दयानंद पांडेय
कुछ राजाओं की कथा के बहाने आज के कुछ राजाओं और उन की प्रजा का हाल जानिए। कश्मीर फाइल्स फ़िल्म के बहाने कैसे कुछ लोग अपने को अपने बाप का बताने को ले कर होड़ में लग गए हैं। क्यों कि उन्हें समझा दिया गया है कि जो भी कोई ग़लती से भी कश्मीर फ़ाइल्स का हामीदार या प्रशंसक निकला , वह अपने बाप का नहीं रहेगा। तो सब के सब अपने बाप का होने का सुबूत लिए घूम रहे हैं। नगाड़ा बजा-बजा कर बता रहे हैं कि हम अपने बाप के ही हैं। फिर कश्मीर फाइल्स कोई पहला मामला नहीं है। हर ऐसे मामले में यह राजा जानी लोग यकायक पूरे देश में गोलबंद हो कर सुर में सुर मिला कर मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा ! गाने लगते हैं। ले के रहेंगे आज़ादी गाने लगते हैं। इन की गोलबंदी और एक सुर के हम तो क़ायल है। एकपक्षीय होने की इन की मिसाल , बेमिसाल है। कोई आपदा हो , कोई ख़ुशी हो , यह राजा जानी लोग सर्वदा एक सुर में रुदाली बन जाते हैं। फांसी पर चढ़ने लगते हैं। एक दूसरे को अमर फल खिलाने लगते हैं। अपनी तलवार से भरपूर वार अपनी ही पिछाड़ी पर करने लगते हैं। दूध की जगह , पानी का तालाब बना डालते हैं। अपने को केंद्र में रख कर अपने लिए महाभारत लिखवाने लग जाते हैं। अपनी फ़ासिस्ट विचारधारा को मनवाने के लिए लोगों को डिक्टेट करने लगते हैं। आप उन का डिक्टेशन नहीं मानते तो आप हरामी हैं। अपने बाप के नहीं हैं। ऐसा नैरेटिव बनाते हैं। पर अब यह नैरेटिव अपना रंग खो चुका है। इन का कठमुल्लापन सड़-गल कर समाप्त हो चुका है। बेहाल हो कर यह सारे के सारे लोग एक ही बाप की औलाद बने घूम रहे हैं। पूरी तरह नंगे हो कर घूम रहे हैं। इन की शोभा यात्रा निकल चुकी है , हर नगर में पर अपने बाप का होने का इन का गुमान इन्हें अपने को नंगा होना स्वीकार्य नहीं हो रहा। तो यह लीजिए पहली कथा सुनिए।
कथा - 1
राजा तो नंगा है
एक पुराना क़िस्सा है। एक बार एक आदमी किसी महत्वपूर्ण आदमी के पास गया। और कहा कि आप के लिए एक दैवीय वस्त्र ले आया हूं। वह व्यक्ति बहुत ख़ुश हुआ। कि वह दैवीय वस्त्र धारण करेगा। पर तभी उसे याद आया कि राज्य के एक मंत्री से उसे काम था। फिर उस ने सोचा कि क्यों न वह यह दैवीय वस्त्र उस मंत्री को भेंट कर दे। मंत्री ख़ुश हो जाएगा और उस का काम बन जाएगा। सो उस ने उस व्यक्ति से अपनी मंशा बता दी कि वह यह दैवीय वस्त्र उसे दे दे ताकि वह मंत्री को दे सके। उस व्यक्ति ने बताया कि यह दैवीय वस्त्र वह ख़ुद ही पहना सकता है। कोई और नहीं पहना या पहन सकता है। सो वह व्यक्ति मंत्री के पास उस आदमी को ले कर गया। मंत्री भी बहुत ख़ुश हुआ कि उसे दैवीय वस्त्र पहनने को मिलेगा। फिर वह बोला कि राजा के सामने मैं दैवीय वस्त्र पहनूंगा तो यह अच्छा नहीं लगेगा। ऐसा करते हैं कि यह दैवीय वस्त्र राजा को भेंट कर देते हैं।
अब मंत्री उस दैवीय वस्त्र वाले आदमी को ले कर राजा के पास पहुंचा। राजा को दैवीय वस्त्र के बारे में बताया। और कहा कि यह आप को भेंट देने के लिए आया। राजा बहुत ख़ुश हुआ। मंत्री से कहा कि आप लोग मेरा इतना ख़याल रखते हैं , ऐसा जान कर बहुत अच्छा लगा। राजा दैवीय वस्त्र पहनने के लिए राजी हो गया। उस आदमी ने कहा कि दैवीय वस्त्र पहनने के लिए स्नानादि कर लें। फिर मैं पहनाऊं, इसे। राजा नहा-धो कर आए तो उस आदमी ने सब से कहा कि राजा को छोड़ कर सभी लोग बाहर चले जाएं। लोग कक्ष से बाहर निकल गए। अब राजा से उस आदमी ने कहा कि जो भी वस्त्र देह पर हैं , सब उतार दें। राजा ने उतार दिया। आदमी ने कहा कच्छा भी उतारिए। राजा ने आपत्ति की कि यह कैसे हो सकता है। आदमी ने कहा , दैवीय वस्त्र पहनने के लिए निकालना तो पड़ेगा। राजा ने बड़ी हिचक के साथ कच्छा भी उतार दिया। अब उस आदमी ने अपने थैले से कुछ निकाला जिसे राजा देख नहीं सका। फिर उस आदमी ने कुछ मंत्र पढ़ते हुए प्रतीकात्मक ढंग से राजा को दैवीय वस्त्र पहना दिया। और राजा से कहा कि अब कक्ष से बाहर चलें महाराज !
