Thursday, 24 April 2025

ऐसे जैसे महाभारत में श्रीकृष्ण का पांचजन्य शंख बज गया हो

दयानंद पांडेय 

हम अब युद्ध में हैं। मुसलसल युद्ध में हैं। रूस -यूक्रेन युद्ध , इजराइल - हमास युद्ध को रोकने की बात करने वाले , संवाद से मसला हल करने की बात करने वाले नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के खिलाफ आक्रमण का उद्घोष कर दिया है। ऐसे जैसे महाभारत में श्रीकृष्ण का पांचजन्य शंख बज गया हो। कूटनीतिक हमला बोल दिया है। जल प्रहार हो चुका है। सैनिक हमला बस होना ही चाहता है। 

संभल , मुर्शिदाबाद  और पहलगाम में एक ही तत्व है , जेहाद !  कोई दूसरा तत्व हो तो प्लीज़ बता दीजिए l मतलब उत्तर प्रदेश , पश्चिम बंगाल और कश्मीर तीनों का मौसम और मिजाज एक है l वह है जेहाद। बल्कि इस अर्थ में पूरे देश का मिजाज और मौसम एक है l रत्ती भर भी कहीं कोई फ़र्क़ नहीं है l इस बात को देश के लोग जितनी जल्दी समझ लें , बेहतर है l वक़्फ़ बोर्ड की रेशमी ज़ुल्फ़ों के पेचोखम में मत भटकिए l पहलगाम में मारे गए लोग पर्यटक नहीं थे , हिंदू थे। धर्म पूछ कर , कलमा पढ़वा कर , पैंट खोल कर खतना चेक कर लोगों की हत्या की गई है। मुर्शिदाबाद में यही किया गया। संभल में भी यही सिलसिला है। देश भर में ही नहीं दुनिया भर में यही सिलसिला है। इस सिलसिले को बंद करना बहुत ज़रूरी है। इस लिए भी कि इन जेहादियों से समूची दुनिया परेशान और तबाह है। 

एक समय था कि योगी ने उत्तर प्रदेश विधान सभा में अतीक़ अहमद को इंगित कर , अखिलेश यादव को धमकाते हुए कहा था कि इस माफ़िया को मिट्टी में मिला दूंगा। अंतत: मिट्टी में मिला दिया। कुछ इसी तर्ज पर नरेंद्र मोदी ने आतंकियों के आका पाकिस्तान में मिट्टी मिला देने का ऐलान कर दिया है। 

इस एक ऐलान से पाकिस्तान की सिट्टीपिट्टी गुम है। घरेलू मोर्चे पर नरेंद्र मोदी सरकार भले कई बार पिटती हुई दिखती है पर विदेशी और कूटनीतिक मोर्चे पर मोदी सरकार का डंका बजता है। दुनिया भर के देश इस पहलगाम मुद्दे पर भारत के साथ , पाकिस्तान के खिलाफ खड़े हो गए हैं। एक चीन को छोड़ कर सब पर भरोसा भी किया जा सकता है। गो कि चीन ने भी पाकिस्तान के खिलाफ भारत के विदेश मंत्रालय में अपनी आमद दर्ज करवा दी है। मुस्लिम देशों ने भी भारत के साथ खड़े होने की सहमति दी है। इन्हीं सब के बूते मोदी ने बिहार के भाषण में अंग्रेजी में बोल कर विश्व समुदाय को संदेश देने की कोशिश की है। यह बड़ी बात है। 

2014 में मोदी जब प्रधान मंत्री बने थे तब कुछ लोग उन्हें बहुत ज़ोर से फेंकू कहने लगे थे। आज भी कहते रहते हैं। ख़ास कर मोदी विरोधी कुछ लेखकों , पत्रकारों और जेहादी मुसलमानों की यह बीमारी बढ़ती गई है। वह कहते हैं न कि मर्ज बढ़ता गया , ज्यों - ज्यों दवा की। पहलगाम हो , संभल या मुर्शिदाबाद हर बार पोलिटिकली करेक्ट होने के चक्कर में यह लोग पाकिस्तान की भाषा बोलते रहते हैं। जेहादियों की पैरवी करते रहते हैं। दंगाइयों और आतंकियों के लिए कवरेज फायर देते रहते हैं। पहलगाम पर भी इन लेखकों , पत्रकारों का यह रुख बदला नहीं है। पाकिस्तान से ज़्यादा आतंकियों के पक्ष में यह लेखक पत्रकार खड़े हैं। कभी इस बहाने , कभी उस बहाने। सांप्रदायिक सद्भावना का भी बहाना है। पर वास्तव में मोदी विरोध की यह गंभीर बीमारी है। इन लेखकों , पत्रकारों को यह बीमारी कांग्रेस ने एक ख़ास वैक्सीन लगा कर इन के ख़ून में भर दी है। कांग्रेस के साथ कुछ क्षेत्रीय दलों ने भी सपोर्टिंग वैक्सीन इन्हें दे रखी है। 

कश्मीर की पूर्व मुख्य मंत्री महबूबा मुफ्ती जो एक समय पाकिस्तानी आतंकियों की भाषा बोलती थीं। कहती थीं , कश्मीर में तिरंगा उठाने वाला नहीं मिलेगा कोई। पर पहलगाम में आतंकी हमले के ख़िलाफ़ कल कश्मीर बंद के जुलूस में आतंकियों के खिलाफ तख्ती लिए वह आगे - आगे चल रही थीं। जेहादी महबूबा का यह बदलाव दिलचस्प है। और तो और आज यह जहरीले कांग्रेसी भी दिखावे के लिए सही पाकिस्तान के खिलाफ मोदी सरकार के साथ खड़े हो गए हैं। महबूबा बदल गईं , कांग्रेसी बदल गए। लेकिन यह बीमार लेखक , पत्रकार कांग्रेस के वैक्सीन से निकलने में असहाय हो गए हैं। नहीं बदल पा रहे। पाकिस्तान के लिए बैटिंग करने में प्राणप्रण से युद्धरत हैं। 

लेकिन इन के फेंकू ने इस बार बात बहुत दूर तक फेंक दी है। इतना दूर कि इन के संभाले कुछ नहीं संभलने वाला। मित्र वाहिद अली वाहिद की एक कविता याद आती है :


कब तक बोझ संभाला जाए

द्वंद्व कहां तक पाला जाए

दूध छीन बच्चों के मुख से 

क्यों नागों को पाला जाए

दोनों ओर लिखा हो भारत 

सिक्का वही उछाला जाए

तू भी है राणा का वंशज 

फेंक जहां तक भाला जाए 


इस बिगड़ैल पड़ोसी को तो 

फिर शीशे में ढाला जाए 

तेरे मेरे दिल पर ताला 

राम करें ये ताला जाए 

वाहिद के घर दीप जले तो 

मंदिर तलक उजाला जाए


यह राफ़ेल वाफ़ेल क्या हवाई पट्टी सजाने के लिए हैं ?

दयानंद पांडेय


कश्मीर में चुनी हुई सरकार है l उमर अब्दुल्ला मुख्य मंत्री हैं l वह लेकिन पहलगाम पर ख़ामोश हैं l ऐसे जैसे उन की कोई ज़िम्मेदारी न थी l न है l

कश्मीर विधानसभा में वक़्फ़ बोर्ड संशोधन बिल पर कोहराम मचाने और बिल फाड़ने वाले लोग तब भी भारत पर हमलावर थे , अब भी हैं l आज का कश्मीर बंद , हरामखोरी का नायाब नमूना है l

केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर को इतनी फ़ंडिंग हो रही है , कि उस की लालच में यह हरामखोर दिखावा कर रहे हैं l इस नरसंहार के लिए हरामखोर सेक्यूलरजन भी राज्य सरकार और उमर अब्दुल्ला का नाम लेने में इस लिए भयभीत हैं कि उन का नाम लेते ही उन के सेक्युलरिज्म के पाखंड की पोल खुल जाएगी l उन के अब्बू का नाम लोग जान जाएंगे l

रही बात सरहद की तो पंजाब और गुजरात भी पाकिस्तान की सरहद से लगे सूबे हैं l वहां क्यों नहीं होता कभी धर्म पूछ कर नरसंहार ?

क्यों कि पंजाब और गुजरात के अधिकांश स्थानीय लोग पाकिस्तान के हामीदार नहीं हैं l बहुसंख्यक इस्लाम के सरपरस्त नहीं हैं l

लेकिन कश्मीर घाटी में बहुसंख्यक आतंक और इस्लाम के सरपरस्त हैं l इसी लिए यह नरसंहार होते आ रहे हैं l होते रहेंगे l

बताइए कि अभी इसी 16 अप्रैल को एक लेफ्टिनेंट नरवार की शादी हुई थी l उस की पत्नी के सामने ही उसे मार डाला , मुस्लिम आतंकियों ने l कानपुर के शुभम की शादी दो महीने पहले हुई थी l उस की बीवी के सामने उसे मार डाला गया l एक अधेड़ स्त्री के सामने उस के पति को मारा गया l स्त्री बोली , मुझे भी मार दो l मुस्लिम आतंकी बोला , नहीं मारेंगे तुम्हें l मोदी को जा कर बताना l ऐसे अनेक विवरण हैं l

वह आतंकी मोदी की जगह उमर अब्दुल्ला का नाम भी तो ले सकता था l नहीं लिया l कुछ मतिमंद कह रहे हैं , यह कायराना हमला है l कायराना नहीं वहशियाना हमला है यह l एक दो एयर स्ट्राइक इस हमले का जवाब नहीं हो सकता l इजराइल की तरह मुसलसल हमला जारी रहना चाहिए l तब तक जब तक पाकिस्तान खंडहर न हो जाए l नेस्तनाबूद न हो जाए l हमास की रीढ़ जिस तरह इजराइल ने तोड़ी है , उस से भी ज़्यादा l कश्मीर और भारत के अन्य हिस्सों में रह रहे ऐसे राक्षसों तथा इन को शरण देने या पैरवी करने वालों की रीढ़ तोड़नी ज़रूरी है l बेहद ज़रूरी l कश्मीर से लगायत पश्चिम बंगाल तक l

वक़्फ़ संशोधन बिल फाड़ने वाले लोगों को भी फाड़ देना चाहिए l नो रियायत l यह राफ़ेल वाफ़ेल सरहद पार के लिए नहीं तो क्या हवाई पट्टी सजाने के लिए लाए गए हैं ?

गोरखपुर के डाक्टर राधामोहन अग्रवाल राज्य सभा सदस्य हैं l राज्य सभा में वक़्फ़ बोर्ड पर बहस करते हुए एक मुस्लिम सांसद को इंगित करते हुए एक किताब का नाम लेते हुए कहा था कि अगर हम लोग वह किताब पढ़ कर आप से बात करेंगे तो मार हो जाएगी , मार !

सेटेनिक वर्सेज पर बैन लग सकता है , तमाम और किताबों और चीज़ों पर बैन लग सकता है तो जैसे चीन बहुत कुछ पर बैन लगा कर देश में अमन-चैन क़ायम रखता है , सारा रिस्क ले कर भारत को भी क्या यह नहीं कर देना चाहिए ?

आख़िर आइडेंटिटी कार्ड देख कर , पैंट खोल कर ख़तना न देख कर कहीं आतंकी हत्या करते हैं ? कलमा न पढ़ने आने पर हत्या कर देते हैं ? पंजाब का खालिस्तानी आंदोलन याद आता है l सिख और हिंदू बस से उतार कर अलग-अलग खड़े कर दिए जाते थे और सिखों को छोड़ कर बाक़ी को लाइन से खड़े कर गोली मार देते थे

अराजक और हिंसक अल्पसंख्यक का अत्याचार जब बढ़ जाए तो चीन बन जाना चाहिए

दयानंद पांडेय


शांति से रहने वाले बहुसंख्यक पर जब अराजक और हिंसक अल्पसंख्यक का अत्याचार बहुत बढ़ जाए तो सदियों से अत्याचार सहने की जगह किसी भी देश को चीन की तरह पेश आना चाहिए l कुछ समय के लिए लोकतंत्र को मुल्तवी कर तानाशाह बन जाना चाहिए l

अराजक और हिंसक अल्पसंख्यक को चीन की तरह कुचल कर दुरुस्त कर देना चाहिए l चीन की तरह देशभक्त बनने की ट्रेनिंग देनी चाहिए l जैसे कि चीन तीस लाख से अधिक अल्पसंख्यकों को नज़रबंद कर देशभक्ति की ट्रेनिंग दे रहा है l अल्पसंख्यकों के तमाम धार्मिक चिन्ह और जगह ध्वस्त कर , उन्हें राइट टाइम कर चुका है चीन l भारत में कश्मीर , पश्चिम बंगाल , केरल , महाराष्ट्र , दिल्ली , उत्तर प्रदेश आदि हर कहीं यह राइट टाइम कर देने की सख़्त ज़रूरत है l

आतंकी हमले का मुंहतोड़ जवाब इजराइल की तरह देना चाहिए l इजराइल ने जो सुलूक फ़िलिस्तीन , लेबनान , इराक़ जैसे देशों के साथ किया है , करता जा रहा है , पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ वही सुलूक भारत को करना चाहिए l

