Thursday, 3 January 2019

गुजिस्ता अपने-अपने युद्ध

अमन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नए संस्करण का कवर पृष्ठ 


जनवाणी प्रकाशन द्वारा पुराने संस्करण का कवर पृष्ठ 
बीते हुए दिनों की याद ही सुख नहीं देती , बीता लिखा हुआ भी सुख देता है । लिखने का भी अपना एक नास्टेल्जिया होता है । कोई बीस-बाईस बरस पहले लिखे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के वैसे तो कई सारे संस्करण छप चुके हैं लेकिन अब वह फिर से आऊट आफ प्रिंट हुआ तो अमन प्रकाशन ने इसे पेपर बैक में छाप दिया है । तो इस बहाने उन बीते दिनों में चला गया हूं । एक समय शिवमूर्ति से जब भी कभी बात होती तो मैं मीडिया के नरक और उस की दुश्वारियों के बाबत बतियाता। तो वह छूटते ही कहते इस पर आप को लिखना चाहिए। तो लिखना शुरू किया। इस अपने-अपने युद्ध को लिखने के दिन भी क्या दिन थे । बेरोजगारी के दिन थे वह । सो रात भर लिखता था और जब लोग सो कर उठते थे तब मैं सोने जाता था । तो दिन भर घोड़ा बेच कर सोता था , रात भर लिखता था । कभी उठंग कर , कभी बैठ कर । कभी इस करवट , कभी उस करवट । सरपट लिखता रहता था । कभी मद्धम-मद्धम गाना सुनते हुए तो कभी अंगड़ाई लेते हुए । कुल ढाई महीने में उपन्यास पूरा हो गया था । लेकिन छपने में इसे ढाई साल लग गए । कुछ तो न्यायपालिका वाले प्रसंग के चलते दिक़्क़त थी , कुछ स्त्री प्रसंगों को भी ले कर भी ऐतराज थे। कहा गया कि यह अंश हटा दीजिए , वह अंश हटा दीजिए या माइल्ड कर दीजिए । मैं ने स्पष्ट बता दिया कि एक कामा , फुलस्टाप भी नहीं बदलूंगा । उपन्यास छपे चाहे न छपे। खैर , जब उपन्यास छपा तो लोग जागे भी और चौंके भी ।

लखनऊ में सब से पहले इस की चर्चा श्रीलाल शुक्ल ने शुरू की। किसी अंगरेजी लेखक से तुलना की। फिर जगह-जगह से लोगों के फ़ोन आने लगे। चहुं ओर इस की चर्चा। इलाहाबाद से रवींद्र कालिया का फ़ोन आया। कुछ दिन बाद सतीश जमाली का भी फोन आया। बताया उन्हों ने कि रवींद्र कालिया ने दिया था इसे पढ़ने को। एक आधी रात को उदय प्रकाश का फ़ोन  आया। कहने लगे , ' अपने-अपने युद्ध पढ़ रहा हूं।  पढ़ते-पढ़ते फोन करने से रोक नहीं पाया। ' उपन्यास को ले कर कोई आधा घंटा वह बतियाते रहे। उपन्यास में वर्णित हेमा , वागीश , एन एस डी आदि की चर्चा करते हुए उपन्यास की व्यंजना की बात करने लगे। सर्वाधिक चर्चा लखनऊ बेंच में हाई कोर्ट के वकीलों के बीच हो रही थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट में भी। वकीलों के बीच इस की चर्चा आज भी होती है। कि तभी अचानक जैसे हाय गज़ब कहीं तारा टूटा ! इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में अपने-अपने युद्ध को ले कर मेरे खिलाफ कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट का मुकदमा दायर हो गया। अब यह ख़बर देश भर के अख़बारों में छपी। ख़बरों से ही मुझे भी पता चला। एक बार तो मैं चिंतित हो गया कि अब क्या होगा ? लेकिन मुझ से भी ज़्यादा चिंतित हुए मुझ से चिढ़ने वाले लखनऊ के कुछ लेखक और पत्रकार लोग। जैसे उन्हें लकवा मार गया। क्यों कि यह लोग तो इस उपन्यास की नोटिस ही नहीं लेना चाहते थे , कायदे से आज तक नहीं लिया , न आगे कभी लेंगे। यह उन की ज़िद , पूर्वाग्रह और सनक है। क्यों कि मैं उन के या किसी और के गैंग में नहीं हूं  , न उन के किसी गैंग में रहने का कोई इरादा है। खैर जब कंटेम्प्ट के चलते पूरे देश ने नोटिस ले ली तो भाई लोगों ने पहले तो खामोशी की लंबी चादर ओढ़ी। पर जब ख़ामोशी की यह चादर भी फट गई तो लोग कुनमुनाए। कुनमुनाते हुए ही बताना शुरू किया कि यह तो बहुत अश्लील उपन्यास है। तदभव के संपादक अखिलेश ने एक नई सूचना दी कि कोई इस उपन्यास की समीक्षा लिखने को तैयार नहीं है। मैं ने कहा कि कहिए तो मैं किसी से कह कर लिखवा दूं। पर वह मेरी यह बात पी गए। लेकिन नवनीत मिश्र ने बहुत मन से अच्छी और लंबी समीक्षा लिखी जो कथादेश में छपी। हंस में भी समीक्षा छपी और इंडिया टुडे में भी। फिर कई सारी पत्रिकाओं और अख़बारों में समीक्षा की जैसे बाढ़ आ गई। हंस में राजेंद्र यादव ने केशव कहि न जाए का कहिए शीर्षक से चार पेज की संपादकीय लिखी तेरी मेरी अपनी बात में। और न्यायपालिका की धज्जियां उड़ा दीं। राजेंद्र यादव ने इस बाबत लेखकों की निर्लिप्तता पर तंज करते हुए लिखा :

' और अनायास ही मुझे मार्टिन नीमोलर की वे पंक्तियां याद आने लगीं जिन्हें शायद ब्रैख्त ने भी दुहराया है-

    जर्मनी में नाजी पहले-पहल
    कम्यूनिस्टों के लिए आए ....
    मैं चुप रहा/क्योंकि मैं कम्यूनिस्ट नहीं था
    फिर वे आए यहूदियों के लिए
    मैं फिर चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी भी नहीं था
    फिर वे ट्रेड-यूनियनों के लिए आए
    मैं फिर कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं तो ट्रेड-यूनियनी भी नहीं था
    फिर वे कैथोलिको के लिए आए
    मैं चूंकि प्रोटेस्टेंट था इसलिए इस बार भी चुप रहा
    और अब जब वे मेरे लिए आए
    तो किसी के लिए भी बोलने वाला बचा ही कौन था ?

 जब प्रतिरोधी और परिवर्तनकारी शक्तियां बिखरी हों, आपसी हिसाब-किताब चुका रही हों और फंडामेंटलिस्ट यथास्थितिवादी ताकतें एकजुट होकर आक्रामक हों तो फासीवाद आता है। या जब हम स्वयं अपने व्यक्तिगत हिसाब चुकाने में लगे हों और बाहरी शक्तियों को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से ‘दुश्मन’ को सबक सिखाने के लिए आमंत्रित करें तो गुलामी का दौर शुरू होता है। मुसलमानी आक्रमण से लेकर अंग्रेजों तक का इतिहास गवाह है।

इस मनोहारी वातावरण में आप ही बताइए दयानंद पांडेय जी, अगर आपने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में कोर्ट या जजों के यानी न्यायपालिका के विरुद्ध कुछ सच्चाइयां लिख दी हैं तो मुझे क्या लेना-देना ? अब अगर कुछ न्यायमूर्ति इसे व्यक्तिगत आक्षेप मानकर आपको जेल भेज दें तो इसमें मैं क्या करूं ? क्या करूं ? गणतंत्र-दिवस के एक दिन पहले के भाषण में राष्ट्रपति न्यायपालिका को जुआघर कहें, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस कृष्ण अइयर खुद इन्हें भ्रष्टाचार के अड्डे बताएं, या कहीं न्याय न मिलने पर फिल्मों के गुस्सैल नायक भ्रष्ट जजों और न्यायपालिका को खुलेआम गालियां दें तो कुछ नहीं होता। करते रहें वे ऐसा, मगर आपको किस कुत्ते ने काटा था कि इन अप्रिय सत्यों को बघारते फिरें ? '

जनसत्ता में राजकिशोर ने लंबी चर्चा की। कोई आधा पेज छपा था अपने-अपने युद्ध पर। राजकिशोर ने मुझे सज़ा भी तजवीज कर दी। यह कि कोर्ट में पूरे दिन अपने-अपने युद्ध के लेखक को खड़ा रखा जाए। उस साल दिल्ली के पुस्तक मेले में हर कोई जनवाणी प्रकाशन के स्टाल से अपने-अपने युद्ध ही ख़रीद रहा था। यह बात प्रकाशक ने एक दिन फ़ोन कर के बहुत उत्साहित हो कर बताई। मारे उत्साह में तब खुशवंत सिंह को भी अपने-अपने युद्ध भेजा था। एक दिन उन का फोन आया। हालां कि वह तब तक बहरे हो चुके थे। साफ़ सुन नहीं पाते थे। कभी सुन लेते थे , कभी नहीं। लेकिन अपनी बात तो साफ़ कह ही देते थे। मुझे अंगरेजी में बधाई दी और बताया कि , ' मुझे हिंदी पढ़ने या लिखने नहीं आती। लेकिन आप का नावेल किसी से पढ़वा कर सुना है। बहुत उम्दा है। ' उन्हों ने जैसे जोड़ा , ' यह नावेल और इस का सब्जेक्ट हिंदी का नहीं है। हिंदी में यह हजम नहीं होगा। शुड बी इन इंग्लिश। '  मैं ने उन्हें बताया कि , ' मुझे इंग्लिश नहीं आती कि इसे इंग्लिश में लिख सकूं। ' तो वह बोले , ' ट्रांसलेट करवाइए। ' संकोच में उन से कह नहीं पाया कि , आप ही कुछ मैनेज करवा दीजिए। न ही आज तक इस के अनुवाद का कोई इंतजाम कर सका। 

