पेंटिंग : अवधेश मिश्र , कवर : प्रवीन कुमार |
आख़िरी रास्ता ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव
जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल
प से पापा ● रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत
सेनानी, सम्मान और कम्बल ● शक़ील सिद्दीक़ी
कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी
अपने भीतर का अंधेरा ● तड़ित कुमार
गुब्बारे ● राजाराम चौधरी
पति-पत्नी और वो ● कलीमुल हक़
सपना सा सच ● नंदलाल सिंह
इंतज़ार ● कृष्ण बिहारी
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आख़िरी रास्ता
[ जन्म :-जुलाई ,1948-निधन : 23 अगस्त , 2021 ]
डॉ. गोपाल लाल श्रीवास्तव
नर्वदेश्वर बाबू डाक विभाग में क्लर्क थे। उनके दो बेटे थे तथा तीन बेटियां थीं, बेटी अंजू एक नर्सरी स्कूल में अध्यापिका थी। सौ डेढ़ सौ रुपये कमा लेती थी; उसका खर्च बर्च किसी तरह से चल जाता था। बाक़ी दो बेटियां और तीनों बेटे नर्वदेश्वर बाबू पर ही निर्भर थे। नर्वदेश्वर बाबू की पत्नी शीला “यथा नाम तथा गुण” की कहावत चरितार्थ करती थीं। वह बहुत ही सीधे स्वभाव की महिला थीं। उन्हें के तप और त्याग से नर्वदेश्वर बाबू का परिवार किसी तरह चल रहा था। या यूं कहा जाय की शंकर की गृहस्थी पार्वती की तपस्या से चल रही थी। उनका एक लड़का ग्रेजुएशन करके तीन-चार साल से बैठा था। आगे की पढ़ाई आर्थिक संकट के कारण नहीं हो पाई थी। इतना भी किसी तरह खींच-खांच कर ही हो पाया था।
नर्वदेश्वर बाबू की पत्नी अपनी तमाम इच्छाओं को दबाकर तथा अपनी जरूरतों को काट कर इन बच्चों को पढ़ा रही थी। पति की मजबूरियों को देख कर वह ऐसी कोई बात नहीं करती थीं जिससे उनको उलझन हो या किसी प्रकार की ग्लानि उनके मन में आये। विवाह के पहले भी वह अपने माता-पिता के घर में सौतेली माता के दबाव और डांट डपट में ही पली थीं। पिताजी यद्यपि राजस्व विभाग में एक उच्च-पदस्थ अधिकारी थे, पैसा रुपया भी काफी था। किन्तु अधिक पैसा खर्च करके वह शीला की शादी एक अच्छे परिवार में नहीं कर सकते थे। वह शीला को बहुत चाहते थे। वही तो उनकी पहली पत्नी की एकमात्र निशानी थी। जिस पत्नी को वह अपने प्राणों से भी अधिक चाहते थे। शीला उस समय मात्र दो साल की थी जब उसकी माता का स्वर्गवास हुआ था। वह उसकी देखभाल तथा अपने शेष जीवन को व्यवस्थित ढंग से बिताने के लिए ही दूसरी शादी कर लिये थे। किन्तु दो चार साल तो सब ठीक-ठाक चला। उसके बाद पुत्री के प्रति पिता के असीमित प्यार देख कर नवागता के मन अनेक आशंकायें घर करने लगीं। इसी बीच शीला की नई मां की कोख से एक सुन्दर शिशु ने जन्म लिया, शीला बड़ी प्रसन्न थी। किन्तु धीरे-धीरे शीला के जीवन से प्रसन्नता और शिशु का साथ दूर होता चला गया। मां ने दोनों के लिये दो नजर रखना आरम्भ कर दिया और पिता जी पर भी दबाव बढ़ता गया। धीरे-धीरे इन दोनों बच्चों को ले कर कलह आरम्भ हो गयी और पिताजी शान्त स्वभाव के थे। उन्होंने कलह से बचने के लिए पुत्री के प्रति अपना लगाव व्यक्त करना छोड़ दिया। धीरे-धीरे शीला अपने को उपेक्षित महसूस करने लगी।
समय बीतता गया और शीला विवाह के योग्य हो गई। मां की इच्छानुसार साधारण परिवार में उसकी शादी कर दी गई। वह चुपचाप उस परिवार की सदस्यता सूची से अलग हो गई। ससुराल आने पर उसने सोचा था कि वह अपनी कुछ सामान्य इच्छाओं को पूरा कर सकेगी। किन्तु भाग्य तो आगे-आगे चलता है। यहां आने पर उसे क्या मिला एक गृहस्थी का जंजाल। जिसे सहेजने संवारने में ही एक पूरी जिन्दगी समाप्त हो जाती है। उसने अपने जीवन के पैंतालीस वर्ष इसी चौके चूल्हे में राख कर दिये। थी तो वह पैंतालीस की लेकिन देखने से साठ साल की बूढ़ी लगती थी। उसके एक भी बाल काले नहीं थे। नजर का चश्मा तो दस पन्द्रह साल से लगा रही थी।
उस दिन रविवार था। नर्वदेश्वर बाबू बच्चों के साथ बैठकर मन बहला रहे थे बड़ा लड़का रितेश किसी नौकरी के लिए इण्टरव्यू देने गया था। चार साल से यही लगा है। अनेक जगहों पैर हर छोटी बड़ी नौकरी के लिये आवेदन करता है और अन्त में निराश हो जाता है। हर कहीं दस पन्द्रह हजार से कम मांग ही नहीं होती। इसीलिये नौकरी नहीं मिल पाती। इसमें भी कोई खास उम्मीद नहीं थी। किन्तु जब तक सांस तब तक आस। शीला कुछ अस्वस्थ थी और दिन भर के काम-काज से थकी भी।
“देखिये क्या होता है। बेचारा इतने दिनों से ठोकरें खा रहा है भगवान जाने इसका दाना-पानी कहाँ है।”
शीला के इस काने में हताशा साफ झलक रही थी। अपने बेटे के लिये उसने कितना कष्ट सहा है। वही आज दर-दर की ठोकरें खा रहा है। इतनी कड़ी धूप में साइकिल से पच्चीस किलोमीटर शहर जाकर इहण्टरव्यू देना शीला के लिये मर्मातक था किन्तु विवशता जो न करावें। उसने जेठ की दोपहरी की ओर संकेत किया। नर्वदेश्वर बाबू भी भावुक हो गये।
“सच कहो शीला, मौसम तो दो ही होता है- एक गरीबी और दूसरा अमीरी। लड़का कहीं लग जाय तो मौसम बदले।”
शीला पढ़ी लिखी नहीं थी। उसकी समझ में यह दार्शनिक उक्ति नहीं आई। वह नर्वदेश्वर बाबू की ओर देखती रही। इसी बीच रीतेश घर में प्रवेश किया। उसका चेहरा उतरा हुआ था। इसी से पता चल गया कि यहां भी उसे निराश ही हाथ लगी है। उसने साइकिल दिवाल से टिका दी और धप्प से चारपाई पर बैठ गया। उसने कहा- “बाबू जी! लगता है, नौकरी हमारे नसीब में नहीं है। मैंने अपनी सारी योग्यता छिपाकर, अपने को केवल मैट्रिक इस लिये दिखाया कि कही वह कह कर न छाट दिया जाऊं कि मैं बहुत पढ़ा लिखा हूं और नलकूप चालक जैसी मामूली नौकरी के योग्य नहीं हूं, फिर भी यह नौकरी नहीं मिली। अभियन्ता का सेक्रेटरी हर किसी से दस हजार रुपये की मांग कर रहा था और कह रहा था जो दस हजार देगा उसी की नौकरी पक्की समझो। तो पिता जी! इस तरह से तो नौकरी मुझे मिलने से रही। न नौ मन गेहूं होगा न राधा गौने जायेगी।”
बेटे की बात सुन कर नर्वदेश्वर बाबू का चिंतित होना स्वाभाविक था। वे मन ही मन गणित बैठाने लगे। उनके रिटार्यमेन्ट के केवल दो वर्ष ही बाकी है। पी.एफ. के रुपये मिल ही जायेंगे। इससे थोड़ा बहुत इधर-उधर करके अन्जू को निबटा ही दिया जायेगा। पेंशन से किसी न किसी तरह शीला का गुजर हो ही जायेगा। किन्तु और बच्चों का क्या होगा। उनके लिये हम क्या कर सकते हैं। मेरे रिटायरमेंट के पहले कम से कम रीतेश का नौकरी में आना आवश्यक है। वह सोचने लगे। आदमी को निराश नहीं होना चाहिये। कुछ न कुछ करते रहना चाहिये। भगवान फल अवश्य देगा। उन्होंने रीतेश को आशा बंधाते हुये कहा- “रीतेश! तुम्हें नौकरी अवश्य मिलेगी। मैंने इतने दिनों तक डाक विभाग में नौकरी की है। क्या मैं अपने विभाग में अपने बेटे को नौकरी नहीं दिला सकता। अवश्य दिलाऊंगा तुम जाओ। आराम करो। कल देखा जायेगा।”
शीला, अंजू, रीतेश सभी बाबू जी का मुख देख रहे थे। उनके इस आत्म विश्वास से सभी चकित थे।
रोज की भांति उस दिन भी बच्चे खा पीकर सो गये। किन्तु नर्वदेश्वर बाबू को नींद नहीं आ रही थी, वे किसी उधेड़ बुन में थे। नींद उन्हें अक्सर नहीं आती थी। दिन भर इधर-उधर काम में मन लगा रहता था। सब कुछ भूले रहते थे। किन्तु रात चारपाई पर जाते ही उनका अपना असुरक्षित भविष्य उन्हें सोने नहीं देता था। नाना प्रकार की चिंतायें घेर लेती थी। आज कुछ चिन्ता ज्यादा ही थी। वह सोचने लगे- रीतेश को नौकरी कैसे मिलेगी। उनकी नौकरी के केवल दो वर्ष शेष है। जो व्यक्ति पैतीस वर्षों तक नौकरी करके अपने परिवार को कायदे से खिला पहना नहीं सकता वह दो वर्षों तक और नौकरी करके क्या कर लेगा। नौकरी के बाद की सुविधायें तो उसके बच्चों को मिलेंगी ही चाहे वह रहे या न रहे। हां यदि सेवाकाल में ही उसकी मृत्यु हो जाय तो उसकी नौकरी उसके बेटे को मिल सकती है। सरकार ने एक ऐसी व्यवस्था इस विभाग में कर रखी है। तो क्या वह परिवार की सुख-सुविधा के लिये अपनी जीवन लीला समाप्त कर दे। अब इस परिवार को उसकी अपेक्षा उसके बेटे की अधिक आवश्यकता है। मृत्यु आज उन्हें जीवन से अधिक आकर्षण लग रही थी।
मृत्यु की बात सोचते ही नर्वदेश्वर बाबू कांप उठे थे। उनके मानस पटल पर अनेक चित्र उभरने लगे- बेटे-बेटियों का बचपन उनका अनेक चीजों के लिये आग्रह। नर्वदेश्वर बाबू का झूठ-सच बोल कर उन्हें बहलाना फुसलाना। पत्नी के साथ सुख-दुःख की बातें आदि। नर्वदेश्वर बाबू सो गये। सुबह वह एकदम तरोताजा थे। लगा आज वह जीवन का एक बहुत बड़ा रहस्य जान गये हैं। वह एक जमाने के बाद ऐसी निश्चिन्तता भरी नींद सो सके थे। उनमें आये इस अप्रत्याशित परिवर्तन से घर के सभी लोग आश्चर्य चकित थे। किन्तु इस परिवर्तन के विषय में कुछ जानने में नर्वदेश्वर बाबू बहुत पंक्चुअल थे। साढ़े नौ बजे वह घर छोड़ देते थे। उस दिन भी वह साढ़े नौ बजे ऑफिस चले गये। शाम को घर लौटने पर काफी प्रसन्न थे। पत्नी को आज उन्होंने एक रहस्य की बात बताई-
“शीला! तुम एक बात मार्क करती हो कि नहीं?”
शीला ने उत्सुक होते हुए पूछा- “क्या?”
नर्वदेश्वर बाबू ने कहा- “अरे, बड़े बाबू का लड़का नितिन अपने घर आता है तो तुम देखती नहीं, अंजू पूरे दिन प्रसन्न दिखायी देती है और नितिन भी तो किसी-न-किसी बहाने अंजू को बुलाता रहता है। उसी दिन तो लगता है जैसे अंजू की दो आंख हैं और मुंह में एक अदद जीभ। अन्यथा वह हमेशा आंख नीची किये गुमसुम बनी रहती है। मुझे तो इन दोनों के बीच जनमते हुये एक नये सम्बन्ध की झलक मिलती है।
नर्वदेश्वर बाबू ने कुछ अधिक उत्साह से यह बात कहीं किन्तु शीला के लिये वह भेद ही रहा। वह पूछ बैठी- “आप कहना क्या चाहते हैं। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, साफ-साफ बताइये। ” नर्वदेश्वर बाबू ने समझाते हुए कहा- “अरे पगली! इतना भी नहीं समझा। दोनों वयस्क है, हम उम्र है। दोनों एक दूसरे को चाहते हैं। किन्तु दोनों एक दूसरे से यह बात कभी नहीं कह पायेंगे। यह मैं अच्छी तरह जानता हूं। नितिन अपने बाप से बहुत डरता है। बुढ़वा बहुत सख्त है। बात-बात में बच्चों को पीट देता है। पत्नी को डांटते डपटते रहना उसकी आदत है। सब उसके सामने भीगी बिल्ली बने रहते हैं और इधर अंजू तो गाय है। कभी सिर उठाकर रास्ते में भी नहीं चलती। बस किताबें दबाये स्कूल और स्कूल से घर, यही उसकी दिनचर्या बन गई है।”
पत्नी की राय जानने की गर्ज से उन्होंने बात को आगे बढ़ाया- “अच्छा, शीलू। यह बताओ यदि दोनों की शादी हो जाय तो कैसा रहे?”
“अच्छा तो है। किन्तु नितिन का बाप मेरे यहां रिश्ता करेगा?” शीला ने कहा।
नर्वदेश्वर बाबू ने आत्मविश्वास के साथ कहा- “मैं बुढ़वा को जानता हूं। वह आदमी अच्छा है। मेरा पक्का दोस्त भी है। किन्तु थोड़ा पैसे का लालची है। पैसा तो हम दे ही देंगे। पी.एफ. से चालीस-पचास हजार के करीब मिल ही जायेगा। सब देंगे। वह शादी कर लेगा। पेंशन से तुम्हारा काम चल ही जायेगा। फिर रिश्ता हो जाने के बाद वह हमारा हमदर्द भी हो सकता है। वह मदद कर दे और रितेश की नौकरी भी लग जाये। उसकी पहुंच-ऊपर तक है। पता नहीं क्यों मेरा मन बार-बार यह कहता है कि अंजू की शादी होते ही रीतेश की भी नौकरी लग जायेगी। मैं कल ही बात चलाता हूं। यदि बात बैठ गई तो अगले जाड़े में अंजू के हाथ पीले कर दूंगा। फिर निश्चित होकर एक बर्ष घूमने-घामने में बिताऊंगा। एल.टी.सी. मैंने कभी नहीं ली। इस बार बद्रीनाथ धाम चलूंगा। कम से कम एक धाम तो हो जाय।”
पति-पत्नी आमने सामने बैठे भविष्य की योजनाएं बना रहे थे। कभी-कभी ख़्वाब भी सही हो जाते हैं। अंजू की शादी पक्की हो गई। बड़े बाबू ने यह रिश्ता स्वीकार कर लिया। किन्तु नर्वदेश्वर बाबू का पूरा भविष्य दांव पर लगा कर। भविष्यनिधि का पूरा पैसा दहेज में देना था।
12 मार्च 1986 । होली का त्यौहार दो चार दिन हुये थे, लोगों के तन-बदन से अभी रंग और गुलाल की लाली पूरी तरह छूटी भी नहीं थी। गली कूंचा हर कहीं रंग ही रंग दिखाई दे रहा था। नर्वदेश्वर बाबू के घर के सामने तंबू कनात लगा था। शहनाई और तबले का मधुर संगीत चारों ओर के वातावरण को मोहक बना रहा था। नर्वदेश्वर बाबू पियरी पहने दौड़-धूप में लगे थे। बारात के आने का समय हो गया था। द्वार पूजा की सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी अंजू को परम्परागत ढंग से सजाया गया था। बारात आ गई, बारात आ गईं का हल्ला मच गया। बैंड वाले पूरे जोश से प्रचलित गीत बजा रहे थे- गोरी बन के दुल्हन ससुराल चली रे गोरी बन के दुल्हन ससुराल चली।
नर्वदेश्वर बाबू सुबह से भूखे प्यासे थे। कन्यादान के पहले उन्हें बूंद जल भी नहीं लेना था।” यह कन्यादान की पहली शर्त होती है। विवाह की रस्म समाप्त हो गई। नर्वदेश्वर बाबू ने संक्षिप्त जलपान किया और चैन की सांस ली आज वह एक बहुत बड़े बोझ से मुक्त हुये थे। अपने को बहुत हल्का महसूस कर रहे थे। सुबह अन्जू की विदाई थी। लोग रो-रोकर पागल हुये जा रहे थे। किन्तु नर्वदेश्वर बाबू थोड़ी देर के लिये अपने कमरे में आराम कर लेना चाहते थे। दिन भर की थकान से उनका पूरा शरीर जैसे टूट रहा था। आंखें झपकती जा रही थीं। वह देखते-देखते सो गये।
सुबह विदाई का समय हो गया। नर्वदेश्वर बाबू दिखाई नहीं दिये तो उनकी खोज शुरू हुई। वह अपने कमरे में सो रहे थे। लोगों ने उन्हें जगाना चाहा लेकिन वह न उठ सके। वह तो चिर निद्रा में सो गये थे। यह समाचार आग की तरह फैल गया। पूरा परिवार जैसे चीत्कार कर उठा। किन्तु आस-पड़ोस के लोगों में एवं बारातियों ने सोचा कि अन्जू की विदाई की वजह से लोग रो रहे है। अन्जू भी रो रही थी। उनके विषय में भी लोगों ने यही सोचा। मां-बाप से अलग होते हुये लड़कियों को बहुत कष्ट होता है। उनका रोना स्वाभाविक है।
बहरहाल, नर्वदेश्वर बाबू की मृत्यु का समाचार कुछ देर के लिय दबा दिया गया और अंजू की विदाई कर दी गई। इस शुभ घड़ी में अशुभ समाचार को दबा देना ही उचित समझा गया। अंजू रोते विलखते विदा हो गयी। उसके बाद नर्वदेश्वर बाबू की अर्थी सजायी जाने लगी। कपड़ा बदलते समय उनकी जेब से नींद की गोलियों की एक खाली शीशी मिली। लगता है नर्वदेश्वर बाबू ने नींद की गोलियों की एक पूरी शीशी खाली कर दी थी। पर ऐसा क्यों किया? इसी अवसर को उन्होंने आत्महत्या के लिये क्यों चुना। सम्भव है उन्होंने सोचा हो कि लोग इस रहस्य को न जा सके। इसे आत्महत्या न मान कर स्वाभाविक मृत्यु ही माने। इससे उनके स्थान पर उनके बेटे को नौकरी मिलने में कोई अड़चन नहीं होगी। बात का बतंगड़ नहीं बनेगा। एक ही रूलाई-धुलाई में सारा काम निबट जायेगा।
उनकी अर्थी जा रही थी। मुझे कबीर याद आये- कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।
पांच छः महीने बाद बड़े बाबू के अथक प्रयास से नर्वदेश्वर बाबू की जगह रीतेश को नौकरी मिल गई।
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जन्म-दिन
[ जन्म : 9 अगस्त , 1948 ] |
कृष्णचंद्र लाल
मेरे मुहल्ले के युवा नेता यादवेन्द्र सिंह उर्फ झिनकू सिंह ने अपने नौकर से सुबह-सुबह एक कार्ड भेजा जिसमे लिखा था-‘30 नवम्बर, 1988 को मेरे बड़े लड़के रामेश्वर सिंह का जन्मदिन है। इसके उपलक्ष्य में आयोजित प्रीतिभोज में सम्मिलित होकर कृतार्थ करें।’ मैंने कार्ड पढ़कर मेज पर फेंक दिया। सुबह-सुबह खर्चा का न्योता आ गया । आज महीने की आखिरी तारीख को कम से कम 21 रूपये की व्यवस्था करनी पडे़गी। जेब में दो चार रूपये पड़े थे, सोचा था आज का काम चल जायेगा, लेकिन इन कम्बख्त जन्मदिन मनाने वालों के मारे चलने पाये तब न। मैं अपने आप में इस तरह बड़बड़ा रहा था कि मेरा लड़का पप्पू उधर से गुजरा। पहले तो उसने पूछा-‘क्या है पापा ? किससे बातें कर रहे हैं?’ लेकिन तुरन्त उसकी निगाह चमकते कार्ड पर पड़ गई। उसे उठाकर वह पढ़ने लगा । कार्ड पढ़ने के बाद वह खुशी से उछल पड़ा- ‘वाह पापा जी ! आज का दिन बड़ा अच्छा है, सुबह-सुबह दावत मिल गयी । हम भी चलेंगे न आप के साथ ?
‘नहीं ! तुम्हें नहीं जाना है।’ मेरी आवाज में सख्ती थी।
‘क्यों पापा जी ?’
‘क्योंकि यह निमंत्रण केवल मेरे लिए है।’
‘केवल आपके लिए, ऐसा क्यों पापा ?’
