दयानंद पांडेय
आज सपा कार्यालय में स्वामी प्रसाद मौर्य के स्वागत में अखिलेश यादव ने कहा कि आज अंबेडकरवादी और समाजवादी एक साथ आ गए हैं। अब 400 सीट लाने से कोई रोक नहीं सकता। तो क्या अभी जो बीते चुनाव में बसपा की बुआ जी से समझौता किया था , वह मायावती नक़ली अंबेडकरवादी थीं। तब क्यों हार गए थे ? अभी सरकार बनाने का मंसूबा है सिर्फ़ पर क़ानून का मजाक उड़ाना शुरु कर दिया है। ढाई हज़ार से अधिक लोगों को इकट्ठा कर वर्चुअल रैली बता दिया है। आज चुनाव आयोग द्वारा जारी कोरोना प्रोटोकाल की ऐसी-तैसी की है। कल को गुंडई का तमाशा खुलेआम शुरु कर देंगे। ग़नीमत बस इतनी है कि सपा की सरकार नहीं बनने जा रही है। बाक़ी टिकट तो गुंडों और दंगाइयों को बांट ही दिया है।
जाति और धर्म हमारे चुनाव की नंगी सचाई है। इस में कोई शक़ नहीं है। पर बकौल स्वामी प्रसाद मौर्य पचासी तो हमारा है , बाकी पंद्रह में भी हमारा बंटवारा है ! तो ऐसी जहरीली स्थिति नहीं हुई है अभी। लगता है मंत्री सुख लेते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य ने सिर्फ़ तोंद ही निकाली है। समाज के बीच नहीं निकले हैं। हालत यह है कि भाजपा ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग की कारीगरी में मंडल और कमंडल की दूरी को ख़त्म कर दोनों को एक कर दिया है। अखिलेश यादव और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे लफ्फाजी में चूर लोगों को अभी तक यह नहीं पता लग पाया है तो कोई क्या कर सकता है। सरकार बनने पर जातीय जनगणना करवाने का झुनझुना भी बजाया है अखिलेश ने। लेकिन कोई सुने तब न।
सोचिए कि समाज में नफ़रत फैला कर , समाज से तो कट ही गए थे , अब जातिवादी इत्र के दुर्गंध में चुनावी ज़मीन से भी यह लोग कट गए हैं। ठेकेदारों का नंबर दो का पैसा बिना चुनाव जीते विजय यात्रा में भीड़ तो बटोर सकता है पर इस भीड़ को वोट में कैसे कनवर्ट कर सकता है , यह विधि या तकनीक, जनता के टैक्स को सरकारी खजाने से लूटने वाले लोग अभी नहीं जान सके हैं। जिस दिन जान जाएंगे , लोकतंत्र ख़त्म हो जाएगा , देश से। लोकतंत्र का तकाज़ा हार जाने पर ई वी एम पर ठीकरा फोड़ना नहीं होता। चीख़ना , चिल्लाना भी नहीं होता। जैसे कि स्वामी प्रसाद मौर्य आज अधजल गगरी वाले अंदाज़ में चीख़ रहे थे।
लोकतंत्र और चुनाव अब वर्चुअल युग में आ चुका है। वर्चुअल युग में भी यह चीख़-पुकार हैरत में डालती है। अरे माइक सामने है , सारी बात लोग धीरे से कहने पर भी सुन लेते हैं। बेहतर तरीक़े से सुन लेते हैं। अखिलेश इन दिनों अकसर कहते सुने जाते हैं कि बाबा को लैपटॉप चलाने नहीं आता। आज कह रहे थे बाबा को क्रिकेट खेलने भी नहीं आता। सो आज का कैच वह नहीं कर पाए। कैच छोड़ कर गोरखपुर चले गए। यह भी कि किसी ने 11 तारीख़ में बाबा का गोरखपुर का टिकट कटवा दिया है। अब कौन बताए अखिलेश को कि गोरखनाथ मंदिर में खिचड़ी का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। और कि इस दिन मंदिर के महंत किसी दलित के यहां खिचड़ी खाते हैं। यह पुरानी परंपरा है। पर बाबा को सब कुछ बताने वाले यही अखिलेश , स्वामी प्रसाद मौर्य को नहीं बता पाते हैं कि आज का भाषण चीख़-पुकार में नहीं होता।
एक यह बात भी है कि अब सिर्फ़ काम करने से , सिर्फ़ विकास करने से वोट नहीं मिलता। मिलता होता तो अटल बिहारी वाजपेयी शाइनिंग इंडिया के बावजूद चुनाव नहीं हारे होते। दिल्ली में शानदार काम करने वाली कांग्रेस की शीला दीक्षित चुनाव नहीं हारी होतीं। योगी भी यह चुनाव सिर्फ़ अपने काम के बूते नहीं जीत पाएंगे। काम के इतर परसेप्शन से जीतेंगे। गुंडा राज से मुक्ति , अपराधियों की संपत्तियों की जब्ती और बुलडोजर आदि काम आ रहे हैं। विकास नहीं।
