Friday 22 April 2022

कथा-गोरखपुर , खंड - 3

 

पेंटिंग : अवधेश मिश्र , कवर : प्रवीन कुमार 



सब्ज़ क़ालीन  ● एम कोठियावी राही 

सौभाग्यवती भव  ● इंदिरा राय 

टूटता हुआ भय  ● बादशाह हुसैन रिज़वी 

पतिव्रता कौन  ● रामदेव शुक्ल 

वहां भी ● लालबहादुर वर्मा 

...टूटते हुए ● माहेश्वर तिवारी

डायरी  ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल 

मद्धिम रोशनियों के बीच  ● आनंद स्वरूप वर्मा 

इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप 

यह तो कोई खेल न हुआ   ● नवनीत मिश्र 












21 -

सब्ज क़ालीन 
[ जन्म : 1935 - निधन 21 सितंबर , 2005 ]

एम0 कोठियावी ‘राही’


मेंहनत मशक्कत करके किसी को देखता हूँ तो बेसाख्ता हँसी आ जाती है ये मेंहनत मशक्कत क्यों की जाती है कुछ पाने के लिए ही ना ? और मेंहनत मशक्कत के बगैर कुछ मिल जाता है तो उसको क्या कहता है किस्मत ना ? 

ऐसी किस्मत वाले इस मुल्क में अनगिनत हैं। इन्हीं अनगिनत लोगों में एक मैं भी हूँ जिसे मेंहनत मशक्कत के बगैर सब कुछ मिला हुआ है। हवेलियाँ जमीन किस्म-किस्म जायदादें, दोस्त-एहबाब और जाने कितने ही चाहने वाले। मेरे लिए अगर कोई मुसीबत है तो बस एक ही है ? मेंहनत मशक्कत करने वालों का हुजूम-आये दिन    इन्कलाब जिन्दाबाद कहता हुआ मेरी शहर वाली हेवली को घेर लिया करता है। अक्सर दिन का चैन-रात की नींद हराम हो जाती है गन्दी बस्तियों की गलाजत में रेंगने वाले ये कीड़े जिनके अस्तित्व पर हँसी भी आती है और गुस्सा भी।

एक दिन मैंने सोचा कि अब इन्कलाब बाजों की खबर लेनी चाहिए। अपनी ये बात एक दोस्त से कही जो मेरी तरह खुद भी इन्कलाब बाजों से सख्त नाराज था उसने मुझे सियासत में शामिल होकर इलेक्शन लड़ने का मुशविरा दिया और वह भी उस पार्टी के टिकट पर जो वाकई इन्लाब के कोख से जन्मी थी उस पार्टी में मुल्क में हर तरफ तूती बोल रहा था मगर मुश्किल ये थी कि हम जैसे जन्म-जम के अमीर-कबीर को इस इन्कलाबी पार्टी के लोग मुँह क्यूँ कर लगाते। यह मुश्किल भी मशविरा देने वाले दोस्त ने हल कर दी और मुझे आनन-फानन टिकट मिल गया। किस्मत की खूबी देखिए कि अपने मद्दे-मुकाबिल को शिकस्त देने में मैंने किसी तरह कामयाबी हासिल कर ली और इस तरह पाँच वर्षों के लिए एम0एल0ए0 बन बैठा।

मशविरा देने वाला दोस्त कौन था और कहाँ था, क्या नाम था, क्या काम करता था मेंहनत मशक्कत करने वाला कोई आम आदमी थी या मेरी तरह किस्मत का धनी बेफिक्रा औबास जो जन्म-जन्म का अमीर-कबीर था और जिसे मेंहनत मशक्कत के बगैर ही सब कुछ हासिल था इन सारे सवालों का जवाब यह है कि वह मेंहनत मशक्कत करने वाला कोई आदमी था न मेरे जैसा कोई खानदानी रईसे-आजम । इसके बावजूद वह एक जबरदस्त पहुँच वाला आदमी था। बड़े-बड़ों को जीत लेना उसके बाँये हाथ का खेल था शायद यही उसका पेशा था मुझे भी कमबख्त ने बुरी तरह जकड़ कर रखा था टिकट दिलवाने के एवज मैंने उसकी माली मदद भी की थी पूरे 10 हजार रूपये दिये थे और देने से पहले कहा कि जब आयें तो लौटा देना। ये लौटाने की बात इसलिये कही थी कि हमेशा गिरफ्त में रहे। वैसे वह एक कलमकार की हैसियत से खास शोहरत का मालिक था।

मैं इलेक्शन में कामयाब हुआ, डेवढ़ी सदैव भरी रहने लगी, दूर-दूर से लोग आने लगे, किसी को नौकरी की दरकार होती थी, किसी को ट्रान्सफर या ट्रान्सफर की मंसूखी, किसी को गाँव में ट्यूबवेल और घर में बिजली चाहिए थी, किसी को राशन की दुकान, कोई बैंक से रोजगार के लिए कर्ज के लिए सिफारिश, कोई अपने हल्के के पुलिस के जुल्म का शिकार, कोई पार्टी में किसी खास ओहदे का तलबदार, किसी को पासपोर्ट के कागज पर दस्तखत की जरूरत। मैं अन्दर ही अन्दर इन बेवकूफ जरूरतमंदों पर कुढ़ता और दिखाने के लिए उन सबसे मुस्कुरा-मुस्कुरा कर मिलता और निहायत खूबसूरती से टरकता देता। इन जरूरतमंदों में वह भी थे जिन्हें पूर्व में मैंने या मेरे पुरखों ने तरह-तरह की यातनायें दी थी एक दफा एक ऐसा शख्स भी सिफारिश के लिए आया जिसके बाप को खुद मैंने गाँव पर आम के पेड़ से बंधवाकर पिटवाया था इससे नजर मिलाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी मगर खुदा का शुक्र है कि दूसरे गरीबी की तरह उसकी याद्दाश्त भी कमजोर थी वह भी कल के इस जल्लाद का आज का मसीहा समझ रहा था।

अलबत्ता मेरी आँखें अब तरस रही थी अपने उस पुराने दोस्त को देखने के लिए जिसकी बदौलत आज मैं अवामी शख्सियत का मालिक बना हुआ था न जाने क्या बात थी कि अब वह इधर का रूख भी नहीं करता। कहाँ वह दिन हर-दूसरे-तीसरे आना, घण्टों बैठना, इधर-उधर की सुना, कहाँ ये दिन कि महीनों से लापता, मुझे उसकी यह अदा कत्तई भी अच्छी न लगी। मैं यह महसूस करने लगा कि वह खुद को बहुत ऊँचा समझ बैठा है मेरा यह एहसास अन्दर ही अन्दर क्रोधित कर देता है उसके जैसे लोग कितने ही लोग मेरे इलाके में सौ-दो सौ रूपल्ली पर बेगार करते थे और दूसरी दुनिया में पहुँच गये आज भी उसके जैसे कितने लोग इस कुम्बे की खिदमत कर रहे है। बाबू और सरकार कहते-कहते इनकी जबानें घिसती जा रही है और वह न जाने किस दुनिया में है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उस मुकाम पहुँचाकर अब अन्दर ही पछता रहा हो कि एक शख्स को अवाम का मसीहा नहीं होना चाहिए जिसने हमेशा अवाम का शोषण किया हो। वह लोग खुद को बुद्धजीवी कहते हैं हम ऐसों को किसी भी सूरत में अवाम-दोस्त नहीं मानते हैं एक तरह से उनका यह सोचना दुरूस्त भी हो सकता है वाकई हमने छोटों का जब मौका मिला तो शोषण ही किया है मगर यह भी सोचने की बात है कि शोषण का अधिकार हमने किसने दिया है, किस्मत ही ना ।

एक दिन मैं अपने नये दोस्त के साथ कार द्वारा एक मिनिस्टर से मिलना कि अचानक गाड़ी मुझे रोक देनी पड़ी वह सामने से चला आ रहा था सर निकालकर आवाज दी करीब आकर रूका और हँसता हुआ बोला कहिए विधायक जी सब खैरियत है ना आप पहले अन्दर आइये मैंने गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए कहा।

मगर कहाँ की तैयारी है वह चहक कर बोला आप जिसके पास जा रहे है बंगले पर मौजूद नहीं है।

आपको क्या पता हम किसके पास जा रहे है।

मंत्री जी से मिलने जा रहे है।

हाँ वह अभी-अभी एयरपोर्ट के लिए रवाना हुए है, मैं मिलकर आ रहा हूँ वह गर्व से बोला मंत्रिपरिषद का विस्तार होने वाला है मैंने फिर आपकी सिफारिश कर दी है।

मेरी सिफारिश। मैं दोस्तों की तवज्जों हटाने के लिए मैंने कहा छोड़िए अपनी खैरियत बताइये। आइये काफी हाउस चलते है।

अच्छा-अच्छा कहता हुआ कार के अन्दर आ गया और निहायत बेतकल्लुफी से मेरे बगल में बैठ गया। इसका यह अन्दाज मुझे कत्तई पसन्द न आया। पिछली सीट पर बैठे लोग मेरे व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे एक फटीचर से आदमी की इस हरकत ने यकीनन उन्हें कुछ और सोचने पर मजबूर किया होगा। मैंने अपनी झेंप को छिपाने के लिए जानबूझकर उसकी हैसियत गिरानी चाही ’किसी के गाड़ी लिफ्ट’ नहीं मिली। आप की तरह लिफ्ट देने वाले कई मिले मगर अफसोस आपकी तरह वह बेवकूफ नहीं था।

मुझे छोड़कर गाड़ी में बैठे सभी लोग हैरत में पड़ गये, मैं तिलमिलाकर रह गया। गाड़ी स्टार्ट कर दी और काफी हाउस पहुँचकर कहा - काफी पीनी हो तो आइये।

एक शर्त पर उसने कहा-कैसी शर्त खैर कहिए नहीं पिलाऊंगा वह फिर चोट दे गया। मेरे साथ के लोग नये थे वह यकीनन उन लोगों में बड़ा बन गया होगा।

मैं खिसियाना सा एक कुर्सी पर लुढ़क गया और जल्द ही छुरी की धार तेज करते हुए एक कारी वार कर दिया, आज कल शायद बेकारी में गुजर रही है गुजर-बसर की कोई स्थायी सूरत निकली ? जी हाँ, जी नहीं वह हड़बड़ा कर बोला वही लिखना और सिर्फ लिखना अपना मुकद्दर है भाई ।

बेकार और कमजोर चीजें लिखने से फायदा मैंने दूसरा वार किया। मगर  तुम अभी लिखना भी तो नहीं जानते भई कुछ ऐसा लिखो जिसकी मार्केट में माँग है जासूसी नाविल बहुत बिक रहे है महीने में दो-चार भी लिख दो चार-छः सौ मिल ही जायेंगे। कई पब्लिशर मेरे दोस्त है सिफारिश कर दूँगा।

उसके चेहरे का रंग सुर्ख होने लगा था मेरी गिरती छवि को जैसे सहारा मिल गया हो। मेरे साथ के लोग अब यकीनन यूँ ही सा राईटर समझने लगे होंगे। मगर कमबख्त ने फिर एक चोट लगाई-मेरी तहरीर आप जैसे मुट्ठी भर लोगों के लिए नहीं होतीं। मैं अपने जैसे बेशुमार लोगों के लिए लिखता हूँ मेरे नई नाविल की भारी रायल्टी मिलने वाली है और वह भी मेरी मर्जी के मुताबिक एक मुश्त कुछ रूक फिर कुछ कहा मैं अब उन लोगों के बारे में लिख रहा हूँ जो हम जैसों की बदौलत जनता के प्रतिनिधि बन बैठे हैं जबकि उन्होंने हमेशा जनता का शोषण किया है। अब आप ही बताइये जमींदारों, जागीरदारों से सेठों, साहूकारों, सूधखारों को जनता और उनकी समस्याओं से कहाँ और किस जमाने मंे गरज रही है इस मामले में आप जरा खुद को भी टटोलिए।

उसकी ये अचानक तकरीर शायद मेरे नये दोस्तों पर असर करने लगी थी सब उसके बकवास में गुम हुए जा रहे थे अचानक मैंने बेवजह एक जोर का कहकहा लगाया और यह कहकर उसकी बात काटने की कोशिश की कि-अच्छा भाई पीने के लिए काफी तुम मँगाओ और खाने के लिए चीजें मैं मँगवा दूँगा। इस वक्त शायद तुम भूखे भी हो।

जी हाँ जरूर भूखा हूँ उसकी चुभती हुई बातें और बढ़ गयी-मगर ये भूख भी फर्जी है आपके व्यक्तित्व की तरह-लीजिए काफी आ गये मौज फरमाइये और बताइये  आपकी तकरीरें आज कल कौन लिख है किस भाव से लिखवा रहे हैं ? उसका नाम भी बता दूँ मगर आप समझ गये होंगे वह जो वही उसका नाम भी है। अपनी कलमकार-अपनी फजीहत के बावजूद मैंने उसे फिर एक बार याद किया। इस मौके पर जब मंत्रिमण्डल में तीसरी बार विस्तार हो रहा था शायद वह मेरे लिए कुछ कर सके। मैं उसके घर कम ही गया हूँ काम पड़ने पर हमेशा रईसजादों ने छोटों गरीबों को भी अपने सर पर बैठा लिया है और सर बैठाने के लिये बदबूदार गली-कूचों में जाने से परहेज नहीं किया। उसके छोटे से किराये के मकान में जाकर उससे मिला उस समय वह कुछ पढ़ रहा था, मुझे देखते ही किताब फेंकी और उठा आगे बढ़कर हाथ मिलाते हुए खैरियत दरयाफ्त की। अचानक पधारने की वजह भी पूछा मैंने बिला संकोच अपनी बात बताई। उसने कुछ सोचा और बोला-यार मैं आपको एम0एल0ए0 बनवाकर आजमा रहा था आप कत्तई नाकारा साबित हुए-क्या कहा...? मैंने बाद में सोचा कि अवाम की खिदमत अवाम दुश्मन लोग कैसे कर सकते हैं। मैं कहा कि मैं समझा नहीं।

जो लोग सदियों से गरीब लोगों का खून चूसते चले आ रहे है क्या उनकी फितरत बदल सकती है, नहीं, कभी नहीं, मैंने गलती की। आप समझे जो मैं कहा रहा हूँ तो सुनिए साँप आदमी नहीं बन सकता और आदमी साँप बन सकता है मगर हमेशा के लिए नहीं और साँप हमेशा साँप ही रहता है। साँप का सर कुचल दिया जाता है अगर वह आम इन्सानों में पहुँच जाता है। क्या आप इस्तीफा नहीं दे सकते ? कलमकार अब मेरा लहजा सख्त था मुझे मालूम है आप क्या कहना चाहते है-तुमसे यह उम्मीद नहीं थी अफसोस अभी मेरे कलम वह ऊर्जा नहीं आ सकी है काश मैं आप जैसे लोगों से दूर ही रहा होता। तुम एक मामूली कलमकार हो किससे मुखातिब हो यह भूल गये - इसलिये कि एक मामूली कलमकार हूँ मगर अफसोस अभी तक मामूली कलमकार भी नहीं बन पाया, काश आप जैसे के साया से भी देर रहा होता।

कलमकार मेरा लहजा और ऊँचा हो गया था यह सही है कि मैंने अपनी जायदाद, अपनी जमीन अपने इलाके को बचाये रखने के लिए मैं राजनीति के मैदान में कदम रखा है मगर शायद भूल रहे हो कि उसके बगैर भी पुरखों की इस विरासत की सुरक्षा कर सकता हूँ। तुम जैसे टटपूँजिये को मुँह लगाकर मैंने बड़ी भूलकर मैं गली में आ गया। कुछ दूर चैड़ी सड़क के किनारे खड़ी अपनी सुर्ख कार की तरफ तेजी से बढ़ गया मेरे रगों में खून की जगह जहर दौड़ रहा था। कलमकार ने शायद मुझे वाकई साँप बनाकर रख दिया था मैं उससे इन्तकाम की सोच रहा था।

इत्तेफाक देखिये उसकी एक जवान खूबसूरत बहन थी जो बेवा हो चुकी थी बुरी तरह बीमार हो गयी। मुझे मालूम है कि किराये के छोटे से मकान में और कोई नहीं रहता था बस यही दो भाई-बहन थे वह अपने बहन को बहुत चाहता था जो उम्र में उससे बहुत छोटी थी मैंने पता लगाया कि कलमकार बहुत परेशान है कलम की कमाई कुछ ज्यादा तो होती नहीं कभी कुछ मिल गया और कभी कुछ नहीं फिर भी उसके घमण्ड का इलाज जरूरी था। कलमकार के गरीब पड़ोसी उसे बहुत मानते थे मगर किसी दौलतमंद की तरह मदद करने वाले तो थे नहीं। 

उसकी बहन का मर्ज बढ़ता गया बड़े इलाज की जरूरत थे उसी दौरान मैंने एक खास शख्त को भेजकर पता लगाया कि नये नाविल की रायल्टी कई हजार रूपये आ गयी है, फिर बहन को लेकर लखनऊ पहुँच गया और कीमती इलाज शुरू किया। शायद उसके बहन को क्षय रोग था आखिरी स्टेज पर।

लखनऊ के भीड़-भाड़ वाली एक सड़क पर एक शाम फिर मुझे अपनी गाड़ी रोक कर कलमकार को आवाज देनी पड़ी। वह उस समय कुछ ज्यादा ही परेशान नजर आया। मैंने उसे जबरदस्ती अपनी गाड़ी में बैठा लिया और अपने मकान पर ले आया। तसल्ली के कुछ शब्द कहे उसके आँख में आँसू आ गये मैंने ढाँढ़स बंधाई और कहा इलाज पर जो भी खर्च आयेगा मुझसे ले लिया करना जब हो लौटा देना-उसने शुक्रिया अदा किया। मैंने पूछा कि इस समय पैसे हैं ना ? उसने जेब से निकालकर 8 हजार रूपये के नोट की गड्डी मेरे हाथ पर रख दिया और बोला इन्हें आप रखें जरूरत पड़ने पर ले जाया करूँगा।

वह 8 हजार रूपये मेरे ब्रीफकेश में सुरक्षित हो गये। कलमकार चला गया दूसरी सुबह इंजेक्शन के लिये पाँच सौ रूपये मांगने आया तो मेरे पूर्व का जमींदार जो एक सूधखोर साहूकार भी था अचानक मेरी आत्मा में मिल गया। मुझे लगा कि मैं अपने परदादा की सब्जकालीन से ढँकी चैकी पर संदल की एक संदूक्ची खोलकर बैठा हूँ दो मूछटण्डे एक दुर्बल देहाती को उसके दोनों सूखे हुए हाथों और बाजुओ को  बांधकर ले आये हैं दुर्बल देहाती अपनी गन्दी सूखी हुए जबान निकाले बुरी तरह से हाॅफ रहा है उसका पेट धँसा हुआ है, हड्डियाँ निकली हुई है, मेरे अन्दर का परदादा हँस रहा है। मूछटण्डे मुझे चाहत की नजरों से देख रहे है वह कह रहा है कि अब मेरा बेटा सरकारी चाकरी करेगा जमीन मत लिखाओ मुझे छोड़ दो। उसके हाथ खोल दिये जाते थे अंगूठो जबरदस्ती स्याही पोती जा रही है एक पुराना स्टाम्प पेपर संदूक्ची से निकाला गया है फिर एक लरजते अंगूठा का स्याह निशान उजले मटमैले कागज पर लगा दिया जाता था हाथ फिर बंध जाते है वह दुर्बल देहाती चीख-चीख कर रो रहा है अब उसकी चीख धीरे-धीरे दूर होती जा रही है परदादा के हजारों बिघहो में एक बिघहे की बढ़ोत्तरी हो जाती है।

मेरा ब्रीफकेश अचानक मेरे दादा की संदूक्ची बन गया है मेरा विधायक मुझसे अलग होकर किनारे खड़ा है मैं परदादा बना गुस्से से काँप रहा हूँ मेरी गरजदार आवाज गूँज उठी है।

कलमकार साहब आपने पिछले साल मुझसे दस हजार रूपये लिये थे याद है, वह बोला हाँ याद है। लौटाना भूल गया था लौटा दूँगा मैं कहकहा लगाया और फिर कहा बाकी दो हजार का इन्तजाम भी जल्दी कीजिए मुझे जरूरत है।

जी विधायक जी वह हड़बड़ा सा गया-यह क्या फरमा रहे हैं।

वह रूपये खैरात में नहीं दिये थे कलमकार साहब बाकी दो हजार रूपये का इन्तजाम बहुत जल्द कीजिए। फिरहाल आ जा सकते है यह कहकर मैंने अपने परदादा की तरफ सर घुमा लिया न जाने कब तक वह मेरे सामने खड़ा रहा और न जाने कब चला अलबत्ता उसके कभी के कहे गये ये शब्द अचानक मेरे कानों में गूँज उठे है।

सुनिए साँप आदमी नहीं बन सकता और आदमी साँप बन सकता है। मगर हमेशा के लिए नहीं और साँप हमेशा साँप रहता है, साँप का सर कुचल दिया जाता है अगर वह आम इंसानों में पहुँच जाता है - क्या आप इस्तीफा नहीं दे सकते?

22 -

सौभाग्यवती भव
[ जन्म 3 दिसंबर , 1936 ]

इंदिरा राय


अम्मा की सहेलियों की एकाध सिसकी, बाहर बाँस की टिकठी बनाने की ठक-ठक आवाज और बीच-बीच में ठेठ पूरबी अन्दाज में कुसुमी का “अरे मोर भउजी” का स्वर भीड़ भरी निस्तब्धता को भेद रहा था। नीरा ने अम्मा के
अँकड़े पैरों में महावर लगाते हुए आँखों को रगड़ लिया था सम्भवतः जबरन आँसू लाने के प्रयास में, महावर लगी आँखें लाल टुहठुह अड्हुल के फूल के समान दिख रही थीं-कुसुमी ने सब कुछ भुलाकर नीरा को दढुलराया, 'जाव
दुलहिन, आँख धो आव, सवेरे से रोअत-रोअत का हाल भइल...”

तभी किसी ने पूछा था, “सिंधौरा कहाँ है?”

दुछत्ते पर रखे कबाड़ वाले काठ के बक्से में पड़े अम्मा के सिंधौरा की जानकारी केवल मुझे थी। बचपन में आले में रखा कलावे से बँधा चमकीले लाल रंग का सिंधौरा मेरी दृष्टि को चिपका लेता था, एक दिन उसे ही बेरहमी से उठा कर अम्मा को दुछत्ती पर फेंकते देखा था-बाद में न जाने कब उसे कबाड़ के बक्स में स्थान मिल गया। कबाड़ वाले बक्से में ज्यादा ढूढ़ना नहीं पड़ा। समय की मार ने सिंधौरा को भी भदरंग बना दिया था। तब तक मौसी बाबू जी को बुला लाई थीं।

“जीजा जी, अपने हाथ से दिदिया की माँग भर दो।

बाबू जी का चेहरा तमतमा गया। काँपते हाथों से सिंधौरा के इर्द-गिर्द चिपके सिन्दूर को उन्होंने अम्मा की माँग में भरा तो बरसों की सूनी माँग जगमगा गई। माँग में सिन्दूर भरना अम्मा ने न जाने कब से छोड़ दिया था। किसी ने कभी टोका तो कहती, सिन्दूर लगाने से माँग में जलन पड़ती है।

लाल चुनरी में लिपटी प्राण विहीन देह में न जाने कहाँ का सौन्दर्य उमड़ पड़ा था। वैसे पहनने ओढ़ने की अम्मा शौकीन थीं। कड़कड़े कलक की रंगीन सूती साड़ी पहन कर मुख में पान दबा कर अपनी सहेलियों में जब वह बैठती तो अपने गरिमापूर्ण व्यक्तित्व से सबसे अलग-धलग दिखती थीं-परन्तु इस समय तो वे बीरबधूटी से दबी जूही की मुरझाई पंखुरी जैसी लग रही थीं।

बाहर अर्थी तैयार हो चुकी थी-अनुपम अम्मा के पैरों को पकड़ कर फूट-फूट कर रो पड़ा...कैंसर-मौत की सच्चाई-निरन्तर समीप आती यमदूतों की मुखरित पगचाप, अम्मा का पल-पल छीनता शरीर और असहूय पीड़ा को झेलने
का उनका अनथक प्रयास, कितना तराशने वाला अनुभव था। इसे मुझसे अधिक कौन जान सकता है? क्‍या बाबू जी और अनुपम जो नित्य निकल पहुँचती हुई मृत्यु की प्रतीक्षा में ऊबे हुए थे? फिर अब यह रोना धोना कैसा? अपने इस बेपनाह झरते हुए आँसुओं के बीच मेरा मन इतना क्रूर शल्य चिकित्सक क्यों होता जा रहा है-क्या अन्तिम यात्रा के समय सारे राग-द्वेष गर्भगृह में बंद हो जाते हैं। रह जाती है विशुद्ध रागात्मक अनुभूति...'बबुआ मत रोवो, भउजी भरल पुरल गइलीं, रोइले से उन कर आतमा के कष्ट होई। कुसुमी ने लम्बे चौड़े अनुपम को अँकवार में समेटना चाहा....

भरा पूरा शब्द कितना रीता हो जाता है जब रेत को कस कर मुट्ठी में बंद किया जाए। अँगुलियों की दरारों से कब सारी रेत निकल जाती है पता ही नहीं चलता और मुट्ठी भरी पूरी जैसी बन्द रह जाती है।

'राम नाम सत्य है” अर्थी उठ गई। अब अम्मा का मुख कभी नही देख पाऊँगी, उनके स्पर्श, गंध और स्वर से वंचित होने की कल्पना से वेग से फूटती रुलाई को दाँत भींच कर मैंने रोका-मुझे कुसुमी की लिजलिजीं सान्त्वना नहीं चाहिए। अपने प्रति मेरी इस घृणा से वह भलीभाँति परिचित है तभी ते अनुपम और नीरा पर अपने अतिरिक्त प्यार का प्रदर्शन मुझे दिखाती रहती है।

यह कुसुमी यहाँ क्‍यों रहती है? उस रात के बाद दूसरी रात मैंने अम्मा से पूछा था। “बुआ” न कह कर कुसुमी का नाम लेते सुन कर अम्मा चौंकी थीं किन्तु अपने स्वभाव के अनुरूप मुझे टोका नहीं था।

आज अम्मा का अस्तित्व सदा के लिए शून्य में मिल जाएगा किन्तु बचपन के खण्ड-खण्ड चित्र के प्रत्येक फ्रेम में वे जीवन्त है-सुबह सवेरे हाथ में पूजा की टोकरी लिए, हनुमानगढ़ी जाती हुई अम्मा, पड़ोसियों के संग बैठ कर चाय पीतीं हुई अम्मा, बाबू जी के आफिस से आने के समय पलंग पर चादर तान कर सोई अम्मा, हम लोगों के प्रति कभी घोर आसक्ति कभी कड़वी वितृष्णा।

गोरखपुर के दक्षिण पश्चिमी छोर पर राप्ती नदी के किनारे अवस्थित हनुमानगढ़ी मंदिर की विशाल हनुमान मूर्ति से अम्मा का न जाने कैसा लगाव था। नियमित रूप से वह वहाँ जाती थी। उनके साथ-साथ वहाँ जाना मेरे लिए रोमांचक अनुभव था। एक तो हनुमान जी की मूर्ति की कम रहस्यमयी नहीं लगती थी तिस पर अम्मा की बताई लोक गाथा कि कैसे एक बार राप्ती में भयंकर बाढ़ आई थी, लगता था बाँध अब दूटा तब टूटा फिर तो पूरा शहर ही बह जाएगा। आशंकित गढ़ी के महन्त को सपना आया था-डरने की बात नहीं है हनुमान जी के चरण-स्पर्श के बाद मैं अपनी धारा समेट लूँगी और वैसा ही हुआ। इतने शक्तिशाली हैं, हनुमान जी कि राप्ती मैया उनके चरण पखारने आई थी घर से अधिक दूर नहीं है हनुमान गढ़ी, अम्मा के साथ हम दोनों भाई-बहन भी वहाँ पहुँच जाते थे जितनी देर अम्मा पूजा करती हम दोनों गढ़ी के बायें ओर के छोटे द्वार की सीढ़ियों पर खेलते रहते। सीढ़ियाँ राप्ती के किनारे तक पहुँचा देती थी। उस दिन हम लोग खेलते-खेलते नीचे पहुँच गए, अनुपम तो वहीं ठिठक गया मैं दलदली किनारे पर पैर सँभाल-सँभाल कर रखती हुई पानी के पास पहुँची ही थी कि पैर फिसल गया। नदी में नहाते हुए चरवाहे ने बाँह पकड़ कर मुझे उठाया और मन्दिर में ले आकर अम्मा से कहा था, “आज तो बहिनी डूब ही जाती ।”

अम्मा ने न पुचकारा, न दुलारा उलटे कस कर एक चाँटा जड़ दिया था। कीचड़ से लिथड़ी फ्राक में अपमानित मैं वहीं मन्दिर के प्रांगण में खड़ी रह गई। अनुपम पहले तो मुझे चिढ़ा रहा था किन्तु अम्मा के आगे बढ़ जाने पर वह गम्भीर हो गया, “चल बिट्टो, अम्मा तुझे मनाने थोड़ी ही आएँगी उन्हें तो मारना आता है अभी कुसुमी बुआ होती तो तुझे गोद में उठा लेती।

मन्दिर के फाटक के पास पहुँच कर अम्मा ठिठकी फिर पीछे मुड़कर आई और मेरा हाथ पकड़ लिया मरना तो मुझे चाहिए तू क्‍यों जान देने पर उतारू है। ” अम्मा का यह अस्फुट वाक्य अपने रहस्य के साथ मेरे मस्तिष्क
पर अंकित हो गया यद्यपि इसका अर्थ बहुत बाद में समझ में आया था।

किन्तु उस समय तो अम्मा बुरी, बहुत बुरी लगीं थीं। घर आने पर आशा के अनुरूप कुसुमी ने मुझे गोद में भर लिया-उसकी स्नेह सिक्‍त बाँहों का आधार पाकर मैं फूट-फूट कर रो पड़ी थी। 

“ ज़्यादे  चोंचले करके इन बच्चों को मत बिगाड़ो। ” अम्मा ने रूख़ाई से कहा था। मैं और कसके कुसुमी की गोद में चिपट गई। उस समय वह मुझे सबसे अधिक अपनी लगीं थी। हम दोनों जुड़वाँ भाई-बहन का बचपन उसके लाड़ प्यार की धारा के साथ आगे खिसक रहा था-अम्मा का अपना रूटीन था। मंदिर से आ कर वह तब तक पूजा गृह में बैठी रहती जब तक बाबू जी आफिस नहीं चले जाते।

बाबू जी के जाने के बाद उनका दिन आरंभ लेता। कुसुमी उसका भोजन मेज पर लगा देती। मैं और अनुपम यद्यपि सुबह से तब तक न जाने कितनी बार क्या-क्या खा चुके होते। फिर भी अम्मा की थाली में हाथ बँटाने पहुँच जाते। अम्मा को गंदगी, अव्यवस्था एकदम नापसन्द थी। कुसुमी हम लोगों के लिए भी छोटी-छोटी थालियाँ रख जाती थी। मैं तो थोड़ा रुठ ठुनक कर अलग थाली में खा लेती किन्तु अनुपम अम्मा की थाली में खाने की जिद पकड़ लेता था। मैं देखती कि अम्मा उसे खिला देती परन्तु स्वयं कुछ न खाती। शायद उनका सफाई पसन्द मन इसमें बाधा डाल देता था। प्रायः कुसुमी अनुपम को बहला देती थी, अरे ऊ तुहार महतारी पुजेरिन है उनके थाली में मत खाव, तू तो हमार राजा बेटा हव हमरे संग खाव अनुपम ढिठाई से अम्मा को देखता, चिढ़ाता, कुसुमी की गोद में चढ़ जाता। अम्मा अपनी सफाई में हम बच्चों को साफ सुधरा रहना और सफाई से जीने का महत्व समझा देती थीं जिसे हम कुछ समझते, कुछ नहीं समझते।

खा पी कर जाड़े के दिन हुए तो आँगन में, गर्मी हुई तो कमरे में उनकी सहेलियों की मडली जुट जाती। उनके पास सभी के लिए कुछ-न-कुछ था। कढ़ाई बुनाई सिलाई सभी गृहकलाओं में वे पारंगत थी। स्वेटरों के नए के नए डिजायन उतरवाना हो अथवा गले बाँह की पट्टी की ठीक फिटिंग करानी हो अथवा क्रोशिए के कुशन कवर हो, अम्मा से सभी को कुछ-न-कुछ सीखना रहता था। जिनके पास बाल बच्चों के कारण समय नहीं था उनके स्वेटरों
को बुनने में हाथ बैँटाना हो अथवा ब्लाउज या बच्चों के कपड़े काटने सिलने हों अम्मा की आवश्यकता सभी की थी। बीच-बीच में चाय पिलाने के लिए कुसुमी बुआ तो थी ही। अनुपम और मैं खेल खेल में झगड़ कर अम्मा के पास फरियाद लेकर पहुँचते किन्तु उस समय यदि वे किसी को कुछ बताती या स्वयं कुछ बनाती रहती तो हम दोनों के झगड़े को एक सपाटे से झटक देती, "जाओ मिल मिल कर खेलो, मुझे काम करने दो, अच्छे बच्चे लड़ते नहीं ।'

चाय पहुँचाने अथवा चाय के जूठे कप उठाने कुसुमी बुआ वहाँ पहुँच जाती और हम लोगों को अपने गदबदी छाती में समेट लेती। मैं तो चुप रह जाती थी, अनुपम अपने को छुड़ा कर अम्मा से लिपटना चाहता किन्तु यह तो अम्मा के मूड पर रहता कि वे उसे प्यार करेंगी अथवा कुसुमी बुआ के हवाले करेंगी।

चार बजते-बजते जब अम्मा का दरबार खाली होता तो वे उठतीं सारे घर को सलीके से संभालती। अम्मा के जादुई स्पर्श से पूरा घर सिनेमा में देखे घरों के सेट जैसा लगने लगता। हम दोनों को भी तैयार करना चाहती किन्तु अनुपम तब भी रूठा रहता था। जैसे ही बाबू जी के आने का समय होता, वे अपने कमरे में जा कर लेट कर सो जाती बाबू जी आफिस से आते हम लोगों को प्यार करते। हमारी छोटी-छोटी बातों को ध्यान से सुनते तब तक कुसुमी बुआ उनके लिए नाश्ता ले आती। जब तक बाबू जी खाते रहते वह वहीं धरती पर बैठी रहती। घर की दैनन्दिन की आवश्यक वस्तुओं को भी वही बाबू जी को बताती उसके बाद बाबू जी बाजार चले जाते।

अनुपम और मैं अम्मा से कहानी सुनने की जिद करते किन्तु उस समय उनका मूड ठीक नहीं रहता था। लगता ही नहीं था कि ये वहीं अम्मा है जो दोपहर में अपनी सहेलियों से हँस विहँस कर बातें कर रहीं थी।

अम्मा हम लोगों को अपनी पहुँच, अपनी समझ से परे लगती थी। एक दिन की घटना तो मुझे पूरी तरह याद है। स्कूल से लौटने पर अम्मा का जमावड़ा हम लोगों को बहुत बुरा लगता धा-उस दिन अनुपम स्कूल से खेल में जीत कर आया था, रास्ते भर कहता आया था आज अम्मा मुझे खूब प्यार करेंगी। किन्तु सहेलियों के बीच बैठी अम्मा ने प्रतिदिन की भाँति बिना उठे कहा था जाओ कुसुमी से खाना ले लो |

अनुपम एकदम कुढ़ गया था। बस्ता वहीं पटक कर वह बिफर गया। अम्मा बिगड़ती हुई उसे मनाने को जब तक उठी कुसुमी लपकती हुई आई और उसे गोद में भर लिया, “अरे हमार राजा, तोहरे खातिर हम खीर बना के
रखले हई, चलो। खरी अनुपम की दुर्बलता अभी तक है। उसके नाम से उस समय वह चुप हो गया किन्तु उसकी भवें चढ़ी हुई थी। आग में घी डालने का काम कुसुमी की बड़बड़ाहट कर रही थी। 'मरद खट-खट कर कमावत
है और ई चाय पानी में उड़ा देत हैं। लड़कन के दूध कम पड़ जात है पर इनके कुछ खियाल है?” अम्मा की आलोचना उस समय घाव पर रखे फाहे के समान शीतल लगी थी। अम्मा से टूटते और कुसुमी बुआ से जुड़ते हुए
बचपन उम्र की राह में पिछड़ गया। अम्मा की रूटीन को मैंने तो पहले ही स्वीकार कर लिया था अब अनुपम ने भी रोना मचलना छोड़ दिया था। हम लोग कुसुमी बुआ के कमरे में ही सोते थे। उस समय वह कितनी अपनी
लगती थी। यह तो वह चाँदनी से नहाई उजली रात की कालिमा थी जिसने मेरे सारे समीकरण बदल दिए।

किशोरावस्था की दूध धुली उम्र की बेसुध नींद जिसे कान पर बजते नगाड़े भी तोड़ने में विफल थे एक रात काँच की चूड़ी के समान चट से टूट गई। गहराई हुई रात के भारी सन्‍नाटे में बगल की खाट पर सोए अनुपम के लय बद्ध गति से सम पर आकर पल भर को थमते और पुनः गति पकड़ते। उसके खर्राटे मेरी देह में भय की अजानी सिहरन जगा देते। लगता जैसे कमरे में कोई धीमे-धीमे चल रहा है। डरते-डरते मैंने आँखें खोली। खिड़की से चाँदनी का छोटा-सा टुकड़ा टार्च के सीमित प्रकाश के समान कुसुमी की खाली खाट पर पड़ा था। शायद वह बाथरूम गई हैं, मेरा साहस लौट आया, मैं अपने बिस्तर से उठी। बाहर जाने वाला दरवाजा भिड़ा हुआ था, मैंने धीरे से उसे खोला-पिछले प्रहर की ज्योत्स्ना से स्नात नर मादा युग्म को देखकर मेरे नसों का रक्त जैसे बर्फीला पानी बन गया। प्रकृति के आदिम रहस्य को देखकर मेरा माथा घूम गया था। जैसे-तैसे बिस्तर पर आकर काँपते हाथों चादर को सिर से ओढ़ कर सारी दुनिया से अपने को छिपा लेना चाहा था। हिम के समान शीतल देह में रह-रह कर कँपकैंपी हो रही थी। शायद कुछ आहट कुसुमी को मिल गई थी। माथे का पसीना पोंछती हुई वह कमरे में आकर सीधे अनुपम के बिस्तर के पास गई। उसके खर्राटों से आश्वस्त हो वह मेरे पास आई। मैं साँस रोके पड़ी थी। आँख के कोने से बाबू जी की परछाई को अपने कमरे में जाते देख कर मैं ग्लानि के दलदल में धँसती चली गई थी।

दूसरी सुबह किसी की ओर देखने का साहस मुझ में नहीं था, लगता था जैसे मैंने ही कुछ गलत कर दिया हो...मुझे अच्छी तरह याद है उस दिन पहली बार मुझे कक्षा में सजा मिली थी। इतिहास की प्राध्यापिका प्रेमपूर्वक अपने सर्वप्रिय विषय अकबर के दीन इलाही के सम्बन्ध में लेक्चर दे रहीं थी-मैं उनकी प्रिय शिष्या थी, उन्होंने मुझसे कुछ पूछा था किन्तु मेरा ध्यान वहाँ था ही कहाँ, जो मैं कुछ सुन समझ पाती। सजा स्वरूप बेंच पर खड़े होकर मुझे
लगा जैसे मेरी देह पारदर्शी हो गई है और आत्मा नग्न। शायद सब ने मेरे विचारों के एक-एक बिन्दु को देख परख लिया है। उस दिन मैंने टिफिन भी नहीं खाया था। मेरे टिफिन को देखकर कुसुमी बुआ ने भी कुछ नहीं कहा था, ऐसे तो वह इस स्थिति में आशंकित प्यार की वर्षा कर देती थी।

रात हुई तो वह कमरा मुझे काटने लगा। मैं अम्मा के कमरे में जाकर उनसे चिपट गई, "मैं यहीं सोऊँगी।”

"क्यों क्या हुआ?” अप्रत्याशित प्यार पाकर अम्मा ने मीठे स्वर में पूछा था।

'मुझे वहाँ डर लगता है।' अम्मा से लिपट कर सुरक्षा का भरपूर अनुभव करते हुए मैंने प्रश्न किया था, “यह कुसुमी यहाँ क्‍यों रहती हैं?”