यह सब हो ही रहा था कि अब एक दिन सुबह-सुबह राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी का फ़ोन आया कि वह लखनऊ में हैं , मुझ से मिलने घर आना चाहते हैं। मैं ने कहा , ' स्वागत है।' अशोक माहेश्वरी आए। औपचारिक बात और चाय नाश्ते के बाद वह बोले , ' मैं अपने-अपने युद्ध को छापना चाहता हूं। ' उन्हों ने जैसे जोड़ा , ' पेपर बैक छापना चाहता हूं। ' मैं बहुत खुश हुआ। मैं ने कहा , ' पेपर बैक सहर्ष छापिए। ' अशोक बोले , ' पर पेपर बैक के साथ हार्ड बाउंड भी मैं छापूंगा। ' कह कर उन्हों ने एग्रीमेंट के कागज़ मेरे सामने कर दिए। मैं ने अशोक माहेश्वरी से कहा , ' देखिए यह उपन्यास सब से पहले मैं ने आप ही को दिया था , छापने के लिए। आप शुरू में तैयार भी हुए थे पर अचानक आप ने बताया कि मुश्किल है। तब मैं ने दूसरे प्रकाशक का दरवाज़ा खटखटाया।  ' अशोक माहेश्वरी बोले , ' मैं तो छापना चाहता था लेकिन आप के लखनऊ के अखिलेश और वीरेंद्र यादव ने मना कर दिया कि उपन्यास ठीक नहीं है। अब ग़लती हो गई कि मैं इन की बात में आ गया । '  मैं ने कहा कि , ' आप फिर उन की बात में आ गए तो ? ' अशोक बोले , ' नहीं , अब तो मैं फ़ाइनल कर के आया हूं। तब इस उपन्यास की ताक़त का अनुमान नहीं था। '  वगैरह-वगैरह। मैं ने अशोक से कहा कि,  ' अब जिस प्रकाशक ने हिम्मत कर के , मुझ पर भरोसा कर के इस उपन्यास को छापा है तो मेरा नैतिक दायित्व है कि उस का भरोसा तोड़ने के बजाय उस के साथ खड़ा रहूं। चूंकि पेपर बैक वह प्रकाशक नहीं छापता , सो आप को पेपर बैक छापने के लिए सहर्ष दिए देता हूं। लेकिन हार्ड बाउंड के लिए कम से कम उन्हें अपना यह संस्करण तो बेच लेने दीजिए। '  अशोक माहेश्वरी बोले , ' लेकिन इन का संस्करण तो कभी खत्म ही नहीं होता। ' बाद में पता चला कि राजकमल और जनवाणी प्रकाशन सरकारी खरीद में आमने-सामने रहते हैं। अशोक माहेश्वरी  ने राजकमल प्रकाशन के बैनर का गुणगान किया और कहा कि आगे भी आप की किताबें छपती रहेंगी। मैं ने हार्ड बाऊंड के लिए अंततः हाथ जोड़ लिए। अशोक माहेश्वरी चुपचाप चले गए। कुछ दिन बाद उन का फिर फोन आया कि मैं एक बार फिर से विचार कर लूं। मैं ने फिर से उन्हें बताया कि , ' पेपर बैक के लिए सहर्ष तैयार हूं लेकिन हार्ड बाऊंड के लिए अभी नहीं। बाद के दिनों में देख लिया जाएगा। '  फिर बाद के दिनों में भी अशोक माहेश्वरी से कई बार आमना-सामना हुआ। नमस्कार और कैसे हैं का आदान-प्रदान हुआ पर अपने-अपने युद्ध के बाबत कभी कोई बात नहीं हुई। हां , अखिलेश आज भी उन के सलाहकार बताए जाते हैं। बल्कि मुख्य सलाहकार। प्रकाशन के अलावा और भी बातों में।

खैर , प्रकाशकों का खेल अलग था और हाई कोर्ट का खेल अलग। हाई कोर्ट में कंटेम्पट का मुकदमा लड़ने के लिए कोई वकील तैयार नहीं हुआ। क्या तो इस अपने-अपने युद्ध से हाई कोर्ट के जस्टिस लोग बहुत नाराज थे। और कि सभी वकीलों को इन्हीं जस्टिस लोगों से दिन-रात वास्ता पड़ता है। सतीश मिश्रा , कालिया जैसे कई बड़े वकीलों से बात की। लेकिन सब ने हाथ जोड़ लिया। आई बी सिंह मेरे पुराने मित्र हैं और बड़े वकील।  उन से भी बात की। वह बोले ,  ' आप की पूरी मदद करूंगा। काउंटर लिखवा दूंगा। तरकीबें बता दूंगा। बस पावर फाइल कर कोर्ट में एपीयर नहीं होऊंगा। पीछे से सपोर्ट करूंगा। '  उन्हों ने काउंटर लिखवा भी दिया। एक और मित्र और बड़े वकील असित चतुर्वेदी ने स्पष्ट बताया कि , ' बिना किसी वकील के कोर्ट में पेश होइएगा तो कोर्ट फौरन जेल भेज देगी।' अब यह बात जब आई बी सिंह से बताई तो वह बोले , ' बात तो ठीक है। यह ख़तरा तो है।' फिर उन्हों ने बताया कि , ' पूरे लखनऊ में एक ही वकील हैं जो आप का केस लड़ सकते हैं। उन का नाम है , डाक्टर एल पी मिश्रा।' उन्हों ने कहा कि , ' मेरा नाम न बताईएगा।' जनवाणी प्रकाशन के अरुण शर्मा के साथ गया डाक्टर एल पी मिश्रा के पास। पूरी बात सुन कर वह मुस्कुराए। सहर्ष तैयार हो गए। कहा कि नब्बे हज़ार रुपए अभी जमा करवा दीजिए। बाक़ी बाद में बता दूंगा। अब प्रकाशक अरुण शर्मा के हाथ-पांव फूल गए। मिश्रा जी ने पूछा , ' क्या हुआ ? ' तो अरुण शर्मा ने बताया कि ,  अभी तो उन के पास पांच हज़ार रुपए ही हैं। अरुण शर्मा ने यह भी बताया कि इतने की तो किताब भी नहीं छापी है। कमाना तो बहुत दूर की बात है। मिश्रा जी हंसे और बोले , ' जो भी हो , इतना तो हमारा मुंशियाना भी नहीं है। मुंशियाना मतलब मुंशी की फीस।' मिश्रा जी ने कहा , ' बाकी दो दिन में जमा करवा दीजिएगा।' खैर , पांच हज़ार रुपया दे कर , वकालतनामा पर दस्तखत कर लौटे मिश्रा जी के पास से। पूरा घटनाक्रम बताया आई बी सिंह को। आई बी सिंह ने फिर रास्ता बताया। कहा कि  उन से मिल कर बता दीजिएगा कि आप हिंदी के पी एच डी हैं और हिंदी की स्थिति आप जानते हैं। दो दिन बाद मिश्रा जी से मैं मिला। और बताया कि आप हिंदी के पी एच डी हैं , हम हिंदी के लेखक और यह हिंदी के प्रकाशक । बाक़ी आप सारी बात बेहतर जानते हैं। मिश्रा जी आदत के मुताबिक , हंसे और बोले , ' यह सब कहां से पता कर के आए हैं ! ' मैं चुप रहा। खैर मिश्रा जी फिर हंसे और बोले , ' कोई बात नहीं। आप चाहें तो वह पांच हज़ार रुपए भी वापस ले लीजिए , आप का मुकदमा मुफ्त लडूंगा। ' और यह कहते हुए आज भी कृतज्ञता महसूस करता हूं कि दो-तीन साल चले पूरे मुकदमे में मिश्रा जी ने एक भी पैसा नहीं मांगा। हमेशा हंसते हुए , पूरा सम्मान देते हुए मिलते। अपनापन जताते हुए स्नेहवत।

मुझे याद है दिसंबर की वह सर्दी भरा दिन। जस्टिस आशीष नारायण त्रिवेदी की कोर्ट थी। आशीष जी पहले स्टैंडिंग काउन्सिल भी रहे थे। उन से अच्छी मुलाक़ात थी। हज़रतगंज स्थित उन के घर भी आना-जाना रहा था। क़ानून के अच्छे जानकार थे। सख्त लोगों में उन की गिनती होती थी। उन की कोर्ट में केस लगा है , जान कर ख़ुश हुआ। कि यह तो मेरे परिचित हैं। पहला केस भी मेरा था। दिन के सवा दस बजे थे। मिश्रा जी ने बात शुरू ही की कि जस्टिस त्रिवेदी ने पूरी सख्ती से लगभग हड़काते हुए उन से पूछा कि , ' तो आप यह केस लड़ेंगे ? '

' नो मी लार्ड। बिलकुल नहीं। '

' फिर ?'

' यह खुद लड़ेंगे। ' खुद पीछे हटते हुए , मुझे अपनी जगह खड़ा करते हुए मिश्रा जी धीरे से बोले , ' मैं तो सिर्फ़ इन की मदद करुंगा। ' मिश्रा जी की इस पैतरेबाजी से मैं हिल गया। उस भीषण सर्दी में भी पसीने-पसीने हो गया। लगा कि जैसे पेशाब हो जाएगा। लगा जैसे जेल मेरे सामने हो। मौत मेरे सामने हो।

अब जस्टिस त्रिवेदी मुझ से मुखातिब हुए।  थोड़ी नरमी से एनेक्जर के रूप में नत्थी उपन्यास का एक अंश दिखते हुए वह बोले , ' ओह तो आप ने यह अपने-अपने युद्ध लिखा है ? '

' जी। ' मैं ने धीरे से कहा।

' तो यह उपन्यास मुझे खरीद कर पढ़ना पड़ेगा कि आप मुझे पढ़वाएंगे ? '  सुन कर जैसे मेरी जान में जान आ गई।

' पढ़वा दूंगा। ' मैं ने पूरी विनम्रता से कहा।

' ठीक है। ' जस्टिस त्रिवेदी बोले , ' लेकिन किताब देने के लिए आप मुझ से नहीं मिलेंगे। भूल कर भी नहीं मिलेंगे। न मेरे चैंबर में , न मेरे घर पर। ' वह बोले , ' अपने वकील साहब को किताब दे दीजिएगा। वह मुझे दे देंगे। ' फिर उन्हों ने काउंटर और रिज्वाइंडर देने का निर्देश देते हुए अगली तारीख फिक्स कर दी। मेरी सहजता जैसे लौट आई।

कोर्ट से बाहर निकल कर कोर्ट के बारामदे में मिश्रा जी ने जैसे ढाढ़स बंधाया। मैं ने कहा कि , ' लगता है कि सज़ा हो जाएगी। '

' कुछ नहीं होगा। ' मिश्रा जी बोले , ' मैं हूं न। निश्चिंत हो कर घर जाइए। '

' लेकिन आप ने तो कह दिया है कि , ' आप लड़ेंगे ही नहीं। '

' अरे यह सब पैंतरेबाजी करनी पड़ती है। ' वह हंसे और बोले , ' जजों का ईगो मसाज भी ज़रूरी होता है। ' कह कर वह मुझे छोड़ कर अगले किसी केस के लिए , किसी और कोर्ट में निकल गए। '

कुछ दिन बाद काउंटर लिखवाने के लिए मिश्रा जी के चैंबर में बैठा था। बात ही बात में चिंतित होते हुए मैं ने उन से पूछा , ' कैसे निपटेंगे इस केस से ?'