इसी तरह हर कहीं मनुष्यता और सभ्यता की तामील होनी चाहिए l शांति दूतों को सिर चढ़ा कर शांति नहीं आती l शांति आती है चीन और इजराइल की तरह इन राक्षसों को कुचल कर आदमी बना देने से l इन को इन की औक़ात बता देने से l

तमाम इतिहास और उदाहरण हमारे सामने हैं l सबक लेना , न लेना हमारे ऊपर है l लेकिन देश और मनुष्यता को बचाए रखने के लिए कोई राम या कृष्ण जैसा अवतार अब नहीं आएगा l ख़ुद ही तय करना होगा l

Saturday, 5 April 2025

असदुदीन ओवैसी की मर्चेंट आफ वेनिस

दयानंद पांडेय



यह तो मालूम था कि गृह मंत्री अमित शाह से हद से अधिक ख़ौफ़ खाने वाले असदुदीन ओवैसी को क़ानून , इस्लाम और भारतीय मुसलमान के बारे में बहुत ज़्यादा मालूम है। क़ानून की बारीकियां , इस्लाम और मुसलमान की जहालत पर असदुदीन ओवैसी की बहुत अच्छी पकड़ है। और कि इस का दुरूपयोग वह बहुत ख़ूबी से करते हैं। यही उन की कुल कमाई , कुल उपलब्धि है।

पर कल आधी रात संसद में असदुदीन ओवैसी को सुनते हुए शेक्सपियर की मर्चेंट आफ वेनिस की याद आ गई। मानना पड़ा कि क़ानून ही नहीं , इस्लाम और मुसलमान ही नहीं , क़ानून के मद्देनज़र शेक्सपियर को भी वह बहुत जानते हैं। कल संसद में वक़्फ़ बिल संशोधन को ऐलानिया तौर पर फाड़ते हुए गांधी की दुहाई दी और कहा कि गांधी की तरह इसे फाड़ता हूं। फिर भी उसे फाड़ा नहीं।

स्टैपल्ड पन्नों को स्टैपल से अलग करते हुए कहा कि गांधी की तरह फाड़ता हूं। संशोधन को फाड़ा भी नहीं और फाड़ने का ऐलान भी कर दिया। ख़ून की एक बूंद भी नहीं गिरी और मांस भी काट लिया। नाख़ून कटवा कर शहीद बन जाना , इसे ही कहते हैं।

भारत में 1911 में वक़्फ़ बोर्ड बनाया भले मोहम्मद अली जिन्ना ने पर इस वक़्फ़ बोर्ड का सर्वाधिक दोहन और मज़ा असदुदीन ओवैसी ने ही लिया है। इस लिए वक़्फ़ बोर्ड बिल के संशोधन का सर्वाधिक नुक़सान असदुदीन ओवैसी को ही उठाना है। कमर इन की सब से ज़्यादा टूटी है। आठ रुपए एकड़ के किराए पर हज़ारों बीघा वक़्फ़ की ज़मीन असदुदीन ओवैसी के पास है। अमिताभ भट्टाचार्य का लिखा एक गाना याद आ गया है :

थोड़ी फुरसत भी मेरी जान कभी बाहों को दीजिए,
आज की रात मज़ा हुस्न का आँखों से लीजिए।

आनंद कीजिए कि आप काफ़िर भी हैं और कायर भी

दयानंद पांडेय


क़ायदे से गड़बड़-घोटाले और नफ़रत के केंद्र वक़्फ़ बोर्ड को ही समाप्त कर देना चाहिए l पर ऐसा करने से देश में आग लग जाने की संभावना है l दंगों में देश झुलस जाएगा l 1947 दुहरा दिया जाएगा l डायरेक्ट एक्शन हो जाएगा l सिर तन से जुदा हो जाएगा l

ए ट्रेन टू पाकिस्तान लिखना पड़ जाएगा किसी खुशवंत सिंह को l किसी भीष्म साहनी को तमस लिखना पड़ जाएगा l किसी अमृता प्रीतम को पिंजर लिखना पड़ जाएगा l किसी मिल्खा सिंह को रोते हुए वतन छोड़ना पड़ेगा l जाने क्या-क्या खोना पड़ जाएगा l

सो अफ़सोस कि मोदी सरकार ने कायरता दिखाते हुए वक़्फ़ बिल में संशोधन का झुनझुना थमा दिया है l

वक़्फ़ बिल में संशोधन को भी सौगाते-मोदी ही मान लीजिए l मुफ़्त अनाज , गैस , शौचालय , पक्का मकान आदि की तरह चालीस लाख एकड़ ज़मीन की सौग़ात है यह l जान लीजिए कि इतनी ज़मीन न वन विभाग के पास है , न रेल विभाग , न किसी और विभाग के पास l यह अदभुत है और आश्चर्यजनक भी l

आनंद कीजिए कि आप काफ़िर भी हैं और कायर भी l सो काल्ड सेक्यूलर देश में रहना भी एक अय्याशी ही है l इस अय्याशी को इंज्वाय कीजिए l इस लिए भी कि राणा सांगा गद्दार है और औरंगज़ेब एक नायाब बादशाह।

कट्टर कांग्रेसी और घनघोर सेक्यूलर रहे जगदंबिका पाल भाजपा के बड़े एसेट बन गए

दयानंद पांडेय



कभी कट्टर कांग्रेसी रहे , भाजपा और आर एस एस को दिन-रात गरियाने वाले कुछ घंटे के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री रहे जगदंबिका पाल कांग्रेस के सो काल्ड सेक्यूलरिज्म के ताबूत पर इस तरह कील ठोंकने वाले बन जाएंगे , यह तो जगदंबिका पाल भी नहीं जानते रहे होंगे। जगदंबिका पाल के जीजा राम प्रताप बहादुर सिंह , एडवोकेट भी कांग्रेसी थे। गोरखपुर शहर कांग्रेस कमेटी के सचिव थे। राम प्रताप बहादुर सिंह के छोटे और चचेरे भाई हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह गुमनामी में सही , आज भी कांग्रेसी हैं।

बी एच यू छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके हेमवती नंदन बहुगुणा के शिष्य , गोरखपुर के दो बार ग़ैर कांग्रेसी सांसद रहे बेहद सरल-सहज और अतिशय ईमानदार हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह जब उत्तर प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष थे तब ही जगदंबिका पाल युवक कांग्रेस में आए। यह संजय गांधी और इमरजेंसी का ज़माना था। क़ानून की पढ़ाई किए पाल बाद में कांग्रेस सेवादल के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष रहे। प्रधान मंत्री राजीव गांधी के क़रीबी हुए।

ठाकुरवादी राजनीति के तहत अर्जुन सिंह के ख़ास बने। तमाम कांग्रेसी नेताओं की तरह जगदंबिका पाल एजूकेशन माफ़िया भी बने। लखनऊ से लगायत सिद्धार्थ नगर तक दर्जनों इंजीनियरिंग कालेज , मैनेजमेंट कालेजों की लंबी श्रृंखला है उन के पास। यह सब तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह के आशीर्वाद से संभव बना। उत्तर प्रदेश में विभिन्न सरकारों में कई बार मंत्री रहे जगदंबिका पाल को अर्जुन सिंह के कहने पर ही राज्यपाल रोमेश भंडारी ने फ़रवरी , 1998 में कल्याण सिंह को बर्खास्त कर रातोरात उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री बना दिया था। कुछ घंटे के लिए ही सही। अलग बात है कि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्रियों की अधिकृत सरकारी सूची में जगदंबिका पाल का नाम दर्ज नहीं है।

जब कांग्रेस का पतन प्रारंभ हुआ और भाजपा का उत्थान तो समय की नज़ाकत देखते हुए ठाकुरवादी संपर्क में राजनाथ सिंह जगदंबिका पाल के काम आए। अपने एजुकेशन माफिया को बचाने की पाल की बड़ी ज़रूरत भी थी यह। भाजपा का टिकट मिला और जीत गए। दुबारा , तिबारा भी जीते। तमाम कोशिशों के बावजूद मंत्री नहीं बन पाए मोदी सरकार में। लेकिन कट्टर कांग्रेसी और घनघोर सेक्यूलर रहे जगदंबिका पाल भाजपा के एसेट बन गए। बड़े एसेट। वक्फ (संशोधन) विधेयक पर विचार करने वाली संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष जगदंबिका पाल वक्फ़ बोर्ड के कारण जीते जी इतिहास में दर्ज हो गए हैं।

उत्तराखंड के पूर्व मुख्य मंत्री हरीश रावत और जगदंबिका पाल लखनऊ विश्वविद्यालय में सहपाठी रहे हैं। दोनों आज भी दोस्त हैं। राज्य सभा में कांग्रेसी सांसद प्रमोद तिवारी से भी दोस्ती टूटी नहीं है , पाल की। नाम भले मोदी का हो पर जानने वाले जानते हैं कि राजनाथ सिंह ने जगदंबिका पाल का ग़ज़ब इस्तेमाल किया है। जगदंबिका पाल पर संघी होने का आरोप लगा कर उन्हें ख़ारिज करने की , निंदा करने का अवसर भी विपक्ष को नहीं मिल सका है। विपक्ष का सारा ज़ोर और रणनीति , नायडू , नीतीश और जयंत चौधरी आदि को मुस्लिम वोट का भय दिखा कर वक्फ़ बिल के ख़िलाफ़ झांसे में लाने का था।

पर विपक्ष का यह ख़ुद को धोखा देना था। मुसलमानों को भड़काना भर था। सी ए ए की तर्ज़ पर भड़काना था। शाहीन बाग़ तो न बना सका विपक्ष पर अपने राजनीतिक तमाशे और स्वार्थ के लिए मीठी ईद पर भी काली पट्टी बंधवा कर मुसलमानों से कड़वी ईद मनवा दिया। जो भी हो संसद में वक्फ़ बिल पास होना अब सिर्फ औपचारिकता ही रह गया है। दो अप्रैल को चर्चा के बाद , तीन तलाक़ , 370 और सी ए ए की तरह बिना किसी बाधा के इसे संसद में पास हो जाना है। जनसंख्या नियंत्रण बिल और समान नागरिक संहिता के लिए रास्ता प्रशस्त हो जाना है। यह राजनीतिक सचाई है। बाक़ी सब विपक्ष की मोह माया है। मुस्लिम समाज को बरगलाने के लिए , वोट बैंक की लालसा में इस बिल पर बहस के समय मर्सिया गायन , हिंदू-मुस्लिम की खाई को और चौड़ा करना , फिर वोटिंग के समय संसद से वॉकआऊट कर इस बिल पर खीझ मिटाना , मुसलमानों को दंगे की हद तक भड़काना ही लक्ष्य है। संख्या बल के आगे हताश और पराजित विपक्ष के लिए इस डाल से उस डाल पर कूदने वाला यह मंकी एफर्ट भी उचित ही है।

राजनीति सचमुच वेश्या से भी गई गुज़री है। पुराने लोग अगर यह कहते थे , तो ग़लत नहीं कहते थे। अब तो लगता है , यह भी बहुत थोड़ा कहते थे। राजनीति अब इस से भी बहुत-बहुत आगे निकल गई है।

चित्रा के बहाने नफ़रत और घृणा का फैलता कारोबार

दयानंद पांडेय


चित्रा त्रिपाठी की सलमान ख़ान से विवाह की संभावना की पोस्टों की फ़ेसबुक पर इन दिनों धूम है l इन में ज़्यादातर फेक अकाउंट हैं लेकिन महिलाओं के नाम से हैं l फिर इन पोस्टों पर चटखारे लेते हुए अधिकतम हलाला गैंग और ओ बी सी टाइप लोगों के अभद्र कमेंट की बरसात है l कुछ ब्राह्मण सरनेम वाले भी हैं l

एक से एक अभद्र टिप्पणियां हैं l जाहिर है यह आई टी सेल की करामात है l हज़ारों , सैकड़ों के लाइक , कमेंट आई टी सेल की पोस्टों या प्रायोजित पोस्टों पर ही होते हैं l आई टी सेल के मार्फ़त या प्रायोजित पोस्ट करवाने वाले यह कौन लोग हैं , बताने की ज़रूरत नहीं है l

नफ़रत और घृणा का यह अजब चक्रव्यूह है l सोशल मीडिया पर यह जाने कौन सा समय है l कि किसी का दुःख भी लोगों का सुख बन गया है l किसी का निजी जीवन भी लोगों को अपनी घृणा बघारने का सबब बन गया है l किसी का दांपत्य टूटना हर्ष और घृणा का विषय भी हो सकता है भला , यह देखना अचरज में डालता है l स्त्री विमर्श के पहरुआ जाने किस दड़बे में छुपे पड़े हैं l

चित्रा का कुसूर उन का त्रिपाठी होना ही हो गया है l

नई राजनीति , नई कॉमेडी और नई पत्रकारिता

दयानंद पांडेय


नाम का नाम , दाम का दाम ! पता चला है कि इन्हीं दो-चार दिन में कुणाल कामरा को सहानुभूति में दो करोड़ रुपए की क्राऊड फंडिंग मिल गई है। यू ट्यूब की कमाई अलग है। जो लोग नहीं जानते थे कुणाल कामरा को , वह भी जानने लगे। मैं भी नहीं जानता था। जान गया। फ़िल्मी गानों की पैरोडी में गाली ठूंस कर गाता है कुणाल कामरा मोदी और मोदी से जुड़े लोगों के ख़िलाफ़। गाली - गलौज कब से कॉमेडी हो गई ? अगर हो गई है तो मोदी राज की यह नई उपलब्धि है।