अम्मा चौंक गई थीं, उन्होंने बात टालनी चाही किन्तु मैं भी कोई कम जिद्दी थोड़े ही थी। हार कर अम्मा ने बताया था-दादी के मायके के गाँव की हैं कुसुमी। विधवा हो जाने के बाद ससुराल वालों ने निकाल दिया था। इसका भाई स्वयं गरीब था, वह क्या कर सकता था। उन्हीं दिनों हम दोनों अम्मा के गर्भ में थे। दादी से संभाल हो नहीं सकती थी, तो दादी के भाई ने कुसुमी को यहाँ के काम के लिए भेज दिया था। हम दोनों जुड़वाँ भाई-बहन ने आपरेशन से जन्म लिया था, अम्मा की हालत बचने लायक नहीं थी। ऐसे में कुसुमी ने सब संभाल लिया अम्मा तो पूरे वर्ष भर बिस्तर से लगी रहीं, हम लोगों का पालन-पोषण, घर के सारे कार्य, साथ में दादी की सेवा टहल। कहीं कोई कमी नहीं। दादी के लिए तो उसकी जान भी हाजिर थी। दादी मरने लगीं तो अम्मा से वचन ले लिया, 'इस अनाथ विधवा को कभी घर से बेघर न करना...और सच में अम्मा स्वयं घर से बेघर होती चलीं गई किन्तु अपने वचन को तोड़ा नहीं...किन्तु इतनी समझ तो बहुत बाद में आई थी उस समय तो मुझे लगता-कहाँ काली कलूटी कुसुमी और कहाँ मेरी गोरी-गोरी अम्मा।

बाबू जी भी-छिः छिः, उनके सामने आते ही मैं कुंठित होकर हट जाती थी-उन दिनों कुसुमी को मैं नए-नए कोणों से देखने लगी थी। विकसित होता हुआ मेरा अविकसित मन सहेलियों द्वारा लाए गए सस्ते रूमानी उपन्यासों को पढ़ कर जब नारी सौन्दर्य को मापने लगा तब कुसुमी की अजंता की मूर्ति जैसी गठीली देह यष्टि का रहस्य परख सकी थी।

मैं कुसुमी को देखते ही मानसिक सन्तुलन खो बैठती थी, उसका प्रत्येक काम मुझे बुरा लगता था। बहाने-बहाने मैं उस से लड़ती रहती थी। एक दिन रात को खाते समय सब्जी के रस को लेकर मैं बुरी तरह बिगड़ गई थी। कुसुमी ने चिढ़ कर कहा था, 'ज्यादे तेजी न दिखाओ। ससुराल में अपने से काम करे के पड़ी तब पता चली, सब जगह हमरे ऐसी करे वाली ना मिली ।

“नहीं चाहिए तुम्हारे जैसी करने वाली, तुम अभी चली जाओं यहाँ से। तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है यहाँ। मैं क्रोध से पागल हो रही थी, तभी बाबू जी ने आ कर एक तमाचा मेरे गाल पर मारा, “बड़ों से जबान चलाती है। यही माँ
से सीख रही हो। खबरदार जो आज से ऐसी ऊटपटाँग बातें की....”

मैं स्तम्भित अवाक्‌ अपमानित सी थाली छोड़ कर उठ खड़ी हुई, एक दम से मुझे बचपन में हनुमान गढ़ी के प्रांगण में अम्मा के चाटें की याद आ गई जिसनें मुझे कुसुमी और बाबूजी से जोड़ दिया था। अम्मा की बात का रहस्य समझ में आ गया। आज की मार ने मुझे अम्मा से जोड़ तो दिया किन्तु मैं भीतर से टूट गई थी, न पढ़ने में मन लगता न किसी काम में। छमाही परीक्षा में पहली बार असफल रही थी-अम्मा ने उस दिन बहुत दुलराया था ध्यान से मन लगा कर पढ़ो बेटी, इस वर्ष हाई स्कूल की परीक्षा देनी है तुम्हें। स्त्री का जन्म पाया है, अच्छी तरह पढ़ लिख लोगी तो किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा तेरा ही जीवन सुखी होगा। अम्मा की दर्द से गीली बातें मेरे अन्तस्तल में चिपक गई फिर मैं थी और मेरी किताबें।

पन्द्रह दिन पूर्व बाबू जी का पत्र मेरे पास आया था। यह उनका पहला पत्र था-अम्मा के कैंसरग्रस्त होने की सूचना के साथ-मेरी तो साँस जैसे रुक गई, इधर मेरी सास और पति मेरे मायके के नाम से चिढ़ते थे और उनके चिढ़ने का पर्याप्त कारण भी था-अच्छे खाते-पीते घर की इकलौती बेटी से सम्बन्ध जोड़ने जा रहे हैं यह सोचकर मेरी ससुरालवालों ने कुछ माँगा नहीं था तो बाबू जी ने कुछ दिया भी नहीं था, यहाँ तक कि बारात की आवभगत में भी कटौती की थी। मामा लाग भिन्नाए हुए थे-'क्या दिदिया, इस तरह कहीं बेटी का ब्याह किया जाता है, बीच में पड़ कर हम लोग बेकार बदनाम हो रहे हैं! अम्मा की कसमसाहट स्पष्ट दिख रही थी। सच पूछो तो अम्मा ने मामा लोगों के हाथ पैर पड़ कर मेरा विवाह तय करवाया था। बाबू जी ने इसमें तनिक भी रुचि नहीं दिखाई थी। विदा के समय नाक में छोटी से नथ और कान में नन्हीं-नन्हीं बालिया पहन कर मैं तैयार हुई तब अम्मा ने अपने बाक्स से अपना हार और कंगन ला कर मुझे पहना दिए। अनुपम आँखों में आँसू भरे मेरे पास खड़ा था, घर के शीतयुद्ध में भी हम दोनों जुड़वां किसी बिन्दु पर एक थे। परन्तु जब कुसुमी ने दरवाजे के पास से स्वामित्व पूर्ण ढंग से कहा था, 'सब कुछ बेटी को ही दे दी है कि कुछ बेटा के लिए भी है।'

तो अनुपम की आँख के आँसू ने चिन्गारी बन कर उस स्नेह तन्तु को जला दिया और फिर न कोई चिट्ठी, न पत्री, न कोई बुलावा, जैसे मुझे उस अनकिए अपराध का दंड मिला हो। फिर भी मैं अपने ससुराल वालों की कृतज्ञ हूँ कि
मुझे उन लोगों ने कोई कष्ट नहीं दिया-विवाह के बाद मैं केवल एक बार अनुपम के विवाह में आई थी। वह भी बेहद मिन्नतें खुशामद कर के, कि एक ही तो भाई है मेरा बस एक बार तो हो आऊँ फिर कभी नहीं कहूँगी जाने को।

अनुपम के विवाह में कुसुमी का बनावटी बावलापन, बेटे की कड़वी बातों को भीतर-भीतर पीती टूटती अम्मा-कुसुमी के आंचल से जब मैं छिटक गई थी तो अनुपम पर उसकी माता की पकड़ मजबूत होती चली गई थी, किशोर तरुण और युवक होते अनुपम का आक्रोश अम्मा के प्रत्येक कार्यकलाप पर अभिव्यक्त होता रहता धा-किन्तु अम्मा ने कभी अपने ममता के अधिकार का प्रदर्शन नहीं किया था, और बाबू जी-पुत्र के विवाह से प्रसन्न व्यस्त रुपये लुटाते हुए तनिक भी झिझक नहीं-मेरे लिए तो बाबू जी के पास जैसे कुछ भी नहीं था...न प्यार, न धन...। हाँ तो जब बाबू जी का पत्र आया था तो सहमते हुए मैंने माँ जी के आगे पत्र रख दिया-कैंसर के विस्फोटक शब्द ने उनकी प्रतिरोधक क्षमता पर इतिश्री लगा दी थी। पतिदेव स्वयं मुझे पहुँचा गए। यहाँ आने पर उस साँझ लगा कि घर में कहीं कुछ भी तो नहीं बदला है। बाबू जी अपने कमरे में कुछ पढ़ रहे थे। नीरा, अनुपम कहीं घूमने जाने की तैयारी में थे। कुसुमी रसोई में नौकर के साथ कुछ काम कर रही थी-अनुपम जब से कमाने लगा है घर में एक नौकर आ गया है, 'बुआ की भी आराम करने की उम्र है यह उसका कहना है।'

अम्मा अपने कमरे में सदा की भाँति चादर ओढ़ें लेटी थीं। सारा शरीर मानो गल-सा गया था, एक जीर्णशीर्ण काया जो पीड़ा झेलने के प्रयास में कम्पन से अपने अस्तित्व की सूचना दे रही थी। “अम्मा, अम्मा” मेरे रुदन भरे स्वर से उनकी पलकें खुलीं, पहचाना भी, परन्तु प्रसन्‍नता की अभिव्यक्ति को दर्द के बोझ ने कुचल दिया था-वर्षों बाद पहली बार मैंने बाबू जी से पूछा, “अम्मा को बम्बई या दिल्ली क्‍यों नहीं ले गए?

बाबू जी ने खाँस कर गले को साफ किया, “बहुत बाद में पता चला, डाक्टर ने कहा अब कोई लाभ नहीं।'

इच्छा हुई कि कहूँ अम्मा पर ध्यान देते तो कैसे नहीं पता चलता किन्तु मायके के मोह का स्वार्थ कितना विकट था कि मैं चुप रही। यदि मैंने कुछ कड़वी बात कह दी तो सम्भवतः दुबारा यहाँ कदम न रखने पाऊँगी किन्तु अनकही बातें कभी-कभी अधिक स्पष्ट हो जाती हैं-

नीरा ने सफाई दी थी-अम्मा जी कभी अपनी तकलीफ कहतीं तो पता चलता अनुपम का रोष अभी तक कम नहीं हुआ था, “अम्मा तो हमेशा अपनी जिद में ही रहीं, जो जानबूझ कर अपने को मिटाना चाहे उसे कौन रोक सकता है। दवा खाना ही नहीं चाहतीं तो बम्बई दिल्‍ली ले जा कर पैसा बरबाद करने से क्या लाभ?

मैं स्तब्ध थी बचपन में बोए गए विष बीज ने छतनार अमरलता बनकर माया ममता दया के अंकुरों को लुप्त कर दिया था। महाप्रस्थान के लिए प्रस्तुत यात्री क्‍या थोड़ी-सी प्यार भरी तसलली का भी हकदार  नहीं? अनुपम का क्रोध अपरिचित नहीं था। अपरिचित थे उसके तर्क-सम्भवतः घर की भूल ग्रन्थि तक वह भी पहुँच चुका था किन्तु इसके लिए भी उसके विचार में अम्मा ही दोषी थी।

पिछले दिनों अम्मा के पास बैठी देखती आई हूँ, कुसुमी ने अपनी तरफ से अम्मा की देखरेख में कमी नहीं की है, हाँ नीरा जब भी यहाँ आती है वह उसे बहाने से बाहर बुला लेती है। अनुपम सुबह शाम आफिस जाते-जाते एक दो बार आ जाता है कभी कुछ पूछ भी लेता है जिसका उत्तर सिर हिलाकर अम्मा हाँ या न में दे देती है। अम्मा की सहेलियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा है दिन भर वे लोग सहानुभूति प्रकट करने आती रहती हैं। जब कभी कमरा खाली होता है बाबू जी आ कर चक्कर लगाने लगते हैं। मृत्यु की आसन्न उपस्थिति ने उनमें अपराध बोध जगा दिया है और अम्मा हैं कि अभी भी बाबू जी की आहट पहचान कर अपनी कराहटों को समेट लेती हैं और एक विराट मौन पसर जाता है। कमरे की चार दीवारों के बीच...

कल शाम को बाबू जी के पास कुछ लोग आ गए थे। कुसुमी अम्मा के लिए कप में रस लेकर आई थी। नीरा मेरे साथ वहीं बैठी थी। कुसुमी ने छूटते ही कहा, दुलहिन जाव, बाहर तनि घूम फिर आव, हम भउजी के रस पिया देब ।' मैंने उसके हाथ से कप ले लिया, 'मैं रस पिला दूँगी, जाओ तुम भी जा कर अपना काम देखो ।

मन-ही-मन बुरी तरह खीझ कर मेरे मुँह से निकल पड़ा, 'कुसुमी भी खूब है अभी भी संतोष नहीं है और यह नीरा-कोई लाख कहे उसे तो समझना चाहिए-!

आश्चर्य कि अम्मा इस समय चैतन्य थीं। उन्होंने पूरी आँखें खोल कर चारों ओर देखा फिर कहा था, 'कुछ मत कहो बिट्टी , कुसुमी ने इस घर के लिए बहुत किया है।

जीवन की अन्तिम बेला में मुझे अम्मा को रागद्वेष की संकीर्ण गलियों में नहीं भटकाना चाहिए था किन्तु उनके स्पष्ट स्वर ने मुझे उस पर भ्रम में डाल दिया था मुझे लगा कि अम्मा पूरी तरह पहले जैसी स्वस्थ हैं, “किया है तो तुम्हारे सुखों पर डाका भी तो डाला है।”

'ऐसा मत कहो बिट्टी , उसका क्‍या दोष? उस अनाथ बेसहारा को इस घर में अपनी जगह बनाने के लिए सब कुछ करना पड़ा, दोष तो मेरे भाग्य का है जिसने सारे खोटे सिक्के मेरे लिए ही लिये थे। देह का कैंसर तो अभी लगा है बिट्टी , आत्मा का कैंसर तो कभी का लग गया था। जब तुम लोगों के जन्म के बाद लम्बी बीमारी के बात मेरा पुनर्जन्म हुआ था।”

इतना बोलकरअम्मा हॉफने लगी। मैंने चम्मच से रस उन्हें पिलाना चाहा एक चम्मच के बाद उन्होंने सिर हिला दिया। वह रस भी होंठ के कोरों से बाहर निकल आया था। तनिक देर में वे सो गई। सोते-सोते ही उन की आत्मा
अपना सारा दुख-दर्द मेरे कंधों पर डाल कर मुक्त हो गई थी....

'कुछ भी कहो अम्मा का आशीर्वाद दिदिया पर ही फला। मौसी की आवाज बड़ दूर से आती प्रतीत हो रही थी, मैं अपनी विचार-गुफा से उसी क्षण निकली थी।
कुछ कहो मौसी?” रात में ही फोन से अम्मा के देहान्त की सूचना पा कर मौसी आ गई थीं।

'हाँ, यह कह रही थी कि अम्मा ने आशीर्वाद तो हम सभी बहिनों को दिया किन्तु दिदिया को ही वह सच में मिल पाया था। ” मौसी अपने वैधव्य के दुख महसूसती हुई कह रहीं थीं। मुझे नानी के पत्र याद आए। प्रत्येक में
आड़े तिरछे अक्षरों से लिखा रहता था, 'सौभाग्यवती भव !'



23 - 
टूटता हुआ भय
[ जन्म :1 अगस्त , 1937 -निधन : 17 जून , 2017 ]

बादशाह हुसेन रिज़वी


उसके घाव बुरी तरह दुःख रहे थे।

फूस की उस छोटी-सी झोपड़ी में सन्‍नाया था। कुछ देर पहले बगीचे से डौंगी-पताई जो बहार-बटोर कर उसकी पत्नी लाई थी, चूल्हे के पास पड़ी थी। बच्चे डरे हुए, सहमी-सहमी आंखों से पिता की ओर देख रहे थे। पत्नी आमा हल्दी-प्याज और कडू तेल गर्म करके उसकी देह पर मालिश कर रही थी। दर्द की टीस से वह रह-रह कर कराह उठता।

पास के गांव से वह शाम को मजूरी करके लौटा था कि मड़ई के बाहर से बाबू साहब के आदमियों ने उसे पुकारा। उसे लगा कि जैसे वे उसी की राह जोह रहे थे। बसुला, आरी और मैला-सा थैला खाट पर रखा और बाहर
आ गया।

करे जियौना! बाबू साहब बुलवाये रहे, काहे नाहीं गए? बहुत चर्बी चढ़ गई है का?

-तनी मिठाई लाल हलवाई किहाँ काम रहि गवा रहा। चौखट मा दरवाजा लगावै का। उहीं गये रहेन। बस ई-तीन दिन मा...

बाबू साहब की घारी गिरी पड़ी है। बैल खुले मा भीगत है। हथिया जोरों पर है। चल अब उहीं कहे।

“अब्बे हाथ-गोड़ धोयके जुरतै....

-“चल....। बड़ी बात करत है। संतू ने उसे ठोका दिया। वह लड़खड़ा गया। उसने घबरा कर उसकी ओर देखा और चुप-चाप चल पड़ा।

वे उसे साथ लिये हुये बाबू साहब के घर की ओर बढ़ने लगे। उसने कोई हुज्जत नहीं की। सर झुकाये चलता रहा। डेवढ़ी के बाहर बैठके में बाबू साहब लोगों से गप लड़ा रहे थे। दूर ही से उसने हाथ जोड़कर दण्डवत किया।
उस पर नजर पड़ते ही वह झटके से खड़े हो गये।

क्‍यों बे हरामी! कई बार बुलवाया, तू आया क्‍यों नहीं? तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? मेरा काम करने में छाती फटती है?

-कमवा पूरा होय जाई मालिक! तनी एक मोहलत...

“चुप बे हरामख़ोर! उन्होंने एक भरपूर हाथ उसके मुंह पर जड़ दिया। वह लड़खड़ा गया और गिरते-गिरते बचा। उनका हाथ फिर हवा में लहराया।

“यह मेरी तरफ देख क्या रहा है बे ! साले मैं खूब समझता हूं, तुम लोगों का दिमाग फिर गया है। सारी शेखी घुसेड़ दूंगा। वह बेचैनी से अपना होंठ चबाने लगे जैसे उसकी बोटी चबा रहे हों। “....कमीना.... साला... । धड़-धड़ कई लात-घूंसे वह बरसाते चले गये।” ...ले जाओ इसे । गुस्से में उन्होंने एक भारी ठोकर लगाई और सिरवार की ओर देखकर इशारा किया। मालिक का इशारा मिलते ही वे सब उस पर टूट पड़े और घसीटते हुए बाहर ले आये।

“बेटा! चुपाई मारे बिहानै आयके बलहन कर देव, नाहि तो फिर तुहीं जानेव....।

उसके होंठ फट गये थे और नाक से भी खून बह रहा था। धोती के टोंगे से उसने खून पोंछ लिया। कुछ देर तक हवेली के बाहर खड़ा फटी-फटी आंखों से देखता रहा। स्वतः उसकी मोटी-खुरदुरी उंगलियां कसती चली गईं।
सिर को झटक कर अपने से बड़बड़ाता हुआ वह चल पड़ा।

...मुफ्त में काम करो, गाली-मार ऊपर से। कौनो इनके दवायल-बसायन भी नाहीं। पहिले डेढ़ बीघा जमीन, जब बाबा जियत रहे हर, ज्वाठा, पट्टी-पाटी बनाने के एवज में मिली रही। उहौ नदी के किनारे। हर साल बाढ़ बहाय
ले जात रही! बीया-मेहनत उलटे से दण्ड। कबका उहौ छोड़ दिया है। तब्बौ जबै देखो तबै...।

उसे याद आया इसी तरह बल्कि इससे भी ज्यादा बुरी तरह उसके बाप को भी इनके पिता ने पीटा था। बाबा को पिटते हुये वह देखता रहा था। कर ही क्‍या सकता था। दो-एक बार अपने में हव तड़पा भी था। गाली भी निकल गई थी मुंह से। उसे याद आया...बाबा गिड़गिड़ाते रहे, दुहाई देते रहे, लेकिन बड़के बाबू साहब का हाथ दना-दन हंटर बरसाता रहा था। उस दिन भी गलती कुछ नहीं थी। बाबू साहब की चौकी का मचबा दरक गया था। बाबा बीमार थे। उन्हें जर आ रहा था। तीन-चार दिन देरी हो गई नहीं जा सके थे। बस इसी पर...। अपनी चोट में वह अपने बाबा का भी दर्द महसूस करके और भी बेचैन हो गया।

“..आह! बस...यही! थोड़ा और मल दो। अ...हां! कराहते हुए उसने पत्नी से कहा और करवट बदल ली। उसकी पत्नी ने हल्दी वाली कटोरी नीचे सरका दी और चुपचाप उसी के पैताने बैठी रही। उसकी आंखों से बहते हुए आंसू अब सूख गए थे।...ऊ सब देखत है। उहै समझि हैं। भवानी लूटा... !” पत्नी ने आसमान की ओर हाथ उठाकर कोसा। साड़ी के मैले आंचल से वह नाक पोंछने लगी।

लेटे-लेटे सिर उठाकर उसने देखा छोटकी, मुनिया के पास पड़ी, रोते-रोते सी गई थी। दोनों लड़के अब भी जाग रहे थे।

बच्चे भूक्खे सूत जइहैं। रूखा-सूखा कुछ बनाय ले। उसकी पत्नी खाट से उठी और चूल्हे के पास जाकर सुपेला  ढूंढने लगी।

सुपेलवा कहां गा-रे ननकुआ। उसने बड़े लड़के को पुकारा और घड़ा-उबहन उठा कर बाहर कुएं पर पानी लाने के लिए बढ़ गई।

वह बेसुध-सा पड़ा रहा। उस अंधेरी मड़ैया में अंधेरा कुछ और घना हो गया था। ढिबरी की कांपती-सी लौ पर आंखें गड़ाए वह शून्य में घूरता रहा। पत्नी धुएं में लिपटी हुई, गीली लकड़ी को जलाने की कोशिश में फूंक मारते-मारते निढ़ाल हो गई थी। उसने उठना चाहा लेकिन सर के दर्द से बेहाल होकर पड़ा रहा।

इर्द-गिर्द की झोपड़ियों में अभी 'सोउता” नहीं पड़ा था। उनकी बातचीत से उसे लगा लोग-बाग अभी जाग रहे है।...उसकी आंखों ने देखा था जब वह बाबू साहब के आदमियों से घिरा हुआ जा रहा था तब ये लोग बाहर खड़े-खड़े तमाशाई की तरह उसे देख रहे थे। लौटा, तब भी किसी की आवाज नहीं फूटी। कुछ पूछा भी नहीं किसी ने। पर यह कोई आज ही की बात तो नहीं। यह तो बराबर रहा है। उसे याद आया ऐसा ही तब भी हुआ था जब रामफेर की बहिन और लौटन की लौंडिया को ठाकुर ने अपने आदमियों से जबरदस्ती उठवा लिया था। उलटे उसके घर वालों को पीटा था, छप्पर भी फुंकवा दिया था और भगेलू, फतूले, लोहरा और गुन्नी के साथ क्‍या हुआ था? एक साथ ढेर सारे जख्मों के टांके खुल गये थे। दर्द की शिद्‌दत से वह छाती को मसलने लगा।

बच्चे कच्चा-पक्का जो कुछ मिला, खा-पी कर सो गए थे। उसने कुछ खाया-पिया नहीं। पत्नी फिर से उसके पांव में तेल मलने के लिए बड़ी तो उसने मना कर दिया। ...हम खाब नाहीं! तू अपना खाये के सो जा।  ...रात काटे से नहीं कट रही थी। एक तो चोट की तकलीफ दूसरे नींद भी कोसों दूर थी। फिर भी रात काटनी थी। सो-जाग कर कट गई।

सबेरे वह उठना नहीं चाहता था। पोर-पोर टूट रहा था। वह थोड़ा आराम चाहता था पर काम की चिन्ता ने उसे तड़के उठा दिया। अभी सूरज की लाल-लाल टिकिया ऊपर सरक रही थी तभी वह सीवान से फारिग हो आया। बाहर ठण्डी हवा के झोकों ने उसे चुस्त और तरो ताजा बना दिया। लौटते समय उसने देखा लोग अपने-अपने कामों पर निकल पड़े थे। दो-एक ने चलते-चलते उसकी ओर देखा, जैसे आंखों ही आंखें में उसका हाल-चाल पूछा हो। पर बाबू साहब के आतंक से एक पल रुक कर दो टोक बात करने की किसी में हिम्मत नहीं थी। फिर से उसके अन्दर वही कडुआहट-सी भर गयी। मैदान से लौट कर वह भी अपनी आरी वसुला संभालने लगा। तभी बाहर से किसी की आवाज सुनाई पड़ी। “...राम जियावन काका! ”...राम जियावन काका मिस्त्री की डली सी कोई चीज उसके अन्दर घुलती चली गयी। जिऔना नहीं, राम जियावान काका! इस सम्बोधन पर अन्दर ही अन्छर मुग्ध हो उठा। लपका हुआ वह बाहर आ गया। देखा अनोखे लाल जी थे। इलाके के नामी नेता हाथ जोड़ कर वह उनके सामने खड़ा हो गया।

“..राम-राम काका! इधर आना हुआ तो सोचा तनी जियावन काका से मिल लेई। सुना है कल बाबू साहब ने आपको बहुत मारा-पीटा है और धमकी दी है।

वीरान आंखों में दर्द की तड़प लिए, जिनमें आंसू भी झिल-मिला रहे थे, उसने देखा और गर्दन झुका ली।

'मुझे सब पता है काका! चुप बैठने से काम नहीं चलेगा। बहुत हो चुका। आप हमारे साथ चलो। कोई मजाक नहीं। नहीं मौका था नहीं गये। वह जमाना लद गया। अदालत है, कचहरी है। आप दबना मत। बाकी हम देख लेंगे । नेता की बातें उसे फाहे की तरह लग रही थी और उसे काफी हद तक उबार ले गयीं। उसे लगा अनोखे जी ने उसके दिल की बातें सुन ली है।

वह भी कुछ ऐसा ही सोच रहा था। बेगार करो और ऊपर से लात भी खाओ...हुंह.... !”

रोज-रोज की फजीहत से वह तंग आ गया था”... नेता ठीके कहत है। बड़ी पहुंच वाले हैं। हाकिम परगना, कलक्टर सबै कांपत हैं। दरोगा , तहसीलदार की तो कौनो गिनती नहीं ।

नेता को साथ लिए वह सबेरे ही निकल पड़ा। नेता ने ही सबसे पहले डाक्टरी मुलाहजा करा लेने की सलाह दी थी। उन्हें के नाते डाक्टर ने तुरंत ही बुला लिया। पहले गांव फिर बाबू साहब का नाम सुनते ही डाक्टर चिहुंक गया। बोला-“नेता जी! जरा मैं बहुत जल्दी में हूं। बाहर मरीज देखने जा रहा हूं। फिर कभी। ...अच्छा....और मोटर सायकिल पर बैठ के फुर्र से चल दिया। नेता ने कुछ सोचते हुए मुस्कराकर गर्दन झुका ली। जियावन ठगा
हुआ-सा उनकी ओर देखने लगा।

.... ई तो बाबू साहब किहां बहुत आवत है। जियावन ने दिमाग पर जोर डाल कर कहा !

तुमने पहले क्‍यों नहीं बताया। ठीक है, चलो कल सबेरे निकल चलते हैं। जिला अस्पताल में ही मुआयना हो जायेगा। रिपोर्ट भी सीधे एस.पी. के यहां दिला देंगे।

-“ बकिन वहां तो खर्चा बढ़ जाई।

“ काका! खर्चा तो पड़ता ही है...इसकी कहां तक फिकर करोगे?

थका-हारा मायूस होकर शाम तक वह घर लौट आया। पत्नी से बात किए बिना चुप-चाप खाट पर आकर पड़ गया। अपनी थकान और सर की चोट को भूलकर वह आज पूरे दिन के बेकार जाने के बारे में सोचने लगा। उसने सोचा काम ही पर निकल गया होता हो आज की मजूरी खरी हो जाती। ऊपर से साढ़े आठ रुपये मुफ्त में गल गए! वह मन ही मन हिसाब जोड़ने लगा। सुबह जगलाल की दुकान पर जिलेबी, तीन बार चाय नमकीन, दो पैकेट सिगरेट, पान! अब अपने काम पर केहूका लेइजाओ, त अपन मुंह बांध के तो नाही रहीं ।' कुछ देर बाद पत्नी ने गुड़ की काली-सी चाय माटी की कोसिया में उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा...काम पर नाहीं गयो रहेव का? मिठाई लाल के बड़े बेटवा आये रहें। बहुत बिगड़त रहे। सबेरे काम पर जरूर से बुलाय गये हैं।'

...बाबु साहब के मनई आज दोई बेर आय भये हैं। ईही ओर देखत रहें।'

फूंक-फूंक कर वह चाय सुड़कता रहा और पत्नी अपनी रौ में बोलती जा रही थी। चाय पी कर उसने कोसिया पत्नी को थमा दी और धोती के खूंट से तम्बाकू निकाल कर अंगूठे से हथेली प मलने लगा। पति को किसी गहरी चिन्ता
में देखकर वह फिर अन्दर चली गयी। उसकी सोचों का सिलसिला जारी रहा।

“..जेकी मन मा आवत है पीट के धय देत है। जबै जी मा आयी रगेद देहैं। केहू चूं नाहीं कई सकत। के नाहीं आवत, सभै तो पहुंचे रहत हैं। एक से एक ऊंचे अधिकारी बड़वरके नेता। सभे...। अब इस चक्कर में फंसे तो फिर... तुम्हें भी मिटा देगा... गरीब आदमी की इज्जत कैसी? ...उसके अन्दर सदियों से बैठे हुए डर ने उसे चेतावनी भरी सलाह दी और वह अन्दर से सिहर उठा। लगातार बेचैनी में वह करवटें बदलता रहा। वह कब सोया था उसे याद नहीं। हां सुकउवा जब निकला था तब वह जाग रहा था।

अन्दर का भय, पैसों की मजबूरी या उस दिन की मजदूरी का ख्याल करके उसने बहुत सबेरे अपने औजार संभाले और थैला उठाये मड़ई के बाहर आ गया। कुछ देर यह अनिश्चय की स्थिति में खड़ा कुछ सोचता रहा था कि अपनी मड़ई के सामने आते हुए सिपाही को देखकर वह ठिठक गया। गांव के चौकीदार के बताने पर सिपाही ने डपट कर उसे इशारे से अपने पास बुलाया- दरोगा जी बुला रहे है। कबसे बैठे हैं..., जल्दी चल ।

'...देख क्‍या रहा है...। चलता है या तेरी मां....सर झुकाए, चुपचाप वह सिपाही के पीछ चलने लगा।

-ई कौन आफत आय गई? कुछ उसकी समझ में नहीं आ रहा था। कौन खता हो गई...? भयाक्रांत वह बढ़ता रहा। सिपाही बाबू साहब की हवेली की ओर मुड़ा तो उसका माथा ठनका। दूर ही से उसने देखा बाबू साहब की लम्बी सी दालान कई लोगों से भरी हुई थी। वहां चाय पान का दौर चल रहा था। उस भीड़ में अपने नेता अनोखे लाल जी को देखकर उसे थोड़ी ढ़ाढ़स महसूस हुई, सोचा चलो कम से कम इहां अपने नेता तो हैं ही।
उस पर नजर पड़ते ही बाबू साहब चाय छोड़कर खड़े हो गये-

दारोगा जी यही है हरामजादा जिऔना! मेरी खरही फूंकने जा रहा था। आप देखना चाहें तो मौके पे चलकर देख ले। थोड़ी ही फूक पाया था कि हमारे आदिमयों ने दौड़ा कर पकड़ लिया। उलटे अपने ही झगड़ने लगा। इस पर तमाम शोर करता फिर रहा है। डाक्टर के यहां मुआयना कराने गया था मादर ...मुकदमा करेगा मुझ पर।

एकदम हक्का-बक्का सा वह देखता रहा। वह कहना चाहता था... सरकार ई सब झूठ है। अपने मार-पीटा, कूंच के धर दिया अब फसावत है। बेगारी नाही किया जो अब उल्टे सतावत है।! मगर उसकी आवाज हलक में फंसी रह गई। जनम से बन्द जबान चाहने पर भी नहीं खुल सकी। फटी-फटी आंखों से देखता, दोनों हाथ जोड़े, मूक, वह खड़ा रहा।

“..साले बदमाशी छोड़ दो वर्ना उठा कर भीतर कर दूंगा सारी हैकड़ी निकल जायेगी। दरोगा ने एक भद्दी सी गाली दी और अपना हण्टर हवा में लहरा कर दन से पीठ पर छोड़ दिया। वह चोट से बिल-बिला उठा और हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा। दरोगा ने उसकी गिड़गिड़ाहट पर कोई ध्यान नहीं दिया। उंगलियों में फंसी सिगरेट से लंबा कश खींचते हुए वह मुड़े।

'..अच्छा बाबू साहब मैं चलता हूं। आप ने रपट लिखा दी है न! ठीक है। कोई जरूरत होगी तो बताइयेगा। वैसे मैं समझता हूं इतना काफी होगा... ।”

डेवढ़ी के बड़े फाटक से होते हुए दरोगा जी बाहर आ गए। लगभग सभी लोग उन्हीं के साथ-साथ चलने लगे। चौकीदार उनकी साईकिल थामे पीछे-पीछे चल रहा था। उन्हीं में अपना नेता भी चला गया। नेता की चुप्पी देख कर उसे बड़ा धक्का लगा। कुछ बोलना, पक्ष लेना तो दूर एक बार उसकी ओर देखा भी नहीं उसने। अभी कल ही कैसी-कैसी बातें कर रहे थे। अब क्या हो गया। अपनी मार और दरोगा जी की धमकी भूल कर वह उन्हीं के
बारे में सोचने लगा।

“हरामी के पिल्ले, साले! अब यहां क्‍यों खड़ा है-जाता क्‍यों नहीं! बाबू साहब के छोटे भाई ने उसे इतनी जोर से ठोकर लगाई कि वह लड़खड़ा के गिर पड़ा। उछल कर उन्होंने उसकी पीठ पर ऐसी लात जमाई कि उसके
मुंह से चीख निकल गई।
“तुम उस दो कौड़ी के नेता पर भूल रहे थे न, बुलाओ! अब बुलाते क्यों नहीं? उसे तो टुकड़ा चाहिए...टुकड़ा। उसी कुत्ते ने बरगलाया था न! हड्डी चाहता था मिल गई...अब साला दुम हिला रहा है।' उन्होंने जोर का ठहाका लगाया और अन्दर जाते हुए हिकारत से देख कर बोले-तुम सब साले जूते के आदमी हो, जब तक यह नहीं मिलता, अपनी औकात भूल जाते हो।

दोनों हाथ जमीन पर टेक कर वह खड़ा हो गया। उसने कपड़ों पर से धूल, घुटनों, दाढ़ी और नाक से बहते हुए खून को पोंछा और नफरत भरी दृष्टि से देखता बाहर आ गया।

“वह घर लौटा तो रात हो चुकी थी। पत्नी ढ़िबरी के सामने बैठी उसकी राह देख रही थी। फटा हुआ कुर्ता, उलझे बाल, माथे का बड़ा-सा गुरमा और दाहिनी तरफ होंठ से दाढ़ी तक जमी हुई खून की लकीर, सब कुछ कहे दे रही थी। देखते ही उसकी पत्नी ढाढ़ें मार कर रो पड़ी और हाथ उठा-उठा कर कोसने लगी।

राम जियावन चुप-चाप खाट पर आंखें मूर्दें पड़ा रहा। गांव के दक्खिन की ओर वह छोटी-सी बस्ती! सभी छप्परों में भयानक सन्‍नाटा था। लगता था कुछ हुआ ही नहीं। सब एक दूसरे से अलग-अलग अपनी-अपनी दुनियाओं में
मगन थे। राम जियावन सोच रहा था, वही हुआ जिसका डर था...ई अलग-अलग इसी तरह कब तक हमें पिटा जाता रहेगा? वह अपना नेता कैसी बातें कर रहा था, वह भी दगा दे गया। दोगला कहीं का। इन दोगलन से बचै का चाही, मास्टर साहब ठीके कहत रहें। प्राइमरी स्कूल के मास्टर की कही बात उसे याद आ गई जो उन्होंने रमफेरवा को समझाते हुए एक दिन कहा था।

सूत गयो हो! कुछ देर बाद पत्नी ने पुकारा तो वह चौंक पड़ा।

-खयीकवा काढ़ी! भिनहियों तो तनिए-एक खायो रहा...

