, बीच-बीच में रोने-चिल्लाने लगती । ब-मुश्किल वह  यात्री -सीटों की पहली कतार तक तक पहुंची तो राहत की साँस ली । उसकी आँखों की पुतलियाँ उन यात्रियों के चेहरों को बारी-बारी पढ़ने लगीं जो सीटों पर बैठे थे । उसकी नज़रों की अपील ज़ाहिर कर रही थी कि कोई  खड़ा होकर उसकी बच्चियों और उसे बैठने भर की जगह दे दे । लोग जब उसकी हिक़ारत भरी नज़रें झेल नहीं पा रहे थे तथा उसकी तरफ़ देखने से बचते हुए बाहर की तरफ़ देखने का नाटक करते हुए मौसम की बातें छेड़ देते ताकि विषय-परिवर्तन हो जाय । उस केबिन में सीटों पर बैठे लोगों का पसीना दोगुनी रफ़्तार से छूटने लगा । यूँ तो सभी यात्री पसीने में एक समान नहाये हुए थे, किन्तु खड़े लोगों  की हौलदिली का अन्दा़ज़ लगा पाना बहुत कठिन नहीं था ।  उसने अपनी बड़ी बच्ची को लगभग ठेलकर हमारे सामने की खिड़की से सटा दिया । बच्ची अटैची पर चढ़कर अपनी ऊँचाई बढ़ाती हुई खिड़की के पार तक अपनी नज़रें ले जाने की युक्ति करने लगी । हमें लगा कि अब तो अटैची का सत्यानाश ही होने वाला है । उसे उतारकर ज़रा परे कर देना उचित जान पड़ा ।  इस कार्यवाही पर वह श्यामला लाल-पीली होने लगी और अपनी इतनी देर से ज़मा क़ोफ़्त को शब्द-वाणों से दनादन हमारे ऊपर वार करने लगी । उसके ज़बान  से निकली भाषा से  तीखी उसके चेहरे की आक्रामक रौद्रता थी और इस युद्ध में हमें अकेला झोंककर दूसरे यात्री इससे प्रहसन जैसा आनंद ले रहे थे- मानो वह कह रही हो कि बड़े भद्र लोग बनते हो तो जनरल क्लास वाली लोकल (ट्रेन) में आना ही नहीं चाहिए था-चले जाते ए.सी. कार में या ए.सी. कोच वाली ट्रेन में । वह अपनी बच्ची का हाथ पकड़कर उसे अपनी ओर लगभग खींचकर संयत करते हुए यह बता देना चाहती थी कि इन बच्चों को कोई  हेय नज़रों से देखेगा तो वह उसके साथ बाज़नी सी पेश आने वाली है । नई  हाटी से अगला स्टेशन काकीनारा है । जगहल स्टेशन से आगे हमें सिर उठाने की सुध आई । रेलवे र्लाइन के किनारे छोटी-छोटी रिहाइशी झोपड़-पट्टियोन का समूह खड़ा है ।  हर झोंपड़ी के सामने बाँस गाड़ कर उसके ऊपर टाट-पट्टी लपेटकर पाख़ाना और गुशलख़ाना का दीवारनुमा पर्दा बनाया गया है । बगल से ही बड़ा परनाला गुज़रता है । श्यामनगर रेलवे स्टेशन तक रेल लाइन के किनारे  वृहदाकार ताल-तलैया हैं । जिस जगह ताल नहीं हैं, वहाँ झोपड़ियां हैं ।  इच्छापुर रेलवे स्टेशन के आगे भी कमो-बेश ऐसे ही दृश्य हैं ।  झोपड़ियों और तालाबों की जुगलबंदी से रेलवे ट्रैक का किनारा ख़ाली नहीं रह पाया है ।  पलता रेलवे स्टेशन के आगे छोटा किन्तु घना जंगल है जिसमें रबर और अर्जुन के साथ र्कइ  अन्य किस्म के जंगली वृक्ष अटे पड़े हैं । बैरकपुर स्टेशन पर तो भारी भीड़ के धक्के ने भीतर की जन-दीवार को जैसे अपने धक्के से दरका दिया हो ।  नये मुसाफ़िरों का स्वागत नहीं हुआ था किन्तु उन्होंने अपने लिए ख़ुद ही जगह बना ली थी । लम्हे भर की भगदड़ थी जो ट्रेन के चलते ही शांत हो गई ।  भीड़ का असर हमारे कोच में इतना ज़रूर दिखाई  दिया कि अपनी बच्ची को दूर खड़ी देखकर वह श्यामांगी भी हमारी सरणी में आकर हमारी नाकों के ऐन सामने खड़ी होकर चैन की साँस तक ले पाने का जैसे अल्टीमेटम देने लगी हो । हम इसी उम्मीद में हर स्टेशन का इन्तज़ार करते रहे कि शायद अब वह उतरेगी ।  एक पल के लिए भी वह चुप नहीं हो रही थी । अपनी ज़बान की तेज कैंची से कितनों की खड़ी मूँछें कतर कर वह लोगों को बेपानी करती हुई विजयी भाव से थोड़ा और तनकर खड़ी हो गई  थी ।

 अभी-अभी टीटागढ़ रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर बिना शेड की सीढ़ियाँ और टूटे बेंन्च का नज़ारा  सामने से गुज़रा है । सामने “गाँधी प्रेम-निवास” बैरक का बोर्ड  टँगा दिखा है । नज़दीक ही कूड़े- कचरे के विशाल दुर्गन्ध-युक्त ढेर के बगल में इस बैरक के पास ही विकसित हो रहे पार्क  को देखकर कुछ उम्मीदें ज़रूर बँधी हैं ।  कुछ समय बाद शायद इस बैरक की साँसों को भी पर्याप्त ऑक्सीजन मिल सकेगा । खारदाह रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म की बाउन्ड्री इस कदर टूटी है कि इस पर कालोनी-वासियों का निर्बाध आना-जाना ही नहीं बल्कि सुबह-शाम सब्ज़ी बाज़ार का धन्धा भी चलता है । सामने भारी जल-जमाव का नज़ारा है । पेड़ के झुरमुट से झाँकती झोंपड़ियों के असहाय दरवाज़े परेशान-हलकान दिर्खाइ  दे रह हैं । रेलवे र्लाइन के  सामानान्तर बनी झोपड़ियों के बीचों-बीच पतली किन्तु पक्की पगडंडी बनाकर आने-जाने की थोड़ी सी सुविधा ज़रूर दी गई है  । अगला रेलवे स्टेशन आगरपाड़ा है- जिसकी एक केबिन के पास यार्ड के बीचों-बीच ही सब्ज़ी बिक रही  है  । पास में ही किताबें भी बिक रही हैं । ख़रीदारी करते लोग ट्रेनों की आवाजाही से बेख़ौफ़ हैं । स्टेशन पर पनीर से भरे बाल्टे रखे हैं । ग्वाले अपनी ख़ाली बाल्टी धो-पोंछकर घर लौटने की तैयारी कर रहे हैं । स्टेशन के दाहिनी ओर बेलघरिया है । रोड ओवर-ब्रिज के नीचे घनी झाड़ियाँ तथा ऊँची घासें उगी हैं जिनके बीच चटाई  से बनाई दीवारों और पालीथीन या खपरैल की छतवाले मिट्टी से पुते मकानों की पूरी क़तार है । इन रिहाइशी झोपड़ियों और मकानों का सिलसिला दूर तक फैला है केवल बीच के पोखर-तालाब वाली जगह से ही आर-पार देखा जा सकता है । बाहर का दृश्य इतना दारुण है कि हम ट्रेन के इस कोच में चल रही कोल्ड-वार से लगभग बेख़बर हो गये हैं । बीच -बीच में हमारे कानों को वह कर्कश आवाज़ एक झन्नाटेदार तमाचा मारने की तरह बार-बार चौंका देती; फिर भी हम इस ओर निरासक्त होकर इसे नकारने और इससे असंपृक्त रहने का प्रयास कर रहे  हैं । दाँतों से मक्का-निकोड़ती वह बच्ची दुनिया से लगभग बेख़बर है । उसकी मटमैली फ्राक पर बने फूलों पर अभी-भी उसकी लार चू रही थी । वह खिड़की पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी । एक हाथ को खिड़की की सलाख़ों की तरफ़ बार-बार बढ़ा रही थी । हम अपने बैग और अटैची को सँभालते-बचाते चल रहे थे ।

 उस तरुणी की त्योरियाँ चढ़ीं तो चढ़ी ही रहीं, जो बार-बार उलाहना दे रही थीं कि इतने लोगों में एक भी आदमी नहीं जो उसे और उसके बच्चों को बैठने भर की जगह दे-दे। अपने औरत होने की दुहाई उसने एक बार भी नहीं दी और ठसके के साथ सीट पर बैठे एक एक यात्री को घूर रही थी ।  हमारे सामानों को ढकेल कर उसने अपना माल असबाब दोनों सीटों  के बीच ठूँस दिया । बच्ची ने अपनी हरकत थोड़ी और तेज़ कर दिया । लोगों के ऊपर हाथ-पाँव देकर खिड़की की ओर अग्रसर हुई ।  हमारी तरफ़ से जब कहा गया कि वह बच्ची को ठीक से सँभाले तो वह आग-बबूला हो गयी । उसने हमें वो पाठ पढ़ाया कि हम एक बार फिर सकते में आ गये । उसने साफ़-साफ़ शब्दों में ऐलान कर दिया कि वह क्योंकर चुप रहे? यदि वह चुप रह गयी तो क्या लोग इतने भले मानूस हैं कि उसे ट्रेन तक पर चढ़ने देंगे ? यह  कोई  एक दिन का काम तो नहीं । उसे तो रोज़ ही ऐसी भीड़ में यूँ ही अपनी जगह बनानी होती है । उसने ताक़ीद करते हुए कहा कि अपने-अपने बच्चे जिस तरह ख़ुद को प्रिय होते हैं  उसी तरह से उसे  उसके बच्चे भी उतने ही प्रिय हैं । फिर वह इनके लिए क्यों न लड़े-झगड़े ? हमारे कानों में बांग्ला का एक संघर्ष शील नारा गूँजने लगा - ‘‘लड़ाई-लड़ाई- लड़ाई  चाई /लड़ाई  कोरे बाचते चाई’’ अर्थात जीवन में संघर्ष  चाहिये । संघर्ष  करते हुए ही जीवन की रक्षा करनी है न कि संघर्ष  से बचकर किसी दूसरे की कृपा पर निर्भ र रहकर । दम-दम स्टेशन पर पहुँचे तो हमारी उम्मीद के ख़िलाफ भीड़ और भी बढ़ र्गइ ।  दम-दम स्टेशन पर तीन ओर से रेलवे लाइनें मिलती हैं ।  अगला रेलवे स्टेशन विधाननगर रोड है । यार्ड के बीचो -बीच से बड़ा काला नाला बह रहा  है । कचरे की तलछट से बने ढूहे और नाले के बीच ही मिट्टी की दीवार वाली झोपड़ियाँ निर्मित हैं, जिसके बदबूदार माहौल में रहने के लिए कुछ लोग अभिशप्त हैं । मनुष्य जीवन की यह भी एक बहुत बड़ी त्रासदी है, कितने स्तर के लोग- जीवन-स्तर में इतना बड़ा अंतर !

 झोंपड़पट्टियाँ सियालदह आर.आर.आई केबिन तक फैली  हुई हैं । सामने नंग-धड़ंग बच्चे निर्विकार भाव से धमा-चौकड़ी कर रहे  हैं । उनकी दुनिया बाक़ी दुनिया से बेपरवाह  है । ट्रेन सियलदह जंक्शन पर पहुंचनेवाली है ।  इस ख़बर मात्र से हमारी जान-में-जान आ गई । सभी सवारियाँ अपना झोला-बस्ता सँभालकर तैयार हो गयीं । यात्रा के अन्तिम पड़ाव पर आकर भी उस शक्ति-वाहिनी के लहजे में  नरमी या मुरव्वत नहीं आ पाई  थी । उसके भीतर की उपेक्षा एवं हिकारत का भाव हमारे वज़ूद को लगातार ललकारे जा रहा था । सीट पर बैठे मुसाफ़िर या तो अब भी झेंप रहे थे या कुछ धृष्ट लोग निर्लज्ज शरारत भरे नेत्रों से उसे देख रहे थे । यहाँ तक आकर तो सबकी यात्रा समाप्त ही होने वाली है, फिर भी अपनी सीट का आफ़र देकर कुछ लोग शायद उसका मज़ाक ही बना रहे थे ।  ये ऊहापोह के क्षण हम पर बहुत गराँ गुज़रे थे । नई  हाटी रेलवे स्टेशन से उठी हलचल अभी भी दिल को बेचैन किए दे रही थी ।  लगा कि नई  हाटी और सियालदह के बीच की दूरी बढ़कर दिल्ली तक चली गई  हो और यह सवाल संसद के सामने खड़ा हो गया हो कि इतने लोगों में कोई आदमी भी है क्या? सियालदह स्टेशन पर उतरती भीड़ ने इसे झुठला दिया ।

                           आज जबकि इस घटना के  कई दिन बीत चुके हैं और हम दिल्ली की ओर का रुख कर लिए हैं; उसके सवाल बार-बार ज़हन को कुरेद रहे हैं ।  रात में सपने की बड़-बड़ाहट और किसी अनजान डर के हावी होने की सी कँपकँपी हमारे दिल पर भारी सदमे की गवाही दे रही है ।  दोनों बच्चियों का हाथ थामे वह हमें आग्नेय नेत्रों से देख रही है । अपनी भाव-भंगिमा से हमारी निष्करुणा और हृदयहीनता पर जैसे वह थू-थू कर रही है ।  उसका सवाल कि इतनी बड़ी भीड़ में क्या एक भी मनुष्य नहीं  है -जो एक ग़रीब असहाय स्त्री के दर्द को महसूस कर सके , सबको सिर झुकाने पर मजबूर किए हुए है ।  उस कोच में बैठे पुरुष ही नहीं महिलाएँ भी उसकी इस अपील से निश्चेष्ट बनी संवेदनाहीन शून्यता में डूबी हुई  हैं  क्या ये भद्र महिलाएँ भी पुरुष वर्ग की शोषण-परम्परा की सहायिकाएँ नहीं बनी हुई हैं ? उसका सवाल किसी अज़गर की तरह मुँह फाड़ता है तो जानवरों की भी जान निकल जाती है - ‘‘की, एखाने केऊ भालो मानूस  नईं ?’’ (क्या यहाँ कोई  भी भला मनुष्य नहीं है ?) आज भी मेरे ज़हन को “भालो मानूस ?” का वही जुमला उस नारी-शक्ति की आँखें तरेरती हुई  भाव-भंगिमा के साथ बार-बार उद्वेलित करता कुरेद रहा है । क्या वाक़ई  एक भी भला मनुष्य खोज पाना इतना कठिन हो गया है ?