‘बहस मत करो!’ मैंने डाँटते हुए कहा। वह सहम गया और धीरे से कमरे से बाहर चला गया। उसके चले जाने के बाद मेरा मन मुझे ध्क्किारने लगा। पैसा नहीं है तो उस पर क्यों बरसते हो ? कोई जुगाड़ करो। आखिर तुम्हारे पास पैसे नहीं है तो क्या दुनिया के पास भी पैसे नहीं हैं.........तुम्हारी तरह तो सबलोग तंग नहीं हैं। मेरे भीतर उठने वाले ये सवाल, सवाल नहीं थे बल्कि ऐसी हकीकत थे जिसका मुझे सामना करना था । क्या विडम्बना है, मैं सुबह ही शाम के बारे मे सोचने लगा। दुनिया इस समय हाथ-मुँह धेकर नाश्ता करने की तैयारी कर रही होगी लेकिन मैं शाम के प्रीतिभोज में सम्मलित होने के लिए अपना हिसाब किताब बैठाने लगा हूँ। इध्र मैं बराबर यह कोशिश करता रहा हूँ कि किसी से उधार न लेना पड़े, लेकिन अक्सर किसी का जन्मदिन, किसी का मुण्डन और किसी का विवाह पड़ ही जाता रहा है जिससे अपने दैनिक जीवन की तमाम कटौतियों का दुख उठाने के बाद भी उधार के फंदे में गले को फँसाना पड़ जाता रहा है। आज मन प्रसन्न था, क्योंकि आज ही यह महीना सकुशल गुजर जाने वाला था लेकिन अभागे नाथ के भाग्य में शायद सुख नहीं लिखा है। इस तरह की चिन्ताओं और उलझनों में मैं ज्यादा देर तक उलझा नहीं रह सका, क्योंकि पत्नी ने एक लम्बी आवाज लगाई-‘खाना तैयार है। आज ऑफिस नहीं जायेंगे?’ जब पत्नी इस तरह आवाज देती है तो मुझे लगता है, कोई थानेदार बुला रहा है। उस समय जब जिस स्थिति में होता हूँ, तुरन्त चल पड़ता हूँ। मैंने घड़ी देखी, साढ़े आठ बज रहे थे। वास्तव में आफिस के लिए तैयारी करने के लिए बहुत कम समय रह गया था। मैं हड़बड़ा कर बाथरूम की ओर भागा।
बाथरूम में पहुँचकर जब मैं पुनः पिछली समस्या को लेकर चिन्ता मग्न हुआ तो थोड़ी ही देर में एक समाधन सूझ गया। बाथरूम वाली दुछत्ती पर पुराने अखबारों का एक गट्ठर पड़ा था। मैंने अनुमान लगाया कि उसका वजन 4-5 किलो तो होगा ही। यदि इसे बेच दिया जाये तो 20-25 रूपये मिल सकते हैं। यदि 25 मिल गये तब तो 21 रूपये अन्यथा 11 रूपये देकर नेताजी के प्रीतिभोज में सम्मिलित हो लूँगा। मेरी पस्ती एकाएक खत्म हो गयी। ऐसा लगा जैसे मैंने तत्काल स्फूर्ति देने वाला कोई कैप्सूल खा लिया है । मैं गुनगुनाने लगा, थोड़ा झूमने भी लगा । गाने की आवाज कुछ तेज हुई तो पत्नी ने फिर आवाज लगाई -‘अरे गाते ही रहेंगे कि बाथरूम से निकलेंगे भी ?
‘निकल रहा हूँ।’-मैंने खुश कर देने वाली आवाज में उत्तर दिया।
‘गाइये-गाइये! मुहम्मद रफी अब जिन्दा नहीं हैं।’ पत्नी ने रसीला व्यंग्य किया।
‘निकल तो आया, कहो क्या बात है?’
‘कुछ नहीं।’ और इसी के साथ हमदोनों फिर अपने काम में लग गये। जब मैं खाने पर बैठा तब पत्नी से कहा-‘ऊपर वाला पुराना अखबार आज बेच दीजिएगा।’
‘कौन सा अखबार?’
‘वही दुछत्ती वाला ।’
‘वह तो कब का बिक गया- आप भी कैसे आदमी हैं.........घर की सड़ीगली चीजों का भी हिसाब बनाए रखते हैं ।’
पत्नी ने इस लहजे से ये बातें कही थीं कि मैंने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा । मैंने अपनी जबान पर तुरन्त ताला लगाया और खाने में व्यस्त हो गया। मेरे भीतर अभी कुछ देर पहले जो प्रसन्नता का ज्वार आया था, वह पत्नी के शुभ-संवाद से तुरन्त भाटा में बदल गया। मेरी स्थिति ठीक उस मछली जैसी हो गयी जो ज्वार के समय सागर की लहरों में बड़ी निश्चिन्तता के साथ उछल रही थी लेकिन ज्वार के उतर जाने पर रेत पर तड़फड़ाने लगी । मेरा मन फिर पैसे की जुगाड़ के लिए बेचैन हो उठा।
जैसे तैसे मैंने खाना खाया । खाने में एकदम स्वाद नहीं था । सब्जी तो गोबर जैसी लग रही थी और रोटी सूखे पत्ते जैसी । जब मैं हाथ धे रहा था तो पत्नी ने पूछा-‘अखबार बेचने के लिए क्यों कह रहे थे ?’ मैंने कहा-‘शाम को नेताजी के यहाँ निमंत्रण में जाना है । कम से कम 21 रूपये तो चाहिये ही ।
‘इक्कीस न हो तो ग्यारह दे दीजिये ।’ पत्नी ने सुझाव दिया ।
‘ग्यारह भी नहीं है ।’
‘ये कौन नौकरी करते हैं आप, कि जेब में ग्यारह रूपये भी नहीं रहते ।’
‘आज आखिरी तारीख है ।’
‘आप की पहली और आखिरी का कोई फर्क तो हमने कभी नहीं जाना।’
‘हाँ, न तुमने जाना है और न जानोगी । बात यह है कि मैं जो कमाता हूँ वह सब रूपये अपने ऊपर ही स्वाहा कर देता हूँ ।’ यह कह कर मैं जल्दी-जल्दी जूते पहनने लगा । फीता इतना कसकर खींचा कि वह टूट गया । एक मुसीबत और टूट पड़ी । किसी तरह वह जोड़जाड़ कर मैंने जूता पहना और जल्दी-जल्दी घर से बाहर निकल गया । इस बीच पत्नी बहुत कुछ बड़बड़ाती रहीं, लेकिन मैंने कान में एकदम रूई सी ठूँस ली । यह समय उनसे किसी प्रकार की बहस करने के लायक नही था। आखिर एक ही इशू पर एक ही तरह से रोज-रोज कैसे बहस की जा सकती है ।
दफ्तर में मेरा मन कत्तई नहीं लग रहा था । पास वाली टेबुल के बत्रा ने पूछा-‘क्या बात है भाई !’ उसका वाक्य सुनकर देह में आग सी लग गयी । लेना एक न देना दो, बडा आया है गुमसुम चेहरा देखने । अभी कुछ पैसे उधार माँगू तो अपना ही रोना रोने लगेगा । मैं मन ही मन उसपर बिगड़ने लगा ।
उसने फिर कहा-‘कुछ बोल नहीं रहे हो यार !’
‘क्या बोलूँ ? आप मेरी समस्या हल कर देंगे ?’ मेरी आवाज तल्ख थी ।
‘क्यो गुस्सा करते हो भाई ? क्या भाभीजी से लड़कर आये हो ?’
इतना कहकर वह मेरे पास आ गया । बोला-‘आओ चले कैंटीन........तुम्हारा मूड जरूर खराब है ।’
इसबार मैंने कुछ नही कहा । उसने मेरा हाथ पकड़कर मुझे उठाया था, इसलिए किसी गादर बैल की ही तरह सही, मैं उठ गया । कैंटीन में उसने फिर बात छेड़ी । मैंने उसे सारी परिस्थिति साफ-साफ बता दी । वह ठहाका मारकर हँस पड़ा ।
‘बस इतनी सी बात है मुझसे ले लो पैसे..। आखिर कल तो पहली है ही ।’
मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा । मैं सोचने लगा, बत्रा तो इतना उदार कभी न था । आज मुझपर क्यों मेहरबान हो गया है ।
‘तुम कुछ बोले नहीं ।’ उसने कहा ।
‘ठीक है, मुझे इक्कीस रूपये दे दो ।’ मैंने डूबती आवाज में कहा ।
‘इक्कीस क्यों भाई, पचीस ले लो !’
‘नही भाई, कर्ज उतना ही ठीक है जितना वापस दिया जा सके । मैं तनख्वाह मिलते ही वापस कर दूँगा ।’
‘जैसी तुम्हारी इच्छा ।’ यह कहकर उसने मुझे इक्कीस रूपये दिये । जिस समय वह अपनी जेब से रूपये निकाल रहा था, मेरा मन हुआ कि उससे दस-पाँच और ले लूँ । कोई और जरूरत पड़ सकती है, लेकिन अपने मन को दबाकर रह गया । उससे रूपये लेकर मैंने बहुत-बहुत धन्यवाद दिया । मुझे ऐसे लग रहा था कि उसने मुझे इक्कीस रूपये नही दिये हैं, बल्कि इक्कीस अशर्फियाँ दी है । एकबार फिर मेरा मन प्रसन्नता और उत्साह से भर उठा ।
आफिस से घर आकर मैं अपने कपड़े ठीक-ठाक करने लगा । कोट पतलून को प्रेस किया और जूते पर पालिस लगाई । शेव करके थोड़ी सी स्क्रीम मली । इसपर पत्नी ने बड़ी मीठी चुटकी ली-‘लगता है चीफगेस्ट आप ही हैं ।’
‘होना तो चाहता हूँ लेकिन हम फटीचरों को कौन पूछेगा ?’ मैंने भी उसी अंदाज में जबाब दिया ।
‘पैसे की व्यवस्था हो गयी ?’- पत्नी ने बात को बदलते हुए प्रश्न किया ।
‘हाँ हो गयी, बत्रा से उधर ले लिया है ।’
‘मंगन को खंगन क्या ?’ पत्नी ने फिर ताना मारा । तमाचे पर तमाचा जड़ती हुई वे फिर बोलीं-‘ उधार लेकर खड्डूसों का जन्मदिन मनाइये ।’
मैं तिलमिला उठा-‘तुमसे तो बात करना महाभारत छेड़ना है ।’
‘लेकिन तुम्हारी रामायण भी तो हमसे नहीं सुनी जाती........। जब देखो, तब तंगी का ही रोना-धेना । बच्चे टॉफी माँगे तो डपट दोगे, कपड़ा लत्ता की बात चले, तो हाय तौबा मच जाए, लेकिन लफंगों के बच्चों को रूपये देकर बोलोगे-‘हैपी बर्थ डे टू यू ।’ कभी अपने बच्चों का भी बर्थ डे मनाइये ।’ इसबार आग उगलती हुई वे दूसरे कमरे में चली गयीं ।
मुझे लगा कि पत्नी शायद सुबह से ही यह मूड बनाये हुए है कि किसी तरह झगड़ा हो जाये ताकि मैं नेताजी के यहाँ न जा सकूँ । इन्हें झिनकू सिंह फूटी आँख भी नही सुहाते हैं । जब देखो तब एक ही रट लगाये रहती है-‘कोई काम-धाम तो करता नहीं है, सिर्फ कुर्ता पैजामा पहन कर चार लुहेड़ों के साथ घूमता रहता है । जब कोई चुनाव होता है तो किसी न किसी प्रत्याशी का प्रचार करके पैसा बना लेता है । बाकी दिनो में दारोगा पुलिस के साथ साठगाँठ करके इधर-उधर से कमाई करता रहता है । इ कौन नेतागीरी है भाई !’
मैं मानता हूँ कि वह जो कहती है, वह एक हकीकत है किन्तु यह भी एक हकीकत है कि सब मोहल्लेवाले ‘नेताजी-नेताजी’ कहकर उनका सम्मान करते हैं तो फिर मैं ही उनकी उपेक्षा करके क्यों बद्दू बनूँ ? अगर दुनिया गधे को बाप कहने पर मजबूर हो गई है तो फिर मैं उसे गधा कह कर क्या कर सकता हूँ । मुझे अपनी ऐसी-तैसी तो करवानी नहीं है। है कोई माई का लाल इस मोहल्ले में, जो झिनकू सिंह को उनकी औकात बता सके ? वे पढ़ेलिखे नहीं है, कोई काम धंधा नहीं करते हैं लेकिन कुछ तो है उनके पास कि शहर के बडे़-बड़े ओहदेदार उनके यहाँ आते हैं, पुलिस-दारोगा उन्हें सलाम ठोकते हैं। आज भी सबलोग आयेंगे। नेताजी की जय-जयकार करेंगे। नेताजी चाहे गलत करें, चाहे सही, कोई कुछ नहीं बोल सकता है। कल ही नेताजी के यहाँ सस्ते गल्ले की दुकान से जो चीनी का बोरा आया है, क्या नेताजी ने उसे कार्ड पर खरीदा है ? उन्होंने सीधे पोल से जो बिजली ले रखी है, क्या वह वैधानिक है ? उन्होंने किस कमाई से स्कूटर-कार खरीदा है ? सबलोग सब जानते हैं। मैं भी जानता हूँ। पत्नी कहती है कि ऐसे आदमी से सम्बन्ध ठीक नहीं, लेकिन मैं क्या करूँ, वे तो मेरे पड़ोस में ही रहते हैं। जल में रहकर मगर से बैर तो नहीं किया जा सकता ।
यह सब सोचते-सोचते पता नहीं कैसे मेरा मन बदलने लगा । जैसे मेरे दिमाग की कोई रील उल्टी दिशा में चलने लगी हो, कुछ उस तरह की अनभूति होने लगी। मुझे झिनकू सिंह एक खूँखार जानवर लगने लगे । उनके यहाँ की सजावट चहल-पहल और गाज़ा-बाज़ा अब खलने लगा । मैं सोचने लगा कि आज मैंने एक ऐसे आदमी के यहाँ निमंत्रण देने के लिए उधार लिया है जो समाज का शोषक है, निठल्ला है । जो लोगों से बेगार करवाता है, जो रोब गाँठता है, जो चुनाव के समय तो हाथ जोड़ता है लेकिन उसके बाद त्योरी दिखाता हुआ ऐंठ कर चलता है । मुझे ऐसे आदमी के यहाँ नहीं जाना चाहिए और यदि जाना जरूरी ही लगे तो उसे पैसे नहीं देने चाहिए । यह कहाँ की बुद्धिमानी है कि अपने बच्चों की छोटी-छोटी ख्वाहिशें भी न पूरी करूँ और एक लाखेरा के बच्चे के जन्म दिन पर कर्ज लेकर झूठी शान, झूठा सदाचार प्रदर्शित करूँ । ‘मुझे नहीं जाना चाहिए ।’ यह वाक्य मेरे कानों मे घंटे पर हथौड़े की तरह बजने लगा । इसी बीच मेरा लड़का मेरे कमरे में दाखिल हुआ । मुझे उसका चेहरा फूल जैसा लगा । मैंने प्यार से पत्नी को आवाज दी । वे भी कुछ उछलती सी आईं।
‘क्या बात है ?’
‘पप्पू का जन्मदिन कब पड़ता है ।’
‘क्या मनाना है ?’
‘हाँ हम इसबार पप्पू का जन्मदिन मनाएँगे ।’
‘सच पापा !’ पप्पू उछल पड़ा ।
‘हाँ बेटे, सच......और सुनो......’ मैंने पत्नी को संबोध्ति कर कहा-‘तैयार हो जाओ, चलेगे बसंतबहार में डोसा खाने ।’
‘और नेताजी के यहाँ.........।’
‘अरे छोड़ो........ ऐसी मनहूस बातें मत करो ।’ यह कहकर मैं दूसरे कमरे में चला गया । पता नहीं क्यों मुझे लगा कि मुझमें जीने का अपार उत्साह आ गया है।
34 -
‘प’ से पापा
[ जन्म: 4 सितंबर , 1948 ] |
रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत
ये जो पिंजड़े में लटका हुआ दिन भर ‘राम कहो, राम कहो’ रटता रहता है न ? आंटी की नाक बिलकुल इसी सुग्गे की नाक जैसी है । लंबी–लबी, नुकीली–नुकीली । पप्पू जाने कैसी गोलियों से खेला करता हैµगोल–गोल, चमकीली–चमकीली । आंटी की आंखें भी तो वैसी ही हैं । और आंटी के होंठ ? वो तो बिलकुल चाकलेट हैं, जिसे मैं अबी–अबी चूस बी रई हूँ । चाकलेट जैसा मीठा–मीठा प्यार करती है आंटी मुझे ।
आंटी मुझे भौत अच्छी लगती है । सच, मैं आंटी को खूब प्यार करती हूँ । कबी–कबी आंटी मुझे गोद में उठाके फिरकी की तरह नाचने लगती है । बड़ा मज्जा आता है उस समय । फिर वो मुझे नीलू आंटी के घर बी ले जाती है । वईं तो बंटी रहता है, जो हर समय बैठा–बैठा आंखें नचाया करता है ।
एक बात मेरी समझ में नईं आती । आंटी इत्ती बड़ी क्यों है ? इत्ते बड़े–बड़े कपड़े क्यों पहनती है ? मैं छोटी–सी क्यों हूँ ? मुझे बित्ता भर के कपड़े क्यों पहनने दिए जाते हैं ? ये भी कोई बात है!
अच्छा कितना मजा आए कि मेरे कपड़े आंटी को पहना दिए जायं और मुझे आंटी के । थोड़ी देर को तो आंटी बौखला जाएगी । नाक फुला–फुलाकर गुस्सा करेगी, पूछेगी किसने उसके कपड़े पहिनने की कोसिस की ? जब वो यों गुस्सा कर रई होगी तो मैं चुपके से भीतर से निकल छम–छम करती आ जाऊँगी । बिलकुल दुलहन की तरह । आंटी का गुस्सा मुझे देखते ही पानी हो जाएगा । और वो दौड़कर मुझे प्यार करने लगेगी । गोदी में भरकर नानी को दिखाने ले जाएगी । कहेगी, ‘‘देखो मम्मी! पिंकी तो अबी से दुलहन बन गई ।’’ नानी कुछ कहे, इससे पहले ही वो मुझे नानाजी के पास लेकर चल देगी ।
मुझे तमासा क्यों बनाया जाता है ? क्या मैं दुलहन नईं बन सकती ? क्या एक मम्मी ही दुलहन बन सकती है ? अरे जादा दिन थोड़ेई हुए हैं । कैसी गुड़िया–सी बनी बैठी थी उस कोने में! आखिर मैं कोई बात भूल थोड़ेई जाती हैँू । आंटी की गोद से ही तो ये सारा तमासा देख रई थी ।
जाने क्यों मम्मी मुझे अब उत्ती अच्छी नईं लगती, जित्ती पहले लगती थी । यों मम्मी में खराबी क्या है ? देखने में आंटी से जादा अच्छी लगती है–गोरा चिट्टा रंग, गोल–गोल नाक, नीली–नीली आंखें । पर कोई मुझसे कहे कि आंटी और मम्मी में तुम्हें कौन जादा पसंद है, तो मैं लपककर आंटी की गोद में चढ़ जाऊँ । बिना सोचे समझे । पर इसमें सोचने की बात भी क्या है ?
मम्मी जब यहाँ आती है तो खूब–खूब प्यार करती है, ढेर–ढेर खिलौने लाती है और टाफी, बिस्कुट, मिठाइयां और भौत से कपड़े । पर मुझे मम्मी के मुँह से अजीब–सी बदबू आती मालूम देती है । न— न— मम्मी के दांत गंदे नईं हैं । वो तो खूब साफ–साफ, चमकीले–चमकीले हैंµबिलकुल बिजली के लट्टू की तरह । पर न जाने क्यों, मम्मी मुझे प्यार न किया करें तो अच्छा रहे । पर अब इस बात को मम्मी से कहे भी कौन ? आंटी तो कह नईं सकती । मुझे भी नईं कहने देगी । मुँह से एक बोल बी निकला नईं कि कान की चाबी कसके उमेठ दी जाएगी ।
पर एक बात है । इस बार मम्मी आई तो मुझे उसका खिलौना सबसे अच्छा लगा । बिस्तर पर पड़ा हुआ हाथ–पांव जोर–जोर से फटकार रहा था । जैसे किसी से लड़ रहा हो । मैं तो डर गई । अरे भई माना कि तुम और खिलौनों के मुकाबले जादा बड़े हो, जादा अच्छे हो, पर ऐसा भी क्या कि किसी को अपने पास ही न आने दो, सबको दूर से ही डरा दो!
खैर— सहमे–सहमे कदमों से पास गई । मेरे पास जाते ही उसने हाथ–पैर चलाना बंद कर दिया और मुटुर–मुटुर ताकने लगा । मैं तो देखती ही रह गई । बिलकुल मेरी गुड़िया की तरह लग रहा था । इत्ता ही तो फरक है कि मेरी गुड़िया छोटी–सी है, बोलती–चालती नईं, चुपचाप पड़ी रहती है, जैसे बिठा देती हूँ, बैठ जाती है और जैसे लिटा देती हूँµलेट जाती है । और ये गुड़िया से बड़ा है, बोल लेता है, हाथ–पैर चलाता है, और पास जाते ही चुप होकर मुझे देखने लगता है ।
मेरा मन किया कि उसे प्यार करूँ । आगे बढ़कर डरते–डरते उँगली से छुआ । वो कुछ नईं बोला । उसने मेरी एक उंगली अपनी मुट्ठी में पकड़ ली । मुझे बड़ा अच्छा लगा । खुस होकर उसे अपनी ओर खींचने लगी । न जाने क्या हुआ, वो चिल्लाने लगा । मैं डर गई । कईं मम्मी आ गई तो मेरी खैर नईं । मैंने उसका मुँह अपने हाथ से कसकर बंद कर दिया, ताकि उसके मुँह से आवाज ना निकले ।
उसके मुँह से आवाज तो नईं निकली, पर मेरे गाल पर तड़ातड़ किसी के चाँटे पड़ने की आवाज आने लगी । चाँटे इत्ती जोर के थे कि मेरी आंखों में आंसू आ गए और मैं जोर–जोर से रोने लगी । रोते–रोते मारने वाले की ओर देखा । मम्मी थी । अब उसने अपना खिलौना उठा लिया था और उसे हाथ से धीरे-धीरे पीट रही थी । खिलौने की भी बदमासी देखो । जब मैंने प्यार किया तो चिल्लाने लगा और जब मम्मी उसकी बार–बार पिटाई कर रई है, तो कुछ नईं कहता । छि : ! गंदा कहीं का!
मम्मी मुझे घूर–घूरकर देख रई है । उसने मेरे कान इत्ती जोर से उमेठे हैं कि दर्द करने लगे हैं । आखिर मेरी गलती क्या थी ? रोते–रोते सोच रई हूँ । तबी आंटी आ जाती है । मुझे गोद में लेकर पुचकारने लगती है और गुस्सा होकर मम्मी की ओर देखती है । मम्मी कुछ नईं कहती । चुपचाप चली जाती है ।
आंटी अपने होठों के रंग वाली चाकलेट खाने को देती है और मुझे नानाजी के पास ले जाती है । नानाजी से कहती है, ‘‘देखो पापा! दीदी ने पिंकी को बिना बात कित्ता मारा । ऐसी भी कोई मां होती है पापा ?’’
पापा!
ये ‘पापा’ क्या होता है ? आंटी नानाजी को पापा क्यों कहती है ? और खुद पापा कहती है तो मुझे क्यों नईं कहने देती ?
उस दिन आंटी की देखा–देखी नानाजी को पापा कहा, तो आंटी बोली, ‘‘नईं बेटा! ये तेरे नानाजी हैं । इन्हें नानाजी कहो । कहो ना— ना—— जी!’’