यहां तक कि 2017 में अखिलेश भी चुनाव नहीं हारे होते। चुनाव जीतने के लिए और भी टोटके और उपाय अपनाने पड़ते हैं। अखिलेश यादव ने तमाम भ्र्ष्टाचार , अनियमितता के बावजूद ताज एक्सप्रेस जैसे कई अच्छे काम किए थे। लखनऊ और लखनऊ से बाहर भी काम किए थे। ख़ास कर सेंट्रल यू पी में। पर इस काम के नाम पर वोट नहीं मिले अखिलेश को। अखिलेश यादव की सरकार यादववाद के नाम पर यादव राज , गुंडा और दंगा राज की भेंट चढ़ गई।
अखिलेश यादव के भ्रष्टाचार ने भी कोढ़ में खाज का काम किया। जिस की परिणति टोटी और टाइल उखाड़ने में सामने आई। और अब इत्र के दुर्गंध में बदबू मारता हुआ यह भ्रष्टाचार हमारे सामने है। तिस पर सोने पर सुहागा यह कि पिता और चाचा की पीठ में छुरा घोंप कर अखिलेश ने औरंगज़ेब की तरह पूरी पार्टी हड़प ली। आहत मुलायम खुले-आम कहने लगे कि किसी ने अपने बेटे को मुख्य मंत्री नहीं बनाया। पर मैं ने अपने बेटे को मुख्य मंत्री बनाया। और मेरा बेटा ही मेरे साथ धोखा कर गया। चाचा को मंत्रिमंडल से निकाल दिया। मुलायम कहते जो अपने बाप का नहीं हो सकता , किसी का नहीं हो सकता। मुलायम के इस कहे का यह वीडियो इन दिनों फिर वायरल है।
इस सब का भी बहुत असर था अखिलेश सरकार की विदाई में। अभी भी उन के गुंडा राज , दंगा राज और यादववाद की दुर्गंध गई नहीं है। साये की तरह यह परछाईं डोल रही है। लोग आज भी मुलायम की बात को दुहराते पाए जाते हैं कि जो अपने बाप का नहीं हो सकता , किसी का नहीं हो सकता। शासन चलता है इक़बाल और धमक से। यादव राज , गुंडा राज , दंगा राज से नहीं। मुज़फ्फर नगर के लोग आज भी अखिलेश राज के दंगों से डरे हुए हैं। कैराना से पलायन किए हुए लोग बड़ी कोशिश के बाद वापस लौटे हैं। कैराना से हिंदुओं के पलायन के मास्टर माइंड नाहिद हसन और रफ़ीक़ अंसारी को सपा ने आज टिकट दे कर अपने इरादे साफ़ कर दिए हैं। फिर अखिलेश चाहते हैं कि उन की सरकार भी बने। यह नामुमकिन है।
इस सब के चक्कर में जयंत चौधरी का ख़ासा नुकसान हो रहा है , जाटलैंड में। जाट बहुत नाराज हैं। किसान आंदोलन से मिला लाभ जयंत चौधरी को मिलना मुश्किल हो गया है। जाट फिर भाजपा की तरफ झुक रहे हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण कभी अखिलेश छोड़ नहीं सकते। और मुस्लिम तुष्टीकरण से खफ़ा मंडल और अंबेडकरवादी अखिलेश के लिए कभी एक हो नहीं सकते। यह बात पानी की तरह साफ़ है। फिर भाजपा ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग के बूते मंडल-कमंडल की दूरी ख़त्म कर दी है।
यह बात ज़्यादा महत्वपूर्ण है उत्तर प्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में। एक नहीं सैकड़ो स्वामी प्रसाद मौर्य और ओमप्रकाश राजभर अखिलेश के साथ चले जाएं। मंडल-कमंडल अब अलग होते नहीं दीखते। फेवीकोल का जोड़ लग गया है। काशी , अयोध्या , मथुरा ही नहीं , अनेक फैक्टर हैं मंडल-कमंडल के एक होने में। अखिलेश यादव यही एक बात नहीं समझ पाए हैं अभी तक। इसी लिए ठोकर पर ठोकर खाए जा रहे हैं। इसी लिए कभी परशुराम की शरण में तो कभी अंबेडकरवादियों की शरण में जा रहे हैं। ख़ुद को मंडल समझने का भ्रम अलग भूजे बैठे हैं। सच यह है कि मंडल के नाम पर आधे-अधूरे यादव ही रह गए हैं अखिलेश यादव के पास। वह भी ठेकेदारी की मलाई काटने वाले यादव। फिर अति पिछड़े तो यादव को अगड़ा मानते हैं। मानते हैं कि उन के आरक्षण की मलाई मंडल के नाम पर यादव लोग गट कर जा रहे हैं।
No comments:
Post a Comment