Friday, 22 April 2022

कथा-गोरखपुर , खंड 5

 

पेंटिंग :अवधेश मिश्र , कवर :प्रवीन कुमार 





तकिए  ● शची मिश्र 

उदाहरण ● अनिरुद्ध 

देह - दुकान ● मदन मोहन 

जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल  

रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार 

रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव 

ट्रांसफॉर्मेशन ●उबैद अख्तर

भूख ● श्रीराम त्रिपाठी 

अंधेरी सुरंग  ● रवि राय 

हम बिस्तर ●अशरफ़ अली








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तकिये 
[ जन्म : 24 अप्रैल , 1955 ]
शची मिश्र


उसे बिस्तर लेटे - लेटे पता नहीं कितना समय बीत चुका था । खिडकियों के पर्दे सिमटे होने के बाद भी ठीक - ठीक पता नही चल रहा था कि अँधेरी रात है या आसमान में बादल हैं ।  चाँदनी रातों में खिड़की के रास्ते चाँदनी का एक टुकड़ा कमरे में  आकर थोड़ी देर के लिए चुपचाप बैठ जाता है ।

इस तरह चुपचाप लेटे - लेटे उसे एक और तकिये की जरूरत महसूस होने लगी । बगल में लेटे ए. के. की हल्की खर्राटों के अतिरिक्त सब कुछ ठहरा हुआ सा था । सिर्फ एक सोच जाग रही थी , अमिता के भीतर की सोच ।
 उसे अच्छी तरह याद है पर याद कहना ठीक नहीं क्योंकि , भूलता तो कुछ भी नही , एक और तकिये की जरूरत उसे सात साल पीछे खीचे लिये जा रही थी । 

उनकी नयी नयी शादी हुयी थी , उसने ए. के. को सोया जान कर उसके बाँह पर से सिर उठा कर बगल में पड़े तकिये पर रखा तो वह कच्ची नींद से जग गये थे और उसे वापस अपने पास खींच कर  सिर के नीचे अपनी बाँह सरका दी थी और उस तकिये को  पायताने की ओर फैकते हुए बोले थे कि , ‘‘ अब से ये मेरी बाहें ही तुम्हारा तकिया है ।”

 जब कभी रात में नींद खुल जाती तो वह बहुत धीरे से , साँसों को थाम कर ए.के. के बाहों को आराम देने के लिये दूसरा तकिया उठा कर सिर के नीचे रख लेती  और अपनी ओर फैले हाथ की अधखुली हथेली में अपनी अधखुली मुटठी को रख कर चंद पलों में ही गहरी नींद में सो जाती थी ।

सरकते वक्त के साथ साथ लापरवाही से फेंके जाने वाले तकिये ने अपनी जगह बना ली और फिर आया तीसरा तकिया । तीसरा कब आया ठीक ठीक याद नही पडता , शायद शादी के  चार पाँच महीने बाद फोम के दोनों तकियों की तुलना में वजन दार और मोटा । यह तकिया अब ए. के . की जरूरत बन गया था , उन्हें पैरों के नीचे बिना तकिया लगाये नींद नहीं आती थी और वह भी एक हाथ में तकिए को समेटे और दूसरे हाथ को सीधा फैला कर ।

चौथा करीब साल भर पहले आया । उसे वह ले आयी थी अपने लिये , उसे सोते समय एक और तकिये के बगैर परेशानी होने लगी थी । पैरों के नीचे तकिया दबाने से लगता था जैसे खाली पन भर गया हो ।

 पिछले कुछ दिनों से उसे एक और तकिये की यानी पाँचवें तकिये की जरूरत महसूस हो रही थी पर वह इस जरूरत को पूरा नही करना चाह रही थी ।

 मन भी कितना अजीब होता है , वह अपने आप ही जरूरतें बनाता और बिगाड़ता रहता है । 

हाँ उसे जरूरत महसूस हो रही है पाँचवें तकिये की जिससे वह पलँग का बँटवारा कर सके । जाने - अनजाने , सोते - जागते होने वाले अचानक स्पर्श और फिर बेरूखी से परे हटाये जाने वाली पीड़ा से बचने के लिये  एक अपना निहायत निजी कोना , डबल बेड के एक ही चादर पर अपना निजी हिस्सा , जहाँ वह मन चाहे ढंग से सोच सके  । सब कुछ सिलसिले वार सोचना भी एक सुकून सा देता है  चाहे वह कसक व पीड़ा ही क्यों न हो ?

ए. के. को अपने और अपने तकिये के लिये पूरी जगह चाहिये , वह करवट भी तकिये को बाहों में लिये ही बदलते है और दूसरे हाथ को बिस्तर पर पूरा सामने की ओर फैला कर , ऐसी हालत में उसके हिस्से में छः फुटे पलंग में से मुश्किल से डेढ़ फीट ही बिस्तर आता है ।

इन तकियों की बढ़ती संख्या से उसने दूरियाँ मापी हैं । बहुत कुछ नप भी चुका है इन तकियों से जो कि साफ - साफ पकड़ में नहीं आ रहा है ।

आज पूरा दिन ही खराब रहा । वैसे तो कहने लायक कुछ भी नहीं था पर न जाने क्यों कभी कभी अच्छी भलीं बातें स्थितियाँ कुछ बुरी  लग जाती है और जब कुछ भी बुरा लग जाता है तो , उस सिलसिले में सीधी सादी सपाट बातें भी बुरी लगती जाती हैं । 

बाहर न जाने कब बारिश शुरू हो गयी थी । पूरी तरह जागते हुये भी वह सारे परिवेश से खुद को काट कर नितांत अंतर्मुखी हो उठी थी पर जब तेजी से बरसने लगी तो इस ओर उसका ध्यान गया ।

 बारिश में नहाना उसे हमेशा से अच्छा लगता था । शादी के बाद उसका मन करता था ए.के. का हाथ पकड़कर बारिश में भीगे , एक दम छोटी बच्ची बन कर पानी में खेले पर पता नहीं क्यों ए. के. कभी तैयार नहीं हुए । दो - चार बार कहने के बाद उसने कहना छोड़ दिया । चाहती तो अकेले भी नहा सकती थी पर कभी नहीं नहाई । ऐसे पलों को वह अकेले नहीं जीना चाहती थी , उसे ए.के. के साथ ही जरूरत होती थी उसके लिए अकेले उन पलों को जीने का कोई अर्थ नही था ।

 हाँ ए. के. के साथ बारिश में भीगने की चाह की तरह ढेरों  छोटी छोटी इच्छाएँ जो मन में जम कर बैठी थी , जिनको जीने के लिये छोटे छोटे वक्त के टुकड़े ही चाहिये थे , जिनमें वह उन्हें जी भर कर जी लेती , वे खूब सूरत यादों की तरह जिन्दगी में जुड़ते जाते ,  नयी चाहतों के लिये दिल में जगह बनती जाती और जिन्दगी खूबसूरत और जिन्दा होती । हाँ जिन्दा होती जिन्दगी  पर ए.के. को क्यों नहीं दिखाई देती थी ये छोटी छोटी चीजें ? साथ रहते-रहते तो अनकहा भी समझ में आने लगता है ।

मनहूस सपने के टूटने से नींद खुली तो सुबह के चार बज रहे थे । मन बुरी तरह बेचैन हो गया था और वह घबरा कर उठ बैठी । यह जानते हुए कि जो कुछ देखा है वह सपना है , पर मन संभल ही नही रहा था । बचपन के संस्कार भी अजीब होते है , सुना था कि भोर का सपना सच होता है और बार बार प्रयास करने पर भी वह इस वहम से उबर नहीं पा रही थी । अनजाने में ही आँसू बह निकले।

जी में आ रहा था कि बगल में सोये ए.के. की बाँह पर सिर रख कर चुपचाप रो ले, या झकझोर कर उठा दे पर न जाने कौन सा मन उसे ऐसा करने के लिए रोक रहा था । सचमुच उसे बहुत ज्यादा जरूरत महसूस हो रही थी किसी अपने की, जिससे मन का बोझ हल्का कर सके । घबराहट से तेज धड़कती छाती की घड़कन सभल सके ।
ये अपना  शब्द उसके लिये कभी  कभी अबूझ पहेली सा बन जाता है । जीवन में कितनी बार ऐसे क्षण आते रहे  मन अपना शब्द का अर्थ ढूँढता रहा पर हर बार पूरा सार्थक उत्तर नहीं मिला । क्या यह शब्द  केवल उसी के लिये अपना अर्थ खो बैठा है ? शायद उसी के लिये ही क्योंकि ... क्योंकि क्या ?  यह क्योंकि प्रश्न भी मन में एक उछलती लहर सा पैदा हुआ और फिर उसी अथाह छोटी छोटी अनगिनत सवालो जवाबों की धारा में बह गया ।

जी में आ रहा था कि वह रोती रहे , बिना किसी सोच के और ऐसे में सोचना तो हो ही नहीं सकता था जब कोई बिल्कुल बगल में पीठ फिराये खर्राटे भर रहा हो । ऐसे में भावनाये फिसलती रहती है , भटकती रहती है , मन की पर्तों को खोलने के लिये शायद अकेलापन चाहिये , एक दम अकेलापन , ऐसा अकेला पन जहाँ किसी का एहसास भी दखल न दे सके  या कोई एकदम अपना , जिसकी साँसों पर, सोच पर, पूरे अस्तित्व पर केवल उसका अपना हक हो ।

आज उसका मन  दूर दूर तक भटक रहा था । मन की सारी तहें मानों एक साथ खुल जाना चाहती थी , बीते हुए महसूस किये हुये एक एक पल जिनसे बच कर निकला नहीं जा सकता उसे लगता है कि आज किसी कोने को अनदेखा कर देना उसके साथ अन्याय करने जैसा है । भावनायें धीरे धीरे कैसे छीजती जाती हैं  इसे उसने अच्छी तरह महसूस किया है । जैसे रेत की ढेर पर चिरका हुआ घड़ा भर कर रख दिया हो और बूँद - बूँद रिसता घड़ा कब खाली हो गया पता ही नही चला और रेत बिना भीगे वैसी ही पड़ी रही । 

दस - पंद्रह मिनट चुपचाप लेटे रहने के बाद उसने पूछा था कि , तुम्हारे पास आ जाऊँ ? हाँ तुम्हें पसंद नहीं है कि नींद में तुम्हारे दो तकियों के अलावा उसके जिस्म का कोई हिस्सा तुमसे छू जाये । अधिकतर जैसा होता आया है , उसके हर सवाल पर चाहे वह सब्जी कैसी बनी है या बिस्तर पर अगल बगल लेटे हुए ए. के. से कुछ कहना हो ए. के. की प्रतिक्रिया एक ही होती है चुप्पी  और आज भी वही थी , एक चुप्पी ।

दो मिनट बाद कुछ उगलियाँ फिकती हुयी सी उसके हाथ पर थीं , अर्थहीन सी , अनुभूति शून्य सी । उसे जरूरत थी ए.के. के स्पर्श की , ऐसे स्नेह और विश्वास से भरे स्पर्श की जिससे एक महीने से ज्यादा की दूरी, मान, क्रोध् सब कुछ टूट कर बह जाये , पर यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था । चाहे - अनचाहे मन के भीतर से एक निरर्थक सा वाक्य निकल ही पड़ा , ‘‘तुम्हें नींद आ रही है ? ”

शायद उसके पिछले सवाल से ए. के. की नींद हल्की सी उचट गयी थी उसे उनींदा सा जवाब मिला , ‘‘ हूँ ।”
उसने  ए.के. के फैले हाथ पर अपना सिर रख दिया ।

हाथ वैसे ही असंपृक्त था ।

स्वाभिमान को एक बार फिर से कुचल कर उसने पूछा कि , ‘‘ मैं ऐसे ही लेटी रहूँ तुम्हें नींद आ जायेगी ना ? “ 
कुछ अस्पष्ट सा उतर दिया था ,  ए.के. का एक हाथ उसके सिर के नीचे था और दूसरा उसके पीठ की ओर लटकता सा । उसका जी चाह रहा था कि वह  ए.के. से बाते करे , ढेर सारी बातें सुने पर हर शब्द बोलने से पहले उसे अपने मन से बीसियों तर्क-वितर्क करने पड़ते हैं , डूबना-उतराना पड़ता है । पता नहीं क्यों बेहद करीब होते हुये भी शब्द सहज ही नही निकल पाते हैं ।

पहले भी जब चुपचाप लेटे लेटे मौन असहज सा लगने लगता था तो वह थोड़ी थोड़ी देर में एकाध शब्द बोल कर इस असहजता को तोड़ने की कोशिश करती थी और आज भी बातों का सिलसला शुरू करने की एक नाकाम सी कोशिश की थी उसने , “ तुम्हारा बातें करने का दिल नही करता ?”
 
“ क्यों, बात नही करता हूँ ?”
 
सवाल सा उत्तर था ए.के. का और यह उत्तर उसे चुपचाप अपने हिस्से के बिस्तर में जाकर सो जाने का संकेत भी फिर भी उसका मन नहीं मान रहा था , सारे दिन अकेले चुपचाप रहते हुये और शाम को ए .के. के साथ होने पर उसका जी चाहता था कि वह खूब बाते करे , एकदम बच्चों की तरह  बे सिलसिले वार , जो मन में आये । शायद मन में आने से पहले ही क्योंकि कभी कभी लगता है कि उसके मन और जीभ के बीच एक फिल्टर है जहाँ से सब कुछ नही निकल पाता है ।

हाँ फिल्टर ही तो है विवेक का । उसके बुद्वि - विवेक का सदा मज़ाक ही बनाया था ए.के. ने । उसकी दुनियादारी, भविष्य की सोच , और इकलौटे बेटे निखिल में संस्कार और  शिष्टाचार की जड़ बैठाने की कोशिश को मजाक बना बना कर उसके आत्म विश्वास को ही कमजोर कर दिया था । हर बात को उपेक्षा से अनसुना कर देना , ऐसे में बात चीत की सारी संभावनाये खत्म हो जाती थी और उसके पास बचती थी सिर्फ एक झिझक भरी चुप्पी ।

इसलिये कभी कभी उसका मन करता है कि बिना सोचे समझे बातें करती रहे भले ही वह ए. के. की नज़र में एक दम मूर्खताओं से ही भरी क्यों न हों ? क्या उसे हक नहीं है कि वह मनचाही बाते कर सके ए.के. से ? 

वह फिर से क्या सोचने लग गयी उसने  विचारों को परे धकेल दिया ।

‘‘ एक बात बताओं, आज कितने दिनों बाद तुम्हारे पास इस तरह लेट कर बातें कर रही हूँ ?”
 
‘‘ दस बारह दिन हुआ होगा । ” ए. के. की आवाज में नींद का असर मौजूद था ।

‘‘ जी नहीं , एक महीने से ज्यादा हो गया । ”

उसकी आवाज में न चाहते हुए भी एक हल्की सी तल्खी आ गयी थी जिसे नींद में खोते हुए ए.के. ने भले ही महसूस न किया हो पर उसके मन और कानों ने भली भाँति महसूस किया था ।

इसके बाद उसे शब्द नहीं मिले । उसे ए.के. के पास लेटे हुये एक बेचैनी सी होने लगी थी , उसका बेमानी स्पर्श अब निर्जीव ,लिजलिजा सा लगने लगा शायद बरदाश्त के बाहर भी । उसे मालूम था कि ए.के. ज्यादा देर नाटक नहीं कर पायेंगे और उसे परे ढकेल कर करवट बदल कर सो जायेंगे , इसके पहले ही जब वह अपने शब्दों को तौल कर पूछे कि ,जब हाथ दर्द करने लगे तो बता देना मै हट जाऊँगी , उसे ए.के. की उनींदी आवाज सुनाई पड़ी , ‘‘ जरा दूर हटो ।”

यह वाक्य अगर उसे जवाब में मिला होता तो उसे शायद इतना बुरा नही लगता पर इस तरह वह आहत हो उठी । उसके जरा सा हटते ही ए.के.  के पीठ की तरफ पड़ा तकिया उसकी जगह अड़स गया , उसे बेचैनी होने लगी और वह करवट बदल कर अपनी पुरानी जगह पर आ गयी।

ए.के. ने तकिये को आराम से बाहों में भींच लिया और संतुष्ट से खर्राटे भरने लगे । उनकी खर्राटे धीरे धीरे तेज होने लगी । 

हल्की रोशनी में तकिये को सीने में भींचे हुये ए.के. का उसके उपर पड़े रहने वाला निर्जीव सा हाथ अब सजीव लग रहा था ।

उसे एक और तकिये की जरूरत महसूस होने लगी थी इतने बड़े तकिये की जिससे कि वह इस डबल बेड को दो हिस्सों में बांट दें, जिसको फाँद कर उसका तन , मन और मस्तिष्क  दूसरी तरफ न जा सके ।


43 -

उदाहरण

अनिरुद्ध


जेल से छूट कर धनिया बस पर आ बैठी, लेकिन छः महीने तक की “तसला लालटेन...ठीक है...कुल...कैदी” आवाज अभी उसके कानों में गूंज रही थी। रिहाई के वक्‍त गोर्रा मालकिन तथा सुधिया पगली-किस तरह गले लिपट गई थी उसके दिमाग में अभी घूम रहा है। काश! 325 की सजा और हो गई होती और धनिया बाहर की दुनिया की चिन्ताओं से मुक्त रहती। उसका कल्लू जिसे वह गोद में लेकर जेल आई थी यहीं मर गया! बेचारा! कितना बदनसीब था जब खाने को नहीं था तो चेचक से पीड़ित बिस्तरे पर पड़ा था और जब जेल में दूध रोटी का इन्तजाम हुआ तो चल बसा। उसकी पीली आंखों में कितनी चमक थी। मरने पर ऐसे लग रहा था अभी “माई! कह कर बोल पड़ेगा। घर्र....घर मोटर की आवाज से धनिया कसमसा उठी, उसकी आंखें भीगी हुई थी मोटर चल पड़ी।

हिमालय की तलहटी में बसा तराई का एक छोटा गांव और उसका दक्खिनी हिस्सा। चमारों की बस्ती में चारों तरफ घूरों से घिरा हुआ धनिया का घर। सामने आम का पेड़ जिसे उसका आंगन कहा जा सकता है। सफाई इतनी कि जैसे रोज कथा सुने जाने की तैयारी हो।

आंगन के नीचे हमेशा गोबरहा सूखा रहता है। उसके इर्द गिर्द एक आठ वर्ष की लड़की मंड़राती रहती है उसे सुखाने के लिए। यह उसकी भतीजी ईनरी है। इसके साथ उसका भाई शंकर भी है। दोनों भाई बहनों का पोषण धनिया ही कर रही है। उनके मां-बाप हैजे की चपेट में आ गये थे और दोनों बच्चे अनाथ थे। धनिया जब अपने दोनों लड़को को लेकर ससुराल से नैहर आई थी तो ये दोनों काफी छोटे थे। शंकर चलता फिरता था और ईनरी गोद में थी। तब नैहर में धनिया मेहमान थी। घर के सभी लोग उस पर तरस खाते थे। बेचारी के पति ने मार कर भगा दिया था। कहते हैं वह बड़ा शराबी था और गांव के ही किसी लड़की को देख कर उसके नजरों का पानी गिर गया था। उसने उस लड़की को अपने घर बुला लिया था। किसी तरह चार साल धनिया ससुराल में सेत बनाने की। जब कोई वश नहीं चल पाया और पानी सर के ऊपर हो गया तो वह नेहर चली आई थी। तब उसके गोद में कल्लू था और दो साल का झबरा।

गांव में कुटवनी-पिसवनी कर धनिया गुजर कर रही थी। दो साल बाद वह पंडित के वहां दस मण्डी जमीन की उजरत पर पूरे साल के लिए रख ली गयी थी। ढोरों की देखभाल करना, भूसा पानी देना, खेतों में काम करना; नाते
रिश्ते में आना-जाना यह काम धनिया को सौंपा गया। साथ में शंकर ढोरों को चराता था जिसकी खुराकी पण्डित जी देते थे। ईनरी घर का चौका-बर्तन, तथा कल्लू की देखभाल करती थी। शंकर झबरा उसके साथ खेलता-खाता था।

धनिया सेवा के लिए काफी मशहूर थी। उसकी हंसी-ठिठोली गांव में एक तरह से ग्रामवासियों के मनोरन्‍जन की साधन थी। चौकीदार से लेकर सिपाही, ठीकेदार सब के सब उसके घर से; गांव आने पर जरूर गुजरते थे। वह उनसे हंस-बोल उनकी पूरी खातिर करती थी। इससे उसके विरादरी के लोग उससे जलते भी थे और उसे कुलच्छनी कहते थे; उससे उन्हें अपने बहू-बेटियों के खराब होने का डर था। लेकिन उसके गुस्से से सभी परिचित थे। इसलिए बिरादरी वाले डरते भी थे। वह किसी को मुंह नहीं लगाती थी। सबका जवाब उसके मुंह पर बना बनाया रखा रहता था।

कहने को तो सभी कहते थे कि वह चरित्रहीन है लेकिन ऐसी कोई घटना नहीं घटी, जिसमें धनिया रंगे हाथ पकड़ी गयी हो।

हां यह अलबत्ता सही था कि पण्डित जी की नीयत महीनों से धनिया पर खराब हो चली थी। इसे पूरे गांव के लोग मानते थे। कई बार तो शाम के मुंह-अंधेरे-पण्डित जी उसके घर मंडराते देखे गये थे। कहने वालों ने तो यहां तक कह डाला था कि कई बार जनेऊ निकाल कर पण्डित जी ने धनिया के ओसारी में टांग दिया था और उसे वस्ल की आरजू-मिन्नतें  की थीं।

कुछ भी हो; उस दिन की घटना सबको खली थी। पण्डित जी को ऐसा नहीं करना चाहिए था। उन्हें धनिया को जेल नहीं भिजवाना चाहिए था। पूरे गांव की इज्जत जवार में फैल गई। बाजार-हाट आते-जाते सब गांव की हंसी
उड़ाते फिरते हैं। लेकिन बड़े आदमी-जो ठहरे-कौन उनसे कहने जाय।

उस दिन धनिया शीतला माई की मनौती चढ़ा रही थी। काली जी के स्थान पर वह कह आई थी, “या शीतला माई! हमार कल्लू अच्छा हो जाय, तो हम तुहें सात घड़ा पानी चढ़ाइब |” उसका कल्लू सात दिन बाद कुछ ठीक हो गया था। वह पानी चढ़ा कर लौट रही थी कि पण्डित जी उसे गाली देने लगे थे। वह गिड़गिड़ा रही थी, “मालिक! बिटिया रानी के वहां हम दो-दिन बाद चली जइबै, हमरे कल्लू के तबियत ठीक नाही बा, माफ करीं मालिक!” 

लेकिन मालिक चढ़-दौड़े थे और उसे घसीटते हुए घर में ले गये थे। बाद में उन्होंने उसका सब सामान फेंक दिया था। उसका घर वह उजाड़ने लगे थे तब जैसे धनिया सिंहनी हो गई थी और पण्डित जी पर हाथ चला दिया था, पण्डित जी का सर फूट गया था। वह फौरन थाना चले गये थे और दरोगा जी को साथ ला कर धनिया को जेल भिजवा दिया था।

पूरा गांव सन्‍नाटे में आ गया था। लेकिन कोई मुंह खोल कर कुछ कह नहीं सकता था।

गांव के सभी लोगों ने देखा था कि पण्डित जी के यह कहने पर कि सरकार; यह बड़ी बादल्ना है। धनिया चुप थी और उसके आंखें नम थीं। उसकी आंखों में अजीब-सी शून्यता भरी थी जैसे पंच के सामने इन्साफ की भीख मांग रही हो, सभी सिर झुकाये अपने को अपराधी महसूस कर रहे थे। पण्डित जी के आतंक से सभी आजिज थे लेकिन उनकी पहुंच बहुत दूर की थी-पानी में रह कर मगर में बैर कोई कैसे ले सकता था।

न बस से उतरते ही धनिया का दिन धड़कने लगा था। न जाने गांव के लोग उसे क्या कहेंगे। कैसे वह लोगों से बात करेगी। सभी लोग और नफरत करने लगेंगे। न जाने शंकर, झबरा, ईनरी का क्‍या हुआ होगा, कहीं वे भी तो कल्लूवा की तरह....उसने ज़बान काट ली। धनिया का दिल बैठ रहा था।

लोगों की निगाहों से बचने के लिए धनिया सिवान के रास्ते से आई थी। आते ही झबरा, ईनरी, शंकर उससे लिपट गये थे। ईनरी रो रही थी, झबरा उसके गोद से चिपक गया था। शंकर उसके लिए पानी लाने कूएं पर चला गया था तभी बिरादरी की सभी औरतें इकट्टी हो गयी। देखते-देखते गांव की सभी औरतों का मजमा लग गया। जैसे धनिया तीर्थ-यात्रा कर लौटी हो। जब औरतों ने उसके जेल-जीवन के बारे में पूछा तो शून्य को निहारती-सी वह बोली-अब, बिरादरी के आपन संगठन बनावे के चाही। पण्डित जी के सिरिया पर कब्जा होए के चाही। 

यह बात सुनते ही कुछ औरतें हंस पड़ीं लेकिन उनके मन में यह बात समा गई कि धनिया सही कह रही है। चौधराइन काकी बोलीं, धनिया फिकिर न कर। चौधरी कहत रहलें कि पण्डित जी के जुलुम ढेर दिन नाहीं चली।
लेकिन धनिया तेहूं बाटे बहादुर पण्डितवा के केहू मारि नाही पवले रहल। अब देख का का होला।

44 -

देह-दुकान
[ जन्म : जुलाई , 1947 ]
मदन मोहन


टकटकी बँध जाती, तो तार का टूटना ही मुश्किल होता। और वह प्रायः निराशा में टूटता। तब पहलू बदलना एक विवशता बन जाती, और गहरी हांफ का छूटना भी। इन दिनों इस टकटकी में ही आस छुपी है। मगर थक जाती है
सुमित्रा। ज्यादातर निराशा की थकान। हालांकि थकना आंखों को चाहिए, पर थकान है, कि भीतर दिन की गहराइयों तक उतर जाती है। सुमित्रा जानती है, क्यों उठती है थकान की यह पीर! पर इससे छुटकारा भी तो नहीं। और नहीं तो दिनों दिन हालत और बद ही होती जा रही है।

घंटा भर बीत गया था, सड़क पर जाते राहगीरों में एक ने भी दुकान की ओर रुख नहीं किया था। सुमित्रा की चिंता गहराने लगी। दिन नाक के ऊपर तक चढ़ आया था। सुबह से अब तलक कुल तीन गाहक! दो ने केवल चाय पी थी। एक ने सिर्फ पकौड़ियां खायीं। न जलेबी, न पेड़ा, न टिकिया, न समोसा! तीसरे ने चाय भी नहीं पी। यही हाल रहा तो आज का दिन भी...हे राम! सुमित्रा ने पहलू बदला, तो वही परिचित-सी गहराइयों से उठी हांफ बाहर
आ गयी। घंटा-आध घंटा पर यह पहलू बदलना! उफ! मुगदर-सी हो चली जांघ और कमर की टीस एक पहलू पर चैन से रहने भी तो नहीं देती! अब तो लगता है, यह सिर्फ चिंता या वहम भर नहीं है, जरूर कोई रोग लग गया
है उसे। या फिर देह का मोटापा ही हो। या फिर... राम जाने।

राहगीरों के किसी समूह की आहट हुई, तो सुमित्रा सचेत हो निगाह लगा बैठी। समूह बेपरवाह सड़क से गुजर गया, तो वह हाथ मल के रह गयी। मायूसी में उसने फिर खुद से पूछा-आखिर उसकी दुकान के साथ ऐसा क्यों होता जा रहा है?
किन्तु मन है, कि घूम-फिर कर खुद को ही घेरता है। क्या सचमुच इसकी अकेली जिम्मेदार वही है? यानी उसकी देह? क्या कुल माया देह की ही रही है? यदि सच, तब कया करे वह? कहां से लाये वह काया, जो अब इस जनम में मिलने से रही!