वाह! ये भी कोई बात है ? तुम तो कहो ‘पापा’ और हम कहें नानाजी! हुँ! हम तो इनको नानाजी कब्बी नईं कहेंगे ।
‘‘ऊँ—ऊँ–— हम तो पापाजी कहेंगे ।’’ मैंने मना करते हुए आंटी से कह दिया ।
‘‘नईं पिंकी! तेरे पापा तो देख वो हैं ।’’ आंटी ने दरवाजे के बाहर इशारा किया और वहाँ वोई रोनी सूरत वाला आदमी दिखाई दिया, जिसने मेरी मम्मी के साथ मंडप में खूब–खूब चक्कर काटे थे ।
वो आदमी मेरा पापा कैसे हो सकता है ? भला बताओ तो ? पा— पा—! कित्ता प्यारा नाम है । उसमें पापा जैसा कुछ भी तो नईं दिखाई देता । फिर ये पहले कहाँ था ? आंटी कहती है ; मैं भौत बड़ी हो गई हूँ । चार बरस की । पर मैंने उस आदमी को भौत थोड़े दिनों सेई देखा है । वो मेरा पापा कैसे हो सकता है ? फिर अगर पापा होता तो हमेसा अपने पास न रखता ? ये तो कुछ दिन यहाँ रह के चला जाता है और मम्मी को भी साथ ले जाता है । ऐसे लोग कईं पापा होते हैं ?
और मम्मी को भी देखो । हर समय फिरकी की तरह इसके पीछे नाचती रहती है । जब ये नईं आया था, तब तो मम्मी बड़े प्यार से बातें करती थी । अब इसको क्या हो गया ? इस मेरे गंदे ‘पापा’ ने मम्मी के ऊपर कोई जादू तो नईं कर दिया ?
जादू मुझे बड़ा अच्छा लगता है । उस दिन एक मदारी आया था । कैसे जादू के खेल दिखा रहा था । चीज़ गायब करने वाला जादू वो मुझे भी सिखा देता तो मज्जा आ जाता! सबसे पहले तो मैं अपने इस गंदे पापा को ही फूंक मारके गायब कर देती! थोड़ा जादू और सीख लेती तो नानी की कहानी वाले राच्छस की तरह मच्छर बना देती । हाँ नईं तो! मेरी मम्मी को हर समय अपने साथ–साथ लिए घूमता है ।
मम्मी भी अजीब है । अजीब–अजीब बातें करती है । इस ‘पापा’ के आने से पहले मुझे कित्ता प्यार करती थी! आंटी से भी जादा! और अब ? अब तो इस ‘पापा के ही साथ रहती है, और दिनभर उस ‘खिलौने’ को गोदी में लिए–लिए फिरती है । मुझे गोद में नईं लेती । मन करता है कि मम्मी के तड़ातड़ तमाचे मारूँ । जैसे मम्मी मुझे रुला देती है, वैसेई मैं भी मम्मी को खूब रुलाऊँ । इत्ता रुलाऊँ कि मम्मी की आंखें लाल हो जाएं । उसी दिन की तरह!
उसी दिन की तरह!
तब मम्मी दिनभर यईं रहती थी । आंटी स्कूल चली जाती थी और मम्मी मुझे गोद में लिए रहती थी । मेरे साथ खेलती थी, मुझे टॉफियां, बिस्कुट देती थी और खूब हँसती थी ।
उस दिन मम्मी कमरे में थी । पता नईं मेरे मन में क्या आयाµमैंने सोचा मम्मी को डरा दिया जाए । कमरे में हौले–हौले घुसी । फिर मम्मी के पीछे जाकर जोर से ‘हौ–हौ’ कर दिया । मम्मी ने मेरी ओर देखा तो मैं हैरान रह गई । उसकी आंखें लाल थीं और उनसे बड़े–बड़े आंसू टपक रहे थे । हाथ में एक फोटो थी, कांच में जड़ी । वो उसेई देख रई थी । मुझे देखते ही उसने फोटो अलग रख दी और मुझे गोद में लेकर जोर–जोर से प्यार करने लगी । उसकी आंखों से आंसू अब बी टपक रहे थे । मुझे दया आ गई । मैंने पूछा, ‘‘म— मी— क्यों— लो— ती ?’’ तब मैं ठीक–ठीक बोल बी तो नईं पाती थी ।
मेरी बात सुनकर भी मम्मी का रोना बंद नईं हुआ । और बढ़ गया ।
उसने मुझे गोद में लिए–लिए ही फिर फोटू उठा ली, और उसे देखने लगी । वो कभी फोटू को देखती, कभी मुझे देखती और रोने लगती । मैं बड़ी चकित हुई । मैंने फोटू की ओर देखा । उसमें तो मम्मी ही बैठी थी, पर मम्मी के साथ एक आदमी भी था । मुझे वो आदमी बड़ा अच्छा लगा । मैंने इस फोटू को पहले कब्बी नईं देखा था । मैंने मम्मी से पूछा ‘‘म—मी— ये— कौन!’’ उस आदमी के ऊपर मैंने उंगली रख दी ।
पर ये देखकर मुझे बड़ा गुस्सा लगा कि मम्मी का रोना बंद नहीं हुआ । रोते–रोतेई बोली, ‘‘ये— ये तेरे पापा हैं पिंकी ।’’
अच्छा! तो, ये पापा नाम उस आदमी का था, जो मम्मी के साथ तस्वीर में बैठा था! वोई तो मैं कहूँ कि मैंने ‘पापा’ नाम कईं सुना है । कहाँ सुना है, ये याद ही नईं आ रहा था । अब याद आ गया । मम्मी नेई उस आदमी के बारे में बताया था कि वो मेरा ‘पापा’ है ।
पर मैंने उस पापा को कब्बी नईं देखा । वो कहाँ चला गया ? यहाँ क्यों नईं आता ? वो तस्वीर में ही कित्ता अच्छा लगता था, सचमुच में तो भौत अच्छा लगता होगा । फिर आंटी इस गंदे से आदमी को ‘पापा’ कहने के लिए मुझे क्यों परेशान करती है ? मैं तो इसको कब्बी ‘पापा’ नईं कऊँगी । मेरा पापा तो वोई वाला पापा है , जो तस्वीर में मम्मी के साथ बैठा है ।
वो मेरे पास क्यों नईं आता ? ‘ शायद डरता होगा कि मैं भी इस गंदे पापा की तरह उसे तंग करूँगी । पर ऐसी बात थोड़ेई है । वो मेरे पास आ जाए तो मैं उसे खूब प्यार करूँ । कब्बी लड़ाई–झगड़ा नईं करूँ । वो जैसा कहे, वैसाई करूँ । पर वो आता क्यों नईं ?
सबेरे से आंटी मुझे सजाने में लगी है । अजीब–अजीब तरह के रंग–बिरंगे कपड़े पहना रई है । मेरे बाल भी उसने अजीब तरह से बना दिए हैं । मुँह पर पाउडर–क्रीम पोत दी है । बड़ा अच्छा लग रहा है ये सब ।
नानाजी आंटी से सबेरे कह रहे थे कि आज पिंकी को क्लब ले जाएंगे । कोई ‘ शो –वो है । जभी तो कैसी अजीब–अजीब ‘शकल बना दी है आंटी ने मेरी ।
कह रई थी, ‘‘बिलकुल कुँजड़िन मालूम होती है । पहला इनाम इसी को मिलेगा पापा!’’
लॉन में / धूप फैली है । आंटी चुपके से वहाँ आ गई है । कैमरा लेकर मुझसे कहती है, ‘‘पिंकी उधर खड़ी हो ।— यों— इस तरह! ‘ शब्बास ! अब ज़रा हँस दे जोर से! बस!’’
इसके बाद किट्ट की आवाज होती है और आंटी भागती हुई मेरे पास आती हैµ‘‘बस पिंकी! अब तू इस कैमरे में बंद हो गई ।’’
हट्! झुट्टी कईं की । उस जरा–से डिब्बे में मैं कैसे बंद हो जाऊँगी ? मैं तो यहाँ खड़ी हूँ ।
‘ शाम तक आंटी मुझे इधर–उधर दिखाती रहती है । बस येई बात तो खराब लगती है । मैं कोई गुड़िया हूँ जो मुझे हर जगह दिखाया जाता है ?
समय हो गया है । नानाजी बार–बार चिल्ला रहे हैं–‘‘जल्दी करो— जल्दी करो ।’’
लो भाई । अब आंटी मुझे लिए–लिए फाटक से बाहर आ गई है । कार बाहर खड़ी है । नानाजी आगे बैठे हैं और एक गोल–गोल चरखी पर हाथ रक्खे हैं । आंटी मेरे साथ पीछे बैठ जाती है । कार चलने लगती है --घर्र—र्र—र्र
कित्ते बड़े–बड़े बल्ब हैं । कैसा सोर मच रहा है । ये परदा क्यों पड़ा है ? ये खुलता क्यों नईं ? ये कित्ते सारे बच्चे हैं ? कैसे अजीब–अजीब कपड़े पहने हैं । ये लड़का तो भौत गंदा है । कैसे गंदे–गंदे कपड़े पहने है । बिलकुल भिखारी मालूम पड़ता है । कैसा टुकुर–टुकुर मुझे ताक रहा है । ये ऐसे कपड़े क्यों पहने है ? बढ़िया कपड़े पहन ले और बाल सँवार ले तो कित्ता अच्छा लगे ।
‘‘ए—ए— इधर आओ ।’’ मैंने उसे अपने पास बुलाया है ।
उसकी आंखें मुझे देख चमकने लगती हैं । दौड़कर पास आ जाता है ।
‘‘तुम्हारा नाम क्या है ?’’
‘‘मुन्ना ।’’
‘‘वाह! तुम्हारा नाम तो बड़ा अच्छा है । मेरा नाम पिंकी है ।’’
‘‘तुम्हारा नाम जादा अच्छा है ।’’ वो कहता है ।
‘‘तुम भिखारियों जैसे गंदे कपड़े क्यों पहने हो ?’’
‘‘पता नईं, मम्मी ने आज ऐसा बना दिया मुझे ।’’ वो कहता है, ‘‘और तुम भी तो कैसे अजीब–से कपड़े पहने हुई हो ?’’
‘‘नईं तो!’’ मैंने कहा है, फिर अपने कपड़ों की ओर देखकर झेंप जाती हूँ, ‘‘अरे सचमुच! पता नईं क्यों आंटी ने मुझे ऐसा बना दिया ।’’
‘‘तुम्हारी मम्मी कहाँ हैं ?’’
‘‘मम्मी! मम्मी तो नईं, मेरी आंटी बैठी है उधर , नानाजी के पास ?’’
‘‘और पापा ?’’
‘‘पापा!’’ मैं अटक जाती हूँ , ‘पा—’’
‘‘क्यों, क्या पापा नईं आए ?’’ वो मुझसे पूछता है ।
‘‘नईं ।’’ मुझे उस लड़के पर गुस्सा आने लगता है । उसने पापा की बात यहाँ क्यों छेड़ दी ? अब ज़रूर वो मुझे अपने ‘पापा’ के बारे में बताएगा ।
‘‘क्यों, तुम्हारे पापा कहाँ हैं ?’’
‘‘मुझे नईं पता ।’’ मैं लौटने लगती हूँ, ‘‘हम तुमसे नईं बोलेंगे ।’’
मुन्ना आँखें बड़ी–बड़ी कर मुझे देखता हैµ‘‘अरे! तुम गुस्सा क्यों हो गईं ?’’
वो मुझे मनाने लगता है । बड़ा अच्छा लगता है । मुन्ना वाकई भौत अच्छा है । मैं खुस हो जाती हूँ और उससे फिर बातें करने लगती हूँ ।
तभी कोई रेडियो जैसी आवाज में बोलता है । फिर एक आदमी एक बच्चे की उंगली पकड़ उसे सामने बने इस्टेज पर ले जाता है! वो बच्चा सिपाही बना है । उसे देखके सब ताली पीटते हैं ।
बारी–बारी से सब बच्चों को वो आदमी वहाँ ले जाता है । मुन्ना को भी ले जाता है, फिर मुझे भी ले जाता है । मैं वहाँ जाकर देखने लगती हूँµआंटी कहाँ बैठी है । थोड़ी देर में ही वो मुझे दिखाई दे जाती है । वो मुझे देख तालियां बजा रई है । सभी लोग तालियां बजा रहे हैं । मुझे नीचे पहुँचा दिया जाता है, किंतु लोग तालियां बजाना बंद नईं करते । कित्ता सोर मच रहा है ।
आंटी मेरे पास आ गई है । मुझे प्यार कर रई है । कोई रेडियो जैसी आवाज में फिर बोलने लगता है । पता नईं क्या–क्या बोलता है, पर मैं तो इत्ता ही सुन पाती हूँ % ‘‘पिंकी— पहला इनाम ।’’ तालियाँ फिर बजने लगती हैं । आंटी मुझे नानाजी के पास ले जाती हैµ‘पापा— पापा— । मैंने कहा था ना, पिंकी को पहला इनाम मिलेगा ।’’ नानाजी हँसते हुए मुझे गोद में ले लेते हैं और प्यार करने लगते हैं ।
ये सामने से तो मुन्ना चला आ रहा है । पर ये किस आदमी की उंगली थामे है ? उसके साथ एक औरत भी है । मुन्ना बड़ा खुस है । लगता है कोई इनाम उसे भी मिल गया । सचमुच कित्ती अच्छी बात है कि मुझे भी इनाम मिला और मुन्ना को भी मिल गया ।
‘‘पिंकी, पिंकी, तुझे पहला इनाम मिला । मजा आ गया ।’’
‘‘तुझे कोई इनाम नहीं मिला ?’’
‘‘मुझे तीसरा इनाम मिला है । पर इससे क्या, पहला तो तुझी को मिला है न!’’ मुन्ना मुझसे बड़ा है, पर कित्ती प्यारी–प्यारी बातें करता है ।
‘‘मुन्ना ये लोग कौन हैं ?’’
‘‘अरे इन्हें नईं जानती ?’’ मुन्ना हँसता है, फिर औरत की ओर इ’ाारा करता है, ‘‘ये मेरी मम्मी हैं और ये मेरे पापा!’’
दूसरी बार का उसका इ’ाारा आदमी की तरफ है । अच्छा! तो येई इसका पापा है । इसकी मम्मी भी साथ, इसका पापा भी साथ । तभी ये बार–बार मेरे पापा के बारे में पूछ रहा था ।
‘‘हल्लो बेबी!’’ मुन्ना का पापा कहता है और मुझे गोद में लेने लगता है । मुझे अच्छा नईं लगता । मैं उसकी गोद से फिसलकर नीचे आ जाती हूँ ।
मुन्ना के मम्मी–पापा हँसने लगते हैं । नानाजी और आंटी भी हँसते हैं । फिर उनमें आपस में बातें होने लगती हैं । मैं चुपके से अलग खिसक आती हूँ । मुन्ना भी मेरे पास आ जाता है ।
‘‘तुमने मेरी आंटी को देखा ?’’ मैं मुन्ना से पूछती हूँ ।
‘‘हाँ, तेरी आंटी बहुत अच्छी है ।’’ मुन्ना कहता है, ‘‘पर तेरी आंटी के साथ वो दूसरे कौन हैं ?’’
‘‘वो! अरे वो तो मेरे नानाजी हैं ।’’ मैं खुस होकर कहती हूँ । तभी लगता है मुझसे कुछ गड़बड़ हो गई । मुन्ना के साथ उसके मम्मी–पापा हैं । दूसरे बच्चों के साथ भी उनके मम्मी–पापा हैं ।
मम्मी तो अब गंदी हो गई है, पर मेरा पापा क्यों नईं आया ? कित्ता मजा आता अगर वो ‘तस्वीर वाला पापा’ यहाँ मेरे साथ होता!
‘‘मुन्ना तेरा पापा कहाँ से आया ?’’ मैं पूछती हूँ ।
‘‘मेरा पापा ?’’ मुन्ना मुँह टेढ़ा करता है, ठोड़ी पर उंगली /ार लेता है और आंखें बंद करके सोचने लगता है । मुन्ना ज़रूर कोई गहरी बात सोच रहा होगा, मैं जानती हूँ ।
‘‘भगवान के यहाँ से आया होगा ।’’ मुन्ना बताता है, ‘‘मम्मी कहती है, हम सब भगवान के यहाँ सेई आए हैं ।’’
मुन्ना बात तो ठीक कहता है । एक बार आंटी बी तो कह रई थी कि सब भगवान के यहाँ से आते हैं ।
‘‘अच्छा, तो मेरा पापा भगवान के यहाँ से क्यों नईं आता ?’’ मैं उससे पूछती हूँ ।
‘‘क्या पता ? कहीं वो तुझसे गुस्सा तो नईं है ?’’
‘‘क्यों, गुस्सा क्यों होगा ?’’
‘‘तूने कोई ‘ौतानी की होगी तो गुस्सा हो गया होगा ।’’
‘ौतानी तो मैं कब्बी करती नईं । पर आंटी क्यों कहती है कि ये बड़ी ‘ौतान लड़की है । ज़रूर पापा इसी वजह से नईं आता होगा ।
‘‘चल पिंकी, घर चलें । देर हो गई है ।’’ आंटी आकर मुझसे कहती है । मैं मजबूरी में मुन्ना की तरफ देखती हूँ । उसे भी मेरा जाना अच्छा नईं लग रहा ।
‘‘पिंकी! बाय! बाय!’’
काफी दूर निकल आने के बाद मुन्ना हाथ हिलाता है । मैं भी ‘बाय बाय’ करती हूँ ।
‘‘मेरा पापा कहाँ है आंटी ?’’ मैं पूछती हूँ ।
‘‘पापा!’’ आंटी चैंक गई है, ‘‘तेरे पापा तेरी मम्मी के साथ सिमला गए हैं । उनकी चिट्ठी आई है । तुझे बहुत याद कर रहे थे ।’’
‘‘ऊँ हूँ! वो ‘गंदा आदमी’ मेरा पापा नईं है । वो तस्वीर वाला पापा—’’
तड़ाक से एक तमाचा गाल पर पड़ता है । मैं हैरान हूँ । आंटी को ये क्या हो गया ? मेरी आंखों से आंसू निकल रहे हैं और आंटी की आवाज कानों में पड़ रई है, ‘‘अपने पापा को गंदा आदमी कहती है ।’’
‘‘वो मेरा पापा नईं है— वो मेरा पापा नईं है ।’’ मैं रोते–रोते बी जोर से चिल्लाने लगती हूँ— जिद करके । अब आंटी भौत मारेगी, मैं सोचती हूँ । पर बड़ी देर तक कुछ नईं होता । डरते–डरते आंटी की ओर देखती हूँ ।
अरे! आंटी तो रो रई है! उसकी आंखों से भी आंसू निकल रहे हैं । मैंने आंटी की बात नईं मानी न ? इसीलिए आंटी रो रई है!
‘‘आंटी! आंटी! रोओ मत । हम पापा को गंदा आदमी नईं कहेंगे । तुम रोओ मत ।’’
आंटी और जोर से रोने लगती है । फिर झपटकर गोद में उठा लेती है और प्यार करने लगती है । देखा! आंटी खुस हो गई न! पर वो रोना बंद क्यों नईं करती ? अजीब बात है ।
चारों ओर कैसे बढ़िया बच्चे दिखाई दे रहे हैं । कोई हँस रहा है, कोई भाग रहा है, कोई सोर मचा रहा है । मुझे ये सब अच्छा नईं लग रहा । आंटी की याद आ रही है ।
घंटी बजने लगी है । अब क्या होगा ? सब बच्चे अंदर भाग रहे हैं । वो देखो आंटी वाली मैडम आ रई है । आंटी इससे देर तक बातें कर रई थी, फिर मुझसे बोली थी, ‘‘पिंकी! ये तेरी मैडम हैं । इनके साथ–साथ रहना और जैसा बताएं वैसा करना ।’’
‘‘चलो, पिंकी! क्लास में चलो ।’’ मैडम कहती है ।
मैं उनके साथ–साथ चलने लगती हूँ ।
मैडम मुझे सबसे आगे वाली सीट पर बिठा देती है ।
मैडम पढ़ा रई है ।
‘‘बच्चो! क से होता है कबूतर! क से, बच्चो, क्या होता है ?’’
‘‘कबूतर!’’ सब बच्चों के साथ–साथ मैं भी कहने लगती हूँ ।
‘‘ख से होता है खरगो’ा । ख से क्या होता है ?’’
‘‘खरगोस ।’’
मन नईं लग रहा । आंटी ने कैसी जगह भेज दिया । यहाँ कोई बी तो दोस्त नईं । मुन्ना होता तो अच्छा रहता । उस दिन कित्ती अच्छी–अच्छी बातें कर रहा था । आंटी ने उस दिन बेकार बुला लिया, नईं तो उससे बातें करने में बड़ा मजा आ रहा था ।
आंटी इस समय क्या कर रई होगीµपप्पू के लिए–मम्मी के उस खिलौने का येई तो नाम बता रई थी आंटी उस दिन ? स्वेटर बुन रई होगी । खाली समय में वो येई काम किया करती है । उस दिन आंटी कह रई थी, वो खिलौना मेरा छोटा भैया है । अगर वो भैया है तो मम्मी मुझे उससे खेलने क्यों नईं देती ? उस दिन जरा–सा छू दिया तो पीटने लगी थी । अच्छा वो तस्वीर वाला पापा इस समय कहाँ होगा ? मुन्ना कह रहा था कि वो भगवान के यहाँ होगा । भगवान उसे मेरे पास क्यों नईं भेजता ?
‘‘प से क्या होता है बच्चो ?’’
‘‘प से पापा!’’ मैं जोर से चिल्लाती हूँ । मेरी आवाज तेज है और मैडम तक पहुँच गई है । मैडम घूर–घूरकर देख रई है । बच्चे भी मुझे देख रहे हैं । क्या बात है ? लगता है कुछ गड़बड़ हो गई । ‘प’ से पापा नईं होता होगा ।
‘‘पिंकी! तुम्हारा /यान कहाँ था ?’’ मैडम पूछती है । मेरे मुँह से डर के मारे एक ‘ाब्द भी नईं निकलता ।
‘‘मीनू! तुम बताओµ‘प’ से अभी हमने क्या बताया था ?’’
‘‘ ‘प’ से पतंग मैडम ।’’
‘‘’ााब्बा’ा! अच्छा तो पिंकी, ‘प’ से क्या होता है ?’’
‘‘पतंग!’’
‘‘ठीक है! अब अपना /यान पढ़ने में लगाओ!’’ मैडम कहती है, फिर पढ़ाने लगती है, ‘‘फ से होता है फल! फ से क्या होता है बच्चो ?’’
