Friday 22 April 2022

कथा-गोरखपुर , खंड - 2

पेंटिंग : अवधेश मिश्र , कवर : प्रवीन कुमार 




पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी 

मां  ● डाक्टर माहेश्वर 

मलबा ● भगवान सिंह 

तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह 

पेड़  ● देवेंद्र कुमार 

हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर  ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव

सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव 

दस्तक ● रामलखन सिंह 

दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव 

इतिहास-बोध ●विश्वजीत  





11 - 

पेंशन साहब

[ जन्म : 1 फ़रवरी , 1930 - निधन : 18 नवंबर , 1995 ]

हरिहर दिवेदी

उन दिनों मैं कलकत्ते में था। शिवपुर में एक किराये के मकान में रहता था। बच्चे कुछ दिनों के लिए गांव चले गए थे। दफ्तर के काम के बाद भी इतना समय बच जाता था कि आधा कलकत्ता पैदल घूमते-घामते कमरे में आ जाता था और तब भी कुछ नियमित शुरू से लिखा करता था। एक दिन काफी रात गए अभी कलम पकड़ा ही था कि एक औरत मेरे कमरे में घुस आई। यह घटना मुझे कोई असाधारण नहीं लगी। उन दिनों तो अकेले था, परिवार के रहने पर भी कभी एक, कभी दो-दो, तीन-तीन, चार-चार लोग समय-बेसमय आया ही करते थे। कभी रात को 2 बजे, कभी 2 बजे, कभी 5 बजे। उन दिनों का माहौल ही कुछ ऐसा था। लोग अपने को बहुत आजाद महसूस कर रहे थे। शायद इसलिए वह औरत बिना किसी औपचारिकता के अपना घर समझ किवाड़ खोलकर अन्दर चली आई। आते ही बोली- एक दिन मैं खुद पेंशन साहब के पास चली गई। वे चश्मा लगाए कुर्सी पर बैठे छत की ओर कुछ देख रहे थे। कमरे में मद्धिम रोशनी जल रही थी। चश्मे को नीचे की ओर सरकाकर उन्होंने मेरी ओर गौर से देखा फिर चश्मा उतारा और उसे एक हाथ में घुमाते हुए अपनी नंगी आंखों से मुझे घूरना शुरू कर दिया। मुझे कुछ शरम मालूम हुई। अपना आंचल समेटा और अपने अंगों को अच्छी तरह ढंक लिया। वे अजीब ढंग से मुस्करा रहे थे। मैंसहमी-सहमी खड़ी रही।

थोड़ी देर बाद जो कागज मैंने दिया था उसे पढ़ते हुए उन्होंने पूछा-महेश की उम्र क्या थी? उस खौफनाक माहौल में आदमी की-सी आवाज सुनकर मुझे कुछ-कुछ राहत मिली। पहाड़ जैसा माहौल कुछ हल्का लगने लगा। मैंने तुरन्त उत्तर दिया-'अटूठाईस ।”

“तो तुम्हारी उम्र करीब पच्चीस-छब्बीस की होगी?”

“ठीक-ठीक मालूम तो नहीं साहब, मगर जब मैं उनके पास आई थी, उस समय मेरी उम्र उनसे कुछ कम जरूर थी।

“कितने बच्चे हैं ?”

“कुल दो, पहली लड़की है, दूसरा लड़का |”

“वे कहां हैं ?”

“यहीं, बस्ती में मेरे साथ ही रहते हैं। ”

“सुना है तुमने दूसरी शादी कर ली है ?”

“ जी। ”

“इसमें बुरा क्या है?”

“किसी ने आपसे झूठमूठ शिकायत कर दी होगी साहब। मैं बिल्लो के पिताजी की उम्मीदों को कभी भी धोखा नहीं दे सकती। अगर मैं ऐसा करूंगी तो उनकी आत्मा को कभी भी शांति नहीं मिल पाएगी।”

“यह कारखाना किसी की आत्मा की शान्ति के लिए नहीं खोला गया है, समझी? तुमको कारखाने से महेश की मृत्यु के उपरान्त जो पचास रुपये महीने मिलते रहे हैं, वे मुफ्त के नहीं आते।”

“लेकिन दूसरों की जिन्दगी...” अपने कलेजे को मुंह तक लाते हुए अभी बोल ही रही थी कि उन्होंने तेवर बदलते हुए कहा-“लेकिन मैंने तो महेश की जान नहीं ली थी। तुम्हारी गन्ध में डूबा महेश अचानक मशीन की चपेट में आ गया था।”

पेंशन साहब के मुख से इतना सुनना था कि उनका चौड़ा, सीना मेरी आंखों के सामने नाचने लगा। रोम-रोम में उनके स्पर्श की मुस्कराहट मेरे सपनों को चूमने लगी। वे मुझे पहले से भी अधिक प्यारे लगने लगे। अन्दर से एक हूक-सी उठी। मेरे लिए अपने को जब्त रख पाना कठिन हो गया आंख की पथरायी पुतलियों को छेदकर बेसहारे आंसू बाहर आ गए। मूर्ति टूटकर बिखर गई। मेरी नम आंखों की रोशनी में पेंशन साहब का चेहरा खूंखार जानवर के मुंड-सा घूरने लगा। उनके होठों पर अब भी हंसी थी। मुझसे उनकी वह हरकत सही न गई। अन्दर ही अन्दर उबल पड़ी। होंठ फड़फड़ाने लगे। वे एक कमद आगे बढ़े। मैंने उनका हाथ झटक दिया और दौड़ती हुई बाहर चली आई।

पैसे मिलने बन्द हो गए थे फिर भी तीन मास तक मैं कारखाने की ओर न जा सकी। सोचा दो-एक घर नौकरानी का काम पकड़ लूं। आप सुनकर अचरज में पड़ जायेंगे, बाबूजी। मगर नाम नहीं लूंगी, इसी मुहल्ले में एक भद्र पुरुष के घर तो मुझे लेकर पति-पत्नी के बीच तलाक तक की नौबत आ गई थी। बात यह थी कि पत्नी के बार-बार मना करने पर भी उन्होंने मुझसे काम पर आने को कहा था। मैं इस मजबून की टेढ़ी बॉकी इबारत को समझती थी काम पर क्‍यों कर जाती, नहीं गई।

बाबूजी! जाने आप क्या सोचते हैं मगर मुझे तो लगता है जो ईमानदारी और दयावान है उनकी जेबें उलट दी गई हैं और जिनकी जेब गरम हैं उनकी नजरें तक दगाबाज हैं। एकाध जगह काम भी मिला पर जहां कहीं भी गई कोई न कोई घाव ही लेकर वापस हुई। जो मंहगाई से तंग आकर अथवा किसी और मजबूरीवश परिवार घर भेज चुके हैं अथवा बिना परिवार के रहते हैं मुझे काम तो देना चाहते थे पर पेंशन साहब की हरकत याद आते ही हिम्मत टूट जाती थी। इस तरह मैं तनावों और तनहाइयों से छिला चेहरा और अंग-अंग को पकड़ कर झूलती कहानियों की गठरी लिए घूमती रही।

थोड़े बहुत गहने थे उन्हें इधर-उधर कर दिन काटना शुरू किया। कभी महेश के कारखाने वाले हफ्ता उठाकर इधर से गुजरते तो बच्चों के हाथ पर कुछ जरूर रख जाते पर इस तरह आखिर कब तक चलता? दो-दो, तीन-तीन दिनों तक घर में चूल्हा जलाने की नौबत ही नहीं आती थी। टोले मोहल्ले वालों को भी कुछ दिन दया आई। बच्चों को रूखा-सूखा दे दिया पर महंगाई के दबाव ने उनके इन हाथों को भी मरोड़ डाला। उन्होंने भी अपना मुंह फेर लिया।

यूनियन के पास भी कई बार गई। वे लोग आज कल करते रहे। मजदूरों के बार-बार कहने पर एक दिन नेता जी गए भी तो पैसे मिलने शुरू नहीं हुए। उन्होंने आकर कहा-“महेश मरते समय कह गया था कि मेरे पावने के लिए पचास-पचास मासिक करके जब तक मेरी पत्नी जिन्दा रहे दिए जाएं। मगर किसी ने दरखास्त दे दी है कि तुमने दूसरी शादी कर ली है। उसकी जांच होने पर ही कुछ हो सकेगा।

मैं रास्ते-भर सोचती रही जब से वे कलकत्ते आए मैं भी साथ ही आई थी। कहीं से कुछ ऐसा नहीं मिला जिसके कारण किसी का दिल जला हो और उसने ही बदला लेने के लिए ऐसा किया हो मगर दरखास्त तो किसी ने दे ही दी थी। कम्पनी को अच्छा मौका मिल गया था। वह दरखास्त स्याही पुता कागज नहीं उनके लिए तो हजारों रुपयों का दस्तावेज था। वे ठहरे खून के सौदागर जिन्हें आदमियों के खून का भाव मालूम है और मैं ठहरी नारी, औरत, आंसुओं की गठरी जगह-जगह से टूटे सम्बन्धों की दुनिया को आंसुओं के गारे से जोड़ पाना मेरे लिए दिन-दिन पहाड़ होता गया। दिन तीखा धुआं और रात डरावनी चीखें लेकर मेरे इर्द-गिर्द आती थी। रात दिनों के होठों में बन्द चुपचाप बरामदे में बैठी रहती। यही बरामदा मेरी दुनिया था जिसके एक कोने में एक अंधा भिखारी अब भी रहता है। मकान मालिक के मझले लड़के और इस नगर की आवारा औलादों से मेरी रक्षा के लिए आंखों के अलावा उस बूढ़े के पास सब कुछ है। काश! ये तन के उजले ऐसे ही अंधे हो जाते।

एक दिन बच्चे रो-रोकर मेरी जांघों पर लेट गए थे। इसी बीच मुहल्ले की वह बूढ़ी कसबिन खांय-खांय करते हुए कहीं से आई और मेरे पास दुबक कर बैठ गई। मेरी हालत पर आंसू बहाएं और कहा-“मेरे यहां झोलामाली होते ही आ जाया कर, चार-पांच रुपये आसानी से बन जायेंगे। खून के इन पोतड़ों को तो सींचना ही होगा। कितने प्यारे हैं। उसकी दया ऊपर से जितनी सफेद उसके भीतर उत्तनी ही गहरी काली परतें जमी हुई थी। मेरी आंखों के सामने अंधकार छाया हुआ था। दो दिन की भूखी थी फिर भी उस डाइन ने ज्यों ही बच्चों को चूमना चाहा कसकर एक एड़ जमाया और वह दूर जाकर चारों खाने चित्त हो गई। संभल कर उठी और कुछ भुनभुनाती हुई गली में सरक गई। यदि जरा भी और देर लगती तो उस दिन उसका सारा गंदा खून बहा देने से अपने को नहीं रोक पाती। मैं चुपचाप इस दुनिया के खिलवाड़ों को देखती और सुबकती रही। कई बार आंखों पर हाथ फेरा पर आंसू जाने कहां सूख गए थे। कहीं कोई अपना नजर नहीं आ रहा था। पचास रुपये में मुझे बेच कर भी पिताजी मां को बीमारी से बचा न सके थे। अभी आठ की ही थी तभी पिताजी भी चल बसे थे। उस खुर्राट बूढ़े के हाथों से महेश ने रुपये वापस कर मुझे जिन्दा बचा लिया था। वही मेरा सब कुछ था। उसके और मेरे पिता के नाम कहने को जो थोड़ी बहुत जगह जमीन थी वह गांव के ठाकुर ने पहले ही हड़प ली थी। वहां भी गुजारे की कोई गुंजाइश नजर नहीं आ रही थी। रह-रह कर बच्चों का गुलाबी चेहरा पोर-पोर में गुनगुना उठता था। यह शहर आदमी और औरतों से भरे जंगल-सा लग रहा था जहां प्यार भरी बोलियां शेर-चीतों की दहाड़-सी लगती थीं। एक दिन सोचा, अपने भविष्य की इन नरम उम्मीदों को साथ लेकर इनसे बचने के लिए भागीरथी में कूद पड़ूं कि बबलू कहीं से घूमता हुआ आया। मुझको देखते ही उसने आंखें मिचकायीं और बड़बड़ाया-“तुम...ह...ह...ह..बिललो की मां...तुम...अंधा भी छोड़ गया। दो के छः न बना दिया तो मेरा नाम बबलू नहीं, समझी? क्यों अपनी जिन्दगी को खराब कर रही है। भगवान से तो डर। क्या गढ़ा है बिचारे ने महुए की चढ़ा कर। मैं दुबकी रही। उस ने काफी चढ़ा ली थी। वह धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ता रहा।  मैं बन्द कमरे में सिनेमा की नायिका की तरह एक ओर सरकती गई। वह हटना नहीं चाहता था। उसने मेरी ओर अपने हाथ बढ़ाए ही थे कि मैंने उसकी कलाई पर अपने भूखे दांतों को जोर से गड़ा दिया, बच्चू चूहे की तरह चीं-चीं कर लेटने लगे। इस छीना-झपटी के जग जाहिर हो जाने के डर से बात बढ़ाना ठीक नहीं समझा। होंठ फड़फड़ा रहे थे, इसी बीच उसने जो कुछ कहा उसमें सच्चाई की रोशनी झिलमिलाने लगी। उ सकी किरणों के सहारे मैं एक बार फिर पेंशन साहब के पास चली गई। उस दिन भी वे कमरे में अकेले थे। मुझे देखते ही कहा-

“आ गई! मुझे मालूम था तुम एक-न-एक दिन जरूर मेरे पास आओगी।”

“वह दरखास्त झूठी है साहब।”

“कैसे मालूम?”

“बबलू कह रहा था?”

“कौन! वह पगला?”

मैं चुप लगा गई। उन्होंने फिर पूछा-“क्या कह रहा था?”

“यही कि-मैंने ही दरखास्त दी है ताकि तुम्हारे पैसे बन्द हो जाएं और तुम मेरी हो जाओ।”

“क्या सबूत कि उसने तुमसे ऐसा कहा है?”

मैं निरुत्तर थी। मेरा सारा बदन झनझना रहा था। ऐसा लगता था मैं शून्य में टांग दी गई हूं। जरा भी इधर-उधर हुई कि हड्डियां-हड्डियां टूट कर बिखर जाएंगी। बच्चों के खो जाने का भय अन्दर समा गया। लेकिन अंधे की उपस्थिति से कुछ आस्वस्त हुई। मुंह से अचानक निकल पड़ा-“नहीं-नहींख ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा कभी नहीं हो सकता।” 

“क्यों नहीं हो सकता। तुमको कोई भी कुछ नहीं कहेगा?”

“मगर ?”

“शैतान कहीं की, अपनी नहीं उन बच्चों की तो खैर मना। महेश की वही तो तुम्हारे पास निशानी है।

मैं चुप हो गई। तीन चार महीने के ताबड़तोड़ उपवास तथा इधर तीन दिन की लगातार भूख ने मुझे तोड़कर रख दिया था। आंखों के सामने अंधेरा छाया हुआ था। कुर्सी पर से उठते हुए उन्होंने मुझे पुचकारा ही था कि सारा दम साध कर एकाएक मेज पर पड़े छुरे को, जिससे वे कुछ देर पहले सेब छील कर खा रहे थे, जोर से उनके सीने के पार उतार दिया। और चुप हो गई।

“और फिर?” उसके एकाएक चुप हो जाने पर मैंने पूछा।

“और यहां चली आई हूं।”

“मेरे यहां आते तुम्हें डर नहीं लगा।”

-“अब काहे का डर बाबूजी! अंधू चाचा चुपचाप पड़े हुए हैं। जल्दी-जल्दी दोनों बच्चों को बबलू के पास सौंप आई, बोली, इन्हें संभालना। अभी आती हूं। सभी दरवाजे बन्द हो चुके हैं। इधर से गुजर रही थी। आपके दरवाजे से बाहर छितर रही रोशनी में एक अपनापन लगा इसीलिए अन्दर चली आई। मुझे अपने पिछवाड़े वाले उस टूटे कमरे में शरण दे न दीजिए बाबूजी |”

इसके पहले कि मैं कुछ जवाब देता, कमरे की ओर इशारा करने के लिए ज्यों ही वह मुड़ी मुझे उसकी कमर के नीचे खून से सना वह छुरा दिखाई पड़ गया। कहा-“इसको तो उधर ही फेंक दिया होता।”

उसने छुरा निकाल कर शान से चमकाते हुए कहा-यही तो गरीबी का तोहफा है बाबूजी! जो पेंशन के बदले साहब से मुझे मिला है। भला इसे भी फेंक दूं तो महेश तथा उनके जैसों की औलादों की आत्मा का क्‍या होगा बाबूजी ?”

और मैंने देखा, इतना कहकर वह अजीब मस्ती के साथ मुस्करा रही थी। उसके चेहरे पर आत्मसंतोष का एक बेबाक भाव था। उसका पूरा बदन फागुन के मौसम की तरह खिला हुआ था। वह बेहद सुन्दर लग रही थी।

हां तो मैं आप से कलकत्ते की उन दिनों की घटनाओं के बारे में बता रहा था। लेकिन भाई जान! जब से यहां आया दिल्ली, लगता है सारा समय दफ्तर लगा हुआ है। कभी-कभी कोई आता-जाता भी है तो अपने साथ एक अदद फाइल लिए हुए लगता है। कुछ औरतें हैं कि इतनी गन्दी, इतनी गंदी , इतनी गंदी कि सीने पर श्मशान पर लुढ़का सिहौरा लटकाए फिरती है। गाल सुर्ख, चाहे उम्र 50 की ही क्‍यों न हो, जैसे बाथरूम में पेटीकोट का कच्चा रंग छूट कर उसके जवान बेटे की पीली बुशर्ट पर चिपक गया हो। हो सके तो इस रविवार को आना। दिल्‍ली के आसपास किसी गांव में चलेंगे। जहां अभी फाइलों के पहुंचने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है।


12 - 

मां 

जन्म : 15 जून 1930 ग्राम इटार, जिला गोरखपुर - सादतपुर, दिल्ली में निधन : अप्रैल , 2000 

डाक्टर माहेश्वर  

होटल से निकलकर लड़का फुटपाथ पर खड़ा हो गया। सिगरेट जला कर नाक से धुँआ उगलते हुए उसने चारों ओर निगाहें दौड़ाई। सड़क पर ऐसी कोई चीज नहीं थी, जिसमें उसकी निगाहें उलझतीं। उसने एक साथ कई दुकानों के साइनबोर्ड पढ़ डाले। फिर उसे याद आया कि जिस होटल में खाना खाकर वह अभी-अभी निकला है उसका साइनबोर्ड पढ़ना निहायत जरूरी है।

होटल का नाम पढ़ कर मुस्कराया। पी.के. हिन्दू होटल। गोया होटल वाले की यह धारणा है कि बिन पिये कोई हिन्दू हो ही नहीं सकता। मगर बात तो ठीक ही है, लड़के ने सोचा। बिना पिये कोई हिन्दू तो क्या मुसलमान, ईसाई, पारसी कुछ भी नहीं हो सकता। आदमी खुद को भुलाकर खुदा की याद करता है। और इसके लिए पीना एक जरूरी शर्त है। अचानक लड़के को लगा वह फालतू बातों में उलझ रहा है, जबकि कायदन उसे गहरी रात के सन्‍नाटे और सुनसान फुटपाथ का मजा लेना चाहिए।

वह आहिस्ता-आहिस्ता एक ओर सरकने लगा। वहाँ एक चौराहा था जिसमें तीन ही रास्ते थे। अगर यह चौराहा है तो चौथा रास्ता कहाँ है, लड़के ने सोचा। वह इसे तिराहा कहेगा, पाँच रास्ते होते तो पंचराहा कहता। हिन्दी में शब्दों की कमी है। इस तरह कुछ नये शब्द बनाये जा सकते हैं। साले, उल्लू की औलाद। उसने किसी को गाली दी। सारे देश में उल्लूओं की औलादें हिन्दी के नये शब्द गढ़ रही हैं, वह मन ही मन हँसा।

लड़का चौराहे पर खड़ा हो गया। सिगरेट की आखिरी कश खींची और टुर्रा सड़क पर उछाल दिया। सड़क इतनी वीरान थी और सन्नाटा इस कदर उभरा हुआ कि टुर्रे के गिरने की आवाज भी साफ-साफ सुन पड़ी। लड़का थोड़ी देर सिगरेट के टुर्रे में से निकलती गाढ़ी नीली, इस्पात के रंग की अजीब पैटर्न बनाती लकीर की तरफ देखता रहा, जो थोड़ा ऊपर उठकर धुएँ के गुच्छों की शक्ल ले लेती थी।

तभी एक अजीब-सी आवाज ने उसे चौंका दिया। सड़क की उलटी तरफ से दो कुत्ते आगे-पीछे दौड़ते चले आ रहे थे। पल भर बाद ही वे दौड़ते हुए लड़के के सामने से गुजरे। लड़का उन्हें दूर तक देखता रहा। एक बार ही वे दौड़ते हुए लड़के के सामने से गुजरे। लड़का उन्हें दूर तक देखता रहा। एक बार उसकी इच्छा हुई वह भी कुत्तों के पीछे सरपट भागे। मगर फिर वह यह सोचकर रुक गया कि आदमी कुत्तों की तरह स्वच्छन्द नहीं है। कुत्तों की तरह भी नहीं। और उसे कुत्तों से ईर्ष्या हो आई।

एक पल बाद ही कुत्ते लौटते दिख पड़े। आगे-आगे भागता हुआ कुत्ता एकाएक थोड़ी दूर पर झटके से रुक गया। पीछे वाला कुत्ता भी प्रायः साथ-साथ रुका और झोंक में उसका अगला हिस्सा आगे वाले कुत्तें के पिछले हिस्से पर सवाल हो गया। मगर एक पल बाद ही उसे अपना अन्दाज़ा गलत लगा, क्योंकि पीछे वाला कुत्ता आगे वाले की पीठ पर चढ़ा ऐसी हरकतें करने लगा था, कि उससे यह समझना काफी आसान हो गया कि वह झोंक में आगे वाले कुत्ते की पीठ पर नहीं सवार हुआ है। लड़के को एक बार और गहरा एहसास हुआ कि आदमी कुत्तों की तरह स्वच्छन्द नहीं है। क्योंकि आदमी कुत्ता नहीं है।

लड़का गहरी तृप्ति से कुत्तों को देखता रहा। सन्‍नाटे ने इतनी स्वछन्दता तो उसे दे ही दी थी।

थोड़ी ही देर में आगे वाले कुत्ते की पीठ पर से पीछे वाला कुत्ता उतरा तो लड़के ने देखा दोनों कुत्तें बीच से जुड़े, दो विपरीत दिशाओं में मुँह किए, छूटने के लिए छटपटा रहे हैं। उसे जोर की हँसी आई और वह आँखें मूँदकर बड़े जोर से कई पल हँसता रहा। मगर उसकी हँसी अचानक बीच से ही टूट गयी, क्योंकि उसे अपने माँ-बाप याद आ गये-इसी तरह एक-दूसरे का पीछा करते, इसी प्रकार इसी माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े, विपरीत दिशाओं में मुँह किए, एक-दूसरे से छूटने की आप्राण चेष्टा करते हुए-उसके उच्चवर्गीय, घनी, रोबीले और घृणित माँ-बाप।

हँसी रुकते ही उसकी आँखें खुलीं तो उसने देखा एक चौड़ा-चकला पहाड़ी चेहरा पास से उसके चेहरे को पढ़ने की चेष्टा कर रहा है। लड़के की हँसी से सामने की दुकान का पहाड़ी पहरेदार जाग गया था। लड़के को और कुछ न सूझा तो उसने उँगली से पहाड़ी को कुत्तों की तरह मुखातिब कर दिया।

पहाड़ी ने उधर देखकर शरमाते हुए मुँह फेर लिया और अपने पाँवों के पास की जमीन पर ककड़ ढूँढ़ने लगा। अपनी शरम छिपाने के लिए उसने आस-पास के फुटपाथ के सारे कंकड़ कुत्तों पर उछाल डालें, मगर कुत्ते पूर्ववत जुड़े रहे। वे भाग नहीं पा रहे थे और पहाड़ी जब भी उन पर कंकड़ फेंकता वे कूँ-कूँ करते हुए विपरीत दिशाओं में भागने की चेष्टा करते वहीं के वहीं खड़े रह जाते।