राहुल गांधी जो बात अपने भाषणों में बोलते हैं , वही बात कुणाल कामरा अपने पैरोडी गानों में गाली भर कर , कॉमेडी बता कर गाता है। राठी , रवीश कुमार , प्रसून , अजित अंजुम अपने यू ट्यूब में बोलते हैं। वह गाता है , यह बोलते हैं। वह अपने को कलाकार बताता है , यह अपने को पत्रकार बताते हैं। राहुल के लोग , इंडी गठबंधन के लोग मज़े लेते हैं। मोदी के लोग कुढ़ते रहते हैं। पर मारपीट , तोड़फोड़ नहीं। राजनीतिक दलाली करने वाले कुछ लेखक भी यही सब करते हैं जो कुणाल कामरा करता है। वह एक मंचीय कवि संपत सरल भी इसी बीमारी से ग्रस्त हो कर अपने को महाकवि मानता है। आजकल लगता है उस की दुकान ठंडी हो गई है। दिख नहीं रहा। नफ़रत और घृणा की उस की दुकान भी एक समय ख़ूब चलती थी।

नफ़रत और घृणा से भरी हुई दुकान है इन सब की भी। पर चलती हुई दुकान है। कुछ इस तरह समझिए कि राठी , रवीश कुमार , प्रसून , अजित अंजुम आदि की दुकान का एक्सटेंशन है कुणाल कामरा। राहुल गांधी का चंपू। पर अब की वह उद्धव ठाकरे का चंपू बन कर शिंदे के शिकार पर लग गया। फंस गया।

क्या है कि आप ट्रंप के ख़िलाफ़ , मोदी , शी जिनपिंग या पुतिन के ख़िलाफ़ कुछ भी लिख या बोल दें , कोई नोटिस नहीं लेता। लेकिन किसी लोकल गुंडे या नेता के ख़िलाफ़ कुछ बोल या लिख दें , उन के लोग आप की नोटिस ले लेते हैं। कुटाई कर देते हैं। तोड़ - फोड़ कर देते हैं। किसी विशेष जाति या विशेष धर्म के साथ भी यही है। हिंदू देवी , देवता के ख़िलाफ़ लोग रोज ही बोलते या लिखते रहते हैं। कौन पूछता है ?

कोई नहीं पूछता। इसी लिए ज़्यादातर कलाकार , पत्रकार लोकल लोगों के ख़िलाफ़ नहीं लिखते , बोलते या गाते। सौ बात की एक बात आप राहुल गांधी को अगर नेता मानते हैं तो कुणाल कामरा कलाकार है। नेता नहीं मानते तो यह कलाकार नहीं है।

वैसे कोई पता कर सके तो ज़रूर कर के बताए कि जब कंगना रानावत का घर या कार्यालय जो भी था उद्धव ठाकरे ने गिरवाया था और संजय राऊत ने सामना में छापा था कि उखाड़ दिया ! तो कंगना रानावत को भी कुछ क्राऊड मिली थी क्या ? मुझे तो नहीं याद आता। हां , भाजपा का टिकट मिला और वह सांसद हो गई। अभिनेत्री भी वह शानदार है। पर कुणाल कामरा तो बहुत बेहूदा है। कलाकार तो हरगिज नहीं।

हां , इस बीच कुछ पुरानी क्लिपिंग्स भी देखने को मिलीं जो राजनीतिक दलाली करने वाले कुछ लेखकों और पत्रकारों ने दिखाईं कि यह देखिए कि तब तो नेता , नाराज नहीं होते थे। जैसे लालू की मिमिक्री वाली। एक तो सोनिया और मनमोहन सिंह की भी। कि कैसे सोनिया मनमोहन को कठपुतली , पिट्ठू और चमचा बनाए हुई थीं। मारे उत्साह में यह राजनीतिक दल्ले नहीं समझ पाए कि अपनी ही पोल खोले जा रहे हैं। यह राजनीतिक दलाल भूल गए कि कैसे कार्टूनिस्टों और पत्रकारों को कांग्रेस राज में जेल भेजा गया। हत्या हुई। इधर मुलायम , अखिलेश , लालू राज में पत्रकारों की हत्या भी यह लोग भूल गए।

अच्छा , मिमिक्री कलाकार क्या तब , क्या अब गाली - गलौज करते हैं। जो कुणाल कामरा टाइप लोग करने लगे हैं। राठी , रवीश , प्रसून , अभिसार , अंजुम आदि-इत्यादि भी विक्टिम कार्ड खेलते हुए बस मां-बहन नहीं उच्चारते पर देते तो गाली ही हैं। मंशा और फ़ितरत तो वही है। यह नई पत्रकारिता और नई कॉमेडी का दौर है ! ख़ुमार बाराबंकवी याद आते हैं :

चरागों के बदले मकां जल रहे हैं
नया है ज़माना नई रोशनी है।

इस लिए भी कि इस नए ज़माने ने हमें बता दिया है कि राणा सांगा गद्दार है और औरंगज़ेब एक नायाब बादशाह !

Friday, 21 March 2025

उपेक्षा

दयानंद पांडेय 


अम्मा जी जब भी गांव से कभी आतीं तो कोई न कोई अग्नि परीक्षा ले कर ही गांव लौटतीं। पर इस बार तो जैसे अग्नि परीक्षा से भी बड़ी परीक्षा वह ले बैठीं। नन्ही सी बेटी को ही मांग बैठीं। दो साल की बेटी जो मेरा दूध पी रही थी। कि जैसे भी हो इस को अब की वह अपने साथ गांव ले जाएंगी। यह सुन कर मेरी तो जैसे जान ही निकल गई। 

बेटा जब बहुत छोटा था तब अम्मा जी उसे भी अपने साथ गांव में रखना चाहती थीं। जब उन्हों ने बेटे को अपने साथ ले जाने की बात कीं तो तब भी मैं घबरा गई थी। उन से बोली , ' मैं कैसे रहूंगी ? '

' जैसे मैं बिना अपने बेटे के रहती हूं। ' वह जैसे घायल हो कर बोलीं , ' मैं कैसे अकेले रहती हूं बिना अपने बेटे के , कभी सोचा है ? '

मैं चुप रह गई। लेकिन अम्मा जी का यह दुःख मुझे मथ गया। बुरी तरह मथ गया। 

दो दिन बाद थोड़ा मजे लेती हुई अम्मा जी बोलीं , ' ऐसा करो तुम मेरे बेटे के साथ रहो , मैं तुम्हारे बेटे के साथ रहूंगी। हिसाब बराबर। ' यह सुन कर मैं रोने लगी। अम्मा जी ने मुझे अपनी गोद में ले लिया और मुझे संभालती हुई बोलीं , ' घबराओ नहीं। कुछ नहीं होगा। मेरा बेटा भी अपने पास रखो , अपना बेटा भी अपने पास रखो। मैं रह लूंगी अकेले भी। जैसे भी। '

बात ख़त्म हो गई थी। पर सचमुच नहीं। 

एक बार गांव गई तो वापसी में फिर वही तान कि , 'कुछ दिन के लिए सही , बाबू को मेरे पास छोड़ दो। ' 

मैं फिर रोने लगी। बेटे के बिना रहने की कल्पना ही नहीं कर पा रही थी। बोली , ' अम्मा जी , अभी बहुत छोटा है। मेरा दूध पीता है। दूध छूट जाए तब रख लीजिएगा। '

' पक्का ? ' अम्मा जी ने मुदित हो कर मुझे अंकवार में भर कर पूछा। 

' पक्का ! ' हंसती हुई मैं बोली। 

बेटे को ले कर मैं शहर आ गई। दिन बीतने लगे। सब कुछ ढर्रे पर आ गया। अचानक अम्मा जी फिर शहर आईं। फिर वही परंपराएं , वही संस्कार की नर्सरी। वही अनुशासन , वही कर्फ्यू। बेटा जो कभी ग़लती से किचेन में ठुमक - ठुमक कर चला जाता तो दिन भर दादी को सफाई देता फिरता कि , ' देखिए दादी हम किचेन में नहा कर गए थे। चप्पल नहीं पहने थे। आदि - इत्यादि। एक दिन तो वह चप्पल पहने किचेन में आ गया। अचानक बड़ी सी जीभ निकाली। चप्पल कमर में खोंसी। बोला , ' दादी , हम चप्पल पहन कर नहीं आए। ' संयोग था कि दादी तब अपने बेटे से बतियाने में लगी थीं। ध्यान ही नहीं दिया। पर वापसी पर फिर बाबू को गांव ले जाने की ज़िद। पर अब की मुझे कुछ कहना ही नहीं पड़ा। पतिदेव ने कमान संभाली। बोले , ' अगले हफ़्ते इस का एडमिशन करवाना है स्कूल में। ' 

' इतना छोटा सा बच्चा , अभी से स्कूल ? ' अम्मा जी ने माथा पीटा। 

' हां अम्मा ! ' वह बोले , ' स्कूल अब जल्दी भेजना पड़ता है बच्चों को। '

' पर स्कूल में एडमिशन तो जुलाई में होता है। मार्च में नहीं। ' अम्मा जी ने एक और पासा फेंका। 

' अब अप्रैल में ही एडमिशन होता है अम्मा , जुलाई में नहीं। '

अम्मा जी इस तीर से हार गईं। बोलीं , ' अब पढ़ाई की बात है तो क्या कहूं ? '


अम्मा जी जब भी गांव से आतीं तो ढेर सारे गंवई सामान के साथ ढेर सारा प्यार और स्नेह भी आ कर मुझ पर लुटातीं। बरसातीं। पर जाने क्या था कि उन के आते ही घर में जैसे अघोषित भूकंप आ जाता। कर्फ्यू लग जाता। सब से ज़्यादा किचेन में। बहू थी उन की पर मानती वह मुझे बिटिया की तरह थीं। इस लिए कि उन की कोई बेटी नहीं थी। सो बेटी की साध भी वह मुझी से पूरा करतीं। फिर भी इस मां के पीछे उन के भीतर एक सास भी जैसे चुपके से बैठी रहती थी। दोपहर के सूर्य की तरह। लाख छुपाने पर भी यह दोपहर का सूर्य छुपता नहीं था। अपनी पूरी आंच के साथ उपस्थित। मैं चांद बन कर इस सूर्य के पीछे दुबकी-दुबकी रहती। ऐसे जैसे बिटिया उछलती रहती , बहू दुबकी-दुबकी। गांव से मेरा बहुत नाता नहीं था पर अम्मा जी से बहुत था। अम्मा जी का शहर से बहुत नाता नहीं था पर मुझ से बहुत था। अजब अंतर्विरोध था। अजब सहमतियां थीं। असहमतियां भी बहुत थीं। पर न अम्मा जी उसे सामने लातीं , न मैं। अम्मा जी गांव की सारी परंपराएं , संस्कार , रवायतें सब कुछ एक साथ मुझ में किसी धान के पौधे की तरह रोप देना चाहती थीं। मैं थी कि अम्मा जी को , उन की की बहुत सी बातों को अपने ढंग से आधुनिक बना देना चाहती थी। पर होता यह था कि अम्मा जी काली कमरिया थीं। उन पर कोई और रंग चढ़ता ही नहीं था। चढ़ो न दूजो रंग वाली स्थिति थी। वह अपनी आस्थाओं और जड़ों से गहरे जुड़ी हुई थीं। टस से मस नहीं होती थीं। बदलना मुझे ही रहता था। वह जब भी आतीं , सिर से पल्लू ले कर , मुझे आफ़िस से छुट्टी लेनी पड़ती। शुरू में वर्क फ्राम होम करती। पर अम्मा जी को यह वर्क फ्राम होम भी नहीं सुहाता था। कहतीं , ' इस से अच्छा तो तुम दफ़्तर ही चली जाया करो !' तो जैसे - तैसे पूरी छुट्टी ले लेती। आफिस वाले भी अम्मा जी के नाम पर माने जाते। छुट्टी नहीं लेती तो वह जैसे बहुत मासूम सा ताना देतीं , ' घर में पूरे दिन अकेले रह कर क्या ईंटें गिना करूं ? ' फिर छत देखती हुई कहतीं , ' यहां तो ईंटें भी नहीं दिखतीं। ' मैं छुट्टी ले कर घर बैठ जाती थी ताकि अम्मा जी को कठिनाई न हो। उन का मन लगा रहे। तब भी वह हफ़्ते दस दिन में ही बोर हो जातीं। टी वी उन्हें सुहाता नहीं था। बेटा भी छोटा था पर स्कूल चला जाता था। घर में रहते हुए भी या तो सोता , पढ़ता या खेलता। दादी की बातों में उसे बहुत दिलचस्पी नहीं रहती। अम्मा जी के पास गांव , दुआर , घर की बातें होतीं। गांव की बोली में। खांटी गंवई। बेटे के कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता था। बेटा पोएट्री सुनाता। अम्मा जी लोकगीत। दोनों के ही सब कुछ पास बाई। आफ्टरआल बच्चा था , बहू नहीं। और अम्मा जी तो , अम्मा जी ही थीं। सुप्रीमो ! घर की सुप्रीमो। छोटी बेटी बतियाने भर की हुई नहीं थी। सोती और खेलती ज़्यादा थी। पतिदेव भी अम्मा से उतना ही बतियाते जितने में उन का झगड़ा न हो। पतिदेव और अम्मा जी अक्सर किसी बात पर लड़ ही जाते थे। बेटा थे , बहू नहीं। कि बात बेबात सरेंडर करते रहें। कि सही होने पर भी अपने को ग़लत मान लें। अम्मा जी डिमांडिंग बहुत थीं। पतिदेव डिमांड सभी पूरी करते रहते थे पर कभी किसी बिंदु पर आ कर लड़खड़ा जाते। बस झगड़ा शुरू। पर वह अम्मा को मनाना भी बहुत जानते थे। दो मिनट में मना भी लेते। 