' वैसे ही जैसे आप ने इस उपन्यास में लिखा है। '

' समझा नहीं। '

' तारीखों के मकड़जाल में उलझा कर हवा निकाल दूंगा , पूरे केस की। ' कह कर मिश्रा जी फिर हंसे और बोले , ' यही तो लिखा है आप ने अपने उपन्यास में। और आप ही भूल गए ?'

अब उनसे क्या बताता भला कि लिखना और भुगतना दोनों दो बात होती है। सचमुच अब कंटेम्प्ट और संभावित जेल की यातना में मैं खुद को भूल रहा था। लिखना तो खैर क्या याद रखता। मुकदमा पहले भी लड़ चुका था इसी हाईकोर्ट में। लेकिन तब मैं लड़ रहा था। अब बचाव में था। लड़ने में कुछ खोना नहीं था , पाना था। बचाव में बहुत कुछ खोने का भय था। परिवार के सड़क पर आ जाने का भय था। जेल जाने का भय था। बहुत से निर्दोष लोगों को जेल जाते देखने का अनुभव था।

एक रात इलाहाबाद से रवींद्र कालिया का फोन आया। हंस में राजेंद्र यादव का संपादकीय पढ़ कर वह बतिया रहे थे। कहने लगे कि एक बार इलाहाबाद हाई कोर्ट में कमलेश्वर जी पर भी कंटेम्प्ट हुआ था। एक बार आप उन से भी बात कर लीजिए। दूसरे दिन मैं ने कमलेश्वर जी को फ़ोन किया। कमलेश्वर जी ने बताया कि हंस में मैं ने भी पढ़ा है। फिर जब उन पर हुए कंटेम्प्ट का ज़िक्र किया और पूछा कि कैसे निपटा था आप ने उस कंटेम्प्ट से ? कमलेश्वर जी ठठा कर हंसे और बोले , ' करंट अख़बार के एक कालम में न्यायपालिका की तुलना वेश्या से कर देने पर कंटेम्प्ट हुआ था। पर एक बात बताऊं दयानंद जी , यह जज बड़े डरपोक होते हैं। क़ानून का भय दिखाते हैं। मैं ने तो माफ़ी नहीं मांगी थी , आप भी मत मांगिएगा। कुछ नहीं कर पाएंगे यह जज । निश्चिंत रहिए। ' मैं ने  मिश्रा जी को कमलेश्वर की यह बात बताई। मिश्रा जी ने कहा , ' माफी मांगने को कह भी कौन रहा है आप से। ' वह बोले, ' जब तक मामला कोर्ट में है , मुझे देखने दीजिए। आप निश्चिंत रहिए , आप को कुछ नहीं होगा। ' एक दिन एक वकील ने बताया कि , ' मिश्रा जी बहुत बहादुर वकील हैं। जजों की इन से बहुत फटती है , आप को सज़ा तो नहीं ही होगी। ' फिर उस वकील ने बताया कि एक बार तो किसी मामले में जस्टिस बी एम लाल की भरी कोर्ट में एक गलत फैसले पर आगे बढ़ कर उन को कॉलर पकड़ कर खींच लिया था मिश्रा जी ने । यह 1994 की बात थी। इस बाबत मिश्रा जी को भी कंटेम्प्ट झेलना पड़ा था। और उन का भी कुछ नहीं हुआ था।

उन्हीं दिनों अरुंधति रॉय ने भी सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बिगुल बजा रखा था। ईंट से ईंट बजा रखी थी। आंदोलन , धरना और शपथ पत्र दे कर। मैं ने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में तो जो लिखा था , लिखा ही था। न्यायपालिका की मनमानियों , सनक और उलटबासियों को ले कर , जनता के साथ निरंतर छल करती हुई न्यायपालिका को घेरने के मकसद से एक फ़ायरी लेख लिखने का मन बनाया। उन दिनों समाचार एजेंसी भाषा के संपादक थे मधुकर उपाध्याय। मधुकर जी मुझे बहुत स्नेह करते हैं। उन से इस बाबत विस्तार से बात की और पूछा कि , ' क्या भाषा से इसे जारी कर देंगे ? ' मधुकर जी ने कहा , ' आप लिखिए। बिलकुल जारी करेंगे। ' लिखा भी मैं ने विस्तार से। पर मधुकर जी को भेजने से पहले हाई कोर्ट के वकील और मित्र असित चतुर्वेदी से मिला। कोर्ट की धज्जियां उड़ाने वाला वह लेख उन्हें दिखाया और बताया कि ज़रा प ढ़ कर इस के क़ानूनी पहलू पर बताइए। इसे भाषा समाचार एजेंसी से जारी करने के बाबत बात हो गई है। तो देश भर के अख़बारों में छपेगा। असित जी ने पढ़ा और बताया कि , ' बहुत क्रांतिकारी लिखा है। भाषा एजेंसी से जारी होते ही आप हीरो हो जाएंगे। ' ज़रा रुके और बोले , ' पर जेल भी ज़रूर जाएंगे। ' कह कर वह चुप हो गए। ज़रा रुक कर बोले , ' अपने-अपने युद्ध में तो हो सकता है डाक्टर एल पी मिश्रा आप को बचा ले जाएंगे। बता देंगे कि फिक्शन है। कल्पना है। किसी पात्र का डायलॉग है , भावना है। अंदाज़ है। एटसेक्ट्रा-एटसेक्ट्रा। पर यह तो न्यायपालिका पर सीधा हमला है , आप का अपना बयान है , किसी पात्र का नहीं । '

' जो होगा , देख लेंगे। अभी भेज देते हैं। ' मैं ने कहा।

' अरुंधती रॉय और अपने में एक फ़र्क समझिए। अरुंधती के पीछे एक पूरा मूवमेंट है। तमाम लोग हैं। बुकर विनर हैं अरुंधती। पैसे वाली हैं। परिवार की ज़िम्मेदारी नहीं है। ' असित बोले , ' आप का परिवार है। छोटे-छोटे बच्चे हैं। जेल जाते ही सब सड़क पर आ जाएंगे। हो सकता है परिवार के अलावा कोई और जेल में भी आप से मिलने नहीं जाए। नौकरी , सरकारी घर सब छिन जाएगा। तब क्या करेंगे आप ? मेरी राय में ऐसी क्रांतिकारिता से बचना चाहिए। क्यों कि कोई साथ नहीं देगा। अकेले पड़ जाएंगे आप। '

' काहें बेमतलब डरा रहे हैं। इतना डरपोक नहीं हूं मैं। '

' ठीक है , मत डरिए। पर थोड़ा इंतज़ार कर लीजिए। ' असित बोले , ' अरुंधति के केस की तारीख जल्दी ही है। उन का फ़ैसला देख लीजिए। क्यों कि उन्हें परसनली एपीयर होने को कहा गया है।  इस का मतलब है उन्हें जेल भेजा जा सकता है। ' वह बोले , ' अरुंधति का केस देख कर कुछ कीजिए। तब तक रुक लेने में हर्ज क्या है ? '

कहानीकार हरिचरण प्रकाश ने भी यही सलाह दी कि पूरे मामले को जेंटली हैंडिल कीजिए। बात बिगड़ने पर एक आदमी भी आप का साथ नहीं देगा। सब मुंह फेर लेंगे। वैसे भी कोई साथ नहीं था , यह तो मैं पहले दिन से देख ही रहा था। दो-चार लोगों को छोड़ कर बहुत से शुभचिंतक मुझे जेल की सज़ा का मन ही मन इंतज़ार कर रहे थे। क्या लेखक , क्या पत्रकार। अंतत: मैं असित जी की बात मान गया। आख़िर सुप्रीम कोर्ट ने अरुंधति रॉय को कंटेम्प्ट का दोषी मानते हुए जेल भेज दिया था। तब तक मैं ने अपनी स्थिति का अंदाज़ा भी लगा लिया था। मधुकर उपाध्याय को फोन कर स्थितियां बताईं और अपना फैसला भी। बता दिया कि कुछ नहीं भेज रहा हूं। इधर तारीख पर तारीख शुरू हो गई थी।