फिर पलट कर सोचती है सुमित्रा, कहीं यह सब मन का भरम तो नहीं? किसी दिल जले का टोना-टोटका? उसे पता न हो, बूझ न पा रही हो? नहीं तो चट्टी में औरों की रोजी-रोटी चल ही रही है, कहीं भी तो नहीं बैठी है कोई हूर की परी! हां, सामानों के मुकाबले में वह जरूर शिकस्त खा रही है। 

इन दिनों सुमित्रा की निगाहें खान-पान की प्रतिद्वंद्वी दुकानों को परखती रहती है। खास कर उनकी बिक्री-बरकत! जिसकी कसौटी गाहकों की भीड़ होती है, या फिर सामानों की अच्छाई-बुरायी। अपनी दुकान की गिरती हालत को देख सुमित्रा खान-पान के आइटम बढ़ाना चाहती है। जलेबी-पेड़ा के साथ बेसन का लड्डू और खोया की बरफी। चाट में टिकिया-पकौड़ी के साथ खस्ता और छोला के आइटम और जुड़ जाएं, तो क्या पता दिन फिर बहुर आयें। इरादे पर पति जोखू से मशविरा कर लिया है। राजी है जोखू भी, बस हाथ में कुछ पैसे ठहर जायं।...शहराती बनती जा रही चटूटी में शहरियों जैसी दुकानदारी नहीं की, तो बिक्री-बरकत कैसे होगी? हालांकि यह होड़ बड़ी दुखदायी है, न जाने कहां ले जायेगी? पूंजी की कोई मजबूत पतवार भी नहीं डूब गयी नाव समाधार में, तो क्या होगा? खेत-जमीन और घर-दुआर सब तो डूब जायेगा!

आकुल-व्याकुल हो उठती है सुमित्रा। चिलकने लगती है कमर और जांघ। तड़प कर पहलू बदल लेती है। फिर हांफ छोड़ राहत महसूस करती है।

सुमित्रा ने गौर किया, राहगीरों की आमद-रफ्त रोज जैसी ही थी। कइयों की निगाह दुकान पर पड़ी, और उस पर भी, किन्तु ठहराव न हुआ। बीच के एक-दो टपरों में कुछेक ने पड़ाव डाले, तो उसके सीने में टीस उठ गयी! उसने
खुद की देह को तीखी निगाहों से फिर तौला। और सामने के सजे सामानों का जायजा लिया। नहीं, अब देह की भला क्या आस! सामानों पर मोह-सा उमड़ आया। मगर हाय, आज फिर इनकी बरबादी लिखी है! देह की रंगत नहीं रह जाती, तो वह निरर्थक हो जाती है। उसी तरह सामानों की ताजगी और जायका नहीं रह जाता, तो वे भी भला किस काम के! इधर महीनों से नुकसान ही नुकसान तो है! रोज लगाओ, रोज कमाओ की सिलसिला ही टूट गया है। आखिर कब तक चलेगा यह घाटे का सौदा?

अभी बारह भी नहीं बजे थे, कि पछिया बयार में तपिश समाने लगी थी। चैत-बैसाख के दिन। खान-पान की सामग्री तक धूप उतर आयी थी। और उनकी ताजगी सोखने लगी थी। मक्खियों और हाड़ों के झुण्ड भी लगातार मडरा रहे थे। सुमित्रा को लगा, अब सड़क की ओर से टपरे पर चादर तान देनी चाहिए। उसने पति की तलाश में निगाह दौड़ाई। वह चांपाकल के पास खटोले पर ऊंध रहा था। सुमित्रा को गुस्सा आ गया, मुंवा रात भर करता क्‍या है? दुकानदारी के बखत भी खरटे मार रहा है? कितना मना किया, कि गले तक दारू न उड़ेला कर, पर हरामी मानता ही नहीं। गल्ले से जबरिया पैसा निकाल लेता है और दुकान बढ़ने (बंद होने) के साथ निकल जाता है, उस पार की चट्टी में। मुनिया-छोटू के साथ वह सो जायेगी, तब पहुंचेगा घर, किसी नवाबजादे की तरह। रोटी-दाल की जगह पहले लुगाई का जिसम ही खाना चाहेगा! फिर बेहोश हो जायेगा! घिन आती है उसे। पर जग हंसाई से डरती है, सह लेती है। हो-हल्ला करे भी तो, वही क्‍या टोला-टाटी में तमाशा बन कर नहीं रह जायेगी! फिर मुनिया और छोटू! माना, छोटू बच्चा है, पर मुनिया? फायदा क्या?

रही काम की बात, सुबह मरद को ऊंधता छोड़ वह खुद पहुंच कर दुकान खोल देती है। झाडू-बहारू, भांड-बर्तन की घिसाई-मजाई और चूहे में कोयला-आग डाल कर फुरसत पा लेती है। फिर तो दुकान पर बैठना ही बैठना रह जाता है। सामानों की तैयारी में मुनिया और छोटू भी हाथ बँटा ही देते है। सिर्फ मरद पर भरोसा करे तो हो चुकी दुकानदारी। पर भरोसा तो करना ही पड़ता है, मरद जो है! मरद, यानी जीवन भर की एक ऐसी आस, जो कितनी भी कमजोर क्‍यों न हो, रहना तो उसके साये तले ही है।

दुकान गांव-टोले से कोई फर्लाग भर की दूरी पर है। नदी पर पुल जहां से शुरू होता है, उससे पचास कदम पहले। खान-पान और दीगर दुकानों को जोड़ कर सौ से ऊपर गुमटी-दुकानों की चट्टी खुल गयी है। यह दुकान उसे पी.डब्लू.डी. से, सड़क-पुल बनने में उसके इकलौते खेत के चले जाने के बदले में मिली थी। मुआवजा भी मिला था, पर सूँघने भर को। टोले के प्रभावित लोगों के साथ पति जोखू ने काफी दौड़-धूप की तो समझौते में यह दुकान सड़क की पटरी पर रखने को मिल गयी थी। फिर जेवर-बिक्खों बेंच-बाँच कर टपरा खड़ा कर लिया, और चाय-पकौड़ी की दुकान चालू कर दी।

अब तो चट्टी काफी-कुछ फैल गयी है। चमक-दमक, गहमा-गहमी और साँझ होते ही रोशनी में सराबोर चटूटी किसी नई-नवेली दुल्हन की तरह सज उठती है। पहले कभी सप्ताह में दो दिन-सोमवार, शुक्रवार बाजार लगा करता था। और साल में एक बार कार्तिक पूर्णिमा के नहान का मेला। मगर अब रोज शाम होते ही बाजार अपने मायावी रूप में प्रगट हो जाता है। मेला अब भी लगता जरूर है, पर इस “रोजही” बाजार के आगे लोगों के दिलों में वह फीका पड़ता जा रहा है।

सुमित्रा को याद आते हैं शुरुआत के दिन, तो वह और उदास हो जाती है।

तब वह नई-नवेली सुन्दर-सुघड़ थी। गांव-दिहात के बियाबान में खिली हुई कुँई-सी। गोद में एक बच्ची, तो भी रूप जस का तस। पहले साल भर दुकान पर पति जोखू बैठा। जी-तोड़ मेहनत की। पर सब व्यर्थ। हासिल कुछ न रहा। चिंता में सूख कर देह आधी हो गयी। दुकान से विरक्ति ऐसी, कि काट खाने को दौड़ती। तभी एक रात जब वह लुगाई की बगल में लेटा, तो बोला-अकेले पार ना लगे। कड़ी मेहनत है। तू भी चल सुमित्रा...तभी पार लगे और बरकत होवे।

पति की बात सुन सुमित्रा सिहर उठी थी। गांव-टोले में वह खुल कर निकल नहीं पाती, तो सरे बाजार...

सुमित्रा के जेहन में मायके का वह दुखद वाकया कौंध गया था। तब वह आठ-दस की रही होगी। और बड़ी बहन पवित्रा चौदह-पन्द्रह की। पवित्रा दीदी भी क्‍या बला की खूबसूरत थी! उसकी एक झलक पाने को गांव टोले के शोहदे दो-चार चक्कर जरूर लगा लेते। खेत-खलिहान में तभी जाती, जब काम का हरजा हो रहा हो। नहीं तो घर के काम-काज में मशगूल रहती। दादा-भाई की कड़ी निगरानी। बाबू-भइया की मजूरी-धतूरी का तो सवाल ही नहीं था। मगर एक दिन प्रधान परशुराम सिंह का कारिंदा लछमन सुबह-सुबह आ कर दादा के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया-महेश महतो, प्रधान जी की कटिया (फसल कटाई) पिछड़ी जा रही है। मजूरे पहले अपना या भाई-बिरादरी का निबटाने में लगे हैं। तब भी पाँच-छः मजूरों का जुगाड़ बन गया है। बस एक तुम हो जाते... दो-चार दिन की ही तो बात है। 
लछमन अहिर टोले के मुरली भगत का माझिल बेटा था। पिछले प्रधानी चुनाव में नये प्रधान परशुराम सिंह का खास कारकुन बन गया था। परशुराम सिंह ने पूर्व प्रधान को सिर्फ पराजित भर नहीं किया था, बल्कि उसकी बेईमानियों-ज्यादतियों से बने घावों पर मरहम-पट्टी भी कर दी थी। लोगों में उनके प्रति निःसंदेह आदर-भाव पनप आया था।

दादा संकोच में पड़ गये। बोले-देख लछमन, अपना ही खेत हम भी काट रहे हैं। आकाश में बादल घुमड़ रहे है। रबी यूं ही मारी गयी है, पानी बरस गया तो हम तो किसी ओर के न होंगे। तुम बस दो दिन और रुक जाओ...

लछमन, जो पहले से चोर निगाहों से दीदी की ताक-झांक कर रहा था, दादा की बात काट कर बोला-महेश काका, प्रधान जी ने निवेदन किया है, आप के घर से एक आदमी के लिए। अब तो पवित्रा भी...

दीदी कोठरी के दरवाजे पर आकर खड़ी हो गयी थी। दादा ने उसकी ओर देखा तो वह मंद-मंद मुस्कुराती उत्सुक दिखी। पर दादा ने कहा-वह तो नवसिखिया है अभी, तुम्हारा घाटा कर देगी, तब तुम ही जानो...

कहते हैं, मुसीबत आनी होती है, तो मति भी मारी जाती है। घर से निकलने की इजाजत न देने वाले दादा ने जाने कैसे दीदी को लछमन के साथ मजूरी पर जाने दिया था, वह मेरी क्या, किसी की भी समझ से परे था। माई ने सुना, तो वह भी मूड़ पीट के रह गयी।

उधर जो होनी थी, वह हो के रही, दीदी की इज्जत लुट गयी थी। घर में रोना-पीटना पड़ गया। टोला-टाटी की भीड़ लग गयी। बात प्रधान से जुड़ी थी, सो जिस किसी ने मुंह खोला तो सम्हाल के। प्रधान भी दरवाजे तक चल कर आये। सांत्वना दी। न्याय की बात की। किसी तरह रात बीती। सुबह-सवेरे दादा-भाई प्रधान को लेकर थाना पहुंचे। लिखा-पढ़ी में दिन भर लग गया। लछमन और उसके दो साथियों को नामज॒द किया। बाद में दीदी की डाक्टरी हुई। बयान हुआ। और भी जांच-पड़ताल हुई। पर लछमन एक दिन भी जेल में न रहा। न जाने किस कानून में थाना से ही उसकी जमानत हो गयी!

दीदी रात-दिन कोठरी में एक करवट, एक पहलू पड़ी रहती, गुमसुम। अपलक निगाहों से धरती को भेदती रहती, शायद इस उम्मीद में, कि वह फटे और वह उसमें समा जाये! समा गयी दीदी धरती में, माटी में! एक दिन माई के साथ मकई के खेत में गयी और वहीं माहुर खा के माटी हो गयी!

दीदी का किस्सा वहीं समाप्त हो गया था। रह गयी थी वह, यानी सुमित्रा, जिसे माई-दादा ने भरसक धूप-छाँह से भी बचा के रखा। पर क्‍या जानती थी वह, कि यहां ससुराल में मरद के पास, खुले आम चटूटी-बाजार में उतरना पड़ जायेगा! हालांकि वह यह जानती थी, कि गरीब के भाग में कोठा-अटारी नहीं लिखी होती, तब भी पल दो पल के लिए अचरज जरूर हुआ था।

सो उसने पति की बात का सीधा प्रतिवाद न करके कहा था-हमें तो लाज लगेगी। नाते-रिश्ते से बहिन-बुआ को बुला  लेते...

अरे काहे की लाज! खेत-खलिहान में काम के लिए जाती है कि नहीं! फिर फेकू और सरजू की लुगाई भी तो उसी चटटी में बैठें!...और देख सुमित्रा, खेत तो चला गया, अब दुकान का ही आसरा है, ना चली, बरकत ना हुई तो खायेंगे क्‍या, रहेंगे कैसे?

जोखू ने प्यार से ऊंच-नीच समझा दिया था। और वह हिम्मत बांध कर बैठ गयी थी दुकान पर। नया काम, गोद में बच्ची, कुछ दिन कठिनाई तो रही, अटपटा लगा, किन्तु काम में जोखू के हाथ बटा देने से उसे आसानी रही। और वह काम भी सीखती गयी। सबसे कठिन था, गल्ले (पैसा रखने वाला छोटा बक्स) को लेकर बैठना और होशियारी से पैसे जोड़ कर गाहकों से लेना। मगर धीरे-धीरे इसका भी अभ्यास हो चला। रह गया मन और देह का अभ्यास, जिनके न सध पाने की चिंता और द्वंद्व काफी दिनों तक बना रहा। दुकान पर भीड़ बढ़ती, तो वह खुद को लेकर बेहद सचेत और संवेदनशील हो उठती। उसे लगता, कि वह दुकान पर सजे सामानों जैसी ही है, जिन पर गाहकों की ललचाई निगाहें पड़ती रहती है, और एक न एक दिन पैसे के बल पर वे उसका यौवन और सतीत्व भी चख लेंगे। गाहकों में उसे ऐसे दबंग मनचले अक्सर दिख ही जाते। वह सहमी-सहमी-सी रहती।

भीड़ से अक्सर हंसी-ठिठोली की गर्म बौछारें पड़ती रहतीं | वह तिलमिलाती, किन्तु जी-जान से काम में जुटी रहती, यह सोच कर, कि इससे वह काफी हद तक अपना बचाव कर लेगी। पर यह उसका भ्रम ही होता। कुछ शोहदे मौका देख नोट पकड़ाते समय , उसकी अंगुलियां और हथेली भी पकड़ने से न चूकते। कइयों के हाथ झटक कर उसने अपना विरोध जताया। पर इसका कोई खास असर न हुआ। तो उसने पति से शिकायत की-यहीं बैठे रहते हो,
कुछ हरामी हाथ तक पकड़ लेते हैं, तुम्हारी बोल नहीं फूटती?

अरे हाथ कैसे पकड़ लेगा कोई? तूने बताया क्‍यों नहीं, टेंटुआ न पकड़ लेता स्साले का!

जवाब देने की यह तत्परता उसे पति की लफ्फाजी ही लगी थी। क्योंकि कई दफा उसने देखा और महसूस किया था, कि भीड़ से जब भी हंसी-मजाक के तीर छूटते, या कोई शोहदा उसकी अंगुली भींच रहा होता, तो जोखू काम
में पहले से ज्यादा तल्लीन हो यही जताने की कोशिश करता, कि वह तो कुछ नहीं देख रहा!

किंतु एक दिन जब किसी मनबढ़ शोहदे ने हाथ उसके वक्ष तक बढ़ा दिया, तो पहले तो उसने उसका हाथ झटका, फिर फनफना-सी उठी, बोली-घर में बहन-बेटी नहीं क्या? हरामी...

शोहदा कुटिल मुस्कान बिखेरता चला तो गया था, किंतु सुमित्रा की खीज-गुस्सा तभी शांत हुआ था, जब वह उठ कर सीधे बेखबर बैठे पति के पास चली गयी थी और उस के सीने के बाल पकड़ कर उस के थोबड़े पर जड़ दिया था, चट्‌-चट्‌-चट्‌!

मगर इतना कुछ के बावजूद जब कोई फर्क न पड़ा, तो उसने खुद को भगवान भरोसे छोड़ दिया था। और यह मान लिया था, कि चट्टी-बाजार में बैठना है, तो रंडी-बेस्सा बन कर बैठना है। और फिर जितना बन सके इसका फायदा उठाना है। और तब पति जोखू भी उसे बहुत गलत नहीं लगा था, और उसे चाटा मारने का उसे अफसोस भी हुआ था।

गोद की बच्ची खाने-पीने, चलने-फिरने लगी, तो उधर से निश्चित हो गयी सुमित्रा। अब दुकान के लिए कुछ और समय निकल आया था। चट्टी में उसकी दुकान अव्वल पर चल रही थी। बरकत ही बरकत! दिन सुकून और सुख से बीतने लगे। देह निखर कर और दिलकश हो उठी। अब अच्छा पहनने-ओढ़ने का शौक भी मचलने लगा था। साज-संवर कर आना उसकी दिनचर्या में शामिल हो चुका था। हँसी-ठिठोली और चुहल बाजियों में खुल कर दिलचस्पी लेती। रसिक खिलाड़ियों के साथ यूं खेलती कि जीत उसकी हो। और वह प्रायः विजेता होती! गांव-टोले में छप्पर  की जगह पक्की कोठरी बन गयी थी उसकी। सड़क-पुल में चले गये खेत की जगह बीघा भर नया खेत भी। दुकान पर फूस की जगह टिन की छाजन। दुकान पर एक लड़का (नौकर) भी। बड़ी बेटी तेरह-चौदह की होकर जवान हो रही थी। उसके नीचे ग्यारह-बारह की मुनिया और सात-आठ का छोटू। और वह खुद बत्तीस-तैंत्तीस की। औसत कद-काठी की सुडौल देह सुख में भरती-फैलती चली गयी। पूरा बदन मानो मांस के पिण्ड में तब्दील! आइने में खुद को देखती, तो दहल जाती। उठना-बैठना तक दूभर। इसके पहले, कि खाट घर लेती, बड़ी बेटी के हाथ पीले कर दिये। और गौना भी दे दिया।

और अब तो मुनिया भी सयानी हो चली थी। पानी की बाढ़ और बेटी की बाढ़! देह में कल्ले फूट चले थे और वह निखरने लगी थी। जून-जमाने को देखते हुए शादी-ब्याह करके छुटूटी पा लेना चाहती थी सुमित्ना। पर दुर्भाग्य तो आगे-आगे चलता है न! जो खतरा उसने भाँप लिया था, वही हुआ! दुकान पर गाहकों की आमद कम होती चली गयी। इतनी कम, कि एक-दो साल से घाटा ही घाटा! बंद होने के कगार पर आ गयी दुकान। सुबह से रात हो जाती, गल्ले में सौ रुपये भी न होते। खर्चे डेढ़-दो सौ के ऊपर और बिक्री भगवान भरोसे! खर्चे कम कर दिये। नौकर कब का जाता रहा। घरेलू जरूरतों को समेट लिया। तब भी जीवन के दूभर होते जाने का एहसास अवसाद में बदलता जा रहा था।

समस्या विकट थी। किन्तु राह की तलाश में जुट गये थे सुमित्रा और जोखू। फिलहाल कर्ज-कुआम जोड़ कर आइटम बढ़ाने की फितरत आसान लग रही थी। कर्जा मिल गया तो ठीक, नहीं तो खेत, जो परती पड़ा झख मार रहा है, उसको ही रेहन पर रख कर दुकान को डूबने से बचा लेना है।

सुमित्रा और जोखू उदास और हताश थे। आज बिक्री इतनी कम हुई थी, कि जोखू के 'पाउच” का जुगाड़ भी नहीं बन पाया था। उसने जिद भी नहीं की। दुकान बढ़ाकर वे चुपचाप घर पहुंच गये थे। गांव-टोले पर रात का काला परदा टँग गया था। मुनिया ने खाना बना लिया था। खाना खा कर पति-पत्नी सहन में लेट गये। जोखू ने एक लम्बी सांस भरी और बोला-क्या करूं, कोई कर्जा भी तो देने को तैयार नहीं!

मैं कहती हूं भीख मांगने से कोई फायदा है? खेत रेहन पर धर दो, कमा के छुड़ा लेंगे। चित लेटी सुमित्रा आकाश ताकती बोली। यह उसका फैसलाकुन उत्तर जैसा ही था।
जोखू ने एक गहरी निगाह उस पर डाली। फिर बोला-मगर सुमित्रा, मैं सोचता हूं, अगर तब भी दुकान पटरी पर न आ पायी, तो क्या होगा?

जोखू ने शायद कड़वी सच्चाई कह दी थी, सुमित्रा खीज गयी। तमक कर बोली-तो क्‍या जहर खा के मर जायेंगे और क्या?

देख, गुस्सा मत कर। ठण्डे दिमाग से सोच जरा...

जोखू ने सहलाने की कोशिश की। फिर चुप रह कुछ गुनने-सा लगा।

सुमित्रा ने मुंह फेर कर करवट बदल ली थी। मन ही मन पछता भी रही थी, कि पति की बात का कुछ तो जवाब देना चाहिए उसे। मगर क्या जवाब दे, समझ से परे था।

तभी जोखू उसे फिर सहेजता है-तुमने कुछ सोचा है क्‍या?

सुमित्रा चुप ही रहती है। कुछ सोचा हो, तब तो बोले। उसे कुढ़न-सी होती है। और सांस भारी। उठती है और कोठरी में चली जाती है।

कोठरी में लैम्प की धीमी-पीली रोशनी थरथरा रही है। मुनिया और छोटू मां-बाप की बातों पर कान धरे हुए हैं। सुमित्रा उनकी बिछावन पर लेट जाती है। और उन्हें भी सोने के लिए कहती है।

तभी उसे दीवाल पर एक स्याह परछाईं दिखती है। न जाने कब आकर मरद बगल में बैठ गया था। नम्न-विनम्र! फिर उसके अस्फुट स्वर सुमित्रा के कानों में पड़ते हैं-ऐसा कर, कल से मुनिया को भी साथ लेकर तू दुकान
पर बैठ...

सुमित्रा धक रह जाती है। एक झटके में उठ बैठती है। फटी आँखों से जोखू को देखती है। आँखें डबडबा आयी है। मरद का चेहरा झिलमिलाता है। कभी गुम हो जाता है, कभी उभर जाता है। उसे भ्रम होता है, यह उसका मरद मुनिया का बाप ही है, या कोई और? यह उसकी दीनता है, या छल? कहीं यह उसके मायके का लछमन तो नहीं, जो मारीच की तरह कपटी मृग बन कर पवित्रा दीदी का हरण करा डाला था! और अब मुनिया को हरने आन पड़ा है! लछमन प्रधान परशुराम सिंह का कारिंदा था, उसने दीदी का हरण करके अपनी हवस मिटायी थी। पर यह सामने बैठा मरद किस रावण को भेजा माया मृग है? और यह लुगाई के बाद अब बेटी को चट्टी में ले जा कर किस चीज की हवस मिटाना चाहता है? जीने के लिए इसके पास कोई और समाधान नहीं?

सुमित्रा के भीतर कोई आग लहक उठी है। पर राख तले दबी लपटें उठने से रह जा रही है। गला भरा हुआ है। किसी बोल के लिए यहां कोई रास्ता नहीं। या फिर अलफाज नहीं! या फिर...

वह जाल में फँसी मछली की तरह तड़फ रही है। उधर मुनिया प्रश्नाकुल-बिस्मित-सी कभी बाप को देख रही है, तो कभी माँ को! छोटू माँ की बगल में दुबका पड़ा है!