“..लेई आओ! बिन खाये कैसे काम चली। और वह पानी का लोटा उठा कर हाथ-मुंह धोने बाहर चला गया।

दूसरा कोई होता तो इतनी मार खाने के बाद दो दिन घर ही में पड़ा रहता। मगर राम जियावन को पता था चोट सहलाने से काम नहीं चलेगा। काफी सबेरे अपना थैला संभाले वह घर से निकल पड़ा। कुछ सोचते हुए यों
ही देर तक मड़ई के सामने खड़ा रहा फिर तेजी से वह मिठाई लाल के घर की ओर चल पड़ा।
दोपहर से दिन ढल गया था। फिर भी वह काम में उसी तन्मयता से जुटा रहा। “...का है उस्ताद! सुना है बाबू साहब की हां कल फिर तलबी भयी रही?

उसने कुछ उत्तर नहीं दिया और सिर झुकाए उसी तेजी से काम में लगा रहा।

अरे तब किए चूक होय गई। साला खुर्राट लछमिनिया का उठवाय लिहिस रहा। रमफेरवा तो ओकी बोटी-बोटी काट के फेंक देत। पर हमी लोगन मा एक से एक गांडू हैं, फुट गए। जाय के बताय दिहिन नाहीं तो तब पता लाग जात बच्चा का। ई-है रही त कौनो दिन आपै मजा चीखी ले हैं ।

बाबू साहब का नाम सुनते ही उसके कानों में कुछ जोर-जोर से बजने लगा। उसने कुछ कहा नहीं। लकड़ी के एक बड़े से कुन्दे को आरी से काटते हुए उसे लगा सहसा उसके हाथ चलाने की रफ्तार तेज हो गई है। त्तेज-तेज और तेज। उसके हाथ चलते रहे, गर्दन भी उसी हिसाब से हिलती रही। लकड़ी का वह कुन्दा कब अचानक एक सिर में बदल गया उसे पता नहीं चला। ख्याल आते ही उसने झटके से आरी खींच ली। फटी-फटी आंखों से कटे हुये कुन्दे की ओर देखा और आरी के दांतों पर अंगुली फिराते हुए एक किनारे रख दिया।

अब उसने बसुला उठा लिया था और पल्ले के लिए शीशम के पटरे को चिकना बनाने के लिए बसुला चलाने लगा।

खर्र...खर्र, खर...तेज-तेज और तेज। एक के बाद एक। छाल उघढ़ती और गिर-गिर कर ऐंठती रही। अचानक उसे लगा उसने छाल नहीं किसी की खाल उघेड़ कर रख दी हो। घबरा कर उसने बसुला चलाना बन्द कर दिया। वह पसीने में बुरी तरह नहा गया था। बसुला एक किनारे रख कर अंगोछे से पसीना पोंछा और गट-गट लोटा भर पानी खींच कर पी गया।

उसने अब फिर बसुला उठा लिया था। उसके सधे हुए हाथ तेजी से नई ताजगी और स्फूर्ति से काम में जुट गए थे। छिलके पर छिलके उधेड़ते हुए उसे लगा कि बरसों से अपने अन्दर जमी भय की पर्तों को वह एक एक
कर उधेड़ता चला जा रहा है।


24 -

पतिव्रता कौन ? 
[ जन्म : जन्म- 5 जनवरी ,1938 ]

रामदेव शुक्ल

बहुत पुरानी बात है। एक छोटा राजा अपने छोटे राज्य में सुखपूर्वक राज करता था। राजा के सुख का कारण था, प्रजा का सुख। प्रजा के सुख का कारण था, राजा का सुख। राजा-प्रजा दोनों सुखी थे। औरत-मर्द सुखी थे। पशु-पक्षी सुखी थे। शेर-बकरी सुखी थे। कोई खा कर सुखी था। कोई खाया जानकर सुखी था। कोई इस जन्म में सुखी था। कोई अगले जन्म में सुखी होने के वादे पर सुखी था।

उसी राज में एक गाँव में एक युवक रहता था। उसके पास एक बछिया थी। जवान होकर जब उसने अपनी प्रकृत भूख महसूस की, तो चिल्लायी। खूँटे से बँधी थी। रस्सी तुड़ा कर भाग जाना चाहती थी। तुड़ा नहीं सकी। कई दिन तक चिल्लाती रही। युवक उसकी बात समझ न सका। गाय ने उसे शाप दिया कि नराधम, तू भी जब इस भूख से पीड़ित होगा और उसकी तुष्टि का अवसर पाएगा, तो मेरे शाप से गधा हो जाएगा।

समय पर युवक का विवाह हुआ। ससुराल में प्रथा थी कि दूल्हा वहीं सुहागरात मनाता था और सवा महीने तक अपने पिता के घर नहीं लौटता था। दूल्हा बना युवक सुहागरात मनाने पत्नी के कक्ष में पहुँचा, तो गाय के शाप के फलस्वरूप गधा हो गया। सुहागसेज के पास खड़े गधे को देखकर दुल्हन चीखती हुई बाहर भागी।

विवाह का उत्सव विपत्ति में बदल गया। घर में हाहाकार मच गया किन्तु चतुर लोग उस राज में, उस समाज में उस घर में भी थे। उन लोगों ने डाँट कर रोने-धोने वालों को चुप कराया। घर में सयाने जुटे। मंत्रणा हुई। समय विचार कर निर्णय किया गया कि घर के पीछे वाले दरवाजे से गधे को बाहर निकाल दिया जाय। अभी इसी समय किसी विवाह योग्य युवक की तलाश की जाय और उसके साथ दुल्हन का विवाह कर दिया जाय। युवक की चुपचाप तलाश की जाने लगी। गधे को पिछले दरवाजे से निकाल दिया गया। खेतों की लहलहाती फसल देख गधा प्रसन्न हुआ और चरने में मगन हो गया।

नववधू विचार करने लगी कि जन्म से लेकर आज तक माता-पिता ने, गुरु-गोसाई ने, सखी-सहेलियों ने, लोक-वेद ने, सबने यही सिखाया है कि कन्या जिस पुरुष के साथ ब्याह दी जाती है, उसी की छाया बनकर रहना उसका परम धर्म है। पति बालक हो, वृद्ध हो, रोगी हो, अंधा हो, लंगड़ा हो, कोढ़ी हो, यहाँ तक कि पागल और नपुंसक हो, तो भी उसका पति वही है। उसे छोड़ना, उसका तिरस्कार करना अथवा मन में भी किसी अन्य पुरुष का विचार करना उसके अगले जन्मों को बिगाड़ देगा। पति चाहे जैसा हो, पत्नी की परम गति उसी के साथ है। उसने इस विश्वास को जी कर इसकी परीक्षा करने का संकल्प किया।

नववधू कुछ निश्चय करके उठी। उसे माँ की गोद याद आयी। माँ से ही यह बात कही जा सकती है, सोच कर वह माँ के पास गयी। माँ रोती-रोती अर्धमूर्छित हो रही थी। वह माँ को लेकर अपने सुहागकक्ष में गयी। उसी कक्ष में, जहाँ उसकी सुहागरात अनन्त काल तक के लिए स्थगित कर दी गयी थी। माँ-बेटी दोनों एक-दूसरी को बाँहों में भर कर भरपेट रोईं। मन कुछ हल्का हुआ, तो बेटी ने अपने मन को साधा। मन की सारी बात उसने माँ को बता दी। अभी तक तो बेटी के दुःख में माँ का कलेजा फटा जा रहा था, किन्तु ज्यों ही बेटी ने अपना निश्चय प्रकट किया, माँ के मन में कातर दुःख का स्थान चौकन्ने विवेक ने ले लिया- ‘क्या कहती है ? क्या तेरी मति मारी गयी है ?’ - माँ का आश्चर्य फूटा।

‘जन्म से आज तक यही तो सिखाया है तुमने ?’ - बेटी ने कहा।

‘लेकिन आत्मघात तो नहीं सिखाया।’ - माँ तनक कर बोली।

‘तो क्या सत्यवान को मौत के मुँह से निकाल लाने वाली कहानी सिर्फ कहानी है ?

बेटी की दुर्बुद्धि पर झुँझलाती हुई माँ बोली- ‘सत्यवान आदमी था, गधा नहीं था।’ बेटी को उस समय गधा शब्द गोली जैसा लगा। वह झटके के साथ उठ खड़ी हुई।

उसके मन का निश्चय तूफान का वेग धारण कर चुका था। माँ की प्रतिक्रिया पर दुःख हुआ, पर उस तूफान ने हर तरह की दुर्बलता, भावुकता और आँसुओं के स्रोत को सुखा दिया। वह चुपचाप उसी पिछले दरवाजे से निकल पड़ी, जिससे उसके पति को निकाल दिया गया था।

कुछ ही दूर चलने पर खेत में चरता गधा मिल गया। नववधू ने साथ लायी रस्सी उसके गले में डाल दी। रस्सी पकड़ कर चलती हुई युवती अपने विश्वास की शक्ति से भरी हुई थी कि एक दिन उसका पति मनुष्य के रूप में उसे अवश्य मिल जाएगा। उस विश्वास के भीतर बीज के रूप में एक और विश्वास था कि ऐसा न हुआ तो अगले जन्म में तो इस कठोर तप का सुखद फल मिलेगा ही। अनेक कथाओं के दृश्य मिलजुल कर उसकी कल्पना में उभरने लगे। उनमें सबसे भास्वर वह दृश्य था, जिसमें उन दोनों के लिए स्वर्ग से चमचमाता हुआ विमान उतरा। दिव्य देह पाकर दोनों उसमें बैठकर स्वर्ग की ओर उड़ चले।

गधा खेतों की हरी फसल को चरने में मगन हो जाता। उधर युवती चाहती थी कि जितनी जल्दी हो सके, अपने माँ-बाप और सास-ससुर की पकड़ से बाहर भाग जाए। वह पुचकारती, आगे की ओर धकेलती, गले की रस्सी पकड़ कर खींचती और तब भी इच्छित गति से गधे को भागता न पाकर शिथिल होकर बैठ जाती। गधा आखों में न जाने कौन सा भाव भरे उसकी ओर देखता। अपने मुख से उसको छूने की कोशिश करता। युवती हाथों से उसका मुख पकड़ लेती। दोनों हाथों में साध कर अपलक उसकी आखों में ताकती। कभी उसे लगता कि उसकी अपनी आखों की करुणा और ममता गधे की आँखों से भी उभर रही है। अगले ही क्षण वह पाती कि यह उसके मन का छलावा है। गधे की आखों में कोई भाव नहीं है।

फिर उठती। उसे ठेलती। हाँकती। धकियाती। डोर पकड़कर खींचती। उसकी हथेलियाँ लाल हो गयीं। कुछ ही देर में खून छलछला उठेगा, ऐसा लगने लगा। उसके भीतर से रुलाई फूट पड़ने को हुई, पर इस डर से चुप रह गयी कि रोना शुरू हो जाने पर तो उसका कोई अन्त नहीं होता। सबसे बड़ा डर यह था कि वे लोग गधे के प्रति उसका समर्पण देखकर उसे मार डालेंगे। वह बेदम हो गयी। पोटली उसके कन्धे से लटक रही थी। कुछ समझ में नहीं आया तो वह पस्त होकर गधे की पीठ पर झुक गयी। पता नहीं क्या हुआ कि गधा जोर से भागने लगा। उसकी पीठ पर लदी युवती ने दोनों हाथों से कस कर उसकी देह को पकड़ लिया। डर के मारे युवती की आँखें बन्द हो गयीं। गधा बेतहाशा भागता रहा।

जब गधा रुका तो युवती अर्धमूर्छित हो चुकी थी। रात बीत चली थी। नगर-गाँव, बस्ती से दूर वह एक जंगल का छोर था, जहाँ गधा रुका। कुछ देर बाद जब युवती की चेतना लौटी, तो उसने सिर पर किसी के हाथों का कोमल स्पर्श अनुभव किया। आँखें खोलने, पर एक वृद्ध ऋषि दिखाई पडे़। युवती उठकर बैठ गयी। उसने देखा कि उसका पति (गधा) बेदम-सा पड़ा हाँफ रहा था। वृद्ध ऋषि के पूछने पर युवती ने पूरी बात निश्छल भाव से बता दी। सब कुछ सुनकर ऋषि गंभीर हो गये। बहुत देर तक आँखें बन्द कर सोचते रहने के बाद वृद्ध ने कहा- ‘बेटी ! सावित्री का आदर्श तुम्हारे सामने है, किन्तु उसके पति को उससे छीन लेने वाला यम उसके सामने था। वह उससे प्रार्थना कर सकती थी। उसने यत्न किया। वह सफल हुई। तुम्हारे सामने कठिनाई यह है कि तुम्हारे पति की दुर्गति करने वाला व्यक्ति कौन है, तुम नहीं जानती। ऐसे में तुम उसी परम् पुरुष की अराधना करो। उन्हीं की कृपा होगी तो तुम्हारा सुहाग तुम्हें मिल सकेगा। दूसरी कठिनाई यह है कि तुम्हारे रूप और यौवन के लोभी कामान्ध लोग तुम्हारे पति को मार डालने तक का प्रयत्न करेंगे। तुम्हें ऐसे गिद्धों से अपने शील की रक्षा करनी होगी और अपने मूक पति के प्राणों की भी। तुम्हारा मार्ग काँटों से भरा है। मैं वृद्ध हूँ। मेरे आश्रम में रह सकती हो। तुम्हारे पति के लिए भी जंगल में घास-पात की कमी नहीं है किन्तु रूप-लोभ कब किसको आक्रामक पशु बना देगा, कहना कठिन है। मेरे शिष्यगण अभी तक तो सदाचारी लगते हैं, किन्तु यौवन और एकान्त का उद्दीपन उन्हें कब तक बचने देंगे ? तुम बहुत सावधानी से रहना। मैं भी उस लीला-विहारी से प्रार्थना करूँगा कि तुम्हारा संकल्प सिद्ध हो। आशीर्वाद के मूर्तरूप ऋषि चले गये। नववधू को लगा कि उसकी परेशानी का एक अध्याय समाप्त हुआ। अब वह अपनी खोज करने वाले परिजनों की पकड़ से बाहर कुछ दिन इस आश्रम में निश्चिन्त होकर रहेगी और शान्त-चित्त से निर्वाह करेगी। ऋषि के साथ बीते समय की ताजा स्मृति विशाल वट-वृक्ष के नीचे फैली शीतल छाया सी लगी। उसका जीवन सुख से खाली था, पर आशा और आत्मविश्वास से भरा हुआ था।

महीने पर महीने बीतते चले गये। ऋतुएँ बदलती गईं, किन्तु उसके मन की ऋतु नहीं बदली, क्योंकि उसके पति की देह नहीं बदली। एक दिन वह नदी में नहा कर निकल रही थी, तो उसे अपनी गीली देह में किसी की चुभती हुई दृष्टि का एहसास हुआ। नजर उठी तो आश्रम का युवा ब्रह्मचारी अपलक निहार रहा था। युवती लाज से गड़ गयी। क्रोध से तिलमिलाई, पर चुपचाप रास्ता बदलकर आश्रम में आ गई। उस दिन से वह सावधान हो गई। नहाने वह तब जाती जब वह युवक गुरु के साथ होता या कहीं दूर चला गया होता। एक दिन संध्या के समय युवती गुरु के आश्रम से अपनी कुटी की ओर आ रही थी, तो उसने देखा कि वह युवक गधे को कोई हरी चीज खिलाने की कोशिश कर रहा था। गधा बार-बार मुँह फेर लेता। युवती सीधे पास पहुँच गई तो युवक भाग गया। उसके हाथ से ही गिरी हुई कुछ पत्तियों को उठाकर वह ऋषि के पास गई। उन्होंनें पत्तियों को सूँघ कर कहा- ‘विषवृक्ष की हैं ये।’

युवती ने कुछ नहीं बताया। वह चुपचाप कुटी में गई। उसी रात गधे को लेकर वह स्थान छोड़ दिया।

जब कभी उसे पता चलता कि कोई व्यक्ति है जो किसी असाधारण शक्ति से सम्पन्न है, वह नये सिरे से आशा से भरकर उसके पास जाती। अपनी व्यथा कथा कहती और प्रार्थना करती कि उसके पति को आदमी बना दे। वे लोग मौन रह जाते या कोई ऐसा संकेत करते, जिससे वह आशा से भरकर चमत्कार की प्रतीक्षा करती। कुछ दिन बीतने पर समझ पाती कि जिनकी शक्ति पर वह विश्वास कर रही थी वे लोग उसकी देह और गधे के प्राणों के ग्राहक हो रहे हैं। गधे का स्थान ग्रहण करने वालों से अपने देह और गधे के प्राण बचाती हुई उस अरक्षित सुन्दरी ने उस राजा के विषय में सुना, जो प्रजा का प्यारा-दुलारा था। पुरखों से मिले सोने के सिंहासन पर काठ का आसन रख कर बैठता था। जरूरत पड़ने पर हल चलाता और प्रजा के साथ कन्धे भिड़ाकर उसका बोझ हल्का करता था। उसके हाथ खुरदुरे थे। युवती ने सुना कि उस राजा के दरबार में जाकर कोई आदमी खाली हाथ नहीं लौटता था। वह उसी राजा के दरबार में गई।

युवती की पूरी कथा सुनकर राजा ने भरे दरबार में घोषणा करवा दी कि जो कोई साधु, महात्मा, योगी, संन्यासी, ऋषि-मुनि, ओझा-गुनी, वैद्य इस गधे को आदमी बना देगा, उसे राजकोष से मुँहमाँगा पुरस्कार दिया जाएगा। युवती को राजकीय अतिथि भवन में ठहरा दिया गया। गधे के लिए घास-पानी और सुरक्षा की व्यवस्था कर दी गई।

अगले दिन से दरबार में भीड़ उमड़ने लगी। अधिकांश लोग अनोखी पवित्रता और उसके गधे को देखने आते। कुछ लोग इस दुर्लभ अवसर पर अपना हाथ और भाग्य आजमाने के लिए आते। काम कठिन था पर सिद्ध हो जाने पर पुरस्कार उतना ही बड़ा था। कुछ गुनीजन तो यहाँ तक सोचने लगे कि काम हो जाने पर राजा से उसका आधा राज ही माँग लेंगे। भीड़ उमड़ने लगी और निराश होकर लौटने लगी।

राजधानी के शृंगार-हाट में मुख्य राजमार्ग के सटे सुन्दर भवन में एक वेश्या रहती थी। उसे बड़ा आश्चर्य होता, जब वह देखती की दरबार की ओर आने और उधर से लौटने वाली भीड़ बढ़ती ही जा रही है। कई दिन बीत जाने के बाद उसने अपने यहाँ पधारे राजपुरुष से इस लगातार बढ़ने वाली भीड़ का कारण जानना चाहा। रसिक राजपुरुष विलास के समय ऐसे प्रश्न करने वाली की मदभरी आँखों में झाँकते हुए बोला- ‘छोड़ो, वह तुमसे भिन्न प्रकृति की मूर्ख औरत की मूर्खता का प्रसंग है। सुन्दर यौवन और गधे के पीछे बरबाद करने वाली वह औरत अपने को पतिव्रता मानती है। उसने हठ किया है कि वह उस गधे को आदमी बना लेगी। हमारे राजा उसके इस पागलपन को हवा दे रहे हैं। राजकोष से कितना धन व्यर्थ हो रहा है, कौन समझाये और किसे समझाये ? एक से एक धूर्त उस गधे को आदमी बनाने के नाम पर राजकीय अतिथि होकर सुख भोग रहे हैं। भला तुम्हीं बताओ, एक गधा आदमी बनाया जा सकता है।’

‘बनाया जा सकता है।’ -वेश्या ने अपना मोहक प्रभाव बढ़ाते हुए कहा।

रसिक राजपुरुष का शृंगार रस अद्भुत रस में बदल गया। वह चौंक कर खड़ा हो गया। उसने पूछा- ‘कौन उस गधे को आदमी बना सकता है?’

अपने जादुई प्रभाव को बढ़ाती हुई उस वेश्या ने कहा- ‘मैं उस गधे को आदमी बना सकती हूँ।’

‘तो बनाती क्यों नहीं ?’ - चकित राजपुरुष ने पूछा।

राजपुरुष पर अपना जादू चलाती हुई वेश्या ने कहा- ‘आप तो जानते ही हैं। लोग अपनी इच्छा से अपनी कामना से अपना धन खर्च कर मेरे पास आते हैं। मैं अपनी इच्छा से कभी किसी के पास नहीं जाती।’

राजपुरुष अपनी चतुराई का भरपूर उपयोग करते हुए बोला- ‘तुम्हारे पास जो लोग जिस काम से आते हैं, न तो यह मामला उन लोगों का है और न ही उस काम से तुम्हारे पास आने का मामला है। यह तो हमारे राज्य और हमारे राजा की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। सभी लोग यह मान कर निश्चिन्त हैं कि यह काम असंभव है। गधा कभी आदमी नहीं हो सकता। इसलिए किसी का उत्तरदायित्व नहीं बनता। तुम यह कार्य कर सकती हो और तुम हमारे राज्य की प्रजा हो, तो तुम्हारा धर्म है कि तुम राजा और राज्य की प्रतिष्ठा की रक्षा करो। तुम्हें इस कार्य के लिए जाना ही चाहिए।’

‘मेरा धर्म क्या है, यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ। आप लोगों के शास्त्रों के अनुसार तो वेश्या अनैतिक होती है। उसका धर्म क्या और अधर्म क्या ! मैं अपनी इच्छा से नहीं जाऊँगी। कहना चाहें तो कह सकते हैं कि वेश्या का धर्म है कि दूसरों की इच्छा के लिए अपना सब कुछ दे देना। अपनी इच्छा का न होना वेश्या का धर्म है।’ उसने दृढ़ता के साथ अपना निर्णय सुना दिया।

राजपुरुष चिन्ता में पड़ गया। एकबार उसने सोचा कि अपनी ओर से वह उससे राजदरबार में चलने का प्रस्ताव रखे, पर यह सोच कर काँप गया कि तब राजा के सामने उसका वेश्यागामी होना सिद्ध हो जाएगा। उसकी चिन्ता को पढ़ कर वेश्या ने कहा- ‘मेरे वहाँ जाने की शर्त यह है कि मुझे बुलाने के लिए राजा स्वयं मेरे पास आए। वे वेश्या के घर आएँगे नहीं और मैं बिना उनके आए दरबार में जाऊँगी नहीं।’

राजपुरुष को अचानक याद आया कि उसे एक आवश्यक कार्य के लिए अब से दो घड़ी पहले अपने घर पहुँच जाना चाहिए था। हड़बड़ा कर उसने अपने साथी से कहलवाया कि रथ गुप्त स्थान से निकाल कर पिछले दरवाजे तक ले आए।

वेश्या ने उसे विदा कर पान खिलाया और गुप्त द्वार तक छोड़ने आयी। ज्योंही द्वार खुला, दोनों की दृष्टि सामने पड़ी। दोनों चौंक कर खड़े हो गये। राजपुरुष का जवान बेटा घोड़े से उतर कर इसी घर के गुप्त द्वार की ओर बढ़ रहा था। राजपुरुष के दिमाग में आग लग गई। बेटे से अधिक क्रोध उसे वेश्या पर आया। उसके पास समय होता तो वह तत्काल वेश्या को दण्डित कर देता। यहाँ तक कि उसकी जान ले लेता, किन्तु उस समय उसके सामने बेटे की आँखों की ओंट हो जाने की समस्या सबसे बड़ी थी। वह भागता हुआ ऊपर पहुँच कर दासी की सहायता से छिप गया। बेटे के अन्धकार भरे भविष्य की चिन्ता राजपुरुष के क्रोध को सहस्त्रमुख बना रही थी। कुछ ही क्षणों में उसने अपने बेटे के लड़खड़ाते पाँवों की आहट साफ-साफ सुनी। वह वेश्या के कक्ष में चला गया। वह कुछ कह रहा था, जो सुनने और समझने में नहीं आया। युवा रसिक को किसी तरह फुसला कर वेश्या पलभर के लिए दासी की सहायता से गुप्त स्थान में छिपे राजपुरुष के पास आयी। उसे देखते ही राजपुरुष आग की लपट बन कर उसकी ओर लपका। वेश्या मन में मुस्करा कर रह गयी। उसने स्पष्ट निर्भीक उच्चारण के साथ कहा- ‘ठीक इसी क्षण आप अपने रथ तक पहुँच जाइए, अन्यथा किसी भी क्षण आप के मदान्ध और कामान्ध पुत्र मुझे ढूढ़ते हुए आ पहुँचेंगे। तब या तो पिता-पुत्र आमने-सामने होंगे या आपको रात भर छिप कर रहना पड़ेगा।’ क्रोधोन्मत्त राजपुरुष के पास कोई विकल्प नहीं था। वह चुपचाप निकल कर चला गया।

राजपुरुष गंभीर चिंता में था। उसने किसी तरह साहस कर महामात्य से यह बात बता दी। कथा में इतना झूठ उसने अपनी ओर से मिला दिया कि उस वेश्या ने उसके पास यह संदेश भिजवाया है। महामात्य ने साहस कर यह सन्देश राजा के पास पहुँचाया। अपनी ओर से उसने निवेदन किया कि आदेश हो, तो उस वेश्या को इसी क्षण राजाज्ञा भेज कर बुलवा लिया जाय।

राजा सिर्फ राजा नहीं थे, इसलिए कुछ पल विचार करने के बाद उन्होंने कहा- ‘मैं स्वयं उस वेश्या के घर जाऊँगा और उससे निवेदन करूँगा कि दरबार में आकर उस असहाय युवती के व्रत की रक्षा करे।’

दबी जबान से महामात्य ने इसके औचित्य-अनौचित्य पर विचार कर लेने को कहा। राजा दृढ़ थे कि परोपकार के लिए उनका वेश्या के घर जाना किसी भी तरह अनुचित नहीं है। राजा ने बिना विलम्ब किये उस वेश्या के घर के लिए प्रस्थान किया। यह सुनकर कि राजा स्वयं उसके घर आए हैं, वेश्या विह्नल हो गई। उसने भूमिष्ठ होकर राजा को प्रणाम किया। आसन देकर राजा को उसने आदरपूर्वक बिठाया। हाथ जोड़कर बोली- ‘महाराज के चरणों से यह घर पवित्र हुआ। मैं धन्य हुई। तुच्छ दासी हूँ मैं। महराज की क्या सेवा कर सकती हूँ ?’

स्नेहसिक्त वाणी से राजा ने कहा- ‘तुम जानती हो, मैं एक असहाय युवती की समस्या का समाधान नहीं कर पा रहा हूँ। मैंने सुना है कि तुम यह कार्य कर सकती हो। मैं तुमसे निवेदन करने आया हूँ कि तुम चलो और यह कठिन कार्य करो।’ वेश्या ने हाथ जोड़ कहा- ‘मेरे धन्य हुई कि मेरी जैसी लोक तिरस्कृत दासी को महाराज के सेवा का अवसर मिल रहा है। जब आज्ञा हो, राज दरबार में उपस्थित हो जाऊँगी।’

‘कल प्रातःकाल तुम्हारे लिए राजकीय रथ आएगा।’ - कह राजा अपने दरबार की ओर चल पड़े।

अगले दिन राजा की ओर से रथ आया। वेश्या उस पर सवार-होकर दरबार गयी। दरबार पूरा भरा हुआ था। एक ओर एक युवती हाथ जोड़े खड़ी थी। बगल में सुनहरी डोर से बँधा गधा खड़ा था। सभी दरबारी यथास्थान बैठे हुए थे। राजसिंहासन पर महाराज विराजमान थे।

वेश्या ने महाराज को प्रणाम किया। उनके संकेत के अनुसार बैठी। उसने पूरे दरबार पर एक भरपूर निगाह डाली। एक से एक तेजस्वी सामंत, वीर सरदार, अमात्य, श्रेष्ठिजन और विशिष्ट राजपुरुष अपनी ओर वेश्या की आती हुई निर्भीक दृष्टि से पलभर के लिए आशंकित हो उठते, पर ज्यों ही उसकी दृष्टि आगे बढ़ती, वे लोग आश्वस्त हो जाते। महाराज ने लक्ष्य किया कि उस वेश्या का तेज बढ़ता ही जा रहा था। उसका मुखमण्डल प्रदीप्त था। उसकी आँखें गहरे आत्मविश्वास से चमक रही थीं। महाराज को विश्वास हो गया कि यह असंभव कार्य उसके द्वारा सम्पन्न हो जाएगा।

सब लोग फुसफुसाहट में ही सही, सबसे कुछ न कुछ कह रहे थे। इस तरह एक विचित्र ध्वनि से दरबार भर गया। महाराज ने हाथ उठाकर संकेत किया। सब लोग शान्त हो गये। महाराज ने उपस्थित जनसमूह को सम्बोधित किया- ‘प्रिय प्रजाजन ! आप सब जानते हैं कि पिछले कुछ दिनों से हमारे सामने एक विकट समस्या आ खड़ी हुई है। आज एक सुन्दरी हमारी समस्या का समाधान करने जा रही है। आप सब ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह अपने कार्य में सफलता प्राप्त करे।’ 

राजा क्षणभर को मौन हो गए। सबकी निगाहें उस वेश्या की ओर केन्द्रित हो गयीं। राजा का संकेत पाकर वह उठी। सुंदर देहयष्टि वस्त्रभूषणों की जगह सादगी की महिमा से मण्डित हो रही थी। दर्पदीप्त ललाट एक तरह का सम्मोहन प्रसारित कर रहा था। अपने स्थान से धीरे-धीरे चल कर वह वेश्या उस गधे के पास पहुँची। इशारे से उसके गले की रेशमी डोर उसने खुलवा दी। अपने बाँयें हाथ के ताम्रपात्र से दाहिने हाथ में जल लेकर उसने स्पष्ट उच्चारण के साथ कहा- ‘हे परमतत्त्व ! यदि मैं पतिव्रता हूँ तो यह अभिशप्त युवक अपना पूर्व रूप प्राप्त करे।’ वाक्य पूरा होते ही उसने गधे के सिर पर वह जल फेंक दिया। लोगों की आँखें चौंधिया गयीं, जब गधे के स्थान पर एक युवक खड़ा दिखाई पड़ा।

पूरा राजदरबार पहले स्तब्ध हुआ और फिर उस वेश्या की जयध्वनि से भर गया। वह हाथ जोड़ कर राजा के सम्मुख खड़ी हो गयी। उसने कहा- ‘महाराज ! अब दासी को आज्ञा दें।’

‘नहीं सुन्दरी ! तुम ऐसे कैसे जाओगी ? तुमने मेरे राज्य का मान बढ़ाया है। अपने वचन के अनुसार तुम्हें वही पुरस्कार देने को प्रतिश्रुत हूँ जो तुम माँग लो।’ - राजा ने साग्रह कहा।

हाथ जोड़ कर वेश्या बोली- ‘आप आशीष दें। मेरी कोई इच्छा नहीं है। वेश्या की कोई इच्छा नहीं होती।’

दरबार एक बार फिर उसकी प्रशंसा में मुखरित हो उठा। ‘राजन !’ बिजली छूटी हो जैसे। गर्जना सुनकर सबकी निगाहें उधर घूम पड़ी। सबने देखा, राजपुरोहित अपने आसन से खड़े होकर क्रोध से काँप रहे हैं। राजा ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा- ‘क्या बात है, आचार्य ?’

अपने क्रोध को नियंत्रित करने का असफल प्रयास करते हुए राजपुरोहित कहने लगे- ‘राजन ! यह कोई जादूगरनी है। इसने जादू कर गधे को आदमी बनाया है। जो मंत्र इसने पढ़ा है वह मंत्र नहीं हो सकता। वेश्या पतिव्रता कैसे हो सकती है ? यह पतिव्रता शब्द का अपमान है।’ राजपुरोहित क्रोध से उबलते हुए अपने आसन पर बैठ गये।

पारदर्शी पर्दो के पीछे बैठा रनिवास चहक उठा। सामंतों की पत्नियों का अलिंद भी प्रशंसा मुखर हो उठा। कुछ राजपुरुष राजपुरोहित के समर्थन को आतुर हो उठे।

वेश्या अपने स्थान पर अविचल बैठी रही। उसने राजा की ओर दृष्टि उठा कर देखा। उसकी आँखें राजा से आदेश माँग रही थी कि वह राजपुरोहित के मुखर क्रोध का उत्तर दे।

देहान्तरित युवक चकित-स्तब्ध खड़ा रह गया था। उसकी युवती पत्नी सुखद आश्चर्य से विमुग्ध अपने पति के मुख की ओर अपलक निहार रही थी। उसके लिए और किसी का अस्तित्व न होने के बराबर था। राजदरबार के लोग श्रोता, दर्शक, सभासद, कुतूहल से भरे कभी राजा, कभी वेश्या, कभी राजपुरोहित और कभी युवक-युवती की ओर देख रहे थे।

राजा अपने गंभीर स्वभाव के अनकुल वाणी से सहज प्रवाह के साथ बोलने लगे, तो सबका ध्यान उधर गया। राजा कह रहे थे- ‘नहीं बेटी ! तुम बैठी रहो। राजपुरुषों की शंका और राजपुरोहित के उग्र क्रोध का उत्तर तुम्हें देने की आवश्यकता नहीं है। इनके आरोप का उत्तर मैं दूँगा।’

पल भर विराम के बाद राजा ने कहा- ‘पतिव्रता शब्द की रक्षा करने के लिए राजपुरोहित की चिन्ता स्वाभाविक है। वेश्या की पतिव्रता कहने से उन्हें अनर्थ की आशंका होती है, यह भी उचित है।’

राजपुरोहित आश्वस्त हुए। उनकी मुखमुद्रा सहज होने लगी। राजा ने उनसे सीधा प्रश्न किया- ‘आचार्य स्वयं बताने की कृपा करें कि पतिव्रता का क्या अर्थ है ? आदर्श पतिव्रता कौन स्त्री हो सकती है?’

राजपुरोहित की मुखमुद्रा पहले की तरह तेज से आलोकित हो उठी। दरबार की ओर दृष्टिपात करते हुए उन्होंने कहा- ‘जो स्त्री तन-मन-वचन से अनन्य भाव से अपने पति में अनुरक्त हो, उसे ही पतिव्रता कहते हैं।’

‘साधु. . . .साधु !’ की प्रशंसा ध्वनि चारो ओर से उमड़ पड़ी। राजपुरोहित को गहरा संतोष हुआ कि उन्होंने दरबार में एक आदर्श को कम से कम शब्दों में परिभाषित कर दिया।

राजा ने प्रसन्न सहमति व्यक्त की। फिर बोले- ‘आचार्य ! एक प्रश्न और है। मन से पूरी तरह अपने पति को समर्पित कोई स्त्री किसी विवशता में वचन से अपने सामने खड़े खड्गहस्त पुरुष के साथ प्रेमालाप करे, तो निर्णय का आधार क्या होगा- मन या वचन ? एक और स्थिति हो सकती है। अनेक कामोन्मत्त पुरुष किसी स्त्री के शरीर को भोगें और वह स्त्री मन से केवल अपने पति की बनी रहे तो निर्णय का आधार क्या होगा। - परवश तन या स्ववश मन ?’

‘आचार्य !’ - राजा पहले से अधिक गंभीर होकर बोले- ‘मेरी सुनियोजित और अचूक गुप्तचर-व्यवस्था बताती है कि अपने राज्य में श्रेष्ठि, सामन्त, आचार्य और गणमान्य नागरिकों के प्रमोद वन से लेकर रंगस्थल तक क्या कुछ चलता रहता है। जिस युवती को आप ‘पतिव्रता’ शब्द को कलंकित करने वाली कहना चाहते हैं, उसे एक-एक घर के अंतःपुर के गहरे भेद मालूम हैं। उसे यह भी पता है कि किन राजपुरुषों के परिवार के पिता उसके समक्ष रूपलव्ध प्रार्थी होते हैं और पुत्र भी। राजघरानों से लेकर सामन्त, आचार्य और श्रेष्ठिगण की पतिव्रताओं के असंतोष क्या हैं और उपचार कौन से हैं इसका पूरा विवरण वह आवश्यकता होने पर दे सकती है।’

राजा कुछ पल ठहरे। उन्होंने सारे दरबार की ओर उस तरह देखा, जिस तरह गुफा-द्वार पर खड़ा सिंह नीचे उपत्यका में एक-एक जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति को देखता है। उन्होंने लक्ष्य किया कि राजमहिषियों, सामन्त-स्त्रिायों और अन्य विशिष्ट महिलाओं के अलिंद में सन्नाटा छाया हुआ है। उन्होंने यह भी देखा कि राजपुरुष, सामन्त, श्रेष्ठि-वर्ग और आचार्यगण में से अधिकांश लोग उनसे आँखें मिलाने से बचने के बहाने तलाश रहे हैं।

राजा ने आगे कहा- ‘हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों ने हमें शिक्षा दी है कि जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के शील का मापदण्ड एक नहीं हो सकता। अनेक घटक मिलकर आचार का निर्धारण करते हैं। निर्णायक होता है मन का संकल्प और अपनी पूरी शक्ति एवं निष्ठा से उसके अनुसार किया गया आचरण।’

राजा फिर रुके। उन्होंने राजपुरोहित, आचार्यगण, सामन्त, श्रेष्ठिगण, सबकी ओर सहमति के लिए देखा। सहमति सबके मुखमण्डल पर मूर्त हो रही थी। राजा आश्वस्त हुए। उन्होंने एक सीधा प्रश्न सभी की ओर उछाल दिया- ‘कोई युवती वेश्या कैसे बन सकती है ?’ समवेत मंत्रोपचार की भाँति सभागार में एक ध्वनि गूँज उठी। स्पष्ट न होने पर भी उत्तर स्पष्ट था।

मंद मुस्कान के साथ राजपुरोहित को लक्ष्य कर राजा ने फिर पूछा- ‘आदर्श पतिव्रता की शुद्धतम अवधारण क्या हो सकती है, आचार्य ?’