59 - 
तीन औरतें
[ जन्म : 15 अगस्त , 1960 ]

गोविंद उपाध्याय
                     
संगम बिहार की शुरुआत का पहला मकान रमेसरी का है । चौसठ साल की होगी  रमेसरी, लेकिन कद-काठी से काफी मजबूत है । उसका मकान साठ फीट वाले  मुख्य सड़क पर है, जो ईट की चार फीट की चाहरदीवारी से घिरा हुआ है । उसके चार सौ गज के प्लाट में सिर्फ चार कमरे हैं , जो अपनी सुविधानुसार बिना किसी पूर्व रूप रेखा के बना लिए गए हैं । तीन कमरों पर पक्की छत है । जिसमें उसके तीनों बेटे रहते हैं । चौथे कमरा क्या…, एक छोटी सी झोपडी है । यह झोपड़ी सड़क के पास लगी बाउंड्री के प्रवेश द्वार के बगल में है । झोपड़ी पर टीन का चद्दर है । यह रमेसरी की दुकान और घर दोनों है । रमेसरी भड़भूजे का काम करती है । उसकी भठ्ठी दिन में ग्यारह बजे सुलग जाती है और फिर चार बजे तक अनाजों के भूनने की सोंधी महक आती रहती है । चना, मटर, मक्का... । लोग अपना दाना लेकर आते और इच्छानुसार भुनावाते है । या फिर रमेसरी के यहां से 'भूजा' ही खरीद लेते हैं ।
दुकान के सामने… । नहीं गेट के दूसरे साइड पर नीम का पेड़ है । जिसके चारो तरफ  सीमेन्ट का पक्का चबूतरा बना है ।  कुछ लोग भूजा खरीदते और उस चबूतरे पर बैठ कर खाते । सामने हैंड पम्प से पानी पीते । गेट दिनभर खुला रहता है । लोग रमेसरी से अपना सुख-दुख भी बतातियाते हैं ।

रमेसरी का पति नगरपालिका में चपरासी था । तब सस्ते का जमाना था और चार सौ गज का यह प्लाट उसने अपनी पत्नी के नाम से लिया था । रिटायरमेंट के एक साल बाद ही फेफड़े के कैंसर से उसकी मौत हो गई । ग्रेजुएटी और फंड उसकी बीमारी में ही चला गया और साथ ही रमेसरी का एक सुंदर से घर का स्वप्न भी ....। 

रमेसरी बहुत कर्मठ और जुझारू औरत है । पति हो या बेटे । वह कभी किसी पर आश्रित नहीं रही । लोग उसे उसके के नाम से जानते हैं ।

शाम को रमेसरी के पास दो औरतें और आकर बैठती हैं । एक नेताइन और दूसरी मास्टरनी । यह दोनों भी साठ पार कर चुकी हैं । मास्टरनी एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में हिंदी की अध्यापिका थी और तीन-चार वर्ष पूर्व सेवानिवृत्ति हो चुकी थी । उनके पति किसी बीमा कंपनी में एजेंट थे । घर की आमदनी का मुख्य स्रोत मास्टरनी ही थी । पति की कुछ खास आमदनी नहीं थी । उसका अधिकांश समय घरेलू कामों को निपटाने में निकल जाता । वह हमेशा पत्नी को खुश रखने का प्रयास करता । वह इस कार्य में सफल भी था । मास्टरनी स्कूल में पढ़ाने के सिवा कोई काम नहीं करती थी । दो बेटियां हैं । उनकी शादी वे कर चुके थे । एक पूना में  है और दूसरी गुड़गांव में । दोनों बेटियाँ अपने पतियों की तरह मल्टी नेशनल कंपनियों में नौकरी कर रही हैं और व्यस्त तथा मस्त जीवन जी रही हैं ।

मास्टरनी जरूर अब थोड़ा परेशान रहने लगी थी । पिछले वर्ष पति को एक तगड़ा हृदय-घात हुआ था और उनका दाया भाग कुछ दिन के लिए बिलकुल निष्कृय हो गया था । फिलहाल पचास प्रतिशत ठीक हो चुके हैं और जीवन की गाड़ी, जो पटरी से उतर गई थी । पुनः पटरी पर रेंगने लगी थी । मास्टरनी स्वयं को इन दोनों औरतों की तुलना में स्वयं को होशियार मानती हैं और अपनी कुलीनता, बातचीत के दौरान जाहिर भी करती रहती हैं ।

नेताइन व्यापारिक परिवार की हैं । गोल मार्केट में उनका ऑटो मोबाइल के स्पेयर की बड़ी सी दुकान है ।  जिसे उनके दोनों बेटे और पति मिलकर चलाते हैं । सब कुछ टापोटॉप है । सिवाय उनके । शुगर, गठिया, बीपी ... सब कुछ स्थायी रूप से पाल रखी हैं । वह बात कम करती हैं और कराहती ज्यादा हैं । पति स्थानीय व्यापार मंडल के अध्यक्ष हुआ करते थे । लोग उन्हें नेता जी कहते थे । जाहिर था, वह नेताइन हो गई । संगम बिहार में तीन मंजिला शानदार कोठी है । जर्मन शेफर्ड खूंखार कुत्ता है । जिसका नाम सूमो है । बहुए हैं .. । नाती-पोते हैं … । लेकिन फिर भी वह इस संसार से ऊबी हुई है ।

तीनों औरतें रोज शाम को इकठ्ठी होती हैं । रमेसरी का नीम का चबूतरा मानो उनका इंतजार कर रहा होता । तीनों औरतें धीरे-धीरे बतियाती । शाम अंधेरे में बदल जाता । सौ वाट के बल्ब की पीली रोशनी में नीम का पेड़ उन्हें अचानक घूरना शुरू कर देता, “ अरे उठो ! कब तक मैं तुम्हारे जाने का इंतजार करूं?” 

जब नीम ऊंघ रहा होता, अचानक जिंदगी की दौड़ से थकी-हारी तीनों औरतें एक गहरी सांस के साथ अगले दिन  फिर मिलने का वादा करके वहां से अंधेरे में गुम हो जाती ।

नहीं रमेसरी अभी भी ऊर्जावान है । वह दोनों औरतों के कमजोर पड़ने पर सांत्वना देती है,“धैर्य रखो । सब ठीक हो जायेगा ।”

मास्टरनी बेटियों को याद करती और फिर धीरे-धीरे उदास हो जाती हैं । उनका चेहरा जाड़े की बदली वाली धूप सा बेजान हो जाता और वह अपने आँचल से आंखों के कोरों को रगड़ने लगती । ऐसे समय में बाकी दोनों औरतें खामोशी से उसके होठों के हिलने का इंतजार करती हैं ।

नेताइन घर में अब उपेक्षित महसूस करती है । घर का सारा बागडोर बहुओं के हाथ में जा चुका था । उन्हें जो भी करना होता, उसके लिए बहुओं की सहमति बहुत जरूरी है । लेकिन बहुएं उनके असहमति के बावजूद कुछ भी कर सकती है । बीमारी, बावले जान बन चुकी है । सच तो यह है कि वह जीवन से ऊब चुकी हैं । पर मोह उन्हें इस कदर जकड़ा हुआ है कि मृत्यु के नाम से कांप उठती हैं,”का बताएं..? जान बेशरम की तरह इस देह से चिपकी है । न जाने कब छोड़ेगी और हम इस काया से मुक्त हो पायेंगे ।” 

रमेसरी का सारा जीवन संघर्ष में बीता था । छोटी सी आमदनी थी । तीन बच्चे थे । उसने पति के कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया । तब यह दुकान नहीं थी । एक ठेला था, जिसमें बच्चों के खाने की वस्तुएं होती । चना-भूजा भी होता था । दिन भर मोहल्ले के बच्चे आते-जाते रहते । तब वह गिरजापुर के मलीन बस्ती में रहती थी । फिर यह प्लाट आबंटित हो गया और उसने भूजा भूजने का पुस्तैनी काम शुरू कर दिया । उस समय यहां इक्क-दुक्के मकान थे । फिर भी वह दो पैसा कमा लेती थी । तब बच्चे छोटे थे और खर्चा  भी कम था ।

इस पिज्जा और चाउमीन के जमाने में भी भूजा और सत्तू के दीवानों की कमी नहीं है । धंधा संतोषजनक है । बच्चे भी अपना परिवार चला रहे हैं । रमेसरी गृहस्थी की जिम्मेदारी बहुओं पर छोड़ कर बिलकुल निश्चिन्त है , “आखिर कब तक हम यह सब संभालेगे ? अब बच्चे बड़े हो गए हैं, अपनी जिम्मेदारी खुद संभाले ।”

पिछले लगभग चार वर्षों से यह तीनों औरतें शाम को रमेसरी के प्लाट में इकठ्ठा होती । लगभग एक घंटे बैठकर अपना सुख-दु:ख बतियातीं फिर सिर झुकाए अपने-अपने घरों को लौट जाती । रमेसरी की यह अब सिर्फ ग्राहक ही नहीं सखियाँ हैं । इसे रमेसरी अपना सौभाग्य मानती है । हो सकता है , दोनों स्त्रियों का रमेसरी से कोई स्वार्थ  जुड़ा हो । नहीं तो रमेसरी जैसी अनपढ़ गंवार औरत से इन कुलीन स्त्रियों का क्या मेल । 

जबसे मास्टरनी का पति बीमार हुआ है और उन्हें जब कभी डाक्टर के यहां जाना होता है, एक सहयोगी की आवश्यकता है । उस समय रमेसरी के युवा पुत्र उनकी सहायता करते हैं । नेताइन को डाक्टर ने बीमारियों की वजह से लो कैलोरी के भोजन की सलाह दी है । रोस्टेड ग्रेन और सत्तू । वह तो रमेसरी के पास ही मिलना । शुद्ध और बढ़िया ....। लेकिन किसी से आत्मीय रूप से जुड़ने के लिए, ये कारण बहुत मामूली हैं ।

मास्टरनी सांवले रंग की है । नाक- नक्श भी बहुत सुंदर नहीं है । इसके बावजूद बात-चीत में एक अजीब तरह का दम्भ झलकता है । रमेसरी ज्यादातर खामोशी से उनकी बातें सुनती है । दोनों महिलाओं के बातों का विषय निर्धारित है । नेताइन के पास बहुओं का लंबा - चौड़ा किस्सा है और अपनी बीमारी का दर्द…  । मास्टरनी के पास बेटियों किस्से और कभी-कभी पति की बीमारी का प्रकरण । रमेसरी की दुनिया इतनी छोटी है कि उसमें किस्सों की गुंजाइश ही कहां बचती । वह सिर्फ उन्हें सुनती है ।

शाम होते ही नीम का चबूतरा गुलजार हो जाता । थाली में भुने हुए दाने होते और उनके साथ दोनों औरतें अपने किस्से की पोटली खोलकर बैठ जाती । कुछ देर बाद रमेसरी की बड़ी  बहू  की दस वर्षीय बेटी  तीन कप चाय रखकर चली जाती । दो कपों का डिजाइन एक जैसा होता और एक थोड़ा भिन्न । अलग डिजाइन का कप नेताइन का होता । बिना शक्कर वाली चाय ... ।

रमेसरी के बड़े लड़के की कचहरी के सामने फ़ोटो स्टेट की दुकान है । मझला एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता है । उसके बाद ट्यूशन... । ट्यूशन बढ़िया चलता है । वह होमट्यूटर है । लोगों के घरों में जाकर पढ़ाता है । और उसके बदले में मोटी फीस लेता है । छोटे की मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान है । मोबाइल भी रिचार्ज करता है । छोटी सी दुकान है । एक लड़का भी काम रखा है, जो दिनभर मोबाइल की मरम्मत में व्यस्त रहता है । 

रमेसरी के तीनों लड़के मेहनती हैं । भले इस मोहल्ले में वह सबसे भद्दा घर दिखता हो, लेकिन उस घर की ख़िलाखिलाहटें और ठहाके छन कर चाहरदीवारी के बाहर सड़क तक पहुंच जाती है । तब रमेसरी के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कराहट रेंगकर चली जाती है ।

रमेसरी ने, तीनों बेटे और उनकी पत्नियों को अपने ढंग से जीने की आजादी दे रखी है । उनके निजी जीवन में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं है । बहुएं घर का काम आपस में बांट रखी है । बेटे भी अपनी जिम्मेदारियां अच्छी तरह निभा रहे है । घर में चार बच्चे हैं । बड़े बेटे के दो और मझले तथा छोटे के एक-एक... ।

कई दिन से झमाझम बारिश हो रही है । पर रमेसरी आजकल उदास चल रही है । मास्टरनी की गुड़गांव वाली बेटी आयी हुई है । उसका पति से झगड़ा हो गया था । पति ने शराब के नशे में कसकर पीट दिया था । बेटी के दाएं हाथ की कलाई की हड्डी चिटक गई थी । पुलिस में भी रपोटा-रिपोटी हुई थी । अब बेटी अड़ी है,"मैं उस कमीने के साथ नहीं रहूंगी । मुझे कुछ नहीं सुनना, बस तलाक चाहिए ।"