45 -
जीवन प्रवाह
[ जन्म : 1 जनवरी , 1951 ]
प्रेमशीला शुक्ल 

श्मशान घाट पर लकड़ी के कुंदों  के बीच यश का शरीर जल रहा था । आस पास दो चार लोग उसके पूरा जल जाने का इंतजार कर रहे थे; खड़े, बैठे, बतियाते, अफसोस जाहिर करते । थोड़ी दूर पर बैठी नैना सूनी आँखों  से आग की लपटों को देख रही थी । लकड़ी में अंतर्निहित अग्नि तत्व दृश्य हो उठा था और लकड़ी को भस्म  बना रहा था । यश में अंतर्निहित आत्म तत्व अदृश्य हो गया था, अग्नि यश के शरीर को भी भस्म बना रही थी । इस अग्नि से निकलती लपटों से भी अधिक भीषण लपटें नैना के भीतर उठ रही थीं । नैना नहीं जानती कि उन लपटों को कौन सी लकड़ी प्रज्वलित कर रही थी, लेकिन उसकी ज्वाला से आत्मत्व को धारण करनेवाले उसके मन-प्राण धू-धू कर जल रहे थे । 

आकाश से गुजरती गुजरती टिटिहरी ने उसका ध्यान तोड़ा I

उसने सुना - "लाश बहुत जल्दी जल जाएगी I"- लोग कह रहे थे । नैना की नजर आसमान की ओर उठ गई । ईश्वर के राज्य में सब कुछ सुंदर था, अपने नियत कर्म में चलता हुआ ।आसमान की नीलिमा में रत्ती भर भी कमी नहीं थी, ना ही उसमें रत्नों की तरह जड़े तारों की चमक में कोई कमी थी । हवा बिना आवाज किए मद्धिम गति से बह रही थी ।
   नैना ने आसपास देखा I

   दूर पुल पर कोई गाड़ी सीटी बजाती भागी जा रही थी । शहर रोशनी की चादर ओढ़े नींद का मजा ले रहा था । आदमी के संसार में सब कुछ ठीक था, अपनी गति से चलता हुआ; नैना का संसार उलट-पुलट गया था । भीषण भूचाल ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया था ।अग्नि की उठती लपटों ने सब कुछ अपने साथ जला दिया - नैना का समूचा संसार- उसका भूत, वर्तमान और भविष्य । जो उसने पाया, जो उसे पाना था, सब तो खाक हो गया । उसकी चाह, उसके सपने- सब जल गए I

   यश सपना ही तो था उसका I

   अपने सपने को नैना ने बड़े जतन से पाला I

महानगर का सबसे अच्छा नर्सिंग होम था वह । नाम था- 'सर्वोत्तम देखभाल'। नाम जैसा ही काम भी था I 

"कर्नल समीर सिन्हा की संतान धरती पर आ रही है । किसी ऐरा- गैरा, नत्थू खैरा की नहीं । इसलिए सब कुछ सबसे अच्छा होना चाहिए I" पति ने नैना के उल्टे घड़े जैसे पेट को दोनों हाथों से पकड़कर कहा था I

   नैना के लिए नर्सिंग होम की सातवीं मंजिल पर एक प्राइवेट रूम बुक था । नर्सिंग होम का कमरा क्या था, किसी पंच सितारा होटल का कमरा था, बल्कि कहीं उससे भी कई गुना बेहतर । होटल में तो सिर्फ बाहरी सुख- सुविधा की खुशी होती, यहां की खुशी तो भीतर की है । उसे लगता, वह सातवीं मंजिल पर नहीं, सातवें आसमान पर है I

   समीर ने उसे क्या से क्या बना दिया ।

   जीवन में ऐसे- ऐसे रंग हैं, उसने कल्पना भी नहीं की थी ।वह तो झाड़-झंखाड़  थी । अनाथ लड़की । बचपन अनाथालय में बीता । बड़ा होने पर अनाथालय ने एक सेवा ट्रस्ट में भेज दिया । ट्रस्ट के कॉलेज में पढ़ना और उसके हॉस्टल में रहना, नैना की जिंदगी इतने तक सिमटी थी । संयोग ही था कि कालेज के वार्षिक समारोह में कर्नल समीर अपने एक मित्र के साथ पहुंचे थे । नैना ने डिबेट में भाग लिया था और प्रथम आई थी । प्रथम आने के कारण अपनी प्रस्तुति के लिए उसे मंच पर बुलाया गया । वहीं कर्नल ले नैना को देखा । पसंद किया, अपने माता-पिता को बताया, ट्रस्ट के लोगों से बातचीत की । बी.ए. की परीक्षा के बाद नैना की शादी हो गई I

   कर्नल समीर औरतों की आजादी के पक्षधर थे । शादी के बाद कर्नल ने नैना को पूरी आजादी दी । जो चाहो करो, जैसे चाहो रहो । न पड़ने पर बंदिश, न मौज मस्ती पर । नैना ने शादी के बाद ही मैनेजमेंट कोर्स किया । इसके इम्तहान में भी नैना अव्वल रही । बधाई देते हुए समीर ने कहा, "मैंने उसी दिन समझ लिया था, जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा था । तुम्हारी तर्कशक्ति, बोलते समय तुम्हारे हाव-भाव जैसे प्रतिकूलता को चुनौती दे रहे थे । तुम किसी इम्तहान में सेकेंड  हो ही नहीं सकती- न पढ़ाई के, न जिंदगी के । उड़ो नैना, उड़ो । पंखों को फैलाकर लहराती हुई उड़ो, सारा आकाश तुम्हारा है I"

    "लेकिन मैं तो पंखों को समेटकर अंडे सेना चाहती हूं I" नैना ने कहा I

    "मतलब? क्या कह रही हो तुम?" समीर पूछ रहे थे I

    नैना की पलकें झुक गईं I

    समीर के चेहरे पर खुशी की सौ - सौ लहरें आ जा रही थीं । कई दिनों से नैना जो कहना चाह रही थी, बातों ही बातों में उस बात की सुगंध दोनों के बीच फैल गई थी I

     "अंडे सेना चाहती हो या देना चाहती हो?" समीर नैना के करीब थे I

    "आदमी भी कहीं अंडे देता है?" नैना पीछे हटते हुए बोली I

     "वही-वही, तुम अंडा नहीं आदमी का बच्चा दोगी I" समीर ठहाका मारकर हँस रहे थे I

   आसपास के पक्षी पंख फड़फड़ाते उड़ गए I

   पत्नी बनना ही बहुत सुखद था I

   और अब मातृत्व का अनिर्वचनीय सुख I

   नैना हरी-भरी लता बन गई पल्लवित, पुष्पित I

   नैना को रोमांच हो आया I

    उसने पास सोए शिशु को देखा । नर्स ने उसे बड़े नैपकिन में लपेट दिया था । गोलाकार खुली जगह से उसका चेहरा दिखाई दे रहा था, इतना कोमल कि छूने में डर लगे । नैना ने अपनी उंगली उसके गालों पर रखी । गालों पर हल्की सफेदी झलकी, नैना ने झट उँगली हटा ली । सफेदी तुरंत दूनी लालिमा से भर उठी ।

 समीर क्या कम रोमांचित थे! शिशु की छोटी-ऊंची नाक की टिप को दबाते वे कहते, "सर्टिफाइड दैट मिस्टर एंड मिसेस समीर आर कैपेबुल टू प्रोड्यूस ह्यूमन बीइंग । क्यूँ ना हम इसका नाम प्रमाण रखें । यह मेरे और तुम्हारे प्रेम का प्रमाण है । यह हमारी सम्मिलित रचना है । यह देखो, इसकी आंखें बिल्कुल तुम्हारी तरह हैं और नाक बिल्कुल मेरी तरह I"

 "तो पत्र क्यों छोड़ दे रहे हो, पूरा ही रख दो प्रमाण पत्र I" नैना ने प्रतिवाद किया I

 "मजाक कर रही हो तुम? तो तुम्हीं बताओ, इसका क्या नाम रखा जाए?" समीर ने जानना चाहा I
 "इसका नाम रहेगा-यशवर्धन। यह हमारे यश को बढ़ाने वाला होगा । नैना ने शिशु के माथे को चूमते हुए कहा I


वह दिन आए, इसके पहले ही समीर ने अपनी राह बदल ली I

बाकी और दिनों जैसा ही वह दिन भी था । लेकिन उस दिन जो हुआ, उसके भीतर से दूसरी नैना निकली I

उस दिन समीर ने पार्क में घूमने की इच्छा जाहिर की । अँधेरा उतरने वाला था । पार्क में लोग जश्न मनाते दिखाई दे रहे थे । सबके टहलने, बातें करने में खुशियां झलक रही थीं । नैना भी इसी मनोभाव में बँधी फूलों की क्यारियों की ओर बढ़ रही थी । समीर मौन थे ।समीर ने बैठने के लिए अपनी पसंद की जगह चुनी, पार्क  के कोने में खड़े हरसिंगार के नीचे बनी बेंच । समीर और नैना उस ओर चल दिए । यश की पसंद थी-झूला झूलना । वह झूले पर बैठ गया । हरसिंगार के फूल आ गए थे, पर अभी पूरी तरह खिले नहीं थे । उनकी गंध में अधमाता बावरापन भरा था । नैना  ने समीर का ध्यान उस ओर खींचते हुए कहा,  "ऐसी जगह ले आए हो कि मन बीते दिनों की ओर दौड़ चला है । वही गंध, वही झुटपुटा । ऐसे में ही तो तुमने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा था I

"एक प्रस्ताव आज भी मेरे पास है I" समीर ने तुरत कहा ।

"क्या? बोलो, वैसा दूसरा प्रस्ताव क्या हो सकता है?" नैना की बात ने समीर को बात शुरू करने का सिलसिला दे दिया था I

"मैं दीपा के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहना चाहता हूँ I" समीर ने दृढ़ स्वर में कहा ।

नैना के हरसिंगार पर पाला पड़ गया I

नैना को पति के मन का भान तक नहीं हुआ था । उसे अपनी नादानी पर ग्लानि हुई I

नैना के मुंह में आवाज अटक गई । समीर ने यश को बुलाया और तीनों वापस लौट आए । तब से घर में सन्नाटा पसरता गया । यश की तोतली आवाज इसे तोड़ तो देती, पर पहले वाली बात घर में नहीं रही । तीसरे दिन डिनर के वक्त नैना ने चुप्पी तोड़ी । उसने समीर से पूछा, "मुझसे क्या चाहते हो?"

समीर जैसे प्रतीक्षा ही कर रहे हों I

"कल डाइवोर्स के पेपर तैयार करवाऊं?" समीर ने पूछा I

"क्या इस ताम-झाम के बिना काम नहीं चल सकता? अगर लिव इन रिलेशनशिप बिना लिखा-पढ़ी के हो सकती है तो लिव आउट रिलेशनशिप क्यों नहीं? मैं कभी कोई विरोध नहीं करूंगी । भरोसा रखो I" नैना एक सांस में बोल गई ।

"भरोसा है, तुम पर पूरा भरोसा है; और सुनो, मैं तुम लोगों के पूरे खर्चे उठाऊँगा I" समीर नैना को भरोसा दिलाना चाहता था I

"इसकी कोई जरूरत नहीं । मुझे बस यश चाहिए और व्यवस्थित होने के लिए एक महीने का समय I" नैना ने संयत स्वर में कहा I

और, नैना समीर से अलग रहने लगी । ना कोई कानूनी खिचखिच, ना रिश्तेदारी की पंचायत ।

अलग होकर नैना ने जाना कि अब तक जिंदगी उसके लिए कितनी आसान और दिलचस्प रही है । इतने साल कैसे पलक झपकते बीत गए । यश पांच साल का हो गया था । नैना पर कभी कोई जिम्मेदारी रही ही नहीं । उसे बस समीर के साथ होना होता था, अकेले ना वह कभी किसी काम के लिए गई, न सैर-सपाटे के लिए । नातेदारी-रिश्तेदारी उसकी थी नहीं कि वहां जाने की नौबत आए I

नैना को याद आया ढलती शाम में ऑफिस से लौटते ही एक बार समीर ने कहा था, "यार, चौबीस घंटों में बस ऑफिस आवर्स में ही तुमसे अलग रहता हूं, पर उतना ही काटे नहीं कटता I"

"झूठ, क्या मैं वहां तुम्हारे साथ नहीं रहती? मैंने तो खुद को तुम में ही विलीन कर दिया है । क्या नहीं?" नैना ने तुरंत सवाल किया था I

समीर ने मुस्कुराकर हामी भरी थी I

उस समय नैना की आंखों में शरारत तैर गई थी, आज उन में पानी भर आया I

सच नैना ने तो अपना अस्तित्व ही समीर में विलीन कर दिया था । पानी में घुले नमक को अब अपनी तलाश थी ।
नैना ने खुद को समय की आँच पर चढ़ा दिया । गला-तपाकर एक नई नैना गढ़ी- दीप्त, ऊर्जस्वित I

धीरे-धीरे नैना ने अपनी गृहस्थी बसाई । वह सब कुछ हासिल किया जो उसे समीर से मिला था-मान-प्रतिष्ठा, धन-दौलत । इन सब के बीच जो अनमोल हीरा उसके पास था, वह था यश । यश को उसने बड़े जतन से पाला ।बारहवीं पास करते ही यश को आई.आई.टी. में एडमिशन मिल गया और पढ़ाई पूरी होते ही नामी कंपनी गूगल में नौकरी I
इस अच्छी खबर ने नैना को बेचैन कर दिया था । कैसे रहेगी वह? यश उसे समझाता, "कम ऑन मॉम, उदास क्यों होती हो? उड़कर आऊंगा तुम्हारे पास । और, फिर अपना यह लैपटॉप है न, यह कभी महसूस नहीं होने देगा कि मैं तुमसे दूर हूँ I"

हाँ, ठीक ही तो कहता है यश, आज की दुनिया में दूरी क्या चीज है? फिर इसी का तो वह सपना देखती थी । जब सपना सच हो गया तो वह उदास है । अपने सुख के लिए वह बेटे की राह का रोड़ा बनेगी? नैना ने ख़ुशी-ख़ुशी यश को विदा किया ।

समीर के अलग होने के खालीपन को यश ने भरा था । यश के विदेश जाने के बाद नैना की जिंदगी भारी होने लगी । दिन बीतता तो रात नहीं, रात बीतती तो दिन नहीं । यश के सुझाव ने ही काम किया ।

रोज रात को माँ-बेटे में ऑनलाइन बात होती ।नैना को भारत से ज्यादा अमेरिका के समय की फिकर होती- कब अमेरिका में शाम के सात बजे, यश ऑफिस से लौटकर फुरसत में रहे और वह बातें कर सकें । इसके लिए नैना को देर रात तक जागना पड़ता । यश कहता- माँ हम वीक एंड पर भी बातें कर सकते हैं, पर बिना रोज बातें किये नैना को चैन कहाँ? बातें करते हुए नैना भूल ही जाती कि वह यश से दूर है । वह विज्ञान को धन्यवाद देती । मशीनों ने आदमी की जिंदगी कितनी आसान कर दी है । यश ढेर सारी बातें करता-ऑफिस की, बाजार की, खाने की, कपड़े की ।

एक दिन यश ने माँ को अपना पूरा घर दिखाया ।

यह देखो मां- मेरा बेडरूम, ये किचन, ये स्टडी और ये मेरा ड्राइंग रूम ।नैना बेटे के ऐश्वर्य को देखती ।उसका मन असीम संतोष और उमंग से भर जाता ।

ऐसे ही सुखद क्षणों में एक दिन यश ने बताया कि वह अपने साथ की एक लड़की से शादी करना चाहता है । यश ने उसकी तस्वीर दिखाई, फिर मिलवाया । नैना बेटे की पसंद से संतुष्ट थी । बेटे को तो जैसे चाँद-सितारे मिल गए हों । उसके रोम-रोम से खुशी झलक रही थी । उसने माँ से लाड़ करते हुए कहा, "लड़की ढूँढने का मुश्किल काम मैंने कर दिया है । अब आयोजन का सारा भार तुम्हारे ऊपर I"

नैना ने हुमसकर कहा, हाँ, हाँ तुम दोनों शादी के दो दिन पहले आना और देखना आयोजन की भव्यता । कुछ भी उठा नहीं रखूँगी I"

नैना के दिन बजने लगे । रातें थिरकने लगीं ।

कि एक दिन भूचाल आ गया ।

नैना और यश ऑनलाइन थे । यश के पीले जर्द चेहरे को देखते ही नैना को आशंका हो गई । नैना ने घबराकर पूछा, "क्या हुआ यश? ठीक तो हो I"

"माँ! माँ! । ऐली ने शादी से इंकार कर दिया, माँ, वह दूसरे लड़के के साथ रहने लगी है I" यश कह रहा था ।

यश की आवाज टूट-टूटकर आ रही थी । सदियों की पीड़ा उसके चेहरे पर उतर आई थी I- नैना देख रही थी I

"माँ, माँ" यश बोल रहा था I

नैना सुन रही थी I

यश के होंठ नीले पड़ गए ।

नैना का कलेजा मुँह को आ रहा था । यश ने पानी पीने के लिए पास रखा गिलास उठाया I

"गिलास खाली है । देती हूँ मेरे बच्चे, देती हूँ I" नैना पानी लाने उठी I

नैना बैठ गई I

क्या करे नैना?

यश को उल्टियाँ हो रही थीं I

"यश, तूने कुछ खा लिया है क्या? बोल, यश बोल बेटा, क्या किया तूने, क्या खाया बेटा, क्या?"

यश बोल नहीं पा रहा था I

उसने अपना सिर टेबल पर रख लिया था ।उसके मुंह से कुछ निकल रहा था । उसकी आँखें जाने कैसी हो गई थीं I
नैना का हाथ स्क्रीन पर गया I

नैना उसे छूना चाहती थी ।उसे गोद में लेना चाहती थी ।

नैना बाँहे फैलाए कह रही थी- "आजा मेरे लाल, तुझे अपने आँचल में छुपा लूँ I"

यश मौत के आगोश में छुप गया I


आसमान में चांद निकल आया था I

आग धीरे-धीरे ठंडी हो रही थी । हवा उसे छू कर आगे बढ़ती जा रही थी । पुल पर कोई और गाड़ी भागती जा रही थी I

नैना उठी । उसने अपना आँचल सँभाला । जीवन प्रवाह उसे बुला रहा था। 




46  - 
रात के खिलाफ़
[ जन्म :16 जुलाई , 1956 ]
अरविंद कुमार 

                                                
तालियों के साथ-साथ उजड्ड ठहाकों की आवाज़ें चारों तरफ़ फिर फैल गयी हैं। शायद उनमें से फिर किसी ने कोई भद्दा मज़ाक किया है।

सुखिया का सीना फिर तेज़-तेज़ धड़कने लगा। और वह फिर झुंझला उठी---न सोयेंगें कमबख्त, न सोने देंगे!
शाम से ही गाँज़ा, ताश और हा-हा, ही-ही।...यही तो चल रहा है। इस आधी रात तक! अड़ोस-पड़ोस नींद में ख़ामोश है। कहीं किसी कुत्ते की भौंक भी सुनायी नहीं पड़ रही है। झींगुर भी चुपचाप दरारों में दुबक गये हैं शायद। सन्नाटे के इस आलम में नीम के पेड़ के नीचे से उठने वाले हर कहकहे के साथ ही, अंधेरे में आँख फाड़-फाड़ कर देखते हुए वह डर से काँप जाती है।...खजूर के पेड़ में अटकी किसी बेबस पतंग की तरह।

बगल की चारपाई पर कलिया बेख़बर-बेसुध सो रही है। पर उसकी अपनी आँखों में नींद कहाँ?...यह तो बैठे-बिठाये मुसीबत मोल ले ली।...पर इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था। वह करती भी क्या? अपने बेटे की ख़बसूरत बीबी की इज्ज़त बचाने के लिए उसने तो वकील साब से मदद मांगी थी। अपनी दयनीयता से मज़बूर होकर उनसे सहारा, ताक़त चाही थी। उसे क्या पता था कि वे उसकी हिफाज़त के लिये चार-चार गुंडे भेज देंगे। जिनकी आँखों से दरिंदगी और वासना साफ़ झलकती है! इन ससुरों को तो देखकर ही भय छूटता है।

इस मुहल्ले के हर किसी को यह विश्वास है कि वकील साब के हाथ के नीचे रहने वाले को कोई छू भी नहीं सकता! काफ़ी नामी-गिरामी आदमी हैं। बड़े लम्बे-लम्बे हाथ हैं उनके। थाना-कलक्टरी।...बड़े-बडे़ लोगों के साथ उठा-बैठी है। हाक़िम-हुक्काम।...नेता-मंत्री! पर इन बदज़ातों का क्या भरोसा? न जाने कब बहक जायें? औरत को देखकर तो साधु महात्मा का मन भी न थमे! बाकी आदमी तो ख़ैर आदमी ही होता है। हाड़-मांस का पुतला। 

वैसे भी ज़वान खूबसूरती का ग़रीब घर में होना काफ़ी ख़तरनाक असुरक्षित होता है। तलवार हर वक़्त सीने पर लटकती रहती है।...

आँगन में खुले आसमान के नीचे लेटी हुई सुखिया की आँखों से नींद कोसों दूर है। क़हर की रात है। कुछ भी हो सकता है।...आज गोकुल भी घर पर नहीं है। पर उसके होने से भी क्या होगा? वह रहे तब, या न रहे तब।...कोई अन्तर नहीं पड़ता! उसकी बखत ही क्या है? यहां रहकर ही वह क्या कर लेगा? अकेला!...जिसके पैरों के नीचे कोई ज़मीन, कोई धरातल न हो। जिसके सिर पर कोई हाथ न हो। जो अपने चारों तरफ़ नाग-फ़नियों से घिरा खड़ा हो।...वह क्रोध में आने पर गाली बकने के अलावा कर ही क्या सकता है? और गालियों से तो कुछ होता नहीं।...एक रिक्शा खींचने वाला आदमी किसी का विरोध करेगा या किसी से लड़ेगा भी तो किस बूते पर? और फिर इनसे उलझने का सीधा मतलब है। साफ़ और सीधा ख़तरा सिर पर मोल ले लेना। हाँ, दुश्मनी का ख़तरा...!! जान का ख़तरा...!!

दो पल में ही सुखिया ने अपनी कल्पना में न जाने क्या-क्या सोच लिया।...इन लोगों ने गोकुल की ख़ूब पिटाई की है। और बाद में वकील साब से जाकर गोकुल की ही उल्टी-सीधी शिकायत कर दी है। और वकील साब...। उन्होंने पुलिस बुलाकर गोकुल को थाने में बंद करवा दिया है।...अपनी मदद के लिये सुखिया एक-एक दरवाज़े पर जाकर, प्रत्येक आदमी से गिड़गिड़ा रही है। उनके पाँव छू रही है। पर कोई कुछ नहीं बोल रहा है। सभी मानों गूंगे हो गये हों। सभी डरते हैं। किसी में इतनी हिम्मत कहां, जो वकील साब के खिलाफ़ सांस भी ले ले! तुरन्त ख़ून पी जायेगें वे। या बोटी-बोटी काट कर कुत्तों को खिला देंगे।...

गोकुल को सुखिया ठीक से पढ़ा तो नहीं सकी। न ही अच्छे कपड़े, अच्छा खाना और अच्छी ज़िन्दगी दे पायी। सिर्फ दूध बेचकर या लोगों के खेत में सोहनी-कटनी करके या मेहनत-मजूरी से किया ही क्या जा सकता है?...पर ज़वान हो जाने पर उसकी शादी बड़ी धूम-धाम से और काफ़ी जांच-परख के की। जितना वह कर सकती थी। संयोग कहिये या भाग्य या दुर्भाग्य! गोकुल को पत्नी बहुत ही ख़ूबसूरत मिली। तीखे कटाव, नैन-नक्श और ज़वान भरी-पूरी!
...और सारी परेशानी यहीं से शुरू हो गयी!

मुहल्ले के कुछ शोहदे, जो गोकुल के हम-उम्र थे, बहुत खुश हुए---चलो पड़ोस में एक अच्छा माल तो आया। गोकुलवा साला क्या दे पायेगा उसे? न कभी कोई पकवान, न कोई अच्छा गहना! आख़िर ऊब कर आयेगी तो हमारे ही पास!... 

कलिया के आते ही सारे-सम्बन्ध, सभी समीकरण बदल गये। मधुर हो गये। रिश्तों की परिभाषायें नयी हो गयीं। बूढ़े ज़वान हो गये। और ज़वान कुछ और ज़वान! लोगों ने अब गोकुल से मिठापा शुरू कर दिया। उसके साथ बैठकी और गोल की संख्या बढ़ने लगी। और तो और अब तो सुखिया को सहानुभूति दिखाने वालों की संख्या भी काफ़ी बढ़ गयी है। क्या इन सब को कलिया ने पहचाना नहीं? खूब अच्छी तरह से महसूस किया है। सब घर के ऊपर मंडराने का बहाना है।...एक रास्ता! बातें भलें ही वे गोकुल से करें या सुखिया से, उनकी निगाहें हमेशा कलिया पर रहती हैं। ऊपर से नीचे तक सहलाती-दबोचती हुयी। 

इन सबके बावज़ूद कलिया ने न तो कभी किसी से फ़ालतू बात की। न ही कभी किसी को उसके भद्दे मज़ाक पर हंस कर या मुस्करा कर बढ़ावा दिया। वह सिर पर पल्लू कर कदम फूंक-फूंक कर रखती है। और निगाहें हमेशा नीचे। एक सीधी बछिया की तरह उसने कभी भी इधर-उधर मुंह नहीं उठाया।

   हर शाम सामने के नीम के पेड़ के नीचे, चबूतरे पर बैठक जमने लगी। इसका उद्देश्य?...कभी-कभार रात के अंधेरे में कुछ परछाइयां कलिया के कमरे की खिड़की पर भी डोलती नज़र आयीं। फब्तियां और छेड़खानी तो लोग औरतों के साथ कसते करते ही रहते हैं। और अगर औरत ग़रीब घर की हो, तब तो फिर वह पूरे गाँव की जोरू ठहरी ही ठहरी। पर इन सब को आँख-मूंद कर चुपचाप टाल दिया गया। टालना ही बेहतर था। ख्वमख्वाह रार मोल लेने से फ़ायदा?

इसी ढर्रे पर गोकुल ज्यों का त्यों कभी रिक्शा खींचकर, कभी छोले बेचकर और कभी बेकारी में खैनी पीटकर और ताश खेल कर कमज़ोर, कुछ और कमज़ोर होता रहा। कलिया की देह दिन पर दिन भरती हुयी काबू के बाहर होती रही। और सुखिया बूढ़ी, कुछ और बूढ़ी!...

लक्ष्मण...मुहल्ले का दादा, जो चोरी-चकारी, राहज़नी, घर-घुस्सी और लफंगई के कारण साल के नौ महीने जेल की मुफ़्त की रोटियां तोड़ता था (खुद उसी के शब्दों में) और जिसका एक बार गोकुल से झगड़ा भी हो चुका था...(उसने मार-मार कर तब गोकुल को अधमरा कर दिया था...पता नहीं क्या सोच कर जान से नहीं मारा, नहीं तो...) की लार कलिया को देख कर कुछ अधिक ही टपकती थी। कलिया को अपनी तरफ़ खींचने के लिये उसने उस पर कई पांसे फेंके। पर जब सब के सब ख़ाली बेकार चले गये, तो उसने कलिया को आते जाते रास्ते में भी रोकना चाहा। छेड़छाड़ ज़ोर-ज़बरदस्ती भी की। पर सब बेकार!...आश्चर्य! ऐसा उसकी ज़िन्दगी में कभी नहीं हुआ था! अपनी यह बेइज्ज़ती उसे ज़रा भी बर्दाशत नहीं हुई! अतः मौक़ा पाते ही एक दिन वह घर में घुस आया!

सुखिया किसी के यहाँ दूध पहुंचाने गयी थी। गोकुल भी तीन दिन हुए अपने मामा के यहां गया था। कलिया आँगन की मोरी पर बैठी नहा रही थी। क़दमों की आहट पर जैसे ही उसने पीछे देखा, उसके मुंह से चीख़ निकल गयी। लक्ष्मण, लाल आँखों से उसके करीब ही खड़ा था---उसे नोंचने को तत्पर! बदहवासी में वह किसी तरह अपने अधखुले बदन को ढ़ाँकते-तोपते भागी और कुटिहारे में घुस गयी। अंदर से सिटकनी लगाने के बाद भी उसकी कंपकंपी में कोई कमी नहीं हुई। वासना से तप्त लक्ष्मण ने पहले तो उसको फुसलाने की बहुतेरी कोशिश की। पर अनुकूल उत्तर न पाकर धमकाने लगा। और अंत में हारकर सांड़ की तरह फुंफकारता धमकी देता हुआ चला गया।...जाते हुए उसने पानी से भरा मटका उठाकर ज़मीन पर ज़ोर से पटक दिया था। और कलिया को खूब भद्दी-भद्दी गलियाँ बकी थीं। कलिया को उसके अंदाज़ से लगा, वह बुरी तरह नशे में था।

सुखिया के आने तक कलिया उसी तरह कुटिहारे में गीले बदन सहमी बैठी रही। सास की आवाज़ का संबल पाकर उसने दरवाज़ा खोला। और उससे लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगी। पहले तो उसके रंग-ढंग और बेतरतीब कपड़ों के साथ अस्त-व्यस्त माहौल को देखकर सुखिया किसी अनर्थ की आशंका से काँप उठी। पर सारी बात जान लेने के बाद उसकी थोड़ी जान में जान आयी। पर इस क्षणिक राहत के मिलने के बाद वह और भयभीत और क़ातर हो उठी।

...लक्ष्मण फिर कभी भी आ सकता है?...और अगर एक लक्ष्मण हो, तो कोई बात भी हो। यहाँ तो क़दम-क़दम पर लक्ष्मण हैं। समय रहते उसे कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिए। पर क्या?...क़ानून और पुलिस का संरक्षण तो सिर्फ़ उनके लिए है, जिनके पास पैसा है। नाम है। शक्ति है। ओहदा है। इन सबके होने से तो सब कुछ आप से आप मुट्ठी में हो जाता है।...गाँव के चौकीदार से लेका शहर के कोर्ट कचहरी तक!

अगर अबेर-सबेर कुछ लोग आकर कलिया को किसी निर्जन जगह, किसी अलोते, किसी पेड़ के पीछे या किसी अंधेरी झाड़ी में घसीट भी ले जायें, तो कोई क्या कर लेगा? नपुंसकों की भीड़ खड़ी सिर्फ तमाशा देखेगी।...मदद के लिए आगे बढ़ने से तो रही।...बाद में हँसेगे सब एक-जुट होकर!

काफ़ी माथापच्ची करने के बाद वह वकील साब के पास गयी थी। सब कुछ कलपने के बाद उनसे मदद माँगी थी। और कहा था---साब, लछमनवा के आगे हम कुछ नाहीं हैं।...वह बड़का बदमाश है!...अगर दो-तीन दिन के लिए आप अपने चैकीदार को हमारे यहां सोने के लिये भेज दें, तो बड़ी मेहरबानी होगी। रात चैन से कट जाएगी, हुज़ूर! दिन के उजास में तो लोग-बाग हैं ही।...वैसे, गोकुल के आने के बाद हम सब कुछ बेच-बाच कर ई मुहल्ला छोड़ के कहीं और चले जायेंगे।...