बिना झिझक आचार्य बोले पड़े- ‘जिसके मन में, यहाँ तक कि स्वप्न में भी कोई अन्य पुरुष न आए।’

राजा गंभीर हो गये। उन्होंने कहा- ‘आचार्य मन की गूढ़ गति से पूर्णतः परिचित होंगे। सावधान साधक को भी बार-बार प्रयत्न कर मन को अगम्य तक जाने से रोकना पड़ता है। तब भी वह स्थिर नहीं होता। जहाँ तक स्वप्न की बात है, आज तक उस पर कोई बन्धन नहीं लगा सका। स्वप्न की अवस्था में मन पूर्णतः मुक्त होकर विचरण करता है, सारे विधि-निषेध से परे। ऐसी स्थिति में पतिव्रता की शुद्धतम अवधारणा क्या रेखागणित के शुद्धतम विन्दु की तरह कल्पना मात्र नहीं है ?’

राजा की आँखें चमक उठी। बोले- ‘ठीक इसी विन्दु की भाँति पतिव्रता की अवधारणा शुद्ध कल्पना है। ऐसी कोई स्त्री नहीं हो सकती जिसके स्वप्न में भी कोई पुरुष न आया हो। पतिव्रता और पत्नीव्रती आचार के श्रेष्ठतम प्रतिमान हैं, जिस तक पहुँचने का प्रयत्न एक आदर्श है। उस तक न पहुँच पाने के अभियोग में आज तक केवल स्त्री को ही दण्डित-लांछित किया जाता रहा है। अपत्नीव्रती ठहरा कर आज तक किसी पुरुष को दण्डित क्यों नहीं किया गया? यही नहीं, अनेक स्त्रियों के आकर्षण का केन्द्र बनने वाले पुरुषों की वीर नायकों के रूप में पूजा की जाती रही है। शुद्ध पतिव्रता केवल वही हो सकती है जिसे समाज सदा से लांछित करता आया है। आचार्य को लग रहा है कि ‘पतिव्रता’ शब्द की गरिमा को अपवित्र करने वाली वह वेश्या है। कोई पुरुष उसका स्वकीय पुरुष अर्थात पति नहीं है, इसीलिए कोई उसके लिए पर-पुरुष भी नहीं हो सकता। वह जब जिस पुरुष के पास है, उसी के प्रति प्रतिबद्ध होना उसका धर्म है। इसी का निर्वाह पूरी निष्ठा के साथ करने का विश्वास उसकी असाधारण शक्ति का स्रोत है। आचार्य ठीक कहते हैं कि जो वाक्य उसने कहा, वह मंत्र नहीं हो सकता। लेकिन उसका वह वाक्य आचारित अर्थ से रहित शब्द समूह मात्र भी नहीं था। उसमें आचरण के सत्य का ताप था। उसी ताप का प्रतिफलन है सबके सामने खड़ा यह सुन्दर युवक।’

राजा मौन हुए। सभा स्तब्ध थी। लगता था, लोग साँस लेना भूल गये हैं। एक गति ने उस स्तब्ध जड़ता को तोड़ा। आचार्य की पथरायी हुई आँखों ने देखा कि अग्निशलाका की भाँति वह वेश्या मन्द गति से दरबार से बाहर जा रही थी।


25 -

वहां भी

[ जन्म : 10 जनवरी , 1938 - निधन : 17 मई , 2021 ]

लाल बहादुर वर्मा

पेरिस के टाउनहाल में मेयर की ओर से विदेशी छात्रों के स्वागत में आयोजित समारोह में फ्रांसिसी आभिजात और पारम्परिकता की चकाचौंध थी।

-- ये हैं पीतर ब्लैकपूल और ये नीरज अस्थना। मेरे एक फ्रांसिसी मित्र ने दोनों के नामों का गलत उच्चारण करते हुए हमारा परिचय कराया।

--हाउ ड्यू डू। ” अपने भरसक अंग्रेज लहज़े में बोलते हुए मैंने हाथ बढ़ाया।

“ मीडियम।  और पीटर ने अपने रूखे हाथ में मेरा हाथ दबा दिया।

मीडियम? न 'फ़ाइन', न “ओके”। दरअसल मेरी अपनी हालत मीडियम हो गयी। परिचय के बाद औपचारिक ढंग से हाल-चाल पूछे जाने पर लोगों को ओके', 'फाइन” आदि कहते तो सुना था लेकिन कोई अपना हाल मीडियम भी बता सकता है ऐसा न कहीं सुना था, न पढ़ा था। ऐसा नहीं कि “मीडियम' यानी औसत” कहना कोई गलत बात है। ज्यादातर लोग तो ऐसी ही स्थिति में होते हैं, बल्कि उससे भी बदतर, लेकिन कहते यही हैं-“सब ठीक-ठाक है', मज़े में हूं” भले ही बीवी की दवा लेने या रुपया उधार मांगने जा रहे हों।

अपने देश में घुरहू लाल पाण्डे अपने को जी.एल. पाण्डे कह कर मॉ-बाप को मन ही मन गाली देते हुये अपने नाम की इज्जत बचाने की कोशिश करते हैं। अंग्रेज तो 'ड्रिंकवाटर' या 'वुल्फसन” जैसे नाम होने पर भी अपने पूरे नाम से जाना जाता है। 'आफ्टर ऑल हवाट इज़ देयर इन ए नेम' उन्हीं की तो कहावत है। शायद यही बात थी कि पीटर ब्लैकपूल ने अपना हाल वही बताया था जो था-यानी मीडियम।

बहुतों की तरह मैं भी अंग्रेजों के प्रति पूर्वा-ग्रहग्रस्त था लेकिन पीटर मेरी नज़रों में फौरन चढ़-सा गया। हम लोग जैसे लोगों की 'फिलासफ़र' कह बैठते हैं पीटर वैसा ही व्यक्ति था-किसी तरह से सामान्य नहीं लगता था। छः फुट का आदमी भले ही वह अंग्रेज हो, लम्बा ही कहा जायेगा। ढीले-ढाले कपड़े, बिखरे-भूरे बाल, नाक पर बार-बार खिसकता चश्मा जिसे हर दो-तीन मिनट पर उठाना हाथों की आदत बन गयी हो, बकरी के थन जैसी लटकती कोट की जेबों से कंगारू के बच्चों जैसी झांकती किताब और बिना नहाये कई दिनों तक “ड्राइवाश” मात्र करने से बदबू की सीमा से एक ही कदम पहले वाली गंध लिये पीटर छात्रों के रेस्त्रां में प्रायः अकेले बैठता और जब तक कोई टोके न, कुछ पूछे न, खुद बोलने की पहल नहीं करता। लेकिन कोई न कोई पूछ ही बैठता, “हैलो पीटर! हाउ डू यू डू।” जवाब पूर्व निश्चित होता, 'मीडियम” और बस।

जब कई मुलाकातों के बाद भी, मीडियम की लक्षमणरेखा पार नहीं कर पायी, उठंगे दरवाज़े खटखटाने पर भी नहीं खुले, तो मैं उसे देखते ही पराजय-बोध से ग्रस्त रहने लगा। सवाल केवल जिज्ञासा का नहीं था। आकर्षण सुन्दर में ही नहीं अनोखे में भी होता है और वह व्यक्ति हर रोज़ पहले से अधिक अनोखा लगता था।

कई बार मैंने उसे खाने के बाद काफी पीने की दावत दी और उसने हर बार दो टूक यही कहा, “नॉट टुडे” न कोई बहाना न लाग लपेट। इस लिये उस दिन मेरे आग्रह पर जब उसने कहा, “ह॒वेयर डू वी गो” तो मुझे लगा किसी के घर बार-बार जाने पर भी भेंट न होने पर अचानक एक दिन अपने ही घर के सामने उससे भेंट हो गयी हो। मैं पीटर के साथ “कफ़े कापोल' में घुस गया।

जून के महीने में यूरोप में सुहानापन निखरने लगता है-भारी भरकम कपड़ों से मुक्ति, छाते से छुटकारा, कभी कभार धूप। ज्यों-ज्यों आदमी कपड़े उतारता जाता है त्यों-त्यों पेड़ों पर हरे लिबास का रंग बिखरने लगता है। बागीचों में बसंती इन्द्रधनुष बिछ जाता है। पेरिस के 'काख़्तिएलातें' यानी सैन नदी के बायें किनारे बसे विश्वविद्यालयी इलाकों में जुलाई, अगस्त और सितम्बर के छुट्टी के महीने बिताने के कार्यक्रमों की सालाना गहमागहमी और भाग-दौड़ शुरू हो जाती है। हिच हाइकिंग, यानी वे-पैसे सफर दूसरों की मोटर में, के लिए बनते जोड़े क्‍योंकि कार वाले जोड़े को अपेक्षतया आसानी से 'लिफ्ट ' दे देते हैं ख़ास तौर पर यदि साथ में लड़की हो, कारों या बसों में यात्रा के लिए एजेन्सियों के चक्कर, पिछली छुट्टियों के अनुभवों या नये आकर्षण केन्द्रों के सम्बन्ध में बात-चीत कुल मिला कर सफ़र की ही बात सुनाई पड़ती है। कोई जा रहा है। कोई तैयारी में है। कम से कम चार छः हफ़्तों की छुट्टियां तो मनानी ही है-कहीं भी, किसी तरह।

मैंने भी इंगलैंड जाने की योजना बनायी थी और पीटर से बात शुरू करने का इससे कारगर और कोई नुस्ख़ा समझ में नहीं आया कि उससे उसके देश के आकर्षणों के बारे में पूछा जाय।

जैसे हम सब अपने को कालिदास का वंशज मानते हैं वैसे ही अंग्रेज़ भी अपने को शेक्सपीयर का उत्तराधिकारी समझता होगा यही सोचकर मैंने पीटर से शेक्सपीयर के जन्म स्थान के बारे में पूछा;

“ कहते हैं इंग्लैण्ड जाकर स्ट्रैटफ़र्ड न जाना वैसा ही होगा जैसे कोई अरेबिया जाकर मक्का न जाये। 

क्यों ?

मैंने सोचा था कि मेरे प्रश्न से उत्साहित होकर वह शेक्सपीयर का बखान करने लग जायेगा। लेकिन उसने बात आगे बढ़ाने के बजाय जब प्रश्न कर दिया तो मैं थोड़ा हतप्रभ सा हो गया। मैंने सोचा थोड़ा आक्रामक होने से शायद काम चल जाए। मैंने कहा :

“इंगलैन्ड में शेक्सपीयर से बड़ा और क्‍या आकर्षण है?

“हिन्दुस्तान को शेक्सपीयर ने जीता था क्या? उसने फिर एक अटपटा सवाल खड़ा कर दिया था। उत्तर न समझ में आने पर जो अक्सर कहा जाता है वही मैंने कहा : “आप का मतलब?

“ मतलब साफ है। इंगलैण्ड के बिना उसके साम्राज्य और उसके साम्राज्य के बिना भारत की कल्पना करने का कोई मतलब होगा? इंगलैण्ड का सबसे बड़ा आकर्षण तो यही है कि कोई यह देखे कि इस छोटे से देश ने इतना बड़ा साम्राज्य कैसे खड़ा किया और आज उसके बिना भी कैसे जिन्दा है।

बात पते की थी लेकिन मैं किसी सीरियस बात के लिए तैयार नहीं था। फिर भी मेरा अचेतन फ़ौरन बचाव की योजना में परिवर्तन करने लग गया था। मैंने बात को बदलने में ही, फिलहाल गुन्जाइश देखी और पूछ बैठा; और आप कहां जा रहे हैं।'

' तीन हफ्तों के लिए दक्षिण अफ्रीका और फिर दो हफ्ते के लिये घर ।

“दक्षिण अफ्रीका ?

मेरे प्रश्न में वह सारी घृणा छलक आई थी, जिसे अपने देश में दक्षिण भारतीयों को काला और समाज के एक बहुत बड़े भाग को अछूत कहने वाला भारतीय भी दक्षिण अफ्रीका की सरकार की रंगभेद की नीति के कारण उस देश का नाम आते ही प्रदर्शित करता है।

“ क्यों आप चकित क्‍यों हैं? मेरा एक मित्र है वहां!

मुझमें बहस के लिए साहस नहीं था। मैं ऐसे व्यक्ति के सामने सहज ढंग से दक्षिण अफ्रीका की बुराई करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मेरे मन में अपराध भाव जागने लगा था। मैंने बात बदल दी।

“दिसम्बर में आप से लन्दन में भेंट हो सकती है क्या ?

“अवश्य! यदि आप 20 दिसम्बर की शाम टेंट गैलरी में शागाल के चित्रों की प्रदर्शनी देखने आयें।” उसने कुछ सोचकर और अपनी डायरी पलटते हुए कहा।

और वह '“थैक्स, सी यू” कहता हुआ उठ खड़ा हुआ।

मैं सोच भी नहीं पा रहा था कि कोई क़रीब दो महीना पहले किसी शाम को प्रदर्शनी देखने का कार्यक्रम कैसे बना सकता है-और वह भी जब उसे इसी बीच हज़ारों मील की यात्रा भी करनी हो। फिर भी विश्वास करने की मजबूरी थी। पीटर वैसा फिलासफ़र नहीं था जैसा ढीली पतलून या दो रंग के मोज़े पहन लेने या बे-सिर पैर की बातें करने पर अपने वहां कोई भी कहलाने लगता है। वह पेरिस के विश्व-विख्यात 'पुऐंकारे इन्स्टीट्यूट” में गणित की गूढ़ समस्याओं पर रिसर्च कर रहा था और शागाल जैसे चित्रकार की प्रदर्शनी देखने का कार्यक्रम बना चुका था। उसकी अस्मिता को नकार पाना असम्भव था।

मेरा जहाज़ इगलैण्ड की धरती की ओर बढ़ रहा था। मेरे सामने कई तस्वीरें उभर रही थीं। एक उस इंगलैण्ड की जिसे साहित्य के माध्यम से जाना था। दूसरी क्लाइव और हेस्टिंग्ज की जिसके पीछे से बंगाल के लुटते बाज़ार और भारत की बढ़ती गुलामी झांकती। कभी बर्क का ख़्याल आ रहा था तो कभी डायर की खूनी गोलियों की आवाज़ सुनायी देती। लन्दन की पार्लियामेंट में स्वतन्त्रता और सुधार की बहसें और दिल्ली में बहरे कानों को सुनाने के लिये बम का धमाका-सब गड्डमगड्ड हो रहा था। आक्रोश और क्षोभ पर जिज्ञासा और बौद्धिक संस्कार हावी थे। एक अजीब-सी हलचल मची हुई थी मन में। जहाज़ के अंग्रेज़ कर्मचारी जब 'सर” कहते तो लगता महारानी खिताब दे रही हों लेकिन औकात का पता जल्दी ही लग गया जब कस्टम के अधिकारी ने चोर की तरह तलाशी ली और कठघरे में खड़ा करके सरकारी वकील की तरह जिरह की कि मैं इंगलैन्ड क्यों आया हूं, कितने दिनों तक रहने का इरादा है, खर्चें का क्‍या प्रबन्ध है और बसने का इरादा तो नहीं है।

मैं तो आया था शेक्सपीयर और क्लाइव का इंग्लैण्ड देखने और पहला ही मुकाबला हीन-भाव भर गया। सोचने लगा, कया यही है पीटर का इंग्लैन्ड।

मैं बीस दिसम्बर का इन्तज़ार करने लगा। स्ट्रटफ़र्ड तो गया ही लेकिन बरमिंघम भी गया। ब्रिटिश म्यूज़ियम और पार्लियामेंट के चक्कर लगाये। फ्लीट स्ट्रीट बकिंमघम पैलेस देखा। साउथ हाल में पंजाबी बाज़ार में तन्दूर की रोटी और बैंगन भुरता भी खाया। केम्ब्रिज और लेक डिस्ट्रिक्ट घूमता सत्रह को लन्दन वापस आ गया। बार-बार लगता था कि इंग्लैन्ड की यात्रा पीटर के मिले बिना अपूर्ण रह जायेगी।

कभी-कभी सोचता यदि पीटर पूछ बैठा कि इंग्लैन्ड कैसा लगा तो यह कहने से काम नहीं चलेगा कि “बहुत अच्छा है” और “मीडियम” कहने की मुझमें हिम्मत नहीं है। मैं घण्टों जैसे परीक्षा की तैयारी करता रहता। शागाल के बारे में भी थोड़ा बहुत पढ़ लिया था क्‍योंकि वह पूछ सकता था कि मैं शागाल की प्रदर्शनी क्‍यों देखने आया हूं, मुझे पर्याप्त नहीं लग रहा था। बहरहाल बीस दिसम्बर को मैं टेट गैलरी इस तरह पहुंचा जैसे सर्विस कमीशन के दफ़्तर में इन्टरव्यू के लिये जा रहा होऊं। एक आंख से तस्वीरें और दूसरी से दरवाज़ा देखता मैं हॉल में घूमता रहा। घण्टे भर बाद बारह निकल कर सिगरेट जलाता सोफे पर बैठने ही जा रहा था कि 'सो यू हैव कम” सुन कर जब मैं मुड़ा तो मेरे सामने पीटर खड़ा था। वही सुपरिचित वेशभूषा लेकिन थोड़ी संवरी हुई। पहली बार उसके होठों पर एक मुस्कराहट थी। वह खुश लग रहा था। मैंने ज़ोर से उसका हाथा थाम कर यूं ही आदतन पूछा : “ हाऊ ड्यू डू।'

“आई ऐम फ़ाइन। 

एक बार फिर मुझे पीटर ने मात दे दी थी। मैं फिर उसके इस उत्तर के लिए तैयार नहीं था। वह प्रदर्शनी में तस्वीरें निहार रहा था और मैं सोच रहा था कि हरदम 'मीडियम” रहने वाला आदमी आज "फ़ाइन” कैसे हो गया। मुझे किसी तस्वीर में पेरिस वाला मीडियम पीटर नज़र आता किसी में लन्दन वाला फ़ाइन पीटर।

मैं सोच रहा था कि पेरिस का पीटर मीडियम क्‍यों था : कहते हैं कि अंग्रेज़ का घर उसका किला होता है। घर से दूर शायद पीटर सुरक्षा न महसूस कर पाता हो। हो सकता है उसे अपनी मां से बहुत प्यार हो। या वहां उसकी कोई प्रेमिका हो। हो सकता है पीटर अपने शोध में उलझ गया हो और उसे कोई हल न मिल रहा हो इसीलिये सब कुछ निरर्थक लग रहा हो।

हो सकता है वह इतिहासग्रस्त हो और इंग्लैन्ड के पारम्परिक दुश्मन फ्रांस में रहते हुये फ्रांस के नागरिकों में व्याप्त अंग्रेज़ों को बनिया समझने और उनके प्रति वितृष्णा, तिरस्कार और ईर्ष्या की प्रवृत्ति से खीझ होती हो। यह भी तो सम्भव है कि फ्रांसीसियों के बात-बात में अपनी सांस्कृतिक समृद्धि और विशिष्टता की हेकड़ी बधारने और अपनी ही भाषा बोलने की ज़िद से वह ऊब जाता हो। यह सब या इनमें से एक भी स्थिति उसकी हालत मीडियम कर देने के लिये काफ़ी थी।

और यहां! यहां लन्दन में अपने घर, अपने देश में अपनों के बीच शायद वह सुखी हो। या फिर थके विद्यार्थी को कुछ हफ्ते के आराम ने स्वस्थ कर दिया हो। यह भी हो सकता है कि वह अपनी प्रेमिका से मिलकर आ रहा हो या मिलने वाला हो। या फिर इसी बीच उसे रिसर्च की समस्या का हल मिल गया हो। मैं बस सोचे जा रहा था......यह मुझे बाद में पता चला कि वह आजकल "'फ़ाइन' क्‍यों था।

कुछ भी हो यह तो निश्यित था कि आज पीटर जितना खुश था उतना मुझे पहले कभी नहीं दिखा था। मेरी जिज्ञासा तब और बढ़ गयी जब दो घन्टे बाद प्रदर्शनी से निकल कर एक पब में बीयर पीते हुए उसने स्वयं बात शुरू कर दी। आज वह खुल कर बात कर रहा था।

“ कैसी बीत रही है छुट्टी ?” मैंने पूछा। 

“ खूब मज़े में!”

“ तुम्हारा दोस्त कैसा है? दक्षिण अफ्रीका में ही है अभी?” अनावश्यक प्रश्न पूछने की अपनी सामान्य भारतीय आदत के कारण मैं अपने को रोक नहीं सका।

 “घुल रहा है। दक्षिण अफ्रीका की जेल में और कैसा होगा कोई? मिल नहीं सका। इतना ही मालूम हो सका उसके बारे में ।”

“जेल में?” मेरी जिज्ञासा बढ़ चली।

“हां जेल में। नीग्रो छात्रों के आन्दोलन में शामिल्र होने का जुर्म है उस पर।”

“नीग्रो है क्या वह!”

“नहीं। वह अंग्रेज़ है।”

“लेकिन ........... लेकिन जब वह सफ़ेद है, अंग्रेज़ है। ”

मैं समझ नहीं पा रहा था कि एक सफ़ेद चमड़ी का आदमी, वह भी अंग्रेज, कैसे गिरफ्तार हो गया दक्षिण अफ्रीका में। 

“ लेकिन? दुश्मन , रंग और देश से नहीं काम से पहचाना जाता है।” उसने मेरी बात काटते हुए कहा : “वह चुपके-चुपके छात्रों के उग्र आन्दोलन की मदद कर रहा था और पता चल जाने पर उन्होंने उसे घर दबोचा। ख़ैर छोड़ों उस बात को!” वह एक साथ क्षुब्ध और उदास होने लगा था।

मैंने बात को आगे बढ़ाना मुनासिब नहीं समझा। बात बदलते हुए मैंने पूछा : 'रिसर्च की गाड़ी आगे बढ़ी?”

'रिसर्च? अरे उसे तो मैं पेरिस ही छोड़ आया हूं। यहां तो और भी काम है।'

मैं सोचने लगा, कौन-सा काम रिसर्च से भी बड़ा लग रहा है पीटर को। काम पीटर का हो तो उसे महत्वपूर्ण होना ही था। मेरे लिए पीटर से सम्बन्धित हर चीज महत्व रखने लगी थी। उसे क़रीब से देखने और समझने की इच्छा बढ़ती ही जा रही थी। मैं अपने को उससे जोड़ कर देखने लगा था। उसे समझने के साथ मैं अपने को भी बेहतर समझ पा रहा था। जब हम उठने को हुये तो दूसरे दिन उसके घर आने का प्रस्ताव मैंने स्वयं कर दिया। प्रस्ताव अटपटा था। वह भी क्षण भर को सकुचाया। लेकिन फिर उसने शाम चार बजे का वक्‍त दे दिया। 

पता आसान था। मुझे लन्दन के एक मध्य-वर्गीय मुहल्ले में पीटर का घर ढूंढने में कठिनाई नहीं हुई। एक अंग्रेज़ के घर वक्‍त से पहुंचने की सावधानी मैंने बरती थी। एक आलीशान-सी इमारत की दूसरी मन्जिल। ड्राइंग रूम में वह सब था जिसकी मैंने उम्मीद की थी, बल्कि ज्यादा ही। भारतीय स्तर से सम्पन्नता हर तरफ बिखरी पड़ी थी। लेकिन पीटर ने मुझे वहां नहीं बैठाया। सीधे अलग-थलग पड़े कमरे में ले गया। कारण कुछ भी रहा हो मुझे उसका ऐसा करना आत्मीय लगा। उसका कमरा उसके घर का हिस्सा लग ही नहीं रहा था। अस्त-व्यस्त और सादा-सा। उसने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मेज के पास वाली कुर्सी पर बैठने को कहा तो उसका स्नेहिल स्पर्श मुझे बहुत अच्छा लगा।

थोड़ी देर इधर उधर की बातें करने के बाद जल्दी ही बात इंगलैण्ड में बढ़ती औद्योगिक अशान्ति तक पहुंच गयी। आज वह मेरे प्रश्नों के उत्तर विस्तार से दे रहा था। थोड़ी देर बाद जब वह कमरे के बाहर शायद चाय लाने गया तो मैंने मेज का निरीक्षण किया। आदतन चीज़ें उलट-पटल करने लगा। लेकिन मुझे लगा ऐसा नहीं करना चाहिये। पीटर से मुलाक़ात के बाद मैं स्वयं को उसके साथ में देखने और अक्सर क्‍या करना चाहिए का निर्णय पीटर को सामने रखकर करने लगा था। मेज पर किताबें बिखरी हुयी थीं। ऐसा तो होना ही था। दो चीज़ें ख़ासतौर पर बांध रही थीं। एक लम्बे से गुलदस्ते में एक उसी के अनुपात में लम्बी-सी डाल पर दो मुरझाते फूल और सफेद-सी स्टील की फ्रेम में एक लड़की की तस्वीर। लड़की सुन्दर नहीं थी लेकिन उसके चेहरे पर फैली मुक्त हंसी ऐसी थी जो उसे बार-बार और लगातार देखने को बाध्य कर रही थी। कमरे में घुसते ही शायद उसने मुझे तस्वीर को घूरते देख लिया था।

'कैरोलिन है।”

उसके इतना कहते ही मैंने अपने को चौंकने से बचाते हुये पूछाः

“कौन कैरोलिन?

'मेरी दोस्त”

“अच्छा! अच्छा!

“मिलोगे उससे ।”

“क्यों नहीं? तुम्हारी दोस्त है तो मिलने लायक तो होगी ही।” 

“अच्छा लगेगा उससे मिलकर।” उसने हंसते हुए कहा। और हमारी बात का केन्द्र कैरोलिन हो गई।

कैरोलिन पीटर की अभिन्‍न दोस्त थी। अभिन्‍नता का आधार भावना ही नहीं समझदारी और आस्था भी थी। वह स्कूल छोड़ने के बाद तत्काल नौकरी करने की मजबूरी के कारण आगे नहीं पढ़ सकी थी। लेकिन उसने ज़िन्दगी को करीब से पढ़ना नहीं छोड़ा था और मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय हो गई थी। पीटर और कैरोलिन की मुलाक़ात एक सेमिनार में हुई थी। पीटर छात्रों का प्रतिनिधित्व कर रहा था और कैरोलिन मज़दूरों का। दोनों की बातों में एक-दूसरे ने साम्य देखा था और बाद में साथ-साथ बीयर पी थी। फिर उनका मिलना बढ़ा था और बात दिमाग़ से दिल तक पहुंच गई थी। लेकिन दिमाग़ आगे-आगे था क्योंकि दोनों के सपने ऐसे थे जिन्हें पूरा करने के लिये समर्पण और समझदारी दोनों की जरूरत थी।

पीटर ने बड़े कृतज्ञतापूर्ण लहज़े में बताया कि कैसे कैरोलिन ने उसे उसके कमरे से बाहर ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर ला खड़ा कर दिया था और कमरे में ही कुर्सी पर किताबों से जूझते या बहुतु हुआ तो वहीं उठ कर लेफ्ट-राइट करने वाला छात्र अब चलने लगा था। पहले कैरोलिन पीटर के पास आई थी। अब पीटर कैरोलिन के पास जाने लगा। धीरे-धीरे पीटर कैरोलिन के कामों में ज्यादा से ज्यादा हाथ बंटाने लगा। कैरोलिन को लिखने-पढ़ने का कम मौका मिलता था। लेकिन पीटर यह कमी पूरा करता रहा। वह पेरिस नहीं जाना चाहता था। लेकिन कैरोलिन ने उसे मज़बूर किया था कि साल दो साल में वह अपना अधूरा काम पूरा ही कर डाले। फिर तो उन्हें साथ काम करना ही था। वैसे भी ज़रूरत पड़ते ही पेरिस से लन्दन आने में देर ही कितनी लगती है। कैरोलिन ने वादा किया था कि वह उसे समय पर बुला लेगी। समय आ गया था और दोनों मिल कर काम कर रहे थे।

मुझे आधे एक घन्टा बीत चुका था। इस बीच बात-चीत में वही ज्यादा बोला था। मुझे विश्वास हो चला था कि पीटर मुझे मित्र समझने लगा है वर्ना इतनी सारी बातें, यह भी अनतरंग सम्बन्धों की, वह मुझे क्‍यों बताता। निकटता की पुष्टि के लिए मैंने पूछाः

“आज-कल कहां हैं कैरोलिन। ”

“लिवरपूल गयी है कल। उसके यूनियन का वार्षिक सम्मेलन है। ”

“अच्छा! तो वह यूनियन का काम करती है। राजनीति में भी दिलचस्पी हैं क्या?”

“क्या मतलब? यूनियन और राजनीति अलग-अलग चीज़ें हैं क्या?” उसने चकित होते हुये पूछा।

'मेरा मतलब यूनियन तो मजदूरों की मांगों वग्रैह के लिए होती हैं। हमारे देश में तो यूनियनों का काम आर्थिक क्षेत्र तक सीमित होता है।' मैंने अपनी बात स्पष्ट की।

“ हमारे वहां भी ऐसा ही होता रहा है। यूनियनें आर्थिक लाभ के लिये बनाई जाती रही हैं। इसे ही तो बदलना है।'

'तो क्या यूनियनें; मज़दूरों के आर्थिक लाभ के लिये न लड़ें? फिर क्या करें? मैंने “बदलने” का मतलब नहीं समझा था।

“केवल आर्थिक लड़ाई लड़ने के कारण ही तो मज़दूर भ्रष्ट होता है-राजनीतिक लड़ाई में शामिल नहीं हो पाता। बेहतर तनख्वाह और बोनस वगैरह के चक्कर में वह सत्ता पर अधिकार की बात, जो मूल बात है, नहीं करता। और सत्ताधारी टुकड़े फेंकता रहता है और स्वयं मौज़ उठाता रहता है। जब अंग्रेज़ों के राज में सूरज नहीं डूबता था तब भी राज पूंजीपतियों के हाथ में था और आज जब ले दे कर अपना ही देश बचा है, तब भी। लेकिन अब हम ऐसा नहीं होने देंगे। पिछले अनुभवों के कारण अब मज़दूरों की भी आंखें खुल रही हैं। अब हमारा प्रस्ताव है कि लड़ाई आर्थिक नहीं, मूलतः राजनीतिक है। उसका लक्ष्य है सत्ता पर अधिकार। देखें हमारा प्रस्ताव पास होता है या नहीं।”

मुझे अपना देश याद आ रहा था-बड़ी शिद्दत से।

मुझे मुग्ध-सा देख उसकी आवाज़ और नम हो गयी। उसने कहा : “ कैरोलिन बहुत थक गई है। पिछले हफ़्ते हम लोग रात-रात भर काम करते रहे, तब जा कर वक्‍त पर प्रस्ताव और उसके समर्थन में कैरोलिन का भाषण तैयार हो पाया। मैं तो पिछली रात दस घन्टे सोता रहा। काफी पूरी हो गई है नींद। लेकिन उसे तो आज और कल दो दिन और कड़ी मेहनत करनी है। पीटर खो-सा गया।

उसका इस तरह बातें करना बहुत अच्छा लग रहा था। मैं चाह रहा था कि वह और बातें करे। बातें करते वक्‍त, वह अपने बिखरे बाल इस तरह सुलझाता था, जैसे कोई गुत्थी सुलझा रहा हो। कैरोलिन का नाम आते ही उसकी आंखें वाचाल हो जातीं। मैंने पूछा, 'तुम क्‍यों नहीं गये।'

“ यहां केन्द्रीय कार्यालय में काम था। और फिर तुम्हें भी तो वक्‍त दे रखा था। मन वहीं लगा हुआ है। देखें हमारी लाइन मानी जाती है या नहीं। ”

पीटर उद्विग्न हो गया था। मैं भी समझ गया कि इस वक्‍त उसे अकेलापन ही अच्छा लगेगा। मैं उठने लगा तो उसने कहा : “आओ चलें। कल शाम खाने पर फिर मिलेंगे।'

हम दोनों बाहर निकल रहे थे तभी बैठक में उसने अपनी मां से परिचय करवाया था। उन्होंने कोई उत्साह नहीं दिखाया तो कारण जो भी रहा हो मुझे यही लगा कि एक भारतीय का उनके लड़के से अन्तरंग होना शायद उन्हें अच्छा नहीं लग रहा है।

मुझे बस में चढ़ाने से पहले पीटर ने कल शाम जहां मिलना था वहां का पता ठीक-ठाक समझा दिया था।

दूसरा दिन मैंने यूं ही बिता दिया। एक में मन उलझा हो दूसरा कुछ कर पाना मेरे लिए आसान नहीं होता।

शाम तक “हाइड पार्क! में श्वेतों के विरुद्ध नीग्री लोगों का गालियों से भरपूर भाषण सुनता रहा। अंग्रेज़ी प्रजातन्त्र का यह तमाशा, जहां क्राउन! के विरुद्ध कुछ कहने के अलावा “ईश्वर मर चुका है” से लेकर 'हम श्वेत लड़कियों के साथ बलात्कार करके अपने ऊपर हुये ज़ुल्म का बदला लेंगे” जैसी बातें चटखारे से लेकर सुनी जाती हैं, काफी दिलचस्प था। फिर भी छः बजते ही मैं पीटर से मिलने चल पड़ा।

एक सादे से कमरे में एक मेज़ पर पांच तस्तरियां और पांच गिलास रखे हुये थे और मेज के इर्द-गिर्द पीटर और उसके तीन साथी, एक लड़की और दो लड़के, बैठे बात में मशगूल थे। पीटर ने मेरा उनसे परिचय कराया। केवल नाम। परिचय के साथ ही नाम, जाति, पेशा, घर का पता और अक्सर बाप या खानदान की तफ़्सील सुनने या बताने का आदी मैं कह भी नहीं पाया कि सिर्फ़ नाम जानने से क्या होगा। बहरहाल खाना, यानी डिब्बों से निकाला गया बना बनाया गोश्त और डबल रोटी, खाने के दौरान पता चला कि लड़की “लन्दन स्कूल आफ इक्नोमिक्स' में पढ़ती है और दोनों लड़के काम करते हैं किसी फैक्ट्री में। कमरा लड़की का है जो अकेले रहती है और राजनीति में सक्रिय है। इनका ख़ास परिचय यही था कि वे पीटर और कैरोलिन के साथ किसी एक ही संस्था के सदस्य थे।

इस समय वे बहुत “एजीटेटेड” थे और फ़ोन का इन्तज़ार कर रहे थे। आधा घण्टे से चारों थोड़ी-थोड़ी देर पर घड़ी देख रहे थे।

मेरी स्थिति अज़ीब थी। पेरिस में हर वक्‍त 'मीडियम” रहने वाला पीटर, शागाल जैसे चित्रकार का पारखी पीटर, मज़दूरों के संघर्ष मं डूबा हुआ पीटर और कैरोलिन जैसी लड़की से प्यार करने वाला पीटर एक ही व्यक्ति था और जहां भी था पूरी तरह समर्पित लग रहा था।

मैं बात-चीत में पूरी तरह शामिल नहीं हो पा रहा था क्योंकि बातें न तो बाज़ारू थीं न हवाई। भला फिर एक भारतीय बुद्धिजीवी कैसे उनमें शामिल होता। नौ बजे टेलीफ़ोन की घंटी बजी। लपके चारों लेकिन पीटर ने रिसीवर उठाया। धीरे-धीरे उसकी आंखों की चमक बढ़ती गयी। बात खत्म हुई तो पता चल ही गया था कि लिवरपूल में क्या हुआ लेकिन पीटर “इउरेका” कहने के अन्दाज़ में चीखा : 'शी हैज़ डन इट।'

कैररोलिन का प्रस्ताव पास हो गया था और सम्भवतः यूनियन का नेतृत्व भी उसी के हाथों में आने वाला था। पीटर ने जल्दी-जल्दी हमारे गिलास भरे और सबके मुंह से एक साथ ही निकल पड़ा, “चीयर्स फार कैरोलिन। ”

पीटर विह्लल सा हो रहा था। वह मुझे बस स्टाप तक छोड़ने नहीं आया लेकिन वादा किया कि दूसरे दिन स्टेशन छोड़ने ज़रूर आयेगा। शायद कैरोलिन भी।

मैं कुछ दिन और रुकना चाहता था। लेकिन पेरिस में मैंने अपने प्रोसेफर से मिलने का “अप्वाइन्टमेंट ” ले रखा था और उसी के अनुसार सीट रिजर्व करा ली थी। पीटर आइसबर्ग था। और कैरोलिन.....