मास्टरनी के समझ में कुछ नहीं आ रहा है । बेटी को बहुत समझाया, " बेटा, पति-पत्नी में झगड़े चलते रहते हैं । फिर वह माफी तो मांग रहा है । उसे एक मौका दो ।"

लेकिन बेटी की अपनी जिद्द है । तलाक ....और सिर्फ तलाक .... । आजकल तीनों औरतें इसी समस्या पर चर्चा करती हैं । धीरे-धीरे समय आगे निकलता जा रहे, लेकिन इस समस्या का कोई हल अभी तक नहीं निकल पाया है ।
फिर अचानक एक दिन मास्टरनी का दामाद आ गया और उसने बेटी को पता नहीं कौन सी जड़ी-बूटी सुंघाया …। बेटी बिना किसी प्रतिवाद के अपने सात वर्षीय बेटे के साथ पूना जाने को तैयार हो गई । मास्टरनी का तनाव कुछ कम हुआ । 

तीनों औरतें उस दिन खामोश बैठी रही । जैसे एक लंबी और थकाऊ यात्रा के बाद मुसाफिरों का समूह अपनी थकान मिटा रहा हो । 

दो सप्ताह ही निकले होंगे कि नेताइन ने एक नया धमाका कर दिया । उनकी जबसे  जांच रिपोर्ट आयी है ।घर में एक अजीब सा हलचल मचा हुआ है । उन्हें सोमवार को लखनऊ जाना है । पीजीआई में ...। उनका गुर्दा गड़बड़ा गया है ।  उसके बाद नेताइन  का चेहरा पीला पड़ गया और उनके चेहरे पर सिर्फ मौत का खौफ था । उसके बाद कई दिन तक नेताइन नहीं आयी । नीम उदास हो गया है और दोनों औरतें भी…, रोज तीसरी औरत के स्वस्थ होने की प्रार्थना कर करती हैं । अब बड़के के की दस वर्षीय बेटी एक ही डिजाइन के दो कप में चाय लाती है । मास्टरनी बीच-बीच में नेताइन का खैर-खबर लेती रहती है । रमेसरी उनकी बात सुनने के बाद दोनों हाथों को जोड़कर आसमान की तरफ देखते हुए कुछ बुदबुदाती है । रमेसरी को विश्वास है कि नेताइन ठीक होकर वापस जरूर आयेंगी । 

नेताइन वापस आ गई । हफ्ते में एक बार डायलिसिस होना है । उसके लिए लखनऊ नहीं जाना है । पास के नर्सिंग होम में ही व्यवस्था है । सुबह जाना होगा और शाम तक वापसी …। नीम उन्हें देखकर खुशी से झूमने लगा । तीनों औरतें चबूतरे पर एक साथ बैठने लगी हैं । अब उन औरतों के पास एक नया विषय है – गुर्दे की बीमारी ।  नेताइन  अपने अनुभव उन्हें बताती । डायलिसिस के बारे में ... । तब दोनों स्त्रियों के चेहरे पीले पड़ जाते और वह मन ही मन इस बात को सोचकर स्वयं को तसल्ली देती कि कम से कम वह इस तरह की किसी भयानक रोग से बची हुई हैं ।

सर्दी आते-आते नेताइन का भारी भरकम शरीर सूख कर कांटा हो चुका है । बीच-बीच में उन्हें खून भी चढ़ाया जाता है । अब उनके चेहरे पर मौत का भय नहीं है । बल्कि वह जीवन के प्रति उदासीन हो चली हैं । अब वह इन कष्टों से मुक्ति चाहती हैं , जो उनके हाथ में नहीं है ।

मास्टरनी के ऊपर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है । पति एक बार फिर बिस्तर पकड़ लिया । उधर पूना वाला दामाद अपने वादे पर खरा नहीं उतरा । लेकिन इस बार बेटी, मां के पास नहीं आयी । उसने वहीं दूसरा घर ले लिया है । मास्टरनी ने कई बार फोन किया, लेकिन बेटी और दामाद में से किसी ने उसकी बात का तवज्जो नहीं दिया । मास्टरनी पूना जाना चाहती है, पर पति को इस हालत में छोड़कर जा पाना सम्भव नहीं है । कुछ दिन वह बेचैन रही फिर हालात को ऊपर वाले के भरोसे छोड़कर शांत हो गई ।

रमेसरी की छोटी बहू गर्भवती हो गई है । बेटा- बहू एबॉर्शन कराना चाहते हैं । उनकी बेटी अभी ढाई साल की थी । बेटे की आमदनी इतनी नहीं है कि वह दूसरे बच्चे का खर्चा उठा सके । रमेसरी चाहती है कि बहू ऐसा न करे । वह दबी जुबान से असहमति भी जता चुकी थी । बहू इस बात को समझ भी गई थी । इसके बावजूद उसने एबॉर्शन करा लिया ।

रमेसरी ने बच्चों से कुछ नहीं कहा । वह कई दिन उदास रही । बहू एक हफ्ते तक बिस्तर पर पड़ी रही और उसके बाद सब सामान्य हो गया । रमेसरी ने दोनों औरतों से भी इस बात की चर्चा नहीं किया ।

धीरे-धीरे कुछ माह और खिसक गए । जनवरी का जाड़ा था । अचानक नेताइन बाथरुम में बेहोश हो गई । उस दिन पहली बार रमेसरी  नेताइन के घर गई  । घर वास्तव में शानदार है ।  बड़े से पलंग पर वह लेटी थी । कमरे में मोंगरे की खुशबू फैली हुई थी । रमेसरी को पहली बार लगा कि जिंदगी ऐसे भी जिया जाता है ।

कई दिन तक नेताइन नहीं आयी । दोनों औरतें उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना से बात शुरू करती और फिर उनके ऐश्वर्य पर बातों का अंत होता ।

नेताइन दस दिन बाद फिर आने लगी । वह सिकुड़ सी गई थी । कमर से थोड़ासा झुकर चलने लगी थी ।

मास्टरनी के पति को लगातार लेटे रहने से पीठ पर घाव बनने लगा है । मास्टरनी अब पति के बीमारी की चर्चा नहीं करती हैं । अब वह इन परिस्थितियों से उबने लगी हैं । पति की लंबी बीमारी और पूना वाली बेटी की टूटती गृहस्थी ने उन्हें विचलित कर दिया है, "या तो भगवान उन्हें ठीक  कर दे... नहीं तो उठा ले । उनकी यह दुर्दशा अब मुझसे देखी नहीं जा रही है ।" 

अब मास्टरनी पति के मरने का इंतजार कर रही है , "इनके न रहने पर मैं यहां बिलकुल अकेली रह जाऊंगी । फिर यहाँ रहने से क्या फायदा ? मैं भी पूना वाली बेटी के पास चली जाऊंगी । "

रमेसरी के जोड़ो में दर्द रहने लगा है । उसे डाक्टर के पास जाने में डर लगता है ,"कहीं डाक्टर मुझे भी कोई गंभीर बीमारी बता दिया तो ..? मेरे पास नेताइन जैसे बहुत पैसे भी नहीं हैं । हमारे बच्चे तो सड़क पर आ जाये जायेंगे । वैसे भी दो-चार साल ज्यादा जी लूं या कम, अब क्या फर्क पड़ना है । बस शरीर की छीछालेदर ना हो ।"

नेताइन के डायलिसिस का समय और घट गया है । अब हर पांचवे दिन होने लगा ।  पैसा पानी की तरह बह रहा है , " क्या बताएं ... कभी-कभी धन अभिशाप बन जाता है । आज  घर में पैसा नहीं होता तो कब का इस शरीर और इसके कष्ट से छुटकारा प्राप्त कर चुके होते ।"

जबसे छोटी बहू ने एबॉर्शन कराया है । उसकी तबियत ठीक नहीं रहती । मझली और बड़ी बहू पर अब उसके हिस्से के काम का बोझ आ गया है । बच्चों के बच्चे बड़े हो रहे हैं । बड़े बेटे का लड़का अब सोलह वर्ष का हो गया है । इस बार दसवीं की परीक्षा दे रहा है ।

बड़े बेटे ने रमेसरी से एक दिन कहा,"अम्मा यदि आप कहो तो एक कमरा और बना लिया जाय । बच्चों को पढ़ाई में दिक्कत हो रही है ।"

"बेटा सही कह रहा है ।" रमेसरी चाहती तो यह थी कि अब घर को थोड़ा व्यवस्थित ढंग से बनाया जाय । लेकिन उसके लिए बहुत पैसे की जरूरत है । रमेसरी ने बेटे को स्वीकृति देदी । मोरंग और ईटा गिर गया ।

अब रमेसरी का मन उचाट होने लगा था । भूजे की दुकान भी खत्म करने का विचार आता । जिसे वह जल्दी से झटक देती । क्या करेगी, खाली बैठकर । इसी बहाने हाथ पैर तो चल रहा है ।

आज नेताइन खुश है । उनकी छोटी बहू को दूसरा बेटा हुआ है । वह साथ में मिठाई लेकर आयी हैं । मास्टरनी भी खुश हैं । आज उनके पति तकिया के सहारे आज दस मिनट बैठे थे । एक लंबे समय बाद नीम के पेड़ के चबूतरे पर तीनों औरतों की हंसी सुनाई दे रही है । बहुत दिनों बाद नीम को इतना खुशगवार महौल मिला है । वह चाहता है कि यह समय ठहर यहीं ठहर जाय और वह रमेसरी की तरह हाथ जोड़कर आसमान की तरफ देखकर बुदबुदाए, “ समय के मार से थकी-हारी ये औरतें इसी तरह हंसती-खिलखिलाती रहें ..।” 

आज नीम का पेड़ चाहता था कि यह औरतें कुछ देर और बैठें, लेकिन उनका समय हो चुका था और वे उठ गई । उनके कदम धीरे-धीरे अपने घरों की तरफ बढ़ने लगे थे ।

कल शायद फिर यह तीनों औरतें इकठ्ठी हों और परसों भी...। यह सिलसिला कब तक चलेगा, रमेसरी को नहीं पता । यह मास्टरनी और नेताइन भी नहीं जानती ।  लेकिन कोई भी सिलसिला अनंत तक नहीं चलता .....।
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60  - 
जाने-अनजाने
 [ 20 नवंबर , 1960 ]

कुसुम बुढ़लाकोटी 


गाड़ी निर्बाध रूप से चल रही थी। पिता के साथ वह पीछे की सीट पर बैठी थी। पिता की लाडली, कुछ -कुछ सिरचढ़ी भी कह सकते हैं। आज उस दूसरे शहर में पिता का कुछ अदालती कार्य था। अधिवक्ता थे पिता, गोला, गुलाबी रंग चेहरे पर सुंदर मुस्कान, पारदर्शी त्वचा-ऐसा लगता कि जैसे-छूने मात्र से खून छलक उठेगा।

बहुत नम्र संकोची स्वभाव के ये पिता। मृदुता उनके स्वभाव में थी, किसी से भी मिलते, उसे पहली बार में ही अपना बना लेते। उनके सानिध्य में किसी भी आयु वर्ग का व्यक्ति चाहे वह बच्चा, युवा, वृद्ध शीघ्र ही सहज महसूस करता, उनका व्यवहार इतना मित्रता पूर्ण रहता कि सभी को वह अपने लगते, अपनी चिंताए उनके साथ बांट कर सभी निश्चिंत हो जाते। किसी को नया कार्य शुरू करना हो, इलाज का खर्च हो, जमीन लेनी हो, मकान बनवाना हो या फिर कन्या का ही विवाह करवाना हो, किसी की मदद करने में वह हमेशा तैयार मिलते। विद्यार्थियों से उनका रिश्ता अलग ही था। कोई भी विद्यार्थी आकर फीस या पुस्तकों की समस्या बताता, या फिर निवास की ही समस्या होती, उनके पास सभी समस्याओं का हल होता। उनके दोनों शहरों के आवास में घर से कुछ दूरी पर, कुछ स्थान विद्यार्थियों के लिये सुरक्षित रहता। रहने के साथ ही उन्हे चाय, भोजन की सुविधा भी मिल जाती, पिता के हृदय में पढ़ने वाले बच्चों के प्रति एक कोमल भाव था। पता चलते ही, वह हर एक की पूरी मदद करना चाहते। हर व्यक्ति के प्रति उनके हृदय में गहरी संवेदनशीलता थी, परी पिता के हृदय का टुकड़ा थी, मासूम सी, किशोरावस्था में कदम रखती, बड़ी-बड़ी आँखे, अपनी दुनियाँ में खोयी सी। पिता के कार्य से लौटने का समय होता, परी के कान। हर आहट पर लगे रहते। गाड़ी की आवाज आते ही दौड़ कर जाती। पिता के हाथों से फाइलें व ब्रीफकेस, जो भी सामान होता ले लेती। भागकर पानी लाती, माँ का बनाया नाश्ता-चाय लाकर देती पिता के आसपास रहती। उनके चेहरे की भाव-भंगिमा को देखकर तुरंत पूरा करने को आतुर रहती।

पिता का लाड़ उस पर किसी न किसी रूप में बरसता रहता। पिता कहीं जाते, किसी समारोह में, यदि सुविधा होती तो उसे अवश्य साथ चलने को कहते। छुटपन से ही पिता के साथ जाने की उसे आदत हो गयी थी। क्लब हो, बाजार हो वह साथ जाती। माता-पिता के साथ जाना उसे कहीं अंदर से गौरवान्वित कर देता। पिता नगर के सम्मानीय व्यक्ति थे। कई संस्थाओं के संरक्षक, ट्रस्टी रहे।