वकील साहब ने नेतागिरी के लहजे में उसे सान्त्वना दी थी। उसकी हिम्मत बंधाई थी और मदद करने का पूरा वादा किया था। सुखिया उनको लाखों-लाख धन्यवाद और आशीर्वाद देते हुए घर वापस आ गई थी।

पर यह क्या? शाम होते ही चार बड़ी-बड़ी मूंछो और खूंखार आँखों वाले लाठियां लेकर उसके दरवाजे पर आ धमके---पांय लागों, काकी। तनिक भी फिकर मत करना। हम इहां चार-पांच दिन रहेंगें।...देखने पर निपट लुच्चे, लफंगे, डाकुओं की मानिंद।

वकील साब के लोगों के काले कारनामों को सुखिया ने खूब सुना है। उनके लिए तो किसी को लूटना और मारना-पीटना खेल है। और शराब और शबाब ज़रूरत-ख़ुराक! सुखिया को ख़ूब याद है कि एक बार किस तरह कुछ बदमाशों ने शाम के झिटपुटे में राम आसरे के खलिहान में घुसकर उसकी आंखों के सामने ही उसकी बेटी के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती की थी। और मना करने पर राम आसरे को लाठियों से तो पीटा ही, जाते समय उसकी अनाज की बोरियां भी साथ लाद ले गये थे। राम आसरे ने बहुत हल्ला-गुल्ला किया और कराया। पुलिस, कोतवाल, थाना, कचहरी। बहुत लिखा-पढ़ी हुयी। पर कुछ नहीं हुआ। उल्टे राम आसरे के ही हज़ार-पांच सौ डांड़ हो गये। वकील साब ने सारी लिखा-पढ़ी अपने उन आदमियों के पक्ष में करा ली थी।...सुखिया को यह भी पता है कि किस तरह वकील साब ने लाठी और लठैतों के बल पर पूजन की सारी ज़मीन-जायदाद अपने नाम करा ली है। पूजन तो ऐसा लापता हुआ कि कहीं कुछ पता ही नहीं चला। आख़िर कौन था उसका खैरख्वाह कि जो खोज़-ख़बर लेता। कहते हैं वकील साब ने कई डाकुओं और कत्लियों को फांसी के फंदे से बचाकर अपना चेला बना रखा है। वे सब पूजते हैं उनको। इतना मानते हैं कि उसके लिए कुछ भी कर सकते  हैं। वकील साब की शह पाकर वे भी चारों तरफ़ तरह-तरह के उपद्रव मचाते रहते हैं।...सुखिया को लगता है, यह सब कुछ वकील साब के इशारे पर ही होता है। उनकी भी हिस्सेदारी होती होगीं इन सब में।

सुखिया को अब पछतावा हो रहा है। इस पर ज़रा सोचा-वोचा होता। बेकार में ही वकील साब के पास गयी। अकेले ही लछमनवा से निपटने का कोई जुगत करती। पर उस समय वह इतना डर और घबरा गयी थी कि कोई दूसरा रास्ता ही नहीं सूझा।...कलिया ने हल्के से मना किया ज़रूर था। पर वह भी तो डर से कांप रही थी---उस समय।

ठीक भी है, कोई किसी की व्यर्थ में मदद क्यों करेगा? मदद करेगा, तो बदले में कुछ ज़रूर चाहेगा। मांगेगा। चाहे प्रेम से मांगे, चाहे ज़ोर-ज़बरदस्ती से। हमारी झोली भर दो। हम खुश रहेंगे, तो तुम्हारी तरफ़ किसी को आँख उठा कर देखने भी नहीं देंगे। यही तो दस्तूर है!...हो सकता है, इसमें वकील साब का ही कोई स्वार्थ हो।

इन्होंने कुछ कहा तो नहीं, पर इनकी बात-चीत और हंसी के लहज़े से इनके रवैये को भांप कर सुखिया अब पहले से अधिक डर गयी है। और उनके आगे लक्ष्मण का डर अब बिल्कुल बच्चा-सा हो गया है।

ये सब कैसे दीदे फाड़-फाड़ कर कलिया को ताक रहे थे? कलिया जब दूध दुहकर आंगन में जा रही थी, तो इनमें से एक ने कुछ कहा था। और बाकी सब खी-खी करके हंस पड़े थे। शायद कलिया के सधे हुए कदमों के कारण उसके बदन के लोच के ऊपर उसने कोई गंदा मज़ाक किया था। सुखिया की बूढी़ आंखों ने इनके इशारे को पूरा ताड़ लिया था। उस समय वह इनको चीलम के लिए आग देने गयी थी। तब से इनकी हर हरकत से उसे चिढ़-सी होने लगी है। पर वह इन्हें भगा भी तो नहीं सकती!

सुखिया का डरा हुआ दिमाग़ हर आहट पर चौंक कर चारों तरफ़ ताकने लगता है। ये शायद उठकर पिछवाड़े की तरफ़ चले आये हैं। तभी तो, इनकी आवाज़े अब इधर से ही आ रही हैं।

गर्मी का दिन। आसमान एकदम साफ़। अभी तो चार-पांच घंटे की रात होगी। कलिया अभी भी गहरी नींद में हैं। हर सांस के साथ उठता-गिरता उसका सीना बार-बार लहरा जाता है। उसके सीने की लयबद्ध हलचल सुखिया के सीने को रेती से रेत रही है---लगातार! भयावह इस तम्बू में, काली अंधेरी इस रात का एक-एक पल काटना भारी, कठिन लग रहा है। घबराये मन के कारण भगवान को सुमिरने का क्रम भी बार-बार टूट जाता है। और वह चौकस होकर चारों तरफ़ का जायज़ा लेने लगती है।

इस आँगन में बाहर से उतरना कितना आसान है। पिछवाड़े का पेड़, उसकी डालियां एकदम छप्पर छूतीं है।...अगर ये सब एक पर एक आंगन में उतर आये तो? एक आदमी मुझे पकड़ ले। और एक कलिया को। और बाकी...! नहीं!! सुखिया ने अपने गले से निकलती हुई चीख़ को अन्दर ही रोक लिया। और हड़बड़ा कर उठ बैठी। इस तरह तो...! क्या हम इतने असहाय हैं? क्या हम अपने को बचा नहीं सकते?...इस तरह मिट जाने से तो बेहतर है लड़ा जाय। जूझा जाय! मरना तो हर स्थिति में है। तो क्यों न एकाध को ख़त्म करके मरा जाय!...और सुखिया बैठकर बचाव के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने लगी। 

उसने तय किया कि गड़ांसा लेकर सिरहाने रख लिया जाय। और किसी के निकट आते ही---छपाक! वह दबे पांव कुटिहारे में दाख़िल हो गयी। वहां घुप्प अंधेरा था। निःशब्द, सांसों को दबाते हुए उसने पूरा कुटिहारा टटोल उाला। पर उसे वहां गड़ांसा नहीं मिला। एक बार फिरा वह झुंझला उठी। और कलिया को कोसनी लगी।...रख दिया होगा कहीं इधर-उधर। या छोड़ दिया होगा बाहर ओसारे में! कितनी बार कहा है कि चीजों को ठिकाने पर रखा कर। रात-बिरात कभी ज़रूरत पड़े, तो...! और देखो, कितनी बेख़बर होकर सो रही है यह, अभागी। इसे जैसे कोई चिन्ता ही नहीं। चारों तरफ़ आग के बवंडर नाच रहे हैं। और यह नींद में खोयी सपनें बुन रही है। इसकी मुई जान को मैं मरी जा रही हूँ। और यह...!!

कलिया की निश्चिन्तता पर सुखिया का ढहता हुआ मन हुआ कि वह झकझोर कर उसे जगा दे। और उसे भी साथ लेकर बचाव के लिए तैयार करे। ऐसा सोच कर वह कलिया के ऊपर झुकी ही थी कि उसे लगा कि कलिया के सिरहाने गेनरी का कोना कुछ उभरा हुआ है। क्या हो सकता है? देखने के लिए उसने गेनरी को उलट दिया।...आश्चर्य से फैली सुखिया की आँखों में इत्मीनान का पानी छलछला आया। और उसके दिमाग़ का सारा तनाव धीरे-धीरे आंसू बन कर झरने लगा।...वहां गड़ांसा सहेज कर रखा हुआ था।


47  -
रूको अहिल्या
[ 4 दिसंबर ,  1956 ]
डॉ. अर्चना श्रीवास्तव


बहुत दिनों बाद आज श्रिया ने शीशे के सामने-अपने आप को ध्यान से देखा। कहाँ चला गया वह सौन्दर्य, वह उन्मुक्त हंसी और बात करते वक्‍त पलकें झपकाने वाला वह जादू? न आँखों में काजल, न सिन्दूर न बड़ी-सी दमकती बिन्दी, है तो सिर्फ कभी न मिटने वाली उदासी आँखों के आसपास स्याह घेरे और हर नस को चीर देने वाली अदृश्य पीड़ा।

मानस घर आ गए थे श्रिया ने पत्नी धर्म निभाते उनके कपड़े वार्डरोब से निकाल कर रख दिए और किचेन में कुछ नाश्ता पानी लाने चली गई। मानस रोज की तरह आज भी चुप थे। घर में एक भयावह सन्नाटा व्याप्त था। श्रिया के बर्तनों को उठाने-रखने की आवाज़ आ रही थी, बस।

श्रिया नाश्ता रख कर वहीं बैठ गई, इस इन्तज़ार में कि शायद मानस अब बोलें, कुछ कहें, कुछ नहीं तो अपनी सारी चिड़चिड़ाहट एक बारगी उस पर निकाल दें लेकिन कुछ नहीं हुआ। मानस ने नाश्ता किया और बिना कुछ कहे चुपचाप अपने कमरे में चले गए।

श्रिया को लगा ऐसे जीवन कितना भार हो रहा है? काश! कुछ ऐसा हो जाए जिससे उसका प्राणान्त ही हो जाए। कभी, कभी बैठी-बैठी वह कल्पना में फंदा बनाती है, उस पर अपनी गर्दन झुला देती है पर अगले ही पल उसे
लगता है, नहीं जिंदगी यूँ खत्म करने के लिए नहीं है। फिर क्‍या है उसके पास सिवाय सहने के?

दिल्‍ली की, इस पॉश कॉलोनी में आए हुए उन्हें तीन साल भी नहीं बीते थे। श्रिया उन्मुक्त हंसी हंसने वाली बहुत ही व्यावहारिक लड़की थी अभी वर्ष भर ही बीते थे उनकी शादी को, कितनी खुश थी दोनों की ज़िन्दगी। दोनों आपस में ऐसे चहकते थे कि बरबस ही लोगों के मुंह से निकल जाता-ह्वाट ए कपल? हाऊ स्वीट?
श्रिया ने आते ही घोषणा कर दी थी-'मुझे यह घर बड़ा मनहूस लगता है” मानस ने चुटकी लेते हुए कहा था-“हमारे आने से गुलज़ार हो जाएगा। फिर दोनों हंस पड़ते। श्रिया को यह घर बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन मानस की ज़िद को देखते हुए वह कुछ नहीं बोली थी। दस दिन पहले की घटना ने श्रिया को झकझोर डाला। मानस ऑफिस जा चुके थे। श्रिया किचेन में काम कर रही थी, अचानक काल बेल बजी। श्रिया ने बाहर आकर देखा तो दो व्यक्ति मोटर साइकिल से उतर कर बोले-मीटर रीडिंग चेक करनी है! श्रिया पहले तो हिचकिचाई लेकिन अपने को मजबूत समझते हुए उसने गेट खोल दिया। आते ही उन्होंने एक रूमाल श्रिया के मुँह पर रख दिया और कमरे में चले आये, मुँह पर रूमाल रखते ही श्रिया बेहोश हो गयी और लगभग 2 घण्टे बाद जब उसे होश आया तो उसका अस्तित्व तार-तार हो चुका था। देह ऐसी लग रही थी मानों चट्टान तले दबी हो। दिमाग की नसें फटी जा रही थीं। किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से उसने गेट बंद किया। भीतर जाकर चेहरा धोया जगह-जगह खून की लकीरें पड़ी थी। उसने फोन मिलाया मानस को। श्रिया को लग रहा था, मानस आ जाएंगे तो उनके कंधों से लिपट कर वह जी भर रो लेगी फिर रिपोर्ट लिखवायेंगी और दोषी को सज़ा जरूर दिलाएगी जिसने उसकी अस्मिता से खिलवाड़ किया है। लेकिन यह काम मानस आते ही उस पर बरस पड़े रिपोर्ट लिखाओगी? सोसायटी वाले क्‍या कहेंगे? कितना तमाशा बन जाएगा! सारे मीडिया वाले चक्कर काटेंगे और उनके बहुत सवाल? उफ! कह कर मानस सिर थाम कर बैठ गए। "मेरा क्या दोष है? श्रिया ने फुसफुसा कर कहा।

चुपचाप होंठ सिल कर रखो। नहीं तो हम बदनाम हो जायेंगे। कभी किसी के सामने यह बात मत कहना |

मानस ने अपना निर्णय ऐसे सुना दिया कि उन दोनों के गले में फांसी का फंदा खुद ही डाल दें लेकिन यहां तो रिपोर्ट लिखवाने के लिए ही इंकार हो गया। यह सोसाइटी वाले तब कहां थे जब एक घर में वारदात हो रही थी? श्रिया को याद आता है कि इससे अच्छी तो वह एक छोटे से मोहल्ले में थी मानस के दूर चले जाने पर आस-पास के लोग उससे पूछते सब्जी तो नहीं लानी है; गैंस सिलिण्डर खत्म तो नहीं हो गया? मोबाइल का रिचार्ज कूपन तो नहीं लाना है? ऐसे लोग हर घर में बैठे हैं और इस कॉलोनी में सभी के पास आलीशान घर है और शो-पीस बने डॉग हैं, पर उसे आज तक नहीं पता कि पड़ोस में रहने वाला है कौन?

मानस को वह मोहल्ला गंदा लगता था कहते-हमारे बच्चे होंगे तो यहाँ पल कर गाली-गलौज ही सीखेगे। हमें कोई अच्छी जगह तलाशनी चाहिए।

अब तो जो हुआ उसे बदला नहीं जा सकता। श्रिया ने हालात से समझौता कर लिया। मानस का रवैया अब बिल्कुल बदल गया था। वह ऑफिस जल्दी जाते और रात देर से लौटते। दोनों के बीच कोई बात नहीं
होती। मानस उसे जिस तीखी निगाह से देखते। श्रिया को बर्दाश्त नहीं होता।

क्या सम्बन्ध इतने क्षणिक और इतने स्वार्थी होते हैं? श्रिया बैठे-बैठे सोचती क्‍या मानस किसी मजबूर हालात से गुजरे होते तो क्या वह ऐसा ही बर्ताव करती। नहीं, क्योंकि वह पत्नी है, वह तो पत्नी धर्म है। उसे जीवन में पहली बार अपने औरत होने पर इतनी कोफ्त हो रही थी। कभी-कभी मन करता वह अपनी ही जान ही दे दे क्या फायदा इस तरह जीने का? इन्तजार करती कि शायद मानस फिर पहले जैसे हो जाएं। लेकिन मानस ने तो न बोलने की कसम खा रखी थी।

बचपन में माँ राम की कथा सुनाती और अहिल्य प्रसंग आता तो उसकी आँखें भर आया करती थी। न जाने कौन-सा दुर्निवार आकर्षण था, उस प्रसंग में माँ के शब्द भीग जाया करते थे और मैं रोज़ वही कहानी सुनने की जिद करती। वह तो त्रेतायुग की बात थी। इन्द्र को धरती पर उतरना पड़ा था एक सती का सतीत्व भंग करने और ऋषि गौतम जीवन भर साथ रहकर भी पत्नी पर अविश्वास कर बैठे? छिः पुरुष शायद हर युग में ऐसा ही रहा है, घोर परम्परावादी और असहिष्णु।

दस दिन हो गए श्रिया को, रात दिन इन्हीं बातों में उलझते। आज खाने की मेज पर फिर कोई बात नहीं हुई थी दोनों के बीच। श्रिया ने सब्जी की कटोरी मानस के आगे रखते हुए कहा-मुझसे खाया नहीं जा रहा आप ले लीजिए। मानस खाना छोड़ उठ खड़े हुए 'मुझे किसी का जूठा खाने की आदत नहीं ।'

शब्दों का विष बुझा तीर श्रिया के अन्तस में जा चुभा-“और तुम्हारा जूठा तो प्रसाद होता है न?
मानस ने श्रिया के गाल पर जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। श्रिया इस अप्रत्याशित वार से तिलमिला गई। वह जिन कपड़ों में थी वैसे ही बाहर आ गई। मानस ने भी उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। श्रिया अकेली चलती जा रही थी।

अचानक उसने अपने आपको रेलवे लाइन पर पाया। गाड़ी उसी पटरी पर काल बनी दौड़ी आ रही थी। श्रिया का मन किया न हूँ, न आज यही सही लेकिन अचानका उसका विवेक जागा “रुको अहिल्या तुम्हारे मरने से कुछ होने वाला नहीं है। सच दफन हो जाएगा और समाज में ऐसी वारदातें बढ़ती जाएंगी तुम उठो और लड़ो ऐसे समाज से। जुल्म के खिलाफ आवाज उठाओ

श्रिया का मन शान्त था, वह लौट रही थी, अपनी काल्पनिक दुनिया में।



48   -
ट्रांसफॉर्मेशन
[ जन्म : 17 जनवरी , 1957 ]
उबैद अख्तर

आज जो किस्सा आप को सुनाने जा रहा हूं, वो पचास फीसद हक़ीक़त है और पचास फीसद फसाना। हक़ीक़त बगैर फ़साना नहीं बनता और फ़साने में हक़ीक़क तो होती ही है।

तो यह किस्सा है अम्मू खान का। अम्मू हमसे किस सन में टकराए, यह तो ठीक से याद नहीं, लेकिन  जिन हालात में टकराए थे, वह पूरी तरह से अब भी ज़हन में दर्ज है। अम्मू से हमारी पहली मुलाक़ात देसी शराब के ठेके पर हुई थी। उन दिनों ठेके आज की तरह मॉडर्न नहीं होते थे। आबादी से थोड़ा हटकर खपरैल की छत वाली दुकान में ठेके खोलने का लाइसेंस मिल जाता था। कच्चे फर्श पर उकडूं बैठकर मिट्टी के कुल्हड़ से जाम छलकाने का अलग ही मज़ा होता था। चखने के नाम पर उबले चने, मटर और दालमोठ वगैरह मिलता था। हैंडपंप के पानी और मस्लेदार देसी शराब के मिलने से जो केमिकल कॉम्बिनेशन बनता था, उससे अलग तरह किसी किक पैदा होती थी। 

मुझे याद है कि उस दिन झमाझम बारिश हो रही थी। मैं और राजा तर-बतर जब ठेके में दाखिल हुए तो दोपहर की वजह से वहां वीरानी-सी पसरी थी। राजा काउंटर पर जाकर पव्वा खरीदने लगा, इस बीच मैंने उबले चने और सिगरेट खरीद लीं। सारी तैयारी कर हमने एक कोना पकड़ लिया। 

तभी एक और शख्स ने एंट्री ली। पहले उसने अपनी भीगी शर्ट और बनियान उतारी और उन्हें निचोड़ने के बाद एक दरवाज़े के पल्ले पर फैला दिया। फिर उसने पतलून को भी उतारकर दूसरे पल्ले के हवाले कर दिया। अब वह सिर्फ लट्ठे के एक बदरंग से कच्छे में कुछ इस इत्मीनान से खड़ा था, जैसे अपने बेडरूम में हो। 

हम दोनों फिर से फ्रैंज़ काफ्का के उपन्यास  'द मेटामॉरफोसिस' में मुख्य किरदार ग्रेगोर के तिलचट्टेनुमा जीव में रूपांतरित होने पर उपजे हालात और रंग बदलते रिश्तों पर बात करने लगे। फिर ग्रेगोर की बहन ग्रीटी पर बात होने लगी। मैंने तर्क रखा कि ग्रीटी ने वही किया, जो घर के एक सदस्य के बड़े से कीड़े में बदल जाने के बाद कोई सामान्य व्यक्ति करता। अचानक एक तेज़ आवाज़ आई, "आप गलत हैं, ग्रेगोर की बहन इस नॉवेल का सबसे नकारात्मक चरित्र है। वह सिर्फ अपने बारे में सोचती है। " 

हमने पलटकर देखा तो पाया कि यह कच्छे वाले व्यक्ति की आवाज़ थी, जो हमसे कुछ दूर अकेले महफ़िल सजाकर बैठा था। राजा ने उसकी बात पर जब सहमति में सिर हिलाया तो उसने फौरन अपनी बोतल,चखना वगैरह उठाया और आकर हमें जॉइन कर लिया।

यह अम्मू खान थे। इसके बाद अम्मू बहुत देर तक काफ्का की ट्रांसफॉर्मेशन थ्योरी की उपादेयता के अलावा उपन्यास के सामाजिक, भावनात्मक और मनोविज्ञानिक पहलुओं पर हमारे साथ माथापच्ची करते रहे। अम्मू लगातार इस बात पर जोर देते रहे कि समाज और परिवार के लिए हम तब तक उपयोगी हैं, जब तक हम कमा रहे हैं या घर के लिए धनार्जन का स्रोत बने हुए हैं। 

हम आंखें नचा-नचाकर, ज़ोर-ज़ोर से और कुछ उतावलेपन के साथ अपनी बात कहने वाले नंग-धड़ंग-से अम्मू खान के सम्मोहन में आ चुके थे।

यह वह दौर था, जब छोटे शहरों में पचास-साठ वामपंथी हुआ करते थे। कुछ और ऐसे भी लोग थे, जिनकी रुचि सिग्मंड फ्राइड, काफ्का, हेमिंग्वे, मार्क्स, प्रेमचंद, मंटो, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, फ़ैज़ और फ़िराक़ सरीखे लेखकों और कवियों में थी। शहर में छोटे-छोटे प्रगतिशील लेखक समूह थे। कुछ नाट्य मंडलियां भी सक्रिय थीं। स्टेज और नुक्कड़ नाटक होते रहते थे। उर्दू वालों का अलग सर्किल था। रविवार को साहित्यिक गोष्ठियां हुआ करतीं। कहानी और कविताओं के पाठ हुआ करते। कभी-कभी हिंदी और उर्दू के लोग एक साथ बैठ जाते। शेर-ओ-शायरी की नशिश्तें होतीं। अम्मू खान उनमें से एक थे। किसी एक ग्रुप से बंधे नहीं, सबमें थोड़ा-थोड़ा बंटे हुए। थोड़े-से लेखक, थोड़े-से रंगकर्मी और ढेर सारे पियक्कड़।

इसके बाद अम्मू खान से अक्सर मुलाक़ातें होने लगीं। पता चला कि वह घोर नास्तिक हैं। माओ, लेनिन और मार्क्स के सिद्धान्तों के पक्के कायल। पढ़ने की लत पागलपन की हद तक है। सड़क पर चलते हुए भी पढ़ते रहते, बगैर किसी से टकराए। वह अक्सर 10 किलोमीटर की दूरी पैदल पूरी कर रेलवे लाइब्रेरी चले जाते और घंटों किताबों के बीच खोए रहते। हर तरह के धार्मिक कर्मकांड और आडम्बर के खिलाफ खुलकर बोलते। मजहब को वह फितना क़रार देते थे। कहते भी थे, "सारी फसाद की जड़ ये सारे धर्म ही हैं।" फिल्मों के बेहद शौक़ीन थे। खासतौर से हॉलीवुड और यूरोप की प्रगतिशील और कलाधर्मी सिनेमा के। स्टीव मैक्वीन और डस्टिन हॉफमैन के दीवाने थे। अकीरा कुरोसावा की कई फिल्में उन्होंने जुगाड़ कर वीसीआर पर हमारे साथ देखीं। नुक्कड़ नाटक भी लिखते और टीम के साथ घूम-घूमकर उनका मंचन भी करते। मूड हुआ तो कविताएं भी लिख मारते। कई बार जब शराब की खुमारी में होते तो बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में हमसे पूछते,"क्या हम सब अपनी ज़िंदगी में पूरे देश में सर्वहारा की असली सरकार देख पाएंगे ?" देश में कम्युनिस्ट शासन उनका बड़ा सपना था। सीपीआई और सीपीएम के नेताओं को वह कम्युनिस्ट मानते ही नहीं थे। वह नागभूषण पटनायक पर फिदा थे, लेकिन साथ ही समग्र क्रांति के लिए पहले सांस्कृतिक आंदोलन चलाए जाने के पक्षधर थे। उन दिनों हम बेकार थे तो अम्मू खान के पास चले जाते। उनकी बातें हमें खरी लगतीं। हम इस बात से चमत्कृत थे कि यह शख्स एक साथ इतनी विधाओं पर कैसे पूरी पकड़ के साथ काम कर लेता है। 

अम्मू के पिता रेलवे लोको कारखाने में मुलाजिम थे, जिनकी कुछ साल पहले काम करते हुए क्रेन हादसे में मौत हो गई तो विभाग ने बड़े बेटे को नौकरी दे दी। अम्मू पर इस घरेलू तब्दीली का कोई खास असर नहीं पड़ा। अब उन्हें प्रत्यक्ष टोकने वाले पिता भी नहीं थे। वह पहले से ज़्यादा साहित्य और रंगकर्म में रम गए। शायद 1985 का साल था। शाहबानो तलाक़ केस में गुजारे भत्ते को लेकर सुप्रीम कोर्ट का शाहबानो के पक्ष में फैसला आया तो पूरे देश के मुसलमानों में उबाल आ गया। लोग सड़कों पर आ गए। नुक्कड़ों, चायखानों और पान की दुकानों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला डिस्कस होने लगा। तलाक़ और मेहर पर क़ुरआन शरीफ की रोशनी में आलम-ए-दीन की वक़्त-वक़्त पर पेश की गई नजीरों और फतवों पर बहस होने लगी।

इस मामले में शहर की प्रगतिशील धारा शाहबानो के साथ खड़ी नजर आई। उसमें पेश-पेश थे अम्मू खान। उन्होंने कहीं से पैसों का इंतज़ाम कर कुछ पर्चे छपवाए, जिनमें मुस्लिम औरतों के अधिकारों, शिक्षा और चहारदिवारी की कैद से उनकी मुक्ति को रेखांकित किया गया था। वह घूम-घूमकर पर्चे बांटने लगे।

एक दिन खबर आई कि मोहल्ला मेवातियान में अम्मू खान पिट गए। उन्हें गंभीर हालत में सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया है। दरअसल शाहबानो मामले में अम्मू खान की अति सक्रियता से खौफज़दा होकर हम दोनों ने उनसे कुछ किनारा-सा कर लिया था, लेकिन हमले की सूचना पर हमारे क़दम अस्पताल की तरफ बढ़ गए। अम्मू बुरी तरह घायल थे। दो जगह फ्रैक्चर हुआ था। सिर पर भी काफी चोट आई थी। पट्टियों से चेहरा छुप-सा गया था, लेकिन उस वक़्त भी उनके होंठो पर विजयी मुस्कान थी। वह महीनों बिस्तर पर पड़े रहे। इस बीच, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार कानून ले आई। 

