Friday 22 April 2022

कथा-गोरखपुर , खंड-1





मंत्र ● प्रेमचंद 

उस की मां  ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र 

झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा  ● श्रीपत राय 

पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी

लाल कुरता   ● हरिशंकर श्रीवास्तव 

सीमा  ● रामदरश मिश्र 

डिप्टी कलक्टरी  ● अमरकांत 

एक चोर की कहानी  ●श्रीलाल शुक्ल

साक्षात्कार  ● ज ला श्रीवास्तव 

अंतिम फ़ैसला  ● हृदय विकास पांडेय 

पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी 

मां  ● डाक्टर माहेश्वर 

मलबा ● भगवान सिंह 

पेंटिंग :अवधेश मिश्र , कवर : प्रवीन कुमार 





कथा-गोरखपुर का गोरखधंधा 

दयानंद पांडेय 

गुरु गोरखनाथ जैसे महायोगी और महाकवि के नगर गोरखपुर के क़िस्से बहुत हैं। गुरु गोरख के ही क़िस्से इतने सारे हैं कि पूछिए मत। इन क़िस्सों के वशीभूत गोरखधंधा ही कहने लगे लोग। तो भी इस गोरखधंधा वाले नगर में कवि और शायर जितने हैं , कथाकार उतने नहीं हैं। लखनऊ जैसे शहरों को अगर अपवाद मान लें तो ज़्यादातर शहरों में कवि, शायर गली-गली मिल जाएंगे पर कथाकार कम ही मिलेंगे। तो फ़िराक़ गोरखपुरी के शहर में भी जहां बकौल नामवर सिंह कुत्ते भी शेर में भौंकते हैं  , कथाकार कम ही मिलते हैं। अलग बात है कि गोरखपुर में प्रेमचंद से भी पहले मन्नन द्विवेदी गजपुरी के उपन्यास रामलाल और कल्याणी मिलते हैं। खंड काव्य , कविताएं , निबंध और कुछ जीवनी भी। लेकिन बहुत खोजा पर मन्नन द्विवेदी गजपुरी की कहानी नहीं मिली तो नहीं मिली। कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी तक दस्तक दी पर ख़ाली हाथ रहा। तो जिस गोरखपुर में प्रेमचंद पढ़े , नौकरी किए और गांधी का भाषण सुन कर सरकारी नौकरी छोड़ कर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूदे , कहानी की शुरुआत गोरखपुर में प्रेमचंद से ही मान लिया। ईदगाह , पंच परमेश्वर , रंगभूमि जैसी कई कालजयी रचनाएं प्रेमचंद ने गोरखपुर में ही लिखीं। पहले उर्दू में फिर हिंदी में। प्रेमचंद के बाद पांडेय बेचन शर्मा उग्र की कहानियां मिलती हैं। पांडेय बेचैन शर्मा उग्र गोरखपुर के क्रांतिकारी अख़बार स्वदेश में काम करते थे। यहीं उन के ख़िलाफ़ वारंट जारी हुआ तो वह फरार हो गए। स्वदेश के संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी गिरफ़्तार हो गए। संयोग देखिए कि प्रेमचंद के बड़े पुत्र श्रीपत राय 1916 में  गोरखपुर में ही पैदा हुए। श्रीपत राय अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार थे। मक़बूल फ़िदा हुसैन और राम कुमार जैसे चित्रकारों के अभिन्न मित्र श्रीपत राय कहानी पत्रिका के संपादक और प्रकाशक थे। पर अकलंक मेहता छद्म नाम से हिंदी में कहानियां भी लिखीं श्रीपत राय ने। सो श्रीपत राय की कहानी खोजना भी दुष्कर कार्य था। लेकिन लखनऊ में लमही के संपादक विजय राय के सौजन्य से कहानी मिली। फिर श्रीपत राय ही क्यों गोरखपुर नगर के कई पुराने कथाकारों की कहानियां तलाश करना कठिन ही साबित हुआ। 

पुराने तो पुराने नए लोगों की कहानियां प्राप्त करना भी कठिन ही हो गया था। कम ही लोग थे जो पानी की तरह मिले। कुछ लोग तो पर्वत से भी ज़्यादा दुरुह हो गए। कुछ ने असहयोग का ऐसा सुर पकड़ा कि पूछिए मत। पर गोरखपुर के ही मशहूर गीतकार माहेश्वर तिवारी की वह गीत पंक्ति है न : जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे। तो कई सारे नए-पुराने पर्वत भी पार होते गए। कहानियां मिलने लगीं। आते-जाते राह बनाते तुम से पेड़ भले ! गीत भले देवेंद्र कुमार बंगाली का है पर देवेंद्र आर्य ने भी कहानियों की राह इसी तरह बनाई। दुश्वारियां आसान होती गईं। देवेंद्र आर्य जिस तरह पुत्र-शोक में हो कर भी दुश्वारियां आसान करते जा रहे थे , लोगों को पानी की तरह जोड़ते जा रहे थे , वह अवर्णनीय है। डाक्टर कृष्णचंद्र लाल ने भी कई पुराने कहानीकारों को जोड़ने में मदद की। तो रवि राय ने कई नए-पुराने कहानीकारों और उन के संपर्क को। ऐसे जैसे गोरखपुर में नए -पुराने के बीच के इनसाइक्लोपीडिया हों। रवींद्र मोहन त्रिपाठी ने भी दिल खोल कर , घर-घर जा कर कहानियां खोजने में मदद की। प्रेमव्रत तिवारी ने भी यूरोप में रह रहे शालिग्राम शुक्ल की कहानी बड़े मन से उपलब्ध करवाई। भंगिमा में छपी कुछ कहानियां पुरानी फाइलों से दिगंबर ने उपलब्ध करवाईं। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने जीवन में सिर्फ़ एक ही कहानी लिखी है डायरी। वह भी कथा-गोरखपुर में उपस्थित है। इस कहानी को देते समय वह कहने लगे कि मन करता है कि कुछ और कहानियां भी अब लिखूं। देवेंद्र कुमार ने भी कुल एक ही कहानी लिखी है। देवेंद्र कुमार की कहानी भी कथा-गोरखपुर का गहना है। गीतकार माहेश्वर तिवारी ने भी अभी तक कुल एक ही कहानी लिखी है। माहेश्वर तिवारी की कहानी भी कथा-गोरखपुर में उन के गीत की ही तरह पर्वत को पार करती किरन की तरह प्रस्तुत है। माहेश्वर तिवारी ने भी जब अपनी इकलौती कहानी दी तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की तरह ही कहने लगे कि मन करता है कि कुछ और कहानियां भी अब लिखूं।  

98 बरस की उम्र में दिल्ली में रहते हुए भी जिस चेतना और सक्रियता के साथ रामदरश मिश्र ने तमाम पुराने कहानीकारों की याद दिलाई और उन की कहानियों के स्रोत बताए वह तो अनिर्वचनीय है। रामदरश मिश्र का गांव और मेरा गांव आस-पास ही है। इस नाते वह मुझे स्नेह भी बहुत करते हैं। रामदेव शुक्ल ने भी अपनी कहानी दी और भरपूर मदद की । गाज़ियाबाद में रह रहे भगवान सिंह ने भी कई ऐसे पुराने कथाकारों की याद दिलाई जिन से मैं ख़ूब परिचित था पर उन के नाम ध्यान से उतर गए थे। भगवान सिंह भी इन दिनों भारी विपदा में थे। गाज़ियाबाद में रह रहे कोई 90 बरस के भगवान सिंह के इकलौते पुत्र अमरीका में रहते हैं और कोरोना से ग्रस्त हो कर महीनों से अस्पताल में ज़िंदगी की जंग लड़ रहे थे। भगवान सिंह गोरखपुर में मेरे गांव बैदौली के बगल में गगहा के रहने वाले हैं। इस लिए भी आत्मीयता का ज्वार है। लेकिन बेटे की उस कठिन घड़ी में भी भगवान सिंह लगातार चर्चा करते रहे। इसी चर्चा में एक बार इंदिरा राय की चर्चा की उन्हों ने। इंदिरा राय का नाम मैं पहली बार सुन रहा था। पर भगवान सिंह ने बताया कि उन के ही समय की हैं और एक समय बहुत अच्छी कहानियां लिखती थीं। फिर उन का विवाह रायपुर में हो गया। उस के बाद का पता नहीं है। मैं ने रायपुर में अपने संपर्कों को खंगाला। पता करते-करते पता चला कि रायपुर नहीं , विलासपुर में वह रहती हैं। विलासपुर में संपर्कों को खंगाला तो पता चला कि हैं कुछ पुराने लोग जो उन्हें जानते हैं। कथाकार देवेंद्र वाया लखनऊ इन दिनों विलासपुर में ही हैं। उन से कहा। कुछ दिन बाद उन को किसी ने बताया कि इंदिरा राय तो रहीं नहीं अब। मैं ने कहा कि उन का घर खोज कर देखिए। पर किसी को उन का घर भी नहीं मिल रहा था। मिलता भी कैसे भला। बाद में पता चला कि इंदिरा राय का वह बड़ा सा बंगला गिरा कर व्यावसायिक काम्प्लेक्स बना दिया गया है। 

फिर एक मित्र ने बताया कि गोरखपुर के एक स्वनामधन्य आलोचक कभी बिलासपुर गए थे श्रीकांत वर्मा के एक कार्यक्रम में तो इंदिरा राय का कहानी-संग्रह उन्हें उपहार में दिया गया था। उन से संपर्क किया तो आदतन वह  अपनी आत्म-मुग्धता में डूब कर किसिम-किसिम के पहाड़े पढ़ाने लगे। कृत्रिम व्यस्तता के आडंबर रचते रहे। यह उन की आदत में है। लोग जानते हैं। दो-तीन महीना निकल गया। अंतत : बनारस के पत्रकार और अनुज आवेश तिवारी , जो इन दिनों रायपुर में हैं , उन के जिम्मे यह काम डाला। उन्हों ने एक ही दिन में  डाक्टर उर्मिला शुक्ल को खोज निकाला जिन्हों ने इंदिरा राय पर रिसर्च किया था। उर्मिला शुक्ल कहानियां भी लिखती हैं। उत्तर प्रदेश में गोंडा की रहने वाली हैं। आवेश ने उन का फ़ोन नंबर भी दिया। उर्मिला शुक्ल से बात हुई। उन्हों ने बताया कि इंदिरा राय संभवत : जीवित हैं । कुछ समय पहले मेरी बात हुई थी। नंबर मांगा तो कहने लगीं , नहीं मिल रहा। फिर लाचारी जताते हुए कहा कि उन का एक उपन्यास तो रायपुर में उन के पास है। पर कहानियां विलासपुर वाले घर पर हैं। मैं ने कहा कि उपन्यास पर जो परिचय छपा है , वही भेजिए। भेज दिया उन्हों ने। पर उस से कुछ अता-पता नहीं मिला। फिर उन का फ़ोन आया कि मध्य प्रदेश के कहानीकारों के एक साझा संकलन में उन की कहानी मिल गई है। मैं ने कहा , भेजिए। उन्हों ने भेजा भी। पर कहानी पर इंदिरा राय का नाम नहीं था। मैं ने उन्हें बताया। तो वह बोलीं , वह कहानी के पहले वाले पन्ने पर परिचय के साथ है। मैं ने कहा भेजिए उसे भी। भेजा उन्हों ने उसे भी। परिचय के साथ एक मोबाईल नंबर भी था। 

वह नंबर मिलाया तो संयोग देखिए कि इंदिरा राय ने ख़ुद फ़ोन उठाया। उन्हें अपना नाम और परिचय बताया तो वह बोलीं , जानती हूं आप को। पढ़ा है आप को। फिर जब कथा-गोरखपुर की योजना बताई तो वह बहुत भाउक हो गईं। गला रुंध गया। कहने लगीं , गोरखपुर में लोग हम को अभी भी याद रखे हैं। कहते-कहते वह भाव-विभोर हो गईं। नइहर की यादों में डूब गईं। बताने लगीं कि कभी यू पी बोर्ड का इम्तहान टॉप किया था। बड़े काज़ीपुर का अपना घर याद किया। अपनी जमींदारी और पुराने लोगों को याद किया। बड़ी देर तक वह गोरखपुर की यादों में डूबती-उतराती रहीं। भोजपुरी में आ गईं। कहने लगीं कहावत है कि नइहर क कुकुरो नीक लगला और आप तो हमारे बच्चे हैं। फिर कहने लगीं कि तीन बेटे हैं। एक अमरीका में है। एक मुंबई में। एक बेंगलूर में। पहले अमरीका भी जाती थी। अब लंबी यात्रा के कारण नहीं जा पाती। तो मुंबई और बेंगलूर में रहती हूं। बारी-बारी। उन से कहानी की फरमाइश की तो वह बोलीं कल भिजवा दूंगी। पर उन की बातचीत से मुझे लगा कि शायद वह भूल जाएं। भेज न पाएं। तो कहा कि घर में किसी और से बात करवा दें। हो सके तो बेटे से। कहने लगीं बेटा तो आफ़िस से आया नहीं है। तो कहा कि घर में बहू से या और किसी से बात करवा दें। उन्हों ने नौकरानी से बहू को बुलाने को कहा। बहू आई। साथ ही साथ बेटा उत्कर्ष राय भी। उत्कर्ष से बात हुई। बेटा , मां से ज़्यादा भाउक हो गया ,कि गोरखपुर में मां को लोग अभी भी याद करते हैं। हर्ष और भाउकता का जैसे प्रयाग रच गया , उत्कर्ष राय की बातों में। उत्कर्ष को कथा-गोरखपुर की योजना बताई और इंदिरा जी की एक कहानी , फ़ोटो , परिचय भेजने को कहा। दस मिनट में सब कुछ उत्कर्ष राय ने भेज दिया। 

हमारे एक पुराने साथी हैं जय प्रकाश शाही। पत्रकार थे। एक दुर्घटना में असमय गुज़र गए। हमारे गांव भी आस-पास थे। पत्रकारिता भी उन के साथ ही शुरु की। लखनऊ में भी हमारे घर अगल-बगल थे। दुर्भाग्य से एक्सीडेंट में भी हम लोग अगल-बगल ही बैठे थे। एम्बेस्डर कार जिस में हम लोग बैठे थे , एक ट्रक से उस की आमने-सामने की टक्कर हो गई। जय प्रकाश शाही ड्राइवर समेत एट स्पॉट विदा हो गए। किसी तरह महीनों ज़िंदगी से जंग जीत कर मैं लौटा। एक समय जय प्रकाश शाही भी कविताएं खूब लिखते थे। कम लोग जानते हैं कि जय प्रकाश शाही ने कुछ कहानियां भी लिखी हैं। तो शीला शाही भाभी जी से कथा-गोरखपुर की योजना बताते हुए कहा कि किसी तरह खोज-खाज कर उन की कहानी दे दीजिए। वह कहने लगीं , यह तो बहुत शुरु की बात है। तब वह अपना सब कुछ गांव में ही रखते थे। गोरखपुर में रहने की कोई स्थाई जगह तो थी नहीं। पर जब लखनऊ में रहने का हो गया तो गांव से अम्मा जी ने कुछ लाने ही नहीं दिया। ये जब-जब कुछ कागज़ लाने की बात करते तो अम्मा जी हाथ रोक लेतीं। कहतीं , कुछ हमरहू लगे रहे के चाहीं की नाईं। पढ़ी-लिखी नहीं थीं पर अपने बेटे का लिखा बहुत संभाल कर , बहुत मान से एक लकड़ी के एक बक्से में रखती थीं। तो शाही जी भी मान गए। 

मां के विदा होने के पहले शाही जी विदा हो गए। फिर अब मां भी नहीं रहीं। गांव से नाता टूट गया। जय प्रकाश शाही की गोरखपुर के समय में लिखी सारी कविताएं , कहानियां , लेख बिला गए। मां की ममता और नेह में नत हो गए। बहुत तलाश की उदयभान मिश्र की कहानी। उदयभान मिश्र की एक किताब उदयभान मिश्र का रचना संसार के परिचय में कहानी-संग्रह माधवी [ प्रेस में ] का ज़िक्र तो है पर न माधवी कहानी मिली , न कोई और कहानी। गोरखपुर में उन की बेटी विजय ने भी बहुत तलाश किया पर कोई कहानी नहीं मिली। ऐसे ही नहीं मिली गोल्डस्मिथ की कहानी। अंजुम इरफ़ानी की कहानी। दोनों की कहानियां सारिका में छपी थीं।  गोरखपुर , कानपुर , दिल्ली , मुंबई , भोपाल , गुजरात , बलरामपुर तक में खोज हुई। कम से कम पचास से ज़्यादा मित्र लोग सक्रिय हुए इन दोनों की कहानियां खोजने में। फिर भी नहीं मिलीं। अंजुम इरफ़ानी के बच्चे जानते ही नहीं थे कि वह कहानियां भी लिखते थे। जब कि कभी सारिका में छपी उन की कहानी छोटा शहर आज भी मेरे मन में टंगी पड़ी है। गोल्डस्मिथ की कहानी तो छोड़िए , उन के परिवारीजन भी बहुत खोजने पर नहीं मिले। बहुत कम लोग जानते हैं कि एक पेड़ चाँदनी / लगाया है आँगने / फूले तो आ जाना / एक फूल माँगने जैसे गीत रचने वाले देवेंद्र कुमार बंगाली ने कहानी भी लिखी है। और कवि जब कहानी लिखते हैं तो उन के गद्य और कथा का रंग ही कुछ और होता है। इस कथा-गोरखपुर में कई कहानियां ऐसी हैं जो कवियों की कहानियां हैं। रामदरश मिश्र , परमानंद श्रीवास्तव , माहेश्वर तिवारी , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी , हृदय विकास पांडेय , अर्चना श्रीवास्तव , देवेंद्र आर्य , कात्यायनी , वशिष्ठ अनूप , रंजना जायसवाल ऐसे ही कवि हैं। मुफ़लिसी में किसी से प्यार की बात ज़िंदगी को उदास करती है / जैसे किसी ग़रीब की औरत अकसर सोने चांदी की आस करती है। जैसे शेर लिखने वाले शायर एम कोठियावी रही की कहानी भी कथा-गोरखपुर का हिस्सा है। 

अमरकांत गोरखपुर में पढ़े-लिखे हैं सो उन की कहानी भी है। श्रीलाल शुक्ल गोरखपुर की एक तहसील बांसगांव में एस डी एम रहे हैं। श्रीलाल जी एक समय ख़ुद बताते थे कि रागदरबारी की कथा का बीज बांसगांव में ही पड़ा। रागदरबारी के शिवपालगंज में बहुत सारा बांसगांव भी है। परमानंद श्रीवास्तव भी बांसगांव के ही हैं। वह बताते थे कि रागदरबारी के शुरु में ही रंगनाथ की जो रात में ट्रक से यात्रा है , वह वस्तुत : श्रीलाल जी की बांसगांव से गोरखपुर की यात्रा है। जो नियमित थी। कि ऐसी कुछ यात्राओं में वह ख़ुद भी श्रीलाल जी के साथ रहे थे। श्रीलाल जी जब मूड में होते थे तब बांसगांव की चर्चा एक भिन्न अर्थ में करते होते थे। तो श्रीलाल शुक्ल की भी कहानी कथा-गोरखपुर में कैसे न होती भला। 

कथा-गोरखपुर के लिए भिखारी बन कर कहानियां खोजीं। ऐसे जैसे राम ने कभी सीता को खोजा था। तुलसी दास ने लिखा है , हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥ तो इस खोज में ज़्यादातर कहानियां मिलीं। कुछ नहीं भी मिलीं। बहुत तलाश के बाद भी ख़ाली हाथ रहे। कुछ कहानियां भूसे के ढेर में सुई की तरह खोजी। एक मंत्र-मुग्ध और सर्वदा छुब्ध रहने वाले कवि , आलोचक , कथाकार , प्राध्यापक ने तो प्रस्ताव सुनते ही कहा मैं इस सब में नहीं पड़ता ,कोई कहानी-वहानी नहीं देनी। जाग मछंदर गोरख आया ! कह कर अपने गुरु को ही जगाने वाले गोरख ने लिखा है न :

मरो वै जोगी मरौ, मरण है मीठा। 

मरणी मरौ जिस मरणी, गोरख मरि दीठा॥  

यहां गोरख , अहंकार को मारने की बात करते हैं। तो सारे अहंकार आदि को मार कर यह कहानियां साधु भाव में खोजी हैं। भगवान सिंह कहते हैं कि ऐसी-ऐसी कहानियां आप ने खोज ली हैं कि इसे कोई रिसर्चर , कोई स्कॉलर भी नहीं खोज पाता। कथा-गोरखपुर छपने जा रहा है और सच बताऊं कि कुछ कहानियों की तलाश और तलब अभी भी जारी है। अपने पत्रकारीय जीवन में संपादक भी रहा हूं लेकिन रिपोर्टर लंबे समय तक रहा हूं। तो ख़बर छपते-छपते भी ख़बर खोजने की लालसा सर्वदा बनी रहती थी। जान पर खेल कर भी ख़बर लिखने का अभ्यास रहा है। अब तो आडियो , वीडियो , स्टिंग वग़ैरह तमाम विधियां हैं। तमाम सारे कुंडल-कवच हैं। पर एक समय था कि बिना कुछ नोट किए भी वापस आ कर वर्बेटम लिख देता था। रिस्की जगह होती थी। सो वहां कुछ नोट करना , ख़तरे की बात होती थी। तो भी सुबह घर में अख़बार लोग बाद में पढ़ते थे। पर गिरफ़्तारियां पहले हो जाती थीं। अनेक बार ऐसा हुआ। लोकसभा , विधान सभा में बवाल हो जाता था हमारी ख़बरों पर। विधान परिषद में तो मेरे ख़िलाफ़ विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव तक पेश हुआ एक ख़बर को ले कर। तो ख़बर खोजने की वह ललक और वह तड़प कथा-गोरखपुर के लिए कहानी खोजने में भी बदस्तूर जारी रही। है। मोती बी ए का एक भोजपुरी गीत है , जो एक मुहावरा है मृगतृष्णा , उस को तोड़ता है : रेतवा बतावै नाईं दूर बाड़ैं धारा / तनी अउरो दौरा हिरना पा जइबा किनारा ! तो यह हुलास अभी भी शेष है। देवेंद्र आर्य का एक शेर याद आता है :

दिलों की घाटियों में बज रहे संतूर जैसा हो

हो कोई शहर गर तो मेरे गोरखपूर जैसा हो ।

तो कथा-गोरखपुर की यह कहानियां आप के दिल की घाटियों में संतूर की तरह बजती हैं या नहीं , मेरे लिए यह जानना दिलचस्प होगा। हां , कहानियों का क्रम लेखक के जन्म-दिन और वर्ष के हिसाब से तय किया गया है। गौरतलब है कि इस कथा-गोरखपुर में संकलित कहानियों का कहीं और इस्तेमाल करने के लिए लेखक या लेखक के परिजनों से अनुमति लेना बाध्यकारी है। बिना अनुमति के इन कहानियों का कहीं और उपयोग करना दंडनीय अपराध माना जाएगा। कॉपीराइट ऐक्ट का उललंघन माना जाएगा। 

ज़िक्र ज़रुरी है कि कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर पर एक साथ काम कर रहा था। एक-एक कर कहानियां खोज रहा था , पढ़ रहा था , छांट रहा था। संपादन आप को पढ़ना बहुत सिखाता है। यह आभास बहुत पहले से ही मुझे है। और दो बरस से इतनी सारी कथाओं को पढ़-पढ़ कर लबालब हो गया हूं। ऐसे जैसे सावन-भादो में नदी में बाढ़ आई हो। गांव-गिरांव के सरोवर भर गए हों। ताल से ताल मिला कर गांव के सारे तालाब मिल गए हों। कुछ-कुछ वैसी ही हालत मेरी हो गई है। और इंदीवर का लिखा वह एक गीत याद आ रहा है कि  ओह रे ताल मिले नदी के जल में / नदी मिले सागर में / सागर मिले कौन से जल में / कोई जाने ना। तो इसी अर्थ में इस कथा सागर को ले कर ख़ुद को भरा-भरा पा रहा हूं। 

कथा-गोरखपुर की ख़ास ख़ासियत यह है कि कमोवेश सभी कहानियां गोरखपुर की माटी की खुशबू में तर-बतर हैं। इन कथाओं में गोरखपुर की माटी ऐसे बोलती है जैसे मां बोलती है। भोजपुरी का खदबदाता मानस इन कथाओं की बड़ी ताक़त है। एक से एक अद्भुत प्रेम कथाएं हैं। परिवार के बीच खदबदाती और सामाजिक कथाओं का कसैलापन कथा-गोरखपुर की कहानियों के फलक पर अपने पूरे पन में उपस्थित हैं।

डायमंड बुक्स का हार्दिक आभार , 80 कथाओं की कथा-पुष्प की माला में गुंथे कथा-गोरखपुर को इतनी जल्दी सब के सामने उपस्थित करने के लिए। लेखकों का स्वाभिमान और सम्मान बनाए रखने के लिए भी डायमंड बुक्स का बहुत आभार। आभार प्रतिष्ठित कलाकार अवधेश मिश्र का भी। अवधेश मिश्र की पेंटिंग ने कथा-गोरखपुर की चमक में खनक भर दिया है।

संयोग से मेरे भीतर तीन शहर निरंतर धड़कते मिलते हैं। गोरखपुर , दिल्ली और लखनऊ। तीनों जगह बसेरा रहना ही बड़ा कारण है। लेकिन लखनऊ और गोरखपुर की कहानियों में एक बड़ा और ख़ास फ़र्क़ यह है कि गोरखपुर की कहानियां अपनी ज़मीन नहीं छोड़तीं। आज के युवा कथाकार भी भले कहीं रहें , कुछ भी करें पर अपना खेत , अपना मेड़ और अपनी माटी नहीं छोड़ते। नहीं छोड़ते माटी की सुगंध। माटी का प्यार , माटी की संवेदना और विपन्नता अनायास छलकती रहती है। भोजपुरी , भोजपुरी का भाव , वह जीवन लगातार लिपटता मिलता है। एक से एक नायाब कहानियां हैं इस कथा-गोरखपुर में। छोटी-छोटी कथाओं से बड़ा फलक रचती कथाओं ने मुझे मोह लिया है। कभी न छोड़े खेत वाली बात लखनऊ और गोरखपुर दोनों ही कथाओं में महकती , गमकती और इतराती हुई इठलाती मिलती है। पढ़िए आप भी इन कथाओं को और इठला कर चलिए यह कहते हुए कि आप ने कथा-गोरखपुर की कहानियां पढ़ी हैं। रियाज़ ख़ैराबादी याद आते हैं :

जवानी जिन में गुज़री है , वो गलियां याद आती हैं 

बड़ी हसरत से से लब पर ज़िक्रे गोरखपुर आता है।  


आमीन !

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1 -

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2 -

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मंत्र 


[ 31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936 ]

प्रेमचंद 

पूरा नाम धनपत राय श्रीवास्तव। प्रेमचंद नाम से लेखन। हिंदी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक। उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियां लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिंदी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा। हिंदी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इस के लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बंद करना पड़ा। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई गए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उन का अंतिम निबंध , साहित्य का उद्देश्य अंतिम व्याख्यान, कफन अंतिम कहानी, गोदान अंतिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अंतिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है। 1906 से 1936 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाज सुधार आंदोलनों , स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखण्ड को 'प्रेमचंद युग' या ' प्रेमचंद युग ' कहा जाता है।


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संध्या का समय था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर द्वार के सामने खड़ी थी कि दो कहार एक डोली लिये आते दिखायी दिये। डोली के पीछे एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आता था। डोली औषाधालय के सामने आकर रूक गयी। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झॉँका। ऐसी साफ-सुथरी जमीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डाक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।

डाक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा—कौन है? क्या चाहता है?

डाक्टर साहब ने हाथ जोड़कर कहा— हुजूर बड़ा गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिन से…….


डाक्टर साहब ने सिगार जला कर कहा—कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक्त मरीजों को नहीं देखते।

बूढ़े ने घुटने टेक कर जमीन पर सिर रख दिया और बोला—दुहाई है सरकार की, लड़का मर जायगा! हुजूर, चार दिन से ऑंखें नहीं…….

डाक्टर चड्ढा ने कलाई पर नजर डाली। केवल दस मिनट समय और बाकी था। गोल्फ-स्टिक खूँटी से उतारने हुए बोले—कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है।

बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रो कर बोला—हूजुर, एक निगाह देख लें। बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जायगा हुजूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हुजूर। हम दोनों आदमी रो-रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!

ऐसे उजड़ड देहाती यहॉँ प्राय: रोज आया करते थे। डाक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब परिचित थे। कोई कितना ही कुछ कहे; पर वे अपनी ही रट लगाते जायँगे। किसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से चिक उठाई और बाहर निकल कर मोटर की तरफ चले। बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा—सरकार, बड़ा धरम होगा। हुजूर, दया कीजिए, बड़ा दीन-दुखी हूँ; संसार में कोई और नहीं है, बाबू जी!

मगर डाक्टर साहब ने उसकी ओर मुँह फेर कर देखा तक नहीं। मोटर पर बैठ कर बोले—कल सबेरे आना।

मोटर चली गयी। बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भॉँति निश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, इतना कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने जमाने की जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। जब तक बूढ़े को मोटर दिखायी दी, वह खड़ा टकटकी लागाये उस ओर ताकता रहा। शायद उसे अब भी डाक्टर साहब के लौट आने की आशा थी। फिर उसने कहारों से डोली उठाने को कहा। डोली जिधर से आयी थी, उधर ही चली गयी। चारों ओर से निराश हो कर वह डाक्टर चड्ढा के पास आया था। इनकी बड़ी तारीफ सुनी थी। यहॉँ से निराश हो कर फिर वह किसी दूसरे डाक्टर के पास न गया। किस्मत ठोक ली!

उसी रात उसका हँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया। बूढ़े मॉँ-बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ही जीवन की अँधेरी रात भॉँय-भॉँय करने लगी। बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकल कर अंधकार आर्त्त-स्वर से रोने लगी।


-2-


कई साल गुजर गये। डाक्टर चड़ढा ने खूब यश और धन कमाया; लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके नियमित जीवन का आर्शीवाद था कि पचास वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी। उनके हरएक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ-भर भी न टलते थे। बहुधा लोग स्वास्थ्य के नियमों का पालन उस समय करते हैं, जब रोगी हो जाते हें। डाक्टर चड्ढा उपचार और संयम का रहस्य खूब समझते थे। उनकी संतान-संध्या भी इसी नियम के अधीन थी। उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की। तीसरी संतान न हुई, इसीलिए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान मालूम होती थीं। लड़की का तो विवाह हो चुका था। लड़का कालेज में पढ़ता था। वही माता-पिता के जीवन का आधार था। शील और विनय का पुतला, बड़ा ही रसिक, बड़ा ही उदार, विद्यालय का गौरव, युवक-समाज की शोभा। मुखमंडल से तेज की छटा-सी निकलती थी। आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी।

संध्या का समय था। हरी-हरी घास पर कुर्सियॉँ बिछी हुई थी। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ, कालेज के छात्र दूसरी तरफ बैठे भोजन कर रहे थे। बिजली के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था। आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था। छोटा-सा प्रहसन खेलने की तैयारी थी। प्रहसन स्वयं कैलाशनाथ ने लिखा था। वही मुख्य एक्टर भी था। इस समय वह एक रेशमी कमीज पहने, नंगे सिर, नंगे पॉँव, इधर से उधर मित्रों की आव भगत में लगा हुआ था। कोई पुकारता—कैलाश, जरा इधर आना; कोई उधर से बुलाता—कैलाश, क्या उधर ही रहोगे? सभी उसे छोड़ते थे, चुहलें करते थे, बेचारे को जरा दम मारने का अवकाश न मिलता था। सहसा एक रमणी ने उसके पास आकर पूछा—क्यों कैलाश, तुम्हारे सॉँप कहॉँ हैं? जरा मुझे दिखा दो।

कैलाश ने उससे हाथ मिला कर कहा—मृणालिनी, इस वक्त क्षमा करो, कल दिखा दूगॉँ।

मृणालिनी ने आग्रह किया—जी नहीं, तुम्हें दिखाना पड़ेगा, मै आज नहीं मानने की। तुम रोज ‘कल-कल’ करते हो।

मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे ओर एक-दूसरे के प्रेम में पगे हुए। कैलाश को सॉँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। तरह-तरह के सॉँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था। थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘सॉँपों’ पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था। सॉँपों को नचा कर दिखाया भी था! प्राणिशास्त्र के बड़े-बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुन कर दंग रह गये थे! यह विद्या उसने एक बड़े सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी-बूटियॉँ जमा करने का उसे मरज था। इतना पता भर मिल जाय कि किसी व्यक्ति के पास कोई अच्छी जड़ी है, फिर उसे चैन न आता था। उसे लेकर ही छोड़ता था। यही व्यसन था। इस पर हजारों रूपये फूँक चुका था। मृणालिनी कई बार आ चुकी थी; पर कभी सॉँपों को देखने के लिए इतनी उत्सुक न हुई थी। कह नहीं सकते, आज उसकी उत्सुकता सचमुच जाग गयी थी, या वह कैलाश पर उपने अधिकार का प्रदर्शन करना चाहती थी; पर उसका आग्रह बेमौका था। उस कोठरी में कितनी भीड़ लग जायगी, भीड़ को देख कर सॉँप कितने चौकेंगें और रात के समय उन्हें छेड़ा जाना कितना बुरा लगेगा, इन बातों का उसे जरा भी ध्यान न आया।

कैलाश ने कहा—नहीं, कल जरूर दिखा दूँगा। इस वक्त अच्छी तरह दिखा भी तो न सकूँगा, कमरे में तिल रखने को भी जगह न मिलेगी।

एक महाशय ने छेड़ कर कहा—दिखा क्यों नहीं देते, जरा-सी बात के लिए इतना टाल-मटोल कर रहे हो? मिस गोविंद, हर्गिज न मानना। देखें कैसे नहीं दिखाते!

दूसरे महाशय ने और रद्दा चढ़ाया—मिस गोविंद इतनी सीधी और भोली हैं, तभी आप इतना मिजाज करते हैं; दूसरे सुंदरी होती, तो इसी बात पर बिगड़ खड़ी होती।

तीसरे साहब ने मजाक उड़ाया—अजी बोलना छोड़ देती। भला, कोई बात है! इस पर आपका दावा है कि मृणालिनी के लिए जान हाजिर है।

मृणालिनी ने देखा कि ये शोहदे उसे रंग पर चढ़ा रहे हैं, तो बोली—आप लोग मेरी वकालत न करें, मैं खुद अपनी वकालत कर लूँगी। मैं इस वक्त सॉँपों का तमाशा नहीं देखना चाहती। चलो, छुट्टी हुई।

इस पर मित्रों ने ठट्टा लगाया। एक साहब बोले—देखना तो आप सब कुछ चाहें, पर दिखाये भी तो?

कैलाश को मृणालिनी की झेंपी हुई सूरत को देखकर मालूम हुआ कि इस वक्त उनका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा है। ज्योंही प्रीति-भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को सॉँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक सॉँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था! ऐसा जान पड़ता था कि वे कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया। मृणालिनी बार-बार मना करती कि इन्हें गर्दन में न डालों, दूर ही से दिखा दो। बस, जरा नचा दो। कैलाश की गरदन में सॉँपों को लिपटते देख कर उसकी जान निकली जाती थी। पछता रही थी कि मैंने व्यर्थ ही इनसे सॉँप दिखाने को कहा; मगर कैलाश एक न सुनता था। प्रेमिका के सम्मुख अपने सर्प-कला-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कब चूकता! एक मित्र ने टीका की—दॉँत तोड़ डाले होंगे।

कैलाश हँसकर बोला—दॉँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दॉँत नहीं तोड़ गये। कहिए तो दिखा दूँ? कह कर उसने एक काले सॉँप को पकड़ लिया और बोला—‘मेरे पास इससे बड़ा और जहरीला सॉँप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाय। लहर भी न आये। इसके काटे पर मन्त्र नहीं। इसके दॉँत दिखा दूँ?’

मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा—नहीं-नहीं, कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

इस पर एक-दूसरे मित्र बोले—मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।

कैलाश ने सॉँप की गरदन पकड़कर कहा—नहीं साहब, आप ऑंखों से देख कर मानिए। दॉँत तोड़कर वश में किया, तो क्या। सॉँप बड़ा समझदार होता हैं! अगर उसे विश्वास हो जाय कि इस आदमी से मुझे कोई हानि न पहुँचेगी, तो वह उसे हर्गिज न काटेगा।

मृणालिनी ने जब देखा कि कैलाश पर इस वक्त भूत सवार है, तो उसने यह तमाशा न करने के विचार से कहा—अच्छा भाई, अब यहॉँ से चलो। देखा, गाना शुरू हो गया है। आज मैं भी कोई चीज सुनाऊँगी। यह कहते हुए उसने कैलाश का कंधा पकड़ कर चलने का इशारा किया और कमरे से निकल गयी; मगर कैलाश विरोधियों का शंका-समाधान करके ही दम लेना चाहता था। उसने सॉँप की गरदन पकड़ कर जोर से दबायी, इतनी जोर से इबायी कि उसका मुँह लाल हो गया, देह की सारी नसें तन गयीं। सॉँप ने अब तक उसके हाथों ऐसा व्यवहार न देखा था। उसकी समझ में न आता था कि यह मुझसे क्या चाहते हें। उसे शायद भ्रम हुआ कि मुझे मार डालना चाहते हैं, अतएव वह आत्मरक्षा के लिए तैयार हो गया।

कैलाश ने उसकी गर्दन खूब दबा कर मुँह खोल दिया और उसके जहरीले दॉँत दिखाते हुए बोला—जिन सज्जनों को शक हो, आकर देख लें। आया विश्वास या अब भी कुछ शक है? मित्रों ने आकर उसके दॉँत देखें और चकित हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने सन्देह को स्थान कहॉँ। मित्रों का शंका-निवारण करके कैलाश ने सॉँप की गर्दन ढीली कर दी और उसे जमीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहूँवन क्रोध से पागल हो रहा था। गर्दन नरम पड़ते ही उसने सिर उठा कर कैलाश की उँगली में जोर से काटा और वहॉँ से भागा। कैलाश की ऊँगली से टप-टप खून टपकने लगा। उसने जोर से उँगली दबा ली और उपने कमरे की तरफ दौड़ा। वहॉँ मेज की दराज में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीस कर लगा देने से घतक विष भी रफू हो जाता था।

मित्रों में हलचल पड़ गई। बाहर महफिल में भी खबर हुई। डाक्टर साहब घबरा कर दौड़े। फौरन उँगली की जड़ कस कर बॉँधी गयी और जड़ी पीसने के लिए दी गयी। डाक्टर साहब जड़ी के कायल न थे। वह उँगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था। मृणालिनी प्यानों पर बैठी हुई थी। यह खबर सुनते ही दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए खून को रूमाल से पोंछने लगी। जड़ी पीसी जाने लगी; पर उसी एक मिनट में कैलाश की ऑंखें झपकने लगीं, ओठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहॉँ तक कि वह खड़ा न रह सका। फर्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में जड़ी पीसकर आ गयी। मृणालिनी ने उँगली पर लेप किया। एक मिनट और बीता। कैलाश की ऑंखें बन्द हो गयीं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया। मॉँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल-फैन लगा दिया।

डाक्टर साहब ने झुक कर पूछा कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा लिए; पर कुछ बोल न सका। मृणालिनी ने करूण स्वर में कहा—क्या जड़ी कुछ असर न करेंगी? डाक्टर साहब ने सिर पकड़ कर कहा—क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया। अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा।

आध घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहॉँ तक कि उसकी ऑंखें पथरा गयी, हाथ-पॉँव ठंडे पड़ गये, मुख की कांति मलिन पड़ गयी, नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखायी देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी; मॉँ अलग पछाड़े खाने लगी। डाक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते।

एक महाशय बोले—कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले, तो सम्भव है, अब भी जान बच जाय।

एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया—अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें जिन्दा हो गयी हैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए हैं।

डाक्टर चड्ढा बोले—मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा, सॉँप न पालो, मगर कौन सुनता था! बुलाइए, किसी झाड़-फूँक करने वाले ही को बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लँगोटी बॉँध कर घर से निकल जाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए।

एक महाशय का किसी झाड़ने वाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला—अब क्या हो सकता है, सरकार? जो कुछ होना था, हो चुका?

अरे मूर्ख, यह क्यों नही कहता कि जो कुछ न होना था, वह कहॉँ हुआ? मॉँ-बाप ने बेटे का सेहरा कहॉँ देखा? मृणालिनी का कामना-तरू क्या पल्लव और पुष्प से रंजित हो उठा? मन के वह स्वर्ण-स्वप्न जिनसे जीवन आनंद का स्रोत बना हुआ था, क्या पूरे हो गये? जीवन के नृत्यमय तारिका-मंडित सागर में आमोद की बहार लूटते हुए क्या उनकी नौका जलमग्न नहीं हो गयी? जो न होना था, वह हो गया।

वही हरा-भरा मैदान था, वही सुनहरी चॉँदनी एक नि:शब्द संगीत की भॉँति प्रकृति पर छायी हुई थी; वही मित्र-समाज था। वही मनोरंजन के सामान थे। मगर जहाँ हास्य की ध्वनि थी, वहॉँ करूण क्रन्दन और अश्रु-प्रवाह था।


-3-


शहर से कई मील दूर एक छोट-से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारियल पीता था और बीच-बीच में खॉँसता था। बुढ़िया दोनों घुटनियों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी। घर में न चारपाई थी, न बिछौना। एक किनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था। बुढ़िया दिन-भर उपले और सूखी लकड़ियॉँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बट कर बाजार में बेच आता था। यही उनकी जीविका थी। उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हँसते।

उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहॉँ फुरसत! बुढ़िया ने पूछा—कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोंगे?

‘जा कर झगडू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?’

‘उसके पहले के पैसे तो दिये ही नहीं, और उधार कैसे देगा?’

‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न काटूँगा?’

इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज दी—भगत, भगत, क्या सो गये? जरा किवाड़ खोलो।

भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिये। एक आदमी ने अन्दर आकर कहा—कुछ सुना, डाक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को सॉँप ने काट लिया।

भगत ने चौंक कर कहा—चड्ढा बाबू के लड़के को! वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बँगले में रहते हैं?

‘हॉँ-हॉँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। जाते हो तो जाओं, आदमी बन जाओंगे।‘

बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिला कर कहा—मैं नहीं जाता! मेरी बला जाय! वही चड्ढा है। खूब जानता हूँ। भैया लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने जा रहे थे। पैरों पर गिर पड़ा कि एक नजर देख लीजिए; मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे सुन रहे थे। अब जान पड़ेगा कि बेटे का गम कैसा होता है। कई लड़के हैं।

‘नहीं जी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने जवाब दे दिया है।‘

‘भगवान बड़ा कारसाज है। उस बखत मेरी ऑंखें से ऑंसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता।‘

‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया।‘

‘अच्छा किया—अच्छा किया। कलेजा ठंडा हो गया, ऑंखें ठंडी हो गयीं। लड़का भी ठंडा हो गया होगा! तुम जाओ। आज चैन की नींद सोऊँगा। (बुढ़िया से) जरा तम्बाकू ले ले! एक चिलम और पीऊँगा। अब मालूम होगा लाला को! सारी साहबी निकल जायगी, हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहॉँ छ: बच्चे गये थे, वहॉँ एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सुना हो जायगा। उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबा कर जोड़ा था न। अब क्या करोंगे? एक बार देखने जाऊँगा; पर कुछ दिन बाद मिजाज का हाल पूछूँगा।‘

आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बन्द कर लिये, तब चिलम पर तम्बाखू रख कर पीने लगा।

बुढ़िया ने कहा—इतनी रात गए जाड़े-पाले में कौन जायगा?

‘अरे, दोपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत ऑंखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नजर देखा तक नहीं। क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? खूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाहदेख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा—क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐव हें। बड़ो में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं।‘

भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो। अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसा कभी न हुआ था कि सॉँप की खबर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की। वह तुरन्त घर से निकल पड़ता था—नि:स्वार्थ, निष्काम! लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं। यह सा काम ही न था। जान का मूल्य कोन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था। सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था; पर आप वह घर से कदम नहीं निकाल सका। यह खबर सुन कर सोने जा रहा है।

बुढ़िया ने कहा—तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आज ढाई पैसे हो गये। देती ही न थी।

बुढ़िया यह कह कर लेटी। बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। अन्त को लेट गया; पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भॉँति रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज खो गयी है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गये है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से लिकालने के लिए कुरेद रहा है। बुढ़िया जरा देर में खर्राटे लेनी लगी। बूढ़े बातें करते-करते सोते है और जरा-सा खटा होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले।

बुढ़िया ने पूछा—कहॉँ जाते हो?

‘कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है।‘

‘अभी बहुत रात है, सो जाओ।‘

‘नींद, नहीं आतीं।’

‘नींद काहे आवेगी? मन तो चड़ढा के घर पर लगा हुआ है।‘

‘चड़ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, जो वहॉँ जाऊँ? वह आ कर पैरों पड़े, तो भी न जाऊँ।‘

‘उठे तो तुम इसी इरादे से ही?’

‘नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे कॉँटे बोये, उसके लिए फूल बोता फिरूँ।‘

बुढ़िया फिर सो गयी। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, जो बाजे की आवाज कान में पड़ते ही उपदेश सुनने वालों की होती हैं। ऑंखें चाहे उपेदेशक की ओर हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बापे की ध्वनि गूँजती रहती हे। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक-एक पल का विलम्ब घातक था।

उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को खबर भी न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक्त गॉँव को चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला—कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सरदी है! कहीं जा रहे हो क्या?

भगत ने कहा—नहीं जी, जाऊँगा कहॉँ! देखता था, अभी कितनी रात है। भला, के बजे होंगे।

चौकीदार बोला—एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डाक्टर चड़ढा बाबू के बॅगले पर बड़ी भड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लियाहै। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओं तो साइत बच जाय। सुना है, इस हजार तक देने को तैयार हैं।

भगत—मैं तो न जाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हजार या दस लाखे लेकर करना क्या हैं? कल मर जाऊँगा, फिर कौन भोगनेवाला बैठा हुआ है।

चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ हे, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार था; पर कर्म मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलायी, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ कॉँपते हैं, उठते ही नहीं।

भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सेवक स्वामी पर हावी था।

आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रूक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पायी—मै यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े-पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता। व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया। चड़ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मै उनके लिए मरूँ? दुनिया में हजारों मरते हें, हजारों जीते हें। मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब!