बहरहाल एक और छोटी-सी मुलाकात की आशा बांधे मैं सोने, सोचने और सामान बांधने के बीच समय को गुज़र जाने दिया। सुबह नाश्ते के बाद मैंने टैक्सी ली और स्टेशन पर गाड़ी में सामान रखकर इन्तज़ार करने लगा। जानता था कि गाड़ी वक्‍त से ही छूटेगी और पीटर अभी तक नहीं दिखाई दे रहा था। कुछ ही क्षण बाकी थे कि पीटर एक लड़की के साथ लगभग दौड़ता हुआ आया। मैं समझ गया था कि पीटर का हाथ पकड़े जीन्स पहने बिखरे बालों वाली मुस्कराती लड़की कैरोलिन ही है। हम तीनों के हाथ ज़ोर-ज़ोर से हिल रहे थे। गाड़ी छूट चुकी थी।

आज मैं पूछ नहीं पाया था : हाउ डू यू डू”। लेकिन मैं जानता था कि पीटर 'फ़ाइन' है... रियली फ़ाइन।'


26 -

...टूटते हुए

[ जन्म 27 जुलाई , 1939 ]

माहेश्वर तिवारी 


नी...ई...लू...ऊ, नितिन के लिए इस छोटे-से शब्द का अर्थ कभी-कभी इतना तीखा और गहरा हो जाता है कि उस समूचे सन्दर्भ और उसकी पर्तों में छिपे अतीत को जीना एक गहरे दंश की पीड़ा से होकर गुजरने जैसा बन गया है। अक्सर अकलेपन में उसे यह शब्द कहीं भीतर तक चीरता चला जाता है। उसका सारा अतीत स्वेटर की बुनाई की तरह खुलता चला जाता है जिसे पराजय-भाव के साथ स्वीकार लेना ही उसकी नियति बन चुका है।

उस दिन घर से माँ का एक छोटा-सा तार मिला था, ‘नीलू सीरियसली इल, कम सून’। हमेशा गहरी झील के जल की तरह शान्त और स्थिर रहने वाला नितिन एक थरथराहट से भर उठा जैसे किसी ने पानी में भारी पत्थर फेंक दिया हो और लहरें चीखकर इधर-उधर भागने लगी हों। तार मिलते ही वह इतना घबड़ा गया कि कालेज में एक पल भी रुकना उसे पहाड़ जैसा लगा, स्टाफ के एक-दो लोगों से कुछ जरूरी बाते करने के बाद, छुट्टी की दरखास्त प्रिंसिपल की मेज पर दबाकर वह सीेधे बस स्टेशन आ गया था। उसे महसूस हो रहा था कि वह लगातार हारता जा रहा है कहीं। नीलू को बीमारी की खबर उसे भीतर तक उधेड़ती चली गयी। पिताजी के लिए भी ऐसा ही तार मिला था और बड़ी चाची के समय भी। तार उसके लिए दुर्घटना की निश्चितता का प्रमाण होता जा रहा था। उसने मन से इसे निकालने के लिए जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और सिगरेट जलाने के बाद टिकटघर की खिड़की के सामने लगी कतार में खड़ा हो गया। उसने गिनना शुरू किया, एक-दो-सात-पन्द्रह..सोलह। कतार में उसका अपना नम्बर सोलहवां था। बस में पैंतालीस सवारियों की जगह थी। अगर हर आदमी औसतन तीन टिकट खरीदे तो उसके खिड़की तक पहुंचते-पहुंचते सारे टिकट खत्म हो जायेंगे। अगली बस शाम साढ़े चार बजे जाती है। इस खयाल के आते ही वह एक बार फिर घबराहटसे भर गया। यदि यह बस उसे नहीं मिली तो शाम की बस से पार्वतीपुर वह आठ बजे से पहले नहीं पहुंच सकेगा। वहाँ से उसका अपना गाँव लगभग तीन मील रह जाता है-सीधे पूरब। सात बजे के बाद पार्वतीपुर से कोई सवारी नही मिलती है। केवल पैदल जाया जा सकता है। कच्ची सड़क है। अंधेरी रात में, वह भी बरसात की, जब हाथ को हाथ न सूझता हो, पैदल चलना ठीक नहीं है। पता नहीं कब कौन-सा कीड़ा आकर पैरों से चिपक जाये।

उसे अपनी गलती महसूस हुई। उसने सोचा कालेज से सीधे अपने कमरे तक जाकर उसे टार्च और एक-दो कपड़े ले लेना चाहिये था। कपड़े तो एक-दो दिन के लिए वह किसी से लेकर काम चला लेगा, लेकिन टार्च लेना जरूरी था। एक क्षण के लिए उसके मन में यह विचार आया कि इस बस को छोड़ दे और घर जाकर थोड़ा आराम कर ले और शाम की बस से गांव जाने का कार्यक्रम बनाये। उसने अपने में थकान-सी महसूस की, लेकिन शीघ्र ही उसने अपना यह इरादा बदल दिया। घर एक क्षण भी देर से पहुंचना उसे भारी-भारी-सा लगा।

उसने एक बार फिर अपने सामने खड़े लोगों की ओर देखा। अब उसके सामने सिर्फ आठ लोग रह गये थे। उसने अगल-बगल अपनी निगाह दौड़ायी, इस खयाल से कि यदि रोडवेज का कोई परिचित व्यक्ति मिल जाय तो वह टिकट अन्दर से मंगवा ले। उसने अपने दाहिनी ओर झुककर टिकटघर की खिड़की की ओर देखा। टिकटघर का बाबू उसे परिचित मिल गया था। उसका अपना पड़ोसी चन्दन। सीधा-सादा व्यक्ति है। न ऊधो का लेना न माधो को देना। बस अपने काम से काम। बस स्टेशन पर एक-दो बार नितिन ने उसे चाय भी पिलायी है। उसे अब इस बात की पूरी तसल्ली हो गयी कि टिकट जरूर मिल जायगा और वह इसी बस से जा सकेगा। सामने की लाइनमें अब सिर्फ चार लोग ही और रह गये थे। उसने खखारकर अपना गला साफ किया और आवाज़ दी-‘‘अरे भाईसाहब, एक टिकट मुझे भी चाहिये पार्वतीपुरका। घर जा रहा हूँ। अचानक कुछ जरूरी काम आ पड़ा है।’’ टिकट आसानी से मिल जाने की उम्मीद पक्की हो जाने से उसे नीलू की अस्वस्थता का जिक्र अनावश्यक लगा। खिड़की के भीतर बैठा बाबू पहले तो खें-खेंकर हँसता रहा। बाद में निहायत भद्दी आवाज में बोला-‘‘हाँ...हाँ, जरूर मिलेगा सर, आज तो वैसे भी भीड़ नहीं है। आप उधर लाइनमें क्यों खड़े हैं? आपको भीतर आ जाना चाहिये था। आखिर कभी-कभी हम लोगों को भी तो सेवा करने का अवसर मिलना चाहिए।’’

नितिन को लगा कि उसके मुँह का स्वाद कुछ बिगड़ गया है। सहानुभूति की आत्मीयता की जगह उसे एक अजीब तरह का कसैलापन महसूस होने लगा, जैसे जबान पर नीम की पत्ती आ गयी हो। उसने एक बार फिर अपने सामने खड़े लोगों की ओर देखा। उसे लगा कि उसकी संभ्रान्तता कहीं से उघड़ गयी है और वह नंगा हो गया है। टिकट तो मिल ही जाता, उसे चन्दन से विशेष कृपा नहीं मांगनी चाहिये थी। एक बार उसने अपने सामने खड़े लोगों के चेहरे की ओर देखा, लेकिन वहाँ कुछ भी न पाकर वह आश्वस्त हो गया कि और लोगों ने इसे गलत ढंग से नहीं लिया है।

काफी देर तक लाइन में खड़े रहने से उसके टखनों में हल्का-हल्का-सा दर्द होने लगा था। सामने का बूढ़ा आदमी टिकट ले चुका था और टिकट अपने कुर्ते की जेब में रखकर रेजगारी गिन रहा था। उसे बूढ़े आदमी पर गुस्सा आने लगा। वह उतावली से भर उठा था। मन में आया कि उसे डांटकर सामने से हटा दे, लेकिन लगा कि ऐसा करने से वह दुबारा नंगा हो जायगा। जेब से उसने पाँच रुपये का नोट निकाला और थोड़ा-सा सरककर हाथ खिड़की के अन्दर डाल दिया।

‘‘एक टिकट पार्वतीपुर।’’

‘‘आपके पास पच्चीस पैसे खुले हों, तो दीजिये। दो रुपये सीधे वापस कर दूँगा।’’

नितिन अपनी जेब टटोलने के बाद बोला-‘‘नहीं भाई, पैसे तो नहीं हैं।’’

‘‘कोई बात नहीं। यह लीजिए टिकट और पैसे। और क्या हाल-चाल हैं, सब ठीक-ठाक हैं न।’’ नितिनने पैसे जेबमें डाले और टिकट के पीछे लिखा गाड़ी का नम्बर पढ़ने लगा। पाँच...शून्य...तीन...शून्य। पाँच और तीन का योग यानी आठ। उसे याद आया-चटर्जीदा ने एक बार कहा था कि वह न्यूमरलॉजी के हिसाब से नम्बर चार है और नम्बर आठ उसक लिए शत्रु अंक है जो उसके लिए शुभ नहीं कहा जा सकता। नितिन को इन बातों पर कभी विश्वास नहीं रहा, लेकिन आज न जाने क्यों उसका मन एक बार कहीं भीतर तक कांप गया। जल्दी ही उसने उस तरफ से अपना मन हटा लिया। भाग्यवादी वह पहले कभी नहीं रहा। अपनी कमजोरी पर उसे मन ही मन हँसी आयी। मन भी कैसा अजीब होता है? क्या-क्या उल्टा-सीधा सोचता रहता है।

बस में उसे सीट मिल गयी थी। इस ओर से आश्वस्त होने के बाद उसने बाहर की तरफ झांककर देखा अखबारवाले लड़के को आवाज़ देकर उसने बुलाया और हिन्दी का एक अखबार खरीदा। वह घर जब भी जाता है, एक अखबार जरूर ले जाता है। ताऊजी घर पहुंचते ही उससे अखबार मांगते हैं। गाँव में अखबार नियमित रूप से नहीं मिल पाता, इसलिए ताऊजी की यह लालसा वह स्वयं कभी-कभी पूरी कर दिया करता है। अखबार खोलकर उसने देखा। काफी मोटी

सुखियों में पहले पेज पर समाचार छपा था, ‘‘झरिया कोयला खदान में भीषण दुर्घटना, मलवे से चालीस कोयला मजदूरों की लाशें निकाली गयीं। सैकड़ों मजदूर घायल’’

नितिन के मन में एक बार फिर एक अजीब-सी दहशतभर गयी। उसे याद आया कि झरिया कोयला खदान में उसके गाँव के भी कई लोग हैं। मरने वालों में उनमें से भी तो कोई हो सकता है। और सचमुच अगर उनमें से कोई हुआ तो भला उस बेचारे के घरवालों की क्या हालत होगी ? उसे गाँव के कई बूढ़े लोगों के झुर्रियों भरे और बच्चों के मासूम गंदुमी चेहरे याद आ गये। उसने अखबार को मोड़कर चुपचाप जांघों के नीचे दबा लिया। उसने सोच लिया कि अखबार घर नहीं ले जायगा घर जाते ही ताऊजी ने अखबार देखा और उन्हें भी यह समाचार पढ़ने को मिला तो पलभर में गाँवभर में तहलका मच जायगा। न जाने क्यों उसे लगा कि वह अखबार घर न ले जाकर कुछ लोगोंको मरनेसे बचा सकता है। ‘‘भाई साहब, जरा अखबार देंगे। आज ही का है न?’’ पीछेवाली सीट से एक सज्जन ने उसके कंधे पर हाथों का हल्का सा स्पर्श देते हुए कहा। नितिन को लगा, जैसे वह चोरी करते पकड़ लिया गया है और जो दुर्घटना में मारे गये हैं, उन्हें मानसिक स्तर पर भी बचा पाने में वह बुरी तरह असफल हो गया है। उसने अखबार धीरे से निकालकर पीछे की ओर सरका दिया।

बस चक्रधरपुर पहुँच गयी थी। उसने प्यास महसूस की। बस से उतरकर सामने की दूकान पर जाकर पानी पिया। जेब से एक सिगरेट निकालकर सुलगायी और अपनी सीट पर चुपचाप आकर बैठ गया। उसने अपनी कलाई घड़ी की ओर देखा। इस समय दिन के ढाई बजे थे। पार्वतीपुर यहाँ से चालीस मील है। उसने अनुमान लगाया कि साढ़े चार-पांच बजे तक वह आसानी से पार्वतीपुर पहुंच जायगा। फिर अगर कोई सवारी नहीं मिली तो पैदल चलकर भी झटपुटा होते घर पहुँचा जा सकता है।

सामने की सीट पर बैठे बूढ़े आदमी को खांसी आने लगी थी। थोड़ी देर खांसने के बाद उसने सिर खिड़की के बाहर निकालकर बाहर थूक दिया। अब वह लगभग हांफ रहा था। उसकी मिचमिची आँखें और भी ज्यादा थकी मालूम पड़ रही थीं। नितिनको उस बूढ़े पर दया आ गयी। न जाने किस काम से वह शहर आया होगा। उसके पीछे उसकी बीमारी भी हो सकती है-मुकदमें-कचहरी की भागदौड़ भी। बिलकुल चुपचाप बैठे-बैठे वह अब ऊबने भी लगा था। उसने बगैर कुछ सोचे ही एक सवाल बूढ़ेको सम्बोधित करके उछाल दिया-‘‘कहां जाना है बाबा?’’

बूढ़े ने एक बार मुड़कर उसकी ओर देखा और एक निहायत मरी-मरी-सी आवाज में छोटा-सा उत्तर दिया-‘‘पार्वतीपुर।’’

नितिन सफर काटने के लिए जो सिलसिला शुरू करना चाहता था, वह बूढ़े के इस संक्षिप्त उत्तर से खत्म होता-सा लगा। लेकिन उसने बात को आगे बढ़ाने की नीयत से दूसरा सवाल जड़ दिया।

‘‘पार्वतीपुर में ही रहते हो क्या?’’

‘‘नाहीं, घर त जगदीशपुर है। तबियत साल-भर से ठीक ना रहेले। शहर बड़े हस्पताल में जाँच करवावे आइल रहलीं, बाकी बाबू एहूं क हालत बड़ी खराब है। केहू पइसा लेहले बिना बात ना करेला। कुछ समझ में ना आवेला, ई गान्ही बाबा कइसन सुराज दे गइलन, जउना में हमनी गरीबन के जिनगी अऊर दूभर हो गइल।’’

बस में शायद कुछ राजनीति में रुचि रखनेवाले लोग भी थे। छुटभैया नेता टाइप लोग। बूढ़े की बात के आखिरी हिस्से से उन्हें बहस का मसाला मिल गया था और पूरी बस राजनीतिक चिख-चिख से भर गयी थी।

नितिन को भी बातचीत का सिलसिला बढ़ाने के लिए काफी गुंजाइश थी, लेकिन राजनीतिक बहसों में उसकी खास रुचि नहीं थी और उस बूढ़े आदमी से बात का सिलसिला जारी रखने में खतरा इस बात का था कि उसे खांसी का लम्बा दौरा पड़ सकता था। उसने बाहर की तरफ सिर निकालकर देखा। पार्वतीपुर बत्तीस मील। एक तिकोने पत्थर पर काले अक्षरों में खुदा हुआ था। अचानक उसे लगा कि बस काफी धीमी रफ्तार से चल रही है। अगर इसी गति से चलती रही तो वह अनुमान से काफी देर से घर पहुँच सकेगा। उसे बस के ड्राइवर पर गुस्सा आने लगा  हरामखोर। जब कम से कम चालीस किलोमीटर प्रति घण्टा के हिसाब से बस चला सकते हौं, तब भी बैलगाड़ी की तरह बस को धकरखच्च. धकरखच्च ले चलेंगे। रास्ते में पचास जगह रोकेंगे प्राइवेट लारियों की तरह और जब तक भीतर बैठे लोगोंका कचूमर न निकल जाय तब तक सवारियां भरते जायेंगे। हर स्टेशन पर चाय पियेंगे, बीड़ी फूकेंगे। अरे, इनका भी क्या भरोसा! सब नशा करते हैं। शराब या ताड़ी पीकर कभी किसी ठेलेवालेसे भिड़ जायेंगे, कभी किसी रिक्शे से, तो कभी किसी और से। किसी की जान की कीमत इन्हें क्या मालूम? सरकार ने कानून भी तो अजीब बनाये है, आदमी के मरने पर छ महीने की सजा है और गधे के मरने पर दो साल की, जैसे सरकारी निगाह में आदमी गधे से भी गया-बीता है।

खिर......र......खच। बस, एक झटके के साथ रुकी तो नितिन अपनी सीट से आगे की ओर उछल गया। अचानक कोई छोटी-सी बच्ची बस के सामने आ गयी थी। उसने सम्भलकर अपना सिर उठाया तो ड्राइवर उस मासूम-सी बच्ची को सम्बोधित करके ढेर-सी गन्दी-गन्दी गालियां थूक रहा था। बस की सवारियोंकी एकटक निगाहें उस बच्ची के इर्द गिर्द रेंग रही थीं, जो अभी अभी मौत के भयानक जबड़े से बच निकली थी और सहमी-सहमी-सी खड़ी उस मुच्छन्दर ड्राइवर की गालियां सुन रही थी। नितिन फिर अपने भीतर कहीं लौटकर खो गया था। उसकी अपनी बच्ची रितु भी तो इसी उम्र की है। कहीं इस बच्ची की जगह उसकी अपनी रितु होती तो?

ड्राइवर गालियां देते-देते शायद थक गया था। उसने स्टेरिंग व्हील की ओर मुड़कर देखा और बस एक बार फिर भागने लगी थी। नितिन इस सबसे तटस्थ होकर सिर्फ नीलू के विषय में सोच रहा था। अगर नीलू को कहीं कुछ हो गया तो। उसने एक झटके के साथ इस विचार को अपने मस्तिष्क से निकालकर फेंकने की कोशिश की। नहीं ऐसा नहीं हो सकता। तार गलत भी हो सकता है। माँ मेरी आदतों से वाकिफ है। उसने पहले भी कई बार झूठे तार देकर बुलाया है। कभी खुद की बीमारी की खबर, कभी ताऊजी की अस्वस्थता और पहुंचने पर माँ हँसती हुई मिलेंगी-‘‘अरे पगले, तुझे घर की याद ही कहाँ आती है। इसलिए तुझे घर बुलानेके लिए कुछ न कुछ बड़ा बहाना बनाना ही पड़ता है।’’

उसने मन ही मन भगवान से मनाया कि यह भी खबर पहले की ही तरह झूठी निकले। और वह अच्छी तरह जानता है कि यदि खबर सचमुच झूठी निकली तो घर पहुंचने पर नीलू किस तरह उसका मजाक बनायेगी। उसकी खिलखिल हँसी नितिन को बेहद अच्छी लगती है। जब नीलू इस तरह हँसती है तो कितनी मासूम दिखती है, जबकि उसकी इस हँसी में उसकी शरारत ही छिपी होती है। इस लड़की ने आते ही न जाने क्या जादू किया है कि सारा घर अब नितिन के बदले उसे चाहने लगा है। बड़े भैया कितनी बार कह चुके हैं-‘‘छोटे, जरा सुनना। नीलू को यहीं रहने दो, अकेली। वह इस घर से चली जाती है तो घर सूना लगता है। जैसे परिवार एक शरीर हो और नीलू उसकी जीवन्त संवेदना।

उसे हँसी आयी लोगों पर। कितने स्वार्थी हैं माँ-भैया। नीलू गाँव या कहीं और नाते-रिश्ते में चली जाती है तो उसे खुद कितनी असुविधा होती है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह आश्रय ढूँढ़ता है। दुनिया के मजबूत से मजबूत आदमी के लिए भी स्नेह और गहरे अपनत्व की एक छाया होनी जरूरी है। इससे उसका आदमीपन बना रहता है। इन्सानियत के साथ उसके गहरे ताल्लुकात बने रहते हैं। नहीं तो आदमी और जानवर के बीच का फर्क बहुत बारीक होता है और यदि परिस्थितियां साथ न दें तो आदमी को जानवर में तब्दील होते देर नहीं लगती। इतिहास में भी इस बात की ढेर सारी मिसालें मिल जायेंगी। नितिन के व्यक्तित्व के रचाव के पीछे नीलू की भूमिका कम नहीं है। एक नीलू के आने के पहले वह कैसा ‘‘सैवेज’’ दिखता था। एक बार फिर उसने अपने को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि माँ ने किसी और काम के लिए नीलू की बीमारी का झूठा तार दिया है। नीलू की तबीयत खराब नहीं हो सकती। अभी चार ही दिन पहले तो उसे नीलू के हाथ का लिखा खत मिला था। बीमारी की चर्चा तो उसमें कहीं नहीं थी। उसे किडनी में कुछ तकलीफ जरूर कभी-कभी हो जाती है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए ऐसी खबर देनी पड़े।

नितिन ने बाहर झांककर देखा। बायीं ओर चन्दननगर का कस्बा दिख रहा था। चन्दननगर पार्वतीपुर से चार मील है। हफ्ते में वृहस्पतिवार और रविवार को हाट लगती है। उसके गांव के लोग भी यहाँ तक सौदा-सुलुफ के लिए आते हैं। आज शुक्रवार है, वह कल आया होता तो यहीं उतर सकता था। गाँव का कोई न कोई मिल ही जाता जिसके साथ पैदल जाया जा सकता था। बीच के रास्ते से गांव कुछ नजदीक भी पड़ता है। लेकिन उसने फिर सोचा कि वह कल आता ही क्यों, तार तो उसे आज मिला था और तार न मिलता तो इस तरह हड़बड़ी में भागकर आने की जरूरत क्या थी? दस दिन बाद ही दशहरे की छुट्टियां होनेवाली थी। उसी समय आ जाता। दशहरे और होली की छुट्टियों में नितिन हमेशा घर आता रहा है। गर्मी की लम्बी छुट्टियां उससे गाँव में कभी नहीं कटतीं। रिश्तेदारों के यहाँ आने-जाने की औपचारिकता निभाने में उसका विश्वास कभी नहीं रहा। इसलिए गर्मियों में वह अक्सर कहीं न कहीं बाहर निकल जाता है।

एक बड़े-से पीले गुलाब की पंखुरी आकाश के नीलेपन में डूब रही थी। सारा क्षितिज गेरुए रंगकी धूलसे ढंक गया था। कभी-कभी सारी सम्भावनाओं के बीच भी मन बेहद उदास हो जाता है। नहीं मालूम कि उदासी का रंग क्या होता है, लेकिन नितिन सोचता है कि उसकी उदासी शाम के इस गेरुए रंग से काफी कुछ मिलती-जुलती है। वैसे गेरुआ रंग भी अपने आप में कुछ परस्पर विरोधी रंगों की व्यंजनाओं से भरा होता है। तटस्थता, त्याग, वैराग्य और समर्पणके रंग न जाने कहाँ से आकर इस एक ही रंग में घुल-मिल जाते हैं। शाम के साथ जुड़ा हुआ नितिन का अपना रंग न त्याग का है, न वैराग्य का। हाँ, समर्पित हो जाने की रिक्तता का जो रंग होता है, नितिन की उदासी का रंग भी कुछ वैसा ही है।

आज की शाम नितिन को लग रहा था कि नीला रंग और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही गहरा हो गया है। ठीक नीली पड़ती नसों की तरह। बस पार्वतीपुर पहुँच गयी थी। नितिन ने मुड़ा हुआ अखबार उठाया और सामने वाले दरवाजे से उतर गया। रिक्शेवाले सवारियों के लिए चिल्ला रहे थे। उसे अपने गाँव के लिए रिक्शा मिल गया था। वह जैसे-जैसे गाँव के नजदीक होता जा रहा था, तरह-तरह की दुःशंकाएं, ऊहापोह-से उसे कसते जा रहे थे। उसे लग रहा था कि मस्तिष्क की नसों को जैसे कोई गुब्बारे की तरह फुलाता जा रहा हो और यह डर पैदा होता जा रहा हो कि वे कभी भी फट सकती हैं।

घर का दरवाजा जो हमेशा एक चुहुल से भरा रहता था, आज एक बेपहचानी भयावहता से घिरा हुआ लगा। ताऊजी शायद गाँव में कहीं गये थे। दरवाजे के एक तरफ बड़े भैया अपनी दाहिनी हथेली पर सिर टिकाये बैठे थे। न जाने किस तरह नितिन के आने की खबर घर के भीतर पहुंच गयी थी। माँ भागती हुई बाहर आयीं और नितिन से लिपटते ही उनके मुँह से एक गहरी चीख निकल गयी थी। कभी-कभी अनकहे भी परिस्थितियों और घटनाओं के अर्थ अपने आप खुलते चले जाते हैं। नितिन की समझ में बहुत कुछ आ गया था। क्यों और कैसे के सवाल उसके मन में अभी भी घुमड़ रहे थे, लेकिन उनकी उपयोगिता शायद अब नहीं रह गयी थी। प्रश्नों में सिर्फ धधकती राख को कुरेदा जा सकता है। बीते हुए क्षणों को वापस नहीं लाया जा सकता। बड़े भैया ने न जाने कितना साहस करके बस इतना कहा था-‘‘नीलू नहीं रही’’।

नितिन को लगा, जैसे भैया की आवाज दूर किसी खण्डहर से आ रही है। एक गहरा अँधेरा चारो तरफ घिरता जा रहा था। नितिन को लगा जैसे उसके हाथ इस अंधेरे की गिरफ्त में टूटते जा रहे हों और वह इनकी गिरफ्त से शायद अब कभी मुक्त नहीं हो सकेगा।



27  -

डायरी

[ जन्म 20 जून , 1940 ]

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

क्या आप एक तौलिया लाने की तकलीफ करेंगे” उनमें से एक ने, जो पुलिस का कोई अधिकार लगता था, कमरे में दाखिल होते ही कहा।

जी हां ,  कहते हुए में अंदर के कमरे में तेजी से भागा और इस तूफानी रात में अचानक उनके आने का कारण सोचने लगा। मैं कुछ भयभीत हो गया था और मेरी छाती धड़क रही थी।

मैंने उसे तौलिया दे दिया। वह इत्मीनान से अपने भीगे वालों को पोंछने लगा। अभी ये तीनों खड़े थे। यद्यपि उनके पीछे ही खाली सोफे पड़े थे।

मैंने कहा-“आप लोग कृपया बैठ जाएं। मैं और तौलिए ला देता हूं।

“नहीं, इसकी जरूरत नहीं। आप जरा पंखा खोल दें। 

मैंने पंखा खोल दिया और सोचने लगा कि अब यह शायद कहे-हमारे लिए एक पैकेट सिगरेट मंगवा दें। ऐसा सोचते हुए मुझे हंसी आने को हुई। पर मैं काफी घबरा गया था और मुझे लग रहा था, यदि अधिक देर तक इनके आने का कारण पता रहा तो मैं कांपने लगूंगा।

“आप मिस्टर भुवनेश्वर हैं न?” उसने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा। बाकी दोनों भी कुर्सी पर अदब के साथ बैठ गए। उनमें से एक अब भी रूमाल से अपने चेहरे को पोंछ रहा था।

“जी, मैं भुवनेश्वर हूं , ” मैंने कहा और उठ कर खिड़की को बंद कर देना चाहा क्‍योंकि हवा के तेज झोंके के साथ बौछार भीतर घुस पड़ी थी।

“कोई बात नहीं। आप तकलीफ न करें। हम अभी चले जाएंगे, ” उसने कहा और लाइटर निकाल कर एक सिगरेट सुलगाने लगा। अब वह गौर से मेरे कमरे को घूर रहा था। पूरा कमरा हलके हरे डिस्टेंपर रंग में। कनसील्ड वायरिंग, सामने एक बड़ा-सा मर्करी ट्यूब। छत में लटकता ओरिएंट पंखा, तीन बड़ी अलमारियां। एक अलमारी के ऊपर मिट्टी का बना अशोक स्तंभ। एक दीवार से सटा सोफासेट। एक किनारे दो छोटे-छोटे स्टूल और उन पर रखी कछ किताबें-फाइलें। एक स्टूल पर गोया की एक पेंटिंग। लकड़ी का एक टेबल लैंप और मझोले साइज़ का एक ग्लोब। बीच में एक बड़ा-सा तख्त जिस पर किताबें, फाइलें, पेन, डॉटपेन, तंबाकू का एक डिब्बा, चाभियां का एक गुच्छा, घड़ी और लिखी-अनलिखी कई चिट्रठयां। यह कमरे की हर एक चीज को और उन चीजों के पार बड़े गौर से देख रहा था। मुझे लग रहा था जैसे वह एक-एक कर मेरे कपड़े उतार कर नंगा कर रहा है और अब मेरी चमड़ी के नीचे मांस, रक्त और हड्डियों तक को छेद रहा है। मैं अपने को इस प्रकार अधिक देर तक नंगा होते बर्दाश्त नहीं कर सकता था।

“आपका कमरा वाकई बहुत खूबसूरत है.' उसने कहा और ग्लोब पर अपनी आंखें जमा कर पूछा-“यह ग्लोब आपने अपने कमरे में क्‍यों रखा है?”

मैं समझ नहीं पा रहा था क्या उत्तर दूं-'सारी धरती को अपने सामने देखते रहना मुझे अच्छा लगता है, ” मैंने धीरे से अन्यमनस्क हो कर उत्तर दिया।

“ आई अप्रीसिएट और आइडिया,” उसने मेरे संक्षिप्त से उत्तर से प्रभावित होते हुए कहा। उसके दोनों सिपाही दीवार के कोने की ओर सोफे में दुबके थे। वे खामोश थे और हम दोनों की बातचीत को भांपने की कोशिश कर रहे थे। कोशिश मैं भी कर रहा था पर मेरे सामने का पुलिस अधिकारी काफी रहस्यमय मालूम पड़ता था। अब मैं और अधिक बदश्ति नहीं कर सकता था। पर इसके पहले कि मैं उसके और उसके अन्य साथियों के आने का कारण पूछूं, उसने बड़ी नम्रता से कहा- “आपको तकलीफ तो होगी पर हमें माफ करेंगे... हमें आपके घर की तलाशी का हुक्म मिला है।'

मैं क्षण-भर के लिए विचलित हुआ, यद्यपि यह विचलित होने का समय नहीं था। कमबख्त इतनी देर तक जासूसी क्‍यों करता रहा। अब तक तो कई घरों की तलाशी ले चुका होता। मैं थोड़ी देर मौन रहा और मन-ही-मन तलाशी के संभावित कारणों की कल्पना करने लगा। मेरी समझ में कोई ठोस कारण नहीं आया।

'मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी, मगर यदि आप बिना कारण बताए मेरे घर की तलाशी लें तो मुझे दुःख जरूर होगा, ” मैंने बड़ी गंभीरता से कहा।

“आपकी तकलीफ मैं समझ सकता हूं, मिस्टर भुवनेश्वर, पर दरअसल कारण तो मुझे भी नहीं मालूम। बावजूद इसके मुझे आपके घर की तलाशी लेनी ही होगी ।”

“ठीक है! आप वक्‍त बर्बाद न करें', मैं उठकर अलमारियों के ताले खोलने लगा।

वह बरसात की एक खूबसूरत रात थी। घने काले बादलों के कारण अंधेरा और भी घना हो चला था। बाहर तेज बारिश हो रही थी और बारिश में भीगना मेरे जीवन की अत्यंत प्रिय आदतों में एक है। मुझे ध्यान आया मैंने घंटे भर से एक भी सिगरेट नहीं पी। यद्यपि मैं इतने समय में सात-आठ पी जाता था।

वह उठा। उसके साथ वे दोनों सिपाही भी। वे मेरी अलमारी की सजी हुई पुस्तकों को बड़े कौतुक से देख रहे थे। मैं सोच रहा था इन पुस्तकों का कुछ तो रौब पुलिस अधिकारी पर पड़ेगा ही, पर ऐसा भाव उसके चेहरे पर दिखाई नहीं पड़ रहा था। वह मन-ही-मन किताबों और उनके लेखकों के नाम पढ़ता जा रहा था। बीच-बीच में कभी-कभी किसी पुस्तक या लेखक के बारे में यह पूछ भी लिया करता था। पर कुछ ही मिनट बाद मुझे यह पक्का विश्वास हो गया कि इस पुलिस अधिकारी को साहित्य का प्रारंभिक ज्ञान भी नहीं है। यह महज संयोग था कि चे-ग्वेवारा  की डायरी उसने अलमारी से खींच ली थी और फिर उसके बारे में बिना पूछे उसने उसे सहज भाव से रख दिया था। एक पुस्तक पर मोटे-मोटे अक्षरों में सार्त्र का नाम देख कर उसने उसका अर्थ भी पूछा था। मैंने बता दिया था यह एक लेखक का नाम है।

दो अलमारियां यह निपटा चुका था और अब तीसरी अलमारी देख रहा था। इसमें मेरी अपनी पत्रिकाएं, पुस्तकें और रचनात्मक फाइलें थी। मेरे बहुत से पत्र थे। चित्रों का अलबम था। मेरी डायरियां थीं, जिन्हें दस वर्षों से नियमित लिखता चला आ रहा था। मैं थोड़ा घबराने लगा था; क्योंकि अब उसकी अंगुलियां मेरी असली जिंदगी से खेल रही थी। सबकी तरह मुझे भी अच्छा नहीं लगता कि कोई मेरी असली जिंदगी से खेले।

उस ने मेरे पत्रों की फाइल उठाई, जिसमें पिछले कई वर्षों की चिट्ठियां क्रमवार लगा कर रखी गई थीं। कुछ चिट्ठियों को तो मैं चाहते हुए भी नष्ट नहीं कर सका था।  हालांकि मिकी ने भी बार-बार आग्रह किया था उन्हें नष्ट कर देने का। अब मुझे अफसोस हो रहा था। मिकी की कई चिट्रठयां लगातार उलटने के बाद उसने पूछा-'ये मिकी कौन है?

'मेरी पत्नी। पर ये चिट्ठियां काफी पहले की लिखी हुई हैं जब हम दोनों की शादी नहीं हुई थी।'

“क्या आपकी पत्नी घर में नहीं है?”

“जी नहीं, शादी के साल भर बाद ही उन्होंने आत्महत्या कर ली ।”

“ मिस्टर भुवनेश्वर मुझे बहुत दुःख हुआ, किंतु मुझे उसके चेहरे पर दुःख की कोई रेखा नजर नहीं आई। वह अब भी चिट्ठियां उलटता जा रहा था। चिट्ठियां प्रायः पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों और साहित्यकारों की थीं। कुछ नेताओं और अफसरों की भी चिट्ठियां थीं, जिन्हें वह अधिक ध्यान से देख रहा था।

चिट्ठियों की फाइल बंद कर उसने चित्रों का मोटा-सा अलबम उठाया और रुक-रुक कर पन्ने पलटने लगा।

यह तो आपकी पत्नी का चित्र होगा? एक चित्र पर अंगुली रखते हुए उसने पूछा।

“ जी हां । ” मैंने कुछ सोचते हुए उत्तर दिया।

मैं अपने को वर्तमान की उस देहरी पर खड़ा पा रहा था, जहां से अतीत एक टूटे हुए डैनों वाले पक्षी की तरह फड़फड़ा रहा था। बड़े कुठांव मारा कमबख्त ने। यह चित्र मिकी की छोटी बहन ने खुद खींचा था। वह उसकी आत्महत्या की रात तक हमारे साथ थी।...बाहर अब भी तेज बारिश हो रही थी और कभी-कभी बिजली की तेज फड़क में कमरे की रोशनी कांप जाया करती थी...यह और भी चित्रों के बारे में मुझसे पूछता रहा, यद्यपि चित्रों के बारे में उसकी कोई खास दिलचस्पी नहीं लगती थी। अलबम में अधिकांश चित्र मेरे अपने खींचे हुए थे, जो विभिन्‍न स्थानों के प्राकृतिक दृश्यों, पहाड़ों, घाटियों, जंगलों, नदियों और भीड़ भरी सड़कों के थे। कुछ चित्र साहित्यकार मित्रों और तराई के गांवों में रहने वाले गरीब फटेहाल आदिवासियों के भी थे। सड़क की बाढ़ में घिरे एक गांव का चित्र भी था, जिसे उसने बिना निगाह डाले उलट दिया। मैंने वह चित्र उस भयानक बाढ़ में जिंदगी को दांव पर लगा कर खींचा था। वह एक-एक कर चित्रों को उलटता जा रहा था।

जब एक आदमी नंगा होता है तो वह अकेला नहीं होता उसकी पूरी जाति नंगी होती है, उसकी पूरी संस्कृति। मेरे मन में आया मैं उसके हाथ से अलबम छीन लूं। यह मेरी तलाशी लेने आया है। दूसरों की तौहीन करने का उसे कोई हक नहीं। मेरा मन कठोर हुआ, पर मैंने स्पष्ट कुछ नहीं कहा...

अचानक बगल की अलमारी में एक बोतल खड़खड़ाई तो मैं सन्‍न रह गया। दरअसल, इसके बारे में तो मैंने ध्यान ही नहीं दिया था। वह मरियल-सा दिखने वाला तीसरा सिपाही अब भी पहली अलमारी की पुस्तकों का निरीक्षण कर रहा था। उसने पुस्तकों के पीछे हाथ डालकर टटोलना शुरू किया और वहां रखी बोतल उसने अपने हाथ में ले ली। वह ब्रांडी की बोतल थी, जिसमें अब भी तीन-चार पैग ब्रांडी बच रही थी। पुलिस अधिकारी का भी ध्यान उधर गया और उसने बोतल सिपाही के हाथ से अपने हाथ में ले ली। उन तीनों ने बारी-बारी से बोतल को हाथ में लेकर देखा था।

“मिस्टर भुवनेश्वर, आप पीते भी हैं ? ” उसने बोतल को मेरी मेज पर रखते हुए पूछा।

“जी हां, कभी-कभी ।”

“मगर आपको देखकर कोई अनुमान भी नहीं कर सकता कि आप पीते होंगे।”

मैं कोई बहुत कड़ा उत्तर देना चाहता था, पर बहुत संयत होकर मैंने पूछा-“ताज्जुब है कि आप आदमियों को देखकर ही उन्हें पहचान लेते हैं। ऐसी शक्ति हर आदमी में नहीं होती ।' मेरे व्यंगय को वह पुलिस अधिकारी समझ गया था। वह खामोश होकर मेरी निजी फाइलों के पन्‍ने पलटने लगा।

मुझ से अधिक देर खड़ा नहीं हुआ जाता था, क्योंकि मैं दो ही दिन पहले फ्लू से उठा था और कमजोरी महसूस कर रहा था, पर क्‍योंकि वे खड़े थे, इसलिए सौजन्यवश मुझे भी खड़ा होना था। मेरा ध्यान मेज पर रखी ब्रांडी की बोतल की ओर गया। उसमें बची हुई थोड़ी-सी ब्रांडी कितनी खूबसूरत लग रही थी। बाहर अब भी तेज बारिश हो गयी थी। छत का पानी जोरों से नीचे गिर रहा था और बाहर दूर-दूर तक कुछ नहीं दिखाई पड़ता था। कभी-कभी बिजली की कौंध में खिड़की के बाहर बेल और नींबू के बोने पेड़ जरूर चमक जाया करते थे। कमीनों को इसी वक्त आना था। मैंने मन में सोचा-क्या आज मेरे घर की तलाशी न लेते तो कोई विश्वयुद्ध छिड़ जाता।

'सर, मैं कमजोरी महसूस कर रहा हूं। आप बुरा न मानें तो थोड़ी देर के लिए बैठ जाऊं,” मैंने पुलिस अधिकारी से अनुमति ली।

“हां, हां शौक से। बस अब मेरा काम भी हुआ ही समझिए |” वह मेरे जरूरी कागजात उलटता-पलटता रहा।

मैं सोफे पर बैठ गया था और उसकी ओर उदासीन होकर देख रहा था। एक खास समय के बाद चीजों में हमारी दिलचस्पी खत्म हो जाती है और एक खास ढर्रे में अपना भविष्य गढ़ लेने के बाद शायद जिंदगी में ही हमारी दिलचस्पी खत्म होने लगती है।

वह मेरी चीजें देखता जा रहा था और मैं उसे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि कुछ आपत्तिजनक चीजों को देख कर भी उसने उन्हें सहज भाव से वहीं रख दिया और उनके बारे में मुझसे कुछ नहीं पूछा। ऐसी चीजों में एयरगन के कुछ छर्रे थे, जो एक डिब्बे में दस-बारह साल से पड़े थे। बचपन में मुझे निशानेबाजी का शौक था और वे शायद तभी के थे। रिवॉल्वर का एक खाली कवर था, जिसे मेरा एक मित्र मरम्मत के लिए रख गया था। दैनिक इस्तेमाल की कुछ छोटी-मोटी विदेशी चीजें थी जैसे कैंची ब्लेड, नाखून काटने वाला कटर, टॉर्च और कैमरा। इन चीजों के बारे में उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा।

“ मिस्टर भुवनेश्वर, तो यही है आपकी डायरी?” उसने ऐसे लहजे में कहा था जैसे वर्षों से वह मेरी डायरी की तलाश में हो और उसे ढूंढ निकालने पर ही उसकी पदोन्नति होने वाली हो।

“ जी हां, इस कमरे में जो कुछ भी है मेरा ही है, डायरी भी,' मुझे अपने इस रूखे जवाब पर खुद असंतोष था, पर अब मैं काफी चिढ़ गया था।

“आप शायद नाराज हो गए?” वह मेरी मोटी-सी डायरी लिए हुए मेरे बगल में आकर बैठ गया। उसने अपनी तीसरी सिगरेट जलाई।

वे दोनों सिपाही कमरे के बाहर बरामदे में चले गए थे। शायद बीड़ी पीने चले गए थे, क्योंकि अपने बॉस के सामने वे उसे नहीं पी सकते थे।

वह सिगरेट पीते हुए थोड़ी देर तक डायरी उलटता-पलटता रहा और फिर मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा-'मिस्टर भुवनेश्वर, आपको थोड़ी तकलीफ देना चाहूंगा। आपको मेरे साथ कुछ देर के लिए पुलिस स्टेशन चलना होगा।'

“इसमें तकलीफ की कोई बात नहीं,” मैंने कहा। दरअसल, थोड़ी देर पहले ही मैंने इसकी कल्पना कर ली थी और मैंने मानसिक रूप से इसके लिए अपने को तैयार भी कर लिया था।

“मगर क्‍या आप अंदर वाले कमरे की तलाशी नहीं लेंगे?”  मैंने पूछा।

“कोई जरूरत नहीं है,' उसने कहा-“आप जल्दी से तैयार हो जाएं। सड़क पर गाड़ी खड़ी है।'

मैं फौरन कुर्ता पहन कर तैयार हो गया और बाहरी दरवाजे को बंद करने के लिए ताला ढूंढ़ने लगा।

“क्या आप भोजन नहीं करेंगे?” उसने पूछा।

“जी, मैं शाम को खाना नहीं खाता। ”

वह मेरी डायरी हाथ में लिए कमरे से बाहर निकल गया।

जब मैं दरवाजे पर ताला डाल रहा था, उसने पूछा-'क्या आप घर को सूना ही छोड़ कर चलेंगे?”