थोड़ी देर बाद ही कुतिया ने अपनी ओर खींचना छोड़ दिया। कुत्ता उसे घसीटता हुआ एक ओर चलने लगा। लड़के को एक बार फिर अपनी धनी माँ-बाप याद आए।

लड़के ने पहाड़ी की ओर देखा तो पाया उसका चेहरा काफी लाल हो गया है। लड़के को अपनी ओर देखता पाकर पहाड़ी और भी शरमा गया और शायद अपनी शरम से मुक्ति पाने के लिए उसने गजब की हरकत की। उसने दो कदम आगे बढ़कर पैंतरा बदला और अपने हाथ का ड॒ण्डा कुत्तों के संधिस्थल पर दे मारा। कुत्ते पोंय-पोंय करते हुए विपरीत दिशाओं में भागे। लड़के ने सोचा, “काश इसी तरह कोई सुखी दम्पतियों को एक आपात में मुक्त कर देता! मगर यहाँ फिर उसे आदमी की स्थिति कुत्ते से बदतर लगी।

तभी उसने देखा, पहाड़ी, जो अभी तक शरमा रहा था, अजीब-सी चिंचियाती हुई आवाज में हँस रहा है।

उसकी हँसी रुकी तो उसने देखा फिर पहाड़ी पहली बार की तरह उसे शक की निगाह से देख रहा है। उसे लगा आदमी जब तक हँसता रहता है, उसे दूसरे पर शक नहीं होता। हँसते वक्‍त आदमी और आदमी के बीच की दूरी खत्म हो जाती है। पहाड़ी ने उससे पूछा कि उसे कहाँ जाना है, और बिना पूछे बताया कि उस समय कहीं भी जाने के लिए कोई सवारी नहीं मिलेगी। लड़के के यह बताने पर कि उसे कहीं नहीं जाना है, पहाड़ी ने शत्रुतापूर्वक ढंग से कहा कि उसे और कहीं भले न जाना हो, वहाँ नहीं रहना है, क्योंकि उसके सेठ की दुकान सामने है जिसकी रातभर रखवाली करने की उसकी ड्यूटी है। लड़का मन ही मन हँसा-दुनिया के तमाम ईमानदार यात्री बेवकूफ लोग लुटेरों की सुरक्षा में तैनात है। यानी कि तमाम ईमानदार लोग कुत्तों की तरह स्वामीभक्त बना दिए गये हैं, जबकि और मामलों में वे कुत्तों की तरह स्वच्छन्द नहीं है। कुत्तों की तरह भी नहीं।

मगर हर ईमानदारी आदमी चूँकि बेवकूफ और खतरनाक होता है और अपनी और दूसरों की सुविधाओं और हकों के प्रति खतरे की हद तक लापरवाह, इसलिए लड़के को लगा भले ही उसे कहीं नहीं जाना हो, वहाँ खड़े रहने का खतरा उसे नहीं उठाना चाहिए।

लड़का आगे बढ़ गया।

थोड़ी दूर पर सड़क को काटता एक चौड़ा नाला दिखा। नाले पर लोहे का मजबूत पुल था, जिसके दोनों बगल रेलिंगें लगी थीं। लड़का एक ओर की रेंलिग के सहारे खड़ा होकर नाले में झाँकने लगा। नाले में पानी कम था, शान्त भी। चाँदनी और चाँद दोनों पानी में चमक रहे थे। रह-रह कर पानी में “गुडुप ” की आवाज होती और जगह-जगह चाँदनी तार-तार होकर बिखर जाती। कई बार चाँद तेजी से हिलता और पानी में चाँदी की एक चौड़ी सिल्ली तैरने लगती। हवा में हल्की-सी नमी उतर आई थी और कान के पास उसका स्पर्श हल्का-सा चिढ़ाने वाला लगने लगा था।

एक आदमी लड़के के पीछे से गुजरता पुल की दूसरी दिशा में चला गया। उस आदमी के साथ कच्ची शराब की तेज जी मिचलाने वाली गंध भी जा रही थी। वह आदमी जब नजर से ओझल हो गया तो लड़के को लगा कहीं चल कर उसे भी जो जाना चाहिए। वैसे पुल की वह रेलिंग भी बुरी जगह नहीं है। मगर थोड़ी रात और बीतने पर ठंडक लग सकती थी। उँह! पिछले एक महीने से, जब से वह घर से निकला है, उसे क्‍या नहीं लगा है। घर से वह भाग आया है, क्योंकि वह अपने सम्पन्न माँ-बाप का अकेला लड़का है और कुण्डली मारे दो साँपों की तरह उनका प्यार उसे घेर कर चार-चार खूँखार नीली आँखों में दिन-रात उसकी चौकसी करता रहता है। भाग जाने के सिवाय उस यंत्रणा से, साँपों के उस चिकने, त्रासद, गुँजलक से छूटने का और कोई उपाय भी तो नहीं था।

“चलोगे?” शायद उसी से किसी ने पूछा।

वह चौंक कर पीछे घूमा। ठिगने कद की मजबूत काठी की उस औरत का चेहरा चाँदनी में साफ दिख रहा था। चेहरा बेहद लिपापुता लग रहा था।

जैसे किसी बच्चे ने वाटर-कलर के रंगों का पोताड़ा मार दिया हो उस चौड़े चेहरे की गहरी रेखाओं के बीच।

लड़का कुछ बोला नहीं। असल में मामला उसकी समझ में नहीं आया था। औरत और पास सरक आई। लड़के के निष्पाप चेहरे को देखकर एक पल वह उदास हो आई। एक अजीब-सी गंध लड़के के नथुनों में भर गई, जो बदबू और खुशबू दोनों थी-बदबू ज्यादा, खुशबू कम।

चलो न। सिर्फ दो रुपये में भरपूर मजा। औरत ने कहा और हँसी तो उसके मवाद जैसे पीले दाँत चमके।

लड़के को हल्की-सी कैंपकँपी हो आई। फिर पता नहीं क्या सोचकर उसने कहा-'“मगर मेरे पास एक ही रुपया है।' लड़के की आवाज सुनकर औरत फिर चौंकी और पहले से ज्यादा उदास हो आई। एक पल कुछ सोचती रही, जैसे मन ही मन कोई हिसाब लगा रही हो। फिर चुपचाप आगे-आगे चलने लगी।

पुल के परले सिरे पर रेलिंग का एक कोना तीन-चार हाथ लम्बे एक टाट के टुकड़े से घिरा था। टाट का जो सिरा जमीन पर था, उसे कई-कई इँटे एक साथ रख कर दबा दिया गया था। उसी के पास आकर औरत खड़ी हो गई।

“रुपया” उसने अपनी हथेली फैला दी। लड़के ने एक का नोट उसकी खुली हथेली में रख दिया और पता नहीं क्‍यों उसे ऐसा करके बड़ी खुशी हुई। औरत ने नोट को उलट-पुलट कर देखा। फिर चौपाये की तरह अपने हाथों और घुटनों के बल वह टाट के पीछे रेंग कर घुस गई। थोड़ा-सा धड़ बाहर निकाल कर उसने लड़के को अन्दर जाने का इशारा किया। लड़का अब बुरी तरह काँपने लगा। फिर किसी तरह घुटनों के बल चलकर वह भी टाट के अन्दर घुस गया। भीतर गहरा अँधेरा था, फिर भी रोशनी के काई-कतरे और गोल दायरे उस अँधेरे में तैर रहे थे। लड़के ने देखा, टाट कई जगह से कटा हुआ है और उसमें सैकड़ों छोटे-छोटे छेद हैं। जमीन पर भी कई टाट एक के ऊपर एक बिछे हुए थे।

वह लेट गया तो औरत उससे सट गई। असल में टाट के नीचे दो आदमियों के लेटने की जगह थी ही नहीं । लड़के ने महसूस किया औरत नंगी है।

लड़का कांपना नहीं चाहता था, मगर कँपकँपी थी कि बढ़ती ही जा रही थी। थोड़ी देर के बाद औरत ने लेट-लेट ही कपड़े पहन लिए।

मैंने अभी खाना नहीं खाया है। बहुत भूख लग रही है। मेरा कोई दोष नहीं है। रुपया मैं नहीं लौटाऊँगी।

उसने कोई उत्तर नहीं दिया और निरीह भाव से औरत की ओर देखा। तभी उसे बुरी तरह काँपता पाकर औरत ने चिन्नित स्वर में कहा-“अरे! इतना कांप क्‍यों रहे हो? ठंड लग रही है क्या? लो, यह ओढ़ लो।'

औरत ने अपनी चादर, जिसे वह ओढ़ चुकी थी, खोल कर उसके ऊपर डाल दी।

चादर ओढ़ते हुए अचानक एक बेहद नुकीली अनुभूति उसके भीतर तक धंस गई।

सच, इस औरत की उमर मेरी माँ की उमर के आसपास ही होगी, और टाट के भीतर वह पत्थर की तरह जड़ हो गया। फिर पता नहीं कब उसे नींद आ गई और आँखें खुलने पर उसने देखा, औरत लौट आई थी और उसे सीने से चिपकाये गहरी नींद में बेसुध थी।


13 -

मलबा

[ जन्म :1 जुलाई 1931 ]

भगवान सिंह 


पैसा आने से पैसा नहीं होता।  पैसा होता है, पैसा जोड़ने से। 

 

साहब, बड़े-बड़े अफीसरान देखे हैं। हजार-हजार का तलब उठाने वाले। और महीने के अंत में चपरासियों से उधार मांगते फिरते हैं। खर्च का कोई अंत भी है। असल चीज है संयम। साहब, सारे वेद शास्त्र का बस एक ही निचोड़ निकलता है, और वह है संयम। अगर आदमी संयम से रहे तो उसके लिए कोई भी बात असंभव नहीं है।

दूर कहां जाइएगा, यही संभू बाबू की ही बात ले लीजिए। तीन सौ रुपए आज के जमाने में क्या होते हैं! लेकिन नहीं, इसी में उन्होंने दो लड़कों को पढ़ाया, एक लड़की की शादी की,  एक मकान बनवाया, और दूसरा एक प्लाट खरीद कर बैठे हैं। और अगर परमात्मा ने चाहा तो दो-तीन साल में वह भी बनकर तैयार हो जाएगा। 

बुढ़ौती में आदमी को और क्या चाहिए? दो लड़के हैं। दोनों के लिए ठिकाना कर दें, फिर तो डेरा कूच भी हो जाए तो किसी तरह का संताप नहीं।

शराब उन्होंने पी नहीं। सिगरेट एक जमाने में जरूर पीते थे, पर बाद में उसकी जगह बीड़ी पीने लगे। लेकिन बीड़ी भी इस तरह नहीं की एक बुझी और दूसरी  सुलगा ली। दो घंटे के बाद एक बीड़ी और वह भी आधी पी और आधी बुझाकर अगली बार के लिए रख ली। नहीं साहब, सवाल कंजूसी का नहीं है, सिद्धांत का है। अत्मसंयम का।

संभू बाबू अभी पिछले साल तक जिस कमरे में रहते थे उसका किराया था तीन रुपया। तीन रुपए में दिल्ली में कहीं कमरा मिलता है, और वह भी आज के जमाने में?  पर यह कमरा उनके पास पिछले 40 साल से है। और जानते हैं जब संभू बाबूकी पत्नी का स्वर्गवास हुआ और लड़के दूसरे शहरों में नौकरी पर चले गए, तब से इस तीन रुपए महीने के कमरे में कितने आदमी रहते हैं? पूरे नौ आदमी।

आप सोचेंगे, यह तो कंजूसी की हद हो गई। पर नहीं, वही सिद्धांत वाली बात। आप यह तो सोचिए कि यदि आज के जमाने में, जब दिल्ली में कमरे इतने मंहगे हो गए हैं कि आम आदमी कमरा ले ही नहीं सकता,  तब वहां, अगर संभू बाबू इस कमरे में आठ और आदमियों को पनाह दे लेते हैं तो इसमें खुद तो कम खर्च में काम चला ही लेते हैं, दूसरे आठ आदमियों  को भी सहारा दे लेते हैं। दिन में काम करने वाला रात मे सोएगा और रात में काम करने वाला दिन में। घर तो सेने और निबटने के लिए होता है। बाकी कामों के लिए तो सड़क-बाजार हेैं ही।

आज के जमाने में जिसको दूसरे वक्त के खाने का भी ठिकाना नहीं है, वह भी टेरिलीन पहनता है,  हर तीसरे दिन सिनेमा देखता है।  संभू बाबू का दस्तूर वही पुराना है। मोटा कुर्ता मोटी धोती।  जिंदगी में एक बार पैंट बनवाई थी और दो बार सिनेमा देखा था, लेकिन फिर सोचा कि यह तो मन है, जितना बढ़ाओ बढ़ता चला जाएगा, काबू में रखो तो काबू में रहेगा।

कई बार ऐसा हुआ है कि संभू बाबू की पत्नी ने जिद की कि आज सब्जी बनेगी, और उनके बार-बार कहने से तंग आकर एक बार संभू बाबू घर से निकल पड़े हैं, सब्जी वाले की दुकान तक गए हैं और हर चीज का भाव मालूम किया है फिर सोचने लगे हैं कि क्या आदमी सब्जी खाए बिना जिंदा नहीं रह सकता? क्या मानव जीवन का चरम लक्ष्य सब्जी खाना है?  जो पैसे आज सब्जी पर फूंके जाने वाले हैं, यदि वे बचे रह गए तो क्या किसी और काम नहीं आएंगे? और अंत में संभू बाबू ने तय पाया कि सब्जी खाना मानव जीवन का परम लक्ष्य नहीं है, इसलिए सब्जी अभी नहीं खाएंगे और वह वापस आ गए हैं।

दस रुपए का बजट। बीवी के मरने के बाद जब से वह अकेले रहने लग गए तब से उनका बजट था महीने के दस रुपए। एक बार ऐसा हुआ कि महीने की अंतिम तारीख थी। दोपहर को इस महीने के बजट  में केवल दो पैसे बच रहे थे।  संकट यह था कि अगर दो पैसे के छोले दोपहर को ले लेते तो शाम को दो पैसे का जो दही लेते थे वह नहीं ले पाते। छोले नहीं लेते तो रोटी कैसे खाते ? बहुत सोचने के बाद तय किया कि हो कुछ भी, बजट फेल नहीं होना चाहिए, भले रतनप्रकाश को ही छोले के पैसे चुकाने को कहना पड़े।

दुनिया में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो नौकरी से रिटायर कर गए हो, बीवी मर गई हो, बच्चे किसी दूसरे शहर में नौकरी कर रहे हों,  अकेले रह रहे हों,  फिर भी प्रसन्न रहते और मुस्कुराते हों। 

मुस्कुराने के लिए जरूरी है कि आदमी के पास मकान हो, उस मकान के तीन कमरों में से दो उसने किराए पर दे रखे हों, तीसरे में अपना गुजर कर रहा हो, अपने दूसरे लड़के के लिए प्लाट भी खरीद लिया हो और किराए की आमदनी और पेंशन की रकम से नियमित रूप में कुछ जोड़ता बचाता उस प्लाट पर भी मकान बनाने की योजना रखता हो। हां, मुस्कुराने और खुश रहने के लिए ये सभी शर्ते हैं पर सबसे बड़ी शर्त है उसके लड़के का इस नए मकान के बनने के बाद, पहली बार, और वह भी सपरिवार, आगमन। अभी दो घंटे में उनका लड़का जाएगा, बहू आ जाएगी, पोते आ जाएंगे, और इस मकान में हंसने खिलखिला ने लगेंगे। इससे बड़ा आनंद कोई हो सकता है क्या?

वह बुदबुदाए, 'दो घंटे!' और चारपाई पर बैठ गए। उनका हाथ तकिए के नीचे चला गया और बीड़ी का एक बंडल तथा माचिस लेकर वापस आ गया। उन्होंने एक बीड़ी निकाल कर मुंह से लगा ली और ठीक इसी समय उन्हें याद आया कि वह अभी एक घंटा पहले ही एक बीड़ी पी चुके हैं कायदे से अभी एक घंटा बाद दूसरी का नंबर आएगा। उन्होंने मुंह में लगी बीड़ी को वापस बंडल में रख दिया माचिस और बंडल अलमारी में रखा कि और कुछ नहीं तो आलस्य से ही एक आध बीड़ी का खर्च कम हो जाएगा।

"दो घंटे! अर्थात दो घंटे में पांच मिनट कम!" वह कमरे के पीछे सीढ़ियों के नीचे बने ‘स्टोर’ में चले गए। इस बात का ठीक-ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता कि यह स्टोर किसी कमरे से अधिक मिलता था या सुरंग से 

संभू बाबू इसके भीतर पहुंचकर एक लंबी सांस लेते हैं और इसमें रखें एक स्टूल पर बैठ जाते हैं। स्टोर में टीन की दो की पुरानी पेटियां रखी हैं जिनको चादर जगह-जगह से गल गई है । इन पेटियों के पीछे एक बोरी है जो ऊपर तक कसी हुई है। इसके पीछे लकड़ी की एक पेटी है, जिसकी कुछ कीलें ऊपर को निकली हुई हैं। इस पेटी पर तीन चार जोड़ी जूते रखे हैं जिनमें से कोई ऐसा नहीं कि  उसे पैरों में डाला जा सके। जूते जगह गए अकड़ गए हैं। संभू बाबू पहले जूतों को उतार कर एक ओर रखते हैं और फिर पेंटी खोलते हैं। छोटी मोटी लकड़ी की गिट्टियां जो मकान बनते समय बच गई थी और संभू बाबू ने उन्हें संभाल कर रख लिया था कि कौन जाने कब जरूरत पड़ जाए। पुरानी चारपाई से उतारी गई सड़ी गली निवाड़। कुछ फटे पुराने कपड़े, सिगरेट का एक टिन,  कुछ जंग लगी कीलें और पिन, एक पुराना आ‌ईना। आईने के पीछे की पालिश जगह जगह छूट गई है। वह उसे साफ करके इसमें अपना मुंह देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। शीशे में उनका मुंह ऐसा लगता है जैसे मांस जगह-जगह से नोचा लिया गया हो। संभू बाबू एक एक चीज को दुबारा पेटी में रख देते हैं और फिर इसके ऊपर का फट्ठा रख कर फटे जूतों को यथावत सजा देते हैं।

टीन की पेटी में सबसे ऊपर एक पुरानी साड़ी है।  साड़ी रेशमी है और जगह जगह से अपनी तहों पर फटने को आ गई है। लगता है किसी अवसर पर पहनी ही न गई हो। उसके नीचे एक रेशमी ब्लाउज है ।‌ नीचे एक पैंट जिसमें इतने पैबंद लग चुके हैं कि भ्रम होता है कि संभू बाबूअपने प्रत्येक जन्मदिन पर उसमें एक चिप्पी लगवाते चले गए हों। चार-पांच अधफटी कमीजें हैं, दो पाजामे हैं, एक मोटी सी फटी धोती है, और नीचे कुछ जनानी धोतियां  हैं जो अपने पैबंदों की बहुलता के बावजूद जगह-जगह से फटी रह गई हैं। एक लिफाफा है जिसमें पत्नी के साथ उनका जवानी के दिनों का चित्र है। वह इस चित्र को देर तक देखते रहते हैं और उनके चेहरे पर गहरे आत्मसंतोष का भाव छा जाता है। नीचे कुल सात  चिट्टियां हैं। उनके पूरे जीवन काल में मिली चिट्टियां। फिनायल की कुछ गोलियां है जो अब मटर के दाने के आकार की रह गई है। संभू बाबू हर चीज को धीरे-धीरे इतनी संभाल से बाहर निकालते हैं मानो कोई क्यूरेटर पुरातत्व के अवशेष संभाल रहा हो।

दूसरी पेटी में रखे सामान भी पहली से अलग किस्म के नहीं हैं। हां, इसमें चिट्ठियों की जगह एक टाइमपीस है जिसका शीशा टूट गया है। डायल के निशान धुंधले हो गए हैऔर जो अब बहुत लंबे अरसे से बंद पड़ी है। यह घड़ी संभू बाबू  ने तब ली थी जब वह सुबह की पारी में काम करते थे और लगातार तीन दिन तक लेट हो गए थे। इस पर्ची में एक और चीज है-  संभू बाबू का निजी रिकार्ड - एक नोटबुक, तीन चार फटी हुई किताबें और कमीज के बटन। इस बार भी हर चीज उसी तरह जतन से रख दी जाती है।

उनका यह काम दूसरे किसी आदमी को मूर्खतापूर्ण लग सकता है। इन फटे चिथड़ों, शीशियों, निवाड़ों और जूतों में क्या रखा है जो इन्हें इतने संभाल कर रखा जाए और दिल्ली जैसे मंहगे स्थान का  एक ‘स्टोर’ फंसाए रखा जाए,  लेकिन वह स्वतः इन्हें रखते हुए कुछ ऐसा महसूस करते हैं जैसे इन वस्तुओं के साथ जुड़े अपने जीवन के क्षणों को रख रहे हों।

अभी भी गाड़ी आने में एक घंटे की देर है। वह कमरे से निकलकर बस स्टॉप की ओर से आने वाली सड़क को निहारने लगते हैं, ‘क्या पता गाड़ी समय से कुछ पहले ही आ जाए, या लड़कों ने अपर इंडिया न पकड़कर जनता पकड़ ली हो।’

यदि वह अभी चलें तो गाड़ी आने तक आराम से स्टेशन पहुंच सकते हैं, लेकिन जो आदमी कलकत्ता से चला आएगा वह क्या दिल्ली पहुंचकर कृष्णनगर तक नहीं पहुंच सकेगा? इतनी हाय-तौबा क्यों! इतना पैसा बेकार क्यों खर्च किया जाए। और दूसरी बात यह कि मान लीजिए आप पहुंचे स्टेशन और कुछ ऐसा हुआ कि आप अपने बच्चों को ट्रेन पर तलाश रहे हें और वे उत्तर कर घर को रवाना हो गए।  वापसी में आपको सही समय पर बस न मिली और आप घंटे आध घंटे देर से पहुंचे। उस हालत में आपका बच्चा, बहू, पोते उजबकों की तरह खड़े रहेंगे या नहीं ! 

 

हां, बस-स्टॉप तक जाया जा सकता है। आएंगे तो वहीं से होकर न।  बीच के समय का सदुपयोग स्टैंड के पास के सैलून में अखबार पढ़कर किया जा सकता है। हां, ऐसे मौकों पर अखबार पढ़ने से कुछ न कुछ जानकारी ही बढ़ती है, अन्यथा अखबार पढ़ना निठल्लों काम है। अरे भई, आपको पता ही चल गया कि कहीे लड़ाई हो रही है या कहीं कोई अकाल पड़ा है, तो आप इससे क्या बना-बिगाड़ लेंगे।

संभू बाबू बस-स्टॉप पहुंच ही गए। आज उन्होंने पूरा अखबार पढ़ डाला, यहां तक कि विज्ञापन भी -  सामानों और नौकरियों के विज्ञापन से लेकर अदालती नोटिस और टेंडर नोटिस तक।  पर वह पूरा अखबार एक धुन में ही पड़ गए हों, ऐसी बात नहीं। हर बार बस की घरघराहट सुनकर वह सैलून से बाहर आ जाते और बस रुकने पर उतरने वाली  सवारियों को ध्यान से निहारते और फिर सैलून में लौट कर अखबार में नजर गड़ा  लेते। 

 इस बीच एक बार बाहर जाने पर अखबार  किसी गाहक के हाथ में चला गया तो ‘दीवानी दुनिया’ के पन्ने ही पलटते रहे। ढाई घंटे का समय और पूरा अखबार खत्म करने के बाद, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि या तो गाड़ी लेट हो गई है, या वे अपनी यात्रा रद्द कर चुके हैं, और निराश हो कर  वापस लौट आए। लौटने पर पाया कि लड़का, बहू, दोनों पोते दरवाजे के सामने संदूक और बिस्तरबंद नीचे जमाए बैठे हैं। वह उत्साह में लगभग दौड़ से पड़े।

"अरे भई, मैं तो बस स्टैंड पर खड़ा तुम्हारी राह देख रहा था।  आ कैसे गये?"

"टैक्सी कर ली थी।"

एक बार संभू बाबूके जी में भी आया था कि वह भी टैक्सी  में बैठ कर देखते, इसमें बैठने पर कैसा लगता है, लेकिन उन्होंने अपने मन को समझा लिया था कि चाहे बस में बैठो या टैक्सी में, फर्क क्या पड़ता है! गद्दी तो दोनों में एक जैसी ही होती है।

'टैक्सी में!" उन्होंने कमरे से बाहर लटक रहे ताले पर एक दृष्टि डाली और एक लड़के को गोद में उठाकर जेब से चाबी निकाल कर कमरे का ताला खोलने लगे, "मकान कैसा लगा तुम्हें?"