राजा ने पूछा , इस तरह निर्वस्त्र ? वह आदमी बोला , क्या कह रहे हैं , राजन ? क्या आप को दैवीय वस्त्र नहीं दिख रहा ? राजा ने कहा , बिलकुल नहीं। आदमी ने कहा , राम-राम ! ऐसा फिर किसी से मत कहिएगा। राजा ने पूछा , क्यों ? आदमी ने बताया कि असल में जो अपने पिता का नहीं होता , उसे यह दैवीय वस्त्र कभी नहीं दिखता। राजा बोला , ऐसा ! आदमी ने कहा , जी ऐसा ! अब राजा ने फ़ौरन पैतरा बदल दिया। दैवीय वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा शुरु करने लगा। राजा निर्वस्त्र ही बाहर आया तो लोग चौंके। कि राजा इस तरह नंगा ! पर लोग कुछ बोलते , उस के पहले ही उस आदमी ने लोगों को बताया कि जो आदमी अपने बाप का नहीं होगा , उस को यह दैवीय वस्त्र नहीं दिखेगा। राजा ने फिर से वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा शुरु की। राजा की देखा-देखी मंत्री समेत सभी दरबारी लोग भी राजा के दैवीय वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। कि क्या तो वस्त्र है ! कैसी तो चमक है ! ऐसा बढ़िया वस्त्र कभी देखा नहीं आदि-इत्यादि। अब चूंकि राजा ने दैवीय वस्त्र पहना था तो तय हुआ कि इस ख़ुशी में नगर में राजा की एक शोभा यात्रा निकाली जाए।
राजा की शोभा यात्रा निकली नगर में। पूरे नगर की जनता देख रही थी कि राजा नंगा है। पर शोभा यात्रा के आगे-आगे प्रहरी नगाड़ा बजाते हुए उद्घोष करते हुए चल रहे थे कि आज राजा ने दैवीय वस्त्र पहन रखा है। लेकिन जो अपने बाप का नहीं होगा , उसे वह यह वस्त्र नहीं दिखेगा। जो अपने बाप का होगा , उसे ही यह दैवीय वस्त्र दिखेगा। अब नगर की सारी जनता राजा के दैवीय वस्त्र का गुणगान कर रही थी। भूरि-भूरि प्रशंसा कर रही थी। राजा के दैवीय वस्त्र के बखान में पूरा नगर मगन था। राज्य के किसी गांव से एक व्यक्ति भी अपने छोटे बच्चे को कंधे पर बिठा कर नगर आया था। बच्चे ने अपने पिता से पूछा , बापू राजा नंगा क्यों है ? उस व्यक्ति ने अपने बच्चे को दो थप्पड़ लगाया और बोला , राजा इतना बढ़िया कपड़ा पहने हुए है और तुझे नंगा दिख रहा है ? बच्चा फिर बोला , लेकिन बापू , राजा नंगा ही है ! अब गांव घर पहुंच कर उस आदमी ने अपनी पत्नी की अनायास पिटाई कर दी। पत्नी ने पूछा , बात क्या हुई ? वह व्यक्ति बोला , बोल यह बच्चा किस का है ? पत्नी बोली , तुम्हारा ही है। इस में पूछने की क्या बात है भला ? उस आदमी ने कहा , फिर इसे राजा का दैवीय वस्त्र क्यों नहीं दिखा ? बच्चा बोला , पर बापू राजा नंगा ही था ! उस आदमी ने फिर से बच्चे और पत्नी की पिटाई कर दी !
