दयानंद पांडेय
ऐसी सौभाग्यशाली मृत्यु भी कितनों को मिलती है भला। कि रात रिपोर्ट पेश की और सुबह विदा हो गए। कमाल ख़ान वाकई बाकमाल थे। एच एल की नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता में आए थे। नब्बे के दशक में नवभारत टाइम्स , लखनऊ में हमारे साथी थे। कमाल और रुचि कुमार दोनों ही नवभारत टाइम्स में थे। वहीं उन की दोस्ती हुई। फिर हमसफ़र बन गए। नवभारत टाइम्स बंद होने के बाद हम सब बेरोजगार हो गए। जल्दी ही रुचि ने टी वी पर विनोद दुआ के परख के लिए काम करना शुरु किया। कमाल रुचि के साथ उन की परदे के पीछे से मदद करते रहे। तब तक उन का विवाह नहीं हुआ था। फिर जल्दी ही दोनों इलेक्ट्रानिक मीडिया का चेहरा बन गए। दोनों दो ध्रुव चैनलों में काम करने लगे। कमाल एन डी टी वी में और रुचि इंडिया टी वी में। दोनों अपने-अपने चैनलों की पहचान बन गए। स्टार बन गए। ख़ास कर कमाल। कमाल नवभारत टाइम्स में हमारे सहकर्मी भी थे और डालीबाग़ में हमारे पड़ोसी भी। हमारी घरेलू सहायिका भी कॉमन थी। घरेलू सहायिकाएं अमूमन पूरी कॉलोनी का हालचाल एक दूसरे को देती रहती हैं। डालीबाग़ सरकारी अफ़सरों की कॉलोनी है। तो कमाल यह था कि घरेलू सहायिका का अगर कभी किसी से कोई विवाद होता तो वह छूटते ही कहती , कमाल ख़ान से कह दूंगी। लोग चुप रह जाते। कहीं किसी का कोई काम अटकता तो वह बेसाख़्ता बोलती , कमाल ख़ान से कह कर करवा दूंगी। गोया कमाल ख़ान न हों , उस के भगवान हों। बाद में कमाल ख़ान पास ही , बगल की बटलर पैलेस कॉलोनी में चले गए। दवा की दुकान भी हमारी कॉमन थी। सो हज़रतगंज में कैथेड्रल कैम्पस के सोलोमन मेडिकल शॉप पर हम कभी-कभार मिल जाते। जब रिपोर्टर था तो अकसर मिलते थे। एक बार किसी बात पर मायावती कमाल से नाराज हो गईं। कहा कि यह रहेगा तो प्रेस कांफ्रेंस नहीं करुंगी। कमाल बिना किसी विवाद के चुपचाप उठ कर चले गए। कई लोग जान भी नहीं पाए कि हुआ क्या। उन दिनों मायावती प्रेस कांफ्रेंस में सवाल सुनतीं थीं और जवाब भी देती थीं। अब तो खैर वह लिखित पढ़ कर चल देती हैं।
कमाल की ख़ासियत यह थी कि वह कभी किसी से किसी विवाद में नहीं उलझते थे। इसी लिए सब के चहेते थे। वह मानते थे कि वक़्त ख़राब होता है इस सब से। मैं ने उन्हें बताया कि एनर्जी भी नष्ट होती है। वह बोले , बिलकुल यही। आप देखिए कि एन डी टी वी अकसर विवाद में रहता है। एन डी टी वी के एकपक्षीय होने के कारण लोग उसे गालियां देते हैं। ख़ास कर रवीश कुमार को तो बहुत ही। रवीश कुमार की निगेटिवटी देख कर भी लोग नाराज रहते हैं। आज कमाल को श्रद्धांजलि देते हुए भी रवीश अपनी निगेटिविटी से बाज नहीं आए। कमाल पर कम बोले रवीश , अपनी झल्लाहट पर ज़्यादा। जो भी हो कमाल ख़ान कभी भी इस तरह की निगेटिविटी में नहीं पड़े। कभी नहीं पड़े। न गालियां सुनीं। लखनऊ में कुछ लोगों ने उन पर कुछ व्यक्तिगत आरोप भी लगाए। रंगा सियार तक लिखा। लेकिन कमाल ने कभी इस कीचड़ में भी कोई पत्थर नहीं फेंके।