अम्मा जी जब तक रहतीं तब तक किचेन में सिर्फ़ तीन ही लोगों की एंट्री थी। एक अम्मा जी की , दूसरी हमारी। तीसरी काम वाली की। काम वाली को वह घूरती बहुत थीं। चुपचाप। बिन बोले घूरतीं। इतना कि वह अकसर घबरा जाती। अम्मा जी किचेन में ही बैठ कर खाती - पीतीं। किचेन उन के लिए रसोई होता। चाहती थीं कि सभी लोग रसोई बोलें। भोजन बोलें। अगर कोई बच्चा गलती से भी खेलते - खेलते किचेन में घुस जाए तो किचेन अपवित्र। किचेन से खाने की कोई चीज़ बाहर आ गई तो अगर ग़लती से किचेन में वापस चली गई तो किचेन अपवित्र। किसी के लिए रोटी आ गई और उस ने नहीं ली और वह रोटी किचेन में वापस चली गई तो किचेन अपवित्र। किचेन अपवित्र मतलब अम्मा जी का कुछ भी खाना - पीना तब तक के लिए बंद जब तक किचेन साफ़ कर नया भोजन न पक जाए। चप्पल आदि पहने तो जा ही नहीं सकता था कोई। मैं भी बिना नहाए किचेन में प्रवेश नहीं कर सकती थी। दोनों टाइम नहाना। कितना भी जाड़ा पड़ रहा हो , कितनी भी अर्जेंसी हो। बाक़ी बातों में अम्मा बहुत व्यावहारिक थीं। आंख मूंद लेती थीं। बात टाल जाती थीं। लेकिन किचेन की पवित्रता के मामले में कोई कंप्रोमाइज नहीं। सारी व्यावहारिकता डस्टविन में। बल्कि कहें भाड़ में। 

गांव में भी उन की किचेन की पवित्रता शिखर पर रहती। शहर में भी। ख़ैर हमेशा की तरह इस बार भी अम्मा जी को स्टेशन छोड़ने गए हम सभी। बाबू जी उन्हें लेने आ गए थे। घर से चलते समय अम्मा जी ने बेटी को ले जाने के बाबत कुछ कहा ही नहीं। मैं ख़ुश-ख़ुश और निश्चिंत। कि अच्छा हुआ कि अम्मा जी भूल गईं। स्टेशन पर ट्रेन में बर्थ पर बैठते ही अम्मा जी बेटी को गोद में ले कर चूमने लगीं। सहसा पतिदेव से बोलीं , ' मैं इस को ले जा रही हूं ! ' पतिदेव ने हंसते हुए हामी भर दी। लेकिन मेरे तो जैसे प्राण ही सूख ही गए। मुझे चुप देख कर अम्मा जी बोलीं , ' तुम को कोई ऐतराज तो नहीं है ? '

' ऐतराज तो नहीं है। ' दबी जुबान मैं बोली, ' पर अभी यह हमारा दूध पीती है। इस का कोई कपड़ा-लत्ता भी तो लाए नहीं हैं। '

' दूध हम पिला देंगे गाय का। कपड़ा-लत्ता हम सब नया बनवा देंगे। गांव में सब कुछ मिलता है। दर्जी है। नहीं बाज़ार से रेडीमेड मंगवा लेंगे। ' वह बोलीं , ' तुम इस की चिंता मत करो ! खिलाएंगे , पिलाएंगे भी तुम से बढ़िया। काम वाली के भरोसे नहीं छोड़ेंगे। '

मैं चुपचाप रोने लगी। 

बात ही बात में ट्रेन चलने को हो गई। अम्मा , बाबू जी के पांव छू कर हम डब्बे से प्लेटफार्म पर उतर आए। बेटी को बाई - बाई करते हुए। घर वापस आते समय रास्ते भर रोते रहे। घर आ कर पतिदेव से कहा कि , ' ट्रेन तो शहर के कई छोटे स्टेशन पर रुकते हुए जाएगी। तब तक आख़िरी वाले स्टेशन पर चलते हैं , बेटी को वापस लेते आते हैं। '

' नौटंकी मत करो ! ' वह बोले , ' मैं तो इस तरह किसी स्टेशन चलने से रहा। ऐसा ही था तो अम्मा से बेटी को स्टेशन पर ही ले लेना था। '

' ऐसा करें कि हम लोग भी क्यों न रात की ट्रेन से गांव चले चलें। ' पतिदेव से थोड़ी देर बाद कहा। 

' मैं कहीं नहीं जा रहा। ' वह बोले , ' कुछ दिन अम्मा के साथ भी रह लेने दो बेटी को। अम्मा का भी मन बहल जाने दो। '

दो - चार दिन बीते। पर मैं घर में रह नहीं पा रही थी। चुप नहीं रह पा रही थी। बात - बेबात रो पड़ती। बेटी जैसे जब - तब सामने आ कर खड़ी हो जाती। आफिस भी जाना छोड़ दिया। छुट्टी बढ़ा दी थी। वाट्सअप पर बात होती अम्मा जी से रोज। बेटी भी दिख जाती। पर इस दूर से देखने से मन नहीं भरता था। दिल नहीं मानता था। मन करता था कि उस वीडियो काल में ही कूद कर बेटी को गोद में ले लूं। बाहों में भर लूं। छाती में दूध जैसे उफना जाता। ऐसे जैसे पतीली में दूध उफना गया हो। रोने लगती। मेरा रोज - रोज का रोना - धोना देख कर पतिदेव पसीज गए। रिजर्वेशन करवा दिया। अगले हफ़्ते सुबह - सुबह हम लोग गांव पहुंच गए। अम्मा जी ने देखते ही तंज किया , ' हफ़्ता भर भी नहीं रह पाई बेटी के बिना ? ' जवाब में सुबुक - सुबुक कर रोने लगी। हल्के घूंघट में थी। पर अम्मा जी से मेरा रोना नहीं छुपा। मैं उन के पांव छू रही थी और वह मेरी ठुड्डी पकड़ कर उठाए हुई मेरी भरी - भरी आंखें देख रही थीं। मेरा रुदन देख कर , अम्मा जी भी रोने लगीं। बोलीं , ' दुलहिन , इस में तुम्हारा दोष नहीं। औलाद होती ही ऐसी चीज़ है। ' कह कर उन्हों ने मुझे अपनी अंकवार में भर लिया। 

सब कुछ था पर बेटी नहीं दिख रही थी। मैं , मेरी आंखें उसी को खोज रही थीं। पूछने पर पता चला बाबू जी उसे ले कर खेत की तरफ गए हैं। 

' किसी को भेज कर बुलवा लीजिए न ! ' मैं ने अम्मा जी से कहा। 

' किस को ? ' अम्मा जी ने पूछा। 

' बाबू जी को। '

' बाबू जी को देखना है कि बेटी को ? '

' बेटी को। ' धीरे से मैं बोली। 

बाबू जी थोड़ी देर में आ गए। बेटी भी। बाबू जी के पांव छू ही रही थी कि बेटी दादी की तरफ भाग गई। मेरी तरफ आई ही नहीं। मैं अवाक् रह गई। वह दौड़ कर दादी की गोद में समा गई। बाद के समय भी बहुत कोशिश की उसे अपने पास बुलाने की। वह आती ही नहीं थी। जिस के लिए सब कुछ छोड़ कर सैकड़ो किलोमीटर की दूरी तय कर आए थे , वही मेरे पास आने को तैयार नहीं थी। लग ही नहीं रहा था कि वह मेरी बेटी है , मैं उस की मां। अजब दृश्य था। दूध में जैसे दरार पड़ गई थी। कलेजे में टीस सी उठी। जैसे कोई भाला गड़ गया हो दिल में। दिन बीता , रात हो गई। बेटी मेरे पास नहीं आई। दादी के पास ही सोई। मैं और रोने लगी। कि ऐसा क्या हो गया। कि मेरे पास नहीं आ रही। दूसरे दिन गौर किया कि बेटी मेरे ही पास नहीं , अपने पापा के पास भी नहीं जा रही। वह लाख बुलाएं। पकड़ें। वह उछल कर भाग जाए। ऐसे जैसे मम्मी , पापा उस की ज़िंदगी में हैं ही नहीं। वह जानती ही नहीं हमें। बाबा - दादी ही सब कुछ हैं , उस के लिए। पड़ोस के बच्चों को वह जानती थी। पड़ोस की आती - जाती औरतों को वह पहचानती। अपने भाई को पहचानती। मम्मी - पापा से जैसे उस की दुश्मनी हो गई थी। 

कहीं अम्मा जी ने अपने पास रखने के लिए इस पर कोई जादू-टोना तो नहीं कर दिया ? मैं ने सोचा। पर अम्मा जी के बारे में ऐसा सोच कर भी दुःख हुआ। अम्मा जी ऐसी नहीं हैं , मन ही मन कह कर इस बात को झटक दिया। पतिदेव को बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा कि बेटी उन के पास क्यों नहीं आ रही। इस बारे में उन्हों ने ध्यान भी नहीं दिया। वह गांव की रूटीन , खेत , पट्टीदार आदि में व्यस्त हो गए थे। 

पर मैं क्या करूं ? क्या करूं कि बेटी मेरे पास आ जाए। उसे जी भर प्यार करूं। इसी उधेड़बुन में दूसरा दिन भी बीत गया। तीसरे दिन आंगन में खेलती हुई बेटी को ज़बरदस्ती पकड़ कर गोद में बिठा लिया। चूमने लगी। वह फिर उछल कर भाग खड़ी हुई। भाग क्या खड़ी हुई , किसी गौरैया की तरह फुदक कर उड़ गई। मैं दुःख में डूब गई। पीछे से अम्मा जी यह सब चुपचाप देख रही थीं। अचानक वह आईं और मेरा कंधा पकड़ कर वहीं बैठ गईं। बोलीं , ' यह तो हम से बड़ा अपराध हो गया , बड़ा पाप हो गया दुलहिन ! ' 

' क्या ? ' मैं अचकचा पड़ी। 

' दो साल की बिटिया को तुम से अलग कर के। '

' क्या ? '

' हां। ' अम्मा जी बोलीं , ' बिटिया तुम दोनों से बहुत नाराज है। कह नहीं पा रही। शब्द नहीं है उस के पास नाराजगी जताने के लिए। पर यह अबोध बच्ची , दो साल की दुधमुंही बच्ची तुम लोगों से बहुत नाराज हो गई है। इसी लिए दो दिन से देख रही हूं , तुम लोगों की इतनी उपेक्षा कर रही है। निर्मोही हो गई है। उस को माफ़ कर दो और मुझे भी ! ' कह कर अम्मा जी ने हाथ जोड़ लिए। अम्मा जी की उदास आंखों में जैसे समंदर सा पानी था। भरभरा कर सारा बाहर आ गया। 

मैं अम्मा जी के गले लग कर रो पड़ी। फफक - फफक कर। अम्मा जी भी फफक रही थीं और मैं भी। 

उधर बेटी , अपने भाई के साथ खेल रही थी। कूद - कूद कर। 


[ साहित्य अकादमी , दिल्ली द्वारा प्रकाशित पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के जनवरी - फ़रवरी , 2025 अंक में प्रकाशित। ]












Friday, 7 March 2025

भीगना

दयानंद पांडेय 

सावन की शिवरात्रि है और कवि कालिदास के नगर में वह भीग रहा है। लाइन में लग कर भीग रहा है। अनायास और औचक। यह मनोहारी है। बारिश में भीगना उसे पसंद है। बेहद पसंद। बस भीगने के बाद होने वाले खांसी , जुकाम और बुख़ार से वह डरता है। बचपन में तो वह बारिश में भीगने पर मां से पिटता था। पर तब भी जब कभी बारिश होती तो किसी न किसी बहाने घर से निकल जाता बारिश में भीगने के लिए। तब मां पीटती थी , अब खांसी , जुकाम और बुखार मिल कर पीटते हैं। इन के पीटने में मां की मिठास नहीं होती। इस लिए भी बचता है अब बारिश में भीगने से। लेकिन अभी और बिलकुल अभी जयकारे और बारिश के बीच वह लाइन में है। भारी भीड़ में है। बचना , बारिश से बचना लगभग नामुमकिन है। 