‘‘आहा! हमारी पिंकी रानी तो पढ़ रई है ।’’
दूर से नानाजी के साथ आती हुई आंटी कह रई है । वो बड़ी खुस है, ‘‘देखना पापा! पिंकी डाक्टर बनेगी, डॉक्टर ।’’
‘‘हाँ, तब किसी को अकाल मौत मरने तो नईं देगी ।’’
आंटी का चेहरा फक्क पड़ जाता है ।
मेरी समझ में नईं आता कि आंटी और नानाजी आपस में क्या बातें कर रहे हैं ।
‘‘पापा! अब उस कहानी को भूल जाओ ।’’ अचानक आंटी जोर से चिल्लाकर कहती है । मैं डर जाती हूँ । आंटी को ये क्या हुआ! इत्ता गुस्सा तो आंटी को कब्बी नईं आया! मैं आंटी की तरफ देखना बंद देती हूँ और स्लेट पर फिर से लिखना ‘ाुरू कर देती हूँ ।
आंटी पास आती है, ‘‘जरा देखें तो सही, पिंकी रानी क्या पढ़ रई है ?’’
इत्ती मु’िकल के बाद अब लिख पाई हूँµ‘प’ से पापा!
तभी मुझे मैडम याद आ जाती है और डरकर अपने लिखे हुए को हाथ से मिटाने लगती हूँ । आंटी मेरा हाथ पकड़ लेती हैµ‘‘इसे क्यों मिटा रई है पिंकी ।’’
‘‘आंटी! मैडम कहती है ‘प’ से पतंग होती है— ‘प’ से पापा नईं होता ।’’
‘‘नईं पिंकी! मैडम झूट कहती है । ‘प’ से पापा होता है ।’’ पता नईं क्यों आंटी की आवाज मोटी हो गई है ।
मैं खुस हो गई हूँ । ताली बजाकर जोर से चिल्लाने लगती हूँ, ‘‘ ‘प’ से पापा होता है— ‘प’ से पापा होता है ।’’
कल क्लास में जाऊँगी तो मैडम से कहूँगी, ‘‘मैडम! मेरी आंटी भी कहती है कि ‘प’ से पापा होता है ।’’
स्लेट पर मैंने जो लिखा था, वह मिट गया है । अब मैं जल्दी–जल्दी फिर से लिखने लगती हूँµ‘प’ से—
35 -
सेनानी, सम्मान और कम्बल
[ 18 जुलाई , 1949 ] |
शक़ील सिद्दीक़ी
हमारा शहर ऐतिहासिक शहर है। आज़ादी की लड़ाई में हमारे शहर का उल्लेखनीय योगदान रहा है। लड़ाई के कई मोर्चे यहां लगे। संयोग से जिस घटना की पचासवीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी, वह भी हमारे शहर से ठीक बीस मील दूर घटी थी। कारणवश हमारे शहर में उस घटना की पचासवीं वर्षगांठ का विशेष आयोजन किया गया। आयोजन का मुख्य आकर्षण था ऐसे सेनानियों का सम्मान जिन्होंने ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लड़ते हुए दस वर्ष या उससे अधिक समय दंडस्वरूप जेलों में गुज़ारा हो।
आयोजन के लिए एक कॉलेज के भवन में अस्थायी रूप से सेनानीनगर बनाया गया था। जिसके मुख्य द्वार का नाम स्वाधीनता द्वारा रखा गया। मुख्य समारोह के लिए कॉलेज का सभाकक्ष उपयुक्त पाया गया। इस हेतु सभा कक्ष में अनेक क्रान्तिकारियों के चित्र लगाये गये। क्रान्तिकारियों के बहुप्रसिद्ध वाक्यों-कथनों को कार्डशीट और कपड़े पर लिखकर टांग दिया गया। इससे सभाकक्ष को धूमिल सी ही सही, पर क्रान्तिकारी आभा ज़रूर मिल गयी थी।
क्योंकि उस घटना का सम्बन्ध आज़ादी की लड़ाई की उस धारा से था, जो क्रान्ति के दर्शन से फूटती है, अतः समारोह में मुख्य रूप से इसी धारा से जुड़े सेनानियों को बुलाया गया था। जिन लोगों को सम्मानित किया जाने वाला था, उसकी सूची भी इसी धारा से जुड़े सेनानियों में से बनायी गयी थी।
देश के सुदूर अंचलों तक फैले सेनानियों ने समारोह के निमंत्रण को उत्साहपूर्वक स्वीकार किया तथा वे बड़ी संख्या में सेनानी नगर आये। सेनानीनगर में उनके ठहरने, भोजन आदि की समुचित व्यवस्था की गयी थी।
स्वाधीनता संग्राम की उस महत्वपूर्ण तथा ऐतिहासिक घटना की पचासवीं वर्षगांठ के समारोह में सेनानी महेश्वर सिंह भी आए थे। महेश्वर सिंह को उस घटना के प्रमुख न सही पर सहयोगी होने का गौरव अवश्य प्राप्त था। महेश्वर सिंह भी अन्य सेनानियों के समान तन कर चलने की कोशिश करते थे। हालांकि आठ दशकों तक फैली लम्बी ज़िन्दगी के बोझ ने उनके चेहरे पर कई रेखाएं खींच दी थीं। पर इन रेखाओं के झरोखे से झांकता चेहरा परिश्रमी विनम्र और सरल किसान के चेहरे जैसा लगता था। कमर उनकी लगभग सीधी पर आंखें ..........’’-- बाऊ थोड़ा भी अन्हार हो तो दिखायी नहीं पड़ता ......।’’
मेरी इच्छा हुई उनसे पूछूं “ सेनानी जी थोड़े से अंधकार में भी आपको दिखायी क्यों नहीं देता? क्या हमारी आंखें आपके काम नहीं आ सकतीं? परंतु सेनानी महेश्वर सिंह आज़ादी की लड़ाई के एक अहम पड़ाव की याद में आयोजित समारोह के अवसर पर एक बिल्कुल दूसरी तरह की चिंता से व्यथित दिखायी पड़ रहे थे। उनकी यह चिंता थोड़े से अंधकार में भी दृष्टिहीन हो जाने की स्थिति से बहुत गहरे तक जुड़ी हुई थी।
कार्यक्रम के अनुसार आमन्त्रित स्वाधीनता सेनानियों को मुख्य समारोह से एक दिन पूर्व सेनानी नगर पहुंच जाना था। कार्यालय में जाकर रजिस्टर में ंनाम पता तथा अन्य अपेक्षित विवरण दर्ज कराना आवश्यक था। वहीं से सेनानियों को भोजन आदि के कूपन मिलने थे तथा यह तय होना था कि किस सेनानी को किस कमरे में ठहरना है। शाम का समय संवाददाता सम्मेलन के लिए निश्चित किया गया था। इसमें प्रेस कैमरामैन आदि ने कई सेनानियों के चित्र खींचे। कुछ से बातचीत भी की। सेनानी महेश्वर सिंह का भी चित्र खींचा गया। रात के भोजन के पश्चात् काला पानी नाम से बदनाम अंडमान पर बनी एक फ़िल्म के प्रदर्शन की योजना थी। इस फ़िल्म में कई सेनानी अपनी वास्तविक भूमिका में मौजूद थे। अनेक सेनानियों के लिए इस फ़िल्म को देखना, स्मृतियों के अत्यंत रोमांचक, उत्तेजनापूर्ण तथा भावविह्वल कर देने वाले क्षणों से गुज़रने जैसा था। फ़िल्म अंडमान में रह चुके एक सेनानी ने ही बनायी थी। दूर तक फैली हुई बैरकें इतिहास के झंझावातों भरे दिनों तथा इतिहास बनाने वाले नितांत निर्भीक पुरूषों पर गुज़री यातना की गवाह .... फ़िल्म में कमेंट्री अंडमान के एक अन्य पूर्व बंदी विशिष्ट सेनानी कामरेड वर्मा ने दी थी।
दूसरे दिन प्रातः नौ बजे तक समस्त आगंतुक सेनानियों तथा अन्य सम्मानित आमंत्रितों को उस ऐतिहासिक स्थल जाना था जहां पचास साल पहले आज़ादी की लड़ाई में नए प्राण फूंक देने तथा लड़ाई को नया उभार देने वाली घटना घटी थी। वहां उस घटना की स्मृति में स्मारक बनाया गया था। स्मारक पर श्रद्धांजलि सभा होनी थी।
स्थायी भवन में अस्थायी रूप से बनाये गए सेनानी नगर के कमरा नम्बर चार की देहरी पार करते हुए सेनानी महेश्वर सिंह की दृष्टि जब आकशष की ओर उठी तो उस क्षण वह जैसे कांप गए। सारा आसमान कोहरे से ढका हुआ था और आसमान ही क्यों,कोहरे ने ज़मीन को भी ढक लिया था। चीज़ों को और लोगों को भी। कोहरे की सघनता से जैसे वह सिहर गए। आज़ादी की चाह में अंग्रेज़ सरकार के कठोर दंड को हंसते हुए सह जाना एक बात है और मौसम के प्रकोप से सिहर उठना दूसरी बात । महेश्वर सिंह कमर के पास कांपते हाथ को थोड़ा ऊपर उठाकर बायें कन्ंधे तक ले गए। उन्होंने टटोल कर देखा। कम्बल वहां सुरक्षित था। जैसे उनकी स्मृति में आज़ादी की लड़ाई के बहुत से क्षण सुरक्षित हैं। वह आश्वस्त हुए, कम्बल को ले जाना ही ठीक रहेगा। हो सकता है सर्दी और बढ़े। महेश्वर सिंह को याद आया। पहली बार जब वह ब्रिटिश शासन के विरोध में नारा लगातेे हुए गिरफ़्तार किए गए थे तब उन्हें मजिस्ट्रेट ने जो सज़ा सुनायी थी उस दण्ड से उन्होंने पूरी निर्भीकता के साथ असहमति प्रकट की थी। परिणामस्वरूप मजिस्ट्रेट ने सज़ा को झुंझलाहट में तुरंत दोगुना कर दिया था। महेश्वर सिंह मुस्कुराये थे सज़ा सुनकर। तब तक उनकी नाक के नीचे बहुत मुलायम और बहुत महीने रोयें ही फूटे थे और तब तक गज़ल “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ जिसे आमतौर पर लोग गीत जानते हैं, प्रचलित नहीं हुई थी।
स्मारक जाने के लिए चार बसों और छः छोटी गाड़ियों की व्यवस्था की गयी थी। छोटी गाड़ियां मुख्य रूप से वयोवृद्ध अस्वस्थ, ज़्यादा भारी शरीर वाले तथा वरिष्ठ सेनानियों और विशिष्ट आमंत्रितों के लिए थीं। जबकि बसों में कोई भी जा सकता था।
चाय नाश्ते से फ़ारिग़ होकर सेनानी तथा स्मारक जाने के अन्य इच्छुक लोग एक-एक करके बसों और छोटी गाड़ियों में बैठने लगे। महेश्वर रिंह ने राज्य परिवहन निगम की अंत में खड़ी बस पर चढ़ते हुए एक बार फिर कंधे पर रखे कम्बल को टटोलकर देखा। कम्बल वहां सुरक्षित था। उस समय तक कोहरे की सघनता में थोड़ी कमी आ गयी थी और सूरज बहुत दूर तालाब के बीचोबीच टिमटिमाते दीये सा दिख रहा था। जैसे कोहरे की मोटी चादर कोई फाड़ दे तो उजाला भकभका कर चारों ओर फैल जाए। लेकिन इन मोटी चादरों को फाड़े कौन? सो उजाला नहीं फैला। परन्तु महेश्वर सिंह के दिमाग़ में स्मृति की एक रौशनी ज़रूर कौंध गयी। पचास-साठ साल पहले, जैसे उन्होंने आज कम्बल टटोला है, क्रांतिकारी सेनानी कहीं जाते समय शस्त्र टटोलते थे।
जब महेश्वर सिंह बस में बैठ गए तो सेनानी दत्ता वहां आए। महेश्वर दादा, आप कार में जाइये न,आप इधर क्यों आ गया?
छोड़ो ....... हम एही ठन ठीक बाड़ीं .....।
सेनानी दत्ता ने भी ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया।
सब लोग बैठ गए तो गाड़ियां चल दीं।
अलग-अलग बसेां-गाड़ियों में कई सेनानियों ने एक-दूसरे को चोर निगाहें से देखा। एक समय था जब वह कहीं जाते थे तो उनके पास हथियार होते थे। उनमें से कुछ ऐसे थे जो आज से पचास साल पहले वहां हथियार लेकर गए थे, जहां आज वो निहत्थे जा रहे थे। जबकि इन पचास सालों में हथियारों का प्रयोग कई सौ गुना बढ़ चुका था। महेश्वर सिंह का हाथ अचकचाकर कमर पर जा पड़ा। पचास साल पहले वहां अंगेज़ी रिवाल्वर खुंसा हुआ थ। आज ठीक वहीं पर पड़ने वले सदरी की जेब में - ’फ्ऱीडम फ़ाइटर’ क परिचय पत्र सहेजा हुआ था। जिससे पेंशन मिलती थी और बस और रेल में किराया नहीं देना पड़ता था। महेश्वर सिंह का मन भारी हो आया। अधिकांश सेनानी पुरानी यादों में खोए हुए थे। लाठी, गोली,जेल, जुलूस इंक़िलाब, धुंआ, धमाका, फांसी, शहादत, वंदेमातरम और विभाजन।
बस स्मारक के पास जाकर रूक गयी। स्मारक क्या था? एक उजाड़ सन्नाटी जगह पर अर्द्ध-निर्मित सा एक खंडहर था। चारों ओर से कटा हुआ, असंबद्ध सा। सेनानियों ने श्रद्धा से उस स्थान को नमन किया। कुछ ने फूल हार भी चढ़ाए। कामरेड दत्ता कुछ ज़्याद ही भावुक हो आए थे। उन्होंने चीख़ कर नारा लगाया।
“क्रांन्ति हिंसा की संस्कृति नहीं है।’’
“नहीं है ..... नहीं है .....’’
साम्राज्यवाद का विनाश ज़रूरी है।’’
“ज़रूरी है ..... ज़रूरी है .....’’
“समाज को बदले बिना आज़ादी अधूरी है।’’
“अधूरी है .... अधूरी है .....’’
सभी लोगों की दृष्टि कामरेड दत्ता पर जा टिकी। महेश्वर सिंह की भी। कामरेड दत्ता स्मारक के आगे सिर झुकाए खड़े थे, जैसे स्मारक न हो देवी दुर्गा की मूर्ति हो। महेश्वर सिंह भी भारी क़दमों से चलते हुए वहां गए और हाथ जोड़कर सिर झुका दिया। सहसा उस क्षण न जाने क्या हुआ कि महेश्वर सिंह एकदम से विचलित हो उठे। बहुत ज़्यादर निराश और हतोत्साहित भी। उन्हें सिर में कुछ चुभन सी महसूस हुई। उन्होंने चेहरा ऊपर उठाया तो सिर की चुभन आंखों में भर आयी। आसमान पहले से बहुत ज़्यादा साफ़ हो गया था तथा सूरज उन्हें जंगली सुअर सा अपनी ओर भागता जान पड़ रहा था। ब्रिटिश काल में एक बार लखनऊ जेल में एक अंग्रेज़ अफ़सर भी उनकी तरफ़ ऐसे ही भागता हुआ आया था, जंगली सुअर जैसा। तब उन्होंने .......। तभी “कहो महेश्वर दादा ......’ कामरेड दत्ता की थकी हुई आवाज़ उनके कानों में पड़ी।
महेश्वर सिंह चौंके और कहा, “दत्ता मौसम तो एकदम बदल गईल बा .....’’
कामरेड दत्ता ने सुना और अनायास उनकी दृष्टि ऊपर उठ गयी। वह सीधे महेश्वर सिंह के कंधे पर रखे कम्बल से जा टकरायी। उस क्षण महेश्वर सिंह को कम्बल एक बोझ सा महसूस हुआ। उन्होंने कम्बल बायें कंधे से उठाकर दांये कंधे पर रख लिया और आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए उस सरकारी भवन की ओर चले गए जहां श्रद्धांजलि सभा के बाद चाय-नाश्ते की व्यवस्था थी। उसके बाद विश्राम के छोटे से अंतराल के बाद सेनानी नगर प्रस्थान करना था।
विश्राम की जगह पहुंचकर महेश्वर सिंह का मन लेट जाने का हुआ। उन्होंने कम्बल कंधे से उतारकर सिर के नीचे रख लिया और लेट गए। अस्सी मील लंबी बस यात्रा के कारण या स्वाभाविक थकान वाली आयु के कारण उन्हें नींद आ गयी अथवा विचारों के धारा प्रवाहने उनकी आंखों की पलकों को भींच लिया। ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि उनकी तंद्रा शोर से भंग हुई या किसी ने “महेश्वर दादा उठिए’’ की आवाज़ लगा कर उसे भंग किया। बहरहाल उन्होंने कड़वी और कुछ-कुछ लाल हो आयी आँखों से जब सामने की गैलरी की तरफ़ देखा तो लोग उन्हें तेज़ क़दमों से चलते हुए नज़र आए। पूरे परिवेश ने जैसे “शीघ्र प्रस्थान’’ की भंगिमा ओढ़ ली थी। गैलरी के उस पार से बने स्मारक के चारों तरफ़ अमलतास के पेड़ बेतरतीबी से फैले हुए थे।
महेश्वर सिंह उठे, धोती ठीक की और जल्दी-जल्दी कमरे से बाहर आये। भवन लगभग ख़ाली हो चुका था। लोग बसों और छोटी गाड़ियों में बैठ रहे थे। वह भी जाकर बस में बैठ गए कुछ गुमसुम से।
दादा आपको इतना देर क्यों हो गया? हम तो आपका वेट कर रहे थे।
महेश्वर सिंह से किसी ने पूछा।वह चुप रहे। ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी। इंजन की आवाज़ कानों में घर्राई तो उन्हें याद आया।
कम्बल .........।
“ए बाबू, हमार कम्बल।’’
और बस चल दी।
“ए ड्राइवर-तनी बस रोक दा हो,हमार कम्बल ता ओही जगह छूट गइल बा। ’’
पर बस रुकी नहीं, धीमी हो गयी।
महेश्वर सिंह ने कुछ परेशान भाव से अपनी साथ वाली सीट पर बैठे व्यक्ति को देखा- “अरे ई ता रामस्वरूप है। बरेली जेल में हम दूनो साथे बंद रही जा।’’
ड्राइवर ने एक झटके से बस रोक दी।
सेनानी रामस्वरूप ने खिड़की से सिर निकालकर इधर-उधर देखा। सामने ही आयोजन के प्रमुख कर्ता-धर्ता विद्रोही जी झोला लटकाये दिख गये।
“विद्राही जी, साथी महेश्वर सिंह का कम्बल छूट गया है।’’
“कहां .....’’
“उसी कमरे में जहां वह आराम कर रहे थे।’’
विद्रोही जी कोई जवाब देते कि ड्राइवर ने बस चला दी। इस बार महेश्वर सिंह तथा राम स्वरूप एक साथ चीख़े, “रोको.....रोको......’’ फिर कुछ और लोग भी।
बस पहले से ज़्यादा तेज़ झटके के साथ रुक गयी। बस के रुकते ही आगे वाली सीट पर बैठे सज्जन उठे। वह खादी के पीले कुर्ते पर “ स्वाधीनता संग्राम सेनानी सेवा समिति’’ का तिरंगा बिल्ला लगाये हुए थे।
“का भयो ......’’ उन्होंने पूछा।
“साथी महेश्वर सिंह का कम्बल छूट गया है’’ सेनानीराम स्वरूप ने बताया।
“कहां....?’’
“ उसी कमरे में .....’’
“इस मौसम में आपसे कम्बल लाने को किसने कहा था?’’ बस में बैठे आधुनिक इतिहास के सेवामुक्त प्राध्यापक ने कहा। तब तक सेनानी सेवा समिति का बिल्ला लगाये सज्जन खिड़की से गर्दन बाहर निकाल चुके थे। उन्होंने देखा विद्रोही जी भागते हुए बस की ओर आ रहे हैं.....उनका झोला पूरब-पश्चिमकी दिशा में झूला झूल रहा था।
“भई आप लोगों ने बस क्यों रुकवा दी......’’ विद्रोही जी झल्लाये।
“सेनानी महेश्वर सिंह का कम्बल छूट गया है।’’
ओ-हो मैं कम्बल ढुंढवा कर भिजवा रहा हूं। आप बस चलवायें। समारोह का समय एकदम सिर पर है। मन्त्री जी आने ही वाले होंगे।’’ पीले कुर्ते वाले सज्जन ने गर्दन अंदर की और बस चल दी।
महेश्वर सिंह ने बस के पीछे वाले शीशे से बाहर देखना चाहा। धुआं गर्द और उनमें धुंधलाता स्मारक तथा अमलतास के पेड़। वह उदास हो गये और न जाने क्या सोचने लगे।
“सुनो महेश्वर.....’’ साथ वाली सीट के सेनानी ने उनकी सोच में हस्तक्षेप किया।
.“....वो कम्बल तुम्हें याद है.....बरेली के जेल के कम्बल धब्बों से भरे गंदे और बदबूदार।’’
महेश्वर सिंह ने सुना और बिना कुछ बोले बस में बैठे-बैठे जेलों की यात्रा करने लगे। इस यात्रा में वह उन भूख-हड़तालों से भी गुज़रे जो जेलों में बुरे खाने, बुरे कपड़े तथा गलत आचरणों के विरुद्ध की गयी थी। ऐसी ही एक भूख-हड़ताल में क्रांतिकारी यतीन्द्र नाथ दास शहीद हो गये थे।
मुख्य समारोह आरम्भ होने के ठीक पन्द्रह मिनट पहले महेश्वर सिंह की बस सेनानी नगर के स्वाधीनता द्वारा पर रुकी। बस से उतर कर सेनानी जल्दी-जल्दी चाय कक्ष की ओर जाने लगे। क्योंकि दस मिनट के बाद चाय का समय समाप्त हो जाने वाला था। फिर विद्रोही जी ने सख़्त हिदायत दे रखी थी कि सामरोह आरंभ होने के ठीक पांच मिनट पहले चाय पीने-पिलाने का चक्कर एकदम समाप्त हो जाना चाहिए। ग़ैर सेनानी यात्री जिनके पास चाय के कूपन नहीं थे, बाहर के चायख़ानों में चाय पीने चले गये।
महेश्वर सिंह चाय पीने नहीं गये। हालांकि क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होने के बाद उन्हें चाय पीने की एक प्रकार से लत-सी पड़ गयी थी। भोजन मिले न मिले, पर चाय अवष्य पियेंगे। भगत सिंह को तो दूध का शौक़ था। कुछ को सिगरेट की आदत थी। एक सिगरेट में तीन-चार साथी हिस्सा लगाते। बाद वाला झल्लाता, सबसे कम उसके हिस्से में आयी।
महेश्वर सिंह बसों तथा छोटी गाड़ियों से उतरने वाले एक-एक आदमी को आस भरी नज़रों से देखते। शायद उनका कम्बल उसी के पास हो। हालांकि उनके पास से गुज़रते हुए कुछ लोगों ने पूछा भी।
“सिंह साहब, यहां क्यों खड़े हैं.....आइए चलें.....’’
