Wednesday 24 December 2014

चुनावी बिसात पर देश अब बाक़ायदा हिंदू और मुस्लिम में बंट गया


 कुछ और फेसबुकिया नोट्स 

 चुनाव परिणामों के मद्देनज़र आज पत्रकारों के सवाल पर राहुल गांधी सिरे से चुप लगा गए। काश कि यह बात उन की माता जी सोनिया गांधी और गुरु दिग्विजय सिंह ने बीते लोकसभा चुनाव के पहले ही उन्हें समझा दी होती और कि वह ऐसे ही चुप रहे होते तो कांग्रेस का नुकसान कुछ तो कम ही हुआ होता ! काश !

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 भैय्या लोग सेक्यूलर और कम्यूनल की बहस में उलझे पड़े हैं और उधर नरेंद्र मोदी ने नेशनल कांफ्रेंस और पी डी पी के बीच आओ सरकार बनाएं ! की एक दौड़ आयोजित कर दी है कि कौन मेरे पास जल्दी दौड़ कर आ जाता है ! दिलचस्प यह कि दोनों ही दौड़ पड़े हैं । अद्भुत है यह राजनीति भी ! इस राजनीति की खिचड़ी भी !

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 लगता है कि कांग्रेस और पी डी पी को एक साथ चिढ़ाने के लिए उमर अब्दुल्ला ने भाजपा की गोद में बैठ कर उस की दाढ़ी नोचने का मन बना लिया है ।

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कोई माने या न माने लेकिन चुनावी बिसात पर देश अब बाक़ायदा हिंदू और मुस्लिम में बंट गया है । जम्मू और कश्मीर के चुनाव परिणाम का एक साफ़ संदेश यह भी है । जम्मू में भाजपा की जीत और कश्मीर में उस का सूपड़ा साफ ! यही हाल पी डी पी का भी है । कश्मीर में जीत और जम्मू में उस का सूपड़ा साफ़ ! यह राजनीतिक लोग, यह पार्टियां, यह मीडिया जाने क्यों इस एक बड़े ख़तरे का ज़िक्र भूल कर भी नहीं कर रहे। जम्मू कश्मीर में अपनी बढ़त का जश्न मना रहे भाजपाई भी चुप हैं। यह देश हित में कतई शुभ नहीं है।

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यह धर्मांतरण का खेल और इस का विवाद भी वोट बैंक की पॉलिटिक्स है । इस बात को लोग क्यों नहीं समझ लेते ? और भी गम हैं ज़माने में धर्मांतरण के सिवा ! हां , फ़र्क़ यह है कि इस बार यह बिसात भाजपा ने बिछाई है और कांग्रेस समेत कई सारे सेक्यूलर टाइप के दल इस ट्रैप में उलझ गए हैं । सो खेल नहीं रहे हैं बल्कि खिलौना बन गए हैं । सो बाज़ी भाजपा के हाथ है । धर्मांतरण के खिलाफ क़ानून बनाने का भाजपाई दांव किसी को इसी लिए हजम नहीं हो रहा और इस पर सभी बगलें झांक रहे हैं । लेकिन यह लोग करें भी तो क्या करें चूहेदानी में चूहा बन कर फंस चुके हैं ।

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फेसबुक के प्लेटफार्म ने बहुतेरे लोगों को अराजक , तानाशाह , कुतर्की , बेअंदाज़ और बदतमीज बना दिया है। सहमति और असहमति का फ़र्क भी यह लोग नहीं जानते। राजनीतिक , धार्मिक और जातीय मसलों पर तो लोगों की जहरीली , एकतरफ़ा, कुतर्की और मूर्खता भरी टिप्पणियां आहत करती ही हैं , साहित्यिक हलकों में भी यह बदमजगी मुश्किल खड़ी करती है । क्या यह वही मशाल है जो बकौल प्रेमचंद राजनीति के आगे- आगे चलने वाली मशाल है ? खास कर रायपुर साहित्य समारोह और साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को ले कर जिस तरह की अभद्र टिप्पणियां सामने आई हैं उन को देख कर बहुत अफ़सोस होता है कि किस असभ्य समाज में हम जी रहे हैं । हिंदी का यह लेखक समाज इतना असभ्य क्यों हो गया है ? गाली-गलौज पर लोग उतर आए हैं। कुछ लोग शाब्दिक तो कुछ लोग संकेत में । असहमति दर्ज करने की यह भी कोई भाषा है भला ? मुनव्वर राना या रमेश चंद्र शाह क्या इतने गए गुज़रे शायर और लेखक हैं ? बड़े शायर और बड़े लेखक हैं यह दोनों । इन दोनों ने भारतीय साहित्य और समाज को बहुत कुछ दिया है । आप असहमत होइए , खूब होइए , विरोध भी डट कर कीजिए पर इस बहाने अपनी कुंठा और असभ्यता का कैटवाक तो न करिए ! राय अपनी रखिए ज़रूर पर न्यायधीश बन कर फ़ैसला तो मत दीजिए !

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