"ठीक है। जो बन गया सो ठीक ही है।"

संभू बाबू लड़के को काफी देर तक आज की महंगाई के जमाने में दिल्ली में दो सौ गज के प्लाट में बने तीन कमरों का महत्व समझाते रहे और जब उनका लड़का उनकी उपलब्धियों का सही मूल्यांकन करने में असमर्थ लगा तो वह अपनी अगली योजना पर प्रकाश डालने लगे जिसके अनुसार दो-तीन साल में वहां से दो फलांग पर  दो हजार गज की दूरी पर  दूसरे प्लाट पर छोटे बेटे के लिए तीन  कमरों का दूसरा मकान बन जाएगा।

"अगर दूसरा मकान बनवाने या प्लाट खरीदने का पैसा था, तो इसी मकान को कुछ और कायदे से बनवाया होता!"

संभू बाबू इस तरह की बातें नहीं समझ पाते। वह लड़के के चेहरे की ओर देखने लगे, "तुम लोगों के खाने-पीने का तो कोई इंतजाम हुआ नहीं!"

संभू बाबू कमरे से बाहर निकल आए।  आज संभू बाबूने सब्जी भी खरीदी आलू गोभी और बच्चों के लिए पाव भर गाजर।  हां गाजर असली ताकतवर चीज है। यह टाफी-साफी तो जबान खराब करने के धंधे हैं। संभू बाबू जब बच्चे थे तो इन्हीं गाजरों के लिए उनकी अपने भाई से लड़ाई हो जाया करती थी।

"देखो, दो कमरे तो मैंने दे दिये हैं किराए पर। अकेला आदमी इतनी सारी जगह का क्या करता। और आदमी को बोलने बतियाने के लिए भी तो कोई चाहिए।  एक कमरा अपने पास रखा है। अब, जब तक तुम लोग हो,  शाम को काजी हाउस वाले अपने पुराने कमरे पर चला जाऊंगा और रात वहीं बिताऊंगा। जानते हो वह कमरा अभी मैंने अपने ही नाम पर रखा है!" 

बहू चौके में कुछ तल रही है। तड़के-मसाले की गंध से पोते छींक रहे हैं और संभू बाबू अपने बेटे को अपने निकट भविष्य का कार्यक्रम बता रहे हैं, सुबह को मैं लौट आऊंगा।सर्दी कुछ खास नहीं है,  फिर भी बाहर सोना तो संभव नहीं है।  रात ही तो काटनी है। यहां नहीं तो वहां सो गए।  खाना खा लेने के बाद संभू बाबू फिर बाहर निकले,  ‘अब तुम लोगों कुछ देर आराम करो रास्ते के थके मांदे हो।’ 

 वह पड़ोस के लोगों को अपने बच्चों के आने की सूचना देते रहे।  राजू के पास बैठकर उनके मकान के गुण दोष का विवेचन करते रहे,  लोहे -सीमेंट का चालू भाव पूछते रहे और अगले साल तक तीन कमरे पर आने वाले खर्च का हिसाब लगाते रहे।  शाम को वह काजी हाउस वाले कमरे पर जाने से पहले थोड़ी देर के लिए घर आए। नहीं, चाय नहीं पीते वह।  यह भी कोई पीने की चीज है! इससे तो अच्छा है कि आदमी तुलसी की पत्ती उबालकर नमकीन चाय बना ले। स्वाद का स्वाद और दवा की दवा! नहीं शाम का खाना भी नहीं खाते। बुढ़ापे में एक समय का खाना  पच जाए वही बहुत है। और आज तो कुछ देर भी हो गई थी। चले आए  कि जाने से पहले उन्हें बताते चलें ।

“जाना कहां है?”

“बताया तो था तुम्हें कि रात को काजी हाउस वाले कमरे पर जा कर सो लूंगा।”

 “सोने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं।”

“ जाने की जरूरत नहीं! मतलब क्या है तुम्हारा?

“इंतजाम यही हो गया है।”

“कहां?”

आगे आगे लड़का और पीछे पीछे संभू बाबू। लड़का स्टोर के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया। संभू बाबू उसके पीछे जाकर खड़े हो गए। ‘स्टोर’ का दरवाजा खुला हुआ था।  इसके भीतर इस समय चार दीवारें थीं यदि किसी तरह इन्हें दीवारें कहा जा सके तो! और थी एक फर्श जिसे झाड़-पोंछ कर साफ कर दिया गया था। उस पर एक चटाई डाल दी गई थी और ऊपर बिछा दिया गया था संभू बाबू का मोटा सा गद्दा।

"इसमें रखे सामान का क्या हुआ?"

लड़के का हंसना स्वाभाविक था, "वह मलबा? उसे हम लोगों ने बाहर फेंक दिया।”

"बाहर फेंक दिया?" संभू बाबू स्टोर के भीतर घुस गए।  किवाड़ उन्होंने भीतर से बंद कर लिया। कमीज की जेब से बीड़ी का बंडल और माचिस निकाल कर बीड़ी जलाई। पीने लगे। एक... दो ...तीन और चार और पांच और छह। बंडल खत्म हो गया तो स्टोर में भर गए धुंए के बीच अधेरे को निहारते रहे और फिर बिस्तर पर लेट गए।  ‘बाहर फेंक दिया!’ उनका चेहरा तन गया और अंधेरे में भी कुछ नजर आने लगा। उन्हें लगने लगा कि उनका चेहरा ग्लानि से भर गया है। उन्हें अभी कुछ देर पहले शीशे में दिखा अपना चेहरा याद आया। लगा उनके चेहरे का मांस जगह सोच लिया गया है।  उन्होंने अपना एक हाथ आंखों पर लगा लिया और पैरों के सहारे पैताने रखा कंबल खींच कर अपने ऊपर ले लिया। उनके भीतर एक भयानक खालीपन महसूस हो रहा था। बहुत सारी भाप घुमड़ कर बाहर आना चाह रही थी। उन्होंने अपने सीने को दोनों हाथों से दबा लिया पर रोए नहीं।  बिल्कुल नहीं ।


14 -

तीन टांगों वाली कुर्सी

[ जन्म : 15 जुलाई , 1932 - निधन : 5 जुलाई , 2009 ]

हरिहर सिंह


“मेरी मर्जी जिसको दूँ।”

पैंट ऊपर सरकाते हुए उसने कहा। उसकी सारस-सी लम्बी गरदन का हिला देखकर सामने खड़े लोग एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। कमर पर दोनों हाथ रखे वह झुककर खड़ा था और उसकी पुतलियाँ डबरे में बैठे जुगाली करती बूढ़ी भैंस-सी धीरे-धीरे हिल रही थीं।

“भाई प्रमोद, मर्जी तो तुम्हारी ही चलेगी लेकिन तुम्हारी डायरी में हमारा भी नाम तो लिख जाना चाहिए।” पड़ोसी राय ने बिगड़ती हुई स्थिति को हँसी में बदलना चाहा।

“डायरी में अब मैं किसी आदमी का नाम नहीं- नमक, तेल का हिसाब लिखता हूँ। प्रमोद के मुहर्रमी चेहरे पर हँसी की पपड़ी उभर आयी और उसने लपककर राय के हाथ से पर्चा ले लिया।

“तुम लोग कहाँ आ गये, जी?” अगल-बगल खड़े बच्चों को झिड़कते हुए उसने गरदन घुमाई और दरवाजे के पर्दे को कॉपता देखकर तेजी से घर में घुस गया।

“हाँ कह देने में क्या जबान ऐंठ जा रही थी? मर्जी-मर्जी-मर्जी-कभी कुछ किया है अपनी मर्जी से?” झल्लाती हुई पत्नी आँगन में चली गयी।

“भोंपू, जरा तौलिया इधर देना।” छोटे लड़के को उसने पुकारा। जब भी पत्नी चिढ़ी होती यह सम्बोधन वह काम में लाता था। इससे उत्तेजित होकर पत्नी दो-चार शब्द कहती थी फिर मुँह फेरकर मुस्करा देती थी और सारा झगड़ा खत्म हो जाता था लेकिन इस बार वह भन्‍नाती हुई गुसलखाने में चली गयी।

“प्रमोद को लगा कि ढंग अच्छे हैं- बात बैठ सकती है। वह बड़बड़ाने लगा- पता नहीं रविवार और मक्खियों का कया रिश्ता है। सुबह से शाम तक भिनभिन करती रहती हैं- कमबख्त एक पल भी चैन नहीं लेने देतीं। जी में आता है कि जाकर रेल की पटरी पर सो जाऊँ।”

“जाओ, सो जाओ। डराते किसे हो? तुम्हारे दिए सुखों की सुधि में जिन्दगी गुजर जायेगी।” पत्नी की आवाज आते ही प्रमोद ने दोनों हाथ उठा लिये।

“क्या कर रहे हैं, प्रमोद जी ?”

“अरे, सिन्हा बाबू” आइए, आइए। मक्खियाँ मार रहा हूँ, जी।” उसने हँसने की कोशिश की।

“ऑफिस की कोई नयी खबर?” सिन्हा के प्रश्न से उसकी सोई पुतलियाँ चमक उठीं। पानी में भीगे अमेरिकन गेहूँ-सा चेहरा चमक उठा, तीन टांग वाली कुर्सी पर सिन्हा को बिठाते हुए उसने होठों पर कई बार जबान फेरी।

“नवल, एक चाय लाना।” मोढ़े पर बैठते हुए उसने कहा।

“रहने दो। अभी-अभी चाय पी है।”

“तो क्‍या हुआ? एक कप और सही। हाँ, मैं तो आपके पास ही आ रहा था। कल गुप्ता ने साहब से आपकी चुगली खाई है। सेक्सन में बोल रहा था- सिन्हा ने साहब से कहा है कि गुप्ता पूरे दिन महफिल लगाये रहता है और आपके नोट्स की गलतियाँ निकालकर आपकी खिल्ली उड़ाया करता है।”

“और क्या-क्या कह रहा था?” सिन्हा ने बेचैनी में पूछा।

“यही कि सिन्हा हमारा 'कॉनफीडेशियल' रिपोर्ट खराब कराना चाहता है। अपनी तरक्की के लिए वह अपने बाप का भी गला घोंट सकता है।”

सिन्हा उत्तेजित हो उठे- उसकी नस्ल में ही फर्क है। जिस पत्तल में खाता है उसी में छेद करता है। वैसा कमीना आदमी ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। अच्छा, जरा साहब से मिल लूँ।”

“चाय तो पी लीजिए। क्या देर है, ।” प्रमोद हें-हें करता रहा और सिन्हा तेजी से बाहर निकल गया।

“नवाब साहब का हुक्म है-- चाय लाओ, दूध लाओ। ...लीजिए, पीजिए। दोस्तों को पिलाइये ।” पत्नी ने देगची फर्श पर पटक दी। वह छटक कर एक तरफ खड़ा हो गया।

“यहाँ भोंपू बजता है, मक्खियाँ भिनभिनाती हैं।...चले जाओ, जहाँ तितलियाँ गुनगुना रही हैं। भौहों के बाल पक गये लेकिन कुत्ते की दुम सीधी नहीं हुई...थू...। पत्नी ने आँगन में थूक दिया। वह सिर झुकाये गरदन हिलाने लगा। बच्चों ने किताबों में मुँह छिपा लिया।

“तुम लोग कान खोल क्‍या रामायण की कथा सुन रहे हो।” प्रमोद ने बच्चों को झिड़का। वे सहम गये। किताबें उनके मुँह के और निकट पहुँच गयी।

“उन बेचारों पर क्‍या बुखार उतार रहे हो? जाओ, अभी दवाखाना खुला हुआ है।

हूं...हैँ...हुँ करता हुआ वह बन्दर-सा दाँत कटकटाने लगा। पत्नी का पारा और चढ़ गया- पता तो चलता अगर कोई सिटकनी खोलने वाली मिली होती। तब आँखें बन्द कर फूलों का रंग देखने का मजा मिलता। चौबीसों घंटे चुगली करना और जूठी हॉडी दूढ़ना- शर्म भी नहीं आती।” उसका चेहरा भट्ठी-सा दहक उठा- जिससे बचने के लिए प्रमोद तौलिये से मुँह रगड़ने लगा। दुम हिलाते एक मरियल-सा कुत्ता उसके समाने कूँ...कूँ करने लगा।

प्रमोद उस पर बाज की तरह झपटा और कुत्ता कांय-कांय करते भाग चला। वह खिलखिला पड़ा- “आये थे तो वोट माँगने। कहाँ भगे जा रहे हैं, अपना चुनाव चिन्ह तो बताते जाइये। नवल, अब कोई आवे तो बताना- पापा घर में नहीं हैं। उसने दरवाजा बन्द कर लिया। खिड़की के पल्ले उठंगाकर दीवाल में लगे आईने में चेहरा देखा। लम्बी नाक को पकड़कर जोर से हिलाया- नाक न होती तो जुकाम न होता- अपने अनोखे तर्क पर वह विहँस उठा।

“अब तो भीड़ घट गयी होगी? राशन आ जाता। शीशा तो बाद में भी देखने को मिल जायेगा ।” पत्नी ने भीगे स्वर में कहा।

वह शीशे से अलग हट गया। आँखें मलते हुए बोला- नवल, लाओ झोला वगैरह। उसने सोचा- पत्नी झोला देने आयेगी तो कहेगा- एक झोला और चाहिए। इस बार मकई भी मिल रही है-- बिना मकई लिये चीनी नहीं मिलेगी।' वह खुश हो उठा- चलो तीन दिनों से टूटा पड़ा संवाद सूत्र तो जुड़ेगा ।'

पखवारे के राशन का आखिरी दिन था। बड़ी मुश्किल से उसने पैसे का जुगाड़ बैठया था। आठ बजे सिन्हा की बच्ची आ धमकी- चचाजी, मम्मी ने दस रुपये माँगे हैं- डैडी अभी-अभी कहीं चले गये हैं- आयेंगे तो वापस कर देंगे-- या ऑफिस में ले लीजिएगा |”

पत्नी ने इशारे से बुलाया- इन लोगों की आदत बड़ी खराब है। यदि आज राशन नहीं आया तो भट्ठी ठंडी पड़ जायेगी। चीनी तो चार चम्मच भी नहीं है। वह गम्भीर हो गया। क्षण भर कुछ सोचता रहा फिर जैसे चौंकते हुए बोला- देखा जायेगा। किसी भी हाल में आज राशन लेना है। और उसने कई तह मुड़े कागज के बीच से एक दस का नोट निकालकर बच्ची के हाथ पर रख दिया। पत्नी के भौहों पर बल पड़ गया लेकिन वह खामोश रही।

शाम को ऑफिस से जब वह मुँह लटकाये लौटा- तो पत्नी ने कहा- जल्दी जाओ, अभी दुकान खुली होगी। इतनी देर कहाँ कर दी है? वह बिना बोले कपड़े उतारने लगा।

बोलते क्‍यों नहीं?” पत्नी ने तीखे स्वर में पूछा।

तबीयत खराब है।' उसने धीरे से कहा।

पैसे दो। नवल, दौड़ जा बेटा ।' पत्नी ने हाथ फैला दिया। वह सहम गया।

“सिन्हा मेल से बहार चले गये।” भरी आवाज में वह बोला।

'मेम साहब तो हैं? एक के चले जाने से क्या हुआ? उनके पास दर्जनों हैं। किसी से भी पचास-सौ ले सकती हैं। उनसे माँगने में क्या शर्म लगती है या डर लगता है कि पैसे माँगने पर हँसकर-हँसकर चाय नहीं पिलायेंगी। उचक उचक कर नंगा शरीर नहीं दिखायेंगी?” उसके होठ तेजी से काँप रहे थे, “मैं तो पहली ही भेंट में समझ गयी थी कि-- यह टाँग उठाये रहने वाली औरत है लेकिन यह क्‍या जानती थी कि कोई अपने बच्चों के पेट पर ऐयाशी करेगा?

“चुप रह बेहया। क्‍यों मुझे मारे डाल रही है। दाँत पीसते हुए प्रमोद ने कहा। पत्नी उबल पड़ी- दाँत क्या कटकटा रहे हो? चबा जाओ सबको फिर मौज से देखना- पुतलियों का नाचना, छाती का उछलना, टाँगों का हिलना।'

कोई भद्दी-सी गाली उसके मुँह में आई जिसे उसने दाँतों में पीस डाला।

“नवल, ये पैसे और कार्ड भी दे दे। पत्नी के स्वर में वह सचेत हो गया। बात शुरू करने का अवसर चुकता देख कर परेशान हो उठा। एक ख्याल आया कि पूछ लें कि यदि आटा मिलता हो तो लेगा कि नहीं? लेकिन पत्नी को सीधे सम्बोधित करने का साहस नहीं जुटा पाया। हाथ में झोला लटकाये, थोड़ी देर तक किसी अच्छी बात की प्रतीक्षा करता रहा लेकिन जब अन्दर से कोई आहट नहीं मिली तो राशन कार्ड पढ़ने लगा- नौ यूनिट। पाँच पूरे, चार आधे। उसे कुछ थकान-सी महसूस हुई। कार्ड झोले में रखकर आँव-आँव-आँव करने लगा।

क्या हो रहा है, प्रमोदजी !” गुप्ता की आवाज से वह बेतरह चौंक गया। क्षण भर अवाक्‌ रहा फिर रूखे होठों पर जबान फेरते हुए बोला- “गाँधीजी की आरती उतार रहा हूँ।

'ऐसी क्‍या बात है गुप्ता ने आश्चर्य प्रकट किया।

'राशन लाने जाना है।' उसने बहुत मासूमियत से कहा।

तुम्हारा भी जवाब नहीं। बोला, और क्या समाचार है? अन्दर प्रवेश करते हुए उसने प्रमोद की पीठ पर हाथ रख दिया। “तुमसे सिन्हा क्‍यों नाराज है? वह मेरे पास गये थे। बता रहे थे कि तुमने उनसे कहा है कि मैं उनकी कॉनफीडेशियल खराब करा देना चाहता हूँ ताकि चीफ इंसपेक्टर के चुनाव में बाजी मार ले जाऊँ।

“हैं जी', प्रमोद सकते में आ गया। गुप्ता ने स्थिति सँभाल ली- मुझे मानता था कि ये सारी खबरें सिन्हा के आप ने प्रेस की हैं।...

“उनकी किसी से छिपी थोड़े है।' प्रमोद ने साँसें जोड़ी कहने लगा- तुम्हारे आफिसियेंटिंग के लिए लिखा था लेकिन गुप्ता ने साहब को मना दिया- अन्दर का बहुत काला है। और भी कितनी छोटी बातें की जिनको बताना मैं उचित नहीं समझता। मुझसे खोद-खोद कर पूछते रहे-- ऑफिस की कोई खबर? मैं क्या बताता? सो देखिये उन्होंने क्या रंग खिला दिये? छोड़ो भी, क्या कम है कि हम सभी एक-दूसरे को अच्छी तरह समझते हैं। सुनो, मैं समय बताने आया हूँ कि सिन्हा ने मैटनी शो देखने का प्रोग्राम बनाया है। उसकी वाइफ का कहना है कि यदि नवल की अम्मा चलेगी तो वह जायेंगी वरना तो वे सिन्हा की वाइफ को देखती रह जायेंगी और घर आकर एनासिन खाना पड़ेगा।  वह मुस्कुरा पड़ा। प्रमोद होठ काटते हुए उसे देख रहा था। उसके चेहरे पर अजीब सी बेबसी थी। गुप्ता ने उसे टोका- क्‍या सोचते हो? पैसे की चिन्ता मत करना। उसने “पास” का प्रबन्ध कर लिया है। उनका कोई मित्र इण्टरटेनमेंट इंसपेक्टर आया है। नवल की अम्मा, आप जरूर तैयार रहियेगा। हम लोग इधर से ही आ जायेंगे। ठहाके लगाते हुए गुप्ता बाहर निकल गया।

प्रमोद ने पत्नी की तरफ देखा। वह भट्ठी के पास गुमसुम बैठी थी। वह घबरा गया। “यदि यह चलने को राजी नहीं हुई तो वे लोग क्या कहेंगे? मगर यदि यह चले भी तो क्‍या मिन्‍नी की मम्मी के साथ बैठ सकेगी? यदि कहीं उनसे भिड़ गयी तो...” उसका सिर भन्‍ना उठा। वह धड़ाम से लँगड़ी कुर्सी में धंस गया। दरवाजे पर धीमी दस्तक पड़ी लेकिन वह अनसुनी कर आँखें मीजता रहा। दस्तक ज्यों-ज्यों तेज होती गयी उसकी बेचैनी बढ़ती गयी। वह एकदम उठा। झटके से पल्‍ले खोलकर बाहर निकला। उसका तेवर देखकर बाहर खड़े हुए ने भिखमँगे-सा चेहरा बना लिये।

“क्या बात है? घूरते हुए उसने पूछा।

“चुनाव प्रचार। हम लोग ग्रेजुएट...”

'मुझसे क्या मतलब? बीच में ही वह बरस पड़ा। “मरने की फुर्सत नहीं है इस चुनाव से। कार्तिक में वोट, आसाढ़ में वोट, चैत में वोट, कुआर में वोट- हर घड़ी, हर समय वोट-वोट। बाल पक गये ससुरे वोट देते-देते। अब मुझे वोट-सोट नहीं देना है, मैं अब वोट से रिटायर्ड हो गया हूँ।'

“अरे साहब, आप जैसे लोग अगर यह...

“बस-बस सीख न पिलाइये। नमस्कार।  सिर झटककर वह कमरे में आ गया। दरवाजा बन्द कर अन्दर से सिटकनी लगा दी। कुछ देर तक हॉफता खड़ा रहा फिर कमरे में परेड करना शुरू कर दिया। इसी बीच खट से बक्सा खुलनेकी हल्की-सी आवाज हुई और वह बगल के कमरे में आकर सुस्त पड़ गया।


15 -

पेड़

[ जन्म : 18 1933 - निधन 1991]

देवेन्द्र कुमार


ताजा खून लाल होता है लेकिन ज्यों-ज्यों जमता है काल पड़ता जाता है। शाम का आकाश काला हो चला था। सूरज डूबने से पहले ही बूंदा-बूंदी शुरू हो गई थी। आधी-रात को गड़गड़ाहट हुई और एकाएक आसमान जल उठा। लगा, कि बिजली गिरने ही वाली है। स्तूप फिर भी सुरक्षित है, उसमें कन्डक्टर लगा है। ऊंचे मकानों पर गिरी तो तहस-नहस हो जायेंगे। खूंटे से बंधे उन चौपायों का कया होगा जहां फूटी ढिबरी भी नहीं जल रही है। ....और इन छप्परों के बारे में तो सोचना ही गलत है जिनकी आंधी में कोई विसात नहीं। यह एक भय था जो सबको खा रहा था। पौ फटते ही पता चला कि वह कही नहीं, सिवान के सबसे ऊंचे झाड़-झखाड़ पेड़ पर गिरी है। चिड़ियों सहित घोंसले भरे पड़े हैं। जिनकी गर्दन साबूत है-पंख उड़ गये हैं, जिनकी पंख है गर्दन साबूत नहीं। छोटे-छोटे सफेद रवेदार अण्डे जर्दी बाहर फेंक कर टूटे-बिखरे पड़े हैं-लगता है जैसे कोई फौजी बूट पहने हुए इन पर से निकल गया है। हड्डी के टूट जाने पर जिस तरह बाहें झूलती हैं, डालें अलग नहीं हुई हैं झूल रही हैं। पेड़ के तो दो दाल हो ही गये हैं। इस साल कितनी बौर लगी थी इसमें! अब धीरे-धीरे यह भी सूख जायेंगे।

कुन्दन को परेशान हाल देखकर हिरामन बोल पड़ा-“दादा! गनीमत है कि दो ही दाल रहकर रह गया वरना जिस जोर-शोर के साथ बादल उठा, जिस कड़क-गड़क के साथ बिजली गिरी उसके हिसाब से टुकड़े-टुकड़े हो जाना चाहिए था।...और तब पल्ला क्‍या चौखट भी साबूत नहीं निकलता। एक बार और तो पृथ्वी दो दाल हो गई थी और सीता जी धरती में समा गई थीं। राजा साहब भले ही कुछ न करें पर उनको एक भय तो है ही कि हम उनकेआदमी है। यही क्‍या कम है?

