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फ़ोटो : शायक आलोक |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
ज़िंदगी बड़ी मुश्किल से होती अब बसर है
शिकारियों की चूजों पर बहुत तगड़ी नज़र है
काली यमुना मटमैली गंगा मिलती हैं रोज संगम पर
नदियों का ही नहीं यह सारे संसार का सर्द मंज़र है
ठगना और लिपटना हरदम विज्ञापन के भाव में दिखना
संबंधों में यही कालिमा और ऐसा ही खतरनाक खंजर है
साधू यहां उचक्का दीखता और मौलवी बड़ा फ़रेबी
इसी लिए मज़हब के कट्टरपन का खड़ा रोज बवंडर है
गरम कपड़ा नहीं कंबल रजाई आग कुछ भी नहीं
रास्ता लंबा है पथरीला है और सर्दियों का सफ़र है
दुनिया में सिस्टम ही कुछ ऐसा बन गया है हर तरफ
मालिक चार सौ बीस बेईमान और ईमानदार नौकर है
लंपट चोर उचक्के काबिज हैं हर कहीं हर ठिकाने पर
शरीफ़ लोग घबराए और अफनाए खड़े हैं अजब मंज़र है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-02-2016) को ''चाँद झील में'' (चर्चा अंक-2248)) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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चर्चा मंच परिवार की ओर से स्व-निदा फाजली और अविनाश वाचस्पति को भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सपन्दर रचना ।
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