अमूमन वह लाइन में लगने से बचता है। भीड़ में जाने से बचता है। भारी भीड़ में जाने से तो डरता है। पर आदमी की जैसे प्रवृत्ति है कि भीड़ की तरफ दौड़ता है और चाहता है कि उसे रास्ता मिले। पर रास्ता मिलता नहीं है भीड़ में। कैसी भी लाइन हो , कैसी भी भीड़। इस लिए बेतरह बचता है। अकसर एकांत और निर्जन ढूंढता है। भक्ति में श्रद्धा तभी उमड़ती है। लंबी लाइन और भारी भीड़ सारी श्रद्धा छीन लेती है। आदमी थक कर चूर हो जाता है। टूट जाता है। सुविधाजीवी आदमी के लिए यह लाइन और भीड़ यातना बन जाती है। लेकिन जयकारे और बारिश के बीच वह लंबी लाइन में है। बहुत भारी भीड़ में है। लाइन भी अजगर की तरह है और भीड़ भी भक्तों की है। न आगे बढ़ा जा सकता है , न पीछे लौट कर वापस हुआ जा सकता है। लोहे की ख़ूब पतली ढाई - तीन फ़ीट चौड़ी बैरिकेटिंग ही कुछ ऐसी है लोगों को पंक्तिबद्ध करने ख़ातिर। बैरिकेटिंग भी मुड़ - मुड़ कर है। ऐसे जैसे कोई सर्प अपने को बटोर कर बैठा हो। यह बैरिकेटिंग चींटी की तरह आगे बढ़ने तो देती है , वापस लौटने नहीं देती। ऐसे जैसे किसी नदी की धार हो। आदमी उलटी तैराकी तो कर सकता है , नदी की धारा उलटी नहीं बह सकती। बरसते बादल से भरे आसमान के नीचे यह असहाय होना कितना तो रोमांचकारी भी है। इतना कि कुछ भी अपने हाथ में नहीं है। जैसे बारिश , बादल के हाथ नहीं। बादल का रिमोट जाने किस हाथ में। बारिश धीमी हो जाती है। तेज़ हो जाती है। थम जाती है। फिर अचानक बरस जाती है। बरसती ही जाती है। मुसलसल। 

क्षणे रुष्टा:  क्षणे तुष्टा:  रुष्टा तुष्टा  क्षणे-क्षणे।

अव्यवस्थित चित्तानाम्  प्रसादोऽपि भयंकर:।।

वाली स्थिति है। गरज यह कि क्षण-क्षण में रुष्ट और तुष्ट होने वालों की प्रसन्नता भी अति भयंकर होती है.! बारिश और बादल के बीच यही चल रहा है। क्षणे रुष्टा:  क्षणे तुष्टा:  रुष्टा तुष्टा  क्षणे-क्षणे। जाने यह ठीक बगल में मंद - मंद बह रही ,  क्षिप्रा नदी का अवसाद है या कालिदास का रुदन। कि कालिदास की प्रतीक्षा में बैठी उन की प्रेयसी मल्लिका के आंसू। वह नहीं जानता। पर वह भीग रहा है। आस्था में कम , अव्यवस्था में ज़्यादा। उस का मन बारंबार कह रहा है कि वह लाइन तोड़ कर भाग निकले। पर भागने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा। भीड़ का अजगर चारो तरफ है। उज्जैन का काल भैरव मंदिर जैसे उस की परीक्षा का कुरुक्षेत्र बन गया है। 

जगह-जगह से आए तरह-तरह के लोग हैं। वृद्ध भी , नन्हे बच्चे भी। एक नन्हा बच्चा रह-रह कर बम-बम भूले का जयकारा लगाता रहता है। उस की मम्मी बार-बार सुधारती रहती है बम-बम भोले ! वह बच्चा एक बार बम-बम भोले बोलता है फिर दुबारा बम-बम भूले ! यह भूले और भोले में उस का भोलापन उसे भा जाता है। बच्चा भी भीग रहा है और वह भी , बारिश में सभी भीग रहे हैं। लेकिन वह तो उस अबोध बच्चे के भूले की अबोधता में भीग रहा है। भीगता ही जा रहा है। बारिश में तो वह बहुत भीगा है , भीगता ही रहता है पर बम-बम भूले की अबोधता में ऐसे , इस तरह भीगने का कभी अवसर ही नहीं मिला था , जो आज मिल रहा है। यह अवसर भी अवर्णनीय है। वह शिशु इस भारी भीड़ में छटकते हुए , कूदते हुए चल रहा है। बम-बम भूले बोलता हुआ। बच्चा दरअसल शब्द नहीं , अर्थ समझ रहा है। भीग रहा है बारिश में भी , भोले की जय-जय में भी , भूले बोलता हुआ।

बनारस से भी कुछ युवा लड़कों का जत्था है। बिलकुल बनारसी अंदाज़ में हर-हर महादेव का जयकारा लगते हुए। ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ! बोलते हुए। बिलकुल बम-बम अंदाज़ है। ग़रीब भी हैं , अमीर भी। महाराष्ट्रियन , राजस्थानी , गुजराती , मलयाली , तमिलियन , कन्नड़ , बिहारी हर कहीं से लोग हैं। कुछ अकेले हैं , दो लोग हैं , सपरिवार हैं तो कुछ जत्थे बनाए हुए हैं। स्त्री-पुरुष सभी के लिए एक ही लाइन है। सो कुछ लाइनबाज़ भी हैं। युवा स्त्रियों से अनायास का अभिनय करते हुए , सायास सटते हुए। कुछ स्त्रियां भीड़ के कारण बर्दाश्त कर ले रही हैं , कुछ बिदक कर भी चुप हैं तो कुछ भड़क भी रही हैं। अचानक एक लड़की किसी पर भड़कती हुई बोलती है , हिंदू हो कि जेहादी ! 

' हिंदू हूं बहन ! ' वह हाथ जोड़ते हुए हकलाता है , ' माफ़ करना ! ' कह कर वह ठिठक जाता है। लड़की अपने परिवारीजन के साथ आगे बढ़ जाती है। वह धीरे-धीरे चलते हुए पीछे होता जाता है। अचानक एक पेड़ मिलता है , बीच बैरिकेटिंग में। पेड़ के कारण वहां थोड़ी अतिरिक्त जगह भी है। दो-तीन लोग वहां भी प्रसाद बेचते मिलते हैं। पत्नी कहती हैं , ' हम लोगों ने प्रसाद तो ख़रीदा ही नहीं। ' 

' यहां का मुख्य प्रसाद क्या है जानती हो ? '

' नहीं। '

' शराब है। ' वह जोड़ता है , ' ले आऊं ? 

' नहीं-नहीं ! ' पत्नी बिदकती हुई बोलती है। 

फिर भी वह इन युवाओं से प्रसाद का एक लड्डू वाला डब्बा और फूल ले लेता है। डलिया सहित। बिना मोलभाव के। यह युवा छाता भी बेच रहे हैं। पूछता है वह पत्नी से कि , ' छाता ले लें ? ' 

' बुरी तरह भीग तो गए हैं। अब क्या फ़ायदा ? ' 

फिर भी वह मोलभाव में लग जाता है। दो सौ वाला छाता , छ सौ का दे रहा है। कुछ भी कम करने को तैयार नहीं है। वह हाथ जोड़ लेता है। वापस मुड़ता है तो पाता है कि पत्नी आगे निकल गई है। दिखती नहीं। फूल और लड्डू के पैसे दे कर बिना छाता लिए वह आगे बढ़ता है। मद्धिम बारिश फिर तेज़ हो गई है। वह तेज़ी से आगे बढ़ना चाहता है। बारिश से भी ज़्यादा तेज़। लेकिन भीड़ है कि रोक-रोक लेती है। बढ़ने नहीं देती। भीड़ जैसे यकायक ठहर सी गई है। एक सूत नहीं बढ़ रही। बम-बम भोले , हर-हर महादेव का जयकारा तेज़-तेज़ शुरू हो जाता है। बारिश से भी ज़्यादा तेज़। लेकिन उसे न तेज़ बारिश की चिंता है , न जयकारे का जोश है। चिंता है पत्नी की। चिंता है कि भीड़ की भगदड़ में पत्नी कहीं चोटिल न हो जाए। कहीं फिसल कर गिर न जाए। भीड़ में कुचल न जाए। गुम न हो जाए। उस से उस के बुढ़ापे का सहारा न छिन जाए। बुढ़ापे की सब से बड़ी छड़ी , सब से बड़ा सहारा पत्नी ही तो होती है। वह इस लिए बहुत परेशान है। जयकारा लगा रही भीड़ से हाथ जोड़ता है कि उसे आगे जाने दिया जाए। जयकारा लगा रहे युवकों से हाथ जोड़ कर कहता है , ' मुझे आगे जाने दीजिए। मेरी पत्नी आगे निकल गई हैं। उन के पास तक जाना है ! ' 

' हां-हां अंकल आइए। ' एक युवक तिरछे खड़े हो कर रास्ता बनाते हुए कहता है , ' घबराइए नहीं आंटी मिल जाएंगी। ' वह ही नहीं , और भी युवा रास्ता बनाते हुए उसे आगे बढ़ने देते हैं। वह तेज़ी से आगे बढ़ता जाता है। थोड़ा और आगे जाते ही पत्नी दिख जाती हैं। वह चैन की सांस लेता है। मिलते ही कहता है , ' हम तो घबरा ही गए थे। चलो तुम मिल गई। अच्छा हुआ। '

' हम तो आप के साथ खड़े ही थे। अचानक भीड़ का रेला आया। मुझे भी आगे धकेल दिया। नहीं बढ़ती आगे तो लोग धकेल कर गिरा देते। भीड़ के पांव तले कुचल जाती। ' 

' अच्छा किया। ' वह बोला , ' पर बता कर आगे बढ़ी होती। '

' समय कहां मिला बताने के लिए ! ' वह बोली , ' भीड़ ने कुछ कहने-सुनने का समय कहां दिया ? '

' चलो कोई बात नहीं। '

भीड़ फिर ठिठक गई है। ऐसे कि जैसे बिजली चली गई हो। लाइट , पंखे , ए सी सब बंद। लेकिन बारिश बंद नहीं हुई है। बारिश और जयकारा दोनों ही ललकार रहे हैं। बम-बम भूले करते हुए वह अबोध बच्चा फिर दिख गया है। लोगों का जयकारा अलग है , उस का अलग। नितांत अलग। जब लोगों का जयकारा स्थगित होता है ज़रा देर के लिए , उस का बम-बम भूले सुनाई देने लगता है। 

बीच बारिश भीड़ रुकी हुई है। कुछ लोगों के बीच बात शुरू हुई है। किसी ने पूछा है , ' कहां से ? '

' उत्तर प्रदेश। ' वह पूछता है , ' आप ? '

' हम भी उत्तर प्रदेश , बनारस से। और आप ?' 

' अयोध्या से। ' कहते हुए वह तनिक सकुचाता है। 

' लाज नहीं आती ?' 

' आती तो है ! ' वह शर्म से धंस जाता है। कहता है , ' पर क्या करें ! जाने कैसे गड़बड़ा गया। '

' गड़बड़ा नहीं गया। ' बनारसी बिलकुल चढ़ाई करते हुए बोला , ' बेइज्जत करवा दिया देश को। नाक कटवा दिया सनातन का। '

' अब क्या कहें ? ' वह बुदबुदाया। 

' तुम लोगों की हिम्मत कैसे होती है , कहीं जाने की और अयोध्या बताने की। ' 

वह दांत चियार कर चुप ही रहता है। लेकिन कोई एक तीसरा आदमी है जो अपने को मुंबई का बताता है। बनारस वालों को धौंसिया लेता है , ' तुम बनारस वालों ने भी कम पाप नहीं किया है। हराते - हराते रह गए पी एम को। ' बातचीत अब ज़्यादा बढ़ गई है। सभी पक्ष उत्तेजित हो चले हैं। लगता है अब हाथापाई हो जाएगी। कि तभी एक नया आदमी बहस में कूद पड़ा , ' कोई राजनीतिक बात नहीं। यहां बस बाबा की बात होगी। ' किसी न्यायाधीश की तरह निर्णय देते हुए वह हर-हर महादेव का जयकारा लगाने लगता है। चारो तरफ हर-हर महादेव का जयकारा होने लगता है। अचानक एक बनारसी जयकारा बदलते हुए बोलता है : ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ! पार्वती पति महादेव को प्रणाम करने का यह जयकारा जैसे बारिश को समझ आ गया है। 

बारिश अब मद्धिम हो कर रिमझिम-रिमझिम है। ऐसे जैसे कोई गीत गा रही हो। बूंदें ऐसे गिर रही हैं  गोया गा रही हों : तनी धीरे खोलो केंवड़िया, रस की बूंदें पड़ें !