पत्ते भेड़-बकरियां चर गईं, झांगी जरौनी में चली गई, पर वह फटने के बावजूद लकड़ी के रावण जैसा खड़ा रहा। एक दिन सुनने में आया कि इसे दरबार की तरफ से दमदाद में बख्शा जाता है। कुन्दन की भी इच्छा थी कि लेंगे तो यही वरना अपने कोठ का बांस ही....। यह और बात है कि इतने में चौखट दरवाजा, किवाड़, जंगलें, पलंग, मशहरी, सन्दूक, आल्मारी सब निकल आयेगा। और जो उठेगी सौ में एक कोठी होगी, हूबहू नील की कोठी की तरह.-- | सामने दूर तक लहलहाता हुआ बगीचा, बीच-बीच में तालाब, फिर छोटे-छोटे तिकोने चौकोर ताल-कुण्ड उसमें तैरती हुई, हरी, लाल, नीली मछलियां। नीचे लटकी डालों से सींग-सहलाते हुए हिरन, पंख समेट कर भागते हुए मोर...।

यह पेड़ नहीं गांव का मुखिया था जिसकी छत्र-छाया में काम से फुर्सत पाने पर घरी-पहर दर-बार लगता था। पूरे ढ़ाई-तीन एकड़ में फैला था। पूरब-पश्चिम जाने वाला हर डोला पहले यहां रुक कर कन्धा बदल लेता तब आगे बढ़ता। कितनी गर्मी, जाड़ा, बरसात इसने आंखों देखा है, कितने कारवां यहां से होकर गुजरे है, कहते हैं कि, शेर-शाह के भय के हुमायूं एक रात इसके नीचे छिपा था। जब चारों तरफ लू चलती इसके नीचे ठंड रहती... । कितने जलसे, समारोहों में साथ रहा है। घोड़ों की टाप हाथियों की चिग्घाड़ और तोंपों की गर्जन भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकी | सिवान का बरम गांव का कोतवाल होता है, यह गांव का कोतवाल था।

सुना जाता है कि सन्‌ 57 के गदर में अंग्रेज साहब बहादुर ने पांडिया और बागियों के पैर बैधवा-बंधवा कर चील्ह-कौवों की तरह उल्टे इसकी डालों में लटकवा दिया था। नीचे ईख के पत्ते और रहेठा की ढेर जमा कर उसमें आग लगवा दिया था। अधजले ऐंठ-ऐंठ कर मरे थे। कोई दाघ देने वाला नहीं था। चिराइन गंध के मारे महीनों तक इधर का रास्ता बन्द था, कितनों ने भाग कर नेपाल पकड़ लिया। उसकी लपट में यह पेड़ भी इतना झूलस गया था कि कई बरसात लग गये इसे हरा होने में। पर दादा एक भाई जो नाम से खलीफा थे अपने तीन शागिर्दों सहित अखाड़े से पकड़वा लिए गये थे और महाराजा साहब के अंग्रेज बहादुर के खैरख्वाह थे, राय बहादुर की उपाधि के आगे अपने ही आदमी को नहीं बचा सके। उसी के बाद तो यह दरबार, बीस दरबारों को मिला कर लाखों की रियासत हो गया। ...वह भी कितनी अड़ियल और गुस्सेवर जाति थी। जिसे दिया तख्त-ताज दिया, जिसका मुआफ किया सात खून मुआफ किया वरना जड़ों में खौलता हुआ पानी डलवा दिया। मैं तो इस पेड़ को देखता हूं जो महाराजा साहब की करनी से झुलस गया था, राजा साहब की करनी से हटा था। अब उस बिजली को क्या कहें, जिसे गिरना ही था तो भर-मुंह हरा-भर देख कर।

छोटे सरकार की साल-गिरह थी। बड़े सरकार ने बुलाकर कहा-'“कुन्दन' मैं तो राजे-रजवाड़ों में फंसा रहूंगा। तुम्हें ही रैयत को देखना है। हिरामन और चूड़ामनि को भी बोल देना। घर जितना ही भरा-पूरा रहे उतना ही अच्छा है। मेरी बापू के सामने आंख मिलाकर दो टूक बात करने की कभी हिम्मत नहीं पड़ी..... | तुम्हारे लड़के तो खैर अब भी पैर छू कर प्रणाम करते हैं और थोड़े में जवाब देकर किनारे हो जाते हैं। देख लेना किसी दिन डिप्टी कलक्टर से कम नहीं होंगे! 

महमूदा बाई का नाच-गान ज्यों ही खत्म हुआ और लोग दस्तरखान में हाजिर हुए राजा राय-बहादुर कुंवर विक्रम प्रताप शाही ने पान की गिलोरी मुंह में डालते हुए गवर्नर से कहा-'जनाब” यह कुन्दन है-पुश्तैनी कारिन्दा, हुकुम का पाबन्द। ....और वे बख्तर बन्द नौजवान इसके सगे भाई हैं जिनके चलते लगान के लिए कभी किसी को तहसील में जाने की जरूरत नहीं पड़ी। इलाका का इलाका फतह कर लिया और जाना भी नहीं कि लोग कहां से आये और कब आये। एक बार पट्टीदारी का झगड़ा ठन गया। मैंने कहा-हिरामन! वहां कई हजार सिपाही भाला, बर्छों, गंड़ासे से लैस हैं, कैसे क्या होगा। इसने एक बार चूड़ामनि और प्रकाश की तरफ देखा और बोल पड़ा-बस आपका हाथ पीठ पर होना चाहिए, फिर तो जिसे घुसना होगा वह मेरे और बाकी भाइयों के सिर को भाले की नोक पर उठाकर ही ड्योढ़ी के अन्दर घुस सकता है-और यह नौबत नहीं आयेगी।... अगर आ गई तो एक-एक को कोड़े लगवाकर जहाज के केबिन में भरकर विलायत भेज दिया जायेगा। जिस तरह गांव की औरतें निराई-कटनी करती, उपले पाथती हैं-दरबार की रानियों से उपले पथवायेंगे। उपले, प्रकाश ने कहा-“अब की मैदान से जो बच भागे तो दरवाजे पर कांट बिछा कर, ऊपर की मिट्टी का तेल छिड़क कर महल में आग लगा दिया जायेगा। अन्दर ही जल-भुनकर खाक हो जायेंगे। क्या समझ रखा है अपने आपको । सब की तरफ से बीच-बचाव करते हुए कुन्दन ने कहा-'सरकार! अंधी है अपने आप खत्म हो जायेंगी! परेशान होने की जरूरत नहीं। 

मैं तो कभी-कभी शक्ल से पहचान में गलती कर जाता हूं। ये दोनों जुड़वां हैं कुन्दन सबसे बड़ा है।” गवर्नर साहब ने कहा-“तभी तो पचास को पहुंच रहे हैं और सिर का एक बाल भी सफंद नहीं हुआ। हमारे तो गलिबन आधे बाल सफेद हो गये और अभी छत्तीस भी पूरा नहीं हुआ। 

'....और भी ये कुन्दन के भतीजे हैं। मैं इन्हें बेटे की तरह मानता हूं।'

“वेरी गुड! इससे पहले कि सरकार कोई ठोस कदम उठाती आपने बंजर परती, झांड़-पोखर को अपने कारिन्दों में बांट कर पहल किया है। इसकी सूचना जाते ही महारानी की सेवा में भेज दूंगा। बख्शीस में कभी जरूरत पड़े तो वे मुझसे मिलें। जाड़े में सुबह पहले होती है, सूरज देर में निकलता है। माघ का महीना, अहिर-राजपूतों का गांव। चार-छ बाहर बैठकर आग ताप रहे थे। सामने छोटा-मोटा तालाब था। कुहरा घिरा हुआ था। कहीं से एक मछली उछली और डब से पानी में गिर गयी। सबका ध्यान खिंचकर चला गया। फिर क्‍या था राउत ने कहा-'कितना तेज धुंआ निकल रहा है। लगता है पानी में आग लग गई है।

“कहीं पानी में आग लगती है। लग गई तो मछलियां कहां जायेगी। महती बोल पड़ा-चौधरी, “जायेंगी कहां! वह किनारे जो पेड़ है उसी पर चढ़ जायेंगी।'

हां! कोई भैंस है कि पेड़ पर चढ़ जायेंगी। राउत ने सबका निराकरण करते हुए कहा- किसे पेड़ पर चढ़ा रहे हो गंगा राउत! चढ़ने को चढ़ गया और उतरना नहीं आया तो....!

 'हीरा बाबू! किसके सिर मौत नाच गई कि आप को सुबह-सुबह घर छोड़ना पड़ा। वही से डांक दिया होता! देखता क्‍या है रे! अन्दर से बैठका ला। हिरामन ने बैठते हुए कहा-राउत! हुकुम सरकार की!!

“अब सरकार कहां! सरकार तो हमी-तुम है। इधर कई दिन से भइया का कोई रंग ही नहीं मिल रहा है। पेड़ को तो जानते हो, न!

“वह तो आपके अखाड़े का महाबीरी-झण्डा है। वहां किसकी हिम्मत जो अपना तम्बू कनात गाड़े। विपत्ति किस पर नहीं पड़ती है! सूखा तो गंगा मैया की कृपा से फिर हरा हो जायेगा। 

'राउत! तुम फिर नहीं समझे! दादा कह रहे थे कि तुम्हें बनवाना होगा तो जंगल से ले लेना यह पेड़ तो इस कोठी को ही पूरा नहीं पड़ेगा। रही चूड़ामनि की बात तो उसकी तीन बीबियां हैं , अपने हैं , और कोई तो आगे-पीछे है नहीं। कहीं एक किनारे रह लेगा। राजा साहब और दादा के चलते जो भी हो जाय कम ही है। प्रकाश भइया पहले ही चले गये थे। रहा बड़ा लड़का वह भी बी.ए. करने के बाद फौज में भर्ती हो गया।

हीरा बाबू चलो अच्छा ही हुआ। सुना है फौज के हाकिमों की जल्द सुनवाई होती है। आपका लड़का तो एक पल्टन का मालिक है। यहां से नहीं तो वहां से। भय किसी का हो वक्‍त पर काम आता है।!

मुझे भी इसी का संतोषहै-राउत! वरना यह नौबत ही क्‍यों आती। एक बार की घटना है। दरबार का ऐरावत घूमने निकला था। पार करते हुए पास की नदी में धंस गया। दल-दल था पैर फंसता चला गया। दरबार के एक से एक पहलवान लगे पर टस में मस नहीं हुआ। हार कर महाराजा साहब ने बाबा को बुलवाया। दरबार का ऐरावत नदी में धंस कर मरे यह शर्म की बात थी। वे तैयार हुए। पानी कम, नीचे दल-दल ही था, कोई वश नहीं चला! नदी में कंकड़-पत्थर डाला गया। हाथी के पेट के नीचे छोटा-सा पत्थर का मचान बना। उन्होंने पीठ को हाथी के पेट के नीचे किया, हाथ और पैर का सहारा लिया। थोड़ी देर तक बल खाते थाहते रहे फिर हुमांच बांध कर ऊपर उठे। महावीर जी की कृपा, हाथी तो चारों पैर ऊपर आ गया लेकिन वे बाहर आते-आते खून फेंककर चल बसे। तब हम लोग छोटे थे। महाराजा साहब ने तीन गांव माफी में दिया लेकिन पेड़ को फिर भी अपने कब्जे में रखा। पुश्तैनी अखाड़ा, पंजाब तक के पहलवान आते थे। नाग पंचमी को जोड़ होता था। दादा को 6 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है। आज भतीजे की बरही है। शाम को आना।

चारों भाइयों सहित कुन्दन बंगले में बैठा हुआ था। तीन हाथ का ऊंचा गुड़गुड़ा, पांच हाथ की निगाली एक के बाद एक की तरफ घूम रही थी। कही तिल रखने की जगह नहीं थी। ढोलक गरज रही थी और आल्हा गड़का हुआ था। माड़ौगढ़ की लड़ाई...

अल्हइता-

“अब आगे का सुनो हवाल कहने ही जा रहा था कि सहसा हिरामन ने प्रवेश किया। कुन्दन चीख पड़ा-तीन सगे, दो चचाजात। हम पांचों पाण्डव के अवतार हैं। हिरामन उस जन्म का ऊदल मेरा लहुरवा भाई है। चूड़ामनि-मलखा, भीम का अवतार। वह खुद भी गुनगुनाने लगा-

अभिमन्यु जनमवा रहे इन्दल से 

आल्हा धर्मराज अवतार।

पूरा बंगला ठहाके से गूंज उठा। अभी यह सब चल ही रहा था कि बीच में एक आदमी बोल पड़ा-मैंने कचहरी में सुना है कि यहां कोई ऐसी गुप्त जगह है जहां बारूद का कारखाना है-हथ-गोले बनते हैं। पुल और ट्रेन उड़ाने का काम चोरी छिपे होता है। दूसरे ने कहा-मैंने आंखों देखा है। लाल पगड़ी में काले सिपाही कुछ लड़कों को ट्रक में भरकर ले जा रहे थे। लड़के जय-जयकार बोल रहे थे और वे कह रहे थे कि, शाम को घर चूल्हा नहीं जलता होगा और आप चलें हैं खुदी राम बोस बनने।

तीसरे ने कहा-कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि यहां सुराजी पनाह लेते हैं। यह तो दारोगा साहब के डूब मरने का सवाल है या लाइन हाजिरी का।   

कुछ भी हो यहां मेरा हुकुम चलता है। मेरा घोड़ा किसी भी लाट गवर्नर से कम नहीं भागता। तुम सब अपना-अपना काम करो। हिरामन का इतना कहना था कि हल्के का सिपाही आ धमका। हीरा भइया! जमाने की हवा बड़ी खराब है। रोज कोई न कोई दंगा-फसाद। यह कहिए कि उसमें कप्तान साहब का लड़का था वरना सब गोली से उड़ज्ञ दिए गये होते। हो सकता है कल नायब साहब का गश्त हो। सबों से कह दीजिएगा कि आज ही रात में घर छोड़ देंगे। पकड़ जाना ही सबसे बड़ा जुर्म है फिर पुलिस तो मिट्टी से, केस” बनाती है, क्या खाकर कोई कुम्हार मिट्टी से घड़ा पैदा करेगा। नरसोंरात में एक सेंध लग गई।

मुखवीर को बुला कर बड़े साहब ने पूछा- तुम्हारे सरगने को कोई न कोई तो जानता ही होगा

“कोई बाहर से आया होता तो जानकारी होती और उस रात तो हम लोग खुद बाहर गये थे। पता लगाना था। एक सिपाही ने सेंध में सिर डाला तो दीवाल से टेक गया। थोड़ी-सी बनावटी चोट आई। उसने झट से सिर बाहर निकाल दिया और दोनों हाथ से मलते हुए बोला-हुजूर पैठना मेरे वश का नहीं। इस तरह जो भी वहां थे एक के बाद एक सेंध में सिर डालते-निकालते रहे। अन्त में कोने के घर से किवाड़ की आड़ में खड़े देख रहे एक व्यक्ति से नहीं देखा गया। वह दौड़ा हुआ आया और बोला-सरकार वैसे नहीं ऐसे। पहले पैर, फिर धड़ सिर बाद में। वह पैठ कर निकल आया। जब चलने लगा तो बड़े साहब ने पूछा- कहां?

“गाड़ी का समय हो गया है, स्टेशन जाना है। '

“कौन-कौन थे ।'

मैं नहीं जानता! माफी चाहता हूं।

तुम थे कि नहीं?

हूजूर मैं इक्का हांकता हूं।'

'ऐसे नहीं बताने को। जब बेंत पड़ने लगी तो बड़े साहब के आगे सब पाई-पाई बक दिया ।

झूठ का कोई ओर-छोर नहीं होता। बड़े साहब के जाते ही नायब साहब ने घोड़ा बायें मोड़ दिया और बोले-सिपाही!

जी हुजूर !

“इस पर ख्याल रखना। यहां तो जेल सुराजियों से भरता जा रहा है। चोर-चौधरी में फर्क करना मुश्किल हो गया है। मुहब्बत में ऐसे कदम डगमगाये-साले पी के चले आ रहे हैं। कहां चला बे! सूअर की औलाद! -शराफत की नहीं तो मुहब्बत की सींग-पूंछ होती है। बोलता क्‍यों नहीं। उल्लू के पट्ठे! बोल!

हूजूर ताड़ी की दुकान है, गांजा कैसे आ गया।

तो जुआ होता होगा?”

“हूजूर गरीब हूं।

गरीब नहीं होता तो पुलिस की मुलाजिमत में न आता! घर बैठकर वकालत करता। झूठ को सांच और सांच को झूठ में बदलता। चले हैं जिरह करने-कमीने, हरामखोर इसी बीच कुछ मोड़ते हुए दुकान से एक सिपाही बाहर निकला और बोला-साहब आधा ही हुआ।

आधा यानी सौ! कुछ नहीं हुआ। इतनी देर में तो वह तेवारी का बच्चा दीवान से नायब और नायब से दरोगा हो गया होता। किसी सत्याग्रही इलाके में छापा मारने भर की देर थी।...और मार से तो भूत भागता है।

गश्त एक दिन का हुआ, आतंक पन्द्रहियों तक बना रहा। लगा कि रात को भेड़िया आया था, वह निकल कर कही गया नहीं है, यहीं किसी घर या गन्ने के खेत में छिपा हुआ है। किसी ने गांजा, जेवनार, किसी ने कड़ाही और किसी ने सवा सेर लड्डू की मनौती मानी। किसी ने कहा कि इस बार बच गये तो भागवत महलूद सुनेंगे। सात घोड़े की बग्धी घुड़सार के सामने खड़ी थी।

कोई कुश्ती जीता, कोई जोड़ में छूटा, किसी ने अगली-बदानी तक के लिए मुहलत मांगी। घर-घर दूध लावे चढ़े। परोरे गाय के गोबर से दीवारों को घेरा गया। एक और नागपंचमी धूमधाम से बीत गई। नाग देवता प्रसन्न हुए पर पेड़ अपनी जवानी को तरस गया। हिरामन और प्रकाश ने अखाड़े की मिट्टी उठाकर सलामी दागी।...और कहा-ये डालें नहीं पुरुषों के हाथ हैं जो हमें गोद में भरने के लिए निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। इस को किसी ने अंगुली दिखाया तो उसकी आंख निकाल लूंगा-हीरा भइया! लिहाज करता हूं इसका मतलब यह थोड़े है कि कोई लाट-गवर्नर होगा तो अपने घर का। प्रकाश का इतना कहना था कि-एक दूसरे का हाथ पकड़े गाता हुआ ग्रामीण औरतों का एक झुण्ड उधर से निकला-'सागरी देहियां पर बलमु के जमीदारी हो। और वह ठिठक कर अगली कड़ी का इन्तजार करने लगा। शायद कोई परिचित कण्ठ था।

आगे-आम, बागे-खास से निकलते हुए कुन्दन ने कहा-'कुछ गुलाब के पौधे अपने यहां भी लगवाने हैं।” है गुलाब फूलों का राजा कहते हुए उसने एक फूल तोड़ा और कुछ देर देखते रहने के बाद उसे मिरजाई में लगाकर आगे बढ़ गया।

महल के बाहर कमर की सीध में भरी बन्दूक संभाले संतरी टहल रहे थे। एक हाथ के थक जाने पर दूसरे हाथ में, फिर तीसरे को थमाकर ही फारिग हुआ जा सकता था। भूल या संयोग से कहीं फर्श या दीवाल से टिकी तो शाही-शान के खिलाफ सीधे गोली। ठांय....ठांय...ठांय....। बहादुर लड़ूडू खाकर मरा है।

महारानी का चित्र शीशमहल से झलक रहा था। राजा साहब की कचहरी लगी हुई थी। वे कह रहे थे कि दुख तो इसी बात का है कि सभी अपने हैं, मुल्क अपना है। राजा-रैयत, हाकिम-हुक्काम सब के सब...। कुन्दन तुम्हारे गांव के क्‍या रवैयात हैं? 

'सरकार पेड़ सूख गया।

“उसे तो सूखना ही था। जिस पर बिजली गिरी वह भी साबूत बचा रहे। अच्छा हुआ मरना नहीं पड़ा, गिरने के पहले ही सूख गया। सुना तुम और हिरामन अलग हो गये?

सरकार! अभी हुए नहीं है! किसी कदर चुरामन राजी हो गया है।'

चलो अच्छा ही हुआ ।

जमीदारी टूट गई। राजा साहब चल बसे। हिरामन अकेले अपने बंगले  में बैठा हुआ था। आमने-सामने दो चूल्हे जल रहे थे। राउत को आते हुए देख कर वह फफक पड़ा-और तो और चुरामन भइया जन्म के साथी थे। वह चाहें तो अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। दादा भले ही खाकर चलते बनते, उन्होंने हमेशा खाने पर इन्तजार किया था। प्रकाश हवाई-हाकिम हुआ तो लगा कि उसका बाया हाथ अभी साबूत है लेकिन वह भी हवाई-दुर्घटना में टूट गया। उसकी तरक्की और दुर्घटना का परिपत्र राजा साहब के चरणों में नहीं, उनकी चिता में धू...धू...कर जल रहा था।

अकेले में उसे बर्फानी-प्रदेश में तैनात फौजी लबास में अपने बड़े लड़के की याद आई। लगा बिजली पेड़ पर नहीं ठीक उसके सिर पर गिरी है।


16 -

हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर

[ जन्म : 17 अप्रैल , 1934 - निधन 29 जनवरी , 2011 ]

श्रीकृष्ण श्रीवास्तव

अपने खान-पान कक्ष में बैठ कर हम अपने परिवार के संग चाय नाश्ते का आनन्द ले रहे थे कि बाहर से किसी आगन्तुक ने दरवाजे पर लगी घंटी का बटन दबाया। टिंग-टिंग की आवाज होते ही हमारा दस वर्षीय पुत्र हेम दरवाजे की ओर दौड़ा और साथ में गयी हमारी आठ वर्षीया बेटी प्रेमलता, जिसे हम प्यार से लता के ही नाम से पुकारते हैं।

हेम ने द्वार खोला, आगन्तुक ने प्रश्न किया-‘बेटे श्रीवास्तव जी हैं ?’ हेम के लिए आगन्तुक एक नया अपरिचित चेहरा था, अतः हेम ने परिचय  के लिए आगन्तुक का नाम पूछा। उत्तर मिला-‘मुहर्रम सिंह’। हेम ने आगन्तुक को ड्राईंग रूम में बैठने को कहा और स्वयं पिता जी को आगन्तुक का परिचय बतलाने के वास्ते अन्दर गया। इसके पहले कि हेम पिता जी को कुछ बताता, उसकी बहन लता ने आगन्तुक के विषय में पिताजी को बतला दिया था।

इधर, हम अपने मित्र से बातें कर रहे थे और अन्दर बेटे हेम तथा बेटी लता अपनी मम्मी के संग हँस-हँस कर आनन्दमग्न थे। जैसे ही मैंने अपने मित्र से फुरसत ली, मैं अन्दर आया, देखा तो सभी लोग हँसी के फुहार में भींगे हुए थे। कारण था आगन्तुक का नाम ‘मुर्हरम सिंह’। यह कैसा नाम, स्पष्ट था कि इस प्रकार का नाम पहले कभी नहीं सुना था। हमने उनसे उन्हें बतलाया, अपना देश विश्व में अपनी एक अलग पहचान रखता है और उसका आधार है, अनेकता में एकता, जो हमें सदियों से विरासत में मिली है।

मुहर्रम सिंह के विषय में हमने अपने बेटे हेम जी तथा बेटी लता को बतलाया कि मुर्हरम सिंह और हमारा परिवार कभी गाँव में साथ-साथ रहता था, जहाँ मजहब जैसी कोई दीवार नहीं थी, वास्तविकता यह थी कि यह तो एक ही परिवार था, समय के थपेड़े ने इन्हें हिन्दू से मुसलमान बना दिया था, जिसका प्रभाव दूसरों की मानसिकता को ही केवल प्रभावित करना था, दोनो परिवार आज भी सुख-दुःख, तीज-त्योहार, रस्मोरिवाज में एक दूसरे का हाथ बँटाते थे। मुहर्रम सिंह की माँ को कोई सन्तान न थी। किसी ने मुहर्रम के त्योहार पर उन्हें इमामबाड़े पर ताजिया चढ़ाने का सुझाव दिया। मुर्हरम सिंह की माँ ने वैसा ही किया। ईश्वर की इच्छा कि कुछ दिन के उपरान्त उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। फलस्वरूप बालक का नाम मुहर्रम सिंह रख दिया गया। इसमें कोई अनोखापन नहीं है।

