Tuesday, 7 September 2021

भारत अब कृषि प्रधान देश नहीं , कारपोरेट प्रधान देश है , किसान आंदोलन के खिदमतगारों को जान लेना चाहिए

 

दयानंद पांडेय 


जिन विद्वानों को लगता है , राकेश टिकैत विधान सभा चुनाव में भाजपा के लिए सिर दर्द है , उन्हें जान लेना चाहिए कि 26 जनवरी को लालक़िला समेत पूरी दिल्ली में उपद्रव और मुज़फ्फर नगर में अल्ला हो अकबर ने राकेश टिकैत का ही मामला ख़राब कर दिया है। टिकैत के रोने में राजनीतिज्ञ डर सकता है , प्रशासन डर सकता है। हो सकता है यह सत्ता पक्ष की कोई चाल और रणनीति भी हो। पर घड़ियाली आंसुओं में वोटर नहीं डरता। नहीं  बहकता। कांग्रेस के पैसे और मस्जिदों के चंदे से किसान आंदोलन क्या कोई आंदोलन नहीं चलता। शहर-दर -शहर शाहीनबाग भी नहीं। 

हां , इस किसान आंदोलन में अगर कोई सब से ज़्यादा फ़ायदे में है तो वह वामपंथी साथी हैं। उन्हें रोजगार भी मिल गया है और मोदी को गरियाने का गोल्डन अवसर भी। मज़दूरों से हड़ताल करवा-करवा कर मुंबई , कोलकाता और कानपुर जैसे तमाम शहरों को उद्योगविहीन करवा कर बिल्डरों का शहर बनवा दिया। बिल्डरों से अकूत पैसा बटोरा। अपने बच्चों को यू के , यू एस में सेटल्ड करवा दिया। अब स्कॉच पीते हुए , किसानों की सेवा में लग गए हैं। लेकिन भारत के किसान , फैक्ट्रियों के मज़दूर नहीं हैं। 

क्यों कि भारत अब भी कृषि प्रधान देश है , इस पर मुझे शक़ है। भारत अब कारपोरेट प्रधान देश है। यह तथ्य किसान आंदोलन के खिदमतगारों को जान लेना चाहिए। इस सचाई को हमारे वामपंथी साथियों समेत तमाम आंदोलनकारियों को समय रहते जान-समझ लेना चाहिए। आवारा पूंजी ही अब देश संचालित कर रही है। आंदोलन वगैरह अब सिर्फ़ आत्ममुग्धता की बातें हैं। इंक़लाब ज़िंदाबाद नहीं सुनाई देता अब आंदोलनों में। अल्ला हो अकबर , हर-हर महादेव सुनाई देता है। पता नहीं , हमारे वामपंथी इस नारे को सुन पा रहे हैं कि नहीं। भाजपाई , संघी और सावरकर के नैरेटिव में ही जाने कब तक फंसे रहेंगे। कांग्रेसियों और वामपंथियों को इस छल भरे नैरेटिव से निकल कर ज़मीनी बातों पर ध्यान देना चाहिए। 

राकेश टिकैत द्वारा कुछ रटे-रटाए वामपंथी जुमलों के बोल देने भर से यह किसान आंदोलन तो कम से कम नहीं चलने वाला। टिकैत की हेकड़ी भरी जुबान और लंठई आचरण से भी नहीं। यह किसान आंदोलन वैसे भी अब कुछ मुट्ठी भर जाटों , कुछ मुसलमानों और थोड़े से सिख साहबान का आंदोलन बन कर रह गया है। कांग्रेस की फंडिंग और वामपंथियों के मार्गदर्शन में चलने वाला यह किसान आंदोलन अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। अराजकता और अभद्रता से कोई नवजोत सिंह सिद्धू तो बन सकता है , पर सुनील गावसकर नहीं। नहीं बुलाया तो इमरान खान ने गावसकर को भी था। क्यों नहीं गए , गावसकर पाकिस्तान। और कैप्टन अमरिंदर सिंह के लाख मना करने के बाद भी सिद्धू क्यों गए ? और क्या-क्या कर के लौटे ?

आज तक की एंकर चित्रा त्रिपाठी को रैली से गोदी मीडिया का तमगा देते हुए , अभद्रता और अपमान पूर्वक भगा देने और एक सिख द्वाराअजितअंजुम के माथे का पसीना पोछ देने के नैरेटिव से भी किसी आंदोलन को ज़मीन नहीं मिलती। लोकतंत्र को ठेंस ज़रुर लगती है। किसी आंदोलन को ज़मीन मिलती है , ईमानदार नेतृत्व से। ज़मीन मिलती है , ज़मीनी लोगों की भागीदारी से। इस किसान आंदोलन की हक़ीक़त का अंदाज़ा इसी एक बात से लगा लीजिए कि अपने संगठन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ही नेता हैं। फिर किसान आंदोलन की बीती रैली में कौन सी बात किसानों के लिए की गई ? किसी को याद हो तो बताए भी। हम ने तो देखा कि इस रैली में आए लोग कह रहे थे कि सी ए ए , एन आर सी और तीन तलाक़ जैसे काले क़ानून हटवाने के लिए वह लोग आए हैं। जो भी हो इस पूरे किसान आंदोलन का मक़सद अगर मोदी , योगी को हराना ही है तो जानिए कि चुनावी बिसात पर अब एक नहीं , भाजपा के ढाई स्टार प्रचारक हो गए हैं। 

फ़िराक़ गोरखपुरी एक समय कहा करते थे कि भारत में सिर्फ़ ढाई लोग ही अंगरेजी जानते हैं। एक सी नीरद चौधरी , दूसरे , ख़ुद फ़िराक़ और आधा जवाहरलाल नेहरु। नेहरु ने फ़िराक़ की इस बात पर कभी प्रतिवाद भी नहीं किया। यह नेहरु का बड़प्पन था। पर कुछ-कुछ उसी तर्ज पर आज आप को एक बात बताऊं धीरे से। कान इधर ले आइए। भाजपा के पास अब एक नहीं ढाई स्टार प्रचारक हैं। पहले सिर्फ़ एक ही था , राहुल गांधी। अब डेढ़ और आ गए हैं। एक राकेश टिकैत और आधा असुदुद्दीन ओवैसी। अल्ला हो अकबर !

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