अम्मू आपे से बाहर हो गए। उन्होंने उसी हालत में पलंग पर पड़े-पड़े एक स्थानीय अखबार के लिए लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कांग्रेस पर राजनीतिक लाभ के लिए तुष्टिकरण की नीति पर चलने का आरोप लगाते हुए शरिया पर भी कई कमेंट कर डाले। इससे नया बखेड़ा शुरू हो गया। अम्मू के घर पर पथराव हो गया। लोगों ने नारेबाजी की और अम्मू की गिरफ्तारी की मांग करने लगे। उसी रात घर वाले अम्मू को पास के एक शहर में रहने वाले रिश्तेदार के यहां छोड़ आये। फिर कई महीनों तक अम्मू की कोई खबर नहीं मिली। एक बार हम पता करने जब अम्मू के घर पहुंचे तो उनके भाइयों ने हमें खूब खरी-खोटी सुनाई। भाइयों को लगता था कि अम्मू खान की गतिविधियों के पीछे हमारी कोई भूमिका है। घर वाले अम्मू को लेकर फिक्रमंद थे। वे चाहते थे कि अम्मू कोई कामधाम करें, ताकि उनकी शादी कराई जा सके और वह व्यवस्थित जीवन गुज़ार सकें। अम्मू के तीनों भाई मज़हबी थे। पांच वक़्त के नमाज़ी। वह नहीं चाहते थे कि अम्मू इस्लाम के बारे में उल्टा-सीधा बोलें, शराब पीकर देर रात घर लौटें और नाटक वगैरह में हिस्सा लें।

कई और महीने गुज़र गए, अम्मू नहीं दिखे। यह वह समय था, जब रामजन्म भूमि आंदोलन रफ्तार पकड़ चुका था। नए वैचारिक समीकरण बन-बिगड़ रहे थे। प्रतिबद्धताएं खंडित हो रही थीं। प्रगतिशील लेखकों का आंदोलन भी आभा खोने लगा था। कुछ वामपंथियों ने नए ठिकाने खोज लिए थे। कुछ फेलोशिप का जुगाड़ कर विदेश चले गए थे। कुछ अन्य अखबारों या पत्रिकाओं में खप गए थे तो कुछ ने दिल्ली और मुम्बई की राह पकड़ ली थी। लेकिन बहुत सारे ऐसे भी थे, जिन्होंने मज़बूती के साथ वैचारिक प्रतिबद्धता को जकड़ रखा था। अम्मू भी निराश नहीं हुए थे। पूरे दमखम से जुटे थे।

पत्रकारिता भी बदल रही थी। मिशन की जगह धंधा आ चुका था। हिंदी और उर्दू के क्षेत्रीय अखबार अपने ककून से बाहर आकर धीरे-धीरे समाज में ज़हर घोलने के काम में जुट गए थे।

ऐसे में जाड़े की एक सुबह जब शहर सोकर उठा तो उसे जगह-जगह दीवारों पर दर्ज मिला-'आदिल शाह'। लाल रंग से ये दो अप्रत्याशित शब्द किसी ने शहर में कई इलाक़ों में मकानों और दुकानों की दीवारों पर हाथ से पेंट किए थे। 'आदिल शाह' कौन था और उसका नाम क्यों लिखा गया था, किसी की समझ में नहीं आ रहा था। पूरे शहर पर तनाव तारी हो गया। हिन्दू संगठनों के प्रदर्शन शुरू हो गए। उनको लगा कि जन्मभूमि आन्दोलन को लेकर उन्हें परोक्ष रूप से धमकाया जा रहा है। पुलिस सक्रिय हो गई। एलआईयू ने जांच शुरू की तो पता चला कि यह अम्मू खान का कारनामा है। 'आदिल शाह' उनके नए नाटक का शीर्षक है और वह उसी के रिहर्सल में व्यस्त हैं। अम्मू को गिरफ्तार कर लिया गया और नाटक की स्क्रिप्ट को पुलिस ने जब्त कर लिया। बाद में अधिकारियों ने जब स्क्रिप्ट पढ़ी तो सिर पीट लिया। नाटक धार्मिक सौहार्द और सामाजिक समरसता पर आधारित था। 'आदिल शाह' नाटक का केंद्रीय पात्र था, जो शहर को नफरत की आग से बचाने में जान गंवा बैठता है। बहरहाल पुलिस ने अनूठे मगर हिलाकर रख देने वाले प्रचार आइडिया के लिए अम्मू को वार्निंग दी और छोड़ दिया। कुछ महीनों बाद विरोध और प्रदर्शनों के बीच पुलिस बंदोबस्त में 'आदिल शाह' नाटक का मंचन तो हुआ, लेकिन दर्शक बहुत कम आए।

मैं गन्ना विभाग में सरकारी नौकर लग चुका था और राजा एक इंटर कॉलेज में टीचर हो गए थे तो हमारा अम्मू खान से मिलना-जुलना कम हो गया था। वह शाम को कई बार बाजार में टकरा जाते। नशे में टुन्न, फ़ैज़ या साहिर की कोई नज़्म या ग़ज़ल गुनगुनाते हुए। कड़के हुए तो हमसे पैसे भी मांग लेते। हमारे पास फुरसत होती तो उनके साथ जश्न-ए-कैफ यानी शराबखोरी कर लेते। कई बार वह अपनी टीम के साथ नुक्कड़ नाटक करते दिख जाते। हाथ हवा में लहराकर वह लय में गाते मिलते, "तू ज़िंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर....।

"
अम्मू समाज में हो रहे बटवारे को लेकर काफी फिक्रमंद रहने लगे थे। अक्सर कहते, "हम एक खतरनाक दौर की तरफ बढ़ रहे हैं। समाज के विभाजन की प्रक्रिया का पैटर्न पूरी दुनिया में एक सा है। इसी के तहत हमें बांटने का काम शुरू हो चुका है। इसे रोकना होगा। वामपंथ का सीधा हस्तक्षेप ही देश और समाज को बचा पाएगा।" अम्मू खान की पेंशनगोइयां (भविष्यवाणियां) कई बार हमें चौंका देतीं। एक बार उन्होंने एक स्टडी सर्किल में कहा था, 'भारत में सरमायेदार और सर्वहारा वर्ग को स्पष्ट रूप से डिफाइन करना अब कठिन होता जा रहा है। तमाम सारे सामन्त और ज़मीदार शहरों में शिफ्ट होकर नए धंधे खोलकर बैठ गए हैं। अब भूमिहीन किसान और खेतिहर मजदूर भी उनके पीछे शहरों और महानगरों की तरफ पलायन करेंगे। देखिएगा, यही सामन्त से बने नए पूंजीपति सियासी शह पर समाज को मजहबी टकराव का अखाड़ा बना देंगे।' हमने कई दशकों बाद पाया कि अम्मू ने सही कहा था।

अम्मू एक बार मिले तो काफी खुश थे। बताया कि शादी कर ली है। अलग किराये के मकान में रहते हैं और शराब को अलविदा कह दिया है। बहुत उत्साह में थे। यह भी बताया कि निकाह नहीं किया। कोर्ट मैरिज की है। शादी में किसी तरह के रस्म-ओ-रिवाज को अमल में नहीं लाया गया है। अपने घर ले गए। पत्नी से मिलाया। मुझे उनकी बीवी कुछ तुनक मिजाज़ सी लगीं। ऐसा लगा कि जैसे हमारा आना उनको अच्छा नहीं लगा है। हम चाय पीकर उनके घर से निकल आए। हम अम्मू खान से यह भी नहीं पूछ पाए कि उनकी पत्नी कौन हैं। कहां से हैं। कहां मिलीं। कब और कहां शादी हुई।

कुछ दिनों बाद अम्मू खान फिर दिखना बन्द हो गए। पता चला कि दिल्ली के किसी प्रकाशन संस्थान में उनकी नौकरी लग गई है और पत्नी के साथ वह वहीं शिफ्ट हो गए हैं। वहां भी उन्होंने हम ख़्याल खोज लिए हैं और नाटक वगैरह करते रहते हैं। 

कई साल गुजर गए, अम्मू का कोई खबर नहीं मिली। अचानक एक दिन वह मुझे घंटाघर पर मिल गए। बदहाल और बदहवास से शराब के नशे धुत्त। बेतरतीब कपड़े और घिसी हवाई चप्पल पहने। हालचाल पूछा तो वहीं सड़क पर फफक पड़े। मैंने दिलासा देकर उन्हें चुप कराया और पास के एक रेस्टोरेंट में ले गया। उनके लिए पकौड़े मंगाए और अपने लिये चाय। पकौड़े खत्म कर उन्होंने दो गिलास पानी पिया। इसके बाद सिगरेट जलाई और गहरे काश लेने लगे। फिर उन्होंने पैर से बची सिगरेट को मसलकर बुझाया और बुदबुदाए, "रंडी भाग गई पड़ोसी के साथ। "

ज़ाहिर है, यह बात उन्होंने अपनी बीवी के लिए कही थी, लेकिन उस समय मैं चुप रहा। कुछ और पूछने की हिम्मत ही नहीं पड़ी। बहुत देर तक वह मुंह नीचा किए भावशून्य से बैठे रहे, फिर एकदम से मुझसे उन्मुख हुए, "कुछ पैसे पड़े हैं तुम्हारे पास ?" मैंने पर्स से हज़ार रुपए निकालकर उन्हें थमा दिया। उन्होंने पैसे लिए और धीमी आवाज़ में कहा, "इन्हें लौटा नहीं पाऊंगा।" और मेरा जवाब सुने बगैर वह रेस्टोरेंट से बाहर चले गए। 

अपनी फितरत के अनुसार अम्मू फिर गायब हो गए। उनके बारे में छिटपुट खबरें मिलती रहतीं। जैसे, दिल्ली लौट गए हैं और किसी अखबार से जुड़ गए हैं। एक बार किसी ने बताया कि उन्हें लखनऊ में स्मैकियों के साथ बैठा देखा गया है। फिर कोई खबर लाया कि दिल्ली में हैं। बेहद बीमार हैं। लिवर सिरोसिस हो गई है और पैसों की तंगी से जूझ रहे हैं। वक़्त तेज़ी से बीत रहा था और उतनी ही तेज़ी से देश के हालात। हम अपने परिवार और  ज़िम्मेदारियों के खोल में छिपे बैठे थे और वही से बदलाव का मुजरा कर रहे थे। सब कुछ बदल चुका था। मुहल्लों की डेमोग्राफी, रिश्ते, सोच। हमारी अगली जेनरेशन जवान होने लगी थी। चकाचौंध और तड़क-भड़क सामाजिक संस्कारों पर हावी होने लगी थी। लोग स्टेटस सिम्बल्स के पीछे बेतहाशा भाग रहे थे। टीवी और सोशल मीडिया के तिलिस्म ने लोगों के होश-ओ-हवस के साथ खेलना शुरू कर दिया था। 

अस्सी के दशक में जिस पूंजीवाद का खाका अम्मू खान पेश कर सचेत करने काम करते रहते थे, उसे हम घटित होता देख रहे थे। अम्मू की गैर-मौजूदगी में हमारे लिए भी प्रगतिशीलता और वामपंथ कहीं बहुत पीछे छूट गए थे। और शायद अम्मू खान भी। वैसे सच तो यह है कि अम्मू हमारे लिएं उतने प्रासंगिक रह भी नहीं गए थे। छठे-छमाही उनका ज़िक्र हो जाता था। लेकिन राजा और मुझमें एक तरह का अपराधबोध भी था। ढेरों बाहरी बदलाव के बावजूद हम प्रगतिशीलता के असर से खुद को मुक्त नहीं रख पाए। हमें लगता था कि समाज में हो रहे क्षरण को रोकने के लिए हमें कुछ तो करना चाहिए। लेकिन कैसे, अम्मू हमारे साथ नहीं थे।

इसी में 15 साल और गुज़र गए। उम्र पकने के साथ दो-तीन साल के अंतराल में मैं और राजा रिटायर हो गए। अम्मू कहां हैं, कैसे हैं, इसकी कोई जानकारी नहीं थी हमारे पास। कई बार मन में बुरा ख़्याल आता कि कहीं अम्मू खुदा को प्यारे तो नहीं हो गए।

फिर बैचैन कर देने वाली एक खबर आई कि दिल्ली के बाड़ा हिंदूराव अस्पताल में भर्ती अम्मू को यूएपीए एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया गया है। कुछ दिन वह पुलिस हिरासत में अस्पताल में रहे, फिर एक अन्य मामले में कर्नाटक पुलिस रिमांड आर्डर ले कर आई उन्हें अपने साथ ले गई है। अम्मू पर नक्सलवादी गुटों के साथ काम करने का आरोप लगा था। अम्मू के घर दिल्ली और कर्नाटक पुलिस की संयुक्त टीम आई। तलाशी ली। मगर कुछ मिला नहीं। पुलिस दल घर वालों को धमकाकर लौट गया। न्यूज़ चैनल्स और समाचारपत्रों में अम्मू के बारे में कोई खबर नहीं थी। अम्मू का भतीजे इरफान से कुछ जानकारियां मिलती रहती थीं। मसलन उन्हें बेंगलोर सेंट्रल जेल के अस्पताल में रखा गया है। जब तबियत कुछ बेहतर होती है, तो पुलिस कोर्ट की इजाज़त के साथ पूछताछ करने आ जाती है। घर वालों के अलावा कोई उन्हें देखने नहीं आता। हड्डी का ढांचा बनकर रह गए हैं। अम्मू की गिरफ्तारी 2015 में हुई थी। धीरे-धीरे फिर उनका ज़िक्र कम होते-होते बन्द सा हो गया। बीच में बस इतना पता चला कि उन्हें जेल बैरक में शिफ्ट कर दिया गया है। दोनों राज्यों की पुलिस अपनी चार्जशीट में साक्ष्यों और गवाहों के बयानों को आधार बनाकर अम्मू को गुनहगार साबित नहीं कर पाई है। फिर कई साल निकल गए। राजा अपने बेटे की शॉप पर बैठने लगा और मैंने खुद को बाग़बानी में मसरूफ कर लिया। हम दोनों की मुलाक़ातें भी कम होने लगीं।

एक दिन राजा का फोन आया, "अम्मू से मिलोगे ?" मैंने उत्सुकता के साथ फ़ौरन हां कर दी। उसी शाम हम दोनों उनके पुश्तैनी मकान पर जा पहुंचे। बेल बजाई तो एक बच्चा बाहर आया। हमने अपने आने की वजह बताई तो बच्चा हमें छोटे से ड्राइंगरूम में बैठा कर अंदर चला गया। फिर दो गिलासों में पानी लेकर लौटा। उसने कहा, " चचा दद्दा अभी आ रहे हैं। आप लोग चाय लेंगे या कुछ ठंडा ?" मैंने इशारे से उसे मना कर दिया। वह वापस चला गया। थोड़ी देर बाद आहट हुई और सन सफेद बाल और दाढ़ी वाले दुबले-कमज़ोर से एक मौलाना हमारे पास आकर बैठ गए। इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते मौलाना के होंठ हिले, "बहुत साल हो गए ना ? अच्छा लगा तुम दोनों को देखकर। कैसे हो...? उन्होंने मुझे छोड़ दिया। मेरे वापस आने बारे में तुम लोगों को किसने बताया?"
.....और हमने अम्मू खान के पीछे काफ्का को खड़े देखा।


49 - 
भूख
[ जन्म :5 जुलाई , 1957  ]
श्रीराम त्रिपाठी


आज कालीप्रसाद बहुत ख़ुश है। पता नहीं, किसका मुँह देखकर उठा है। सबेरे-सबेरे ही किसुनदेव पंडित न्यौता माँग गये हैं। घरजनवाँ एक जन। पर, गाँव में सभी लोग ब्राह्मण के रूप में न्यौता खाने नहीं जाते। वे इस प्रकार के भोजों में शामिल होने वालों को अपने से निम्न समझते हैं। प्रायः इस प्रकार के भोजों में शामिल होने वाले ग़रीब हैं। पर, ये लोग अक्सर कहा करते हैं– “अगर ब्राह्मण ही जज्ञ-प्रयोजन अथवा जनम-मरण पर खाने नहीं जाएगा, तो लोगों का उद्धार कैसे होगा!”

काली के पिता कलकत्ता में नौकरी करते हैं। काली और शिवा ही अपने घर के सवाँग हैं। अतः इन दोनों में से ही कोई एक सामाजिक कार्यों में अपने पिता का प्रतिनिधित्व करता है। न्यौता खाने तो दोनों जाना चाहते हैं, पर एक ही जन की ‘अज्ञा’ होने के कारण एक को मन मारना पड़ता है। अतः दोनों में पारी बँधी है।

काली, शिवा से दो बरस छोटा है। पिछली बार शिवा गया था, इसलिए अपनी पारी आने के कारण काली बहुत ख़ुश है।

काली को लगता है कि आज वह गाँव के दूसरे लड़कों से सयाना हो गया है। इसलिए बड़े-बूढ़ों के साथ उसे भोज में जाना है। ऐसा आज ही नहीं, जब भी उसे किसी भोज में जाना होता है, लगता है। प्रायः बचपन में ऐसा होता है कि बच्चे, बड़े-बूढ़ों की बातें बड़े चाव से सुनते हैं। उम्र में अधिक दिखने का प्रयास करते हैं। उनकी हर कोशिश होती है कि लोग उन्हें सयाना समझें। वे अपनी उम्र के बच्चों के साथ किसी भी त्यौहार अथवा दूसरे कार्यक्रमों में खेलना पसंद नहीं करते, अपितु अपने से बड़ों के बीच ही दिखाई पड़ते हैं।

वैसे तो हमेशा काली को पिताजी से शिकायत रहती है कि वे दूसरे लड़कों के बापों की तरह घर पर नहीं रहते। पर, आज वह अपने पिता की गैरहाजिरी से ख़ुश है। क्योंकि अपने पिता के रहने के कारण ही अन्य लड़के न्यौता खाने नहीं जा पाते। पिता जी के न रहने पर ही तो उसका नम्बर लगता है। किसुनदेव पंडित की बात अलग है। वे ‘यजमानी’ करते हैं।

बेहद ख़ुशी के कारण काली दोपहर को भरपेट न खा सका। यदि अभी भरपेट खा लेगा, तो न्यौते में क्या खाएगा? उसे शिकायत है बड़े-बूढ़ों से। जो जल्दी-जल्दी दही-चिउड़ा सुड़क जाते हैं। यह नहीं देखते कि उनके साथ एक छोटा लड़का भी है। वह मन-ही-मन कहता– “थोड़ा और बड़ा हो जाने दो। फिर दिखा दूँगा कि कैसे न्यौता खाया जाता है।” अक्सर वह खाने में पिछड़ जाता है। बड़े-बूढ़े पत्तल से नीम की सींक निकालकर खरिका करते होते, तब कहीं उसका खाना समाप्त होता। फिर भी उसे जल्दबाजी तो करनी ही पड़ती। लगता था कि सभी न्यौतेबाज लोग ‘मेहरारू का नहान और मरद का खान’ वाली कहावत में विश्वास करते थे। जबकि काली इसके ठीक उल्टा था। खरिका करते-करते कोई कहता– “पातर डेहरी अन्ने के खानि। अरे भई, कौन है? पेट नहीं भरा तो कम-से-कम मुँह भी नहीं दूखा!” ऐसे समय उसे इतना गुस्सा आता कि मन करता, पत्तल उठाकर उस आदमी के मुँह पर दे मारे।
काली सोच रहा था कि जैसे ही दही आएगी वह उसे चिउड़े में ही ले लेगा। चिउड़ा भिगोएगा नहीं। आजकल के चिउड़े में दम ही नहीं होता, और दही तो कहने के लिए होती है। पत्तल के बाहर बहती है। बड़ी मुश्किल से रोकना पड़ता है। माठा भी उससे गाढ़ा होता है। वह किसी को देखेगा नहीं और सबसे पहले शुरू हो जाएगा। माँ का कहा नहीं मानेगा। माँ भी क्या है। कहा करती है– “काली बेटा, नेवते में सबसे पहले मत खाना। दोस लगता है।”

वह समझ नहीं पाता कि ऐसा क्यों है? पहले खाओ या बाद में, क्या फर्क पड़ता है। माँ ऐसी ही है। रामलीला में कहेगी कि राम मत बनना। होली में कहेगी कि ‘सम्मति’ में आग मत लगाना। ऐसा क्यों? राम तो  भगवान हैं न। धर्म के अवतार हैं न। उन्होंने रावण जैसे पापी का वध किया था और अहिल्या जैसी नारी का उद्धार। होलिका तो राक्षसिन थी। उसका नाश करना तो अच्छा काम है। पर, माँ ऐसा करने से मना क्यों करती है? कैसी बात है कि जिसे हम आदर्श मानते हैं, उसके द्वारा किये गये कार्यों को करने से दोष लगता है।

आजकल के नेवतों में अब दही-चिउड़ा मिलना बंद-सा हो गया है। अब किसी में भी वह शौक ही न रहा। मजबूरी में खिला रहे हैं। समाज में इज्जत जाने का डर जो है। जो भी हो, पूड़ी-सब्जी तो मिलेगी ही। वह भी खाये बहुत दिन हो गये। इतना सोचते ही उसे उनवल के बाबू साहब की माँ के ब्रह्मभोज में खाये खाने की याद आ गई। ऐसा आदमी चाहिए। ठीक ही तो लोग उन्हें राजा साहब कहते हैं। जैसे घर धन से भरा है वैसा ही बड़ा दिल पाया है। कितने सारे ब्राह्मणों को खिलाया था। ब्राह्मण ही क्या, जवारभर के नान्ह जाति से लेकर बनिये-बक्कालों तक को खिलाया था। पर, सरया के बाभनों को सबसे पहले खिलाया था। बड़े लोग जानते हैं कि किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए। जैसे ही कौवाडिल के भाँट को देखा, पंगति से उठा दिया। खुद सरया के तिवारियों का गोड़ धोए। सबको पीढ़े पर बिठाया। फूलों की मालाएँ पहनाईं। टीका लगाया तथा एक-एक गिलास दिया और हाथ जोड़कर बोले– “आप बाभन देवता लोग मुझे मातृ-ऋण से मुक्त करें।” किसुनदेव पंडित ने सबसे पहले कौर उठाया और बाबू साहब मातृ-ऋण से मुक्त हो गये। खाने के बाद इलायची वाला पान मिला। वह भी एक नहीं, एक जोड़ा।

बाबू साहब ने बाभनों से कहा– “आप सरया के बाभन लोग, जरा इस खटिया पर बैठ जाएँ। जिससे कोई दक्षिणा के बिना न रह जाए। नहीं तो विश्वामित्र की तरह दक्षिणा में क्या और कब माँग बैठें।”

ऐसा सुन सब हँस पड़े थे और बाबू साहब की खातिरदारी और दरियादिली की प्रशंसा करने लगे थे।

बाबू साहब के यहाँ ही काली को पहले-पहल बड़े-बुजुर्गों के बराबर दक्षिणा मिली थी। नहीं तो हर जगह उसे लड़का मानकर औरों से कम दक्षिणा दी जाती थी।

ऐसे समय वह अपने छुटपन पर कुढ़ता। काश, वह भी बड़ा होता तो सबके बराबर दक्षिणा पाता। फिर भी उसे इस बात का गर्व था कि उसने बाभन के यहाँ जनम लिया है। वह पूजनीय है। वह लोगों का उद्धार कर सकता है।

स्कूल में भी काली नेवते के खयाल में ही डूबता-उतराता रहा। इसीलिए आज उसे पंडीजी का सोटा भी खाना पड़ा। उसने उस सोटे से मार खाई थी जिसे उसने खुद ही छील-बनाकर उन्हें दिया था। हुआ यूँ था कि पंडीजी ने काली से कुछ सवाल पूछा था, पर ध्यान कहीं और होने के कारण वह जान ही न सका था कि उससे क्या पूछा गया है। उसके जवाब न देने पर पंडीजी ने मारते-मारते कहा था– “करे कलिया, मन मोर इहवाँ चित्त भुसउले?”

उसे पंडी जी की मार का दुख नहीं था। दुख तो था उनके इस वाक्य का। उसे लगा था कि जैसे पंडी जी उसके मन की बात जान गये हैं।

काली के लिए आज का दिन बीत ही नहीं रहा था। लगता था, जैसे समय ही ठहर गया हो। स्कूल से घर आने के बाद वह बार-बार दुआरे की ओर देखता कि कब किसुनदेव पंडित दिखें और सबको हाँक लगायें चलने को। कई बार ऐसा भी लगा कि कहीं ‘विजय’ हो तो नहीं गया! पर, तुरंत मन कहता– “नहीं, अभी नहीं हुआ। नहीं तो, अब तक किलकिलाहट हो जाती।”

काली के पिता बृजमोहन–जो गाँव में बिरजू नाम से जाने जाते थे–कलकत्ता में किसी पेढ़ी में काम करते थे। जब भी आते हैं, गमकउवा तेल और साबुन लाते हैं। सभी के लिए कपड़े लाते हैं। पर, सबके लिए एक-एक और माँ के लिए दो लाते हैं। हाँ, चम्पा के लिए भी दो लाते हैं। इनके लिए तो रीबन, क्लिप तथा और भी कई चीजें लाते हैं।

गाँव आने पर भी पिताजी घर पर रहते ही नहीं।

गाँव के लोग कहते हैं– “बिरजू दिलेर इन्सान है। कमाता है, तो खर्च करना भी जानता है।”

काली के पिता गाँव में जब तक रहते हैं, हर रोज कुछ-न-कुछ बाजार से जरूर लाते हैं। वह भी स्कूल जाता है, तो गमकने लगता है। लगता ही नहीं कि वही कालीप्रसाद है। माँ भी, जब तक पिताजी रहते हैं, तब तक अच्छे-अच्छे भोजन पकाती है। ठीक उसी तरह से जिस तरह से पहुना के आने पर पकता है। पिताजी भी तो मेहमान ही हैं। वे भी तो पहुना की तरह ही रहते हैं। वैसे ही कपड़े पहनकर, उन्हीं की तरह से मिठाई और फल लाते हैं। और एक दिन फिर– “ठीक से पढ़ना। अपनी माँ को हैरान मत करना, नहीं तो आने पर बड़ी पिटाई करूँगा।” कह कर चले जाते हैं।

काली पिताजी से उसी तरह शरमाता है जिस तरह पहुना से। पहुना जब भी घर आते हैं, काली और शिवा ख़ुश हो जाते हैं जबकि माँ की जान निकल जाती है। पहुना के आने से घर का संतुलन ही बिगड़ जाता है। काली को माँ से हमेशा शिकायत रहती है कि वह पहुना के लिए अच्छा-अच्छा खाना बनाती है, जबकि उसके लिए कभी नहीं। हमेशा यही कहती है कि फलाँ त्यौहार को बनेगा। अच्छा खाना किसी-न-किसी त्यौहार को बनाया जाता है और भगवान को खिलाकर खाया जाता है। उसे याद है, माँ होली-दीवाली-नेवान को ही अच्छा खाना बनाती है और सबको खिलाती है। नहीं तो, अधिकतर दूसरे त्यौहारों को खाना प्रसाद के रूप में ही मिलता है जबकि पौनी-परजा को अच्छा खाना पूरी थाली भरकर देती है।

माँ जब भी काली मैया अथवा दूसरे देवी-देवताओं की कड़ाही चढ़ाती है, तब दो सोहारी और लपसी दे देती है, जिसे वह हाथ में लेकर खाता है। और माँगने पर माँ का जवाब होता है– “यह परसाद है न। परसाद थोड़ा ही खाया जाता है। परसाद से पेट नहीं भरा जाता।”

उस समय बैठा वह इस फिराक में रहता है कि शायद माँ एक सोहारी और दे दे। इसलिए बैठे-बैठे अँगुली चाटता है। पर माँ है कि देती ही नहीं। बड़ी कठोर है माँ।
काली यह जानता है कि माँ उसकी बात को टालती ही है। पर उसे इस बात से आश्चर्य होता है जब माँ पहुना के जाते समय उन्हें एक ‘पियरी’ और कुछ रुपये बिदाई में देती है। वह समझ नहीं पाता कि ऐसे समय पैसा कहाँ से आ जाता है। जरूर ही माँ उसे नहीं मानती। यदि मानती तो क्या ‘बरफ’ और ‘मसलपट्टी’ के लिए पैसे न देती?