इन्हीं परम्पराओं के अन्तर्गत और भी परिचित थे, जैसे इकबाल नारायन, सीताराम खाँ, मोहसिन कुमार, यह सब मिल बैठते थे, एक ही आकाश तले, एक ही चौपाल में।

अभी पिछले ही वर्ष हम श्रीनगर से लौटते समय अमृतसर गये थे। प्रायः हर कोई जो अमृतसर जाता है, स्वर्ण मन्दिर में जाकर शीश नवाता है, जलियाँवाला बाग में स्वतंत्रता संग्राम के उन सपूतों की याद में सुमन अर्पित कर, श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

हमने भी ऐसा ही किया, पहले हम स्वर्ण मन्दिर गये, इसके पहले कि हम मन्दिर परिसर में प्रवेश करते बाहर ही देखा, एक परिवार अपने आठ वर्षीय बालक को चूड़ीदार पायजामा, सुनहले रंग की कीमखाब की शेरवानी और पगड़ी से सजा-धजा कर बेदी पर बिठा कर अनुष्ठान कर रहा था। बड़ा ही आकर्षक दृश्य था। हमने पास जाकर देखा और पता किया तो ज्ञात हुआ कि आज प्रेम चन्द शर्मा और उनकी पत्नी श्रीमती शीला ने अपने ज्येष्ठ पुत्र धर्मवीर को सिख बनाने हेतु धर्मिक अनुष्ठान किया है। वे पूजन के उपरान्त, उस बालक को अन्दर ले गये और गुरुग्रन्थ साहब के सामने श्रद्धा से नतमस्तक हो, ग्रन्थियों के द्वारा प्रसाद ग्रहण करके आनन्दविभोर हो बाहर आये। धर्मवीर शर्मा आज धर्मवीर सिंह हो चुका था। वह केश, कृपाण, कच्छणी और सरोपा धरण करके अब बहादुर सम्प्रदाय का सदस्य बन गया था, जिस सम्प्रदाय पर भारत माता को भी गर्व है।

पता करने पर ज्ञात हुआ कि धर्मवीर शर्मा पहला बालक नहीं था, जो धर्मवीर सिंह बन गया। यहाँ तो मन्दिर स्थली पर प्रतिदिन दो-चार बालक रोज ही सिख बन, देश के सरदार बन जाते हैं और अपने देश की कीर्तिपताका फहराते हैं। दूसरी ओर था, वह जलियाँवाला बाग, जहाँ क्रूर जनरल डायर की गोलियों के शिकार हुए थे, हजारों देशभक्त इनमें असंख्य हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई थे। मरने वाले मरे, जाने कितने घायल हुए, कुछ का अस्पताल में उपचार हुआ और ठीक भी हुए, पर एक व्यक्ति ऐसा था, जिसकी अन्तरात्मा घायल हुई थी, जिसका कोई उपचार नहीं था। उसने प्रण किया था कि जनरल डॉयर से अपनें भाइयों के खून का बदला लेगा। उसने सर पर कफन बाँध और चल दिया अपनें गन्तव्य की ओर। वह व्यक्ति कोई और नहीं, सरदार उधम सिंह था। हम आज उनके समक्ष नत मस्तक हैं।

हम अभी अमृतसर में घूम ही रहे थे कि एकाएक भगदड़ मच गयी। पता चला कि आगे उस तरफ कर्फ्यू लगा हुआ है। कुछ लोगों की हत्या हो गयी है। यह खबर देखते-देखते आग की तरह फैल गयी। वातावरण तनावपूर्ण हो गया। सड़कें सूनी हो गयीं, हम भी जल्दी-जल्दी अपने कमरे में जा बैठे।

अभी कुछ ही क्षण बीते थे कि, किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजा खोला, होटल का मैनेजर था, जो कुछ घबराया सा दीखता था। मैंने अन्दर आने का आग्रह किया, पर उसे कुछ सुनना न था। उसे तो अपनी बात सुनानी थी और झटपट बोला-‘कल सुबह कमरा खाली कर दो, वर्ना जान से हाथ धोना पड़ेगा, इतना सुनना था कि हमारे पैर तले की जमीन खिसक गयी।

मैंने पूछा-‘आखिर बात क्या है ? क्या हो गया मेरे भाई ?’

वह बोला-‘बखत नहीं हैं। कल सुबह कमरा खाली चाहिए ।’

‘पर मैनेजर साहब, मुझसे क्या ख़ता हुई है ?’

‘ख़ता-वता कुछ नहीं, हिन्दू-सिख का झगड़ा है। 20 हिन्दू मारे गये हैं, जान प्यारी है तो सुबह कमरा खाली कर देना’ और मैनेजर चला गया।

रात भर मैं सोचता रहा। हिन्दू सिख का झगड़ा समझ में नहीं आता। आखिर हिन्दू-सिख के बीच कैसे झगड़ा हो सकता है ! अभी कल ही तो देखा था, गुरुद्वारे में हिन्दू परिवार के प्रेम चन्द शर्मा ने अपनी धर्मपत्नी शीला शर्मा के साथ सोल्लास अपने बालक धर्मवीर को सिख पंथ में समर्पित किया था और रोज कई ऐसा करते हैं, फिर ऐसा क्यों ? कौन सा भेद भाव, कौन सा अन्तर आ गया। कहाँ से यह जहर घुल गया। गुरुनानक देव  जी की ड्योढ़ी पर अमृतसर के उस अमृत सरोवर में।

सुबह हुई। अखबारों में समाचार था-‘मृतकों के फोटो छपे थे, जिनमें   अबोध बालक, स्त्रियाँ थीं। जिसने भी देखा, जिसने भी सुना, सभी अवाक् रह गये थे। सबकी जुबान पर इस घृणित कार्य को लेकर निन्दा थी, सारा समाज किंकर्तव्यविमूढ़ था।

मैंने होटल खाली कर दिया। समीपवर्ती एक अन्य सरदार जी के होटल में गया। रोटियाँ खायी, तदुपरान्त रहने के लिए कमरे का उनसे आग्रह किया, पहले तो सरदार जी ने आना-कानी की, किन्तु बाद में वे राजी हो गये। वास्तव में उस होटल में रहने की व्यवस्था नहीं थी। थोड़ी ही दूर पर सरदार जी का अपना घर था, जिसका कुछ हिस्सा उन्होंने लॉज के रूप में बना रक्खा था। परिस्थितियों को भलीभाँति समझते हुए सरदार जी शाम को होटल बन्द करके हमें अपनें साथ घर ले गये। वहाँ उनका परिवार उनकी प्रतीक्षा में था। उनकी घरवाली भी बाहर ही थी। मैंने उनका अभिवादन किया। पर यह क्या ? उसने अपने  पति से पूछा, यह श्रीवास्तव जी को कहाँ से ले आये, और फिर मेरी ओर सम्बोधित हो उसने मुझसे पूछा-‘कैसे हैं भाई साहब ?’ मैं भौचक्का था। साथ में भौचक्के थे सरदार जी। पुनः सरदार जी ने जिज्ञासावश पूछा-‘आपने पहचाना नहीं भाई साहब, मैं सुमन हूँ, हम सब गाँव में एक साथ खेलते थे। मैं भौचक्का अतीत में डूब कर देखता रहा। तीस वर्ष पूर्व और आज की सुमन को और पुनः गाँव वाली सुमन को।

क्या संयोग था इस मिलन का। सरदार जी असमंजस में थे, घर-परिवार से दूर कहाँ तो तनावपूर्ण वातावरण में जीना मुश्किल था, कहाँ ईश्वर की कृपा से, मिला तो भाई-बहन का रिश्ता। सुमन ने सब कुशल-क्षेम पूछा और इधर आने का अभिप्राय भी। सुमन के दो पुत्र गुरमीत सिंह और हरनाम सिंह, दोनों बाँके युवक सरदार थे। इसमें गुरमीत की शादी हो चुकी थी, सुमन ने स्वयं अपनी बेटी का विवाह एक हिन्दू युवक से किया था। कुल मिला कर बहुत ही सुखी परिवार था। पर इसमें हरनाम, जिसका अभी विवाह नहीं हुआ था और विद्यार्थी था, उसकी पहचान कुछ अलग थी। मैंने देखा कि वह कृपाण से अध्कि पिस्तौल पर विश्वास करता था। एक दिन मैंने पूछा-‘बेटे, आप यह पिस्तौल क्यों रखते हो।’ उसने तुरन्त उत्तर दिया-‘अंकल हम इक्कीसवीं सदी में जा रहे हैं। कृपाण सोलहवीं सदी का अस्त्र था। वह अब बेअसर हो गया है। अब तो हमें इक्कीसवीं सदी में मैगजीनयुक्त ऑटोमेटिक पिस्तौल चाहिए पर आप तो पढ़ते हैं, आपको तो अभी किताबों की दुनिया में रहना चाहिए, ये पिस्तौल तो दुश्मनों से आत्मरक्षा का अस्त्र है। इसमें तो कहीं न कहीं खून की प्यास छुपी होती है। भारत तो शान्ति का मसीहा है। हमारे युवक ही अशान्त रहेंगे, तो देश की तरक्की नामुमकिन है।’

हरनाम ये सब सुने जा रहा था, और उसके अन्दर कोई और ज्वाला धधक रही थी। उसने मुझसे कहा-‘अंकल, अब आप लोगों के दिन पूरे हो गये हैं। उपदेश देना बन्द कर दीजिए। हमें आपसे और आपके भारत से क्या लेना-देना।’

दूर कहीं सुमन सुन रही थी इन बातों को। वह जोर से दौड़ी आयी चीख पड़ी - ‘इसी दिन के लिए तुझे जन्मा था, ला पिस्तौल मुझे दे !’ वो झपट पड़ी। हरनाम वहाँ से भागना चाहता था। वह पिस्तौल पर लपकी, हड़बड़ाहट में पिस्तौल हरनाम के हाथ से छूट कर नीचे गिर गयी। सुमन ने तुरन्त उठा लिया। हरनाम का रूप बदल गया। वह शेर की भाँति माँ को निगल जाना चाहता था। सुमन ने उसे इसके पहले कभी इस रूप में नहीं देखा था। उसने हरनाम पर पिस्तौल चला दी और बोली-‘हमें नहीं चाहिए ऐसे पुत्तर !’


17 -

सपने का सच

[ जन्म : 3 अगस्त , 1933 - निधन : 27 फ़रवरी ]

गिरीशचंद्र श्रीवास्तव

रविवार का दिन होने के कारण श्रीकान्त को सुबह उठने की जल्दी नहीं थी। इतमीनान से वह चद्दर तानकर देर तक सोता रहा। फिर कई खट्टे-मीठे सपने भी उसे आते रहे। सपने में उसे दिखाई पड़ा कि वह अपने दफ्तर पहुँच गया है। और अपनी सीट पर बैठकर फाइलें निबटाने में जुट गया है। तभी वह देखता है कि उसके आफिस के कर्मचारी संघ का सेकेटरी विनायक उसके पास आकर उससे शिकायत करता है कि अभी तक उसने कर्मचारी संघ की सदस्यता नहीं ली। इस पर वह तत्काल उसने उलझ पड़ता है-क्या मिलेगा उसे कर्मचारी संघ की सदस्यता से। और फिर उसे दफ्तर और घर के कामों से इतनी फुर्सत ही नहीं मिल पाती कि वह इन फालतू कामों में हिस्सा ले सके। इस पर नाराज होने के बजाय विनायक उसे समझाता है कि कर्मचारी संघ का सदस्य बनना कोई फालतू काम नहीं है, बल्कि स्वयं उसी के हित के लिए आवश्यक है क्योंकि संघ कर्मचारियों की माँगों और हितों के लिए लड़ता है। संघ में एक ताकत होती है और यह ताकत कर्मचारियों की एकजुटता से पैदा होती है। कर्मचारी अगर एकजुट नहीं रहेंगे तो उनके अधिकारी हमेशा उनका उत्पीड़न करते रहेंगे। लेकिन विनायक के समझाने-बुझाने का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। फिर कब विनायक दृश्यपटल से गायब हो जाता है उसे यह पता ही नहीं चला। फिर वह देखता है कि किसी ऊंचाई पर उसके पाँव फिसल जाने से वह नीचे की ओर गिरने लगा है-बहुत नीचे और बहुत नीचे वह गिरता जा रहा है। तभी उसकी पत्नी रमा ने उसे झकझोरते हुए जगाया। आँखों को मीचते हुए हड़बड़ाकर वह उठ बैठा। उसने देखा रमा उसके सामने खड़ी है। उसने राहत की सांस ली। रमा उसे हिदायत दे रही थी-कब तक सोते रहिएगा? उठिए जल्दी। हाथ मुँह धोकर चाय पी लीजिए। आपको ही आज राशन की दुकान से चावल लेने जाना है क्योंकि महरिन का लड़का बीमार पड़ गया है।

उसकी आँखों से नींद जा चुकी थी। सपनों का ख्याल भी अब तक ओझल हो चुका था। अब वह पूरे होश में था। लेकिन रमा पर रोब लेने की गरज से पूछा-क्या किसी और दिन चावल नहीं आ सकता, जब महरिन का लड़का ठीक-ठाक हो जाए। इस पर खुनसाते हुए रमा कहने लगी...बाद में जाने पर चावल खत्म हो गया है?...फिर तो बाज़ार से ही महँगा चावल खरीदना पड़ेगा। तब घर का खर्चा न चलने का इल्जाम मेरे मत्थे मत मढ़ दीजिएगा।

“ठीक है। ठीक है। तुम्हारे मत्थे मैं नहीं मढूंगा। राशन की दुकान से चावल खत्म हो गया तो तुम बाजार से चावल मँगा लेना ।” बुदबुदाते हुए वह फिर चारपाई पर पसर गया-आफिर में छः दिन की माथापच्ची के बाद बस यही एक दिन आराम करने को मिलता है। वह भी मयस्सर नहीं...। रमा फिर बिफर पड़ी-बिना हाथ हिलाए अगर कौर आपके मुँह में जा सकता है तो जी भर कर आराम कर लीजिए। मुझे कोई एतराज नहीं।

“बन्द करो बक-बक” वह झल्ला पड़ा “राशनकार्ड और झोला लाकर रख दो।” गुस्से से चूर वह उठ बैठा। फिर हाथ-मुँह धोने के लिए वह चारपाई से उतर पड़ा।

दायें हाथ में झोला और बांये हाथ में राशनकार्ड थामे श्रीकान्त घर से बाहर निकला तो सामने गफूर मियाँ दिखाई पड़ गए। घोड़े को इक्के में नाधते हुए वे बड़बड़ाए जा रहे थे-साला चौधरी बिलेक में अनाज बेच-बेचकर मोटा होता जा रहा है और एक हम हैं कि दाने-दाने के लिए मुहताज होते जा रहे हैं। यह सरासर अन्धेर और बेइन्साफी नहीं तो और क्‍या है? लेकिन है किसी में हिम्मत उसके खिलाफ आवाज उठने की? फिर अपनी बेटी सलमा को आवाज लगाते हुए कहा कि वह खूंटी पर टंगे उसकी बनियाईन को जेब से चार रुपये निकालकर सिन्धी की दुकान से आटा और दाल लेता आवे। गफूर मियाँ का छोटा-सा कुनबा उसके घर के सामने ही काजी जी के मकान में एक छोटी-से कोठरी में गुजारा करता है। कमाई के लिए अपने इक्के को लेकर वे सुबह ही निकल पड़ते हैं तो फिर शाम को ही घर लौटते हैं। श्रीकान्त को अच्छा नहीं लगा गफूर मियाँ का इस तरह बड़बड़ाना। उसे लगा कि गफूर मियाँ की आदत ही है पागलों की तरह अनंर्गल कुछ न कुछ बकते रहना। इसलिए उनकी बक-बक को उसने गम्भीरता से नहीं लिया और बरामदे से नीचे उतरकर वह राशन की दुकान की ओर बांए मुड़ गया।

लाइन में खड़े-खड़े श्रीकान्त का पैर दुखने लगा। तब उसे महसूस होने लगा कि यहाँ आकर झूठ-मूठ उसने अपने सिर पर एक जहमत मोल ले ली। आखिरकार वह लाइन लगाए इस तरह कब तक खड़ा रहेगा। जितनी लम्बी कतार दिख रही है उस हिसाब से अभी काफी देर बाद उसका नम्बर आएगा। तब तक तो उसका पैर अकड़कर काठ हो जाएगा। लेकिन फिर उसने सोचा कि शायद पहली बार यहाँ आने से उसे ऐसा महसूस हो रहा है। महरिन का लड़का ही उसका राशन बराबर ला दिया करता था। लेकिन उसे अचानक बीमार पड़ जाने के कारण उसे स्वयं राशन लेने आना पड़ा। वह भी रमा के बहुत जिद करने पर। फिर उसने अपने पैरों को झटका ताकि झुनझुनी दूर हो जाए और एक ताजा स्फूर्ति उसकी रगों में पुनः दौड़ने लगे। लेकिन साथ ही रह-रह कर उसे रमा पर गुस्सा भी आने लगा। उसी के जिद पर उसे यहाँ आना पड़ा नहीं तो आराम से वह छुट्टी मनाता। बाज आए ऐसी किफायतशारी से। चार पैसे की बचत के लिए कितना समय बर्बाद होता है और जो तवालत उठाना पड़ता है, वह अलग।

उसने देखा कि करीब सौ गज की दूरी पर खड़ा दुकान का मालिक चौधरी खद्दर की धोती-बण्डी पहने और आँखों पर काले फ्रेम का चश्मा चढ़ाए किसी दैनिक अखबार के पन्‍ने उलट-पलट रहा था। तभी उसे एक तरकीब सूझी। उसने सोचा कि एक जरूरी काम का बहाना लेकर वह चौधरी के यहाँ जाए और अपना नम्बर पहले लगाने के लिए उससे निवेदन करे। शायद वह राजी हो जाए और उसका नम्बर पहले लगा दे। इस तरह घंटों काठ की मूर्ति की तरह खड़े रहने से उसे निजात तो मिल जाएगी। लेकिन फिर वह सोचने लगा कि उसके ऐसा करने से उसके देखा-देखी और भी लोग अपना-अपना नम्बर पहले लगवाने लगेंगे। फिर उसका इरादा बदलने लगा। उसने अपने आगे-पीछे कतार लगाए खड़े लोगों पर एक उड़ती निगाह दौड़ाई। उसने अनुमान लगाया कि उसके आगे बीस लोग बाकी हैं। उसके पीछे भी लगभग पन्द्रह सोलह लोग होंगे। अपने-अपने हाथों में राशनकार्ड लिए सभी निरिद्विगन से खड़े थे। शायद ये लोग इसके अभ्यस्त हो चुके हैं-उसने मन ही मन सोचा। फिर उसने तय कर लिया कि वह भी जनन्तांत्रिक ढंग से अपने नम्बर पर राशन लेगा। जैसे इतने लोग खड़े हैं वैसे वह भी खड़ा रहेगा।

उसने गिनकर देखा कि उसके आगे बस तीन लोग रह गये थे। उसका नम्बर अब जल्द ही आ जाएगा। इस एहसास से उसे कुछ राहत मिली। घंटों खड़ा रहने की यातना से शीघ्र ही मुक्ति पाने के विचार से एक क्षण के लिए उसकी रगो में एक नई स्फूर्ति आ गई। तभी अन्दर से आवाज आई, “चावल का स्टाक खत्म हो गया है। चावल अब न लिखा जाए।” शायद अनाज तौलने वाला व्यक्ति अन्दर से ही मुंशी जी को हिदायत दे रहा था। मुंशीजी ने भी पंक्तिबद्ध खड़े लोगों को यह सूचना तत्काल दे दी कि चावल का स्टाक खत्म हो गया है। केवल आटा भर अब मिलेगा। सबसे आगे खड़ा लड़का जिसकी उम्र पन्द्रह-सोलह साल की रही होगी, मुंशी जी की बात पर आवेश में आकर बोल पड़ा, “वाह साहब! वाह! यह भी कोई बात है! हमें पहले क्‍यों नहीं बताया गया। इतनी देर तक खड़ा तो नहीं रहना पड़ता ।”

एक सनसनी की लहर पंक्तिबद्ध खड़े लोगों में दौड़ गई। आगे वाला व्यक्ति जो अधेड़ उम्र का था, उत्तेजित हो उठा, “यह तो सरासर धाँधली है।”

“हर बार साहब यही होता है” एक तीसरी आवाज पंक्तिबद्ध लोगों के बीच से तैरती हुई आई। श्रीकान्त ने भी महसूस किया कि सचमुच यह धाँधली है। उसे भी क्रोध आने लगा। लेकिन एक सभ्य आदमी की तरह उसने अपने क्रोध पर नियन्त्रण रखने की चेष्टा की। उसने सोचा कि वह खुद चौधरी से दरयाफ्त कर ले। शायद वह चावल वितरित करने की कोई व्यवस्था भी कर दे क्योंकि उसे पूरा विश्वास था कि चौधरी इस तरह का मनमाना काम नहीं कर सकता। चौधरी के बारे में उसे कोई खास जानकारी नहीं थी। बल्कि अभी पिछले वर्ष से ही उसे वह जानने लगा था जब वह मुहल्ले की होलिका समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। काफी धन-दौलत भी उसके पास हो गया है। जैसा कि मुहल्ले वाले बताते हैं, वह एक पुराना कांग्रेसी है और आजादी की लड़ाई में वह कई बार जेल की सजा भी काट चुका था जिसके किस्से वह मुहल्ले वालों को बड़े गर्व से सुनाया करता है। इसीलिए मुहल्ले में उसका रुतबा है। चौधरी ऐसा गलत काम कभी नहीं कर सकता जिससे उसके रुतबे पर आँच आए। बड़े संयत स्वर में उसने पूछा, “क्या सचमुच हम लोगों को चावल नहीं मिलेगा?”