“हमार कम्बल.....’’ कभी बात पूरी हो पाती कभी न हो पाती, लेकिन लोग आगे बढ़ जाते। सबको जल्दी थी। समारोह आरंभ होने वाला था। क्रांतिकारी आंदोलन में समय का बड़ा महत्व था। समय के पालन की आदत बहुत से सेनानियों की अभी तक पड़ी हुई थी। दो-तीन लोगों ने महेश्वर सिंह को आश्वासन भी दिया, देखिए, अभी कुछ करता हूं.....’’
“थोड़ा रुकिए, समारोह समाप्त हो जाने दीजिए.....’’
तभी उनसे साथी सतवीर टकरा गये। साथी सतवीर से महेश्वर सिंह का परिचय तक़रीबन साठ साल पहले चले किसानों के एक आंदोलन के समय हुआ थ। बाद में दोनों आगरा के एक बम कांड में साथ-साथ गिरफ़्तार हुए थे। जब उस ज़माने के लोग कम ही बचे हैं। साथी सतवीर उनमें से एक है। साथी सतवीर ने कम्बल की पूरी रुदाद सुनने के बाद महेश्वर सिंह से पूछा,
“तुमने शर्मा जी को बताया....?’’ शर्मा जी आयोजन के संयोजक थे।
“नहीं, हम उन्हें परेशान कईल न चाहीत।’’
“और विद्रोही जी को....?’’
“बताय थे, बोले हैं, ढुंढवा कर भिजवा देंगे।’’
साथी सतवीर किसी सोच में गुम हो गये और महेश्वर सिंह ’स्वाधीनता द्वार’ की तरफ़ देखने लगे। विद्रोही जी सेनानी नगर में प्रवेश कर रहे थे। साथी सतवीर की दृष्टि भी उधर चली गयी।
“विद्रोही जी...’’साथी सतवीर ने आवाज़ दी।
“कामरेड इनका कम्बल तो मेरे लिए मुसीबत बन गया है.....’’ विद्रोही जी ने साथी सतवीर की बात पूरी सुने बिना झुंझलाये हुए स्वर में कहा-
“.....विद्रोही जी इनके पास एक ही कम्बल था। ’’ साथी सतवीर ने भी विद्रोही जी को बात पूरी नहीं करने दी।
“तो मैं क्या करूं, क्या मैंने इनसे कहा था, कम्बल वहां छोड़ आयें?’’
साथी सतवीर और सेनानी महेश्वर सिंह अवाक से उनका मुंह देखते रह गये। उनके मुंह का रंग काला था। बाल उनके सफ़ेद थे, पर उन्हें मेंहदी से उन्होंने लाल कर रखे थे, पोशाक वह सफ़ेद खादी की पहने हुए थे। इस प्रकार उनके शरीर पर तीन रंग विद्यमान थे। फलस्वरूप कुछ लोग उन्हें शरारत में कभी-कभी विद्रोही जी के बजाये तिरंगी जी कह दिया करते थे।
अपना वाक्य पूरा करने के बाद विद्रोही जी तीनों रंग लिये समारोह कक्ष की ओर चले गये। हवा का एक ठंडा झोंका आया और महेश्वर सिंह के जिस्म से जैसे दर्द की लहरें फूट पड़ीं। सालों पहले गोरे राबर्ट की सफ़ेद छाती को लाल कर देने वाले सेनानी महेश्वर सिंह के सांवले चेहरे पर पीड़ा और बेचारगी की गहरी पर्तें जम गयीं। जैसे सुबह कोहरे की गाढ़ी पर्तों ने आसमान को ढक लिया था।
महेश्वर सिंह ने एक क्षण आसमान को फिर क्षितिज के शून्य को देखा और सतवीर से कहा, एक ठो टेलीफ़ोन कर देते इलाके के थानेदार को कि महेश्वर सिंह सेनानी का कम्बल छूट गया है, मिले तो सेनानी नगर भिजवा दें।’’
“लेकिन टेलीफ़ोन तो कल रात ही से ख़राब है......’’
“ओये सतवीर तुसी उत्थे की कर रये हो, इस मुलक में तो इंक़िलाब बंगाली और सिख ही ला सकते हैं......’’ साथी सतवीर की आवाज़ पर सरदार गुरुमीत सिंह की आवाज़ छा गयी। सरदार गुरुमीत क्रांतिकारी बुक स्टाल के सामने कामरेड घोषाल से बातें कर रहे थे। साथी सतवीर सिंह चले गये।
सेनानी महेश्वर सिंह, मज़ाक का आनंद लेते व्यंग्य की चुभन अनुभव करते या इंक़िलाब के साथ सिखों व बंगालियों का समीकरण बिठाते कि तभी वहां बस की अगली सीट पर बैठे खादी के पीले कुर्ते पर ’स्वाीधीनता संग्राम सेनानी सेवा समिति’ का तिरंगा बिल्ला लगाये वही सज्जन आ गये। महेश्वर सिंह उन्हें देखते ही कम्बल के बारे में पूछने के लिए आतुर हो उठे। पर महेश्वर सिंह पूछते कि वह कुछ उत्साहित से स्वर में बोल पड़े, ’’सिंह दादा आपने मुझे पहचाना नहीं,’’
“मैं धर्मदेव हूं.....मैनपुरी में मैं, आप, दत्ता और वीरपाल एक साथ गिरफ़्तार हुए थे। मेरठ जेलों में भी साथ रहे थे। मातृवेदी संस्था याद है, तुमको और वह गाना।
“मां तेरी सौगंध हमें हम हथकड़ियां तड़कायेंगे, हो सुहागिनी बन रण चंडी तेरा दूध निभायेंगे।’’ धर्मदेव रुके तो महेश्वर सिंह ने उन्हें दृष्टि भर कर देखा और कुछ असंबद्ध से भाव में पूछा, “हमार कम्बल.....?’’
“तुम्हारो कम्बल मिलो नहीं?’’
“नहीं ....’’
“तुम ऐसो करो स्वयं स्मारक चले जाओ।’’
“हम चल ता जाईं पर थोड़ी देर मे अंहार हो जाई, जाड़ा बढ़त बा, जड़ा जाइब, दिखइयो नाहीं पड़ी।’’
“तो .....?’’
“ऐसन करा कौनी कार्यकर्ता या जवान मनई के हमरे संग कर देव .....’’कार्यकर्ता ही का तो संकट है’’ इतना कह कर सेनानी धर्मदेव ने रीती-रीती आंखों से सेनानी महेश्वर सिंह को देखा, लार्ड इरविन की ट्रेन पर फेंके गये बम का सारा धुआं जैसे उनके चेहरे पर उमड़ आया था। परन्तु उस बम की धमक, ’’सभी सेनानियों से अनुरोध है कि वे कृपया तुरंत समारोह कक्ष में तशरीफ़ ले आयें.....’’ माइक पर अचानक आवाज़ गुंजी। धर्मदेव चौंक, जैसे कोई धमाका हुआ था।
“हमारा प्रोग्राम आरंभ होने जा रहा है, मंत्री जी पधार चुके हैं।’’
सेनानी धर्मदेव ने क़दम आगे बढ़ाया।
“जिन सेनानियों को सम्मान स्वरूप ताम्रपत्र और शाल भेंट की जाने वाली है, वे मेहरबानी करके आगे की लाईन में बैठें।’’ माइक पर आवाज़ फिर गुंजी। धर्मदेव एकदम पलटे।
“अरे महेश्वर सम्मान पाने वालों में तुम्हारो भी तो नाम है....’’ ’’..... जो सेनानी अभी तक बाहर खड़े हैं, उनसे अनुरोध है कि वे तुरंत अंदर आ जायें। समारोह आरंभ होने में पहले ही विलंब हो चुका है। मंत्री जी तशरीफ़ ले आये हैं। जिन सेनानियों ने पाँच वर्ष या उससे अधिक की क़ैद ब्रिटिश काल में जेल काटी हो वे कृपा करके आगे की लाइन में बैठें। मंत्री जी उन्हें अंगवस्त्र और ताम्रपत्र भेंट करेंगे। कृपया जल्दी करें।’’ माइक की तेज़ और लंबी होती आवाज़ में सेनानी धर्मदेव की आवाज़ फिर खो गयी और सेनानी धर्मदेव तेज़ क़दमों से चलते हुए समारोह कक्ष में प्रविष्ट हो गये।
थोड़े से घों-घों के बाद माइक फिर चीख़ा। एक-एक करके सूची के अनुसार क्रमवार नाम पुकारा जायेगा। विशिष्ट सेनानी कामरेड शर्मा जो भारत के क्रांतिकारी आंदोलन का स्वयं में एक अध्याय हैं, सम्मान पाने वाले सेनानियों का परिचय देंगे।
सेनानी महेश्वर सिंह कुछ क़दम चले और फिर रुक गये। देश की आज़ादी और समाज को बदलने के लिए चलाये गये क्रांतिकारी आंदोलन की महत्वपूर्ण थाती ’अनुशासन’ को भंग करना जैसे इस समय महेश्वर सिंह की मजबूरी बन गयी थी। अपनी जगह पर खड़े-खड़े उन्होंने समारोह कक्ष की ओर देखा। कक्ष के मुख्य द्वार पर पीले कपड़े का एक बैनर टंगा हुआ था।
“ देश के स्वीधीनता संग्राम के वीर सेनानियों का अभिनंदन’’ मुख्य द्वार के ठीक बग़ल में क्रांतिकारी साहित्य का स्टाल लगा हुआ था। महेश्वर सिंह ने स्टाल पर सरसरी नज़र डाली। उन्होंने आंखों पर ज़ोर देते हुए कुछ किताबों के नाम पढ़ने का प्रयास किया।
“क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास’’
“आज़ादी के चालीस साल’’
“जो देश के लिए लड़े’’
“क्रांतिकारियों के प्रिय गीत’’
“शहीदों की कहानियां’’
“अक्तूबर क्रांति के सबक़’’
“शहीद चंद्र शेखर आज़ाद’’
“अमर शहीद भगत सिंह’’
“मेहनत मज़दूरी और मुनाफ़ा’’
“शहीद अशफ़ाक़उल्लह का व्यक्तित्व’’
“उस घटना के पचास साल’’
“सेनानी समाचार’’
सेनानी समाचार से उनकी दृष्टि हटी तो स्टाल के थोड़ा दायें ज़मीन में गड़े लोहे के एक मोटे राड पर शान से फहराते तिरंगे से टकरायीं और उन्हें वह घटना याद आयी, जब पीरपुर थाने पर तिरंगा फहराने के प्रयास में हिम्मत सिंह कांस्टेबिल की बंदूक़ की गोली उनके बायें पैर की पिंडली को छेदती हुई न जाने कहां ग़ायब हो गयी थी। उनकी इच्छा हुई बायें पैर की पिंडली सहलायें। वह थोड़ा झुके कि तभी माइक पर सूचना दी गयी।
“अब स्कूल के बच्चे आपके सम्मुख कुछ गीत प्रस्तुत करेंगे।’’ बच्चों ने गाना शुरू किया।
“सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है......’’
महेश्वर सिंह ने सुना तो एक झटके से तनकर खड़े हो गये सावधान की मुद्रा में।
फिर बच्चों ने अंतर्राष्ट्रीय गीत गाया।
“हम होंगे कामयाब, होंगे कामयाब’’
तालियों की गड़गड़ाहट में गाना ख़त्म हुआ। माइक पर अगले कार्यक्रम की सूचना दी जा रही थी।
“जब मंत्री जी सम्मान पाने वाले सेनानियों को अंगवस्त्र व ताम्रपत्र भेंट करेंगे।’’
इसके बाद एक-एक करके नाम पुकारा जाने लगा। कामरेड शर्मा परिचय देते। कब आंदोलन में शामिल हुए, मुख्य कारनामे क्या रहे, कितने साल की जेल हुई, किस-किस जेल में रहे तथा अन्य विशेषताएं। नवां नाम महेश्वर सिंह का पुकारा गया, ’’साथी महेश्वर सिंह......
“हमारे यह बहादुर साथी जब किशोर थे, तभी आज़ादी की जंग में कूद पड़े। हमारे आंदोलन को यह एक ग़रीब किसान परिवार की देन हैं। पहली बार सन् तेईस में जेल गये। दो जेलों में मेरे साथ रहे। कुल अठारह वर्ष जेलों में बिताये। चौदह साल अंग्रेज़ों के शासन में और चार वर्ष आज़ाद भारत में। एक ज़माने में गाते बहुत अच्छा थे। अब उम्र और सेहत साथ नहीं दे रही। आंखों से भी कम दिखाई देता है। फिर भी सेनानियों के कार्यक्रमों में शामिल होने का प्रयास करते हैं।’’
कामरेड शर्मा का परिचय समाप्त हो गया पर महेश्वर सिंह नहीं आये।
नाम फिर पुकारा गया।
“सेनानी महेश्वर सिंह ...........’’
महेश्वर सिंह नहीं आये। कई लोगों ने गर्दन खींचकर सिर ऊँचा किया। इधर-उधर देखा पर महेश्वर सिंह दिखायी नहीं दिये। विद्रोही जी ने पंजों के बल खड़े होकर चारों तरफ़ देखा, महेश्वर सिंह उन्हें भी दिखाई नहीं दे रहे थे।
तब वह झुंझलाये।
“यह महेश्वर सिंह भी अजीब सेनानी हैं। ऐन सम्मान के समय ग़ायब ........’’
मंत्री जी हाथों में शाल लिये खड़े थे, ताम्रपत्र विद्रोही जी के हाथों में था और महेश्वर सिंह स्मारक जाने वाली बस में बैठ कर अपना कम्बल ढूंढने जा रहे थे।
36 -
कचरापेटी
[ जन्म : 1 जुलाई , 1950 ] |
रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी
- ‘अबे मँहगुँआ, कवन-कवन गल्ली साफ भइल रे ?’ - मुहल्ले के सभासद ने पालिका के ठेकेवाले सफाईकर्मी से घुड़क कर पूछा।
-‘कवन-कवन गल्ली साफ भइल . . . . कइसन घुड़कत बाटा। हमनके चार मिले बाटीं। हम बाटीं, खदेरुआ बा, ओकर महतारी बिआ, बेचना बा। कबन-कवन गल्ली साफ करब। जवन सपरी-साफ होई। आठ ठो गल्ली। एकठो खाँची, अधटुक्का सींक वाला झाड़ू, टुटहा बेंट क कुदारि। ढाई गोड़ क बित्ताभर क ठेला। ओहू में एक चक्का क किल्ली बेर-बेर छटकि जाला। कवनो तरह घिर्रावत बाटीं सभे। ठीकेदार से कहलीं, त कहलन कि तोहके देखीं कि ऊप्पर देखीं।’
-‘देख, एहर क चारो गल्ली साफ होखे के चाहीं। जहाँ-जहाँ नालिअन पर घास उगल बा, ओके साफ कर दे। नालिअन क प्लास्टिक निकाल दे, जवने पानी रुकले से जाम न लगे। दुसरकी दुबाइनवाली गल्ली में कल सराध रहल। तमाम पतरी-गिलास आ ठर्रावाली शीशी फेकल बा, ऊ सब साफ होखे के चाहीं। जो बहरे न फेकाय त मिश्राजी के बगलवाले कचरापेटी (खाली प्लाट) में फेंकि दे। ई चारो गल्ली हमार गढ़ ह। एहीं के वोटे से हम हर दाईं जीती ला। एसे एके उज्जर कर दे। साँझीं क इन्तिजाम हमरे तरफ से।’
-‘ठीक बा मालिक, आप जाईं, सब चकाचक हो जाई।’
सभासद महोदय इन्स्ट्रक्शन देकर चले गए। मँहगू और उसकी पार्टी काम में लग गई। दाएँ-बाएँ झाडू़ लग गया। नालियों से कचरे निकाल कर कचरे का गन्दा पानी अलग होने के लिए दरवाजों पर लग गए। मँहगू और बेचन चाय-पानी के लिए दरवाजे-दरवाजे घूमने लगे।
‘कुछ भी हो भाई, अपनापन अपने ही शहर में देखने को मिलता है। अपना घर, अपने लोग, अपनी बोली, अपने बच्चे, अपने पड़ोसी . . . ’
‘क्या बात है आज बड़े मूड में हैं आप ?’
‘क्यों न हों ? अब देखिए न, अपना नगर अपने नागरिकों का कितना ख्याल रखता है। यह स्ट्रीट लाइट देख रहे हैं। रात को जले या न जले लेकिन दिनभर अवश्य जलती है। प्रशासन को यह मालूम है कि दिनभर खटने के बाद रात को पब्लिक आराम से सोती है इसलिए रात में लाइट का जलना उतना जरूरी नहीं है, जितना दिन में। पता नहीं कब सूर्यदेवता लुप्त हो जाँय और आसमान में घटाघोप अन्धेरा छा जाय। इसलिए यह दिनभर जलती रहती है। दिन में आवागमन है। दिन में ही इसकी आवश्यकता ज्यादा है।’
‘बात क्या है जो नगरपालिका और बिजली विभाग पर आप इतने खुश हैं ?’
‘बात क्या है। पत्नी ने कहा कि कल से रामनवमी सुरू बा। ई सब तोहार पोथी-पत्र एइसे फइलल रही की बिटोराई। घर में झाड़ू-पोंछा लगी आ धोआई की गन्हउरे रही।’ मैं सफाई में लग गया। दिनभर पुस्तकों के साथ जूझता रहा। शाम हो गई, पूरी सफाई नहीं हो सकी। पत्नी को मेरे ऊपर थोड़ा रहम आया। पास आकर बोली- ‘अच्छा रहे द। तनी कल सबेरवें उठि जायो।’ मैंने हामी भर दी।
प्रातः सोकर जल्दी उठा। सूर्य की प्रथम किरण के साथ स्नान करके आपके घर आने ही वाला था कि पत्नी ने कहा- ‘तू त कब्बो पूजा कराला नाहीं, कम से कम आजु त मन्दिरे जाके माई के दर्शन करी आवा। बरिस-बरिस क तिउहार ह। पुन्नि मिली।’
‘कहाँ जाऊँ’ सोच रहा था। आजकल पूजा भी सड़क पर होती है। दस-दस कदम पर लक्ष्मी पूजा, दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा, चित्रगुप्त भगवान पूजा, शनिदेव-पूजा, कटहरी देवी पूजा, मटकौली देवी पूजा। अनेक तरह की पूजा। मैंने शहर में अनेक स्थान पर देखा है कि पहले भगवान किसी पेड़ के नीचे दर्शन देते हैं। कुछ दिनों बाद उनके भक्तगण उनके कष्ट को देखकर चबूतरे का निर्माण करा देते हैं। कुछ वर्ष तक भगवान खुले छत के नीचे जाड़ा, गर्मी, लू और बरसात में समय बिताते हैं। बाद में उनके भक्तों को याद आता है कि मैं अट्टालिका में रहूँ और मेरे भगवान पेड़ के नीचे कचरे में। मुहल्ले के भक्त इकट्ठे हो जाते हैं। चबूतरे को मन्दिर का रूप देने के लिए चन्दे की वसूली प्रारम्भ हो जाती है। कुछ महादानी होते हैं जो भगवान को भक्तों के माध्यम से लम्बी रकम तक देते हैं। धीरे-धीरे मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ। भाँति-भाँति के देव - भाँति-भाँति के भक्त। ट्रस्ट बना। धर्मशाला बना। भक्तों में राजनीति शुरू। कुछ मुकदमें भी। ऐसे ही मेरे घर से एक मन्दिर के बीच की दूरी लगभग तीन-चार सौ मीटर होगी। रास्ते में तीन गलियाँ पार करके जाना पड़ता है। स्नान करके दर्शनार्थ चला। माँ की कृपा से अपनी गली निर्विघ्न पार कर गया। दूसरी गली के मोड़ पर पहुँचते ही अचानक भल्ला साहब के मकान के ऊपरी छत की नाली से मुसलाधर वर्षा होने लगी। पूरा शरीर नहा गया। ऊपर देखा- एक वृद्ध महिला झाड़ू लेकर पानी के गिरने की धार देख रही थी। बगल के छत पर खड़ी दो महिलाएँ मेरी हालत पर मन्द-मन्द मुस्करा रही थीं। मैं भी बिना मुस्कराए न रह सका। तेज कदमों से वापस लौट रहा था कि श्रीवास्तवजी केला खाते छिलका सड़क पर फेंकते हुए मिल गए। पूछ बैठे- ‘अरे पण्डितजी यह क्या ?’
