Tuesday, 2 February 2016

इश्क में कोई बड़ा भी जो पड़ जाए तो बच्चा लगने लगता है

फ़ोटो : निखिलेश त्रिवेदी

 ग़ज़ल

झूठ बोलना भी ज़िंदगी में कभी-कभी अच्छा लगने लगता है
इश्क में कोई बड़ा भी जो पड़ जाए तो बच्चा लगने लगता है

तुम से मिलने का वक्त तय हो और दीदार तुम्हारा हो मुश्किल
इंतज़ार करते भरी भीड़ में  तनहा रहना अच्छा लगने लगता है

तपती दोपहर हो या बरसता मौसम कोई मौसम मौसम नहीं रहता
तुम से मिलते ही प्रेम का पर्वत हिमालय बन कर पिघलने लगता है

प्रेम पत्र लिखते मेसेज भेजते वाट्स-अप करते-करते थकती है प्रेमिका भी
 फूल और तितली का मोहक खेल भी एक मोड़ पर फीका पड़ने लगता है

 साफ्टवेयर कैसा भी हो अपडेट मांगता मिलता है अगर अपडेट न हो तो 
एक वक्त के बाद प्रेम का नीला आकाश भी समंदर में गोते मारने लगता है

नशा पैसे का हो शराब का हो रुतबे या इश्क का संभलने नहीं देता
नशा तो आख़िर नशा है आदमी जैसा भी हो  लड़खड़ाने लगता है 

दुःख किसी को लाख घेरे ज़िंदगी और ख़ुशी में दोस्ती बहुत पुरानी है 
तकलीफ़ जैसी भी हो उबरते ही आदमी फिर से मुसकुराने लगता है 

ज़िंदगी की मैथमैटिक्स में अब स्वाभिमान कम समझौते ही ज़्यादा हैं
खाद और पानी समय से न मिले तो हरा-भरा खेत भी पियराने लगता है 

लेन-देन की ज़िंदगी में सच की नहीं विज्ञापन की बाजीगरी बढ़ती गई है
ऐसे में कोई भूले से अगर सच भी बोल जाए तो वह झूठा लगने लगता है

मूसलाधार बारिश हो और हवा में छाता भी उड़ जाए तो भीगना लाजिम
उधार जब ज़्यादा लंबा खिंच जाता है तो हर ऐरा-गैरा भी बोलने लगता है


[ 3 फ़रवरी , 2016 ]

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 04-02-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2242 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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