मगर उपचेतन ने अब एक दूसर रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था—वह झाड़-फूँक करने नहीं जा रहा है; वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हें। डाक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हें, किस तरह पछाड़े खाते है! वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे! हिंसा-भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।

इतने में दो आदमी आते दिखायी दिये। दोनों बाते करते चले आ रहे थे—चड़ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज पड़ी। उसकी चाल और भी तेज हो गयी। थकान के मारे पॉँव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई दस मिनट चला होगा कि डाक्टर साहब का बँगला नजर आया। बिजली की बत्तियॉँ जल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने के आवाज भी न आती थी। भगत का कलेजा धक-धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गयी? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज कभी न दौड़ा था। बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मोत दौड़ी आ री है।


-4-


दो बज गये थे। मेहमान विदा हो गये। रोने वालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रो कर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुहि हो और लाश गंगा की गोद में दी जाय।

सहसा भगत ने द्वार पर पहुँच कर आवाज दी। डाक्टर साहब समझे, कोई मरीज आया होगा। किसी और दिन उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता; मगर आज बाहर निकल आये। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है—कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, भौहे तक सफेद हो गयी थीं। लकड़ी के सहारे कॉँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले—क्या है भई, आज तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गयी है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद मै किसी भी मरीज को न देख सकूँगा।

भगत ने कहा—सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहॉँ है? जरा मुझे दिखा दीजिए। भगवान बड़ा कारसाज है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने, अब भी उसे दया आ जाय।

चड़ढा ने व्यथित स्वर से कहा—चलो, देख लो; मगर तीन-चार घंटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेर झाड़ने-फँकने वाले देख-देख कर चले गये।

डाक्टर साहब को आशा तो क्या होती। हॉँ बूढे पर दया आ गयी। अन्दर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्करा कर बोला—अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी! यह नारायण चाहेंगे, तो आध घंटे में भैया उठ बैठेगे। आप नाहक दिल छोटा कर रहे है। जरा कहारों से कहिए, पानी तो भरें।

कहारों ने पानी भर-भर कर कैलाश को नहलाना शुरू कियां पाइप बन्द हो गया था। कहारों की संख्या अधिक न थी, इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुऍं से पानी भर-भर कर कहानों को दिया, मृणालिनी कलासा लिए पानी ला रही थी। बुढ़ा भगत खड़ा मुस्करा-मुस्करा कर मंत्र पढ़ रहा था, मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, वब वह एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाले गये और न-जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूँका। आखिर जब उषा ने अपनी लाल-लाल ऑंखें खोलीं तो केलाश की भी लाल-लाल ऑंखें खुल गयी। एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को मॉँगा। डाक्टर चड़ढा ने दौड़ कर नारायणी को गले लगा लिया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और म़णालिनी कैलाश के सामने ऑंखों में ऑंसू-भरे पूछने लगी—अब कैसी तबियत है!

एक क्षण् में चारों तरफ खबर फैल गयी। मित्रगण मुबारकवाद देने आने लगे। डाक्टर साहब बड़े श्रद्धा-भाव से हर एक के हसामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठे; मगर अन्दर जा कर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा—अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखू निकाल कर भरी।

यहॉँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढ़िया के उठने से पहले पहुँच जाऊँ!

जब मेहमान लोग चले गये, तो डाक्टर साहब ने नारायणी से कहा—बुड़ढा न-जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।

नारायणी—मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूँगी।

चड़ढा—रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर जरा साफ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक मरीज को लेकर आया था। मुझे अब याद आता हे कि मै खेलने जा रहा था और मरीज को देखने से इनकार कर दिया था। आप उस दिन की बात याद करके मुझें जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खोज निकालूँगा और उसके पेरों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूँ, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है। उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवनपर्यन्त मेरे सामने रहेगा।


 2 -

 उसकी मां 


[ जन्म 1900 - निधन 1967 ]

पांडेय बेचन शर्मा "उग्र" 

पांडेय बेचन शर्मा "उग्र" हिंदी के साहित्यकार एवं पत्रकार थे। पांडेय बेचन शर्मा उग्र हिंदी के महान कथाकार , शैलीकार , सम्पादक नाटककार। उग्र अपने जीवन में भी एक संगठित आंदोलन के शिकार हुए उनके साहित्य को अश्लील घासलेटी साहित्य कह कर उन को हिंदी की पत्र पत्रिकाओं ने उन्हें छापने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस आंदोलन से उग्र निराश हो फ़िल्मी दुनिया में चले गए। उस के बाद ऊज्जैन से पंडित सूर्यनारायण व्यास के साथ विक्रम पत्र निकाला। उग्र साहित्य पर चालीस वर्ष से काम कर राजशेखर व्यास हिंदी साहित्य के समक्ष “ उग्र के सात रंग “ घंटा , फागुन के दिन चार , जब सारा आलम सोता हैं , माँ मेरी माँ , अवतार , उग्र की क्रांति कारी कहानियां , उग्र की लोकप्रिय कहानियां और भारतीय ज्ञानपीठ से उग्र संचयन लाए। उग्र को हिंदी साहित्य समझा ही नहीं। महात्मा गांधी ने उनकी कृति पढ़ कर उन्हें समाज सुधारक कृतिकार कहा था। पर बनारसीदास चतुर्वेदी ने उस पत्र को छुपा लिया था। इधर उग्र पर राजशेखर व्यास के काम से उग्र पर नए सिरे से चर्चा आरंभ हुई। उग्र अपने समय से आगे के कथाकार थे। पांडेय बेचन शर्मा "उग्र" का जन्म उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद के अंतर्गत चुनार नामक कसबे में 1900 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम वैद्यनाथ पांडेय था। ये सरयूपारीण ब्राह्मण थे। ये अत्यंत अभावग्रस्त परिवार में उत्पन्न हुए थे। अत: पाठशालीय शिक्षा भी इन्हें व्यवस्थित रूप से नहीं मिल सकी। अभाव के कारण इन्हें बचपन में राम-लीला में काम करना पड़ा था। ये अभिनय कला में बड़े कुशल थे। बाद में काशी के सेंट्रल हिंदू स्कूल से आठवीं कक्षा तक शिक्षा पाई, फिर पढ़ाई का क्रम टूट गया। साहित्य के प्रति इनका प्रगाढ़ प्रेम लाला भगवानदीन के सामीप्य में आने पर हुआ। इन्होंने साहित्य के विभिन्न अंगों का गंभीर अध्ययन किया। प्रतिभा इनमें ईश्वरप्रदत्त थी। ये बचपन से ही काव्यरचना करने लगे थे। अपनी किशोर वय में ही इन्होंने प्रियप्रवास की शैली में "ध्रुवचरित्" नामक प्रबंध काव्य की रचना कर डाली थी। पहले काशी के दैनिक "आज" में "ऊटपटाँग" शीर्षक से व्यंग्यात्मक लेख लिखा करते थे और अपना नाम रखा था "अष्टावक्र"। फिर "भूत" नामक हास्य-व्यंग्य-प्रधान पत्र निकाला। गोरखपुर से प्रकाशित होनेवाले "स्वदेश" पत्र के "दशहरा" अंक का संपादन इन्होंने ही किया था। तदनंतर कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाले "मतवाला" पत्र में काम किया। "मतवाला" ने ही इन्हें पूर्ण रूप से साहित्यिक बना दिया। फरवरी, सन् 1938 ई. में इन्होंने काशी से "उग्र" नामक साप्ताहिक पत्र निकाला। इसके कुल सात अंक ही प्रकाशित हुए, फिर यह बंद हो गया। "संग्राम", "हिंदी पंच" आदि कई अन्य पत्रों का भी संपादन किया। किंतु अपने उग्र स्वभाव के कारण कहीं भी अधिक दिनों तक ये टिक न सके। इसमें संदेह नहीं, उग्र जी सफल पत्रकार थे। ये सामाजिक विषमताओं से आजीवन संघर्ष करते रहे। ये विशुद्ध साहित्यजीवी थे और साहित्य के लिए ही जीते रहे। सन. 1967 में दिल्ली में इनका देहावसान हो गया।

[मैक्सिम गोर्की की 'माँ' अगर उन्हें अमर बनाने को पर्याप्त है, तो 'उग्र' की 'उसको माँ' भी 'उग्र' को अमर बनाने के लिए पर्याप्त है। स्वाधीनता संग्राम के वातावरण में एक माँ के पुत्र प्रेम की इस कहानी को कई कहानी संग्रहों में संकलित किया गया है। ]


दोपहर को जरा आराम करके उठा था। अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में खड़ा खड़ा में धीरे-धीरे सिगार पो रहा था और बड़े-बड़े अलमारों में सर्वे पुस्तकालय की ओर निहार रहा था। किसी महान लेखक की कोई महान कृति उनमें से निकालकर देखने की बात सोच रहा था। मगर, पुस्तकालय के एक सिरे से लेकर दूसरे तक मुझे महान हो-महान नजर आये। कहाँ गेटे कहाँ रूसों, कहाँ मेजिनी, नीत्शे, कहाँ शेक्सपियर, कहाँ टाल्सटॉय, कहाँ हुगो, कहाँ सोपास, कहीं डिकिन्स, स्पेन्सर, मेकाले, मिल्टन, मोलियर... उफ। इधर से उधर तक एक-से-एक महान हो तो थे। आखिर में किसके साथ चन्द्र मिनट मन बहलाव करूं यह निश्चय हो न हो सका, महानों के नाम ही पढ़ते-पढ़ते परेशान-सा हो गया।

इतने में मोटर की पॉ-पॉ सुनाई पड़ी। खिड़की से झौंका तो सुरमई रंग की कोई "फिएटड़ी दिखाई पड़ी। मैं सोचने लगा-शायद कोई मित्र पधारे हैं, अच्छा हो है। महानों से जान बची जब नौकर ने सलाम कर आनेवाले का कार्ड दिया, तब मैं कुछ घवराया, उस पर शहर के पुलिस सुपरिटेंडेंट का नाम छपा था। ऐसे बेवक्त यह कैसे आये ? पुलिस-पति भीतर आये। मैंने हाथ मिलाकर एक चक्कर खानेवाली गद्दीदार कुर्सी पर उन्हें आसन दिया। वह व्यापारिक मुस्कराहट से लैस होकर बोले, "इस अचानक आगमन के लिए आप मुझे क्षमा करें।"

"आज्ञा हो।" मैंने भी नम्रता से कहा।

उन्होंने पाकेट से डायरी निकाली, डायरी से एक तस्वीर... "देखिए इसे, ज बताइए तो, आप पहचानते हैं इसको ?"

"हाँ, पहचानता तो हूँ।" जरा सहमते हुए मैंने बताया। "झाके बारे में मुझे आपसे कुछ पूछना है।... इसका नाम क्या है ?"

"लाल। मैं इसी नाम से बचपन ही से पुकारता आ रहा हूँ मगर, यह पुकारने

का नाम है। एक नाम कोई और है, सो मुझे स्मरण नहीं।" "कहाँ रहता है यह?" सुपरिटेंडेंट ने पुलिस की धूर्त-दृष्टि से मेरी और देखकर पूछा।

" मेरे बँगले के ठीक सामने एक दो मंजिला, कच्चा, कच्चा पक्का घर है, उसी में वह रहता है। वह है और उसकी बूढ़ी माँ।"

"बूढ़ी का नाम क्या है?"

"जानको।"

‘‘ और कोई नहीं है क्या इसके परिवार में? दोनों का पालन-पोषण कौन करता

है?" "सात-आठ वर्ष हुए, लाल के पिता का देहान्त हो गया। अब उस परिवार में वह और उसकी माता ही बचे हैं। उसका पिता जब जीवित रहा, बराबर मेरी जमींदारी का मुख्य मैनेजर रहा। उसका नाम रामनाथ था। वही मेरे पास कुछ हजार रुपये जमा कर गया था, जिससे अब तक उनका खर्चा चल रहा है। लड़का कॉलेज में पढ़ रहा है। जानकी को आशा है, वह साल-दो साल बाद कमाने और परिवार को सँभालने लगेगा। मगर क्षमा कीजिए। क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि आप उसके बारे में क्यों इतनी पूछताछ कर रहे हैं। "

" यह तो मैं आपको नहीं बता सकता... मगर इतना आप समझ लें, यह सरकारी काम है। इसीलिए आज मैंने आपको इतनी तकलीफ दी है।" " अजी, इसमें तकलीफ को क्या बात है। हम तो सात पुश्त से सरकार के फरमाबरदार हैं और कुछ आज्ञा..." "एक बात और..." पुलिस-पति ने गम्भीरता से धीरे से कहा, "मैं मित्रता से आपसे निवेदन करता हूँ, आप इस परिवार से जरा सावधान और दूर रहें। फिलहाल इससे अधिक मुझे कुछ कहना नहीं।"

"लाल की माँ।" एक दिन जानकी को बुलाकर मैंने समझाया, "तुम्हारा लाल आजकल क्या पाजीपन करता है? तुम उसे केवल प्यार ही करती हो न! हूँ! भोगोगी।"

"क्या है, बाबू ?" उसने कहा।

 "लाल क्या करता है ?"

"मैं तो उसे कोई भी बुरा काम करते नहीं देखती।"

'बिना किये ही तो सरकार किसी के पीछे पड़ती नहीं। हाँ, लाल की माँ बड़ी

धर्मात्मा, चिवेकी और न्यायी सरकार है यह जरूर तुम्हारा लाल कुछ करता होगा।" "माँ!" उसने मुझे नमस्कार कर जानकी से कहा, "तू यहाँ भाग आयी है। चल तो! मेरे कई सहपाठी वहाँ खड़े हैं, उन्हें चटपट कुछ जलपान करा दें, फिर हम घूमने जाएँगे!"

"अरे!" जानकी के चेहरे की झुर्रियाँ चमकने लग, काँपने लग, उसे देखकर, "तू आ गया लाल चलती हूँ भैया! पर, देख तो, तेरे चाचा क्या शिकायत कर रहे हैं? तू क्या पाजीपना करता है बेटा?"

" क्या है, चाचाजी ?'' उसने संविनय, सुमधुर स्वर से मुझसे पूछा, "मैंने क्या अपराध किया है ?"

"मैं तुमसे नाराज हूँ लाल!" मैंने गम्भीर स्वर में कहा।

"क्यों, चाचाजी ?"

"तुम बहुत बुरे होते जा रहे हो, जो सरकार के विरुद्ध षड्यन्त्र करनेवालों के साथी हो! हाँ, तुम हो! देखो लाल की माँ, इसके चेहरे का रंग उड़ गया, यह सोचकर कि यह खबर मुझे कैसे मिली ?"

सचमुच एक बार उसका खिला हुआ रंग जरा मुरझा गया, मेरी बातों से! पर तुरन्त ही वह सँभला।

"आपने गलत सुना, चाचाजी मैं किसी षड्यन्त्र में नहीं। हाँ, मेरे विचार स्वतन्त्र अवश्य हैं, मैं जरूरत-जरूरत जिस-तिस के आगे उवल अवश्य उठता हूँ। देश की दुरवस्था पर उबल उठाता हूँ, इस पशु-हृदय परतन्त्रता पर। "

"तुम्हारी ही बात सही, तुम षड्यन्त्र में नहीं, विद्रोही नहीं, पर यह बक बक क्यों? इससे फायदा? तुम्हारी इस बक-वक से न तो देश की दुर्दशा दूर होगी और न उसकी पराधीनता। तुम्हारा काम 'पढ़ना है, पढ़ो। इसके बाद कर्म करना होगा, परिवार और देश की मर्यादा बचानी होगी। तुम पहले अपने घर का उद्धार तो कर लो, तब सरकार के सुधार का विचार करना।"

उसने नम्रता से कहा, "चाचाजी क्षमा कीजिए। इस विषय में मैं आपसे विवाद करना नहीं चाहता।"

"चाहना होगा, विवाद करना होगा। मैं केवल चाचा जी नहीं, तुम्हारा बहुत कुछ हूँ। तुम्हें देखते ही मेरी आँखों के सामने रामनाथ नाचने लगते हैं, तुम्हारी बूढ़ी माँ घूमने लगती है। भला मैं तुम्हें बेहाल होने दे सकता हूँ? इस भरोसे न रहना।" “इस पराधीनता के विवाद में, चाचा जी, मैं और आप दो भिन्न सिरों पर हैं

आप कट्टर राजभक्त, मैं कट्टर राजविद्रोही। आप पहली बात को उचित समझते हैं-गुप्त कारणों से, मैं दूसरी को-दूसरे कारणों से आप अपना एथ छोड़ नहीं सकते अपनी प्यारी कल्पनाओं के लिए, मैं अपना भी नहीं छोड़ सकता।"

"सुनिए क्या है, सुनो तो! जरा मैं भी जान लूँ कि अब के लड़के कॉलेज की गर्दन तक पहुँचते-पहुँचते कैसे-कैसे हवाई किले उठाने के सपने देखने लगते हैं। जरा

मैं भी तो सुनूँ? बेटा!" "मेरी कल्पना यह है कि जो व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के नाश पर जीता हो, उसका सर्वनाश हो जाय!"

जानकी उठकर बाहर जाने लगी, "अरे! तू तो जमकर चाचा से जूझने लगा। वहाँ चार बच्चे बेचारे दरवाजे पर खड़े होंगे। लड़ तूं मैं जाती हूँ।" उसने मुझसे कहा, "समझा दो बाबू, मैं तो आप ही कुछ नहीं समझती, फिर इसे क्या समझाऊँगी 2 उसने फिर लाल की ओर देखा, "चाचा जो कहें, मान जा, बेटा। यह तेरे भले ही की कहेंगे।"

वह बेचारी कमर झुकाए, उस साठ बरस की वय में भी घूँघट सँभाले, चली गयी। उस दिन उसने मेरी और लाल की बातों की गम्भीरता नहीं समझी। "मेरी कल्पना यह है कि..." उत्तेजित स्वर से लाल ने कहा, "ऐसे दुष्ट, राष्ट्र नाशक व्यक्ति, राष्ट्र के सर्वनाश में मेरा भी हाथ हो?"

"तुम्हारे हाथ दुर्बल हैं, उनसे जिससे तुम पंजा लेने जा रहे हो, चर-मर हो उठेंगे, नष्ट हो जाएँगे।" "चाचाजी, नष्ट हो जाना तो यहाँ का नियम है। जो सँवारा गया है वह बिगड़ेगा ही। हमें दुर्बलता के डर से अपना काम नहीं रोकना चाहिए। कर्म के समय हमारी भुजाएँ दुर्बल नहीं, भगवान की सहस्र भुजाओं की सखियाँ हैं।"

"तो क्या करना चाहते हो ?" "जो भी मुझसे हो सकेगा, करूंगा।"

" षड्यन्त्र ?"

"जरूरत पड़ी तो जरूर..

"विद्रोह ?" "हाँ, अवश्य!"

"हत्या ?"

"हाँ, हाँ, हाँ!"

"बेटा, तुम्हारा माथा न जाने कौन-सो किताब पढ़ते-पढ़ते बिगड़ रहा है। सावधान!" मेरी धर्मपत्नी और लाल की माँ एक दिन बैठी हुई बातें कर रही थी कि मैं पहुँच गया। कुछ पूछने के लिए कई दिनों से में उसकी तलाश में था। "क्यों लाल की माँ, लाल के साथ किसके लड़के आते हैं तुम्हारे घर में ?"

"मैं क्या जानूँ बाबू ?" उसने सरलता से कहा, "मगर वे सभी मेरे लाल ही की तरह मुझे प्यारे दिखते हैं। सब लापरवाह वे इतना हँसते, गाते और हो-हल्ला मचाते हैं कि मैं मुग्ध हो जाती हूँ।"

मैंने एक ठंडी साँस ली, "हूँ... ठीक कहती हो। वे बातें कैसी करते हैं, कुछ समझ पाती हो ?" "बाबू, वे लाल की बैठक में बैठते हैं। कभी-कभी जब मैं उन्हें कुछ खिलाने पिलाने जाती हैं, तब वे बड़े प्रेम से मुझे 'माँ' कहते हैं। मेरी छाती फूल उठती है...मानो वे मेरे ही बच्चे हैं।"

"हूँ..." मैंने फिर साँस ली।

"एक लड़का उनमें बहुत ही हँसोड़ है। खूब तगड़ा और बली दिखता है। लाल कहता था, वह डंडा लड़ने में, दौड़ने में, घूंसेबाजी में खाने में, छेड़खानी करने और हो हो हा-हा कर हँसने में समूचे कॉलेज में फर्स्ट है। उसी लड़के ने एक दिन, जब मैं उन्हें हलवा परस रही थी, मेरे मुँह की ओर देखकर कहा, 'माँ! तू तो ठीक भारत माता सी लगती है। तू बूढ़ी, वह बूढ़ी। उसका उजला हिमालय, माथे की दोनों गहरी बड़ी रेखाएँ गंगा और यमुना, यह नाक विन्ध्याचल, दाढ़ी कन्याकुमारी तथा छोटी-बड़ी झुर्रियाँ रेखाएँ भिन्न-भिन्न पहाड़ और नदियाँ हैं। जरा पास आ मेरे ! तेरे केशों को पीछे से आगे बायें कन्धे पर लहरा दूँ, वह वर्मा बना जाएगा। बिना उसके भारत माता का शृंगार शुद्ध न होगा।"

जानकी उस लड़के की बातें सोच गद्गद हो उठी, "बाबू ऐसा ढीठ लड़का ! सारे बच्चे हँसते रहे और उसने मुझे पकड़, मेरे बालों को बाहर कर, अपना बर्मा तैयार कर लिया। कहने लगा, देख, तेरा यह दाहिना कान 'कच्छ' की खाड़ी है बम्बई के आगेवाली, और यह बायाँ बंगाल की खाड़ी माँ, तू सीधा मुँह करके जरा खड़ी हो। मैं तेरी ठुड्डी के नीचे, उससे दो अँगुली के फासले पर, हाथ जोड़कर घुटनों पर बैठता हूँ। दाढ़ी तेरी कन्याकुमारी! हाँ हाँ हाँ-और मेरे जुड़े, तिरछे, हाथ सीलोन का! हा हा हा हा ! बोलो, भारत माता की जय !'

"सब लड़के ठहाका लगाकर हँसने लगे। वह घुटने टेककर, हाथ जोड़कर पाँव के पास बैठ गया। मैं हक्की-बक्की-सी हँसने वालों का मुँह निहारने लगी। बाबू, वे सभी बच्चे मेरे 'लाल' हैं, सभी मुझे 'माँ' कहते हैं। उसकी सरलता मेरी आँखों में आँसू बनकर छा गयी। मैंने पूछा, "लाल की माँ!

और भी वे कुछ बातें करते हैं? लड़ने की, झगड़ने की गोली मोली या बन्दूक की ?"

"अरे, बाबू!" उसने मुस्कराकर कहा, "देख, सभी बातें करते हैं। उनकी बातों का कोई मतलब थोड़े ही होता है। सब जयान है, लापरवाह है। जो मुँह में आता है। बकते हैं। कभी-कभी तो पागली-सी बातें करते हैं। महीना भर पहले एक दिल लड़के बहुत उतेजित थे। वे जब बैठक में बैठकर करने लगते हैं, तब कभी कभी उनका पागलपन सुनने के लोभ से, मैं दरवाजे से सट-छिपकर खड़ी हो जाती हूँ।

"जाने कहाँ, सड़कों को सरकार पकड़ रही है। मालूम नहीं, पकड़ती थी। या ये यो ही गय हाँकते थे। मगर उस दिन वे यहाँ बक रहे थे। कहते थे-पुलिस वाले केवल सन्देह पर भले आदमियों के बच्चों की त्रास देते हैं, मारते हैं, ते हैं। यह अत्याचारी पुलिस की नीचता है। ऐसी नीच शासन प्रणाली को स्वीकार करना अपने धर्म को, कर्म को, आत्मा को, परमात्मा को भुलाता है। धीरे-धीरे घुलाना-मिठाना है।'

"एक ने उत्तेजित भाव से कहा, "अजी, ये परदेसी कौन लगते हैं हमारे जो बरबस राजभक्त बनाए रखने के लिए हमारी छाती पर तो कान मुँह लगाए अड़े और खड़े हैं। उफ! इस देश के लोगों के हिये की आँखें मुँद गयी हैं। तभी तो इतने जुल्मों पर भी आदमी आदमी से डरता है। ये लोग शरीर की रक्षा के लिए अपनी-अपनी आत्मा की चिता सँवारते फिरते हैं। नाश हो इस पर का!"

ने कहा-'लोग जानी न हो सकें, इसलिए इस सरकार ने हमारे पढ़ने लिखने के साधनों को अज्ञान से भर रखा है। लोग वीर और स्वाधीन न हो सकें इसलिए अपमानजनक और मनुष्यता नीतिमर्दक कानून गढ़े हैं। गरीबों को चूसकर सेना के नाम पर पाले हुए पशुओं को शराब, कबाब से, मोटा-ताजा रखती है यह। सरकार, धीरे-धीरे जॉक की तरह हमारे देश का धर्म, त्राण और धन चूसती चली जा रही है यह लूटक-शासन प्रणाली। नाश हो इस प्रणाली का! प्रणाली की तस्वीर सरकार का!"

"तीसरा वही बंगड़ बोला-'सबसे बुरी बात यह है, जो सरकार रोब से 'सताबनी'-रोब से, धाक से, बाँधली से, धुएँ से हम पर शासन करती है। वह आँखें खोलते ही कुचल-कुचलकर हमें दब्बू, कायर, हतवीर्य बनाती है। और किसलिए? जरा सोचें तो? मुट्ठी भर मनुष्यों को अरुण वरुण और कुबेर बनाए रखने के लिए। मुट्ठी भर मनचले सारे संसार की मनुष्यता की मिट्टी पलीत करें परमात्मा प्रदत्त स्वाधीनता का संहार करें-छि | नाश हो ऐसे मनचलों का!"

*" ऐसे ही अंट-सेंट ये बातूनी बका करते हैं, बाबू। कभी चार छोकरे जुड़े, तभी यही चर्चा लाल के साथियों का मिजाज भी उसी-सी उल्हड-बिल्हड़ मुझे मालूम पड़ता है। ये लड़के ज्यों-ज्यों पढ़ते जा रहे हैं। त्यों-त्यों बक-वक में बढ़ते भी जा

रहे हैं। "

"यह बुरा है, लाल की माँ!" मैंने गहरी साँस ली।

जमींदारी के कुछ जरूरी काम से चार-पाँच दिनों के लिए बाहर गया था। लौटने पर बँगले में घुसने के पूर्व दरवाजे पर जो नजर पड़ी, तो वहाँ एक भयानक सन्नाटा सा नजर आया-जैसे घर उदास हो, रोता हो। भीतर आने पर मेरी धर्मपत्नी मेरे सामने उदास मुख खड़ी हो गयी।

'तुमने सुनी ?"

"नहीं तो, कौन-सी बात ?" "लाल की माँ पर भयानक विपत्ति टूट पड़ी है।"

मैं कुछ-कुछ समझ गया, फिर भी विस्तृत विवरण जानने को उत्सुक हो उठा। "क्या हुआ?" जरा साफ-साफ बताओ।"

"वही हुआ जिसका तुम्हें भय था। कल पुलिस की एक पल्टन ने लाल का घर घेर लिया था। बारह घंटे तक तलाशी हुई। लाल, उसके बारह-पन्द्रह साथी पकड़ लिए गये हैं। सभी लड़कों के घरों की तलाशी हुई है। सबके घर से भयानक भयानक चीजें निकली हैं।"

"लाल के यहाँ...". "उसके यहाँ भी दो पिस्तौल, बहुत से कारतूस और पत्र पाए गये हैं। सुना है, उस पर हत्या, षड्यन्त्र, सरकारी राज्य उलटने की चेष्टा आदि आरोप लगाए गये हैं।"

"हूँ।" मैंने ठंडी साँस ली, "मैं तो महीनों से चिल्ला रहा था कि वह लौंडा धोखा देगा। अब वह बूढ़ी बेचारी मरी। वह कहाँ है? तलाशी के बाद तुम्हारे पास आयी थी ?"

"जानकी मेरे पास कहाँ आयी। बुलवाने पर भी कल नकार गयी। नौकर से कहलाया-पराठे बना रही हूँ, हलवा, तरकारी अभी बनाना है, नहीं तो वे बिल्हड़ बच्चे हवालात में मुरझा न जाएँगे। जेलवाले और उत्साही बच्चों की दुश्मन यह सरकार उन्हें भूखों मार डालेगी। मगर मेरे जीते-जी यह नहीं होने का।" "वह पागल है, भोगेगी।" मैं दुख से टूटकर चारपाई पर गिर पड़ा। मुझे लाल के कर्मों पर घोर खेद हुआ।

इसके बाद प्रायः एक वर्ष तक वह मुकदमा चला। कोई भी अदालत के कागज उलटकर देख सकता है। सी. आई. डी. ने और उसके प्रमुख सरकारी वकील ने उन लड़कों पर बड़े-बड़े दोषारोपण किये। उन्होंने चारों ओर गुप्त समितियाँ कायम की थीं, खर्चे और प्रचार के लिए डाके डाले थे, सरकारी अधिकारियों के यहाँ रात में छापा मारकर शस्त्र एकत्र किये थे, पल्टन में उन्होंने बगावत फैलाने का प्रयत्न किया था। उन्होंने न जाने किस पुलिस के दारोगा को मारा था, और न जाने कहाँ, न जाने किस पुलिस सुपरिटेंडेंट को। ये सभी बातें सरकार की ओर से प्रमाणित की गर्यो।। उधर उस लड़के की पीठ पर कौन था! प्राय: कोई नहीं। सरकार के डर के मारे पहले तो कोई वकील ही उन्हें नहीं मिल रहा था, फिर एक बेचारा मिला भी, तो 'नहीं' का भाई। हाँ, उनकी पैरबी में सबसे अधिक परेशान वह बूढ़ी रहा करती। वह सुबह-शाम उन बच्चों को लोटा, थाली, जेवर आदि बेच-बेचकर भोजन पहुँचाती। फिर वकीलों के यहाँ जाकर दाँत निपोरती, गिड़गिड़ाती कहती, "सब झूठ है। न जाने कहाँ से पुलिसवालों ने ऐसी-ऐसी चीजें हमारे घरों से पैदा कर दी हैं। वे लड़के केवल बातूनी हैं। हाँ, मैं भगवान का चरण छूकर कह सकती हूँ, तुम जेल में जाकर देख आओ वकील बाबू! भला, ये फूल से बच्चे हत्या कर सकते हैं?"

उसका तन सूखकर काँटा हो गया, कमर झुककर धनुष-सी हो गयी, आँखें निस्तेज, मगर उन बच्चों के लिए दौड़ना, 'हाय-हाय' करना उसने बन्द न किया। कभी-कभी सरकारी नौकर, पुलिस या वार्डन झुंझलाकर उसे झिड़क देते, धकिया देते। तब वह खड़ी हो जाती छड़ी के सहारे कमर सीधी कर और, "अरे! तुम कैसे जवान हो! कैसे आदमी हो! मैं तो उन भोले बच्चों के लिए दौड़ती-फिरती हूँ और तुम मुझे धक्के दे रहे हो! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, भैया?"

उसको अन्त तक यह विश्वास रहा कि यह सब पुलिस की चालबाजी है। अदालत में जब दूध-का-दूध और पानी-का-पानी किया जाएगा तब वे बच्चे जरूर बेदाग छूट जाएँगे। वे फिर उसके घर में लाल के साथ आएँगे। हा-हा, हो-हो करेंगे। उसे 'माँ' कहकर पुकारेंगे।

मगर उस दिन उसकी कमर टूट गयी, जिस दिन ऊँची अदालत ने भी लाल को, उस बंगड़ लठैत को तथा दो और लड़कों को फाँसी और दस वर्ष से सात वर्ष तक की कड़ी सजाएँ सुना दीं।

वह अदालत के बाहर झुकी खड़ी थी। बच्चे बेड़ियाँ बजाते मस्ती से झूमते बाहर आये। सबसे पहले बंगड़ की नजर उस पर पड़ी। "माँ!" वह मुस्कराया, "अरे, हमें तो हलवा खिला-खिलाकर तूने-गधे-सा तगड़ा कर दिया है, ऐसा कि फाँसी की रस्सी टूट जाय और हम अमर के अमर बने रहें, मगर तू स्वयं सूखकर काँटा हो गयी है। क्यों पगली, तेरे लिए घर में खाना नहीं है क्या?"

"माँ!" उसके लाल ने कहा, "तू भी जल्दी वहीं आना जहाँ हम लोग जा रहे हैं। यहाँ से थोड़ी देर का रास्ता है, माँ! एक साँस में पहुँचेगी। वहीं हम स्वतन्त्रता मिलेंगे। तेरी गोद में खेलेंगे। तुझे कन्धे पर उठाकर इधर-से-उधर दौड़ते फिरेंगे। समझती है? वहाँ बड़ा आनन्द है।"

"आएगी न माँ?" बंगड़ ने भी पूछा।

"आएगी न, माँ ?" लाल ने पूछा।

"आएगी न, माँ?" फाँसी-दंड प्राप्त दो दूसरे लड़कों ने भी पूछा। और वह टुकुर-टुकुर उनका मुँह ताकती रही। "तुम कहाँ जाओगे पागलो?"

जब से लाल और उसके साथी पकड़े गये, तब से शहर या मुहल्ले का कोई भी आदमी लाल की माँ से मिलने से डरता था। उसे रास्ते में देखकर जाने-पहचाने बगलें झाँकने लगते। मेरा स्वयं अपार प्रेम था उस बेचारी बूढ़ी पर, मगर मैं भी बराबर दूर ही रहा। कौन अपनी गर्दन मुसीबत में डालता विद्रोही की माँ से सम्बन्ध रख कर!

उस दिन ब्यालू करने के बाद कुछ देर के लिए पुस्तकालय वाले कमरे में गया, वहीं किसी महान लेखक की कोई महान कृति देखने के लालच से। मैंने मैजिनी की एक जिल्द निकालकर उसे खोला। पहले ही पन्ने पर पेंसिल की लिखावट देखकर चाँका ध्यान देने पर पता चला, लाल का वह हस्ताक्षर था। मुझे याद पड़ गयी। तीन वर्ष पूर्व उस पुस्तक को मुझसे माँगकर उस लड़के ने पढ़ा था।

एक बार मेरे मन में बड़ा मोह उत्पन्न हुआ उस लड़के के लिए। उसके पिता रामनाथ की दिव्य और स्वर्गीय तस्वीर मेरी आँखों के आगे नाच गयी। लाल की माँ पर उस पाजी के सिद्धान्तों, विचारों या आचरणों के कारण जो वज्रपात हुआ था, उसकी एक ठेस मुझे भी, उसके हस्ताक्षर को देखते ही लगी। मेरे मुँह से एक गम्भीर लाचार दुर्बल साँस निकलकर रह गयी।

पर, दूसरे ही क्षण पुलिस सुपरिटेंडेंट का ध्यान आया। उसकी भूरी, डरावनी अमानवी आँखें मेरी "आप सुखी तो जग सुखी" आँखों में वैसे ही चमक गयी, जैसे ऊजड़ गाँव के सिवान में कभी-कभी भुतही चिनगारी चमक जाया करती है। उसके रूखे फौलादी हाथ, जिसमें लाल की तस्वीर थी, मानो मेरी गर्दन चापने लगे। मैं मेज पर से 'इरेजर' (रबर) उठाकर उस पुस्तक पर से उसका नाम उधेड़ने लगा।

उसी समय मेरी पत्नी के साथ लाल की माँ वहाँ आयी। उसके हाथ में एक पत्र था।

“अरे!" मैं अपने को रोक न सका, "लाल की माँ! तुम तो बिलकुल पीली पड़ गयी हो! तुम इस तरह मेरी ओर निहारती हो, मानो कुछ देखती ही नहीं हो। यह हाथ में क्या है?"

उसने चुपचाप पत्र मेरे हाथ में दे दिया। मैंने देखा, उस पर... जेल की मुहर थी। सजा सुनाने के बाद वह वहीं भेज दिया गया था, वह मुझे मालूम था। मैं पत्र निकालकर पढ़ने लगा। वह उसकी अन्तिम चिट्ठी थी। मैंने कलेजा रूखा कर उसे जोर से पढ़ दिया :

"माँ!"

जिस दिन तुम्हें यह पत्र मिलेगा उसके ठीक-सवेरे में बाल-अके रथ पर चढ़ कर उस ओर चला जाऊँगा मैं चाहता तो अन्त समय तुमसे मिल मगर इससे क्या फायदा? मुझे विश्वास है, तुम मेरी जन्म-जन्मातार की जी ही रहोगी। मैं तुमसे दूर कहाँ जा सकता हूँ, माँ जब तक पवन साँस लेती है, पूर्व चमकता है, समुद्र लहराता है, तब तक कौन मुझे तुम्हारी करुणामयी गोद से दूर खींच सकता है ?

दिवाकर घमा रहेगा, अरुण रथ लिये जमा रहेगा। मैं, बंगड़, वहाँ यह सभी तेरे इन्तजार में रहेंगे। हम मिले थे, मिले हैं, मिलेंगे। हाँ, माँ तेरा लाल काँपते हाथ से पढ़ने के बाद पत्र को मैंने उस भयानक लिफाफे में भर दिया। मेरी पत्नी की विकलता हिचकियों पर चढ़कर कमरे को करुणा से कैपाने लगी। मगर, यह जानकी ज्यों-की-त्यों, लकड़ी पर झुकी, पूरी खुली और भावहीन आँखों से मेरी और देखती रही, मानो वह उस कमरे में थी ही नहीं।

क्षण-भर के बाद हाथ बढ़ाकर मौन भाषा में उसने पत्र माँगा और फिर बिना कुछ कहे कमरे के फाटक के बाहर हो गयी-दुगुर-दुगुर लाठी टेकती हुई। इसके बाद शून्य-सा होकर मैं धम से कुर्सी पर गिर पड़ा। माथा चक्कर खाने लगा। उस पाजी लड़के के लिए नहीं इस सरकार की क्रूरता के लिए भी नहीं, उस बेचारी भोली, बूढ़ी जानकी-लाल की माँ के लिए। आह! वह कैसी स्तब्ध थी। उतनी स्तब्धता किसी दिन प्रकृति को मिलती तो आँधी आ जाती समुद्र पाता तो बौखला उठता।

जब एक का घंटा बजा, मैं जरा सुगबगाया ऐसा मालूम पड़ने लगा मानो हरारत पैदा हो गयी है-माथे में, छाती में, रग-रग में पत्नी ने आकर कहा, "बैठे ही रहोगे? सोओगे नहीं?" मैंने इशारे से उन्हें जाने को कहा। फिर मेजिनी की जिल्द पर नजर गयी। उसके ऊपर पड़े रबर पर भी। फिर अपने सुखों की, जमींदारी की, धार्मिक जीवन की और उस पुलिस अधिकारी को निर्दय, नीरस, निस्तार, आँखों की स्मृति कलेजे में कम्पन्न भर गयी। फिर रबर उठा कर मैने उस पाजी का पेंसिल खचित नाम पुस्तक की छाती पर से मिटा डालना चाहा।

"माँiiiiiiiiii.." मुझे सुनाई पड़ा। ऐसा लगा, गोया लाल की माँ कराह रही है। मैं रबर हाथ में लिये, दहलते दिल से, खिड़की को और बढ़ा। लाल के घर की ओर कान लगाने पर कुछ सुनाई न पड़ा। मैं सोचने लगा, भ्रम होगा। वह अगर कराहती होतो तो एका आवाज और अवश्य सुनाई पड़ती। वह कराहने वाली औरत है भी नहीं। रामनाथ के मरने पर भी उस तरह नहीं घिधियाई जैसे साधारण स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर तड़या करतो हैं।

मैं पुनः उसको उसी की सोचने लगा। वह उस नालायक के लिए क्या नहीं करती थी। खिलौने की तरह, आराध्य की तरह, उसे दुलारती और संवारती फिरती थी। फिर आह रे छोकरे।

फिर वही आवाज जरूर जानकी रो रही है, वैसे ही, जैसे कुबनी के पूर्व गाय रोवे जरूर वही विकल, व्यथित, विवश बिलख रही है। हाय री माँ। अभागिनी वैसे ही पुकार रही है, जैसे वह पानी गांकर, मचलकर, स्वर को खींचकर उसे पुकारता था।

अँधेरा धूमिल हुआ, फीका पड़ा, मिट चला। उषा पीली हुई, लाल हुई। रथ लेकर वहाँ क्षितिज के उस छोर पर आकर पवित्र मन से खड़ा हो गया। मुझे लाल के पत्र की याद आ गयी। "माँiiiiiiiffi.."

मानो लाल पुकार रहा था, मानो जानकी प्रतिध्वनि की तरह उसी पुकार को गा रही थी। मेरी छाती धक-धक करने लगी। मैंने नौकर को पुकारकर कहा... "देखो तो, लाल की माँ क्या कर रही है?"

जब वह लौट कर आया, तब मैं एक बार पुनः मेज और मेजिनी के सामने खड़ा था। हाथ में रबर लिये-उसी उद्देश्य से उसने घबराए स्वर में कहा, "हुजूर, उनकी तो अजीब हालत है। घर में ताला पड़ा है और वह दरवाजे पर पाँव पसारे, हाथ में चिट्ठी लिये, मुँह खोले, मरी बैठी है। हाँ सरकार, विश्वास मानिए, वह मर गयी है। साँस बन्द है, आँखें खुली...'


(1924)


3 -

झगड़ा, सुलह और फिर झगड़ा


[ जन्म :18 अगस्त , 1916 - निधन :जुलाई 1994 ]

श्रीपत राय  

जन्म : गोरखपुर; 18 अगस्त 1916 । प्रेमचंद के ज्येष्ठ पुत्र। "कहानी" पत्रिका के सम्पादक प्रकाशक। सरस्वती प्रेस के संचालक। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के चित्रकार। मकबूल फिदा हुसैन और रामकुमार के अभिन्न मित्र। अकलंक मेहता छद्मनाम से अनेक कहानियों लिखी। यत्र तत्र कहानियों और उपन्यासों पर आलोचनापरक लेख और समकालीन कला पर अपरिहार्य महत्व का लेखन किया है।

[ अकलंक मेहता छद्म नाम से छपी हुई कहानी ]

मेहतरों की बस्ती भला आपने क्‍यों देखी होगी। अगर आप कलक्टर के दफ्तर में हैं तो आपने फाइल के लाल फीते देखें होंगे और बड़े बाबू के तेवर देखे होंगे। अगर किसी डॉक्टर के कम्पाउन्डर है तो डॉक्टरी नुस्खे देखें होंगे जिसे आपके सिवा शायद परवरदिगार ही समझ सके। अगर किसी यूनिवर्सिटी में के प्रोफेसर हैं तो आपने लड़कों की लाल हरी टाइयां और लड़कियों के रूज से रंगे लाल होंठ देखे होंगे, क्योंकि सुना जाता है कि अब की लड़कियों के होंठ स्वाभाविक तौर पर लाल नहीं होते। अगर आपकी हस्ती इन सबसे बड़ी है तो आपकी मोटर की रफ्तार इस बात का फैसला करेगी कि आपने इस मनहूस मेहतरों की बस्ती की झलक भी पाई है या नहीं। मुमकिन है मेहतरों की बस्ती ओर से आप गुजरे हों, लेकिन वहां आपने अपनी नाक रूमाल से दबा ली होगी और कदम बढ़ाते हुए आप वह बस्ती जल्दी पार गये होंगे।

यह बस्ती का देखना भला कहां हुआ। अरे साहब, आपके दुश्मन मेहतरों की बस्ती देखें। गलती से अगर कहीं हम किसी सफाई के दरोगा से भी कह बैठे कि उन्होंने महतरों की बस्ती देखी है तो वे खफा हो जाएंगे। मेहतर की बस्ती! क्‍या मेहतर और क्या उसकी बस्ती! गोया मेहतरों को भी बसाहत का रुतबा हासिल है! आप कुछ भी हों- वकील, डॉक्टर, यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कुर्क अमीन, टाइपिस्ट बाबू। आपने मेहतरों की बस्ती की ओर गौर नहीं किया होगा। मान सकता हूं कि अगर आप कोई कालिज के मनचले नौजवान है तो आपने उधर इसलिए देख लिया होगा कि वह सामने जो सड़क से लगा हुआ पानी का नल है, उस पर कभी-कभी मेहतरों की औरतें फोहश मजाक और उनसे भी ज्यादा फोहश संकेत और नाटकीय भाव प्रदर्शन और गाली-गलौज किया करती है। और कभी-कभी अर्धनग्न अवस्था में नहाया भी करती हैं लाज की उन्हें जरूरत नहीं है क्योंकि दुनिया की लाज उनके हाथ होती है।

इससे ज्यादा दूर आपकी निगाह को जाने का कोई सरोकार भी क्‍या है? और आप अगर इन खुशकिस्मतों की जमात में है तो हजार-हजार सदके आपके कि हुस्न परस्ती तो है आप में। जी हां, हुस्नो-कमाल इस इंतिजाम का जिसमें इन्हें यही कुछ दिया गया है जिसे आप आंख चुराये बगैर भी देख सकते हैं- यह इनके गुस्लखाने और इनकी अधनंगी औरतें! कभी आपने सोचा है अगर आप का गुस्लखाना न होता तो आपकी औरतों का भी यही हश्र होता। आप इसे नहीं सोच सकेंगे। जरूरत भी नहीं है। आइये फिर आपको मेहतरों की इस बस्ती की सैर करावें। आप कह उठेंगे, यह क्या पागलपन है? हमारा वक्‍त भी क्‍या इतना फालतू है कि उसे इस गंदे तसकिरे में खर्च किया जाय। हम तो साहब जाते हैं। आप भी यह पचड़ा ले बैठे। बेशक आप जा सकते हैं, जाइए। लेकिन कल अगर उस बस्ती के किसी बसने वाले ने आपका हाथ थाम लिया और कहा कि आपने अजायबखाने और चिड़ियाखाने तो बहुत देखे होंगे, जरा इस जगह को भी तो देख लीजिए जहां हम अजूबे रहते हैं- जी, अजूबे तो हम है ही, गो हमारी बनावट भी आपकी ही तरह है लेकिन आज आपने हमें पिंजड़े में बंद गीदड़ों और भालुओं से भी ज्यादा अनजान बना रखा है- लेकिन हमें देखते तो जाइये। तब आप क्‍या जवाब देंगे। जवाब क्‍या देंगे?

कह देंगे- जहां तुम हो, वहीं मरो! पर अगर मरने से उसने इनकारा किया और अपनी थाम को और कड़ा कर लिया तो? कड़ा और अधिक कड़ा? तब हम जवाब नहीं देंगे। हम उसे मार देंगे और गालियों की बौछार के नीचे उसे दफन कर देंगे और तब अपनी ऊंची नाक को रूमाल से और जोर से दबा कर उसे और ऊंचा उठायेंगे और उस कीड़े को हिकारत की निगाह से देखेंगे और अपना रास्ता लेंगे। हम कामकाजी आदमी हैं। हमें फुर्सत नहीं है। हमें अपनी बीवी बच्चे के आराम और खाने की फिक्र करनी है- बीवी जो गुलाब की तरह हसीन और जवान है, बच्ची जो गुलाब की कली है। हमें इस गंदगी से कोई वास्ता नहीं है।


यह बस्ती जिसे आप देखना गंवारा नहीं, करते। शहर से थोड़ी ही देर है, शहर और स्टेशन के बीच गोया मौत और जिदगी के बीच एक प्राण सूत्र हो; यह बस्ती शहर की छाती पर यों सवार है गोया कोई मजबूत और नालायक़ बच्चा अपनी नीमजान मां की छाती पर सवार हो और उसका प्राण सोख रहा हो।

शहर से जो सड़क स्टेशन को जाती है। उसकी दायीं पटरी पर यह छोटी-सी बस्ती अपनी हस्ती बरकरार रखती है। ऐसा अनुमान है कि वहां पहले कोई गढ़ा रहा होगा और जब उस गढ़े का पेट, अपने पेट के गढ़े को भरने की खातिर, इन मेहतरों ने, या ज्यादा सही तौर पर इनके बाप-दादों ने, अपनी जी-तोड़ कोशिश से भर दिया होगा तो इन्हें वहीं पर रहने का अधिकार मिल गया होगा। इस कयास के गलत होने का कोई सुबूत नहीं है और इसलिए यह ठीक होगा। सड़क की दाहिनी पटरी पर जरा नशेब में म्युनिसिपैलिटी का एक पाइप है और वहीं दाहिनी तरफ को एक सड़क गई है। इस सड़क से उस परली तरफ का बंगला है इसी के बीच यह मेहतरों की बस्ती है जिसे आप देखने से इनकार करते हैं। कोई 75 गज लंबी और 30 गज चौड़ी बस्ती है जिसमें 8/9 झोपड़े हैं। सड़क के पास ही गंदगी की नाली है और यही इस बस्ती की हद है। गंदगी के बीच ही इनका जीवन है और गंदगी से परे इनकी मृत्यु! रहें तो क्रीच में, मरें तो स्वर्ग में, इतना अधिकार देंगे आप इन्हें? नहीं देंगे? स्वर्ग जैसी अनिश्चित जगह में भी रहने की अधिकार आप इन्हें नहीं देंगे। हम जानते थे। होना चाहिए- रहे तो कीच में, मरें तो नरक में! लेकिन बदकिस्मती से नरक और कीच, जहां ये रहते हैं, अलग-अलग जगरहें नहीं है!