आज भी जब पिता ने कहा कि परी, तुम चलो, अच्छा लगेगा तुम्हें, तो वह तुरंत तैयार हो गयी। दोनों गाड़ी में बैठे, छुटपुट बातों के साथ, गाड़ी चलती जा रही थी। परी अपनी दुनिया में खोयी थी, ऐसी स्थिती मे उसका मस्तिष्क कल्पनाओं में गोते खाने लगता था, कहीं-कहीं विचरती रहती अपनी काल्पनिक दुनिया में। पिता कुछ पूछते तो थोड़ा व्यवधान होता, पुनः फिर गोते खाने लगती। लंबे सफर में पिता कभी उंघने लगते। वह दोनों ओर के दृश्यों का आनंद उठाती, अपने में खोये रहती। ऐसी ही यात्रा चल रही थी कि अचानक गाड़ी रुक गयी, ड्राईवर ने चाबी घुमायी पर कुछ असर नहीं हुआ। ड्राईवर ने बोनेट खोल कर देखा। एम्बेसडर चला करती थी उन दिनों, फिएट व एम्बेसडर यही दो गाड़ी प्रमुख थी। कुछ देर कोशिश करते रहे ड्राईवर प्रतापसिंह, फिर खेद करते हुए बोले समझ में नहीं आ रहा है साहब, पता नहीं क्या हो गया। अब-पिता थोड़े परेशान लगे। तब आज की तरह फोन तो थे नहीं न मोबाइल, न एस.टी.डी. बूथ। बस कुछ घरों में ही लैण्डलाइन होते थे। छोटा सा कस्बा था, पहली बार पिता थोड़े चिन्तित लगे। मार्ग में कोई वाहन भी नहीं चल रहे थे उन दिनों वाहन भी अल्प संख्या में होते थे, शहर अभी चालिस-पैंतालिस मिनट की दूरी पर था। प्रताप सिंह सड़क पर नजर गड़ाये खड़े थे। करीब पन्द्रह-बीस मिनट बाद एक ट्रक आता हुआ दिखाई दिया। खड़ी गाड़ी देखकर ट्रक वाले ने स्पीड कम कर दी थी। प्रताप भी रूकने का इशारा करने को तैयार थे कि ट्रक की स्पीड खुद ही कम हो गई। परी का बालमन थोड़ा घबड़ाया कि क्यों रूक रहा है ट्रक। उसकी कल्पना की दुनिया में ट्रक वालों की छवि कोई बहुत अच्छी नहीं थी। चोर-डाकू से लगते थे सभी।

प्रताप सिंह ने ट्रक ड्राइवर व क्लीनर को समस्या बताई। वह सहर्ष मदद करने को तैयार हो गया। क्लीनर ट्रक के पीछे के हिस्से में चला गया। पिता व वह आगे के हिस्से में बैठ और बड़ी असुविधा सी लगी परी को। क्या मुसीबत है, अच्छा खासा गाड़ी चल रही थी, यह आज ही खराब होनी थी। उसने कनखियों से ट्रक ड्राइवर का अवलोकन किया, पैजामा कुर्ता व सर में पगड़ी पहने था। कपड़े बहुत साफ नहीं थे। पैजामा कुर्ता का रंग सफेद था जो पहने-पहने गंदा सा लग रहा था। दुबला पतला सीधा था ड्राइवर, पर उस बचपन किशोरवय उम्र में परी को अच्छा नहीं लगा। वह किसी तरह समझौता करके बैठी थी। पिता ट्रक ड्राइवर से सामान्य बात करने लगे। ड्राइवर हाँ जी, साहब जी, लगा-लगा कर जवाब दे रहा था। उसके लहजे ने कहीं आश्वस्त कर दिया परी को। अब जाकर वह थोड़ी सहज हुई। अब उसने गौर से देखा ड्राइवर को। तब वह कमजोर शरीर का काफी थका सा लगा। अब उसके प्रति संवेदना का भाव जगने लगा कि नहीं चोर डाकू नहीं है, ठीक ही लग रहा है, इतना भी डरने की जरूरत नहीं है। वह और पिता सुरक्षित है। प्रताप तो गाड़ी के साथ रुक गया था। गाड़ी शहर के अन्दर प्रवेश की तो पिता ने कुछ रुपये ट्रक वाले को देकर धन्यवाद ज्ञापित करते हुए विदा लेनी चाही। वह रूपये देखकर परेशान सा होकर नहीं-नहीं करने लगा। ये तो मेरा फर्ज था। कई बार कहने पर बढ़ी मुश्किल से पैसे रखे-उस ड्राइवर ने। पिता जी पास के एक कार्यालय में जाकर अंकल से बात की। अंकल बोले, मैं पहुँच रहा हूँ तुरंत आप रूके। करीब पन्द्रह-बीस मिनट में अंकल अपनी गाड़ी से आ गये। पिता जी और वह उनके साथ घर की ओर चल दिए। परी उनके घर में केवल अंकल जी से मिली थी। आंटी जी और बच्चों से कभी मिलना नहीं हुआ था, बस सुनती थी कि थोड़ी बड़ी होगी तो पिता उसकी पढ़ाई का प्रबंध वनस्थली या शान्ती निकेतन में करेगें तब शायद अंकल जी भी अपनी बेटी को भेजेगें। अभी तो बारह साल पूरे करके तेरहवें में प्रवेश किया था उसने। रास्ते में अंकल बताते रहे, कि उनकी भाई की बेटियां व उनकी बेटी छुट्टियों में घर आई हैं। तो आज परी बेटी भी उन सभी से मिल लेगी। सभी ने मूवी देखने का प्रोग्राम बनाया है तो परी को भी अच्छा लगेगा। इस बीच हम लोग अदालत का काम देख लेंगे।  एक आदमी व मैकेनिक भेजकर गाड़ी भी ठीक करवा ली जायेगी। परी खुशी से भर उठी, पिक्चर देखना उसका पसंदीदा कार्य था। फिर नये और नये स्थान पर नये मित्रों से मिलना भी होगा। मन ही मन खुश हो गई। अंकल की बेटी व अन्य लड़कियां किसी हिल स्टेशन में हास्टल मे रहकर पढ़ती थीं। व फिलहाल जाड़ों की छुट्टी मे घर आई थीं। इन्हीं सब बातों में, अंकल का घर आ गया। आंटी मिलीं शालीन सी लगीं। बहुत सुंदर तो नहीं पर चेहरे में सौम्यता थी। लड़किया नजर नहीं आई नाश्ता- वगैरह करके सभी बैठे, पिता व अंकल कार्यालय के लिये चल गये। दूसरे अंकल का गोल-मोल सा बेटा जिसे पहली नजर में वह अंकल ही समझ बैठी, फिर पता चला कि ये तो भइया है। जब नाश्ता करने बैठे तो वह अपने टोस्ट पर अमुल मक्खन की इतनी मोटी परत लगाया कि परी चौक गयी। अमूल मक्खन उसका पसंदीदा था, पर ऐसे भी खाते हैं, उसे पहली बार पता चला। उसने एक पतली स्लाइस  ब्रेड के बीच में लगा ली। वह हैरत से देखते रह गयी, भइया नास्ते के बाद बैठे गपशप करते रहे। आंटी व भइया लगातार बातें कर रहे थे पर परी को हमउम्र लड़कियों का इन्तजार था जिनकी आहट भी नहीं लग रही थी। भइया बीच-बीच मे उठकर जार में रखी एक-दो टॉफी खा लेते। डाइनिंग टेबल पर सुंदर से जार में भरकर ढेर सारी टॉफी पड़ी थी जिसे लगातार वह खाते जा रहे थे। तरह-तरह की सुंदर टॉफी इतनी टॉफी इस तरह खाते पहली बार देखा था उसने एक से एक अनुभव हो रहे थे। फिर खानें के बाद सब पिक्चर के लिये गाड़ी में बैठे। आंटी परी पीछे की सीट पर बैठी, तभी तीनों लड़किया प्रकट हुई। जिनको बहुत प्रतिक्षा की थी उसने। ठीक-ठाक थी दिखने मे पेंट टाप व गर्म पुलोवर पहनी थी। वेशभूषा परी से मिलती-जुलती थी। बस परी का टॉप व पुलोवर थोड़ा लम्बा था। उनका कमर तक। परी के बाल कंधो तक थे उनके छोटे-छोटे कटे हुए। तीनों आकर चुपचाप बैठ गयी, एक नजर देखा परी को बस। फिर नजर फेरे ली। न कोई बात चीत न आपस मे कुछ बोलना, बस बीच-बीच मे एक-आध इंग्लिश के शब्द बोल देती। पहले आंटी, फिर परी, बगल में दोनों लड़कियाँ, हमउम्र पर कोई परिचय, बात-चीत कुछ नहीं, न आंटी ने ही परिचय कराया न उन्होंने खुद कोई मुस्कुराहट दी हो कि परी ही कुछ बोल पाये। पिक्चर हाल थोड़ा दूर था। अंकल के फार्म हाउस से शहर दूर पड़ता होगा। करीब आधा घंटा लगा होगा, हॉल तक पहुँचने में। गाड़ी में एक चुप्पी पसरी हुई थी। बस कभी-कभार नजर उठाकर एक-दूसरे को देखते फिर मुँह फेर लेते। ऐसे परिवेश से परी का सामना कभी नहीं हुआ था उसकी, उन अंकल की लड़कियों से मिलने की इच्छा पर तुषाराघात हो चुका था वह इतनी घुटन व असहज महसूस कर रही थी कि मन कर रहा था कि उनकी गाड़ी ठीक हो जाती, पिताजी आ जाते और वह इस असहज माहौल से दूर चली जाती। उफ ! कैसे लोग है। क्या ये हमेशा इतने ही चुप रहते हैं या उसी में कोई बुराई नजर आ रही है इनको कि ये आपस मे भी बात नहीं कर पा रहे है और यह आंटी जी, जो घर में ंठीक-ठाक बात कर रही थीं, अब मौन क्यों हो गई हैं? उसके लिये कहाँ जाये, कैसे निपटे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह आंटी की ओर ही कुछ और सरक गई। बस किसी तरह सूकुन आया। जब हॉल मे बैठ गये। तो पिक्चर में थोड़ा ठीक लगा। पर मन ठीक नहीं रहा। किन लोगों में फंस गई, कहाँ आ गई, क्यों आई सभी मन-मस्तिष्क में चलता रहा। एक तरह की अजब सी स्थिति। किसी तरह समय पूरा हुआ। लड़किया परी से एक-दो साल बड़ी होगी। उसके चेहरे पर नजर डालती निर्विकार सी। आँखे मिलते ही हटा लेती। पिक्चर से बाहर निकली लड़कियाँ-चाट-हाउस जाने की बात करने लगीं आंटी को जरनल स्टोर में काम था। आंटी बोली परी तुम भी चाट-हाउस जाओं, मैं सामान लेकर आती हूँ। परी तो हतप्रभ रह गयी, चाट-हाउस इनके साथ। जिनके लिये उसकी उपस्थिती जैसे है ही नहीं । वह बोली, नहीं मेरे पेट मे दर्द है, मैं आपके साथ स्टोर चलूँगी। एक -दो बार कहने पर आंटी मान गयीं। काल्पनिक दर्द उसके चेहरे और आवाज में फैल गया था। लड़कियों के जाते ही उसने राहत की सांस ली। स्टोर में ही थे, कि पिताजी आ गये। अपनी गाड़ी ठीक हो गई थी। वह खुशी से भर उठी। अंकल-आंटी से विदा लेकर अपनी गाड़ी में बैठी। गाड़ी ने जैसे बाँहे फैलाकर स्वागत किया उसका। आज बहुत अच्छी लगी, गाड़ी उसको।

एक जंगल में फंस गयी थी जैसे परी जहाँ आंटी का छोड़ सभी बेगाने थे। परी सोच रही थी। लड़कियों के साथ जितना झेल गयी उससे सहज तो अनजान ट्रक वाले का व्यवहार रहा, जिस पर उसके काल्पनिक मन ने कितनी शंकाएं पाल ली थी।


61 -
ब्रह्मफांस 
[ जन्म : 1 जनवरी , 1962 ]
वशिष्ठ अनूप


पण्डित बजरंगी और मेरे बीच की बहस काफी देर से चल रही थी। उनके दैवी अस्त्र मेरे मानवीय तर्कों  से लगातार कटते जा रहे थे। वे कह रहे थे कि हर काम भगवान की मर्जी से होता है और मैं इन बातों का विरोध कर रहा था। अपनी लगातार पराजय के कारण वह काफी झुँझला भी गये थे और उनका गुस्सा कभी-कभी उनके लाख रोकने के बावजूद कचकचा कर बाहर भी निकल आता था, लेकिन अपने इस गुस्से के ऊपर वह यह सोच-सोचकर अपनी भोंड़ी मुस्कान का स्नेहलेप लगा दे रहे थे कि ऐसा करने से जजिमान नाराज हो जाएगा और अच्छा खासा मुर्गा हाथ से निकल जाएगा। कमरे में बैठे शेष लोग इस बहस का मज़ा ले रहे थे लेकिन हूँ हाँ के अतिरिक्त कोई कुछ नहीं कह रहा था। हाँ बीच-बीच में मेरी पत्नी की घूरती हुई आँखें मुझे अवश्य टोक रही थीं जिसका मतलब था कि 'अब चुप हो जाइये, बहुत हो चुकी यह बहस' उनके इस व्यवहार के पीछे दो कारण थे एक तो उनसे पूज्य पण्डित जी की दुर्दशा नहीं देखी जा रही थी और दूसरा यह कि उनके बड़े भाई यानी मेरे बड़े साले साहब की शादी की वी.डी.ओ. फिल्म तैयार हो आकर आ गयी थी जिसे लोग देखना चाहते थे।