‘अरे कुछ नहीं, आपकी ही तरह एक भद्र महिला का कमाल है।’ बात पूरी होती कि इसके पहले ही कूड़े से भरा पालिथीन का बँधा पैकेट मेरे सर से टकराया। सर घूम गया। पैकेट फेंकने वाला कहीं नजर नहीं आया।
घर आया। पत्नी ने देखा। हँसी। कहा- ‘जा फिर से नहा लऽ।’
-‘अरे यह सब तो होता ही रहता है। अब देखिए न शहर का हर निवासी सोचता है कि अपना मुहल्ला साफ रहे किन्तु वह यह भी देखता है कि पड़ोस में किसका प्लाट खाली है या अपने घर का कचरा या जूठन भोर होते ही किसके मकान के सामने फेंक दूँ और वह न देखे। शर्माजी तो अपने दरवाजे की नाली साफ करके सारी गन्दगी मेरे दरवाजे पर लगा देते हैं। मना करने पर कहते हैं कि भाई साहेब, आपने ही तो मुहल्ले के सभासद भोलेनाथ को वोट देने के लिए कहा था, अब उसी से साफ करवा लीजिए।’ भोलेनाथ से कहता हूँ तो वह कहता है- ‘आपने वोट दिया है, खरीदा नहीं है। मुझे और भी काम है। फिर एलेक्शन में जो खर्च किया है, वह भी निकालना है। भविष्य के लिए कुछ बनाना है। अगले एलेक्शन की तैयारी भी तो करनी है।’
-‘अरे भाई, महानगर की आबादी लगभग पचास लाख से ऊपर है। सुबह से शाम तक शहर की सभी सड़कें जाम। जिस सड़क पर निकलिए, सड़क की पटरियाँ दूकानों से भरी हुईं। हर नाली के बगल में अण्डे और चाट खाते लोग। खाया - पत्ता नाली में। सड़क पर आवारा छुट्टे जानवर बीच-बीच में खानेवालों के पीछे खड़े हैं। आजकल एक रिवाज यह भी है कि आपके घर कोई भी उत्सव हो, ब्रह्मभोज हो, तिलक हो, शादी हो, तो घेर लीजिए पूरी सड़क। कोई कुछ नहीं कर सकता। दावतें खाइए और खिलाने वाला जूठी पत्तलें बगल की नाली में फेंक देगा। मैंने हरिद्वार में देखा, वहाँ पालिथिन पर रोक है। अपने शहर में आदमी घर से सामान खरीदने निकलता है खाली हाथ, लौटता है सामान से भरे पाँच-छः पालिथिन की थैलियों के साथ। थैली खाली किया, नाली में फेंक दिया। मैंने सब्जीवाले से एकदिन कहा कि भइया क्यों पालिथिन के थैले प्रयोग करते हो। जबाब दिया- ‘बाबूलोग हाथ में झोला लटकाना पसन्द नहीं करते हैं।’
पड़ोसी को गाय पालने का शौक है। दूध पीने का शौक है किन्तु सफाई के नाम पर सारा गोबर नाली में। आज तो शहर की हर नालियाँ गोबर, पालिथिन और प्लास्टिक के डिस्पोजल बर्तनों से पटी हैं। अरे अब तो नालियों पर स्लैब ढलवा कर दुकानें लग रही हैं। आधे घण्टे बरसात हो गई तो पूरा सड़क जाम। इतना ही नहीं, शहर से थोड़ा बाहर निकलिए तो आपको सड़कों पर ही खेती करते हुए लोग मिलेंगे। मुझे याद है कि कुछ साल पहले एक अधिकारी ने नारा दिया था- ‘नारा है महमूद बट - सड़क से दो सौ बीस फीट पीछे हट।’ अगर उस नारे पर आज अमल हुआ होता तो शायद यह जाम, सड़कों की यह दुर्दशा नहीं होती।’
‘अरे भाई, क्या कचरे का पचरा गाने लगे। आपके बगलवाला खाली प्लाट कचरापेटी है न। अपने घर का सारा कचरा उसी में फेंकिए न।’ अभी वे कह ही रहे थे कि सड़क पर बने गड्ढ़े में जमे पानी से जाती हुई बोलेरो ने उन्हें नख-शिख नहला दिया।
37 -
अपने भीतर का अंधेरा
तड़ित कुमार
एक था राजा और उसके थे चार भत्तीजे। राजा का अपना कोई बेटा नहीं था। और बेटी भी नहीं थी। छोटे भाई के चार बेटे ही जैसे उसके अपने बेटे थे। राजा के छोटे भाई को पिछले साल डेंगू हो गया था सो वह मर गया। छोटे भाई की बीबी तो पहले ही मर चुकी थी। एक दिन हमाम में एकाएक पैर फिसल गया था, सो पट गिर पड़ी और जब लोगों ने उसे चित्त किया तो देखा वह मर चुकी थी। भत्तीजों में जो सबसे बड़ा था वह राजा बनने की ट्रेनिंग ले रहा था, क्योंकि इस राजा के मरने के बाद उसी को राजा होना था। बेचारा बड़ा भतीजा था एक आंख का काना। एक बार पहाड़ तले जंगल में शिकार करने गया था। सो कहते हैं कि वहीं एक कबूतर ने उसकी एक आंख ही उड़ा ली। तब से वह काना है। बीच के दो भाई बड़े भाई के साथ साये की तरह रहते हैं, बड़े भाई की हर खिदमत करते हैं और मन ही मन मनाते हैं कि अबकी बार कोई कौवा या चमगादड़ बड़े भाई की दूसरी आंख भी साफ कर दे और सिंहासन तक पहुंचने का उनका रास्ता और भी साफ हो जाये।
सबसे छोटा भाई यानी संतोष का मिजाज अपने भाईयों से कुछ अलग था। कुछ तर्कमिजाजी होने की वजह से उसे कोई पसंद नहीं करता था। संतोष के साथ सबसे खराब बात यह थी कि वह मानता था कि हर बात के पीछे कोई बात होती है यानी कि कोई भी बात बिला वजह नहीं है। इसके सिवाय उसके अंदर और कोई खराबी नहीं थी, राज घरानों के बाकी सभी गुण उसमें थे। संतोष पक्का शराबी था, अव्वल दर्जे का रण्डीबाज था। अपना खाता-पिता मस्त रहता। वैसे उसे राजा बनने का शौक नहीं था।
राजा हफ़्ते में एक दिन दान करता था। उस दिन राज-दरबार के बाहर लोगों की भीड़ लग जाती। कटे-चिथड़े पहने हजारों लोग जुटते। सफेद मूंछों पर ताव देता राजा निकलता। उसके चारों ओर उसके सभासद, और तीन भतीजे। वैसे हुक्का बरदार तो एक ही होता लेकिन लगता जैसे राजा के आगे-पीछे दाहिने-बांये सबके सब हुक्का-बरदार ही हों। चार बड़ी थालियों में सिक्के और दो बड़े बक्सों में कपड़ों के ढेर लिये चार-चार गुलाम राजा के पास खड़े रहते। राजा हल्के-हल्के मुस्कराता और कभी सिक्के और कभी कपड़े सामने की भीड़ पर उछाल फेंकता। एक-एक सिक्के और कपड़े के टुकड़े के लिए कटे-चिथड़े पहने लोगों में मार पड़ जाती। राजा देखता, हंसता, सफेद मूंछों पर ताव देता और बाकी लोग राजा की जय-जयकार करते। संतोष कभी इसमें शामिल नहीं होता। पता नहीं क्यों उसे यह सब अजीब चूतियापा लगता था। वह समझ नहीं पाता था कि आखिर लोगों को इतने पैसों की दरकार पड़ती है कि एक-एक सिक्के के लिए मार पड़ जाये। उसे तो कभी बहुत कपड़ों की ही। वैसे हवा में लटकती गरीबी नाम का एक शब्द उसने सुन जरूर रखा था। वह कहता था कि अगर गरीबी नाम का कोई चूतियापा है ही तो यह भी बिलावजह नहीं है। संतोष की अल्लम-गल्लम बातें राजा और दूसरे भाइयों की पसंद नहीं आतीं। शुरू में उसे समझाने की बड़ी कोशिश की गयी। लेकिन बिना वजह कोई बात उसके भेजे में घुसती ही नहीं। सारी कोशिशें बेकार साबित हुई और तब लोगों ने उसे समझाना छोड़ दिया। वह लाखेरा करार दिया गया, राज-घराने का कलंक।
एक बार उस राज्य में भयंकर सूखा पड़ा। सोना उगलने वाली उस देश की धरती एक दाना भी न उगल सकी। लिहाजा मरने वालों की लाईन लग गयी। कई हजार लोग मर गये। हजारों की तादात में भुक्खड़ लोग पेट बजाते राजधानी में भीड़ लगाने लगे। राजमहल के बाहर भुक्खड़ों का मेला लग गया। कितने लोग तो वहीं मर कर सड़ भी गये। सड़ने की बू जब राजा की नाक में पहुंची तो राजा ने पूछा-यह माजरा कया है? राजधानी के भंगियों ने हड़ताल कर रखी है क्या, जो मेरी नाक तक पहुंचने को बदबू को रास्ता मिल गया? मंत्रियों ने राजा को समझाया कि भंगियों ने नहीं खेतों ने हड़ताल कर दी है। सूखा पड़ा है, लोग मर रहे हैं। सड़ रहे हैं। यह आदमी के गू की नहीं खुद आदमी की बू है। सुनते ही राजा की आंखों में पानी भर गया और तुरन्त सूखा में सूख रहे लोगों के प्रति राजा की आंतरिक सहानुभूति की वाणी प्रसारित कर दी गयी।
भुक्खड़ों के इस हो-हल्ले में गरीबी जैसे ही कुछ और भी शब्द हवा में लटकते संतोष के कानों तक पहुंच गये। जैसे भूख, प्यास, पीड़ा, जलन, यंत्रणा वगैरह। संतोष ने हमेशा की तरह इन शब्दों को भी समझने की कोशिश की। लेकिन बहुत सोचने पर भी वह समझ नहीं सका यह स्साली भूख क्या बला होती है! उसे तो कभी भूख नहीं लगती। सुबह से लेकर रात के बीच कभी भी भूख जैसी कोई बात का उसे एहसास ही नहीं हुआ।
सोचते-सोचते वह हार गया और एक दिन काफी रात गये वह खाली हाथ राजमहल से बाहर निकल पड़ा। उसने तय कर लिया कि जब तक भूख और गरीबी का सही एहसास उसे नहीं होगा वह नहीं लौटेगा।
रात भर चलता सुबह तक वह राजमहल से काफी दूर निकल आया। कई मील। वह लगातार चलता रहा, चलता रहा और शाम होने से कुछ पहले एक छोटे से शहर में पहुंच गया। वह बेहद थक गया था। उसने सोचा रात यहीं काट लेंगे। सड़के के किनारे एक चबूतरे पर वह टांग फैला कर बैठ गया। सड़क उस पार बहुत सारी सजी हुई दुकानें थीं, कपड़ों की, गहनों की, मिठाई-पकवानों की। वह बैठा देखता रहा। काफ़ी देर तक वह यूं ही चुपचाप बैठा रहा। तभी उसे अपने पेट में से चों....चों की एक लम्बी आवाज निकलने का एहसास हुआ। कई बार रुक-रुक कर ऐसी आवाजें होती रहीं। उसे लगा जैसे पेट के अन्दर कोई छोटा जानवर पेट के एक कोने से दूसरे कोने तक रह-रह कर भाग रहा हैं और चों-चों की आवाज कर रहा है। थोड़ी देर बाद उसे लगा उसके पेट में हल्का-सा दर्द होने लगा है। इच्छा होने लगी कि वह चबूतरे से उठकर मिठाई की दूकानों के पास चला जाये और तभी अचानक उसे एहसास हुआ कि उसे भूख लगी है, बहुत जोर की भूख लगी है। भूख के इस एकदम नये एहसास से उसे इतनी खुशी हुई कि उसे लगा कि वह चिल्ला-चिल्ला कर सबसे कहे-'देखो मुझे भूख लगी है, मुझे भूख लगी है।” उसने सोचा आज जैसा मजा उसे कभी नहीं आया। भूख लगने जैसा इतना मजा उसे कभी नहीं आया। उसका मन हुआ वह खुशी से नाचे, कूदे, गाना गाये-लेकिन तभी एकाएक उसे एक झटका-सा लगा। उसके दिमाग में बिजली की तरह एक बात दौड़ गयी कि अगर भूख इतनी मजेदार चीज है तो यह स्साले भुक्खड़ लोग भूख-भूख करके रोते क्यों? भूख से मरते क्यों? सड़ते क्यों? बदबू क्यों आती? उसने माना कि भूख एक अजीब सुख का नाम है जिसका उसे पहले कभी अनुभव नहीं था। उसने मन ही भुक्खड़ों को बड़ी गालियां दीं और चबूतरे से उठकर सजी हुई दुकानों के बीच जा खड़ा हुआ। लेकिन पैसा तो उसके पास एक भी नहीं था। वह कुछ खाये तो कैसे खाये। मुंह में पानी भर कर वापस चबूतरे पर बैठ गया।
शाम गहरा चुकी थी। वहीं चबूतरे पर संतोष लेट गया। लेटे-लेटे ही उसे ख्याल आया कि अभी अगर वह राजमहल लौट जाय तो उसे तमाम खाने-पीने की चीजें मिल सकती हैं।
सुबह जब संतोष की नींद खुली तो उसने अपने को बेहद कमजोर पाया। यहां तक कि उसे लगा वह उठ कर बैठने के काबिल भी नहीं रह गया है। लेटे-लेटे ही उसने मुंह पर हाथ फेरा, गलफड़ों पर रात भर चूते रहे लार के दो गहरे सफेद दाग बन गये थे। उसकी अंगुलियां वही चटख कर रुक गयीं। वह नाखून से पर्त में जमे लार को उखाड़ने लगा। उसने अनुभव किया कि उसके पेट में अजीब जलन हो रही है जैसे पेट के अन्दर कोई चीज धीरे-धीरे गल रही है। उसे लगा कि पेट के ऊपर और पेट के नीचे के शरीर के दो हिस्से एकदम अलग-अलग हैं और उसने अगर खड़े होने की कोशिश की तो इन दोनों में से एक न एक हिस्सा चबूतरे पर ही पड़ा रह जायेगा। लेकिन इतने पर भी उसे लगा वह भूख की यंत्रणा भोग नहीं पा रहा है। भूख की याद आते ही राजमहल में इफ़रात पड़ी तमाम लजीज खाने-पीने की चीजें अपने आप उसके सामने परोस दी जातीं और उसे लगता वह जब भी चाहे इनमें से कोई भी चीज खा सकता है। धूल से गन्दे हुए कपड़ों में लिपटे चबूतरे पर वह लगभग बेसुध सा पड़ा था। उठने की ताकत भी जैसे खत्म हो गयी थी। भूख से उसका शरीर सिकुड़-सा गया था। लेकिन इसके बावजूद वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर भूख में यंत्रणा का वह कौन-सा स्तर है, जहां आदमी पेट बजाता हाथ में कटोरा लिये सफेद मूंछोंवाले राजा के दरवाजे पर भीड़ लगा सकता है। उसने सोचा भूख को और तेज होना दिया जाये। शायद तब वह उस यंत्रणा को समझ सके।
चबूतरे पर लेटे-लेटे उस ने दो दिन और बिता दिये। तब उसे लगा कि अब कुछ खाये बग़ैर नहीं रहा जाता। जैसे भी हो अब कुछ खाना ही चाहिए। वह झटके से उठकर खड़ा हो गया, उसका सिर चकरा गया, उसके फिर जमीन पकड़ ली। इस बार वह धीरे-धीरे चबूतरे पर से उतर कर रास्ते में जा खड़ा हुआ। उसे लगा भूख का वह मजा अब जाता रहा, जिसका उसे अभी चार दिन पहले अनुभव हुआ था। फिर भी भूख़ कोई यंत्रणा है यह वह मान नहीं पा रहा था। पेट में उठते दर्द के हर टुकड़े के साथ उसे लगता नरम लजीज गोश्त की कोई बोटी या भरा हुआ दूध का कोई गिलास जब भी चाहे वह पा सकता है। राजमहल यहां से कोई इतनी दूर नहीं।
उसके पास ही वह बकरा घास चर रहा था। संतोष को याद आया कि पिछली भुखमरी में लोगों को घास और पत्ते खाते भी सुना गया है। उसने सोचा घास जरूर कोई लजीज चीज होगी नहीं तो भला लोग घास क्यों खाने लगते। वहां घास काफ़ी लम्बी उगी थी। सन्तोष ने मुट्ठी भर घास तोड़ कर मुंह में भर ली। अजीब कड़वाहट और कसैलेपन से उसका मुंह भर गया। उसे लगा अभी उसे उल्टी हो जायेगी। उसने थूक दिया। काफी देर तक वह थूकता रहा। उसे बेहद ताज्जुब हुआ। घास तो खाने में कोई अच्छी चीज नहीं लगती है। तो फिर भूख में लोग घास और पत्ते खाते होंगे? आखिर कितनी, कितनी भूख लगने से आदमी घास और पत्ते भी खा सकता है? उसे भी बेहद तेज भूख लगी है, लेकिन वह तो घास और पत्ते नहीं खा सकता। क्या उसे अभी इतनी भूख नहीं लगी है, जितनी उन लोगों को लगी थी? उसने सुना है पिछली बार भुखमरी में कितने लोगों ने एक पंसेरी ज्वार या मक्का के बदले में अपनी बीबी-बेटियां बेंच दी थीं। भूख तो उसे भी लगी है इतनी भूख लगी है कि वह लड़खड़ा रहा है, लेकिन इसके लिए वह घास-पत्ते नहीं खा सकता, अपनी बहन या भतीजियों को नहीं बेच सकता या दो-चार पैसे के लिए किसी का खून नहीं कर सकता।
इसी तरह और भी कई रोज बीत गये। इस बीच कपड़े बेहद गन्दे हो चुके थे, दाढ़ी काफ़ी बढ़ चुकी थी, बगैर कंघी-तेल के उसके बाल एकदम बेतरतीब हो गये थे। कुल मिला कर वह एक पागल या भिखमंगा ही लगने लगा था। अब वह चबूतरे पर ही पड़ा रहने वाला था उठ कर चलने की उसमें हिम्मत नहीं थी। लेकिन जिस काम के लिए वह घर से निकला था वह पूरा नहीं हो पाया था। उसे अब गुस्सा आने लगा था भुक्खड़ों पर, भूख-भूख कर रोने चिल्लाने और पेट बजाने वालों पर। अन्ततः उसे यही लगा कि भूख कोई ऐसी यंत्रणा नहीं है, जिसके लिए आदमी से गिर जाये, बकरा बनकर घास चरने लगे, बीबी बेटियां बेच दे, या किसी का खून कर दे। उसने तय कर लिया कि अब राजमहल लौट चलना ही अच्छा है।
संतोष जब राजमहल के बड़े फाटक के पास पहुंचा तो दोपहर ढलने लगी थी। फाटक के बाहर हजारों भुक्खड़ इकट्ठे थे। कटे, मैले, चिथड़े, चिकट्टे कपड़े धूल से सने हुए शरीर, हरेक के हाथ में एक-एक कटोरा। लोग राजा के हफ़्तावार दान के दिन की प्रतीक्षा में थे। संतोष अपनी देह को बड़ी तकलीफ से खींचता घसीटता और मन ही मन भुक्खड़ों की उस भीड़ को गालियां देता फाटक तक पहुंचा वह बुरी तरह हांफ रहा था। फिर उसे खुद ही हंसी आयी कि उसने अपने चेहरे का जो नक्शा बना रखा है। उसमें कोई भला उसे क्या पहचानेगा। वह फाटक पार कर अन्दर घुसने लगा। उसे लगा कि पहरेदार उसे रोकने की मुद्रा में आगे बढ़ रहा है। उसने पहरेदार को देखा। पहरेदार नजर झुकाकर पीछे हट गया, लेकिन उसने सलाम नहीं किया। खैर, वह महल के अहाते में घुस गया उसने देखा कि महल के नौकर-चाकर अपने-अपने काम में जुटे हैं। कोई भी उसकी उपस्थिति को जरा भी महत्व नहीं दे रहा है। आखिर बात क्या है? उसे गुस्सा आने लगा। भूख से वह इतना कमजोर हो गया था कि अपने कांपते पैरों को घसीट भी नहीं पा रहा था। वह खड़ा हो गया। तभी उसे महल की सीढ़ियां उतरते बड़े भाई दिखाई पड़ गये। उसकी जान में जान आयी। उसने देखा कि बड़ा भाई उसे देख कर भी अनदेखा कर दे रहा है। उसे ताज्जुब हुआ। धीमी आवाज में उसने बड़े भाई को बुलाया। बड़ा रुक कर संतोष की ओर देखने लगा। उसकी दृष्टि कुछ ऐसी थी, जैसे वह संतोष को पहली बार देख रहा हो। सन्तोष कुछ कह सके इसके पहले ही बड़ा भाई आगे निकल गया और कुछ दूर खड़े नौकरों को डांटने लगा। डांट खा कर नौकर चाकर भागे-भागे उसके पास आये। एक ने पूछा कि वह अन्दर कैसे घुस आया, किसी ने रोका नहीं क्या? अब सन्तोष से रहा नहीं गया, वह पूरी ताकत से चिल्ला उठा, यह क्या मजाक है? मुझे कोई क्यों रोकेगा? मैं राजकुमार संतोष हूं संतोष । उस की बात सुनकर वे हंस पड़े। एक ने कहा, “सब स्साले पागल अपने को राजकुमार कहते हैं। भाग, यहां से भाग, नहीं तो चमड़ी नहीं बचेगी। संतोष ने कुछ कहना चाहा कि तब तक एक ने उसे धक्का दे मारा। वह गिर पड़ा। किसी ते एक लात जमा दी। उसने बढ़ने की कोशिश कीं, तब दो आदमियों ने उसे घसीट कर फाटक के बाहर कर दिया।
कुछ देर तक तो संतोष ज्यों का त्यों पड़ा रहा। जब उसने आंखें खोली तो देखा सामने उसका बावर्ची खड़ा है। संतोष बड़बड़ाया-बावर्ची मेरा खाना लगाओ।” तभी उसने पहचाना कि बावर्ची नहीं उसके सामने बड़े फाटक का पहरेदार ने खुद ही बतलाया कि बूढ़े राजा मर चुके हैं, उनका बड़ा भतीजा यानी संतोष का बड़ा भाई राजा बना है। बूढ़े राजा ने अपनी वसीयत में सन्तोष के नाम कुछ भी नहीं छोड़ा है। नये राजा के हुक्म से सन्तोष को पहचानने वाला भी दण्ड का भागी होगा। अब उसे यहां कोई नहीं पहचानेगा।
