Wednesday, 8 September 2021

गृहस्थी में ऐसी उलझी कि प्यार का सारा आदाब भूल गई

पेंटिंग : मदनलाल नागर 


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

प्रेम ही प्रेम था जीवन में पर प्रेम का हिसाब किताब भूल गई 
गृहस्थी में ऐसी उलझी कि प्यार का सारा आदाब भूल गई 

नशा ही नशा था उस के प्यार और प्यार के उस मेयार में 
नशा उतरा भी नहीं था कि प्यार की सारी शराब भूल गई 

वक़्त कैसे और क्या से क्या कर देता है जीवन में अब जाना 
लोग क्या कहेंगे के पाखंड में ऐसा झूली सारा इंक़लाब भूल गई 

पूर्णमासी का चांद देख कर होती थी न्यौछावर उस के साथ 
प्रेम की वह जुगलबंदी , वह बंदिश और सारा शादाब भूल गई 

ज़िम्मेदारी की दुनिया में कब एक जंगल दूर-दूर तक फ़ैल गया 
जिस पेड़ को पानी बन कर सींचा उस पानी की किताब डूब गई 

ज़िंदगी में प्रेम की इबारत पढ़नी सीखी थी धीरे-धीरे , निहुरे-निहुरे 
गोमती में इक डूबता चांद क्या देखा ज़िंदगी के सारे सुरख़ाब भूल गई 



[ 8 सितंबर , 2021 ]

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