किसी मीडिया हाऊस के एक हज़ार कर्मियों पर एक साथ एफ आई आर उद्धव ठाकरे सरकार की बौखलाहट का थर्मामीटर है। भले कोई अदालत इस एफ आई आर रद्द कर दे या स्टे दे दे। पर इतना हमलावर तो कभी अपने निंदक रामनाथ गोयनका और उन के इंडियन एक्सप्रेस पर अपने समय की तानाशाह इंदिरा गांधी भी नहीं हुई थीं। इमरजेंसी में भी नहीं। रिपब्लिक भारत के अर्णब गोस्वामी भले इलेक्ट्रानिक मीडिया के आदमी हैं पर उन्हों ने ने अकबर इलाहाबादी के एक शेर की याद दिलवा दी है :
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।
मीडिया के एजेंडाधारी लेकिन दगे हुए कारतूसों यथा रवीश कुमार सरीखों को भी अर्णब गोस्वामी से यह लड़ाकूपन सीखना चाहिए। अरे जब आप एजेंडे पर काम कर ही रहे हैं तो बौद्धिक विलास और भैंस की तरह जुगाली करना छोड़ मोदी विरोध कारगर ढंग से कीजिए। मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी छुपी रहे का अभ्यास छोड़ कर मोदी की ईंट से ईंट बजा दीजिए। ताकि मोदी सरकार भी बौखला जाए और दो , चार , दस हज़ार मीडियाजनों पर एफ आई आर दर्ज करा दे। पर कहां यहां तो समय बीतते ही जैसे कांग्रेस राफेल भूल जाती है , एजेंडाधारी पत्रकार भी भूल जाते हैं।
मोदी सरकार के खिलाफ तमाम और मामले भी उठाए जा सकते हैं पर कांग्रेस या वामपंथियों का भोंपू बन कर नहीं। पत्रकार बन कर। अफ़सोस कि पत्रकारिता के नाम पर अब कांग्रेस , भाजपा या अन्य राजनीतिक पार्टियों के चाकर और दलाल लोग ही रह गए हैं। अकबर इलाहाबादी के शेर की वह तुर्शी , वह तेवर तो छोड़िए , इस शेर से भी मीडियाजन न परिचित हैं , न परिचित होना चाहते हैं।
जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे तब अगर किसी अखबार या पत्रकार से नाराज होते थे तब एफ आई आर वगैरह के झमेले में नहीं पड़ते थे। सीधे हल्ला बोल देते थे। शहर-दर-शहर। अखबार के दफ्तर , पत्रकार यहां तक कि हॉकरों तक पर। बिचारे गरीब हॉकर सुबह-सुबह अखबार बांटने निकलते थे और पिट-पिटा कर घर पहुंचते थे। अखबार फेंक कर सपाई गुंडों से जान बचाते थे। जब तक अगला सरेंडर न कर दे तब तक यह हल्ला बोल चालू रहता था।
बाद के दिनों में अखबार मालिक पूरी तरह शरणागत हो गए। अखबार मालिकों , चैनल मालिकों से उन की गहरी दोस्ती हो गई। कभी-कभार कोई नवधा पत्रकार अप्रिय सवाल पूछ लेता गलती से तो वह डपट कर पूछते किस अखबार से हो , किस चैनल से हो ? दूसरे ही दिन उस की नौकरी चली जाती थी। मायावती ने तो बिना किसी पूछताछ या डांट डपट के ही इसी तरह कई पत्रकारों की नौकरी खाई। एक अघोषित आतंक था मायावती और मुलायम का तब और आज भी वह बदस्तूर जारी है। इसी लिए इन के खिलाफ न कभी कोई खबर चलती है , न छपती है। मीडिया मालिकों को लगता है कि जाने कब इन लोगों की सत्ता में वापसी हो जाए तो मुश्किलें बढ़ जाएं। सो खामोश !
उद्धव ठाकरे और उन की शिवसेना भी कमोवेश हल्ला बोल वाली कार्यशैली के हामीदार हैं। पर एक तो अर्णब गोस्वामी को वाई श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई है दूसरे , केंद्र सरकार से ठाकरे सरकार के रिश्ते बेहद ख़राब हैं। तो यह लगाम लगी हुई है। हल्ला बोल की जगह चोर-सिपाही की तरह , एफ आई आर , एफ आई आर खेल रही है। तो यह एफ आई आर नहीं , उद्धव ठाकरे का हल्ला बोल है।
विचारणीय प्रस्तुति
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