कथा - 2
अमरफल और राजा भरथरी का संन्यास
एक बार किसी संत ने राजा के कामकाज से ख़ुश हो कर राजा को एक फल दिया। कहा कि इस फल को खा लेने से आप ज़िंदगी भर युवा बने रहेंगे। प्रजा की सेवा करेंगे। राजा को लगा कि मैं ज़िंदगी भर जवान रह कर क्या करुंगा। रानी जवान रहेंगी तो ज़्यादा अच्छा रहेगा। सो वह फल राजा ने रानी को दे दिया। रानी को लगा कि मैं जवान रह कर क्या करुंगी। अगर यह फल मेरा आशिक़ खा ले तो ज़िंदगी भर जवान रहेगा और मुझे आनंद देगा। रानी का आशिक़ एक घुड़सवार था। उस ने वह फल घुड़सवार को दे दिया। घुड़सवार एक तवायफ़ पर मरता था। सो घुड़सवार ने वह फल उस तवायफ़ को दे दिया। तवायफ़ को लगा कि उस का राजा प्रजा के कल्याण के लिए दिन-रात मेहनत करता है। क्यों न यह अमरफल राजा को दे दे। सो वह अमरफल ले कर , वह राजा के पास गई। और अमरफल की महत्ता बताते हुए राजा को दिया। कहा कि आप का युवा बने रहना , प्रजा के कल्याण के लिए बहुत ज़रुरी है। सो आप यह अमर फल खा लीजिए। राजा ने जब वह अमर फल देखा तो चकित रह गया। कि यह तो वही अमर फल है , जो उस ने रानी को दिया था। तवायफ़ से पूछा कि यह अमर फल तुम को कहां से मिला ? तवायफ़ ने झूठ नहीं बोला। बता दिया कि एक घुड़सवार उस का आशिक़ है उस ने दिया है। घुड़सवार को बुलवाया राजा ने। घुड़सवार ने बताया कि यह अमर फल उसे रानी ने दिया है। राजा का दुनिया से यक़ीन उठ गया। उस ने राजपाट छोड़ कर संन्यास ले लिया। योगी बन गया और गुरु गोरखनाथ का शिष्य बन गया। यह राजा भरथरी था।
कथा -3
जब गौरैया के कारण राजा ने अपनी ही पिछाड़ी , अपने ही तलवार से काट ली
एक राजा था। [अब किस जाति का था यह मत पूछिए। क्यों कि राजा की कोई जाति नहीं होती। वह तो किसी भी जाति का हो, राजा बनते ही निरंकुश हो जाता है। फ़ासिस्ट हो जाता है। हर सच बात उसे अप्रिय लगने लगती है।] तो उस राजा को भी सच न सुनने की असाध्य बीमारी थी। अप्रिय लगता था हर सच उसे। सो उस ने राज्य के सारे दर्पण भी तुड़वा दिए। मारे डर के प्रजा राजा के खिलाफ़ कुछ कहने से कतरा जाती थी। बल्कि राजा का खौफ़ इतना था कि लोग सच के बारे में सोचते भी नहीं थे। और फिर चेले-चपाटों-चाटुकारों का कहना ही क्या था। अगर राजा कह देता था कि रात है तो मंत्री भी कह देता था कि रात है। फिर सभी एक सुर से कहने लग जाते क्या राजा, क्या मंत्री, क्या प्रजा, कि रात है, रात है ! रात है का कोलाहल पूरे राज्य में फैल जाता। भले ही यह सुबह-सुबह की बात हो !