अपने चार-पाँच दादा किस्म के अंगरक्षकों से घिरा चौधरी अभी तक अखबार के पन्ने उलट-पलट रहा था। अपने चश्में के भीतर से ही उसने श्रीकान्त को घूर कर देखा। फिर त्योरियाँ चढ़ाते हुए वह बोल पड़ा, “चावल खत्म हो गया है तो मैं कहाँ से लाऊँ चावल। व्यर्थ की बक-बक बन्द करो।”

चौधरी की यह उद्दण्डता उसके लिए अप्रत्याशित थी क्‍योंकि उसके बारे में, उसने एक अच्छी धारणा बना रखी थी। उसकी दबी हुई उत्तेजना उभर आई।

“यह धाँधली नहीं चलेगी ।” उसने भी एक सरल आवाज में चौधरी को चुनौती दी। साथ ही उसे पूरी उम्मीद थी कि उसके पहल करने पर पंक्तिबद्ध खड़े अन्य लोग भी भुक्तभोगी होने के कारण इस धाँधली के खिलाफ उसका साथ देंगे।

चौधरी और भी तैश में आ गया। क्रोध में अपने होंठों को चबाते हुए उसके पास आकर वह बरस पड़ा “हम धाँधली करते हैं...और तुम आए हो ईमानदारी का सनद लेकर...तुम्हें आटा लेना है कि नहीं... नहीं लेना है तो हट जाओ, औरों को लेने दो...” फिर हिकारत भरी नजरों से उसे देखते हुए उसने फिर बड़बड़ाना शुरू किया, “बड़े आये हैं धाँधली को पकड़ने वाले ।”

श्रीकान्त का खून खौल उठा। चौधरी के “तुम” संबोधन से वह और भी बेकाबू होने लगा। खुद गलती करे और टोकने पर घुड़की भी दे। बदतमीज कहीं का-मन ही मन वह बुदबुदाने लगा। जिसे बात करने की तमीज नहीं, वह उचित-अनुचित क्या सोच सकेगा। फिर उसने भी बिना कुछ आगा-पीछा सोचे उसी तेवर में उसे ललकारा, “देखें, तुम क्या कर लेते हो। मैं यही खड़ा रहूंगा। तुम्हारे जो जी में आए करो। जरा मैं भी तुम्हारी हस्ती देख लूँ।”

चौधरी फिर जोर से चिल्ला पड़ा “जाता है यहाँ से कि धक्के देकर निकलवाऊँ।”

“बताता हूं अभी” दाँत पीसते हुए अपनी मुट्रिठ्याँ ताने वह कतार से झट बाहर निकल आया। चौधरी की ओर वह लपकने ही वाला था कि आस-पास खड़े अंगरक्षकों ने उसे पकड़कर दबोच लिया। उनमें से एक ने उसे जमीन पर दे मारा। दो-तीन घूँसे उस पर रसीद कर लेने के बाद उस पर भद्दी गालियों की बौछार करते हुए वह उसे धमकाने लगा, “फिर कभी सेठजी को आँख दिखाया तो तुम्हारा कचूमड़ निकाल लूँगा।”

चौधरी के इशारे पर फिर उसे छोड़ दिया उसने।

अपनी धूल-धूसारित बाँहों को सहलाते हुए वह उठने लगा। उसने कतार में खड़े लोगों पर दृष्टिपात किया। लोग अभी भी कतार में खड़े थे। लेकिन उन के चेहरों पर पहले जैसी उत्तेजना नहीं थी। वे तटस्थ से दिखने लगे थे। आतंक से उसने चेहरे पीले और बेजान से लगने लगे थे। आतंक आदमी को कितना कमजोर और एक-दूसरे से अलग कर देता है, यह अहसास उसे आज पहली बार हुआ। यह उसने सोचा भी नहीं था कि लोग इतने कमजोर और कायर निकलेंगे कि धाँधली को रूबरू देखकर भी चुपचाप सह लेंगे।

तभी वह लड़का जो कतार में सबसे आगे खड़ा था, कतार से बाहर निकल आया। उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। कतार में खड़े लोगों को ललकारते हुए वह कहने लगा, “आप लोग इतने पर भी चुप हैं।” और फिर चौधरी के अंगरक्षकों की परवाह किए बिना वह बोलता जा रहा था, “अच्छा मजाक है। उल्टा चोर कोतवाल को डॉटे। यह सरासर धाँधली नहीं तो और क्या है? आप लोग अगर इसी तहर धाँधली को अपनी आँखों के सामने देखकर भी चुप्पी साधते रहेंगे तो यह हमेशा इसी तरह धाँधली करता रहेगा।”

लड़के के जोशीले और विवेकपूर्ण वक्तव्य ने कतार में खड़े लोगों पर जादू-सा असर डाला। कुछ सुगबुगाहट भी उनमें होने लगी। उन्हें लगा जैसे लड़के की ललकार ने उनके भीतर राख की पर्तों में दबी उत्तेजना को उभार दिया है। उनके चेहरे की भंगिमा बदलने लगी।

“लड़का ठीक कहता है।” लड़के के पीछे खड़े अधेड़ उम्र वाले व्यक्ति ने हामी भरते हुए कहा।

“अब यह धॉाँधली नहीं चलेगी।” अधेड़ उम्र वाले के पीछे खड़े व्यक्ति ने त्योरियां चढ़ाते हुए कहा।

“बबुआ ठीक कहत बाट 55। ई धाँधली नाहीं त का हउवे। अउर नाहीं त ई लुच्चन से बाबू जइसन सरीफ मनई के पिटवइलस भी। ई हरामी जानत रहल कि एकरे खिलाफ के बोली...” कतार के बीचो-बीच एक साँवली रंग की अधेड़ औरत बेखटक बोल रही थी।

इसी बीच सभी ने देखा कि चौधरी के अंगरक्षक आग्नेय आँखों से घूरते हुए लड़के की ओर बढ़ने लगे।

“ख़बरदार जो लड़के को हाथ लगाया 7” कई आवाजें एक साथ गरज पड़ी। चौधरी के अंगरक्षक सकतें में आ गए। यह परिस्थिति उनके लिए अप्रत्याशित थी।। पत्थर की मूर्ति की तरह वे जड़वत खड़े रह गए। उनकी समझ में नहीं आया कि वे क्‍या करें।

फिर कतार में खड़े लोगों ने कतार तोड़ कर चौधरी के अंगरक्षकों को घेर लिया। इसी बीच मौका पाकर चौधरी चुपके से खिसक गया।

झोला लिए श्रीकान्त अपने घर लौट रहा था। वह जरा-सी खिन्‍न नहीं दिखाई पड़ रहा था। बल्कि एक नई आभा से उसका चेहरा चमकने लगा था क्योंकि एक नई सच्चाई से साक्षात्कार करके वह लौट रहा था। रात के सपने में विनायक की बातें उसे समझ में आने लगीं। सचमुच अन्याय का विरोध करने के लिए एकजुटता जरूरी है। फिर अनायास ही गफूर मियाँ का चित्र उसके मानस पटल पर उभर आया। उसने सोचा कि गफूर मियाँ पागल नहीं बल्कि एक पिटा हुआ आदमी है और पिटे हुए हर आदमी को यही नियति होगी...।


18 -

दस्तक

[ जन्म : 4 नवंबर , 1933 - निधन :17 अगस्त , 2000 ]

रामलखन सिंह

तीन साल बाद जब मुझे इस शहर में किसी कार्यवश फिर आने का मौका मिला तो तमाम हित मित्रों के साथ मास्टर साहब की भी याद आयी। होटल का रूम लॉक कर जब मैं सीढिया उतर कर नीचे आया तो अनिश्चय में था कि कहाँ जाऊं।  सड़क पर आते ही समझा की अब इस शहर में भी शोर और भीड़ कम नहीं है, वह तो जैसे ज़िन्दगी का हिस्सा ही बन गई है।  बायीं तरफ एक पान की दुकान देखी।  पैर स्वतः उसी तरफ बढ़ गए।  पान खाने के बाद एक सिगरेट भी सुलगाने की इच्छा हुई, पर पता नहीं क्यों मैंने मना कर दिया। 

बिजली की रौशनी ने भीड़ का अंग बने शाम की सैर या मार्केटिंग को निकले तमाम लिपे पुते चेहरों से यह पता लग पाना मुश्किल था की इस शहर में आदमी के हिस्से में कितना सुख है, कितना दुःख।  खैर, सुखी, प्रसन्न दिखने की कोशिश करना, कोई बुरी बात तो नहीं, मैंने मन ही मन सोचा। मुझे याद आया, मास्टर साहब कितने प्रेम से समझाया करते थे  - "रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय," और मैं पैदल चलते चलते जब स्टेडियम के पीछे वाली गली में मुढ़ा तब मुझे खुद को पता चला कि मैं तो मास्टर साहब के घर जा रहा हूँ। 

मकान के सामने एक छोटा सा गेट।  गेट के अंदर अहाते में एक बहुत छोटा सा लॉन जिसके चारों ओर मास्टर साहब तरह तरह के फूल खुद अपने हाथों लगाते, बड़ी लगन से उसे सींचते, देखभाल करते और जैसे हर कली, हर फूल में अपना पिता-भाव भरते जाते।  मैं जब गेट खोल कर अंदर घुसा तो अँधेरे में कुछ साफ तो दिखाई दिया, लेकिन फिर परिचित फूलों की गंध नहीं महसूस हुई।  मैं अपनी पुरानी आदतों के अनुसार सीढ़ियों पर तेज रफ़्तार में बढ़ता हुआ, ऊपर चला गया जहाँ बाएं मुड़ते ही मास्टर साहब का कमरा है। 

खुली खिड़की से बाहर रौशनी आ रही थी।  दरवाजा भिड़ा हुआ था।  कमरे से कोई आवाज नहीं आ रही थी। इसके पहले जब कभी मैं यहाँ आया हूँ, इतना सन्नाटा कभी नहीं पाया।  कभी कोई गुनगुनाहट या खिलखिलाहट  या मास्टर साहब का प्रवचन या छोटी मोटी गोष्टी जैसा माहौल - कोई न कोई सक्रियता जरूर मिलती।   पर आज  - कुछ अजीब लगा।  मैंने दरवाजे पर हलकी सी दस्तक दी।  अंदर से आवाज आई , "चले आओ". आवाज मास्टर साहब की थी।  मैंने देखा दरवाजा बंद नहीं था।   हल्का सा धक्का देने पर खुल गया।  मास्टर साहब एक तख़्त पर लेटे हुए थे, आँखें मूंदे हुए।  मैं उनके पास पहुँच गया फिर भी उन्होंने आखें नहीं खोलीं।  इतनी भी उत्सुकता नहीं दिखाई की देखो कौन आया है।   मैं एक क्षण तो यूं ही खड़ा रहा, फिर आवाज लगाई, "मास्टर साहब"।  मास्टर साहब ने आखें खोल कर मेरी तरफ देखने की चेष्टा की।  मैंने लपक कर उनके पैर छुए।  लेकिन उन्होंने कोई आशीर्वाद नहीं दिया।  उठकर बैठे भी नहीं।  यों ही कुछ आश्चर्य से मेरी ओर  एकटक देखते रहे, जैसे पहचान न रहे हों या सोच रहे हों, "कैसा लड़का है इस युग में भी कोई किसी के पैर छूता है?"

"मास्टर साहब.मैं 'रवि'। आपने पहचाना नहीं? तबियत तो ठीक है आप की?"

मास्टर साहब के चेहरे पर एक बिजली सी कौंधी. हड़बड़ाकर उठ बैठे, और बोले, "हाँ हाँ, पहचाना क्यों नहीं. बैठो, बैठो।  कब आए"? फिर जैसे धीरे-धीरे कहने लगे, "मेरी तबियत को क्या होगा. सब ठीक है, ठीक है। अब जीने और मरने का कोई मतलब समझ में नहीं आता"। 

मैं पास की कुर्सी पर बैठ गया।   मुझे कुछ-कुछ बेचैनी सी होने लगी।  मास्टर साहब के लिए मेरे मन मैं गहरी आस्था, आदर का भाव है। यह वो मास्टर साहब हैं जिन्होंने जीवन मूल्यों को पहचाना था।  सच्चाई और झूठ के अंतर को समझा था।  हजार-हजार दिलों में अपने चरित्र की छाप छोड़ी थी।  हजार-हजार दिलों में एक बीज अंकुरित किया था - सच्चाई और न्याय  का।   एक रौशनी दी थी, उत्साह भरा था - आगे चलने का, हिम्मत न हारने का।  और आज वही मास्टर साहब, इतने टूट गए हैं।  सारा अर्थ - सारा मतलब ही कहाँ अँधेरे में खो गया है। 

"मास्टर साहब, आशीष आजकल कहाँ है?"

"बरेली में, एक फोटोग्राफी की दुकान खोल रखी है"। 

"आता है कभी?"

"हाँ, आता है - जब कोई जरुरत पड़ती है।  खासकर जब पैसों की जरुरत पड़ती है"।  मास्टर साहब ने मुस्कराने की चेष्टा की।  शायद वे नहीं चाहते थे की उनकी बात में कोई तल्खी मुझे महसूस हो। 

"प्रभा दीदी?"

"हाँ, हाँ।  प्रभा है।  बुलाता हूँ, बुलाता हूँ।  मास्टर साहब उठकर खड़े हो गए I मुझे कुछ असुविधा सी होने लगी। 

"बैठो, बैठो... मैं बुलाता हूँ "। 

मास्टर साहब कमरे से बाहर निकले तो बहुत कमजोर दिखे।  जिस चेहरे पर एक तेज हमेशा रहा करता था, आज वही चेहरा नितांत बुझा हुआ, दयनीय और विचलित सा लगा। 

"अरे प्रभा , रवि आएं हैं भाई"।  मास्टर साहब ने नीचे झुक कर आवाज दी।  कोई प्रतिउत्तर नहीं आया। मास्टर साहब फिर बिस्तर पर लौट आये  और वैसे अपने में ही खो गये। 

तीन साल पहले मैं इस घर में आया था तो दूसरा ही माहौल था, खुशियोँ का, उत्सव का।  संगीता का विवाह था।  संगीता अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करती थी।  उसके रोम-रोम में संगीत था और संगीत ने ही उसे जीवनसाथी भी मिला दिया था। 

अजित ने संगीता के संगीत से अभिभूत होकर स्वयं विवाह का प्रस्ताव किया था और पूरा परिवार मास्टर साहब का, बहुत खुश था कि अजित जैसा अच्छा, योग्य और सम्पन्न लड़का बिना किसी दान-दहेज़, लेनदेन के मिल गया।  मास्टर साहब ने आर्थिक तंगी के दिन बचपन से ही देखे थे और एक तरह से पूरे जीवन उससे मुक्त नहीं हो पाए।  इसलिए यह प्रस्ताव उनके लिए वरदान से कम नहीं था। 

प्रभा जो संगीता से चार साल बड़ी है, संगीता के शादी के दिन कितनी खुश थी।  आज भी मुझे याद है - उस दिन प्रभा हलकी सी नीली सिल्क की साडी पहने और मराठी स्टाइल में जुड़े में फूलों का गजरा गूंथे ख़ुशी से फूटी पड़ रही थी। 

"हेलो रवि"। 

"प्रभा"। 

"इधर आना, इधर आना... तुम्हें दिखाऊं आज संगीता को... देखो, कितनी सुन्दर लग रही है, है न।  अरे, अजित भी तो टॉप का है।  अरे, मुझे तो लगता है की मैं पागल हो जाउंगी ख़ुशी के मारे"। 

"पर प्रभा तुम... तुम तो बड़ी हो, मैं तो, मैं तो, पता नहीं क्यों इसे सहज ढंग से नहीं ले पा रहा हूँ"। 

"डिअर ब्रदर. मैं बड़ी हूँ, इसलिए तो मुझे इतनी ख़ुशी है. यू नो, मुझे एक मिशन पूरा करना है"। 

"बस, बस, बस! बाबा मैं तुम्हारा लेक्चर नहीं सुनना चाहता।  एनी वे यू आर अ ब्रेव गर्ल" ,

"थैंक यू रवि, बट आई ऍम रियली हैप्पी"।  एक क्षण प्रभा की आवाज कुछ काँपी थी, लेकिन तुरंत ही खिलखिलाहट की बौछार में सब धूल गया था। 

उस दिन मास्टर साहब एक क्षण किसी तरह एकांत निकाल कर मेरे कान में फुसफुसाए थे, "...रवि, मैं अगले ही मार्च में प्रभा की भी शादी कर दूंगा।  तुम तो जानते ही हो यह लड़का अपने आप मिल गया, प्रभा के लिए ढूंढना पड़ेगा।  रुपये-पैसे की मेरी हालत तो तुम्हे मालूम ही है"। 

मुझे लगा मास्टर साहब के मन में कहीं अपराधबोध है।  इसलिए कह दिया, "हाँ, ठीक ही है। धीरे-धीरे इस बोझ से हल्का होना ही बुद्धिमानी है"। 

कमरे की नीरवता हलके पदचाप से टूटी।  मैंने मुड़कर देखा, प्रभा एक ट्रे में बिस्किट, नमकीन और चाय लेकर आ गयी है। मैंने खड़ा होकर उसे नमस्कार किया।  प्रतिउत्तर में प्रभा ने मुस्कराने की चेष्टा की। 

"मास्टर साहब को अभी भूले नहीं तुम।  मैं तो यही समझ रही थी की ज्यों-ज्यों आदमी बड़ा होता जाता है, चीजों को भूलना उसके बड़कपन में शामिल होता जाता है"। 

"लेकिन दीदी मैं बड़ा कहाँ हुआ? ज़िन्दगी के किसी अमूर्त को लेकर ठहर सा गया हूँ"। 

"हूँ।  तो सचमुच जी कर जीना चाहते हो।  ब्रेव।  भाई, मरकर जीने का कुछ और ही अंदाज होता है।  खैर! मैं तो शुभकामनाएं ही दे सकती हूँ"। 

"थैंक यू।  और मैं हँस पड़ा। 

हम लोग चाय पी चुके तो प्रभा ने पूछा, "आप भोजन करके जायेंगे?" मैंने कहा, "नहीं. आज तो..."

"अच्छा, अच्छा"।  प्रभा प्लेट्स वगैहरा समेटकर चली गयी। 

प्रभा के जाने के बाद मास्टर साहब एक क्षण असमंजस में रहे।  फिर मेरी ओर मुखातिब होते हुए बोले, "रवि, प्रभा को तुमने देखा?"

"हाँ, चेहरे पर बहुत नियंत्रित किस्म की गंभीरता, एक उदासहीनता जैसी... मैं उस भाव को ठीक से कह नहीं पा रहा हूँ - जैसे कोई शिकवा नहीं - या सबसे शिकवा हो, शिकवा जैसा भाव. मैंने महसूस किया"। 

"रवि, मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी पराजय है।  तुम्हें याद होगा जब तुम संगीता की शादी में आये थे तो मैंने कहा था कि अगले मार्च तक प्रभा की भी शादी कर दूंगा"।  मास्टर साहब एक क्षण को रूक गए और मैं उनकी ओर उत्सुकता से देखता रहा।  बोले, "मैंने अपने बचन को पूरा किया और वहीं सबसे बड़ी गलती हो गई।  कई जगह मैं प्रभा के योग्य लड़का ढूढ़ता फिरा।  लेकिन मैं हर जगह निराश होता रहा।  इसलिए कि मेरे पास भारी मात्रा में धन नहीं था, पैसा नहीं था दहेज़ में देने के लिए।  अंदर ही अंदर मैं विचलित होता रहा, टूटता रहा, लेकिन प्रयास जारी रखा।  अचानक एक दिन एक परिवार से भेंट हो गयी।  लड़के की पहली पत्नी मर चुकी थी।  लड़का देखने में सुन्दर था - धन तो था ही। उमर भी कोई ३५ से ज्यादा नहीं थी।   प्रभा भी उस समय २७ की थी।  यह रिश्ता तय हो गया।  लेनदेन की कोई बाधा उपस्थित नहीं हुई।  प्रभा को तुम जानते हो।  उसमें मेरा खून है।  मेरे संस्कार हैं।  उसकी आंतरिक स्वीकृति बिलकुल नहीं थी लेकिन मेरी ख़ुशी के लिए उसने अपना बलिदान कर दिया।  मेरी आंखें अंधी हो गयीं थीं - मैं सत्य नहीं देख पा रहा था।   कारण था मेरा सदैव आर्थिक कठिनाइयों से गुजरता कदम-कदम पर पैसे के महत्व को अनुभव करना।  और मुझे जैसे विश्वास हो चला था की घर संपन्न है, लड़की सुखी रहेगी ही।  लेकिन सब ढह गया"। 

"क्या हुआ?" मैं उद्विगन हो उठा। 

"प्रभा वहां ६ महीने भी नहीं रह सकी।  वहां धन था, अहंकार था, लेकिन मानवता नहीं थी।  प्रभा ने जिन जीवन मूल्यों को अपने अंतर में सजोंया था, उस जीवन मूल्यों की वहां  कौड़ी के मोल पर भी पूछ नहीं थी..."

मास्टर साहब का चेहरा एक भयावह विषाद से काला पड़ गया।  उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हाला।  "प्रभा यहाँ एक हायर सेकेंडरी स्कूल में टीचर है।  बहुत कोशिश करती है सहज रहने की. पर उसका मौन, उसका गंभीर, उदास चेहरा मेरे हृदय में जिस तूफान को ललकारता है, वह मेरे धैर्य को तोड़ देता है।  जानते हो, रवि. सुबह जब वह मुझे चाय देने आती है और कहती है, "पापा, चाय". तब मुझे लगता है की वह कह रही है, "पापा, पापा. यू आर  क्रिमिनल।  पापा, यू आर अ क्रिमिनल।   पापा, यू आर ..." कहते कहते मास्टर साहब फफक फफक के रो पड़े। 

मैंने मास्टर साहब को सम्हाला।  शब्द मेरे पास भी नहीं थे किसी सांत्वना या ढाढस के।  उनके आसुओं को पोंछा, पीठ को सहलाया  - फिर धीरे से बिस्तर पर लिटा दिया। 

सहसा मैं उठ खड़ा हुआ।  मास्टर साहब आँखें मूंदे हुए थे।  मैंने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया और कमरे से बाहर  हो गया।  सीढ़ियां उतर कर लॉन में आया तो प्रभा खड़ी मिली।  आँख मिलाने का साहस नहीं हुआ।  एक झटके से नमस्कार कह कर गेट के बाहर हो गया।  गली में हलकी सी रौशनी थी।  सड़क पर पहुँचने के पहले एक लड़के , शायद अजनबी ने पूछा, "बाबू जी , यह रास्ता किधर जाता है?" मन ही मन मुझे लगा, सवाल है, "यह समाज किधर जाता है?" लड़के ने फिर दुहराया, " बाबू जी, ये रास्ता किधर जाता है?" 

"पता नहीं"।  मैंने एक झटके से आवाज दी और मेरी झुंझुलाहट और बढ़ गयी। 


19 -

दोनों

[ जन्म: 10 फ़रवरी , 1935 - निधन : 5 नवम्बर 2013 ]

परमानंद श्रीवास्तव

बड़ी ने चाय का प्याल्रा छोटी के सामने रख दिया। छोटी को लगा, उससे कुछ गलती हो गयी है...उससे यह न हुआ कि खुद किचैन तक जाती और अपने लिए चाय का प्याला बनाकर ले आती... जबकि और कोई तो इस वक्‍त चाय पीता नहीं। गलती पहली बार नहीं हुई थी और पछतावा भी पहली बार नहीं हो रहा था। माना कि इम्तहान के दिन हैं और कल भी पेपर है ही, पर यह भी तो कुछ ठीक नहीं कि सारा बोझ अकेले बड़ी पर ही पड़े। उसने बड़ीकी ओर सहानुभूति से देखा, जो खिड़की की ओर रुख किये चुप खड़ी थी।

आंखों के नीचे की लकीरें कुछ और गहरी हो गयी थीं। आंखें उसी अनुपात में छोटी लगने लगी थीं-माथा पहले की अपेक्षा ढीला और शायद चौड़ा दिखाई देने लगा था-रंग पहले ही दबा हुआ था, अब उस पर एक गहरी उदासी की पर्त जमा हो गयी थी। मां के न होने के बाद यह सब तेजी से घटित हुआ। बड़ी की उम्र डयोढ़ी लगने लगी और उसके पूरे चेहरे पर एक मां सरीखा चेहरा उभर आया।

घर की हालत यों ही सी थी। पिता रिटायर हो चुके थे और कमरे में पड़े रहते थे। जब तक मां थी वे अपने दफ्तर की दुनिया में डूबे हुए थे-घर से दफ्तर। यही उनकी जिंदगी थी-दफ्तर के चलते वे जगह-जगह भटकते भी रहे पर यह उनके लिए शगल ही था-उनमें हमेशा एक चुराई भरी चुस्ती बनी हुई थी।

वे बहुतों के भाग्य-विधाता थे इसलिए अपने भाग्य को अलग से पढ़ने का अवसर ही न था। फिर वे तेजी के साथ बुढ़ापे की ओर बढ़े और आज जिस कोठरीनुमा कमरे में लगभग पस्त पड़े थे, उसकी ओर देखना मुश्किल हो रहा था।

कुछ चेहरे ऐसे होते हैं (या हो जातेहैं), जिन्हें आप देख नहीं पाते। जिन्हें सह पाना मुश्किल हो जाता है। एक वीरान बूढ़ा चेहरा, एक भयानक रूप से अशक्त, असहाय लगने वाला चेहरा, एक हास्यास्पद रूप से भावहीन चेहरा। घर के दोनों लड़के बरसों से बाहर अलग-अलग शहरों में नौकरी पर थे-दोनों बैंक में लगे हुए-ठाठ का रहना-चुस्त फैशनपरस्त बीबियाँ-जमाने की हवा-मकान-फ्रिज, स्कूटर, टी.वी. यानी सब कुछ। उनमें एक, बड़ा दो बच्चों का पिता था-बच्चे कान्वेंट में पढ़ रहे थे-साफ-सुथरे, चमक से भरे, गर्दगुबार से परे। हफ्ते में, कोई खास अड़चन न हो तो एक फिल्म जरूर देख ली जाती। दूसरे महीने में एक नया एल.पी. भी आ जाता था।(हालांकि दाम बढ़ने लगे थे चीजों के इन दिनों) बड़े का खास शौक था तेज संगीत। तेजी जिंदगी में जो थी-फटाफट प्रमोशन मिल गये थे।