उन्हीं दिनों एक फिल्म आई थी जिस्म। जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु अभिनीत इस फिल्म में एक गाना तब खूब हिट हुआ था , जादू है , नशा है / मदहोशियां हैं । जितना मादक गीत था , उस से भी ज़्यादा मादक दृश्य था । उन दिनों इस फिल्म का प्रोमो विभिन्न टी वी चैनलों पर चलता था जिस में समुद्र किनारे लहरों पर खेलते हुए जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु दिखते। जादू है नशा है गीत पर बिपाशा समुद्र किनारे लेटे हुए जॉन के ऊपर आक्रामक सेक्सी अंदाज़ में बैठ जाती थीं। जनवाणी प्रकाशन के अरुण शर्मा हर तारीख पर दिल्ली से लखनऊ आते। होटल में बैठे-बैठे जब यह जादू है नशा है / मदहोशियां हैं , का दृश्य टी वी पर देखते तो कुछ खीझते , कुछ मुस्कुराते हुए बोलते , यह युद्ध तो सरे आम चल रहा है। इस युद्ध पर कोई मुकदमा नहीं कर रहा। आप के अपने-अपने युद्ध पर ही मुकदमा होना था ? अरुण शर्मा से भी ज़्यादा मुश्किल थी लखनऊ के यूनिवर्सल बुक डिपो , हज़रतगंज के प्रोप्राइटर भी इस मुकदमे में घसीट लिए गए थे। क्यों कि यूनिवर्सल बुक डिपो पर अपने-अपने युद्ध बिक रहा था। तो यूनिवर्सल के खिलाफ भी कंटेम्प्ट का मुकदमा हो गया था। लेकिन उन के एक रिश्तेदार हाई कोर्ट में बड़े वकील थे। सो वह निश्चिंत थे और मुझे हौसला बंधाते रहते। कहते हम आप के साथ हैं , डोंट वरी।

एक दिन सुबह-सुबह आई बी सिंह का फोन आया। मैं सोया हुआ ही था। वह बोले , ' बधाई कि आप जेल जाने से बच गए। '

' हुआ क्या ? ' मैं ने पूछा तो वह बोले , ' जस्टिस आशीष नारायण त्रिवेदी का आज सुबह पी जी आई में निधन हो गया है। '

' यह क्या बात हुई भला ?' मैं ने कहा , ' यह तो सेलिब्रेशन का विषय नहीं है। मेरे भी जानने वाले थे वह। '

' ठीक है , मेरे भी दोस्त थे। किडनी प्रॉब्लम थी उन्हें। मरना तो था ही। पर आप के मामले पर फैसला देने से पहले मर गए तो आप बच गए। नहीं यह तो आप को जेल भेजते ज़रूर। भले एक दिन के लिए। क्यों कि यह क़ानून जानते थे और किसी से डरते नहीं थे। ' वह बोले , ' अब आप को कोई जज जेल नहीं भेज सकता। निश्चिंत हो कर सो जाइए। क्यों कि अभी इलाहाबाद हाई कोर्ट में क़ानून जानने वाला कोई निडर जस्टिस नहीं है आज की तारीख में। सब साले डरपोक हैं। और क़ानून से इन की भेंट ही नहीं है। '

आई बी सिंह सच ही कह रहे थे। अब सूरतेहाल यह थी कि मेरा यह कंटेम्प्ट का मुकदमा सुनने से लखनऊ बेंच में मौजूद सभी जस्टिस लोगों ने इंकार कर दिया था। अंतत: अब मेरा यह कंटेम्प्ट का मुकदमा चीफ़ जस्टिस को रेफर हो गया। अब चीफ़ जस्टिस बैठते हैं इलाहाबाद में। कभी-कभार लखनऊ कोई ख़ास मामला सुनने आ जाते हैं। महीने , दो महीने में एक बार। तो जैसा कि मैं ने अपने-अपने युद्ध में लिखा था और कि मिश्रा जी ने कहा था , उस के मुताबिक मेरा कंटेम्प्ट का मुकदमा पहले काऊंटर , रिज्वाइंडर की नौटंकी में खिंचा फिर तारीखबाजी में और अंततः चीफ़ जस्टिस की आमद में। एक दिन मिश्रा जी हंसते हुए बोले , ' आप का यह मुकदमा तो अब ढक्कन हो गया। ' इसी बीच एक दिलचस्प वाकया यह हुआ कि जो वकील साहब मेरे खिलाफ यह मुकदमा लड़ रहे थे वह एक ऐसे मामले में फंस गए कि लोग उन का मज़ा लेने लगे। उन दिनों नेट , फ़ेसबुक आदि तो था नहीं लेकिन लाईनबाजी आदि के शौक़ीन लोग तब भी बहुत थे।

उन दिनों अख़बारों में एक विज्ञापन बहुत छपा करता था , लड़कियों से दोस्ती कीजिए , लड़कियों को दोस्त बनाइए। बाक़ायदा पैसा दे कर लोग दोस्ती करते थे। आवेदन भेज कर , फार्म भर कर। और खूब ठगे जाते थे। तो जनाब वकील साहब ने भी एक फार्म भर कर , अपनी फ़ोटो लगा कर दोस्ती के लिए आवेदन कर दिया था। अब कुछ लोगों ने काफी पैसा जमा किया इस दोस्ती के फेर में और फिर  ठगे गए तो इस अड्डे की शिकायत कर दी। कुछ प्रभावशाली लोग भी इस धंधे में ठगे गए थे। ठगी का धंधा ही था यह। तो पुलिस ने छापा मार दिया। अख़बार वालों को बुला लिया। कुछ अख़बार वाले भी ठगे गए थे। तो जो फ़ार्म वगैरह पुलिस ने खंगाले तो टाइम्स आफ इंडिया के फोटोग्राफर ने जो फ़ोटो खिंची उस में जो फार्म सब से ऊपर था , वह फार्म इन वकील साहब का ही था , मय फ़ोटो के। वकील साहब की यह फ़ोटो टाइम्स आफ इंडिया में पहले पन्ने पर प्रमुखता से छप गई थी। वकील साहब को लगा कि इस में मेरा हाथ था। जब कि ऐसा कुछ भी नहीं था। वह तो उसी हफ़्ते मेरी तारीख़ थी , वह हाई कोर्ट में दिखे तो हमेशा की तरह मैं ने हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार किया। और मजा लेते हुए पूछ लिया , ' कहिए वकील साहब कुछ बात बनी भी थी कि फोकट में बदनाम हो गए ? ' वह बिलकुल शरणागत होते हुए हाथ जोड़ कर बोले , ' माफ़ कीजिए , अब आप के केस को मैं भूल जाता हूं। केस अपने आप खत्म हो जाएगा। आप मुझे माफ़ कर दीजिए और बात को और आगे मत बढ़ाइए। कृपया और मत छापिए। ' और सचमुच वह इस मुकदमे से विरक्त होने लगे। अक्सर नंबर आता और वह बहस करने के बजाय गायब रहते। तारीख लग जाती। एक बार मैं ने उन से कहा कि , ' मुकदमा उठा क्यों नहीं लेते ? ' वह बोले , ' मजबूरी है। एक तो कोर्ट नाराज हो सकती है। और फिर जिस ने पैसा दिया है , उस का पैसा भी हलाल करना है। बाद में पता चला कि वह जो बुलबुल सी बोलने वाली जिन वकील साहिबा का चरित्र चित्रण था अपने-अपने युद्ध में , उन की बिसात पर यह कंटेम्प्ट का मुकदमा खड़ा हुआ था। लेकिन परदे के पीछे से वह खड़ी थीं। सामने से कोई और था।

खैर , एक बार एक चीफ जस्टिस आए। बाबू मोशाय थे चीफ जस्टिस। केस टेक अप हुआ। पहले भी वह यह केस सुन चुके थे। इस बार भी मिश्रा जी की दलीलें सुनीं। मेरे बारे में मिश्र जी से पूछा , ' आप के क्लायंट कहां हैं ? ' हर तारीख पर मेरी उपस्थिति अनिवार्य होती थी , सो मैं उपस्थित था। प्रस्तुत हुआ चीफ़ जस्टिस के सामने। चीफ़ जस्टिस ने कहा कि , ' माफ़ी मांग लीजिए , केस खत्म करता हूं। ' उन्हों ने जोड़ा , ' आई मीन अनकंडीशनल अपालजी। ' मुझे तुरंत कमलेश्वर याद आ गए। कमलेश्वर ने कहा था कि माफ़ी मत मांगिएगा। यह कहते हुए जैसे मेरे सामने कमलेश्वर फिर से खड़े हो गए। मैं ने चीफ जस्टिस को संबोधित करते हुए पूरी शालीनता और विनम्रता से कहा , ' लेकिन मैं माफ़ी मांगने वाला नहीं हूं। ' यह सुनते ही चीफ़ जस्टिस मुझ से नाराज होते हुए बोले , ' सोच लीजिए। ' मैं ने फिर अपनी बात दुहरा दी , ' मैं माफ़ी मांगने वाला नहीं हूं। ' चीफ जस्टिस  मेरी फ़ाइल पेशकार की तरफ फेंकते हुए मुझे घूरते हुए तमतमा कर बोले , ' तो मैं भी सज़ा देने वाला नहीं हूं। सज़ा दे कर आप को हीरो बनाने वाला नहीं हूं। ' फिर उन्हों ने अंगरेजी में एक आदेश लिखवा दिया। आदेश के मुताबिक चीफ़ जस्टिस ने मुझे चेतावनी दी थी कि आइंदा इस तरह का लेखन नहीं करें। और कि आगे जब भी कभी यह उपन्यास दुबारा छपे तो इसे संशोधित कर के छापें। '

मुकदमा खत्म हो चुका था। मिश्रा जी ने मुझे बधाई दी और हंसते हुए कहा , ' देखा कुछ नहीं हुआ। '

बाद में एक वकील ने बताया कि आप फिर भी कनविक्टेड हो गए। मतलब सजायाफ्ता। क़ानून की भाषा में चेतावनी भी सज़ा है। खैर मैं घर आया और रात में कमलेश्वर जी को फ़ोन कर के बताया कि ऐसा आदेश चीफ़ जस्टिस ने लिखवाया है। सुन कर कमलेश्वर जी खुश हो गए। बोले , ' यह तो बहुत बढ़िया आदेश लिखवा दिया चीफ जस्टिस ने। संशोधित कर के छापने को कहा है तो आप ऐसा कीजिए कि इसे और कड़ा कर दीजिए। न्यायपालिका की और ऐसी-तैसी कर दीजिए। ' और हंसने लगे। मैं ने प्रकाशक अरुण शर्मा से कमलेश्वर की इस बात का ज़िक्र किया और पूछा कि , ' क्या कहते हैं आप , और कड़ा कर दूं ? '

' अरे अब और नहीं। ' कह कर अरुण शर्मा ने हाथ जोड़ कर कहा , ' अब इसे यहीं विराम दीजिए। कोर्ट से खेलना , आग और पानी से खेलने के बराबर हैं। आप का क्या है , आप लेखक हैं। लेकिन मैं ठहरा व्यापारी। दो पैसे कमाने आया हूं। क्रांति करने नहीं। इस भंवर से निकल आए , यही बहुत है। '

