Sunday, 7 February 2016

कांटे सारे हमारे गुलाब सारे तुम्हारे हैं


 
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

तुम रहो न रहो हम तो सर्वदा तुम्हारे हैं 
कांटे सारे हमारे गुलाब सारे तुम्हारे हैं 
 
दिन गुलाब का है ख़ुशबू में नहा जाओ
शहर की हर महफ़िल में चर्चे तुम्हारे हैं  

तुम आई हो तो इतना तो हक़ बनता ही है 
गुलाब की तरह महको तुम्हारी ही बहारें हैं

तुम्हीं मेरी चाहत तुम्हीं मेरी सदाक़त हो
तुम्हारी उल्फ़त और नज़ाकत के मारे हैं

वसंत नहीं आया बागों में बौर नहीं आए
पर क्या करें हम तो दशहरी के मारे हैं 

सावन का इंतज़ार करना क्या न करना
झूले पर बैठ जाओ बाग़ तो सारे तुम्हारे हैं

मौसम ख़ुशी का है रंज सारे धो डालो
हम प्रेम के कबूतर हैं न जीते हैं न हारे हैं 

तुम इशारों में नाहक बात करती रहती  हो 
इशारे छोड़ो साफ बोल दो कि हम तुम्हारे हैं

तुम्हारा चेहरा मन में रह-रह झलकता है
नदी का किनारा है और कोहरे के मारे हैं 

ठंड जैसी भी हो डराती नहीं कभी मुझे 
मेरी देह पर बुने हुए स्वेटर तुम्हारे हैं 

पुराने नवाब किस्से कहानियों के हिस्से हैं 
अब के नवाब बिरयानी कबाब के सहारे हैं 



 [ 7 फ़रवरी , 2016 ]

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-02-2016) को "नुक्कड़ अनाथ हो गया-अविनाश वाचस्पति को विनम्र श्रद्धांजलि" (चर्चा अंक-2247) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    चर्चा मंच परिवार की ओर से अविनाश वाचस्पति को भावभीनी श्रद्धांजलि।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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