जिस धरती पर ये रहते हैं और बच्चे जनते हैं और अपनी दुनिया को दो कदम आगे बढ़ाते हैं उसमें से बरसात में ऐसी बदबू आती है कि उधर से गुजरना मुहाल हो जाता है। उसी कच्ची पोली धरती पर इनके घर बनाये गये हैं। ऊपर फूस की छत है और अंदर एक कमरा जो सोने का कमरा, बैठने का कमरा और खाने का कमरा सभी कुछ है। और यही एक खैर नहीं है। यहीं एक कमरा है जिसमें मां-बेटी, बीवी, शौहर, बहन-भाई सभी घुसकर पड़े रहते हैं जैसे मांद में सुअर। इन घरों की दीवारों के बाहरी तरफ, वह हिस्सा जो सड़क की ओर मुंह उठाता है, सभ्यता के चिन्ह पहुंच चुके हैं। उन पर लाल रंग के गेरू से सभी दर्दों की अक्सीर दवा रामतेल का इश्तिहार है। लेकिन इनके दुखः-दर्दों की दवा हकीम लुकमान के पास भी न थी। आज यह रामतेल के बनाने वाले इनकी मदद को क्या आवेंगे। घरों में दीवार की भीतरी तरफ सिनेमा और चुनावों और सिगरेटों के विभिन्‍न इश्तिहार चिपके हुए हैं- यह तीन न्‍्यामते जो हमारी तहजीब की इन तीन रौशन और जिन्दा मिसालें हैं। सुअर भी इनके घरों के आसपास ही रहते हें। इन सुअरों से इनका खास संबंध भी है। घरों में मामूली तौर पर कुछ नहीं होता है। एकाधी झाडू-बाल्टी, दो-चार मिट्टी के पुराने कीटदार बर्तन; एकाधा एल्युमिनियम का बर्तन और तामलोट उनमें से ज्यादा खुशहाल होने के सबूत हुआ करते हैं।

खुशहाली में कुछ इतने अलग-अलग किस्म का सामान इनके पास जो इकट्ठा होता है कि उनकी विभिन्‍नता पर आप भी आश्चर्य करते हैं- टीन के खाली डिब्बे, सिगरेट का खाली बक्स, नोटिसों पर छती ऐक्ट्रसों की तस्वीरें जिनमें इन्हें खास इश्क होता है, फटे-पुराने रंग-बिरंगे चीथड़े, साइकिल के पुराने टायर के टुकड़े, घोड़े की नालें; और आपका रद्दी किया हुआ आबदस्त लेने का बर्तन! इस विभिन्‍नता पर कौन न आश्चर्य करेगा। कुछ चीथड़े भी इन मकानों की रौनक बढ़ाते हैं, चीथड़े जिनसे ये अपनी नग्नता आंशों में ढंकते हैं। छत से लटकाई हुई एक हांडी होती है जिसमें वह अनुपम चीजें होती हैं जिन्हें आपने अपने कुत्ते को भी देना गवारा नहीं किया होगा और टेढ़े सीधे वह इनके पास पहुंच गई होगी। दीवार के सहारे एकाधी छोटी-मोटी शीशी-बोतल भी टंगी होती है जिसमें कड़वा तेल या सड़ा घी, मिट्टी का तेल का दारू-ताड़ी की बदबू होती है क्योंकि दारू-ताड़ी की हालत में उसमें ज्यादा कम अशिया पहले ही इनके पेट में पहुंचाई जा चुकी है।

एकाध ताक भी इन घरों में होता है जिसमें एक टिमटिमाता हुआ चिराग इनकी जिंदगी की तारीकी में दो चार रौशन लमहात ला देता है तब ये अपनी औरतों के साथ होते हैं! इनकी जिंदगी में और आपकी जिंदगी में इतना फर्क होता है आप इनकी जिंदगी की ओर देखने से इनकार करते हैं। दुनिया के तीन चौथाई आदमी नहीं जानते कि बाकी के एक-चौथाई कैसे रहते हैं। अगर इस कथन को उलट भी दीजिए तो इसकी सचाई में कोई फर्क नहीं आता।

ऐसे ही एक घर में, बिल्कुल ऐसे ही एक घर में, कल्लू नाजिया ने बसेरा ले रखा है। नाजिया से मुराद निजात, बख्शनेवाले से है, यानी मोक्ष दिलानेवाले; और अभी तक हमें ताज्जुब है कि यह नाम मेहतरों की इस बस्ती में कैसे घुस आया। यह तो किसी भल्ली लड़की का नाम हो सकता है जो नर्म गह्टे पर सोती है, आबेरवां के दामन में अपने हुस्न को कैद करने की बेसूदा कोशिश करती है, इश्क के किस्से पढ़ती है और ठंडी आहें भरती है और आखिर में तपेदिक का शिकार हो जाती है। लेकिन इसमें भी एक राज है। यह नजिया एक ऐसे लमहे की यादगार है जब किसी मनचले नौजवान ने जवानी की मदहोशी में उससे ज्यादा पैसे के खुमार के नजिया की मां को चांदी के चंद टुकड़ों पर खरीदा था। सचमुच एक बड़ी यादगार। जीती जागती यादगार!

वह नौजवान मनचला था और हुस्न परस्त था। इससे भला किसे इनकार हो सकता है? और नजिया सचमुच उसे नजात दिलावेगी जब वह उसकी मौत पर फातिहा पढ़ेगी (वह अगर नहीं पढ़ेगी तो उसकी ओर से वह नेक हम किये जाते हैं) या परवरदिगार, रहमत बख्श उस कमीने हरीस कुत्ते पर जिसने अम्मा की अस्मत और हुरमत खाक में मिला दी! आमीन!

और यह नया किस्सा नहीं होगा। गरीब औरतों की आज की पूंजीवादी सभ्यता में इससे अच्छा इस्तेमाल नहीं है। इससे भी ज्यादा इस्तेमाल उनका सामंतशाही सभ्यता में होता था जब एक-एक हरम- सरा में दर्जनों खूबसूरत औरतें एक आदमी को खुश किया करती थीं।

सचमुच नजिया एक नेमत के रूप मे कललू के जीवन मे आई और छा गई। नजिया का नाम भी आस-पड़ोस के मेहतर ठीक से न ले पाते। वे उसे नजरिया नजरिया पुकारते थे। और किसी हद तक यह नाम उसे जेब देता था। उसकी खिंची, लम्बी आंखें, और लंबी आंखों को पूरी तरह ढंक लेने वाली लंबी पलकें सचमुच उसकीनजर में वह जादू भर देती थी कि किसकी मजाल की उन आंखों की ओर देख सके। और फिर उसकी आंखें ही आपको गुमराह करने के लिए न थीं। इनके साथ ही उसके हाथी दांत की तरह साफ सुडौल दांत जिन्हें मिस्सी के इस्तेमाल से नाहक खराब किया गया था और लंबी नाक और सलोना चेहरा सभी कुछ शामिल थे। आंखें हमेंशा सुर्म से रंगी रहतीं। उसके मुंह की वक्रता ही कुछ इतनी लुभावनी थी कि अलग-बगल के नौजवान लहूलोट हो जाते थे। कानों में सस्ती बालियां और नाक में मीना की एक लांग उसके चेहरे की विशेषताएं थीं। जब नजिया इस बस्ती में आई तो वह पंद्रह बरस की हो चुकी थी और तब से पांच साल उसे यहीं गुजर चुके हैं। इस हिसाब से नजिया इस समय बीस की है। नजिया का चेहरा-मोहरा ही सिर्फ आकर्षक नहीं है, दिन भर की मेहनत से उसके बदन का गठाव भी अभी कड़ा है और इससे हुस्न में बढ़ती ही होती है। इन पांच सालों के कठिन परिश्रम से नजिया कुछ थक गई हो, यह नहीं कहा जा सकता। इन पांच सालों में उसने जी-तोड़ मेहनत की है जो उसे करना पड़ गईं वैसे वह चोले को आराम देने में विश्वास रखती है।

कल्लू का खानदान इन लोगों के मापदंड से कुछ ज्यादा खुशहाल था क्यों कि इसीलिए तो 7। साल की उम्र से ही उसे बीड़िया पीने को मिलने लगीं। यही नहीं, सबसे बडत्र सुबूत तो इस खुशहाली का यही है कि उसकी शादी नजिया से हुई। वर्ना क्या नजिया की मां इतनी कच्ची थी कि वह अपनी दढुलारी नजरिया को किसी निकम्मे उठाई गौरे के गले बांध देती। ऐसी गई बीती वह नहीं है। ऐसी मार भी उसे क्‍या पड़ी थी, उस रसिया ने अपनी एक गलती के एक्ज में उसे बहुत कुछ दिया था जिसके बल पर नजिया की मां बिना मजदूरी किये और अपने शौहर से झगड़कर भी अपना बनाव-सिंगार बरकरार रख सकती थी और बड़ी फरागदिली से अपने असौर नजिया के लिए बकरे के गोश्त का सालन और कलेजियां, सींकवाला कबाब और रहमान के तंदूर की रोटियां खरीद सकती थीं। इतना ही क्‍यों? अपनी खरीदी हुई रोटियों के कुछ टुकड़े वह इन कुत्तों को भी खिला सकती थी जो उसके खाना खाने के वक्‍त उसके पास पहुंच जाते थे। कल्लू की नजर एक बार नजिया पर पड़ गई। फिर तो वह बेहाल हो गया। उसने इश्क के गाने बेसुरी तान में जोर-जोर से सड़कों पर गाये, काम से खूब जी चुराया और सड़कों पर नजिया के मकान के आसपास खूब चक्कर लगाये और बीड़ियों की संख्या दुगुनी कर दी। उसे यकीन हो गया कि नजिया के बिना वह जी नहीं सकता। और आखिर वह नजिया को नौटंकी दिखाने और दारू की बोतल सुंधाने और चिखौना चखाने के लिए खर्च किए हुए पैसे कौन भकुआ अदा करता और बिना इसके पैसे नजिया उसकी ओर आंख भी न उठाती। कल्लू के साथ अपनी पहली रात नजिया ने बड़ी मुश्किल से काटी। शराब और बीड़ी की मिली हुई बदबू अपने इतने करीब से अनुभव करने का उसे कभी मौका न मिला था। फिर वह उसकी आदी हो गई और खुद भी इस नेक काम में अपने कलुआ की मदद करने लगी। तब वह 75 साल की थी और वह आज से पांच साल पहिले की बात है।

इन पांच सालों का इतिहास विचित्र है। पहले दोनों एक-दूसरे को जी-जान से चाहते थे। फिर इसके फर्क आना शुरू हुआ, क्योंकि कल्लू की आदतें रोज बरोज ज्यादा ऊंची होने लगी। इस दो तरफी दौड़ में इन दोनों के बीच फासला बढ़ता गया। यह कोई मान ही नहीं सकता था कि कल के कल्लू में इतना परिवर्तन हो सकता हैं अभी कल का कल्लू नजिया के रूप के मद में बेहाल था, लेकिन आप जानते हैं कि एक बार शिकार फंस चुकने पर शेर कितना खूंख्वार हो जाता है। अब कल्लू नजिया से दबता नहीं, वह उससे बीस ही रहना चाहता है। हां, तो इन दोनों के बीच का फासला बढ़ता गया। शुरू में कल्लू ने चुपचाप पैसे चुराकर अकेले कलबरिया में बैठकर पीने से शुरुआत की। फिर इस बात को लेकर इन दोनों में कहासुनी हुई और बात को लीप-पोतकर ठीक किया गया। लेकिन बात बढ़ती गई और यहां तक पहुंची कि गाली-गलौच, इंगित-संकेतों, जली-कटी कहने सुनने से आगे बढ़कर नौबत मार-पीट पर पहुंच गई। और इससे आगे बढ़कर इस मार-पीट ने नजिया कोऔर मजबूत कर दिया और मार का उस पर असर गायब होने लगा। यहां तक कि अब उसे दुनिया की किसी भी चीज का खटका न रहा। अब वह कल्लू को अकेले पीने न देती। पहले की उसकी सारी हयादरी काफूर हो गई और अब वह राह चलते भी कल्लू से रार करते हिचकती न थी।

औरत एक बार मर्द के संसर्ग में आ जाय तो जैसे उसकी समस्त शक्तियों को प्रोत्साहन मिलता है और वह अज्ञेय हो जाती है। शायद यही वजह हो कि एक ही उम्र की एक विवाहित और अविवाहित स्त्री में बहुत बड़ा अन्तर होता है। इस पांच साल में अर्से में नजिया तीन बार गर्भवती हुई पहली मर्तबा गर्भ गिर गया, दूसरी मर्तबा एक नन्‍्ही-सी लड़की पैदा हुई, जो छः महीने की होते न होते सर्दी खाकर चीखते चीखते बेहार होकर मर गई जबकि उसकी मां उसे कल्लू को सौंप कर सुबेरे के वक्‍त सड़क पर झाड़ू लागने गई हुई थी।

सफाई का दारोगा दाढ़ीजार जो आया है बड़ा बदजात है। सवेरे की गश्त करता है और गैरहाजिर होने पर आठ आने से कम जुर्माना नहीं करता। अगर कहीं दो तीन जुर्मानों की नौबत आ जाय तो खाने को भी न मिले। तीसरा बच्चा अच्छा पैदा हुआ, इनकी उम्मीदों का अकेला सहारा। उसकी पैदाईश और उसके बाद के कुछ महीने शांति से गुजरे थे। इस नाम चलने वाले की फिक्र में वे आपसी ज्गड़े भूल जाने को तैयार थे। वे कोशिश में थे कि उसके लिए वह कुछ करें जो उनके बाप ने उनके लिए नहीं किया था। लेकिन बैठे बिठाये बस्ती के कुछ और गुनहगारों के साथ वह चेचक का शिकार हो गया। उसकी मौत से कल्लू और नजिया की उम्मीदों के बांध टूट गये और फिर उनकी दबी हुई आकांक्षाओं की नदी वेग से दौड़ी है तो उसने किनारे तक काट दिये- किनारे के पेड़ों की जड़ें उखाड़ फेंकना तो मामूली बात थी।

इस आखिरी मौत के बाद से वे एक दूसरे की सूरत से बेजार हो गये। इनकी जिन्दगी इतनी नाटकीय हो गई जितनी पहली कभी न थी। निराशा से वे भर आये यद्यपि वैसी कोई बात न थी। दोनों अभी जवान थे लेकिन वे यह सब कुछ समझ न पाते थे। अगर कोई नामलेवा भी वे दुनिया में न छोड़ गये तो या रसूल, क्‍या होगा। उन्होंने मान्यताएं मानीं, औलियों के यहां हाथ बांधे फिरे और क्‍या कुछ न किया। इस सबके बावजूद कल्लू ने ताड़ी की बढ़ी हुई मिकदार बरकरार रखी और इसके साथ गांजे का टकहवा (दो पैसे वाला) दम भी लगाना शुरू कर दिया। नजिया ने भी तली और भुनी हुई मछलियों में ज्यादा मजा लेना शुरू किया और तकरारें गहरी और व्यापक, व्यापक और अधिक गहरी और अधिक व्यापक होती गई।

उनकी अब धारणा हो गई थी कि जब बिना औलाद के मरना ही है तो फिर खा खेलकर क्‍यों न मरा जाय। तब फिर फिकिर की क्‍या जरूरत?

इसी जमाने की एक शाम का जिक्र है। आकाश पर बादल घिर आये थे। दिसंबर का महीना था। सर्दी का आलम था लेकिन बादल की वजह से सर्दी ज्यादा न थी और हवा में वह मस्ती थी कि मामूली आदमी भी नशे में हो जाय तो भला कल्लू कब होश में हो सकता था। चांदनी रात थी और कभी चांद उस सलोने रूप में दिख जाता कि कल्लू को 5 साल की नजिया रह रह कर याद आ जाती थी। चांद भी ऐसा सलोना दिखता था कि उसे कलेजे में रख लें। यह दोनों ही कल्लू के मन की बातें हैं। कवियों ने ऐसे मौसिम के बारे में क्या कहा है, उनकी प्रेमिकाओं ने इसके जवाब में क्या किया है इन सब के जानने के फुर्सत कल्लू को नहीं है। नजिया को शायद इससे भी कम है क्योंकि वह जान चुकी है कि उसका अगला बच्चा उसके अंदर आ चुका है और उसे पिछली दफों की तरह उसकी फिक्र अभी से करनी है क्योंकि वह सोचती और समझती है कि पिछली दोनों मौतें कल्लू के निकम्मेपन के कारण हुई हैं जंगरचोर खूंसट जो है वहां उसे तो अपने गांजे और ताड़ी से मतलब, दुनिया रहे या जाय! हरामखोर कहीं का!

इधर कल्लू सबेरे से ही इस उधेड़बुन में रहा है कि आज चार पैसे की ताड़ी से चोला नहीं तरेगा। आज तो कम से कम एक बोतली और दो गंडे का चिखौना होना ही चाहिए। अरे निगोड़ा मुंहचोर, बोतली न सही तो अद्धे के बिना मुंछू भी न भींगेगी। इसलिए आज सुबह ही इस हरामजादी नजिया ने रार कर ली। अरे मैंने क्या कहा था, यही न ओ मेरी रानी, आज कहीं से सोलह गंडे का जुगाड़ कर दो तो मैं तुम्हारा गुलाम हो जाऊं। और वह है कि इतने पर ही उसने न जाने कितनी जली-कटी सुना दीं और चमक कर परे हट गई जैसे आज ही ब्याहकर आई नवेली हो“ अच्छा, कर ले गुमान मुंहजली, जो बदला न लिया तो कल्लू नहीं। कभी तो तेरी भी तबियत चलेगी। और चमक कर वह चल दिया।

दिनभर यह झगड़ा तेजी पर रहा। नजिया दिन भर गुस्से में रही और कल्लू को कोसती रही। कल्लू सबेरे से जो गया तो दोपहर की रोटी खाने भी नहीं आया। नजिया सोचती है-- इस कुत्ते को यह भी पता है कि अबकी पिछली दोनों में से किसी भी गलती को दुहराने की मेरी मंशा नहीं है। यह बच्चा जो बाकी आने आने वाला है उसकी फिक्र जरूरी है। वह कल्लू से इतना ज्यादा नाराज नहीं है। वह तो उसी के भले के लिए कहती है। पीयेगा और नालियों में लोटता फिरेगा। इससे कहीं अच्छा तो यही है कि घर में भलेमानुस की तरह रहे और बहारदार मौसिम में मुझसे कुछ मीठी-मीठी बातें करने करें। वैसे कल्लू मीठी-मीठी बातें करने में उस्ताद है। इतना सोचते-सोचते बरबस ही उसके होठों पर मुस्कुराहट खेल गई। बारे खुदा-खुदा करके कल्‍्लू आठ बजे लौटा। वह सही तौर पर नशे में नहीं कहा जा सकता क्योंकि जब वह नशे में होता तो उसका घर वापस लौट आना उसके बस के बात नहीं होती है और अक्सर ऐसा होता आया है कि हमसाए ही उसे उठाकर इसके दरवाजे तब डाल गये हैं। ऐसे वक्‍त नजिया को उस पर बड़ा तरस आता है और वह उसको उठाकर खाट पर ले जाया करती है और उसकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देखा करती है। हो सकता है कि कल्लू भी नजिया की मदहोशी में उसके साथ ऐसा ही नेक सुलूक करता हो।

आज नशा होता भी कहां से। मांगे की पीने से कभी नशा नहीं चढ़ सकता। मांगे नहीं तो कया गांठ से दो-चार आने के पैसे खर्च भी हुए तो वह मांगे के ही बराबर हुई। आज पैसे ही न जुट पाये। जो जानता कि यह निगोड़ी नजरिया दगा दे जायेगी तो पहले से ही कोई जुगत न सोच रखता हरामजादी! दिन भर वह नजरिया नाम की कुतिया पर कुढ़ता रहा है लेकिन कुछ भी वह करे, आज नशा नहीं चढ़ेगा। मौसिम का रंग और भी चढ़ आया और कल्लू की बेचैनी बढ़ने लगी। नशे के अभाव में उसने सोचा कि क्‍यों न कुछ देर नजरिया के साथ बिताकर खुदाताला का नाम लेकर रात उन के सिपुर्द की जाय।

लेकिन सुबह के झगड़े की अभी सुलह तो हुई ही नहीं। कल्लू की सारी इज्जत धूल में मिल जायेगी अगर कहीं उसने पहले बातचीत का सिलसिला जोड़ा। मेहरिया का गुलाम बनने वाला कल्लू नहीं है। गुलामी भी की तो मेहरिया की! यह अजीजा को ही मुबारक हो। लेकिन तबियत तो मानती ही नहीं, और यह चुप्पी तो बोलेगी ही नहीं।

नजिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए कल्लू ने नशे का ढोंग किया। वह लड़खड़ाया और दीवार का सहारा लेकर टिका। उसने शराब का ढोंग एक सधे हुए खिलाड़ी की भांति बड़ी खूबी से किया। यह कोई नई बात तो उसके लिए थी नहीं। रोज ही करता आया है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि आज उखड़े हुए नशे से वह सब कुछ कर रहा है जब कि और दिन वह सचमुच नशे में होता था।

नजिया भी इस सब के लिए नई नहीं थी। लेकिन आज सुबह से ही जो उसने कलुआ से रार कर ली इसके लिए उसका जी कचोटता रहा है। अरे बेचारे ने किया भी क्‍या थ। मर्दुए का मन ही तो है। हवा भी तो ऐसी जालिम चल रही है कि बिना नसे के जिया भी न जाय तो फिर अगर उस बेचारे ने पैसे मांगे तो इसमें इतना बिगड़ने की क्या बात थी। समझाना ही था तो सीधे से समझा देती। वह समझ जाता। मेरा कल्लू इतना बेसमझ नहीं है कि बात न समझे। उसे क्या अपने बच्चे की मुझसे कम फिकर है। बस निगोड़ा जालिम है। जान बूझकर बच्चे की फिकर नहीं करता है। नहीं तो वह बच्चा ऐसा खिलाता है कि जी डोल जाता है। इतना सोचने में नजिया को ऐसा लगा कि उसे बहुत वक्‍त लग गया है और वह रहम और तरस से पसीज गई। कल्लू को इस प्रकार दीवार का सहारा लेते देखकर वह उसके पास चली गई और उसका हाथ पकड़ लिया। सहारा देते हुए बोली- मैं तो सबेरे ही मना करती थी जांगर चोर कि मत जा। पैसे भी मैंने नहीं दिये लेकिन मुए के कहां के दुश्मन है कि पिला के ही दम लेते हैं। चल सो, मर!

ज्यादा बिगड़ी नहीं है। वह गिरते पड़ते अपनी खाट पर पहुंच गया। तब वह बोला- अरे हरामजादी, क्या तू समझी कि मैं सचमुच नसे में हूं?

सुबह से एक बूंद गले में गई हो। गला अभी तक सूख रहा है। यह बस तेरी बदमासी है। तूने ही आज वह अलसेट की है कि उमर भर न भूलूंगा। लेकि आज तुझसे लड़ने को जी नहीं चाहता। आज मुझे तू कितनी प्यारी लगती है। सच मैं तो कहता हूं कि तुझ पर हमेशा ऐसी ही जवानी छाई रहेगी। या कभी तू ढलेगी भी।

नजिया सचमुच पिघल गई तभी कल्लू इसरार करने लगा तो जल उठी, उसकी यह हालत और इसका यह इसरार! हरामजादा बात तो समझेगा ही नहीं। कितना भी क्‍यों न समझाओं। और साथ ही वह सोचती है- कितना बड़ा जानवर है यह!

और कल्लू ने दिल के अंदर से जोर से गाया- राजा और परजा की जय हो! और सुलह हो गई। रात अधिक खामोश हो गई, ठंडक बढ़ गई। ख़ामोशी और बढ़ी, जाड़ा भी और बढ़ा। सुलहनामे पर सही हो गये। कमरे में टिमटिमाते चिराग ने सुलहनामें पर गवाही की और उसकी स्याही सूखने भी न पाई थी कि सुबह हो गई।

सुबह हो गई। शांत और स्निग्ध; स्मित और शांतः मधुर और प्रफुल्ल मानो प्रकृति भी उत्सव मना रही हो। ऐसे प्रभात कभी कभी ही आते हैं और याद में सोचने पर भी याद नहीं आते।

कल्लू ने आंखें मलकर देखा तो नजिया बिस्तर पर न थी। वह जुमहाई लेता हुआ गरजकर बोला- कहां मर गई मूंडीकाटी! क्‍या मुझे अब बीड़ियां भी मुहाल हो गई! छाती फाड़कर कमाता हूं और इस कलमुंही को पैसे ही घटे रहते हैं कि मुझे बीड़ियों के बिना ही मार डालना चाहती है। पर मैं मरूंगा नहीं। कसम खुदा की अगर मुझे फिर कभी बीड़ी न मिल्री तो तेरी लहास उठवा दूंगा!

नजिया जल उठी! रात को मुआ चिरौरी करता था। और इस वक्‍त देखो तो सेर बना हुआ है। मैं अपनी ही मैयत देखूं जो फिर इससे बोलूं! आपने कभी कुत्तें की पूंछ देखी है? वह टेढ़ी ही होती है और उसे कितना भी सीधा कीजिए, वह टेढ़ी ही रहेगी। सीधी रहेगी, तभी तब जब आप उसे पकड़े रहें। वर्ना फिर टेढ़ी की टेढ़ी। इस मिसाल की मुशाबहत कल्लू से है और आप इसके बतलाने के मुंतजिर न होंगे। हमारी क्या बिसात कि आपको कुछ बतलावे! यह गंदी बस्ती आपको दिखलाई, इस गुस्ताखी को अगर मुआफ फरमावें तो आपका हजार-हजार शुक्रिया। लेकिन बात इतने से ही खत्म नहीं हो जाती। यह हमारी मौजूदा हालात पर रोशनी डालती है। कललू और नजिया और उनके जैसे हजारों और मर्द औरत जीते हैं और मरने से भी बुरे हैं। उनके लिए क्या कोई निजात है, कोई उम्मीद बाकी है?जरूर है। उनकी उम्मीदें बर आवेंगी, वे भी एक सुडौल जिंदगी देखेंगे जिस में धीरे-धीरे अपना खून करने से ज्यादा दिलचस्प चीजें भी होंगी। उनकी उम्मीदों के साथ ही हम सब भी अपनी उम्मीदें क्‍यों न बांध दें?


4 -

पुण्य का काम 


[ जन्म :7 अप्रैल , 1917 -निधन : 20 नवंबर, 1984 ]

सुधाबिंदु त्रिपाठी 

मूल नाम : यशदेव। जन्म स्थान सोनौरा खुर्द, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) प्राथमिक शिक्षा : धानी बाजार, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) एवं काशी विद्यापीठ वाराणसी। स्वतंत्रता संग्राम में संघर्ष हेतु घुमक्कड़ी जीवन (1932 से 1943 तक) 09.04.1943 से गोरखपुर और केन्द्रीय कारागार फतेहगढ़ में। 31.08.1946 को केन्द्रीय कारागार, फतेहगढ़ से मुक्त। 31.08.1946 से पुन: घुमक्कड़ी जोवन प्रारम्भ। उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल झारखण्ड, बिहार एवं असम आदि प्रदेशों का भ्रमण । स्वतंत्र भारत में घुमक्कड़ी जीवन (वर्ष 1947 से 1953 तक) । प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना के साथ मिल मजदूरों की हड़ताल में सक्रिय भागीदारी। 1954 से जीवन के अंतिम दिनों तक तिरसठ पुस्तकों का लेखन। वालेण्टियर (1937 ई०) 2. काँटे में फूल (1937 ई०) , छाया भाग-1 (1937 ई०) , छाया भाग-2 (1937 ई०) , तेरी ओर (1940 ई०) , बन्दी के गीत (गीत-संग्रह) , गरीब (महाकाव्य, अपूर्ण) , समर्पण (नाटक) ,श्रीकृष्ण जन्म (नाटक) , तथा 10 कहानी-संग्रह।

पण्डित मदन मोहन मालवीय गोरखपुर में पहली बार आ रहे थे। जब मैं करीम नगर (आधुनिक रेल विहार का कुछ हिस्सा) से चला, दिन डूबने में केवल आधे घंटे की देर थी। सोचा, अभी किसी गाँव में हो रहूँगा। पूस-माघ का महीना। जाड़े की पूरी जवानी। अपने तन पर एक खद्दर का कुर्ता और एक खद्दर की ही धोती। थैली में एक छोटी सी रूमाल जिसे दस्ती कहते हैं, इससे अधिक कुछ न था। जब तक सूरज की किरण दिखाई दी, खेतों को पार करता रहा। सरसों फूली हुई थी। मटर में भी फूल दिखाई दे रहे थे। किसी-किसी लता में मटर की पतली फली दिखाई दे जाती जिसमें अभी दाना आने में कई दिन की कसर थी। पियरा के हरे-हरे पात बड़े अच्छे लगते थे। एक बुढ़िया को देखा, पत्तों को तोड़ते हुए। पूछा। उसने कहा- ‘बेटा, इसका साग बड़ा अच्छा होता है। सोन्ह-सोन्ह।’ आगे भी गाँव दिखाई दे रहा था, इसलिए चिन्ता विशेष नहीं थी। क्योंकि सोचा यदि कहीं शरण नहीं मिलेगी तो किसी के दरवाजे पर जलते हुए कौड़े के पास रात्रि काट ही लूँगा। पण्डित मदन मोहन मालवीय पहली बार आ रहे थे। उन्हीं की सभा के प्रचार के लिए निकला था। चलता रहा-चलता रहा। जाड़े में थोडी देर में अंधेरा होने लगा और देखते-देखते गाँव से धुएँ बाहर आने लगे तथा ओस भी कोहरे का रूप धारण कर फैलने लगी। जिस गाँव से होकर आगे को निकला वह शायद गुजरात पुरी कहा जाता था। सोचा, इसे पार कर आगे चला चलूँ। ज्यों ही ँव पार कर आगे चला और सोचा अगले गाँव में रात्रि व्यतीत करूँगा, तो क्या देखता हूँ कि आगे जंगल दिखाई दे रहा है। जिसको समझा था धुआँ और कुहरा, वह जंगल है और उसके किनारे से रास्ता जा रहा है। मेरे हाथ में अक्सर डंडा रहता था लेकिन आज वह भी न था। सोचने लगा- पीछे जाऊँ या आगे बढूँ और इसी उधेड़बुन में रास्ते पर जा रहा था। सहसा एक और यात्री दक्षिण से आता हुआ मिला। हम दोनों शंकितचित्त आमने-सामने हुए। वह थर्रा उठा। मैं चुप था। उसने कहा- ‘सरकार हमारे पास कुछ नहीं है।’ मुझे हँसी आ गयी। मैंने कहा- ‘सरकार तुम तो डाड़ में कुछ लटकाये भी हो, मैं तो बिल्कुल नंगा हूँ और कुछ नहीं है। बेफिकर हो कर जाओ। आगे गाँव में जाकर रुक जाना। जाड़े की रात है, नहीं तो ठंडक लग जायेगा।’ वह राहत की साँस लेकर चला, मैं भी चला। बड़ी हँसी आई अपने पर, इसलिए कि मेरे पास कुछ नहीं और मैं सुनसान जाड़े की रात्रि में चल रहा हूँ और दूसरे को उपदेश कर रहा हूँ। पर सिखवन को नर बहुतेरे। जंगल में झींगुर झंकार रहा था और रह-रह कर खुरखुराहट का शब्द भी कानों में आ जाता।

मैं जा रहा था। पथिक ने मुझसे कहा था- ‘जंगल अब थोड़ा रह गया है। लेकिन कोई गाँव तो दूर पडेगा इसलिए बाबू आप वापस चलें।’ मैंने उसकी बात को सुनी, अनसुनी कर दी और चलने लगा। आखिर जंगल का किनारा मिल गया और उसी किनारे एक पेड़ के नीचे जलती हुई आग भी मिली। दो भिखमंगे भी मिले जो उसके सामने बैठे हुक्का पी रहे थे। मुझे देखकर सहम गये और हुक्का हाथ में ही रहा।

मैंने कहा- ‘घबड़ाओे नहीं, मुझे आगे जाना है और मैं यहाँ नहीं रहूँगा। गाँव कितनी दूर है?’

उन्होंने कहा- ‘भैया इस जाड़े की रात्रि में अब मत जाओ। यहीं हमारे साथ सो रहो।’

मैं जड़ प्रकृति का शायद प्रारम्भ से ही रहा हूँ। मैंने कहा- ‘नहीं, यदि कोई गाँव आगे मिले तो बताओ। और हो सके तो तुम लोग भी आगे चले जाओ। अभी अधिक रात नहीं बीती है। जंगल के किनारे रुकना ठीक नहीं।’

उन दोनो यात्रियों ने कहा- ‘लल्ला, हम भिखमंगे हैं, हमारा कोई क्या लेगा। जहाँ रात्रि वहीं बिहान। अब हम लोग कहीं नहीं जाय सकित।’

मैं आगे को चला। क्योंकि उन हुक्का पीने वालों ने एक मील दूर पर एक गाँव बता दिया था। यद्यपि जाड़े की रात्रि थी। रात साँय-साँय कर रही थी। कोहरा पड़ रहा था। जमीन पर ओस पड़ने से पैर सिकुड़ रहे थे। दोनो ओर रास्ते के गेहूँ, जौ, मटर के खेत थे। रास्ता सूनसान, बिना देखा। केवल वही टिमटिमाते प्रकाश, जो जुगनू की तरह दिखाई दे रहे थे। अब सोचता हूँ, यदि वह जुगनू ही होते तो क्या होता ? रातभर चलते-चलते प्राण गवाँ देते और क्या होता। जाड़ा बढ़ता ही जा रहा था कि थोडी दूर और आगे चलने पर एक नाला पड़ा, जिसमें पानी था। अब सोचा, क्या हो ? उन नालायक भिखमंगों ने यह नहीं बताया। बड़े ही चाण्डाल थे। लेकिन मैं अपने को क्या कहूँ, जिसने जड़ता को ही गुरु मान लिया। सोचता रहा, अब किधर ? तब तक दो-चार मेढक इधर से उधर दौड़ लगाते सुनाई पड़े। सोचा, कम ही जल है और इस पार से उस पार का अंदाजा लगाने लगा। तब तक एकाध हुड़ारों के उछलने का शब्द सुनाई दिया। अब पूर्ण विश्वास हो गया, इस नाले में पानी कम ही है और उधर किसी खेत वाले ने जोर से बिरहा छेड़ दिया- ‘चलो सखी तह जाइये’। अब और बदन में आशा का संचार हुआ। पानी में पैर डाल दिया। पानी बड़ा ही ठंड था। बर्फ की तरह गल रहा था। हम उसमें घुसे। इस पार से उस पार तक किसी प्रकार चले गये। पानी अधिक नहीं था। केवल कीचड़ था और मेढक के बच्चे थे। पैर में जूते नहीं थे। कब से नहीं थे ? कई मासों से नहीं थे। खैर, मैं भीगे पैर ही चलता और उस खेत रखाने वाले के गीत सुनता रहा। सोचता रहा, शायद अब गाँव के निकट आता जा रहा हूँ। टिमटिमाते दीपक निकट होते जा रहे थे। एक गाँव में पहुँचने की आशा से प्रसन्न था। अब शीत भी बढ़ ही रही थी।

दस-पाँच या पाँच-दस मिनट चलने पर कुत्तों के भूँकने का शब्द सुनाई देने लगा। अब और भी विश्वास बँध गया कि कोई गाँव निकट ही है और इस प्रकार गाँव के कुछ लोगों की बोली भी सुनाई देने लगी और हम उस गाँव के किनारे पहुँच ही गये, जिसकी प्रतीक्षा थी। कुत्ते एक अजनबी की आहट पाकर भूँक रहे थे। मैं एक कौडे़ के किनारे पहुँच ही गया जहाँ दो-चार पुरुष, दो-चार स्त्रियाँ आग ताप रहे थे और आपसी बातचीत में लीन थे। हमें लोगों ने देखा और शायद कोई भद्र व्यक्ति जानकर एक छोटी सी मचिया मेरे सामने सरका दी। हम बिना कुछ कहे ही बैठ गये और आग सेकने लगे। बड़ी देर तक कोई मुझसे यह नहीं पूछा सका कि महाशय आप कहाँ के निवासी है या कहाँ जाना है। हम भी चुप थे, क्योंकि हमें भी अपना परिचय देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। ज्यों-ज्यों रात बढ़ने लगी, धीरे-धीरे लोग सरकने लगे, लेकिन किसी ने मुझसे पानी-दाने की बात तो दूर, ठहरने तक को न पूछा।

अन्ततः जब सभी वहाँ से उठ गये तो एक नारी, जो जवान थी और आग के किनारे बैठी थी, पूछ ही लिया। भाषा उसकी ग्रामीण थी। मैं अपने शब्दों में उसका भावार्थ दे रहा हूँ। उसने कहा- ‘जाना कहाँ है और कहाँ से आ रहे हैं।’ मैंने कुछ उत्तर न दिया। क्या बताऊँ, जब कोई ठिकाना हो तब तो। चुप ही रहा। थोड़ी देर के बाद पुनः उस महिला ने (महिला इसलिए लिख रहा हूँ कि वह मुझे मानुष जान पड़ी।) ने परिचय पूछा। मैंने कहा- ‘दूर जाना है। रास्ता भूल गया हूँ। पास का सारा सामान चोरी चला गया।’ उसने एक आह भरी, और उन झूठे चोरों को गालियाँ सुनाने लगी। मैंने कहा- ‘चुप रहो ! अब होता ही क्या है।’ क्योंकि मेरे पास था ही क्या जो चोर भाई ले जाते। यह तो एक बहाना ही था।

पुनः उसने कहा- ‘रात को कहाँ रहोगे बाबू।’ मैं फिर चुप रहा।

उसने कहा- ‘रातभर में जाड़े में ठिठुर जावोगे, हमारे मड़ई में चले चलो।’

मैंने उसके इस प्रस्ताव को चुपचाप स्वीकार कर लिया क्योंकि हमें भी रात में रहने के लिए सुरक्षित स्थान की आवश्यकता थी। वह हो चाहे जैसा। वह उठ पड़ी और हम भी तत्क्षण जाड़े की उस रात्रि में, जब कि 11 बजने को होंगे, चल पड़ा और उसके साथ द्वार पर पहुँच गया।

उसने अपने घर की टटिया हटा दी और अन्दर चली गई।

मैं घर के सामने खड़ा था, एक विनम्र अपराधी की भाँति।

थोड़ी देर में उसके घर में एक छोटा सा दीया टिमटिमा उठा और वह उसे लेकर बाहर दीवार पर रख दी। उसके द्वार पर भी एक छोटा सा कउड़ा था जो राख से ढका हुआ था। उसने राख हटा दी और थोड़ी सी आग चमक उठी। चिनगारी उड़ी। हम और वह दोनो फिर आग के पास बैठ गये। मुझे आज भी ठीक याद है, उसकी बेबसी। वह मुझसे कुछ भी न पूछ सकी खाने-पीने की बात और न हम ही अपनी राक्षसी भूख को जता सके। यद्यपि भूखे थे ही, क्या कहते क्योंकि उसके सामने हम पढ़े-लिखे कहे जा सकते थे, कुछ कह न सके।

थोड़ी देर के बाद उसका भी दीपक टिमटिमाने लगा।

मैंने कहा- ‘दीया बुझ रहा है, तुम जाकर सो जाओ। रात काफी बीत चुकी है, और घर के लोग भी दीपक जलने से जग जाएँगे। मैं तो यहीं बैठे-बैठे रात गुजार दूँगा।’

वह चुप थी। मैंने उसे सोने के लिए कहा।

उसने कहा- ‘बाबू जी आप भी अन्दर चलें। जाड़ा अधिक है, रात भर में गल जाओगे।’

मैं चुप था और उसकी सज्जनता पर सोच रहा था, कि इसके परिवार के लोग क्या सोचते होंगे। रात अब अपनी पूरी जवानी पर है। बारह बज रहे हैं और यह स्त्री। दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में हमने उसे देखा था, साँवला बदन, भरा-पूरा चेहरा, गठी हुई बाहें, उभरे हुए यौवन तथा बड़े स्थूलकाय नितम्ब, जैसे अप्सरा का रूप हो, लेकिन हाथ में चूड़ियाँ न थीं। मैंने सोचा- ‘अरे मैं कहाँ फँस गया हूँ। यह तो कोई हिन्दू विधवा है और तिस पर भी अकेली और मजदूरी पर जीवन चलाने वाली।’

यह सब बिना कहे मैं सोच रहा था। तब तक उसने फिर कहा- ‘अब आप अन्दर चलें और हम टटिया बन्द करें। रात अधिक होती जा रही है, और ठंढक ज्यादा।’

मैंने कहा- ‘हमें कहीं बाहर जगह दे दो।’

उसने कहा- ‘बाबू जी, यही एक घर है जहाँ मैं रहती हूँ और कोई नहीं। मर्द कई बरस हुआ, नाव लेकर कलकत्ते चला गया। अभी तक पता नहीं चला। गाँव में जब किसी के यहाँ मजदूरी करने को जाती हूँ तो लोग कहते हैं- ‘जब उसका पता नहीं तो दूसरा घर कर ले।’

मैं चुप रह जाती हूँ। उनकी उमर बाबू आप की ही होगी। तीन बरस से अधिक हो गये। एक साल हुआ, अम्मा (सास) भी मर गयी। डेढ़ बीघा खेत है, लेकिन बाबू भीतर चलि आओ, फिर बात सुन लेना।’

मैं भीतर चला गया। जाड़ा अधिक था, शीतलहरी बह रही थी। दीप भी अब बुझ गया था। उसने टटिया बन्द कर दिया। हमने अन्दाजा लगाया, घर के एक कोने में जमीन पर कुछ पुआल बिछे थे, जो शायद कोदो के ही थे और उस पर एक कथरी, जो मैली तथा फटी भी थी, बिछी थी। ओढ़ने को उसके पास कुछ न था। रात में अपनी मारकीन आम छाप की धोती दोहर कर ओढ़कर वह नंगी ही सो जाती थी। सर के नीचे तकिया नहीं। ताल के किनारे के मिट्टी के लोंदे ऊँचे करके रखे थी।

‘बाबू सो जाइए और जब जाड़ा लगे तो और किनारे सट कर धोती का एक छोर पकड़ाते हुए बोली- ‘ओढ़ लीजिएगा। रात को जाड़ा नहीं लगेगा। हमका अकेले जाड़ा नहीं लगता। आज तो कई बरस पर दो जने हैं।’ थोड़ी ही देर के बाद वह सो गई।

मैं जागता रहा, सोचता रहा, मानवता की बात। ग्रामजीवन, शुद्ध-संस्कृति, परिमार्जित बिखरा हुआ।

सोचता था कहीं इस नारी से बदन न छू जाय। इसके धर्म का हनन न हो जाए। कुछ देर तक यह विचार मन में चलता रहा और ध्यान में आया क्यों न एक रात और बैठ कर ही बिता दी जाए और उठकर उस अंधेरे में ही धीरे से दीवाल के सहारे बैठ गया। भविष्य की चिन्ताओं, अपने और अधिक इस सरल नारी पर। जिसका पति परदेश में चला गया और उसका भी पत्र नहीं मिला फिर भी किसी आशा में यह काम की देवी जीवित है, धैर्य है। इसे क्या समझाऊँ और क्या बताऊँ। हमारे पास क्या है। क्योंकि हमें तो बड़े प्रातः ही अंधेरे में यह गाँव छोड़ देना है।

इसी सोच विचार में था कि उसकी नींद खुल गयी और उसने अन्दाजा लगाया कि शायद मैं इस नीरव रात्रि में ही चला गया। हड़बड़ाकर उठ बैठी और इधर-उधर हाथ से टकटोरने लगी। तब तक हाथों ने हमारे पैर छू लिये। उसने कहा- ‘बाबू तुम बैठे हो क्या ? जाड़े की रात है, बिना खाये-बिना पिये, सोते भी नहीं। मैं क्या करूँ।’

मैंने कहा- ‘तुम सो जाओ, मैं रात-रात भर जागता हूँ और कुछ लिखा-पढ़ा करता हूँ, मेरी तो आदत है रातों रात जागने की। दिन को सो लेता हूँ।’

उसने कहा- ‘रात ज्यादे है बाबू, आपका सामान भी चोरी चला गया। हम गरीब हैं, हमारे पास ओढ़ना-बिछौना नहीं, लेकिन दिल है, आप बेखटके सो जाओ। सुबह हमको कोई कुछ कहेगा हम सुन लेंगी।’

और फिर मैं उसकी बात टाल न सका और पुनः सोने के लिए लेट गया। उसने फिर कहा- ‘जाड़ा लगे तो यह ओढ़ना है’ - वही धोती का छोर पकड़ाते हुए ‘ओढ़ लेना, जाड़ा नहीं लगेगा।’

मैंने केवल ‘अच्छा’ कहा। अब की बार वह सो न सकी और मेरे सोने की प्रतीक्षा करने लगी। थोड़ी देर में जब उसे हमारे पुनः जागने की बात मालूम हुई तो उसका अपनापन जाग उठा और मुझको उसने अपने बाँहों में कस लिया। आधी धोती उसके कमर में बँधा था, आधी हमको ओढ़ा दिया और सट कर सो रही, यह कहते हुए- ‘बाबू ! यह बड़ा पुन्य का काम है।’ मैं कुछ न कह सका और न सोच ही सका।

आज भी सोचता हूँ उस मछलीखाने वाली युवती के बदन में कितनी गर्मी थी कि पाँच या सात मिनट के बाद ही मैं सो गया और मुझे दीन व दुनिया का ध्यान ही न रहा।

गजरदम अंधेरे में ही हम सोये से जगाये गये।

उसने कहा- ‘परदेसी जहाँ जाना है, जाओ लेकिन हमें न भूलना। कई वर्षों पर आज रात को मैं भी सो सकी हूँ।’

मैंने कहा- ‘इस गाँव में कौन कौन जाति के लोग बसते हैं?’ 