काली को ध्यान आया कि वह कौन-से खयालों में खो बैठा। तभी किसुनदेव पंडित आते दिखे, जो लोगों से जल्दी चलने को कह रहे थे– “यहाँ से दू कोस जमीन चलनी है। सभी लोग जल्दी से तैयार हो जाएँ।”

और काली को देख कर उससे बोले– “कालीपरसाद, सिवपरसाद से कह दो कि जल्दी आ जाए। हाँ, लोटा लेना न भूले।”

काली को शिवा का बुलाया जाना बेहद खला। शिवा जाए या काली, किसुनदेव को इससे क्या? वह भी तो जनेउ वाला है और न जाने कितना नेवता खा चुका है। किसुनदेव का काम केवल ‘अज्ञा’ माँगना और ‘बिजय’ कराना है। यह निश्चित करना हमारा काम है कि मुझ में और शिवा में से कौन जाए। जब देखो तब शिवा! शिवा! वह पहले पैदा क्यों नहीं हुआ? उसे अपने छोटे होने पर बहुत दुख हुआ। पर, किया ही क्या जा सकता था! लिहाजा हथियार डाल तुरंत घर में माँ के पास पहुँचा।

माँ बटुली रखिया रही थी। दादी माँ भुजिया कर रही थीं और चूल्हे में अरहर का पत्ता झोंक रही थीं। पूरा घर धुएँ और दुर्गंध से भर गया था, क्योंकि अरहर के पत्ते के साथ आदमी का सूखा गू चिपरी के रूप में आ गया था। दादी माँ की आँखें चूल्हे को बार-बार फूँकने के कारण लाल-लाल हो गई थीं, जिससे आँसुओं की धार निकल रही थी। लगता था, जैसे दादी माँ ने अपनी आँखों में भड़भाड़ का दूध डाल लिया हो।

भुजिया धान कभी मशीन पर कुटाने नहीं जाता, क्योंकि अपवित्र हो जाता है। इसलिए माँ और दादी मिलकर ओखली अथवा ढेंके में कूटती हैं। पिछली बार कूटते समय दादी माँ की अँगुली ढेंके के नीचे आ गई थी और कट गई थी। माँ इसके लिए खुद को जिम्मवार ठहराती हुई कोसती थी।

काली को जाने की हड़बड़ी थी। खोजने पर भी बड़का लोटा–जो उसके ननिहाल से मिला था–नहीं मिल रहा था। लोटा बड़ा रहने पर काफी आराम रहता है। बार-बार पानी माँगना अच्छा नहीं। बड़े लोटे में एक बार पानी भर लो, तो पीने के साथ-साथ हाथ भी धुल जाता है। साथ ही यदि मौका मिले तो दस-बीस पूरियाँ भी आसानी से भर लो। काली को याद है कि किस तरह किसुनदेव का बेटा अपने पैजामे में पचीस-एक पूरियाँ लाया था। वह ऐसा नहीं करेगा। बड़के लोटे में बीसेक पूरियाँ तो ऐसे ही समा जाएँगी। किसी को पता ही न चलेगा। जब माँ ने कहा– “वह छोटका लोटा ही लेते जाओ।” तब उसे बड़ा गुस्सा आया। घर में कोई सामान ठीक से रखा ही नहीं जाता। ऐसा नहीं कि हर सामान व्यवस्थित रखा जाए। अभी सभी चले जाएँगे, तो वह क्या करेगा? माँ को क्या हो गया है! क्यों नहीं जल्दी से लोटा खोजकर दे देती? अंगोछा भी नहीं मिल रहा। नहीं जानती कि वहाँ कपड़ा निकालकर खाना होता है? जब जानती है कि आज न्यौता खाने जाना है, तो अंगोछा और लोटा खोजकर रखना चाहिए। चम्पा काली की छोटी बहन है। वह घर में इधर-उधर अंगोछा और लोटा ढूँढती है। पर, वह रहे तब न मिले। शिवा, चम्पा को लालच देकर चुपके से अंगोछा और लोटा लेकर चला गया है। उसने चम्पा को वचन दिया है कि अब की बार वह उसके लिए पूरिया लाएगा। इसीलिए चम्पा ने खुद ही अंगोछा और लोटा शिवा को चुपके से दे दिया था। वह इधर-उधर हाथ-पैर मारने के बाद बोली– “माई रे, लगता है कि बड़के भइया अंगोछा और लोटा लेकर गये हैं। कहीं खुद ही तो नेवता खाने नहीं गये? मैंने चुपके से कुछ ले जाते देखा है।”

काली को कतई विश्वास नहीं हो रहा था। वह खुद घर में अंगोछा और लोटा ढूँढने लगा। और न पाने पर खाली हाथ ही जाने लगा, जिससे गाँव वालों का साथ न छूट जाए।

उसे जाते देख, माँ ने डाँटा– “कहाँ जात हवे रे, कलिया? रुकु। शिवा गया है। अब तुम नहीं जाओगे। जगहँसाई करानी है कि कैसे भिखमंगे लोग हैं, ‘अज्ञा’ एक का था और आए दो!”

काली का मन नहीं मानता कि शिवा गया होगा। और गया है, तो क्या हुआ? पारी उसकी थी। इसलिए वह जाएगा ही।

काली ने माँ से कहा– “मैं जाऊँगा। अब की मेरी पारी थी।”

और घर से निकल पड़ा। दरवाजा पार करने को हुआ कि माँ ने दौड़कर पकड़ लिया। भागते समय अगर वह दरवाजे से न टकराता, तो माँ उसे न पकड़ पाती। गुस्से में माँ ने दो-चार थप्पड़ भी लगाए। डाँटा-फटकारा। ‘कुछ पकाने’ का आश्वासन दिया। साथ ही सहन करने का पाठ पढ़ाया और कहा– “आने दो, शिवा को। अबकी उसकी खूब पिटाई करूँगी।”

पर, पेट की आग में तो सारे ज्ञान और विचार स्वाहा हो जाते हैं।

काली रोता रहा। सुबकता रहा।...इस संसार में कहीं भी न्याय नहीं। उसका इस संसार में कोई नहीं। माँ, शिवा को ज्यादा चाहती है, तभी तो पहुना के आने पर उसी को उनके साथ खाने पर बिठाती है।

माँ को अपनी मजबूरी पर रोना आ रहा था। वह कैसी अभागिन है कि अपने लाड़लों को ढंग का खाना भी नहीं खिला सकती। घर में तिउराइन बनी बैठी है। तीज-त्यौहार पर अच्छा खाना पौनी-परजा को देती है, जिससे पटिदारों के खानों से उसका खाना हल्का न हो। पौनी-परजा ही किसी की इज्जत को फैलाते हैं। वे खुश रहें, तो घर-घर जाकर गुन गाते हैं।...

मौका पाते ही अबकी काली निकला, तो नजर ही न चढ़ा। माँ बौखला उठी। चम्पा से पूरा गाँव खोजवाया, पर कहीं भी काली की परछाई तक न दिखी।...हो-न-हो कलमुँहा, नेवता खाने ही न गया हो। ये कपूत बरसों की सँजोई इज्जत को खाक में मिला देंगे। नहीं, वह ऐसा नहीं होने देगी।

“आने दो। लौटकर तो आएगा न। ऐसी खबर लूँगी कि जिनगीभर याद रक्खेगा। एक वो हैं, जो अपने तो शहर में गुलछर्रे उड़ा रहे हैं और अपने इन दो मूसरों को मेरी छाती पर मूँग दरने के लिए छोड़ गये हैं।”–माँ चीखती-कुढ़ती रही।

“बिरजू को क्यों गरियाती हो? उस बेचारे ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? उस मरकिनवना सिउवा को नहीं जाना था। वही है इस फजीहत की जड़। ई नाही होये पाई कि खेत खा गदहा और मारल जा जोलहा।”–दादी माँ ने माँ का विरोध किया।

काली, पहले तो दौड़ा क्योंकि उसे विश्वास था कि गाँव वाले अभी बहुत दूर नहीं गये होंगे। इन्सान के मन की सबसे बड़ी ख़ूबी है कि वह आसानी से नकार में नहीं सोचता। दौड़ते-दौड़ते काली को हँफरी छूट गई, फिर भी गाँव वाले न मिले। मिलने की कौन कहे, उनकी आहट तक न सुनाई दी। वह सुस्ताना चाहता था, पर डर इस बात का था कि कहीं पिछड़ न जाए।

काली इसी विश्वास से चलता जा रहा था कि पंगत उठने तक तो पहुँच ही जाएगा। ऐसा थोड़े है कि दरवाजे पहुँचे और तुरंत ही खाने पर उठा दिये गए। काली की हालत उस मुसाफिर जैसी थी, जो यह जानता है कि वह लेट हो गया है, फिर भी जल्द-से-जल्द स्टेशन पहुँचने की कोशिश करता है। वास्तव में, तो अब काली चल भी न पाता था, दौड़ने की कौन कहे। पूरे हुमास में तो वह पहले ही दौड़ चुका था। ऊपर से दिनभर की भूख और मार थी, जिसके कारण उसका पूरा जिस्म थकान और अशक्ति से भर गया था। पैर उठने का नाम ही न ले रहे थे। जबकि काली अपनी जान तेज चलने की कोशिश कर रहा था।

इस अंधेरी रात में भी काली ऐसे चला जा रहा था, जैसे यह रास्ता और नहीं, बल्कि उसके घर का रास्ता हो। आज उसे भूत-प्रेत भी न दिखाई दे रहे थे। जबकि और समय होता, तो वह रात में दुआरे पर भी अकेला न जाता।

आखिरकार, काली को अपने गाँव वाले न दिखे, तो न ही देखे। पर, वह घर दिख ही गया, जहाँ उसे जाना था। उस अंधेरे में भी उस घर पर रोशनी थी। भीड़-भाड़ थी। चहल-पहल थी। जैसे-जैसे काली उस घर के पास आता जाता, उसके दिल की धड़कन बढ़ती जाती। दिमाग़ में बवंडर तेज होने लगता।

अब काली वहाँ खड़ा था,जहाँ से कुछ ही दूरी पर शिवा गले में माला पहने पान चबाते खाट पर बैठा पैर हिला रहा था। काली को लगा कि उसके मुँह में पान की गिलौरी नहीं, मांस का टुकड़ा है। और होठों पर पान की लाली नहीं, ख़ून की लाली है। पहले तो उसे शिवा पर क्रोध आया, फिर घृणा आई।

अचानक शिवा को लगा कि यहाँ काली भी मौजूद है। आँखें पोंछकर देखा, तो सचमुच, वहाँ काली को ही खड़ा पाया। वह सिहर गया। फिर उसे याद आया कि वह काली से बड़ा है।...उसकी आँखों में अंगारे दहकने लगे। भौहें तन गईं। वह ऐसा दिख रहा था, मानो नरमुण्डों की माला पहने काली माँ मर्दाना रूप धर बैठी हों। पर, काली पर इसका कोई असर ही न पड़ा। उसे उबकाई आ रही थी क्योंकि शिवा समेत गाँव वाले उसे मैले के बिजबिजाते कीड़े लग रहे थे।

उधर घर में अब भाई-पटिदारों की पंगति खाने पर जा चुकी थी और इधर दुआरे पर पौनी-परजा बिठाए जा रहे थे। काली ने एक झटके से जनेऊ तोड़कर शिवा की ओर फेंक दिया और दुआरे की पंगति में बैठ गया। 


50  -

अंधेरी सुरंग

[ जन्म : 1 जुलाई , 1957 ]

रवि राय

सर्दियों की शुरुआत होते ही शहर के मेन मार्केट का रंग जैसे खिल उठता है। पटरियों पर ऊन के तमाम रंग-बिरंगे स्टॉल लग जाते हैं। ऊंचे -ऊंचे गट्ठरों के पीछे मार्केट की पक्की दूकानें छुप जाती हैं। इन दूकानों तक पहुंचने के लिए पहाड़ जैसे गट्ठरों से होकर गुजरना पड़ता है।

सीमा ने मेरा स्वेटर बनाने के लिए ऊन की फरमाइश की थी।उसे अपने लिए मेकअप का कुछ सामान भी लेना था। जब हम दोनों घर से चले , हवा में गुलाबी ठंडक थी । मैंने अपनी फेवरेट जीन्स की नीली जैकेट पहनी थी जो मुझे बहुत कम्फर्टेबल लगती है। जैकेट की चेन चढ़ा लेने पर पूरा फ्रंट कवर हो जाता है, मगर घर से मार्केट तक करीब पांच किमी की राह में सीमा ठंड से कुड़कुडा गई।मैंने चौराहे से थोड़ा आगे फुटपाथ  के पास बाइक रोकी । सीमा ने उतर कर अपना बैग मुझे थमाया,

"इतनी भीड़ में इसे कहां ले जाऊं, डिकी में डाल लेना।"  सीमा अपना शाल संभालते हुए ऊन के स्टॉल्स की ओर बढ़ गईं। थोड़ी देर तक तो मैं उसे एक से दूसरे स्टाल का चक्कर लगाते देखता रहा। वहां से वह  अंदर की किसी शॉप में  जाती दिखी ।मैंने उसका बैग बाइक की डिकी में डाल कर  एक सिगरेट सुलगाई और हाफ स्टैंड पर तिरछी खड़ी बाइक की सीट पर टेक लगा कर धुआं उड़ाने लगा। 

थोड़ी देर में  सीमा ऊन के गट्ठरों के बीच से निकल कर मेरी ओर आती दिखी । मैंने सिगरेट फेंक कर हैंडिल में लटका हेलमेट पहन लिया । दन्न से एक किक में बाइक स्टार्ट हो गई। पीछे की सीट पर सीमा के बैठते ही मैंने गाड़ी आगे बढ़ाई।पिकप तेज होने की वजह से बाइक तुरन्त स्पीड में  आ गई। सीमा मेरी स्पीड से डरती थी इसलिए हमेशा की तरह पूरी मजबूती से मुझे पकड़ कर बैठी थी। दोनों हाथ मेरी कमर के इर्दगिर्द कस कर । शायद आज जबरदस्त बारगेनिंग हुई है। जब कभी ऐसा होता है, सीमा देर तक अपनी इस सफलता पर मन-मुदित रहती है।शायद इसी खुशी में आज कुछ ज्यादा ही चिपक रही थी। किसी नए सेंट की तेज खुशबू भी आ रही थी । लग रहा था कि कोई नया महंगा सेंट भी खरीदा गया है। करीब तीन किमी सफर के बाद पीछे से आवाज आई,

" अरे, आप  इधर कहां जा रहे हैं जी? "

एकदम अपरिचित आवाज  ? सुनकर मैं बौखला गया। हड़बड़ा कर गाड़ी किनारे लगाई। हेलमेट उतार कर देखा तो मेरी बाइक की पिछली सीट पर  एक नितांत अपरिचित युवती बैठी थी। उम्र तकरीबन तीस साल। खूबसूरत बदन, गोरा या कहें खिलता गुलाबी रंग , लम्बी नाक ,बड़ी बड़ी काली आंखें। नीले रंग के पंजाबी सूट पर सफेद कार्डिगन और हल्का नीला दुपट्टा जिसे गले में लपेट  रखा था। सर्वांग सुंदरी । मुझपर नज़र पड़ते ही उसका चेहरा विवर्ण हो गया। घबराहट या डर से थरथर कांपने लगी।मैं भी हक्का बक्का ! बाप रे बाप, ये आज मैंने क्या कर डाला ? सीमा को सड़क पर छोड़ कर मैं ये किसे उठा लाया ? यह कोई करिश्मा है या सपना ? अविश्वसनीय और  हैरतअंगेज़  सिचुएशन ! सामने खड़ी युवती बार बार इधर उधर देख रही थी मानो कोई आ जाएगा जो यह विकट समस्या हल कर देगा । घबराहट के मारे मेरे तो छक्के छूटे जा रहे थे। इधर -उधर देखते हुए मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया,

" आप कौन हैं देवी जी, मेरी वाइफ कहां गईं ?"

" अरे मैं क्या जानूं आपकी वाइफ को ! मैं तो अपने हसबेंड के साथ आई थी, ऊन खरीदने। पता नहीं कहां गए वो ? बिल्कुल आप ही जैसी जैकेट वो भी पहने हुए थे, येज़्दी बाइक भी है उनकी।"

अब इस मामले की धुंध कुछ छंटी। तो माजरा ये है। सारे बवाल की जड़ है ये जैकेट और बाइक !

"आपने देखा नहीं , किसके साथ बैठ रही हैं ?"

वह बुरी तरह घबराई हुई थी। मेरे सवाल पर झुंझला उठी,

"आपने क्यों नहीं देखा कि किसे बिठा लिया ?"

" मैं भला कैसे देखता , मेरे सिर के पीछे कोई आंख थोड़े न लगी है !"

अब उसके थरथराते होठों पर हल्की सी मुस्कान तैर आई।

" आपकी येज़्दी है, उनकी भी यही बाइक है।हेलमेट भी सेम टू सेम कलर का और ऊपर से ये जैकेट ! सब कुछ तो वही है , बस मेरे हस्बेंड की जगह इसमें पता नहीं कहां से आप टपक पड़े !"

मेरे तो प्राण जैसे हलक में अटके पड़े थे, घुटने बाकायदा थरथराने लगे ,

"मैडम , आपने गाड़ी की नम्बर प्लेट वगैरह कुछ भी नहीं देखा ?"

"अरे , जितना दिखा उसी से तो कन्फ्यूज़न हुआ ,अब और क्या देखती?"

" काल करिये अपने हसबेंड को ?"

" जी.....मैंने अपना मोबाइल इनकी बाइक की डिकी में ही रख दिया था , वो तो वहीं रह गया !"

अब मुझे सीमा का बैग याद आया जो वह जाते-जवाते मेरी डिकी में रखने के लिए थमा गई थी।सोचा देख लूं, शायद मोबाइल उसी के पास हो ।डिकी खोल कर बैग में झांकने पर सीमा का भी मोबाइल बैग में पड़ा मिला। यानी मेरी बेगम साहिबा का मोबाइल मेरे पास ,मेरा अपना भी मेरे पास ।दूसरी ओर  ये जो सामने दूसरे की बेगम खड़ी हैं इनका मोबाइल इनके पतिदेव के पास। कुल मिला कर हाल -हवाल ये हुआ कि दोनों महिलाएं मोबाइल विहीन और दोनों पुरुषों के पास दो -दो मोबाइल।एक खुद का एक बीवी का।

वातावरण में कुहासे की धुंध धीरे -धीरे  अब छंटने सी लगी थी।जैसे बादल का कोई समूह तैरता हुआ आगे बढ़ रहा हो और पीछे से सूरज झांकने की कोशिश में हो।धुंधलका छंट रहा था ,  रोशनी बढ़ने लगी थी और अब धूप भी हल्की सी कुनकुनी होने लगी थी। घबराहट में मुझे जैसे बेचैनी होने लगी ।सीमा अकेली फुटपाथ पर खड़ी होकर झल्ला रही होगी। उसने भी मुझे पीछे से आवाज देकर क्यों नहीं रोका ? पगलेट कहीं की ! मैंने अपनी जैकेट की फ्रंट चेन खोल कर जैकेट के आगे वाले दोनों पल्ले पाटो-पाट फड़काए । डिकी से अपना मोबाइल निकाल कर लॉक ओपन किया,

"आपको नम्बर तो याद होगा?"

"नम्बर... किसका नम्बर?"

" अपना या अपने हसबेंड का नम्बर बोलिये, मैं फोन करता हूँ ।"

" अरे नहीं नहीं, वे आपकी आवाज से और घबरा जाएंगे। "

"आप नम्बर तो दीजिये, मैं न बात करूंगा।"

"जी, नम्बर तो ठीक से याद ही नहीं आ रहा। जरूरत ही कहाँ पड़ती है नम्बर डायल करने की !"

"क्यों, फोन पर बात नहीं होती क्या आपस में ?"

"होती है ...होती है....पर नाम सेव्ड होने की वजह से कभी नम्बर देखना ही नहीं पड़ता है न!"

"आपको अपना नम्बर तो याद होगा ?"

" ठीक है, ट्राई करती हूँ।"

कई बार ट्राई करने के बावजूद वह दस अंकों का अपना खुद का ही  नम्बर सही ढंग से नहीं बता सकी। लगता है उस पर घबराहट पूरी तरह तारी हो चुकी थी। 

" वो क्या है कि असल में  प्रीपेड बदल कर जियो का नया पोस्टपेड सिम डाला था  मोबाइल में। नम्बर ठीक से याद नहीं आ रहा !"

मैं समझ गया कि पति की डांट की आशंका से भयभीत इसके होश फाख्ता हैं।नज़रों के सामने  दूसरे आदमी के साथ निकल गई पत्नी को कोसते झल्लाते पति के रौद्र रूप की कल्पना मात्र से वह सिहर रही थी।इस वक्त तो उसे अपनी कलाई में बंधी घड़ी में वक्त भी सही नहीं दिख रहा होगा।मैंने पूछा,

"तो अब मैं क्या करूं ?"

" वे तो बहुत गुस्से में होंगे।पता नहीं क्या कहेंगे।चलिए अब वहीं  चलें।"

" कहाँ?" बेखयाली में पूछे गए मेरे इस अटपटे से सवाल पर वह इस बार मुस्कुरा दी।

"जहां से आए हैं , अपनी वाइफ और मेरे पतिदेव को साथ खड़ा छोड़ कर , और कहां ?"

इतने तनाव के बावजूद उसकी इस बात पर मैं भी हंस पड़ा।

"आइये फिर!"

"चलिए!"

वापसी यात्रा में युवती बाइक की पिछली सीट पर थोड़ा डिस्टेंस मेंटेन करके बैठी थी। उसने अपना एक हाथ मेरी कमर के बजाय डिकी के कोने पर टिका रखा था। रास्ते में कुछ मोड़,स्पीड ब्रेकर और  गड्ढे पड़े, जिन पर सामान्यतः मैं स्पीड कम नहीं करता, पर इस बार "ग्लास - हैंडिल विथ केयर "  की सावधानी से चला।रास्ता पूरी तरह निःशब्द कटा।

राम-राम करते हम मंजिले मकसूद पर पहुंचे। मैंने बाइक किनारे लगा कर हेलमेट हैंडिल में लगाया और पटरी पर लगी भीड़ पर निगाह दौड़ाने लगा।सीमा कहीं नजर नहीं आई।उधर साथ आई युवती भी हवन्नक सी खड़ी थी । कभी  वहां खड़ी दो पहिया गाड़ियों पर निगाह दौड़ा रही थी तो कभी भीड़ पर।चेहरे पर घबराहट और निराशा के मिले-जुले भाव आ-जा रहे थे।

"क्या हुआ, आपके पति कहीं दिखे ?"

" यहां तो कहीं नहीं हैं , उनकी बाइक भी तो नहीं दिख रही है।"

"मेरी श्रीमती जी भी पता नहीं कहां हैं! "

"अब बताइये , मैं क्या करूं?"

" अरे , मेरी खुद की बीवी गायब है , मेरी जान सांसत में डाल कर आप मुझसे ही सवाल कर रही हैं।खुद तो  बिन देखे भाले अपने पति को छोड़ कर मेरे साथ निकल लीं । "

"हाँ हाँ, सारी गलती तो मेरी ही है। आपको जरा सा भी नहीं लगा कि पीछे कोई और बैठा हुआ है ?"

"देवी जी ,अब मुझे माफ़ करो। मेरी ही गलती थी । पर, जहां से आपका हरण करके मैं ले गया था , बाइज़्ज़त सही-सलामत वापस वहीं लाकर खड़ा तो कर दिया , यहां तक पहुंचा दिया न ?अब आप जाओ और मेरा पिंड छोड़ो और अपने पतिदेव को खोजो , मुझे मेरी बीवी खोजने दो।" कहकर मैं दूकानों की ओर बढ़ गया।भीतर बाहर हर तरफ पूरी तरह छान मारा।एक-एक कर सारी दूकानों  में जाकर देख लिया।ऊन के हर स्टॉल पर घूम आया।

"  हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीमा मृगनैनी ? "

सीमा कहीं थी ही नहीं ! आखिरकार सीमा गई तो गई कहां ? जमीन खा गई कि आसमान निगल गया ?

मैंने अपना मोबाइल देखा । काल रजिस्टर में किसी एक अनजान नम्बर से कई मिस्डकॉल  थे। काल बैक किया तो रिसीव करने वाले ने बताया कि वह इसी मार्केट की एक कॉस्मेटिक्स की दूकान का मैनेजर है। डिटेल लेकर दूकान पर पहुंचा। मालूम हुआ कि सीमा यहां से कुछ सामान ले गई थी। मुझे लापता देख वापस आकर मैनेजर के मोबाइल से  सीमा ने मेरे नम्बर पर कई कॉल्स लगाई थीं। अब, मेरा मोबाइल तो उंस वक्त डिकी में बंद था । बाइक के इंजन की गड़गड़ाहट में भला मुझे उसकी रिंगटोन कैसे सुनाई देती ? 

मैनेजर से पूरा किस्सा बयान कर बोल गई कि अब वह घर वापस जा रही है।सारा हाल बताकर मैनेजर ने पूछा,

"सर जी, आखिर आप चले कहां गए थे?"

" घास उखाड़ने !"

(सुधी पाठक समझ लें कि मैंने घास तो नहीं ही कहा होगा।)

 भन्नाकर वहाँ से निकलकर मैं वापस अपनी बाइक के पास आया। चलो एक बात तो फाइनल हुई कि सीमा घर को निकल चुकी है। कुछ देर में पहुंच कर फिर लैंड लाइन से काल करेगी।टेंशन तो कम हुई किसी तरह पर फिर भी मूड बुरी तरह खराब हो गया था। पर कहां ? अभी तो इससे बड़ी टेंशन मुंह बाए आगे खड़ी थी ! 

मैंने अपना मोबाइल जैकेट की पॉकेट में रख लिया। राहत की लंबी सांस लेकर बाइक पर बैठा और हेलमेट पहनने ही जा रहा था कि नीले सूट वाली वही युवती ऐन मेरे  अगले पहिये के सामने जैसे जादू के जोर से आ टपकी। हे भगवान , अभी तक ये मोहतरमा यहीं जमी हुई हैं ?

"जी, फरमाइए ?"

" क्या बताऊँ, ये तो कहीं मिल ही नहीं रहे। पता नहीं कहाँ चले गए ?"

"तो ?"

" आपकी मिसेज़ मिलीं ?"

" हाँ !"

" कहाँ हैं?

"जी मुझे पता चल गया है कि वे कहां हैं । अब कोई चिंता की बात नहीं है।"

" मतलब ?"

"मतलब ये कि मेरी पत्नी और आपके पतिदेव एक साथ गोलगप्पे खाने निकल लिए, ओके ? "

मेरी बात खत्म होने तक वह अपलक मेरे चेहरे पर निगाहें टिकाए रही।फिर बेसाख्ता ठहाका लगा कर हंस पड़ी।हंसते हंसते जैसे दोहरी हो गई।

" आप तो बड़े दिलचस्प आदमी हैं! इतनी परेशानी में भी ऐसा मज़ाक कर लेते हैं।"

" जी वो तो मैं हूँ, मेरे दिल में इन्बॉर्न फेवीक्विक इंस्टाल्ड है ?"