यह बहस मेरे टूटे हुए पैर के कारण और निवारण पर चल रही थी। पिछले सप्ताह मैं बाइक से अपनी ससुराल से लौट रहा था। रास्ते में मेरी बुआ जी का गाँव पड़ता था। मेरा विचार था कि वहाँ से होता हुआ अपने गाँव जाऊँगा। बुआ के गाँव मैं काफी दिनों बाद जा रहा था इसलिए रास्ता कुछ अपरिचित-सा था। वह रास्ता बहुत उबड़ - खाबड़ था, जिस पर बीच-बीच में बरसाती गड्ढे बने हुए थे। एक जगह उन्हीं गड्ढों को बचाने की कोशिश में मेरी बाइक फिसलकर किनारे की पक्की नाली में चली गयी और नाली की दीवार से टकराकर मेरे बायें पैर की हड्डी तेज आवाज़ के साथ टूट गयी थी। फिर स्थानीय लोगों ने मेरे बताने पर मुझे ससुराल पहुंचा दिया था। तब से प्लास्टर लगने के बाद मैं वहीं पड़ा हुआ हूँ। इसलिए भी कि शहर होने के कारण यहाँ हर तरह की सुविधाएँ उपलब्ध है।
पण्डित जी बता रहे थे कि मेरे पैर टूटने का कारण सिर्फ यही है कि आज कल मेरे ग्रह ठीक नहीं चल रहे हैं। सभी देवी-देवता मुझसे काफी नाराज चल रहे हैं। इसलिए यह दुर्घटना हुई है। यदि विधिवत पूजा-पाठ करके ग्रहों को शान्त न किया गया तो भविष्य में भारी अनिष्ट हो सकता है। मेरी सास जी और मेरी पत्नी पण्डित जी की बातों से सहमत थीं तथा डर और श्रद्धा से पण्डित जी की ओर देखने लगी थीं।"तब क्या करना पड़ेगा पण्डित जी ?” मेरी सास ने पूछा। पण्डित जी ने कहा "देखिए दुलहिन जी अब इसके निवारण के लिए महामृत्युञ्जय मंत्र का सवा लाख जाप करना पड़ेगा और मैं मंत्र से जगाकर एक जन्तर दूँगा जिसे दाहिने हाथ में धारण करना पड़ेगा। हे राम जी हो।" "खर्चा क्या पड़ जाएगा पण्डित जी?"  "हि हि हि हि आप तो सब जानती ही हैं दुलहिन जी, मैं आप लोगों के लिए कोई नया थोड़े ही हूँ। आप लोग मेरे पुराने जजिमान हैं। अब आठ पण्डितों से जाप कराना पड़ेगा। उनको एक-एक धोती, अंगोछा, एक पात्र और पाँच सौ इक्यावन रूपया दक्षिणा। जन्तर का एक हजार रूपया और मेरी दक्षिणा आप जो उचित समझें, बस। माई की कृपा से इतने में सब सही हो जाएगा। कोई और होता तो इतने में नहीं हो पाता हाँ, हे राम जी हो। "कुछ कम में नहीं हो जाएगा पण्डित जी ? " मेरी सास जी ने झिझकते हुए पूछा। "आप भी क्या बात करती हैं दुलहिन जी, आप लोग राजा दई हैं। क्या कमी है आपको, जब भगवान ने दिया है तो धरम-काज में किर्पनता नहीं करनी चाहिए, पण्डित जी मुँह बाकर मुस्कराते हुए उनकी ओर देखने लगे। उनके टूटे हुए सामने के दांतों के कारण उनका थुल - थुल सा चेहरा बड़ा वीभत्स लग रहा था। उनके मुँह से लार बहकर बाहर आने वाला ही था कि- "अरे सम्हालिए पण्डित जी सम्हालिए" स्वाती चिल्लाई। पण्डित जी ने अपनी हथेली मुँह पर लगाई और उसे वापस सुड़क लिया। देखने वालों की हँसी बर्बस ही फूट पड़ी। श्वेता और स्वाती को पण्डित जी बैठे-बिठाये एक तमाशा मिल गये हैं। उन्हें चिढ़ाने में उन्हें बहुत मज़ा आ रहा था। उनके तकिया कलाम ‘हे राम जी हो’ को वे हरबार अवश्य दुहराती हैं। श्वेता मेरी साली है और स्वाती उसकी मौसेरी बहन। दोनों एम.ए. प्रथम वर्ष की छात्राएँ हैं। शादी के बाद चूँकि गर्मी की छुट्टियाँ चल रही हैं इसलिए स्वाती भी यहीं रुकी हुई है। दोनों का स्वभाव एक-सा होने के कारण इनमें खूब पटती है। दोनों ही एक-दूसरे से बढ़कर ख़ूबसूरत और शरारती हैं। फिर भी श्वेता की तुलना में स्वाती कुछ अधिक ही चुलबुली है। मेरे पैर में फ्रैक्चर होने के बाद श्वेता ने अपनी बहन से कहा कि- "दीदी जानती हैं जीजा जी के पैर में फ्रैक्चर कैसे हुआ?" "कैसे? " "लेकिन हुआ कहाँ, इन्होंने तो अपना पैर स्वयं तोड़ लिया।" "क्या बात करती हो?", "हाँ दीदी बात यह है कि जीजा जी आपको इतना प्यार करते हैं कि आपको छोड़ कर जाना नहीं चाहते। इसलिए उन्होंने जानबूझकर पैर तोड़ लिया और आपके पास चले आये।" "ना-ना एकदम गलत कह रही हो" स्वाती ने कहा। "तब सही क्या है, तुम्ही बताओ ? "सही यह है कि...(थोड़ा मुस्कराती और पीछे हटती हुई) दरअसल जीजा जी दीदी के कारण पैर तोड़कर वापस नहीं आये, ये तो तुम्हारे प्यार में वापस आये हैं।" "धत्, रुको अभी बताती हूँ।" श्वेता ने स्वाती को दौड़ाया और दोनों कमरे से बाहर चली गयीं। इस तरह के मजाक और इससे भी बढ़कर शरारतें ये अक्सर किया करती हैं। इसी प्रकार दोनों एक दिन मेरे पास बैठी थीं। बात पढ़ाई-लिखाई की चल रही थी। स्वाती ने मुझसे पूछा- "अच्छा जीजा जी आप हिन्दी साहित्य पढ़ाते हैं मेरे एक प्रश्न का जवाब देंगे?" 

"पूछो।"

"अच्छा यह बताइए कि आपको तुलसीदास अच्छे लगते हैं या सूरदास 

"मुझे तो दोनों ही अच्छे लगते हैं।" 

"दोनों कैसे?"

"इसलिए कि दोनों अपने ढंग के श्रेष्ठ साहित्यकार हैं। तुलसीदास शक्ति, शील और सौन्दर्य को महत्व देने वाले हैं। उनके काव्य के हर क्षेत्र और हर पात्र में एक प्रकार की मर्यादा का भाव है। जो अच्छी बात है। उनके यहाँ आदर्श भी है और सुन्दर काव्य-कला भी। जीवन का विस्तार वहाँ अधिक है। इसी प्रकार सूरदास जी मूलतः प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। उनकी भक्ति भी प्रेम के वशीभूत और उसी के अर्न्तगत है। लेकिन लोक कल्याण की भावना उनके काव्य में भी लक्षित होती है। इस प्रकार तुलसीदास जी के यहाँ मर्यादा पर विशेष बल है और सूरदास के यहाँ प्रेम पर। तुलसीदास का प्रेम संयमी और आदर्शवादी ढंग का है और सूरदास का वेगवान, बन्धनों को तोड़ता हुआ प्रसरणशील और लोकोन्मुखी। अच्छा बताओ तुम्हें कौन अच्छा लगता है?"

"मुझे तो सूरदास ही अच्छे लगते हैं।"

"क्यों?"

"इसलिए कि यह हमेशा ग्वाल-बालों के चक्कर में पड़ी रहती है। श्वेता ने कहा। 

"हे" (आँखें तरेरती हुई स्वाती ने कहा) "मुझे सूरदास इसलिए अच्छे लगते हैं कि सूरदास की गोपिया सिर्फ प्रेम को ही सबकुछ मानती हैं। प्रेम, बस प्रेम, सिर्फ प्रेम और किसी से कोई मतलब नहीं। जरा सोचिए तो यह सोचना ही कितना आनन्ददायी, स्फूर्तिदायी, उन्मादक और उल्लास भरा है। अजीब-सी थिरकन जैसे किसी ने दिल के तारों को छेड़ दिया हो। जैसे हम सपनों की परियों के लोक में चले गये हों। तुलसीदास तो इस श्वेता को ही अच्छे लगेंगे। स्वाभाविक गति को बाँधे रहो, मन में लड्डू फूटे लेकिन बाहर कोई न जाने, बनी रहो संयमी और शीलवती। बैठी-बैठी कंगन के नग में प्रिय की परछाईं देखती रहो।"

फिर दोनों ने एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने शुरू किये तो मुझे हस्तक्षेप करके चुप कराना पड़ा। वर्तमान बातचीत में फिर शरीक होते हुए मैंने थोड़ी जोर से कहा- "देखिये आप लोग इस फालतू बहस मे न पड़ें। दुर्घटना इसलिए हुई कि वह रास्ता काफी खराब था जिससे गाड़ी फिसल गई और मैं उस पर नियंत्रण नहीं रख सका। इसमें किसी ग्रह-नक्षत्र और देवी-देवता का कोई योगदान नहीं था।" 

"था अजय बाबू था। आप नहीं समझ रहे हैं। बिना भगवान की इच्छा के कुछ नहीं होता। एक पत्ता तक नहीं हिलता है। ऊका लिखे है कबी जी-

तेरी इच्छा के बिना हे प्रभु मंगल मूल,
पत्ता तक हिलता नहीं खिले न कोई फूल।"

उनकी कुड़मगजी और अपाहिज दलीलों से मैं अब ऊब चुका था। मैंने आवेश में आकर कहा कि यदि उन्ही  की इच्छा से होता है सबकुछ तो क्या ये रोज की हत्या, लूट, बलात्कार और आगजनी वही करवाते हैं? जाति व धर्म के नाम पर लोगों को वही लड़वाते हैं? वे सभी को भले कार्यों के लिए प्रेरित क्यों नहीं करते ? यदि वही सब कराते हैं आपके भगवान तो वे भगवान नहीं हो सकते। मैं गुस्से से बोले जा रहा था- यदि इतने ही सामर्थ्यवान हैं आपके भगवान तो वे स्वयं क्यों मोहताज होते हैं दूसरों के ? जब वे अपनी व्यवस्था और सुरक्षा स्वयं नहीं कर पाते तो भक्तों की क्या भलाई करेंगे ? हाँ आप जैसे कुछ पण्डा-पुजारियों और मुल्ला-मौलवियों की भलाई अवश्य हो जायेगी।''
"रिलैक्स जीजा जी रिलैक्स, आप तो सब जानबूझकर भी नहीं समझ रहे हैं। यह पण्डित जी की रोजी-रोटी का सवाल है और इसमें आपका लगता भी क्या है, पैसे तो मौसी जी खर्च करेंगी। हाँ आप हम लोगों को एक फिल्म दिखा दीजिएगा और किसी अच्छे-से होटल में डिनर दे दीजिएगा।'' श्वाती ने कहा।

मैंने सोचा था पण्डित जी मेरी बातों से नाराज होकर चले जाएंगे किन्तु वह अव्वल दर्जे के सहनशील थे, सहनशील क्या एक तरह से तो थेथर थे जो इतना सुनकर भी हॅंस रहे थे और आशा लगाए हुए थे कि मैं उनकी बातें मान लूँगा।
तभी किसी के पैर से बेड पर धक्का लगा और मेरे पैर में तेज दर्द होने लगा। मैंने कराह कर आँखें बन्द कर लीं। पण्डितजी धीरे-धीरे मेरी सास जी से कह रहे थे- ''जाने दीजिए दुलहिन जी, मैं बुरा नहीं मानता इन बातों का। ई आज कल के लड़के तनी सा अंग्रेजी का पढ़ लिये हैं कुछ धरम-करम मानते ही नहीं। एकदम से कृस्तान (क्रिस्चन) हो गये हैं। मैं अजुवे थोड़े सुन रहा हूँ ई सब बातें, और भी कुछ लड़के अइसही कहते हैं। हे राम जी हो।''

इसी बीच वीडियो फिल्म शुरू हो गयी थी। कमरे में बैठे सभी लोग फिल्म देखने में मसगूल हो गये। बाहर से भी कुछ लोग आकर कमरे में बैठ गये। पड़ोस की पड़ाइन भौजी भी सूचना पाकर पान चुभलाती आकर मेरे पास बैठ गई थीं। पड़ाइन भौजी को आपस के सारे लोग बच्चे-बूढ़े जवान सभी भौजी कहते हैं। वे पूरे मुहल्ले की खबर रखती है, और मौका पाते ही धड़ाधड़ा समाचार सुनाने लगती हैं। किसके घर झगड़ा हुआ है, किसके घर गहने बने हैं, किसके लड़के या लड़की की शादी तय हुई है, किसके घर उपवास हुआ, किसकी बीबी किसके साथ घूमने जाती है, किसकी लड़की किसके साथ आँखें लड़ा रही है। यह जानना हो तो आप पड़ाइन भौजी से मिल सकते हैं। इसीलिए मुहल्ले के लड़के उन्हें आकाशवाणी कहते हैं। बात-बात में हँसना-रोना और अपनी बातों की प्रामाणिकता के लिए कसमें खाना उनका सहज स्वभाव है। पड़ाइन भौजी बड़े खुले विचारों की महिला हैं। जो भी उनके मन में होता है घड़ल्ले से कह देती है। किसी को अच्छा लगे या बुरा, ठेंगे से। भगवान में आस्था है। धरम-करम में रुचि है, लेकिन ढोंग नहीं करतीं। कहती हैं- ''जवन भाग में लिखा होगा ऊ होके रहेगा, का करेंगे पण्डित आ का करेंगे सण्डित।"

अभी दो दिन पहले भी ये यहाँ आयीं थीं। पण्डित जी भी यहीं कुर्सी पर बैठे हुए यही सब बातें कर रहे थे। वे अम्मा जी से कह रहे थे कि- ''दुलहिन जी इसका कुछ जोग-क्षेम कर देना चाहिए।'' उनके चले जाने को बाद पड़ाइन भौजी मेरे पास खिसक आयीं थीं। कुछ रहस्य बताने की शैली में उन्होंने मुझसे कहा- ''बहुत धुरूत (धूर्त) है ई पण्डितवा। पूरा चाई है चाई।"