“ कोई चिंता की बात नहीं। जो कुछ आप ने मेरे भीतर देख लिया है , उस के अतिरिक्त मेरे पास बहुत कम रह जाता है छिपाने के लिए। ”

वह मुस्कराया। 

हवा कुछ मंद हो गई थी, मगर बारिश अब भी उतनी ही तेज थी। मैं उसकी बगल में जीप की अगली सीट पर बैठ गया था।

“कभी-कभी शरीफ लोगों को भी तकलीफ देनी ही पड़ती है। ” उसने गाड़ी स्टार्ट करते हुए कहा।

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। धुंधले शीशे से कुछ साफ दिखाई नहीं पड़ता था फिर भी वह गाड़ी बहुत तेज चला रहा था।

“ गाड़ी चलाने के लिए एक बंधी हुई दृष्टि जरूरी है। खुली आंखों वाला आदमी गाड़ी नहीं चला सकता, ” उसने मेरी और सप्रयोजन देखा।

“जी, ” मैंने कहा और अनुभव किया कि पहली बार इस आदमी ने एक पते की बात कही है।

पुलिस स्टेशन पहुंचते ही मुझे गल गया कि यह आदमी, जिसके साथ मैं आया हूं, पुलिस कप्तान से नीचे का आदमी नहीं है। उसके गाड़ी से उतरते ही बरामदे में बैठे दो-तीन थानेदारों ने कुर्सियों से उठकर सलामी दी। उसने उनसे मेरा परिचय कराते हुए कहा- “आप हैं मिस्टर भुवनेश्वर। इन्हें आराम करने देना।” फिर मेरी ओर मुड़ कर उसने कहा- दो घंटे बाद मैं आपसे थोड़ी बात करूंगा। फिर आप चले जाइएगा। आपको तकलीफ तो होगी, पर अभी मैंने खाना नहीं खाया है। मैं थोड़ी देर बाद खुद आ जाऊंगा।'

जब वह गाड़ी में बैठ कर चला गया तो उन सबके साथ मैं भी बरामदे में ही एक कुर्सी पर बैठ गया। यद्यपि मैं उनके बीच कतई बैठना नहीं चाहता था। मैं चाहता था, अब इन दो घंटों में मुझसे कोई किसी किस्म की बातचीत न करे। पर अकसर मेरे साथ यही होता है। जब मैं अकेला होना चाहता हूं तो अफसर मिलने-जुलने वाले बेवकत टपक पड़ते हैं।

मैं उन तीनों को एक नजर देख लेना चाहता था, मगर उनसे आंख मिला कर नहीं। मैंने आंख बचा कर उनकी ओर देखा। वे अपनी-अपनी वर्दियों में चुस्त-दुरुस्त थे। ऐसा लगा, वे अपनी डूयूटी पर हैं और रात-भर इसी तरह बैठे रहेंगे। मैंने उनके चेहरों को देखा, जो लगभग मिलते-जुलते थे। उनमें से एक अभी नया-नया लड़का था। उसने संभवतः अभी-अभी नौकरी शुरू की होगी। एक काफी प्रौढ़ था और उसकी लंबी मुड़ी हुई मूंछे थीं। तीसरा दाढ़ी-मूंछ मुंडाए काफी अपटूडेट और रंगीन तबीयत का लग रहा था। उनके चेहरों पर मेरे प्रति किसी प्रकार की कोई जिज्ञासा नहीं थी जैसे वे पहले से मुझे पहचानते हों। बरामदे में कोने वाले खंभे से बंधा एक लड़का सो रहा था। वह किसी अपराध में पकड़ कर लाया गया होगा। उसके पास ही एक और अधेड़ सो रहा था। मैंने अनुमान लगाया वह उसका अभिभावक होगा। मेरी इनमें से किसी में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

वे तीनों मौसम की बातें कर रहे थे।

“'मिस्टर भुवनेश्वर, आप तो कवि हैं। क्या आपने इस मौसम लायक कोई कविता नहीं लिखी है?” अपटूडेट से लगने वाले तीसरे दारोगा ने पूछा।

“आपने जरूर लिखा होगा। कुछ गा कर सुनाइए। इस साली रात को तो बैठ कर ही काटना है, मूंछे ऐँठते हुए दूसरे ने सहयोग किया।

मेरे मन में आया, उठकर इन दोनों को एक-एक चांटा जोर से लगा दूं। पर मैं चुप रहा। मैं अनुभव कर रहा था कि बर्दाश्त की कोई सीमा नहीं होती है।

'मुझे अपनी कविताएं याद नहीं रहतीं। आप लोग क्षमा करेंगे। वक्‍त काटने के लिए मौसम के विषय में ही बातचीत ठीक होती है,” मैंने कहा और कुछ अनुरोध के स्वर में बोला-“आप लोगों की बड़ी मेहरबानी होगी यदि मुझे घंटे-भर लेटने के लिए किसी बेंच या चारपाई की व्यवस्था करा दें।'

हां, हां आप अंदर वाले कमरे में चले जाएं। यहां एक बेंच पड़ी है, उनमें से एक ने मुझे उपेक्षा से देखते हुए कहा।

मैं उठकर कमरे में आ गया और बेंच पर लेट गया। कई घंटों बाद मैंने अपनी सिगरेट जलाई थी। लेटकर मैं उस अंधेरे कमरे में चारों ओर देखने लगा था। वह एक छोटा-सा गोल कमरा था। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखा है कि चौकोर कमरे की अपेक्षा गोल कमरे में अपने कैद होने का अधिक एहसास होता है। मैंने चारों ओर की ऊंची गोल दीवारों से अपनी आंखें हटा लीं। बाहर बारिश की आवाज अब भी सुनाई पड़ रही थी और बादलों की गड़गड़ाहट भी। अब मुझे ठंड भी महसूस हो रही थी। दिन-भर का थका होने और इन तीन-चार घंटों के मानसिक तनाव से बदन टूट रहा था...बरसात की एक ऐसी ही उफनती रात में मिकी ने मेरे साथ आजीवन निर्वसन सोने का वादा किया था...ऐसी ही एक गरजती-बरसती रात में मैंने अपनी एक प्रिय कहानी लिखी थी... ऐसी ही एक डरावनी रात में एक बार मैंने आत्महत्या का भी विचार किया था...

जब आदमी वर्तमान में घिर जाता है तो अमूमन अतीत की ओर या भविष्य की ओर भागने की कोशिश करता है। मैं अपने मन को इन दोनों ही दिशाओं में खींचकर वर्तमान में लाना चाहता था। मैं फिर से उन ऊंची गोल दीवारों को देखने लगा था।

ठीक दो घंटे बाद वह आया। मैं उसी की प्रतीक्षा कर रहा था। वह बरामदे से होता हुआ सामने अंदर के कमरे में चला गया। मुझे अकेले में उसने वहीं बुलाया। कमरे में मेरे दाखिल होते ही उसने आदरपूर्वक बैठने को कहा। वह कुछ गंभीर और खोया-खोया-सा लग रहा था। मेरी ओर बिना देखे ही उसने कहा-'मिस्टर भुवनेश्वर पिछले दो घंटे में मैंने आपकी डायरी के लगभग सौ पेज पढ़ डाले हैं। दरअसल, मैं आपकी डायरी ही पढ़ने गया था। खाने का तो महज एक बहाना था। मैं कोई साहित्यकार तो नहीं हूं, न मेरी साहित्य में कोई दिलचस्पी है, फिर भी मैं आपके साहस और आपकी प्रतिभा को स्वीकार करता हूं। और हां, इन सबके बावजूद आपको प्रति अच्छी धारणा होने के कारण मैं आपको एक नेक सलाह देना चाहूंगा कि आप इस तरह की चीजें न लिखा करें ।

“ क्यों?” मैंने पूछा।

मैं अपने सामने बैठे हुए इस आदमी को समझ नहीं पा रहा था। यदि वह सचमुच मेरे लेखन से प्रभावित है तो फिर न लिखने का आग्रह क्‍यों कर रहा है?


“ तो आप लिखेंगे ही। क्यों?” उसने जवाबी सवाल किया।

“इसका उत्तर मेरे पास है, पर आप समझ नहीं पाएंगे,” मैंने कहा।

वह विचलित नहीं हुआ-'मैं खूब समझ पाऊंगा, मिस्टर भुवनेश्वर, आपने अपनी डायरी में इसका उत्तर लिखा है न? मैंने उसे समझ लिया है। आप समय का एक सच्चा दस्तावेज छोड़ जाना चाहते हैं। यही न? मगर क्‍यों? आप होते कौन हैं समय का इतिहास लिखने वाले? क्या आपको मालूम है अगर इस डायरी को प्रमाण मान कर आपके ही विरुद्ध चार्जशीट लगाया जाए और उस पर निष्पक्ष निर्णय दिया जाए तो आपको अपनी पूरी सजा भुगतने के लिए दूसरा जन्म लेना पड़ेगा? आप एक भले आदमी हैं। शिक्षित हैं। कमाइए-खाइए। आराम से रहिए। क्या आपके पास और धंधे नहीं हैं? नाहक दूसरों और अपने को भी नंगा करने पर क्‍यों तुले हैं? बहरहाल, मुझे आपसे सिर्फ इतना कहना था। निर्णय लेना आपका काम है। अब आप जा सकते हैं। मेरी गाड़ी आपको घर तक छोड़ आएगी।'

“धन्यवाद,” मैंने कहा-“आप मेरी डायरी लौटा दें। मैं पैदल ही चला जाऊंगा। मुझे बारिश में भीगना अच्छा लगता है।'

“अफसोस है मिस्टर भुवनेश्वर, मैं आपको आपकी डायरी वापस नहीं कर सकता। भविष्य में भी आपके पास ऐसी कोई “खतरनाक डायरी” मैं रहने नहीं दे सकता, ” उसने एक-एक शब्द रुक-रुक कर बड़े दुःख के साथ कहा था, ऐसा मैंने महसूस किया।

“क्या ऐसा नहीं हो सकता , सर! कि आप मेरी डायरी के आधार पर मुझे चार्जशीट दे दें, मगर मेरी डायरी लौटा दें? मैं आपको सोचने का मौका देता हूं। आपके हाथ में है। कल शाम आपसे फिर मिलूंगा।”

उत्तर में वह काफी गंभीर हो गया था और उसकी आंखें उदास हो उठी थी।

मैं बिना प्रतीक्षा किए तेजी से बरामदे में निकल आया था। बाहर अब भी बारिश हो रही थी। अंधेरा और भी घना हो चला था। अब मैं अपने घर लौट रहा था। एक पिता की तरह जो अपने पुत्र को दफना कर लौट रहा हो।


28  -

काला हंस

शालिग्राम शुक्ल


कितनी गहराई तक गयी होंगी ये जड़ें! सुनहली लड़की ने सॉवले पुरुष से कहा और कहीं कोई जड़ अनुभव करती सिहर उठी।

न्यूयार्क प्रदेश की उस झील के किनारे एकान्त में ऊन और देह की महक पीती उनकी सौँसें अक्टूबर की सूखी ठण्डी हवा में भाप बन लिपटतीं खो जातीं। लहरों पर टूटता सूरज उन्हें उत्साहित करता रहा। पेड़ के पत्तों का रंगीन श्रृंगार उनमें उमंगें भरता रहा। नीली आँखों में रह-रहकर आकाश और काँपता वसंत उतर-उतर आता। रह-रहकर विद्ध स्वर्ण-चिड़िया पखने फैलाये फड़फड़ा उठती। घास में नारंगी रंग उतर आया था।

उस एकान्त में पिछली गरमियों का कोई सिलसिला निर्णय पर पहुंच चुका था। पिछली गरमियों की ही तो बात थी। विश्वविद्यालय में छुट्टियाँ हुई। देशी-विदेशी सांस्कृतिक कार्यक्रम रातों में हरियालियों पर जगह-जगह आग-से चमक उठते। पुस्तकालय के पास के पानी में उस रात एक नाव झलक रही थी। वहीं पत्थरों के एक मंच पर पेड़ों से लटक रहे प्रकाश के नीचे फीनिश-लोक नृत्य हो रहा था। रात-गये पुस्तकालय से लौटते नरायन वहीं एक पेड़ के नीचे रुक गया। नाच खत्म होने पर नाचनेवाले चीड़ों के पीछे अँधेरे में खो गये, सिवा एक नाचने वाली लड़की के जो आकर नरायन के पास पेड़ की जड़ पर थकी बैठ गयी।

लड़की की शिधिल गोरी बांहों पर सोने के तारों-जैसे केश हल्की हवा में उड़-उड़ जाते। चीड़ों में सॉय-साँय करती हवा बहे जा रही थी। लड़की ने अपनी खिसक गयी अँगिया ठीक की। चेहरे पर बिखर आये केशों को हटाती ऊपर देखती हँस पड़ी। नरायन भी हँस पड़ा। “आखिर वह यहाँ खड़ा क्‍यों है?

तभी शिकारी-सा कोई आया। देह से उसका स्वागत करती लड़की पानी में प्रतिक्षा करती नाव में उतर उसके साथ तरल अंधेरे में खो गयी।

थोड़े दिनों बाद मौसम की तेज गरमी पड़ी तो लोगों का तन-मन झील की तरफ उड़ चला।

नीले पानी में लयदार साँवली देह लड़की को खींचती रही। झील पर रुकी नाव पर सूरज तलवार-सा कलक उठा। कोई आवाज दे रहा था। क्या वह नाच की रातवाली नाव थी? नरायन ने लड़की प हचानी। दोनों एक ही दिशा में तैरते रहे। एक की लोहे-सी लम्बी साँवली भुजाएँ पानी काटती रहीं, दूसरे की सोने की काया झील में प्रकाश पकड़ती रही।

उसी सप्ताह नगर से दूर पहाड़ी पर बने एक प्राचीन घर में प्रोफेसर ब्रूखमान ने समारोह किया था। आधी रात बाद नरायन बरामदे में अभी उतरा ही था कि वही लड़की पीली रोशनी में खड़ी मिली। नरायन को देख अपने साथी से कुछ कहते-कहते रुक गयी। साथी ने नरायन की उपस्थिति स्वीकार की। वे प्रोफेसर ब्रू खमान के छोटे भाई डॉक्टर कार्ल ब्रू खमान थे। लड़की हरे कपड़े में एक डाली-सी लगी। रात-गये तक नरायन हरी डाली में चमकते सुनहले सेब देखता रहा।

इस तरह नरायन और लड़की एक-दूसरे से मिलते, एक-दूसरे के खयालों से उलझते रहे। अपनी आग से एक-दूसरे के अँधेरे को सुलगाते रहे।

एक दिन राह चलते बारिश होने लगी। आड़ की तलाश में नरायन एक आधी बनी इमारत की सीढ़ियों के नीचे आया तो वह वहाँ पहले से थी। एक-दूसरे से सटे वे प्रतीखा करते रहे-पानी रुकने का नहीं। बूँदें ईंटों पर तबाह होती रहीं और मँहकती देहें मोहित करतीं उन्हें तबाह करती रहीं।

बूँदें पतली होने पर दोनों बाहर आये। अपनी नीली आँखों का रंग उड़ेलती लड़की ने पूछा, “प्रोफेसर ब्रू खमान हमारे मित्र है।”

आँखों के नीलेपन पर हैरान होते नरायन ने हामी भरी, फिर पूछा, “ये आँखें बरसात में चेहरा तो नहीं रंग डालेंगी?”

दोनों हँस पड़े।

“यहाँ क्‍या पढ़ रही हैं ?” नरायन ने पूछा

“ऋतु विज्ञान, और आप?”

“भौतिक विज्ञान ।”

दोनों एक ही दिशा में चलते रहे। कद में वह लम्बी थी और नरायन उससे भी लम्बा। लड़की ने फिनलैण्ड में घोड़ों की सवारी की थी। नरायन को देख उसे किसी काले रेशमी घोड़े की याद आयी। मुस्करा उठी। उसका नाम सोन्या  था। वह भी विदेशी थी-फिनलैण्ड की।

उस भींगी मुलाकात के बाद एक रात किताबों की दूकान में वे मिले। प्रकाश-पुंज के नीचे खड़ी वह कोई किताब पढ़ रही थी। सुनहले बालों पर उजाला फँस गया था। नंगी बाँहों के प्रकाशित रोयें असहनीय हो उठे तो नरायन बाहर निकल आया। प्रकाश-पुष्पोंवाली रात रोमांचकारी हो उठी थी। एक ही स्थान पर जड़ा रहा। कई लम्बे क्षणों बाद वह भी बाहर आयी। दोनों चुपचाप पेड़ों के अँधेरे में ढाल की ओर उतर पड़े।

सोन्या के हाथ में कागज में लिपटे आधे दर्जन तीर थे। किसी मित्र को तीर-कमान का शौक था, उसने बताया।

एक आदिकालीन वृक्ष के गरम अँधेरे में बैठे घाटी की टूटती-जुड़ती रोशनियों में एक-दूसरे का स्पन्दन अनुभव करते रहे। आग्रह करने पर नरायन ने भारतवर्ष की बातें बतायीं। सोन्या घाटी की रोशनियों में परायी सभ्यता के बिम्बों से उलझती गयी। नरायन के लिए वहां बह चली गंगा जिसके तट की मानवता, करुण दयनीयता, और क्रूरता किसी अन्तहीन नाटक-सा उभरती रही।

“मैं तुमसे प्यार करने लगी हूँ!” सोन्या ने दूर देश में खो गये मित्र से कहा। अँधेरे में उसके तमतमा उठे कपोलों को छूता किसी भविष्य की कल्पना से नरायन काँप उठा।

दूसरे दिन बिना बताये सोन्या दूर पहाड़ पर बनी ऋतु-शाला चली गयी। सम्भवतः भविष्य ने भी उसे भी कँपा दिया था। 'पतझर के दिन आते-आते आ जाऊँगी , ” एक चिट पर लिख नरायन के पास भेज दिया।

लेकिन पतझर के आने तक इन्तजार न कर सकी। अक्टूबर की एक रात ठण्ड पड़ी। पौधों को पाला मार गया। पेड़ की पत्तियों में रंग उतर आया। नरायन विश्वविद्यालय जा रहा था कि ढाल पर सोन्या दिखायी पड़ी। उसकी ओर दौड़ पड़ा। सोन्या की आर्द्र आँखें झील की ओर थीं जहाँ तट पर रंगीन पेड़ों के झुरमुट प्रतीक्षा कर रहे थे।

झील तट के रंजित एकान्त में सूरज परछाहियों को सीधा कर रहा था। लेकिन किसी दूसरी दुनिया में बिजली चमक उठी। उर्वर धरती भींगती रही।

आर्द्र उत्सव बीता तो क्लान्ति छा गयी। यह कैसा सपना था? यह उदासी क्यों? 'क्या हम आखेट हो चुके हैं?” उन्होंने एक-दूसरे से निःशब्द प्रश्न किया।

“आखेटक कौन है?”

उस रात वे एक नृत्य-गृह में गये। तेज संगीत और नीले धुएँ बीच उन्हें डर था कि कहीं कुछ खो न जाय। उस रात सोन्या नरायन के पास ही रही। रात-गये वे संगीत सुनते रहे। सम्भवतः वायलिन की वह धुन थी, या जीने की उद्दाम उत्तप्त इच्छा, या उठ-उठ आती सर्जनात्मक शक्ति, या यह सब कुछ-वे निश्चिन्त, निःशंक, निर्भय एक-दूसरे को स्वीकारते रहे।

सुबह सूरज कमरे में आया तो वे चौंक पड़े। भेद खोलती किरनों को किसी तरह बाहर खदेड़ किसी उत्सव के पुनर्निर्माण में जुट गये। “लगता है हम अपना सपना हो चले हैं , ” सोन्या ने कहा। नरायन का चेहरा सुनहले केशों से ढँक उठा था, या सुनहले जाल में?

कुछ दिनों बाद सोन्या पहाड़ पर बनी ऋतु-शाला लौट गयी। महीना बीतते-बीतते उस मालूम हो चला कि वह गर्भवती है। इस मोहक और भयावह सत्य को नरायन से गुप्त रखा। क्रिसमस की प्रतीक्षा थी जब वे साथ होंगे।

क्रिसमस में आयी तो नरायन उसे देखता रह गया। नरायन की धातु-सी भुजा पर सुनहला सिर टिकाये, आँखों का नीला आकाश बन्द किये आने वाले समय में प्रकाश ढूँढ़ती रही।

शाम को झील तट पर निष्पन्न पेड़ों की शांति में वे अकेले थे।

“चाहती हूँ अस्तित्व तुम में उड़ेल कर होने के भार से मुक्त हो जाऊँ।

आँखों की नीलिमा रात बन चली।

पेड़ों की आड़ में, एक-दूसरे से स्पन्दित, मोहित वे झील पर रास्ता बनाते चाँद को देखते रहे। भुजाओं में कसे निष्कम्प खड़े रहे। फिर नरायन की अँगुली अपनी नाभि में रखती उसने अपने गर्भ की बात बतायी। वे चले तो चाँदनी में उघरे बर्फ के चकत्ते पैरों-तले चुरमुरा उठे।

उस रात के बाद कई दिनों तक सुनहली धूप में आसपास की आबादी चमकती रही। एक दिन फर्श पर बिछे कम्बल पर लेटी सोन्या के रोंये दक्षिणी धूप में धधक रहे थे। एकाएक एक बड़ा-सा काला बादल झील की ओर से आया और देखते-देखते कमरा स्याह हो उठा। सोन्या किसी अनजाने डर से कॉप उठी। उसने जोर से नरायन का नाम ले पुकारा! उसे मालूम नहीं था कि नरायन पास बैठा उसे देख रहा था।

“क्या बात है डालिंग?”

“यह डर क्‍यों? मेरा कलेजा छुओ, इतना कम्पन क्‍यों?”

उस रात सहमे वे किसी प्रकाशहीन तथ्य को समझने का प्रयास करते रहे। दूसरे दिन सोन्या पहाड़ पर ऋतु-शाला चली गयी।

मार्च में हिन्दुस्तान से नरायन के पिता का पत्र आया। कोई अपनी सम्पत्ति बेच शहर जा रहा था। पिता ने पच्चीस हजार रुपयों की माँग की थी। वह सम्पत्ति खरीदना चाहते थे। पत्र ने असमंजस में डाल दिया। जो कुछ पैसे जमा कर रखे थे वह सोन्या के बच्चा पैदा होने का खर्चा था। इस असमंजस की चर्चा नरायन ने अपने मित्र प्रोफेसर ब्रूखमान से की। प्रोफेसर ने इसकी चर्चा अपने भाई डाक्टर कार्ल ब्रूखमान से की। कार्ल सोन्या के अतीत के साथी थे और नरायन से उन्हें ईर्ष्या थी।

दूसरे दिन कार्ल ने नरायन को फोन किया, कहा, क्यों न घर पर ही बच्चा पैदा हो। अस्पताल के सभी खर्चे बच जायेंगे। तुम अस्पताल में आकर बच्चों का पैदा होना देखो, मेरे साथ उन मौकों पर शरीक हो। अभी पर्याप्त समय है।'

सोन्या की सहमति मिलने पर नरायन ने सुझाव मान लिया। अपनी सारी बचत और सोन्या से कुछ और पैसे ले पिता को भेज दिये।

दिन-रात पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहने के बावजूद इतनी बेचैनी क्‍यों? समय की गति इतनी भारी क्यों? सोन्या की अनुपस्थिति से पीड़ित एक शाम नरायन उस पुस्तक की दुकान गया जहां प्रकाश की धारा से अभिषिक्त वह उसे एक बार दिखी थी।

मई के प्रारम्भ में सोन्‍न्या को ऋतु-शाला से लाने नरायन चल पड़ा। रास्ते में जंगल का एक सूखा खण्ड आगे में दहक रहा था। जान ले भागता एक हिरन नरायन की गाड़ी से टकरा, आहत हो सड़क पर गिर पड़ा। रुक, नरायन ने उसे सहलाया, फिर उठा गाड़ी की पिछली सीट पर रख लिया।

ऋतु-शाला के बरामदे में बैठी सोन्या प्रतीक्षा कर रही थी। आहत हिरन-शावक को देख उसकी आँखें भर आयीं। थोड़ी परिचर्या के बाद हिरन उठ खड़ा हुआ। शाम होते-होते पहाड़ के उतराव की ओर चीड़ वन में चला गया। दूर जंगल की आग अभी भी दिखायी पड़ रही थी। किसी दूसरे देश-काल में चाँदनी रात में खलिहान जल रहा था। किसी की हत्या हो चुकी थी और किसी बचचे की रक्षा किन्हीं हाथों ने की थी।

गंगा किनारे के उस देश-काल से लौटते सोन्या को निहारते नरायन ने कहा, “तू जैसे कोई अलौकिक फूल हो ।”

“जिसके बीच एक बड़ा-सा फल बढ़ रहा हो, ” कहती वह हँस पड़ी।

दूसरे दिन दोपहर बाद मीठी मँँहकवाली घास पर लेटे, मधुमक्खियों की भनभनाहट सुनते वे सो गये। तन्द्रा भंग की कलवाले हिरन ने। उसे देख, मारे खुशी के सोन्या की छातियों में दूध उतर आया। “क्या यह संभव है?” दूध देख नरायन चकित था।

ऋतु-शाला से वापस आ दोनों झील तट पर बने प्रोफेसर ब्रूखमान के काटेज में रहने लगे। अस्पताल और डाक्टर कार्ल का दवाखाना नजदीक ही था।

झील पर जब कभी समय थम जाता, एक काला हंस उनके ध्यान का केन्द्र बना क्रीड़ा करता रहता। हंस की लयदार गति में सोन्या नरायन के अंग देखती। हंस से नरायन का परिचय बढ़ता गया। इतना कि डाक्टर कार्ल हंस  को नरायन नाम से पुकारने लगे।

एक शाम गर्भ से भारी सोन्या पेड़ के तने के सहारे खड़ी झील पर डूबते सूरज में खोयी थी। नरायन पानी की खून से रँगी सिकुड़ी चादर पर प्रसव-पाड़ा से दुहरा होता सोन्‍्या को देखता रहा। सूरज की लाली डूबते ही झील पर ऐसी हवा चली कि तट पर बँधी नावें टकरा गयीं और ऐसी आवाज हुई मानो कोई पशु दाँतों से करकराता कुछ चबा बैठा हो।

आत्मविश्वास से दमकती सोन्या नरायन के पास आयी। डूब गये सूरज से रिक्त बादलों के घाव में खोयी नरायन की आँखों को मूँदती उसकी देह पर निढाल हो गयी। उसके ओठों पर कोई फीनिश लोक धुन थी। अँधेरा बढ़ता गया।

रात घिर आयी तो केस सम्हालती, प्रसन्‍न और तृप्त सोन्या झील में उतरते चाँद की ओर चली गई। उदास और थका नरायन घास पर लेटा रहा। 'प्रकृति में क्रूरता का आरोपण हमारी निरीहता है”, वह बुदबुदा रहा था। उसे न सुनती सोन्या चाँद के नीचे हलर-हलर करती झील का अंग बन चुकी थी। शान्ति भयावह हो चली।

जून की रात थी। चांद पेड़ों पर चढ़ आया था। सोन्या को सोयी छोड़ नरायन झील तट पर आ कर बैठ गया। चाँद पानी में टूट रहा था। पास झाड़ी में फड़फड़ाहट सुन नरायन दौड़ा। काला हंस छटपटाता दम तोड़ रहा था। लपक कर उसे गोद में ले लिया। बरामदे की रोशनी में जाँच की। गर्दन के पास से होता एक तीर बायीं टाँग के नीचे झूलते पखने के पास निकल आया था। चंगुल खून से भींगे थे।

“नरायन डार्लिंग ।” सोन्या ने अन्दर से कराहते पुकारा। हंस छोड़ वह दौड़ गया। रोशनी तेज की। बड़े तकिये पर टाँग रखे सोन्या लेटी थी। चादर से पेट और जाँघे ढँकी थीं। हाथों से पेट थामे हुई थी।

“कब से पीड़ा शुरू हुई?” सोन्या के हाथों की उभरी नसों को सहलाते नरायन ने पूछा।

“आधी रात के पहले से ही। शाम को ही मुझे कुछ बदला-बदला लग रहा था।”

“क्या अभी देर है?”

“हर पांच मिनट पर दौरा आ रहा है।” सोन्या ने हँसने की कोशिश की।

“मुझे पहले क्‍यों नहीं बुलाया?” सोन्या का पेट छूते नरायन ने कहा।

“दोष मेरा है। मुझ यहाँ से जाना नहीं चाहिए था।”

“सब ठीक है डार्लिंग ।” सोन्या मुस्कराने का प्रयत्न करती रही।

“सब तैयार है न?” मेज की ओर देखते उसने पूछा।

“सब कुछ वहाँ मेज पर है।” सोन्या कराह उठी।

“मैं कार्ल को फोन करता हूँ। आ जाता तो अच्छा होता।”

लेकिन डॉक्टर कार्ल नहीं मिले। वे अस्पताल में व्यस्त थे। थोड़ी देर बाद उनका फोन आया।

“घबराने की कोई बात नहीं। मैं नर्स को तत्काल भेज रहा हूँ। थोड़ी देर बाद स्वयं आऊँगा।”

छोटी-छोटी गद्दियाँ, बच्चे को लपेटने का कम्बल, नायलान के धागे, रूई के फाहे, कैंची, साबुन आदि चीजें नरायन ने किसी क्रम से मेज पर रख दीं।

मेज को बिस्तरे के पास ले आया। स्टोव पर खौलते पानी में कैंची डाल, फिर उस बर्तन को मेज पर रख, साबुन से हाथ धो, नाखून साफ कर, हवा में हाथ भाँजता, सोन्या के पैताने खड़ा हो गया।

“दौरे अब जल्दी-जल्दी आ रहे हैं,” सोन्या कहती कराह उठी।

नरायन ने उसके ऊपर की चादर उठायी। प्रसव-पीड़ा का नवीनतम दौरा ख़तम हुआ तो सोन्या की जांघें उठा नीचे गद्दियाँ रख दीं। फिर साबुन लगा काँपते हाथों सोन्या के अंग साफ किये। सोन्या ने अभी साँस ली ही थी कि पीड़ा का एक नया दौरा आया और जाँघों बीच एक पतली धार बह चली। थैल्ली टूट चुकी थी। बच्चा कुछ नीचे आ चुका था। सोन्या सहसा पीड़ा से दुहरी हो उठी। गर्दन की नसें तन उठीं। प्रसव-पीड़ा से देह ऐंठ-ऐंठ उठी।

“सम्हल के डार्लिंग, सपाट लेटी रहो। सीधे, हाँ ऐसे ही-सीधे। एकदम सीधी लाइन में आने दों हाँ ऐसे ही, ऐसे ही। बच्चा अब निकल ही आया।”

नरायन ढाढ़स बँधाता रहा।

योनि चीरता बच्चे का सिर बाहर निकला तो नरायन ने उसे पकड़ लिया। डर था कि कहीं बच्चा खुलते फटते अंग से नीचे लटक न जाय। न सह सकने वाली पीड़ाओं से दोनों लड़ते रहे।

नाड़े से कहीं बच्चे की गर्दन कस न जाय इस नाते उसने छोटे भींगेचमकते सिर को एक तरफ घुमाया। तीखी चीख के साथ सोनन्‍्या प्रसव-पीड़ा के

अन्तिम दौरे से गुजरी तो पूरे-का-पूरा बच्चा नरायन के हाथों में सरक आया।

“ओह डार्लिंग, तू कितनी बहादुर है। देख, यह बच्ची हुई।”

नरायन ने बच्ची दिखा कर फिर उस अचरज-पुष्प को कम्बल में लपेट सोन्या के पेट पर लिटा दिया। उसने शिशु के चेहरे को नीचे ही रखा। डर था कि मुँह में पड़ा रक्त आदि गले से नीचे न उतर जाय।

“नहीं, अभी इसका मुँह न उठाओ सोन्या ,” कहता शिशु का मुँह साफ कर उसने उसे निहारा। “यह कैसा रहस्य है? न सुख, न दुख, एक भाषाहीन आदिकालीन अस्तित्व ।”

बच्ची को मां के पेट पर दुबारा रखते नरायन ने पूछा, “कैसी हो डार्लिंग ?”

मुस्कराती और रोती सोन्या कुछ कह न सकी।

विलम्ब के लिए क्षमा माँगती डॉक्टर कार्ल की भेजी नर्स आयी।

क्षण-भर बाद पीड़ा का एक और दौरा आया, सोन्या का पेट सिकुड़ा-फैला और समूचा नाड़ा निकल गद्दी पर छद्द  से गिर पड़ा।

नर्स ने शिशु की नाभि के ऊपर चार इंच छोड़ नाड़ा नायलान से बाँधा। इंच भर दूरी पर एक और गाँठ लगायी और दोनों गाँठों बीच नाड़ा काट दिया। बच्ची चिल्ला उठी।

“अब तू अपने घर है, स्वतन्त्र,” मुस्कराते हुए नर्स ने कहा।

नर्स ने कटी नाभि पर फाहा लगाया फिर उसकी देह साफ की।

सोन्या को सहारा दे उठा नरायन ने उसके नीचे की गद्दियाँ हटायीं। नाड़े को दूसरी गद्दी में लपेटा और सब-कुछ एक बड़े से कागज के थैले में डाल दिया। फिर नर्स की सहायता से उसकी देह बड़े-बड़े गरम नम फाहों से साफ की। सोन्या की जाँघों के नीचे एक साफ गद्दी बिछायी, खुला अंग बन्द किया और पैर सीधे किये। सोम्या की बगल में लेटी बच्ची सो रही थी।

तभी फोन बज उठा। डॉक्टर कार्ल थे। समाचार पूछा और नर्स की लायी हुई कोई दवा सोन्या को देने को कहा। दवा दे नर्स ने विदाई ली। कहा कि सुबह दस बजे फिर आयेगी।

इतनी थकान, इतनी राहत और इतना अकेलापन! बच्ची आराम से सो रही थी मानो इन घटनाओं में उसका कोई हाथ नहीं था।

“अब तुम भी आराम करो,” सोन्या ने नीली आँखों का पानी पीते कहा।

“अभी कुछ और काम है,” कहता नरायन खून से सनी गद्दियों और नाड़ा-भरा थैला उठाये बाहर आया ।

मैदान में एक बड़े पीपे में थैला फेंक, उस पर कुछ अखबार के टुकड़े और पेट्रोल डाल आग लगा दी। जीभ लपलपाती आग भभक उठी। एक आदिकालीन वृक्ष के पीछे पश्चिमी क्षितिज में चाँद उतर रहा था। नरायन कई क्षणों तक वहीं खड़ा रहा। फिर वहाँ से हट सीढ़ियों पर बैठ गया। वहीं मरा हुआ हंस पड़ा था। गर्दन का पसीना पोंछने के लिए पैन्ट की थैली से रूमाल निकाला तो कागज का एक टुकड़ा हंस के ऊपर गिर पड़ा। सुबह की चिट्ठी थी जिसे वह अभी तक पढ़ न सका था। मामा ने लिखा था, “तुम्हारे पिता ने जो जमीन लेने की ठानी है उसमें खतरा है। पट्टीदारी के लोग वह जमीन किसी दूसरे को लेने नहीं देंगे। अपने पिता को मना कर दो नहीं तो मारपीट और हत्याओं का सिलसिला शुरू हो जायेगा। तुम्हें शायद वह वर्षों पहले का अनर्थ याद हो...