अयोध्या वाले युवा जानबूझ कर धीरे-धीरे पीछे होते गए हैं। ताकि बात और आगे न बढ़े। बनारसी युवा झुंड में थे। कई थे। अयोध्या वाले युवा दो ही थे। अगर मार पीट हो जाती तो इन्हें संभालने के लिए पुलिस भी पास नहीं थी। लोहे की बैरिकेटिंग पुलिस को जल्दी आने भी नहीं देती। 

घूंघट काढ़े औरतों का एक झुंड गीत गाते हुए चल रहा है। लोकगीत गा रही औरतें भीगती हुई ऐसे गा रही हैं जैसे अपने गांव-घर से कोई संदेशा लाई हों और बाबा काल भैरव के मार्फ़त शिव जी को समर्पित कर देना चाहती हों। उन की सादगी , सरलता और समर्पण भाव अविरल है। मोहित करता है। वह सोचता है कि शहर चाहे जितना भी धावा गांव पर बोल ले , गांव इतनी जल्दी मरने वाला नहीं है। 

कुछ नव विवाहित जोड़े हैं। अलग-अलग मिलते रहते हैं। दुल्हन चाहे कहीं की हो , उस का पहनावा , हाव-भाव बता ही देता है : ख़मोश लब हैं झुकी हैं पलकें दिलों में उल्फ़त नई नई है / अभी तकल्लुफ़ है गुफ़्तुगू में अभी मोहब्बत नई नई है। यह युवा जोड़े इस बात को छुपाना भी नहीं चाहते। कुछ माता-पिता के साथ दिखते हैं , कुछ बिना माता-पिता के। उन की चाहत , उन का इक़रार और इसरार इस बारिश से ज़्यादा है। उन्हें बारिश की नहीं , अपनी चाहत की चिंता है। उन के चाल में फुटबाल सी उछाल है। वालीबाल जैसी उछाह है। कोई - कोई तो गोल्फ़ की बॉल की तरह आसमानी उछाल लिए है। भीड़ , बारिश सब बेमानी है। आंखों में उमंग , हाथों में शराब की बोतल लिए यह विवाहित जोड़े जैसे कूद कर काल भैरव से मिल लेना चाहते हैं। भीड़ चलते-चलते जब-तब अचानक थम-थम जाती है। ऐसे जैसे कोई सेना की परेड हो और कमांडर बोल दे , ' परेड थम ! ' और लोग थम से जाते हैं। यह सिलसिला रह-रह चलता रहता है। तो भीड़ एक बार थम जाती है। एक अधेड़ आदमी सपत्नीक दर्शन के लिए आया है। फ़ोन पर किसी को बता रहा है , ' महाकाल में बहुत आसानी से दर्शन हो गया। एक दोस्त की मदद से प्रोटोकाल मिल गया था। पुलिस वाला बिना किसी लाइन के ले जा कर सीधे महाकाल के दर्शन करवा दिया। शिवलिंग के पास जा कर शिव जी को स्पर्श तो नहीं करने दिया गया। बेलपत्र आदि भी नहीं चढ़ाने दिया। शिवलिंग तक जाने की किसी को अनुमति अब नहीं है। पर शिवलिंग के सामने शिव जी के नंदी के पास बिठा दिया हम दोनों को। लगभग दस मिनट तक बैठ कर महाकाल के दर्शन कर विभोर हो गए। वह बता रहा था कि पर भैरव बाबा के यहां प्रोटोकाल की व्यवस्था ही नहीं है क्या करें। लाइन में फंसे पड़े हैं। लंबी लाइन। जब यहां आए तो लंबी लाइन देख कर दोस्त को बताया कि यहां भी प्रोटोकाल दिला दे। तो वह बोला कि ज़्यादा दिक़्क़त हो तो हाथ जोड़ कर वापस आ जाइए। लेकिन वाइफ बोलीं कि जब यहां तक आ गए हैं तो भैरव बाबा से मिल कर ही हाथ जोड़ते हैं। अब लगे हैं लाइन में। जैसे सारा देश ही आ गया है दर्शन को ! एक दूसरा आदमी बता रहा है , यहां तो कुछ भी नहीं है। तिरुपति गया था। आठ घंटे लाइन में लगे रहे , तब दर्शन हुआ। थक कर चूर हो गए। अनेक लोग हैं , अनेक क़िस्से। वैष्णो देवी से लगायत महाकुंभ तक के। 

एक आदमी है लंबा सा। रेन कोट पहन कर आया है। सिर से ले कर पांव तक। उस के आगे-आगे चल रहा है। आगे एक कंधा पकड़ कर चल रहा है। कुछ भी हो जाए , उस का कंधा नहीं छोड़ता। उस की परछाईं की तरह चल रहा है। हिलोरें मारता हुआ। कई सारे जोड़े हैं जो चिपक कर चल रहे हैं। कुछ नवविवाहित हैं। लासा की तरह एक दूसरे से लिपटे हुए। चिपटे हुए। युवा स्त्रियों का पहनावा , हाथ में भरी चूड़ियां , लचक-लचक कर चलना , सिहरना और इस बारिश में भी बेख़बर चल रही हैं। मादकता ओढ़े हुई। पर लाज भी ओढ़े हुई हैं। उच्छृंखल नहीं हो रहीं। पर यह आदमी तो लासा नहीं , फेविकोल की तरह चिपका हुआ चल रहा है। वह पत्नी से बुदबुदा कर कहता भी है कि यह तो अति किए हुए है। लेकिन पत्नी ऐसी बातें नहीं सुनतीं। टाल जाती हैं। सर्वदा की तरह यहां भी टाल गई हैं। पत्नी को लगता है कि ऐसी बातें करने और सुनने से पाप पड़ता है। और जब अति की भी अति हो जाती है तो वह किसी तरह उस व्यक्ति से आगे निकल लेता है। थोड़ी देर बाद वह पीछे मुड़ कर उसे देखता है तो पाता है कि जिस के कंधे से चिपका वह लंबा व्यक्ति चल रहा है , वह भी स्त्री नहीं , पुरुष ही है। फिर थोड़ी देर बाद वह पाता है कि वह लंबा व्यक्ति मज़बूरी में उस के कंधे से चिपका चल रहा है। उस के एक पांव में कुछ समस्या है। यह देख कर वह ख़ुद को धिक्कारता भी है। और जगह मिलते ही पत्नी का हाथ पकड़ कर धीरे से आगे , और आगे बढ़ जाता है। भीड़ अच्छे अच्छों को अंधा बना देती है। 

बारिश अचानक तेज़ हो गई है। मोटी - मोटी बूंदें आवाज़ भी बहुत तेज़ कर रही हैं। सावन भले है पर क्षिप्रा नदी के तट पर यह घनघोर बारिश आषाढ़ के दिन की याद दिलाती है। कालिदास की प्रेयसी  मल्लिका की याद दिलाती है। आषाढ़ के पहले दिन की बारिश में भीगते हुए ही सहसा दोनों प्रेम में पड़ जाते हैं। वह सोचता है कि कालिदास और मल्लिका दोनों बारिश में न भीगते तो क्या प्रेम में नहीं पड़ते ? क्या तो प्रेम था। कि मल्लिका कालिदास के लिए अपने हाथ से सिल कर कोरे भोजपत्र का एक ग्रंथ तैयार करती है कि जब कालिदास से मिलेगी तो उन्हें देगी कि इस पर वह अपना कोई महाकाव्य लिखें। पर मिलन की प्रतीक्षा लंबी है। मिलते भी हैं कालिदास मल्लिका से तो तब तक वह भोजपत्र जगह-जगह से कटने और फटने लगा है। मल्लिका अफ़सोस से यह बात बताती है। लेकिन कालिदास देखते हैं कि भोजपत्र जगह - जगह स्वेद कण से मैले हो गए हैं। पानी की बूंदें पड़ी हैं। फूलों की सूखी पत्तियों ने अपने रंग छोड़ दिए हैं। कई जगह मल्लिका के दांत गड़ने के निशान हैं। कालिदास कहते हैं मल्लिका से कि यह पृष्ठ कोरे नहीं हैं। यह जो जगह - जगह पानी की बूंदें हैं , पानी की बूंदें नहीं , तुम्हारे आंसुओं की बूंदे हैं। तुम्हारे आंसुओं की बूंदों ने , आंखों की कोरों ने कई-कई सर्ग लिख दिए हैं। अनंत सर्गों के साथ तुम इन पर महाकाव्य की रचना कर चुकी हो। यह पृष्ठ कोरे नहीं हैं। महाकाव्य की रचना हो चुकी है। 

तो अपने ग्राम प्रांतर में बैठी क्या मल्लिका अभी भी महाकाव्य रच रही है ,  उन भोजपत्रों पर अपने आंसुओं से। यह बारिश नहीं , मल्लिका के आंसू हैं ? जो उज्जैन तक आ रहे हैं। जहां कालिदास उपस्थित हैं। क्या कश्मीर भी जा रहे होंगे यह बादल बरसने के लिए जहां कालिदास ने शासन किया। 

क्या पता ? 

लेकिन मल्लिका के आंसू हैं कि ख़त्म ही नहीं होते।  

अब तक तमाम पड़ाव पार करते हुए वह मंदिर की सीढ़ियों पर उपस्थित है। हर - हर महादेव का जयकारा ज़ोर पकड़ चुका है। मल्लिका के आंसू और महादेव के जयकारे में जैसे होड़ सी लगी हुई है। सीढ़ियों के ऊपर छत है। लेकिन सीढ़ियां पानी से भीगे हुए लोगों के निरंतर आते जाने से गीली हो गई हैं। फिसलन हो गई है। बहुत संभल-संभल कर वह चल रहा है। पत्नी का हाथ पकड़ लिया है। अपने से ज़्यादा पत्नी को संभालने की फ़िक्र है। पत्नी की हड्डियां बहुत कमज़ोर हैं। गिर गई तो कठिनाई बढ़ जाएगी। अलग बात है पत्नी को इस की फ़िक्र नहीं है। भक्ति की भावना , महादेव का जयकारा और मंदिर में पहुंच जाने का उत्साह है। गिरने - पड़ने की कोई चिंता नहीं। दर्शन करने का नंबर लगभग आ चुका है। स्त्री और पुरुष की लाइन मंदिर के कार्यकर्ताओं ने अलग - अलग करवा दी है। लोगों के हाथ में शराब की बोतलें हैं। हमारे हाथ में पुष्प और मिष्ठान। चढ़ाने के लिए सर्वदा की तरह पुष्प और लड्डू की डलिया पत्नी को थमा देता है। हाथ में शराब की बोतल न देख कर पुजारी मुस्कुराता है। शीश झुकाने पर पीठ पर आशीष जमा कर माथे पर टीका लगा देता है। हाथ में प्रसाद दे देता है। एक कार्यकर्त्ता धीरे से सब को आगे की तरफ बढ़ा देता है। भीड़ का दबाव बहुत है। ज़रा नीचे और मंदिर हैं। वहां दर्शन आसान है। भीड़ कम है। मंदिर से निकल कर लोग पीछे की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे हैं। सीढ़ियों के बाद नीचे सड़क नई बनी हुई है। उखड़ी हुई सड़क की छोटी-छोटी गिट्टियां पांव में चुभ रही हैं। नंगे पांव चलते नहीं बन रहा है। अभ्यास नहीं है इस तरह , नंगे पांव चलने का। तब तक ड्राइवर दिख गया है। कहता है सर , यहीं रुकें। कार यहीं ले आता हूं। वह कार ले कर आता है। पर चप्पल एक दुकान पर हैं। जा कर लाता है। मल्लिका के आंसू सहसा थम गए हैं। पूरा बाज़ार भीग कर जैसे सहमा हुआ सा दिखता है। लेकिन लोगों में उल्लास है। मंदिर जाने वालों का तांता अभी भी लगा हुआ है। महादेव के जयकारों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। बुरी तरह भीगा हुआ एक आदमी कह रहा है , शिव जी ने सारी गंगा यहीं उतार दी है। यह भीगना भी अलग - अलग है। आंसू है , बारिश है और गंगा भी। वह भी पौराणिक नदी क्षिप्रा के तट पर। कुंभ ऐसे ही लगता है। दुनिया ऐसे ही  जगमग होती है। इस जगमग में भीगना ही महत्वपूर्ण है। कोई प्रेम में भीग रहा है , कोई भक्ति में। कोई दोनों में। बरसे कंबल भीजे पानी वाली बात भी है। सुख बहुत है इस भीगने में।

जय हो बाबा कालभैरव ! 

सहसा वह नन्हा बच्चा भी दिख गया है जो भरी भीड़ में अकसर बम-बम भोले की जगह बम-बम भूले का जयकारा लगा रहा था। उसे देखते ही वह प्यार से बोलता है : बम-बम भूले ! उस की मां मुस्कुराने लगती है। हंसने लगती है अपने बच्चे के भोलेपन पर। मां की यह नैसर्गिक हंसी अनमोल है। 

[ पाखी , फ़रवरी-मार्च , 2025 अंक में प्रकाशित ]









Monday, 24 February 2025

कामरेड समरेश बसु और फ़िल्मकार विमल रॉय का अमृत कुंभ !