"आँय , मतलब ?"

"फेवीक्विक से दिल पर हर चीज़ चिपक जाती है न !"

मेरी यह ट्रिकी बातें अक्सर बहुत काम कर चुकी हैं। सो इज़ हियर।वह मुंह फाड़े मुझे निर्निमेष देखती रही। किसी तरह उसके मुंह से एक ही शब्द फूटा,

"मतलब ?"

"एक बात बताइये !"

"जी !"

" ये मतलब आपका पिलो सांग है क्या ?"

"पिलो सांग बोले तो ?"

"तकिया कलाम !"

युवती के हलकान चेहरे पर मुस्कान की एक लहर सी तैर गई।

"आप तो गजब हैं।"

"कुबूल मोहतरमा कुबूल, इसकी जो चाहे सज़ा दे दीजिये ।अब बराय  मेहरबानी  बताइये तो सही ,आपके पतिदेव का कहीं कुछ सुराग लगा ?"

"  कुछ नहीं पता चल रहा।भीड़ इतनी है कि इसमें खोजना भी मुश्किल है।सबसे बड़ी बात तो ये है कि उनकी बाइक भी यहां कहीं नहीं दिख रही।

"तब ?"

"लगता है गुस्से में छोड़ कर चले गए।"

"अरे,ऐसा भी कहीं होता है? भला कोई अपनी ऐसी खूबसूरत बीवी को सरे बाज़ार ऐसे छोड़ कर चला जाएगा ?"

" क्या कहूँ ?" उसके चेहरे पर लालिमा छा गई।

मैं कुछ क्षण के लिए विचारमग्न हुआ।ये अकेली औरत, कुछ देर को अनजाने में ही सही, मेरे साथ मेरी बाइक पर चल रही थी ।अब कैसे इसे यूं छोड़ कर चला जाऊं। मेरे दोस्त मेरे बारे में कहते भी हैं, यू कान्ट सी अ डैम्सेल इन डिस्ट्रेस ! यर्स, ऑफ कोर्स,  सिचुएशन डिस्ट्रेस तो है ही और जहां तक डैम्सेल की बात है तो यह पूरी की पूरी सोलह आने सर्वांग सुंदरी है। इस मुसीबतजदा हसीना को मैं अकेले रास्ते में  नहीं छोड़ने वाला।  

इधर उसकी निगाहें मेरे चेहरे को बेध रही थीं जैसे कि मुझे परख रही हों ।मैं भी उसकी आँखों में झांकने लगा।देर तक भिंचे हुए उसके होंठों पर हल्की सी जुम्बिश हुई,

"प्लीज़ !"

"जी, कहिये !"

"मेरी हेल्प कीजिये न ! "

" बताइये तो क्या करूं ?"

" प्लीज़ , मुझे घर तक छोड़ दीजिए।"

"आँय ?"

"प्लीज़ !"

" कहाँ रहती हैं?"

" विक्रमनगर कालोनी ।"

" ओह, ये तो बहुत दूर है। शहर से बहुत बाहर के इलाके में है।"

"जी , उधर काफी नई कॉलोनियां बन रही हैं पर अभी वहां कोई डायरेक्ट सवारी नहीं जाती। सबसे बड़ी दिक्कत तो ये है कि मेरा बैग भी इनकी बाइक की डिकी में बंद रह गया है और वालेट में फुटकर कैश भी नहीं है।" 

बड़ी मुसीबत थी। विक्रमनगर कालोनी का यहां से करीब बीस किलोमीटर का रास्ता था। उधर नई आबादी बसने से सड़क तो एकदम नई और शानदार बनी थी, पर अभी वहां तक पहुंचने के लिए इस सुंदरी को रास्ते में दो जगह सवारी बदलनी पड़ती।मुसीबत ये कि मैं बीस किमी दूर विक्रमनगर इसे छोड़ कर वापस शहर वापस आता फिर दूसरी ओर करीब पांच किलोमीटर और चलकर अपने घर पहुंचता।

" अगर मैं आपको कुछ कैश दे दूं तो चलेगा ?"

"अरे नहीं नहीं, बात कैश की नहीं है।ऑटो रिक्शा में अकेले जाना ठीक नहीं है। आप समझ रहे हैं न, बहुत खराब जेन्ट्री है इधर की। "

"तब आइये  बैठिये। अब तो कोई ऑप्शन ही नहीं है , ले चलता हूँ आपको। बताइये,  आपके हसबेंड भी गजब के आदमी हैं।आपको छोड़ कर निकल गए और आपकी कोई खोजखबर भी नहीं ले रहे।" उसे  पीछे बैठने का इशारा किया। हेलमेट पहन कर बाइक स्टार्ट करने जा ही रहा था कि तभी मेरे मोबाइल की घण्टी बजी। घर के लैंड लाइन वाले नम्बर से सीमा का फोन था, "हाँ , घर पहुंच गई ?"

"मैं तो वापस घर आ गई हज़रत,  पर तुम कहाँ हो ?"

"जहां तुम छोड़ कर गई थी वहीं हूँ और कहां जाऊंगा ?"

" ओ रे हाय-हाय, मोरे भोले बलम, तुम अभी तक वहीं खड़े हो?"

" तो क्या करूं? तुम तो आती दिखी भी थी पर कहां रुक गई ?"

"अरे वो ऊन वाला पैकेट दूकान में ही रह गया था, अचानक याद आया तो वापस लेने घूम गई।जब लौट कर आई, जनाब लापता थे।"

" हे भगवान, जभी तो मैं कहूँ, आते आते कहाँ रह  गई ?

"तुम अपनी तो बताओ। इतनी देर तक  कहाँ गायब थे  हुज़ूर ? तुम नहीं दिखे तो मैंने दस मिनट तक वहीं खड़े-खड़े इंतज़ार भी किया। अंदर कॉस्मेटिक्स की दूकान में वापस गई।वहाँ के मैनेजर के फोन से कई बार  तुम्हें काल भी लगाई  पर तुमने फोन ही नहीं उठाया।"

"वो सब तो ठीक है , तुम घर कैसे चली गई ? मेरा वेट क्यों नहीं किया ?"

" अरे , मैं वहीं खड़ी-खड़ी  तुम्हारा वेट ही तो कर रही थी । भला हो मिसेज खुराना का, अरे वही , टावर बाइस की आठ सौ तीन नम्बर वाली, उन्होंने मुझे देख लिया। उनकी पूरी फैमिली  साथ थी।मेरी प्रॉब्लम सुनकर अपनी कार में किसी तरह एडजेस्ट करके मुझे घर पहुंचा गईं। "

"ओह !"

" और क्या, तुम्हारा वेट करती तो घण्टे भर बाद अब न तुम आते ? अजीब लापरवाह आदमी हो यार। बीवी को बाज़ार में छोड़ कर खुद पता नहीं कहां फुर्र हो गए ? हद होती है यार किसी चीज़ की।"

" छोड़ो , वो सब घर आकर बताऊंगा ।फिलहाल अभी एक  ज़रूरी काम से निकल रहा हूँ।आने में कुछ देर होगी, परेशान मत होना।"

"आँय, अब ये कौन सा नया काम आ गया ? तुमने तो अभी लंच भी नहीं किया है !"

" लंच तुम कर लो, मैं निकल रहा हूँ। ज्यादा बात करने का टाइम नहीं है।"

"अरे तो भूखे रहोगे ?"

"आकर खा लूंगा न यार। अब रखो, मुझे  देर हो रही है ।" मैंने फोन काट दिया।किक स्टार्ट किया और पिछली सीट पर इन मुसीबतज़दा मैडम को आज तीसरी बार बिठा कर ले चला । 

सर्दियों के दिन बहुत छोटे होते हैं।शाम तेजी से गहराने लगती है । देखते ही देखते अंधेरा बढ़ने लगा।मुझे अचानक अपने कंधे पर हाथ का दबाव महसूस हुआ तो मैंने  स्पीड घटाई। सवाल आया,

"आपने अभी तक लंच नहीं किया है ?" 

"असल में हम दोनों का प्लान था कि किसी रेस्टोरेंट में लंच करेंगे पर सब गड़बड़ा गया।"

"तो कहीं रुक कर कुछ खा लीजिये न ।"

"अब आपको पहुंचा दूं, फिर देखूंगा।"

"अरे नहीं , कहीं ठीक-ठाक जगह देख कर रोक लीजिये।मैं  भी एक कप चाय ले लूंगी आपके साथ।"

" आपको देर नहीं हो जाएगी।"

"अगर हस्बेंड के साथ होती तब तो कोई बात ही नहीं थी।अब वे खुद मुझे छोड़ कर चले गए हैं तो देर क्या सवेर क्या ? वो तो आप ने लिफ्ट दे दिया वरना घर तक जाने में मेरे सात करम हो जाते।"

"फिर भी, देख लीजिए।कहीं आप परेशानी में न पड़ें ?"

"अब छोड़िए मेरी चिंता, जैसे छप्पन वैसे गप्पन! "

मैंने एक लंबी सांस ली ।

"ओके, रास्ते में पेट्रोल लेना है।वहीं हल्दीराम है , उसी में चलेंगे।"

" ठीक है।"

शहर की भीड़भरी तंग सड़कों से गुजरते हुए किसी तरह हाइवे पर पहुंचा।यहां से मैंने जो स्पीड मैंने पकड़ी तो उसने डिकी पर टिकाया हुआ अपना हाथ सीधे मेरी कमर में बांध दिया। थोड़ी ही देर में उनका दूसरा हाथ भी पीछे से आकर मुझसे लिपट गया। हालांकि अभीतक मेरी कोई बहुत ज्यादह स्पीड नहीं थी फिर भी इस शहर की ट्रैफिक में बचा कर बाइक दौड़ाने में जिस तरह की कटिंग और कर्व में मैं एक्सपर्ट हूँ, कोई भी यही करता।

"आप कहां रहते हैं ?" सामने रखे बड़े से कॉफी मग में चम्मच घुमाती युवती का सवाल था।लगा कि जैसे उसने 

पिछले करीब एक घण्टे के डर और अनजानेपन का बोझ उतार फेंका हो।

पेट्रोलपम्प के कैम्पस में ही हल्दीराम का ये नया रेस्टोरेंट खुला है।शहर से थोड़ा बाहर होने की वजह से यहां भीड़ कम होती है। सेलेक्टिव कस्टमरशिप है। सर्विस और क्वालिटी बढ़िया है।आम रेस्टोरेंट्स की तरह शोर शराबा या भागमभाग नहीं है।शांत माहौल, सभी अपने आप में व्यस्त, स्मार्ट खूबसूरत और वेलमैनर्ड वेटर्स पूरी नफासत और करीने से सर्विस करते , हंसते मुस्कुराते, इधर से उधर आते- जाते दिख रहे थे।सीमा को लेकर मैं एक बार यहां आ चुका हूँ।तभी ये जगह मुझे बहुत पसंद आई थी।खास तौर से यहां की कटोरी चाट। मैंने युवती के बारबार ना-ना करने के बावजूद इसरार करके उसके लिए भी कटोरी चाट के साथ कॉफी मंगा लिया।चाट वाकई बहुत स्वादिष्ट थी।भूख लगी थी सो खाने में वक्त नहीं लगा।अब हम दोनों कॉफी लेकर बैठे थे। युवती  के सवाल पर मैं कुछ पल अपलक उसे देखता रहा। वह फिर बोली,

"माफ कीजियेगा, इतनी देर बाद मैंने रियलाइज किया कि आपका परिचय तक नहीं पूछा ! कहाँ रहते हैं आप ?"

"केंद्रीय विहार , मैं केंद्रीय विहार में रहता हूँ।"

"क्या ? केंद्रीय विहार तो सिविल लाइंस हो कर जाना होगा। यके तो बहुत लम्बा चक्कर पड़ेगा ! सॉरी, ये तो मैंने आपको बड़ी मुसीबत में डाल दिया।" उसके चेहरे पर जैसे अपराधबोध  छा गया।

" ऐसा कुछ नहीं है।आपको पहुंचा कर मैं बाई पास से वापस जाऊंगा।दूरी तो थोड़ी बढ़ जाएगी पर स्पीड से जाऊँगा तो वक्त कम लगेगा।"

"आप बाइक काफी तेज चलाते हैं।"

"आपको डर लगा क्या ?'

"अरे बिल्कुल नहीं। बल्कि मुझे तो अच्छा ही लग रहा था।"

"ओह , शहर में संभाल कर चलना पड़ता है। यहां से वन वे रोड है। ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।"

" सच में काफी दिनों बाद  बहुत मज़ा आया।"

"क्यों, ऐसा कैसे?"

" नहीं , कोई खास बात नहीं। बस ऐसे ही कह दिया।"

"आपके हसबेंड भी तो येज़्दी ही न चलाते हैं ? तो फिर बहुत दिनों बाद कैसे ?"

"वो क्या है कि मेरे हसबेंड स्लो चलाते हैं।"

"  अपनी-अपनी हॉबी होती है।"

" आपका नाम क्या है?" अचानक जैसे बात बदलते हुए उसने सवाल किया। 

" मेरा नाम विनोद शर्मा  है, और आप ?"

" मैं संगीता ....संगीता सिंह हूँ।"

"चलिए इस आपाधापी में अभी तक हम अजनबी थे अब कम से कम परिचय तो हुआ।"


   बाहर ठंडक के साथ ही अंधेरा भी बढ़ गया था। अच्छा खासा कोहरा सड़क पर उतर आया ।स्टैंड से बाइक उतार कर किक लगाई तो इंजन की गड़गड़ाहट से पूरा कैम्पस गूंज गया।संगीता ने अपने दुपट्टे को मफलर की तरह सर और कान पर कस कर बांध लिया । उसके बैठते ही मैंने गाड़ी आगे बढ़ाई। मेन रोड पर आने के बाद मैंने मार्क किया कि उसके बैठने का अंदाज़ बदल चुका है।वह सीट के दोनों तरफ पैरों को लटकाकर बैठी थी।दोनों हाथ मेरी कमर में , पर इस बार उसके हाथों का घेरा जरा तंग महसूस हो रहा था। उसकी ठुड्ढी मेरे कंधे पर आ लगी थी। आगे से आती हुई तेज हवा के बावजूद इत्र की मादक सुगन्ध रह-रह कर मेरे आगे तैर जा रही थी।मैनें हैंडल पर लगे बैक व्यू मिरर को संगीता के चेहरे पर फोकस किया। उसकी आंखें बंद थीं और चेहरे पर अतीव प्रसन्नता लिए मीठी सी मुस्कान स्थिर थी।मैनें पूछा,

"आपको डर तो नहीं लग रहा ?"

" बिल्कुल नहीं, आप अपने हिसाब से ड्राइव कीजिये।" कहते हुए उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा कर मेरे सीने से होते हुए कंधों पर जमा दिए। सत्तर की स्पीड में संगीता के भरे पूरे ज़िस्म को महसूस करना कुछ नया सा अनुभव लग रहा था।  जल्द ही स्पीड की सुई मेरी फेवरेट नव्वे-पंचान्न्वे के दरमियान थिरकने लगी। मिरर में संगीता के चेहरे पर बालों की एक घनी काली लट  दुपट्टे के घेरे से आज़ाद होकर 

अठखेलियाँ करती लहराने लगी। होठों पर कुछ शब्दों की बुदबुदाहट थी जो हवा के वेग में सुनाई नहीं दे रही थी। वैसे भी इस स्पीड में सड़क पर निगाह जमाए रखना जरूरी होता है अन्यथा तनिक सी गफलत में एक्सीडेंट होते देर नहीं लगती।

आगे जाती गाड़ियों को मैं लगातार ओवरटेक कर पीछे छोड़ता जा  रहा था। ऐसे में आती सांय-सांय की आवाज से मेरे कंधों पर कसे हुए संगीता के हाथों का दबाव बार बार कम ज्यादा हो रहा था। कई दिनों बाद खुली और बढ़िया सड़क पर खुलकर बाइक चलाने में मुझे भी वाकई मज़ा आ रहा था। इस वक्त मुझे सामने सड़क और पीछे नारी देह के सघन स्पर्श की प्रगाढ़ अनुभूति के अतिरिक्त कुछ भी याद नहीं रह गया था।ऐसा लग रहा था जैसे किसी ऐसी अंधेरी सुरंग में घुसता चला जा रहा हूँ जिसका कोई ओर छोर नहीं दिख रहा।

काफी देर बाद झटके से जैसे मेरी तन्द्रा भंग हुई ।एकनिष्ट ड्राइविंग में लगा ही नहीं कि हम कितनी दूर निकल आए।मैंने स्पीड कम करते हुए पूछा,

"अभी और आगे चलना है ?"

" सच बोलूं ?"

" अरे, बताइयेगा तभी न रोकूंगा। मुझे आपकी सोसायटी की लोकेशन का आइडिया नहीं है।"

" मन तो यही कर रहा है कि हम ऐसे ही चलते रहें।"

" माफ कीजियेगा मैडम, मुझे घर भी लौटना है।"

"ऐसी पिलियन राइडिंग में वाकई बहुत मज़ा आता है।"

" वो तो है पर रुकना कहां है ?"

" घबराइए मत , थोड़ी दूर और चलिए , बस अब आ ही गए हैं।"

"ओ के ।"

करीब एक किलोमीटर बाद विक्रमनगर सोसायटी का बड़ा सा नियोन साइन इंडिकेटर बोर्ड भी दिखने लगा।

गेट पर रुकते ही सिक्योरिटी गार्ड पास आ गया । संगीता को पहचान कर  उसने मुझे आगे बढ़ने का इशारा किया।मैंने पूछा,

"अब आप यहां से तो चली जाएंगी न ?"

"जी नहीं, अंदर चलिए न प्लीज़ ।"

गार्ड खुले गेट का एक पल्ला पकड़े मेरे आगे बढ़ने का इंतज़ार कर रहा था। मैंने अब रुकना मुनासिब नहीं समझा। दाहिने बाएं रास्ता बताती हुई अपने टावर के बाहर की पार्किंग में संगीता ने बाइक रुकवाई। यहां घुप्प अंधेरा था। मोड़ पर एक लैम्प पोस्ट का मरकरी रॉड सीमित घेरे में मरी सी रौशनी दे रहा था।सामने थोड़ी दूर पर टावर लिफ्ट के पास गार्ड अपनी कुर्सी टेबल पर मुस्तैद था। गाड़ी रुकी तो संगीता उतर कर बगल में आ खड़ी हुई। मैं हेलमेट उतार कर हैंडिल के हुड में रखे कपड़े से हेलमेट का शीशा साफ करने  लगा।

"अब तो आप सुरक्षित घर आ गईं। मुझे इजाज़त दीजिये, मैं चलूँ ।"

"कुछ कहूँ ?"

मेरा दिल जैसे उछल कर हलक में आ गया। 

"जी कहिये।" उत्कंठा से मेरी शिराओं में खून की रफ्तार दुगुनी हो चली।

"यह तो सही है कि मैं कन्फ्यूज़न में आपकी बाइक पर बैठ गई थी पर...!"

"पर ...क्या ?"

"पर आपके साथ आज दो घण्टे की यह इत्तेफाकिया मुलाकात मेरे लिए बहुत बड़ी यादगार रहेगी।इसका शुक्रिया।"

" मुझे भी आपके साथ बहुत अच्छा लगा।"

" विनोद जी,आप बहुत शरीफ आदमी हैं। आई रिस्पेक्ट यू। एक प्रॉमिज़ कीजियेगा ?"

" जी, कहिये।" धड़कते दिल से  मैं बोला।

"आज के बाद कभी  भी कहीं भी,  मैं मिल जाऊं तो प्लीज़ मुझे इग्नोर कर दीजियेगा, बॉय ।"

कहकर संगीता तेजी से बढ़ कर लिफ्ट में समा गई।


51   -

हम बिस्तर

[ 24 जुलाई , 1957 ]

अशरफ़ अली


- अब लेटे ही रहोगे?

- कुछ देर और।

- मुझे अच्छा नहीं लगता बाद में भी देर इस तरह से....।

- बाद में तुम कितनी जल्दी एक कुतिया की तरह अलग हो जाना चाहती हो। 

- तुम एक ठंडी लाश से भी उतनी ही उत्तेजना की आशा करते हो जितनी...।

- आखिर क्या है जो चुक जाता है तुममें इस आवेश के साथ-साथ?

- तुम्हारे जैसा धैर्य नहीं है मुझमें अपने आप को इस तरह लिथड़े हुए बर्दाश्त करने का। 

- तुम लड़कियां कितनी जल्दी बिखर जाती हो। 

- तुम इसे बिखरना कह सकते हो? तुम...?

- क्यों? यह सवाल क्यों? आखिर सवाल ही क्यों?

- हां होना तो नहीं चाहिये कोई भी सवाल। हम एक दूसरे को लेकर कुछ भी सोच सकते हैं। 

- क्या?

- कुछ भी, क्योंकि हमने अपने बीच तमाम सवालों को दफ़्न जो कर दिया है। लेकिन क्या हमने कुछ नये सवालों को नहीं पैदा किया है?

- इससे मुझे इंकार नहीं। वह पैदा होने वाली चीज हमारे जीने का एक नया तजरुबा भी तो हो सकती है। तुम बार बार समाज को समाज के सवालों को अपने बीच ले आती हो। सोचो तो कि हम इस वक्त किसी के बारे में नहीं सोच रहे हैं। 

- सिर्फ अपने बारे में सोच रहे हैं। और सच तो यह है कि अपने बारे में भी नहीं सोच रहे हैं। इस बिस्तर के बारे में सोच रहे हैं। इस बिस्तर के बारे में भी नहीं सोच रहे हैं बल्कि उस गर्मी के बारे में सोच रहे हैं जो इस पर हम एक दूसरे के लिए पैदा कर सकते हैं। आखिर कब हम किसी चीज के बारे में सोचने लगते हैं और कब सोचना बंद कर देते हैं? कभी सोचा है तुमने?

- तुम अक्सर सोचने लगती हो। 

- यानी हमेशा नहीं। 

- ...........

- तुम सवाल को टाल क्यों रहे हो?

- कहां टाल रहा हूं।

- कहो कि मानीख़ेज़ बना रहा हूं। जीने के नये तजरुबे में ढाल रहा हूं। क्या किसी सवाल को लेकर हमेशा परेशान होना ही ज़रूरी है? क्या यह सवाल हमसे एकदम ज़रूरी तौर पर नहीं जुड़ गया है?

- तुम इन बातों को लेकर बेकार परेशान होती हो जबकि कुछ भी 

- होने का नहीं और शायद परेशान होकर तुम्हें भी परेशान कर देती हूं। 

- नहीं ऐसी बात .... 

- नहीं है। मैं ऐसा कहकर शायद अपने आप ही तुम्हारे लिए खुद को ज़रूरी साबित कर रही हूं जैसा कि नहीं है। क्योंकि कोई भी किसी के लिए एकदम से इतना ज़रूरी नहीं है। लेकिन इसीलिए वह इतना ज़रूरी है जो मेरे तुम्हारे नज़दीक आने से जन्म लेता है। 

- तुम कभी कभी एकदम ट्रेडीशनल दिखने लगती हो। 

- गुनाह है?

- नहीं। लेकिन .... 

- नहीं क्योंकि गुनाह शब्द ही ट्रेडीशनल है। 

- ........ 

- मुझे अफ़सोस इस बात का नहीं है कि तुम चीज़ों को समझते हो। बल्कि इस बात का है कि इतनी आसानी से समझते हो। इस समझने और न समझने के बीच बस इतना ही तो फ़ासला है कि जिसे हम नासमझ होकर करप्शन कहते हैं समझदार होकर ‘‘लिब’’ की बात करते हैं या करप्शन शब्द को ही डिक्शनरी से निकाल देते हैं। 

- हम न परिभाषा बदलते हैं और न ही डिक्शनरी से निकालते हैं बल्कि हर चीज बदलती ही है। 

- तुम्हारा शब्दों से और चीजों से खिलवाड़ का शौक वही पुराना है। तुम कहोगे कि हम इन तमाम चीजों को एक किनारे रखकर भी तो सोच सकते हैं। रहे भी हैं। इस बिस्तर तक आने के लिए ऐसा करना ही पड़ता है। तुम यह क्यों नहीं सोचते कि सोचने का यह ढंग सिर्फ हमारे बीच वह भी इस बिस्तर तक महदूद रह सकता है क्योंकि हमारे बीच वह चीज है जिसके बारे हम चाहते हैं कि कोई सवाल न हो। 

- तुम फिर ऐसा सोचने लगीं?

- नहीं सोच कहाँ रही हूँ। सोचती तो आती ही क्यों? लेकिन जरा देर को तुम सोचो कि हम तमाम समाजी सवालों के बीच ख़ुद ब ख़ुद एक सवाल हैं और पूछ रहे हैं कि क्यों?

- जिन्हें तुम समाजी सवाल कहती हो बाक़ी दुनिया में...

- क्यों हर चीज़ को अपनी घड़ी, कपड़ों, टेपरिकार्डर की तरह आयातित बनाते हो तुम? ज़मीन बदल कर सोचने के लिए क्या यह ज़रूरी है? हमारी ज़मीन तो तभी बदल जाती है जब हम इस तरह का कोई क़दम उठाते हैं। वह क़दम आखिर यहीं उठाते हैं अपनी ही ज़मीन पर। फिर क्यों एक बार तो हम समाजी सवालों की ज़मीन पर जलन महसूस करते हैं और फिर इतनी दूर पराई जमीन पर उतरने की हिमाक़त करते हैं। 

- तुम हर चीज़ को जब तल्ख़ होती हो पराया कहती हो, जबकि किसी भी चीज के साथ तुम्हारा बर्ताव पराया नहीं हो सकता। चाहे वह मर्द हो वेस्टर्न कल्चर हो और हद तो यह कि तुम्हारी भारतीय सभ्यता हो। बी सीरियस टू योर इंगेजमेण्ट ओनली। 

- तुम मर्द जब-जब हमारी जिंदगी में आते हो हमें इसी तरह गिरगिटी रंग दे जाते हो। 

- कोई किसी को रंग देता नहीं। बी सीरियस। इस तरह सोचकर एक आम लड़की की तरह परेशान होगी जो सोचती तो सब कुछ है लेकिन फिर खुद से ही मर्द के रंग में रंगने को उतावली रहती है। 

- वह मर्द उसकी ज़िंदगी भी तो हो सकता है। 

- जरूरी नहीं। 

- वह भी। 

- इसीलिए कहता हूं अपने आपको अपनी ज़रूरतों के रंग में रंगने की कोशिश करो और उसी रंग में पहचानने की भी। 

- लेकिन तुम ज़िंदगी के बारे में नहीं सोचोगे। 

- क्या वह अपने आप में किसी ज़रूरत से अलग है?

- नहीं क्योंकि जीने के लिए वह ज़रूरी है। किसी भी तरह.... ग़रज़ इस तरह से है। 

- तुम औरतें बहुत सोचती हो लेकिन सिर्फ सोचती हो। 

- ठीक कहते हो। तुम मर्द कभी भी सोच सकते हो, कभी भी सोचना बंद कर सकते हो। बात सिर्फ मौक़ों और रिश्तों के नज़ाकत की है। 

- क्या अब हम थोड़ी देर के लिए सहज नहीं हो सकते?