तब प्रिंट का समय था। पर जल्दी ही नेट का समय आ गया। उस में भी यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया ले कर उपस्थित हुए। 2001 में अपने-अपने युद्ध छपा था। 9 साल बाद 2010 में भड़ास पर अपने-अपने युद्ध का धारावाहिक प्रकाशन शुरू किया यशवंत ने। जैसे आग लग गई। वह कहते हैं न कि  आत्मा को आंच मिल गई। इतना तो तमाम संस्करणों के बावजूद प्रिंट में भी नहीं पढ़ा गया यह अपने-अपने युद्ध। प्रिंट के मुक़ाबले नेट की ताक़त तब पता चली। प्रिंट और नेट में ज़मीन आसमान के फ़र्क का पता चला। पता ही नहीं चला बल्कि सीधा संवाद भी शुरू हो गया। जिस को अच्छा लगे , अच्छा कहे , जिस को बुरा लगे बुरा कहे। ज़्यादातर युवा पाठक। बेलाग , बेलौस और बेअंदाज़ भी। तरह-तरह के सवाल और प्रतिवाद करते। सवालों में घेरते और घिरते लोग। शुद्ध रूप से वाद , विवाद और संवाद की स्थिति। आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी। स्वयंभू लोग नदारद और स्वाभाविक पाठक उपस्थित। अश्लीलता का आरोप भाई लोगों ने यहां भी उठाया और उठवाया। ख़ास कर एक चैनल की पत्रकार सविता भारती ने तो जैसे हंगामा ही बरपा कर दिया। क्रोध में नहाई हुई उन की प्रतिक्रिया 8 साल बाद भी नहीं भूला हूं। पर अपनी प्रतिक्रिया में कुछ ऐसी बातें कह दीं और कुछ पोर्न साइटों का ज़िक्र कर दिया उन्हों ने तो वह खुद अपने ही आरोपों में घिर गईं। लोगों ने उन को जैसे चहेट लिया। किसिम-किसिम के लोग , किसिम-किसिम की प्रतिक्रियाएं। इन तमाम-तमाम लोगों के बीच अरविंद कुमार ने एक सुलझी हुई बात लिखी तो कुछ लोगों की मति सुधरी। वाद-विवाद-संवाद फिर भी जारी रहा। अरविंद कुमार ने लिखा :

मैं ने अपने अपने युद्ध कई बार पढ़ा है।  मैं ने दिल्ली के नाट्य मंडल, नाट्य विद्यालय के काफ़ी नज़दीक रहा हूँ। साथ ही पत्रकारिता में लगभग साठ साल गुज़ारे हैं। फ़िल्मी अश्लीलता और अमानवीय क्रूरता के विरुद्ध 14 साल के माधुरी संपादन काल में शक्तिशाली संघर्ष किया है।

अपने-अपने युद्ध पहली बार पढ़ो तो ऊपरी तौर पर अश्लील लगता है। हमारे विक्टोरियन मानसिकता वाले समाज में लोग लेडी चैटरलीज़ लवर को नंगी अश्लीलता ही समझते रहे हैं।  पर आम जीवन का यौन व्यवहार कितना गोपनीय अश्लील है यह कोई दिखाता ही नहीं। लोहिया जी ने किसी पुस्तक में सेठानियोँ और रसोइए महाराजों का ज़िक्र अश्लील नहीं है। साठ सत्तर साल पहले मेरठ में हमारे समाज में रईसोँ के रागरंग बड़ी आसानी से स्वीकार किए जाते थे, समलैंगिकता जीवन का अविभाज्य और खुला अंग थी। उर्दू में तो शायरी भी होती थी— उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं जिस ने दर्द दिया है। पठानों के समलैंगिक व्यवहार के किस्से जोक्स की तरह सुनाए जाते थे।  लिखित साहित्य अब पूरी तरह विक्टोरियन हो गया है, पर मौखिक साहि्त्य… वाह क्या बात है।

इटली की ब्रौकिया टेल्स जैसे या तोता मैना, अलिफ़लैला, कथासागर जैसे किस्से खुलआम सुन सुनाए जाते थे। हम में से कई ने ऐसे चुटकुले सुने और सुनाए होंगे। उन की उम्र होती है। पीढ़ी दर पीढ़ी वही किस्से दोहराए जाते हैं।

जिन बच्चों को वह किताब पढ़ने को दी जाने पर शर्म आने की बात की जा रही है वही बच्चे ऐसी किताबें जो पूरी तरह अश्लील हैं या ऐसे किस्से पढ़ सुन रहे होंगे। ख़ुशवंत सिंह साहित्यकार हैं – दयानंद पांडेय अश्लील है — वाह !

- अरविंद कुमार

2 फ़रवरी , 2010 भड़ास4मीडिया पर चल रहे एक विमर्श में

जब कि पत्रकार आवेश तिवारी ने लिखा :

हिंदुस्तान की मीडिया की एक बड़ी खासियत है ,वो खबर हो चाहें खबरों से परे कोई बात ,उसे अपने तरीके से देखना चाहती है ,वो उसे उस ढंग से स्वीकार नहीं कर पाती, जैसी वो मूलतः है । दयानंद पाण्डेय के उपन्यास अपने-अपने युद्ध के आलोचकों के साथ भी यही परेशानी है , दयानंद पाण्डेय ने उपन्यास में वही लिखा है जिस में आज का रंगकर्मी और अखबारनवीस जीता है । शब्दों के पीछे छिपे दृश्यों और पात्रों के चरित्र के प्रस्तुतीकरण के लिए ये बेहद ही आवश्यक था । जो कुछ भी लिखा गया है वो सच के बेहद आस-पास है या कहें सच इस से भी बढ़ कर है , आज जब मीडिया में सेक्स पर ले कर मीडिया के भीतर ही जोरदार बहस चल रही है “अपने - अपने युद्ध “ किसी हलफनामे की तरह है । सीधे साधे शब्दों में कहा जाए तो इस उपन्यास की आलोचना करने का अधिकार उन मीडियाकर्मियों को ही है जिन्होंने जिंदगी के तमाम झंझावातों के बावजूद ख़बरों को जीने की कोशिश की है। एक पल को कल्पना करिए उस समय कि जब दयानंद पाण्डेय ने ये उपन्यास लिखा होगा , जब उन्हों ने नीला और संजय के सेक्स संबंधों और फिर संजय द्वारा गर्भ गिराने की बात को लिखा होगा , ये किसी गैर पत्रकार ने लिखा होता तो शायद कोई आश्चर्य की बात नहीं होती , लेकिन हिंदी पत्रकारिता के एक बेहद सशक्त हस्ताक्षर के द्वारा ये लिखना न सिर्फ असीम साहस की चीज है बल्कि इस के लिए खुद को कटघरे में रखने का भी माद्दा होना चाहिए । मैं नहीं समझता इस उपन्यास के आलोचकों के पास या फिर भड़ास पर इस उपन्यास की वेबकास्टिंग का विरोध करने वालों के पास खुद का ये पूरी मीडिया जगत के इस कदर आत्म मूल्यांकन का साहस होगा।

वर्तमान समय में सेक्स से जुडी वर्जनाओं के टूटने की सब से बड़ी वजह मीडिया खुद है। मीडिया के भीतर परस्त्री संबंध  , विवाहेतर संबंध और काम के बदले अनाज योजना की तरह सेक्स के बदले काम जैसी चीजें हमेशा से मौजूद रही हैं । बेहद गुपचुप तरीके से इन चीजों को मीडिया ने शेष समाज में भी स्थापित कर दिया । अब कुछ भी अपवर्जित नहीं है। अगर अपने-अपने युद्ध पढ़ें तो इन वर्जनाओं के टूटने की कहानी अपने आप पता चल जाती है । अगर इस उपन्यास में सेक्स के लाइव दृश्य शामिल नहीं किए जाते तो शायद ये कदापि संभव नहीं हो पाता । लीना और संजय का मुख मैथुन , लीना का संजय पर टूट पड़ना और बिना दरवाजा बंद किए सेक्स करना और फिर चेतना का प्रकरण पोर्नोग्राफी नहीं है । ये दृश्य बताते हैं कि आज की पत्रकारिता सिर्फ खबर लिखने तक ही नहीं रही अगर ईमानदारी से कहा जाए तो एक अखबारनवीस ख़बरों को ही अपने अस्तित्व का प्रतीक नहीं मानता । उस के लिए ये उन्मुक्त सेक्स , देर रात तक चलने वाली पार्टीज और कई लड़कियों या महिलाओं से रिश्ते भी उस के अपने अस्तित्व का हिस्सा है ।

अगर हमें विरोध दर्ज कराना ही है तो उपन्यास पर नहीं उपन्यास के पात्रों पर कराना चाहिए , जो हमारे आपने बीच बैठे हुए हैं। न सिर्फ बैठे हुए हैं सिर के ऊपर विराजमान हैं । हमें ये स्वीकार करने में तनिक भी ऐतराज नहीं होना चाहिए । दयानंद पांडेय ने एक उपन्यासकार के रूप में प्रत्येक पात्र के साथ पूरी इमानदारी बरती है । तब हम ईमानदारी से इस के कथानक को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते । इस उपन्यास की तेरहवीं किस्त में जब रीना संजय को बोलती है, ' इसमें फेड अप होने की क्या बात है। हकीकत यही है कि जर्नलिस्ट पोलिटिसियंस के तलवे चाटकर ही कायदे के जर्नलिस्ट बन पाते हैं।”

”माइंड योर लैंग्वेज रीना। माइंड योर लैंग्वेज!” संजय को रीना की ये बातें बुरी लगती हैं मगर फिर भी वो उस वक़्त सेक्स में लिप्त रहता हैं। इसी किस्त में पता चलता है कि उसे अखबार मालिकों के खबर बेचू चरित्र पर आपति है लेकिन वो खुद के गिरेबान में झांकने से पहले पलायन कर जाता है । उपन्यास के नायक का ये चरित्र चित्रण अपने आप में अनूठा है ,ये सिर्फ एक कहानी नहीं है, मीडिया और सेक्स की परिभाषा को समझाता हुआ बेहद अनूठा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी है ।