छोटा कुछ ज्यादा ही सलीके से रहता। उसके रहने के ढंग में एक महीन किस्म की व्यावहारिक थी, जो सीमित गृहस्थी के गणित को हमेशा ठीक रखती। जिंदगी की चमक को भी। अभी संतान न थी और इस बारे में पति-पत्नी दोनों अतिरिक्त सोचते थे। कभी धोखा भी हो गया तो उन्होंने उसका इंतजाम करा लिया। फिर क्‍या! सब कुछ ठीक दुरुस्त। संतान न होने तक जो चमक बनी रहती हैउस पर पत्नी का भरोसा कुछ ज्यादा ही था। यात्रा-पिकनिक परवे जाते ही रहते। पर अपने को पूरी तरह सहेजकर, बचाकर। कभी-कभी उन्हें साथ चलते देखकर कॉलेज के लड़की-लड़के जैसा एहसास जगता।

बड़े और छोटे-दोनों का अब घर से इतना ही संबंध बचा रह गया था कि कभी दूसरे-तीसरे महीने बड़ी या छोटी का खत आया तो पिता का हालचाल मिल गया। इस हालचाल में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी थी। दोनों को ताज्जुब था कि पिता बेवजह घिसट क्‍यों रहे हैं... आदमी को तो इस हालत में जल्द-से-जल्द दुनिया से विदा हो जाना चाहिए-जैसे यह आदमी के लिए इतना आसान हो।

बहनों के बारे में तो वे जैसे भूल ही गये थे कि उन्हें इस घर से जाना भी हो सकता है और इस जाने में उनकी कोई भूमिका भी हो सकती है। छोटी के बारे में वह यही सोचकर निश्चिंत थे कि वह फिलहाल पढ़ ही रही थी और इस तरह बहुत छोटी जान पड़ती थी-समस्या रहित। बड़ी के बारे में सोचते हुए उन्हें लगता था-खुद ही जिम्मेदार है, पढ़ा भी चुकी है, उल्टा-सीधा सब समझती है, जो भी फैसला करेगी, ठीक ही करेगी। जैसे फैसला उसी को करना था। अगर उसी को करना था तो बेशक वह कर भी चुकी थी।

वह पिता के इस हवेलीनुमा घर की दुनिया में व्याप्त धूल और जालों में पूरी तरह डूबी हुई थी। एक ठहरी हुई जिंदगी में चीजें होती ही कितनी हैं! पर बड़ी को उनके बीच फुर्सत ही न थी। चावल बिन रही है तो चावल ही बिन रही है। कपड़े धुले जा रहे हैं तो बस कपड़े धुले जा रहे हैं। वही-वही काम थे और उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहना था। ऊब और सन्‍नाटे की मिली-जुली परछाई बड़ी की व्यस्तता के ऊपर मंडराती रहती। ऐसे घरों के कुछ अपने खास दुख होते हैं और अपने ही ढंग के अभाव भी-पर उनके बारे में अक्सर कोई जिक्र नहीं होता। सारे दुःख चुपचाप जी लिये जाते। सभी तरह के अभाव स्मृतियों में भर जाते हैं....पिता को पेंशन के पैसे मिलते थे, यह एक नियम था।

बाहर से वे दोनों भी कभी-कभार कुछ भेज सकते थे, पर वह कोई नियम न था।

छोटी को पता नहीं चला, वह चाय पीते, न पीते, क्या कुछ सोच गयी। अब उसने सिर उठाकर खिड़की की तरफ देखा-बड़ी जा चुकी थी। उसका मन सहानुभूति से दुखने लगा-जी हुआ कि उस खाली जगह को अपने में भरे जो बड़ी के कमरे में जाने के बाद खाली हुई थी। छोटी ने अंदर जाकर चाय का प्याला धोया और उसे ठीक अपनी जगह पर रखकर किताबों के बीच वापस आ गयी। बड़ी अब अंगीठी सुलगा रही थी-इसका मतलब चाय उसी बिगड़े हुए स्टोव पर ही बन गयी-अभी बड़ी जलते-जलते बची थी उस दिन। जब तक वह चीख सुनकर पहुंची खतरा टल गया था और धुआँ ही धुआँ हवा में टँगा रह गया था। माँ रही होंगी उस जनम में तभी तो इतना ख्याल रख पाती है। माँ की याद छोटी को अक्सर आती है।

अक्सर उसे लगता है वह माँ के सिरहाने खड़ी है। माँ का चेहरा कभी बल्ब की तरह तेज चमकता है फिर यकायक फ्यूज़ हो जाता है। शाम होते ही अक्सर माँ का चेहरा छोटी के ज़ेहन में उतर आता है। ऐसे ही शाम थी वह, जब छोटी को कुछ पता न चला-कब पिताजी कमरे से निकले और दालान में गिर गये। दोनों दौड़कर उठाना चाहती थीं, पर एक शिथिल भारी शरीर संम्हाले में नहीं आ रहा था। छोटी ने घबराकर पड़ोस में किसी को आवाज दी-फिर कई लोग आ गये। पिता हिदायतों के साथ कमरे में लिटा दिये गये। शरीर तप रहा था। बड़ी ने उनका माथा छुआ। “इन्हें आराम करने दीजिए। ” कहकर पड़ोसी चले गये। किसी को यह न सूझा कि इन्हें डाक्टर की जरूरत भी हो सकती है। जरूरत थी भी नहीं। धीरे-धीरे हालत सुधर गयी। दोनों ने अनथक सेवा की। पिता बच गये। कुछ चीजें बिना कहे किये भी ठीक हो जाती हैं। पिता भी ठीक हो गये थे पर वहीं अपंग, पस्त पड़े रहने के लिए। व्यक्तित्व के नाम पर वही चेहरा शेष रह गया था, जिसे सह पाना कठिन होता है।

छोटी का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था। बेचैनी-सी हो रही थी। पेपर देना है-दे देंगे। देकर ही क्या होगा। कुछ फर्क पड़ जायेगा! इस पढ़ाई से कुछ निकलने वाला है। सबके सब रास्ते तो बंद हैं जैसे। वह भी धीरे-धीरे बड़ी का ही रास्ता पकड़ लेगी-उसी के मानिंद सूख जायेगी-हो सकता है पढ़ाने लग जाये। इससे तो उम्र का खिसकना और तेजी पकड़ता है। पहले वह भ्रम में थी। सोचती स्कूल की मास्टरनी सुखी जीव होती है--तबीयत की आजाद, सुविधा, सम्पन्न, चाहतों से भरी, रख-रखाव में अनोखी और दुरुस्त। पर जब बड़ी ने दो साल उस जिंदगी की रगड़ खा ली तो यह ग़लतफ़हमी दूर हो गयी।

बड़ी पढ़ाने निकलती थी तो कुछ उम्मीदें बंधती थीं, पढ़ाकर लौटती थी तो थकी चाल और बुझा चेहरा देखकर सारी उम्मीदें खत्म हो जाती थीं।

छोटी को सोचने की आदत पड़ गयी थी। सोचने का रोग लग गया था। जैसे किताबें खुली हैं, सोचना नहीं रुकता था। कोई सामने बैठा हो, अपनी सनक में बतियाता जा रहा हो, छोटी के दिमाग में सोचने का सिलसिला बना रहता था। सोचती वह सबके बारे में।

उन दोनों के बारे में भी जो शहरों में अपने-अपने काम के बहाने बस गए थे और भूल गये थे कि उनका अतीत भी इस भुतहे मकान के पुराने-धुराने कपड़ों में जैसे तह करके रखा हुआ था। उस दिन सफाई करते हुए क्या-क्या चीजें निकली थीं भला-दोनों कपड़ों के जूते-सचमुच कपड़े के। जो उनके नन्हें-नन्हें पांचों के लिए मां ने कभी सिले होंगे। मखमल पर जरी के काम के कुरते-टोपियां। किसी एक की कुंडली भी उन्हीं कपड़ों में निकल आयी थी-पर उन्हें अब अतीत से कोई मतलब न था। नौकरियां उनके लिए घर से बचने का बहाना थीं मानो। होली दशहरे पर वे आते भी तो अपने-अपने कमरों में बंद। अपने-अपने परिवार में लीन। छोटे को अकेले पत्नी ही उलझाये रखने के लिए काफी थी। कितना समय निकल आया।

छोटे की पढ़ाई जब तक चल रही थी, इन्हीं बहनों के बीच हमेशा बना रहता था। हर काम में हाथ बँटाता। भविष्य के सपने देता। पर कहाँ! अब तो वह बड़े से भी ज्यादा बेलगाव उदासीन दिखता।

छोटी ने देखा, बड़ी अंगीठी पर रोटियाँ सेंक रही है। सिक नहीं रही हैं रोटियाँ-इस परेशानी की आहट कभी-कभी उस तक पहुँचती है। बय आहट-कोई शिकायत नहीं। छोटी को लगा जिंदगी में कुछ करना होगा, वरना वह भी सूख जायेगी। ढूँठ हो जायेगी बड़ी की तरह। सब थिर हो गये हैं, जम गये हैं, दुनिया से लगकर या दुनिया से अलग होकर। वह बहुत इंतजार नहीं करेगी-कुछ करेगी। इतनी जल्दी करेगी कि वे देखते रह जायेंगे। वे दोनों-जो उन शहरों में जाकर बैठे हैं। अपनी-अपनी सफलताओं पर भरमे हुए-बेखबर।

वह खबर होकर रहेगी उनके लिए...वह चुपचाप खत्म नहीं होगी। छोटी के दिमाग में कुछ मथने लगा। कुछ करेगी वह जरूर। पर क्‍या करेगी आखिर! भाग लेगी घर से। चुपचाप। किसी अजनबी का हाथ पकड़कर एक ओर हो लेगी। धमाका तो तभी होगा। कुछ अनैतिक करने के लिए एक प्रलोभन उसे व्यग्र बना रहा था। वह सुलग रही थी।

वह उन लड़कों के चेहरे याद करने लगी, जो उसमें वक्त-बेवक्त दिलचस्पी दिखाते रहते थे। उनमें एक तो वह पत्रकार था मलिक। बात-बात पर लड़कियों के इंटरव्यू लेता फिरता। दूसरा एम.आर. नक्शेवाला....अपने को काफ़ी खूबसूरत समझता था जो, तीसरा पोलिटिकल था....तीसरी दुनिया के नीचे की बात न करता। उसकी तो दिलचस्पी उनमें थी जो कुछ ज्यादा उमर वाले थे...एक वह बीमा कंपनी वाला...दूसरा....खैर बहुतेरे थे...।

वह सबके विस्तार में नहीं जाना चाहती थी। वह जल्दी चुनना चाहती थी। जल्दी तोड़ना चाहती थी इस भ्रम को कि वे दोनों उम्र भर इन्हीं दीवारों में खपती चली जायेंगी। “बताऊंगी तुम्हें एक दिन” ....उसके भीतर डायलॉग फूट रहा था। वह बड़ी की तरह प्रेम-वेम का चक्कर नहीं चलाना चाहती थी। वह जानती थी कि प्रेम किसी बदहवासी में शुरू और किन बेवकूफियों में खत्म होता है। वह सीधे करना चाहती थी। वह अपने तरीके से सब तहस-नहस करना चाहती थी। सुखी जीवन को लेकर कोई वहम उसमें नहीं था। इस स्वार्थी दुनिया को बस वह बताना चाहती थी : मैं होश में हूँ-मैं खत्म नहीं हो गयी हूँ।

अगले दिन वह इम्तहान के लिए निकली तो जल्दी में न थी। लगभग गुनगुनाती हुई बस स्टॉप पर जा खड़ी हुई। हवा जरूरत से ज्यादा तेज चल रही थी। मौसम हर तरह से खुशनुमा लग रहा था। आसपास वाले सबके सब जैसे उसी को ओर देख रहे थे। उसे लगा कि सामने की कतार वाला लड़का उसे 'हलो ” कह रहा था-सीटी मारने जैसे अंदाज में वह कुछ कह तो जरूर ही रहा था। उसने बस उसी अंदाज में “हलो ” कर दिया। इशारा उतना ही उत्तेजक जितना ही बेफिक्री लिए हुए था। लगा कि पहली बार जो भी मिलेगा वह उस पर झपटकर ही चैन लेगी। बहुत देर नहीं हुई है, जैसे वह अपने से ही कहना चाहती थी। वह जैसे नींद की दुनिया में थी और उड़ रही थी।

तभी अचानक बस आ गयी। सभी उधर ही लपके। वह भी अचानक हताश बस में दाखिल हुई और कोने वाली परिचित जगह में जाकर जम गयी। वह किसी से आंख नहीं मिला पा रही थी। उसकी आँखों के आगे किताब का वह पन्‍ना खुल था, जिसमें इम्तहान के मतलब के नक्शे और चार्ट बने थे। वह उसी में सिर झुकाये अपनी दुनिया की थाह ले रही थी। वह कुछ नहीं कर सकेगी शायद।

वही करेगी, जो कर रही है, वे दोनों इस घर को किसके सहारे छोड़ेंगी-पिता का क्या होगा। वही-वही चेहरे उसके सामने उभरने लगे थे।

इधर की ओर वे दोनों तो अब शायद रुख भी न करें। कितने महीने निकल गये। कोई खबर है! हो सकता है, दोनों अपना-अपना तबादला और दूर जगहों पर करा लें-दूर ही दूर होते चले जायें। छोटे ने पिछली बार कहा भी था कि वह कुछ दिनों के लिए “बाहर” जाना चाहता है। “बाहर” से खास मतलब था उसका ।” अगर बैंक वालों ने भेज दिया तो ठीक है, नहीं तो हम लोग ही कुछ करेंगे ।” उसकी पत्नी इस बात पर किलक रही थी, “हाय बाहर! कितना अच्छा होगा सब कुछ! यहाँ तो भई तंग आ गये। वही-वही शहर देखकर। हमारे दद्दा तो एक बार स्टेट्स गये तो फिर लौटे ही नहीं।” “क्यों लौटेंगे”-बड़ा समर्थन कर रहा था, “हिन्दुस्तान में रखा ही क्‍या है। पूरी उम्र खपा दो। एक शानदार जिंदगी गैर-मुमकिन ही बनी रहेगी।”

छोटी बस में चलते-चलते उनकी शानदार जिंदगी का धक्का महसूस कर रही थी। उसे लगा कि वह बस में नहीं है, उस कोठरी में पड़ी है, जिसमें पिता पड़े हैं-अपंग, पस्त, उसी घर में दफन हैं, जिसमें बड़ी रोटियाँ सेंक रही है-बिना जाने हुए कि क्‍यों?


20 -

इतिहास-बोध 

[ जन्म : 1935 - निधन :अप्रैल , 2002 ]

विश्वजीत

यह पीपल का दरख्त हमारे कोने के पश्चिमी मेड़ पर स्वयं उग आया था । ऐसा नहीं कि किसी ने इस पौधे को लगाया हो । हम लोगों ने सिर्फ इतना ही किया कि खेत बोने के पूर्व जैसे सभी खर-पतवार उखाड़कर फेंक देते हैं, इस पौधे को नष्ट नहीं किया । वैसे भी यह बिल्कुल मेड़ से सटा हुआ था । धीरे-धीरे यह पौध भी घर के और बच्चों की तरह जवान हुआ । इसकी छाया फैलती गयी । इसकी जड़ें जमीन से अपनी खूराक वसूलतीं । पैदावार पर काफी प्रभाव पड़ा किंतु उसकी छाया से हमें मोह हो गया, अपने बच्चे ही जैसा । गर्मी के दिनों में दुपहरी इसी की छाया में बैठकर कटती । जाड़ें की रात में अलाव यहीं जलता ।

शाम होते ही हजारों कौए तोते न जाने कहाँ-कहाँ से उड़कर आते, पेड़ की फुनगियाँ और पत्ते इनसे लद जाते । और भी न जाने कितने छोटे-छोटे पक्षी यहाँ पहुँचकर खो जाते । एक अजीब शोर के साथ रात यहाँ उतर आती । गर्मी की रातों में हमारे घरेलू पशु भी इस दरख्त के नीचे बाँधे जाते । दिन में भी । सबेरे और शाम जब सफाई होती तो गोबर के साथ ही सूखे पत्तों का ढेर भी इकट्ठा हो जाता, जो रोज घूरे में खाद के लिए संचित किया जाता । जाड़ों में इन सूखे पत्तों को इसी पेड़ के नीचे अलाव में जलाते, और देर रात तक पूरा परिवार यहीं बैठकर अगली योजनाओं पर बहस करता। गुजरी बातों पर टिप्पणी करते । यह पेड़ से अध्कि हमारे परिवार का साथी था।

यह एक दैवी वृक्ष है, इसका बोध कराया छगनमल ने । रोज सबेरे स्नान करने के बाद एक लोटा जल भक्ति-भाव से इस वृक्ष की जड़ पर गिरा देता । इस देववृक्ष की परिक्रमा करता । माथा टेकता-‘हे वासुदेव ! रक्षा करो वासुदेव....’ वासुदेव का मंत्र जपता । हम अज्ञानी मूढ़ उसके भक्ति-भाव के प्रति श्रद्धावनत होते। पंडित महादेव, जो उन दिनों गाँव के पुरोहित थे, छगनमल का यशोगान करते-‘कितना ईश्वर भक्त है ! सच्चा हिंदू है । हिंदू धर्म इन्हीं लोगों पर टिका है । जहाँ धर्म होता है वहीं लक्ष्मी वास करती है ।’ छगनमल हर पूर्णिमा के दिन इस वृक्ष के नीचे पंडितजी से सत्यनारायण व्रत कथा माहात्म्य का पाठ कराता । पंडित जी दक्षिणा और भोजन के बाद छगनमल का यशोगान करते हुए विदा होते ।

देखा-देखी हमारे परिवार की महिलाएँ भी वासुदेव को जल चढ़ाने लगीं । पहले यहाँ एक स्वच्छन्दता थी, उसमें कुछ कमी आ गयी । परिवार के बड़ों का तो सवाल ही नहीं उठता, अगर कहीं भूल से छोटे बच्चे भी इस वृक्ष की छाया में कहीं मल-मूत्र विर्सजन करते तो पाप का डर तथा अनिष्ट की आशंका से मन काँप जाता। पशुओं की बात अलग है । वे अभी भी इसी पेड़ की छाया में बाँधे जाते । उनके मल-मूत्र विसर्जन पर रोक नहीं लगायी जा सकती थी और वह अपतित्र भी नहीं होता। गाय के गोबर का माहात्म्य जितना विस्तार से महादेव पंडित सुनाते थे, उतना क्या कोई सुनायेगा।

एकदिन महादेव पंडित ने ही प्रस्ताव रखा कि इस पीपल के वृक्ष की जड़ के चारो ओर मिट्टी डालकर भगवान वासुदेव का स्थान बना दिया जाये । महादेव पंडित अकेले नहीं आये थे, उनके साथ छगनमल के अलावा भी गाँव के दो-चार बड़े बूढ़े थे । सभी एकमत थे । भला हमारा परिवार एक धर्मिक कार्य में बाध क्यों बनता । लगता था, सभी कुछ पहले ही तय हो गया था । इन लोगों ने राजा साहब के कारिंदे ठाकुर रामकृपाल सिंह से भी बात पक्की कर ली थी । सारा खर्च उठाने को छगनमल तैयार बैठा था । गाँव की दो बैलगाड़ियाँ, चार मजदूर अगले दिन ही काम पर लग गये। एक सप्ताह भी नहीं लगा । देव स्थान, एक पक्का चबूतरा बनकर तैयार । धर्म के प्रति आज की तरह लोग निरूत्साही नहीं थे । सब कुछ बन जाने पर अगली पूर्णिमा को बहुत धूम-धाम से पूजा-कीर्तन हुआ । महादेव पंडित को उस दिन पीली धोती मिली थी । बड़ा जलसा रहा । उसी दिन से वासुदेव भगवान छगनमल की व्यक्तिगत संपत्ति बन गये थे, इसका अहसास बहुत धीरे-धीरे हुआ । 

आप शायद छगनमल को नहीं जानते । आप में से बहुत लोग तो यह भी नहीं जानते होगें कि आज से चालीस साल पहले यहाँ अंग्रेजों का राज था और यह गाँव पडरौना रियासत का एक गाँव था । इस पीपल के सामने से पश्चिम को जो सड़क गयी है, वह राजा साहब की एक बहुत बड़ी छावनी पर पहुँचकर ठहर जाती थी । बीस-पच्चीस बैल-गाय-भैंस, बहुत सारे नौकर, सिपाही, अमीन और रामकृपाल सिंह इस इलाके के मालिक सभी लोग वहीं रहते थे, बराबर वहाँ दरबार जैसा जश्न रहता। इलाके की गरीब जवान औरतों की ससुराल समझिए । पता नहीं ईश्वर की कृपा किस पर कब हो जाये और किस पर वह रूष्ट हो जाये । सब उसी की महिमा है। फॉर्म पर एक बहुत बड़ा ट्रैक्टर था । आज के ट्रैक्टरों जैसा नहीं, बिलकुल अलग किस्म का। दोनों पहियों में जमीन खोदने के लिए छोटी-छोटी कुल्हाड़ियों के सैकड़ों फाल लगे हुए थे । जिधर से ट्रैक्टर गुजर जाये, जमीन खुद जाती थी । खच-खच-खच..... बड़ा शोर होता था । जब पडरौना स्टेट से पहली बार ट्रैक्टर इस फॉर्म पर आया था, आसपास के गाँव से कई दिनों तक लोग यहाँ सिर्फ ट्रैक्टर देखने आते रहे । छगनमल भी उसी साल इस गाँव में आया था । 

कुछ दिनों तक छगनमल छावनी में ही रहा। हर रविवार और वृहस्पतिवार को यहाँ बाजार में कुछ कपड़े लेकर बेचने बैठता था। उन दिनों अधिकतर ब्रिक्री मारकीन, डोरिया और छींट की होती थी। किनारीदार मरदानी या किनारीदार साड़ियाँ भी बिकती थीं लेकिन बहुत कम। पंजी, छींट की साड़ी, जांघिया, पाजामा, यह सब तो बाद की बातें हैं। आज तो यह सब भी बहुत पुराना लगता है। पैंटबुशर्ट और पता नहीं क्या-क्या, मैं तो नाम तक नहीं जानता।

धीरे-धीरे बाजार में छगनमल की बिक्री सबसे अधिक होने लगी । इसका एक प्रमुख कारण यह था कि वह उधार कपड़े दे देता था । सूद-ब्याज के साथ रूपये वसूलने में उसे कोई परेशानी नहीं होती । रामकृपाल सिंह के सिपाही जैसे मालगुजारी वसूलते, उतनी ही सख्ती से छगनमल का कर्जा भी वसूलते । 

उन दिनों हमारा परिवार गाँव के और लोगों की तुलना में कुछ बेहतर  आर्थिक स्थिति में था । खानेभर को अनाज किसी तरह मर-खपकर हमारे यहां पैदा होता था। दस भैंसें, बीस गायें और चार बैलों का पशुधन कुछ माने रखता था । गायें तो अकसर नदी पार जंगल में चली जातीं, सिर्फ चार महीने बरसात के गाँव में काटने होते । फिर भी कुछ दुधारू गायें और भैंसें बराबर घर पर रहतीं । इस तरह खाने को दूध-दही खूब मिलता था । ठाकुर रामकृपाल सिंह के यहाँ भी नियमित रूप से एक बाल्टी दूध पहुँचाया जाता । वे भी हमारे परिवार से प्रसन्न रहते थे । हारी-बेगारी के लिए हमारे परिवार ने कभी मना नहीं किया । छगनमल ने भी अपना उधर वसूलने के लिए कभी हमारे घर पर सिपाही नहीं भेजा । पिताजी से बहुत आदर से बात करता था । हमारे चाचाजी बहुत सीधे थे । उनकी शादी नहीं हुई थी । पशुओं की देखभाल वे ही करते थे।