दयानंद पांडेय 


बांग्ला भाषा के मशहूर लेखक कामरेड समरेश बसु का एक मशहूर उपन्यास है अमृता कुंभेर संधाने। यानी अमृत कुंभ की खोज। इस अमृत कुंभ उपन्यास का नायक ग़रीब है पर प्रयाग में कुंभ नहाने की बड़ी इच्छा है। पैसे के अभाव में कुंभ नहीं जा पाता। पर अगले कुंभ की प्रतीक्षा में प्रयाग जाने के लिए पैसा बटोरता रहता है। वृद्ध हो जाता है। बीमार हो जाता है। पर प्रयाग में कुंभ नहाने की उस की इच्छा जीवित रहती है। वह कुंभ नहाने प्रयाग जाता भी है। ट्रेन में बहुत कठिनाई उठाते हुए , संघर्ष करते हुए , कुंभ के दिन प्रयाग पहुंचता है। कुंभ के दिन ही उस की मृत्यु हो जाती है। प्रसिद्ध फ़िल्मकार विमल रॉय को समरेश बसु का यह उपन्यास , इस की कहानी बहुत पसंद आई।

विमल रॉय ने अमृत कुंभ नाम से इस पर फ़िल्म बनाने की योजना बनाई। वह फ़िल्म की तैयारी में ही थे कि बीमार रहने लगे। जांच में पता चला कैंसर है। फिर भी अमृत कुंभ फ़िल्म पर काम करना नहीं छोड़ा। प्रयाग जाने और वहां जा कर शूटिंग करने लायक़ नहीं रह गए। लेकिन अपने असिस्टेंट डायरेक्टर गुलज़ार और कैमरा मैन कमल बोस को प्रयाग भेजा प्रयाग में मेले की आऊटडोर शूटिंग के लिए। गुलज़ार प्रयाग गए और शूट कर लौटे। पर तब तक विमल रॉय की तबीयत और बिगड़ गई थी। लेकिन उठते - बैठते , सोते - जागते , विमल रॉय अपनी फ़िल्म अमृत कुंभ ही सोचते। अमृत कुंभ की ही बात करते। विमल रॉय कैंसर के बावजूद सिगरेट पीना नहीं छोड़ सके थे। डाक्टर आ कर बहुत सख़्ती से सिगरेट पीने के लिए मना कर जाता। पर डाक्टर के जाते ही वह सिगरेट सुलगा लेते।

सिगरेट सुलगाते और उन के भीतर अमृत कुंभ सुलगता रहता था। घर वाले , मित्र , शुभचिंतक और उन की टीम सिगरेट न पीने के लिए डाक्टर की हिदायत की उन्हें याद दिलाते रहते। विमल रॉय कहते , डाक्टर बेवकूफ है। वह कुछ नहीं जानता। उन दिनों विमल रॉय के स्वास्थ्य के बारे में एक जगह गुलज़ार ने लिखा है। विमल रॉय सोफे पर बैठे रहते। उन्हें देख कर लगता कि जैसे कोई कुशन रखा हो , सोफे पर। गरज यह कि विमल रॉय का वज़न बहुत कम हो गया था। बहुत दुबले हो गए थे। पर अमृत कुंभ और उस का नायक जैसे उन के भीतर बैठ गए थे। बाहर निकलते ही नहीं थे। विमल रॉय कहते थे कि इसे पढ़ कर लगता है, मानो समरेश के पात्रों के साथ मैं भी अमृत की तलाश में कुंभ पहुंच गया हूं। बावजूद इस के अमृत कुंभ का काम पिछड़ता ही गया। संयोग देखिए कि जैसे अमृत कुंभ का नायक सर्वदा कुंभ सोचते हुए प्रयाग में देह छोड़ गया , विमल रॉय भी 1966 में कुंभ शुरू होने के समय ही उपन्यास के नायक की तरह बीच कुंभ में ही देह त्याग गए। अमृत कुंभ उन के मन में इतना बस गया था l

क़ायदे से गुलज़ार को अपने गुरु की याद में , उन की इच्छा के सम्मान में अमृत कुंभ फ़िल्म बना कर पूरी करनी चाहिए थी। लेकिन जाने क्यों नहीं की। वही जानें। क्यों कि इस बारे में गुलज़ार ने न कभी कहीं लिखा , न कुछ कहा। काफ़ी समय बाद विमल रॉय के बेटे जॉय ने फ़िल्मकार यश चोपड़ा की मदद से गुलज़ार द्वारा शूट कराए गए फुटेज से ग्यारह मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री तैयार की। हां , बांग्ला फ़िल्मकार दिलीप रॉय ने ‘अमृता कुंभेर संधाने’ नाम से ही बांग्ला में एक फ़िल्म बनाई। यह फ़िल्म 1982 में रिलीज़ हुई थी जिसमें शुभेंदु चटर्जी, अपर्णा सेन, भानु बंदोपाध्याय, रूमा गुहा ठकुरता और समित भांजा ने काम किया था।

विमल रॉय भारतीय सिनेमा के चुनिंदा फ़िल्म निर्देशकों में शुमार हैं। एक से एक क्लासिक फ़िल्में उन के खाते में दर्ज हैं। कहानी , अभिनेता आदि चुनने में वह बहुत सतर्क रहते थे। वाकये कई सारे हैं। पर अभी यहां एक क़िस्सा सुनाता हूं। पचास के दशक की बात है। विमल रॉय दो बीघा ज़मीन की तैयारी कर रहे थे। बलराज साहनी उन दिनों बड़े अभिनेता थे। रंगमंच में उन का बड़ा नाम था। बी बी सी में मशहूर एनाउंसर रहे थे। शांति निकेतन में पढ़ा चुके थे। विद्वान आदमी थे। उन को जब पता चला दो बीघा ज़मीन के बारे में तो वह विमल रॉय के पास पहुंचे। सूटेड-बूटेड , टाई बांधे बलराज साहनी को विमल रॉय ने सेकेंड भर में रिजेक्ट कर दिया। कहा कि इस फ़िल्म में तुम बिलकुल नहीं चलेगा। ग़रीब किसान और हाथ रिक्शा खींचने वाले की कहानी है यह। [ पश्चिम बंगाल में हाथ रिक्शा होता था , जिस में घोड़े की जगह आदमी ही रिक्शा खींचते हुए दौड़ता रहता था। ] तुम सूटेड - बूटेड उस में क्या करेगा ?

बलराज साहनी ने विमल रॉय की बात का बुरा नहीं माना। विमल रॉय की बात को चुनौती के रूप में लिया। कोलकाता चले गए। कुछ महीने नंगे पांव रह कर हाथ रिक्शा खींचा। किसान और मज़दूर के चरित्र को समझा। और एक दिन अचानक मुंबई में विमल रॉय के सामने रिक्शा वाला बन कर नंगे पांव उपस्थित हो गए। विमल रॉय उन्हें देखते ही उछल पड़े। बलराज साहनी को वह पहचान नहीं पाए पर बोले , बिलकुल ऐसा ही एक्टर चाहिए दो बीघा ज़मीन के लिए। विमल रॉय ने निर्देशन में और बलराज साहनी ने अभिनय में प्राण फूंक दिया दो बीघा ज़मीन में। निरुपा रॉय हीरोइन थीं। शैलेंद्र के दिलकश गीत थे। मीना कुमारी गेस्ट आर्टिस्ट। मीना कुमारी पर फ़िल्माया गया एक लोरी गीत जैसे आज भी मन में बसा हुआ है। आजा री आ निंदिया तू आ ! दुनिया है मेरी गोद में , पूरा हुआ सपना मेरा !

1953 में फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से नवाजी गई दो बीघा ज़मीन। कान महोत्सव में भी सम्मानित हुई।

एक क़िस्सा बंदिनी का भी सुन लीजिए। बंदिनी के समय नूतन को जब विमल रॉय ने हीरोइन का ऑफर दिया तो वह गर्भवती थीं। मोहनीश बहल पेट में थे। नूतन ने मना कर दिया। विमल रॉय ने कहा कि सारी फ़िल्म ही तुम्हीं को सोच कर प्लान किया है। नूतन ने फिर भी मना कर दिया। तो विमल रॉय ने कहा , कोई बात नहीं , फिर हम भी यह फ़िल्म नहीं बनाएगा। और बड़ी गंभीरता से कहा। नूतन ने इस बात की चर्चा अपने पति से की। पति सोच में पड़ गए। फिर नूतन से कहा कि जब ऐसी बात है तो यह फ़िल्म कैसे भी कर लो। नूतन ने बंदिनी फ़िल्म की। 1963 में रिलीज हुई और आज तक चर्चा में है। नूतन की पहचान बहुत लोग बंदिनी से ही करते हैं। बंदिनी को भी फिल्म फेयर मिला।

देवदास , बंदिनी , सुजाता , मधुमती , परिणीता जैसी तमाम क्लासिक फिल्मों के निर्देशक विमल रॉय ही नहीं , अमृत कुंभ के लेखक समरेश बसु के बारे में भी थोड़ा सा जानिए। जानिए कि वह कम्युनिस्ट थे। फिर भी अमृत कुंभ जैसी कालजयी रचना लिखी। समरेश बसु दरअसल ट्रेड यूनियन नेता थे। ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्युनिस्टों के साथ संपर्क में आए और कम्युनिस्ट हो गए। विचारों से ही नहीं कर्म से भी कम्युनिस्ट थे। मज़दूर आंदोलनों में जेल भी गए। जेल से निकल कर कहानी लेखक बन गए। उन की कहानियों पर बांग्ला ही नहीं , हिंदी में भी कई सफल फ़िल्में बनी हैं। एक बार एक बांग्ला पत्रिका के लिए कवरेज करने के लिए वह प्रयाग के कुंभ में आए। समरेश बसु की नियमित रिपोर्ट पढ़ - पढ़ कर ही विमल रॉय आनंदित थे। बाद में उन्हीं रिपोर्टों को आधार बना कर समरेश बसु ने बांग्ला में अमृता कुंभेर संधाने उपन्यास लिखा। जो ख़ूब चर्चित हुआ। आज तक चर्चित है। ख़ैर , एक कामरेड समरेश बसु को देख लीजिए , जो जनता - जनार्दन की नब्ज़ जानते थे। आस्था , परंपरा और विरासत भी जानते थे। आज के हिप्पोक्रेट वामपंथियों के तरह किसी मंगल ग्रह से तो आए नहीं थे। जन से जुड़े थे। जन को जानते थे। दूसरी तरफ आज नाली में पड़े कीड़ों की तरह बजबजाते वामपंथियों को देख लीजिए। कुंभ को ले कर क्या तो मातम है। क्या तो मुसलसल विष - वमन है।

लेखन क्या होता है , पत्रकारिता क्या होती है , विचार क्या होता है , कमिटमेंट क्या होता है , समझ आ जाएगा।

तथ्यों को छुपाने , भ्रामक सूचनाएं और नफ़रत फैलाना , विष - वमन करना ही आज के हिप्पोक्रेट वामपंथियों का पथ्य बन गया है। सेक्यूलरिज्म के फ़ैशन में श्वान बन चुके बाकियों का हाल और बुरा है।

देश की लगभग आधी आबादी कुंभ नहा चुकी है l पर कुंभ की सफलता को ले कर यह लोग इतने बौखलाए हुए हैं कि निरंतर प्रश्न पूछ रहे हैं कि अम्मा , हमारे पिता जी कौन हैं ? और अम्मा हैं कि मुसलसल चुप हैं, इन के इस बेहूदा सवाल से l अम्मा इस अपमानजनक प्रश्न से छुब्ध हैं l

सवाल ज़रूरी हैं , सत्ता और व्यवस्था से l पर इस तरह और इतना भी ज़रूरी नहीं कि माँ से पिता का सुबूत मांगना पड़ जाए l नाम पूछना पड़ जाए l

अरे कुंभ नहीं पसंद है , कोई बात नहीं l गोली मारिए , कुंभ को l पर नाग बन कर , फ़न काढ़ कर , नित्य प्रति , क्षण -क्षण खड़े रहना इतना ज़रूरी है ?

चुप रहना भी एक कला है l

हां , विमल रॉय भी कोई हिंदुत्ववादी नहीं थे। संघी आदि नहीं थे। जीनियस डायरेक्टर थे। दिलीप कुमार को मेथड एक्टिंग में मास्टर बनाने वाले विमल रॉय ही थे। गुलज़ार को गीतकार और डायरेक्टर बनाने वाले भी। उन के कई सारे असिस्टेंट बाद में नामी डायरेक्टर बने। यथा हृषिकेश मुखर्जी। अभिनेता , अभिनेत्री तो बहुत ही। विमल रॉय अपने आप में भारतीय सिनेमा के एक बड़े स्कूल हैं l

एक महत्वपूर्ण बात यह कि अगर यही
अमृता कुंभेर संधाने कामरेड समरेश बसु ने आज़ की तारीख़ में लिखा होता तो अब तक कब के कट्टर संघी , हिंदुत्ववादी आदि घोषित हो चुके होते l विमल रॉय भी नहीं बचते l

बचते क्या ?