- होना ही होगा। हमारी ज़िंदगी में यह सब कुछ जितने अनिवार्य रूप से आ गया है। उसके होते हमें ये बातें असहज लगें स्वाभाविक ही है। कभी कभी मैं भी ऐसा ही सोचती हूं कि हमारी सहजता और असहजता की धारणा कहां से कहां तक पहुंच गयी है। 

- ............ 

- फिर सिगरेट?

- ओह। तुम्हें यह चीज बुरी क्यों लगती है? थोड़ी देर के लिए उस चीज के बारे में भी सहानुभूति के साथ सोच लिया करो जिसका इस्तेमाल तुम नहीं करती।

- लेकिन इसकी महक से ....

- लो बुझाये देता हूं। 

- इतने औपचारिक क्यूं हो रहे हो?

- नहीं तो, हो कहां रहा हूं? ... अच्छा तुम्हारे और मेरे अलावा तुम्हारे और किसी और मर्द के बीच इससे बेहतर अंडरस्टैंडिंग है?

- तुम मर्द हमेशा अपने आपको तौलने की कोशिश करते हो। शायद तुम लोगों को हमेशा अपने बेमतलब हो जाने का अंदेशा बना रहता है। 

- खैर वह तो हर औरत को भी होता है।

- क्यों होता है?

- शायद इसीलिए कि हम एक दूसरे का विकल्प तैयार रखते हैं। 

- यह बात हँसकर तो कहने की ज़रूरत नहीं थी। मैं मैके जाने जैसी कोई धमकी तो दे नहीं सकती। 

- लेकिन और बहुत कुछ है जो इस धमकी से बड़ा है। यह मैंने जब जब तुम्हारे शरीर को तौला है, जाना है। 

- ईष्र्यालु। 

- ..... 

- फिर हँसे। 

- अब तैयार हो लो नहीं तो फिल्म नहीं मिलेगी। 

- उठो भी। 

- तुम्हें जींस में आना चाहिये था। 

- लो उस दिन तुम्हीं ने कहा था कि साड़ी में तुम्हारा सेक्स और उभरता है। 

- अगली बार जींस में ही आना। 

- तुम्हारी पसंद भी ख़ूब है। हर चीज़ में कई संभावनाएँ खोज लेते हो। 

- सच पूछो तो हर चीज़ की संभावना एक ही होती है जैसे हर लड़की की संभावना किसी के बिस्तर तक। 

- तुम इससे बेहतर तरीक़े से नहीं सोच सकते। 

- तुम लड़कियां रूमानी होती ही हो। जब भी सोचोगी किसी मर्द के दिल-दिमाग पर छा जाने की। इससे अलग कोई सच्चाई गले के नीचे नहीं उतरेगी। 

- साॅरी। मैं कभी कभी परेशान हो जाती हूं.... सोचती हूं हमारे इस तरह जीने की संभावना क्या है?

- सोचने का तरीका अच्छा है। 

- ......

- ओह बी ईज़ी। इस तरह तो सवालों की फांके निकलती ही चली जायेंगी। तुम किस किस की संभावना पर विचार करोगी? बस यूं समझो कि हर चीज एक जगह जाकर चुक जाती है। फिर चुकने के पहले उसे इंज्वाय क्यों न किया जाय। यही उसकी संभावना है। डोंट बी एथिकल। वरना अभी तुम चुकने के बाद की संभावना पर सोचने लगोगी। दैट्स वल्गर। 

- तुम चीजों के बारे में विचार खूब रखते हो। 

- एण्ड यू एडमिट।

- पता नहीं। 

- कितना अच्छा है किसी चीज़ को जानते हुए भी न जानना। खास तौर से इस इन्नोसेंस के साथ। 

- या उस चीज़ की शक्ल पर ग़ौर ही न करना। 

- .......

- आखिर कोई चीज है ऐसी हमारे बीच जिसे हम जानते भी है नहीं भी जानते। 

- तुम कभी कभी बहुत सोचने लगती हो। ख़ास तौर से बिस्तर से उठने के बाद। 

- तब शायद मैं इन्नोसेंट नहीं रह जाती। 

- तुम फिर तल्ख़ होने लगी। 

- हमारे बीच किसी भी तरह की तल्ख़ी या किसी भी तरह की मुलायमियत का कोई अर्थ है क्या? खास तौर से बिस्तर से उठने के बाद। तब शायद कोई भी रूमानी होकर नहीं सोच सकता। 

- ओह डोंट बी सिली। मेरे कहने का मतलब वक़्त को बिना किसी ओवर बर्डेन के इंज्वाय करने से था। 

- वक़्त को तुम इस सावधानी से पता नहीं निचोड़ सकते हो या नहीं लेकिन किसी भी औरत को ज़रूर निचोड़ सकते हो और वह किसी भी तरह का ओवर बर्डेन नहीं होगी तुम्हारे लिए। 

- तुम समझतीं क्यों नहीं। आख़िर हमारा ऐसा हर क़दम इस निचोड़े जाने के ख़िलाफ़ ही तो होता है अब तक की समाजी हिस्ट्री पर ग़ौर करके देखो कि किस तरह औरत को निचोड़ा गया है। फिर भी तुम ऐसा कहती हो। 

- पता नहीं मुझे ऐसा कहना चाहिये या नहीं। 

- तुम हमेशा इधर उधर की सोचने लगती हो। 

- प्लीज़ मुझे और नर्वस न करो। पता नहीं क्यों इस तरह की बातों से मेरा दिल बैठने लगता है। 

- किसी डाक्टर से सलाह क्यूँ नहीं लेतीं। 

- देखूँगी। 

- बी केयरफुल। जिंदगी को जीना सीखो जिंदगी के साथ खिलवाड़ मत करो। 

- ओह मत छुओ मुझे। पता नहीं जिं़दगी के बारे में सतर्क कैसे हुआ जा सकता है। कभी तो लगता है कि सब कुछ एक खिलवाड़ है। तुम कभी कभी उपदेश देते हो या आदेश मैं फ़र्क़ नहीं कर पाती। तुम्हें देना चाहिये या नहीं यह भी नहीं जानती। कभी कभी लगता है यह सब कुछ मेरे लिए एक बर्डेन होता जा रहा है। 

- मुझे मालूम है अब तुम इसी तरह बकवास करोगी। करती ही जाओगी। अब बाहर निकलते हैं। 

(2)

- मुझे मालूम था तुम देर तक यूं ही पड़े रहना चाहोगे।

- तुम जानती हो। लेकिन .... 

- जानना ही होता है एक बिस्तर पर साथ कुछ वक़्त गुज़ारने की ग़रज़ से। 

- तुम जब भी सोचोगी इस तरह सोचोगी कि ख़ुद को तकलीफ़ दे सको। आज हमारा वक़्त कितना अच्छा गुज़रा। 

- वाक़ई यक़ीन दिला सकते हो मुझे क्योंकि यह गुज़रा ही मेरे और तुम्हारे बीच है। इसके बाद शिकायत या शक की गुंजाइश ही कहां रह जाती है? 

- लेकिन फिर भी तुम्हें कुछ होता जरूर है। 

- वही जिसे तुम नज़रअंदाज़ कर जाते हो। वह चीज जो तुम्हारा साथ पा लेने की सुविधा से उत्तेजित करती है, बाद में उतना ही अकेला छोड़ जाती है। मुझे महसूस होता है कि इसके बाद खिड़कियां खुलेंगी। दरवाजे खुलेंगे। परदे भी हट जायेंगे। हल्का हल्का अंधेरा बाहर की रोशनी में घुल जायेगा। शाम को हम कुछ इस तरह जैसे कुछ हुआ ही नहीं अपनी तबीयत से कुछ वक़्त गुज़ार पाने के सिमटते हुए एहसास के साथ अपने-अपने घरों को लौट जायेंगे, फिर ऐसे ही किसी मौक़े की उम्मीद में। इसीलिए बाद के इन लम्हों के रोशनी में इस तरह गुम हो जाने का इंतज़ार करती हूँ कि हमारे चेहरों पर उसकी एक भी शिकन न हो। 

- तुम हर चीज़ को बाहर की रोशनी में तस्लीम किया जाना ज़रूरी समझती हो वरना वह चीज़ तुम्हें इसी तरह कुरेदती है?

- क्यूँ होता है, ऐसा?

- कुछ चीजें जितनी आसान होती हैं, उतनी मुश्किल भी क्योंकि उनके रास्ते में आदमी ख़ुद आ जाता है। 

- यानी आदमी को आदमी की इस आसानी के रास्ते में नहीं आना चाहिये। 

- हर आसानी अपने आप में कितनी मुश्किल होती है- हासिल किये जाने तक। 

- हाँ सच। आदमी को अपने आप को ही कन्विंस करना होता है, किसी ऐसी चीज़ के लिए तैयार करना होता है जिसके बारे में वह जानता भी हो, नहीं भी जानता हो भले ही वह चीज़ इतनी आसान हो। 

- इस वक़्त तुम कितनी समझदार लग रही हो। 

- तुम सच कभी अच्छी बात कह जाते हो लेकिन अच्छी नीयत से नहीं। 

- तुम बेकार मेरी नीयत पर शक करती हो। 

- हां बेमानी जो है। शक हम किस चीज़ पर करें? इस रिश्ते पर? एक दूसरे पर?

- एक दूसरे के और दूसरे अफ़ेयर्स पर?

- तुम आदमी और आदमी का फ़र्क़ नहीं जानती। नहीं जानतीं कि वह हर जगह एक सा होता है और हर जगह अपनी शक्ल से दूसरों की शक्ल मिला रहा होता है। कभी कितना शक़ होता है उसे खुद के लोगों के बीच स्वीकृत होने पर क्योंकि भीड़ में वह कुछ बेदाग़ चेहरे ढूंढ़ रहा होता है। 

- हाँ यह तुम पहले ही कह चुके हो कि मेरा बर्ताव किसी भी चीज़ के साथ पराया नहीं हो सकता चाहे वह मेरी शक्ल हो चाहे ग़ैर की। हो सकता है कि कल जब मुझे समाजी सवालों के बीच पहचानने की कोशिश की जाय तो मैं उसी पहचान को ओढ़ लूँ।

- हाँ एक पहचान होती ही है आदमी की। 

- कितना फ़र्क़ है पहचान और पहचान के बीच। आदमी ख़ुद को किस शक्ल में पहचानता है और किस शक्ल में पहचाना जाना चाहता है। 

- तुम आदमी को उसकी वास्तविकता में स्वीकार कर ही नहीं सकतीं।

- शायद हाँ, शायद नहीं। हम हमेशा बड़ी चीज़ों के बारे में सोचते हैं। सोचते हैं कि हमारे पास एक अलादीन का चिराग़ हो। हम आदमी की उस हालत के बारे में नहीं सोचते जब उसके पास यह चिराग़ न हो। इस तरह हम एक बहुत छोटी चीज़ हासिल करते हैं- जैसे फिलहाल यह बिस्तर। कैसी आयरनी है इस स्वीकार और अस्वीकार की। 

- कभी कभी तुम्हें देखकर सोचने लगता हूँ कि तुम किसी चीज़ के प्रति सिंसियर नहीं हो सकतीं। कभी तुम्हें यही बड़ी चीज़ नज़र आती है, कभी बहुत छोटी, वाक़ई आयरनी ही है। 

- हाँ तुम ऐसा ही कहोगे क्योंकि चीज़ों के छोटा हो जाने का डर तुम्हें शायद नहीं सताता। 

- तुम सुखी नहीं हो? संतुष्ट नहीं हो? 

- गोया तुम्हें भी शक है।

- मैं ऐसा नहीं समझता। 

- यह सुख यह संतुष्टि कभी लगता है मरीचिका के पीछे दौड़ते हुए तपती रेत पर पांव रखने से कम नहीं है। 

- तुम कभी एकदम से पिघल जाती हो। 

- यही फ़र्क़ है आदमी और आदमी के बीच का। 

- इस फ़र्क़ के बीच तुम अपनी शख़्सियत को बांटती रहो, क्या मिलेगा इससे?

- अगर वह आपसे आप बँट जाती हो तो? हमें मालूम है कि हमें अभी रोशनी में जाना है। 

- तुम हर चीज से परेशान हो जाती हो। 

- तुम कितनी शिकायतों के बीच मुझे ला खड़ा करते हो और तुम्हारी हर शिकायत किस कदर एक हिदायत होती है- जीने के इस तरीक़े को लेकर। 

- तुम तो हर बात को हौवा बना लेती हो। 

- तुम उठ क्यूं गये? मैंने कहा तो नहीं था। क्या मैं अपनी कैफ़ियत के बारे में भी नहीं सोच सकती। 

- बाद में तुम्हें हर चीज नियति की तरह एक मजबूरी एक बर्डेन ही लगती है। लेकिन ज़रा देर पहले... 

- मैं जानती हूँ कि हमारे बीच ऐसी हर चीज़ बेमानी है- तुम्हारा यह ग़़ुस्सा भी। लेकिन जो चीज़ मानीख़ेज़ है, जो हमें यहां तक ले आती है, क्यों वही ये सब बातें पैदा करती है। हम ज़रा देर पहले किस तरह एक दूसरे के टैंपरामेंट का ख़याल रखते हैं, एक दूसरे की रुचियों की क़द्र करते हैं और ज़रा देर बाद ही एक दूसरे के सवालों से भी भागने लगते हैं। आख़िर यह क्या है?

- तुम हर चीज को एक नाम देना चाहती हो। 

- क्यों? एक शिकायत यह भी?

- तुम कितनी जल्दी टूट जाती हो? आख़िर कब मैंने तुम्हें तुम्हारी शख़्सियत से कम करके देखा है?

- हां जल्दी चलो यहां से। हर चीज कितना नाकाफ़ी होती है और किस तरह दूसरी चीज़ों में बदल जाती है। हम जिस शिद्दत के साथ यहां आये थे उसी शिद्दत के साथ यहां से जाने की सोच रहे हैं। 

- तुम क्यूं छोटी छोटी बातों में अपने को इस तरह क़ैद करती हो?

- पता नहीं। मैं खुद को क़ैद करती हूं या हो जाती हूं- खुद ही नहीं जानती। 

- शायद हमारा जीने का यह तरीक़ा आगे कोई और शक्ल ले तब तक सब कुछ इसी तरह है, इसी तरह रहेगा। हमारे बीच तमाम सवाल रोज़ इसी तरह छूट जाते रहेंगे। कभी हम सवालों से भागेंगे, कभी सवाल हमसे। ... बहुत प्यास लगी है, थोड़ा पानी दो। 

- शाम तुम्हारे घर आऊँ?

- गुड्डू को तुम्हारा आना जाना पसंद नहीं। बेकार बात बढ़ती है तुम्हारे आने के बाद। 

- कुछ शक होने लगा है क्या उसे?

- लगता ऐसा ही है, वैसे कहता यही है कि तुम्हारा आना उसे पसंद नहीं। 

- आख़िर भाई है। 

- देखो इन रिश्तों का नाम लेकर मत हंसा करो। मुझे लगता है जैसे चिढ़ा रहे हो तुम।

- यहाँ तक आने के बाद भी। 

- हाँ यहाँ तक आने के बाद भी कुछ ऐसा बचा रहता है जो इन रिश्तों के बीच होता है। कम से कम उसे मत छीना करो मुझसे। 

- ओह, लेट अस कम आॅन सम अदर टाॅपिक। 

(3)

- ठीक तो हो?

- हां। 

- किसी ने कुछ कहा तो नहीं?

- नहीं। 

- आयीं नहीं!

- .......

- क्या कोई जान गया था?

- नहीं। 

- बुझी बुझी दिख रही हो। 

- ......

- कुछ बोलो तो सही। 

- अब नहीं होगा मुझसे यह सब। 

- क्या हुआ तुम्हें?

- ....... 

- वही जो हो जाया करता है?

- ........

- चलो ना। कितना इंतज़ार किया मैंने। फिर ढूँढ़ता ढूँढ़ता यहाँ आ पहुँचा। देख रहा हूँ यहाँ लान में बैठी हो। इतना उदास क्यूँ हो?

- .......

- आओ चलते हैं। फ्रेश हो जायेंगे। 

- नहीं अब नहीं। इस ताज़गी के लिए हम अपने आपको कितना बासी कर लेते हैं। 

- इतनी ज़िद हमेशा तो नहीं करतीं। 

- मैं ज़िद नहीं कर रही। 

- तुम बराबर निश्चय-अनिश्चय के बीच झूलती रहती हो। 

- क्या करूं चाहती तो नहीं। लेकिन कुछ चीजों के हाथों आदमी मजबूर होता ही है-वह एकदम आॅटोमैटिक नहीं हो सकता। 

- कभी इस सबके बिना तुम्हें जिंदगी आॅटोमैटिक लगती थी। चाभी दी गयी गुड़िया की तरह। 

- क्या अब नहीं? क्या सोचते हो तुम?

- मेरे संपर्क में आने के पहले ही तुम...

- जानती हूँ। तुम्हें दोष नहीं दे रही। हमारे बीच जो चीज़ है वह शिकायत के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। न मैं किसी सवाल का सहारा लेकर तुम्हें पकड़ सकती हूं न मुझे तुम। 

- फिर भी तुम इस वक्त ऐसा कुछ मत सोचो तो बेहतर होगा। मौसम कितना सुहाना है। 

- नहीं अब इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। 

- तुम्हें समझाना हमेशा मुश्किल होता है। 

- हां ऐसी बात के लिए जिसके लिए समझाना पड़े खुद को भी दूसरे को भी। वह चीज़ कितनी ऊपरी होती है। हमारी सारी ज़िंदगी में घुल कर भी कितना अलग अलग और साफ़ दिखाई दती है। 

- नहीं। तुम देखकर भी नहीं देखतीं कि ज़िंदगी किस तरह तमाम अलग थलग और साफ़ दिखाई देने वाली चीज़ों को तस्लीम करती है। 

- बरदाशत नहीं करती?

- .......

- आदमी जब पैदा होता है तब भी अपनी भूख के लिए भी एक रिश्ते के साथ पैदा होता है-वही रिश्ता उसे सब कुछ देता है। बाद में तमाम चीज़ें उसे समझाई जाती हैं। इस तरह से समझी और समझायी गई हर चीज ज़िंदगी भर उसके हाथ पांव हिलाने के साथ एक सवाल की तरह जुड़ी रहती है। सोचो हम सारी ज़िंदगी इन सवालों की कश्मकश में गुज़ारते हैं। 

- ये आज तुम्हें हो क्या गया है? काफी सीरियस दिखने की कोशिश कर रही हो। 

- यक़ीन करो। मैं एक दुनियादार आदमी की तरह नहीं बोल रही जो तमाम सवालों के बारे में जानता है-लेकिन सिर्फ जानता है। 

- कब तुम दुनियादार हो जाती और कब नहीं रहतीं?

- जानते हो तुम। 

- कभी तुम्हारी बातों पर यक़ीन करने को जी चाहता है-ऐसे ख़ास मौक़ों पर जब तुम सारे फ़ैसले दूसरों पर छोड़ देती हो। 

- सच। ..... आदमी कितना अविश्वसनीय हो जाता है कभी अपनी तमाम ईमानदारी के बावजूद। 

- साॅरी। मेरा मकसद तुम्हें हर्ट करने का नहीं था। 

- हाँ हम यह भी नहीं जानते कौन सी बातें आम हालात में आदमी के आत्मसम्मान को छू जाती हैं। हमने अपने आपको हमेशा ख़ास समझने की हिमाक़त जो की है।

- अब मैं क्या कहूं, जब तुम ऐसा सोचने लगी हो?

- कुछ कहने को कुछ सुनने को कुछ अनदेखा कर देने को कुछ पाने को और कुछ खोने को फिर भी रह जाता है जब हम अपनी किसी संभावना के अंतिम बिंदु पर होते हैं। अब मैं एक ऐसे ही बिंदु पर हूं कि पिछला सब कुछ भूल गया सा लगता है, लेकिन फिर भी आगे देखते हुए बस डर ही लगता है। 

- तुम कभी एक चीज़ से एक आदमी से एक स्थिति से संतुष्ट नहीं रह सकी हो। तुम इसे ही शायद संभावना के नाम से पुकारती हो। 

- तुम कह सकते हो। तुम संभावना से अलग कोई नाम दे सकते हो। इसे एक यथास्थिति भी मानकर चल सकते हो। 

- लगता है अब हमारे बीच कुछ भी बाक़ी नहीं रह गया है। कुछ भी जिसका वास्ता दिया जा सके। 

- हां, यादों पर रह गये निशानों को झुठलाया जा सकता है, छिपाया जा सकता है। क्या सोच रहे हो तुम?

- कुछ नहीं क्या रह गया है सोचने को। 

- कितने तल्ख हो रहे हो। 

- कुछ भी कह लो। 

- हां इस बिंदु पर आकर। 

- तुम मेरी बातों में हमेशा अपनी तरफ़ से कुछ जोड़ देती हो। 

- तुम जानते हुए भी स्वीकार करना नहीं चाहते कि तुम सिर्फ़ उस चीज़ के बारे में सोचते हो, जिसकी तुम्हें तलब होती है। 

- पहले इसी तलब के लिए कितनी उतावली होती थीं तुम।

- तुम हमेशा एक ही बात कहते हो। 

- तुम किसी बात पर टिकतीं नहीं। 

- ........

- हम एक दूसरे की कमज़ोरियाँ जानते हैं। हम आदमी मैं। 

- अफ़सोस तो इसी बात का है कि हमने इतनी आसानी से मान लिया है कि हम आदमी हैं। 

- तुम्हें हर बात एक फ़रेब नज़र आती है। 

- हम कभी फ़रेब से दूर भी तो नहीं रहे। 

- अब चुप रहना ही अच्छा है। 

- हां बचाव का यह रास्ता अच्छा है। चुप रहकर हम तमाम ऐसे सवालों से निकल सकते हैं। 

- मैं नहीं समझता कि मुझे इसकी ज़रूरत है। 

- हां सवाल तुम्हें यूं भी नहीं छूते। 

- कम से कम तुम्हारी तरह। 

- हां अब कुछ नहीं रह गया है जो हममें काॅमन हो। तुम्हारे पास कुछ जो मेरी तरह हो। 

- किसी के भी पास क्या रह जाता है किसी की तरह?

- लेकिन ऐसे कुछ लम्हे जरूर होते हैं जिन्हें एक तरह से गुजारते हैं। ऐसे कुछ लम्हे कितनी आसानी से हमारे हाथों से फिसल जाते हैं। 

- तुम हमेशा इस या उस चीज का मातम करती नज़र आती हो। तुम नहीं सोच सकतीं कि हमारे हाथ में जब वक़्त का एक लम्हा होता है तब दूसरा नहीं होता। 

- लेकिन ऐसा ही कोई लम्हा हमारी सारी जिंदगी की सोच में ठहर जाता है। 

- इसीलिए उसका हाथ में न होना खलता है? 

- नहीं बल्कि इसलिए कि कभी वह हमारे हाथ आया ही क्यों?

- अब तुम्हारे लिए जिंदगी एक शिकायत बनकर रह गयी है। 

- तुम्हें हमेशा मेरी बातों से शिकायत रही है। 

- जिंदगी को एक तरीक़े से जीते हुए तुम हमेशा दूसरे तरीक़े के बारे में सोचती रही हो। 

- अब रहने दो इस बात को यहीं। शायद इस तरह से सोचना ही हमारा सबसे बड़ा सच हो। 

- तुम्हारी आंखों में आँसू?

- मुझे कोई शिकायत नहीं है तुमसे। हमारे दिन कैसे भी बीते बीत तो गये हैं। लेकिन मुझे इस आज पर तो रो लेने दो। सब कुछ आज पहले जैसा क्यूं नहीं हुआ? आज जैसा सब कुछ पहले क्यूं नहीं हुआ? कितने सवाल हैं हमारे बीच, सिर्फ सवाल। 

---

कथा-गोरखपुर की कहानियां 


कथा-गोरखपुर खंड-1 


मंत्र ● प्रेमचंद 

उस की मां  ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र 

झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा  ● श्रीपत राय 

पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी

लाल कुरता   ● हरिशंकर श्रीवास्तव 

सीमा  ● रामदरश मिश्र 

डिप्टी कलक्टरी  ● अमरकांत 

एक चोर की कहानी  ●श्रीलाल शुक्ल

साक्षात्कार  ● ज ला श्रीवास्तव 

अंतिम फ़ैसला  ● हृदय विकास पांडेय 


कथा-गोरखपुर खंड-2 

पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी 

मां  ● डाक्टर माहेश्वर 

मलबा ● भगवान सिंह 

तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह 

पेड़  ● देवेंद्र कुमार 

हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर  ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव

सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव 

दस्तक ● रामलखन सिंह 

दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव 

इतिहास-बोध ●विश्वजीत  


कथा-गोरखपुर खंड-3 

सब्ज़ क़ालीन  ● एम कोठियावी राही 

सौभाग्यवती भव  ● इंदिरा राय 

टूटता हुआ भय  ● बादशाह हुसैन रिज़वी 

पतिव्रता कौन  ● रामदेव शुक्ल 

वहां भी ● लालबहादुर वर्मा 

...टूटते हुए ● माहेश्वर तिवारी

डायरी  ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल 

मद्धिम रोशनियों के बीच  ● आनंद स्वरूप वर्मा 

इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप 

यह तो कोई खेल न हुआ   ● नवनीत मिश्र 

कथा-गोरखपुर खंड-4 

आख़िरी रास्ता  ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव 

जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल 

प से पापा  ● रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत 

सेनानी, सम्मान और कम्बल ● शक़ील सिद्दीक़ी 

कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी

अपने भीतर का अंधेरा  ● तड़ित कुमार 

गुब्बारे  ● राजाराम चौधरी

पति-पत्नी और वो  ● कलीमुल हक़ 

सपना सा सच ● नंदलाल सिंह 

इंतज़ार  ● कृष्ण बिहारी 


कथा-गोरखपुर खंड-5 

तकिए  ● शची मिश्र 

उदाहरण ● अनिरुद्ध 

देह - दुकान ● मदन मोहन 

जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल  

रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार 

रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव 

ट्रांसफॉर्मेशन ●उबैद अख्तर

भूख ● श्रीराम त्रिपाठी 

अंधेरी सुरंग  ● रवि राय 

हम बिस्तर ●अशरफ़ अली


कथा-गोरखपुर खंड-6 

भगोड़े ● देवेंद्र आर्य

एक दिन का युद्ध ● हरीश पाठक 

घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय 

खौफ़ ● लाल बहादुर

बीमारी ● कात्‍यायनी

काली रोशनी  ● विमल झा

भालो मानुस  ● बी.आर.विप्लवी

तीन औरतें ● गोविंद उपाध्याय 

जाने-अनजाने   ● कुसुम बुढ़लाकोटी

ब्रह्मफांस  ● वशिष्ठ अनूप

सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव 


कथा-गोरखपुर खंड-7 

पत्नी वही जो पति मन भावे  ●अमित कुमार मल्ल    

बटन-रोज़  ● मीनू खरे 

शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद  

डाक्टर बाबू  ● रेणु फ्रांसिस 

पांच का सिक्का ● अरुण कुमार असफल

एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल

उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत

धोबी का कुत्ता ●सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '

कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी 

तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय

राग-अनुराग ● अमित कुमार 



कथा-गोरखपुर खंड-8  

झब्बू ●उन्मेष कुमार सिन्हा

बाबू बनल रहें  ● रचना त्रिपाठी 

जाने कौन सी खिड़की खुली थी ●आशुतोष 

झूलनी का रंग साँचा ● राकेश दूबे

छत  ● रिवेश प्रताप सिंह

चीख़  ● मोहन आनंद आज़ाद 

तीसरी काया   ● भानु प्रताप सिंह 

पचई का दंगल ● अतुल शुक्ल 


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