उसने कहा- ‘पूरा गाँव मल्लाहों का है। बड़े बदमाश होते हैं। किसी की इज्जत-हुरमत नहीं समझते ये कलमुँहे। हमारा वश नहीं है नहीं तो हम बाबूजी तुम्हारे साथ चलते लेकिन हम मüाह हैं; केवट। तुम बड़े लोग हो।’

मैं अंधेरे में ही चल पड़ा।


5 -

लाल कुरता 


[ जन्म :1 जनवरी , 1921 - निधन : 19 जून , 2017]

हरिशंकर श्रीवास्तव 

हरि शंकर श्रीवास्तव का जन्म 1 जनवरी 1921 को हुआ था. वे एक सुविख्यात भारतीय इतिहासकार थे। उन्होंने इविंग क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद (1937-39) और इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1939-43) में शिक्षा प्राप्त की। वह रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के फेलो और इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज, कलकत्ता के फेलो थे । वे राजनीति विज्ञान विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर (1958–62) के पहले अध्यक्ष थे। वे लगातार 21 वर्षों (1963-1984) तक दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के भी प्रोफेसर एवं अध्यक्ष रहे । उन्हें मुगल संस्कृति पर उनके काम के लिए जाना जाता है और उनकी पुस्तकों को इस विषय के लिए विभिन्न राज्य विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। वह उत्तर प्रदेश राज्य और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) में महत्वपूर्ण शैक्षणिक निकायों के सदस्य भी थे। उन्होंने भारत में विभिन्न ऐतिहासिक पत्रिकाओं के संपादक के रूप में भी काम किया। उन्होंने अपने युवा समय की सबसे अधिक बिकने वाली पत्रिकाओं में लघु कथाएँ और कविताएँ भी प्रकाशित कीं। उन्हें गोरखपुर स्टेशन से रेडियो और टेलीविजन पर चर्चा और कई व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था। उन्होंने हिंदू धर्म के विश्वकोश में योगदान दिया। उन्होंने तीन महीने के लिए फ्रांसीसी सरकार के अतिथि के रूप में भारत सरकार के सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम में 1975-76 में फ्रांस का दौरा किया। उन्होंने पेरिस विश्वविद्यालय, फ्रांस में व्याख्यान दिया और लंदन, ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और रोम का दौरा किया। उन्होंने अपने निर्देशन में चौरी चौरा विद्रोह पर महत्वपूर्ण शोध कार्य कराया था। प्रो श्रीवास्तव ने इतिहास की तीन पुस्तकें -मुग़ल शासन प्रणाली , मुग़ल सम्राट हुमायूँ और जापान का संविधान लिखी। कई विश्वविद्यालयों में उनकी किताब पाठ्य पुस्तक थी। उनकी हिंदी साहित्य में गहरी अभिरुचि थी। उनकी कहानियां तमाम प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपी। उनके दो कहानी संग्रह -लाल कुरता और स्नेहदान प्रकशित हुए। उनका एक कविता संग्रह ‘गीतिमा’ भी प्रकाशित हुआ। गोरखपुर में 19 जून 2017 को उनका निधन हुआ।

झगरू के घर में पाँव रखते ही उसका सात साल का लड़का मंगल उस के सामने आ कर खड़ा हो गया। पाँव पकड़कर अपने पिता के पैरों से झूलता हुआ बोल उठा, “काका”

क्‍या है बेटा?

सिर पर हाथ फेरते हुए झगरू ने कहा।

“काका मेरे लिये एक लाल कुरता बनवा दो। वैसा ही जैसा बड़े घर के लल्ला ने पहना था।!

“बनवाया तो है बेटा। सफेद सुन्दर कुरता ।

“नहीं, नहीं काका, मुझे ऐसा कुरता नहीं चाहिए। मुझे तो वैसा ही लाल कुरता चाहिए। वह चमकता है। उस पर सफ़ेद-सफ़ेद धारियाँ है। मैं तो वैसा ही कुरता लूँगा दूसरा नहीं ।

झगरू ने एक बार अपने पुत्र की ओर देखा, और उसकी उत्सुक मुद्रा जिसमें एक लालसा थी, आकांक्षा थी, और एक अटल विश्वास था कि उसकी इच्छा पूरी होगी।

उसने स्नेह से अपने पुत्र को अपनी गोद में उठा लिया। बोला-“अच्छा बेटा बनवा दूँगा। इस होली में इसी को पहनो। अगली होली में तुम्हारे लिये ऐसा ही कुरता बनवा दूँगा।

माँ-बाप का दुलारा लड़का मंगल मचल उठा। बोला “नहीं-नहीं काका। मैं तो वैसा ही लूँगा। वैसा ही लाना। वैसा ही चमकता और इसी होली में पहनूँगा ।”

अपने पुत्र को अपनी गोद में लिये झगरू अपने छोटे से घर के आँगन में खड़ा हो गया। उसकी स्त्री बैठी रोटी पका रही थी।

“बेटे से क्‍या बातें हो रही है” पत्नी ने पूछा। झगरू हँसा। बोला , “सुना नहीं मंगल कुरते के लिये जिद कर रहा है।'

“तो बनवा क्‍यों नहीं देते। एक ही तो लड़का है और होली क्‍या बार-बार आती है। बरस-बरस का त्यौहार है।' पत्नी ने धीरे से कहा।

झगरू ने एकटक मंगल की माँ की तरफ़ देखा मानो कह रहा हो-“क्या तुम नहीं जानती? कितनी कठिनता से हम एक कुरता बनवा सके हैं। इस महँगी में पेट ही चल जाय क्‍या यही कम है?

स्त्री ने बात समझी। चुप होकर रोटी तावे पर फुलाने लगी। झगरू कहता जा रहा था-'देखो बेटा परसों ही तो होली है, फिर इतनी जल्दी बनेगा भी नहीं। यही कुरता लाल में रँगवा देंगे। हाँ अगली होली में तुम्हें चमकता लाल कुरता ज़रूर बनवा देंगे। एक नहीं दो-दो |

इतना कह कर उसने अपने बेटे के हाथ पर एक अधन्नी रख दिया और बोला- 'देखो, इसकी मिठाई खा लेना |

लड़के ने एक बार पैसे की ओर देखा फिर पिता के मुँह की ओर। क्षण भर पहले उसे कुरता का ध्यान था। लाल, सुन्दर, बड़े घर के लल्ला के जैसा। पर अधन्नी देखते ही उसे दूसरा ध्यान आया। उसे लाल नहीं पीली और सफ़ेद मिठाइयाँ दिखलायी दीं। गँवई-गाँव में शहर की सी मिठाइयाँ तो मिलती नहीं, और चाय, बिस्कुट का तो कोई नाम भी नहीं जानता। मिठाइयों के नाम पर दो चीज़ें मिलती हैं-बताशा और पीला लड्डू। एक पीला, दूसरा सफ़ेद। मंगल की आँखों में वे ही चमक उठे।

धीरे से अपने काका की गोद से उतर कर वह बाहर भाग खड़ा हुआ और झगरू मौन स्तब्ध बैठकर आकाश की ओर देखने लगा। कितना परवश जीवन, दिन भर मेहनत करने पर भी दो जून की रोटी कठिनता से मिलती है।

बचपन की एक विशेषता हैं किसी चीज़ के लिये किसी बच्चे से प्रतिज्ञा कर दीजिये। जब तक वह पूरी नहीं हो जायेगी, तब तक आपको याद दिलाता रहेगा। दिन में एक बार निश्चत ही वह आपसे प्रश्न करेगा-“मेरी चीज़ लाइये ।” मंगल बच्चा है संसार उसने देखा नहीं, कपड़े भी बहुत नहीं हैं। पर जितने कपड़े उसने देखे है, उसमें लाल धारीदार कुरता उसे सबसे पसन्द है।

पिता ने बनवाया नहीं। उसे इसका दुःख है। माँ से भी उसने कई बार कहा है।

माँ ने कहा-'पिता से कहो बेटा। और पिता ने कहा होली में ज़रुर बनवा दूँगा।

कभी-कभी मंगल पिता के गले में झूलकर पूछता है-“काका! कुरता कब बनवाओगे?'

' होली में बेटा ।'

'होली कब है।'

“बस अब क्‍या देर है। केवल आठ महीने और है।'

' ज़रूर बनवा दोगे न काका।'

'हाँ, हाँ बेटा, ज़रूर बनवा देंगे।'

'काका तुम बहुत अच्छे हो ।'

मंगल बोल उठता। झगरू कुछ न कह एकटक पुत्र की ओर देखता रह जाता।

1948 का साल बीतने को आ गया था। दूसरा विश्वयुद्ध भयंकर होता जा रहा था। कपड़े के मिल सेना के लिये कपड़े बनाते थे, जनता के लिये महीने में एक दो बार कपड़े मिलते। राशन कार्ड पर सीमित कपड़े मिलते। अन्न और वस्त्र का कष्ट बढ़ता ही जा रहा था। बड़ी-बड़ी दुकानें जो पहले कपड़े से भरी पड़ी रहती, अब सुनसान नज़र आतीं। दुकानदार चुपचाप हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते। अखबारों में निकलता कि अमुक शहर में फल स्त्री ने कपड़े के अभाव में अपनी लज्जा का निवारण न कर सकने के कारण आत्महत्या कर ली। गँवई गाँव में कोई अखबार नहीं पढ़ता पर कभी-कभी तो लोग शहर जाते, वे ही खबर लाते। हज़ारों मनुष्यों के मुँहों और कानों से गुजर कर ये खबरें काफ़ी अद्भुत और डरावनी हो उठतीं।

जाड़े के दिन थे, माध का महीना। संध्या का समय बड़े बाबू के दरवाज़े पर अलाव के पास लोग बैठे थे। अलाव के पास बैठकर झगरू ने पूछा-'क्यों बड़े बाबू सुना है कपड़े इस साल और भी कम मिलेंगे?”

बड़े बाबू इस गाँव के जमींदार के पुत्र है। शहर में नौकरी करते हैं, पढ़े-लिखे बहुत नहीं है। पर उनके सफ़ेद कलफदार कपड़े देखकर लोग उन्हेंअफसर ही समझते है। अभी-अभी बड़े बाबू शहर से लौटे हैं। पैरों में पम्प शू, पाजामेनुमा धोती, मलमल का कुरता, उसके ऊपर लाल फूलदार ऊनी स्वेटर, उनके शरीर पर शोभा दे रहा था।

अरे कपड़े की हालत पूछते हो? बंगाल में लोग कपड़े बिना नंगे घूम रहे हैं। मैंने तो इसे अपनी आँखों से देखा है। वही आफत यहाँ भी आने वाली है। अभी तो यहाँ पर चारगुने, पाँच गुने दामों में मिल भी जाते हैं, पर अब वह भी नहीं मिलेगा। यह धोती जो मैं पहने हूँ, दाम तो इस पर एक रुपया छपा था, हमने इसे खरीदा है चार रुपये में। अंधेर है भाई अंधेर। इन बजाजों ने अंधेर कर रखा है ।

(तो क्या सचमुच कपड़ा नहीं मिलेगा?” एक किसान की आवाज़ गूँज उठी।

“और नहीं तो क्या। अभी शहर में दुकानें खाली नज़र आ रही हैं। सरकार इन सबों को कोटा देगी, तब कपड़ा मिलेगा |!

“कोटा क्‍या है?” गाँव में से एक ने पूछा। बड़े बाबू ने समझाया।

सरकार दुकानदारों को थोड़े कपड़े देती है, और उन्हें बेचने के लिये नियम बने हैं, एक आदमी को इतना ही कपड़ा दो। लाइन लगाना पड़ता है। कभी-कभी दिनभर खड़ा रहने पर भी कपड़ा नहीं मिलता। बजाज कहते हैं सब समाप्त हो गया। अब अगले महीने मिलेगा।

देहाती समाज व्यक्ति हो उठा। गाँव के लोग इधर-उधर की बातें करते रहे। इस गाँव में कपड़े की समस्या कभी इस रूप में नहीं आयी थी। उनकी कपड़े की आवश्यकतायें कम, बहुत ही कम है, इस कारण उन्होंने कभी उसकी चिन्ता नहीं की। साल भर इन्हें नये कपड़े की आवश्यकता नहीं रहती। पर हाँ होली के करीब जब गेहूँ की फसल तैयार हो जाती है और गन्ने से रुपया मिल जाता, तभी उन्हें कपड़े खरीदने का अवसर मिलता।

कया अब वह भी नहीं मिलेगा? फिर क्‍या होगा? स्त्रियों को भी क्या नंगे रहना पड़ेगा? इन सब भीषण कल्पनाओं से देहाती समाज काँप उठा। पास ही स्वभाव से शान्त झगरू की आँख वेदना से म्लान हो उठी। उसकी छाती पर हज़ारों बिच्छुओं के डंक मारने के समान पीड़ा होने लगी। उसने आसमान की ओर देखा और हाथ जोड़कर बोल उठा, “भगवान क्या मेरे पुत्र की इच्छा पूरी न हो सकेगी।”

ओ झगरू! झगरू भाई!

“क्या है, कह कर झगरू बाहर निकला।”

एक पहर रात बीत चुकी थी। झगरू घर में बैठा खाना खा रहा था।

अरे सुनते” हो, कल पहली है। सुना है कल शहर से कोटा खुलेगा। कपड़ा लाने शहर में चलेंगे। कई लोग जा रहे हैं। पड़ोसी छाँगुन ने कहा।

“कब चलोगे?”

दो घड़ी रात रहते-रहते चलेंगे। जिसमें सुबह होते-होते दो चार कोस तय कर सकें।'

“चलूँगा भाई जगा लेना ।

“अच्छा” कहकर छाँगुर चला गया। झगरू ने घर में जाकर रुपया निकाला। पाँच चाँदी के रुपये सबके सब कई तह में लपेटे हुए। सतृष्ण नेत्रों से उसने उनकी तरफ़ देखा। उसने कितनी कठिनता से इन्हें जमा किया था। वह भी सालभर में। और उसमें चार रुपये उसने परसों ही अनाज बेचकर रखा है। वह अनाज जो कुछ महीने बाद उसे स्वयं अपने खाने के लिये चाहिए, जिसके बिना शायद उसे भूखा रहना पड़े। पर एक चाह एक इच्छा के लिये वह सब कुछ करेगा। अपने बेटे, लाडले मंगल के कुरते के लिये। होली के दिन नया-नया पहनना शुभ है। इससे देवता प्रसन्‍न होंगे और वह साल भर सुखी रहेगा।

प्रातः होते-होते झगरू, खेलावन, रामा, सुदामा, छाँगुर आदि तीन कोस चले आये थे। शहर यहाँ से दूर था-नौ कोस।

शहर पहुँचते-पहुँचते दो बज गये। दिन ढल चुका था। फिर भी शहर में इतनी भीड़ थी कि सड़क पर चलना भी कठिन था। झगरू एक टक हर एक आदमी को देखता रहा। सबके चेहरों पर एक वेदना थी। सबके हृदय में एक ही चाह थी, एक ही इच्छा थी, दो-चार गज कपड़ा मिल जाये। झगरू ने सुना कुछ लोग बातें कर रहे थे। “इतनी दूर से आये। दस कोस पैदल चलकर भी कोई लाभ नहीं हुआ। कोटा खुला और समाप्त हो गया। भाग्य है भाई भाग्य।

कोई बोला-“अरे भाई कपड़ा तो सब इन बजाजों ने छिपा लिया है। कहीं इतनी जल्दी कपड़े खत्म हो सकते हैं। तीसरे ने कहा, “अरे भाई। कपड़ा मिला भी कितना था। तीन-चार थान। वे बेचारे करें क्या? इन्हें तो बेचना ही है।” दूसरे ने प्रतिवाद करते हुए कहा-“आप नहीं समझते। वे ही कपड़े ये तिगुने -चौगुने दामों पर बेचकर रुपया बनायेंगे।

झगरू को लगा जैसे उसका सर चक्कर खा जायेगा। आठ-दस कोस पैदल चलने का फल उसे मिलेगा-एक निराशा-परम निराशा। उसका साहस जाता रहा। फिर भी उसने पूछा-“क्यों भाई। क्‍यों कही भी कपड़ा नहीं मिलेगा? झगरू की वाणी में विवशता और वेदना थी। दो-चार आदमियों ने उसकी तरफ देखा। बात हँसी की भी थी और रोने की भी? आदमियों को इकट्ठा देख कर और आदमी इकट्ठा हो गये। सब एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे।

उनमें से एक ने कहा-“अब तो जितना था सब बिक गया। फिर पन्द्रह-बीस दिन में कपड़ा आवेगा।”

झगरू और उसके साथी दिन भर बाज़ार घूमते रहे। फिर भी कपड़े का नामोनिशान नहीं मिला। दूसरे दिन झगरू अपने गाँव पहुँचा। कुछ पैदल चलने की थकान थी ही, फिर निराशा ने उसके मन को चूर-चूर कर दिया था। दरवाजे पर आते ही मंगल सामने खड़ा हो गया। उसे देखते ही झगरू की आँखों से आँसू आते-जाते रुके। आह। बेचारे बच्चे की इच्छा पूरी न हो सकेगी, इसकी कोई भी आशा नहीं।

“काका ।”

झगरू ने मंगल को उठा कर गोद में ले लिया। अँगोछे से शहर की मिठाई निकालकर उसने उसके हाथ पर रख दी। मंगल उसको देखकर फूला नहीं समाया। मिठाई मुँह में डालकर खाने लगा। क्षण भर को वह भूल गया कि उसे लाल कुरता चाहिए। झगरू एकटक उसे देखता रहा। भय, शंका और लज्जा से वह सोचने लगा कि अभी मंगल पूछेगा- “काका कपड़ा लाये?”

उस समय वह कैसे “नहीं” कहकर उसे निराश करेगा। उसका कलेजा उसकी परवशता से काँप उठा। उसे एक गज कपड़ा तक नहीं मिल सका। हाँ, एक गज कपड़ा। उसी समय मंगल बोल उठा-“काका कुरता लाए हो न?”

झगरू काँप उठा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसका कलेजा मुँह को आ जायेगा। बोला-“नहीं बेटा, कपड़ा तो मिला नहीं। ला देंगे बेटा। अभी होली के काफ़ी दिन शेष हैं। मंगल एकटक अपने पिता की तरफ अविश्वास और निराशा से देखता रहा। बोला-“नहीं काका। तुम लाए नहीं हो।” झगरू ने आँख में आँसू रोककर कहा। “नहीं बेटा! मिला नहीं दूसरी बार ला देंगे।

कितना समझाने पर वह नहीं माना। रोता हुआ अपनी माँ के पास चला गया। निराश झगरू पीड़ित दृष्टि से चुपचाप देखता रह गया। रात भर मंगल रोता रहा। बार-बार माँ का आँचल पकड़कर कहता-माँ, मुझे कुरता दो। नहीं तो मैं कहीं भाग जाऊँगा। कुछ भी नहीं खाऊँगा। माँ बार-बार समझाती-“बेटा यह हमारे वश की बात नहीं है ।” पर यह बात मंगल नहीं समझ पाता। उसकी आँखों में केवल आँसू गिरते रहते, और माँ! माँ! कह कर मचलता रहा। झगरू चुपचाप लेटा यह सब देख-सुन रहा था। वह सोचने लगा कि यह समय भी देखने को लिखा था। बेचारा इकलौता बेटा घुलघुल के मर जायेगा। केवल कुछ गज कपड़े के लिये, और वह कुछ भी नहीं कर सकेगा। प्राण देने पर भी कुछ नहीं कर सकेगा। झगरू की आँखें दुःख और वेदना के आँसुओं से भर उठी। उस रात उस परिवार का कोई प्राणी सो न सका।

कई हफ़्ते बीत गये, पर तबसे झगरू के मुँह पर हँसी नहीं आई। मंगल उस से अब उस स्नेह से नहीं मिलता, जो उसकी छाती को शीतल कर देती। जब मिलता भी तो बस वही एक बात, जो झगरू नहीं सुनना चाहता था और जो उसके कलेजे को झकझोर देती।

गाँव में फिर शोर हुआ, शहर में कोटा खुला है। गाँव के कई आदमियों के साथ झगरू भी सब कुछ सहता हुआ हृदय में आशा लिये शहर की ओर चल पड़ा।

इस बार की भीड़ देखकर झगरू का कलेजा दहल गया। मालूम होता था, मानो कोई बड़ा भारी मेला है। त्रिवेणी स्नान का पर्व। हज़ारों आदमी खाने पीने का सामान और हाथ में लाठी लिये शहर में चल पड़े थे। झगरू बार-बार उनके चेहरे की ओर देखता। सभी के चेहरों पर उसे अपना ही दुखित रूप दिखाई देता। पागलों की भाँति लोग इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई दुकान खुली नहीं कि लोग टूट पड़ते। कपड़े के दुकानदार अपनी दुकान बन्द किये अपने घरों में छिपे थे या इधर-उधर टहल रहे थे। चारों तरफ़ लाल सफ़ेद दिखलाई दे रहे थे। कहीं कोई चीज़ लुट न जाय। चारों तरफ़ हंगामा नज़र आ रहा था।

इसी समय झगरू ने सुना कि कोटा खुलेगा ही नहीं, और न खुलने की आशा है। वह एकटक बाज़ार की ओर देख रहा था।

सब दुकानें बन्द थी, मानों वहाँ के निवासी बहुत दिन पहले ही शहर छोड़ कर चले गये हों या हड़ताल हो गयी हो। वह मौन भाव से उन्हीं दुकानों को देख रहा था, जो कभी कपड़े से भरी रहती थी, और दुकानदार सड़क पर देखते ही राम, राम! कहकर ग्राहकों को बुलाते थे और कहते थे-आओ! आओ! देखते जाओ! मत खरीदना। और आज वहीं दुकानें बन्द थी और दुकानदार लापता।

संध्या समय पेड़ के नीचे झगरू अपने गाँव के साथियों के साथ निराश बैठा था। जीवन में कभी ऐसा भी समय आयेगा उसने कभी सोचा भी न था। उसकी आँखें आँसुओं से भर उठीं, अपने नन्‍हें बच्चे की याद आई। उसके आँसू याद आये। उस की आशा, उसकी चाह का स्मरण हो आया, और झगरू व्याकुल हो कर रो पड़ा।

खाना बन रहा था। कुछ लोग बैठे थे। झगरू को अचानक अपने रुपये की याद आयी। उसने जेब में हाथ डाला रुपये लापता थे। जेब कटी हुई। झगरू के होश उड़ गये।

सब कपड़े खोज डाले, पर कहीं नहीं पता चला। झगरू के आँखों में आँसू और भी तेज हो उठे।

पाँच रुपये एक गरीब किसान के लिये बहुत है। लगान कैसे दिया जायेगा? कपड़ा कहाँ से खरीदा जायेगा। झगरू फफक कर रो पड़ा।

गाँव के और लोगों ने भी अपने-अपने रुपये सँभाले। दो और के रुपये भी गायब थे। वे सभी रो पड़े।

आह! किस आशा, किस उम्मीद से वे लोग वहाँ आते हैं। जिसने ये रुपये लिये उसे यह भी ध्यान न रहा कि गरीब का खून चूस रहा है। क्षण भर में सारा का सारा वातावरण, दुखित और स्तब्ध हो उठा। खाना बना, पर कोई खा न सका।

बाद में कुत्ते ने आकर अपना पेट भरा।

झगरू अब दुखित हो गया। रुपये की चोरी का तो उसे दुःख था ही, साथ ही यह भी प्रश्न था कि साल कैसे कटेगा। बचा अनाज बेचकर उसने लगान दिया। घर खाली हो गया। दो महीने से अधिक का अनाज नहीं रह गया। और अनाज हुआ ही कितना था? इस साल फसल अच्छी थी इस कारण आशा थी कि, चार महीने मजे से कट जायेंगे। फिर मजदूरी और नई फसल के आने तक मजे से काम चल जाता पर वह भी आशा समाप्त हो गयी। चिन्ता औ दुःख में झगरू घुलने लगा। कपड़े लाने ही होंगे, घर में रुपया था नहीं। पर मंगल ही इच्छा थी, जो आज भी लाल कुरते के लिये रट लगाये हुए था। क्‍या होगा। और कोई रास्ता न देखकर झगरू ने स्त्री के गहने बेच कर पाँच रुपये जमा किये और भगवान का नाम लेकर नया कोटा खुलने की प्रतीक्षा करने लगा।

“सुनते हो?” पत्नी ने कहा।

“क्या है?” झगरू बोला।

'एक बार और कोशिश करते, तीन रोज बाद होली है। कम से कम मंगल के लिये लाल कुरता तो ले आते। झगरू कुछ नहीं बोला। वह जानता है, कपड़ा चाहिए पर मिलेगा नहीं। एक बार जाकर उसने पाँच रुपये खोये थे। अब क्‍या आशा है? पर अपनी पत्नी से कुछ भी नहीं कहा। एक लम्बी साँस ले कर चुप ही रहा।

“सुनते नहीं?”

“सुनता हूँ” एक करुणा भरी दृष्टि से देखकर झगरू बोला।

“जानते हो साल भर से मंगल जिह कर रहा है।” बेचारे की क्या इतनी इच्छा भी हम पूरी नहीं कर सकते?

“कल गाँव के लोग जायेंगे तो मैं भी जाऊँगा।” झगरू बड़बड़ाया। पर उसकी वाणी किसी भावी आशंका से काँप उठी।

हाँ परसों तक लौट आना, क्योंकि परसों होली जलेगी।”

झगरू कुछ न बोलकर लेटा रहा।

सुबह होने में काफ़ी देर थी। गाँव के लोगों के साथ झगरू दो घड़ी रात रहते ही चल पड़ा। अचानक उसकी आँखों में आँसू आ गये। उसने सतृष्ण नेत्रों से मंगल को और घर की तरफ देखा, उसे जाते हुए दुःख हो रहा था। उसे अपनी इस कातरता पर आश्चर्य हुआ। उसने फिर एक बार आँसू भरे नेत्रों से अपनी पत्नी की तरफ देखा, मानों वह अब कभी घर नहीं लौटेग, न मंगल को देख सकेगा न पत्नी को। वह बहुत धीरे-धीरे, डरते-डरते घर से बाहर निकला।

झगरू दोपहर होते शहर पहुँचा। अपार भीड़ थी, कपड़ा बैंट रहा था, लोग एक पर एक टूटे हुए थे। मानो लूट हो। झगरू भी भीड़ में मिल गया पर आगे न बढ़ सका। इसी समय हो हल्ला मचा, धक्के पे धक्का शुरू हो गया। वह दस-बारह गज पीछे गिर पड़ा। वह काफी थक गया था। वह दूर जा कर बैठ गया कुछ क्षणों तक वह बैठा रहा। देखता रहा लोगों की भीड़।

अपार तृष्णा थी सबकी आँखों में। 

कुछ लोग कपड़ा लिये जा रहे थे। उसने देखा-अपनी आँखें खोल कर देखा। पुलिस के सिपाही अपने साथियों को कपड़ा दिला रहे थे। कुछ से घूस ले कर कपड़ा दिला देते, और बाकी सभी को मार कर भगा देते थे।

झगरू का मन घृणा से भर उठा। आह! यहाँ भी वही घूस और निरंकुशता का नंगा नाच। साहस कर वह उठा। उसकी आँखों में नशा था और शरीर में बल।

“इस बार मैं कपड़ा लाऊँगा ही।” वह बड़बड़ाया “मैं किससे कमज़ोर हूँ आखिर यह भी तो मिट्टी के पुतले ही हैं। कोई लोहे के नहीं ।” बड़े जोर से दुर्गा माँ का नाम लेकर झगरू भीड़ में घुस गया और क्षण भर में उसी ठेलम ठेल और रेलम रेल में मिल गया। क्षण भर में लोग दुकान पर टूट पड़े। दुकानदार की चौकी टूटकर चूर हो गयी। मालूम हुआ दुकान लुट जायेगी। एक दुकान पीछे के रास्ते से बाहर आया और क्षण भर में आठ दस कांस्टेबुलों के साथ जा पहुँचा।

“भागो, भागों ।” वे चिल्लाये। पर भीड़ बढ़ती ही गयी। “भागो, नहीं तो हम डण्डे चलायेंगे।” एक कांस्टेबुल जोर से चिल्लाया।

“हम कपड़ा लेगें। भीड़ में से एक ने कहा। “हम बिना कपड़ा लिये नहीं हटेंगे।” दूसरे की आवाज गूँज उठी।

“हम नहीं हटेंगे, नहीं हटेंगे” कई एक साथ चिल्ला उठे। और क्षण ही भर में तरह-तरह की आवाज़ें आने लगी।

भीड़ बेचैन हो उठी। कुछ देर सिपाही शान्त रहे फिर उनके हाथ डण्डों पर गये। डण्डे उनके हाथों में नाच उठे और धड़-धड़, तड़-तड़ की आवाज़ से डण्डे निरपराध व्यक्तियों के सिरों पर बरसने लगे। लोगों ने हलचल मच गयी। “बाप” “दादा”, “मरा-मरा”, “बचाओ” की गगन भेदी आवाज़ें गूँज उठी। एक डण्डा झगरू के सिर पर पड़ा। सिर फट गया और लाल खून से उसका मुँह नहा उठा।

“अरे बाप, मरा।” झगरू चिल्ला उठा। पर उसकी आवाज़ उस भीड़ में किसी ने नहीं सुनी। क्षण ही भर में दूसरा करारा डण्डा पड़ा।

“आह!” कह कर वह कराह उठा। और फिर डण्डों की बौछार से वह बेहोश हो वहीं भीड़ के बीच में गिर पड़ा। लोग भाग रहे थे। सबको अपनी-अपनी जान के लाले पड़े थे। झगरू के मरने की फिक्र किसी को न थी। लोगों के पाँव बढ़े और खट-पट, पट-पट, चर-चर, मर-मर की आवाज़ के साथ-साथ लोग झगरू के पाँव, सिर, पेट पर दौड़ने लगे।

“आह मेरा मंगल! कपड़ा। बचाओ!” झगरू चिल्लाया। पर उस समय न किसी ने उसकी आवाज़ सुनी न किसी ने उसकी परवाह की। लोग उसे रौंदते हुए भागते रहे थे। कुछ देर में भीड़ साफ हो गयी। जहाँ क्षण भर पहले सुई का स्थान न था, वहाँ अब कोई न था। चारों तरफ शमशान का सन्नाटा छाया हुआ था। केवल कुछ आदमी खून से लथपथ जमीन पर पड़े कराह रहे थे। उनमें से एक झगरू भी था।

पैरों, जूतों और डण्डों की मार से झगरू के शरीर में मांस के लोथड़े तक निकल आये थे। मुँह के खून की लाल धारा बह रही थी। आँखें धँसी, नाक कटी, बाल बिखरे, जगह-जगह खून के धब्बे से, उसका चेहरा अत्यन्त वीभत्स हो रहा था। कुछ देर बाद पुलिस पहुँची। मानो शिकारी अपने मरे शिकार को देखकर फूला न समाता हो। डाक्टर बुलाया गया। कुछ देर बाद डाक्टर आया। आला लगाकर देखा। इधर-उधर घुमाया फिर कान से आला निकाल एक ठण्डी साँस लेकर बोला-“मर गया” बैठकर रिपोर्ट लिखी और चलता बना।

“माँ आज होली जलेगी न?” मंगल ने पूछा “हाँ बेटा”।

“हमारे लिये एक लुकार बनवा दो।”

“अच्छा बनवा दूँगी।”

“काका कहाँ गये हैं माँ?”

“बाहर गये हैं तुम्हारे लिये कपड़ा लाने।”

“सच माँ?”

“हाँ बेटा ।”

मंगल बहुत खुश हुआ। उसके लिये एक बड़ी लुकार बनी। वह सोचता रहा कि काका की गोदी में चढ़कर होली जलाने जायेगा। फिर लुकार लेकर दौड़ेगा, घूमेगा। होली के दिन अपने दादा का लाया हुआ लाल कुरता पहन कर पहले बड़े घर के लाला के यहाँ जायेगा।

भावी कल्पना से वह मुस्करा उठा। दोपहर हो गयी थी। इसी समय गाँव के लोग पहुँचे। साथ में झगरू की लाश थी। घबड़ाई हुई मंगल की माँ बाहर आयी। उसने देखा कपड़े में लिपटे अपने पति के वीभत्स रूप और उसके चारों तरफ दुखित ग्रामवासियों को।

“क्या हुआ?” वह जल्दी से पूछ उठी। सब कुछ जानकर एक क्षण में चेहरा सफेद हो गया। उसे सहसा विश्वास न हुआ। उसने देखा अपने पति का रूप, जिसके साथ उसने बीस वर्ष बिताये थे। जिसका सजीला रूप देख उसकी छाती फूलती रही। उसी पति का वह वीभत्स रूप। सिर फटा, नाक कटी, आँखें धैंसी चेहरा घावों से भरा, खून से लथपथ। उसका सिर घूमने लगा और वह बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी।

सन्ध्या को एक साथ गाँव में होलिका जलीं। और उसी के साथ मंगल ने झगरू की चिता में आग लगायी।

“काका अभी तक क्‍यों सोये हैं?” मंगल ने पूछा।

“इसी पर चढ़ कर भगवान के यहाँ जायेंगे।” एक ने कहा।

“भगवान कहाँ है?”

“ऊपर है बेटा।” दूसरे ने कहा।

“भगवान के पास क्‍यों जायेंगे?”

“तुम्हारे लिए लाल कुरता लायेंगे। ” तीसरे ने कहा।

“सच?”

“हाँ। ” गाँव के महतो ने आँखों में आँसू रोक कर कहा। मंगल प्रसन्‍न हो उठा। कुशा से अपने पिता के शव में आग लगा कर प्रसन्‍नता से वह नाचता रहा। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों होलिका जल रही है और वह लुकार से खेल रहा है। उसके मुँह पर हँसी थी, बदन में स्फूर्ति और चेहरे पर प्रसन्‍नता। गाँव के लोगों ने यह सब देखा। सबकी छाती दहल उठी। जीवन का इतना वीभत्स रूप किसी ने नहीं देखा था। सब की आँखें भर उठीं, पर मंगल हाथ में आग को लेकर नाचता रहा। मानों श्मशान में भूत नाच रहा हो।



6 -

सीमा


[ जन्म: 15 अगस्त, 1924 ]

रामदरश मिश्र 

99 बरस के हो चले रामदरश मिश्र का जन्म 15 अगस्त, 1924 को जिला गोरखपुर, उत्तर प्रदेश के डुमरी गांव में । रामदरश मिश्र का जन्म 15 अगस्त, 1924 को जिला गोरखपुर, उत्तर प्रदेश के डुमरी गाँव में हुआ। एम.ए., पी-एच.डी. की डिग्री हासिल की। लंबे समय तक अध्यापन से जुड़े रहे और दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्त। 'पथ के गीत', 'बैरंग बेनाम चिट्ठियाँ', 'पक गई है धूप', 'कंधे पर सूरज', 'दिन एक नदी बन गया', 'जुलूस कहाँ जा रहा है', 'आग कुछ नहीं बोलती', 'बारिश में भीगते बच्चे', 'आम के पत्ते', 'कभी कभी इन दिनों', 'मैं तो यहाँ हूँ', 'रात सपने में', 'मैं तो यहाँ हूँ', 'समवेत' सहित दो दर्जन काव्य कृतियाँ; , 'बाज़ार को निकले हैं लोग', 'हँसी ओठ पर आँखें नम हैं' सहित कई ग़ज़ल-संग्रह; 'पानी के प्राचीर', 'जल टूटता हुआ', 'सूखता हुआ तालाब', 'रात का सफर', 'अपने लोग', 'आकाश की छत', 'आदिम राग', 'बिना दरवाजे का मकान', 'दूसरा घर' सहित डेढ़ दर्जन उपन्यास; 'खाली घर', 'एक वह', 'बसंत का एक दिन', 'आज का दिन भी', 'एक कहानी लगातार', 'फिर कब आएँगे?', 'अकेला मकान', 'विदूषक', 'आखिरी चिट्ठी' सहित दो दर्जन कहानी-संग्रह; 'कितने बजे हैं', 'बबूल और कैक्टस', 'घर-परिवेश', 'नया चौराहा', 'लौट आया हूँ मेरे देश' (निबन्ध चयन); 'तना हुआ इंद्रधनुष', 'भोर का सपना', 'पड़ोस की खुशबू', 'घर से घर तक' (यात्रा-वृत्तांत); 'स्मृतियों के छंद', 'सर्जना ही बड़ा सत्य है' सहित कई संस्मरणात्मक कृतियाँ; सहचर है समय (आत्मकथा); 'आस-पास', 'बाहर-भीतर', 'विश्वास जिन्दा है', 'अपना कमरा' (डायरी); चौदह खंडों में रचनावली का प्रकाशन, आलोचना की ग्यारह पुस्तकें। कई चयन-संचयन । 'भारत भारती', 'साहित्य अकादेमी', 'दयावती मोदी कवि शेखर पुरस्कार', 'शलाका सम्मान', 'व्यास सम्मान', 'सरस्वती सम्मान' सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित।
संपर्क : आर 38, वाणी विहार, उत्तम नगर, नई दिल्ली-११००५९ मोबाइल : 7303105299 , 7290806291

चील एकाएक टिहा उठी और उदास सूखे ताल-सी टंगी हुई क्वार कीदोपहरी में छोटी-छोटी दरारें उभर आईं। मानो ताल की लिपियां हों।

सीमा ने चील का टहाका सुना और आकाश को पूर्ववत ताकती रही। चील का टहाका तो थर्राकर चुप हो गया था, मगर उसकी प्रतिध्वनि सीमा के मन में जख्मी पंछी-सी गिर कर हांफ रही थी।

क्वार की यह दुपहर... चिनचिनाती धूप... स्तब्ध और उदास... सीमा सीढ़ियों के पास बैठी एकटक देख रही है, आगे के खाली आकाश को... हवा बह जाती है कभी-कभी और सामने वाला नीम का चेंड़ा पुलकित बछड़े-सा रोएं फुला लेता है। सीमा थोड़ी हरी हो जाती है और अनंत आकाश को देखने लगती है।

सामने की सड़क से कभी कारें, कभी टनटन करती हुई साइकिल गुजरती है, पीछे एक शोर छोड़ती हुई... सीमा निगाहों से दूर तक उनका पीछा करती है, फिर अपने में लौट जाती है।  एक हवाई जहाज आकाश को मथता चला जा रहा है, सीमा खुश हो जाती है, लगता है कि कहीं जहाज के जरिए इस अगम्य अमाप्य आकाश को तोड़ रही है। जहाज चला जाता है आवाजों की लकीरें छोड़ता हुआ और सीमा आवाजों की छतरी के सहारे सीढ़ियों के पास चू पड़ती है।

“चाचाजी नमस्ते,” सीमा बड़े अदब से दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करती है और मुस्करा देती है।

“नमस्ते बेटा,” कहकर पड़ोसी डॉ. शर्मा मुस्करा पड़ते हैं और पूछते हैं, “क्या है सीमा, अकेली हो?” 

“हां चाचाजी, आज अम्मां बाजार करने चली गई है,” वह मन-ही-मन बुदबुदाती है-अकेली...अकेली...।

डॉ. शर्मा को लगता है कि सीमा कुछ कहना चाहती है, “कुछ काम है सीमा?” सीमा के चेहरे पर अनेक छायाएं क्षण भर में उठती और गिर जाती हैं, वह चुप रहती है।

“कोई बात हो तो कह बेटा।”

“कुछ खास नहीं चाचाजी, एक ही जगह बैठे-बैठे नसें दुखने लगी हैं। चाहती हूं ज़रार रेलिंग के सहारे खड़ी होना...”

“यह लें,” कह कर डॉ. शर्मा सीढ़ियों के पास से उठकर उसे रेलिंग के सहारे खड़ी कर देते हैं। सीमा को लगता है कि वह कुछ ताजा हो गई है, फैला हुआ असीम आकाश कुछ छोटा हो गया है-नीमा का चेड़ा उसके नजदीक सरक आया है। वह भागते हुए रिक्शों, कारों के साथ दौड़ सकती है। सड़क पर आने-जाने वालों को देख कर मुस्करा रही है, मानो वह भी उनके साथ चल सकती है।

चील फिर टिहा उठती है, आकाश बड़ा होने लगता है और चील का टहाका छिनन्‍न-छिन्‍न होकर आकाश में डूबने लगता है। सीमा के पांव थरथरा रहे हैं। उसे लगता है कि सड़क पर चलने वालों से धीरे-धीरे कट रही है, वह चारों ओर देखती है, कोई दिखाई नहीं पड़ता। वह धम्म से गिर पड़ती है और सड़क चलती रहती है, वह सबसे कटकर अपने बिंदु पर आ सिमटती है।

गिरने से वह छितरा जाती है, भीतर-ही-भीतर चोट पी लेती है, धीरे-धीरे सरकती हुई फिर सीढ़ियों के पास आ जाती है और आकाश फिर फैलता-फैलता बड़ा असीम हो जाता है जिसमें इसकी आंखें खो जाती हैं।

“पता नहीं कब अम्मां आएंगी,” वह बुदबुदाती है और फिर अपने को कोसती हुई कहती है, “बेचारी इतने दिनों बाद तो निकली हैं, वह भी काम से। अभागी तेरे मारे तो वे कहीं निकल ही नहीं पाती हैं बोझ... तू सबके सिर का बोझ बनी हुई है।”

फिर वह एक किताब उठा लेती है, खोलकर एक चित्र देखती है-राधा और कृष्ण। कृष्ण और राधा-कृष्ण-राधा के जूड़े में फूल खोंस रहे हैं और राधा नाचने की मुद्रा में-राधा और कृष्ण, कृष्ण और राधा उसके हृदय को चीरते चले जाते हैं, वह झटके से किताब बंद कर लेती है और हांफने लगती है। वह अपने पांवों की ओर देखती है सूखी लकड़ी जैसे निर्जीव पांव-लगता है उसके दोनों पांव उसकी गरदन में लिपट कर उसे तोड़ रहे हैं, उसके जूड़े में कुछ फूल खुसे हैं उन्हें नोचकर फेंक रहे हैं, एक ओर राधिका के थिरकते पांव, एक ओर उसके फूलों को नोचती निर्जीव टांगें-कृष्ण उसके भी बालों में फूल खोंस रहे हैं, तब तक निर्जीव टांगें कृष्ण के हाथों पर जोर का प्रहार करती हैं और कृष्ण-आगे नहीं सोच पाती। 

सीमा पंद्रह साल की लड़की है। हंसमुख तरल चेहरा, बड़ी-बड़ी भावुक आंखें, नाक कुछ लंबी-सी, सघन बरौनिया-और ये पांव! वह चल नहीं सकती। अपने को कुछ दूर घसीट सकती है। उसकी अंग-विकृति की पूर्ति की है उसकी सरल संवेदना और तीव्र बुद्धि ने। बोलती है कोयल जैसी और बड़ों को नमस्ते करते समय संवेदना और तीव्र बुद्धि ने। बोलती है कोयल जैसी और बड़ों को नमस्ते करते समय उसकी कलात्मक बड़ी-बड़ी पतली अंगुलियां अपने आप जुड़ जाती हैं।

उसकी टांगें देखकर मां कितना रो चुकी है... गंगा-जमुना की धारा... छाती में भींच लेती है और रोती रहती हैं पंद्रह साल बीत गए, ऐसे ही रोते। पिताजी कहां-कहां नहीं घूमे उसे लेकर, मगर डाक्टरों ने जवाब दे दिया। कोई डाक्टर क्‍या उसका भाग्य बदलेगा, कोई कर्म-रेखा मिटाएगा! पिताजी छिप-छिपकर रोते हैं, उसे देख कर। 

सीमा की एक छोटी बहन है, स्कूल में पढ़ती है, बेहद नटखट। सीमा घर में ही पढ़ती है-हाई स्कूल की परीक्षा देगी। और भी पढ़ती है गीता, रामायण-महाभारत की धर्म कथाएं... और मंदिर से जब घंटे बजते हैं तो पढ़े हुए श्लोकों को गुनगुनाती हैं... हाई स्कूल की तैयारी कर रही हैं। क्यों पढ़ रही है? उसे पढ़ना चाहिए, इसलिए पढ़ती है। मां सोचती है, आज के जमाने में हर लड़की को पढ़ना चाहिए, क्यों पढ़ना चाहिए? यहां आ कर मां का गला रुध जाता है। कौन स्वीकारेगा सीमा को पढ़ लिख लेने के बाद भी... कौन स्वीकारेगा! इसके आगे सोचना छोड़कर रोने लगती है। पिताजी भी सोचते हैं, लड़कियों को पढ़ना चाहिए? क्‍यों? स्वावलंबी बनने के लिए। और तभी लगता है कि सीमा के सूखे पांव शब्द बनकर गले में अटक जाते हैं और उनके सामने एक लड़की का विराट एकाकी जीवन रेंगता हुआ नजर आता है और उठ कर मंदिर चले जाते हैं, या किसी दोस्त से मिलने। मगर सीमा इतना ही जानती है कि वह पढ़ रही है, पढ़ना उसे अच्छा लगता है। भविष्य की ऊंची-नीची पगडंडियां वह अभी साफ नहीं देख पाती। वह तो इतना ही देखती है कि उसके आगे एक आकाश है और आकाश को चीरती बड़ी-बड़ी सड़कें हैं-दूरगामी, सीमांत-स्पर्शी जिस पर अनंत पांवों के गुजरने के निशान हैं। उन सड़कों तक पहुंचने वाली कुछ छोटी-छोटी पगडंडियां हैं सड़कों को छूने को व्याकुल, परंतु सभी चार कदम चलकर टूट गई हैं और सभी पर सीमा के घिसटने के निशान हैं। वह बैठी-बैठी देखती रहती है इन सड़कों को, इन तक पहुचंने को व्याकुल पगडंडियों को। वह पगडंडियों से गुजरती है और दो कदम चलने के बाद गिर पड़ती है नाले में और असहाय छटपटाने लगती है। 

“अम्मां!” एक चीख-सी उसके मुंह से निकल पड़ती है, फिर वह अपनी इस कमजोरी पर शरमा जाती है। “अम्मा,” हाय बेचारी कितने दिनों के बाद निकली है शहर को। चील फिर एक टहाका लगाती है और सीमा फिर उसे ओर देखने लगती है।

“सीमा चलेगी घूमने?” पास की सड़क से गुज़रता हुआ मोहल्ले का एक बारह वर्षीय लड़का पूछता है।

सीमा एक उसांस खींच कर रह जाती है। यह कमीना रोज ऐसे ही पूछता है। एक बार अम्मा ने डांटा था, “कमीने कहीं के जलाते हो मेरी बिटिया को, असहाय जान कर। तुम समझते क्‍या हो अपने को! मैं अपनी बेटी को हवाई जहाज से घुमाऊंगी।” लड़का रोता हुआ घर गया था और दोनों माताओं के बीच देर तक वाग्युद्ध होता रहा। सीमा ने रो-रो कर हाथ जोड़ कर अपनी मां से कहा था, “जाने दे मां, मेरे लिए दुनिया में इतनी आफत क्‍यों आए! जब भगवान ही नाराज है तो आदमी का क्‍या कहना!”