लेकिन जब सब के सब सुबह-सुबह भी रात-रात करते होते तो एक गौरैया सारा गड़बड़ कर देती और कहने लगती कि सुबह है, सुबह है ! राजा बहुत नाराज होता। ऐसे ही राजा की किसी भी गलत या झूठ बात पर गौरैया निरंतर प्रतिवाद करती, फुदकती फिरती। राजा को बहुत गुस्सा आता। अंतत: राजा ने अपने मंत्री को निर्देश दे कर कुछ बहेलियों को लगवाया कि इस गौरैया को गिरफ़्तार कर मेरे सामने पेश किया जाए। बहेलियों ने गौरैया के लिए जाल बिछाया और पकड़ लिया। अब राजा ने गौरैया को पिंजड़े में कैद करवा दिया। भूखों रखा उसे। अपने चमचों को लगाया कि इस गौरैया का ब्रेन वाश करो। ताकि यह मेरे पक्ष में बोले, मेरी आलोचना न करे। मुझे झूठा न साबित करे। भले सुबह हो लेकिन अगर मैं रात कह रहा हूं तो स्वीकार कर ले कि रात है। चमचों ने अनथक परिश्रम किया। एक चमचे को कबीर बना कर खड़ा किया और सुनवाया कि घट-घट में पंक्षी बोलता ! और कहा कि ठीक इसी तरह तुम भी गाओ कि घट-घट में राजा बोलता ! और जो बोलता, सच ही बोलता ! कुछ अंड-बंड भी कहा।
लेकिन गौरैया नकली कबीर के धौंस में नहीं आई, झांसे में भी नहीं आई। नकली कबीर कहता, घट-घट में राजा बोलता ! गौरैया कहती, खुद ही डंडी, खुद ही तराजू, खुद ही बैठा तोलता! नकली कबीर फिर कहता, घट-घट में राजा बोलता ! गौरैया कहती, खुद ही माली, खुद ही बगिया, खुद ही कलियां तोड़ता ! नकली कबीर अपनी दाल न गलती देख फिर लंठई पर उतर आया। पर उस की लंठई भी काम न आई। क्यों कि गौरैया जानती थी कबीर तो सच, निर्दोष और मासूम होते हैं। फ़ासिस्ट नहीं, न फ़ासिस्टों की चमचई में अतिरेक करते हैं। वह असली कबीर को जानती थी। आखिर गौरैया थी, घूमती फिरती थी, जग , जहान जानती थी। सो गौरैया नहीं मानी, सच बोलती रही। निरंतर सच बोलती रही। राजा तबाह हो गया इस गौरैया के फेर में और गौरैया के सच से। और अंतत: जब कोई तरकीब काम नहीं आई तो राजा ने गौरैया की हत्या का हुक्म दे दिया।
तय दिन-मुकाम के मुताबिक राजा के फ़रमान के मुताबिक गौरैया की हत्या कर दी गई। लेकिन यह देखिए कि गौरैया तो अब भी शांत नहीं हुई। वह फिर भी बोलती रही। राजा ने कहा कि अब गौरैया का मांस पका दो, फिर देखता हूं कैसे बोलती है। गौरैया का मांस पकाया गया। वह फिर भी बोलती रही। राजा का दुख और अफ़सोस बढ़ता जा रहा था। राजा ने कहा कि अब मैं इसे खा जाता हूं। फिर देखता हूं कि कैसे बोलती है। और राजा ने गौरैया का पका मांस खा लिया। लेकिन अब और आफ़त ! गौरैया तो अब राजा के पेट में बैठी-बैठी बोल रही थी। राजा का गुस्सा अब सातवें आसमान पर। चमचों, चेलों-चपाटों को उस ने डपटा और कहा कि तुम लोगों ने गौरैया की ठीक से हत्या नहीं की, ठीक से मारा नहीं। इसी लिए वह लगातार चू-चपड़ कर रही है। अब इस को मैं अपनी तलवार से सबक सिखाता हूं, तब देखना ! अब सुबह हुई। राजा नित्य क्रिया में भी तलवार ले कर बैठा। बल्कि तलवार साध कर बैठा। और ज्यों गौरैया बाहर निकली उस ने तलवार से भरपूर वार किया। गैरैया तो निकल कर फुर्र हो गई। लेकिन राजा की तलवार का भरपूर वार उस की खुद की पिछाड़ी काट गया था। अब गौरैया उड़ती हुई बोली, 'अपने चलत राजा गंड़ियो कटवलैं लोय-लाय !'
तो मित्रो, कहने का कुल मतलब यह है कि सुबह को रात कहने का अभ्यास बंद होना चाहिए। किसी निरंकुश और फ़ासिस्ट विचारधारा की हां में हां मिलाने का अभ्यास खुद के लिए तो खतरनाक है ही, राजा के हित में भी नहीं है। बल्कि राजा के लिए ज़्यादा तकलीफ़देह और नुकसानदेह है। और जो राजा समझदार न हो तो उस के मंत्रियों का कर्तव्य बनता है कि अपने राजा को सही सलाह दें ताकि सही विमर्श हो सके। और कि उस की पिछाड़ी भी सही सलामत रहे।
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