वर्षों पहले का वह अनर्थ। चैत की चाँदनी में खलिहान के गेहूँ के भूसे पर नरायन के पितामह उसे संस्कृत के श्लोक सिखा रहे थे। वही पट्टीदारी के लोग वहाँ चोर-से आये देखते-देखते गँड़ासे से पितामह के दो टुकड़े कर दिये, खलिहान में आग लगा दी, और नरायन को उस अग्निदाह में फेंकने वाले थे कि किन्हीं हाथों ने रोक दिया। “इस बच्चे से कोई बैर नहीं. कोई कह रहा था।

सीढ़ी पर पड़े हंस की ओर या अपने पितामह की ओर झुक नरायन ने आदरभाव प्रकट किया। सोन्या के पास आया तो पाया कि अभी वह जाग रही थी।

“कहाँ रहे इतनी देर तक?” कहने में शिकायत थी।

“काले हंस को किसी ने तीर से मार डाला,” लज्जित और दुखी नरायन ने कहा।

“तीर से? तीर कहाँ है?”

“हंस की देह में”

“निकाल कर लाओ तो।” वह किसी ख्याल में खो गयी फिर बोली, “जब तुम शहर गये थे। दिन में वह यहाँ आया था। तीसरे पहर हंस जीवित था।” वह एकाएक चुप हो गयी।

“कौन आया था?”

तभी बाहर मोटर रुकने की आवाज आयी। डॉक्टर कार्ल ब्रूखमान थे। अन्दर आ, बधाई देते कुशल पूछा। सोन्या  की जाँच की। बच्ची को देखा। कहा कि तीन-चार दिन में सोन्या चलने-फिरने लगेगी।

“कॉफी बनाऊँ कार्ल?”

“जरूर, धन्यवाद नरायन। तुमने तो कमाल कर दिया। ”

नरायन रसोईघर में चला गया तो कार्ल की आँखों में देखते सोन्या ने पूछा, “तुमने हंस को मार क्‍यों डाला?”

“मैं तुम्हें अब भी उतना ही चाहता हूँ, सोन्या।”

सोन्या ने कुछ और नहीं कहा। हंस की पीड़ा और मृत्यु के दुख से आँखें भरती रहीं।

कॉफी पी कार्ल ने विदाई ली। “जरूरत पड़े तो निस्संकोच कहना, नरायन ।” जाते-जाते कहते गये।

“नरायन, कार्ल हत्यारा है। उसी ने हंस की तीर से हत्या की।”

 “कार्ल ? ”

सोन्या की देह सहलाता नरायन कई लम्बे क्षणों तक चुपचाप बैठा रहा। दवा का असर होने लगा तो सोन्या अपनी बच्ची को दुबकाये सो गयी। किसी कथा के चरित्र की तरह नरायन अपने सोते परिवार को देखता रहा।

बाहर आया तो झील पर और पूर्वी आकाश में सूरज के सतरंगी घोड़ों के चल चुकने के संकेत जाहिर हो उठे थे।

“उस रथ में क्‍या हमारे लिए भी स्थान है? नरायन के प्रार्थना करते ओठ बुदबुदा उठे।


29 -

मद्धिम रोशनियों के बीच

[ जन्म : 5 अगस्त , 1943 ]

आनंद स्वरूप वर्मा

उस कस्बेनुमा शहर की मुख्य सड़क का मैं एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगभग आठ चक्कर पूरे कर चुका था। पैण्ट की दोनों जेब में हाथ डाले इस इत्मीनान से घूम रहा था गोया मेरी यहां रियासत हो...।

अब धीरे-धीरे दरबों में से झांकते हुए कबूतरों की तरह कुछ चेहरे होटलों में से, बाल काटने की दुकानों में से झांकने लगे थे। मेरा चेहरा उस कस्बेनुमा शहर के लिए एकदम नया था और वहां के छोकरों को इस बात की घबराहट होने लगी थी कि यह नया ‘हीरो’ कहां से पैदा हो गया। मुझे यह देखकर मन ही मन खुशी सी हुई और मैंने अपनी मूंछों पर एक हल्का सा हाथ फेरा हालांकि यह काम निहायत खतरनाक था। अगर कोई देख लेता तो वह अपनी प्रभुसत्ता के लिए इसे चुनौती ही समझता।

कुछ देर और बीत गए। मुझे जिस व्यक्ति की तलाश थी वह नहीं मिला। हार कर मैं एक होटल में चाय पीने की गरज से घुस गया और अखबार का एक पन्ना लेकर देखने लगा। मेरे बैठने के थोड़ी ही देर बाद एक नौजवान मेरे सामने आकर बैठ गया और मुझसे अखबार मांगने लगा। चूंकि मैं अखबार पढ़ रहा था इसलिए झुंझलाहट हुई फिर भी मैंने उसे दे दिया। चाय सामने आ गयी थी--पहाड़ी नौकर से मैंने कहा-‘मैनेजर से बोलो रेडियो थोड़ा धीमा कर दे’ और रेडिया धीमा कर दिया गया। अब तक होटल में मेरे इर्द-गिर्द आठ नौ लड़के आकर बैठ गये थे जो दरबों में से मेरे टहलते वक्त झांक रहे थे। रेडियो धीमा हुए अभी कुछ ही सेकेण्ड बीते होंगे कि एक अपनी जगह से उठा और रेडियो तेज कर दिया। साथ के लड़कों ने ठहाका लगाया। जाहिर था कि उनका इरादा मेरा अपमान करने का था किंतु मैं जरा भी विचलित न हुआ और इस बार मैंने फिर वही खतरनाक काम किया जो सड़क पर टहलते वक्त कर चुका था। मैंने गौर किया--सामने वाले लड़के के ऊपर इसकी प्रतिक्रिया हुई। अब मुझे यह सब बड़ा मजेदार लग रहा था। सामने वाले लड़के ने मैनेजर से कह कर सड़क पर से अमरूद मंगाए, फिर जेब से एक छुरा निकाला और अमरूद काटने लगा। मुझे उसका छुरा देखकर हंसी आ गयी और मैं इस तरह मुस्कराया जैसे उसने कोई बहुत बचकाना काम किया हो। मैंने एक और चाय मांगी और धीरे-धीरे काफी इत्मीनान के साथ पीता रहा। बीच में मैंने फिर वही खतरनाक काम किया जो सड़क पर एक बार कर चुका था। मेरे गिर्द बैठे कबूतरों को मुझ जैसी मूंछे न होने का अफसोस हुआ होगा--ऐसा मैंने सोचा। 

कुछ देर और बीत गए और अब मैंने आने वाले खतरे का सामना करने के लिए अपने को तैयार कर लिया था क्योंकि रेडियो वाली घटना मुझे भूली नहीं थी।

ऐसे मौकों पर मैं आम लोगों के विपरीत अपने अंदर साहस महसूस करता हूं और कभी-कभी तो ये घटनाएं मुझे बड़ी रोचक लगती हैं। यही वजह थी कि मैं इस समय भी इन सारी बातों में काफी दिलचस्पी ले रहा था। 

मैंने पहले ही बतलाया था कि यह जगह मेरे लिए एकदम नयी थी और मेरे लिए कुछ बातें यहां की बिल्कुल अजीब थीं मसलन जिस समय रात में मैं दो बजे यहां स्टेशन पर उतरा तो सोचा जरा एक चक्कर इस कस्बे का लगा लिया जाय--शायद कहीं चाय मिल ही जाय। पहाड़ी जगह होने के कारण ठंड बहुत तेज पड़ रही थी। मैंने तह किया कम्बल अपने कंधे और पीठ पर डाल लिया। रात में दो बजे भी सड़क पर की चहल-पहल देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। दिन में खुलने वाली सब दुकानें बंद थीं और दिन में चलने वाले ट्रक भी एक लाइन से सड़क के दोनों तरफ थोड़ी-थोड़ी दूर पर खड़े थे। सड़क के दोनों तरफ पहाड़ियों के छोटे झोपड़े थे और हर झोपडे़ में मद्धिम सी लालटेन या ढिबरी जल रही थी जिसकी रोशनी में कोई पहाड़ी औरत बैठी थी। रात में दो बजे अभी कहीं चूल्हे जल रहे थे और कहीं जलने की तैयारी में थे। मैं कंधे पर कंबल डाले टहल रहा था और हाथों में लालटेन लिये तमाम पहाड़ी अपने गाहक तलाश कर रहे थे। एक मेरे नजदीक आया और लालटेन मेरे चेहरे के करीब लाकर मुझे देखा। मुझे देखकर झुंझलाहट में उसके मुंह से ‘ओह’ निकल गया। मैंने उसे रोका, फिर पूछा--‘‘चाय मिलेगी?’’

वह शायद मेरे पास वक्त जाया नहीं करना चाहता था। ‘‘छै ना’’ गुस्से में कह कर वह आगे बढ़ गया। उसे किसी ऐसे पहाड़ी की तलाश थी जो लड़ाई पर से लौट रहा हो--जिसके पास अटैची, होल्डाल और तमाम सामान हों और जिसे किसी औरत से मुलाकात किये एक अरसा बीत गया हो। मैंने दो चार जगह और चाय तलाश की किन्तु किसी पहाड़िये ने मुझे गैरपहाड़ी जानकर ‘लिफ्ट’ ही न दी।

मैं थोड़ा परेशान हो गया था कि मेरे दिमाग में अचानक एक ख्याल आया-- शराब का। थोड़ी सी मिल जाय तो ठंड दूर हो जाय, चाय तो अब मिलने से रही। अब मैं एक नए सिरे से अपनी तलाश शुरू करने की योजना सोच ही रहा था कि मुझे एक लंगड़ा दिखायी दिया जो बैसाखी के सहारे चल रहा था। उसके मुंह में एक सिगरेट दबी पड़ी थी। उस अंधेरी रात में इस लंगड़े पहाड़ी को देख कर मुझे एक अंग्रेजी जासूसी फिल्म की याद आ गयी थी जिसमें फिल्म का मुख्य अपराधी ऐसे ही चलता था। फिर मुझे यह सोचकर खुशी हुई कि अगर इसने बात करना नहीं चाहा तो भी भाग नहीं पायेगा। मैं थोड़ी दूर तक उसके पीछे-पीछे चलता रहा फिर थोड़ा पीछे ही रुक कर पुकारा -

‘‘साथी, इधर आओ’’

वह ठक ठक बैसाखी की आवाज करता हुआ पास आकर खड़ा हो गया और मेरे चेहरे को गौर से देखने लगा--काफी नजदीक से। उसके पास लालटेन नहीं थी वरना वह भी लालटेन मेरे चेहरे से सटा देता। उसके मुंह से शराब की गंध का एक भभका आया और मुझे कुछ तसल्ली हुई। 

‘‘शराब मिलेगी, साथी’’ मैंने पूछा 

‘‘शराब... मिलेगा--नहीं, नहीं मिलेगा’’ उसने इंकार किया फिर एक क्षण बाद मुड़ा--

‘‘तुम नेपाली’’ उसने पूछा ‘‘नहीं, नेपाली नहीं लेकिन नेपाल जाएगा... भैरहवा... साथी हमारा भैरहवा में दुकान----बहुत बड़ा पसल हो... मैंने किसी तरह उसे समझाया----साथी, बड़ा ठंडा--थोड़ा शराब’’

उसे लगा मेरे ऊपर कुछ दया आ गयी हो--थोड़ी देर चुप कुछ सोचता रहा फिर बोला--‘‘अंग्रेजी नहीं मिलेगा--देसी पियेगा’’

‘‘हां पियेगा,’’ मैंने उत्साहित होकर कहा फिर उसके पीछे--पीछे चलने लगा... सबकुछ तिलिस्म सा लग रहा था। रात के ढाई बजे उस कुहरे से भरी सड़क पर केवल लालटेनें इधर-उधर हवा में घूमती दिखायी पड़ रही थीं और नेपाली भाषा में होती बातचीत की आवाज कानों में आ रही थी। कुछ मकान ऐसे भी थे जिन पर लकड़ी की सीढ़ियां ऊपर तक जाने को लगी थीं और आगन्तुक पहाड़ी अपना सामान लेकर ऊपर चढ़ रहे थे। स्वागत के लिए लालटेन लिए जवान पहाड़ी लड़कियां दिखायी पड़ रही थीं... उस लंगड़े के पीछे--पीछे मैं अब कुछ दूर निकल आया था कि वह सहसा रुक गया, पीछे मुड़ा फिर धीरे से बोला--

‘‘खालिस शराब पीयेगा या कुछ और?’’

मैं कुछ देर चुप रहा--समझा, और नहीं भी समझा। पूछ बैठा--

‘‘कुछ और क्या साथी?’’

लगा जैसे वह मेरी बात अनसुनी कर दिये हो--बोला--‘‘तीन रुपया बेसी लगेगा’’ मुझे चुप देखकर बोला--‘‘अच्छा, तीन रुपया सब मिला कर लेगा--शराब भी उसी में। टोटल तीन रुपया--ठीक?’’ उसने एक प्रश्नवाचक दृष्टि मेरे ऊपर डाली। 

‘‘ठीक’’ मैंने सिर हिलाकर स्वीकार किया।

वह फिर आगे बढ़ता गया। कई मकान पीछे छूट गए थे और अभी आगे कई दिखायी पड़ रहे थे... अब वह शायद अपने झोपड़े के सामने था--रुका, फिर मेरी तरफ हाथ बढ़ाया।

‘‘क्या है?’’ मैंने धीरे से कहा।

  ‘‘रुपया’’

मैंने एक पांच का नोट उसके हाथ पर रख दिया। दो रुपये वापस मांगने पर उसने बाद में देने को कहा। उसने मुझे सड़क पर ही रोक दिया था और ठक ठक करता अपने उस झोपड़ेनुमा मकान में घुसा। मेरे शरीर में एक अजीब किस्म की सिहरन और गुदगुदी महसूस हो रही थी। उसे अंदर गए कुछ देर हो गयी थी इसलिए मैं भी आगे उसके दरवाजे तक बढ़ गया। दरवाजे की छाजन काफी नीची थी। अंदर बरामदे में चूल्हा जल रहा था और धुआ चारो तरफ फैला था। लंगड़ा एक बूढ़ी औरत को शायद अपनी पत्नी को कुछ समझा रहा था और वह बूढ़ी चुपचाप बीड़ी पिये जा रही थी। फिर लंगड़े ने उसे पांच का नोट दिखाया। लेकिन वह कुछ बोली नहीं। मैंने अंदाजा लगाया--मेरे गैरपहाड़ी होने से वह खुश नहीं थी या कोई ‘मोटा’ ग्राहक फांस लिए थी। अचानक उस लंगड़े की निगाह मेरे ऊपर गयी और वह बाहर निकल आया। मुझे एक तरफ बुलाकर उसने माफी मांगने के अंदाज में कहा--

‘‘साहब, थोड़ा देर लगेगा...तब तक हम तुमको शराब पिलाता है...आओ...’’ वह चलते--चलते बोला लेकिन मैं अपनी जगह से हिला नहीं।

‘‘देर क्यों साथी?’’ मैंने पूछा

‘‘साहब एक रंगरूट आ गया है... बस थोड़ा देर और साहब’’ वह कहते हुए आगे बढ़ गया और उसके पीछे--पीछे मैं... अब मैं उसके बरामदे में था। चारपाई के एक सिरे पर एक होल्डाल और बैग रखा था जो शायद उस रंगरूट का रहा होगा और दूसरे सिरे पर मैं बैठा था। वह अधेड़ औरत आग जलाकर कुछ बना रही थी। दो छोटे बच्चे जमीन पर एक तरफ सोये थे...

इसी मकान में कम भीड़ थी। अगल--बगल के सब मकानों में काफी चहल--पहल दिखायी पड़ रही थी। मेरे सामने सड़क की दूसरी तरफ जो मकान था उसमें कई पहाड़ी आग के गिर्द बैठे थे और आगन्तुकों में से एक कोई गीत गा रहा था। इस समय रात के तीन बजे होंगे--मैंने सोचा। घड़ी देखने की जाने क्यों हिम्मत नहीं पड़ी... मेरे सामने एक स्टूल पर उसने शीशे की गिलास में शराब लाकर रख दी। मुझे गिलास खाली करते देर नहीं लगी हालांकि उतनी कड़वी शराब पीने का यह मेरा पहला इत्तफाक था लेकिन ठंड इतनी ज्यादा थी कि कड़वाहट बर्दाश्त करनी पड़ी। लंगड़े ने थोड़ी और दी और मैं उसे भी खाली कर गया। मुझे हल्का सा नशा चढ़ने लगा था और कुछ गर्मी भी खून में आ गयी थी। अब मुझे सचमुच देर हो रही थी। कहीं ऐसा न हो कि शराब में कोई चीज मिली रही हो और मैं बेहोश हो जाऊं फिर मेरी घड़ी छीन ली जाय। मेरे मन में यह बात एक बार उठी लेकिन मैं हर ऐसी जगह साहस नहीं खोता हूं और मैं निश्चिंत हो गया...

रंगरूट कमरे से बाहर आ गया था और अपने बैग में से तौलिया निकाल कर अपना चेहरा पोछ रहा था। थोड़ी देर बाद अंदर से ही एक लड़की निकली--स्वस्थ गोरी। यही है-- मैंने अनुमान लगाया। उम्र अभी बहुत कम थी--आकर आग के पास बैठ गयी और एक बीड़ी सुलगा ली। बीड़ी की गंध से मुझे सख्त नफरत है। कोई बीड़ी पीने वाला जब नजदीक मुंह ले जाकर बात करता है तो मुझे उबकाई सी आने लगती है लेकिन इस समय मुझे यह गंध अच्छी लग रही थी। मेरे भी तबीयत हुई कि एक बीड़ी पीऊं लेकिन अपने को जब्त किये रहा...

लड़की के चेहरे पर आग की रोशनी पड़ रही थी जिसमें उसका चेहरा तप रहा था। लंगड़ा आकर लड़की के पास खड़ा हो गया फिर धीरे से कुछ कहा। लड़की ने इंकार में सिर हिलाया। कई बार उसने अपनी बात दोहरायी और लड़की सिर हिलाती रही। लंगड़े ने कोई भद्दी सी गाली शायद दी और एक बैसाखी के बल पर खड़ा होकर दूसरी से उसकी पीठ पर एक धौल जमाया। अब लड़की ने बगल में रखे मिट्टी के बर्तन से थोड़ी शराब निकाली और पी गयी फिर कमरे में घुस गयी।

‘‘साहब जाओ,’’ लंगड़े ने मुझसे कहा।

‘‘क्या बात थी साथी--तुमने क्यों मारा?’’

‘‘कुछ नहीं साहब...हराम का खाती है स्साली... कहती है थक गयी है,’’ वह बड़बड़ाता रहा।

मुझे अपने ऊपर ग्लानि होने लगी लेकिन कुछ तो शराब का नशा और कुछ स्नायविक तनाव--मैं कमरे में उसके पीछे--पीछे चला गया।

... हां तो ऐसे ही कितने अजीबो गरीब अनुभव मुझे इस कस्बेनुमा शहर में कुछ ही देर के अंदर हुए। अंदर होटल के मैनेजर को चाय के पैसे दे कर सड़क पर उतर आया। मैंने घड़ी देखी--दिन के बारह बजने जा रहे थे लेकिन वह अभी तक नहीं आया था जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी। लगता है वह किसी जरूरी काम में फंस गया। मैंने अपने को तसल्ली दी। कस्बे के एक तरफ एक नहर बहती थी--उधर ही तफरीहन चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने पर पीछे मुड़कर देखा तो वे सब कबूतर भी मेरे पीछे चले आ रहे थे। ‘अब घड़ी तो आज गयी’ मैंने सोच लिया फिर मन ही में कहा ‘अच्छा... देखा जायगा’। लौटने में अपमान था इसलिए नहर के किनारे बैठ रहा। अमरूद वाला लड़का ही उन छोकरों का ‘बास’ लगता था--वह मेरे करीब आ गया। मेरी इच्छा एक बार फिर वह खतरनाक काम करने की हुई जिसे मैंने सड़क पर और होटल में किया था किंतु रुका रहा। मैंने अपने कंधे पर किसी के कड़े स्पर्श का अनुभव किया--

‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो?’’ वह मुझ से पूछ रहा था। मैंने गौर किया--उसके साथ वाले लड़के दूर से तमाशा देख रहे थे और उनके मन में एक दहशत सी हो गयी थी। 

‘‘तुमसे मतलब,’’ मैंने वैसे ही उत्तर दिया।

‘‘नहीं भई, मतलब नहीं...आखिर कौन सा काम है?’’ उसके स्वर में अब कुछ नरमी थी। 

‘‘मेरा एक दोस्त कुछ सामान लाने वाला था--भैरहवा से। मुझे ले जाना है।’’

‘‘कहां?’’

‘‘बनारस’’

‘‘कौन सामान है?’’ उसने एक संदिग्ध उत्सुकता से पूछा। मैं चुप रहा।

‘‘गांजा है न?..’’

‘‘हां,’’ मैंने ऐसे कहा जैसे उसे विश्वास हो जाय कि मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं।

‘‘अच्छा दोस्त, बनारस में गांजा का बिजनेस कैसा है?... मुनाफा है?’’ उसने अब मुझे दोस्त बना लिया था।

‘‘बहुत मुनाफा है--पांच गुना मुनाफा,’’ मैं समझ गया था कि इनका पेशा स्मगलिंग करना है।

‘‘अच्छा? पांच गुना?’’ वह आंखें फाड़ कर देख रहा था।

‘‘हां, पांच गुना’’ मैंने इत्मीनान से कहा।

‘‘सिगरेट लो,’’ उसने मेरी तरफ बढ़ाया। ‘‘तुम्हारा दोस्त तो नहीं आया--अब क्या करोगे?’’

‘‘अब मैं आज या कल काठमांडू जाऊंगा--वहां भी कुछ काम है। फिर लौटते समय भैरहवा से खुद ही गांजा लूंगा।"

‘‘काठमांडू तो हवाई जहाज से जाना होगा,’’ उसने पूछा 

‘‘हां,’’ मैंने सिगरेट का एक कश लिया।

‘‘लेकिन यार, इसके पहले तुम कभी नौतनवां में दिखायी नहीं पड़े थे।’’

मैं कुछ बोला नहीं। एक बस दूर से आती हुई दिखायी दी जो सोनौली जा रही थी। सोनौली के बाद नेपाल की सीमा और कुछ दूर पर भैरहवा। मैं उठ खड़ा हुआ।

‘‘अब मैं इस बस से सोनौली जाऊंगा--फिर काठमांडू’’ मैंने उठते हुए कहा।

‘‘कब मिलेगो? मैं भी तुम्हारे साथ बनारस चलूंगा’’

‘‘बस तीन चार दिन में मै लौटूंगा। सोनौली में मिलना।’’... बस आ गयी थी--मैं बढ़ा। चलते--चलते मैंने बड़े नाटकीय ढंग से उसे एक तरफ ले जाकर इस बात को गोपनीय रखने की सख्त हिदायत दी। उसने हाथ मिलाया और मैं बस में जा बैठा।

मुझे काठमांडू वगैरह कहीं नहीं जाना था इसलिए मैं दूसरी बस से वापस आ गया।

मेरा दोस्त अभी तक नहीं आया था, आने की कोई उम्मीद भी न थी। शाम वाली ट्रेन से अब मुझे वापस चल देना चाहिए--इंतजार करना व्यर्थ है, मैंने सोचा और स्टेशन की तरफ चल दिया।

शाम के लगभग तीन बज रहे थे और उत्तर की तरफ हिमालय की चोटियां लाल--लाल दीख रही थीं--मुझे आग के सामने बैठी हुई उस रात वाली लड़की का चेहरा जाने क्यों याद आ गया। रात में जिन--जिन मकानों को देखा था उनमें से कोई पहचान में नहीं आ रहे थे। पहाड़िये सब या तो सो रहे थे या धूप में बैठकर ताश खेल रहे थे। पहाड़ी औरतों ने अभी से मकानों में झाड़ू लगाना शुरू कर दिया था... चलते--चलते मैंने उस मकान को पहचानने का असफल प्रयास किया जहां रात कुछ क्षण बिताए थे। कई पहाड़ी लड़कियां धूप में बैठी दिखायी पड़ीं। जिस लड़की के साथ रात बितायी थी उसे पहचानने की कोशिश करता रहा। थोड़ी दूर पर मुझे वह व्यक्ति दिखायी दिया--वहीं लंगड़ा पहाड़ी। रात मैंने उसके पास अपने दो रुपये छोड़ दिये थे और वह काफी कृतज्ञ लग रहा था। एक दुकान के पास खड़ा हो सिगरेट ले रहा था। मैं आगे बढ़ कर उसके करीब पहुंच गया--‘‘साथी, क्या हाल है?’’ मैंने बड़े आत्मीय लहजे में पूछा लेकिन वह कुछ बोला नहीं बल्कि घूरने लगा।

मुझे बड़ी हैरानी हुई--वह मुझे पहचान नहीं पा रहा था। 


30  - 

इधर या उधर

महेंद्र प्रताप

टपरे में चारपाई पर अकेले लेटा हूं। अन्दर कमरे में दादा हैं। पांच घन्टे से जब से आया हूं दादा की स्फूट बड़बड़ाहट के अलावा घर के किसी आदमी के कंठ से बोल नहीं फूटा है। दादा ही सबसे अलग अपने आहत क्रोध और अभिमान से छटपटा रहे हैं। कभी-कभी मेरे कानों में जो शब्द पड़ते थे-“ठाकुरों का खून पानी हो गया है” “दखिन टोले के चमार मुकाबला कर रहे हैं। उनसे मुझे कल शाम की घटना की भयंकरता के अलावा कुछ सुनाई नहीं देता और दृष्टि की सीमा में है टपेर की छत में लगी हुई कड़ियां।

आज सात बजे लखनऊ से लौटा हूं। स्टेशन से गांव के रास्ते में रामबुझावन और भरत मिले थे। जैराम बन्दगी भी हुई थी, परन्तु मैंने ध्यान नहीं दिया। उनके चेहरे पीले और आंतकित थे। गांव की सीवान में आने पर लगा कि कुछ अनिष्ट जरूर हुआ है। गांव में पता लगा कि कल शाम 4 बजे ठकुरहन और दखिन टोला में लाठी बल्लम चला है। दखिन टोले के तीन हरिजन मारे गये हैं। छः घायल हैं। और तीन ठाकुर भी घायल हैं। अपने पर गुस्सा भी आया कि इतने दिन बाहर क्‍यों रहा! गांव में इतना बड़ा कांड हो गया, इसकी पूर्व सूचना मुझे क्‍यों नहीं हुई। घर पहुंचते ही ठाकुरों की भीड़ मुझे घेर लेती है। कुछ मिले जुले आक्रोश और आतंक में लगता है कि मैं कोई मसीहा हूं, जिसके झोले में उनकी समस्या का हल रखा है। बड़कू काका जो कल तक आने पर अपनी पैतृक श्रेष्ठता के घमंड में मेरे दरवाजे पर नहीं आते थे, आज घबराहट और स्नेह से मुझसे लिपटते हैं। क्योंकि कल शाम की घटना का संबन्ध सबसे अधिक उनके और कमला सिंह के घर से था। मैं एक विरोधी पार्टी का प्रदेश स्तर का नेता हूं जो शोषितों पीड़ितों की समर्थक समझी जाती है। उन्हें डर है कि यदि मैंने दखिन टोला वालों का पक्ष लिया तो मामला बिगड़ सकता है। बेकार दो-चार हजार दरोगा को और सरकारी पार्टी के नेताओं को खिलाने पिलाने में खर्च हो सकता है। मामला और ज्यादा बिगड़ा तो जेल कचहरी बदनामी का डर है जिससे उनकी खानदानी बड़े आदमियत को बट्ठा लग सकता है। काका मुझे इशारे से एक ओर बुलाते हैं। कन्धे पर हाथ रख कर अलग से जाकर कहते हैं “बेटा गांव की रक्षा और इज्जत अब तुम्हारे ही हाथ है। किसी तरह कुछ करो। अगर आज हम चमारों के मुकाबले किसी तरह कमजोर पड़े तो समझ लो बापदादों का खानदानी नाम मिट्टी में मिल जायेगा। कौन पूछेगा राजेपुर के रघुबंशी बबुआन को जो चमारों से अपनी इज्जत नहीं बचा सके। ....नवल को गहरी चोट लगी है परन्तु बेहोशी में भी वह बदला बदला ही बड़बड़ा रहा है। क्‍या करें समझ नहीं आता। थाने का दरोगा तो ठाकुर है उसे सबकी ओर से पांच सौ रुपये दिया भी गया है, लेकिन उसका कहना है मेरे भी ऊपर लोग हैं, मैं केस तो कमजोर कर सकता हूं लेकिन बेदाग बचा पाना मर्डर के केस में मेरे लिये भी मुमकिन नहीं है। सरकारी पार्टी के नेता चमारों की पैरवी यहां से एस. पी. साहब तक कर रहे हैं, वह तो आपका लिहाज है कि अब तक रुका हुआ हूं वरना आज ही सदर से स्पेशल मैसेंजर आया था कि मैं तुरन्त गिरफ्तारी करूं।” “अब तो बेटा तुम्हीं चाहो तो कुछ हो सकता है!” उनकी आवाज भर्रा जाती है। चेहरे पर झुर्रियां उभर आती हैं। वे फिर जोड़ते हैं “सरकारी पार्टी वाले तो तुम्हारे चुनाव के बाद से हम लोगों से नाराज हैं कि इस गांव का वोट तुमको क्‍यों मिला ।” उनकी आवाज और रुआंसी हो जाती है।

काका के इस प्रकार टूटने से मेरा आहत स्वाभिमान संतुष्ट होता है, “बच्चू आज फसे हो तो मेरी याद आयी है वरना तुम्हीं मुझे कल तक आवारा और नालायक कहते थे, मेरी नेतागिरी का मजाक उड़ाते थे। “चुनाव की बात सोचता हूं तो हंसी आती है। आज काका कहते हैं कि सरकारी पार्टी उनसे मेरे लिए नाराज है, परन्तु चुनाव में तो जब सारा गांव जातिभेद भुला कर मेरे साथ था बड़कू काका के घर सरकारी पार्टी की जीपें रुकती थीं। मंत्रियों का स्वागत होता था। और जब सरकारी पार्टी का उम्मीदवार मुझसे जीत गया था, इनके घर बाजा बजा था। मुझको सुना कर ललमनवा अहीर से काका बोले थे, “कहो लालमन! बबुआ मेढकी भी नाल ठोकाने चली थी। पता चल गयी न औकात ।” सोचता हूं तो मन तिता जाता है। जी चाहता है इनकार कर दूं। उनकी आंखें मेरे चेहरे पर लगी हैं एक टक शायद मेरे जबाब की प्रतीक्षा में। सोचूंगा पहले मुझे घटना की ठीक-ठीक जानकारी हो लेने दीजिए ! धीरे-धीरे मेरे दरवाजे से भीड़ छटने लगती है। लोग घायलों को देखने जा रहे हैं जो बड़कू काका के बइठका में सोये हैं। डाक्टर आ कर सूई लगा गया है। अब केवल दो ही व्यक्ति बचे हैं, लछमन काका और रामजस। रामजस नाई है, और ग्रामीण कार्यकर्ता भी। साथ ही आसपास के गांवों में अपनी जाति तथा छोटी जातियों के झगड़ों के स्वयम्भू सम्मानीय पंच हैं, जिसके बदले में लोग उसे कुछ दक्षिणा स्वरूप देते भी हैं। लछमन काका अकेले हैं। चाची जवानी में मर गयी थी। फिर से विवाह नहीं किया। सत निभा रहे हैं। गांजा पीते हैं। सच बोलते हैं और किसी से नहीं दबते। इनके इसी औघड़पन के कारण उम्र में काफी फर्क होने पर भी मेरी उनकी बैठकी है। घटना का असली कारण जानने की नीयत से उनसे पूछता हूं, 'हां तो चाचा क्या हुआ था असल में ।”

“कुछ नहीं बेटा सब चमाइनों का चरित्तर है, वही नवल और मंगल की बेटी सुरसतिया की बात थी। कौन-सा बज्जर गिर पड़ा था, अब चमाइनें भी सती सावित्री होने लगीं। हमारी जवानी में तो भाई सभी हमारी आधी बीबियों जैसी थी, जितनी गोरी चमाईनें देखते हो वे सभी वर्णसंकर हैं-गांव के बबुआनों की संतान। नहीं रही जमीदारी भइया!...

'छोड़िये भी काका।” मैं उनको रोकता हूं। जानता हूं कि यदि रोका नहीं गया तो अभी उनकी जवानी के शौर्य और जमींदारी के किस्से सुनने पड़ेंगे और घटना की बात बीच में ही रह जायेगी। काका में बस यही खराबी है कि हर बात का सूत्र जोड़ तोड़ कर अपने जीवन पर ले आते हैं। “अच्छा रामजस तुम बताओ |” मैं उसकी ओर घूमता हूं।

रामजस पेशेवर-वक्ता की मुद्रा में बोलता है जैसे कोई भीड़ सामने हो, “का बताईं नेता बाबू। कुछ नवल बाबू, आ सुरसतिया के बात हो, अउर कुछ मजूरी के। कमला बाबू के हरवाह अंगनू क मेहरारू बेमार बा दू दिन से उ खेते नाही जाता, बाबू दूसर हरवाह रख लेहलं । काल्ह जब उ फेर आइल त बाबू ओके मारिके भगा देहलन। आ जवन खेत हरवाही में ओके देले रहलन ओकर कांचे रहर काटि के भंइसी के खिया देहलं। एही बात पर चमार हर बन्द क देहल स। राजा लोगन के इ नाही सहाइल हम मनहीं करत रहलीं की नेता बाबू के आ लेवे द सब ठीक हो जाई लेकिन के सुनेला। बड़कू बाबू के अपने लइका के चमइनी के संगे पकड़ ले क रीसि रहबै कइल उ सबके जुटा के दखिन टोला गइल आ इ कांड हो गइल!” रामजस चुप हो जाता है। मैं भी चुप हूं। लछमन काका गांजा पीने के लिए ' कक्कड़ तैयार कर रहे है।”

फिर लछमन काका को कुरेदता हूं, “क्या होना चाहिए काका! गलती बाबू लोगों की है और मेरी तो पार्टी भी गरीबों, पिछले हुये लोगों को अधिकार दिलाने के लिए लड़ने वाली पार्टी कही जाती है, मैं तो सोचता हूं चमारों की पैरवी होनी चाहिए ।”

“चुप रहो बेटा” लछमन काका मुझे घुड़कते हैं। आज पहली बार वे मुझसे इतनी जोर से बोले हैं। मैं भौंचक रह जाता हूं। काका कह रहे हैं, “पहले घर मे दिया जलाया जाता है बेटा, मस्जिद में नहीं। गांव, हर बिरादरी साथ नहीं रहेगी तो पार्टी भी कन्‍नी काट जाएगी। पार्टी तो बदल जाती है लेकिन जाति जन्म से होती है, बदली नहीं जा सकती। चुनाव में तुमको वोट पार्टी के नाम पर नहीं जाति के नाम पर ही मिले थे यह क्‍यों भूलते हो?”

अपनी समझ से वे तत्वज्ञान की बात कह गये हैं इसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए वे मेरे चेहरे की ओर एक टक देखते हैं।

मेरा चेहरा सपाट है, प्रतिक्रियाविहीन। काका ने अपनी नंगी भाषा में एक सच मेरे सामने रख दिया करेंगे कि क्‍या होना चाहिए। तुम सात बजे मेरे घर आ जाना, यही से थाने चलेंगे। और तुम भी आ जाना रामजस!”

कहता हुआ मैं तख्त से उठ जाता हूं। काका और रामजस के चले जाने के बाद घर में खाने जाता हूं। पत्नी खाना निकालने लगती हैं, तभी याद आता है कि तीन लोग मरे भी हैं, उनका नाम पूछना तो भूल ही गया। पत्नी से पूछता हूं तो पहले तो चकित होकर मेरी ओर ताकती है फिर पूछती हैं, “अपने कितने भाई घायल हैं यह मालूम कि चमारों के ही मुर्दो का ही हाल पूछ रहे हो ।” उसकी आवाज में अजीब-सी घृणा भरी है। “मालूम है।” मैं धीरे से कहता हूं तो वह नाम बताती है जैसे मेरे ऊपर एहसान कर रही हों। मृतकों में अंगनू का नाम सुनकर मन दुखी होता है। अंगनू मेरी पार्टी का कार्यकर्ता था। चुनाव में हमेशा अपना काम छोड़ कर चंग लिए मेरे साथ गाता हुआ घूमता था बेचारा। दो कौर खाकर थाली परे खिसका देता हूं। पत्नी बुदबुदाती है और थाली को जोर से किनारे की ओर रख देती है।

उठ कर बाहर चला आता हूं और पराजित-सा तख्त पर लेट जाता हूं। अबतक की सारी बातें सुनकर दिमाग में एक तनाव-सा है। नींद नहीं आ रही है। निरन्तर एक ही प्रश्न मेरे सामने हैं इधर या उधर? कभी लछमन काका की बात पर हंसने की इच्छा होती है! कभी उनकी बातें सच लगती हैं। वाकई पिछले चुनाव में ठाकुरों ने मदद न की होती तो शायद पार्टी के वोट और साधनों की बदौलत जमानत भी नहीं बच पाती। अगले चुनाव की बात सोचता हूं तो भविष्य का अनिश्चय मुंह बाये दिखता है। यदि इस चुनाव में ठाकुरों ने बड़कू काका सहित, ठीक से मदद की तभी मैं चुनाव जीत सकता हूं। लेकिन अंगनू का चेहरा सामने आते ही यह बातें भूलने-सा लगता हूं। अंगनू मेरी पार्टी का कार्यकर्ता था। बिना खाये पीये वह मेरे लिए मेहनत करता रहा था। निःस्वार्थ। उसकी हत्या का बदला लेना चाहिए। कमजोर के साथ होना चाहिए। परन्तु भविष्य का ख्याल आते ही दिल बैठने लगा है। नहीं इतना बड़ा रिस्क नहीं लिया जा सकता। फिर पार्टी में ही कौन दूध का धुला है सभी जाति के वोटों पर ही तो जीतते हैं समाजवाद और शोषित पीड़ित के वोट पर नहीं। विरोधी होने का मतलब यह तो नहीं होता कि सरकारी पार्टी द्वारा बनाये गये रद्दी-सह्दी नियम कानून को आंख मूंद कर मानते चलें ....वे और लोग हैं, जो इसे उलटने की बात करते हैं, पर....। इसी तनाव में कब नींद आ जाती है पता नहीं लगता।

सुबह जल्दी तैयार होकर लछमन काका और रामजस के साथ थाने की ओर चल पढ़ता हूं। रास्ते में बड़कू काका भी मिल जाते हैं। कुछ कहना चाहते हैं लेकिन मैं ध्यान नहीं देता। चुप-चाप अपने में खोया हुआ चलता रहता हूं। दरोगा जी आज बड़े तपाक से हाथ मिलाते हैं। शायद बड़कू काका के साथ होने के कारण। सभी चुपचाप बैठ जाते हैं। बड़कू काका की आंखें मेरी ओर लगी हुई हैं। मैं दरोगा से कुछ कहना चाहता हूं, लेकिन आवाज नहीं निकलती। न जाने क्‍यों मेरा चेहता दयनीय हो आया है। झूठ-मूठ मुस्कराने का प्रयास करता हूं लेकिन केवल होंठ खिंचकर रह जाते हैं। मैं खिसियाना-सा हो जाता हूं।

दरोगा जी बात शुरू करते हैं, “ नेता जी मुझ तक तो सब ठीक है, लेकिन...”