और वह औरत गरगराती हुई, मां-बेटी के सैकड़ों सीवन उधेड़ती हुई चली गई थी और सीमा की मां सुबक-सुबक कर खूब रोई थी। मां की पीड़ा उसे सालती। कितना दुष्ट है यह लड़का और उससे अधिक दुष्ट तो उसकी मां है जो मां होकर भी मां की पीड़ा नहीं समझती। बड़ा दुष्ट है यह लड़का, नहीं मानता है और रोज पूछता है-- 'घूमने चलेगीः और सीमा को लगता है कि एकतारा को झनझना दिया हो और झनझनाने के पहले ही वह तार खट्ट से टूट गया हो।

सामने के तार में एक चिड़िया फंस गई है, चीं-चीं कर तड़फड़ा रही है। सीमा एक अबस करुणा से उसे देख रही है... वह पाती है कि वह एक चिड़िया है, बिजली के तार में उलझी हुई। चिड़िया चें-चें कर ठंडी हो जाती है मगर वह तो उसी तरह तार से जीवित लटकी हुई है। तमाम चिड़ियां आकाश में शोर मचा रही हैं, मृत पंछी को घेरकर। शायद उसके लिए कोई भीड़ न होगी। केवल चार आंखें... मां... बाबूजी... पड़ोसी की अठारस वर्षीय लड़की मिस कुमुद घूमने जा रही हैं। आज नए वेशमें हैं-फ्राक की जगह सलवार है, रेशम का दुपट्टा है, घोड़े की पूंछ की तरह बाल सजे हैं और ज़रा अधिक चेष्टा के साथ कमर लफाती हुई चल रही हैं। सीमा इन्हें रोज़ ही देखती है-बहुत से लोग आते-जाते हैं, इनके यहां। बाप तो गरीब है, मगर मिस कुमुद के सपने गरीब नहीं हैं। रोज किसी न किसी का कुछ हड़पती हैं।

पड़ोस में जब से मिस अंजना आई है तब से कुमुद ने अधिक तेज़ी से कमर नचा कर चलना सीख लिया है, यह सलवार-दुपग्टा भी उसी का है। कहीं जारही होंगी-किसी का कुछ हड़पने के लिए। सीमा को इस नकल पर हंसी आ रही है, वह कुमुद के मटकते कूल्हे को देख रही है। मिस कुमुद अंग-अंग की जांच-पड़ताल करती जा रही हैं कि उनकीनजर सीमा की हंसती नज़र से मिल जाती है। उन्हें लगता है कि सीमा उन्हीं को देख कर हंस रही है।

“ क्यों हसंती हे रे लंगड़ी? जलन होती हो तो तू भी कर ले।”

सीमा चौंक कर सहम जाती है, चेहरे की हंसी उड़ जाती है, “मैं... मैं कहां हंसती हूं-आपको भ्रम हो रहा है।”

“हां हां, मैं सब समझती हूं। कम्बख्त सीढ़ी के पास बैठी सबका चलना-पहनना निहारा करती है। अपनी जिंदगी तो अकारथ हो ही गई, चाहती है सभी लोग लंगड़े होकर बैठ जाएं। मां का फैशन नहीं देखती जो बुड़ढी होने पर भी बहेल्‍ला बनी घूमती है,” मिस कुमुद गरगराती हुई, कमर जोर-जोर से नचाती हुई आगे बढ़ जाती हैं।

“हे राम कैसे लोगों से पाला पड़ा है!” सीमा की आंखों में व्यथा उमड़ आती है। उसका सब कुछ छिन ही गया है, कया लोग मुस्कुराना भी बर्दाश्त नहीं कर सकते! मिस कुमुद क्या-क्या नहीं करतीं, लेकिन कोई बोले तो मुंह नोच लेंगी। वह तो रास्ते में पत्थर बन गई हैं जो भी आया, एक लात मारता गया। उसे कहां किसी से स्पर्धा है! कहां किसी का अधिकार छीनती है!

उसके सामने से कितने वर्ष गुजर गए। वह जैसे रेलवे लाइन के किनारे बैठी है, समय की गाड़ी उसके पास से भागी जा रही है, धुआं और कोयले की गंध छोड़ती हुई। वह चाहती है, बच्चे उसके साथ खेलें या उसके सामने खेलें, मगर बच्चे वहां से भाग जाते हैं। किसी छोटे बच्चे को देखती है तो चाहती है उसे गोद में भर ले। मगर हर बच्चा उसकी गोद में से तड़प कर भाग निकलता है और वह उदास आंखों से देखती रह जाती है। बच्चे झगड़ा कर भाग जाते, लंगड़ी-लंगड़ी चिढ़ाते हुए। उसकी बहन भी इसी तरह सताती है उसे | उसकी मां उसे मारती है तो सीमा चीख उठती है-“मत मार मां उसे इस अभागिन के लिए, मत मार ।” और मां दूनी व्यथा से सिसकने लगती है। जब किसी त्योहार को सीमा जूड़े में फूल लगाती है तो उसका चेहरा फूल-सा खिल जाता है। मां देखती है और एक अथक व्यथा से आंखें फेर लेती है।

पंद्रह साल बीत गए-अनेक भदूदी आकृतियां, कुरूप छायाएं... एक छाया मिस कुमुद की भी सही।

चील ठिहाकर आकाश में चक्कर काट रही है, धूप ताल-सी फैली है। सीमा को लगता है कि वह बड़ी-सी मरी मछली है, उतरा कर किनारे पड़ी हुई, कोई नहीं पूछता... लोग आते हैं, जाते हैं... आंखों के पार वह जो पेड़ों की धूमिल कतार दिख रही है सुनती हूं उसे पार एक बड़ी सी झील है जहां देश-विदेश के तमाम पक्षी क्वार में चले जाते हैं, हजारों पंखों की परछाइयां एक साथ जल में झरती हैं...और उसके पार कोई समुद्र... कोई पहाड़ और हरे नीले देश... ।

“घूमने चलेगी सीमा,” फिर वही लड़का लौटता हुआ पूछ रहा है।

“कमीना' मन ही मन सीमा बुदबुदाती है। उसे लगता है धूप एक मकड़ी का जाला है और दुपहर एक बड़ी-सी मक्खी... फंसी हुई उसमें। हाय यह दुपहर तो सरकने का नाम नहीं लेती।

सारे पेड़ स्तब्ध हैं, चिड़ियां ठहरी हुईं। रह-रहकर वही चील टिहा उठती है, दूर कोई गाड़ी जा रही है और मकडब्रै का जाला हिल रहा है। सड़क उसकी आंखों से उभर आई या धीरे-धीरे मिट रही है। आकाश सिमट रहा है, आवाजें बुझ रही है, धमनियों का स्पन्दन गिर रहा है। 

और जबवह सीढ़ी के पास से सोकर उठती है तो पाती है कि उसकी मां उस के सिर पर प्यार से हाथ फेर रही है और पूछ रही है, “क्यों बेटी, कुमुद ने तुझे क्‍यों गालियां दी?”

“नहीं मां, मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा ।”

“सच बोल सीमा, मैं पड़ोसन से सब सुन चुकी हूं। आज उस चुड़ैल का मुंह नोच कर रहूंगी। मेरे घर को अनाथ का घर समझ रखा है?”

“नहीं मां, मेरे लिए किसी से कुछ मत कहना।”

“नहीं क्‍यों? उस सांड़िनी को मेरी बेटी को पीड़ित करने का क्या हक? बेवा का घर है क्या?”

“नहीं मां मुझे कोई पीड़ा नहीं होती अब। तुझे मेरी कसम है मां, मेरे लिए इन बुरे लोगों से लड़ा मत कर।”

मां जाते-जाते रुक जाती है और सीमा को छाती में भींच लेती है। “तू मुझे बहुत सताती है पगली।”

“हां, मां। बहुत ।”

मां और बेटी की आंखों में एक ही साथ एक छाया उभरती है और बरस पड़ती है।

चील अभी भी टिहा रही है.


7 -

डिप्टी कलक्टरी


[ 1 जुलाई ,1925 - 17 फ़रवरी ,2014 ]

अमरकांत 

अमरकांत के 16 कहानी संग्रह , 11 उपन्यास , बच्चों पर 9 किताब तथा संस्मरण की 2 किताबें प्रकाशित हैं। अमरकांत का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगरा कस्बे के पास स्थित भगमल पुर गाँव में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। सन् 1942 में वे स्वतन्त्रता-आंदोलन से जुड़ गए। शुरुआती दिनों में अमरकान्त तरतम में ग़ज़लें और लोकगीत भी गाते थे। उनके साहित्य जीवन का आरंभ एक पत्रकार के रूप में हुआ। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। वे बहुत अच्छी कहानियाँ लिखने के बावजूद एक अर्से तक हाशिये पर पड़े रहे। उस समय तक कहानी-चर्चा के केन्द में मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव की त्रयी थी। कहानीकार के रूप में उनकी ख्याति सन् १९५५ में 'डिप्टी कलेक्टरी' कहानी से हुई। अमरकांत के स्वभाव के संबंध में रवीन्द्र कालिया लिखते हैं- "वे अत्यन्त संकोची व्यक्ति हैं। अपना हक माँगने में भी संकोच कर जाते हैं। उनकी प्रारम्भिक पुस्तकें उनके दोस्तों ने ही प्रकाशित की थीं।...एक बार बेकारी के दिनों में उन्हें पैसे की सख्त जरूरत थी, पत्नी मरणासन्न पड़ी थीं। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रकाशक से ही सहायता की अपेक्षा की जा सकती थी। बच्चे छोटे थे। अमरकान्त ने अत्यन्त संकोच, मजबूरी और असमर्थता में मित्र प्रकाशक से रॉयल्टी के कुछ रुपये माँगे, मगर उन्हें दो टूक जवाब मिल गया, ' पैसे नहीं हैं। ' अमरकान्तजी ने सब्र कर लिया और एक बेसहारा मनुष्य जितनी मुसीबतें झेल सकता था, चुपचाप झेल लीं।" रचनात्मकता की दृष्टि से अमरकांत को गोर्की के समकक्ष बताते हुए यशपाल ने लिखा था- "क्या केवल आयु कम होने या हिन्दी में प्रकाशित होने के कारण ही अमरकान्त गोर्की की तुलना में कम संगत मान लिए जायें। जब मैंने अमरकान्त को गोर्की कहा था, उस समय मेरी स्मृति में गोर्की की कहानी ' शरद की रात ' थी। उस कहानी ने एक साधनहीन व्यक्ति को परिस्थितियाँ और उन्हें पैदा करने वाले कारणों के प्रति जिस आक्रोश का अनुभव मुझे दिया था, उसके मिलते-जुलते रूप मुझे अमरकान्त की कहानियों में दिखाई दिये।"

शकलदीप बाबू कहीं एक घंटे बाद वापस लौटे। घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ओसारे के कमरे में झाँका, कोई भी मुवक्किल नहीं था और मुहर्रिर साहब भी गायब थे। वह भीतर चले गए और अपने कमरे के सामने ओसारे में खड़े होकर बंदर की भाँति आँखे मलका-मलकाकर उन्होंने रसोईघर की ओर देखा। उनकी पत्नी जमुना, चौके के पास पीढ़े पर बैठी होंठ-पर-होंठ दबाए मुँह फुलाए तरकारी काट रही थी। वह मंद-मंद मुस्कराते हुए अपनी पत्नी के पास चले गए। उनके मुख पर असाधारण संतोष, विश्वास एवं उत्साह का भाव अंकित था। एक घंटे पूर्व ऐसी बात नही थी।

बात इस प्रकार आरंभ हुई। शकलदीप बाबू सबेरे दातौन-कुल्ला करने के बाद अपने कमरे में बैठे ही थे कि जमुना ने एक तश्तरी में दो जलेबियाँ नाश्ते के लिए सामने रख दीं। वह बिना कुछ बोले जलपान करने लगे। जमुना पहले तो एक-आध मिनट चुप रही। फिर पति के मुख की ओर उड़ती नजर से देखने के बाद उसने बात छेड़ी, ‘दो-तीन दिन से बबुआ बहुत उदास रहते हैं।’

‘क्या?’ सिर उठाकर शकलदीप बाबू ने पूछा और उनकी भौंहे तन गईं। जमुना ने व्यर्थ में मुस्कराते हुए कहा, ‘कल बोले, इस साल डिप्टी-कलक्टरी की बहुत-सी जगहें हैं, पर बाबूजी से कहते डर लगता है। कह रहे थे, दो-चार दिन में फीस भेजने की तारीख बीत जाएगी।’

शकलदीप बाबू का बड़ा लड़का नारायण, घर में बबुआ के नाम से ही पुकारा जाता था। उम्र उसकी लगभग 24 वर्ष की थी। पिछले तीन-चार साल से बहुत-सी परीक्षाओं में बैठने, एम.एल.ए. लोगों के दरवाजों के चक्कर लगाने तथा और भी उल्टे-सीधे फन इस्तेमाल करने के बावजूद उसको अब तक कोई नौकरी नहीं मिल सकी थी। दो बार डिप्टी-कलक्टरी के इम्तहान में भी वह बैठ चुका था, पर दुर्भाग्य! अब एक अवसर उसे और मिलना था, जिसको वह छोड़ना न चाहता था, और उसे विश्वास था कि चूँकि जगहें काफी हैं और वह अबकी जी-जान से परिश्रम करेगा, इसलिए बहुत संभव है कि वह ले लिया जाए।

शकलदीप बाबू मुख्तार थे। लेकिन इधर डेढ़-दो साल से मुख्तारी की गाड़ी उनके चलाए न चलती थी। बुढ़ौती के कारण अब उनकी आवाज में न वह तड़प रह गई थी, न शरीर में वह ताकत और न चाल में वह अकड़, इसलिए मुवक्किल उनके यहाँ कम ही पहुँचते। कुछ तो आकर भी भड़क जाते। इस हालत में वह राम का नाम लेकर कचहरी जाते, अक्सर कुछ पा जाते, जिससे दोनों जून चौका-चूल्हा चल जाता।

जमुना की बात सुनकर वह एकदम बिगड़ गए। क्रोध से उनका मुँह विकृत हो गया और वह सिर को झटकते हुए, कटाह कुकुर की तरह बोले, ‘तो मैं क्या करूँ? मैं तो हैरान-परेशान हो गया हूँ। तुम लोग मेरी जान लेने पर तुले हुए हो। साफ-साफ सुन लो, मैं तीन बार कहता हूँ, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा।’

जमुना कुछ न बोली, क्योंकि वह जानती थी कि पति का क्रोध करना स्वाभाविक है।

शकलदीप बाबू एक-दो क्षण चुप रहे, फिर दाएँ हाथ को ऊपर-नीचे नचाते हुए बोले, ‘फिर इसकी गारंटी ही क्या है कि इस दफे बाबू साहब ले ही लिए जाएँगे? मामूली ए.जी. ऑफिस की क्लर्की में तो पूछे नहीं गए, डिप्टी-कलक्टरी में कौन पूछेगा? आप में क्या खूबी है, साहब कि आप डिप्टी-कलक्टर हो ही जाएँगे? थर्ड क्लास बी.ए. आप हैं, चौबीसों घंटे मटरगश्ती आप करते हैं, दिन-रात सिगरेट आप फूँकते हैं। आप में कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं? बड़े-बड़े बह गए, गदहा पूछे कितना पानी! फिर करम-करम की बात होती है। भाई, समझ लो, तुम्हारे करम में नौकरी लिखी ही नहीं। अरे हाँ, अगर सभी कुकुर काशी ही सेवेंगे तो हँडिया कौन चाटेगा? डिप्टी-कलक्टरी, डिप्टी-कलक्टरी! सच पूछो, तो डिप्टी-कलक्टरी नाम से मुझे घृणा हो गई है!’ और होंठ बिचक गए।

जमुना ने अब मृदु स्वर में उनके कथन का प्रतिवाद किया, ‘ऐसी कुभाषा मुँह से नहीं निकालनी चाहिए। हमारे लड़के में दोष ही कौन-सा है? लाखों में एक है। सब्र की सौ धार, मेरा तो दिल कहता है इस बार बबुआ जरूर ले लिए जाएँगे। फिर पहली भूख-प्यास का लड़का है, माँ-बाप का सुख तो जानता ही नहीं। इतना भी नहीं होगा, तो उसका दिल टूट जाएगा। यों ही न मालूम क्यों हमेशा उदास रहता है, ठीक से खाता-पीता नहीं, ठीक से बोलता नहीं, पहले की तरह गाता-गुनगुनाता नहीं। न मालूम मेरे लाड़ले को क्या हो गया है।’ अंत में उसका गला भर आया और वह दूसरी ओर मुँह करके आँखों में आए आँसुओं को रोकने का प्रयास करने लगी।

जमुना को रोते हुए देखकर शकलदीप बाबू आपे से बाहर हो गए। क्रोध तथा व्यंग्य से मुँह चिढ़ाते हुए बोले, ‘लड़का है तो लेकर चाटो! सारी खुराफात की जड़ तुम ही हो, और कोई नहीं! तुम मुझे जिंदा रहने देना नहीं चाहतीं, जिस दिन मेरी जान निकलेगी, तुम्हारी छाती ठंडी होगी!’ वह हाँफने लगे। उन्होंने जमुना पर निर्दयतापूर्वक ऐसा जबरदस्त आरोप किया था, जिसे वह सह न सकी। रोती हुई बोली, ‘अच्छी बात है, अगर मैं सारी खुराफात की जड़ हूँ तो मैं कमीनी की बच्ची, जो आज से कोई बात…’ रुलाई के मारे वह आगे न बोल सकी और तेजी से कमरे से बाहर निकल गई।

शकलदीप बाबू कुछ नहीं बोले, बल्कि वहीं बैठे रहे। मुँह उनका तना हुआ था और गर्दन टेढ़ी हो गई थी। एक-आध मिनट तक उसी तरह बैठे रहने के पश्चात वह जमीन पर पड़े अखबार के एक फटे-पुराने टुकड़े को उठाकर इस तल्लीनता से पढ़ने लगे, जैसे कुछ भी न हुआ हो।

लगभग पंद्रह-बीस मिनट तक वह उसी तरह पढ़ते रहे। फिर अचानक उठ खड़े हुए। उन्होंने लुंगी की तरह लिपटी धोती को खोलकर ठीक से पहन लिया और ऊपर से अपना पारसी कोट डाल लिया, जो कुछ मैला हो गया था और जिसमें दो चिप्पियाँ लगी थीं, और पुराना पंप शू पहन, हाथ में छड़ी ले, एक-दो बार खाँसकर बाहर निकल गए।

पति की बात से जमुना के हृदय को गहरा आघात पहुँचा था। शकलदीप बाबू को बाहर जाते हुए उसने देखा, पर वह कुछ नहीं बोली। वह मुँह फुलाए चुपचाप घर के अटरम-सटरम काम करती रही। और एक घंटे बाद भी जब शकलदीप बाबू बाहर से लौट उसके पास आकर खड़े हुए, तब भी वह कुछ न बोली, चुपचाप तरकारी काटती रही।

शकलदीप बाबू ने खाँसकर कहा, ‘सुनती हो, यह डेढ़ सौ रुपए रख लो। करीब सौ रुपए बबुआ की फीस में लगेंगे और पचास रुपए अलग रख देना, कोई और काम आ पड़े।’

जमुना ने हाथ बढ़ा कर रुपए तो अवश्य ले लिए, पर अब भी कुछ नहीं बोली।

लेकिन शकलदीप बाबू अत्यधिक प्रसन्न थे और उन्होंने उत्साहपूर्ण आवाज में कहा, ‘सौ रुपए बबुआ को दे देना, आज ही फीस भेज दें। होंगे, जरूर होंगे, बबुआ डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे। कोई कारण ही नहीं कि वह न लिए जाएँ। लड़के के जेहन में कोई खराबी थोड़े है। राम-राम…! नहीं, चिंता की कोई बात नहीं। नारायण जी इस बार भगवान की कृपा से डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे।’

जमुना अब भी चुप रही और रुपयों को ट्रंक में रखने के लिए उठकर अपने कमरे में चली गई।

शकलदीप बाबू अपने कमरे की ओर लौट पड़े। पर कुछ दूर जाकर फिर घूम पड़े और जिस कमरे में जमुना गई थी, उसके दरवाजे के सामने आकर खड़े हो गए और जमुना को ट्रंक में रुपए बंद करते हुए देखते रहे। फिर बोले, ‘गलती किसी की नहीं। सारा दोष तो मेरा है। देखो न, मैं बाप होकर कहता हूँ कि लड़का नाकाबिल है! नहीं, नहीं, सारी खुराफात की जड़ मैं ही हूँ, और कोई नहीं।’

एक-दो क्षण वह खड़े रहे, लेकिन तब भी जमुना ने कोई उत्तर नहीं दिया तो कमरे में जाकर वह अपने कपड़े उतारने लगे।

नारायण ने उसी दिन डिप्टी-कलक्टरी की फीस तथा फार्म भेज दिए।

दूसरे दिन आदत के खिलाफ प्रातःकाल ही शकलदीप बाबू की नींद उचट गई। वह हड़बड़ाकर आँखें मलते हुए उठ खड़े हुए और बाहर ओसारे में आकर चारों ओर देखने लगे। घर के सभी लोग निद्रा में निमग्न थे। सोए हुए लोगों की साँसों की आवाज और मच्छरों की भनभन सुनाई दे रही थी। चारों ओर अँधेरा था। लेकिन बाहर के कमरे से धीमी रोशनी आ रही थी। शकलदीप बाबू चौंक पड़े और पैरों को दबाए कमरे की ओर बढ़े।

उनकी उम्र पचास के ऊपर होगी। वह गोरे, नाटे और दुबले-पतले थे। उनके मुख पर अनगिनत रेखाओं का जाल बुना था और उनकी बाँहों तथा गर्दन पर चमड़े झूल रहे थे।

दरवाजे के पास पहुँचकर, उन्होंने पंजे के बल खड़े हो, होंठ दबाकर कमरे के अंदर झाँका। उनका लड़का नारायण मेज पर रखी लालटेन के सामने सिर झुकाए ध्यानपूर्वक कुछ पढ़ रहा था। शकलदीप बाबू कुछ देर तक आँखों को साश्चर्य फैलाकर अपने लड़के को देखते रहे, जैसे किसी आनंददायी रहस्य का उन्होंने अचानक पता लगा लिया हो। फिर वह चुपचाप धीरे-से पीछे हट गए और वहीं खड़े होकर जरा मुस्कराए और फिर दबे पाँव धीरे-धीरे वापस लौटे और अपने कमरे के सामने ओसारे के किनारे खड़े होकर आसमान को उत्सुकतापूर्वक निहारने लगे।

उनकी आदत छह, साढ़े छह बजे से पहले उठने की नहीं थी। लेकिन आज उठ गए थे, तो मन अप्रसन्न नहीं हुआ। आसमान में तारे अब भी चटक दिखाई दे रहे थे, और बाहर के पेड़ों को हिलाती हुई और खपड़े को स्पर्श करके आँगन में न मालूम किस दिशा से आती जाती हवा उनको आनंदित एवं उत्साहित कर रही थी। वह पुनः मुस्करा पड़े और उन्होंने धीरे-से फुसफुसाया, ‘चलो, अच्छा ही है।’

और अचानक उनमें न मालूम कहाँ का उत्साह आ गया। उन्होंने उसी समय ही दातौन करना शुरू कर दिया। इन कार्यों से निबटने के बाद भी अँधेरा ही रहा, तो बाल्टी में पानी भरा और उसे गुसलखाने में ले जाकर स्नान करने लगे। स्नान से निवृत्त होकर जब वह बाहर निकले, तो उनके शरीर में एक अपूर्व ताजगी तथा मन में एक अवर्णनीय उत्साह था।

यद्यपि उन्होंने अपने सभी कार्य चुपचाप करने की कोशिश की थी, तो भी देह दुर्बल होने के कारण कुछ खटपट हो गई, जिसके परिणामस्वरूप उनकी पत्नी की नींद खुल गई। जमुना को तो पहले चोर-वोर का संदेह हुआ, लेकिन उसने झटपट आकर जब देखा, तो आश्चर्यचकित हो गई। शकलदीप बाबू आँगन में खड़े-खड़े आकाश को निहार रहे थे।

जमुना ने चिंतातुर स्वर में कहा, ‘इतनी जल्दी स्नान की जरूरत क्या थी? इतना सबेरे तो कभी भी नहीं उठा जाया जाता था? कुछ हो-हवा गया, तो?’

शकलदीप बाबू झेंप गए। झूठी हँसी हँसते हुए बोले, ‘धीरे-धीरे बोलो, भाई, बबुआ पढ़ रहे हैं।’

जमुना बिगड़ गई, ‘धीरे-धीरे क्यों बोलूँ, इसी लच्छन से परसाल बीमार पड़ जाया गया था।’

शकलदीप बाबू को आशंका हुई कि इस तरह बातचीत करने से तकरार बढ़ जाएगा, शोर-शराबा होगा, इसलिए उन्होंने पत्नी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वह पीछे घूम पड़े और अपने कमरे में आकर लालटेन जलाकर चुपचाप रामायण का पाठ करने लगे।

पूजा समाप्त करके जब वह उठे, तो उजाला हो गया था। वह कमरे से बाहर निकल आए। घर के बड़े लोग तो जाग गए थे, पर बच्चे अभी तक सोए थे। जमुना भंडार-घर में कुछ खटर-पटर कर रही थी। शकलदीप बाबू ताड़ गए और वह भंडार-घर के दरवाजे के सामने खड़े हो गए और कमर पर दोनों हाथ रखकर कुतूहल के साथ अपनी पत्नी को कुंडे में से चावल निकालते हुए देखते रहे।

कुछ देर बाद उन्होंने प्रश्न किया, ‘नारायण की अम्मा, आजकल तुम्हारा पूजा-पाठ नहीं होता क्या?’ और झेंपकर वह मुस्कराए।

शकलदीप बाबू इसके पूर्व सदा राधास्वामियों पर बिगड़ते थे और मौका-बेमौका उनकी कड़ी आलोचना भी करते थे। इसको लेकर औरतों में कभी-कभी रोना-पीटना तक भी हो जाता था। इसलिए आज भी जब शकलदीप बाबू ने पूजा-पाठ की बात की, तो जमुना ने समझा कि वह व्यंग्य कर रहे हैं। उसने भी प्रत्युत्तर दिया, ‘हम लोगों को पूजा-पाठ से क्या मतलब? हमको तो नरक में ही जाना है। जिनको सरग जाना हो, वह करें!’

‘लो बिगड़ गईं,’ शकलदीप बाबू मंद-मंद मुस्कराते हुए झट-से बोले, ‘अरे, मैं मजाक थोड़े कर रहा था! मैं बड़ी गलती पर था, राधास्वामी तो बड़े प्रभावशाली देवता हैं।’

जमुना को राधास्वामी को देवता कहना बहुत बुरा लगा और वह तिनककर बोली, ‘राधास्वामी को देवता कहते हैं? वह तो परमपिता परमेसर हैं, उनका लोक सबसे ऊपर है, उसके नीचे ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लोक आते हैं।’

‘ठीक है, ठीक है, लेकिन कुछ पूजा-पाठ भी करोगी? सुनते हैं सच्चे मन से राधास्वामी की पूजा करने से सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।’ शकलदीप बाबू उत्तर देकर काँपते होंठों में मुस्कराने लगे।

जमुना ने पुनः भुल-सुधार किया, ‘इसमें दिखाना थोड़े होता है; मन में नाम ले लिया जाता है। सभी मनोरथ बन जाते हैं और मरने के बाद आत्मा परमपिता में मिल जाती है। फिर चौरासी नहीं भुगतना पड़ता।’

शकलदीप बाबू ने सोत्साह कहा, ‘ठीक है, बहुत अच्छी बात है। जरा और सबेरे उठकर नाम ले लिया करो। सुबह नहाने से तबीयत दिन-भर साफ रहती है। कल से तुम भी शुरू कर दो। मैं तो अभागा था कि मेरी आँखें आज तक बंद रही। खैर, कोई बात नहीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, कल से तुम भी सवेरे चार बजे उठ जाना।’

उनको भय हुआ कि जमुना कहीं उनके प्रस्ताव का विरोध न करे, इसलिए इतना कहने के बाद वह पीछे घूमकर खिसक गए। लेकिन अचानक कुछ याद करके वह लौट पड़े। पास आकर उन्होंने पत्नी से मुस्कराते हुए पूछा, ‘बबुआ के लिए नाश्ते का इंतजाम क्या करोगी?’

‘जो रोज होता है, वही होगा, और क्या होगा?’ उदासीनतापूर्वक जमुना ने उत्तर दिया।

‘ठीक है, लेकिन आज हलवा क्यों नहीं बना लेतीं? घर का बना सामान अच्छा होता है। और कुछ मेवे मँगा लो।’

‘हलवे के लिए घी नहीं है। फिर इतने पैसे कहाँ हैं?’ जमुना ने मजबूरी जाहिर की।

‘पचास रुपए तो बचे हैं न, उसमें से खर्च करो। अन्न-जल का शरीर, लड़के को ठीक से खाने-पीने का न मिलेगा, तो वह इम्तहान क्या देगा? रुपए की चिंता मत करो, मैं अभी जिंदा हूँ!’ इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका लगाकर हँस पड़े। वहाँ से हटने के पूर्व वह पत्नी को यह भी हिदायत देते गए, ‘एक बात और करो। तुम लड़के लोगों से डाँटकर कह देना कि वे बाहर के कमरे में जाकर बाजार न लगाएँ, नहीं तो मार पड़ेगी। हाँ, पढ़ने में बाधा पहुँचेगी। दूसरी बात यह कि बबुआ से कह देना, वह बाहर के कमरे में बैठकर इत्मीनान से पढ़ें, मैं बाहर सहन में बैठ लूँगा।’

शकलदीप बाबू सबेरे एक-डेढ़ घंटे बाहर के कमरे में बैठते थे। वहाँ वह मुवक्किलों के आने की प्रतीक्षा करते और उन्हें समझाते-बुझाते।

और वह उस दिन सचमुच ही मकान के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे, जहाँ पर्याप्त छाया रहती थी, एक मेज और कुर्सियाँ लगाकर बैठ गए। जान-पहचान के लोग वहाँ से गुजरे, तो उन्हें वहाँ बैठे देखकर आश्चर्य हुआ। जब सड़क से गुजरते हुए बब्बनलाल पेशकार ने उनसे पूछा कि ‘भाई साहब, आज क्या बात है?’ तो उन्होंने जोर से चिल्लाकर कहा कि ‘भीतर बड़ी गर्मी है।’ और उन्होंने जोकर की तरह मुँह बना दिया और अंत में ठहाका मारकर हँस पड़े, जैसे कोई बहुत बड़ा मजाक कर दिया हो।

शाम को जहाँ रोज वह पहले ही कचहरी से आ जाते थे, उस दिन देर से लौटे। उन्होंने पत्नी के हाथ में चार रुपए तो दिए ही, साथ ही दो सेब तथा कैंची सिगरेट के पाँच पैकेट भी बढ़ा दिए।

‘सिगरेट क्या होगी?’ जमुना ने साश्चर्य पूछा।

‘तुम्हारे लिए है,’ शकलदीप बाबू ने धीरे-से कहा और दूसरी ओर देखकर मुस्कराने लगे, लेकिन उनका चेहरा शर्म से कुछ तमतमा गया।

जमुना ने माथे पर की साड़ी को नीचे खींचते हुए कहा, ‘कभी सिगरेट पी भी है कि आज ही पीऊँगी। इस उम्र में मजाक करते लाज नहीं आती?’

शकलदीप बाबू कुछ बोले नहीं और थोड़ा मुस्कराकर इधर-उधर देखने लगे। फिर गंभीर होकर उन्होंने दूसरी ओर देखते हुए धीरे-से कहा, ‘बबुआ को दे देना,’ और वह तुरंत वहाँ से चलते बने।

जमुना भौंचक होकर कुछ देर उनको देखती रही, क्योंकि आज के पूर्व तो वह यही देखती आ रही थी कि नारायण के धूम्रपान के वह सख्त खिलाफ रहे हैं और इसको लेकर कई बार लड़के को डाँट-डपट चुके हैं। उसकी समझ में कुछ न आया, तो वह यह कहकर मुस्करा पड़ी कि बुद्धि सठिया गई है। नारायण दिन-भर पढ़ने-लिखने के बाद टहलने गया हुआ था। शकलदीप बाबू जल्दी से कपड़े बदलकर हाथ में झाड़ू ले बाहर के कमरे में जा पहुँचे। उन्होंने धीरे-धीरे कमरे को अच्छी तरह झाड़ा-बुहारा, इसके बाद नारायण की मेज को साफ किया तथा मेजपोश को जोर-जोर से कई बार झाड़-फटककर सफाई के साथ उस पर बिछा दिया। अंत में नारायण की चारपाई पर पड़े बिछौने को खोलकर उसमें की एक-एक चीज को झाड़-फटकारकर यत्नपूर्वक बिछाने लगे।

इतने में जमुना ने आकर देखा, तो मृदु स्वर में कहा, ‘कचहरी से आने पर यही काम रह गया है क्या? बिछौना रोज बिछ ही जाता है और कमरे की महरिन सफाई कर ही देती है।’

‘अच्छा, ठीक है। मैं अपनी तबीयत से कर रहा हूँ, कोई जबरदस्ती थोड़ी है।’ शकलदीप बाबू के मुख पर हल्के झेंप का भाव अंकित हो गया था और वह अपनी पत्नी की ओर न देखते हुए ऐसी आवाज में बोले, जैसे उन्होंने अचानक यह कार्य आरंभ कर दिया था – ‘और जब इतना कर ही लिया है, तो बीच में छोड़ने से क्या लाभ, पूरा ही कर लें।’ कचहरी से आने के बाद रोज का उनका नियम यह था कि वह कुछ नाश्ता-पानी करके चारपाई पर लेट जाते थे। उनको अक्सर नींद आ जाती थी और वह लगभग आठ बजे तक सोते रहते थे। यदि नींद न भी आती, तो भी वह इसी तरह चुपचाप पड़े रहते थे।

‘नाश्ता तैयार है,’ यह कहकर जमुना वहाँ से चली गई।

शकलदीप बाबू कमरे को चमाचम करने, बिछौने लगाने तथा कुर्सियों को तरतीब से सजाने के पश्चात आँगन में आकर खड़े हो गए और बेमतलब ठनककर हँसते हुए बोले, ‘अपना काम सदा अपने हाथ से करना चाहिए, नौकरों का क्या ठिकाना?’

लेकिन उनकी बात पर संभवतः किसी ने ध्यान नहीं दिया और न उसका उत्तर ही।

धीरे-धीरे दिन बीतते गए और नारायण कठिन परिश्रम करता रहा। कुछ दिनों से शकलदीप बाबू सायंकाल घर से लगभग एक मील की दूरी पर स्थित शिवजी के एक मंदिर में भी जाने लगे थे। वह बहुत चलता मंदिर था और उसमें भक्तजनों की बहुत भीड़ होती थी। कचहरी से आने के बाद वह नारायण के कमरे को झाड़ते-बुहारते, उसका बिछौना लगाते, मेज-कुर्सियाँ सजाते और अंत में नाश्ता करके मंदिर के लिए रवाना हो जाते। मंदिर में एक-डेढ़ घंटे तक रहते और लगभग दस बजे घर आते। एक दिन जब वह मंदिर से लौटे, तो साढ़े दस बज गए थे। उन्होंने दबे पाँव ओसारे में पाँव रखा और अपनी आदत के अनुसार कुछ देर तक मुस्कराते हुए झाँक-झाँककर कोठरी में नारायण को पढ़ते हुए देखते रहे। फिर भीतर जा अपने कमरे में छड़ी रखकर, नल पर हाथ-पैर धोकर, भोजन के लिए चौके में जाकर बैठ गए।

पत्नी ने खाना परोस दिया। शकलदीप बाबू ने मुँह में कौर चुभलाते हुए पूछा, ‘बबुआ को मेवे दे दिए थे?’

वह आज सायंकाल जब कचहरी से लौटे थे, तो मेवे लेते आए थे। उन्होंने मेवे को पत्नी के हवाले करते हुए कहा था कि इसे सिर्फ नारायण को ही देना, और किसी को नहीं।

जमुना को झपकी आ रही थी, लेकिन उसने पति की बात सुन ली, चौंककर बोली, ‘कहाँ? मेवा ट्रंक में रख दिया था, सोचा था, बबुआ घूमकर आएँगे तो चुपके से दे दूँगी। पर लड़के तो दानव-दूत बने हुए हैं, ओना-कोना, अँतरा-सँतरा, सभी जगह पहुँच जाते हैं। टुनटुन ने कहीं से देख लिया और उसने सारा-का सारा खा डाला।’

टुनटुन शकलदीप बाबू का सबसे छोटा बारह वर्ष का अत्यंत ही नटखट लड़का था।

‘क्यों?’ शकलदीप बाबू चिल्ला पड़े। उनका मुँह खुल गया था और उनकी जीभ पर रोटी का एक छोटा टुकड़ा दृष्टिगोचर हो रहा था। जमुना कुछ न बोली। अब शकलदीप बाबू ने गुस्से में पत्नी को मुँह चिढ़ाते हुए कहा, ‘खा गया, खा गया! तुम क्यों न खा गई! तुम लोगों के खाने के लिए ही लाता हूँ न? हूँ! खा गया!’

जमुना भी तिनक उठी, ‘तो क्या हो गया? कभी मेवा-मिश्री, फल-मूल तो उनको मिलता नहीं, बेचारे खुद्दी-चुन्नी जो कुछ मिलता है, उसी पर सब्र बाँधे रहते हैं। अपने हाथ से खरीदकर कभी कुछ दिया भी तो नहीं गया। लड़का ही तो है, मन चल गया, खा लिया। फिर मैंने उसे बहुत मारा भी, अब उसकी जान तो नहीं ले लूँगी।’

‘अच्छा तो खाओ तुम और तुम्हारे लड़के! खूब मजे में खाओ! ऐसे खाने पर लानत है!’ वह गुस्से से थर-थर काँपते हुए चिल्ला पड़े और फिर चौके से उठकर कमरे में चले गए।

जमुना भय, अपमान और गुस्से से रोने लगी। उसने भी भोजन नहीं किया और वहाँ से उठकर चारपाई पर मुँह ढँककर पड़ रही। लेकिन दूसरे दिन प्रातःकाल भी शकलदीप बाबू का गुस्सा ठंडा न हुआ और उन्होंने नहाने-धोने तथा पूजा-पाठ करने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि जब टुनटुन जागा, तो उन्होंने उसको अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि उसने मेवा क्यों खाया? जब उसको कोई उत्तर न सूझा और वह भक्कू बनकर अपने पिता की ओर देखने लगा, तो शकलदीप बाबू ने उसे कई तमाचे जड़ दिए।

डिप्टी-कलक्टरी की परीक्षा इलाहाबाद में होनेवाली थी और वहाँ रवाना होने के दिन आ गए। इस बीच नारायण ने इतना अधिक परिश्रम किया कि सभी आश्चर्यचकित थे। वह अट्ठारह-उन्नीस घंटे तक पढ़ता। उसकी पढ़ाई में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने पाती, बस उसे पढ़ना था। उसका कमरा साफ मिलता, उसका बिछौना बिछा मिलता, दोनों जून गाँव के शुद्ध घी के साथ दाल-भात,रोटी, तरकारी मिलती। शरीर की शक्ति तथा दिमाग की ताजगी को बनाए रखने के लिए नाश्ते में सबेरे हलवा-दूध तथा शाम को मेवे या फल। और तो और, लड़के की तबीयत न उचटे, इसलिए सिगरेट की भी समुचित व्यवस्था थी। जब सिगरेट के पैकेट खत्म होते, तो जमुना उसके पास चार-पाँच पैकेट और रख आती।

जिस दिन नारायण को इलाहाबाद जाना था, शकलदीप बाबू की छुट्टी थी और वे सबेरे ही घूमने निकल गए। वह कुछ देर तक कंपनी गार्डन में घूमते रहे, फिर वहाँ तबीयत न लगी, तो नदी के किनारे पहुँच गए। वहाँ भी मन न लगा, तो अपने परम मित्र कैलाश बिहारी मुख्तार के यहाँ चले गए। वहाँ बहुत देर तक गप-सड़ाका करते रहे, और जब गाड़ी का समय निकट आया, तो जल्दी-जल्दी घर आए।

गाड़ी नौ बजे खुलती थी। जमुना तथा नारायण की पत्नी निर्मला ने सबेरे ही उठकर जल्दी-जल्दी खाना बना लिया था। नारायण ने खाना खाया और सबको प्रणाम कर स्टेशन को चल पड़ा। शकलदीप बाबू भी स्टेशन गए। नारायण को विदा करने के लिए उसके चार-पाँच मित्र भी स्टेशन पर पहुँचे थे। जब तक गाड़ी नहीं आई थी, नारायण प्लेटफार्म पर उन मित्रों से बातें करता रहा। शकलदीप बाबू अलग खड़े इधर-उधर इस तरह देखते रहे, जैसे नारायण से उनका कोई परिचय न हो। और जब गाड़ी आई और नारायण अपने पिता तथा मित्रों के सहयोग से गाड़ी में पूरे सामान के साथ चढ़ गया, तो शकलदीप बाबू वहाँ से धीरे-से खिसक गए और व्हीलर के बुकस्टाल पर जा खड़े हुए। बुकस्टाल का आदमी जान-पहचान का था, उसने नमस्कार करके पूछा, ‘कहिए, मुख्तार साहब, आज कैसे आना हुआ?’

शकलदीप बाबू ने संतोषपूर्वक मुस्कराते हुए उत्तर दिया, ‘लड़का इलाहाबाद जा रहा है, डिप्टी-कलक्टरी का इम्तहान देने। शाम तक पहुँच जाएगा। ड्योढ़े दर्जे के पास जो डिब्बा है न, उसी में है। नीचे जो चार-पाँच लड़के खड़े हैं, वे उसके मित्र है। सोचा, भाई हम लोग बूढ़े ठहरे, लड़के इम्तहान-विम्तहान की बात कर रहे होंगे, क्या समझेंगे, इसलिए इधर चला आया।’ उनकी आँखे हास्य से संकुचित हो गईं।

वहाँ वह थोड़ी देर तक रहे। इसके बाद जाकर घड़ी में समय देखा, कुछ देर तक तारघर के बाहर तार बाबू को खटर-पटर करते हुए निहारा और फिर वहाँ से हटकर रेलगाड़ियों के आने-जाने का टाइम-टेबुल पढ़ने लगे। लेकिन उनका ध्यान संभवतः गाड़ी की ओर ही था, क्योंकि जब ट्रेन खुलने की घंटी बजी, तो वहाँ से भागकर नारायण के मित्रों के पीछे आ खड़े हुए।

नारायण ने जब उनको देखा, तो उसने झटपट नीचे उतरकर पैर छुए। ‘खुश रहो, बेटा, भगवान तुम्हारी मनोकामना पूरी करे!’ उन्होंने लड़के से बुदबुदाकर कहा और दूसरी ओर देखने लगे।

नारायण बैठ गया और अब गाड़ी खुलने ही वाली थी। अचानक शकलदीप बाबू का दाहिना हाथ अपने कोट की जेब में गया। उन्होंने जेब से कोई चीज लगभग बाहर निकाल ली, और वह कुछ आगे भी बढ़े, लेकिन फिर न मालूम क्या सोचकर रुक गए। उनका चेहरा तमतमा-सा गया और जल्दीबाजी में वह इधर-उधर देखने लगे। गाड़ी सीटी देकर खुल गई तो शकलदीप बाबू चौंक उठे। उन्होंने जेब से वह चीज निकालकर मुट्ठी में बाँध ली और उसे नारायण को देने के लिए दौड़ पड़े। वह दुर्बल तथा बूढ़े आदमी थे, इसलिए उनसे तेज क्या दौड़ा जाता, वह पैरों में फुर्ती लाने के लिए अपने हाथों को इस तरह भाँज रहे थे, जैसे कोई रोगी, मरियल लड़का अपने साथियों के बीच खेल-कूद के दौरान कोई हल्की-फुल्की शरारत करने के बाद तेजी से दौड़ने के लिए गर्दन को झुकाकर हाथों को चक्र की भाँति घुमाता है। उनके पैर थप-थप की आवाज के साथ प्लेटफार्म पर गिर रहे थे, और उनकी हरकतों का उनके मुख पर कोई विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था, बस यही मालूम होता कि वह कुछ परेशान हैं। प्लेटफार्म पर एकत्रित लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो गया। कुछ लोगों ने मौज में आकर जोर से ललकारा, कुछ ने किलकारियाँ मारीं और कुछ लोगों ने दौड़ के प्रति उनकी तटस्थ मुद्रा को देखकर बेतहाशा हँसना आरंभ किया। लेकिन यह उनका सौभाग्य ही था कि गाड़ी अभी खुली ही थी और स्पीड में नहीं आई थी। परिणामस्वरूप उनका हास्यजनक प्रयास सफल हुआ और उन्होंने डिब्बे के सामने पहुँचकर उत्सुक तथा चिंतित मुद्रा में डिब्बे से सिर निकालकर झाँकते हुए नारायण के हाथ में एक पुड़िया देते हुए कहा, ‘बेटा, इसे श्रद्धा के साथ खा लेना, भगवान शंकर का प्रसाद है।’

पुड़िया में कुछ बताशे थे, जो उन्होंने कल शाम को शिवजी को चढ़ाए थे और जिसे पता नहीं क्यों, नारायण को देना भूल गए थे। नारायण के मित्र कुतूहल से मुस्कराते हुए उनकी ओर देख रहे थे, और जब वह पास आ गए, तो एक ने पूछा, ‘बाबू जी, क्या बात थी, हमसे कह देते।’ शकलदीप बाबू यह कहकर कि, ‘कोई बात नहीं, कुछ रुपए थे, सोचा, मैं ही दे दूँ, तेजी से आगे बढ़ गए।’

परीक्षा समाप्त होने के बाद नारायण घर वापस आ गया। उसने सचमुच पर्चे बहुत अच्छे किए थे और उसने घरवालों से साफ-साफ कह दिया कि यदि कोई बेईमानी न हुई, तो वह इंटरव्यू में अवश्य बुलाया जाएगा। घरवालों की बात तो दूसरी थी, लेकिन जब मुहल्ले और शहर के लोगों ने यह बात सुनी, तो उन्होंने विश्वास नहीं किया। लोग व्यंग्य में कहने लगे, हर साल तो यही कहते हैं बच्चू! वह कोई दूसरे होते हैं, जो इंटरव्यू में बुलाए जाते हैं!

लेकिन बात नारायण ने झूठ नहीं कही थी, क्योंकि एक दिन उसके पास सूचना आई कि उसको इलाहाबाद में प्रादेशिक लोक सेवा आयोग के समक्ष इंटरव्यू के लिए उपस्थित होना है। यह समाचार बिजली की तरह सारे शहर में फैल गया। बहुत साल बाद इस शहर से कोई लड़का डिप्टी-कलक्टरी के इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। लोगों में आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

सायंकाल कचहरी से आने पर शकलदीप बाबू सीधे आँगन में जा खड़े हो गए और जोर से ठठाकर हँस पड़े। फिर कमरे में जाकर कपड़े उतारने लगे। शकलदीप बाबू ने कोट को खूँटी पर टाँगते हुए लपककर आती हुई जमुना से कहा, ‘अब करो न राज! हमेशा शोर मचाए रहती थी कि यह नहीं है, वह नहीं है! यह मामूली बात नहीं है कि बबुआ इंटरव्यू में बुलाए गए हैं, आया ही समझो!’