कमाल बाकमाल थे ही , उन की रिपोर्टिंग भी बाकमाल थी। तथ्य और तेवर तो उनका अलहदा था ही , उन का नैरेशन भी बाकमाल था। ख़ास कर उन की खनकती हुई आवाज़ तो ग़ज़ब का असर डालती थी। मैं कमाल की आवाज़ का सैदाई हूं। ऐसे जैसे बल खाती , लहराती हुई कोई पहाड़ी नदी अपने पूरे वेग से बहती हो। ऐसी आवाज़ और नैरेशन पर भला कौन नहीं फ़िदा हो जाए। एक बार किसी बैठकी में मैं ने कमाल से कहा कि मुझे नैरेशन या कमेंट्री में सिर्फ़ तीन ही आवाज़ पसंद है। एक ओम पुरी , दूसरे कमाल ख़ान और तीसरे अमिताभ बच्चन। अपनी यह तारीफ़ सुन कर कमाल ख़ान लजा गए। उठ कर खड़े हुए और मेरा दोनों हाथ पकड़ कर , झुक कर अपने माथे से लगा लिया। बोले , सर बहुत छोटा आदमी हूं। लेकिन मैं अकसर उन से अपनी यह बात दुहराता रहता। और वह हर बार सिर झुका कर विनम्रता से सुन लेते। मुस्कुरा देते। चुप रहते। रुचि के सामने भी यह बात कहता। वह भी मुस्कुरा कर ही जवाब देतीं। कमाल की यह विनम्रता रुचि कुमार में भी उपस्थित है। रुचि कुमार लखनऊ के एक संभ्रांत परिवार से आती हैं। जब कि कमाल निम्न मध्यवर्गीय परिवार से।
असल में कमाल ख़ान की यह विनम्रता ही उन्हें बहुत बड़ा बनाती है। कमाल ख़ान की विनम्रता , सीखने और समझने की ललक उन्हें लगातार बड़ा बनाती गई। काम के प्रति उन का समर्पण देखते बनता था। पहले के दिनों में कमाल अकसर फ़ोन कर ख़बरों पर टिप लेते रहते थे। ख़बर कैसे और बेहतर हो सकती है , इस बारे में पूछते रहते थे। कई बार सुबह-सुबह मेरी कोई ख़बर पढ़ कर वह पूछते कि सर , इस में कुछ और डिटेल हो तो बता दें। कभी-कभार मैं झल्ला जाता कि रात और सुबह में कितना डेवलपमेंट हो जाएगा भला। जो मालूम था , सब लिख दिया है। कमाल नाराज नहीं होते थे। हंसते हुए कहते , लगता है सर आप सो रहे थे। थोड़ी देर बाद फ़ोन करता हूं। और सचमुच उस ख़बर में कुछ प्लस कर के ही छोड़ते थे। फॉलो अप ख़बर में भी कमाल का जवाब नहीं था। एक बार वह शिलांग से वहां के फूलों के बाबत रिपोर्ट कर रहे थे। फ़ोन किया और बधाई दी कि शिलांग के फूलों पर इतनी शानदार रिपोर्ट पेश की। कुछ समय पहले मैं भी शिलांग गया था। कमाल को यह मालूम था। फिर वह वहां के बारे में भी मुझ से दरियाफ़्त करने लगे। मैं ने बताया उन्हें कि परिवार सहित घूमने गया था , आप की तरह रिपोर्टिंग के लिए नहीं। कमाल हंसने लगे। बोले , मैं भी घूमने ही आया हूं। बस रिपोर्टिंग भी कर दी है। एन डी टी वी में तब हफ़्ते में दो दिन की अनिवार्य छुट्टी का भी ज़िक्र वह बड़े फख्र से करते रहते थे। यह भी कि छुट्टी में घूमने , खाने का खर्च भी कंपनी उठाती है।
कमाल ख़ान और रुचि कुमार |
ग़ालिब को अंगरेजों ने उन के घर एक बार रात दो बजे गिरफ़्तार कर लाल क़िला में पेश किया। बहुत से लोग गिरफ़्तार हुए थे। अंगरेज मजिस्ट्रेट ने ग़ालिब से पूछा , मुसलमान हो ? ग़ालिब ने कहा , हूं तो मुसलमान ही , पर आधा। मजिस्ट्रेट हंसा और कहा , यह क्या बात हुई ? ग़ालिब ने कहा , शराब पीता हूं पर सूअर नहीं खाता। अंगरेज मजिस्ट्रेट ग़ालिब के इस अंदाजेबयां पर बड़ा ख़ुश हुआ और उन्हें तुरंत रिहा कर दिया। तो हमारे कमाल ख़ान तो आधे मुसलमान भी नहीं थे। वह नमाज-वमाज नहीं पढ़ते थे। और एक बार तो ग़ज़ब कर दिया कमाल ख़ान ने। वह मक्का-मदीना गए हज यात्रा पर। लेकिन हज करने नहीं , रिपोर्टिंग करने। वीजा लेने के लिए बताना पड़ता है कि वह हज ही करने जा रहे हैं , कुछ और नहीं। यहां कमाल ख़ान ने डिप्लोमेसी बरती और हज करना ख़ामोश रह कर बताया। फिर भी वीजा मिल गया। मक्का जा कर भी कमाल ने कभी नमाज नहीं पढ़ी। मक्का में क़ायदा है कि नमाज के समय अगर कोई नमाज नहीं पढ़ता तो उस का सिर क़लम कर दिया जाता है। पर कमाल ने रिस्क लिया और नमाज कभी नहीं पढ़ी ,हर बार वह नमाज के समय कार पार्किंग में ही छुप जाते थे। रोज-ब-रोज। यह रिस्क लेना आसान नहीं था। जान पर खेलना था। और यह देखिए कि मक्का से लौट कर कमाल ने इस बारे में खुल कर सारे विवरण लिखे। यह सब पढ़ कर किसी ने कमाल को जान से मारने की धमकी भी नहीं दी। मैं ने एक बार कमाल से कहा कि ऐसा रिस्क लेना ज़रुरी था ? वह हंस कर रह गए। कुछ बोले नहीं।
कमाल की चुप्पी और मुस्कुराना भी उन का जवाब होता था। वह अकसर इसे आज़माते थे। कमाल पढ़ते बहुत थे। साहित्य के वह रसिया थे। हिंदी , उर्दू , अंगरेजी सब पढ़ते। मेरी कहानियों , उपन्यासों के भी प्रशंसक थे। पर वह साहित्य पढ़ते हैं , इस का प्रचार नहीं करते थे रवीश कुमार या और लोगों की तरह। कमाल ख़ान तकनीकी रुप से भी बहुत समृद्ध थे। हमारी तरह दरिद्र नहीं थे। अमूमन अपनी रिपोर्ट वह ख़ुद एडिट कर भेजते थे। ताकि उस की कतर-व्यौत न हो। ऐसी-तैसी न हो। बस जस की तस चला दी जाए। कमाल उम्र में हम से कोई दो बरस ही छोटे थे। पत्रकारिता में भी बाद में आए। पर वह पेश ऐसे होते थे , बात ऐसे करते थे , जैसे हमारे बच्चे हों। विनम्रता और आदर की यह उन की पराकाष्ठा थी। जब कि योग्यता और लोकप्रियता में अब वह मुझ से कोसों आगे थे। बहुत ही मशहूर। उन की स्वीकार्यता भी बहुत थी। पर पुराने रिश्ते को वह निभाना जानते थे। विनम्रता , सीखने और समझने की उन की ललक ही उन की बड़ी ताक़त थी। तिस पर उन का अध्ययन और मेहनत उन को शिखर पर बिठा देती है। हमेशा बिठाए रखेगी। कबीर के बेटे का भी नाम कमाल था। पर कबीर अपने बेटे कमाल से ख़ुश नहीं थे। लिखा ही है ,
बूडा़ वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल।।
लेकिन कमाल के माता-पिता के कमाल ने कबीर के बेटे की इस दशा को सुधार दिया। कमाल ने अपने माता-पिता का ही नहीं , एन डी टी वी में रहते हुए भी ख़बरों की दुनिया का नाम भी बहुत रोशन किया है। कमाल ख़ान असल में न्यूज़ चैनलों में न्यूज़ परोसने की एक कला का नाम हैं अब। ख़बरों को परोसने का जो सलीक़ा , जो तेवर और तुर्शी कमाल ख़ान ने छोड़ी है , अब वह एक मानक है। शायद ही कोई कमाल की खींची यह लंबी लकीर , छोटी कर पाए। बहुत याद आएंगे आप कमाल ख़ान। आते ही रहेंगे। सदा-सर्वदा !
किसी का पूजा-अर्चना करना न करना यह उसका अपना निजी मामला है। इसमें दो राय नहीं कि कमाल खान धर्म के प्रति नहीं तो कर्म के प्रति समर्पित और ईमानदार थे।
ReplyDeleteहमारी दृष्टि में तो कमाल पत्रकारिता के प्रतिमान थे। उनकी यादों को समर्पित इतने अच्छे आलेख जा आभार। 'कर्म ही धर्म है' के सच्चे प्रतिपादक कमाल में आपने अकारण ही कबीर नहीं ढूँढा है!
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