कुछ दूरी पर तीन आदमी सोये लगते हैं। एक का मुंह खुला है। खून होंठों से बहकर दाढ़ी पर जम गया है जिस पर मक्ख़ियां भिनक रही हैं। सिर बीच से फटा है जैसे तरबूज काट दिया गया हो। मेरे कुछ न बोलने से दरोगा जी खिसिया कर चुप हो जाते हैं। मैं लगातार शव के खुले मुंह को ध्यान से देख रहा हूं। लगता है अंगून है चेहरा विकृत हो गया है इसलिए पहचाना नहीं जाता। उठ कर लाश के पास जाता हूं लेकिन उसकी खुली आंखों से घबड़ा कर वापस चला आता हूं। “फिर बात करूंगा।” दरोगा जी से हाथ मिला कर थाने से बाहर निकल आता हूं। साथ ही रामजस और लछमन काका भी।

बस स्टेशन के रास्ते भर मैं चुप रहता हूं। बस स्टेशन से गाजीपुर वाली बस पर हम लोग चुपचाप बैठ जाते हैं। बस में बैठा मैं लगातार अंगनू की आंखों का खालीपन महसूस कर रहा हूं। जैसे वे आंखें मुझसे कोई सवाल पूछ रही हैं। मैं सिर झटक देता हूं, तभी लछमन काका टोकते हैं, “बेटा तुम्हें क्या होता जा रहा है, दरोगा से तो तुमने कोई बात ही नहीं की।”

“जिले के अफसरों से बात करूंगा।” मैं उन्हें टाल देता हूं। मेरे दिमाग में अंगनू की खाली आंखें टंगी हुई हैं। रात का तनाव और गहरा हो गया है। एक ओर तो आने वाले चुनाव में जाति के लोगों की मदद से चुनाव जीतने का सवाल है दूसरी ओर मेरी पार्टी के कार्यकर्ता और विश्वासी हरिजन सहयोगी अंगनू की खाली आंखों का सवाल। मैं निर्णय नहीं कर पा रहा हूं। बस गाजीपुर पहुंचने लगती है। मुझे जल्दी ही निर्णय पर पहुंचना होगा।

रिक्शे पर बैठते-बैठते मैं निर्णय कर लेता हूं। मेरा चेहरा रोते आदमी जैसे हो गया है, लेकिन मैंने निर्णय कर लिया है। अगला चुनाव मुझे जीतना है, विधान सभा में जाना है। एस. पी. आफिस की सीढ़ियां चढ़ते समय मैं अपने निर्णय को पक्का करता जा रहा हूं। लछमन काका और रामजस को बाहर बैठा देता हूं। आफिस के कमरे में एस.पी. के सामने बैठते समय मेरा चेहरा एक दम धुला हुआ और खाली है। सारे मानसिक द्वंद्व के बावजूद मैं स्थिर हो कर कहता हूं, “साहब मेरे गांव में हरिजनों ने एक प्रतिष्ठित ठाकुर के लड़के को निर्दोष पकड़ कर पीटा और बलवा करने की नीयत से ठाकुरों के घर पर हमला किया। झगड़े में तीन ठाकुर गम्भीर रूप से घायल हैं। तीन हरिजन मरे हैं तीन घायल है।

आप इसको देखें, प्रश्न न्याय का है। और अगर शोषित पीड़ित भी कानून की सीमा के बाहर जा कर कतल डकैती बलवा करते हैं तो मैं उनको समाज विरोधी मात्र ही मान सकता हूं।” 

“ठीक है मामला तो मर्डर का है लेकिन आप आये हैं तो देखना ही पड़ेगा। ” वह मुस्करा कर कहते हैं। मुस्कराहट मुझको अन्दर तक छीलती जाती है। मुझे उसमें सीधे व्यंग का आभास होता है। मैं टाल जाता हूं और गर्मजोशी से हाथ मिला कर बाहर निकल आता हूं।

“सब ठीक हो गया ।” मैं मुस्करा कर लछमन काका से कहता हूं। वे आश्वस्त मेरे कन्धे पर हाथ रखे दफ्तर की सीढ़ियां उतरने लगते हैं।


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यह तो कोई खेल न हुआ

[ जन्म : 14 दिसंबर , 1947 ]

नवनीत मिश्र

आइए। मुझे तो उम्मीद थी कि खबर पाकर यहाँ पहुँचने वालों में आप पहले आदमी होंगे। जीते-जागते उस आदमी को तसवीर बने चार दिन हो गए...और आप आज आ रहे हैं? हमारे यहाँ तो किसी के न रहने की खबर हवाओं में घुल जाती है, और खबर पाते ही सबका सबकुछ जैसे मर जाता है कुछ समय के लिए। कौन आया और कौन नहीं आया यह बात तो मरने वाला हमारे यहाँ भी नहीं जान पाता, और न ही इसका हिसाब हमारे यहाँ जीते रहने वाले ही रखते हैं...साथी होने का आखिर मतलब क्या होता है?

आप शायद तसवीर बन गए आदमी की याद में अंदर पहुँचकर आँसू बहाने की जल्दी में हैं। जरा देर यहीं मेरे पास बैठिए...अभी अंदर बड़ी भीड़ है। आप कब आए और कब गए कोई जान भी नहीं पाएगा-ऐसे में क्या फायदा? आप लोगों के यहाँ तो फायदा तोलने वाले बटखरे खूब चलते हैं। तसवीर बन गए आदमी ने मेरी माँ और मेरे तमाम खानदान वालों को जिस फायदे के लिए मार गिराया था, वह तो मैं अपनी आँखों से घर के अंदर बड़े कमरे में देख आई हूँ। मुझे जिंदा रखने के पीछे भी शायद अपनी शान बढ़ने का फायदा ही देखा होगा उसने।

वैसे तो मुझसे बातें करने में आपका क्‍या फायदा होने वाला है, लेकिन बहुत नागवार न गुजरे तो यहीं जरा मेरे पास बैठ जाइए। आपका मेरे ऊपर यह एक तरह का उपकार ही होगा। आपके दुःख का ज्वार तो अभी जरा देर बाद यहाँ से वापस लौटते ही उतरना शुरू हो जाएगा, पर मुझे तो कहीं जाना नहीं है, मेरे साथ ऐसा कहाँ होगा। जब-जब लगा है कि मैं अपने दुःख से उबर रही हूँ, तब-तब किसी नई चोट ने मुझे जहाँ का तहाँ पहुँचा दिया। जरा और पास आ जाइए, मैं जोर से नहीं बोल सकूँगी। पिछले चार दिनों से इस तसवीर बन गए आदमी के बारे में मन-ही-मन सोचते हुए मैं बीमार-सी हो गई हूँ। अब आप लोगों का यही दोमुँहापन मुझे सहन नहीं होता। मेरी मरी हुई खाल पर तो बड़े प्रेम से बैठ जाएँगे, और एक जीती-जागती हिरनी जरा देर पास बैठने को कह रही है, तो नाक पर कपड़ा रख कर ऐसा दिखा रहे हैं, जैसे मेरे पास से कितनी बदबू आ रही है।

आपको शुरू से बताती हूँ। मेरे जन्म को पाँच-छः दिन हुए थे। आप शायद न जानते हों, हमारे यहाँ बच्चे आपके यहाँ की तरह नहीं पैदा होते कि जब तक रुक सका रोके रखा और नहीं तो बारहों महीने, दिन-रात किसी भी समय ऊँची उड़ान भरने वाले पंछी के पर की तरह कभी चूक से गिरकर नीचे आ गए। हमारे यहाँ तो मौसम की आहट पर ही घटना के द्वार खटखटाने का चलन है। हमारे यहाँ तो यह एक नैसर्गिक, अत्यंत स्वाभाविक और साधारण

क्रिया के रूप में माना जाता है। प्रकृति का दाय है, जिसे हम बिना किसी गर्वोक्ति के सहज रूप से अदा करते हैं। तो, रात का समय था और जंगल की बिना मिलावट वाली हवा हमारे फेफड़ों में ताजगी भर रही थी। मेरी माँ, मेरा एक बड़ा भाई और मेरे खानदान के बहुत से लोग मुझे साथ लिये झुंड बना कर बैठे थे। दिन-भर मेरी माँ मुझे दुश्मन को चकमा देकर निकल भागने की तरकीबें सिखाती रही थी। खासतौर पर लंबी छलाँग लगाने का अभ्यास करते-करते मेरे नए-नए कमजोर से पैरों में कुछ थकान-सी उतर आई थी। मेरी माँ मुझे बता रही थी कि जंगल में सिर्फ पेट भर लेना ही काफी नहीं होता, उससे भी जरूरी होता है अपनी-सी न लगने वाली हर आवाज और गंध के प्रति हमेशा सजग रहना। मैं माँ की जो बातें सुन रही थी, उस समय उसी के प्रति लापरवाही भी बरतती जा रही थी। कभी किसी जंगल में रात का गुजारा है आपने? नहीं, इस तस्वीर बन गए आदमी की तरह नहीं। सचमुच जब कोई जंगल से उसकी भी भाषा में बात करता है या वनस्पतियों की रही और नम गंध के पास बैठता है तो जंगल उसे मदहोश कर देता है। कभी किसी जंगल में दिन और रात बिताइए, आप पाएँगे कि जंगल रोज रात को नए सिरे से जवान होता है......

सागौन, अर्जुन, बाँस और बेंत की मादक गंध मेरे नथुने पहचानने लगे थे और मैं माँ की बातें सुनते हुए भी जैसे नहीं सुन पा रही थी। दूध पी चुकने के बाद मेरा पेट भरा हुआ था, लेकिन मैंने अपना मुँह अपनी माँ के पास सटा दिया था और उसके शरीर की गंध पीने लगी थी, जो मुझे वनस्पतियों की गंध से कहीं अधिक प्रिय लगती थी।

मुझे अपने से सटाकर बैठी मेरी माँ, मेरे आराम या नींद की जरा भी परवाह किए बगैर एकाएक उठकर खड़ी हो गई। वो एक तरफ उचक-उचक कर देख रही थी, उसके दोनों कान तन कर सीधे खड़े हो गए थे और उसने किसी आसन्न खतरे से हम सबको आगाह करने के लिए अपना अगल पैर जमीन पर कई बार पटका। उसने आसपास सबको शांत रहने का इशारा किया जो एक साथ कुछ बोलने लगे थे।

“हाँ, वही आवाज है...सुनो, कोई खतरा देखते ही तुम छोटी को ले कर उस तरफ निकल जाना |” मेरी माँ ने घबराई हुई आवाज में किसी से जल्दी-जल्दी कहा।

“आँखें बंद कर लें?” किसी ने फुसफुसा कर माँ से पूछा।

“जब मैं कहूँ तब आँखें बंद करके बिना हिले-डुले चुपचाप बैठे रहना। अँधेरे में रोशनी पड़ते ही चमक उठने वाली हमारी ये आँखें ही हमारी सबसे बड़ी दुश्मन हैं।” माँ ने कहा और चौकन्नी हो कर आहट लेने लगी।

तभी घर्र-घर्र की एक हलकी आवाज हमसे जरा दूर आकर बंद हो गई।

“आँखें बंद करो,” माँ ने झपटती-सी आवाज में धीरे से कहा।

सबके सब आँखें बंद करके बैठ गए। काला घना अँधेरा था। सन्नाटा ऐसा कि अपनी साँसें भी कानों में तेजी से बज रही थीं। झिल्ली की झंकार और झींगुरों की चिकचिकाहट शोर लग रही थी। हम सब जीने-मरने के सवाल से जूझ रहे हैं, ये बात मैं तब तक समझ ही नहीं पाई थी। बंद आँखों के भीतर अँधेरा और भी काला लग रहा था, जिससे मेरा मन घबरा रहा था। मगर माँ की वह बात बार-बार मन में घूम रही थी कि रोशनी पड़ने पर चमक उठने वाली हमारी आँखे ही हमारी सबसे बड़ी दुश्मन हैं। आँखें बंद किए मैं सोच रही थी कि बाद में माँ से पूरी बात समझूँगी। पता नहीं, आप लोगों के साथ भी ऐसा होता है या नहीं कि बंद आँखों के सामने कोई रोशनी कर दी जाए तो बिना आँखें खोले ही आपकी पुतलियाँ हलके उजास से नहा जाएँ। मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ।

तेज रोशनी अचानक उस जगह से फेंकी जाने लगी जहाँ कुछ देर पहले घर्र-घर्र की आवाज आकर बंद हुई थी। मैं अपने अनुभवहीन, बालमन को क्‍या कहूँ-रोशनी ने जैसे ही मेरी बंद पलकों को छुआ, मैं आँखें खोलने से अपने को रोक नहीं सकी। और बस, मेरा आँखें खोलना था कि एक तेज, कान के पर्दे फाड़ने वाला धमाका हुआ। धमाके की आवाज सुनते ही जंगल में कुहराम मच गया। लेकिन उन सारी आवाजों से ऊपर थी मेरी माँ की कलेजा चीर देने वाली तेज चीख जो एक बार के बाद उसके गले से घुट-घुट कर निकलने लगी थी।

“लगता है, किसी की आँख खुल गई...लेकिन हमें या तुम्हें तो वो अपना निशाना कभी बनाते नहीं, लगता है, निशाना चूक गया उनका...तेरा भाई कहाँ है...तू तो ठीक है न छोटी?” मेरी माँ तड़फड़ा रही थी, उसकी आवाज डूब रही थी, पर जाते-जाते भी वह मुझे बता रही थी कि कैसे आए दिन यह रोशनी जंगल में हमारे बैठने की जगहों पर फेंकी जाती है, कैसे हमारी चमक उठने वाली आँखों से सहारे निशाना साधा जाता है और यह भी कि कैसे हम अपनी आँखें बंद कर, बिना हिले-डुले बैठे रहकर अपने को बचा सकते हैं। 

माँ तो आपके यहाँ भी ऐसी ही होती होगी। माँ अगर किसी रिश्ते का नाम होता तो हो सकता है, वह आपके यहाँ न होती।

मेरा जरा से बचपने से मेरी माँ मर रही थी-ठीक मेरी आँखों के सामने। माँ, जिसके मन में जाते-जाते भी मेरे लिए चिंता थी, जिसके मन में किसी के लिए भी शिकायत नहीं थी, माँ जो अपनी मौत को भी खेल भावना से ले रही थी। मैं अपनी माँ के सामने स्वीकार करना चाहता थी कि उसकी यह दशा मेरे ही कारण हुई है, लेकिन इसका मौका ही नहीं आया। सूखे पत्तों पर कुछ लोग तेज कदमों से चलते हुए आए, उनमें से कुछ ने, स्तब्ध-सी बैठी रह गई, मुझे दबोच लिया और कुछ ने मेरी तड़पती माँ को उठाकर एक बड़े से बोरे में डाल लिया। तभी मुझे सुध आई। मैंने माँ की सिखाई हुई भाग निकलने की एकाध तरकीबें आजमानी चाहीं लेकिन उन्होंने मेरी एक न चलने दी।

जरा देर बाद अचानक घर्र-घर्र की वो तेज आवाज फिर शुरू हुई, लेकिन इस बार ठीक जैसे मेरे सीने पर ठोकरें-सी मारती हुई। वह लुढ़कने वाली, जरा लंबी-सी एक जगह थी, जिसमें कई लोग बैठे थे और हँस-हँसकर बातें कर रहे थे। उसे जीप कहते हैं, यह मुझे यहाँ आने के काफी समय बाद मालूम हुआ। तो, उन सबने बोरा जीप के पिछले वाले हिस्से में डाल दिया और उसी के पास मुझे बिठा दिया। शिकंजा मेरे ऊपर तब भी कसा हुआ था। तभी एकाएक बोरे में कुछ हलचल हुई और उसको दबाने के लिए एक मजबूत पैर आ कर उस पर जम गया। बोरे के बीच-बीच में हिल उठने से मुझे लगा कि मेरी माँ अभी मरी नहीं है। एक बार बोरे के बाहर से ही सही, मैं माँ के शरीर का स्पर्श चाह रही थी। लेकिन मैंने बोरे की तरफ जरा-सा मुँह घुमाने की कोशिश की तो कुछ पंजे मेरी गरदन पर कस गए। मेरी साँस रुकने को हो आई। मुझसे कभी किसी ने ऐसे निर्दयी ढंग से व्यवहार नहीं किया था, मैं सकते की-सी हालत में थी। जीप के आगे लगी रोशनी से अँधेरे जंगल के रास्ते साफ दिख रहे थे। पिछले दो-तीन दिनों में आसपास घूमकर मैंने जो जगहें देखी थीं, वह सब धीरे-धीरे पीछे छूटती जा रही थीं।

तभी जीप एक जगह रुक गई। जीप के आगे के हिस्से में एक आदमी चमकते कटोरे जैसी एक बत्ती लेकर खड़ा हो गया और उसके ठीक पीछे, जहाँ मैं बैठी थी एक आदमी लोहे की नली जैसी कोई चीज लेकर खड़ा हुआ।

'सर्चलाइट जलाओ' उस लोहे की नली वाले आदमी ने फुसफुसा कर कहा।

आगे खड़े हुए आदमी के हाथ के कटोरे से तेज रोशनी निकली और जंगल का उतना हिस्सा रोशनी से नहा गया। मैंने देखा कुछ दूरी पर गोल-गोल चमकती हुई बीसियों आँखें, अँधेरे पर लाइन से जड़ी हुई जगमगाती-सी लग रही थीं।

उस आदमी ने लोहे की वह नली उठाई और उसे आँख की सीध में ले लिया, “अरे-रे मत मारो, मादा है...क्या फायदा?” आगे बैठी औरत ने कहा तो आदमी ने नली नीचे कर दी।

पहले मुझे लगा कि खुद मादा होने की वजह से उसके मन में प्राणि-मात्र की मादाओं के प्रति एक करुणा का भाव है, लेकिन फिर मैंने उसके 'क्या फायदा” की ओर ध्यान दिया तो समझ में आया कि मादा को तो न मारने में ही इनका फायदा है, क्योंकि मादा ही नहीं रही तो सारा खेल ही खत्म हो जाएगा।

“अब जाने दो, रखने की जगह भी नहीं ।” किसी ने कहा तो बत्ती बंद कर दी गई और जीप चल पड़ी। मेरी माँ अंतिम समय तक मुझे जिस खतरे से बचने के उपाय सिखाती रही थी, वह कैसे सामने आता है-यह मैं अपनी आँखों से देख रही थी। मुझे अपने निरीह सगे-संबंधियों पर तरस आने लगा जो तेज रोशनी से चकाचौंध हो कर ठगे-से रह जाते हैं, और जब तक कुछ सोचें तब तक चमकती आँखों के सहारे उन्हें निशाना बना दिया जाता है।

यह तो मुझे सरासर बेईमानी लगती है। मैं तो कहती हूँ, मेरी माँ या किसी और को छोड़ दो, मैं तो उस समय महज पॉँच-छः दिन की थी-तुम मुझे ही दौड़कर पकड़ लेते तो मान जाती तुम्हें । यह क्या बात हुई कि रोशनी से अचानक अंधा बना दिया और उसके बाद मार दिया। और कहते हो कि शिकार खेलते हैं, नहीं, यह तो कोई खेल न हुआ।

तसवीर वाले आदमी की गंध मैंने अगले दिन तुरंत पहचान ली जब वह मेरे पास आया। रात में वह जीप चला रहा था और जब पंजे मेरी गरदन पर कसे हुए थे, तब मेरा मुँह उसकी कमर से लगा रहा था। अपनी माँ की छातियों को तो मैं पहचानती थी, पर जब वह माँ की छातियों के अगले भाग को एक बोतल में लगा कर मेरे मुँह में डालने की कोशिश करने लगा तो मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने अपने दाँत जोर से भींच लिये और उसके बनावटी प्यार-दुलार को एक ओर झटक उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश करने लगी। मेरे ऐसा करते ही कुछ हाथ मेरी गरदन पर फिर कस गए।

यह तो अच्छी जबरदस्ती थी। मैं अपनी मरजी से अपनी गरदन तक नहीं घुमा सकती थी। जो मुझे अपने साथ ले आया था, उसकी गुलामी करने को मजबूर कर दी गई थी। कया इसी को आपके यहाँ प्यार कहते हैं?

मुझे कस कर पकड़ा गया और किसी ने अपनी हथेलियों से मेरे दोनों जबड़े इतनी जोर से दबाए कि मुझे तेज दर्द उठा और मैंने मुँह खोल दिया। वे सब यही चाहते भी थे। उन्होंने माँ की छातियों के अगले भाग को मेरे मुँह में दूँस दिया। हलका गुनगुना दूध जैसा कुछ लगा। एकाएक मुझे अपनी माँ की बहुत याद आने लगी। मेरी माँ की छातियों के अगले हिस्से से केवल दूध ही नहीं टपकता था उस से मेरे लिए दूध से ज्यादा प्यार झरता-सा लगता था। मगर मेरे मुँह से दूँस दिए गए माँ की छाती के अगले वाले उस हिस्से में स्पर्श का कोई अहसास मौजूद नहीं था। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे और मैं दूध पीने लगी। मुझे पिछली रात से कुछ भी खाने को नहीं मिला था और मुझे तेज भूख लग रही थी। मैं रोती जा रही थी और जल्दी-जल्दी दूध पीती जा रही थी। जरा देर बाद मुझे यह याद करने के लिए दिमाग पर जोर डालना पड़ा कि मैं माँ को याद करके रो रही थी या जबड़ा जोर से दबाए जाने से उठे दर्द के कारण। भूख चीज ही ऐसी होती है।

काफी दिनों तक मुझे गले में एक रस्सी बाँधकर रखा गया। अपनी चीज के खो जाने का कितना डर होता है, आप लोगों को। मैं तसवीर बन गए इस आदमी के लिए एक चीज ही तो थी, जिसे वह हर आने-जाने वाले के सामने गर्व से पेश करता था। लोगों के घरों में कुत्ते, बिल्लियाँ और खरगोश पले हुए थे पर तसवीर वाले आदमी के घर में आई थी-मैं, चित्तीदार रूपसी हिरनी। वह आते-जाते मेरी गरदन पर हाथ फैरता, मुझे प्यार करता। शुरू-शुरू में तो मुझे उसके हाथों से अपनी माँ के खून की गंध आती जान पड़ती, पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, मैं उसे प्यार करने लगी।

फिर मैं भूलने लगी। पलाश, कीकर, ढाक और शाल वनों को भूलने लगी। जंगल के गोशे-गोशे में बसी वनस्पतियों की महक भूलने लगी। खेलने-कूदने और घूमने-फिरने के लिए लंबे-चौड़े वन-प्रांतः को भूलने लगी। मैं अपने को इस घर के चटाई जैसे छोटे से लॉन से ही संतुष्ट करने की कोशिश करने लगी। मैं अपनी माँ को भी भूलने लगी, जिसके बारे में उस रात के बाद कुछ पता नहीं चल सका था। आखिर जहाँ मैं ले आई गई थी, वहाँ के हिसाब से अपने को ढालना ही था। दिखाना था, कि मैं खुश हूँ। मेरा मालिक, जो मुझे मोटर में बिठा कर अपने साथ लिवा लाया था उसकी खुशी इसी में थी कि मैं अपना पिछला जीवन अपने मन से पोंछ कर अलग फेंक दूँ। दिखाना था कि मैं जहाँ से लाई गई हूँ, वहाँ के लिए अब मेरे मन में कोई मोह नहीं है। इसी के बदले में तो मेरा मालिक मुझे प्यार देता था। मैं भी उसके साथ कुछ ऐसे व्यवहार करने लगी जैसे वह मुझे मेरे घर से बाकायदा विदा करा कर लाया हो। ऐसी मजबूरियों के बारे में आपने कभी नहीं सुना? ताज्जुब है.....

पता नहीं आप लोग कैसे जान लेते हैं, तसवीर वाले आदमी ने एक दिन इतने इत्मीनान के साथ मेरे गले की रस्सी खोल दी जैसे वह जान गया हो कि अब कहीं भागने की इच्छा मुझमें बाकी ही नहीं बची है। और सचमुच था भी ऐसा ही। अब यही मेरा घर था। मैं तसवीर वाले इस आदमी, इसके बच्चों और पास-पड़ोस से आने वाले ढेर सारे नन्‍्हे-मुन्नों के प्यार में पड़ गई थी। बच्चे मेरे साथ दौड़-दौड़कर खेलते और इतनी प्यारी बातें करते कि मेरा मन उमड़ पड़ता। कभी-कभी मुझे ध्यान हो आता कि अगर मैं यहाँ न लाई गई होती तो अब तक मेरे अपने बच्चे हो चुके होते। फिर मैं अपने इस दुःख को झटक देती और इन बच्चों के प्यार में खो जाती जो मुझे बिलकुल अपने बच्चों की तरह मासूम और निश्छल लगते थे। मेरे ऊपर से सारे बंधन हटा लिए गए थे और मैं इतने बड़े घर में कहीं भी आ-जा सकती थी, घूम-फिर सकती थी।

मैंने आपसे कहा न कि जब-जब मुझे लगा है, कि मैं अपने दुःख से उबर रही हूँ, तब-तब किसी नई चोट ने मुझे जहाँ का तहाँ पहुँचा दिया है। हुआ यह कि घर में घूमने-फिरने की आजादी मिलने के कुछ ही महीनों बाद मुझे अपनी माँ का पता चल गया। उस दिन साथ खेलते बच्चे उधर पीछे बरामदे की तरफ दौड़ गए। मैं भी उनके पीछे भागी। एक-दूसरे को ढूँढ़ने का खेल था। बरामदा सूना पड़ा था, बच्चे कहीं छिप गए थे। वैसे तो मैं इन बच्चों से बहुत तेज दौड़ सकती हूँ, पर खेल का मजा बनाए रखने के लिए मैं जान-बूझकर धीमे-धीमे चलती। तो, मैं बरामदे में इधर-उधर देख रही थी, तभी मुझे बरादमे में मेरा पहले कभी आना नहीं हुआ था। मैंने अनुमान लगाया कि तस्वीर वाले आदमी का वह गोल-गोल-सा गदबदा छोटा बेटा इसी कमरे में छिप गया होगा।

मैंने मुँह से ठेल कर दरवाजा खोला और जैसे ही कमरे के अंदर झाँक कर इधर-उधर देखा, मेरे मुँह से चीख निकल गई। मैं अंदर चली गई। वह एक बहुत बड़ा कमरा था जिसमें बैठने की हर जगह अपनी जैसी खालें बिछी देख, मैं सन्‍नाटे में आ गई। मैं कभी अपनी खाल देखती और कभी उसकीमिलान उन बिछी हुई खालों से करती ठगी-सी खड़ी रह गई। कई खालों के काफी बाल गिर गए थे और वह बैठने की सतहों पर चिकनी हो गई थीं। सभी खालों पर जगह-जगह छोटे-छोटे छेद थे, जिनसे मुझे ताजा रिसता हुआ खून-सा दिखाई देने लगा। तभी मेरी निगाह एक खाल पर जाकर अटक गई। उस खाल पर एक गहरे कटे का निशान था, जिसे देखते ही मुझे अपनी माँ की पीठ का वह जख्म याद हो आया जिसे मैंने कई बार देखा था। मैं उस माँ-सी लगने वाली खाल के आसन के पास गई और अपना चेहरा उससे रगड़ने लगी, लेकिन अब उसमें मेरी माँ की तो कया, कोई भी गंध नहीं थी।मैं यह नहीं कहती, हो सकता है कि वह मेरी माँ की खाल नहीं ही रही हो, पर इतने भर से तो संतोष नहीं किया जा सकता था। कमरे में चारों तरफ जो खालें बिछी थीं वे सब मेरे सगे-संबंधियों की थीं।

उस खाल पर कटे का निशान देखकर मेरे सारे घाव फिर हरे हो गए थे। कमरे में इतनी सारी खालें देखकर मेरा मन दहशत और नफरत से भर उठा था। जिस दुः्ख से मैंने अपने आप को इतनी मुश्किलों से निकाला था, उसी में मैं फिर जा गिरी।

“आओ मृगनयनी, तुम इस मृगछाया पर बैठो ।” तसवीर वाला आदमी तभी एक औरत को लेकर कमरे में आया और एक खाल की ओर इशारा करते हुए बोला।

मैंने घूम कर देखा। इमली की चियों जैसी चुँधी आँखों वाली उस औरत को वह मृगनयनी कह रहा था। मेरा मन चिढ़ से भर उठा। मुझे अपनी आँखों से ही नफरत हो उठी। मुझे लगा कि इस आदमी ने तो मृग के नयन कभी देखे भी नहीं होंगे। इसने मृग की या तो मरी हुई आँखें देखी होंगी या फिर रात के अंधेरे में तेज रोशनी डाले जाने से चमकती आँखें। मृग की याचना भरी, करुण और मैत्री के लिए उत्सुक आँखें अगर एक बार भी देखी होतीं तो उसके कमरे में आसन के लिए एक भी खाल न होती।

मैं विद्रोह कर उठी थी और मन में निश्चय कर चुकी थी कि यह अन्याय जान चुकने के बाद मैं चुप नहीं रहूँगी। मैं तसवीर वाले आदमी की अँगुलियों में अपने दाँत गड़ाने के लिए दौड़ पड़ी, जिन्हें वह अपनी उस मृगनयनी की पलकों पर फिरा रहा था। मेरी पूँछ जरा देर के लिए भी स्थिर नहीं हो पा रही थी, मेरे दाँत किटकिटा रहे थे और मेरी आँखों से गर्म आँसू टपक रहे थे। मगर मेरे पास पहुँचते ही उस आदमी ने उस औरत से पाई उत्तेजना से अलसा गई आवाज में मुझसे बातें करना शुरू कर दिया। मेरे शरीर पर, मेरे गले पर और मेरे माथे पर उसकी थरथराती उँगलियों के स्पर्श ने मुझे बेबस कर दिया।

यह किसी और की देह से उपजी उत्तेजना थी, जिसकी जूठन मुझ पर निसार की जा रही थी। मैंने जाना कि कुरूप से कुरूप चेहरा भी प्यार पाकर सुंदर बन जाता है। मैंने पाया कि मेरे मन का सारा विष उस आदमी के प्यार के झरने के नीचे आकर उतर रहा था।

आपके लिए तो इसमें शायद कुछ भी नया नहीं होगा, पर मैं आज भी याद करती हूँ तो सोचती हूँ कि मेरी सारी आग, मेरा सारा विद्रोह उस आदमी के कुछ संस्पर्शों से कहाँ बिला गया था। मैं रोने लगी थी, उस आदमी के हाथों में मुँह छिपा कर, जिनमें मुझे फिर खून की गंध आती जान पड़ने लगी थी। मैं रोती रही थी, अपनी माँ के हत्यारे से लिपट कर, उसी के हाथों के स्पर्श में अपने अधीर मन के लिए सांत्वना खोजती हुई जिसने मेरा जंगल, मेरा घर और मेरा सब कुछ छीन लिया था। आप लोगों के साथ इतने वर्षों तक रहने के बाद इतना तो समझ ही गई हूँ कि मारा हमेशा बंदूक से ही नहीं जाता...

मैंने आपसे कहा न कि आपके दुःख का ज्वार तो अभी जरा देर बाद यहाँ से वापस लौटते ही उतरना शुरू हो जाएगा, मगर मुझे इस बार के आघात से उबरना सचमुच बड़ा मुश्किल लग रहा है। तसवीर बन गए इस आदमी के लिए मन-ही-मन घुटते हुए मैं जैसे बीमार-सी हो गई हूँ। इसके न रहने के बाद इसके जुल्म, इसकी क्रूरता और इसके छल कई बार याद आए। कई बार मैंने अपने मन को इस आदमी के खिलाफ खड़े होने के लिए तैयार करना चाहा, लेकिन वैसा कुछ नहीं हो सका। प्यार जब एक आदत बन जाता है, तब उसे अपने से अलग कर पाना आसान नहीं होता। जंगल, अपनी माँ और अपने सगे-संबंधियों को धीमे-धीमे भूल ही गई थी पर क्या तसवीर बन गए इस आदमी का प्यार-दुलार इतनी आसानी से भुला पाऊँगी? लेकिन सच कहूँ तो मैं चाहती हूँ कि उसके आत्याचारों को जरा देर के लिए भी न भूलूँ और अपनी नफरत की भोथरी होती जा रही धार पर सान चढ़ाती रहूँ....मगर ऐसा नहीं कर पाई...

आप तो मेरी ओर ऐसे देख रहे हैं, जैसे इन बातों का आपकी दुनिया से कोई सरोकार ही नहीं हो...मैं जान रही हूँ कि इतनी देर में आप भी यही सोचने लगे होंगे कि मुझे अपने आपको घृणा और प्रतिशोध जैसी तुच्छ भावनाओं से ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए, क्‍योंकि अच्छा था, बुरा था, जैसा भी था वह मेरा मालिक था।


कथा-गोरखपुर की कहानियां 


कथा-गोरखपुर खंड-1 


मंत्र ● प्रेमचंद 

उस की मां  ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र 

झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा  ● श्रीपत राय 

पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी

लाल कुरता   ● हरिशंकर श्रीवास्तव 

सीमा  ● रामदरश मिश्र 

डिप्टी कलक्टरी  ● अमरकांत 

एक चोर की कहानी  ●श्रीलाल शुक्ल

साक्षात्कार  ● ज ला श्रीवास्तव 

अंतिम फ़ैसला  ● हृदय विकास पांडेय 


कथा-गोरखपुर खंड-2 

पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी 

मां  ● डाक्टर माहेश्वर 

मलबा ● भगवान सिंह 

तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह 

पेड़  ● देवेंद्र कुमार 

हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर  ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव

सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव 

दस्तक ● रामलखन सिंह 

दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव 

इतिहास-बोध ●विश्वजीत  


कथा-गोरखपुर खंड-3 

सब्ज़ क़ालीन  ● एम कोठियावी राही 

सौभाग्यवती भव  ● इंदिरा राय 

टूटता हुआ भय  ● बादशाह हुसैन रिज़वी 

पतिव्रता कौन  ● रामदेव शुक्ल 

वहां भी ● लालबहादुर वर्मा 

...टूटते हुए ● माहेश्वर तिवारी

डायरी  ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल 

मद्धिम रोशनियों के बीच  ● आनंद स्वरूप वर्मा 

इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप 

यह तो कोई खेल न हुआ   ● नवनीत मिश्र 

कथा-गोरखपुर खंड-4 

आख़िरी रास्ता  ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव 

जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल 

प से पापा  ● रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत 

सेनानी, सम्मान और कम्बल ● शक़ील सिद्दीक़ी 

कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी

अपने भीतर का अंधेरा  ● तड़ित कुमार 

गुब्बारे  ● राजाराम चौधरी

पति-पत्नी और वो  ● कलीमुल हक़ 

सपना सा सच ● नंदलाल सिंह 

इंतज़ार  ● कृष्ण बिहारी 


कथा-गोरखपुर खंड-5 

तकिए  ● शची मिश्र 

उदाहरण ● अनिरुद्ध 

देह - दुकान ● मदन मोहन 

जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल  

रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार 

रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव 

ट्रांसफॉर्मेशन ●उबैद अख्तर

भूख ● श्रीराम त्रिपाठी 

अंधेरी सुरंग  ● रवि राय 

हम बिस्तर ●अशरफ़ अली


कथा-गोरखपुर खंड-6 

भगोड़े ● देवेंद्र आर्य

एक दिन का युद्ध ● हरीश पाठक 

घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय 

खौफ़ ● लाल बहादुर

बीमारी ● कात्‍यायनी

काली रोशनी  ● विमल झा

भालो मानुस  ● बी.आर.विप्लवी

तीन औरतें ● गोविंद उपाध्याय 

जाने-अनजाने   ● कुसुम बुढ़लाकोटी

ब्रह्मफांस  ● वशिष्ठ अनूप

सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव 


कथा-गोरखपुर खंड-7 

पत्नी वही जो पति मन भावे  ●अमित कुमार मल्ल    

बटन-रोज़  ● मीनू खरे 

शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद  

डाक्टर बाबू  ● रेणु फ्रांसिस 

पांच का सिक्का ● अरुण कुमार असफल

एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल

उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत

धोबी का कुत्ता ●सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '

कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी 

तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय

राग-अनुराग ● अमित कुमार 


कथा-गोरखपुर खंड-8  

झब्बू ●उन्मेष कुमार सिन्हा

बाबू बनल रहें  ● रचना त्रिपाठी 

जाने कौन सी खिड़की खुली थी ●आशुतोष 

झूलनी का रंग साँचा ● राकेश दूबे

छत  ● रिवेश प्रताप सिंह

चीख़  ● मोहन आनंद आज़ाद 

तीसरी काया   ● भानु प्रताप सिंह 

पचई का दंगल ● अतुल शुक्ल 


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