मैंने उन्हें छेड़ते हुए कहा "क्यों भौजी, मैंने तो सुना है बड़े अच्छे हैं पण्डित जी, बड़े विद्वान और पहुँचे हुए ?''
"लुआठ जानकार है। जब पंच बउराया है, सबके आँखी पर परदा पड़ा है तब पण्डित जी जानकारे हैं। सबके मुरूख बनाके, भरमा के लूटते-खाते हैं। अरे मर गये चनरभान पण्डित नहीं तो इनको कोई पूछता।"

"भौजी, सुनते हैं चन्द्रभान पण्डित को इन्होंने मन्त्र से मार डाला था। मुझे किसी ने बताया था कि चन्द्रमान पण्डित जो इस पण्डित जी के पट्टीदार थे, वे बड़े विद्वान और नामी पण्डित थे। उनके सामने इन्हें कोई पूछता ही नहीं था। इसलिए इन्होंने किसी मन्त्र का जाप करके उन्हें मार डाला था। "मन्तर-सन्तर कुछ नहीं, जहर देके मारा है।" "अच्छा, कैसे ?" मैंने आश्चर्य से पूछा। ''चरनभान पण्डित बीमार रहे। उनको बुखार हुआ था। ये उनको देखने जाते थे। एक दिन संझा के टैम ई गए थे उनको देखने । ओ समय पण्डित जी अकेले सोये थे। ई इधर-उधर ताक-तूक के उनके दवाई में कुछ जहर-वहर मिला दिये। पण्डित जी रतिये में राम नाम सत्त हो गये। भिनौखां देखो तो देहि एकदम काला। कोई इनको इधर-उधर करते देख लिया था। बाद में भेद खुल गया।'' कहते-कहते पड़ाइन भौजी आवेश में आ गयी थीं। "अरे इसको पराच्छित लगेगा पराच्छित (प्रायश्चित)। कीड़े पड़ेगे एकरे देह में। रौ - रौ नरक भोगेगा ई। कम कुकरम नहीं किया है यह। कहाँ ले बतावें।''

"कुछ और बातइये न भौजी, आपकी बातें भी आप ही की तरह अच्छी लगती है।'' मैंने चापलूसी की जिसका तत्काल असर हुआ भौजी पर। वे फिर चहकने लगीं। आगे उन्होंने पण्डित जी के चरित्र का पर्दाफाश करते हुए एक बड़ी मजेदार कहानी सुनाई जिसका संक्षेप में मतलब यह है कि इस शहर में अछैबर सेठ की इकलौती बहू को यहाँ आये कई साल बीत गये लेकिन कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ। दवा इत्यादि का भी कोई असर नहीं हुआ कुछ लोगों की सलाह पर हार मानकर वह पण्डित जी की शरण में गया। उसने पण्डित जी के पैर पकड़कर विनती की- ''पण्डित जी अगर मेरी बहू को बच्चा नहीं होगा तो मेरे खानदान का नाम मिट जाएगा। यह रूपया-पैसा, धन-दौलत सब कौन भोगेगा, हमें मरने के बाद पिण्डा-पानी कौन देगा ?" पण्डित जी ने द्रवित होकर कहा- "होगा जजिमान तुम्हारी बहू को बच्चा जरूर होगा। चाहे जइसे हो लेकिन होगा। कइसे नहीं होगा।" फिर पण्डित जी ने पूजा-पाठ आरम्भ किया। अकेली कोठरी में सेठ की बहू को सामने बैठाकर उसकी तरफ लगतार देखकर वे घण्टो मंत्र बोलते रहते थे। बीच-बीच में मुस्करा कर उसके ऊपर एकाध फूल और अक्षत फेंक दिया करते थे। सेठ की बहू पण्डित जी की आँखों को देखकर कभी-कभी भयभीत हो जाती थी। एक दिन की बात है, पण्डित जी मंत्र बोलते-बोलते और धीरे-धीरे खिसकते - खिसकते उसके बिल्कुल पास चले गये तथा उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाने लगे और जब तक वह कुछ समझे उन्होंने बाँहों में कस लिया। पहले तो उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया किन्तु जल्दी ही वह घबड़ाकर जोर-जोर चिल्लाने लगी। उसकी आवाज सुनकर उसके सास-ससुर, पति सभी इकट्ठे हो गये। फिर वास्तविकता जानकर पण्डित की ऐसी धुनाई की कि वे कई दिनों तक हल्दी-गुण पीते रहे। भौजी ने उस दिन पण्डित जी की जालसाजी और उनके कुकर्मों की और भी कई कहानियाँ सुनाई।

पण्डित जी को मैंने एक बार ध्यान से देखा। उन्हें अपने सामने बैठे देखकर न जाने क्यों मुझे अपने बाबा जी की याद आने लगी। पण्डितजी की चुटिया,चन्दन और उनकी वेश-भूषा बहुत कुछ मेरे बाबा जी से मिल रही थी। मेरे बाबाजी अपने जवार के बड़े ही जाने-माने और प्रतिष्ठित पण्डित थे। लोग बताते हैं वे बहुत बड़े ज्योतिषाचार्य थे। वे किसी को देखते ही उसका भूत, वर्तमान और भविष्य सब बता देते थे। दूर-दूर से नये पण्डित उनसे पढ़ने आया करते थे। क्षेत्र-जवार के लोग उन्हें बड़का पण्डित के नाम से जानते थे। मेरे बाबाजी का रोब-दाब और उनकी शानो-शौकत देखने लायक थी। पण्डिताई के बल पर वे हजारों का महीना कमाते थे। बड़े-बड़े मन्त्री, अधिकारी और सेठ-साहूकार उनसे मिलकर अपने को धन्य समझते थे। बाबा जी जब मरे तब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था। मरने के कुछ साल पहले से ही उनकी आँखों की रोशनी कुछ कमज़ोर हो गई थी। इसलिए वे कहीं जाते तो किसी को साथ ले लेते थे। बाबा जी के साथ एक बार मुझे भी यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उस बार वे तत्कालीन मुख्यमंत्री जी के वहाँ जा रह थे। मुख्यमंत्री जी बाबा जी को अपना गुरु मानते थे। बाबा जी हर साल उनकी कुण्डली बनाते थे और उसे उनके जन्म-दिन पर भेंट करते थे। बाबा जी के साथ की गई उस दस-बारह दिन की यात्रा में कई आश्चर्यजनक अनुभव हुए जिनका मेरे किशोर मन पर अविस्मरणीय प्रभाव पड़ा। निकटवर्ती रेलवे स्टेशन पर पहुँचकर बाबा जी सीधे ट्रेन में जाकर बैठ गये। मैंने कहा- ''बाबा जी टिकट तो अभी लिया नहीं गया ?'' "तुम बैठो, टिकट है मेरे पास।'' बाबा ने मुझे चुप करते हुए कहा। मैं खामोश बैठ गया और खिड़की से बाहर प्लेटफार्म की ओर देखने लगा। फिर ट्रेन अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ी। थोड़ी देर बाद उस डिब्बे में टी.टी. ने प्रवेश किया। यात्रियों के टिकट चेक करता हुआ जब वो मेरे पास आया तो मैंने बाबा की ओर संकेत कर दिया। फिर उसने बाबा जी से कहा- "बाबा जी आपका टिकट ?''

''मेरा टिकट नहीं लगता है।''  बाबा ने बड़े धैर्य से कहा।

"क्यों ?"

"बताता हूँ।" कह कर बाबा जी ने अपने झोले में से एक पञ्चांग निकाला। कुछ देर तक वे उसके पन्ने पलटते रहे फिर उसमें से एक कागज निकाला और उसे दिया जिस पर कुछ टाइप किया हुआ था। शायद वह मुख्यमंत्री जी का पत्र था बाबा जी के नाम। उसे पढ़ कर वह बाबा जी का चेहरा थोड़ी देर तक देखता रहा। फिर चुपचाप चला गया।
गाड़ी से उतर कर हम मुख्यमंत्री जी के घर पहुँचे। उस दिन वहाँ बड़ी भीड़ थी। उतनी भीड़ मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। यहाँ कई पुलिस के सिपाही बन्दूकें लिए पहरा दे रहे थे। उन बन्दूकों के ऊपर संगीनें लगी हुई थीं। उन्हें देखकर मुझे डर लगने लगा। मैंने बाबा का हाथ कस कर पकड़ लिया। फिर हम धीरे-धीरे चलते हुए मुख्यमन्त्री जी की बैठक के सामने पहुँचे। बीच में कुछ लोगों ने बाबा जी को पैर छू कर प्रणाम किया। मुख्यमन्त्री जी बाबा जी को देखते ही खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम करके आदर सहित बैठाया। लोगों ने वहाँ बाबा जी का जिस तरह से स्वागत किया उसे देखकर में हैरान रह गया और अपने बाबाजी पर गर्व महसूस करने लगा।

शाम को वहाँ और भी भीड़ इकट्ठी हो गयी। बाबा जी ने मन्त्र बोलकर मुख्यमन्त्री जी को चन्दन लगाया। लोगों ने उनके ऊपर फूल बरसाये और उन्हें उपहार दिया। फिर बाबाजी ने उन्हें कुण्डली भेंट की जिसे सबको पढ़कर सुनाया गया। उसमें उनकी तारीफ़ ही तारीफ़ थी। मुख्यमंत्री जी उसे सुनकर बहुत खुश हुए। दूसरे दिन जब हम वहाँ से चलने लगे तो मुख्यमन्त्री जी ने मुझे दो सौ रुपये दिये। मैं बहुत खुश हुआ क्योंकि उससे पहले मुझे कभी इतने रुपये नहीं मिले थे। उन दिनों त्योहारों पर भी 10-5 रुपए ही मिलते थे। बाबा जी को उन्होंने क्या दिया मैं नहीं जान सका। 

लौटते समय रास्ते में रुक-रुक कर बाबा जी ने कई अधिकारियों और सम्भ्रान्त लोगों से मुलाकातें कीं। वे कई गाँवों में भी गये। बाबाजी जब किसी गाँव में जाते थे तो गाँव के बाहर ही रुककर किसी आने-जाने गँवार व्यक्ति को रोककर प्रेम से अपने पास बिठा लेते थे और उससे उस गाँव के खास-खास प्रतिष्ठित लोगों के बारे में पूरी जानकरी ले लेते थे। जैसे वे क्या करते हैं, कितने लड़के-लड़कियाँ हैं, पत्नी है कि नहीं, कोई बीमारी तो नहीं है, इत्यादि। फिर गाँव में पहुँचकर बाबा जी उन्हीं-उन्हीं लोगों का हाथ देखते थे और सब कुछ सही-सही 'भाख' देते थे। फिर तो बाबा का वहाँ ऐसा रंग जमता कि पूछना ही क्या। बाबा उनसे मनमाना पैसा वसूल करते थे। यदि कोई ऐसा व्यक्ति हाथ दिखाने आ जाता जिसके बारे में पूर्व जानकारी नहीं होती तो बाबाजी उसे दूसरे दिन बुला लेते थे और उसका नाम नोट कर लेते थे फिर रात में सोते समय बाबाजी किसी नाई या कहार को बुलवा लेते थे जिसे दस-पाँच रूपये देकर पैर दबवाते थे और उन लोगों के बारे में सबकुछ पूछ लेते थे जिनका नाम नोट होता था। सुबह उनका भी हाथ देखकर संतुष्ट कर देते थे।

बाबाजी लोगों पर असर डालने के लिए एक और अस्त्र चलाते थे जो उनका अचूक अस्त्र होता था। उन्होंने मुझसे छोटे-छोटे कागजों पर अलग-अलग कुछ फूलों के नाम लिखवा लिये थे जैसे-गुलाब, कमल, गेंदा, गुड़हल आदि और उन्हें अपनी मिर्जई की अलग-अलग जेबों में रखते थे। जब वे लोगों का हाथ देख लेते उनसे किसी प्रिय फूल का नाम पूछते थे। वह व्यक्ति जिस फूल का नाम लेता था, वह नाम लिखा हुआ कागज वे उसके सामने रख देते और कहते कि मैं जानता था आप यही बतायेंगे, इसलिए मैंने पहले ही लिख दिया था। वह व्यक्ति आश्चर्यचकित रह जाता। 'वाह इतने पहुँचे हुए महात्मा !'

अपने जाल में फँसाये हुए लोगों को बाबाजी एक कागज का टुकड़ा बेचते थे जिसे ताबीज में भरकर गले या दाहिने हाथ में बाँधना होता था। उन्होंने मुझसे कई कागजों पर कलम से रेखाएं खींचकर दस खाने बनवाकर उन खानों में एक-एक अक्षर ॐ, ऐ, ह्नि, क्लीं, चा, मु, न्डा, यै, वि, च्चे', लिखवा कर मोड़-मोड़ कर रख लिये। थे। वे लोगों को उस कागज के बारे में बताते थे कि इसमें लिखे मन्त्र को फलाने मन्दिर में फलानी तिथि को सवा लाख बार जाप करके लिखा गया है। इसे धारण करने से पुत्र और धन की प्राप्ति होती है, रोग-व्याधि दूर होते हैं, इत्यादि-इत्यादि। बाबाजी इन कागजों को लोगों की सामर्थ्य के अनुसार एक हजार से एक सौ एक और इक्यावन रुपयों तक बेचते थे। इन कागजों से लोगों की मनोकामनाएं पूरी होती थीं या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन बाबाजी को इससे अच्छी आमदनी हो जाती थीं, यह मैं देख रहा था।

बाबाजी की इन गतिविधियों को देख-देखकर मेरे मन में बड़ी बेचैनी होने लगी थी। पहले तो कम लेकिन बाद में बहुत परेशान रहने लगा। मैं बाबा से चिल्ला-चिल्लाकर पूछना चाहता था कि आप झूठ क्यों बोलते हैं लोगों से, उन्हें धोखा क्यों दे रहें? कितना पाप छिपा है आपके इस धर्मात्मा रूप के पीछे?...‘लेकिन मैं डर के मारे कुछ कहने का साहस नहीं कर पा रहा था। एकदिन रास्ते में मैंने उनसे डरते हुए धीरे से पूछा- ‘‘बाबाजी, वे कागज तो सब मैंने लिखे हैं, तो झूठ बोलने से आप को पाप नहीं मिलेगा?’’