‘जब आ जाएँ, तभी न,’ जमुना ने कंजूसी से मुस्कराते हुए कहा। शकलदीप बाबू थोड़ा हँसते हुए बोल, ‘तुमको अब भी संदेह है? लो, मैं कहता हूँ कि बबुआ जरूर आएँगे, जरूर आएँगे! नहीं आए, तो मैं अपनी मूँछ मुड़वा दूँगा। और कोई कहे या न कहे, मैं तो इस बात को पहले से ही जानता हूँ। अरे, मैं ही क्यों, सारा शहर यही कहता है। अंबिका बाबू वकील मुझे बधाई देते हुए बोले, ‘इंटरव्यू में बुलाए जाने का मतलब यह है कि अगर इंटरव्यू थोड़ा भी अच्छा हो गया, तो चुनाव निश्चित है।’ मेरी नाक में दम था, जो भी सुनता, बधाई देने चला आता।’

‘मुहल्ले के लड़के मुझे भी आकर बधाई दे गए हैं। जानकी, कमल और गौरी तो अभी-अभी गए हैं। जमुना ने स्वप्निल आँखों से अपने पति को देखते हुए सूचना दी।’

‘तो तुम्हारी कोई मामूली हस्ती है! अरे, तुम डिप्टी-कलक्टर की माँ हो न, जी!’ इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका मारकर हँस पड़े। जमुना कुछ नहीं बोली, बल्कि उसने मुस्की काटकर साड़ी का पल्ला सिर के आगे थोड़ा और खींचकर मुँह टेढ़ा कर लिया। शकलदीप बाबू ने जूते निकालकर चारपाई पर बैठते हुए धीरे-से कहा, ‘अरे भाई, हमको-तुमको क्या लेना है, एक कोने में पड़कर रामनाम जपा करेंगे। लेकिन मैं तो अभी यह सोच रहा हूँ कि कुछ साल तक और मुख्तारी करूँगा। नहीं, यही ठीक रहेगा।’ उन्होंने गाल फुलाकर एक-दो बार मूँछ पर ताव दिए।

जमुना ने इसका प्रतिवाद किया, ‘लड़का मानेगा थोड़े, खींच ले जाएगा। हमेशा यह देखकर उसकी छाती फटती रहती है कि बाबू जी इतनी मेहनत करते हैं और वह कुछ भी मदद नहीं करता।’

‘कुछ कह रहा था क्या?’ शकलदीप बाबू ने धीरे-से पूछा और पत्नी की ओर न देखकर दरवाजे के बाहर मुँह बनाकर देखने लगे।

जमुना ने आश्वासन दिया, ‘मैं जानती नहीं क्या? उसका चेहरा बताता है। बाप को इतना काम करते देखकर उसको कुछ अच्छा थोड़े लगता है!’ अंत में उसने नाक सुड़क लिए।

नारायण पंद्रह दिन बाद इंटरव्यू देने गया। और उसने इंटरव्यू भी काफी अच्छा किया। वह घर वापस आया, तो उसके हृदय में अत्यधिक उत्साह था, और जब उसने यह बताया कि जहाँ और लड़कों का पंद्रह-बीस मिनट तक ही इंटरव्यू हुआ, उसका पूरे पचास मिनट तक इंटरव्यू होता रहा और उसने सभी प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर दिए, तो अब यह सभी ने मान लिया कि नारायण का लिया जाना निश्चित है।

दूसरे दिन कचहरी में फिर वकीलों और मुख्तारों ने शकलदीप बाबू को बधाइयाँ दीं और विश्वास प्रकट किया कि नारायण अवश्य चुन लिया जाएगा। शकलदीप बाबू मुस्कराकर धन्यवाद देते और लगे हाथों नारायण के व्यक्तिगत जीवन की एक-दो बातें भी सुना देते और अंत में सिर को आगे बढ़ाकर फुसफुसाहट में दिल का राज प्रकट करते, ‘आपसे कहता हूँ, पहले मेरे मन में शंका थी, शंका क्या सोलहों आने शंका थी, लेकिन आप लोगों की दुआ से अब वह दूर हो गई है।’

जब वह घर लौटे, तो नारायण, गौरी और कमल दरवाजे के सामने खड़े बातें कर रहे थे। नारायण इंटरव्यू के संबंध में ही कुछ बता रहा था। वह अपने पिता जी को आता देखकर धीरे-धीरे बोलने लगा। शकलदीप बाबू चुपचाप वहाँ से गुजर गए, लेकिन दो-तीन गज ही आगे गए होंगे कि गौरी कि आवाज उनको सुनाई पड़ी, ‘अरे तुम्हारा हो गया, अब तुम मौज करो!’ इतना सुनते की शकलदीप बाबू घूम पड़े और लड़कों के पास आकर उन्होंने पूछा, ‘क्या?’ उनकी आँखें संकुचित हो गई थीं और उनकी मुद्रा ऐसी हो गई थी, जैसे किसी महफिल में जबरदस्ती घुस आए हों।

लड़के एक-दूसरे को देखकर शिष्टतापूर्वक होंठों में मुस्कराए। फिर गौरी ने अपने कथन को स्पष्ट किया, ‘मैं कह रहा था नारायण से, बाबू जी, कि उनका चुना जाना निश्चित है।’

शकलदीप बाबू ने सड़क से गुजरती हुई एक मोटर को गौर से देखने के बाद धीरे-धीरे कहा, ‘हाँ, देखिए न, जहाँ एक-से-एक धुरंधर लड़के पहुँचते हैं, सबसे तो बीस मिनट ही इंटरव्यू होता है, पर इनसे पूरे पचास मिनट! अगर नहीं लेना होता, तो पचास मिनट तक तंग करने की क्या जरूरत थी, पाँच-दस मिनट पूछताछ करके…’

गौरी ने सिर हिलाकर उनके कथन का समर्थन किया और कमल ने कहा, ‘पहले का जमाना होता, तो कहा भी नहीं जा सकता, लेकिन अब तो बेईमानी-बेईमानी उतनी नहीं होती होगी।’

शकलदीप बाबू ने आँखें संकुचित करके हल्की-फुल्की आवाज में पूछा, ‘बेईमानी नहीं होती न?’

‘हाँ, अब उतनी नहीं होती। पहले बात दूसरी थी। वह जमाना अब लद गया।’ गौरी ने उत्तर दिया।

शकलदीप बाबू अचानक अपनी आवाज पर जोर देते हुए बोले, ‘अरे, अब कैसी बेईमानी साहब, गोली मारिए, अगर बेईमानी ही करनी होती, तो इतनी देर तक इनका इंटरव्यू होता? इंटरव्यू में बुलाया ही न होता और बुलाते भी तो चार-पाँच मिनट पूछताछ करके विदा कर देते।’

इसका किसी ने उत्तर नहीं दिया, तो वह मुस्कराते हुए घूमकर घर में चले गए। घर में पहुँचने पर जमुना से बोले, ‘बबुआ अभी से ही किसी अफसर की तरह लगते हैं। दरवाजे पर बबुआ, गौरी और कमल बातें कर रहे हैं। मैंने दूर ही से गौर किया, जब नारायण बाबू बोलते हैं, तो उनके बोलने और हाथ हिलाने से एक अजीब ही शान टपकती है। उनके दोस्तों में ऐसी बात कहाँ?’

‘आज दोपहर में मुझे कह रहे थे कि तुझे मोटर में घुमाऊँगा।’ जमुना ने खुशखबरी सुनाई।

शकलदीप बाबू खुश होकर नाक सुड़कते हुए बोले, ‘अरे, तो उसको मोटर की कमी होगी, घूमना न जितना चाहना।’ वह सहसा चुप हो गए और खोए-खोए इस तरह मुस्कराने लगे, जैसे कोई स्वादिष्ट चीज खाने के बाद मन-ही-मन उसका मजा ले रहे हों।

कुछ देर बाद उन्होंने पत्नी से प्रश्न किया, ‘क्या कह रहा था, मोटर में घुमाऊँगा?’ जमुना ने फिर वही बात दोहरा दी।

शकलदीप बाबू ने धीरे-से दोनों हाथों से ताली बजाते हुए मुस्कराकर कहा, ‘चलो, अच्छा है।’ उनके मुख पर अपूर्व स्वप्निल संतोष का भाव अंकित था।

सात-आठ दिनों में नतीजा निकलने का अनुमान था। सभी को विश्वास हो गया था कि नारायण ले लिया जाएगा और सभी नतीजे की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे।

अब शकलदीप बाबू और भी व्यस्त रहने लगे। पूजा-पाठ का उनका कार्यक्रम पूर्ववत जारी था। लोगों से बातचीत करने में उनको काफी मजा आने लगा और वह बातचीत के दौरान ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते कि लोगों को कहना पड़ता कि नारायण अवश्य ही ले लिया जाएगा। वह अपने घर पर एकत्रित नारायण तथा उसके मित्रों की बातें छिपकर सुनते और कभी-कभी अचानक उनके दल में घुस जाते तथा जबरदस्ती बात करने लगते। कभी-कभी नारायण को अपने पिता की यह हरकत बहुत बुरी लगती और वह क्रोध में दूसरी ओर देखने लगता। रात में शकलदीप बाबू चौंककर उठ बैठते और बाहर आकर कमरे में लड़के को सोते हुए देखने लगते या आँगन में खड़े होकर आकाश को निहारने लगते।

एक दिन उन्होंने सबेरे ही सबको सुनाकर जोर से कहा, ‘नारायण की माँ, मैंने आज सपना देखा है कि नारायण बाबू डिप्टी-कलक्टर हो गए।’

जमुना रसोई के बरामदे में बैठी चावल फटक रही थी और उसी के पास नारायण की पत्नी, निर्मला, घूँघट काढ़े दाल बीन रही थी।

जमुना ने सिर उठाकर अपने पति की ओर देखते हुए प्रश्न किया, ‘सपना सबेरे दिखाई पड़ा था क्या?’

‘सबेरे के नहीं तो शाम के सपने के बारे में तुमसे कहने आऊँगा? अरे, एकदम ब्रह्ममुहूर्त में देखा था! देखता हूँ कि अखबार में नतीजा निकल गया है

और उसमें नारायण बाबू का भी नाम हैं अब यह याद नहीं कि कौन नंबर था, पर इतना कह सकता हूँ कि नाम काफी ऊपर था।’

‘अम्मा जी, सबेरे का सपना तो एकदम सच्चा होता है न!’ निर्मला ने धीरे-से जमुना से कहा।

मालूम पड़ता है कि निर्मला की आवाज शकलदीप बाबू ने सुन ली, क्योंकि उन्होंने विहँसकर प्रश्न किया, ‘कौन बोल रहा है, डिप्टाइन हैं क्या?’ अंत में वह ठहाका मारकर हँस पड़े।

‘हाँ, कह रही हैं कि सवेरे का सपना सच्चा होता है। सच्चा होता ही है।’ जमुना ने मुस्कराकर बताया।

निर्मला शर्म से संकुचित हो गई। उसने अपने बदन को सिकोड़ तथा पीठ को नीचे झुकाकर अपने मुँह को अपने दोनों घुटनों के बीच छिपा लिया।

अगले दिन भी सबेरे शकलदीप बाबू ने घरवालों को सूचना दी कि उन्होंने आज भी हू-ब-हू वैसा ही सपना देखा है।

जमुना ने अपनी नाक की ओर देखते हुए कहा, ‘सबेरे का सपना तो हमेशा ही सच्चा होता है। जब बहू को लड़का होनेवाला था, मैंने सबेरे-सबेरे सपना देखा कि कोई सरग की देवी हाथ में बालक लिए आसमान से आँगन में उतर रही है। बस, मैंने समझ लिया कि लड़का ही है। लड़का ही निकला।’

शकलदीप बाबू ने जोश में आकर कहा, ‘और मान लो कि झूठ है, तो यह सपना एक दिन दिखाई पड़ता, दूसरे दिन भी हू-ब-हू वहीं सपना क्यों दिखाई देता, फिर वह भी ब्रह्ममुहूर्त में ही!’

‘बहू ने भी ऐसा ही सपना आज सबेरे देखा है!’

‘डिप्टाइन ने भी?’ शकलदीप बाबू ने मुस्की काटते हुए कहा।

‘हाँ, डिप्टाइन ने ही। ठीक सबेरे उन्होंने देखा कि एक बँगले में हम लोग रह रहे हैं और हमारे दरवाजे पर मोटर खड़ी है।’ जमुना ने उत्तर दिया।

शकलदीप बाबू खोए-खोए मुस्कराते रहे। फिर बोले, ‘अच्छी बात है, अच्छी बात है।’

एक दिन रात को लगभग एक बजे शकलदीप बाबू ने उठकर पत्नी को जगाया और उसको अलग ले जाते हुए बेशर्म महाब्राह्मण की भाँति हँसते हुए प्रश्न किया, ‘कहो भाई, कुछ खाने को होगा? बहुत देर से नींद ही नहीं लग रही है, पेट कुछ माँग रहा है। पहले मैंने सोचा, जाने भी दो, यह कोई खाने का समय है, पर इससे काम बनते न दिखा, तो तुमको जगाया। शाम को खाया था, सब पच गया।’

जमुना अचंभे के साथ आँखें फाड़-फाड़कर अपने पति को देख रही थी। दांपत्य-जीवन के इतने दीर्घकाल में कभी भी, यहाँ तक कि शादी के प्रारंभिक दिनों में भी, शकलदीप बाबू ने रात में उसको जगाकर कुछ खाने को नहीं माँगा था। वह झुँझला पड़ी और उसने असंतोष व्यक्त किया, ‘ऐसा पेट तो कभी भी नहीं था। मालूम नहीं, इस समय रसोई में कुछ है या नहीं।’

शकलदीप बाबू झेंपकर मुस्कराने लगे।

एक-दो क्षण बाद जमुना ने आँखे मलकर पूछा, ‘बबुआ के मेवे में से थोड़ा दूँ क्या?’

शकलदीप बाबू झट-से बोले, ‘अरे, राम-राम! मेवा तो, तुम जानती हो, मुझे बिलकुल पसंद नहीं। जाओ, तुम सोओ, भूख-वूख थोड़े है, मजाक किया था।’

यह कहकर वह धीरे-से अपने कमरे में चले गए। लेकिन वह लेटे ही थे कि जमुना कमरे में एक छिपुली में एक रोटी और गुड़ लेकर आई। शकलदीप बाबू हँसते हुए उठ बैठे।

शकलदीप बाबू पूजा-पाठ करते, कचहरी जाते, दुनिया-भर के लोगों से दुनिया-भर की बातचीत करते, इधर-उधर मटरगश्ती करते और जब खाली रहते, तो कुछ-न-कुछ खाने को माँग बैठते। वह चटोर हो गए और उनके जब देखो, भूख लग जाती। इस तरह कभी रोटी-गुड़ खा लेते, कभी आलू भुनवाकर चख लेते और कभी हाथ पर चीनी लेकर फाँक जाते। भोजन में भी वह परिवर्तन चाहने लगे। कभी खिचड़ी की फरमाइश कर देते, कभी सत्तू-प्याज की, कभी सिर्फ रोटी-दाल की, कभी मकुनी की और कभी सिर्फ दाल-भात की ही। उसका समय कटता ही न था और वह समय काटना चाहते थे।

इस बदपरहेजी तथा मानसिक तनाव का नतीजा यह निकला कि वह बीमार पड़ गए। उनको बुखार तथा दस्त आने लगे। उनकी बीमारी से घर के लोगों को बड़ी चिंता हुई।

जमुना ने रुआँसी आवाज में कहा, ‘बार-बार कहती थी कि इतनी मेहनत न कीजिए, पर सुनता ही कौन है? अब भोगना पड़ा न!’

पर शकलदीप बाबू पर इसका कोई असर न हुआ। उन्होंने बात उड़ा दी – ‘अरे, मैं तो कचहरी जानेवाला था, पर यह सोचकर रुक गया कि अब मुख्तारी तो छोड़नी ही है, थोड़ा आराम कर लें।’

‘मुख्तारी जब छोड़नी होगी, होगी, इस समय तो दोनों जून की रोटी-दाल का इंतजाम करना है।’ जमुना ने चिंता प्रकट की। ‘अरे, तुम कैसी बात करती हो? बीमारी-हैरानी तो सबको होती है, मैं मिट्टी का ढेला तो हूँ नहीं कि गल जाऊँगा। बस, एक-आध दिन की बात हैं अगर बीमारी सख्त होती, तो मैं इस तरह टनक-टनककर बोलता?’ शकलदीप बाबू ने समझाया और अंत में उनके होंठों पर एक क्षीण मुस्कराहट खेल गई।

वह दिन-भर बेचैन रहे। कभी लेटते, कभी उठ बैठते और कभी बाहर निकलकर टहलने लगते। लेकिन दुर्बल इतने हो गए थे कि पाँच-दस कदम चलते ही थक जाते और फिर कमरे में आकर लेटे रहते। करते-करते शाम हुई और जब शकलदीप बाबू को यह बताया गया कि कैलाशबिहारी मुख्तार उनका समाचार लेने आए हैं, तो वह उठ बैठे और झटपट चादर ओढ़, हाथ में छड़ी ले पत्नी के लाख मना करने पर भी बाहर निकल आए। दस्त तो बंद हो गया था, पर बुखार अभी था और इतने ही समय में वह चिड़चिड़े हो गए थे।

कैलाशबिहारी ने उनको देखते ही चिंतातुर स्वर में कहा, ‘अरे, तुम कहाँ बाहर आ गए, मुझे ही भीतर बुला लेते।’

शकलदीप बाबू चारपाई पर बैठ गए और क्षीण हँसी हँसते हुए बोले, ‘अरे, मुझे कुछ हुआ थोड़े हैं सोचा, आराम करने की ही आदत डालूँ।’ यह कहकर वह अर्थपूर्ण दृष्टि से अपने मित्र को देखकर मुस्कराने लगे।

सब हाल-चाल पूछने के बाद कैलाशबिहारी ने प्रश्न किया, ‘नारायण बाबू कहीं दिखाई नहीं दे रहे, कहीं घूमने गए हैं क्या?’ शकलदीप बाबू ने बनावटी उदासीनता प्रकट करते हुए कहा, ‘हाँ, गए होंगे कहीं, लड़के उनको छोड़ते भी तो नहीं, कोई-न-कोई आकर लिवा जाता है।’

कैलाशबिहारी ने सराहना की, ‘खूब हुआ, साहब! मैं भी जब इस लड़के को देखता था, दिल में सोचता था कि यह आगे चलकर कुछ-न-कुछ जरूर होगा। वह तो, साहब, देखने से ही पता लग जाता है। चाल में और बोलने-चालने के तरीके में कुछ ऐसा है कि… चलिए, हम सब इस माने में बहुत भाग्यशाली हैं।’

शकलदीप बाबू इधर-उधर देखने के बाद सिर को आगे बढ़ाकर सलाह-मशविरे की आवाज में बोले, ‘अरे भाई साहब, कहाँ तक बताऊँ अपने मुँह से क्या कहना, पर ऐसा सीधा-सादा लड़का तो मैंने देखा नहीं, पढ़ने-लिखने का तो इतना शौक कि चौबीसों घंटे पढ़ता रहे। मुँह खोलकर किसी से कोई भी चीज माँगता नहीं।’

कैलाशबिहारी ने भी अपने लड़के की तारीफ में कुछ बातें पेश कर दीं, ‘लड़के तो मेरे भी सीधे हैं, पर मँझला लड़का शिवनाथ जितना गऊ है, उतना कोई नहीं। ठीक नारायण बाबू ही की तरह है!’

‘नारायण तो उस जमाने का कोई ऋषि-मुनि मालूम पड़ता है,’ शकलदीप बाबू ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘बस, उसकी एक ही आदत है। मैं उसकी माँ को मेवा दे देता हूँ और नारायण रात में अपनी माँ को जगाकर खाता है। भली-बुरी उसकी बस एक यही आदत है। अरे भैया, तुमसे बताता हूँ, लड़कपन में हमने इसका नाम पन्नालाल रखा था, पर एक दिन एक महात्मा घूमते हुए हमारे घर आए। उन्होंने नारायण का हाथ देखा और बोले, इसका नाम पन्नालाल-सन्नालाल रखने की जरूरत नहीं, बस आज से इसे नारायण कहा करो, इसके कर्म में राजा होना लिखा है। पहले जमाने की बात दूसरी थी, लेकिन आजकल राजा का अर्थ क्या है? डिप्टी-कलक्टर तो एक अर्थ में राजा ही हुआ!’ अंत में आँखें मटकाकर उन्होंने मुस्कराने की कोशिश की, पर हाँफने लगे।

दोनों मित्र बहुत देर तक बातचीत करते रहे, और अधिकांश समय वे अपने-अपने लड़कों का गुणगान करते रहे।

घर के लोगों को शकलदीप बाबू की बीमारी की चिंता थी। बुखार के साथ दस्त भी था, इसलिए वह बहुत कमजोर हो गए थे, लेकिन वह बात को यह कहकर उड़ा देते, ‘अरे, कुछ नहीं, एक-दो दिन में मैं अच्छा हो जाऊँगा।’ और एक वैद्य की कोई मामूली, सस्ती दवा खाकर दो दिन बाद वह अच्छे भी हो गए, लेकिन उनकी दुर्बलता पूर्ववत थी।

जिस दिन डिप्टी-कलक्टरी का नतीजा निकला, रविवार का दिन था।

शकलदीप बाबू सबेरे रामायण का पाठ तथा नाश्ता करने के बाद मंदिर चले गए। छुट्टी के दिनों में वह मंदिर पहले ही चले जाते और वहाँ दो-तीन घंटे, और कभी-कभी तो चार-चार घंटे रह जाते। वह आठ बजे मंदिर पहुँच गए। जिस गाड़ी से नतीजा आनेवाला था, वह दस बजे आती थी।

शकलदीप बाबू पहले तो बहुत देर तक मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर सुस्ताते रहे, वहाँ से उठकर ऊपर आए, तो नंदलाल पांडे ने, जो चंदन रगड़ रहा था, नारायण के परीक्षाफल के संबंध में पूछताछ की। शकलदीप वहाँ पर खड़े होकर असाधारण विस्तार के साथ सब कुछ बताने लगे। वहाँ से जब उनको छुट्टी मिली, तो धूप काफी चढ़ गई थी। उन्होंने भीतर जाकर भगवान शिव के पिंड के समक्ष अपना माथा टेक दिया। काफी देर तक वह उसी तरह पड़े रहे। फिर उठकर उन्होंने चारों ओर घूम-घूमकर मंदिर के घंटे बजाकर मंत्रोच्चारण किए और गाल बजाए। अंत में भगवान के समक्ष पुनः दंडवत कर बाहर निकले ही थे कि जंगबहादुर सिंह मास्टर ने शिवदर्शनार्थ मंदिर में प्रवेश किया और उन्होंने शकलदीप बाबू को देखकर आश्चर्य प्रकट किया, ‘अरे, मुख्तार साहब! घर नहीं गए? डिप्टी-कलक्टरी का नतीजा तो निकल आया।’

शकलदीप बाबू का हृदय धक-से कर गया। उनके होंठ काँपने लगे और उन्होंने कठिनता से मुस्कराकर पूछा, ‘अच्छा, कब आया?’

जंगबहादुर सिंह ने बताया, ‘अरे, दस बजे की गाड़ी से आया। नारायण बाबू का नाम तो अवश्य है, लेकिन….’ वह कुछ आगे न बोल सके।

शकलदीप बाबू का हृदय जोरों से धक-धक कर रहा था। उन्होंने अपने सूखे होंठों को जीभ से तर करते हुए अत्यंत ही धीमी आवाज में पूछा, ‘क्या कोई खास बात है?’

‘कोई खास बात नहीं है। अरे, उनका नाम तो है ही, यह है कि जरा नीचे है। दस लड़के लिए जाएँगे, लेकिन मेरा ख्याल है कि उनका नाम सोलहवाँ-सत्रहवाँ पड़ेगा। लेकिन कोई चिंता की बात नहीं, कुछ लड़के तो कलक्टरी में चले जाते हैं कुछ मेडिकल में ही नहीं आते, और इस तरह पूरी-पूरी उम्मीद है कि नारायण बाबू ले ही लिए जाएँगे।’

शकलदीप बाबू का चेहरा फक पड़ गया। उनके पैरों में जोर नहीं था और मालूम पड़ता था कि वह गिर जाएँगे। जंगबहादूर सिंह तो मंदिर में चले गए।

लेकिन वह कुछ देर तक वहीं सिर झुकाकर इस तरह खड़े रहे, जैसे कोई भूली बात याद कर रहे हों। फिर वह चौंक पड़े और अचानक उन्होंने तेजी से चलना शुरू कर दिया। उनके मुँह से धीमे स्वर में तेजी से शिव-शिव निकल रहा था। आठ-दस गज आगे बढ़ने पर उन्होंने चाल और तेज कर दी, पर शीघ्र ही बेहद थक गए और एक नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर हाँफने लगे। चार-पाँच मिनट सुस्ताने के बाद उन्होंने फिर चलना शुरू कर दिया। वह छड़ी को उठाते-गिराते, छाती पर सिर गाड़े तथा शिव-शिव का जाप करते, हवा के हल्के झोंके से धीरे-धीरे टेढ़े-तिरछे उड़नेवाले सूखे पत्ते की भाँति डगमग-डगमग चले जा रहे थे। कुछ लोगों ने उनको नमस्ते किया, तो उन्होंने देखा नहीं, और कुछ लोगों ने उनको देखकर मुस्कराकर आपस में आलोचना-प्रत्यालोचना शुरू कर दी, तब भी उन्होंने कुछ नहीं देखा। लोगों ने संतोष से, सहानुभूति से तथा अफसोस से देखा, पर उन्होंने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उनको बस एक ही धुन थी कि वह किसी तरह घर पहुँच जाएँ।

घर पहुँचकर वह अपने कमरे में चारपाई पर धम-से बैठ गए। उनके मुँह से केवल इतना ही निकला, ‘नारायण की अम्माँ!’

सारे घर में मुर्दनी छाई हुई थी। छोटे-से आँगन में गंदा पानी, मिट्टी, बाहर से उड़कर आए हुए सूखे पत्ते तथा गंदे कागज पड़े थे, और नाबदान से दुर्गंध आ रही थी। ओसारे में पड़ी पुरानी बँसखट पर बहुत-से गंदे कपड़े पड़े थे और रसोईघर से उस वक्त भी धुआँ उठ-उठकर सारे घर की साँस को घोट रहा था।

कहीं कोई खटर-पटर नहीं हो रही थी और मालूम होता था कि घर में कोई है ही नहीं।

शीघ्र ही जमुना न मालूम किधर से निकलकर कमरे में आई और पति को देखते ही उसने घबराकर पूछा, ‘तबीयत तो ठीक है?’

शकलदीप बाबू ने झुँझला कर उत्तर दिया, ‘मुझे क्या हुआ है, जी? पहले यह बताओ, नारायण जी कहाँ हैं?’

जमुना ने बाहर के कमरे की ओर संकेत करते हुए बताया, ‘उसी में पड़े है।, न कुछ बोलते हैं और न कुछ सुनते हैं। मैं पास गई, तो गुमसुम बने रहे। मैं तो डर गई हूँ।’

शकलदीप बाबू ने मुस्कराते हुए आश्वासन दिया, ‘अरे कुछ नहीं, सब कल्याण होगा, चिंता की कोई बात नहीं। पहले यह तो बताओ, बबुआ को तुमने कभी यह तो नहीं बताया था कि उनकी फीस तथा खाने-पीने के लिए मैंने 600 रुपए कर्ज लिए हैं। मैंने तुमको मना कर दिया था कि ऐसा किसी भी सूरत में न करना।’

जमुना ने कहा, ‘मैं ऐसी बेवकूफ थोड़े हूँ। लड़के ने एक-दो बार खोद-खोदकर पूछा था कि इतने रुपए कहाँ से आते हैं? एक बार तो उसने यहाँ तक कहा था कि यह फल-मेवा और दूध बंद कर दो, बाबू जी बेकार में इतनी फिजूलखर्ची कर रहे हैं। पर मैंने कह दिया कि तुमको फिक्र करने की जरूरत नहीं, तुम बिना किसी चिंता के मेहनत करो, बाबू जी को इधर बहुत मुकदमे मिल रहे हैं।’

शकलदीप बाबू बच्चे की तरह खुश होते हुए बोले, ‘बहुत अच्छा। कोई चिंता की बात नहीं। भगवान सब कल्याण करेंगे। बबुआ कमरे ही में हैं न?’

जमुना ने स्वीकृति से सिर लिया दिया।

शकलदीप बाबू मुस्कराते हुए उठे। उनका चेहरा पतला पड़ गया था, आँखे धँस गई थीं और मुख पर मूँछें झाड़ू की भाँति फरक रही थीं। वह जमुना से यह कहकर कि ‘तुम अपना काम देखो, मैं अभी आया’, कदम को दबाते हुए बाहर के कमरे की ओर बढ़े। उनके पैर काँप रहे थे और उनका सारा शरीर काँप रहा था, उनकी साँस गले में अटक-अटक जा रही थी।

उन्होंने पहले ओसारे ही में से सिर बढ़ाकर कमरे में झाँका। बाहरवाला दरवाजा और खिड़कियाँ बंद थीं, परिणामस्वरूप कमरे में अँधेरा था। पहले तो कुछ न दिखाई पड़ा और उनका हृदय धक-धक करने लगा। लेकिन उन्होंने थोड़ा और आगे बढ़कर गौर से देखा, तो चारपाई पर कोई व्यक्ति छाती पर दोनों हाथ बाँधे चित्त पढ़ा था। वह नारायण ही था। वह धीरे-से चोर की भाँति पैरों को दबाकर कमरे के अंदर दाखिल हुए।

उनके चेहरे पर अस्वाभाविक विश्वास की मुस्कराहट थिरक रही थी। वह मेज के पास पहुँचकर चुपचाप खड़े हो गए और अँधेरे ही में किताब उलटने-पुलटने लगे। लगभग डेढ़-दो मिनट तक वहीं उसी तरह खड़े रहने पर वह सराहनीय फुर्ती से घूमकर नीचे बैठक गए और खिसककर चारपाई के पास चले गए और चारपाई के नीचे झाँक-झाँककर देखने लगे, जैसे कोई चीज खोज रहे हों।

तत्पश्चात पास में रखी नारायण की चप्पल को उठा लिया और एक-दो क्षण उसको उलटने-पुलटने के पश्चात उसको धीरे-से वहीं रख दिया। अंत में वह साँस रोककर धीरे-धीरे इस तरह उठने लगे, जैसे कोई चीज खोजने आए थे, लेकिन उसमें असफल होकर चुपचाप वापस लौट रहे हों। खड़े होते समय वह अपना सिर नारायण के मुख के निकट ले गए और उन्होंने नारायण को आँखें फाड़-फाड़कर गौर से देखा। उसकी आँखे बंद थीं और वह चुपचाप पड़ा हुआ था, लेकिन किसी प्रकार की आहट, किसी प्रकार का शब्द नहीं सुनाई दे रहा था। शकलदीप बाबू एकदम डर गए और उन्होंने काँपते हृदय से अपना बायाँ कान नारायण के मुख के बिलकुल नजदीक कर दिया। और उस समय उनकी खुशी का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने अपने लड़के की साँस को नियमित रूप से चलते पाया।

वह चुपचाप जिस तरह आए थे, उसी तरह बाहर निकल गए। पता नहीं कब से, जमुना दरवाजे पर खड़ी चिंता के साथ भीतर झाँक रही थी। उसने पति का मुँह देखा और घबराकर पूछा, ‘क्या बात है? आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? मुझे बड़ा डर लग रहा है।’

शकलदीप बाबू ने इशारे से उसको बोलने से मना किया और फिर उसको संकेत से बुलाते हुए अपने कमरे में चले गए। जमुना ने कमरे में पहुँचकर पति को चिंतित एवं उत्सुक दृष्टि से देखा।

शकलदीप बाबू ने गद्गद् स्वर में कहा, ‘बबुआ सो रहे हैं।’

वह आगे कुछ न बोल सके। उनकी आँखें भर आई थीं। वह दूसरी ओर देखने लगे।



8 - 

एक चोर की कहानी


[ जन्म: 31 दिसंबर, 1925; निधन : 28 अक्टूबर, 2011 ]

श्रीलाल शुक्ल 

श्रीलाल शुक्ल (जन्म-31 दिसम्बर 1925 - निधन- 28 अक्टूबर 2011) प्रशासनिक अधिकारी रहे। उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। रागदरबारी उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ। 2008 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित। श्रीलाल शुक्ल अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। 'कथाक्रम' समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। 10 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह, 9 व्यंग्य संग्रह, 2 विनिबंध, 1 आलोचना पुस्तक। उनका पहला उपन्यास सूनी घाटी का सूरज 1957 में प्रकाशित हुआ। राग दरबारी का पन्द्रह भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ। राग विराग आखिरी उपन्यास।

माघ की रात. तालाब का किनारा. सूखता हुआ पानी. सड़ती हुई काई. कोहरे में सब कुछ ढंका हुआ. तालाब के किनारे बबूल, नीम, आम और जामुन के कई छोटे-बड़े पेड़ों का बाग. सब सर झुकाए खड़े हुए. पेड़ों के बीच की जमीन कुशकास के फैलाव में ढंकी हुई. उसके पार गन्‍ने का खेत. उसका आधा गन्‍ना कटा हुआ. उस पर गन्‍ने की सूखी पत्तियां फैली हुईं. उन पर जमती हुई ओस. कटे हुए गन्‍ने की ठूंठियां उन्‍हें पत्तियों में ढंकी हुईं. आधे खेत में उगा हुआ गन्‍ना, जिसकी फुनगी पर सफेद फूल आ गए थे. क्‍योंकि वह पुराना हो रहा था.

रात के दो बजे. पास की अमराइयों में चिडि़यों ने पंख फटकारे. कोई चमगादड़ ‘कैं कैं’ करता रहा. एक लोमड़ी दूर की झाडि़यों में खांसती रही. पर रात के सन्‍नाटे के अजगर ने अपनी बर्फीली सांस की एक फुफकार से इन सब ध्‍वनियों को अपने पेट में डाल लिया और रह-रहकर फुफकारता रहा.

तभी, जैसे गन्‍ने के सुनसान घने खेत से अकस्‍मात बनैले सुअरों का कोई झुण्‍ड बाहर निकल आए, बड़े जोर का शोर मचा, ‘चोर! चोSSSर. चोSSSर!’

गांव की ओर से लगभग पच्‍चीस आवाजें हवा में गूंज रही थीं :

‘चोर! चोर! चोSSSर. चोSSSर!’

‘चारों ओर से घेर लो. जाने न पाए.’

‘ठाकुर बाबा के बाग की तरफ गया है…’

‘भगंती के खेत की तरफ देखना.’

‘हां, हां गन्‍ने वाला खेत.....’

‘चोSSSर. चोSSSर!’

देखते-देखते गांव वाले ठाकुर के बाग में पहुंच गए. चारों ओर से उन्‍होंने बाग को और उससे मिले हुए गन्‍ने के खेत को घेर लिया. लालटेनों की रोशनी में एक-एक झाड़ी की तलाशी ली जाने लगी. सब बोल रहे थे. कोई भी सुन नहीं रहा था.

तभी एक आदमी ने टॉर्च की रोशनी फेंकनी शुरू की. भगंती के खेत में उसने कुछ गन्‍नों को हिलते देखा. फिर वह धीरे-धीरे खेत के किनारे तक गया. दो-तीन कोमल गन्‍ने जमीन पर झुके पड़े थे. उसी की सीध में कुछ गन्‍ने ऐसे थे जिन पर से पाले की बूंदें नीचे ढुलक गई थीं. टॉर्च की रोशनी में और पौधों के सामने ये कुछ अधिक हरे दिख रहे थे.

टॉर्च की रोशनी को खेत की गहराइयों में फेंकते हुए उस आदमी ने चिल्‍लाकर कहा, ‘होशियार भाइयो, होशियार! चोर इसी खेत में छिपा है. चारों ओर से इसे घेर लो. जाने न पाए!’

फिर शोर मचा और लोगों ने खेत को चारों ओर से घेर लिया. उस आदमी ने मुंह पर दोनों हाथ लगाकर जोर-से कहा, ‘खेत में छिपे रहने से कुछ नहीं होगा. बाहर आ जाओ, नहीं तो गोली मार दी जाएगी.’

वह बार-बार इसी बात को कई प्रकार से आतंक-भरी आवाज में कहता रहा. भीड़ में खड़े एक अधबैसू किसान ने अपने पास वाले साथी से कहा, ‘नरैना है बड़ा चाईं. कलकत्‍ता कमाकर जब से लौटा है, बड़ा हुसियार हो गया है.’

उसके साथी ने कहा, ‘बड़े-बड़े साहबों से रफ्त-जब्‍त रखता है. कलकत्‍ते में इसके ठाठ हैं. मैं तो देख आया हूं. लड़का समझदार है.’

‘जान कैसे लिया कि चोर खेत में है?’

तभी किसी ने कहा, ‘यह चोट्टा खेत से नहीं निकलता तो आग लगा दो खेत में. तभी बाहर जाएगा.’

इस प्रस्‍ताव के समर्थन में कई लोग एक साथ बोलने लगे. किसी ने इसी बीच में दियासलाई भी निकाल ली.

भगंती ने आकर नरायन उर्फ नरैना से हाथ जोड़कर कहा, ‘हे नरायन भैया, एक चोर के पीछे हमारा गन्‍ना न जलवाओ. सैकड़ों का नुकसान हो जाएगा. कोई और तरकीब निकालो.’

नरायन ने कहा, ‘देखते जाओ भगंती काका, खेत का गन्‍ना जलेगा नहीं, पर कहा यही जाएगा.’

उसने तेजी से चारों ओर घूमकर कुछ लोगों से बातें कीं और खेत के आधे हिस्‍से में गन्‍ने की जो सूखी पत्तियां पड़ी थीं. उनके छोटे-छोटे ढेरों में आग लगा दी. बहुत-से लोग आग तापने के लिए और भी नजदीक सिमट आए. सब तरह का शोर मचता रहा.

खेत के बीच में गन्‍ने के कुछ पेड़ हिल. नरायन ने उत्‍साह से कहा, ‘शाबाश! इसी तरह चले आओ.’

पास खड़े हुए भगंती से उसने कहा, ‘चोर आ रहा है. दस-पन्‍द्रह आदमियों को इधर बुला लो.’

 ओर से उठने वाली आवाजें शांत हो गईं. लोगों ने गर्दन उठा-उठाकर खेत के बीच में ताकना शुरू कर दिया.

चोर के निकलने का पता लोगों को तब चला जब वह नरायन के पास खड़ा हो गया.

सहसा चोर को अपने पैरों से लिपटा हुआ देख वह उछलकर पीछे खड़ा हो गया जैसे सांप छू लिया हो. एक बार फिर शोर मचा, ‘चोर! चोSSSर!’

चोर घुटनों के बल जमीन पर गिर पड़ा.

न जाने आसपास खड़े लोगों को क्‍या हुआ कि तीन-चार आदमी उछलकर चोर के पास गए और उसे लातों-मुक्‍कों से मारना शुरू कर दिया. पर उसे ज्‍यादा मार नहीं खानी पड़ी. मारने वालों के साथ ही नरायन भी उसके पास पहुंच गया. उनको इधर-उधर ढकेलकर वह चोर के पास खड़ा हो गया और बोला, ‘भाई लोगो, यह बात बेजा है. हमने वादा किया है कि मारपीट नहीं होगी, यह शरनागत है. इसे मारा न जाएगा.’

एक बुड्ढे ने दूर से कहा, ‘चोट्टे को मारा न जाएगा तो क्‍या पूजा जाएगा.’

पर नरायन ने कहा, ‘अब चाहे जो हो, इसे पुलिस के हाथों में देकर अपना काम पूरा हो जाएगा. मारपीट से कोई मतलब नहीं.’

लोग चारों ओर से चोर के पास सिमट आए थे. नरायन ने टॉर्च की रोशनी उस पर फेंकते हुए पूछा, ‘क्‍यों जी, माल कहां है?’

पर उसकी निगाह चोर के शरीर पर अटकी रही. चोर लगभग पांच फुट ऊंचा, दुबला-पतला आदमी था. नंगे पैर, कमर से घुटनों तक एक मैला-सा अंगोछा बांधे हुए. जिस्‍म पर एक पुरानी खाकी कमीज थी. कानों पर एक मटमैले कपड़े का टुकड़ा बंधा था. उमर लगभग पचास साल होगी. दाढ़ी बढ़ रही थी. बाल सफेद हो चले थे. जाड़े के मारे वह कांप रहा था और दांत बज रहे थे. उसका मुंह चौकोर-सा था. आंखों के पास झुर्रियां पड़ी थीं. दांत मजबूत थे. मुंह को वह कुछ इस प्रकार खोले हुए था कि लगता था कि मुस्‍कुरा रहा है.

उसे कुछ जवाब ने देते देख कुछ लोग उसे फिर मारने को बढ़े पर नरायन ने उन्‍हें रोक लिया. उसने अपना सवाल दोहराया, ‘माल कहां है?’

लगा कि उसके चेहरे की मुस्‍कान बढ़ गई है. उसने हाथ जोड़कर खेत की ओर इशारा किया. इस बार नरायन को गुस्‍सा आ गया. अपनी टॉर्च उसकी पीठ पर पटककर उसने डांटकर कहा, ‘माल ले आओ.’

दो आदमी लालटेनें लिए हुए चोर के साथ खेत के अंदर घुसे. पाले और ईख की नुकीली पत्तियों की चोट पर बार-बार वे चोर को गाली देते रहे. थोड़ी देर बाद जब वे बाहर आए तो चोर के हाथ में एक मटमैली पोटली थी. पोटली लाकर उसने नरायन के पैरों के पास रख दी.

नरायन ने कहा, ‘खोलो इसे. क्‍या-क्‍या चुरा रक्‍खा है?’

उसने धीरे-धीरे थके हाथों से पोटली खोली. उसमें एक पुरानी गीली धोती, लगभग दो सेर चने और एक पीतल का लोटा था. भीड़ में एक आदमी ने सामने आकर चोर की पीठ पर लात मारी. कुछ गालियां दीं और कहा, ‘यह सब मेरा माल है.’

लोग चारों ओर से चोर के ऊपर झुक आए थे. वह नरायन के पैरों के पास चने, लोटे और धोती को लिए सर झुकाए बैठा था. सर्दी के मारे उसके दांत किटकिटा रहे थे और हाथ हिल रहे थे. नरायन ने कहा, ‘इसे इसी धोती में बांध लो और थाने ले चलो.’

दो-तीन लोगों ने चोर की कमर धोती से बांध ली और उसका दूसरा सिरा पकड़कर चलने को तैयार हो गए.

चोर के खड़े होते ही किसी ने उसके मुंह पर तमाचा मारा और गालियां देते हुए कहा, ‘अपना पता बता वरना जान ले ली जाएगी.’

चोर जमीन पर सर लटकाकर बैठ गया. कुछ नहीं बोला. तब नरायन ने कहा, ‘क्‍यों उसके पीछे पड़े हो भाइयों! चोर भी आदमी ही है. इसे थाने लिए चलते हैं. वहां सब कुछ बता देगा.’

किसी ने पीछे से कहा, ‘चोर-चोर मौसेरे भाई.’

नरायन ने घूमकर कहा, ‘क्‍यों जी, मैं भी चोर हूं? यह किसकी शामत आई!’

दो-एक लोग हंसने लगे. बात आई-गई हो गई.

वे गांव के पास आ गए. तब रात के चार बज रहे थे. चोर की कमर धोती से बांधकर, उसका एक छोर पकड़कर दीना चौकीदार थाने चला. साथ में नरायन और गांव के दो और आदमी भी चले.

चारों में पहले वाला बुड्ढा किसान रास्‍ता काटने के लिए कहानियां सुनाता जा रहा था, ‘तो जुधिष्ठिर ने कहा कि बामन ने हमारे राज में सोने की थाली चुराई है. उसे क्‍या दंड दिया जाए? तो बिदुर बोले कि महाराज, बामन को दंड नहीं दिया जाता. तो राजा बोले कि इसने चोरी की है तो दंड तो देना ही पड़ेगा. तब बिदुर ने कहा कि महाराज, इसे राजा बलि के पास इंसाफ के लिए भेज दो. जब राजा बलि ने बामन को देखा तो उसे आसन पर बैठाला....’

चौकीदार ने बात काटकर कहा, ‘चोर को आसन पर बैठाला? यह कैसे?’

बुड्ढा बोला, ‘क्‍या चोर, क्‍या साह! आदमी आदमी की बात! राजा ने उसे आसन दिया और पूरा हाल पूछा. पूछा कि आपने चोरी क्‍यों की तो बामन बोला कि चोरी पेट की खातिर की.’

चौकीदार ने पूछा, ‘तब?’

‘तब क्‍या?’ बुड्ढा बोला, ‘राजा बलि ने कहा कि राजा युधिष्ठिर को चाहिए कि वे खुद दंड लें. बामन को दंड नहीं होगा. जिस राजा के राज में पेट की खातिर चोरी करनी पड़े वह राजा दो कौड़ी का है. उसे दंड मिलना चाहिए. राजा बलि ने उठकर....’

चौकीदार जी खोलकर हंसा. बोला, ‘वाह रे बाबा, क्‍या इंसाफ बताया है राजा बलि का. राजा विकरमाजीत को मात कर दिया.’

वे हंसते हुए चलते रहे. चोर भी अपनी पोटली को दबाए पंजों के बल उचकता-सा आगे बढ़ता गया.

पूरब की ओर घने काले बादलों के बीच से रोशनी का कुछ-कुछ आभास फूटा. चौकीदार ने धोती का छोर नरायन को देते हुए कहा, ‘तुम लोग यहीं महुवे के नीचे रूक जाओ. मैं दिशा मैदान से फारिग हो लूं.’

साथ के दोनों आदमी भी बोल उठे. बुड्ढे ने कहा, ‘ठीक तो है नरायन भैया, यहीं तुम इसे पकड़े बैठे रहो. हम लोग भी निबट आवें.’

वे चले गए. नरायन थोड़ी देर चोर के साथ महुवे के नीचे बैठा रहा. फिर अचानक बोला, ‘क्‍यों जी, मुझे पहचानते हो?’

दया की भीख-सी मांगते हुए चोर ने उसकी ओर देखा. कुछ कहा नहीं. नरायन ने फिर धीरे-से कहा, ‘हम सचमुच मौसेरे भाई हैं.’

इस बार चोर ने नरायन की ओर देखा. देखता रहा. पर इस सूचना पर नरायन जिस आश्‍चर्य-भरी निगाह की उम्‍मीद कर रहा था, वह उसे नहीं मिली. बढ़ी हुई दाढ़ी वाला एक दुबला-पतला चौकोर चेहरा उससे दया की भीख मांग रहा था. नरायन ने धीरे-से रूक-रूककर कहा, ‘कलकत्‍ते के शाह मकसूद का नाम सुना है? उन्‍हीं के गोल का हूं.’

जैसे किसी को किसी अनजाने जाल में फंसाया जा रहा हो, चोर ने उसी तरह बिंधी हुई निगाह से उसे फिर देखा. नरायन ने फिर कहा, ‘कलकत्‍ते के बड़े-बड़े सेठ मेरे नाम से थर्राते हैं. मेरी शक्‍ल देखकर तिजोरियों के ताले खुल जाते हैं, रोशनदान टूट जाते हैं.’

वह कुछ और कहता. लगातार बात करने का लालच उसकी रग-रग में समा गया था. अपनी तारीफ में वह बहुत कुछ कहता. पर चोर की आंखों में न आनंद झलका, न स्‍नेह दिखाई दिया. न उसकी आंखों में प्रशंसा की किरण फूटी, न उनमें आतंक की छाया पड़ी. वह चुपचाप नरायन की ओर देखता रहा.