पहरेदार अपनी जगह लौट गया था। कुछ देर तक सन््तोष कुछ सोच ही नहीं सका। उसे लगा वह अभी तक सपना देख रहा है और अभी उसकी नींद खुल जायेगी तो वह बावर्ची से खाना लाने को कहेगा। फिर उसने गर्दन उठायी और अपने आसपास को देखा। कहीं कुछ भी अपना नहीं था। भुक्खड़ों की एक भीड़ में वह पड़ा था, हजारों हजारों लोग, गावों में सूरज की तेज रोशनी ने जिनके खेत जला दिये थे, दांत से दांत और कटोरा से कटोरा बजा कर सुबह होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह हालत को समझने की कोशिश करने लगा कि अब उसके पास कुछ भी नहीं रहा-न रहने को घर न सोने को बिस्तर, न पहनने को कपड़े, यहां तक कि उसे यह भी नहीं मालूम कि उसे अब अगला खाना कब मिलेगा? कहां मिलेगा ? कैसे मिलेगा? तभी उसने अनुभव किया कि उसे एक अदूभुत यंत्रणा का एहसास होने लगा है, यह यंत्रणा भूख से उठने वाले पेट दर्द से एकदम अलग है। मन हुआ कि वह दोनों हाथ ऊंचा उठा कर चिल्ला-चिल्ला कर पूछे-“मुझे अगला खाना कब मिलेगा? ....मुझे अगला खाना कब मिलेगा? ...संतोष ने आसपास के भुक्खड़ों के चेहरों को देखा उसे आश्चर्य हुआ कि वही एक सवाल हर चेहरे पर लिखा था-मुझे अगला खाना कब मिलेगा? एकाएक संतोष को लगा वह घास-पत्ते भी खा सकता है, बीबी, बहन, बेटियों को बेंच सकता है और एक नहीं कई-कई खून कर सकता है।
संतोष की नजर बगल में पड़ी एक चीज पर रुक गयी। एक भुक्खड़ धूल में चित्त पड़ा था, उसके मुंह से निकले लार से जमीन का छोटा-सा टुकड़ा भींग गया था, और उसके मुंह पर सैकड़ों मक्खियां भन्ना रही थी। उसके हाथ के पास एक कटोरा पड़ा था। संतोष घुटने के बल उसके पास पहुंचा। उसे छू कर देखा। बर्फ की तरह ठण्डा था उसका शरीर। वह मर चुका था। सन्तोष ने मुर्दे के पास पड़े कटोरे को हाथ में उठा लिया।
38 -
गुब्बारे
[ जन्म : 25 दिसंबर , 1950 ] |
राजाराम चौधरी
मुर्गे ने बाँग दे दी थी और मियाँ भी बोल चुका था। भोर की आवाजें, गली में, जहाँ-तहाँ सोये पड़े मर्दों की नींद में घुसकर मानो छेड़-छाड़ कर रही थीं, ‘‘उठ जाओ अब, चलो तैयारी-त्यूरी करो, काम पर जाना है न!’’ मर्द थोड़ा कसमसाते, फिर बेसुधी में उघड़ आये अंगों को वापस चादर के भीतर समेटते हुए, एक आखिरी झपकी ले लेने का प्रयास करते, पर औरतों के ऐसे नसीब कहाँ? उन्हें तो मर्दों से पहले उठ जाना है, झाड़ू-बहारू, चौका-बासन करना है, कलेवा तैयार करना है, और फिर मर्दों के साथ मिलकर, उनके दिहाड़ी पर निकलने की तैयारी करानी है।
शबनम उठ चुकी थी। उसने बगल में सोये हुए, छोटे भाई सलीम की ओर नजर डाली। उसकी आँखें खुली हुई थी और उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान खेल रही थी। वह ऐसे ही आँखें खोले सोता है। शबनम को उसके भोले मुख पर प्यार हो आया। वह उसके नरम गालों को चूम लेना चाहती थी परन्तु नहीं, जाग जायेगा। जब तक वह चा-चू तैयार करती है, तब तक एक नींद और ले ले। तभी सलीम हल्के से खिलखिला पड़ा था। उसने करवट बदल ली है।
लाल-पीले, हरे-नीले, रंग-बिरंगे गुब्बारे आसमान में उड़े चले जा रहे थे। ये गुब्बारे उस जादुई छड़ी के सिरे पर बंधे हुए थे, जिसे थामे सलीम खुद भी उड़ा चला जा रहा था। तभी उसके अगल-बगल से बादलों का एक झुंड गुजरने लगा। बादलों के बीच लुकता-छुपता, नहीं, चाँद, नहीं एक महल जैसा कुछ, तेज़ी से पास चला आ रहा था। ओ ये तो वही है, नन्हीं लाल परी। वही तो है वहाँ, बारचे पर। ‘‘एइ, गुब्बारे वाले भइया’’ हाँ-हाँ वही पुकार रही है उस सलीऽऽम’’।
फट-फट-फट, सभी गुब्बारे फटने लगे थे। वह तेज़ी से नीचे गिरता चला जा रहा था, ज़मीन की ओर। धप्प की आवाज़ हुई और उसकी आँखें खुल गईं - खुली तो थी ही, जाग पड़ी। वह अपने बिस्तर पर था।
‘‘काम पर नहीं जाना है क्या?’’ शबनम बाजी की आवाज सुनाई दी। उसकी नजरें बरबस ही दालान के कोने की ओर चली गयीं। गुब्बारे लाल-पीले, हरे-नीले, रंग-बिरंगे, बाकायदा डंडे में बंधे हुए थे और डंडा कोने में खड़ा-खड़ा उसे मुँह बिरा रहा था, दोस्त की तरह।
‘‘चलो, हाथ मुँह धो लो। चाय तैयार होने वाली है।’’ शबनम बाजी चूल्हे के पास बैठी हुई आटा गूँथ रही थी। अम्मी टाफी लपेटने के चमकीले छापेदार कागज समेट रही थी और अब्बू ठेला सजा रहे थे। पूरा घर दिहाड़ी की तैयारी में जुटा हुआ था। सलीम ने पानी की बोतल उठाई और घर के पिछवाड़े गड़हे की ओर चल दिया, फारिग होने।
सब्जी तैयार हो चुकी है, रोटियाँ बेलना बाकी है। चाय में उबाल आ गया था। शबनम ने भगौने को आँच से हटा-हटाकर चाय को तीन-चार उफान दिये और फिर काँच के गिलासों में चाय छानने लगी।
इस बीच सलीम हाथ-मुँह धोकर तैयार हो चुका था। अम्मी-अब्बू भी काम रोक कर चाय पीने बैठ गये। सलीम ने बंद का टुकड़ा चाय में डुबोया और खाने लगा। उसकी नज़रें गली में उछल-कूद कर रहे कुतिया के पिल्ले पर थी। करिक्की ने हाल ही में जने थे। तभी शेरू की नाक पर एक मक्खी आकर बैठ गयी। सलीम ने ही इस पिल्ले को शेरू नाम दिया था। जो सबसे अधिक शरारती था। सारे घर में धमा-चौकड़ी मचा के रख देता था। सलीम ने चाय का घूँट मुँह में भरा ही था कि उसे हँसी आ गयी और उसके मुँह से चाय का फव्वारा छूट पड़ा। सबने अचकचा कर उसे देखा। उसकी नज़रें शेरू पर जमी हुई थीं। सबकी निगाहें उधर ही घूम गयीं। शेरू और मक्खी के बीच आँख मिचौली का खेल चल रहा था। दोनों गोल-गोल चक्कर काटे चले जा रहे थे। अम्मी, अब्बू, शबनम तीनों की भौंहों पर बल पड़ गये थे। शबनम ने अपने होंठ भींच लिये। हवा उसके गालों को फुलाये जा रही थी, गुब्बारे की तरह। बेअख्तियार गुब्बारा फूट गया और शबनम भी खिलखिला कर हँसने लगी। अम्मी-अब्बू ने अपनी मुस्कानें छिपाते हुए सिर झटक दिये।
पूरा घर फिर काम पर जुट गया। सलीम ने टीशर्ट और पैजामा पहन लिया और ताखे में रखे हुए आईने के सामने खड़े होकर अपनी जुल्फें सँवारने लगा। उसका चेहरा ज़िम्मेवार और गंभीर होता चला गया। अख़बार में लिपटे हुए कलेवे की पोटली जेब में ठूँस कर उसने हाथ में डंडा थाम लिया था जिसमें फुलाये हुए रंगीन गुब्बारे बाँधे हुए थे। दूसरे हाथ में उसने बाँसुरी ले ली थी। अब वह काम पर जाने के लिए तैयार था। सलीम बारह साल का गबरू जवान, घर का कमासुत पूत। अब उसकी खेलने-खाने की उम्र नहीं रही थी। घर की साग-सब्ज़ी का इंतजाम उसी के जिम्मे था।
सलीम गली में निकल पड़ा और उसने बाँसुरी की तान छेड़ दी। काम सब कुछ सिखा देता है। बाँसुरी बजाते-बजाते वह कुछ फिल्मी धुनें निकालने लगा था। रास्ता तय करते हुए वह खुद इन धुनों का मजा लेता रहता था। परन्तु ज्योंही वह किसी ऐसी जगह आ पहुँचता, जहाँ गुब्बारों के बिकने की संभावना होती, वह बच्चों को आकर्षित करने वाली तीखी पर मीठी धुन बजाने लगता।
एक दूसरे में गड्ड-मड्ड, झोपड़ियों, खपरैली, कुठरियों, कच्चे-पक्के अधबने मकानों के बीच-बीच में बसती जा रही पक्के आलीशान भवनों-बंगलों और पार्कों वाली कालोनियों के भूगोल वे वह अच्छी तरह से वाकिफ हो चुका था। काम ने उसे कम उम्र में बालिग बना दिया था।
नासमझ शिशु-उम्र को वह काफी पीछे छोड़ आया था, जब वह चन्द खिलौनों के लिए हुमक-हुमक कर रोते हुए, माँ-बाप द्वारा पढ़ाये जाने वाले पाठों को न समझते हुए, मन ही मन आँसुओं को पीते हुए आखिरकार चुप हो जाता। भला हो शिशु-ध्यान की अस्थिरता का; माँ-बाप उसका ध्यान बँटाने और कागज-तिनकों से उसे बहलाने में कामयाब हो ही जाते।
भूगोल के साथ ही साथ, वह समाजशास्त्र भी समझने लगा था। गुब्बारे बेचने की कला सीखने के दौरान, वह प्रयास-त्रुटि, अनुमान-सूझ, बोध-तर्क आदि अधिगम के सभी तरीकों को अनजाने ही अपनाता जाता और बाल-मनोविज्ञान में उसकी पैठ बढ़ती ही चली जाती। उसने विभिन्न परिवारों की भिन्न-भिन्न आर्थिक स्थितियों के अनुसार मूल्य निर्धारण की विभेदकारी नीति भी अनजाने ही आत्मसात कर ली थी।
परन्तु फिर भी बच्चों के बीच पहुँच जाने पर उसका बचपन रह-रह कर मचल जाता। वह उसके उठते हुए सिर को जोर से दबा देता और चेहरे पर काम-काजी भाव बनाये रखता। मोल-भाव के दौरान व्यवसायिक दाँव-पेंच चलते हुए, वह किसी भी हालत में अपनी कमजोरी भला कैसे दिखा सकता था। परन्तु इसके बावजूद लाल परी के सामने पड़ते ही वह सारी सुध-बुध खो बैठता।
शहद सी मीठी आवाज में वह पुकारती, ‘‘एइ, गुब्बारे वाले भैया।’’ और वह सारी अक-बक भूल जाता। गोरा गुलाबी चेहरा, काली आँखें, लाल सुर्ख होंठ और गालों में पड़ने वाले नन्हें गड्ढे। दो चोटियाँ उसके कंधे पर लहराती रहती। स्कूल ड्रेस की सफेद शर्ट पर लाल धारियोंवाली टाई और बैच। जुराबों में कसे गोरे नाजुक पाँव जिन पर चुन्नटदार लाल स्कर्ट लहराता रहता। नन्हीं लाल परी ने उसे अपनी रंगीन चित्रों वाली पुस्तक दिखाई थी और वह सपने देखना सीख गया था। वह अलग ही दुनिया में पहुँच जाता। पर सपने तो सपने ही होते हैं।
कॉलोनियों में गुब्बारे बेचते-बेचते दस बज जाते तो वह बाज़ार में निकल जाता, जहाँ माँए अपने नन्हें-मुन्नों को गोदी में थामे शॉपिंग कर रही होतीं। दोपहर होते-होते उसे भूख लग आती और तब वह चल पड़ता शिवाले की ओर। पुराने शहर में, सड़कों के भीड़-भड़क्के और बाज़ारों की आपाधापी के बीचों-बीच अभी भी कुछ सूनी शांत जगहें बची हुई थीं। पीपल-बरगद की घनी ठंडी छाँव के नीचे, वह एक पुराना शिवाला था। पास ही एक चापाकल थी, जो आज भी ठंडा मीठा पानी देती थी। वह शिवाले के ठंडे-चिकने चबूतरे पर बैठ जाता। गुब्बारों वाला डंडा चबूतरे के एक कोने में दीवार के सहारे टिका दिया गया। इतमीनान से वह शबनम बाजी द्वारा सहेजी गई कलेवे की पोटली खोलता। रोटी-प्याज और भुने आलू। कभी पालक का साग होता, कभी लहसुन की चटनी, और बाज दफे तली हुई मछली का पीस या कवाब भी होता।
दोपहर के भोजन के बाद वह बाज़ार के एक दो चक्कर लगाता, फिर शाम के चार बजते-बजते घर लौट आता। नहा-धोकर वह फिर से तैयार होता। अब वह अपनी एक मात्र जींस पहनता। शर्ट इन करता और कमर पर बेल्ट कस लेता। गले में कालर के नीचे रंगीन रूमाल। बोले तो पूरा हीरो बन जाता अपनी जान में। ओ, तेरा ध्यान किधर है! वह साईकिल उठाता और चौक पर पहुँचता, जहाँ उसके अब्बू अपना ठेला लगाते थे। दरअसल उसके अब्बू खलील काका के साथ साझे में सस्ते रेडीमेड के कपड़े का व्यापार करते थे। ठेला अब्बू का था और कपड़े खलील काका बाहर से खरीद कर लाते थे। पूँजी खलील काका की थी, अब्बू की तो बस मेहनत थी। अब्बू के हिस्से जो भी आता, उससे घर का खर्च खींच-खींच कर चल ही जाता। सलीम ने ये सीधे-सादे रहस्य, अब्बू, अम्मी की आपसी बात-चीत सुनकर जाने थे।
परन्तु लाख कान लगा-लगाकर सुनने के बाद भी वह बड़े भाई साहबों के रंगीन रहस्यों को नहीं जान सका था। शबनम बाजी और उसकी सहेलियों की खुसुर-पुसुर तो और भी अधिक रहस्यमय लगतीं। खै़र सब जान लेगा एक दिन। एक दिन उसे भी गुब्बारों का डंडा छोड़कर किसी बड़े काम में लग जाना होगा। अभी तो वह अब्बू के ठेले के पास खड़े होकर ‘‘छाँटो-बीनो, पच्चीस रुपये’’ की हाँक लगाने में मशगूल रहता। वह पूरा गला खोल कर हाँक लगाता। उसके लिए यही खेल था- शाम का, द इवनिंग गेम। फिर चौक की सड़कों के पल-पल बदलते नजारे भी तो थे, जो रोज़-रोज़ दुनिया के नये-नये अजूबात से उसे वाकिफ कराते रहते थे।
हाँ, तो उस दिन भी रोज की भाँति वह दोपहरी का भोजन करने और विश्राम लेने के लिए शिवाले पर आ पहुँचा था। रोज़ की तरह उस दिन भी उसने दीवार के सहारे अपना गुब्बारों वाला डंडा टिका दिया था और चिकने-ठंडे चबूतरे पर बैठकर शबनम बाजी द्वारा दी गई कलेवे की पोटली खोल ली थी। अहा, आज तो मीट की बोटी भी है। वह खाने में तल्लीन था कि तभी उसकी नज़र सामने वाले शिवाले चबूतरे के परली ओर, दूसरे कोने में खड़े रंगीन गुब्बारों वाले डंडे पर जा पड़ी। उसने पलट कर देखा तो रंगीन गुब्बारों वाले अपने डंडे को बदस्तूर अपनी जगह खड़ा पाया। यह तो दूसरा डंडा है। प्रतिद्वन्दी!
अरे, यह तो बूढ़ा है। उसे घोर आश्चर्य और निराशा हुई। इससे दो-दो हाथ कैसे करेगा वह। बूढ़ा भी अपनी पोटली खोलकर बैठा हुआ दोपहर का भोजन कर रहा था। सिर झुकाकर वह निवाले मुँह में डालता और फिर चेहरा उठाकर जबड़े चलाने लगता। उसकी सफेद दाढ़ी निचले जबड़े के साथ-साथ ऊपर नीचे हो रही थी। उसने हरे रंग का एक लंबा सा कुर्ता रखा था और उसके सिर पर हरे रंग की एक गोल टोपी थी।
सलीम को लगा कि बूढ़ा उसकी ओर ही ताक रहा है। उसे लगा कि बूढ़ा उसे देखकर मुस्कुरा रहा है। तभी एक झटके के साथ बूढ़े का चेहरा, एकदम से, ऐन उसकी आँखों के सामने आ धमका। ‘‘बाबा’’ उसके मुँह से बासाख्ता चीख निकल पड़ी। एक भयातुर मगर प्रसन्न चीख। उसने बचपन में ही मर चुके अपने बाबा को पहचान लिया- कसम से। नहीं, उसे अपने दादा की बिल्कुल भी याद नहीं थी। अम्मी-अब्बू और शबनम बाजी से उनके किस्से सुनता रहता था।
अजनबी बूढ़े का चेहरा वापस अपनी जगह चला गया था। उसके भीतर रुलाई जैसा कुछ उमड़ रहा था। उसे लगा कि उसकी उम्र बड़ी तेजी से बढ़ रही है। उसे नामालूम किस पर क्रोध आ रहा था। कोई और उसके भीतर समाता जा रहा था और बोल रहा था।
‘‘कैसा जमाना है यह, बूढ़े से भी काम करा रहा है। इसे तो अब सेवा-टहल की ज़रूरत है।’’ उसका जी चाह रहा था कि अभी उठे और बूढ़े का डंडा तोड़कर फेंक दे कहीं दूर। फूट जायें ये गुब्बारे सारे, लाल-पीले, हरे-नीले, रंग-बिरंगे गुब्बारे।
तभी वह डर गया। उसे लगा कि उसके अपने डंडे की गुब्बारे शोर मचा रहे हैं। गुब्बारे नहीं बच्चों के चेहरे थे ये। उनमें नन्हीं लाल परी का चेहरा भी था। ‘‘नहीं-नहीं मेरे प्यारों, मैं तुम्हें नहीं फटने दूँगा। लाल-पीले, हरे-नीले, गुब्बारे उसके इर्द-गिर्द नाच रहे थे।
तभी उसे लगा कि बूढ़े बाबा ने उसकी ओर इशारा किया है, उसे अपने पास बुला रहा है। उसने देखा कि बूढ़ा बाबा एक लाल लम्बे से गुब्बारे में हवा भर रहा है। फिर उस बाबा ने लाल, लम्बे गुब्बारे को ऐंठकर-मरोड़कर एक गोल-मटोल पंछी बना दिया है। पंख फैलाये हुए, गुब्बारे का यह पंछी उड़ने को बेकरार है।
उसे लगा कि बूढ़े ने फिर उसकी ओर इशारा किया है उसे अपने पास बुला रहा है। सलीम मंत्र-मुग्ध सा उठ खड़ा हुआ और वह भयाकर्षण से बंधा हुआ बूढ़े के पास जा पहुँचता है। बूढ़े बाबा ने लाल-गुब्बारे से बनी पक्षी की डोर उसके हाथों में थमा दी है, पंछी पंख फड़फड़ा रहा है, उड़ने की कोशिश कर रहा है। पंक्षी के साथ वह भी हल्के होकर, फुदक रहा है। उसके भी पंख आ गये हैं, जैसे।
इधर दादा-पोता खेल में मगन हैं और उधर दो कोनों में खड़े रंगीन गुब्बारों वाले डंडों ने एक-दूसरे को आँख मारी है। वे दोनों दादा-पोते का खेल देखने में मगन हो चुके हैं।
39 -
पति-पत्नी और वो
[ जन्म : 8 जुलाई , 1952 ] |
कलीमुल हक
मनुष्य की इच्छाएँ हर पल जितने बच्चे देती हैं उनकी गणना कोई नहीं कर सकता। एक इच्छा के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी इच्छाएँ नवजात कीड़ों की तरह कुलबुलाती हुई देखते-देखते जवान हो जाती हैं। हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले।
मेरा भी दम निकल रहा था एक हसीन महबूबा को प्राप्त करने की इच्छा पूरी नहीं हो रही थी हालांकि घर में एक पत्नी मौजूद थी, वह पहले महबूबा के रूप में मेरे जीवन में आई थी, लेकिन नादान महबूबाएँ यह नहीं समझती कि वे पत्नी बनकर एक रात बीत जाने पर सिकण्डहैंड हो जाती हैं। मर्द के लिए उनमें वह ‘चार्म’ और पहले जैसा आकर्षण नहीं रहता। वैसे भी यह सत्य है कि पत्नी बना लेने के बाद अपनी अन्तिम साँस या पत्नी की अन्तिम साँस तक उससे मुहब्बत करनी पड़ती है और प्रत्येक साँस के साथ यह इच्छा सर उभारती है कि पत्नी की साँसे शीघ्र पूरी हो जाएँ।
मेरी एक रोग ग्रस्त पत्नी है, वह विवाह से पहले भी बीमार रहती थी। दुल्हन बनकर आई तो खाँसी और बुखार अपने दहेज में लेकर आई। इसके बावजूद मैं उससे प्रेम करता हूँ क्योंकि वह मेरे चार अदद प्यारे-प्यारे फूल जैसे बच्चों की माँ है।
मैं एक बहुत बड़ा मुद्रक हूँ। रोमांटिक उपन्यास मुद्रित करता हूँ। अब तक सैकड़ों उपन्यास मुद्रित कर चुका हूँ और इन रोमांटिक पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ते स्वयं रोमांस की ओर आकर्षित हो गया हूँ। हर समय ख्यालों में एक अलबेली सी हसीना मुझे अपनी ओर बुलाती है। इस तरह अपने दिल को समझाते-समझाते कई वर्ष गुजर गये, अन्ततः एक के बाद एक नाकामियों ने मुझे समझाया कि माँगने से कुछ नहीं मिले तो पढ़े-लिखे रूप में बड़े सुलझाव से छीन लेना चाहिए। यह सोच कर मैंने समाचार पत्र में एक विज्ञापन दिया जिसका विषय कुछ यूँ था -
‘‘मुद्रक अली जमाल एण्ड सन्स के प्रतिष्ठान में उपन्यासों की प्रूफ रीडिंग हेतु एक शिक्षित नौजवान लड़की की आवश्यकता है। शैक्षिक स्तर कुछ भी हो परन्तु रोमांटिक उपन्यास पढ़ने में अभिरूचि रखती हो।’’
विज्ञापन में यह आखिरी वाक्य मैंने इसलिए लिखा था कि रूमानी उपन्यास पढ़ने वाली लड़कियाँ उपन्यास के पृष्ठों से भटकती हुई विचारों में ही किसी हीरो का चित्र बनाने लगती है। हो सकता है कि उपन्यास की किताबत ठीक करने वाली लड़की मेरी इच्छाओं को भी पूरा करना शुरू करदे। मेरे प्रतिष्ठान के सभी विभागों में केवल पुरूष ही कार्य करते है लेकिन जब यह समाचार फैला कि पहली बार इस प्रेस में एक नारी कर्मचारी की नियुक्ति होगी तो सभी के चेहरे खिल उठे। इस सूखी फुलवारी में पहली बार सावन का एक झोंका आ रहा था। जिस दिन दर्जनों युवतियाँ साक्षात्कार के लिए आईं उस दिन आफिस के सभी पुरूषों के चेहरे क्लीन शेव थे, जिनके मूछों के बाल कहीं-कहीं से सफेद थे उन्होंने खिजाब का सहारा लिया था।
साक्षात्कार के लिए आने वाली लड़कियाँ काली भी थीं गोरी भी, स्वस्थ भी थीं और सूखी सड़ी भी। अन्त में वह आई जिसे मैं देखता का देखता रह गया। अवसत कद, चम्पई रंग, अमावस्य की काली रातों का अन्धेरा समेटे हुए लम्बी-लम्बी रेशमी जुल्फे, उसे देखते ही मेरी साँसे गड़बड़ा गईं। उसी पल वह तीर की तरह मेरे दिल में बैठ गई। ‘‘क्या मैं बैठ सकती हूँ ?’’