बाबा ने धीरे से कहा- ‘‘सब मूर्ख हैं। पाप-पुण्य कुछ नहीं होता है।’’

‘‘लेकिन आप ही तो बताते हैं कि…"

‘‘सब झूठ है।’’ बाबा जी ने मुझे रोकते हुए कहा।

"लेकिन बाबा...''

"तुम अभी नहीं समझोगे, चुप रहो।'' बाबा ने एक प्रकार से डॉटते हुए कहा।

मैं चुप हो गया और बहुत दिनों तक पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, झूठ-सच, भगवान, देवता आदि के अन्तर्द्वन्द्वों में फँसा रहा। समय बीतता गया। मेरे बाबाजी भी नहीं रहे लेकिन उनकी बातें मेरे मन में कहीं गहराई तक बैठती गयीं।
वी.डी.ओ. फिल्म में इस समय शादी के बाद का दृश्य आ रहा है। तम्बू में सभी बाराती बैठे हुए है। बीच में तवायफ का नाच हो रहा है। मैं भी एक चारपाई पर लेटा हुआ दिखाई पड़ रहा हूँ। वह बड़ी सुरीली और कशिश भरी आवाज में एक गीत गा रही है काँटा लगा ऽ हाय लगा ऽ...

यह जिस शादी का कैसेट चल रहा है उसमें बजरंगी पण्डित ही पण्डित बनकर गये थे। जिस समय तवायफ का नाच हो रहा था उस समय पण्डित जी पूजा करने के लिए सबसे अलग चले गये थे। लोगों ने समझा कि पण्डित जी दूर बैठकर पूजा कर रहे हैं लेकिन वे वहाँ बैठकर नाच देख रहे थे। इधर कैमरा मैन भी कम बदमाश नहीं था इस समय उसने पण्डित जी पर कैमरा केन्द्रित कर दिया है। कभी नाचने वाली को दिखा रहा। है कभी पण्डित जी को इस समय पण्डित जी मुग्ध भाव से नाचने वाली को देख रहें हैं। अजीब हाल है, हाथ में माला, मन में मधुबाला। पण्डित जी की चोरी पकड़ ली गयी। कमरे में बैठे हुए सभी लोग पण्डित जी की ओर देखकर हँसने लगे हैं। वे भी शरमाकर हि हि हि हि करके हँस रहे हैं। भौजी घृणा से मुँह बिचका लेती हैं। फिर दूसरी ओर मुँह करके कहती है- '' हुँ जा अभागा कहीं का। पण्डित बने हैं। बड़े विद्वान बनते हैं। सबको बुद्धि सिखाते हैं। धरम का उपदेश देते हैं और अपने? पतुरिया को देखकर मुँह पगुराते हुए बन्दर की तरह उछल रहे हैं। जैसे वह रसगुल्ला हो, उठाकर खा जायेंगे। मलिच्छ कहीं का धुरुत कहीं का।’’

पण्डित जी भौजी का बड़बड़ाना तो देखते हैं,किन्तु उनकी बातें सुन नहीं पाते। वे और लोगों की ओर देखकर झेंपते भी हैं पर धृष्टतापूर्वक कहने लगते हैं- "हि हि हि हि, अरे बड़ी महिमा है इन लोगों की, धर्म-शास्त्रों में भी, वेदों-पुराणों में भी इनकी लीला का वर्णन हुआ है। बड़े बड़े ऋषि-महात्मा भी इनसे नहीं बच पाये। तपस्याएं भंग हो गयीं बड़े-बड़े ब्रह्मचारियों की। हम लोग तो तुच्छ संसारी प्राणी...।

उधर सामने फिल्म में कुछ लड़के उस तवायफ को पैसा देकर उकसाते हैं और वह कुछ झिझकती हुई-सी जाकर पण्डित जी के सिर पर अपना आँचल डाल देती है। तब नहीं तो अब बना। पण्डित जी उसका हाथ पकड़कर उससे लड़ने लगे हैं। सारे लोग इस दृश्य का मज़ा ले रहे हैं। लोगों की हँसी का ठिकाना नहीं है। इधर कमरे में पण्डित जी और झेंप जाते हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ से होकर उठ खड़े होते हैं। छड़ी और झोला उठाकर जाने को कदम बढ़ाते हैं, फिर मेरी सास जी से कहते हैं- ‘‘अच्छा तो दुलहिन जी हम चलते हैं...तो इस मंगलवार से शुरू करा दें न?...
पण्डित जी की आँख ठीक निशाने पर लगी है। असली 'काग चेष्टा बको ध्यानम्' तो यही है। मुझे लगता है कि मेरे बाबाजी मरे नहीं हैं। वे जीवित हैं, मेरे सामने हैं। फिर मुझे मेरे बाबा अनेक रूपों में दिखाई पड़ने लगते हैं।
श्वेता और स्वाती ने एक साथ गाना शुरू कर दिया है- काँटा लगा ऽ…


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सुनो मधुमालती
[ जन्म : 15 मार्च , 1962 ]
नीरजा माधव


रात है। धुँधली सी याद की तरह। वह लड़की है। बिल्कुल साफ, चटक, मधुमालती के सफेद नन्हें खिले फूल की तरह। मधुमालती की एक विशेषता होती है। सूरज की रोशनी में उसके फूल गुलाबी रंगत ले लेते हैं तो रात होते ही वे अनगिनत चाँदनी के पुष्प बन जाते हैं। सफेद, तारों की तरह, अँधेरी हरी पत्तियों के बीच टिमटिमाते हुए। उस लड़की की आँखें भी टिमटिमा रही हैं। अरुन्धती अपने साथी तारों के साथ उसकी आँखों में उतर आई है। वह लड़की गुनगुना रही है, अपनी माँ का गीत- मोरे पिछवंरवा लवंगिया का गछिया लवंग चुवै सारी रात, नाजो क सोहाग बढ़े। लवंग की ठंडी सुरभि उसके चारों ओर हवाओं में घुल रही है। वह मुस्कुरा रही है। एक मीठी मुस्कुराहट। उसकी उंगलियाँ ढोलक पर थाप देने की मुद्रा में नृत्य कर रही हैं।

मैं उसे गीत के बीच से खींचकर बाहर लाना चाह रही हूँ , पर वह चुपके से अपनी बाँह छुड़ा कुलाँचे भरती माँ के आगे-आगे दौड़ पड़ी है। गोतिन के यहाँ विवाह पड़ा है। रात में सोहाग गाने के लिए गाँव भर की औरतें इकट्ठा हैं। ये सभी औरतें एक दूसरे की गोतिन हैं। रिश्ते में देवरानी-जेठानी या सास-ननद भी हो सकती हैं, पर कार-परोजन में ये सभी गोतिन-दयादिन हो जाती हैं। उस लड़की को अच्छा लगता है माँ के साथ गोतियाउर करना। रात में बाबूजी की आँख बचाकर दूसरे के घर सोहाग गाने जाना। माँ को गर्व होता है कि उनकी लड़की के अलावा गाँव की किसी लड़की को सोहाग पर ढोलक बजाने नहीं आता। यह शऊर तो बस उसी लड़की में है। कई बार उसकी ढोलक की थाप पर नाचने के लिए खड़ी हुई किसी गोतिन की भोंडी मुद्रा पर ठहाकों से रात का गझिन सन्नाटा टूट जाता है। उस समय लड़की की उंगलियाँ ढोलक पर और तेज थाप देने लगती हैं। उसकी अपनी हँसी हथेलियों की गति बढ़ा देती है। जैसे बढ़ती जाती है यादों की तीव्रता समय के साथ। यादें, जो कभी साथ नहीं छोड़तीं। एक नवजात, वह भी नींद में कभी हँसता है तो कभी ओठों को रोने की मुद्रा में सिकोड़ता है। वह लड़की भी अपने नये-नये पैदा हुए भाई को नींद में बिदुर काढ़ते देख माँ से पूछ रही है - 

‘‘ये क्यों रो रहा हैं ?’’

‘‘इसे सपना आ रहा है।’’ माँ अपने आँचल को संभालते हुए बोल रही। 

‘‘किसकी याद आ रही है ?’’ लड़की की जिज्ञासा लम्बी हो उठी है।

माँ को कल्पना करनी पड़ी है। उस लड़की को कहानी के बिना बात समझ में नहीं आ सकती। चटपट एक लघु कहानी सुना देती हैं- इसे अपनी पहले जन्म वाली माँ याद आ रही हैं सपने में। भगवान इससे मजाक में कहते हैं कि तुम्हारी माँ मर गई तो यह बिदुर काढ़कर रोने लगता है और तुरन्त ही भगवान कह देते हैं कि नहीं, नहीं तुम्हारी माँ जिन्दा है तो नींद में ही यह हँसने लगता है।

बचपन में सुनी वह कहानी आज तक याद है इस लड़की को। स्मृतियाँ मृत्यु से प्रारम्भ होकर मृत्यु तक जाती हैं। मैं डरकर इस लड़की को स्मृतियों से बाहर लाना चाहती हूँ। इसे कोई नाम देना चाहती हूँ। आप भी इसे किसी नाम से पुकार सकते हैं- चम्पा, जूही, लिली, गंगा, सृष्टि या कुछ भी। मैं इसे मधुमालती ही पुकार लेती हूँ। एक प्रतीक ही तो होते हैं नाम भी। पहचाने जाने के लिए जरूरी। मधुमालती को भी पहचाना जाता है। अपनी हास्टल की दोस्तों के बीच वह एक गाने बजाने वाली मस्त लड़की  के रूप में है, पर रात के एकान्त में चुपचाप अपनी किताबें खोल शान्त होकर पढ़ाई करने वाली भी। मधुमालती की तरह ही दिन भर गुलाबी चंचलता ओढ़े, रात होते ही स्निग्ध चाँदनी की तरह शान्त और रहस्यमयी। अपनी स्मृतियों में दौड़ लगाती किसी हिरनी की तरह।

ऐसी ही किसी रहस्यमय और शान्त सी रात में मधुमालती अपनी फैलती सुगन्ध को बटोरकर खड़ी हो जाती है मेरे सामने चुपचाप। मुझसे कुछ फुसफुसाती सी। धुँधली सी यादें, पर साफ-साफ याद हैं मुझे। वह लड़की हास्टल में नाच रही है। अपनी कई दोस्तों के साथ। माँ का गाया चहका गीत। होली की हुड़दंग में वह खिलन्दड़ी तितली की तरह इठला रही है। गर्ल्स हास्टल के बड़े से कॉमन रूम में सब ठुमक रहे हैं। चहका के बोल समवेत स्वर में गूँज रहे हैं- पैजनिया हमारी झमक बाजे, पैजनिया.....। मधुमालती की देह भी मद्धिम हवा के झोंके संग हिलती कोमल लता की तरह डोल रही है। रह रहकर वह कोने में पड़ी टूटी मेज पर ढोलक के थाप दे आती है। एक जोश भर जाता है लड़कियों में। तालियाँ लय में बजने लगती हैं। यह जश्न है होली में घर जाने से पहले हास्टल वाली होली का। रंग अबीर से सबके चेहरे रंग पुते। मधुमालती के लिए इसमें कई और रंग घुले-मिले हैं। नहीं, प्रेम का नहीं। एक दूसरी छोटी सी खुशी का। उसे ट्युशन पढ़ाने का काम मिल गया है। किसी सामान्य परिवार में नहीं। राजघराने की युवरानी को ट्युशन पढ़ाना है। आजादी से पहले सचमुच के राजा। उसे जरूरत है पैसों की। कुछ मँहगी किताबें, जिन्हें वह अपने पॉकेट खर्च से नहीं खरीद पाती। बाबूजी से हास्टल खर्च के अतिरिक्त और अधिक माँगने में संकोच होता है। कहाँ से लायेंगे बेचारे ?

वह खुशी से इतरा रही है। उसके विभाग के एक प्रोफेसर ने उसका नाम राजघराने में भेजा था। राजा साहब पुराने जमाने के महाराज। युवरानी को इन्टरमीडिएट की परीक्षा दिलानी है। अपना ही कालेज है पास में, पढ़ने भले न जाएँ पर परीक्षा देने तो जाना ही पड़ेगा। हाथी, घोड़ा, पालकी की आदत अभी भी पूर्ववत।

युवरानी को पढ़ाने के लिए कोई संस्कारिक लड़की ही चाहिए। प्रोफेसर साहब ने मधुमालती का नाम दे दिया। मधुमालती बहुत खुश है। वह राजघराने की कुलगुरु बन गई है। भले ही कुछ महीनों के लिए। संकोच में ट्युशन फीस नहीं पूछ पाई। अब राजा खानदान है तो सामान्य से अधिक तो होगा ही। फिर कौन बहुत दूर जाना है। हास्टल के पीछे बहती नदी और उस पर बने पीपा वाले पुल को पार करते ही राजा साहब का किला है। दो घण्टे में आना जाना और पढ़ाना सब हो जायेगा। बस अंग्रेजी ही तो पढ़ाना है। अपनी क्लास भी नहीं छूटेगी। 

मधुमालती बहुत खुश है। पहले ही दिन किले में पहुँची तो उसकी भेंट महाराज जी से हुई। युवरानी के पास तक पहुँचने से पहले उस ट्युशन वाली लड़की का इन्टरव्यू होना जरूरी जो था। मधुमालती का हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था। डर और खुशी दोनों मिश्रित। जैसे मधुमालती के फूलों की गुलाबी और सफेद दोनों रंगत। राजमहल के गेट पर खड़ी युवरानी की दासी उसे लेकर महाराज के कक्ष में पहुँची थी। चारों तरफ शीशमहल की आभा। शीशे का इतना महीन काम तो उसने किसी फिल्म में ही देखा था। चारों ओर मधुमालती ही फूलों की तरह झिलमिला उठी। एक और नक्कासीदार आसन पर महाराज जी विराज रहे थे। दासी ने प्राचीन चिर अन्दाज में राजा साहब को सलाम ठोंका और दरवाजे के पास खड़ी हो गई। राजा साहब की संस्कारिक आँखें मधुमालती से प्रश्न पूछ रही थीं। कुछ देर बाद उनके ओंठ भी लरजे। जैसे गुफा के ऊपर उढ़के दो पत्थर किसी ने हटा दिये हों। 

‘‘संस्कृत भी जानती हो ?’’