मीडिया में कई चीजें ऐसी हैं जिन पर हमें अपनी आंखें बंद कर लेनी चाहिए और अपनी आपत्ति जतानी चाहिए । मगर हम अपने होंठ सी कर रखते हैं । अगर अरुंधती राय , शोभा डे सेक्स से जुड़ा कुछ लिखती हैं तो हम उन की समीक्षाएं लिखते हैं । लेकिन जब दयानंद पांडेय जैसा कोई व्यक्ति जिस ने तमाम प्रलोभनों को ठुकरा कर एक अघोर पत्रकार बनना समीचीन समझ , कुछ लिखता है तो हम उसे अश्लीलता और फूहड़पन के तराजू में तौलने लगते हैं । मैं कितने ही पत्रकार मित्रों को जानता हूं जो दिन रात पोर्न साईट खोल कर बैठे रहते हैं । उन को भी जानता हूं , जो अपनी सहकर्मी महिलाओं के सामने और पीठ पीछे बेहद अश्लील टिप्पणियां करते हैं । उन के लिए ये उपन्यास शीशा है । यशवंत का इस उपन्यास को वेबसाईट पर प्रस्तुत करना और कड़वे सच को स्वीकार करना नि:स्संदेह बेहद साहस भरा है ।हमें अपना नजरिया तो बदलना होगा ही , खुद को भी पानी में उतरने का सलीका सीखना होगा ।

-आवेश तिवारी
सोनभद्र
2 फ़रवरी , 2010 भड़ास4मीडिया पर चल रहे एक विमर्श में

जवाब मैं ने भी लिखा :

मुज़रिम हाज़िर है!

हे पाठक मित्रों, आप का मुज़रिम, आप का गुनहगार हाज़िर है। यह यशवंत जी की भलमनसाहत है कि उन्होंने श्वेता रश्मि और राजमणि सिंह जी का नाराजगी भरा पत्र मेरी तरफ़ बढा दिया। नंगई का, अश्लीलता का आरोप मुझ पर है तो ज़ाहिर है जवाब भी मुझे ही देना होगा। कुछ बातें मैं पहले ही साफ कर दूं। थिएटर, पत्रकारिता और न्यायपालिका पर आधारित उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ उस दौर में लिखा गया था जब मैं अपने आस-पास की दुनिया से सख्त नाराज़ था। खुद एक रिपोर्टर होने के नाते अखबारनवीसी की दुनिया बहुत करीब से देखी-भोगी थी। और यकीन मानिए, इस कहानी में जितनी अश्लीलता आप मित्रों को दिख रही है, उस से कहीं अधिक अश्लीलता मैं ने अपने इर्द-गिर्द महसूस की। आप कह सकते हैं कि मैं ने अपने पत्रकारीय जीवन में एक नंगे यथार्थ को भोगा है और उसे कलमबंद करने की हिम्मत जुटाई। अदालत में जज के चैंबर से ले कर संपादक के केबिन तक, मैंने पूरे सिस्टम में एक खास तरह का नंगापन देखा। अगर मैं वह सब लिख देता तो बेशक मैं भी लोकप्रिय लेखकों में शुमार हो गया होता। कहीं ज़्यादा मशहूर होता। इस उपन्यास को ले कर मुझ पर अश्लीलता के ये आरोप नए नहीं हैं। इस उपन्यास पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में मुझ पर मुकदमा भी चल चुका है। अखबारों- पत्रिकाओं में बहुत कुछ छप चुका है। और अब कई साल बाद सोचता हूं तो पाता हूं कि कसूर मेरा ही था, है। मुझे कोई हक नहीं था कि मैं अपने अंदर की कुंठाओं और ज़माने के प्रति अपनी नाराज़गी को एक उपन्यास की शक्ल देता।

उपन्यास के ज़रिए पत्रकारिता से ले कर थिएटर और विधानसभा से ले कर न्यायपालिका तक जिन गंभीर सवालों को मैं उठाना चाहता था, उठाया भी, पर अश्लीलता की आड़ में उन की हत्या कर दी गई। मैं तो सिर्फ़ आइना ले कर खड़ा था और मुझ पर पत्थरों की बारिश शुरू हो गई। तब भी, अब भी। श्वेता रश्मि और राजमणि सिंह जैसे निहायत शरीफ़ लोग अगर इस तरह के नंगे यथार्थ को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ज़ाहिर है कि यह दुनिया उन के लिए नहीं है। हाल के महीनों में जो खबरें सामने आई हैं, उससे मैं यह भी नहीं कह सकता कि आशाराम बापू जैसे संतों के आश्रम भी उन के लिए सब से महफूज़ जगह है।

साहित्य में अश्लीलता पर बहस बहुत पुरानी है। यह तय करना बेहद मुश्किल है कि क्या अश्लील है और क्या श्लील। एक समाज में जो चीज़ अश्लील समझी जाती, वह दूसरे समाज में एकदम शालीन कही जा सकती है। यह जो एस.एम.एस. पर नान वेज़ जोक्स का ज़खीरा है, उस से कौन अपरिचित है भला? श्वेता जी और राजमणि जी क्या इस सच से भी परिचित नहीं हैं? भाई जो इतने शरीफ़ और नादान हैं तो मुझे फिर माफ़ करें। अभी ‘अपने-अपने युद्ध’ के जिस हिस्से पर यह दोनों लोग आहत हुए हैं, वह एक नानवेज़ लतीफ़ा ही तो है! खैर!

ऐसे तो हमारे लोकगीतों और लोक परंपराओं में कई जगह गज़ब की अश्लीलता है। मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखता हूं। हमारे यहां शादी व्याह में आंगन में आई बारात को भोजन के समय दरवाज़े के पीछे से छुप कर घूंघट में महिलाएं लोक गीतों के माध्यम से जैसी गालियां गाती हैं उसे राजमणि जी घोर अश्लील कह सकते हैं। श्वेता रश्मि जी तो खुद महुआ चैनल की प्रोडयूसर हैं। पता नहीं उन के कार्यक्रम भौजी नंबर वन को बनाने में उन की क्या भूमिका है। इस कार्यक्रम में भौजियों की भाव-भंगिमा और उनके शरीर के कुछ विशेष अंगों का विस्फोटक प्रदर्शन एक खास तरह की भदेस अश्लीलता का दर्शन कराता है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में यह कार्यक्रम मशहूर है क्यों कि उन का समाज इस में रस लेता है और ऐसे शो की स्वीकृति देता है। पर मेट्रो के दर्शकों को यह कार्यक्रम अश्लील लग सकता है। फ़र्क सिर्फ़ हमारे सामाजिक परिवेश का है।

एक मुहावरा हमारे यहां खूब चलता है–का वर्षा जब कृषि सुखाने ! वास्तव में यह तुलसीदास रचित रामचरित मानस की एक चौपाई का अंश है। एक वाटिका में राम और लक्ष्मण घूम रहे हैं। उधर सीता भी अपनी सखियों के साथ उसी वाटिका में घूम रही हैं, खूब बन-ठन कर। वह चाहती हैं कि राम उन के रूप को देखें और सराहें। वह इस के लिए आकुल और लगभग व्याकुल हैं। पर राम हैं कि देख ही नहीं रहे हैं। सीता की तमाम चेष्टा के बावजूद। वह इस की शिकायत और रोना अपनी सखियों से करती भी हैं, आजिज आ कर। तो सखियां समझाती हुई कहती हैं कि अब तो राम तुम्हारे हैं ही जीवन भर के लिए। जीवन भर देखेंगे ही, इस में इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है? तो सीता सखियों से अपना भड़ास निकालती हुई कहती हैं—का वर्षा जब कृषि सुखाने !

यह तब है जब तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और फिर मानस में श्रृंगार के एक से एक वर्णन हैं। केशव, बिहारी आदि की तो बात ही और है। वाणभट्ट की कादंबरी में कटि प्रदेश का जैसा वर्णन है कि पूछिए मत। भवभूति के यहां भी एक से एक वर्णन हैं। हिंदुस्तान में शिवलिंग आदि काल से उपासना गृहों में पूजनीय स्थान रखता है। श्रद्धालु महिलाएं शिवलिंग को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर अपना माथा उस से स्पर्श कराती हैं। यही शिवलिंग पश्चिमी समाज के लोगों के लिए अश्लीलता का प्रतीक है।

कालिदास ने शिव-पार्वती की रति क्रीड़ा का विस्तृत, सजीव और सुंदर वर्णन किया है। कालिदास ने शंकर की तपस्या में लीन पार्वती का वर्णन किया है। वह लिखते हैं—- पार्वती शिव जी की तपस्या में लीन हैं। कि अचानक ओस की एक बूंद उन के सिर पर आ कर गिर जाती है। लेकिन उन के केश इतने कोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के कपोल पर आ गिरती है। कपोल भी इतने सुकोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के स्तन पर गिर जाती है। और स्तन इतने कठोर हैं कि ओस की बूंद टूट कर बिखर जाती है, धराशाई हो जाती है। कालिदास के लेखन को उन के समय में भी अश्लील कहा गया। प्राचीन संस्कृत साहित्य से ले कर मध्ययुगीन काव्य परंपरा है। डीएच लारेंस के ‘लेडीज़ चैटरलीज़ लवर’ पर अश्लीलता के लंबे मुकदमे चले। अदालत ने भी इस उपन्यास को अश्लील माना लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि साहित्य में ऐसे गुनाह माफ़ हैं। ब्लादिमीर नाबकोव की विश्व विख्यात कृति ‘लोलिता’ पर भी मुकदमा चला। लेकिन दुनिया भर के सुधि पाठकों ने उन्हें भी माफ़ कर दिया।

आधुनिक समकालीन लेखकों में खुशवंत सिंह, अरूंधति राय, पंकज मिश्रा, राजकमल झा हिंदी में डा. द्वारका प्रसाद, मनोहर श्याम जोशी, कृश्न बलदेव वैद्य उर्दू में मंटो, इस्मत चुगताई आदि की लंबी फ़ेहरिश्त है। मैं कालिदास, लारेंस या ब्लादिमीर जैसे महान रचनाकारों से अपनी तुलना नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ़ उन की तरह अपने गुनाह कबूल कर रहा हूं।