‘हा....हाँ.... अवश्य’’ मैं एकदम से बौखला गया जैसे वह मुझे कोई आदेश दे रही हो। हालांकि मैं उस पर शासन करने वाला था, प्रतिमाह कुछ सौ रूपये देकर। परन्तु क्या बताऊँ सोलह वर्षों तक आजादी से एक हसीन युवती को इतने निकट से देख रहा था इसलिए जरा गड़बड़ा गया था। मैंने जल्दी से कहा -
‘बैठो... तुम्हारा नाम ?’
जूली........ जूली डिक्सन’’
यह डिक्सन साहब कौन है ? वह नजरे झुका कर जरा-सा लजाई फिर मुस्करा कर बोली-मेरे डैडी हैं। मैंने उसे आश्चर्य पूर्वक देखा। भला पिता का नाम लेने में उसे शर्माने की क्या जरूरत थी। यह लड़कियाँ भी अजीब होती हैं न शर्माने वाली बात पर शर्माती हैं और शर्माने वाली बात पर खिलखिला कर हँ देती हैं। मैंने उससे कहा ‘मेरे वहाँ जब उपन्यास छपने प्रेस जाते हैं तो आफिस में रात को काम देर तक होता है ऐसे में तुम्हारे डैडी तुम्हें ओवर टाइम की आज्ञा दे देंगे। ?’
जी हाँ, मुझे घर वालों की ओर से पूरी आजादी है। मेरे ही परिश्रम से घर के खर्चे पूरे होते है। आप समझ सकते हैं कि जो हाथ पैसे देते है उन हाथों को कोई नहीं पकड़ता। कोई नहीं पूछता कि एक नौजवान लड़की के हाथ कितनी देर तक और कितनी दूर तक कहाँ जाते हैं।
‘आपने छोटी-सी आयु में बहुत से कड़वे अनुभव किए हैं’ मैंने छोटी-सी आयु उसे खुश करने के लिए कही थी।
‘‘हाँ ! इस जिन्दगी में कड़ुवाहट ही है जब ही तो नौकरी करने निकली हूँ। यहाँ आते समय मेरा दिमाग उलझा हुआ था कि यह नौकरी मिलेगी या नहीं और कितना वेतन तय होगा ?’’
मैंने कुर्सी की पीठ से टेक लगाते हुए उसे शुभ समाचार सुनया-‘‘तुम्हारी नौकरी पक्की है और पू्रफ रीडिंग के लिए तुम्हें प्रतिमाह दस हजार मिलेंगे’’ हालांकि इस कार्य के लिए दस हजार बहुत होते हैं। उसने कुछ अधिक प्रसन्नता नहीं दिखाई, मुझे खतरा महसूस हुआ कि हाथ से निकल जाएगी। मैंने जल्दी से कहा ‘ओवर टाईम करोगी तो अधिक पैसे मिलेंगे’’ उसने पूछा-‘‘यानि, फालतू समय में क्या करना होगा ?’’
मैंने जवाब दिया-‘‘मेरी कोठी में बहुत से अप्रकाशित नाविलों के मसवदे पड़े रहते है। तुम वहाँ आकर उन्हें पढ़ोगी और अपनी राय देने के लिए नोटिस लिखोगी।’’
क्या मसवदे पढ़ने के लिए आपकी कोठी पर आना आवश्यक है ? उन्हें तो आफिस में भी पढ़ा जा सकता है।
कमबख्त, इशारा नहीं समझ रही थी। यह लड़कियों की बहुत बुरी आदत है। समझती हैं तो अनदेखा कर देती हैं। पहली मुलाकात में उसे समझना कठिन था मैंने कहा-
‘‘हाँ ! अप्रकाशित मसवदे गुप्त रखे जाते है ताकि दूसरों तक उनकी भनक न पहुँचे अतः मैं उन्हें आफिस में नहीं लाता हूँ। अगर कोठी में आकर उन्हें पढ़ोगी तो इस काम के पाँच हजार अलगसे मिलेंगे। इस प्रकार तुम प्रतिमाह पन्द्रह हजार प्राप्त कर सकोगी।’’
वह होले से मुस्कुराई, हालांकि आँखों की चमक को वह छुपा न सकी। आँखें बता रही थीं पन्द्रह हजार उसकी अपेक्षा से अधिक है।
‘‘आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आप बहुत दयावान हैं’’ वह मुस्कुराती हुई घूम कर कमरे से बाहर चली गई। उसके जाने के बाद.... टेलीफोन की घण्टी ने मुझे चैंका दिया-‘‘हेलो ! मैं डाॅक्टर सबा बोल रही हूँ-, क्या जमाल साहब मौजूद है ?’’
‘‘मैं जमाल हूँ। मेरी बेगम का क्या हाल है ?’’
‘‘बहुत सीरियस केस है, मैंने पहले ही कह दिया था कि मातृ-शिशु दोनों की जान को खतरा है आप तुरन्त यहाँ आ जाएँ’’ मैंने झुंझला कर रिसीवर को क्रेडिल पर पटक दिया। कैसा सपनों का दरबार सजा था जिसमें डाॅक्टर के फोन ने पत्थर मार दिया। मैटरनिटी होम तक जाना आवश्यक था अतः मैं तुरन्त ही आफिस से उठ गया। अस्पताल पहुँच कर मालूम हुआ कि बेगम मारते-मरते बच गई हैं तथा मातृ-शिशु दोनों जीवित हैं। बेगम तो बिल्कुल अस्थियों का ढाँचा नजर आ रही थी। लेडी डाॅक्टर मुझे अपने कमरे में बुलाकर डाँटने लगी-
मैं दरवाजा खोलकर कमरे से निकल आया। मुझे बहुत क्रोध आता है बेगम ने मुझसे कहा-‘‘आप बुरा न माने, डाक्टर मेरी भलाई के लिए कहती है। आप कुछ महीनों के लिए मुझे मेरे मायके छोड़ दें वहाँ शायद कुछ स्वस्थ हो जाऊँ।
मैं भी यही चाहता था। अगर बेगम कुछ समय के लिए चली जाती तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती थी। दूसरे ही दिन मैंने जूली की मेज कुर्सी अपने कमरे में मँगवा ली। मेरी कोठी खाली थी। दो दिन पहले ही बेगम व बच्चों को उनके मायके भेज दिया था।
जूली ने मेरी शानदार कोठी में प्रवेश किया तो वहाँ की भव्य सजावट को देखती रही। जहाँ आधुनिक युग के फर्नीचर थे। सोफे ऐसे कि बैठने वाला उठना ही भूल जाए।
‘‘आपकी बेगम और बच्चे कहा है ?’’ उसके मुँह से शब्द निकलते समय हाफ रहे थे।
‘वह बच्चों के साथ अपने मायके में रहती है।’ मेरी आवाज कण्ठ में ही अटकने लगी। उसका सवाल मुझे व्यंगात्मक लगा कि आपके पास तो बेगम है फिर दुगी-तिग्गी की क्या आवश्यकता है ?
मैं व्याख करने लगा कि बेगम सदा की रोगी हैं और सदैव मुझसे दूर रहती हैं।
‘जूली मैं वह अभागा हूँ जिसके जीवन में सावन का एक कोंका नहीं आया। मैं इस भव्य कोठी के खण्डहर में एक जीवित लाश की तरह रहता हूँ। तुम्हें पहली बार देखते ही मुझसे जीने की फिर से लगन पैदा हो गई। क्या तुम मुझे एक नया जीवन दोगी ? मेरे दिल की रानी बनोगी ? बोलो जूली बोलो ?’ साथ ही ड्रामाई रूप में मैंने उसका हाथ थाम लिया। उसने अपना हाथ छुड़ाने के लिए मृदुल प्रयास भी किया, मैंने नहीं छोड़ा। मैंने उसे दोनों भुजाओं में समेट लिया।
‘प्लीज!’ वह बिन्ती करने लगी। ‘अभी यह उचित नहीं है। मुझे छोड़ दीजिए’ जबरदस्ती का सौदा अच्छा नहीं होता। ‘‘क्या आप मेरे घर तक चलने का कष्ट करेंगे ?’
‘अवश्य चलूँगा, कोई विशेष बात क्या ?
‘‘जी हाँ ! आपने अपना घर दिखाया अब मैं अपना घर दिखाना चाहती हूँ।
बशारतपुर में दो कमरों का एक छोटा सा मकान था। मकान के मुख्य द्वार पर एमिल डिवसन नाम की नेम प्लेट लगी हुई थी। जूली मुझे सामने वाले कमरे में ले गयी जिसमें एमिल एक बिस्तर पर लेटा हुआ था। उसके शरीर पर पाँव से कमर तक एक चादर पड़ी हुई थी। उसने लेटे ही मेरे मिलाने को हाथ बढ़ाया।
‘‘यह देखकर दुख हुआ कि आप दोनों पैरों से अपंग है। यह कब से है ?’’
‘‘लगभग पाँच वर्षों से बिस्तर पर पड़ा हूँ। जूली से विवाह करने के छः माह के बाद मेरी टाँगे बेकार हो गई।
मेरे मस्तिष्क को एक झटका लगा। जूली से मिस्टर डिक्सन का विवाह। कहीं मैं गलत तो नहीं सुन रहा हूँ। जूली यह कहती हुई चली गई कि अभी चाय लेकर आ रही हूँ।
यूँ लग रहा था जैसे जूली मुझे अपने घर में एक तमाचा मारने लाई थी। उस समय मेरी सबसे बड़ी इच्छा यही थी कि किसी बहाने वहाँ से भाग जाऊँ।
‘मेरे पाँव आपकी ओर नहीं जा सकते परन्तु आप मुझ गरीब के घर आ गये हैं। मैं व्यक्त नहीं कर सकता मुझे कितनी प्रसन्नता हुई है। दुनिया वाले केवल ऐसे व्यक्तियों से मिलते है जिनसे उनकी कोई आवश्यकता पूरी होती है। आप पहले व्यक्ति हैं जो मेरा कुशल मंगल पूछने आए हैं।’’
उसे क्या पता था मैं भी अपनी आवश्यकता पूरी करने अथवा उसकी पत्नी को प्राप्त करने की लालच में वहाँ गया था। यह दूसरी बात है कि मैं जूली को किसी की पत्नी के रूप में नहीं जानता था।
दूसरे दिन मैं देर से आफिस पहुँचा। वह अपनी मेज पर सर झुकाए ’’प्रूफ रीडिंग’’ में व्यस्त थी। दोपहर को लंच के बाद वह मेरे निकट मेज के पास आकर खड़ी हो गई। फिर धीरे से बोली-‘मेरे पिता का नाम जान डिक्सन है। जन्म से यह नाम मेरे नाम के साथ चला आ रहा है अतः साक्षात्कार के दिन मैंने केवल अपने पिता का ही संदर्भ दिया था।’
‘तुम बातें न बनाओ। विवाह के पश्चात् महिलाएँ पिता का नहीं पति का नाम लेती हैं।’
आप उचित कहते हैं, परन्तु मैं विवाहित होते हुए भी स्वयं को किसी की पत्नी नहीं समझती। संसार वालों की दृष्टि में मेरा विवाह हो चुका है परन्तु मेरे भीतर कोई झांक कर देखे कि मैं अभागन कुँवारी हूँ या सुहागन विधवा।
मेरी सारी कटुता घुल गई। मैं सोचने लगा कि वह अपने जीवन के सुहाने दिन-रात कैसे काटती रही होगी।
ऐसी बात है तो तुम एमिल से सम्बन्ध विच्छेद क्यों नहीं कर लेती।
‘‘आखिर प्यार और मानवता भी तो कोई चीज है। आपकी बेगम पुरानी रोगी हैं क्या आप उनसे सम्बन्ध तोड़ सकते हैं ? एमिल बहुत लाचार है मैं उसका साथ नहीं छोड़ सकती।’’
‘‘अगर हम इसी प्रकार मिलते रहे तो कोई बुरी बात तो न होगी ?’’
‘‘हाँ ! पुरूष के लिए कोई बात न होगी। परन्तु यह चोर सम्बन्ध मुझे बर्बाद कर देगा। अतः आप यह वायदा करें कि कोई अन्तिम निर्णय लेने से पहले हम कोई गलती नहीं करेंगे।’’
‘मैं वायदा करता हूँ’’
देखते ही देखते मेरा संसार बदल गया। जूली से पहले यह दुनिया श्वेत-श्याम दिखती थी। परन्तु वह अब रंगों का समूह लेकर आ गई।
हमारी भेंट हुए छः माह व्यतीत हो चुके थे। उस दिन मैंने हिम्मत करके उसे अपनी भुजाओं में ले लिया। वह कसमसाई-‘‘मैं क्या करूँ ? मेरी समझ में कुछ नहीं आता मुझे भय लगता है बहुत भय।’’
मैंने उसे समझाया-‘‘एक भय के बाद दूसरा तथा दूसरे के बाद तीसरा भय उत्पन्नहोता चला जाता है। तुम डरती रहोगी तो एक दिन अपनी युवावस्था का मातम करने के लिए बूढ़ी हो जाओगी। मैंने उसे समझा दिया कि बदनामी का भय नहीं है। परिवार नियोजन बड़ी अच्छी बात है। (हाश् ! मैं वही हूँ जो बेगम के सम्बन्ध में परिवार नियोजन को बुरा समझता हूँ। समय≤ की बात है। एक समय में जो वस्तु हानिकारक होती है दूसरे समय में लाभदायक सिद्ध होती है। हथियार आत्म सुरक्षा के लिए बनाए गये थे। परन्तु हम अपने अभिप्राय के लिए उस हथियार से अपने ही भाइयों का वध करने लगे।
पहले हम एक दूसरे की आरजू थे अब एक दूसरे की आवश्यकता बन गये थे। अब वह शाम को कोठी में आकर मसवदे नहीं पढ़ती थी क्यूँ कि मैं उसके जीवन के मसवदे पढ़ने लगा था।
परन्तु इस सुन्दर जीवन को पुनः ग्रहण लगने लगा। बेगम अपने मायके से वापस आ गई थी। आठ माह का समय कुछ कम नहीं होता। इस बीच दो-चार बार उसके मायके भी हो आया था। परिणाम यह हुआ कि आठ माह बाद वह अपने भारी पाँव लेकर पुनः दिल्ली पहुँच गई।
लेडी डाक्टर ने सुना दिया कि इस बार वह प्रसूति के बीच जीवित नहीं बचेगी।
मैं प्रायः झुंझला जाता। एक तो बेगम अस्पताल पहुँच गई थी और वहाँ के डाक्टर व लेडी डाक्टर मुझे खा जाने वाली दृष्टि से देखते थे क्योंकि मैं अपनी पत्नी के जीवन को लगभग खा चुका था।
एक दिन जूली से मैंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया-‘‘बेगम अब थोड़े दिनों की मेहमान है। प्रसूति के दिन ही रास्ते की दीवार गिर जाएगी, परन्तु तुम्हारा रास्ता रूका हुआ है।’’
‘‘मैं एमिल को अवरोध नहीं समझती। मैंने कोठी-कार के सपने देखने छोड़ दिए।’’
‘‘तुम अपने मन को मार कर जीवित नहीं रह सकती। झूठी पतिवर्तता को अपने मस्तिष्क से निकाल दो। तुम्हें एमिल से छुटकारा पा लेना चाहिए। मैं जा रहा हूँ तुम अच्छी तरह विचार कर लो।’’
दूसरी ओर बेगम को खत देकर तथा अन्य मँहगी दवाइयों के द्वारा उसकी जान बचाने का प्रयास किया जा रहा था। मैं उसकी दीर्घ आयु की प्रार्थना करने लगा। वह मेरी पत्नी थी और अन्तिम साँसों तक मेरा साथ देगी। जूली की तरह उसके रास्ते में कोई अवरोध नहीं है।
एक दिन आफिस से जाने लगा तो उसने मेरी बाँह थाम कर पूछा-‘‘क्या यह आपका अन्तिम फैसला है ?’’
‘‘हाँ ! पुरूषों के फैसले नहीं बदलते।’’
‘‘अच्छी बात है आप शाम को कोठी पर आएँ। मैं भी अपनाअन्तिम फैसला सुना दूँगी।’’
अस्पताल की ओर जाते हुए मुझे पूर्ण विश्वास था कि वह मेरे पक्ष में फैसला करेगी। जूली जैसी कोई भी सुन्दर और युवा स्त्री एक अपंग के साथ सारा जीवन व्यतीत नहीं कर सकती। उसके शरीर, उसकी युवावस्था की भी कुछ माँगे हैं।
मैं अस्पताल पहुँचा तो नर्स को बहुत चिन्तित देखा। प्रसूति गृह से बाहर आकर उसने मुझे घूर कर बहुत कटुता से देखा और कहती हुई चली गई -
‘‘अगर वह महिला मर भी जाए तो आपके लिए क्या अन्तर पड़ेगा औरवह मररही है।’’
उसकी बातें सुनकर मुझे बहुत क्रोध आया। अपने हृदय को टटोला तो पाया कि मैं घृणा के योग्य हूँ जो मेरे सहारे जीवन व्यतीत करने, दुल्हन बनकर आई थी मैं उसका लगभग बध कर चुका हूँ। परन्तु जब मैंने दरवाजे के शीशों से झांक कर देखा तो बेगम को स्वस्थ पाया वह बड़ी कठोर जीव थी। मेरे लिए न सही अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिए जीने का संकल्प कर चुकी थी और शायद खुदा भी उसका साथ दे रहा था।
मैं आत्म-ग्लानि के साथ खुद को कोसता हुआ जूली के पास पहुँचा तो बाजी पलट चुकी थी। वह बिस्तर पर पड़ी अन्तिम साँसें ले रही थी औरउसके सराहने नींद के गोलियों की शीशी रखी थी जो खाली हो चुकी थी।
मैंने घबरा कर एम्बुलेंस के लिए फोनकरना चाहा तो उसने मेरी आस्तीन पकड़ ली और उखड़ी-उखड़ी साँसों के साथ कहने लगी -
‘बहुत देर हो चुकी है, मैं अपनी खुशी से मर रही हूँ। अपनी खुशी से जी न सकी, मर तो सकती हूँ। मैंने बहुत विचार किया तो यही समझ में आया कि एमिल मेरा जीवन है, तुम केवल मेरी इच्छाओं के पसीने को पोछने वाला रूमाल थे। कष्ट यह है कि इस रूमाल को समाज के भय से अपने पर्स में छुपाकर रखना पड़ता है। मैं तुम्हें पर्स से निकाल कर फेंक नहीं सकती थी। जब मेरी अन्तरात्मा ने मुझे समझा दिया कि मैंने अपने भरोसा करने वाले पति के साथ विश्वासघात किया है, न इधर की रही न उधर की रही तो अब अपना मूल्य मालूम करने के लिए उस के पास जा रही हूँ जिसने मुझे इच्छाओं का रोग देकर इस संसार में पैदा किया है। इच्छाओं का रोग ..............’’
वह इच्छाओं की बात करते-करते चुप हो गई, सदैव के लिए।
कथा-गोरखपुर की कहानियां
कथा-गोरखपुर खंड-1
मंत्र ● प्रेमचंद
उस की मां ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र
झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा ● श्रीपत राय
पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी
लाल कुरता ● हरिशंकर श्रीवास्तव
सीमा ● रामदरश मिश्र
डिप्टी कलक्टरी ● अमरकांत
एक चोर की कहानी ●श्रीलाल शुक्ल
साक्षात्कार ● ज ला श्रीवास्तव
अंतिम फ़ैसला ● हृदय विकास पांडेय
कथा-गोरखपुर खंड-2
पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी
मां ● डाक्टर माहेश्वर
मलबा ● भगवान सिंह
तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह
पेड़ ● देवेंद्र कुमार
हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव
सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव
दस्तक ● रामलखन सिंह
दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव
इतिहास-बोध ●विश्वजीत
कथा-गोरखपुर खंड-3
सब्ज़ क़ालीन ● एम कोठियावी राही
सौभाग्यवती भव ● इंदिरा राय
टूटता हुआ भय ● बादशाह हुसैन रिज़वी
पतिव्रता कौन ● रामदेव शुक्ल
वहां भी ● लालबहादुर वर्मा
...टूटते हुए ● माहेश्वर तिवारी
डायरी ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल
मद्धिम रोशनियों के बीच ● आनंद स्वरूप वर्मा
इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप
यह तो कोई खेल न हुआ ● नवनीत मिश्र
कथा-गोरखपुर खंड-4
आख़िरी रास्ता ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव
जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल
प से पापा ● रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत
सेनानी, सम्मान और कम्बल ● शक़ील सिद्दीक़ी
कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी
अपने भीतर का अंधेरा ● तड़ित कुमार
गुब्बारे ● राजाराम चौधरी
पति-पत्नी और वो ● कलीमुल हक़
सपना सा सच ● नंदलाल सिंह
इंतज़ार ● कृष्ण बिहारी
कथा-गोरखपुर खंड-5
तकिए ● शची मिश्र
उदाहरण ● अनिरुद्ध
देह - दुकान ● मदन मोहन
जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल
रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार
रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव
ट्रांसफॉर्मेशन ●उबैद अख्तर
भूख ● श्रीराम त्रिपाठी
अंधेरी सुरंग ● रवि राय
हम बिस्तर ●अशरफ़ अली
कथा-गोरखपुर खंड-6
भगोड़े ● देवेंद्र आर्य
एक दिन का युद्ध ● हरीश पाठक
घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय
खौफ़ ● लाल बहादुर
बीमारी ● कात्यायनी
काली रोशनी ● विमल झा
भालो मानुस ● बी.आर.विप्लवी
तीन औरतें ● गोविंद उपाध्याय
जाने-अनजाने ● कुसुम बुढ़लाकोटी
ब्रह्मफांस ● वशिष्ठ अनूप
सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव
कथा-गोरखपुर खंड-7
पत्नी वही जो पति मन भावे ●अमित कुमार मल्ल
बटन-रोज़ ● मीनू खरे
शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद
डाक्टर बाबू ● रेणु फ्रांसिस
पांच का सिक्का ● अरुण कुमार असफल
एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल
उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत
धोबी का कुत्ता ●सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '
कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी
तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय
राग-अनुराग ● अमित कुमार
कथा-गोरखपुर खंड-8
झब्बू ●उन्मेष कुमार सिन्हा
बाबू बनल रहें ● रचना त्रिपाठी
जाने कौन सी खिड़की खुली थी ●आशुतोष
झूलनी का रंग साँचा ● राकेश दूबे
छत ● रिवेश प्रताप सिंह
चीख़ ● मोहन आनंद आज़ाद
तीसरी काया ● भानु प्रताप सिंह
पचई का दंगल ● अतुल शुक्ल
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