‘‘जी हाँ, थोड़ा-थोड़ा। बी.ए. में था।’’ मधुमालती उनकी आवाज से सहम उठी। 

‘‘हूँ। युवरानी को हिन्दी भी पढ़ा सकती हो ?’’ 

‘‘जी, पढ़ा दूँगी।’’

राजा साहब ने दासी को संकेत किया तो वह मधुमालती को अपने साथ लेकर युवरानी से मिलाने चल दी।

  कितनी खुश थी वह लड़की। हिन्दी भी पढ़ायेगी वह युवरानी को। दोहरी फीस, दोहरी खुशी। मैं हैरान सी देख रही हूँ उस खिलन्दड़ी लड़की को। सामान्य लड़कियों की तरह क्यों नहीं सोच पाई वह ? फिल्मों के खलनायक की तरह कहीं राजा उस पर झपट्टा मार देता तो ? कपड़े फाड़ देता तो ? अकेली ही तो गई थी वह नदी पार कर। किले की छत से फेंक देता नदी में तो ? पर वह मुस्कुरा रही है, थिरक रही है। होली के बहाने अपनी इस छोटी ही सही, खुशी को भी उत्सव की तरह साझा कर रही है वह। डिजर्टेशन में टाइपिंग आदि पर लगभग तीन चार हजार रुपये खर्च होने हैं। बाबूजी पर अतिरिक्त भार वह नहीं डालेगी। उनके ऊपर पूरे परिवार के खर्च की जिम्मेदारी हैं। वह ट्युशन फीस से अपना यह खर्च निकाल लेगी।

हास्टल में लड़कियों का होलियाना मुड परवान चढ़ रहा है। सब मिलकर लगभग चिल्लाने वाले बेसुरे अन्दाज में चहका गा रही हैं- मोरे सेजिया से उड़ गये दुइ कागा, मोर सइयाँ अभागा न जागा। कुछ ताली पीटकर इस गाने पर हँस रही हैं। मनुष्य अत्यन्त आह्लाद के क्षणों में अपनी मिट्टी, अपनी लोक संस्कृति से ही जाकर जुड़ता है। यह चहका भी पूर्वांचल की मिट्टी का एक लोकप्रिय गीत है। लड़कियों के बहाने भारत का दक्षिण, पश्चिम, उत्तर भी जुड़ रहा है इस मिट्टी से। थिरकने के लिए बस एक धुन चाहिए। बोली भले न समझ में आए। हास्टल की सभी लड़कियाँ चाहे वे केरल, पंजाब, गुजरात या जम्मू की हैं, इस गाने की धुन पर थिरक रहीं हैं। मधुमालती भी नृत्य की मुद्रा में गोल-गोल घूम रही है। वार्डेन के गुस्से की परवाह किसी को नहीं है। मेस के मैनेजर और रोटियाँ सेकने वाली महराजिन भी कॉमन रूम के दरवाजे  पर खड़े होकर यह दृश्य देख रहे हैं। उनके मुँह हँसी की मुद्रा में खुले हुए हैं।
मधुमालती ने उन दोनों को पकड़ कर भीतर खींच लिया है और अपने दोनों हाथों से उन्हें थामकर नृत्य करवा रही है। मेस मैनेजर मोटा सा अधेड़ आदमी है। वह शरमा रहा है लड़कियों के बीच नाचने में। रजेसरा महाराजिन विधवा हैं। बूढ़ी हैं। अपनी सफेद साड़ी संभालते वे मधुमालती का मन रखने के लिए दो ठुमके लगा रही हैं और लजाकर फिर से दरवाजे के बीच खड़ी हो र्गइं। लड़कियों का एक जोरदार ठहाका। रजेसरा महराजिन लाज से दोहरी हुई जा रहीं।

मधुमलती की आँखों में उम्मीद की एक बढ़ी हुई नदी लहरा रही है। उसे याद आ रही हैं युवरानी जिसे पहले दिन पढ़ाते हुए वह लगातार उनके शरीर पर जगमगाते गहनों को कौतूहल से निहारती रही थी। पहले ही दिन युवरानी ने उसे यह भी बताया कि वे एक अधिकारी की बेटी थीं और राजघराने में विवाह तय होने के बाद बहुत प्रसन्न थीं, पर अब यह सब उन्हें कैदखाने जैसा लगता है। कहीं बाहर निकलकर आजाद घूमने फिरने का उनका भी मन करता है पर राजघराने में यह प्रथा नहीं है। वे किले की भी छत पर दासियों के साथ चिब्बी-डाड़ी खेलती हैं। मधुमालती मुस्करा उठी। रानियाँ भी उसकी तरह ही होती हैं। वैसे ही खेल खेलती हैं, जैसे वह। पर वह बन्धन में नहीं है, युवरानी बंधन में हैं। उसे युवरानी पर तरस आया।

‘‘कभी बाहर खाने का मन हो, जैसे होटल वोटल ?’’ वह पूछ बैठी।

‘‘नहीं, घर में ही बनवाकर खाना है। खाना बनाने वाला महाराज आकर पूछ जाता है। क्या खाने का मन है ?’’

युवरानी उदास थी। मधुमालती भी उदास हो गई उनकी बेचारगी देख। 

उस लड़की ने एक दिन पूछ लिया- क्या पसन्द है ? ‘‘मैं बाहर से खरीद कर लेती आऊँगी।’’

‘‘नहीं, बाहर वाचमैन देख  लेगा तो बड़े दाऊजी से कह देगा। ’’युवरानी भोलेपन से बता रही थी। सभी राजा साहब को बड़े दाऊजी ही पुकारते हैं। 

‘‘मैं अपने बैग में ले आऊँगी। वाचमैन मेरा बैग नहीं देखता।’’

‘‘अच्छा। तब मेरे लिए रस मलाई ले आइएगा। महाराज अच्छा नहीं बना पाता।’’

दूसरे दिन रस मलाई खरीदने के लिए उसने अपनी रूम-मेट से डेढ़ सौ रुपये उधार लिये थे और श्रीराम मिष्ठान्न से रसमलाई पैक करवाकर राजमहल पहुँची थी। उसकी आँखों में युवरानी को प्रसन्न कर पाने की खुशी थी। रूम-मेट के पैसे तो वह ट्युशन फीस मिलते ही वापस कर देगी। राजघराने की कुलगुरु है वह। फिर एक मुस्कुराहट तैर गई है लड़की के ओठों पर। सामान्य परिवारों की तरह दो चार सौ रुपये थोड़े ही देंगे राजा साहब। इतना तो देंगे ही कि उसके डिजर्टेशन का पूरा खर्च निकल आयेगा। कुछ पैसे बच जायेंगे तो माँ के लिए एक वायल की ही सही, साड़ी खरीदेगी। माँ कितनी खुश होगी। उस दिन भी उस लड़की की आँखों में वही उम्मीद तैर रही थी जब तीन महीने ट्युशन पढ़ाने के बाद वह अन्तिम बार युवरानी से गुडबॉय करके आ रही थी। बाहर राजा साहब के सचिव खड़े थे। उन्होंने एक पालिथिन बैग उसे पकड़ाते हुए लिफाफा हथेली पर रख दिया।

‘‘ये तीन महीने की ट्यूशन फीस।’’

‘‘जी।’’ उसका मन चंचल हो रहा था लिफाफे के भीतर ताक-झाँक करने को।

‘‘और ये आपके लिए एक सूट का कपड़ा। युवरानी जी जयपुर गई थीं आपके लिए ले आईं थीं।’’

‘‘जी!’’ उसने चोर निगाहों से पालिथिन में से झाँकते नारंगी और हरे रंग के दो कपड़े देखे थे। कन्ट्रास्ट कलर। ओह, कितना सुन्दर लगेगा सिल कर।

नदी के ऊपर बने पीपे के पुल से उस लड़की की ऑटो गुजर रही थी तो उसने अन्य सवारियों की आँखें बचाकर लिफाफे के भीतर झाँका। एक पाँच सौ एक सौ रुपये की नोट दिखाई पड़ी। उसने सावधानी से फिर देखा। कहीं पालिथिन में गिरे तो नहीं हैं ? छः सौ रुपये ही थे। उसकी आँखों में तैरती उम्मीद एकाएक नदी की उफनती लहरों में कूदकर आत्महत्या कर बैठी थी।

मैं बेचैन हो उठी हूँ। अपनी मेज पर रखे ग्लोब को यूँ ही घुमा दिया है मैंने। पूरी धरती अपने सभी सागरों, नदियों, पहाड़ों के साथ मेरेे सम्मुख अपनी धुरी पर नाच उठी है। मैं अपनी उँगलियाँ चटकाते हुए उस लड़की की उम्मीदों को बचाने के लिए नदी में कूदना चाहती हूँ, पर वह नदी समुद्र में मिल चुकी है। लड़की अब भी मेरी बगल में आकर खड़ी हो गई है। सुबह की पीली रोशनी में मधुमालती के फूल फिर गुलाबी हो रहे हैं। वह खिलन्दड़ी लड़की फिर कुछ याद कर हँस रही है। उन्मुक्त, बेपरवाह। उम्मीद की मृत्यु से पैदा होते एक नवजात उम्मीद की गुलाबी रंगत को निहारते हुए। मैं हैरान हूँ। यह लड़की क्यों खड़ी हो जाती है मेरे पास बार-बार ? समझाते हुए कि यादें मृत्यु के पदचाप को चिन्हित करने वाली दूब से हरियाई एक पगडण्डी हैं। मैं देख रही हूँ अब भी उस लड़की को, जो मधुमालती है, धूप में कुछ और, चाँदनी में कुछ और।
    
      

कथा-गोरखपुर की कहानियां 


कथा-गोरखपुर खंड-1 


मंत्र ● प्रेमचंद 

उस की मां  ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र 

झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा  ● श्रीपत राय 

पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी

लाल कुरता   ● हरिशंकर श्रीवास्तव 

सीमा  ● रामदरश मिश्र 

डिप्टी कलक्टरी  ● अमरकांत 

एक चोर की कहानी  ●श्रीलाल शुक्ल

साक्षात्कार  ● ज ला श्रीवास्तव 

अंतिम फ़ैसला  ● हृदय विकास पांडेय 


कथा-गोरखपुर खंड-2 

पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी 

मां  ● डाक्टर माहेश्वर 

मलबा ● भगवान सिंह 

तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह 

पेड़  ● देवेंद्र कुमार 

हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर  ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव

सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव 

दस्तक ● रामलखन सिंह 

दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव 

इतिहास-बोध ●विश्वजीत  


कथा-गोरखपुर खंड-3 

सब्ज़ क़ालीन  ● एम कोठियावी राही 

सौभाग्यवती भव  ● इंदिरा राय 

टूटता हुआ भय  ● बादशाह हुसैन रिज़वी 

पतिव्रता कौन  ● रामदेव शुक्ल 

वहां भी ● लालबहादुर वर्मा 

...टूटते हुए ● माहेश्वर तिवारी

डायरी  ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल 

मद्धिम रोशनियों के बीच  ● आनंद स्वरूप वर्मा 

इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप 

यह तो कोई खेल न हुआ   ● नवनीत मिश्र 

कथा-गोरखपुर खंड-4 

आख़िरी रास्ता  ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव 

जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल 

प से पापा  ● रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत 

सेनानी, सम्मान और कम्बल ● शक़ील सिद्दीक़ी 

कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी

अपने भीतर का अंधेरा  ● तड़ित कुमार 

गुब्बारे  ● राजाराम चौधरी

पति-पत्नी और वो  ● कलीमुल हक़ 

सपना सा सच ● नंदलाल सिंह 

इंतज़ार  ● कृष्ण बिहारी 


कथा-गोरखपुर खंड-5 

तकिए  ● शची मिश्र 

उदाहरण ● अनिरुद्ध 

देह - दुकान ● मदन मोहन 

जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल  

रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार 

रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव 

ट्रांसफॉर्मेशन ●उबैद अख्तर

भूख ● श्रीराम त्रिपाठी 

अंधेरी सुरंग  ● रवि राय 

हम बिस्तर ●अशरफ़ अली


कथा-गोरखपुर खंड-6 

भगोड़े ● देवेंद्र आर्य

एक दिन का युद्ध ● हरीश पाठक 

घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय 

खौफ़ ● लाल बहादुर

बीमारी ● कात्‍यायनी

काली रोशनी  ● विमल झा

भालो मानुस  ● बी.आर.विप्लवी

तीन औरतें ● गोविंद उपाध्याय 

जाने-अनजाने   ● कुसुम बुढ़लाकोटी

ब्रह्मफांस  ● वशिष्ठ अनूप

सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव 


कथा-गोरखपुर खंड-7 

पत्नी वही जो पति मन भावे  ●अमित कुमार मल्ल    

बटन-रोज़  ● मीनू खरे 

शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद  

डाक्टर बाबू  ● रेणु फ्रांसिस 

पांच का सिक्का ● अरुण कुमार असफल

एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल

उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत

धोबी का कुत्ता ●सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '

कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी 

तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय

राग-अनुराग ● अमित कुमार 



कथा-गोरखपुर खंड-8  

झब्बू ●उन्मेष कुमार सिन्हा

बाबू बनल रहें  ● रचना त्रिपाठी 

जाने कौन सी खिड़की खुली थी ●आशुतोष 

झूलनी का रंग साँचा ● राकेश दूबे

छत  ● रिवेश प्रताप सिंह

चीख़  ● मोहन आनंद आज़ाद 

तीसरी काया   ● भानु प्रताप सिंह 

पचई का दंगल ● अतुल शुक्ल 


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