फागुन का महीना शुरू ही हुआ था । जाड़ा उतार पर था । फिर भी शाम-सवेरे अभी ठंड थी । अभी भी इस पीपल वृक्ष के नीचे शाम को अलाव जलता था । पीरवार के लोग तथा कुछ गाँव के लोग यहीं बैठते थे । उस रात भी हमलोग यहीं बैठे थे । रात का खाना अभी पक रहा था । उसी समय छगनमल आया था । रामकृपाल सिंह का एक सिपाही उसे यहाँ पहुँचाने आया था । सभी को आश्चर्य हुआ । अलाव के पास बैठते हुए सिपाही से कहा-‘भाई, तुम जाओ । अब तो रातभर यहीं रहूँगा ।’ उसकी बड़ी खातिरदारी हुई । खाना तो उसने नहीं खाया कि उस दिन एकादशी व्रत था । हाँ, एक लोटा गर्म दूध पीकर पिताजी से अपने परिवार की बातें करता रहा । और फिर दूसरे दिन से छगनमल यहीं रहने लगा । पीपल वृक्ष के उत्तर की ओर कुछ खाली जमीन थी, वहीं पर उसके लिए एक छप्पर डालकर शानदार बंगलानुमा घर बना । उसी में उसकी खाट, एक तख्त तथा कुछ जरूरी सामान पड़ा रहता था । उसका सारा माल अभी तक छावनी में ही रखा जाता था । वहाँ सुरक्षा थी । रात का भोजन यहीं बनता। सवेरे भी यहीं पर भोजन बनता । छावनी पर सबसे अध्कि कष्ट उसे भोजन का था। ठाकुर रामकृपाल सिंह बिना मांस-मछली के एक जून भी भोजन नहीं करते और छगनमल पूर्ण रूप से शाकाहारी था । लहसुन-प्याज तक नहीं छूता था । भगवान का पक्का भक्त । अपनी व्यवस्था अलग करके वह तृप्त था । रोज सवेरे का एक नियम, जो वासुदेव भगवान को जल चढ़ाने का था, वह भी यहीं संभव था । सवेरे उठने के साथ ही उसका जप शुरू हो जाता-‘हे वासुदेव ! जय वासुदेव ! ओम् वासुदेव.....।’

छगनमल जब इस बंगले में रहने लगा तो पिताजी से घंटो बातें करता था अपने परिवार के बारे में भी । वह यहाँ से दूर का रहनेवाला था । उसकी पत्नी यहाँ आने के चार साल पहले स्वर्ग सिधार गयी थी । उसके दो बेटे और दो बेटियाँ थीं । बेटियों की शादी उसने वहीं अपने शहर में कर दी । उन दिनों अपने दोनों बेटों और बहुओं के साथ पडरौना मारवाड़ी धर्मशाला में रुका था । वहाँ उसके शहर के बहुत सारे दूर के संबंधी थे । दोनों बेटे वहीं छोटा-मोटा धंधा करते थे । वहीं राजा साहब के दरबार में ठाकुर रामकृपाल सिंह की कृपा पाकर यहाँ चला आया । अब इतने दिन इधर रह लेने के बाद इस जगह से मोह हो गया था । अब उसका मन ही नहीं करता था कि वह कहीं और जाये । पिताजी जब उसे समझाते कि-‘वह अपने बेटे, बहुओं को भी यहीं लाये । खाने-पीने की सुविधा रहेगी । अकेले चूल्हा फूँकना अच्छा नहीं लगता।’ तो वह बहुत ही उदासभरी गहरी साँस लेता-‘रहने को जगह हो जाये-फिर देखा जायेगा।’

धीरे-धीरे आगे-पीछे दो बंगले, और बन गये । बीच में आँगन जैसा ।  हमारा खेत छोटा होता गया । उसका घर बढ़ता गया । उसके दोनों लड़के अपनी बहुओं के साथ आ गये थे । जब वे आपस में बातचीत करते तो हमलोग बिलकुल भकुआ जैसे उनका मुँह ताकते रह जाते । वे हमारी बातें समझ लेते थे किंतु हम लोग अपढ़, निरक्षर उनकी भाषा क्या समझते ? अंग्रेजी जैसी भाषा। 

उस वर्ष जेठ में मल मास जुड़ गया था, नहीं तो आषाढ़ होता । छोटी बहन की शादी तय हो गयी थी । आखिरी लगन थी । छगनमल का बंगला अब एक स्थायी दुकान में बदल चुका था । दिनभर कुछ लोग वहाँ रहते ही । छगनमल दुकान पर बैठता। आसपास के बाजारों में दुकान ले जाने का काम अब लड़के करने लगे थे । कभी-कभी पिताजी भी उसके यहाँ से कपड़े उधार लेते थे । बहन की शादी में कपड़े उसी की दुकान से लेने थे । यह पहले ही तय ही हो चुका था । उसने कहा था-‘हमें बस बता दो, क्या-क्या चाहिए ।’ कई दिनों के विचार-विमर्श के बाद कपड़ों की फेहरिश्त बनी थी। बड़े भैया का बेटा जगन्नाथ दर्जा चार में पढ़ता था । पिताजी बोलते गये, वह लिखता गया । फिर वह बोलता रहा और पिताजी सुनते रहे । जब पिताजी ने सेठ को फेहरिश्त दी तो वह देर तक मुस्कराता रहा । उसने तुरंत एक पुर्जा बनाया, बही खोलकर बड़ी देर तक कागज पर कुछ लिखता, जोड़ता रहा । कुल हिसाब एक कागज पर लिखकर उसने पिताजी की ओर बढ़ा दिया । पिताजी ने पूछा-‘इसमें क्या लिखा है ?’ तो उसने पिताजी से कागज लेकर पढ़ना शुरू किया । जितना कपड़ा तब तक उसकी दुकान से लिया गया था, उसका एक-एक पाई का ब्यौरा । पूरे एक सौ रूपये बकाया । पुराने हिसाब के थे । पिताजी को जैसे साँप सूँघ गया हो । लेकिन यह सब तो बही में दर्ज था । आदमी झूठा हो सकता है, खाताबही कभी झूठ नहीं बोलती । आदमी के बोल नहीं, जो उड़ जायें, अक्षर कभी नष्ट नहीं होते । भला गीता-रामायण, वेद-पुराण कभी गलत हो सकते हैं ? और खाताबही तो कदापि नहीं । 

बहन की शादी हुई । कपड़े उधार ही लिये गये किन्तु यह खेत नहीं रहा। वासुदेव भगवान बिक गये। 

आज तो बहुत सारे लोग कहते हैं कि छगनमल इस गाँव में सिर्फ पानी पीने के लिए एक पीतल का लोटा और कुँए से पानी निकालने के लिए एक पतली रस्सी लेकर आया था । अब उसी के बेटे-नाती करोड़पती हैं । यहाँ की आधी जमीन के मालिक हैं । आटा पीसने की चक्की, धनकुट्टी मशीन, आरा मशीन, तेल फैक्टरी, एक तरह से सारी संपत्ति उसी के परिवार की है । आज अगर महादेव पंडित जीवित होते तो शायद कहते कि ‘लक्ष्मी वर्षा द्विज सत्कार तथा भगवतभक्ति के कारण हुई है । सब पूर्वजन्म का कर्मफल है ।’ होगा भी तो कौन जाने । हमने तो बस इसी जन्म के कर्म देखे हैं ।

सौ रूपयों में आधा एकड़ खेत लेकर, छगनमल ने हमें ऋण-मुक्त किया। हम लोगों के हिसाब से यह ऋण ब्याज के साथ भी बीस रुपये से अधिक नहीं होनी चाहिए था । किंतु कहा न, झूठे हम हो सकते हैं, खाताबही नहीं । गरीब आदमी बेइमान होता है । संपन्न व्यक्ति क्यों झूठ बोलने लगे ? लिखा-पढ़ी ठाकुर रामकृपाल सिंह की कचहरी में हुई थी । उन्होंने इस जमीन की दोगुनी जमीन देने का वचन दिया था । उन दिनों सौ रूपये पिताजी के पास किसी तरह जुट पाये होते तो सचमुच इसकी दोगुनी क्या तिगुनी जमीन मिल गयी होती । जमीन बहुत सस्ती थी । धूसी-धूसी जमीन । चारों ओर फैली हुई परती । न सिंचाई की सुविधा, न जोत की, न खाद की । पैदावार बहुत कम होती थी । ईश्वर के भरोसे की खेती । कभी अतिवृष्टि-बाढ़ । कभी अनावृष्टि-सूखा-शकरकंदी और सुथनी की खेती से पेट भरता था । अन्न के नाम पर महुआ, टाँगुन, सांवां, कोदो । धन और गेहूँ बड़े लोगों का भोज्य था । एक लोकप्रचलित मुहावरा था - वाणी नदी, खैरा वन, कुर्मी राजा, महुआ अन्न । वाणी नदी सूख गयी । खैर वन कट गये पान खानेवालों के लिए ! राजा कुर्मी से ठाकुर हुए, फिर वे भी नहीं रहे । सांवां, टांगुन, दुर्लभ हो गया । कोदो-महुआ आज भी दिख जाता है तो मन ललचाता है । छगनमल ने उसी साल शिवराज भगत के खेत में पाँच लाख ईंटों का भट्ठा लगवाया था । शिवराज भगत का परिवार अब भी संपन्न माना जाता था । शिवराज भगत तो कभी के मर चुके थे, उनके नाती लक्ष्मी भगत घर के मालिक थे, किंतु अभी तक लक्ष्मी भगत का घर शिवराज भगत का घर, लक्ष्मी भगत की खेती शिवराज भगत की खेती के नाम से जानी जाती थी । शिवराज भगत मरकर भी जिंदा थे, लक्ष्मी भगत जिंदा रहते हुए भी मरे थे । जब भट्ठा लगना शुरू हुआ तो प्रचार था कि लक्ष्मी भगत और छगनमल दोनों की ही कोठियाँ बनेंगी । छगनमल रुपये खर्च रहे थे और लक्ष्मी भगत की मिट्टी थी, कच्चे माल के तौर पर और उनका आमों का बगीचा था ईंधन के लिए, किंतु जब ईंट पककर तैयार हुई तो लक्ष्मी भगत केवल हमारी ही तरह  ऋण-मुक्त हुए थे ।

गृह¬प्रवेश का दिन एक ऐतिहासिक दिन था । पडरौना से उसके रिश्तेदार पहली बार यहाँ आये थे । पचासों ब्राह्मणों को भोजन कराया गया था । पूरे गाँव में हर घर से एक व्यक्ति भोजन के लिए आमंत्रित था । ठाकुर रामकृपाल सिंह अपने पूरे दल-बल के साथ आमंत्रित थे । अब तो लगता था, वे भी छगनमल के नौकर हो गये हों । उनका प्रभाव हमलोगों पर तो नहीं किंतु छगनमल पर कम हो गया था । बाजार की जमीन पर धीरे-धीरे छगनमल का कब्जा हो गया था । पहले तो जहाँ वह कपड़े की दुकान लगाता था वहाँ एक कमरा बनवाया, फिर वहाँ से उत्तर की ओर सड़क तक बढ़ता गया। माँस बेचनेवालों को अपनी जगह छोड़कर सड़क के उत्तर की ओर दूर तक जाना पड़ा। हज्जामों की कतार और पूरब हट गयी । धन की बैलगाड़ियों की पांत सड़क के किनारे से हटकर कुछ और उत्तर हो गयी थी । बाद में छगनमल की एक बड़ी दुकान भी वहाँ बन गयी थी ।

गृहप्रवेश के दो ही दिनों बाद पिताजी का देहांत हुआ था और तेज आंधी में वासुदेव भगवान की एक डाल सुखकर गिर गयी थी । संयोग अच्छा था कि उस समय उस वृक्ष के नीचे कोई नहीं था । एक छोटा शिवालय जो किनारे बना था, भहरा गया। हमारे बड़े भाई पिताजी के मरने के बाद छगनमल के यहाँ सिपाही लग गये थे । पता नहीं इधर पिताजी को क्या हो गया था अक्सर उदास बैठे रहते थे । अम्मा से भी कम ही बात करते थे । किसी से मिलने-जुलने भी नहीं जाते थे । अगर कोई उनके पास मिलने आता भी तो उल्लसित नहीं दिखते थे । मशीन की तरह काम करते थे । सबेरे से लेकर दोपहर तक । फावड़ा अब नहीं चलाते थे । हल चलाकर लौटने पर बड़ी मुश्किल से आधा घंटा बेकार पड़ जाते फिर कुछ-न-कुछ करते ही रहते । नहीं कुछ हुआ तो रस्सी बटने बैठ जाते । मरने से कुछ दिनों पहले किसी बात पर उनकी छगनमल से कहा-सुनी भी हो गयी थी । पिताजी ने शायद गाली भी दी थी या कुछ कटु कह दिया होगा । छगनमल ने बुरा नहीं माना था । उसने कहा था-‘भगत जी ! पिताजी को वह हमेशा भगत जी कहता थाद्ध यदि आप हमें गाली देकर दस रूपये देते हो तो भी हमारे लिए लक्ष्मी के वरदान हो और अगर हमारी बहुत इज्जत करके हमारा पाँच रूपया ले जाते हो तो दरिद्र भगवान की तरह त्याज्य हो । हम व्यापारी हैं, अपराधी नहीं। सौ बार जिसे गरज होती है हमारे पास आता है, हम किसी के पास नहीं जाते । सरकार भी हमें मानती है ।’ पिताजी जब भी इन बातों को दोहराते तो खूब हँसते । पागलों की तरह । ’इन सालों की कोई इज्जत नहीं है। हम गरीब हैं तो क्या, इज्जतदार हैं ।’ फिर एकदम पिताजी की हँसी भी गायब हो गयी थी । अब सोचता हूँ तो लगता है कि वे उन्हीं दिनों मर रहे थे । मरना एक आकस्मिक घटना नहीं, एक लंबी प्रक्रिया है ।

गाँव में बच्चों के जन्म का सिलसिला शुरू होता है तो लगता है एक फसल की तरह तमाम पौधे एक साथ उग आये और मौत भी ऐसे ही आती है। बिलकुल पकी फसल के काटने जैसी । पिताजी के मरने के कुछ ही दिनों बाद महादेव पंडित भी मर गये । अम्मा भी दो महीनों के भीतर ही स्वर्ग सिधर गयीं। एक उदासी बहुत दिनों तक पूरे गाँव पर छायी रही । साल बीतते-बीतते छगनमल को भी लकवा मार गया था । अब वह अपने से चल-फिर भी नहीं सकता था। 

कुछ लोग कहते हैं यह उसके पाप का फल था । मैं ऐसा नहीं सोचता। यदि धन कमाना पाप होता, ईश्वर होता और पाप का दंड दे रहा होता तो अनुमान कीजिए कि इस देश में लकवा के रोगी कौन लोग होते । छगनमल को लकवा न भी मारता तो वह निष्क्रिय होने लगा था । अब उसके दोनों बेटों का राज था । 

लकवाग्रस्त होने के तीसरे साल छगनमल की मृत्यु हुई थी । उसके श्राद्ध का आयोजन, गृहप्रवेश से भी अधिक धूमधाम के साथ हुआ था । मृत्यु के बाद दोष कोई नहीं कहता । सभी उसके गुण गाते रहे । उसके जैसा पुण्यात्मा कोई नहीं रहा ।

बड़े भाई साहब जो उसके यहाँ सिपाही थे, उन्होंने ही बताया था कि छगनमल के दोनों बेटों में पारिवारिक संपत्ति बँट जायेगी । किंतु हम लोगों के घरों में बँटवारे के समय जो झगड़े होते हैं, वैसा कुछ नहीं हुआ । बँटवारे की पंचायत में इस गाँव का कोई भी आदमी नहीं बुलाया गया था । पडरौना से उसके दो रिश्तेदार आये थे । उन्हीं लोगों ने खाताबही देखकर सब कुछ बाँट दिया । कोठी के बँटवारे में दिक्कत आयी तो गोटी पड़ गयी । उत्तर की ओर बड़ा लड़का रघुपति सेठ और दक्षिण की ओर छोटा लड़का नरपति सेठ । वासुदेव भगवान की पूजा दोनों सेठानियाँ और उनके परिवार वाले करते थे । एकदिन जब उसकी दूसरी डाल भी सूखकर गिरी तो पता चला कि उनका बँटवारा भी हो चुका था । वे नरपति सेठ के हिस्से में थे । सूखी लकड़ी का मालिक वही था । 

दोनों लड़कों का व्यापार धीरे-धीरे और भी बढ़ गया । अब तो गोरखपुर में भी इनकी कोठियाँ है । बड़ी-बड़ी दुकानें हैं । डीजल इंजन, ट्रैक्टर, जीप सब बिकता है। इनके परिवार के बहुत सारे लोग वहीं रहते हैं । सौ एकड़ जमीन खरीदकर छगनमल मरा था । ये लड़के पता नहीं मरने से पूर्व कितनी मिलें बनवायेंगे । नरपति सेठ कहता था कि यदि रेलवे-सुविधा होती तो वह यहीं चीनी मिल खोलता । 

पिताजी कहते थे उनके बाबा जब यहाँ आये थे तो चारों ओर जंगल-जंगल थे। कुल चार घर बने थे । जहरीले साँप तो जगह-जगह दिखते थे । भेड़ियों का डर अलग से । शेर, चीते तो नहीं किंतु तेंदुआ कभी-कभी दिख जाता था। उन्हीं लोगों ने धीरे-धीरे यहाँ की जमीन आबाद की । भारत के सजायाफ्ता लोगों से जैसे कालानानी बस गया, वैसे ही खदेड़े हुए लोगों से यहाँ की जमीन आबाद हुई ।  पानी यहाँ का इतना कच्चा था कि पूछो नहीं । लोग कहते थे कि बिल्ली को भी यहाँ के पानी से घेंघा निकल आता था । पडरौना के बउक (मूर्ख) आज तक मशहूर हैं । अब तो बहुत कुछ बदल गया । धीरे-धीरे हमारा परिवार मजदूर बन गया । मेरे पिताजी मजदूर नहीं गरीब थे । उनके पास संपत्ति थी-जमीन, जानवर तथा भरापूरा परिवार था । जो उनकी मृत्यु के बाद ही बँट गया । एक घर से आठ घर बने । आठ एकड़ जमीन एक एकड़ की हो गयी । अस्सी मवेशी दस हो गये । सब कुछ टूटता गया । धीरे-धीरे न जमीन बची, न मवेशी । हम दिनभर दूसरों के लिए खटने लगे । रात को दिन की कमाई खाकर सो जाते रहे।

आजकल मेर बड़ा लड़का दीना, नरपति के बड़े लड़के के साथ दिन भर डोलता रहता है । कह रहा था कि नरपति सेठ का एक कारखाना खुलने जा रहा है, उसी में काम करेगा । वह भी शहर जायेगा । मेरे रोके से रुकेगा थोड़े ही । ऐसे ही मंझला लड़का, छोटा लड़का सभी भाग जायेंगे । बड़े भाई के सभी लड़के, एक को छोड़कर शहर चले गये थे । इसी गाँव से कितने पंजाब और बंगाल चले गये । सभी मजदूरी करते हैं । लौटते हैं तो हाथ में घड़ी, कंधे में लटका ट्रांजिस्टर, टेरीलीन की पेंट-शर्ट, भला इस गाँव में रहकर कोई कैसे यह सब पाता ? बड़े  लोगों के बेटे डॉक्टर-इंजीनियर बनकर देश छोड़ते हैं । हमारे बेटे रोटी की तलाश में अपना गाँव । कोई रोके तो । 

पीपल का वृक्ष अभी पूरी तरह सूखा नहीं, बूढ़ा हो गया है । जड़ में प्राण शेष हैं । लेकिन ठूँठ हो चुका है । ऊपर की सभी डालें सूखकर गिर चुकी हैं। अब वह छाया नहीं, जहाँ कोई थोड़ी देर घाम से अपने को बचा सके । पक्षी बहुत कम दिखते हैं, उतना शोर, चह-चह-चह-चह नहीं रहा । पता नहीं कब कौन-सी आंधी जड़ ही उखाड़ डाले । जब से यह प्रचार हुआ है कि जड़ के खोखले में एक बड़-सा काला नाग रहने लगा है, बच्चे वहाँ जाने से भी डरते हैं। रात को यहीं से उल्लुओं की डरावनी आवाज आती है । शायद अब वहीं रहने लगें हों । लक्ष्मी-वाहन जो ठहरे !

यह जानते हुए भी कि नाग एक जगह स्थायी रूप से नहीं रहता, लोग डरते हैं । अब वहाँ पर जल चढ़ाने भी लोग नहीं जाते । यह भी प्रचार है कि छगनमल ने एक काले नाग के रूप में अवतार लिया है और उस जड़ के नीचे जहाँ चौरा बना हुआ है, चाँदी और सोने के सिक्के गड़े हैं । यदि एक किलो जूंया एक किलो चिल्लर (कपड़े के जूं) सूख रहे पीपल वृक्ष के नीचे चढ़ा दें और फिर चौरे को खोदें तो यह सारा धन मिल जायेगा । यदि सारी स्त्रियों के सर के ढील (जूं) निकाल लिये जायें और सभी गंदे कपड़ों के चीलर बीन लिये जायें तो शायद तौल पूरी हो जाये !


कथा-गोरखपुर की कहानियां 


कथा-गोरखपुर खंड-1 


मंत्र ● प्रेमचंद 

उस की मां  ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र 

झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा  ● श्रीपत राय 

पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी

लाल कुरता   ● हरिशंकर श्रीवास्तव 

सीमा  ● रामदरश मिश्र 

डिप्टी कलक्टरी  ● अमरकांत 

एक चोर की कहानी  ●श्रीलाल शुक्ल

साक्षात्कार  ● ज ला श्रीवास्तव 

अंतिम फ़ैसला  ● हृदय विकास पांडेय 


कथा-गोरखपुर खंड-2 

पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी 

मां  ● डाक्टर माहेश्वर 

मलबा ● भगवान सिंह 

तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह 

पेड़  ● देवेंद्र कुमार 

हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर  ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव

सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव 

दस्तक ● रामलखन सिंह 

दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव 

इतिहास-बोध ●विश्वजीत  


कथा-गोरखपुर खंड-3 

सब्ज़ क़ालीन  ● एम कोठियावी राही 

सौभाग्यवती भव  ● इंदिरा राय 

टूटता हुआ भय  ● बादशाह हुसैन रिज़वी 

पतिव्रता कौन  ● रामदेव शुक्ल 

वहां भी ● लालबहादुर वर्मा 

...टूटते हुए ● माहेश्वर तिवारी

डायरी  ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल 

मद्धिम रोशनियों के बीच  ● आनंद स्वरूप वर्मा 

इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप 

यह तो कोई खेल न हुआ   ● नवनीत मिश्र 

कथा-गोरखपुर खंड-4 

आख़िरी रास्ता  ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव 

जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल 

प से पापा  ● रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत 

सेनानी, सम्मान और कम्बल ● शक़ील सिद्दीक़ी 

कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी

अपने भीतर का अंधेरा  ● तड़ित कुमार 

गुब्बारे  ● राजाराम चौधरी

पति-पत्नी और वो  ● कलीमुल हक़ 

सपना सा सच ● नंदलाल सिंह 

इंतज़ार  ● कृष्ण बिहारी 


कथा-गोरखपुर खंड-5 

तकिए  ● शची मिश्र 

उदाहरण ● अनिरुद्ध 

देह - दुकान ● मदन मोहन 

जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल  

रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार 

रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव 

ट्रांसफॉर्मेशन ●उबैद अख्तर

भूख ● श्रीराम त्रिपाठी 

अंधेरी सुरंग  ● रवि राय 

हम बिस्तर ●अशरफ़ अली


कथा-गोरखपुर खंड-6 

भगोड़े ● देवेंद्र आर्य

एक दिन का युद्ध ● हरीश पाठक 

घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय 

खौफ़ ● लाल बहादुर

बीमारी ● कात्‍यायनी

काली रोशनी  ● विमल झा

भालो मानुस  ● बी.आर.विप्लवी

तीन औरतें ● गोविंद उपाध्याय 

जाने-अनजाने   ● कुसुम बुढ़लाकोटी

ब्रह्मफांस  ● वशिष्ठ अनूप

सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव 


कथा-गोरखपुर खंड-7 

पत्नी वही जो पति मन भावे  ●अमित कुमार मल्ल    

बटन-रोज़  ● मीनू खरे 

शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद  

डाक्टर बाबू  ● रेणु फ्रांसिस 

पांच का सिक्का ● अरुण कुमार असफल

एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल

उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत

धोबी का कुत्ता ●सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '

कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी 

तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय

राग-अनुराग ● अमित कुमार 


कथा-गोरखपुर खंड-8  

झब्बू ●उन्मेष कुमार सिन्हा

बाबू बनल रहें  ● रचना त्रिपाठी 

जाने कौन सी खिड़की खुली थी ●आशुतोष 

झूलनी का रंग साँचा ● राकेश दूबे

छत  ● रिवेश प्रताप सिंह

चीख़  ● मोहन आनंद आज़ाद 

तीसरी काया   ● भानु प्रताप सिंह 

पचई का दंगल ● अतुल शुक्ल 


No comments:

Post a Comment