साहित्यिक अश्लीलता से बचने का सब से बेहतर उपाय यह हो सकता है कि उसे न पढ़ा जाए। यह एक तरह की ऐसी सेंसरशिप है जो पाठक को अपने उपर खुद लगानी होती है। श्वेता जी ने ठीक कहा इस तरह की सामग्री एक विशेष वर्ग को ही पसंद हो सकती है। लेकिन यथार्थवादी पाठकों का एक बड़ा वर्ग है जो काल्पनिक परी कथाओं की दुनिया से ऊब चुका है। मेरी कथा का नायक संजय और उस का सहयोगी चरित्र अजय शेक्सपियर के डायलाग्स सुनाता है। दुष्यंत कुमार की शायरी पर बात करता है। वह सेक्स पर भी बात करता है, नानवेज़ लतीफ़े सुनाता है और ऐसा करते वक्त वह ठेठ युवा भी बन जाता है। उस की आंखों के सामने ब्लू फ़िल्मों के कुछ उत्तेजक दृश्यों के टुकडे़ होते हैं, जवानी के दिनों की कुछ संचित कुंठाएं होती हैं और इसे प्रकट करने के लिए उस के पास कुछ प्रचलित शब्दावलियां हैं–तो बस कबड्डी-कबड्डी। गया और आया। उस के पास दिल्ली के खुशवंत सिंह जैसे खूबसूरत शब्द नहीं जो वह कहे— मैं दाखिल होते ही खारिज़ हो गया!

खैर इसे जाने दें। असल बात मैं कहना चाहता हूं कि अश्लीलता देखनी हो तो अपने चैनलों और अखबारों से शुरू कीजिए। जहां पचासों लोगों को बिना नोटिस दिए मंदी के नाम पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। पूंजीपति जैसे चाह रहे हैं आप को लूट रहे हैं। हर जगह एम आर पी है लेकिन किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य। आखिर क्यों? कार के दाम घट रहे हैं, ट्रैक्टर महंगे हो रहे हैं। मोबाइल सस्ता हो रहा और खाद-बीज मंहगे हो रहे हैं। एक प्रधानमंत्री जब पहली बार शपथ लेता है तो भूसा आंटे के दाम में बिकने लगता है। वही जब दूसरी बार शपथ लेता है तो दाल काजू-बादाम के भाव बिकने लगती है।

तो मित्रों अश्लीलता यहां है, अपने-अपने युद्ध में नहीं। वैसे भी आप इस के छोटे- छोटे हिस्से पढ़ रहे हैं। जब इसे समग्रता में पढ़ेंगे तो यह उपन्यास आप को जीवन लगेगा। हां, अगर हमारा जीवन ही अश्लील हो गया हो तो समाज का दर्पण कहे जाने वाले साहित्य में आप देखेंगे क्या?

आप का,

दयानंद पांडेय

लेखक

‘अपने-अपने युद्ध’

30 अगस्त , 2009 को भड़ास4मीडिया पर चल रहे एक विमर्श में

भड़ास वाले यशवंत सिंह बताते हैं कि भड़ास पर लोग आज भी मेरे उपन्यास खूब पढ़ते हैं। खास कर अपने-अपने युद्ध। अपने-अपने युद्ध के बाद यशवंत सिंह ने मेरे और भी चार उपन्यास धारावाहिक भड़ास पर छापे। कहानियां भी। इन पर भी चर्चा हुई भड़ास पर। लेकिन अपने-अपने युद्ध जैसी तो नहीं ही हुई। 2012 में मेरा ब्लाग सरोकारनामा भी बना। सरोकारनामा पर मेरा लिखा लगभग अस्सी प्रतिशत उपस्थित है। लगभग हर विधा में। 10 उपन्यास भी हैं मेरे। लेकिन उपन्यासों में सरोकारनामा पर अपने-अपने युद्ध आज भी सब से ज़्यादा पढ़ा जाता है।

अपने-अपने युद्ध की एक कैफियत यह भी है कि अगर यह उपन्यास तब नहीं लिखा होता तो शायद आत्महत्या कर लिए होता। यह उपन्यास मेरी जिंदगी में तब सेफ्टी वाल्व बन कर उपस्थित हुआ था। मैं कहता ही रहता हूं कि लिखना मुझे मुक्ति देता है। तो अपने-अपने युद्ध लिख कर मन ने अपने को , अपने तनाव को मुक्ति दिया था  मैं ने । नहीं उन दिनों तो स्थिति यहां तक आ गई थी कि भगवान से भी भरोसा उठ गया था। कई बार मन हुआ था कि घर में रखी भगवान की मूर्तियां और फ़ोटो आदि भी उठा कर फेंक दूं।


जब कंटेम्प्ट का मुकदमा लड़ रहा था तब एक दिन घर पर फोन आया कि मैं डी एस पी एस पी एन राय शर्मा बोल रहा हूं। आप से मिलना चाहता हूं। मैं ने पूछा , ' आप के घर आ जाऊं ?' वह बोले , ' नहीं। न आप मेरे घर आएंगे , न मैं आप के घर। हम लोग काफी हाऊस में मिलेंगे। '

' सब ठीक तो है न ?' मैं ने पूछा।

' हां , सब ठीक है। बस मिलना था , आप से बतियाना था। ' फिर उन्हों ने समय तय कर दिया कि , ' इसी समय मिलते हैं। '

मैं गया तय समय पर काफी हाऊस। शर्मा जी पहले ही से उपस्थित थे। उन के हाथ में अपने-अपने युद्ध उपन्यास था। पायनियर से मुकदमे में मेरी वकील रहीं विश्वमोहिनी शर्मा के पिता शर्मा जी की यातना यह थी कि वह डी एस पी नियुक्त हुए थे , डी एस पी ही रिटायर हो गए। यह उन के ईमानदार होने की कीमत थी। भ्रष्ट पुलिस विभाग में रह कर वह हर गलत कार्य का विरोध करते रहे। और भ्रष्ट पुलिस अफ़सर उलटे शर्मा जी के खिलाफ विभागीय जांच करवाते रहते। एक जांच खत्म होती , दूसरी शुरू हो जाती। किसी जांच में वह दोषी नहीं पाए जाते लेकिन दिक्कत यह थी कि जांच लंबित रहने तक कोई प्रमोशन नहीं मिलता। तो ज़िंदगी भर जांच झेलते हुए शर्मा जी बतौर डी एस पी ही रिटायर होने के लिए अभिशप्त हो गए। लेकिन हर प्रमोशन के लिए वह मुकदमा ज़रूर दायर करते रहे। विभाग में जांच और कचहरी में मुकदमा लड़ते हुए उन का जीवन बीता। शर्मा जी के पिता भी डिप्टी कलक्टर से रिटायर हुए थे। बेटे की ईमानदारी और जुझारूपन पर उन्हें बहुत नाज़ था। लगातार बेटे को हौसला देते रहते थे। शर्मा जी के मुकदमे इतने बढ़ते गए कि अपना मुकदमा लड़ने  के लिए अपनी एक बेटी विश्वमोहनी राय शर्मा को वकील बनवा दिया। विश्वमोहिनी जी उन का मुकदमा लड़ ही रही थीं , पायनियर प्रबंधन से जब मेरा विवाद हुआ तो मेरा भी मुकदमा लड़ना शुरू कर दिया। मैं तब बेरोजगार था , सड़क पर था। तो विश्वमोहनी जी मुझ से कभी कोई फीस नहीं लेती थीं। कभी-कभार टाइपिंग , स्टैम्प वगैरह के खर्च की बात और थी। किसी एक्टिविस्ट की तरह मेरा मुकदमा लड़ा विश्वमोहिनी जी ने। हाई कोर्ट के गलियारों में जब विश्वमोहिनी जी को चलते देखता तो सोचता कि अगर कोई फ़िल्मकार विश्वमोहिनी जी पर फिल्म बनाए तो इन की भूमिका के लिए शबाना आज़मी ही ठीक रहेंगी। जाने क्यों ऐसा बार-बार सोचता। विश्वमोहिनी जी के सहयोगी विमल जी भी मेरे मुकदमे में पूरी दिलचस्पी लेते। उन के भाई आशुतोष राय शर्मा जी भी।  ऐसे जैसे पूरा परिवार ही मेरा मुकदमा लड़ रहा था। हर कोई मुझे सांत्वना देता रहता।

मेरा मुकदमा लड़ते-लड़ते विश्वमोहिनी जी ने मुझे अपने परिवार का सदस्य जैसा बना लिया तो घर के सभी सदस्यों से परिचय भी हो गया। उन के पिता शर्मा जी से भी। अकसर उन से बात होती। लेकिन उस दिन वह अपने-अपने युद्ध पढ़ कर काफी हाऊस में बैठे थे। मुझ से बतियाने के लिए। हालां कि उन का संघर्ष अपने-अपने युद्ध के संजय से कहीं बड़ा था पर वह संजय के संघर्ष से बहुत प्रभावित थे। अपने-अपने युद्ध को उन्हों ने कई बार पढ़ा था और बड़े मन से पढ़ा था। एक-एक फ्रेम पर वह विस्तार से बात करते रहे। और उसे अपने संघर्ष से जोड़ते रहे। कहने लगे कि , ' कई बार तो आत्महत्या करने की भी इच्छा हुई , आप के संजय को भी हुई क्या ? '

' ऐसा तो नहीं हुआ। पर हां , भगवान आदि से भरोसा उठ गया था। '

' हां , आप के संजय के पास तो तमाम नायिकाएं थीं। अपना तनाव दूर कर लेता था। गम गलत कर लेता था। लेकिन मैं कहां जाऊं ? '  कह कर वह रुआंसे हो गए।

थोड़ी देर हम दोनों चुप रहे। फिर घर जाने के लिए विदा ली।

इस के बाद अकसर उन के घर पर मुलाकात होती। फोन पर बात होती। अचानक एक सुबह उन का फोन आया , ' मैं रिटायर्ड डी आई जी एस पी एन राय शर्मा बोल रहा हूं। ' मैं नींद में ही था फिर भी चैतन्य हो गया और पूछा , ' डी एस पी से अचानक डी आई जी ! कुछ समझा नहीं ?'