सहसा नरायन ने गुस्‍से में भरकर उसकी देह को बड़े जोर-से झकझोरा और जल्‍दी-जल्‍दी कहना शुरू किया, ‘सुन बे, चोरों की बेइज्‍जती न करा. चोरी ही करनी है तो आदमियों जैसी चोरी कर. कुत्‍ते, बिल्‍ली, बंदरों की तरह रोटी का एक-एक टुकड़ा मत चुरा. सुन रहा है बे?’

मालूम पड़ा कि वह सुन रहा है. उसकी चेहरे पर हैरानी का चढ़ाव-उतार दीख पड़ने लगा था. नरायन ने कहा, ‘यह सेर-आध सेर चने और यह लोटा चुराते हुए तुझे शर्म भी नहीं आई? यही करना है तो कलकत्‍ते क्‍यों नहीं आता?’

न जाने क्‍यों, चोर की आंखों से आंसू बह रहे थे. उसके होंठ इतना फैल गए थे कि लग रहा था, वह हंस पड़ेगा. पर आंसू बहते ही जा रहे थे. वह अपने पेट पर दोनों हाथों से मुक्‍के मारने लगा. आंसुओं का वेग और बढ़ गया.

नरायन ने बात करनी बंद कर दी. कुछ देर रूककर कहा, ‘भाग जो. कोई कुछ न कहेगा. जब तू दूर निकल जाएगा तभी मैं शोर मचाऊंगा.’

जब इस पर भी चोर ने कुछ जवाब न दिया तो उसे आश्‍चर्य हुआ. फिर कुछ रूककर उसने कहा, ‘बहरा है क्‍या बे?’

फिर भी चोर ने कुछ नहीं कहा.

नरायन ने उसे बांधने वाली धोती का छोर उसकी ओर फेंका, उसे ढकेलकर दूर किया और हाथ से उसे भाग जाने का इशारा किया. पर चोर भागा नहीं. थका-सा जमीन पर औंधे मुंह पड़ा रहा.

इतने में दूसरे लोग आते हुए दिखाई पड़े. नरायन ने गंभीरतापूर्वक उठकर चोर को जकउ़ने वाली धोती पकड़ ली. उसे हिला-डुलाकर खड़ा कर दिया. एक-एक करके वे सब लोग आ गए.

सवेरा होते-होते वे थाने पहुंच गए. थाना मुंशी ने देखते ही कहा, ‘सबेरे-सबेरे किस का मुंह देखा!’

पर मुंह देखते ही वह फिर बोला, ‘अजब जानवर है! चेहरा तो देखो, लगता है हंस पड़ेगा.’

दिन के उजाले में सबने देखा कि उसका चेहरा सचमुच ऐसा ही है. छोटी-छोटी सूजी हुई आंखों और बढ़ी हुई दाढ़ी के बावजूद चौकोर चेहरे मे फैल हुआ मुंह, लगता था, हंसने ही वाला है.

थाना मुंशी ने पूछा, ‘क्‍या नाम है?’

चोर ने पहले की तरह हाथ जोड़ दिए. तब उसने उसके मुंह पर दो तमाचे मारकर अपना सवाल दोहराया. चोर का मुंह कुछ और फैल गया. उसने-दो-चार तमाचे फिर मारे.

इस बार उसकी चीख से सब चौंक पड़े. मुंह जितना फैल सकता था, उतना फैलाकर चोर बड़ी जोर-से रोया. लगा, कोई सियार अकेले में चांद की ओर देखकर बड़ी जोर-से चीख उठा है.

मुंशी ने उदासीन भाव से पूछा, ‘माल कहां है?’

नरायन ने चने, लोटे और धोती को दिखाकर कहा, ‘यह है.’

न जाने क्‍यों सब थके-थके से, चुपचार खड़ रहे. चोर अब सिसक रहा था. सहसा एक सिपाही ने अपनी कोठरी से निकलकर कहा, ‘मुंशी जी, यह तो पांच बार का सजायाफ्ता है. इसके लिए न जेल में जगह है, न बाहर. घूम-फिरकर फिर यहीं आ जाता है.’

मुंशी ने कहा, ‘कुछ अधपगला-सा है क्‍या?’

सिपाही ने मुंशी के सवाल का जवाब स्‍वीकार में सिर हिलाकर दिया. फिर पास आकर चोर की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘क्‍यों गूंगे, फिर आ गए. कितने दिन के लिए जाओगे छह महीने कि साल-भर?’

चोर सिसर रहा था, पर उसकी आंखों में भय, विस्‍मय और जड़ता के भाव समाप्‍त हो चले थे. सिपाही की ओर वह बार-बार हाथ जोड़कर झुकने लगा, जैसे पुराना परिचित हो.

चौकीदार ने साथ के बुड्ढे को कुहनी से हिलाकर कहा, ‘साल-भर को जा रहा है. समझ गए बलि महाराज?’   

पर कोई भी नहीं हंसा.



9 - 

साक्षात्कार

ज. ला. श्रीवास्तव

मेरा दूर दृष्टि का चश्मा पढ़ते समय तकलीफ देने लगा है। लगता है मेरी आंखें अब और कमजोर हो रही है। शायद अब निकट दृष्टि भी खराब हो जायेगी। फिर “बाइफोकल”। लेकिन इसमें मेरा क्या दोष है। मैं तो हर तरफ से सतर्क रहता हूं। फिर भी मेरा हर पासा उलटा ही पड़ता है। आख़िर क्यों? सोचता हूं जरूर इसमें उसी की साजिश है। वही मेरी हर चाल बेकार करने पर तुला हुआ है। लेकिन बातें वह ऐसी चालाकी से करता है कि सारा दोष मेरा ही प्रतीत होने लगता है। अभी उस दिन जब मैंने अपनी गिरती हुई बीनाई का जिक्र उससे किया तो कहता है--“यह तो आयु की प्रौढ़ता का प्रतीक है। तुम अधेड़ उम्र के हुए भी तो।” गोया अधेड़ उम्र का हर इन्सान “बाइफोकल” लगाने को मजबूर है यह नहीं कि मेरे पास बुद्धि नहीं है, या कि मैं “कामनसेन्स” 'लक” करता हूं। आप खुद समझ सकते हैं कि ऐसी कोई बात नहीं है। फिर भी भली प्रकार आगा-पीछा सोचकर लिया गया मेरा हर 'मूव” मेरे उलटा जो पड़ता है उसके पीछे आखिर और किसका हाथ हो सकता है?

इतना सब होने पर भी वह प्रायः मेरे यहां आता ही रहता है और जब भी आता है तो मुझको ही दोषी ठहराता हुआ।

आखिर तुम इतने “चांसेज” क्‍यों लेते हो?” -वह मुस्कराता हुआ अपने खास मासूम अंदाज में कहता है। तुमने अपनी जिन्दगी को जुआ क्यों समझ रखा है? जिन्दगी दांव पर लगाने के लिए नहीं होती। वह सोच-विचार कर किसी ऐसे जाने-समझे भले काम में लगाने के लिए होती है, जिससे जिन्दगी को सुख मिले, अन्तरात्मा को सुकून मिले।” उसकी इन चालाकीभरी बातों से बार-बार झुंझलाहट होती है। जी में आता है कि मैं भी एक बार उसे खरी-खरी सुनाऊं। उसे बताऊं कि जिसे वह जाना-समझा “भला” काम कहता है वह एक बंधे-बंधाये ढर्रे के सिवा और कुछ नहीं है। और जिन्दगी बंधे-बंधाये ढर्रे पर चलाने के लिए नहीं होती। वरना वह तो कोल्हू के गिर्द बनने वाले दायरे से अलग कोई और शकल अख्तियार ही नहीं कर सकती। जिन्दगी तो खुद ही एक बहुत बड़ा जुआ है। क्‍या हर जीने वाला अपनी जिन्दगी के आने वाले कल को दांव पर नहीं लगाता है? क्या वह कभी भी अपनी चिन्तन प्रक्रिया में भविष्य को ठीक-ठीक 'फोरसी” कर सकता है? नहीं न? तो फिर एक निश्चित व्यवस्था में 'फिट” होने को ही वह “जाना-समझा भला काम' की संज्ञा क्यों देता है? एक जुआरी भी क्‍या यों ही दांव फेंक देता है? वह भी तो दांव लगाने से पहले सभी सम्भावनाओं और परिणामों पर भली प्रकार सोच-विचार लेता है तभी अपना दांव लगाता है। वह भी तो अपनी जिन्दगी के सुख और अन्तरात्मा के सुकून के लिये ही दांव लगाता है। अब यह दूसरी बात है कि जिस तरह कुछ आदमियों की जिन्दगी के आने वाले कल उनके सोचे हुए ढंग पर नहीं उतरते, उसी तरह कुछ जुआरी भी अपना दांव हार जाते हैं। इसमें अफसोस की क्या बात है?

लेकिन चाह कर भी मैं उससे यह सब कह नहीं पाता। मैं जानता हूं कि वह इन बातों की गहराई में जाने की जहमत नहीं उठायेगा। शायद ये बातें उसकी समझ में ही न आये। या यह भी तो हो सकता है कि वह इन बातों को बखूबी समझता हो, फिर भी जान-बूझकर मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश करता हो। वह है बड़ा काइयां। ज्यादा मुमकिन तो यही है कि वह इन बातों को समझते हुए भी मुझे मूर्ख बना रहा है। या वह चाहता हो कि उसकी इन दलीलों के प्रभाव में आकर मैं “रिस्क' लेना छोड़ दूं। तभी तो वह अक्सर मुझे इधर-उधर की बातों में घसीट कर भुलावे में रखना चाहता है।

अभी उस दिन वह आया तो बोला-“चलो यार, तुम्हें शिकार पर ले चलूं। क्या पड़े-पड़े मनहूसियत झेल रहे हो?

उसकी इस बात पर भी मैं कुढ़कर रह गया था। जी में आया कि बच्चू को बताऊं कि मनहूसियत झेलने की नहीं, जीने की चीज होती है। असल में जिन्दगी का सही रूप तो मनहूसियत ही है। झेली तो जाती है खुशी, रंज, गम, प्यार, मुहब्बत और दीगर ऐसी चीजें जिन्हें वह और उस जैसा दूसरे ना-समझ लोग जिन्दगी का सही रूप समझते हैं। इसलिए तो जिन्दगी उनके लिए दुश्वार होती है और वे जिन्दगी के इन रूपों को झेलते-झेलते थक जाते हैं। कभी सुना है आपने कि किसी मनहूस की जिन्दगी भी दुश्वार हो गई हो।

लेकिन उस दिन भी मैंने उससे कुछ नहीं कहा था। क्योंकि मैं जानता हूं कि उसके यहां जिन्दगी के तमाम रूपों का गलत 'क्लासीफिकेशन” ही चलता है। उसने या उस जैसे दूसरे लोगों ने कभी सही नजरिए से जिन्दगी को आंकने या उसे 'क्लासिफाई” करने की कोशिश नहीं की है। लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। गलत वर्गीकरण कर देने से परिभाषायें गलत नहीं हो जाती। वे तो अपनी जगह पर बिल्कुल सही होती है। अब उसके उस दिन के शिकार की ही बात को ले लें। आया तो बहुत उत्तेजित था। उत्साह की बेचैनी उसे एक जगह बैठने ही नहीं देती थी।

“चलो-चलो, आज बहानेबाजी नहीं चलेगी। आज तुम्हें चलना ही पड़ेगा। शिकार का बड़ा अच्छा मौका हाथ आया है। रेंजर तिवारी भी साथ रहेगा। कोई दिक्कत नहीं होगी। जीप से चलेंगे। आजकल हिरन, चीतल, और कभी-कभी बनैले सूअर भी मिल जाते हैं। बड़ा मजा आयेगा ।

बच्चू उछल रहे थे ऐसे मानो सबसे बड़े शिकारी वही हों। असलियत तो मैं जानता हूं। ठीक से बन्दूक पकड़ना भी तो नहीं आता। बस बच्चों की तरह ट्रिगर दबाना ही जानते हैं। लेकिन शिकारी हैं, क्योंकि उनके पास दो-दो बंदूकें हैं, जीप है, शिकार का इन्तजाम कर सकते हैं। एक गोली में दो-चार नहीं तो दस-पांच गोली में एक शिकार तो मार ही सकते हैं। यानी कि शिकारी होने के लिए बन्दूक चलाने का ढंग जानना जरूरी नहीं है, जरूरी है बन्दूक रखना, जीप रखना और अंधाधुन्ध चलाने के लिए गोलियां खरीदने के लिए पैसा रखना। साथ में ऊँचे तक पहुंच हो तो और भी अच्छा।

और उसके पास यह सब कुछ है। इसलिए वह शिकारी है। और चूंकि हर बड़े आदमी को अपने बड़प्पन का एहसास कराने के लिए बहुत सारे "छोटे आदमियों” की जरूरत होती है, जिन्हें वह अपना मित्र कह सके और जिनके बीच रहकर अपने बड़े होने का एहसास बनाए रख सके, इसलिए उसे भी मेरी जरूरत पड़ी। वह दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया और मुझे घसीट कर अपने साथ शिकार पर ले गया। उसे उम्मीद थी कि चूंकि मैं उसी का दिया खा रहा हूं उसीकी शराब पानी की तरह पी रहा हूं, उसीकी जीप पर चल रहा हूं।  और उसीकी व्यवस्था का लाभ उठाकर अच्छे डाक-बंगलों और रेस्ट हाउसों में ठहर रहा हूं इसलिए मैं उसकी हां में हां मिलाऊंगा, उसकी प्रशंसा करूंगा।

लेकिन मैंने कहा न कि मैं मूर्ख नहीं हूं। मैं सब समझ सकता हूं मैं उसके फांसे में नहीं आ सकता। अगर मैं भी उसी की तरह चालाक और चालबाज होता तो मैं खाने-पीने में चढ़-बढ़ कर हाथ मारता, उसकी प्रशंसा में लम्बी-लम्बी डींगें हांकता और लौटने पर उसी के दिये हिरन की खाल या बनैले सूअर का सिर अपने ड्राइंग रूम में टांगकर अपने परिचितों के बीच मैं भी एक बड़ा शिकारी बन जाता। या दूसरे शिकारियों के बीच अपनी धाक जमाता। लेकिन मैं दोनों ओर से मजबूर हूं। मैं न स्वयं चालबाजी से काम ले सकता हूं और न उसकी चालबाजी के चक्कर में आ सकता हूं। इसी लिए तो उसके साथ शिकार पर जाने के बावजूद मैं उसकी गलत बातों को अपना समर्थन नहीं दे सका।

शायद मेरे उस “एटीच्यूड” से वह कुढ़ गया था। या शायद अपना 'डिफेंस” करने की मेरी अनिच्छा को यह भांप गया था और इस कारण पूरी पार्टी में वह मुझे ही सबसे कमजोर समझ बैठा था। कारण चाहे जो रहा हो, लेकिन मेरे खिलाफ अपनी साजिश का बाल फैलाने से वह वहां भी बाज नहीं आया। जब भी मौका मिलता, वह मुझे धर-दबोचने की कोशिश करता।

उस समय हम सभी जंगल विभाग के डाकबंगले में डेरा डाले पड़े थे। हम सभी यानी वह, रेंजर, तिवारी, तिवारी का मित्र भालोटिया और मैं। इनमें मैं ही एक अदना इन्सान था। वरना वे तो सभी बड़े आदमी थे। खुद उसकी हैसियत बता ही चुका हूं। रेंजर तिवारी बड़े बाप का बेटा है। खुद भी खूब कमाता है-जंगल के ठेकेदार और जंगल विभाग के कर्मचारी सभी उसके लिए पैसा बनाने की मशीनें हैं। अपनी “कमाई” से ही उसने अब तक शहर में दो कोठियां बनवा लिया है, तीसरी की नींव दी जा चुकी है। उसका मित्र भालोटिया व्यापारी है। उसकी फर्म “भालोटिया हैंडलूम टेक्स-टाइल्स” हाथकरघा के कपड़ों का थोक व्यापार करती है। लाखों का कारोबार है।

पता नहीं बात कहां से उठी थी। लेकिन घूमते-घूमते तिवारी की नयी बन रही कोठी पर आ टिकी थी। भालोटिया सुझा रहा था कि कहां-कहां मोज़ैक लगवाया जाय, कहां पर मारबल टाइल्स लगे और बिजली की ढकी हुई फिटिंग जब हो रही है तो अप्रत्यक्ष प्रकाश (इन्डाइरेक्ट लाइटिंग) भी होना चाहिए। अब नयी कोटियों में मरकरी लगवा कर संतुष्ट हो जाना मूर्खता है।

मुझे इसमें तो कोई एतराज नहीं था कि मौज़ैक, मारबल या प्रकाश भालोटिया की पसंद का हो। लेकिन आप ही बताइए, मरकरी लगवाकर संतुष्ट हो जाने वालों को मूर्ख कहना कहां तक उचित है? सो मैंने टोक दिया। बस क्या था? तिवारी और भालोटिया तो रहे अपनी जगह, वह टूट पड़ा मुझ पर-'साले, पैसा तिवारी का लगता है, तो तुझे क्या एतराज है।'

मैंने बात समझाने की गरज से कह दिया-“ठीक है। पैसा तिवारी का लगता है, अकल भालोटिया की लगती है। लेकिन तिवारी का पैसा और भालोटिया की अकल मिलकर दूसरों को मूर्ख क्यों कहते हैं। इसका हक उन्हें कैसे मिल गया?

कहने को तो मैं और भी बहुत कुछ कह सकता था। मैं पूछ सकता कि क्‍या सचमुच पैसा तिवारी का लग रहा है? इतने वेतन में इतनी शान से रहने के बाद भी क्‍या उसके पास शानदार कोठियां बनवाने के लिए पैसा बच जाता है? क्या यह सच नहीं है कि उसका यह सारा पैसा उसकी अपनी मेहनत या बुद्धि के वजह से नहीं, बल्कि एक खास व्यस्था में एक खास जगह फिट हो जाने से है? क्या उस विशेष जगह से अलग हटकर भी वह इसी प्रकार अन्धाधुंध पैसा पैदा कर सकता है? क्‍या यह भी सच नहीं है कि उस व्यवस्था को बनाये रखने में भी उसे कुछ विशेष श्रम या बुद्धि नहीं लगानी पड़ती है? और यह भालोटिया कब का अक्लमन्द पैदा हो गया? वह भी तो उसी व्यवस्था की देन है, जिसे दूसरों के बल पर खाने, पीने और जीने के अलावा खुद कुछ करना नहीं आता वह कब का अक्लमंद हो गया? लेकिन मैं यह सब नहीं कह सका क्‍योंकि मेरा उतना ही कहना तो उसे गोली की तरह लग गया। तड़प कर वह चिल्लाया-“जो मूर्ख है उसे मूर्ख ही कहा जायगा। तू खुद मूर्ख है जो यह भी नहीं समझ पाता कि रोटी के किस तरफ मक्खन लगा है। तभी तो इस तरह ऊल-जलूल बक रहा है।

मुझे चुप हो जाना पड़ा। बल्कि यों कहें कि मैं सोच समझकर चुप हो गया क्‍योंकि मैं उन सबों को खूब जानता हूं। वे जिस व्यवस्था में जी रहे हैं उसके खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं होंगे। और नहीं तो ऐसी बातें करने वाले को ही वे मूर्ख साबित करेंगे। उनके लिए तो ऊंची कुर्सी और आकर्षक मुखौटे ही पूजा की वस्तु हैं। उस कुर्सी पर कौन बैठ सकता है यह देखने की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है। वे प्रतिभा को क्या जानें?

उनकी समझ से तो जो 'हाउजी” खेल सके वही बुद्धिमान और जो ज्यादा पेग चढ़ा सके, वही बहादुर है। ऐसे आदमी से बहस करके क्‍या होगा? अतः मैं चुप ही रहा। 

दूसरे दिन काफी समाप्त करके जब हम जंगल की ओर चले तो उसने पहले ही कह दिया “भाई, आज का शिकार मेरा। तुम लोग पहले ही गोली न चला देना। आज पहला शिकार मैं मारुंगा।'

उसकी इस बात का लक्ष्य तिवारी था, यह बात हम सभी समझ गये। सभी जानते थे कि तिवारी 'डेड शाट' है। उसका निशाना कभी चूकता नहीं।

साथ ही, मौके से शिकार देखकर वह प्रतीक्षा नहीं करता, फौरन गोली दाग देता है। इसी कारण तिवारी के साथ रहने पर शायद ही कभी किसी दूसरे शिकारी को शिकार मारने का मौका मिलता हो। सो आज वह पहले से ही

तिवारी को मना कर देना चाहता था ताकि वह बीच में न आवे और उसे शिकार मारने का श्रेय मिल सके।

हम सभी जंगल में दूर तक धंस गये थे। सहसा हमने देखा, कुछ दूर पर हिरनों का एक झूंड चर रहा था। आसपास पेड़ दूर-दूर थे और बीच में काफी खुला-सा मैदान था। तिवारी ने उसे केहुनी मारकर संकेत किया कि वह निशाना ले। हम सब वहीं एक पेड़ का ओट लेकर खड़े हो गये और वह बन्दूक छतियाये आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ता रहा। वह झुंड के ज्यादा से ज्यादा नजदीक पहुंच जाना चाहता था ताकि इस बार उसका निशाना खाली न जाने पाये। जब और आगे बढ़ना संभव न रहा तो वह भी रुक गया और एक झाड़ी की ओट लेकर निशाना बांधने लगा।

'धांय” की आवाज हुई तो हम सबने देखा कि हिरनों का झुंड भागा जा रहा है और वह अपनी बन्दूक सम्भाले अपनी जगह पर निश्चल खड़ा है। किसी हिरन को मामूली चोट तक नहीं आई थी। पूरा झुंड मुंह उठाये हमसे विपरीत दिशा की ओर बबूल की झाड़ियों में घुसा जा रहा था।

 'साले ने सब चौपट कर दिया। -तिवारी बड़बड़ाया।

सहसा हमने देखा कि एक बड़ा-सा हिरन अपनी सींग बबूल की टहनियों में अटक जाने के कारण रुक गया है। वह ज्यों-ज्यों अपनी सींगें छुड़ाने की जल्दबाजी करता था, त्यों-त्यों और उलझता जाता था। सहसा, एक बार फिर उसकी बन्दूक गरजी और बारहसिंधा वहीं ढेर हो गया। हम सभी दौड़कर उसके पास पहुंच गये। हिरन पड़ा तड़प रहा था। 'भालोटिया, जरा एक स्नैप तो ले ले! -हिरन की बगल में खड़ा होते हुए उसने बड़े ही रोबीले अंदाज में कहा। मानो उसने हिरन नहीं कोई नरभक्षी शेर मारा हो। भालोटिया ने भी दन से अपना कैमरा खोला, पोज लिया और शटर दबा दिया।

मैंने तड़पते हुए हिरन पर नजर डाली। बेचारे की आंखों में गजब की कातरता तैर आई थी। उसको क्‍या पता था कि हमला हमेशा असोचे कोने से ही होता है। वह तो अब भी अपनी सींगों को नहीं, बल्कि शिकारी की गोली को ही कोस रहा होगा। सहसा मुझे लगा कि उस हिरन की जगह मैं ही शायद पड़ा हुआ तड़प रहा हूं। मेरी अपनी निष्क्रियता, मेरा अपने को अधिक बुद्धिमान समझना और सब कुछ समझ कर भी उसके अत्याचारों को चुपचाप सहते जाना-यह सब कुछ क्‍या मेरी अपनी दुर्बलता नहीं थी? क्‍या मुझ पर जो हमला वह करता रहा था, वह सब किसी असोचे कोने से ही, मेरे चरित्र के दुर्बल बिन्दुओं पर ही, नहीं हो रहा था, क्‍या मैं आगे भी ऐसे ही सोचने की निष्क्रियता में जीता हुआ भी मुर्दा रहूंगा या अबसे कर्मठता के अविचार में भी मरता हुआ जीने का प्रयत्न करूंगा? नहीं अब......



10 -

अंतिम  फैसला


[ जन्म : 8 अक्टूबर , 1929 - निधन : 4 सितंबर , 2001 ]

हृदय विकास पांडेय  

8 अक्टूबर 1929 (बसरा, इराक) को जन्मे हृदय विकास पांडेय स्व० श्री रमाशंकर पाण्डेय स्व. श्रीमती गुणवती देवी दुधरा, सन्त कबीर नगर (उ.प्र.) के पुत्र थे। हाई स्कूल से ही उर्दू, अरबी, फारसी एवं अंग्रेजी भाषाओं पर इनका अधिकार था । इनके पिता लगभग तीन वर्ष की अवस्था में इन्हें बसरा इराक से भारत लाये। स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका।1956 में गोरखपुर से शतदल नामक मासिक पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन प्रारंभ किया। स्वतंत्र विचारों वाले श्री पाण्डेय ने 1960 में रेल सेवा को त्याग कर पूर्णरूप से माँ भारती की सेवा में रम गये। श्री पाण्डेय हिन्दी दैनिक के संस्थापक सदस्य, दैनिक जागरण (गोरखपुर) स्वतंत्र विश्व मानव (करनाल), नवीन विश्व-मानव (शिमला), दैनिक विश्व-मानव (बरेली), प्रबन्ध सम्पादक देवल दैनिक (आजमगढ़), ज्योति (मुजफ्फरपुर), ब्यूरो प्रमुख समाचार भारती (विन्ध्य क्षेत्र) अन्य विभिन्न दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं का एवं संपादन किया। लगभग सभी विधाओं में रचनाएँ की। उनके गीत, गजल, एवंओं का एक विशाल भण्डार अमुद्रित है।


प्लास्टिक की बोरी पीठ पर लादे दो बालक, एक 12 - 13 वर्ष का और दूसरा करीब दस वर्ष का, दोनों अस्पताल के पीछे कूड़े के ढेर से कागज, गत्ता, धातु, शीशा, प्लास्टिक, पालीथीन, इन्जेक्शन की सीरिज आदि कबाड़ बोरी में भर रहे थे। मैं बैठा उन्हें काम करता देख रहा था। लालधारी की टी-शर्ट, नीला हाफ पैन्ट और पैर में हवाई चप्पल दोनों ने पहन रखे थे। देखने से ही लगता था कि दोनों सगे भाई हैं।

पीछे से किसी ने पुकारा ए रमेसवा। बच्चों ने मुड़कर देखा बड़े-बड़े प्लास्टिक के बोरे पीठ पर लादे उनके माँ-बाप फाटक से भीतर चले आ रहे थे। बच्चों ने कूड़ा बीनना बंद किया और चल पड़े अपने माँ-बाप की ओर। चारों पहुंचे उस पेड़ के नीचे जहां मैं बेंच पर बैठा था। बोरे किनारे रख कर पास के नल पर सबने हाथ-पैर धोये और बैठ गये सीमेन्ट से बने चबूतरे पर। झोले में से निकली मोटी-मोटी रोटियां, प्याज, अचार, छोले, जलेबी और उनका लंच शुरू हो गया। चारों प्रसन्‍नचित-रहिमत बाल गोपाल में इन्द्र बापुरा कौन। की मनः स्थिति में खा-पीकर बच्चे सड़क पर निकल गये। स्त्री चबूतरे पर लेट गयी। पुरुष बच्चों की बोरियों का माल बड़े बोरे में भरने लगा।

मेरा समाजशास्त्रीय मन उधेड़-बुन में पड़ा रहा-हायरी गरीबी, स्कूल जाने की उम्र में ये बच्चे कूड़ा बीन रहे हैं। केसे हैं ये माँ-बाप जिन्होंने इनका बचपन छील लिया है। मैंने पुरुष को सम्बोधित कर पूछा क्‍यों भाई कहाँ रहते हो?

बरगदवा में सरकार! कंठीधारी रैदास हैं, नाम है गोपी उत्तर मिला। मुस्करा कर उत्तर दिया। स्त्री ने सिर उठाकर मुझे देखा और मुस्कराई जैसे कह रही हो हम नियोजित परिवार वाले सभ्य लोग हैं। पुरुष काम समाप्त कर चुका था। मेरे पास आकर बैठ गया। बाबू जी हम सब मिलकर कमाते हैं। दोनों बच्चों का सत्तर अस्सी तक पहुंच जाता होगा और हम दोनों प्राणी डेढ़ सौ कमा लेते हैं। यह दो बजे के बाद घर पर रहती है। माल अलग-अलग छांटना, साफ करना, फिर घर गृहस्थी का काम। उसने रुक कर मेरे चेहरे पर अपनी बात के प्रभाव का आकलन किया और फिर बोला बाबू जी वैसे कूड़ा बीनना है तो छोटा काम, लेकिन इसमें कमाई कम नहीं है। कभी-कभी कूड़ों में सोने-चाँदी के जेवर भी मिल जाते हैं, ताँबा, पीतल तो मिलता ही रहता है। कितने ही कबाड़ी कारखानेदार हो गये।

बच्चों को स्कूल क्‍यों नहीं भेजते? पढ़-लिख कर......।

क्या होगा पढ़ लिख कर? गली-गली में नौकरी के लिए मारे-मारे फिरेंगे। जब तक बाबू लोगों के बच्चे लाखों खर्च करके बी.ए., एम.ए. पास करेंगे तब तक हमारे बच्चे लाखों कमा चूकेंगे। न किसी की गुलामी न कोई सिफारिश।

उसे शायद मेरी अकल पर तरस आ रही थी। बड़े-बड़े घरों की लड़कियां कालेज से पढ़ाई करके आती हैं और चार सौ-पांच सौ की नौकरी के लिए कुकुरमुत्ता स्कूलों में दांत चियारती हैं। उनसे तो हमारे बच्चे अच्छे हैं।

उसका तर्क मेरे ज्ञान से भारी पड़ रहा था। मैं एक बार वर्षों पूर्व नेपाल के एक बनिये के तर्क से परास्त हो चुका थ। जिसने अपने बेटे की पढ़ाई छुड़ा कर धन्धे में लगा दिया था। भारत में चीनी दस आने किलो बिकती थी और नेपाल में एक आने। दो किलो लाने की छूट थी। बढ़नी से कृष्णानगर केवल सीमा रेखा पार कर बीसो चक्कर लगा कर बच्चे-औरतें हर फेरे में बारह आना बचा लेते थे। जो साठ के दशक में काफी होता था। उसने भी कहा था-क्या रखा है पढ़ने में, पढ़कर नौकरी के लिए जूते घिसो। यहां अपने धंधे में किसी का एहसान नहीं। पढ़ लिख कर सरकारी नौकरी मिल सकती है। हो सकता है कि अफसर बन जाय। तुम लोगों का कोटा है ना। मैंने फिर तर्क का तीर मारा।

नहीं चाहिए कोटा-सोटा। उसमें क्या कम धांधली है? ये सब बैशाखी निकम्मे लोगों के लिए है। हमें तो अपना हाथ जगन्नाथ । कमाओ और खाओ। हम दिन भर डट कर मेहनत करते हैं और शाम को बढ़िया खाते है। सबेरे के लिए बचा कर रख दिया जाता है। जिसे खाकर बच्चे काम पर निकल जाते हैं। हम दोनों प्राणी दोपहर के लिए रोटी बांध कर चल देते हैं। बाजार से कुछ बोरन खरीद लेते हैं। दूसरों के बच्चे गांव की गलियों में गोली-जुआ खेलते हैं, गाली-गलोच करते हैं या दुकानों पर बरतन धोते हैं और बारह-चौदह घंटे  खटने पर भी पीटे जाते हैं। न ढंग का खाना न कपड़ा। मालिक सौ-दो सौ देता है तो हाड़ पसा लेता है।

माँ-बाप इतने कम पैसों के लिए अपने बच्चों को क्‍यों काम पर भेजते हैं? मैंने मर्माहत होकर पूछा।

गरीबी के कारण। सौ-दो सौ रुपया भी उनकी गृहस्थी के लिए जरूरी होता है। पैसा बढ़ाने के लिए भी नहीं कह सकते क्योंकि बिहार और नेपाल से दलाल छोटे बच्चों की पलटन लिये खड़े रहते हैं। चाहे दुकान में काम करवा लो चाहे घरों में।

ऐसे शोषण के खिलाफ सरकार ने कानून बना रखा है-मैंने कहा।

हर कानून की काट है पैसा। पैसे वाला सभी शिकंजों से बच निकलता है। असली अपराधी तो माँ-बाप हैं जो बचचे को अपने स्वार्थ के लिए गिरवी रख देते हैं। उसने कहा।

तुमने भी कुछ पढ़ा है, मैंने पूछा।

हां बाबू जी, नवीं कक्षा पास हैं। दसवीं में पढ़ाई छूट गयी पेट के चक्कर में। मेरी औरत भी जूनियर हाई स्कूल पास है।

कहीं नौकरी का प्रयास नहीं किया?

बाबू जी, चपरासी-दाई की नौकरी का भी रेट 20-25 हजार है। सब कुछ सोच-समझकर तय किया-करबहिया बल आपनी बच्चों को तो स्कूल भेज नहीं सका, लेकिन हम दोनों घर पर बराबर पढ़ाते रहते हैं। बड़े वाले का तो सातवीं का कोर्स चल रहा है। छोटा भी जोड़-घटाना सीख गया है। दर्जा दो की किताब पढ़ चुका। मुझे लगा कि कूड़ा बीनने वाला यह परिवार संस्कार विहीन नहीं है। पर मुझे लगा कि उसके मन में कहीं कोई फांस गड़ी थी जिसे वह निकालना चाहता था। मैं केवल उसका मुंह देख रहा था। कुछ रुक कर उसने कहा-बाबूजी एक तकलीफ मेरे मन में बनी है। मैं अपने बच्चों को खाने पहनने का आराम तो दे रहा हूं लेकिन उनका बचपना छीन कर।

भले वो दूसरों के गुलाम नहीं हैं लेकिन अपने स्वार्थ के लिए मजदूरी तो मैं भी करा रहा हूं। उसकी आंखें भर आई। अगर मकान की किस्त जमा करने की मजबूरी न होती तो मैं इनसे काम न करवाता। फिर भी हम हजारों से खराब हैं तो लाखों से अच्छे भी हैं।

आग लगे ऐसी कमाई में। सबके बच्चे लकदक ड्रेस पहनकर हंसते-बोलते स्कूल जाते हैं। उस समय हमारे बच्चों का चेहरा मूर्झा जाता है उन्हें देखकर। उसकी पत्नी जो अब तक चुपचाप हमारी बातें सुन रही थी, एकाएक बिफर पड़ी। सोचते होंगे कि हमारे मां-बाप भी लायक होते तो हम भी ऐसे ही सजधज कर स्कूल जाते, कूड़ा नहीं बनते।

इस अचानक हमले से गोपी लज्जित-सा हो गया। धीरे से बोला-खाने-पीने भर के लिए तो हम लोग कमा ही लेते हैं, बच्चों की कमाई मकान के किस्त के काम आती है। वह भी तो जरूरी है।

खाक जरूरी है। पाँच की जगह दस बरस में पूरी होती किस्त। बच्चों की जिन्दगी तो न बरबाद होती। बच्चों को उदास देखकर मेरा कलेजा फट जाता है। अबकी साल स्कूल में दाखिल कराकर के दम लूगीं।

वह कुछ क्षण चुप रहा फिर उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला अच्छा बाबूजी चलूं बच्चे आ गये। पास के पार्क में खेलने गये थे।

मैंने देखा दोनों बच्चे केला खाते हुए प्रवेश कर रहे थे। बच्चों ने अपनी-अपनी बोरियां उठाई और माँ-बाप ने भरे हुए बोरे। चारों चल दिये फाटक की ओर, मैं उन्हें जाते हुए देखता रहा और निर्णायक मातृशक्ति को मन ही मन नमन करता रहा जिसने प्रमाणित कर दिया कि शिक्षा को कोई विकल्प नहीं।


11 - 

पेंशन साहब


[ जन्म : 1 फ़रवरी , 1930 - निधन : 18 नवंबर , 1995 ]

हरिहर द्विवेदी 

जन्म -ग्राम बहोरा, जिला- देवरिया, उत्तर प्रदेश। एम.ए. (हिन्दी), विशारद-साहित्य रत्न, एल.टी। पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां, निबंध और समीक्षाएं प्रकाशित। हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय उप निदेशक पद से सेवा निवृत्त। कृतियां : 'पुल पार का आदमी', 'आता हुआ कल', "अहिंसा • (कहानी संग्रह), 'खत्म नहीं होती', 'उनसे कहना', 'शुरुआत', ब्ली', 'आधुनिकता उत्तर सदी की', 'इन्कलाब के स्वर' (काव्य व्यग्धो रानी कितना पानी' (लघु उपन्यास), 'विश्वमित्र उठो' (प्रबंध थे पर अंधी लकीर', 'भीतर जी रहा जंगल' (काव्य) नयां : 'पत्थर की दीवारें' (उपन्यास) ।

उन दिनों मैं कलकत्ते में था। शिवपुर में एक किराये के मकान में रहता था। बच्चे कुछ दिनों के लिए गांव चले गए थे। दफ्तर के काम के बाद भी इतना समय बच जाता था कि आधा कलकत्ता पैदल घूमते-घामते कमरे में आ जाता था और तब भी कुछ नियमित शुरू से लिखा करता था। एक दिन काफी रात गए अभी कलम पकड़ा ही था कि एक औरत मेरे कमरे में घुस आई। यह घटना मुझे कोई असाधारण नहीं लगी। उन दिनों तो अकेले था, परिवार के रहने पर भी कभी एक, कभी दो-दो, तीन-तीन, चार-चार लोग समय-बेसमय आया ही करते थे। कभी रात को 2 बजे, कभी 2 बजे, कभी 5 बजे। उन दिनों का माहौल ही कुछ ऐसा था। लोग अपने को बहुत आजाद महसूस कर रहे थे। शायद इसलिए वह औरत बिना किसी औपचारिकता के अपना घर समझ किवाड़ खोलकर अन्दर चली आई। आते ही बोली- एक दिन मैं खुद पेंशन साहब के पास चली गई। वे चश्मा लगाए कुर्सी पर बैठे छत की ओर कुछ देख रहे थे। कमरे में मद्धिम रोशनी जल रही थी। चश्मे को नीचे की ओर सरकाकर उन्होंने मेरी ओर गौर से देखा फिर चश्मा उतारा और उसे एक हाथ में घुमाते हुए अपनी नंगी आंखों से मुझे घूरना शुरू कर दिया। मुझे कुछ शरम मालूम हुई। अपना आंचल समेटा और अपने अंगों को अच्छी तरह ढंक लिया। वे अजीब ढंग से मुस्करा रहे थे। मैंसहमी-सहमी खड़ी रही।

थोड़ी देर बाद जो कागज मैंने दिया था उसे पढ़ते हुए उन्होंने पूछा-महेश की उम्र क्या थी? उस खौफनाक माहौल में आदमी की-सी आवाज सुनकर मुझे कुछ-कुछ राहत मिली। पहाड़ जैसा माहौल कुछ हल्का लगने लगा। मैंने तुरन्त उत्तर दिया-'अटूठाईस ।”

“तो तुम्हारी उम्र करीब पच्चीस-छब्बीस की होगी?”

“ठीक-ठीक मालूम तो नहीं साहब, मगर जब मैं उनके पास आई थी, उस समय मेरी उम्र उनसे कुछ कम जरूर थी।

“कितने बच्चे हैं ?”

“कुल दो, पहली लड़की है, दूसरा लड़का |”

“वे कहां हैं ?”

“यहीं, बस्ती में मेरे साथ ही रहते हैं। ”

“सुना है तुमने दूसरी शादी कर ली है ?”

“ जी। ”

“इसमें बुरा क्या है?”

“किसी ने आपसे झूठमूठ शिकायत कर दी होगी साहब। मैं बिल्लो के पिताजी की उम्मीदों को कभी भी धोखा नहीं दे सकती। अगर मैं ऐसा करूंगी तो उनकी आत्मा को कभी भी शांति नहीं मिल पाएगी।”

“यह कारखाना किसी की आत्मा की शान्ति के लिए नहीं खोला गया है, समझी? तुमको कारखाने से महेश की मृत्यु के उपरान्त जो पचास रुपये महीने मिलते रहे हैं, वे मुफ्त के नहीं आते।”

“लेकिन दूसरों की जिन्दगी...” अपने कलेजे को मुंह तक लाते हुए अभी बोल ही रही थी कि उन्होंने तेवर बदलते हुए कहा-“लेकिन मैंने तो महेश की जान नहीं ली थी। तुम्हारी गन्ध में डूबा महेश अचानक मशीन की चपेट में आ गया था।”

पेंशन साहब के मुख से इतना सुनना था कि उनका चौड़ा, सीना मेरी आंखों के सामने नाचने लगा। रोम-रोम में उनके स्पर्श की मुस्कराहट मेरे सपनों को चूमने लगी। वे मुझे पहले से भी अधिक प्यारे लगने लगे। अन्दर से एक हूक-सी उठी। मेरे लिए अपने को जब्त रख पाना कठिन हो गया आंख की पथरायी पुतलियों को छेदकर बेसहारे आंसू बाहर आ गए। मूर्ति टूटकर बिखर गई। मेरी नम आंखों की रोशनी में पेंशन साहब का चेहरा खूंखार जानवर के मुंड-सा घूरने लगा। उनके होठों पर अब भी हंसी थी। मुझसे उनकी वह हरकत सही न गई। अन्दर ही अन्दर उबल पड़ी। होंठ फड़फड़ाने लगे। वे एक कमद आगे बढ़े। मैंने उनका हाथ झटक दिया और दौड़ती हुई बाहर चली आई।

पैसे मिलने बन्द हो गए थे फिर भी तीन मास तक मैं कारखाने की ओर न जा सकी। सोचा दो-एक घर नौकरानी का काम पकड़ लूं। आप सुनकर अचरज में पड़ जायेंगे, बाबूजी। मगर नाम नहीं लूंगी, इसी मुहल्ले में एक भद्र पुरुष के घर तो मुझे लेकर पति-पत्नी के बीच तलाक तक की नौबत आ गई थी। बात यह थी कि पत्नी के बार-बार मना करने पर भी उन्होंने मुझसे काम पर आने को कहा था। मैं इस मजबून की टेढ़ी बॉकी इबारत को समझती थी काम पर क्‍यों कर जाती, नहीं गई।

बाबूजी! जाने आप क्या सोचते हैं मगर मुझे तो लगता है जो ईमानदारी और दयावान है उनकी जेबें उलट दी गई हैं और जिनकी जेब गरम हैं उनकी नजरें तक दगाबाज हैं। एकाध जगह काम भी मिला पर जहां कहीं भी गई कोई न कोई घाव ही लेकर वापस हुई। जो मंहगाई से तंग आकर अथवा किसी और मजबूरीवश परिवार घर भेज चुके हैं अथवा बिना परिवार के रहते हैं मुझे काम तो देना चाहते थे पर पेंशन साहब की हरकत याद आते ही हिम्मत टूट जाती थी। इस तरह मैं तनावों और तनहाइयों से छिला चेहरा और अंग-अंग को पकड़ कर झूलती कहानियों की गठरी लिए घूमती रही।

थोड़े बहुत गहने थे उन्हें इधर-उधर कर दिन काटना शुरू किया। कभी महेश के कारखाने वाले हफ्ता उठाकर इधर से गुजरते तो बच्चों के हाथ पर कुछ जरूर रख जाते पर इस तरह आखिर कब तक चलता? दो-दो, तीन-तीन दिनों तक घर में चूल्हा जलाने की नौबत ही नहीं आती थी। टोले मोहल्ले वालों को भी कुछ दिन दया आई। बच्चों को रूखा-सूखा दे दिया पर महंगाई के दबाव ने उनके इन हाथों को भी मरोड़ डाला। उन्होंने भी अपना मुंह फेर लिया।

यूनियन के पास भी कई बार गई। वे लोग आज कल करते रहे। मजदूरों के बार-बार कहने पर एक दिन नेता जी गए भी तो पैसे मिलने शुरू नहीं हुए। उन्होंने आकर कहा-“महेश मरते समय कह गया था कि मेरे पावने के लिए पचास-पचास मासिक करके जब तक मेरी पत्नी जिन्दा रहे दिए जाएं। मगर किसी ने दरखास्त दे दी है कि तुमने दूसरी शादी कर ली है। उसकी जांच होने पर ही कुछ हो सकेगा।

मैं रास्ते-भर सोचती रही जब से वे कलकत्ते आए मैं भी साथ ही आई थी। कहीं से कुछ ऐसा नहीं मिला जिसके कारण किसी का दिल जला हो और उसने ही बदला लेने के लिए ऐसा किया हो मगर दरखास्त तो किसी ने दे ही दी थी। कम्पनी को अच्छा मौका मिल गया था। वह दरखास्त स्याही पुता कागज नहीं उनके लिए तो हजारों रुपयों का दस्तावेज था। वे ठहरे खून के सौदागर जिन्हें आदमियों के खून का भाव मालूम है और मैं ठहरी नारी, औरत, आंसुओं की गठरी जगह-जगह से टूटे सम्बन्धों की दुनिया को आंसुओं के गारे से जोड़ पाना मेरे लिए दिन-दिन पहाड़ होता गया। दिन तीखा धुआं और रात डरावनी चीखें लेकर मेरे इर्द-गिर्द आती थी। रात दिनों के होठों में बन्द चुपचाप बरामदे में बैठी रहती। यही बरामदा मेरी दुनिया था जिसके एक कोने में एक अंधा भिखारी अब भी रहता है। मकान मालिक के मझले लड़के और इस नगर की आवारा औलादों से मेरी रक्षा के लिए आंखों के अलावा उस बूढ़े के पास सब कुछ है। काश! ये तन के उजले ऐसे ही अंधे हो जाते।

एक दिन बच्चे रो-रोकर मेरी जांघों पर लेट गए थे। इसी बीच मुहल्ले की वह बूढ़ी कसबिन खांय-खांय करते हुए कहीं से आई और मेरे पास दुबक कर बैठ गई। मेरी हालत पर आंसू बहाएं और कहा-“मेरे यहां झोलामाली होते ही आ जाया कर, चार-पांच रुपये आसानी से बन जायेंगे। खून के इन पोतड़ों को तो सींचना ही होगा। कितने प्यारे हैं। उसकी दया ऊपर से जितनी सफेद उसके भीतर उत्तनी ही गहरी काली परतें जमी हुई थी। मेरी आंखों के सामने अंधकार छाया हुआ था। दो दिन की भूखी थी फिर भी उस डाइन ने ज्यों ही बच्चों को चूमना चाहा कसकर एक एड़ जमाया और वह दूर जाकर चारों खाने चित्त हो गई। संभल कर उठी और कुछ भुनभुनाती हुई गली में सरक गई। यदि जरा भी और देर लगती तो उस दिन उसका सारा गंदा खून बहा देने से अपने को नहीं रोक पाती। मैं चुपचाप इस दुनिया के खिलवाड़ों को देखती और सुबकती रही। कई बार आंखों पर हाथ फेरा पर आंसू जाने कहां सूख गए थे। कहीं कोई अपना नजर नहीं आ रहा था। पचास रुपये में मुझे बेच कर भी पिताजी मां को बीमारी से बचा न सके थे। अभी आठ की ही थी तभी पिताजी भी चल बसे थे। उस खुर्राट बूढ़े के हाथों से महेश ने रुपये वापस कर मुझे जिन्दा बचा लिया था। वही मेरा सब कुछ था। उसके और मेरे पिता के नाम कहने को जो थोड़ी बहुत जगह जमीन थी वह गांव के ठाकुर ने पहले ही हड़प ली थी। वहां भी गुजारे की कोई गुंजाइश नजर नहीं आ रही थी। रह-रह कर बच्चों का गुलाबी चेहरा पोर-पोर में गुनगुना उठता था। यह शहर आदमी और औरतों से भरे जंगल-सा लग रहा था जहां प्यार भरी बोलियां शेर-चीतों की दहाड़-सी लगती थीं। एक दिन सोचा, अपने भविष्य की इन नरम उम्मीदों को साथ लेकर इनसे बचने के लिए भागीरथी में कूद पड़ूं कि बबलू कहीं से घूमता हुआ आया। मुझको देखते ही उसने आंखें मिचकायीं और बड़बड़ाया-“तुम...ह...ह...ह..बिललो की मां...तुम...अंधा भी छोड़ गया। दो के छः न बना दिया तो मेरा नाम बबलू नहीं, समझी? क्यों अपनी जिन्दगी को खराब कर रही है। भगवान से तो डर। क्या गढ़ा है बिचारे ने महुए की चढ़ा कर। मैं दुबकी रही। उस ने काफी चढ़ा ली थी। वह धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ता रहा।  मैं बन्द कमरे में सिनेमा की नायिका की तरह एक ओर सरकती गई। वह हटना नहीं चाहता था। उसने मेरी ओर अपने हाथ बढ़ाए ही थे कि मैंने उसकी कलाई पर अपने भूखे दांतों को जोर से गड़ा दिया, बच्चू चूहे की तरह चीं-चीं कर लेटने लगे। इस छीना-झपटी के जग जाहिर हो जाने के डर से बात बढ़ाना ठीक नहीं समझा। होंठ फड़फड़ा रहे थे, इसी बीच उसने जो कुछ कहा उसमें सच्चाई की रोशनी झिलमिलाने लगी। उ सकी किरणों के सहारे मैं एक बार फिर पेंशन साहब के पास चली गई। उस दिन भी वे कमरे में अकेले थे। मुझे देखते ही कहा-

“आ गई! मुझे मालूम था तुम एक-न-एक दिन जरूर मेरे पास आओगी।”

“वह दरखास्त झूठी है साहब।”

“कैसे मालूम?”

