दयानंद पांडेय
बरेली के लवलेश दत्त से अलवर में एक कार्यक्रम में भेंट हुई थी। ग़ज़लगो विनय मिश्र ने मिलवाया था। सितंबर , 2019 में। होटल के कमरे में लवलेश दत्त से किसिम-किसिम की बातें होती रहीं। लवलेश दत्त तब एक कालेज में प्राचार्य थे। लेकिन उन का व्यवहार किसी विद्यार्थी की तरह बहुत ही शिष्ट और बालकोचित था। सादगी , विनम्रता और शालीनता से संपन्न लवलेश दत्त बातचीत में बड़ी उत्सुकता से उपन्यास लिखने के बारे में , उपन्यास लिखने की तकनीक जानने की जिज्ञासा ले कर अचानक उपस्थित हो गए। बिलकुल बालसुलभ जिज्ञासा। ऐसे कि जैसे अ कैसे लिखा जाए , क कैसे लिखा जाए। जानना चाहते थे कि उपन्यास कैसे लिखा जाता है। उन की यह शालीनता , संकोच और उत्सुकता देख कर दंग था मैं। लवलेश कविता , कहानी लिखने और पत्रिका संपादन से परिचित थे। निरंतर लिखते आ रहे थे। पर उपन्यास लिखने को ले कर वह मुश्किल में थे। कि शुरु कैसे करुं।
मैं ने उन से कहा कि कुछ भी लिखने की कोई ख़ास टेक्निक नहीं होती। हां , जैसे मैं कुछ लिखता हूं , ख़ास कर उपन्यास , वह आप को बता देता हूं। फिर अपने उपन्यास लिखने की टेक्नीक बहुत सरलता से बता दी उन्हें । बता दिया कि जैसे कोई नदी जब पर्वत से छलकती हुई मैदान में आती है तो यह नहीं सोचती कि कौन उस के साथ चलेगा , कौन नहीं। किसे ले चलें , किसे नहीं। वह तो यह सब भूल कर कंकड़ , पत्थर , हीरा , मोती , मिट्टी , पानी सब कुछ साथ लाती है। ठीक वैसे ही आप अपने उपन्यास में कही जाने वाली कथा को नदी की तरह बहा कर ले आइए। कोई बांध या बैरियर मत बनाइए। क्या लेना है , क्या नहीं। पहले मत सोचिए। भूल कर भी मत सोचिए। कथा को नदी की तरह बहने दीजिए। छोड़ दीजिए उसे , उस के हाल पर। जब कथा थम जाए , कथा की नदी थम जाए , तब तय कीजिए कि इस में से क्या लेना है , क्या छोड़ना है। और यह देखिए लवलेश दत्त ने यही कर दिखाया। सच्ची कथा , असल चरित्र ले कर भी नदी का यह स्वभाव वह नहीं भूले। जब लोग कोरोना से जूझ रहे थे , लवलेश दत्त अपनी कथा नदी को पर्वत से मैदान में लाने के यत्न में लगे थे। पहाड़ी नदी की तरह पूरे वेग से बहती हुई नदी , एक दर्द की नदी बन कर हमारे सामने उपस्थित थी , उन की कथा । दो साल में ही दर्द न जाने कोई उपन्यास ले कर लवलेश दत्त ने एक मिसाल क़ायम कर दिया है। 2019 में उपन्यास लिखने का गुन जाना लवलेश दत्त ने और 2021 में 239 पृष्ठ का उपन्यास प्रस्तुत कर मन मोह लिया लवलेश दत्त ने।
दर्द न जाने कोई उपन्यास ट्रांसवुमेन की कथा है। एक मनोवैज्ञानिक व्यथा है। किन्नर विमर्श पर अब हिंदी में भी पर्याप्त लिखा जा चुका है। निरंतर लिखा जा रहा है। लेकिन अभी तक किन्नर विमर्श के तहत हिंदी कथा-साहित्य में किन्नर की सामाजिक और पारिवारिक यातना की इबारत ही बांची गई है। किन्नर विमर्श की मनोवैज्ञानिक इबारत हिंदी कथा साहित्य में लवलेश दत्त पहली बार बांच रहे हैं। किन्नर विमर्श की भावनात्मक कथा तो है ही लवलेश दत्त के पास पर साथ ही किन्नर विमर्श का मनोवैज्ञानिक पाठ कहीं ज़्यादा गहरा , कहीं ज़्यादा पैना है। इधर के हिंदी कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिक कथाओं की विपन्नता तमाम थोथे विमर्शों के बुलडोजर तले कुचल दी गई है। जैनेंद्र कुमार और अज्ञेय को ख़ारिज