Thursday, 20 February 2025

दिल्ली में यमुना का तनाव तंबू

दयानंद पांडेय


वर्ष 1981 में दिल्ली रहने लगा था l नौकरी मिल गई थी l संयोग से शुरू -शुरू में यमुना पार यमुना नदी के किनारे ही बसे कैलाश नगर के श्याम ब्लॉक में रहता था l घर की छत से यमुना नदी साफ़ दिखती थी l पुराना लोहे का पुल भी l बांध से सटा हुआ घर था l सुबह मेरी तब भी थोड़ी देर से होती थी l तब भी गोरखपुर में रोज़ नदी नहाने और तैरने की आदत थी l एक सुबह रोक नहीं पाया पहुंच गया यमुना के तट पर l कुछ लोग नहा रहे थे l कुछ लोग पास ही अखाड़े में कुश्ती आज़मा रहे थे l कुश्ती भी जानता था तब l लेकिन मेरी दिलचस्पी नदी में तब तैरने में थी l सो आव देखा न ताव l कपड़े उतार कर सीधे नदी में कूद गया l नदी में कूदते ही अफ़नाया l पानी की बदबू ने जैसे प्राण ले लिए l पानी में तैरती गंदगी ने बेचैन कर दिया l तुरंत यमुना से बाहर निकल आया l

घर आ कर साबुन लगा कर रगड़-रगड़ कर बड़ी देर तक नहाता रहा l उस दिन दफ़्तर नहीं गया l बार-बार नहाता रहा l लेकिन दिल्ली के यमुना की दुर्गंध और गंदगी मन से नहीं गई l हफ़्ते भर तक बार-बार नहाता रहा l सब कुछ छोड़ नहाना ही सोचता रहा l भोजन करते नहीं बनता था l अभी भी जब यह पोस्ट लिख रहा हूं , वह दुर्गंध और गंदगी जैसे तैर कर मन में समा गई है l जब भी उस दिन को याद करता हूं , बेचैन हो जाता हूं l जैसे कोई दुःस्वप्न हो l फिर जा कर नहा लेता हूं।

एक बार एक मित्र के साथ तब की दिल्ली की यमुना में नौका विहार भी किया l मज़ा नहीं आया l कारण यमुना की गंदगी ही थी l नाव में बैठ कर न कुछ खाते बना , न कुछ करते बना l तय समय से पहले ही नाव छोड़ दिया l

कुछ अंतिम यात्रा में जब भी कभी दिल्ली के निगम बोध घाट गया , वहां भी गंदगी का साम्राज्य मिला l सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का शवदाह बिजली वाले शवदाह में हुआ l तो दिक़्क़त नहीं हुई l लेकिन तब के दिनों लोगों को इस का अभ्यास नहीं था l अपवाद ही थे विद्युत शवदाह गृह में जाने वाले l अब भी यह संख्या बहुत कम है l

तो दिल्ली में यमुना की गंदगी के जो किस्से और तराने चल रहे हैं , यह सिर्फ़ केजरीवाल की देन नहीं है l अब तक के सारे शासकों की कृपा है l केजरीवाल की चूक सिर्फ़ इतनी है कि वह सिर्फ़ माऊथ कमिश्नरी ठोंके रहा l किया कुछ भी नहीं l

रेखा गुप्ता भी मैली यमुना में सफ़ाई की कोई रेखा , कितनी खींच पाएंगी , यह देखना भी दिलचस्प होगा l इस लिए भी कि नाम भले रेखा का हो , असल काम तो यमुना की सफाई का , मोदी को ही करना है l क्यों कि साबरमती की सफाई अभी भी चुनौती बन कर उपस्थित है l यमुना तो बस बदनाम है l देश की सारी की सारी नदियां बहुत मैली हैं l लेकिन मां हैं l बस बहता पानी नहीं है l

करें भी तो क्या करें ? उद्योगपतियों के लिए कोई सख़्त क़ानून जो नहीं है l उद्योगपतियों ? अरे, नगर निगम और अस्पतालों के लिए भी नहीं है कोई सख़्त क़ानून l

आदमी तो ख़ामख़ा बदनाम है l असल पाप तो यही सब उद्योगपती धोते हैं नदियों में l और कभी पवित्र भी नहीं होते l न होंगे कभी l

रेखा गुप्ता के गले में प्रवेश वर्मा का पत्थर

दयानंद पांडेय


दिल्ली के रामलीला मैदान में आज शपथ ग्रहण से ले कर यमुना के वासुदेव घाट पर आरती तक के दृश्य देख कर लगता है कि प्रवेश वर्मा , रेखा गुप्ता के गले में बंधा पत्थर साबित हो सकते हैं l रेखा गुप्ता को लगातार ओवरटेक करते हुए नज़रअंदाज़ करने की उन की अदा बहुत शुभ नहीं है l

मंज़र बहुत मंगलमय नहीं दिखता l प्रवेश वर्मा को लगता है जैसे मुख्य मंत्री पद उन से रेखा गुप्ता ने छीन लिया है l जब कि छीना मोदी ने है l फिर सुपर चीफ़ मिनिस्टर होने का गुरूर उन के चेहरे पर साफ़ पढ़ा जा सकता है l

यह ख़तरे की घंटी है l

आरती में तो ताबड़तोड़ कंप्टीशन से वह आजिज आ कर पीछे खिसक गईं l फिर आहिस्ता से बीच में कोई और आ गया l रामलीला मैदान में भी प्रवेश वर्मा की उपेक्षा , रेखा गुप्ता के सामने ही थी l बिलकुल निकट , आमने सामने होने पर भी प्रवेश ने रेखा को नहीं देखने का भाव चेहरे पर बनाए रखा l ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि रेखा गुप्ता , इस जाट नेता के गले में घंटी बांध कर क़ाबू कैसे करती हैं l इस लिए भी कि मुख्य मंत्री रेखा गुप्ता के लिए उन के पास आदर भाव नदारद है l ओवरटेक भाव प्रबल है l

उत्तर प्रदेश में केशव मौर्य और बृजेश पाठक की याद आती है l

Tuesday, 18 February 2025

विभास के आंगन में अभिनय के प्रेम की चांदनी

दयानंद पांडेय 


राज बिसारिया के निर्देशन में अनिल रस्तोगी और वेदा राकेश के अभिनय की त्रिवेणी का कमाल आज देखने लायक़ था विभास में। असल में जब अभिनय के दो बड़े हस्ताक्षर बाकमाल निर्देशक के निर्देशन में काम करते हैं तो विभास की चमक , उस का तेज़ सूर्य की तरह ही हो जाता है। चंद्रमा सा सुकून देता हुआ। विभास के आंगन में अभिनय के प्रेम की चांदनी तभी खिलती है। जो कि आज खिली। लखनऊ के वाल्मीकि प्रेक्षागृह में। 

डाक्टर अनिल रस्तोगी और वेदा राकेश के अभिनय की युगलबंदी में निबद्ध दो वृद्धों के प्रेम का आख्यान विभास , सचमुच अपने नाम के अनुरूप सुबह के समय गाए जाने वाले भैरव राग की ही तरह था। अपनी पूरी चमक और निःशब्द हो गई वीणा की तरह बजती विभास की प्रेम कथा हमें एक गहरे जल में ले जाती है। प्रेम के गहरे जल में। जहां सिर्फ़ साथ की अकुलाहट है। बिना किसी याचना , बिना किसी वासना के। एक सेनेटोरियम में एक विधुर डाक्टर और एक मरीज लेकिन परित्यक्ता स्त्री की यह प्रेम कथा प्रेम के गहन छोर पर ही छोड़ती मिलती है। अपनी पूरी मिठास , स्निग्धता और सुवास के साथ।

शुरुआत हिंदी फ़िल्मों की तरह दोनों के झगड़े से होती है। लेकिन आहिस्ता से जैसे कोई ट्रेन पटरी बदल दे। किसी और शहर जाती हुई ट्रेन किसी और शहर की ओर चल दे। प्रेम के नगर की तरफ। विभास की कथा भी आहिस्ता से पटरी बदल लेती है। बदलती हुई चलती रहती है। प्रेम की यह पटरी निरंतर बदलती रहती है। कभी इस नगर , कभी उस नगर। ओर भी प्रेम है , छोर भी प्रेम। मुंबई की बरसात है। बरसात क्या है , प्रेम की बरसात है। छाता है। समंदर का किनारा है। डाक्टर और एक अभिनेत्री के प्रेम की छाया समूचे विभास में किसी जलतरंग सी बजती रहती है। किसी इंद्रधनुष की तरह खिलती हुई। मुड़-मुड़ कर मिलती हुई। ठहर - ठहर कर सुलगती हुई। जा - जा कर लौटती हुई। जैसे कोई लौ हो , दिपदिपाती हुई। प्रेम ऐसे ही तो खिलता है , किसी गुलाब की तरह। गुलाब से ही दोनों के प्रेम का पाग बनता है और मद्धिम - मद्धिम ख़ुशबू में तिरता हुआ किसी रातरानी की तरह। बेला की तरह महकता और गमकता हुआ। 

कहानी सशक्त हो , अभिनय सधा हुआ हो और निर्देशन कसा हुआ तो नाटक ही नहीं शाम भी सुंदर बन जाती है। आज की शाम इतनी दिलक़श और दिलफ़रेब होगी , नहीं मालूम था। विभास ने यह शाम सुंदर की। राज बिसारिया अब नहीं हैं पर उन के ही निर्देशन में खेला गया नाटक विभास आज फिर खेला गया। रूसी नाटककार अलेक्सी अर्ब्यूज़ोव के नाटक ओल्ड वर्ल्ड का हिंदी एडाप्टेशन वेदा राकेश ने विभास नाम से किया है। वेदा राकेश ने न सिर्फ़ नाटक का एडाप्टेशन बहुत ही सरल लेकिन मोहक ढंग से किया है बल्कि इस नाटक के संवाद भी बहुत शक्तिशाली और संप्रेषणीय लिखे हैं। ऐसे जैसे पानी। पानी पर तैरती नाव की तरह ही विभास के दृश्यबंध भी हैं। वेदा राकेश पुरानी अभिनेत्री हैं पर संयोग ही है कि उन्हें मंच पर आज पहली बार बतौर अभिनेत्री देखा है। निःशब्द करने वाला वेदा राकेश का अभिनय इतना टटका और इतना विस्मयकारी था कि मन रोमांचित हुआ जाता था। रीता चौधरी के अभिनय में प्राण डालना कठिन सा था। लेकिन वेदा ने रीता को सजीव ही नहीं किया प्राणवान और सम्माननीय भी बनाया। जगह - जगह गायकी में वह गामक नहीं थी पर अभिनय की तासीर ने संभाल-संभाल लिया। 

रीता चौधरी की भूमिका में वेदा के सामने डाक्टर की भूमिका में डाक्टर अनिल रस्तोगी के अभिनय ने जैसे विभास को वैभव दे दिया। अनिल रस्तोगी के अभिनय में सुरीलापन और लचीलापन का जो कोलाज है , वह बहुत आसान नहीं है। हर नाटक की हर भूमिका में वह अपने को ऐसे परोसते हैं , गोया अभिनय नहीं कर रहे हों , पात्र न हों , वह जीवन ही उन का हो। विभास में भी वह डाक्टर की भूमिका में नहीं , डाक्टर ही बन गए थे। शुचिता पसंद और अनुशासन का क़ायल डाक्टर जब प्रेम की नदी में नहाता है तो कैसे तो सारी बेड़ियां तोड़ कर किसी मछली की तरह फुदकने लगता है। मदहोश हो कर नाचने लगता है किसी मोर की तरह। ट्विस्ट डांस करते हुए युवा बन जाता है। कोई वृद्ध भी प्रेम करते हुए कैसे तो युवा बन जाता है , विभास में अनिल रस्तोगी के अभिनय में निहारा जा सकता है। तब जब प्रेम उन के अभिनय में शैंपेन की तरह छलकने लगता है। ह्विस्की की तरह सारी हिचक तोड़ कर , नदी की तरह सारे बांध तोड़ कर प्रेम का पान चबाने लगता है। इतना कि दर्शक भी इस प्रेम में पुलकित और मुदित हो जाता है।  

अस्सी बरस से अधिक की इस उम्र में भी न सिर्फ़ अभिनय बल्कि देह की लोच भी अनिल रस्तोगी की देखने लायक़ है। एक दृश्य में प्रेम में मगन वह जिस तरह उछल कर बच्चों की तरह उछल कर लेट जाते हैं , वह दृश्य तो अनिर्वचनीय था। आलौकिक और निर्मल था। एक वृद्ध के प्रेम में यह उछाह की , ललक और लगाव की अदभुत अभियक्ति थी। प्रेम से लबालब अभिनय की इस आंच में जल ही जाना था दर्शकों को। अनिल रस्तोगी का अभिनय बहुत सारे नाटकों और फिल्मों में देखने का संयोग मिला है। पर यह नाटक उन का कुछ अलग सा था। उन का अभिनय कुछ अलग सा और अनूठा था। फिर भी मेरे लिए यह कह पाना बहुत कठिन है कि अनिल रस्तोगी का अभिनय बीस था कि वेदा राकेश का। गरज यह कि दोनों ही बीस थे। नाटक के एक दृश्य में शैंपेन भले नहीं उछली , ह्विस्की भी नीट पी गई। पर अभिनय में प्रेम की आवाजाही गहरे समंदर जैसी थी। मन में ख़ूब सारा शोर करती हुई सी लहरें थीं। अभिनय के विन्यास में लरजती हुई सी। 

इस नाटक का मंचन राज बिसारिया की याद में थिएटर आर्ट्स वर्कशाप ने उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के वाल्मीकि प्रेक्षागृह में किया।