“बबलू कह रहा था?”

“कौन! वह पगला?”

मैं चुप लगा गई। उन्होंने फिर पूछा-“क्या कह रहा था?”

“यही कि-मैंने ही दरखास्त दी है ताकि तुम्हारे पैसे बन्द हो जाएं और तुम मेरी हो जाओ।”

“क्या सबूत कि उसने तुमसे ऐसा कहा है?”

मैं निरुत्तर थी। मेरा सारा बदन झनझना रहा था। ऐसा लगता था मैं शून्य में टांग दी गई हूं। जरा भी इधर-उधर हुई कि हड्डियां-हड्डियां टूट कर बिखर जाएंगी। बच्चों के खो जाने का भय अन्दर समा गया। लेकिन अंधे की उपस्थिति से कुछ आस्वस्त हुई। मुंह से अचानक निकल पड़ा-“नहीं-नहींख ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा कभी नहीं हो सकता।” 

“क्यों नहीं हो सकता। तुमको कोई भी कुछ नहीं कहेगा?”

“मगर ?”

“शैतान कहीं की, अपनी नहीं उन बच्चों की तो खैर मना। महेश की वही तो तुम्हारे पास निशानी है।

मैं चुप हो गई। तीन चार महीने के ताबड़तोड़ उपवास तथा इधर तीन दिन की लगातार भूख ने मुझे तोड़कर रख दिया था। आंखों के सामने अंधेरा छाया हुआ था। कुर्सी पर से उठते हुए उन्होंने मुझे पुचकारा ही था कि सारा दम साध कर एकाएक मेज पर पड़े छुरे को, जिससे वे कुछ देर पहले सेब छील कर खा रहे थे, जोर से उनके सीने के पार उतार दिया। और चुप हो गई।

“और फिर?” उसके एकाएक चुप हो जाने पर मैंने पूछा।

“और यहां चली आई हूं।”

“मेरे यहां आते तुम्हें डर नहीं लगा।”

-“अब काहे का डर बाबूजी! अंधू चाचा चुपचाप पड़े हुए हैं। जल्दी-जल्दी दोनों बच्चों को बबलू के पास सौंप आई, बोली, इन्हें संभालना। अभी आती हूं। सभी दरवाजे बन्द हो चुके हैं। इधर से गुजर रही थी। आपके दरवाजे से बाहर छितर रही रोशनी में एक अपनापन लगा इसीलिए अन्दर चली आई। मुझे अपने पिछवाड़े वाले उस टूटे कमरे में शरण दे न दीजिए बाबूजी |”

इसके पहले कि मैं कुछ जवाब देता, कमरे की ओर इशारा करने के लिए ज्यों ही वह मुड़ी मुझे उसकी कमर के नीचे खून से सना वह छुरा दिखाई पड़ गया। कहा-“इसको तो उधर ही फेंक दिया होता।”

उसने छुरा निकाल कर शान से चमकाते हुए कहा-यही तो गरीबी का तोहफा है बाबूजी! जो पेंशन के बदले साहब से मुझे मिला है। भला इसे भी फेंक दूं तो महेश तथा उनके जैसों की औलादों की आत्मा का क्‍या होगा बाबूजी ?”

और मैंने देखा, इतना कहकर वह अजीब मस्ती के साथ मुस्करा रही थी। उसके चेहरे पर आत्मसंतोष का एक बेबाक भाव था। उसका पूरा बदन फागुन के मौसम की तरह खिला हुआ था। वह बेहद सुन्दर लग रही थी।

हां तो मैं आप से कलकत्ते की उन दिनों की घटनाओं के बारे में बता रहा था। लेकिन भाई जान! जब से यहां आया दिल्ली, लगता है सारा समय दफ्तर लगा हुआ है। कभी-कभी कोई आता-जाता भी है तो अपने साथ एक अदद फाइल लिए हुए लगता है। कुछ औरतें हैं कि इतनी गन्दी, इतनी गंदी , इतनी गंदी कि सीने पर श्मशान पर लुढ़का सिहौरा लटकाए फिरती है। गाल सुर्ख, चाहे उम्र 50 की ही क्‍यों न हो, जैसे बाथरूम में पेटीकोट का कच्चा रंग छूट कर उसके जवान बेटे की पीली बुशर्ट पर चिपक गया हो। हो सके तो इस रविवार को आना। दिल्‍ली के आसपास किसी गांव में चलेंगे। जहां अभी फाइलों के पहुंचने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है।



12 - 

मां 


[ जन्म : 15 जून 1930 - निधन : अप्रैल , 2000 ]

डाक्टर माहेश्वर 

जन्म : 15 जून 1930 ग्राम इटार, जिला गोरखपुर (उ० प्र०) - सादतपुर, दिल्ली में निधन : अप्रैल , 2000 । शिक्षा : पी-एच० डी० । कार्य : 15 वर्ष की आयु से जीविकोपार्जन के लिए अनेक सरकारी-गैर- सरकारी नौकरियों की अंतिम नौकरी मैकमिलन इंडिया लि० में उपमुख्य संपादक (1974-81)। 1981 से स्वतंत्र लेखन । मौलिक कृतियां : कहानी संग्रह 'डा० माहेश्वर की कहानियां', 'स्पर्श', 'मास्टर सेवाराम का सपना', 'डी० पी० सिंह की डिस्पेंसरी' और 'हंसने वाली औरत' । उपन्यास 'तनपर' ।आलोचना 'हिन्दी बंगला नाटक'। काव्य 'शुरुवात' (संकलन / संपादन) । अनूदित कृतियां बंगला से रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महाश्वेता देवी, बुद्धदेव मू, आशापूर्णा देवी, नरेन्द्रनाथ मित्र, विमल मित्र, ऋत्विक घटक, समरेश बसु, नारायण गंगोपाध्याय, मोहित सेन, सुनील गंगोपाध्याय, गौरकिशोर घोष की दो दर्जन से ऊपर तथा अंग्रेजी से जार्जी प्लेखानोब श्चियन एंडरसन, चेखव आदि की रचनाओं के अनुवाद |

होटल से निकलकर लड़का फुटपाथ पर खड़ा हो गया। सिगरेट जला कर नाक से धुँआ उगलते हुए उसने चारों ओर निगाहें दौड़ाई। सड़क पर ऐसी कोई चीज नहीं थी, जिसमें उसकी निगाहें उलझतीं। उसने एक साथ कई दुकानों के साइनबोर्ड पढ़ डाले। फिर उसे याद आया कि जिस होटल में खाना खाकर वह अभी-अभी निकला है उसका साइनबोर्ड पढ़ना निहायत जरूरी है।

होटल का नाम पढ़ कर मुस्कराया। पी.के. हिन्दू होटल। गोया होटल वाले की यह धारणा है कि बिन पिये कोई हिन्दू हो ही नहीं सकता। मगर बात तो ठीक ही है, लड़के ने सोचा। बिना पिये कोई हिन्दू तो क्या मुसलमान, ईसाई, पारसी कुछ भी नहीं हो सकता। आदमी खुद को भुलाकर खुदा की याद करता है। और इसके लिए पीना एक जरूरी शर्त है। अचानक लड़के को लगा वह फालतू बातों में उलझ रहा है, जबकि कायदन उसे गहरी रात के सन्‍नाटे और सुनसान फुटपाथ का मजा लेना चाहिए।

वह आहिस्ता-आहिस्ता एक ओर सरकने लगा। वहाँ एक चौराहा था जिसमें तीन ही रास्ते थे। अगर यह चौराहा है तो चौथा रास्ता कहाँ है, लड़के ने सोचा। वह इसे तिराहा कहेगा, पाँच रास्ते होते तो पंचराहा कहता। हिन्दी में शब्दों की कमी है। इस तरह कुछ नये शब्द बनाये जा सकते हैं। साले, उल्लू की औलाद। उसने किसी को गाली दी। सारे देश में उल्लूओं की औलादें हिन्दी के नये शब्द गढ़ रही हैं, वह मन ही मन हँसा।

लड़का चौराहे पर खड़ा हो गया। सिगरेट की आखिरी कश खींची और टुर्रा सड़क पर उछाल दिया। सड़क इतनी वीरान थी और सन्नाटा इस कदर उभरा हुआ कि टुर्रे के गिरने की आवाज भी साफ-साफ सुन पड़ी। लड़का थोड़ी देर सिगरेट के टुर्रे में से निकलती गाढ़ी नीली, इस्पात के रंग की अजीब पैटर्न बनाती लकीर की तरफ देखता रहा, जो थोड़ा ऊपर उठकर धुएँ के गुच्छों की शक्ल ले लेती थी।

तभी एक अजीब-सी आवाज ने उसे चौंका दिया। सड़क की उलटी तरफ से दो कुत्ते आगे-पीछे दौड़ते चले आ रहे थे। पल भर बाद ही वे दौड़ते हुए लड़के के सामने से गुजरे। लड़का उन्हें दूर तक देखता रहा। एक बार ही वे दौड़ते हुए लड़के के सामने से गुजरे। लड़का उन्हें दूर तक देखता रहा। एक बार उसकी इच्छा हुई वह भी कुत्तों के पीछे सरपट भागे। मगर फिर वह यह सोचकर रुक गया कि आदमी कुत्तों की तरह स्वच्छन्द नहीं है। कुत्तों की तरह भी नहीं। और उसे कुत्तों से ईर्ष्या हो आई।

एक पल बाद ही कुत्ते लौटते दिख पड़े। आगे-आगे भागता हुआ कुत्ता एकाएक थोड़ी दूर पर झटके से रुक गया। पीछे वाला कुत्ता भी प्रायः साथ-साथ रुका और झोंक में उसका अगला हिस्सा आगे वाले कुत्तें के पिछले हिस्से पर सवाल हो गया। मगर एक पल बाद ही उसे अपना अन्दाज़ा गलत लगा, क्योंकि पीछे वाला कुत्ता आगे वाले की पीठ पर चढ़ा ऐसी हरकतें करने लगा था, कि उससे यह समझना काफी आसान हो गया कि वह झोंक में आगे वाले कुत्ते की पीठ पर नहीं सवार हुआ है। लड़के को एक बार और गहरा एहसास हुआ कि आदमी कुत्तों की तरह स्वच्छन्द नहीं है। क्योंकि आदमी कुत्ता नहीं है।

लड़का गहरी तृप्ति से कुत्तों को देखता रहा। सन्‍नाटे ने इतनी स्वछन्दता तो उसे दे ही दी थी।

थोड़ी ही देर में आगे वाले कुत्ते की पीठ पर से पीछे वाला कुत्ता उतरा तो लड़के ने देखा दोनों कुत्तें बीच से जुड़े, दो विपरीत दिशाओं में मुँह किए, छूटने के लिए छटपटा रहे हैं। उसे जोर की हँसी आई और वह आँखें मूँदकर बड़े जोर से कई पल हँसता रहा। मगर उसकी हँसी अचानक बीच से ही टूट गयी, क्योंकि उसे अपने माँ-बाप याद आ गये-इसी तरह एक-दूसरे का पीछा करते, इसी प्रकार इसी माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े, विपरीत दिशाओं में मुँह किए, एक-दूसरे से छूटने की आप्राण चेष्टा करते हुए-उसके उच्चवर्गीय, घनी, रोबीले और घृणित माँ-बाप।

हँसी रुकते ही उसकी आँखें खुलीं तो उसने देखा एक चौड़ा-चकला पहाड़ी चेहरा पास से उसके चेहरे को पढ़ने की चेष्टा कर रहा है। लड़के की हँसी से सामने की दुकान का पहाड़ी पहरेदार जाग गया था। लड़के को और कुछ न सूझा तो उसने उँगली से पहाड़ी को कुत्तों की तरह मुखातिब कर दिया।

पहाड़ी ने उधर देखकर शरमाते हुए मुँह फेर लिया और अपने पाँवों के पास की जमीन पर ककड़ ढूँढ़ने लगा। अपनी शरम छिपाने के लिए उसने आस-पास के फुटपाथ के सारे कंकड़ कुत्तों पर उछाल डालें, मगर कुत्ते पूर्ववत जुड़े रहे। वे भाग नहीं पा रहे थे और पहाड़ी जब भी उन पर कंकड़ फेंकता वे कूँ-कूँ करते हुए विपरीत दिशाओं में भागने की चेष्टा करते वहीं के वहीं खड़े रह जाते।

थोड़ी देर बाद ही कुतिया ने अपनी ओर खींचना छोड़ दिया। कुत्ता उसे घसीटता हुआ एक ओर चलने लगा। लड़के को एक बार फिर अपनी धनी माँ-बाप याद आए।

लड़के ने पहाड़ी की ओर देखा तो पाया उसका चेहरा काफी लाल हो गया है। लड़के को अपनी ओर देखता पाकर पहाड़ी और भी शरमा गया और शायद अपनी शरम से मुक्ति पाने के लिए उसने गजब की हरकत की। उसने दो कदम आगे बढ़कर पैंतरा बदला और अपने हाथ का ड॒ण्डा कुत्तों के संधिस्थल पर दे मारा। कुत्ते पोंय-पोंय करते हुए विपरीत दिशाओं में भागे। लड़के ने सोचा, “काश इसी तरह कोई सुखी दम्पतियों को एक आपात में मुक्त कर देता! मगर यहाँ फिर उसे आदमी की स्थिति कुत्ते से बदतर लगी।

तभी उसने देखा, पहाड़ी, जो अभी तक शरमा रहा था, अजीब-सी चिंचियाती हुई आवाज में हँस रहा है।

उसकी हँसी रुकी तो उसने देखा फिर पहाड़ी पहली बार की तरह उसे शक की निगाह से देख रहा है। उसे लगा आदमी जब तक हँसता रहता है, उसे दूसरे पर शक नहीं होता। हँसते वक्‍त आदमी और आदमी के बीच की दूरी खत्म हो जाती है। पहाड़ी ने उससे पूछा कि उसे कहाँ जाना है, और बिना पूछे बताया कि उस समय कहीं भी जाने के लिए कोई सवारी नहीं मिलेगी। लड़के के यह बताने पर कि उसे कहीं नहीं जाना है, पहाड़ी ने शत्रुतापूर्वक ढंग से कहा कि उसे और कहीं भले न जाना हो, वहाँ नहीं रहना है, क्योंकि उसके सेठ की दुकान सामने है जिसकी रातभर रखवाली करने की उसकी ड्यूटी है। लड़का मन ही मन हँसा-दुनिया के तमाम ईमानदार यात्री बेवकूफ लोग लुटेरों की सुरक्षा में तैनात है। यानी कि तमाम ईमानदार लोग कुत्तों की तरह स्वामीभक्त बना दिए गये हैं, जबकि और मामलों में वे कुत्तों की तरह स्वच्छन्द नहीं है। कुत्तों की तरह भी नहीं।

मगर हर ईमानदारी आदमी चूँकि बेवकूफ और खतरनाक होता है और अपनी और दूसरों की सुविधाओं और हकों के प्रति खतरे की हद तक लापरवाह, इसलिए लड़के को लगा भले ही उसे कहीं नहीं जाना हो, वहाँ खड़े रहने का खतरा उसे नहीं उठाना चाहिए।

लड़का आगे बढ़ गया।

थोड़ी दूर पर सड़क को काटता एक चौड़ा नाला दिखा। नाले पर लोहे का मजबूत पुल था, जिसके दोनों बगल रेलिंगें लगी थीं। लड़का एक ओर की रेंलिग के सहारे खड़ा होकर नाले में झाँकने लगा। नाले में पानी कम था, शान्त भी। चाँदनी और चाँद दोनों पानी में चमक रहे थे। रह-रह कर पानी में “गुडुप ” की आवाज होती और जगह-जगह चाँदनी तार-तार होकर बिखर जाती। कई बार चाँद तेजी से हिलता और पानी में चाँदी की एक चौड़ी सिल्ली तैरने लगती। हवा में हल्की-सी नमी उतर आई थी और कान के पास उसका स्पर्श हल्का-सा चिढ़ाने वाला लगने लगा था।

एक आदमी लड़के के पीछे से गुजरता पुल की दूसरी दिशा में चला गया। उस आदमी के साथ कच्ची शराब की तेज जी मिचलाने वाली गंध भी जा रही थी। वह आदमी जब नजर से ओझल हो गया तो लड़के को लगा कहीं चल कर उसे भी जो जाना चाहिए। वैसे पुल की वह रेलिंग भी बुरी जगह नहीं है। मगर थोड़ी रात और बीतने पर ठंडक लग सकती थी। उँह! पिछले एक महीने से, जब से वह घर से निकला है, उसे क्‍या नहीं लगा है। घर से वह भाग आया है, क्योंकि वह अपने सम्पन्न माँ-बाप का अकेला लड़का है और कुण्डली मारे दो साँपों की तरह उनका प्यार उसे घेर कर चार-चार खूँखार नीली आँखों में दिन-रात उसकी चौकसी करता रहता है। भाग जाने के सिवाय उस यंत्रणा से, साँपों के उस चिकने, त्रासद, गुँजलक से छूटने का और कोई उपाय भी तो नहीं था।

“चलोगे?” शायद उसी से किसी ने पूछा।

वह चौंक कर पीछे घूमा। ठिगने कद की मजबूत काठी की उस औरत का चेहरा चाँदनी में साफ दिख रहा था। चेहरा बेहद लिपापुता लग रहा था।

जैसे किसी बच्चे ने वाटर-कलर के रंगों का पोताड़ा मार दिया हो उस चौड़े चेहरे की गहरी रेखाओं के बीच।

लड़का कुछ बोला नहीं। असल में मामला उसकी समझ में नहीं आया था। औरत और पास सरक आई। लड़के के निष्पाप चेहरे को देखकर एक पल वह उदास हो आई। एक अजीब-सी गंध लड़के के नथुनों में भर गई, जो बदबू और खुशबू दोनों थी-बदबू ज्यादा, खुशबू कम।

चलो न। सिर्फ दो रुपये में भरपूर मजा। औरत ने कहा और हँसी तो उसके मवाद जैसे पीले दाँत चमके।

लड़के को हल्की-सी कैंपकँपी हो आई। फिर पता नहीं क्या सोचकर उसने कहा-'“मगर मेरे पास एक ही रुपया है।' लड़के की आवाज सुनकर औरत फिर चौंकी और पहले से ज्यादा उदास हो आई। एक पल कुछ सोचती रही, जैसे मन ही मन कोई हिसाब लगा रही हो। फिर चुपचाप आगे-आगे चलने लगी।

पुल के परले सिरे पर रेलिंग का एक कोना तीन-चार हाथ लम्बे एक टाट के टुकड़े से घिरा था। टाट का जो सिरा जमीन पर था, उसे कई-कई इँटे एक साथ रख कर दबा दिया गया था। उसी के पास आकर औरत खड़ी हो गई।

“रुपया” उसने अपनी हथेली फैला दी। लड़के ने एक का नोट उसकी खुली हथेली में रख दिया और पता नहीं क्‍यों उसे ऐसा करके बड़ी खुशी हुई। औरत ने नोट को उलट-पुलट कर देखा। फिर चौपाये की तरह अपने हाथों और घुटनों के बल वह टाट के पीछे रेंग कर घुस गई। थोड़ा-सा धड़ बाहर निकाल कर उसने लड़के को अन्दर जाने का इशारा किया। लड़का अब बुरी तरह काँपने लगा। फिर किसी तरह घुटनों के बल चलकर वह भी टाट के अन्दर घुस गया। भीतर गहरा अँधेरा था, फिर भी रोशनी के काई-कतरे और गोल दायरे उस अँधेरे में तैर रहे थे। लड़के ने देखा, टाट कई जगह से कटा हुआ है और उसमें सैकड़ों छोटे-छोटे छेद हैं। जमीन पर भी कई टाट एक के ऊपर एक बिछे हुए थे।

वह लेट गया तो औरत उससे सट गई। असल में टाट के नीचे दो आदमियों के लेटने की जगह थी ही नहीं । लड़के ने महसूस किया औरत नंगी है।

लड़का कांपना नहीं चाहता था, मगर कँपकँपी थी कि बढ़ती ही जा रही थी। थोड़ी देर के बाद औरत ने लेट-लेट ही कपड़े पहन लिए।

मैंने अभी खाना नहीं खाया है। बहुत भूख लग रही है। मेरा कोई दोष नहीं है। रुपया मैं नहीं लौटाऊँगी।

उसने कोई उत्तर नहीं दिया और निरीह भाव से औरत की ओर देखा। तभी उसे बुरी तरह काँपता पाकर औरत ने चिन्नित स्वर में कहा-“अरे! इतना कांप क्‍यों रहे हो? ठंड लग रही है क्या? लो, यह ओढ़ लो।'

औरत ने अपनी चादर, जिसे वह ओढ़ चुकी थी, खोल कर उसके ऊपर डाल दी।

चादर ओढ़ते हुए अचानक एक बेहद नुकीली अनुभूति उसके भीतर तक धंस गई।

सच, इस औरत की उमर मेरी माँ की उमर के आसपास ही होगी, और टाट के भीतर वह पत्थर की तरह जड़ हो गया। फिर पता नहीं कब उसे नींद आ गई और आँखें खुलने पर उसने देखा, औरत लौट आई थी और उसे सीने से चिपकाये गहरी नींद में बेसुध थी।



13 -

मलबा


[ जन्म :1 जुलाई 1931 ]

भगवान सिंह 

1 जुलाई 1931को गगहा, गोरखपुर में जन्म। मध्यवित्तीय किसान परिवार। आर्थिक अभावों से जूझते, छात्रवृत्ति आदि के सहारे अध्ययन। बीए के बाद रेलवे , गोरखपुर में क्लर्की करते हुए एम ए (हिंदी) 1958। शोधकार्य में अवरोध के कारण नौकरी छोड़ कर कोलकाता प्रस्थान और वहां के पुस्तकालयों के माध्यम से गंभीर विषयों (मनोविज्ञान, नृतत्व, दर्शन और इतिहास का अध्ययन। 1962 में दिल्ली में जहां फ्रीलांसर के रूप में दस पंद्रह पुस्तकों को अनुवाद और राजपाल एंड संस से बाल ज्ञान कोश (गोल्डेन इंसाक्लोपीडिया) के तीन खंडों का अनुवाद प्रकाशित। 1985 से सरकारी सेवा। 1989 में डिप्टी रजिस्ट्रार बोर्ड ऑफ टेकनिकल एजुकेशन से 1989 में सेवानिवृत्त। पहली तुकबंदी नव साल की उम्र में, पहली कक्षा में , पहला खंडकाव्य (हल्दीघाटी नवीं कक्षा में। पहली प्रकाशित रचना मित्र प्रकाशन प्रयाग से प्रकाशित वाल पत्रिका -बालक? – में और अपने (महाराणा प्रताप इंटर कालेज की पत्रिका में, नवीं कक्षा में। हस्तलिखित पत्रिका ‘शाद्वल’ का संपादन दसवीं कक्षा में, ‘आज’ द्वारा पहली पुरस्कृत कहानी ग्यारहवीं में। चर्चित पत्रों पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन 1958 से। पहली प्रकाशित पुस्तक 1964 में – काले-उतले-टीले, पहला प्रकाशित शोध निबंध - स्थाननामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन नागरी प्रचारिणी पत्रिका में 1973 में और पुस्तक आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता 1973 में। उपन्यास : काले उजले टीले , (1964) महाभिषग (1973) , अपने अपने राम (1992) ,परम गति (1999) , उन्माद (2000) , शुभ्रा (मूल रचना सुरेंद्र शर्मा ) (2000) , कविता संग्रह : अपने समानान्तर (1970)। शोधपरक रचनाएं : स्थान नामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन (अंशत: प्रकाशित, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, 1973) , आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता (1973) , हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, दो खंडों में (1987) , दि वेदिक हड़प्पन्स (1995) ,भारत तब से अब तक (1996) , भारतीय सभ्यता की निर्मिति (2004) ,भारतीय परंपरा की खोज (2011) , प्राचीन भारत के इतिहासकार (2011) , कोसंबी : मिथक और यथार्थ (2011) , आर्य द्रविड़ भाषाओँ का अंत समबन्ध (2013) , इतिहास का वर्तमान (2016)। संपर्क : बी - 1701 , गार्डेनिया स्क्वायर , क्रासिंग रिपब्लिक , गाज़ियाबाद - 201016 मोबाइल :98680883965


पैसा आने से पैसा नहीं होता।  पैसा होता है, पैसा जोड़ने से। 

 

साहब, बड़े-बड़े अफीसरान देखे हैं। हजार-हजार का तलब उठाने वाले। और महीने के अंत में चपरासियों से उधार मांगते फिरते हैं। खर्च का कोई अंत भी है। असल चीज है संयम। साहब, सारे वेद शास्त्र का बस एक ही निचोड़ निकलता है, और वह है संयम। अगर आदमी संयम से रहे तो उसके लिए कोई भी बात असंभव नहीं है।

दूर कहां जाइएगा, यही संभू बाबू की ही बात ले लीजिए। तीन सौ रुपए आज के जमाने में क्या होते हैं! लेकिन नहीं, इसी में उन्होंने दो लड़कों को पढ़ाया, एक लड़की की शादी की,  एक मकान बनवाया, और दूसरा एक प्लाट खरीद कर बैठे हैं। और अगर परमात्मा ने चाहा तो दो-तीन साल में वह भी बनकर तैयार हो जाएगा। 

बुढ़ौती में आदमी को और क्या चाहिए? दो लड़के हैं। दोनों के लिए ठिकाना कर दें, फिर तो डेरा कूच भी हो जाए तो किसी तरह का संताप नहीं।

शराब उन्होंने पी नहीं। सिगरेट एक जमाने में जरूर पीते थे, पर बाद में उसकी जगह बीड़ी पीने लगे। लेकिन बीड़ी भी इस तरह नहीं की एक बुझी और दूसरी  सुलगा ली। दो घंटे के बाद एक बीड़ी और वह भी आधी पी और आधी बुझाकर अगली बार के लिए रख ली। नहीं साहब, सवाल कंजूसी का नहीं है, सिद्धांत का है। अत्मसंयम का।

संभू बाबू अभी पिछले साल तक जिस कमरे में रहते थे उसका किराया था तीन रुपया। तीन रुपए में दिल्ली में कहीं कमरा मिलता है, और वह भी आज के जमाने में?  पर यह कमरा उनके पास पिछले 40 साल से है। और जानते हैं जब संभू बाबूकी पत्नी का स्वर्गवास हुआ और लड़के दूसरे शहरों में नौकरी पर चले गए, तब से इस तीन रुपए महीने के कमरे में कितने आदमी रहते हैं? पूरे नौ आदमी।

आप सोचेंगे, यह तो कंजूसी की हद हो गई। पर नहीं, वही सिद्धांत वाली बात। आप यह तो सोचिए कि यदि आज के जमाने में, जब दिल्ली में कमरे इतने मंहगे हो गए हैं कि आम आदमी कमरा ले ही नहीं सकता,  तब वहां, अगर संभू बाबू इस कमरे में आठ और आदमियों को पनाह दे लेते हैं तो इसमें खुद तो कम खर्च में काम चला ही लेते हैं, दूसरे आठ आदमियों  को भी सहारा दे लेते हैं। दिन में काम करने वाला रात मे सोएगा और रात में काम करने वाला दिन में। घर तो सेने और निबटने के लिए होता है। बाकी कामों के लिए तो सड़क-बाजार हेैं ही।

आज के जमाने में जिसको दूसरे वक्त के खाने का भी ठिकाना नहीं है, वह भी टेरिलीन पहनता है,  हर तीसरे दिन सिनेमा देखता है।  संभू बाबू का दस्तूर वही पुराना है। मोटा कुर्ता मोटी धोती।  जिंदगी में एक बार पैंट बनवाई थी और दो बार सिनेमा देखा था, लेकिन फिर सोचा कि यह तो मन है, जितना बढ़ाओ बढ़ता चला जाएगा, काबू में रखो तो काबू में रहेगा।

कई बार ऐसा हुआ है कि संभू बाबू की पत्नी ने जिद की कि आज सब्जी बनेगी, और उनके बार-बार कहने से तंग आकर एक बार संभू बाबू घर से निकल पड़े हैं, सब्जी वाले की दुकान तक गए हैं और हर चीज का भाव मालूम किया है फिर सोचने लगे हैं कि क्या आदमी सब्जी खाए बिना जिंदा नहीं रह सकता? क्या मानव जीवन का चरम लक्ष्य सब्जी खाना है?  जो पैसे आज सब्जी पर फूंके जाने वाले हैं, यदि वे बचे रह गए तो क्या किसी और काम नहीं आएंगे? और अंत में संभू बाबू ने तय पाया कि सब्जी खाना मानव जीवन का परम लक्ष्य नहीं है, इसलिए सब्जी अभी नहीं खाएंगे और वह वापस आ गए हैं।

दस रुपए का बजट। बीवी के मरने के बाद जब से वह अकेले रहने लग गए तब से उनका बजट था महीने के दस रुपए। एक बार ऐसा हुआ कि महीने की अंतिम तारीख थी। दोपहर को इस महीने के बजट  में केवल दो पैसे बच रहे थे।  संकट यह था कि अगर दो पैसे के छोले दोपहर को ले लेते तो शाम को दो पैसे का जो दही लेते थे वह नहीं ले पाते। छोले नहीं लेते तो रोटी कैसे खाते ? बहुत सोचने के बाद तय किया कि हो कुछ भी, बजट फेल नहीं होना चाहिए, भले रतनप्रकाश को ही छोले के पैसे चुकाने को कहना पड़े।

दुनिया में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो नौकरी से रिटायर कर गए हो, बीवी मर गई हो, बच्चे किसी दूसरे शहर में नौकरी कर रहे हों,  अकेले रह रहे हों,  फिर भी प्रसन्न रहते और मुस्कुराते हों। 

मुस्कुराने के लिए जरूरी है कि आदमी के पास मकान हो, उस मकान के तीन कमरों में से दो उसने किराए पर दे रखे हों, तीसरे में अपना गुजर कर रहा हो, अपने दूसरे लड़के के लिए प्लाट भी खरीद लिया हो और किराए की आमदनी और पेंशन की रकम से नियमित रूप में कुछ जोड़ता बचाता उस प्लाट पर भी मकान बनाने की योजना रखता हो। हां, मुस्कुराने और खुश रहने के लिए ये सभी शर्ते हैं पर सबसे बड़ी शर्त है उसके लड़के का इस नए मकान के बनने के बाद, पहली बार, और वह भी सपरिवार, आगमन। अभी दो घंटे में उनका लड़का जाएगा, बहू आ जाएगी, पोते आ जाएंगे, और इस मकान में हंसने खिलखिला ने लगेंगे। इससे बड़ा आनंद कोई हो सकता है क्या?

वह बुदबुदाए, 'दो घंटे!' और चारपाई पर बैठ गए। उनका हाथ तकिए के नीचे चला गया और बीड़ी का एक बंडल तथा माचिस लेकर वापस आ गया। उन्होंने एक बीड़ी निकाल कर मुंह से लगा ली और ठीक इसी समय उन्हें याद आया कि वह अभी एक घंटा पहले ही एक बीड़ी पी चुके हैं कायदे से अभी एक घंटा बाद दूसरी का नंबर आएगा। उन्होंने मुंह में लगी बीड़ी को वापस बंडल में रख दिया माचिस और बंडल अलमारी में रखा कि और कुछ नहीं तो आलस्य से ही एक आध बीड़ी का खर्च कम हो जाएगा।

"दो घंटे! अर्थात दो घंटे में पांच मिनट कम!" वह कमरे के पीछे सीढ़ियों के नीचे बने ‘स्टोर’ में चले गए। इस बात का ठीक-ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता कि यह स्टोर किसी कमरे से अधिक मिलता था या सुरंग से 

संभू बाबू इसके भीतर पहुंचकर एक लंबी सांस लेते हैं और इसमें रखें एक स्टूल पर बैठ जाते हैं। स्टोर में टीन की दो की पुरानी पेटियां रखी हैं जिनको चादर जगह-जगह से गल गई है । इन पेटियों के पीछे एक बोरी है जो ऊपर तक कसी हुई है। इसके पीछे लकड़ी की एक पेटी है, जिसकी कुछ कीलें ऊपर को निकली हुई हैं। इस पेटी पर तीन चार जोड़ी जूते रखे हैं जिनमें से कोई ऐसा नहीं कि  उसे पैरों में डाला जा सके। जूते जगह गए अकड़ गए हैं। संभू बाबू पहले जूतों को उतार कर एक ओर रखते हैं और फिर पेंटी खोलते हैं। छोटी मोटी लकड़ी की गिट्टियां जो मकान बनते समय बच गई थी और संभू बाबू ने उन्हें संभाल कर रख लिया था कि कौन जाने कब जरूरत पड़ जाए। पुरानी चारपाई से उतारी गई सड़ी गली निवाड़। कुछ फटे पुराने कपड़े, सिगरेट का एक टिन,  कुछ जंग लगी कीलें और पिन, एक पुराना आ‌ईना। आईने के पीछे की पालिश जगह जगह छूट गई है। वह उसे साफ करके इसमें अपना मुंह देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। शीशे में उनका मुंह ऐसा लगता है जैसे मांस जगह-जगह से नोचा लिया गया हो। संभू बाबू एक एक चीज को दुबारा पेटी में रख देते हैं और फिर इसके ऊपर का फट्ठा रख कर फटे जूतों को यथावत सजा देते हैं।

टीन की पेटी में सबसे ऊपर एक पुरानी साड़ी है।  साड़ी रेशमी है और जगह जगह से अपनी तहों पर फटने को आ गई है। लगता है किसी अवसर पर पहनी ही न गई हो। उसके नीचे एक रेशमी ब्लाउज है ।‌ नीचे एक पैंट जिसमें इतने पैबंद लग चुके हैं कि भ्रम होता है कि संभू बाबूअपने प्रत्येक जन्मदिन पर उसमें एक चिप्पी लगवाते चले गए हों। चार-पांच अधफटी कमीजें हैं, दो पाजामे हैं, एक मोटी सी फटी धोती है, और नीचे कुछ जनानी धोतियां  हैं जो अपने पैबंदों की बहुलता के बावजूद जगह-जगह से फटी रह गई हैं। एक लिफाफा है जिसमें पत्नी के साथ उनका जवानी के दिनों का चित्र है। वह इस चित्र को देर तक देखते रहते हैं और उनके चेहरे पर गहरे आत्मसंतोष का भाव छा जाता है। नीचे कुल सात  चिट्टियां हैं। उनके पूरे जीवन काल में मिली चिट्टियां। फिनायल की कुछ गोलियां है जो अब मटर के दाने के आकार की रह गई है। संभू बाबू हर चीज को धीरे-धीरे इतनी संभाल से बाहर निकालते हैं मानो कोई क्यूरेटर पुरातत्व के अवशेष संभाल रहा हो।

दूसरी पेटी में रखे सामान भी पहली से अलग किस्म के नहीं हैं। हां, इसमें चिट्ठियों की जगह एक टाइमपीस है जिसका शीशा टूट गया है। डायल के निशान धुंधले हो गए हैऔर जो अब बहुत लंबे अरसे से बंद पड़ी है। यह घड़ी संभू बाबू  ने तब ली थी जब वह सुबह की पारी में काम करते थे और लगातार तीन दिन तक लेट हो गए थे। इस पर्ची में एक और चीज है-  संभू बाबू का निजी रिकार्ड - एक नोटबुक, तीन चार फटी हुई किताबें और कमीज के बटन। इस बार भी हर चीज उसी तरह जतन से रख दी जाती है।

उनका यह काम दूसरे किसी आदमी को मूर्खतापूर्ण लग सकता है। इन फटे चिथड़ों, शीशियों, निवाड़ों और जूतों में क्या रखा है जो इन्हें इतने संभाल कर रखा जाए और दिल्ली जैसे मंहगे स्थान का  एक ‘स्टोर’ फंसाए रखा जाए,  लेकिन वह स्वतः इन्हें रखते हुए कुछ ऐसा महसूस करते हैं जैसे इन वस्तुओं के साथ जुड़े अपने जीवन के क्षणों को रख रहे हों।

अभी भी गाड़ी आने में एक घंटे की देर है। वह कमरे से निकलकर बस स्टॉप की ओर से आने वाली सड़क को निहारने लगते हैं, ‘क्या पता गाड़ी समय से कुछ पहले ही आ जाए, या लड़कों ने अपर इंडिया न पकड़कर जनता पकड़ ली हो।’

यदि वह अभी चलें तो गाड़ी आने तक आराम से स्टेशन पहुंच सकते हैं, लेकिन जो आदमी कलकत्ता से चला आएगा वह क्या दिल्ली पहुंचकर कृष्णनगर तक नहीं पहुंच सकेगा? इतनी हाय-तौबा क्यों! इतना पैसा बेकार क्यों खर्च किया जाए। और दूसरी बात यह कि मान लीजिए आप पहुंचे स्टेशन और कुछ ऐसा हुआ कि आप अपने बच्चों को ट्रेन पर तलाश रहे हें और वे उत्तर कर घर को रवाना हो गए।  वापसी में आपको सही समय पर बस न मिली और आप घंटे आध घंटे देर से पहुंचे। उस हालत में आपका बच्चा, बहू, पोते उजबकों की तरह खड़े रहेंगे या नहीं ! 

 

हां, बस-स्टॉप तक जाया जा सकता है। आएंगे तो वहीं से होकर न।  बीच के समय का सदुपयोग स्टैंड के पास के सैलून में अखबार पढ़कर किया जा सकता है। हां, ऐसे मौकों पर अखबार पढ़ने से कुछ न कुछ जानकारी ही बढ़ती है, अन्यथा अखबार पढ़ना निठल्लों काम है। अरे भई, आपको पता ही चल गया कि कहीे लड़ाई हो रही है या कहीं कोई अकाल पड़ा है, तो आप इससे क्या बना-बिगाड़ लेंगे।

संभू बाबू बस-स्टॉप पहुंच ही गए। आज उन्होंने पूरा अखबार पढ़ डाला, यहां तक कि विज्ञापन भी -  सामानों और नौकरियों के विज्ञापन से लेकर अदालती नोटिस और टेंडर नोटिस तक।  पर वह पूरा अखबार एक धुन में ही पड़ गए हों, ऐसी बात नहीं। हर बार बस की घरघराहट सुनकर वह सैलून से बाहर आ जाते और बस रुकने पर उतरने वाली  सवारियों को ध्यान से निहारते और फिर सैलून में लौट कर अखबार में नजर गड़ा  लेते। 

 इस बीच एक बार बाहर जाने पर अखबार  किसी गाहक के हाथ में चला गया तो ‘दीवानी दुनिया’ के पन्ने ही पलटते रहे। ढाई घंटे का समय और पूरा अखबार खत्म करने के बाद, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि या तो गाड़ी लेट हो गई है, या वे अपनी यात्रा रद्द कर चुके हैं, और निराश हो कर  वापस लौट आए। लौटने पर पाया कि लड़का, बहू, दोनों पोते दरवाजे के सामने संदूक और बिस्तरबंद नीचे जमाए बैठे हैं। वह उत्साह में लगभग दौड़ से पड़े।

"अरे भई, मैं तो बस स्टैंड पर खड़ा तुम्हारी राह देख रहा था।  आ कैसे गये?"

"टैक्सी कर ली थी।"

एक बार संभू बाबूके जी में भी आया था कि वह भी टैक्सी  में बैठ कर देखते, इसमें बैठने पर कैसा लगता है, लेकिन उन्होंने अपने मन को समझा लिया था कि चाहे बस में बैठो या टैक्सी में, फर्क क्या पड़ता है! गद्दी तो दोनों में एक जैसी ही होती है।

'टैक्सी में!" उन्होंने कमरे से बाहर लटक रहे ताले पर एक दृष्टि डाली और एक लड़के को गोद में उठाकर जेब से चाबी निकाल कर कमरे का ताला खोलने लगे, "मकान कैसा लगा तुम्हें?"

"ठीक है। जो बन गया सो ठीक ही है।"

संभू बाबू लड़के को काफी देर तक आज की महंगाई के जमाने में दिल्ली में दो सौ गज के प्लाट में बने तीन कमरों का महत्व समझाते रहे और जब उनका लड़का उनकी उपलब्धियों का सही मूल्यांकन करने में असमर्थ लगा तो वह अपनी अगली योजना पर प्रकाश डालने लगे जिसके अनुसार दो-तीन साल में वहां से दो फलांग पर  दो हजार गज की दूरी पर  दूसरे प्लाट पर छोटे बेटे के लिए तीन  कमरों का दूसरा मकान बन जाएगा।

"अगर दूसरा मकान बनवाने या प्लाट खरीदने का पैसा था, तो इसी मकान को कुछ और कायदे से बनवाया होता!"

संभू बाबू इस तरह की बातें नहीं समझ पाते। वह लड़के के चेहरे की ओर देखने लगे, "तुम लोगों के खाने-पीने का तो कोई इंतजाम हुआ नहीं!"

संभू बाबू कमरे से बाहर निकल आए।  आज संभू बाबूने सब्जी भी खरीदी आलू गोभी और बच्चों के लिए पाव भर गाजर।  हां गाजर असली ताकतवर चीज है। यह टाफी-साफी तो जबान खराब करने के धंधे हैं। संभू बाबू जब बच्चे थे तो इन्हीं गाजरों के लिए उनकी अपने भाई से लड़ाई हो जाया करती थी।

"देखो, दो कमरे तो मैंने दे दिये हैं किराए पर। अकेला आदमी इतनी सारी जगह का क्या करता। और आदमी को बोलने बतियाने के लिए भी तो कोई चाहिए।  एक कमरा अपने पास रखा है। अब, जब तक तुम लोग हो,  शाम को काजी हाउस वाले अपने पुराने कमरे पर चला जाऊंगा और रात वहीं बिताऊंगा। जानते हो वह कमरा अभी मैंने अपने ही नाम पर रखा है!" 

बहू चौके में कुछ तल रही है। तड़के-मसाले की गंध से पोते छींक रहे हैं और संभू बाबू अपने बेटे को अपने निकट भविष्य का कार्यक्रम बता रहे हैं, सुबह को मैं लौट आऊंगा।सर्दी कुछ खास नहीं है,  फिर भी बाहर सोना तो संभव नहीं है।  रात ही तो काटनी है। यहां नहीं तो वहां सो गए।  खाना खा लेने के बाद संभू बाबू फिर बाहर निकले,  ‘अब तुम लोगों कुछ देर आराम करो रास्ते के थके मांदे हो।’ 

 वह पड़ोस के लोगों को अपने बच्चों के आने की सूचना देते रहे।  राजू के पास बैठकर उनके मकान के गुण दोष का विवेचन करते रहे,  लोहे -सीमेंट का चालू भाव पूछते रहे और अगले साल तक तीन कमरे पर आने वाले खर्च का हिसाब लगाते रहे।  शाम को वह काजी हाउस वाले कमरे पर जाने से पहले थोड़ी देर के लिए घर आए। नहीं, चाय नहीं पीते वह।  यह भी कोई पीने की चीज है! इससे तो अच्छा है कि आदमी तुलसी की पत्ती उबालकर नमकीन चाय बना ले। स्वाद का स्वाद और दवा की दवा! नहीं शाम का खाना भी नहीं खाते। बुढ़ापे में एक समय का खाना  पच जाए वही बहुत है। और आज तो कुछ देर भी हो गई थी। चले आए  कि जाने से पहले उन्हें बताते चलें ।

“जाना कहां है?”

“बताया तो था तुम्हें कि रात को काजी हाउस वाले कमरे पर जा कर सो लूंगा।”

 “सोने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं।”

“ जाने की जरूरत नहीं! मतलब क्या है तुम्हारा?

“इंतजाम यही हो गया है।”

“कहां?”

आगे आगे लड़का और पीछे पीछे संभू बाबू। लड़का स्टोर के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया। संभू बाबू उसके पीछे जाकर खड़े हो गए। ‘स्टोर’ का दरवाजा खुला हुआ था।  इसके भीतर इस समय चार दीवारें थीं यदि किसी तरह इन्हें दीवारें कहा जा सके तो! और थी एक फर्श जिसे झाड़-पोंछ कर साफ कर दिया गया था। उस पर एक चटाई डाल दी गई थी और ऊपर बिछा दिया गया था संभू बाबू का मोटा सा गद्दा।

"इसमें रखे सामान का क्या हुआ?"

लड़के का हंसना स्वाभाविक था, "वह मलबा? उसे हम लोगों ने बाहर फेंक दिया।”

"बाहर फेंक दिया?" संभू बाबू स्टोर के भीतर घुस गए।  किवाड़ उन्होंने भीतर से बंद कर लिया। कमीज की जेब से बीड़ी का बंडल और माचिस निकाल कर बीड़ी जलाई। पीने लगे। एक... दो ...तीन और चार और पांच और छह। बंडल खत्म हो गया तो स्टोर में भर गए धुंए के बीच अधेरे को निहारते रहे और फिर बिस्तर पर लेट गए।  ‘बाहर फेंक दिया!’ उनका चेहरा तन गया और अंधेरे में भी कुछ नजर आने लगा। उन्हें लगने लगा कि उनका चेहरा ग्लानि से भर गया है। उन्हें अभी कुछ देर पहले शीशे में दिखा अपना चेहरा याद आया। लगा उनके चेहरे का मांस जगह सोच लिया गया है।  उन्होंने अपना एक हाथ आंखों पर लगा लिया और पैरों के सहारे पैताने रखा कंबल खींच कर अपने ऊपर ले लिया। उनके भीतर एक भयानक खालीपन महसूस हो रहा था। बहुत सारी भाप घुमड़ कर बाहर आना चाह रही थी। उन्होंने अपने सीने को दोनों हाथों से दबा लिया पर रोए नहीं।  बिल्कुल नहीं ।


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