करने वाले विमर्शों ने ऐसे एहसास करवा दिया कि हिंदी कथा में मनोवैज्ञानिक कथा की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन लवलेश दत्त ने एक साथ दो ख़तरे उठाए हैं दर्द न जाने कोई उपन्यास में। एक यह कि किन्नर कथा को परिपाटी की खोह से उसे बाहर निकाला है बल्कि ट्रांसवुमेन के मनोविज्ञान को , उस के संघर्ष के मनोविज्ञान को एक प्राणवान विमर्श में बदल दिया है। इस दर्द में सिर्फ़ रुदन ही नहीं है , प्रेम का पावन बिरवा भी है।
यौन विकलांगता का मुखर हिसाब-किताब भी है दर्द न जाने कोई उपन्यास में। दर्द न जाने कोई की नदी में स्कूल , सर्जरी , अस्पताल जैसे अनेक स्वाभाविक मोड़ हैं। कुछ मोड़ ऐसे हैं , जैसे नदी अचानक मुड़ जाए। बहते-बहते अचानक ठहर जाए। अचानक जल के गहरे जाल में उतार ले जाए। फिर उठा कर लहरों पर पटक दे। कोई नाविक मिल जाए। और समय की नाव पर उठा कर बिठा ले। उपन्यास के अंत में पंद्रह ट्रांस जेंडर दूल्हों और पंद्रह ट्रांस जेंडर दुल्हनों की शादी वाली बारात भले असमंजस और अचरज में डालती है और बैंड पर बजती धुन , आज मेरे यार की शादी है ! फैंटेसी की माला में गुंथी दिखती है पर मुरली और दिव्या की कथा का कोहरा किसी काली रात सा डस लेता है। जो छोड़ गया , उसे छोड़ दिया की यातना तोड़ डालती है। देवेंद्र और देबू का दंश अलग ही यातना है। तनाव और सांघातिक तनाव के अनेक तंबू हैं।
महेंद्र भीष्म के उपन्यास किन्नर कथा या मैं पायल से अलग है लवलेश दत्त का यह दर्द न जाने कोई की कथा। यातना और कशमश के तार भी अलग हैं। खुशवंत सिंह की दिल्ली की याद भी आती है , दर्द न जाने कोई को पढ़ते हुए। लेकिन बस याद ही आती है। कथा के तार कहीं नहीं मिलते। लवलेश दत्त के दर्द न जाने कोई उपन्यास की खासियत यह भी है कि वह किन्नर विमर्श के बने-बनाए ढांचे को न सिर्फ़ ध्वस्त करते मिलते हैं बल्कि किन्नर विमर्श का एक नया आकाश , एक नई धरती रचते हैं। इस धरती में किन्नरों का पर्वत भी है और समंदर भी। वनस्पतियां भी। हवा भी नई है और उस की ख़ुशबू भी बिलकुल अलग। लवलेश दत्त के दर्द न जाने कोई उपन्यास में देवेंद्र का दिव्या बन जाना ही दर्द नहीं है , दर्द के मनोविज्ञान का औचक निरीक्षण भी है। चूंकि दर्द न जाने कोई की कथा काल्पनिक नहीं है , देवेंद्र से दिव्या बन जाने की कथा का चरित्र असली है , इस लिए इस की कैफ़ियत को किसी क्राफ़्ट में , किसी तफ़सील में क़ैद करने की ज़रुरत नहीं। इस दर्द की नदी में उसी शिद्दत से बहने की ज़रुरत है जिस शिद्दत से लवलेश दत्त ने इसे लिखा है। इस नदी को डूब कर , पढ़ कर ही , इस आग से जल कर ही , इस दर्द की नदी को पार किया जा सकता है। दर्द की सिलवटों की शिनाख़्त की जा सकती है। लवलेश दत्त इस दर्द न जाने कोई का दर्द बताने के लिए , दर्द की इस नदी से परिचित करवाने के लिए बहुत बधाई ! आप ख़ूब लिखें , ख़ूब यश प्राप्त करें और हमारा दिल लूटते रहें। ऐसे ही सर्वदा-सर्वदा लूटते रहें।
समीक्ष्य पुस्तक :
दर्द न जाने कोई
लेखक - लवलेश दत्त
मूल्य - 600 रुपए
पृष्ठ - 239
प्रकाशक - विकास प्रकाशन
311 सी , विश्व बैंक , बर्रा , कानपुर - 208027
लवलेश दत्त का मोबाइल नंबर
9412345679
9259972227
एक अच्छी समीक्षा।
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