' मैं मुकदमा जीत गया हूं। ' वह चहकते हुए बोले , ' अब हाई कोर्ट ने मुझे डी आई जी बना दिया है।  '

' पर अब डी आई जी बन जाने से क्या फ़ायदा ?'

' बहुत से फ़ायदे हैं। ' वह बोले , ' एक तो मैं अब अपने नाम के आगे रिटायर्ड डी आई जी लिख सकता हूं , बोल सकता हूं , बता सकता हूं। तो इस तरह मुझे अपनी प्रतिष्ठा मिल गई। दूसरे , अब बकाया वेतन का पूरा एरियर मिलेगा। तीसरे , पेंशन भी अब बढ़ कर मिलेगी। ' वह चहके और बोले , ' इस से बड़ी बात अब मैं विजेता हूं। हारा हुआ नहीं। प्रतिष्ठित मौत मिलेगी। चैन से मर सकता हूं। दिल पर कोई बोझ नहीं है अब। ' फिर उन्हों ने सांत्वना दी मुझे कि , ' घबराईए नहीं , आप की भी जीत होगी। '

अलग बात है कि मेरी जीत कभी नहीं हुई। क्यों कि पायनियर अख़बार और कंपनी ही भस्म हो गई। शायद मेरी आह लग गई। अकसर मैं एक शेर सुनाता रहता हूं :

मैं वो आशिक नहीं जो बैठ के चुपके से गम खाए
यहां तो जो सताए या आली बरबाद हो जाए।

तो पायनियर और स्वतंत्र भारत बरबाद हो गए। एक पूरा संस्थान समाप्त हो गया। उस वकील पी के खरे की भी बहुत बुरी मौत हुई। तमाम क़ुरबानी और समझौते के बावजूद बुलबुल गोडियाल भी जस्टिस नहीं बन पाईं। क्यों कि इधर पैनल में उन का नाम जाता तो दूसरी तरफ बुलबुल गोडियाल के शुभचिंतक लोग अपने-अपने युद्ध का वह आपरेटिव पोर्शन भी भेज देते , जिस में उन का चरित्र चित्रण था और उन का नाम लटक जाता। गौरतलब है कि बुलबुल ने वकालत की पैतरेबाजी में पायनियर से मेरा जीता हुआ मुकदमा हार में तब्दील कर दिया था। हुआ यह कि हाई कोर्ट का आर्डर कंप्लायंस न होने पर मैं ने  पायनियर मैनेजमेंट के खिलाफ कंटेम्पट आफ कोर्ट दायर किया ।

एक कमीने वकील थे पी के खरे । पायनियर के वकील थे । काला कोट पहने अपने काले और कमीने चेहरे पर बड़ा सा लाल टीका लगाते थे । कहते फिरते थे कि मैं चलती-फिरती कोर्ट हूं । लेकिन सिर्फ तारीख लेने के मास्टर थे । कभी बीमारी के बहाने , कभी पार्ट हर्ड के बहाने , कभी इस बहाने , कभी उस बहाने सिर्फ और सिर्फ तारीख लेते थे । बाहर बरामदे में कुत्तों की तरह गश्त करते रहते थे और उन का कोई जूनियर बकरी की तरह मिमियाते हुआ कोर्ट में कोई बहाना लिए खड़ा हो जाता , तारीख मिल जाती । एक बार इलाहाबाद से जस्टिस पालोक बासु आए । सुनता था कि बहुत सख्त जज हैं । वह लगातार तीन दिन तारीख पर तारीख देते रहे । अंत में एक दिन पी के खरे के जूनियर पर वह भड़के , आप के सीनियर बहुत बिजी रहते हैं ? जूनियर मिमियाया , यस मी लार्ड  ! तो पालोक बसु ने भड़कते हुए एक दिन बाद की तारीख़ देते हुए कहा कि शार्प 10-15 ए एम ऐज केस नंबर वन लगा रहा हूं । अपने सीनियर से कहिएगा कि फ्री रहेंगे और आ जाएंगे । लोगों ने , तमाम वकीलों ने मुझे बधाई दी और कहा कि कमीने खरे की नौटंकी अब खत्म । परसों तक आप का कम्प्लायन्स हो जाएगा । सचमुच उस दिन पी के खरे अपने काले चेहरे पर कमीनापन पोते हुए , लाल टीका लगाए कोर्ट में उपस्थित दिखे । पूरे ठाट में थे । ज्यों ऐज केस नंबर वन पर मेरा केस टेक अप हुआ , बुलबुल सी बोलने वाली सुंदर देहयष्टि वाली , बड़े-बड़े वक्ष वाली एक वकील साहिबा खड़ी हो गईं , वकालतनामा लिए कि अपोजिट पार्टी फला की तरफ से मैं केस लडूंगी । मुझे केस समझने के लिए , समय दिया जाए । पालोक बसु उन्हें समय देते हुए नेक्स्ट केस की सुनवाई पर आ गए । मैं हकबक रह गया । पता चला बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा वकील बुलबुल गोडियाल की देह गायकी में पालोक बसु सेट हो चुके थे । मेरा केस बाकायदा जयहिंद हो चुका था । बाद में यह पूरा वाकया मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में दर्ज किया । इस से हुआ यह कि बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा बुलबुल गोडियाल जस्टिस होने से वंचित हो गईं । मोहतरमा सारी कलाओं से संपन्न थीं ही , रसूख वाली भी थीं । इन के पिता कामरेड रॉबिन मित्रा , कामरेड के नाम पर कलंक भले थे , राजनीतिक सेटिंग में मास्टर थे।  सो जस्टिस के लिए बुलबुल का नाम तीन-तीन बार पैनल में गया । लेकिन उन का नाम इधर पैनल में जाता था , उधर उन के शुभचिंतक लोग मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के वह पन्ने जिस में उन का दिलचस्प विवरण था ,  फ़ोटोकापी कर राष्ट्रपति भवन से लगायत गृह मंत्रालय , कानून मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट भेज देते । हर बार वह फंस गईं और जस्टिस होने से वंचित हो गईं ।

संयोग यह कि जिस नए अख़बार में बाद में मैं गया , वहां वह पहले ही से पैनल में थीं । मेरे खिलाफ कंटेम्प्ट का मुकदमा करवाने के बाद वहां भी मेरी नौकरी खाने की गरज से मैनेजमेंट में मेरी ज़बरदस्त शिकायत कर बैठीं । मैं ने उन्हें संक्षिप्त सा संदेश भिजवा दिया कि मुझे तो फिर कहीं नौकरी मिल जाएगी पर वह अभी एक छोटे से हवा के झोंके में फंसी हैं , लेकिन अगर उन के पूरे जीवन वृत्तांत का विवरण किसी नए उपन्यास में लिख दिया तो फिर उन का क्या होगा , एक बार सोच लें।  सचमुच उन्हों ने सोच लिया। और खामोश हो गईं। मैं ने उस संस्थान में लंबे समय तक नौकरी की। वहीँ से रिटायर भी हुआ।

लेकिन मैं ने स्वतंत्र भारत और पायनियर की ज़मीन पर दो उपन्यास ज़रूर लिखे। एक अपने-अपने युद्ध और दूसरा , हारमोनियम के हज़ार टुकड़े। यह दोनों उपन्यास लिख कर जो संतोष और सुख मिला वह अनिर्वचनीय है। अब अपने-अपने युद्ध पेपर बैक में आप के हाथ में फिर से है। इस लिए भी कि युद्ध  कभी किसी का समाप्त नहीं होता। ज़िंदगी अपने आप में एक युद्ध ही तो है। अपने-अपने युद्ध का यह पेपरबैक संस्करण अब हमारे हाथ में है। मतलब नई बोतल में , पुरानी शराब। पुरानी शराब की तासीर मयकश खूब जानते हैं। मतलब पाठक भी। अपने-अपने युद्ध सिर्फ़ उपन्यास नहीं है , शराब भी है। जिस का नशा कभी नहीं उतरता। इस पुरानी शराब को नई बोतल में परोसने के लिए अमन प्रकाशन , कानपुर के अरविंद वाजपेयी का बहुत आभार।

यह उपन्यास अपने-अपने युद्ध पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


1. अपने-अपने युद्ध 






14 comments:

  1. क्या खूब लिखा है। अपने अपने युद्ध तो अद्भुत होगा ही।

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  2. युद्ध की यह कहानी तो और भी रोचक और रोमांचक है ।

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  3. क्या लेखनी ,पूरा पढ़े बिना नही रह पाएगा कोई

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    1. पवन कुमार भारद्वाज

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  4. निःसंदेह यह उपन्यास क्रन्तिकारी होगा। मैं तो कहूंगा कि आज के परिवेश के यथानुरूप इसका सिक्विल लिखा जाना चाहिए।कुछ भी बदला नही है अपितु मूल्यों में और गिरावट आयी है।

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  5. उपन्यास से ज्यादा रोचक केस। साहित्य जगत की दुरभिसंधियों की कलुषता की जानकारी।

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  6. गजब लिखा हे साहेब

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  7. गजब लिखा हे साहेब

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  8. पता सबको है पर लिखने का साहस विरले ही कर सकते हैं। आपके साहस को कोटिशः प्रणाम 🙏🙏

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  9. वाह सर 🙏✍️🙏🙏

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  10. इसीलिए 'अपने अपने युद्ध' उपन्यास को मैंने अपनी एक भावी आलोचना की पुस्तक में शामिल किया है। यह उपन्यास किसी भी हिन्दी लेखक के साहस की पराकाष्ठा है।

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  11. Deo Nath Dwivedi सरोकारनामा पर "अपने अपने युद्ध" के लिखे जाने की कहानी पढ़ी। अब इसे पढ़ने का जतन भी करना है मुझे। हो सकता है आपकी मदद भी लेनी पड़े ।

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  12. आदरणीय भाईसाहब जब ये प्रसंग अंश इतना रोचक हैं तो "अपने अपने युद्ध“ कितना रोमांचक होगा... सादर प्रणाम!

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